(विचार को छोड़ें और स्वयं में उतरें-दसवां)
मेरे प्रिय आत्मन्,प्रेम।
आपका पत्र मिला है।
ध्यान की साधना में यदि क्रमशः अमूच्र्छा, आत्मज्ञान और सजगता विकसित होती जावे, तो मानना चाहिए कि हम चित्त के सम्मोहन-घेरे से बाहर हो रहे हैं।
और, यदि इसके विपरीत मूच्र्छा और प्रमाद बढ़ता हो, तो निश्चित मानना चाहिए कि चित्त की निद्रा और गहरी हो रही है।
लेकिन, स्वयं प्रयोग किए बिना कुछ भी अनुभव नहीं हो सकता है।
विचार ही न करते रहें। विचार को छोड़ें और स्वयं में उतरें।
विचार तो किनारा ही है--जीवन-शक्ति की धारा तो निर्विकार ध्यान में ही है।
कबीर ने कहा हैः
‘जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
मैं बौरी खोजन गई, रही किनारे बैठ।।’
रजनीश के प्रणाम
6-10-1965
(प्रतिः श्री मथुराप्रसाद मिश्र, पटना)
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