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गुरुवार, 11 जुलाई 2019

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-01)

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-पहला)
जीवन क्रांति की दिशा-(शून्य समाधि)
 दूसरा प्रवचन--जीवन में रहस्य-भाव
मेरे प्रिय आत्मन्!
जीवन ही परमात्मा है। जीवन के अतिरिक्त कोई परमात्मा नहीं। जीवन को जीने की कला जो जान लेते हैं वे प्रभु के मंदिर के निकट पहुंच जाते हैं। और जो जीवन से भागते हैं वे जीवन से तो वंचित होते ही हैं, परमात्मा से भी वंचित हो जाते हैं। इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल मैंने आपसे कहीं। पहला सूत्र मैंने कल आपसे कहा है: जीवन के प्रति अहोभाव, जीवन के प्रति आनंद और अनुग्रह की भावना।

लेकिन आज तक ठीक इससे उलटी बात समझाई गई है। आज तक यही समझाया गया है..जीवन से पलायन, एस्केप, जीवन की तरफ पीठ फेर लेनी, जीवन से दूर हट जाना, जीवन से मुक्त होने की कामना। आज तक यही सिखाया गया है। और इसके दुष्परिणाम हुए हैं। इसके कारण ही पृथ्वी एक नरक और दुख का स्थान बन गई है। जो पृथ्वी स्वर्ग बन सकती थी वह नरक बन गई है।


मैंने सुना है, एक संध्या स्वर्ग के द्वार पर किसी व्यक्ति ने जाकर दस्तक दी। पहरेदार ने पूछा, तुम कहां से आते हो? उसने कहा: मैं मंगल ग्रह से आ रहा हूं। पहरेदार ने कहा: तो अभी नरक जाओ। यह द्वार तुम्हारे लिए नहीं है। स्वर्ग के दरवाजे तुम्हारे लिए नहीं हैं। अभी नरक जाओ। वह आदमी अभी गया भी न था, कि उसके पीछे एक और आदमी ने द्वार खटखटाया। पहरेदार ने फिर पूछा, तुम कौन हो और कहां से आते हो? उसने कहा, मैं एक मनुष्य हूं और पृथ्वी से आता हूं। द्वारपाल ने दरवाजे खोल दिए और कहा, तुम भीतर आ जाओ। यू हैव बीन थ्रू हेल अॅालरेडी। तुम नरक मे रह कर ही आ रहे हो। अब तुम्हें और किसी नरक जाने की कोई जरूरत नहीं है।
मनुष्य ने पृथ्वी की जो दुर्गति कर दी है, वह बड़ी आश्चर्यजनक और देखने जैसी है। हैरानी जैसी है। और बहुत भले लोगों ने इस दुर्गति में हाथ बंटाया है। उन सारे लोगों ने, जिन्होंने जीवन की निंदा की है और जीवन का कंडेमनेशन किया है, जिन्होंने जीवन को असार और बुरा कहा है, जिन्होंने जीवन के प्रति घृणा सिखाई है, उन सारे लोगों ने पृथ्वी को नरक बनाने में हाथ बंटाया है।
इस संबंध में कल मैंने आपसे कहा, यह दुर्भाव छोड़ना होगा। धार्मिक मनुष्य के मन में, जीवन के प्रति एक धन्यता का, एक ग्रेटिट्यूड का भाव लाना होगा। जीवन उसे असार नहीं दिखाई पड़ता। और अगर कहीं जीवन असार मालूम होता है, तो वह समझता है कि मेरी कोई भूल होगी जिससे जीवन गलत दिखाई पड़ रहा है। जब भी जीवन गलत दिखाई पड़ता है, तो धार्मिक आदमी अपने को गलत समझता है। लेकिन मनुष्य की पुरानी भूलों में से एक यह है कि अपनी भूल को दूसरे पर थोप देने की हमारी पुरानी प्रवृत्ति है। अपनी गलती को, अपने दोष को, अपनी व्यर्थता को, अपनी मीनिंगलेसनेस को हम जीवन पर थोप कर मुक्त हो जाते हैं। जीवन ही दुख है। हम क्या करें?
सच्चाई दूसरी है, हम जिस चित्त को लिए बैठे हैं, वह दुख का सृजन करने वाला चित्त है। हम जिस मन को लिए बैठे हैं, हम जिन वृत्तियों को लिए बैठे हैं, वे वृत्तियां दुख को पैदा करने वाली हैं। और दुख को जन्म देने वाली वृत्तियां हैं। पृथ्वी वैसी ही हो जाती है जैसे हम हैं। हम, हम हैं मौलिक रूप से केंद्रीय, पृथ्वी नहीं।
एक छोटे से गांव के बाहर एक सुबह ही सुबह एक बैलगाड़ी आकर रुकी थी। और उस बैलगाड़ी में बैठे हुए आदमी ने उस गांव के द्वार पर बैठे हुए एक बूढ़े से पूछा, इस गांव के लोग कैसे हैं? मैं इस गांव में हमेशा के लिए स्थायी निवास बनाना चाहता हूं। उस बूढ़े ने कहा: मेरे मित्र, अजनबी मित्र, इसके पहले कि मैं तुम्हें बताऊं कि इस गांव के लोग कैसे हैं, क्या मैं पूछ सकता हूं कि उस गांव के लोग कैसे थे, जिससे तुम आ रहे हो?
उस आदमी ने कहा: उनका नाम और उनका ख्याल ही मुझे क्रोध और घृणा से भर देता है। उन जैसे दुष्ट लोग इस पृथ्वी पर कहीं भी नहीं होंगे। उन शैतानों के कारण ही, उन पापियों के कारण ही तो मुझे वह गांव छोड़ना पड़ा है। मेरा हृदय जल रहा है। मैं उनके प्रति घृणा से और प्रतिशोध से भरा हुआ हूं। उनका नाम भी न लें। उस गांव की याद भी न दिलाएं।
उस बूढ़े ने कहा: फिर मैं क्षमा चाहता हूं। आप बैलगाड़ी आगे बढ़ा लें। इस गांव के लोग और भी बुरे हैं। मैं उन्हें बहुत वर्षों से जानता हूं।
वह बैलगाड़ी आगे बढ़ी भी नहीं थी कि एक घुड़सवार आकर रुक गया और उसने भी यहीपूछा उस बूढ़े से कि इस गांव में निवास करना चाहता हूं। कैसे हैं इस गांव के लोग?
उस बूढ़े ने कहा: उस गांव के लोग कैसे थे जहां से तुम आते हो? उस घुड़सवार की आंखों में आनंद के आंसू आ गए। उसकी आंखें किसी दूसरे लोक में चली गईं। उसका हृदय किन्हीं की स्मृतियों से भर गया और उसने कहा, उनकी याद भी मुझे आनंद से भर देती है। कितने प्यारे लोग थे। और मैं दुखी हूं कि उन्हें छोड़ कर मुझे मजबूरियों में आना पड़ा है। लेकिन एक सपना मन में है कि कभी फिर उस गांव में वापस लौट कर बस जाऊं। वह गांव ही मेरी कब्र बने, यही मेरी कामना है। बहुत भले थे वे लोग। उनकी याद न दिलाना। उनकी याद से ही मेरा दिल टूटा जाता है। उस बूढ़े ने कहा: इधर आओ, हम तुम्हारा स्वागत करते हैं। इस गांव के लोगों को तुम उस गांव के लोगों से भी अच्छा पाओगे। मैं इस गांव के लोगों को भलीभांति जानता हूं।
काश, वह पहला बैलगाड़ी वाला आदमी भी इस बात को सुन लेता। लेकिन वह जा चुका था।
लेकिन आपको मैं ये दोनों बातें बताए देता हूं। इसके पहले कि आपकी बैलगाड़ी पृथ्वी के द्वार से आगे बढ़ जाए, मैं आपको यह कह देना चाहता हूं कि इस पृथ्वी पर आप वैसे ही लोग पाएंगे जैसे आप हैं। इस पृथ्वी को आप आनंदपूर्ण पाएंगे, अगर आपके हृदय में आनंद की वीणा बजनी शुरू हो गई हो। और इस पृथ्वी को आप दुख से भरा हुआ पाएंगे, अगर आपके हृदय का दीया बुझा है और अंधकारपूर्ण है। आपके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है पृथ्वी! जीवन वही है जो आप हैं।
जीवन को हम किस दृष्टि से देखते हैं? धार्मिक व्यक्ति जीवन से भागने वाला व्यक्ति नहीं है। भागने वाले होते होंगे कमजोर! भागने वाले होते होंगे सुस्त और आलसी! भागने वाले होते होंगे डरपोक, कावर्ड, जिन्हें जीवन का सामना करने का साहस और हिम्मत नहीं है!
धार्मिक व्यक्ति से ज्यादा साहसी तो कोई होता ही नहीं। उससे ज्यादा करेज तो किसी के भीतर होता नहीं। धार्मिक व्यक्ति भागता नहीं, स्वयं को बदलता है। और स्वयं की बदलाहट के साथ ही पाता है कि सारा जीवन बदल गया है। जिस दिन वह खुद को बदल लेता है, उसी दिन पाता है कि सारे जीवन की पूरी स्थिति बदल गई है, जीवन कुछ और हो गया है।
हमारी आंखों पर निर्भर है वह, जिसे हम देखते हैं। और हमारे प्राणों पर निर्भर है वह, जिसका हम अनुभव करते हैं। यह बात मैंने कल आपसे कही..आनंदभाव, जीवन के प्रति अहोभाव, जीवन के प्रति अनुग्रह का बोध। यह धार्मिक व्यक्ति की पहली जीवन-क्रांति का सूत्र है। आज दूसरे सूत्र पर मुझे बात करनी है।
दूसरा सूत्र है: जीवन के प्रति आश्चर्य का बोध! तीन हजार वर्षों में अगर मनुष्य ने कोई चीज खो दी है, तो आश्चर्य खो दिया है। आश्चर्य के साथ ही खो गया है धर्म! आश्चर्य के साथ ही खो गया है जीवन का रहस्य। आश्चर्य के साथ ही खो गया है वह सब जो मिस्टीरियस है, वह सब जो रहस्यपूर्ण है।
आश्चर्य हमने कैसे खो दिया है? छोटे बच्चे तो आज भी आश्चर्य को लेकर पैदा होते हैं। लेकिन मां-बाप उनके आश्चर्य की गर्दन घोंट देते हैं। छोटे बच्चे तो आज भी वैसे ही पैदा होते हैं जैसे पहले होते थे। लेकिन उनके आश्चर्य को हम उनके बोध के जगने के पहले ही नष्ट कर देते हैं। हमारी सारी शिक्षा-संस्थाएं, हमारी सारी संस्कार देने वाली व्यवस्था, हमारा समाज, हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति, एक चीज की बुनियादी शत्रु है, और वह चीज है आश्चर्य का भाव।
पहले तो धर्मों ने आश्चर्य के भाव को नष्ट कर दिया। कैसे किया? जीवन में जो-जो अज्ञात था, अननोन था और अज्ञात ही नहीं, जो-जो अज्ञेय था, अननोएबल था, धर्मों ने यह घोषणा कर दी कि हम सब जानते हैं। धर्मों ने कह दिया कि सृष्टि कैसे बनी, हमें पता है। कितने दिन में बनी है, हमें पता है। किस तारीख पर, किस सदी में और किस सन् में बनी है, यह हमें पता है। परमात्मा ने क्यों प्रकृति और सृष्टि बनाई, यह हमें पता है। धार्मिक लोगों ने बहुत बड़ा असत्य बोला है। दुनिया में इससे बड़ा कोई असत्य नहीं हो सकता था कि हमें पता है कि जीवन कैसे जन्मा? कि हमें पता है कि परमात्मा क्या है?
परमात्मा और जीवन है अज्ञात। अज्ञात ही नहीं, अज्ञेय। अननोन ही नहीं, अननोएबल।
लेकिन धर्मों ने यह घोषणा की कि हमें पता है। धर्मगुरुओं ने यह घोषणा की कि हमें मालूम है। उन्होंने इतने जोर से दावा किया कि हमें पता है। और फिर उन्होंने यह भी कहा कि अगर कोई कहेगा कि हमें पता नहीं है, या कोई अगर सिद्ध करना चाहेगा कि तुम अज्ञानी हो, तो हम अपनी दलील को तलवार से सिद्ध करके बता देंगे कि हम जो कहते हैं वह ठीक है। जिसके हाथ में तलवार है, वह जो कहता है, ठीक है। मनुष्य को पता नहीं है कुछ भी। मनुष्य का अज्ञान बहुत गहरा है। लेकिन कुछ अहंकारी लोगों ने, कुछ ऐसे लोगों ने, जो यह स्वीकार नहीं कर सकते थे कि हम नहीं जानते हैं। क्योंकि न जानने की स्वीकृति बहुत बड़ी ह्युमिलिटी है, बहुत बड़ी विनम्रता है। जो वस्तुतः धार्मिक होता है, उसी में यह विनम्रता होती है कि मैं नहीं जानता हूं। लेकिन पंडित में यह विनम्रता नहीं होती कि मैं नहीं जानता हूं। उसकी घोषणा होती है कि मैं जानता हूं। न केवल यही, कि मैं जानता हूं बल्कि दूसरे जो जानते हैं, गलत जानते हैं। ठीक तो केवल मैं ही जानता हूं। मेरी किताब ठीक, मेरा संप्रदाय ठीक, मेरे तीर्थंकर ठीक, मेरे पैगंबर ठीक, मेरे अवतार ठीक। मैं जो जानता हूं, वही ठीक है और बाकी सब गलत है। इस तरह की घोषणाओं की निरंतर पुनरुक्ति ने, और बच्चों के मन में बचपन से ही इन बातों को प्रविष्ट करा देने से, वह जो जीवन में अज्ञात था, वह विलीन हो गया, छिप गया। हमें लगने लगा कि हम सब कुछ जानते हैं। और जब मनुष्य को लगने लगता है कि मैं सब कुछ जानता हूं, तब आश्चर्य की कोई संभावना नहीं रह जाती। तब विस्मय का कोई कारण नहीं रह जाता। तब मिस्टीरियस के प्रविष्ट होने का कोई द्वार नहीं रह जाता। आदमी अपने ज्ञान के कारागृह में ही बंद हो जाता है। और वह चारों तरफ जो अज्ञात मौजूद है, उसके लिए कोई दरवाजा, कोई खिड़की नहीं रह जाती कि उससे प्रवेश कर सके।
तो पहले तो धर्मों ने मनुष्य के आश्चर्य की हत्या की..धर्मशास्त्रों ने, धर्मगुरुओं ने। फिर पीछे उनके आया विज्ञान। और विज्ञान ने और भी मनुष्य को यह ख्याल दे दिया कि हम सब जानते हैं। विज्ञान ने भी फिक्शन खड़े किए। धर्मों ने भी खड़े किए थे। कल्पना के लोक विज्ञान ने भी खड़े किए।
क्रिश्चियन कहते हैं: ईसा से चार हजार वर्ष पूर्व दुनिया की सृष्टि की परमात्मा ने। छह दिन में सृष्टि की और सातवें दिन विश्राम किया..रविवार के दिन। यह सब इन्हें पता है। फिर विज्ञान आया और विज्ञान ने पुरानी कल्पनाओं के लिए तो कहा कि ये कल्पनाएं हैं, फिक्शंस हैं! लेकिन नई कल्पनाएं खड़ी कर दीं। वैज्ञानिक कहते हैं कि नहीं, परमात्मा ने सृष्टि की, यह तो पता नहीं, लेकिन अरबों वर्ष पहले धुएं की नीहारिकाएं थीं। उन्हीं नीहारिकाओं से सूरज का जन्म हुआ, सूरज से पृथ्वी का जन्म हुआ। पृथ्वी पर जो बड़े-बड़े गड्ढे हैं, यह जो हिंद महासागर है, पैसिफिक है, अटलांटिक है, ये गड्ढे पृथ्वी से चांद का टुकड़ा अलग निकल गया, इसलिए गड्ढे पैदा हो गए। पृथ्वी से चांद पैदा हुआ है। ये सब बातें भी अत्यंत झूठी और बेबुनियाद हैं। इन बातों के लिए भी न कोई कारण है, न कोई वजह है। और न कोई वैज्ञानिक आधार है इन बातों को कहने का। लेकिन आदमी अपने अज्ञान को स्वीकार ही नहीं करना चाहता। किसी न किसी भांति वह यह भ्रम पैदा करना चाहता है कि हम जानते हैं।
एडीसन का नाम आपने सुना होगा। एक हजार आविष्कार किए एडीसन ने। शायद दुनिया में किसी एक आदमी ने इतने आविष्कार नहीं किए। विद्युत की बाबत एडीसन जितना जानता था, शायद कोई नहीं जानता था।
एडीसन अमरीका के एक छोटे से गांव में गया। उस गांव के स्कूल के बच्चों ने एक प्रदर्शनी सजाई थी। उसमें कुछ विद्युत के खेल खिलौने बनाए थे, जो बिजली से चलते थे। मोटर बनाई थी, जहाज बनाया था। एडीसन भी देखने गया। बच्चों को क्या पता था कि जो देखने आया है वह जगत का विद्युत के संबंध में जानने वाला सबसे बड़ा विचारक है। एडीसन उन बच्चों के खिलौनों को देख कर खूब खुश होने लगा। उसने पूछा, बच्चो, ये चलते कैसे हैं? बच्चों ने कहा: इलेक्ट्रिसिटी से, विद्युत से। एडीसन ने पूछा, क्या मैं पूछ सकता हूं, वॅाट इ.ज इलेक्ट्रीसिटी? यह विद्युत क्या है? वे बच्चे ठगे रह गए। बच्चों के अध्यापक भी ठगे रह गए, प्रधानाध्यापक भी डरा रह गया। उनको किसी को पता नहीं कि वही आदमी एडीसन है।
फिर एडीसन ने कहा: आप घबड़ाएं नहीं, मेरा नाम है एडीसन। आपने सुना होगा। वे बोले, सुना है। आप ही तो विद्युत की सब खोज-बीन किए हैं।
एडीसन ने कहा: तुम निश्चिंत रहो, चिंतित मत होओ। मैं भी नहीं जानता हूं। मैं भी उत्तर नहीं दे सकता हूं, वॅाट इ.ज इलेक्ट्रिसिटी। मुझे भी कोई पता नहीं कि विद्युत क्या है।
हम केवल विद्युत का उपयोग करना सीख गए हैं। विद्युत क्या है, हमें पता नहीं। अणु क्या है, हमें पता नहीं। अणुबम जरूर हम बनाना सीख गए हैं।
एक माली बगीचे में एक बीज बो देता है और एक पौधा बड़ा हो जाता है। पूछें माली से, पौधा क्या है? पूछें माली से, बीज पौधा कैसे बन जाता है? माली कहेगा, मुझे पता नहीं। हालांकि बीज को मैं बो देता हूं और पौधा बन जाता है। मैं बीज से पौधा बनाना सीख गया हूं। लेकिन पौधा क्या है, बीज क्या है, मुझे पता नहीं है।
विज्ञान भी बगीचों में काम करने वाले मालियों की तरह है, जो बीज से पौधा बनाना सीख गया है। लेकिन जीवन क्या है, विज्ञान के पास भी कोई उत्तर नहीं है। और मैं आपसे कहता हूं: इसका मतलब यह मत समझ लेना कि धर्मों के पास उत्तर है। धर्मों के पास भी उत्तर नहीं है। विज्ञान के पास भी उत्तर नहीं है।
आज तक आदमी के लिए जीवन के जो चरम प्रश्न हैं, उनका कोई उत्तर उपलब्ध नहीं हुआ है। पहले धार्मिक लोग धोखा देते रहे कि हमेंउत्तर पता है। अब वैज्ञानिक धोखा दे रहे हैं, कि हमें उत्तर पता है। और चाहे धार्मिक धोखा दें, चाहे वैज्ञानिक, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आदमी को धोखा दिया जाता रहा है।
आज तक इस सीधे से सत्य को हम स्वीकार करने का साहस नहीं कर सके कि हमें ज्ञात नहीं है कि सत्य क्या है। सत्य अज्ञात है। जीवन और परमात्मा, सब अज्ञात हैं। मैं प्रार्थना करना चाहता हूं, अगर दुनिया में चाहते हैं आप कि धर्म वापस लौट आए, तो रहस्य के बिना, मिस्टिरीयस के बिना, विस्मय के बिना, आश्चर्य के बिना धर्म वापस नहीं लौट सकता है।
पंडितों ने, दार्शनिकों ने, फिलासफर्स ने बड़े कल्पना के जाल रचे, शब्दों के जाल रचे, अनुमानों के जाल रचे और इतने तर्क दिए उन अनुमानों के लिए कि सामान्य मनुष्य को यह भ्रम पैदा हो जाता है कि शायद ये लोग जानते हैं, शायद इन्हें पता है। और इस जानने के भ्रम ने, इस ख्याल ने कि हम जान गए हैं, जीवन के प्रति हमारे जो कदम उठ सकते थे..रहस्य के, विस्मय के, आश्चर्य के, वे उठने बंद हो गए हैं। बचपन से ही हम बच्चे के आश्चर्य की हत्या करते हैं।
शायद आपको ख्याल भी न हो, बच्चों के साथ किए जाने वाले बहुत बड़े-बड़े अपराधों में यह एक बड़ा अपराध है। बच्चा पूछता है, वृक्ष क्या है? दरख्त हरे क्यों हैं? आकाश में तारे क्यों हैं? तारों में रोशनी क्यों है? आदमी कहां से पैदा होता है? ये फूल इतने रंगीन क्यों हैं? यह तितली इतनी सुंदर क्यों है?
और हम सब इस भांति सिर उठा कर उत्तर देते हैं, जैसे हमें पता है। छोटे बच्चे समझ लेते होंगे कि पिता जो कहते हैं, ठीक कहते होंगे। मां जो कहती है, ठीक कहती होंगी। गुरु जो कहते हैं, ठीक कहते होंगे।
छोटे बच्चों को धोखा दिया जा रहा है, उनकी इनोसेंस का, उनकी निर्दोषता का शोषण किया जा रहा है। ईमानदार मां-बाप और ईमानदार शिक्षक कहेंगे: हमें कुछ भी पता नहीं। हम भी तितलियों के मामले में, आकाश के तारों के मामले में उतने ही बच्चे हैं जितने तुम हो, हमें कुछ भी पता नहीं। जीवन के संबंध में हम भी उतने ही अज्ञानी हैं जितने तुम हो, हमें कुछ भी पता नहीं है। तो बच्चों के भीतर आश्चर्य का और विस्मय का विकास होगा। तब वे युवा होते-होते अत्यंत आश्चर्य से भर जाएंगे। उनके हृदय में आश्चर्य लहरें लेने लगेगा, वे विस्मय से भर जाएंगे। वे जीवन के प्रति जानते हैं, इस भाव से नहीं, नहीं जानते हैं इस भाव से जीवन को देखेंगे। लेकिन हम, हम इस भूल में पड़ जाते हैं। हम परिचय को ज्ञान समझ लेते हैं। एक्वेंटेंस को हम नालेज समझ लेते हैं।
एक मां अपने बेटे को जन्म देती है। निश्चित ही अपने पेट में बड़ा करती है। लेकिन क्या वह जानती है जो पेट में बड़ा हो रहा है वह क्या है? अगर मां इस भूल में पड़ जाए, तो गलती करती है। यद्यपि उसके ही पेट में जो जन्म ले रहा है और बड़ा हो रहा है, उसके ही खून और मांस-मज्जा से जो बन रहा है। वह भी उसके लिए अज्ञात है, अननोन है। वह भी उसे पता नहीं कौन है और क्या है। वह बच्चा पैदा होगा। मां सोचती होगी, मैं जानती हूं अपने बेटे को।
झूठी है यह बात। कोई मां अपने बेटे को नहीं जानती। कोई बाप अपने बेटे को नहीं जानता। लेकिन परिचय हो जाता है, तो हम सोचते हैं, हम जानते हैं। फिर हम नाम रख लेते हैं बेटे का, नाम..राम और कृष्ण और कुछ और सोचते हैं हम पहचान गए। उसका कोई नाम नहीं है जो पैदा हुआ है। नाम झूठे हैं जो हम दे रहे हैं। और इन्हीं नामों को हम ही देंगे। और हम ही इन नामों को पुकारेंगे, और हम कहेंगे कि मैं भलीभांति जानता हूं कि यह राम है।
यह राम नाम झूठा है। वह जो पीछे है वह अनाम, नेमलेस, उसका हमें कोई पता नहीं है कि उसका क्या नाम है। जो घर में जन्म लेता है, हमसे अपरिचित है, लेकिन रोज-रोज उसे देखते हैं, रोज-रोज पहचानते हैं, तो लगता है हम जानते हैं। पति सोचता है कि वह पत्नी को जानता है, पत्नी सोचती है कि वह पति को जानती है। कोई किसी को नहीं जानता। पति और पत्नी तो बहुत दूर, हम अपने को भी नहीं जानते हैं। स्वयं का भी हमें कोई पता नहीं है। और जिन्हें स्वयं का भी पता नहीं है उन्हें और किस चीज का पता हो सकता है? जिन्हें अपना ही ज्ञान नहीं उन्हें किस चीज का ज्ञान हो सकता है?
हमारा अज्ञान बहुत गहरा है, लेकिन इस अज्ञानको हम ज्ञान के शब्द सीख कर छिपा लेते हैं और ज्ञानी बन जाते हैं। अज्ञान से भी खतरनाक वह ज्ञान है जो अज्ञान को छिपाने में सहयोगी बनता है। वे वस्त्र ज्ञान के जो अज्ञान को छिपा लेते हैं बहुत खतरनाक हैं। आदमी के जीवन में जो भी सत्य है और सुंदर है और श्रेष्ठ है, उसे ज्ञान के वस्त्रों में ही खो दिया है।
पता है आपको सौंदर्य क्या है? पता है आपको सत्य क्या है? पता है आपको शुभ क्या है? कुछ भी हमें पता नहीं है। लेकिन चूंकि किसी को भी कुछ पता नहीं है, और हम सभी यह घोषणाएं करते हैं कि हमें पता है। इसलिए मनुष्य-जाति में से कोई भी अंगुली उठा कर नहीं कहता कि झूठ बोल रहे हो आप। हम सब एक ही नाव पर सवार हैं। हम सब एक ही बीमारी से पीड़ित हैं, इसलिए हमें पता भी नहीं चलता कि कोई बड़ा झूठ जीवन में बोला जा रहा है। बहुत बड़े झूठ प्रचलित हुए हैं, लेकिन अगर झूठ सभी को पकड़ लें, तो उनका पता चलना बंद हो जाता है।
एक बार ऐसा हो गया था, एक गांव में एक जादूगर आ गया था। और उसने आकर गांव के कुएं में कोई मंत्र पढ़ा और कोई चीज डाल दी और कहा कि इस कुएं का पानी जो भी पीएगा वह पागल हो जाएगा। सांझ होते-होते गांव के सभी लोगों को उस कुएं का पानी पीना पड़ा। क्योंकि प्यास नहीं सही जा सकती, पागलपन सहा जा सकता है। मजबूरी थी, जानते हुए कि पागल हो जाएंगे, पानी पीना पड़ा। सारा गांव सांझ होते-होते पागल हो गया। सिर्फ राजा और उसकी रानी और उसका वजीर बच गए। उनके मकान में दूसरा कुआं था। वे गांव के कुएं से पानी नहीं पीते थे, उनका अपना कुआं था। वे तीनों बच गए। वे बड़े प्रसन्न थे कि हम अच्छे बच गए हैं। पूरा गांव तो पागल हो गया है। लेकिन सांझ उन्हें पता चला कि भूल हो गई हमारे बचने में। पूरे गांव के लोग जुलूस बना कर घर के सामने आ गए और नारे लगाने लगे और उन्होंने कहा कि ऐसा मालूम होता है राजा का दिमाग खराब हो गया है। राजा को बदलेंगे हम। यह राजा नहीं चल सकता अब। यह लोकतंत्र का जमाना है। पागल राजे नहीं चल सकते। उतरो नीचे महल से। तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। हम तुम्हारा इलाज करवाएंगे।
राजा बहुत घबड़ाया। उसके सिपाही भी पागल हो गए थे। उसके नौकर-चाकर भी पागल हो गए थे। उसके सैनिक भी पागल हो गए थे। उसने अपने वजीर से कहा, क्या करें हम? बात उलटी है। पागल ये लोग हो गए हैं। लेकिन भीड़ जब पागल हो जाती है तो बताना बहुत कठिन है कि पागल हो तुम। क्या करें हम?
वजीर ने कहा: एक ही रास्ता है, पीछे के दरवाजे से हम भागें, जितनी तेजी से भाग सकते हों, और उस कुएं का पानी पी लें जिस कुएं का पानी इन लोगों ने पीया है। तो ही हम बच सकते हैं। वह राजा और वजीर भागे। उन्होंने जाकर उस कुएं का पानी पी लिया। उस रात उस गांव में बड़ा जलसा मनाया गया, और गांव के लोगों ने बड़ी खुशी मनाई और भगवान को धन्यवाद दिया कि राजा का दिमाग ठीक हो गया।
जब सारा समूह एक ही पागलपन से पीड़ित होता है तो पहचानना कठिन हो जाता है कि पागलपन क्या है। और अगर कोई आदमी पहचान ले, तो वही आदमी उलटा पागल मालूम पड़ता है, भीड़ पागल नहीं मालूम पड़ती।
जीसस क्राइस्ट पागल मालूम पड़ते हैं, इसलिए भीड़ ने उन्हें सूली पर लटका दिया। सुकरात पागल मालूम पड़ता है, इसीलिए भीड़ ने उसे जहर पिला दिया। मंसूर पागल मालूम पड़ता है, भीड़ ने उसकी चमड़ी खींच ली। गांधी पागल मालूम पड़ते हैं, भीड़ ने गोली मार दी। आज तक जितने लोगों ने भीड़ के कुएं का पानी नहीं पीया, उनके साथ यही दुव्र्यवहार हुआ है। और भीड़ निश्चिंत है। भीड़ को शक पैदा नहीं होता, क्योंकि चारों तरफ सभी लोग गवाह ही होते हैं कि ठीक हैं हम।
मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूं: मनुष्य-जाति की सबसे बड़ी विक्षिप्तताओं में, सबसे बड़ी मैडनेसेस में, सबसे बड़े पागलपनों में ज्ञान का पागलपन है। और इस ज्ञान के कुएं से हम सभी ने पानी पी लिया है। चाहे उस ज्ञान के कुएं का नाम हिंदुओं का कुआं हो, चाहे उस कुएं का नाम मुसलमानों का कुआं हो, चाहे उस ज्ञान के कुएं का नाम जैनों का कुआं हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कुएं का नाम कुछ भी हो, लेकिन ज्ञान के कुओं से जिन्होंने भी पानी पी लिया है, उनके जीवन से आश्चर्य का भाव नष्ट हो जाता है। और जहां आश्चर्य गया, वहां धर्म गया, वहां दर्शन गया। और जहां विस्मय गया, जहां जीवन को विस्मय से देखने वाली आंखें चली गईं, वहां सब कुछ चला गया। वहां फिर कुछ भी शेष नहीं रह जाता। फिर परमात्मा की कोई खोज नहीं हो सकती, क्योंकि परमात्मा अगर कुछ है तो वही है जिसे हम मिस्टीरियस कहते हैं, जिसे मापने और जांचने का कोई उपाय नहीं, जिसे तौलने के लिए कोई तराजू नहीं, जिसको इशारा करने के लिए कोई शब्द नहीं, जिसको बताने के लिए कोई शास्त्र नहीं, कोई सिद्धांत नहीं। लेकिन शास्त्रों और सिद्धांतों और ज्ञान की दीवालें बीच में खड़ी हो जाती हैं और जीवन उस तरफ बह जाता है।
बहुत दिन हुए, चीन के एक गांव में बहुत बड़ा मेला लगा हुआ था। हजारों लोग वहां इकट्ठे थे। कहीं इकट्ठे होने का मौका भर मिल जाए, फिर आदमी इकट्ठे होने से चुकता नहीं है, जरूर इकट्ठे हो जाते हैं। असल में अकेले, अकेले होने से आदमी इतना घबड़ाया होता है कि जहां भी भीड़ का मौका मिलता है जरूर पहुंच जाता है। बहुत लोग इकट्ठे हो गए थे। बड़ा मेला था। एक कुआं था उस मेले के किनारे ही। उस कुएं पर कोई पाट न थी, कोई घेरा न था। एक आदमी उस कुएं में गिर गया। वह बहुत कुएं के भीतर से चिल्लाने लगा कि मुझे बचाओ! मैं मरा जा रहा हूं! लेकिन उस मेले में इतना शोरगुल था कि कौन सुनता। एक बौद्ध भिक्षु कुएं के पास से निकला। उसे सुनाई पड़ा कि कोई कुएं के भीतरचिल्लाता है कि मैं मरा जा रहा हूं, मुझे बचाओ। उस भिक्षु ने झांक कर नीचे देखा और कहा, मेरे मित्र, जीवन में आनंद भी क्या है, जो बचने की तुम कामना करते हो? जीवन है दुख, जीवन है पाप। बचने से प्रयोजन? और यह जो तृष्णा है बचने की, यह जो लस्ट फॅार लाइफ है, यही अगले जन्म का कर्म बंधन हो जाएगा। शांत रहो! उस आदमी ने कहा कि मुझे उपदेश नहीं चाहिए, कृपा करके मुझे बाहर निकालिए। लेकिन भिक्षु ने कहा: मैं किसी के कर्मों के बीच में बाधा नहीं बनता। तुमने कुछ किया होगा। किसी को कुएं में गिराया होगा, सो तुम गिरे हो। किसी पिछले जन्म का कर्मफल भोगते हो मित्र। सुनी नहीं तुमने यह सिद्धांत की बात? और अब मरते क्षणों में मोह छोड़ो जीवन का। शांति से मरो, तो निर्वाण हो जाएगा। नहीं तो फिर लौट-लौट कर आना पड़ेगा। भिक्षु आगे बढ़ गया।
उसके पीछे ही एक कनफ्यूशियन मांक, कनफ्यूशियस का एक संन्यासी आया। उसने भी कुएं में चिल्लाते हुए आदमी की आवाज सुनी। वह किनारे के पास झांका। उसने कहा कि समझ गया, कनफ्यूशियस ने लिखा है अपनी किताब में कि वही राज्य श्रेष्ठ है जो अपने कुओं पर पाट बांध देता है। जो कुओं पर पाट नहीं बांधता है वह राजा अन्यायी है। तुम घबड़ाओ मत। हम आंदोलन उठाएंगे, हम जाकर जनता को समझाएंगे। अभी हम मेले में जाते हैं। और अभी हम राजा के महल पर पहुंचते हैं। हर कुएं पर पाट होनी ही चाहिए, ताकि कोई गिर न सके।
उस आदमी ने कहा: वह पीछे करना। मैं मरा जा रहा हूं, मुझे बाहर निकालो। लेकिन उसने कहा: सवाल तुम्हारा नहीं है, सवाल जनता-जनार्दन का है। यह तुम्हारा सवाल नहीं है। एक आदमी बचता है कि मरता है, यह सवाल नहीं है। कुएं पर पाट होना चाहिए। और तुम घबड़ाओ मत, तुम निश्चिंत रहो, तुम्हारे बच्चे ऐसी दुनिया में रहेंगे जहां कुओं पर पाट होंगे।
उसने कहा: बच्चों का सवाल नहीं है। मैं मरा जाता हूं।
उस आदमी ने कहा कि बच्चों के लिए बड़ी कुर्बानी मां-बाप को करनी पड़ती है। तुम मरो, लेकिन बच्चे ऐसी दुनिया में रहेंगे जहां कोई कुएं में नहीं गिर सकेगा। तुम बेफिकर रहो।
वह कनफ्यूशियस मांक आगे बढ़ गया। उसने जाकर भीड़ में शोरगुल मचा दिया। वह एक मंच पर सवार हो गया और उसने समझाना शुरू कर दिया कि ऐसे कुएं नहीं होने चाहिए जिन पर पाट न हों।
उन दोनों के चले जाने के बाद एक ईसाई साधु, एक ईसाई मिशनरी वहां से निकला। कुएं में किसी को चिल्लाता देख कर वह तत्क्षण कूदा और उसने निकाला उस आदमी को बाहर। और उस आदमी ने कहा कि बहुत धन्यवाद! तुम्हीं सच्चे धार्मिक आदमी मालूम पड़ते हो। एक बौद्ध भिक्षु निकला, उसने कहा कि कर्मों का फल भोग रहे हो अपना। कनफ्यूशियस का भिक्षु निकला उसने कहा कि हम राज्य को परिवर्तन करने के लिए आंदोलन चलाएंगे। तुम्हीं सच्चे धार्मिक हो।
उस ईसाई मिशनरी ने कहा: नहीं मित्र, माफ करो। मैंने तो तुम्हें इसलिए निकाला है कुएं से, क्योंकि जीसस क्राइस्ट ने कहा है: जो सेवा करते हैं स्वर्ग उनको उपलब्ध होता है। तो हम तो यही चाहते हैं कि रोज-रोज लोग कुएं में गिरते रहें और हम उन्हें निकालते रहें। जितने ज्यादा लोग कुएं में गिरेंगे उतनी ही हमारी सेवा, उतना ही स्वर्ग का हमारा अधिकार, वह किंग्डम अॅाफ गॅाड जो है, उसके हम मालिक हो जाएंगे। तुम रोज-रोज गिरो। अपने घर भी लोगों को समझाओ, क्योंकि सेवा बहुत जरूरी है। बिना सर्विस के कोई परमात्मा तक कभी पहुंचता नहीं है।
आदमी कुएं में मर रहा है, लेकिन उसे देखने वाला कोई भी नहीं है, क्योंकि शास्त्र बीच में आ जाते हैं। जीवन चारों तरफ है, लेकिन उसे देखने वाला कोई भी नहीं है, क्योंकि शब्द बीच में आ जाते हैं। परमात्मा हर क्षण मौजूद है, लेकिन उससे पहचान नहीं होगी, क्योंकि ज्ञान बीच में आ जाता है।
ज्ञान से बड़ी चीज जीवन और मनुष्य के बीच दूसरा कोई अवरोध, दूसरा कोई हिंडरेंस, दूसरा कोई पहाड़ नहीं है। लेकिन ज्ञान को हम समझते हैं कि बड़ी ऊंची बात है। हम समझते हैं कि ज्ञान अर्जित कर लिया तो बहुत कुछ कमाई कर ली।
ज्ञान नहीं, जो इस सरलता से कहते हैं कि हम नहीं जानते हैं, केवल वे ही विनम्र लोग, केवल वे ही विनम्र चित्त, वे ही हंबल माइंड्स, जो जानते हैं हमें कुछ भी पता नहीं, केवल वे ही उस परम सत्य के निकट पहुंच पाते हैं और उसे जान पाते हैं।
 ज्ञान के भ्रम वाले लोग कभी ज्ञान को उपलब्ध नहीं होते। अज्ञान में ही जीते और नष्ट हो जाते हैं। यह बात बड़ी उलटी मालूम होगी। मैं आपसे यह कह रहा हूं: आपको अगर अपने अज्ञान का परिपूर्ण बोध हो जाए, तो आपके जीवन में ज्ञान का जन्म हो सकता है। लेकिन वह ज्ञान बहुत दूसरा है उस ज्ञान से जो शास्त्रों से मिलता है..गीता, कुरान और बाइबिल से, उपनिषदों और वेदों से, महावीर और बुद्ध से जो ज्ञान मिलता है वह नहीं है। शब्दों से जो ज्ञान मिलता है वह नहीं। शब्द हैं डेड, मुर्दा। उनका कोई मूल्य नहीं, उनमें कोई जीवन नहीं।
खुद के प्राणों के साक्षात से जो ज्ञान मिलता है, वह बात और है। और उसे जानने के लिए अज्ञान, अज्ञान का स्पष्ट बोध होना चाहिए। जिसे अज्ञान का बोध हो जाता है, जो जानता है कि मैं नहीं जानता, उसके लिए रहस्य के द्वार खुल जाते हैं। लेकिन हमने बहुत संग्रह कर रखा है। हमने कंठस्थ कर रखे हैं ग्रंथ। हमने शब्द सीख रखे हैं। हम तोतों की भांति हैं, जिन्हें सब कुछ सिखा दिया गया है और याद करा दिया गया है। और हम इन्हीं शब्दों को दोहराते रहते हैं।
कोई पूछे आपसे, ईश्वर है? कौन सा उत्तर आता है आपके भीतर? मैं आपसे पूछता हूं, ईश्वर है? कोई उत्तर आता है आपके भीतर? किसी के भीतर आता होगा, है। अगर उसकी किताबों में ऐसा लिखा है, अगर उसके गुरुओं ने ऐसा बताया है, किसी के भीतर आता होगा, नहीं है। अगर उसकी किताबों में ऐसा लिखा है और उसके गुरुओं ने ऐसा बताया है।
हिंदुस्तान में पूछो, ईश्वर है? तो उत्तर आता है, है। और रूस में पूछो, तो उत्तर आता है, नहीं है। हम सोचते हैं हिंदुस्तान बड़ा आस्तिक है और रूस बड़ा नास्तिक है। नहीं साहब। दोनों रटे हुए तोते बोल रहे हैं। हिंदुस्तान के तोतों को बताया जा रहा है ईश्वर है, तो वे कहते हैं, ईश्वर है। रूस के तोतों को बताया जा रहा है ईश्वर नहीं है, तो वे कहते हैं, ईश्वर नहीं है। सीखी हुई बातें जो दोहरा रहा है वह आदमी के पद से नीचे गिर रहा है। सीखी हुई बातें जो दोहरा रहा है वह अपने को तोता बना रहा है, अपने को मशीन बना रहा है। लेकिन अगर मैं पूछूं कि ईश्वर है और आपके भीतर कोई उत्तर न उठे, न हां, न न; मैं पूछूं ईश्वर है और आपके भीतर सन्नाटा छा जाए। और सत्य यही होगा कि सन्नाटा छा जाए। क्योंकि आप नहीं जानते हैं कि है या नहीं। मैं पूछूं कि ईश्वर है और आपके भीतर साइलेंस हो जाए, आपके भीतर कोई उत्तर न आए, आप मौन रह जाएं, आपके भीतर कोई शब्द घनीभूत न हो, आपके भीतर कोई रिस्पांस न हो, आपके भीतर नो-रिस्पांस की स्थिति हो जाए।
मैं पूछूं ईश्वर है और आपके भीतर सब सन्नाटा हो जाए, इस स्थिति को मैं कह रहा हूं अज्ञान का बोध कि मुझे पता नहीं है। और इसी सन्नाटे में उसकी पगध्वनियां सुनाई पड़नी शुरू होती हैं जो परमात्मा है। इसी मौन में, इसी साइलेंस में जीवन का संस्पर्श उपलब्ध होता है।
और तब फिर खोजने हिमालय नहीं जाना पड़ता है। और तब फिर खोजने गंगा के तट की यात्राएं नहीं करनी होती हैं। और तब फिर खोजने काशी और मक्का और मदीना नहीं जाना पड़ता है। फिर जेरुसलम की यात्रा नहीं करनी होती है। फिर मंदिरों और मस्जिदों में सिर नहीं टेकने पड़ते हैं।
इतने शांत मन से, ऐसे मन से, ऐसे माइंड से, जिसके पास उत्तर नहीं हैं..क्योंकि उत्तर सब सीखे हुए हैं..और मैं तो कुछ भी नहीं जानता हूं, अगर आपका मन उस अवस्था में आ जाए जहां से कोई उत्तर नहीं आता, सिर्फ चुप्पी और मौन रह जाता है, तो आप एक अदभुत द्वार को खोलने में समर्थ हो जाएंगे, जिसकी आपको कल्पना भी नहीं हो सकती। उस विनम्र मौन में, उस हंबल साइलेंस में कुछ घटित होता है, कोई क्रांति हो जाती है और एक नये मनुष्य का जन्म हो जाता है।
अब तक जिन लोगों ने भी जाना है, उन्होंने ज्ञान से नहीं जाना है, मौन से जाना है। ज्ञान बहुत बकवासी है, ज्ञान बहुत मुखर है। और परमात्मा के निकट तो वे पहुंचते हैं, जो सब भांति मौन और शांत हैं..जिनके भीतर कोई उत्तर नहीं।
इसलिए मैं आज की रात आपसे सब उत्तर छीन लेना चाहता हूं। सब उत्तर आप यहीं छोड़ जाएं। आपकी ज्ञान की झोली में जितने कंकड़-पत्थर हों, वे यहीं छोड़ जाएं। आमतौर से साधु समझाते हैं कि हमने जो समझाया ह उसे अपनी गांठ में बांध कर घर ले जाना, यहां मत छोड़ जाना। मैं उलटी बात समझाता हूं। मैंने जो समझाया है वह, और मुझसे पहले भी जिन्होंने जो समझाया हो, कृपा करके सब आप यहीं छोड़ जाएं। और आप खाली, बिल्कुल खाली मन को लेकर, अगर घर जाकर आज रात ही सो सकें, तो आज निद्रा में ही कोई द्वार खुल सकते हैं। अगर आज ही सारे ज्ञान को आप छोड़ कर बिस्तर पर चुपचाप लेट सकें, तो हो सकता है कोई अनजान अतिथि आपके द्वार खटखटाने लगे और कहे कि खोलो, मैं आ गया। क्योंकि जो आदमी अपने ही ज्ञान से भरा है, परमात्मा के ज्ञान के लायक अवकाश उसके भीतर नहीं होता, स्पेस नहीं होती। जो अपने ज्ञान को छोड़ देता है उसके भीतर परम के ज्ञान का अवतरण शुरू हो जाता है।
आकाश से वर्षा होती है, वर्षा के दिनों में पहाड़ों पर भी पानी गिरता है, झीलों में भी पानी गिरता है, गड्ढों में भी पानी गिरता है, लेकिन पहाड़ पानी से खाली रह जाते हैं, क्योंकि वे खुद ही पहले से भरे हुए हैं। लेकिन गड्ढे पानी से भर जाते हैं, क्योंकि वे पहले से खाली हैं। बादल कोई भेद नहीं करते कि तुम पहाड़ हो कि तुम गड्ढे हो। दोनों पर पानी पानी गिरा देते हैं। लेकिन पानी गिरा हुआ व्यर्थ हो जाता है। पहाड़ खाली के खाली रह जाते हैं, क्योंकि अपने में भरे हैं वे पहले से ही। उनके पास कोई रिक्त-स्थान नहीं है। कोई जगह नहीं है जहां पानी भर सके। गड्ढों में पानी भर जाता है। परमात्मा की वर्षा भी प्रतिक्षण हो रही है, प्रतिपल, प्रति श्वास, लेकिन जो अपने भीतर भरे बैठे हैं वे खाली रह जाएंगे और जो अपने भीतर खाली हैं वे उसके ज्ञान और प्रकाश से भर जाते हैं।
जीवन क्रांति का दूसरा सूत्र है: स्वयं को ज्ञान से खाली कर लें।
बड़ी मुश्किल है यह बात। आदमी और सब कुछ छोड़ सकता है, ज्ञान छोड़ने में प्राण कंपते हैं। धन छोड़ सकता है। हजारों लोग धन छोड़ कर त्यागी हो जाते हैं। पत्नी बच्चों को छोड़ सकते हैं। सैकड़ों लोग संन्यासी हो जाते हैं। लेकिन ज्ञान, ज्ञान नहीं छोड़ पाता आदमी। एक आदमी संन्यासी हो जाता है, फिर भी मुसलमान बना रहता है, फिर भी हिंदू बना रहता है।
मैं तो हैरान हो गया कि कैसे पागलों की दुनिया है! अगर गृहस्थ हिंदू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, जैन हो, तो समझ में आता है। लेकिन साधु भी जैन, हिंदू, मुसलमान कैसे हो सकता है? जिसने समाज ही छोड़ दिया, उसने समाज का ज्ञान नहीं छोड़ा अब तक? समाज ने जो ज्ञान दिया था, उसको पकड़े हुए बैठा है। एक साधु भी कहता है..मैं जैन हूं, हिंदू हूं, मुसलमान हूं। साधु कहता है! ये बीमारियां साधु के पास नहीं होनी चाहिए।
लेकिन नहीं, धन छोड़ सकता है, घर छोड़ सकता है, लेकिन ज्ञान नहीं छोड़ सकता। ज्ञान मनुष्य के अहंकार की गहरी से गहरी पकड़ है। न तो धन है मनुष्य का अहंकार, न पद है अहंकार, न यश है अहंकार। अहंकार की सूक्ष्मतम, गहरी से गहरी पकड़ है ज्ञान। इसलिए जिनको यह ख्याल हो जाता है कि हम जानते हैं, वे भटक जाते हैं। उनके जानने के रास्ते बंद हो जाते हैं।
सुकरात बूढ़ा हो गया था। बुढ़ापे में सुकरात ने बड़ी अजीब बात कहना शुरू कर दी थी। सुकरात बुढ़ापे में कहने लगा था: मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। एक आदमी ने कहा कि हम तो यह सुन कर आए थे कि तुम परम ज्ञानी हो।
सुकरात ने कहा: किसी ने गलती से कह दिया होगा। या जब मैं जवान था तब मुझे ऐसा भ्रम था, ऐसा इलुजन मुझे भी था कि मैं जानता हूं। लेकिन जैसे-जैसे मेरा अनुभव बढ़ा, जैसे-जैसे मैंने जीवन का संपर्क पाया, जैसे-जैसे जीवन में मेरी गति हुई, जैसे-जैसे मैं जीवन की धारा में डूबा, वैसे-वैसे मुझे पता चला: मैं क्या जानता हूं? मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। और आज मैं कह सकता हूं कि मुझे कुछ भी पता नहीं। मुझसे बड़ा अज्ञानी कोई भी नहीं। सुकरात ने जान लिया होगा। सुकरात जान ही लेगा। सुकरात के जानने के बीच की सारी बाधाएं गिर गईं। एक ही बाधा थी..इस बात का ख्याल कि मैं जानता हूं। मैं जानता हूं..यह इतना कठोर पाषाण खड़ा कर देता है मन के भीतर, फिर और जानने का सवाल ही नहीं रह जाता है।
एक फकीर मर रहा था, मरणशय्या पर पड़ा था। कुछ मित्र इकट्ठे थे। जिंदा फकीरों के पास कभी कोई इकट्ठा नहीं होता। या तो मरते हुए फकीरों के पास लोग इकट्ठे होते हैं, या मर चुके जो उनके पास इकट्ठे होते हैं। आदमी मुर्दों का बड़ा पुराना पूजक है। मरते हुए उस फकीर के पास लोग इकट्ठे थे और पूछने लगे कि तुमने ज्ञान कहां पाया? तुम्हें ज्ञान कैसे मिला? तुमने कैसे जाना जीवन को? तुम प्रभु को कैसे उपलब्ध हुए? उसने कहा: यह बड़ा कठिन मामला है। मैं एक गांव से गुजरता था। मैंने बड़े-बड़े गुरुओं की शरण ली, लेकिन कोई गुरु गुरु साबित न हुआ। असल में जो भी कहते हैं कि हम गुरु हैं, वे दुकानदार होते हैं, वे कभी गुरु हो भी नहीं सकते। तो बहुत-बहुत गुरु खोजे, कहीं कोई ज्ञान नहीं मिला। बहुत शास्त्र देखे, बहुत से सिद्धांत याद हो गए, लेकिन जीवन में कोई फर्क न हुआ, कोई रोशनी न उतरी। लेकिन एक भ्रम मुझे पैदा हो गया कि मैं भी जानता हूं।
फिर मैं एक गांव से गुजरता था। और जिस आदमी को यह भ्रम पैदा हो जाता है कि मैं जानता हूं, उस भ्रम के बाद दूसरी चीज शुरू होती है। कोई फंस भर जाए उसके चंगुल में, वह बिना उपदेश दिए नहीं रह सकता। कोई उसकी मुट्टी भर में आ जाए, फिर वह उपदेश जरूर देगा। तो उस फकीर ने कहा: मुझे ख्याल हो गया कि मैं जानता हूं। तब एक ही काम था, जो मैंने जान लिया, तो जो मुझे मिल जाए उसे समझा दूं। एक गांव से निकल रहा था। गांव के लोग बड़े नास्तिक मालूम होते थे, कोई सभा में आया ही नहीं। बड़े अश्रद्धालु मालूम होते थे। और दिन भर मैं नहीं बोल पाया था, तो मेरी तो बड़ी मुसीबत हो गई थी। तो मैं इस तलाश में था कि कोई एकाध श्रद्धालु मिल जाए, तो उसको उपदेश दे दूं। कोई तो नहीं मिला, एक छोटा सा बच्चा मिल गया। वह बच्चा एक हाथ में दीया लिए मंदिर में दीया रखने जाता था। मैंने उस बच्चे से कहा: बेटे ठहर, पहले मेरे प्रश्न का उत्तर दे दे। इस दीये में रोशनी कहां से आई है, बता सकता है? इस दीये में ज्योति कहां से आई?
उस फकीर ने कहा: मैंने सोचा था कि बच्चा उत्तर नहीं दे सकेगा। फिर, फिर मुझे उपदेश देने का मौका मिल जाएगा। लेकिन बच्चे ने मुझे बड़ी मुश्किल में डाल दिया। वह बच्चा हंसने लगा और उसने फूंक मार कर दीया बुझा दिया और कहा कि स्वामी जी, ज्योति कहां चली गई, आप बता सकते हैं? अगर आप बता देंगे कि ज्योति कहां चली गई, तो मैं भी बता दूंगा कि ज्योति कहां से आई है। मेरे सारे पढ़े-लिखे शास्त्र व्यर्थ हो गए। मेरे गुरुओं से पाई सारी शिक्षा दो कौड़ी की हो गई। मैं निपट अज्ञानी की तरह खड़ा हो गया। और मुझे ख्याल आया, मैं यह भी नहीं बता सकता कि ज्योति कहां चली गई? मैं तो यह भी बताता हूं कि सृष्टि कहां से आई और सृष्टि कहां विलीन हो जाएगी। मैं तो यह भी बताता हूं कि परमात्मा पूरब में बैठा है कि पश्चिम में। मैं तो यह भी बताता हूं कि परमात्मा कौन सी प्रार्थनाएं सुन कर खुश होता है और कौन सी बातें सुन कर नाराज। और मुझे यह भी पता नहीं कि ज्योति कहां चली गई? मैंने उस बच्चे के चरणों पर सिर रख दिया और कहा: तूने मेरा ज्ञान छीन लिया। मैं कृत-कृत्य हो गया। तूने मेरा ज्ञान छीन लिया। तू मेरा पहला गुरु है।
क्या आप अपने ज्ञान को छोड़ देने की हिम्मत और साहस कर सकते हैं? अगर कर सकते हैं, तो आपके जीवन में क्रांति हो सकती है। क्योंकि ज्ञान का भाव छूटते ही जीवन भर जाएगा एक रहस्य से। सब अपरिचित हो जाएगा। और सब अज्ञात। जिस वृक्ष के पास से आप रोज-रोज निकले हैं, आज जब आप फिर उसके पास से निकलेंगे, तो पाएंगे कि यह वही वृक्ष नहीं है जो कल देखा था, ये वे ही पत्ते नहीं हैं।
जब आप घर लौटेंगे और उन्हीं बच्चों को देखेंगे जिनको कल देखा था, तो आप पाएंगे कि ये वे ही बच्चे नहीं हैं। गंगा में बहुत पानी बह गया। जीवन की गंगा भी बहुत बदल जाती है। सब नया हो जाएगा, सब अदभुत हो जाएगा, सब आश्चर्य से भर जाएगा।
और जिस दिन पूरा जीवन आश्चर्य से भर जाता है, उसी दिन, उसी दिन उसकी गंध मिलना शुरू होनी है, उसके संगीत की ध्वनि आती है, जिसे हम प्रभु कहते हैं। परमात्मा के मंदिर के निकट केवल वे ही पहुंचते हैं, जिनकी आत्माएं आश्चर्य से भर उठती हैं। यह दूसरा सूत्र है जीवन क्रांति का। कल मैंने कहा, अहोभाव, धन्यता। और आज कहता हूं: आश्चर्य, विस्मय, रहस्य।
कल तीसरे सूत्र की आपसे बात करूंगा। आप भी हाथ में दीये लेकर आए हैं। मैं फूंक मार कर बुझा देता हूं उनकी ज्योति को, और पूछता हूं, ज्योति कहां चली गई है? और अगर कोई उत्तर न मिले, कोई उत्तर पता न चले, और उसी अनुत्तर, उसी निरुत्तर दिशा में आप घर विदा हो जाएं, तो दूसरे सूत्र की झलक मिलनी शुरू हो जाएगी।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, इसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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