नारी और क्रांति--(चौथा प्रवचन
एक आश्चर्यजनक भूल हो गई है। मनुष्य की पूरी सभ्यता, संस्कृति, उसी भूल के ऊपर खड़ी है। और इसीलिए हजारों साल के श्रम के बाद भी न तो एक ऐसा समाज बन पाया जो सुख और शांति के केंद्र पर निर्मित हो और न हम ऐसे मनुष्य को जन्म दे पाए जो कि जीवन की धन्यता को और आनंद को अनुभव कर सके। एक अत्यंत उदास, हारा हुआ, दुखी मनुष्य पैदा हुआ है और एक ऐसा समाज पैदा हुआ है जो प्रतिपल युद्धों से, संघर्षों से और विनाश से गुजरता रहा है। कोई तीन हजार वर्ष के इतिहास में आदमी ने पंद्रह हजार युद्ध लड़े। तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध! प्रतिवर्ष पांच युद्धों का संघर्ष चलता रहा है!अगर मनुष्य के सारे इतिहास का जोड़ किया जाए तो पंद्रह वर्षों में एक वर्ष शांति का होता है, चौदह वर्ष युद्धों के होते हैं। थोड़ा विचारने जैसा है कि आदमी इतने युद्धों से क्यों गुजरा? जरूर मनुष्य के निर्माण में कोई बुनियादी भूल हो गई है। इतनी हिंसा से आदमी को क्यों निरंतर गुजरना पड़ा? पिछले दो महायुद्ध तो हम सबके सामने उनकी स्मृति अभी भूल भी नहीं पाई। पहले महायुद्ध में पांच करोड़ लोगों की हत्या हुई, दूसरे महायुद्ध में दस करोड़ लोगों की हत्या हुई। इतना बड़ा विनाश हुआ कि दूसरे महायुद्ध के बाद लोग सोचते थे कि अब कभी कोई युद्ध नहीं होगा। लेकिन फिर तीसरे युद्ध की तैयारी शुरू हो गई है। और तीसरे युद्ध में जो होगा वह कहना बहुत कठिन है।
आइंस्टीन से मरने के पहले किसी ने पूछा था कि तीसरे महायुद्ध में क्या होगा? आइंस्टीन ने कहा, कहना कठिन है, तीसरे के संबंध में कुछ भी बताना मुश्किल है। लेकिन चौथे के संबंध में मैं कुछ बता सकता हूं।
पूछने वाला हैरान हुआ होगा, क्योंकि जो तीसरे के संबंध में न बताया जा सके, तो चौथे के संबंध में क्या बताया जा सकता है? उसने पूछा, आश्चर्य है, आप चौथे के संबंध में आप क्या बता सकते हैं?
आइंस्टीन ने कहा, एक बात निश्चित है कि चौथा महायुद्ध कभी नहीं होगा। क्योंकि तीसरे महायुद्ध के बाद किसी मनुष्य के बचने की कोई संभावना नहीं है।
तीसरा महायुद्ध सारी मनुष्य-जाति का विनाश बनेगा। सारी मनुष्य-जाति का विनाश बनता तो भी ठीक है, लेकिन उसके साथ ही सारे पशुओं, सारे पौधों का विनाश भी बनेगा। जीवन मात्र नष्ट हो जाएगा, तीसरा महायुद्ध यदि होता है।
आदमी ने युद्ध के संबंध में इतना विकास कर लिया है, मृत्यु के संबंध में हमने इतनी साधन-सामग्री जुटा ली है, लेकिन जीवन के संबंध में हम बहुत निरीह, दयनीय और दरिद्र हैं। मृत्यु का इतना आयोजन है और जीवन को जीने की कोई कला विकसित नहीं हो पाई है।
मैं थोड़ी सी कल्पना देना चाहूंगा कि अगर तीसरा महायुद्ध होगा तो क्या होगा।
दूसरे महायुद्ध में, हिरोशिमा और नागासाकी के तुमने नाम सुने होंगे, वहां अणु बम गिराया गया। एक अणु बम से हिरोशिमा में एक लाख लोगों की थोड़ी ही घड़ियों में हत्या हो गई। उनमें तुम जैसे ही स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे और बच्चियां भी थीं। उनमें तुम्हारे जैसे शिक्षक भी थे जो स्कूल में बच्चों को निर्मित करने में जीवन अपना खपा रहे थे।
एक छोटी लड़की अपना होमवर्क करने के लिए अपना बस्ता लेकर अपने घर की दूसरी मंजिल में जा रही थी। बीच की सीढ़ियों पर अपने बस्ते को हाथ में लिए और एक हाथ में लालटेन लिए हुए ऊपर चढ़ रही थी। उसी समय एटम गिरा, वह बच्ची वहीं सूख कर अपने बस्ते के साथ दीवाल से चिपक गई। किसी मित्र ने मुझे उसका चित्र भेजा। वह होमवर्क अधूरा रह गया। उस बच्ची को कल्पना भी नहीं थी, किसी को कल्पना नहीं थी कि थोड़ी ही घड़ियों में, जो भी वहां थे वे सभी सूख कर समाप्त हो जाएंगे। एक लाख आदमी एक बम से मरे।
बीस वर्षों में वह बम बच्चों का खिलौना सिद्ध हो गया है। अब इतने बड़े बम विकसित हुए हैं कि हिरोशिमा जैसा नगर बहुत छोटा है। बंबई जैसे बड़े नगर पर, न्यूयार्क जैसे बड़े नगर पर एक बम पर्याप्त होगा, चालीस लाख, पचास लाख, एक करोड़ आदमियों की हत्या के लिए।
सभी जानते हैं, हम घरों में पानी गरम करते हैं, सौ डिग्री पर पानी गरम होता है तो भाप बनना शुरू हो जाता है। अगर उस उबलते हुए पानी में तुममें से किसी बच्ची को उसमें डाल दिया जाए तो उसके प्राणों को क्या होगा? सौ डिग्री में उबलते हुए पानी में तुम्हें डाल दिया जाए तो क्या होगा? लेकिन तुम्हें शायद पता न हो कि सौ डिग्री कोई बहुत बड़ी गर्मी नहीं है। पंद्रह सौ डिग्री गर्मी पर लोहा पिघल कर पानी हो जाता है। अगर उस पिघले हुए लोहे में तुम्हें डाल दिया जाए तो तुम्हें क्या होगा? लेकिन पंद्रह सौ डिग्री गर्मी भी कोई बहुत बड़ी गर्मी नहीं है, पच्चीस सौ डिग्री गर्मी पर लोहा भी भाप बन कर उड़ने लगता है। जैसा सौ डिग्री पर पानी भाप बन कर उड़ता है, वैसा पच्चीस सौ डिग्री पर लोहा भी भाप बन कर उड़ता है। अगर उसमें तुम्हें डाल दिया जाए तो क्या होगा? लेकिन पच्चीस सौ डिग्री भी कोई बहुत बड़ी गर्मी नहीं है, एक उदजन बम के विस्फोट से जो गर्मी पैदा होती है वह होती है दस करोड़ डिग्री! एक नगर पर जब एक उदजन बम गिरेगा तो दस करोड़ डिग्री गर्मी पैदा होगी! पच्चीस सौ डिग्री पर लोहा भाप बन जाता है, तो दस करोड़ डिग्री पर क्या होगा? यह गर्मी उतनी ही होगी जितनी सूरज के ऊपर है।
सूरज हमसे कितनी दूर है? सूरज हमसे कोई नौ करोड़ मील दूर है। यह नौ करोड़ मील दूर सूरज थोड़ा ही पास आ जाता है, जैसे अभी भावनगर के पास आ गया, तो हम गर्मी से परेशान हुए जाते हैं। अगर यह सूरज ठेठ तुम्हारे घर में आ जाए तो क्या होगा? उदजन बम के गिरने से यही होगा कि सूरज तुम्हारे घर में आ जाएगा। दस करोड़ डिग्री की गर्मी तुम्हारे घर में जल उठेगी। उतनी गर्मी में किसी तरह के जीवन के बचने की कोई संभावना नहीं। भूल-चूक से भी कोई नहीं बच सकता है।
फिर यह गर्मी कोई छोटी-मोटी जगह में पैदा नहीं होगी। एक उदजन बम से जो गर्मी पैदा होगी उसका घेरा होगा चालीस हजार वर्गमील। चालीस हजार वर्गमील का स्थान दस करोड़ डिग्री गर्मी की भट्टी बन जाएगा। पौधे, पक्षी, आदमी, छोटे-छोटे कीटाणु, सभी उसमें जल कर राख हो जाएंगे। ऐसे उदजन बम पचास हजार तैयार करके आदमी ने रख लिए हैं। पचास हजार उदजन बम ज्यादा हैं, यह पृथ्वी छोटी है, इस तरह की सात पृथ्वियों को नष्ट करने के लिए काफी हैं। या तुम ऐसा समझ सकते हो कि आदमियों की संख्या अभी कम है। शायद इसीलिए राजनीतिज्ञ युद्ध के लिए थोड़ी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि संख्या थोड़ी पूरी हो जाए।
इक्कीस अरब आदमी मारने का इंतजाम कर लिया है। अभी संख्या तीन अरब ही है। या ऐसा समझ सकते हो कि अगर एक-एक आदमी को हमें सात-सात बार मारना पड़े तो हमने व्यवस्था कर ली है। हालांकि एक आदमी एक ही बार में मर जाता है, सात बार मारने की कोई जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन राजनीतिज्ञ सोचते हैं कि कोई भूल-चूक हो जाए और कोई जिंदा बच जाए तो ठीक नहीं। एक आदमी एक बार बच जाएगा मरने से, दुबारा मार सकते हैं, तिबारा मार सकते हैं, सात बार मार सकते हैं। इतना विनाश, इतनी घृणा और इतनी हिंसा जिस सभ्यता में पैदा होती हो, उस सभ्यता में कोई न कोई भूल होनी चाहिए।
एक छोटी सी कहानी से मैं इस बात को तुम्हें समझाने की कोशिश करूं कि यह कैसी बीमारी से भरी हुई, विक्षिप्तता से भरी हुई सभ्यता हमने पैदा कर ली है। और निश्चित ही सभ्यता को निर्मित करती है शिक्षा। सभ्य और असभ्य आदमी में अगर कोई फर्क है तो शिक्षा का फर्क है। अगर सभ्यता रुग्ण और बीमार है, तो शिक्षा रुग्ण और बीमार होगी ही। अगर मनुष्य की ऐसी विकृति हो गई है, तो पीछे जो शिक्षा दी जा रही है वह बुनियादी रूप से भूल भरी होनी चाहिए। क्योंकि उसी शिक्षा से गुजर कर ऐसा आदमी पैदा हो रहा है।
यह आश्चर्य की बात है! अशिक्षित आदमी इतना खतरनाक नहीं था। और यहां तक संभावनाएं पैदा हो गई हैं कि पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक डी.एच.लारेंस ने यह सुझाव दिया है कि अगर सौ वर्षों के लिए सारी दुनिया के सब शिक्षालय बंद कर दिए जाएं तो ही आदमी को बचाया जा सकता है, अन्यथा नहीं बचाया जा सकता।
वह कहानी मैं कहूं, फिर मैं तुम्हें समझाने की कोशिश करूं कि शिक्षा में कहां बुनियादी बात कोई भूल भरी हो गई है।
दूसरे महायुद्ध के बाद परमात्मा बहुत परेशान हो गया। बहुत परेशान हो गया कि आदमी ने इतने विनाश के साधन विकसित कर लिए हैं कि अब जीवन का पृथ्वी पर बचने का कोई उपाय नहीं है। उसने घबड़ा कर दुनिया के तीन बड़े प्रतिनिधियों को--रूस को, अमेरिका को और ब्रिटेन को--अपने पास बुलाया और उनसे प्रार्थना की कि तुम क्या चाहते हो? किसलिए युद्ध की तैयारी कर रहे हो? तुम्हारी मर्जी क्या है? तुम्हारी इच्छा क्या है? तुम जो चाहोगे, मैं वरदान दे देता हूं, वह पूरा हो जाएगा। तुम मुझसे मांग लो, तुम्हारी आकांक्षा पूरी कर दूंगा। लेकिन युद्ध मत करो, विनाश मत करो, आदमी को जीने दो।
अमेरिका के प्रतिनिधि ने कहा, अगर आप वरदान देते हो तो युद्ध कभी भी नहीं होगा। छोटा सा वरदान दे दें। फिर हम कभी भी नहीं लड़ेंगे। और वह छोटा सा वरदान यह है: पृथ्वी तो रहे, लेकिन पृथ्वी पर हम रूस का कोई नाम-निशान नहीं देखना चाहते। रूस मिट जाए, बस हमारी आकांक्षा पूरी हो जाती है।
ईश्वर ने नहीं सोचा होगा कि ऐसा वरदान कोई मांगेगा। उसने घबड़ा कर रूस की तरफ देखा।
रूस के प्रतिनिधि ने कहा, महानुभाव, पहले तो हम आपको यह बता दें--शायद आप तक खबर न पहुंची हो--कि हमारे देश ने यह निश्चय कर लिया है कि ईश्वर कहीं है ही नहीं, आप हैं ही नहीं। आप जो मुझे दिखाई पड़ रहे हैं तो मैं सोचता हूं कि या तो मैंने शराब ज्यादा पी ली है, या तो मुझे कोई स्वप्न दिखाई दे रहा है। फिर भी हम आपकी पूजा दुबारा शुरू कर देंगे अपने देश में, हमारे मंदिरों में, चर्चों में आपकी मूर्तियां फिर से बिठा देंगे, फिर से दीये जलाएंगे और फूल चढ़ाएंगे, अगर एक इच्छा हमारी पूरी हो जाए: दुनिया के नक्शे पर हम अमेरिका के लिए कोई रंग-रेखा नहीं देखना चाहते हैं। अमेरिका न रहे, फिर कोई युद्ध की जरूरत नहीं है। और यह भी हम आपको सचेत कर दें कि अगर आपने वरदान न दिया तो घबड़ाने की कोई बात नहीं, हमने तय कर रखा है हम बिना वरदान के भी अमेरिका को मिटा कर ही रहेंगे। और हमने इस शर्त पर भी तय कर रखा है कि चाहे हम खुद भी मिट जाएं मिटाने में, लेकिन हम पीछे हटने वाले नहीं हैं।
ईश्वर ने बहुत घबड़ा कर ब्रिटेन की तरफ देखा। और ब्रिटेन के प्रतिनिधि ने जो कहा वह तुम अपने मन में बहुत सम्हाल कर रख लेना। ब्रिटेन के प्रतिनिधि ने परमात्मा के पैरों पर सिर रख दिया और कहा, हे प्रभु, हमारी अपनी कोई आकांक्षा नहीं। इन दोनों की आकांक्षाएं एक साथ पूरी कर दी जाएं, हमारी आकांक्षा पूरी हो जाती है। हम अलग से कुछ भी नहीं मांगते हैं, इन दोनों ने जो मांगा है, आप पूरा कर दें, हमारी इच्छा अपने आप पूरी हो जाएगी।
यह तो कहानी कल्पित ही है, लेकिन हम सबके मन की दशा भी यही है। सारी मनुष्य-जाति की मन की दशा यह है। हम जैसे एक-दूसरे के विनाश के लिए आतुर हो उठे हैं। कोई पूछे कि यह आतुरता क्यों है?
आतुरता होनी चाहिए जीवन को जीने के लिए, आतुरता होनी चाहिए कि हम और आनंदपूर्ण जीवन को कैसे निर्मित करें। लेकिन आतुरता इस बात की है कि हम किसी को विनष्ट कैसे करें। और इस शर्त पर भी कि चाहे हम विनष्ट हो जाएं। कौन सी भूल हो गई है इस सारी दौड़ में।
पहली भूल और बुनियादी भूल जो सारी शिक्षा और सारी सभ्यता को खाए जा रही है, वह यह है कि अब तक के जीवन का सारा निर्माण पुरुष के आसपास हुआ है, स्त्री के आसपास नहीं। अब तक की सारी सभ्यता, सारी संस्कृति, सारी शिक्षा पुरुष ने निर्मित की है, पुरुष के ढंग से निर्मित हुई है, स्त्री के ढंग से नहीं।
पुरुष के जो गुण हैं सभ्यता में उनको ही सब कुछ मान रखा है। स्त्री की जो संभावना है, स्त्री के जो मन के भीतर छिपे हुए बीज हैं, वे जैसे विकसित हो सकते हैं उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया है। पुरुष बिलकुल अधूरा है, स्त्री के बिना तो बहुत अधूरा है। और पुरुष अगर अकेला ही सभ्यता को निर्मित करेगा तो वह सभ्यता भी अधूरी होगी; न केवल अधूरी होगी, बल्कि खतरनाक भी होगी। वह खतरनाक इसलिए होगी कि पुरुष के मन की जो तीव्र आकांक्षा है वह एंबीशन है, महत्वाकांक्षा है।
पुरुष के मन में प्रेम बहुत गहराई पर नहीं है। महत्वाकांक्षा और जहां महत्वाकांक्षा है वहांर् ईष्या होगी, जहां महत्वाकांक्षा है वहां हिंसा होगी, जहां महत्वाकांक्षा है वहां घृणा होगी, जहां महत्वाकांक्षा है वहां युद्ध होगा। पुरुष का सारा चित्त एंबीशन से भरा हुआ है। स्त्री के चित्त में एंबीशन नहीं हैं, महत्वाकांक्षा नहीं है बल्कि प्रेम है। और हमारी पूरी सभ्यता प्रेम से बिलकुल शून्य है। प्रेम से बिलकुल रिक्त, प्रेम की इसमें कोई जगह नहीं है। पुरुष ने अपने ही ढंग से पूरी बात निर्मित कर ली है। उसकी सारी शिक्षा भी उसने अपने ढंग से निर्मित कर ली है। उसने जीवन की जो संरचना की है वह अपने ही ढंग से की है। उसमें युद्ध प्रमुख है, उसमें संघर्ष प्रमुख है, उसमें तलवार प्रमुख है।
यहां तक कि अगर कोई स्त्री भी तलवार लेकर खड़ी हो जाती है तो पुरुष उसे बहुत आदर देता है। जीनफ आर्क को, झांसी की रानी लक्ष्मी को, पुरुष बहुत आदर देता है। इसलिए नहीं कि वे बहुत कीमती स्त्रियां थीं, बल्कि इसलिए कि वे पुरुष जैसी स्त्रियां थीं। वह उनकी मूर्तियां खड़ी करता है चौरस्तों पर। वह गीत गाता है खूब लड़ी मर्दानी, झांसी वाली रानी थी। वह कहता है कि वह मर्दानी थी इसलिए आदर देता है। लेकिन अगर कोई पुरुष जनाना हो तो अनादर करता है, आदर नहीं देता। स्त्री मर्दानी हो तो आदर देता है, स्त्री तलवार लेकर लड़ती हो, सैनिक बनती हो तो पुरुष के मन में सम्मान है। पुरुष के मन में हिंसा के और महत्वाकांक्षा के अतिरिक्त किसी बात का कोई सम्मान नहीं है।
यह जो पुरुष अधूरा है, सारी शिक्षा भी उसी पुरुष के लिए निर्मित हुई है। हजारों वर्षों तक स्त्री को कोई शिक्षा नहीं दी गई। एक बड़ी भूल थी कि स्त्री अशिक्षित रह जाए। फिर कुछ वर्षों से स्त्री को शिक्षा दी जा रही है। और अब दूसरी भूल की जा रही है कि स्त्री को पुरुषों जैसी शिक्षा दी जा रही है। यह अशिक्षित स्त्री से भी खतरनाक स्त्री को पैदा करेगी। अशिक्षित स्त्री कम से कम स्त्री थी। शिक्षित स्त्री पुरुष के ज्यादा करीब आ जाती है, स्त्री कम रह जाती है। क्योंकि जिस शिक्षा से गुजरती है उसका मौलिक निर्माण पुरुष के लिए हुआ है। एक ऐसी स्त्री पैदा हो रही है सारी दुनिया में, जो अगर सौ दो सौ वर्ष इसी तरह की शिक्षा चलती रही तो अपनी समस्त स्त्री-धर्म को खो देगी। उसके जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, उसकी प्रतिभा में जो भी कीमती है, उसके स्वभाव में जो भी सत्य है वह सब भी नष्ट हो जाएगा।
पश्चिम में उस विघटन के लक्षण स्पष्ट दिखाई देने शुरू हो गए। स्त्रियों ने करीब-करीब पुरुषों के वस्त्र पहनने शुरू कर दिए हैं। यह आकस्मिक नहीं है। यह पुरुष की नकल की जो दौड़ है उसका एक हिस्सा है। वह पुरुषों जैसी कवायद कर रही है, पुरुषों जैसी मिलिटरी में जा रही है, पुरुषों जैसी विषयों की शिक्षा ले रही है--गणित, अर्थशास्त्र, कामर्स, फिजिक्स, केमिस्ट्री उन सब की वह शिक्षा ले रही है।
वह इस योग्य बनाई जा रही है कि वह नंबर दो का पुरुष बन सके। दफ्तरों में, दुकानों में, बाजारों में उसे पुरुष की जगह सब्स्टीटयूट बनाया जा सके, वह पुरुष की परिपूरक हो सके। उसे ठीक पुरुष जैसा कैसे बनाया जाए इसकी सारी चेष्टा की जा रही है। और यह भले लोग कर रहे हैं--समाज सुधारक, समाज सेवक। वे लोग जो सोचते हैं कि स्त्री का इस भांति उद्धार होगा। थोड़ी दूर तक बात सच है। स्त्री शिक्षित होनी चाहिए लेकिन उस तरह की शिक्षा में नहीं जो पुरुष की है। स्त्री के लिए ठीक स्त्री जैसी शिक्षा विकसित होनी जरूरी है। यह हमारे ध्यान में नहीं है और अभी मनुष्य जाति के किन्हीं विचारकों के ध्यान में बहुत स्पष्ट नहीं है कि नारी की शिक्षा पुरुष से बिलकुल ही भिन्न शिक्षा होगी।
नारी भिन्न है। हजारों साल तक यह समझा जाता रहा कि नारी पुरुष के बराबर नहीं है। वह उससे नीची है। कुछ देश तो ऐसे थे और करीब-करीब सारे देश ऐसे थे जहां स्त्री का जितना अपमान हो सकता था उतना अपमान किया गया। हमारे इस देश में ही स्त्री को धन से ज्यादा कीमती कभी नहीं समझा गया। उसे स्त्री धन ही हम कहते रहे। चीन में तो यह हालत थी आज से सौ वर्ष पहले तक कि अगर कोई पति अपनी पत्नी की हत्या कर दे तो उसमें अदालत में मुकदमा भी नहीं चल सकता था। पत्नी उसकी संपत्ति थी, वह चाहे तो बनाए, चाहे तो मिटा दे।
चीन में सौ वर्ष पहले तक स्त्री में आत्मा भी नहीं स्वीकृत की जाती थी कि उसमें आत्मा भी है। वह भी फर्नीचर की तरह, घर के और सामान की तरह एक सामान है।
भारत ने भी कोई बहुत अच्छा व्यवहार नहीं किया। करोड़ों स्त्रियों को हमने जला दिया सती के नाम पर। पुरुष के मन में इतनी तीव्र पजेशन की भावना है, इतनी मालकियत की भावना है कि वह अपने जीते जी तो वह यह कल्पना ही नहीं कर सकता कि उसकी स्त्री किसी की तरफ प्रेम से देख ले। लेकिन अपने मर जाने के बाद भी कहीं वह किसी के प्रति प्रेमपूर्ण न हो जाए। उसने व्यवस्था कर ली कि वह उसके मरने के साथ ही चिता पर जल जाए। बहाने उसने यह बताए कि स्त्री के मन में इतना प्रेम है पुरुष के प्रति कि वह उसके साथ मरना चाहती है।
लेकिन बड़ा आश्चर्य है कि न तो इन शास्त्र लिखने वालों ने, न इनको मानने वालों ने, हजारों साल में एक भी पुरुष को इतना प्रेम मालूम नहीं पड़ा कि वह अपनी पत्नी के साथ जल जाता। लेकिन स्त्रियों को वह समझाता रहा कि उसे पति के साथ जल जाना चाहिए। हजारों स्त्रियों को चिताओं पर जबरदस्ती चढ़ा दिया गया। शायद तुम्हें पता भी न हो, क्योंकि वह बात ही अब धीरे-धीरे भूल गई कि स्त्रियों को चिता पर चढ़ाने के लिए पुरुष ने क्या-क्या व्यवस्था की थी। और चूंकि शास्त्र लिखने वाले सभी पुरुष थे। स्वभावतः उन्होंने यह नहीं लिखा कि पुरुष को अपनी पत्नी के साथ मर जाना चाहिए। उन्होंने यही लिखा कि पत्नी को अपने पति के साथ मर जाना चाहिए।
किसी का पति मर गया है वह इतने दुःख में होती कि उसके मन में खुद ही खयाल उठते कि मैं मर जाऊं। और तभी सारा गांव उससे पूछने आकर इकट्ठा होता है कि तुम पति के साथ सती होना चाहती हो। अगर वह इनकार कर दे तो सारे गांव में अपमान और बदनामी की लहर फैल जाती। फिर उसका जीवन दूभर था, फिर जीना मुश्किल था। स्वभावतः अनिवार्यतया उसे हां भर देना पड़ता। लेकिन जिंदा आदमी को चिता पर चढ़ाना आग में डालना आसान बात नहीं है। तो बहुत बड़े-बड़े ढोल और बाजे चिता के आसपास बजाए जाते हैं ताकि जलती हुई स्त्री की आवाज किसी को बाहर सुनाई न पड़े।
और पुजारी बहुत बड़ी-बड़ी मशालें लेकर चिता के आसपास खड़े होते हैं क्योंकि जिंदा आदमी आग से भागेगा, बाहर निकलना चाहेगा। वह आधी जलती हुई स्त्री बाहर दौड़ेगी तो मशालों से उसे धक्के देकर वापस चिता में गिरा देने का इंतजाम रखते। लेकिन इसको भी कोई देख न ले इसलिए चिता में इतना घी डाला जाता, इतना धुआं पैदा किया जाता कि किसी को कुछ दिखाई न पड़े कि क्या हो रहा है।
ऐसी हजारों, लाखों, करोड़ों स्त्रियों को जला दिया गया। उन्हें पुरुष के बराबर कोई स्थिति अतीत के इतिहास ने नहीं दी थी। यह अत्यंत पापपूर्ण था। लेकिन बड़े मजे की बात है, एक भूल से जब आदमी बचता है तो दूसरी भूल करना शुरू कर देता है। उस भूल से बचने के लिए सारी दुनिया में आंदोलन चलाया गया कि स्त्री पुरुष के समान है। यह आंदोलन ठीक था। स्त्री को पुरुष के समान अधिकार मिलने चाहिए यह भी ठीक था। स्त्री को पुरुष के समान आदर मिलना चाहिए यह भी ठीक था।
लेकिन इस आंदोलन से एक नई हवा पैदा हुई और वह यह कि स्त्री और पुरुष में कोई भेद ही नहीं है, वे दोनों बिलकुल समान हैं। इक्वलिटी का मतलब सिमिलैरिटी पकड़ लिया गया। वे दोनों समान हैं इसका यह मतलब हो गया कि वे दोनों में कोई भिन्नता नहीं है। उनको एक सी शिक्षा मिलनी चाहिए, एक से वस्त्र मिलने चाहिए, एक सी नौकरी मिलनी चाहिए।
मैं आपको यह कहना चाहता हूं, स्त्री और पुरुष समान आदर के पात्र हैं लेकिन समान बिलकुल भी नहीं हैं। बिलकुल असमान हैं। स्त्री स्त्री है, पुरुष पुरुष है। और उन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। इस फर्क को अगर ध्यान में न रखा जाए तो जो भी शिक्षा होगी वह स्त्री के लिए बहुत आत्मघाती होने वाली है। वह स्त्री को नष्ट करने वाली होगी।
स्त्री और पुरुष मौलिक रूप से भिन्न हैं। और उनकी यह जो मौलिक भिन्नता है यह जो पोलेरिटी है, जैसे उत्तर और दक्षिण ध्रुव भिन्न हैं, जैसे बिजली का निगेटिव और पाजिटिव पोल भिन्न हैं, यह जो इतनी पोलेरिटी है, इतनी भिन्नता है इसी की वजह से उनके बीच इतना आकर्षण है। इसी के कारण वे एक-दूसरे के सहयोगी और साथी और मित्र बन पाते हैं।
यह असमानता जितनी कम होगी, यह भिन्नता जितनी कम होगी, यह दूरी जितनी कम होगी, उतना ही खतरनाक है मनुष्य के लिए। मेरी दृष्टि में स्त्रियों को पुरुषों जैसे बनाने वाली शिक्षा, सारी दुनिया में हर, हर एक-एक बच्चे तक पहुंचाई जा रही है। पुरुष तो पहले से ही विक्षिप्त सभ्यता को जन्म दिया है। एक आशा है कि स्त्री एक नई सभ्यता की उन्नायक बने। लेकिन वह आशा भी समाप्त हो जाएगी अगर स्त्री भी पुरुष की भांति दीक्षित हो जाती।
हम जो पढ़ते हैं और जो सीखते हैं वह हमारे व्यक्तित्व को निर्मित करता है। एक गणितज्ञ का जीवन व्यवहार और तरह का होता है, एक कवि के जीवन व्यवहार से। जो व्यक्ति वर्षों तक काव्य पढ़ता है, उसकी जीवनचर्या, उसकी जीवन दृष्टि और हो जाती है--बजाय उस आदमी के जो जीवन भर गणित पढ़ता है।
एक गणितज्ञ का मुझे खयाल आता है। हेरोटोटस एक बहुत बड़ा विचारक और गणितज्ञ था। उसी आदमी ने सबसे पहले एवरेज का सिद्धांत, औसत का सिद्धांत निकाला।
सब बच्चियां जानती होंगी औसत का सिद्धांत क्या है। हम कहते हैं कि हिंदुस्तान में एक-एक आदमी की औसत आमदनी इतनी है। सारे लोगों की आमदनी जोड़ देते हैं और सारे लोगों का भाग दे देते हैं, तो औसत आमदनी निकल आती है। यहां हम इतने लोग बैठे हैं। हम सब की उम्र जोड़ दी जाए और हमारी संख्या का भाग दे दिया जाए तो हमारी औसत उम्र, एवरेज उम्र निकल आएगी।
इस सिद्धांत को हेरोटोटस ने सबसे पहले खोजा। वह अपने सिद्धांत को खोजने में इतना तल्लीन हो गया कि एक दिन सुबह अपनी पत्नी और अपने पांच बच्चों को लेकर पिकनिक पर गया हुआ था नदी के पार। छोटी सी नदी थी। पांच बच्चे थे, पत्नी थी; उसकी पत्नी ने कहा कि बच्चों को हाथ पकड़ कर नदी के पार कर दें। हेरोटोटस ने कहा, घबड़ाओ मत! तुम्हें पता नहीं कि मैंने औसत का सिद्धांत खोज निकाला है। मैं नदी की औसत गहराई नापे लेता हूं और बच्चों की औसत ऊंचाई नापे लेता हूं। अगर बच्चे औसत गहराई से औसत ऊंचे ज्यादा हुए तो सब बच्चे पार हो जाएंगे, किसी को हाथ पकड़ने की कोई जरूरत नहीं।
पति इतना बड़ा गणितज्ञ था, पत्नी कुछ भी नहीं कह सकी। उसने जल्दी से उस छोटा सा नाला था जाकर उसकी गहराई नाप ली। अपने बच्चों की ऊंचाई नाप ली। औसत बच्चा ऊंचा था। नाला कहीं कम गहरा था कहीं ज्यादा गहरा था। एक बच्चा छोटा था, एक बच्चा बड़ा था। लेकिन गणित में उनकी कोई पकड़ नहीं आई। बच्चे ऊंचे थे, गहराई से ज्यादा थे, हेरोटोटस आगे चला, बच्चे बीच में चले, पत्नी पीछे चली। छोटे दो बच्चे डूबने लगे, तो उसकी पत्नी ने कहा कि बच्चे डूबते हैं। तो तुम्हें पता हो, खयाल भी नहीं होगा, हेरोटोटस को बच्चों के डूबने की खबर सुन कर जो पहली बात खयाल आई वह यह नहीं कि बच्चा डूब जाएगा, वह यह खयाल आई कि क्या मेरे गणित में कोई गलती रह गई। वह भागा नदी के उस तरफ, बच्चों को बचाने नहीं, रेत पर उसने जो गणित किया था उसे देखने कि कहीं कोई गलती तो नहीं रह गई।
वह गणितज्ञ का मन है। वह अंकगणित के हिसाब से सोचता है। उसके लिए हृदय का कोई गणित नहीं है। सारी स्त्रियों को भी हम गणित की, अंकगणित की शिक्षा दे रहे हैं। जितना गणित उनके भीतर भारी होता जाएगा, उतने उनके भीतर हार्दिकता की संभावना क्षीण होती चली जाएगी।
मेरी दृष्टि में स्त्री को गणित की नहीं, संगीत की और काव्य की शिक्षा ही उपयोगी है। उसे इंजीनियर बनाने की कोई भी जरूरत नहीं। इंजीनियर वैसे ही जरूरत से ज्यादा हैं। पुरुष पर्याप्त हैं इंजीनियर होने को। स्त्री को कुछ और होने की जरूरत है। क्योंकि अकेले इंजीनियरों से और अकेले गणितज्ञों से जीवन समृद्ध नहीं होता। उनकी जरूरत है, उनकी उपयोगिता है। लेकिन वे ही जीवन के लिए पर्याप्त नहीं हैं। जीवन की खुशी किन्हीं और बातों पर निर्भर करती है। बड़े से बड़ा इंजीनियर और बड़े से बड़ा गणितज्ञ भी जीवन में उतनी खुशी नहीं जोड़ पाता जितना गांव में एक बांसुरी बजाने वाला जोड़ देता है।
मनुष्य-जाति की खुशी बढ़ाने वाले लोग, मनुष्य के जीवन में आनंद के फूल खिलाने वाले लोग वे नहीं हैं जो प्रयोगशालाओं में जीवन भर प्रयोग ही करते रहते हैं। उनसे भी ज्यादा वे लोग हैं जो जीवन के गीत गाते हैं और जीवन के काव्य को अवतरित करते हैं।
मनुष्य जीता किसलिए है? काम के लिए, फैक्ट्री चलाने के लिए। रास्ते बनाने के लिए, मनुष्य रास्ते बनाता है, फैक्ट्री भी चलाता है, दुकान भी चलाता है, इसलिए कि इन सब से एक व्यवस्था बन सके और उस व्यवस्था में वह आनंद, शांति और प्रेम को पा सके। वह जीता हमेशा प्रेम और आनंद के लिए है। लेकिन कई बार ऐसा हो जाता है कि साधनों की चेष्टा में हम इतने संलग्न हो जाते हैं कि साध्य ही भूल जाता है।
मेरी दृष्टि में पुरुष की सारी शिक्षा साधन की शिक्षा है। स्त्री की सारी शिक्षा साध्य की शिक्षा होनी चाहिए साधन की नहीं। ताकि वह पुरुष के अधूरेपन को पूरा कर सके। वह पुरुष के लिए परिपूरक हो सके, वह पुरुष के जीवन में जो अधूरी है जो कमी है उसे भर सके। पुरुष फैक्ट्रियां खड़ी कर लेगा, बगीचे कौन लगाएगा? पुरुष बड़े मकान खड़े कर लेगा लेकिन उन मकानों में गीत कौन गुंजाएगा? पुरुष एक दुनिया बना लेगा जो मशीनों की होगी, लेकिन उन मशीनों के बीच फूलों की जगह कौन बनाएगा? और स्त्रियों को भी हम जो शिक्षा दे रहे हैं वह भी मशीन बनाने वाली, मकान बनाने वाली, सड़क बनाने वाली।
जिंदगी के फूल कैसे निर्मित हों उसकी कोई शिक्षा उनके पास नहीं। और यह हम क्यों कर रहे हैं, हम यह इसलिए कर रहे हैं कि स्त्री में भी हमने एक फीवर, एक ज्वर पैदा कर दिया है कि उसे पुरुष के मुकाबले काम्पिटीशन में खड़ा होना है। मैं आपसे कहना चाहता हूं, अगर स्त्री को अपने स्वधर्म को उपलब्ध करना हो तो उसे पुरुष से सारी प्रतिस्पद्र्धा छोड़ देनी चाहिए। उस प्रतिस्पद्र्धा में पुरुष कुछ भी नहीं खोएगा, स्त्री सब कुछ खो देगी। क्योंकि उस प्रतिस्पद्र्धा के लिए उसे पुरुष बन जाना पड़ेगा। उसे पुरुष की भूमि पर लड़ने के लिए खड़ा होना पड़ेगा। स्त्री को घोषणा करनी चाहिए कि हमारी भूमि अलग है। स्त्री को अहसास होना चाहिए कि उसके पास कोई जीवन का और बड़ा मिशन है, कोई और बड़ा संदेश है। जीवन को आनंद देने की और बड़ी क्षमता है।
पश्चिम में, पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक सी.ई.एम.जोड ने कुछ दिन पहले लिखा कि जब मैं पैदा हुआ था, जब बच्चा था, देयर वर होमस, पश्चिम में घर थे, लेकिन अब जब मैं बूढ़ा हो गया हूं देयर आर ओनली हाउसिज, अब मकान ही रह गए हैं घर कोई भी नहीं। होमस नहीं रहे, हाउसिज रह गए हैं। एक मकान होम से हाऊस कैसे बन जाता है? एक मकान हाऊस से होम कैसे हो जाता है?
सिर्फ एक स्त्री के फर्क से और किसी चीज के फर्क से नहीं। एक मकान सिर्फ मकान है अगर उसमें पुरुष ही रहते हैं। वह कभी घर नहीं बन सकता। उसमें एक स्त्री का आगमन होता है और वह मकान बदल जाता है। सारी कीमिया बदल जाती हैं, उस घर की सारी हवा बदल जाती है। वह घर बिलकुल नई शक्ल ले लेता है, वह नया रूप ले लेता है। अब वह घर बन जाता है। वह एक प्रेम का मंदिर बन जाता है। वह एक इंजीनियरिंग का केवल एक नमूना नहीं रह जाता, वह प्रेम का और काव्य का भी एक आदर्श बन जाता है।
लेकिन वैसी स्त्री विलीन होती जाएगी, हम जो शिक्षा दे रहे हैं वह वैसी स्त्री को धीरे-धीरे विलीन कर रही है। अब तो सारी दुनिया में स्त्रियों को भी मिलिटरी और सैन्य शिक्षण के लिए चेष्टा की जा रही है। उनसे भी एन.सी.सी. और दूसरे तरह के क्रेडिट कोड बना कर कवायद करवाई जा रही है। सैनिकों के वस्त्र पहनाए जा रहे हैं, हाथ में उनके बंदूकें दी जा रही हैं। हम यह क्या कर रहे हैं? और जो कर रहे हैं वे इस खयाल में हैं कि बहुत बड़ा उपकार कर रहे हैं। वे स्त्री को विनष्ट कर रहे हैं। वे उसे नष्ट कर रहे हैं। स्त्री के पूरी की पूरी फिजिआलाजी, उसका पूरा शरीर और तरह का है। एक कवायद करने वाले व्यक्ति में रासायनिक परिवर्तन हो जाते हैं।
जो स्त्रियां पुरुषों जैसा श्रम करती हैं तुम्हें जान कर हैरानी होगी उनको दाढ़ी और मूंछ भी निकलनी शुरू हो जाती। उनके सारे शारीरिक केमिस्ट्री में, उनके सारे शारीरिक कीमिया में फर्क होना शुरू होता है। उनके व्यक्तित्व में पुरुष जैसी कठोरता आनी शुरू हो जाती है। उनके व्यक्तित्व में पुरुष जैसा अग्रेसिव आक्रमण भाव शुरू हो जाता है। और एक बार स्त्री के मन में आक्रमण की भावना शुरू हो जाए, फिर वह कभी पत्नी नहीं बनाई जा सकती। इसलिए पश्चिम का घर टूट रहा है। एक-एक स्त्री जीवन में बीस-बीस तलाक दे रही है।
अमेरिका में सौ में से चालीस स्त्रियां ऐसी हैं जो अपने पतियों को आए दिन बदल रही हैं। चालीस प्रतिशत, मैंने तो एक घटना सुनी है, एक अमेरिकी अभिनेत्री ने बाईस पति बदले हैं। और जब उसने बाईसवीं शादी की, तो उसे पंद्रह दिन बाद पता चला कि यह आदमी एक बार पहले और उसका पति रह चुका है। इतनी भूल-चूक हो गई, इतने बार पति बदलने में। महीने पंद्रह दिन में पति बदल लिए, तो भूल-चूक हो सकती है। बीस साल बाद वह आदमी दुबारा पति हो जाए, तो पंद्रह दिन बाद पता चले कि यह आदमी पति रह चुका है एक बार। यह जो स्थिति खड़ी होगी मनुष्य को कहां ले जाएगी? मनुष्य को कहां ले गई है?
मेरी दृष्टि में, स्त्री के मनोविज्ञान का भेद वह पुरुष से बुनियादी रूप से भिन्न है। उसमें मौलिक रूप से कुछ ऐसा भेद है कि उस भेद को मिटाने की कोई भी चेष्टा, न तो पूरी तरह सफल हो सकती है और सफल भी हो जाए तो सुफल तो कभी भी नहीं हो सकती। कौन सा भेद है? स्त्री का व्यक्तित्व किन चीजों के केंद्र पर घूमता है? स्त्री के व्यक्तित्व में प्रेम का तो केंद्र है लेकिन महत्वाकांक्षा का कोई केंद्र नहीं है। वह प्रेम के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर सकती है और पुरुष अपनी महत्वाकांक्षा के लिए सब कुछ न्योछावर कर सकता है, प्रेम को भी। लाखों पुरुष इसीलिए अविवाहित रह जाते हैं क्योंकि पत्नी उनकी महत्वाकांक्षा में बाधा बनेगी। सिर्फ इसीलिए अविवाहित रह जाते हैं कि उनकी जो एंबीशन है वह पूरी नहीं हो सकेगी।
हिटलर ने शादी नहीं की। मरने के दो घंटे पहले शादी की। जीवन भर शादी को टालता रहा। और जब भी कोई स्त्री उसके प्रेम में पड़ी, तो उसने यही कहा कि मुझे प्रेम के लिए फुरसत नहीं है, अभी मेरे पास और बड़े काम हैं। जब मेरे सब काम निपट जाएंगे तब मैं सोचूंगा कि प्रेम के लिए भी कोई जगह हो सकती है या नहीं। जिस दिन जर्मनी हार गया और बर्लिन के रास्तों पर बम गिरने लगे और हिटलर के मकान के बाहर गोलियां छूटने लगीं दुश्मनों की। और जब कोई संभावना न रही कि अब जीत सकता है वह, जब उसकी कांच की खिड़कियों में गोलियां आकर लगने लगीं, तब उसने अपनी प्रेयसी से कहा कि अगर तुझे शादी करनी हो तो अब कर ले, लेकिन पक्का जान, घंटे भर बाद मुझे आत्मघात करना है, मैं असफल हो गया हूं, मेरे साथ आत्मघात करना हो तो विवाह कर ले।
थोड़ा सोचें, वह स्त्री राजी हो गई। उसने हिटलर से घंटे भर पहले विवाह किया। बर्लिन हार रहा था। नीचे तलघरे में छिपे हुए एक पादरी ने हिटलर का विवाह करवाया एक घंटे पहले, और एक घंटे भर बाद दोनों जहर खाकर मर गए। वह स्त्री पंद्रह साल से प्रतीक्षा करती थी कि हिटलर जब कहेगा, इस बात को जानते हुए कि वह आदमी घंटे भर बाद मरेगा और मुझे भी उसके साथ मरना है। वह प्रेम के लिए पंद्रह वर्ष प्रतीक्षा की और मरने के क्षण में भी राजी हो गई। लेकिन हिटलर जीवन भर इनकार करता रहा। एंबीशन बड़ी चीज थी, उसे पूरा करने के लिए प्रेम छोड़ा जा सकता है।
स्त्री के व्यक्तित्व के प्रेम को कितना गहरा कर सके ऐसी शिक्षा चाहिए। ऐसी शिक्षा चाहिए जो उसके जीवन को और भी सृजनात्मक प्रेम की तरफ ले जा सके। प्रेम में जरूरी रूप से दो और दो चार नहीं होते, कभी-कभी दो और दो पांच हो जाते हैं, कभी दो और दो तीन भी रह जाते हैं। महत्वाकांक्षा की दुनिया में हमेशा दो और दो चार होते हैं। वहां गणित सीधा और साफ है। हृदय की पगडंडियां बहुत उलझी हुई हैं। हृदय की पगडंडियां काव्य के अर्थ की तरह हैं, संगीत के स्वरों की तरह हैं। महत्वाकांक्षा के रास्ते गणित के सीधे हिसाब हैं। शतरंज की सीधी चालें हैं। स्त्री के व्यक्तित्व को शतरंज की चालों में ढालने के मैं विरोध में हूं।
उसके व्यक्तित्व को तो काव्य की गहराइयां और काव्य की अनबूझ ऊंचाइयों में ले जाने की जरूरत है। क्यों? स्त्री भी उस भांति आनंद को अनुभव करेगी, और इतनी गहरी स्त्री पुरुष के लिए भी उसकी महत्वाकांक्षा और आक्रमण से रोकने वाली संभावना बन जाएगी। स्त्री का प्रेम अगर पुरुष के जीवन को इतना भर दे कि उसकी महत्वाकांक्षा की आग पर पानी की वर्षा पड़ जाए, स्त्री का प्रेम पुरुष के आक्रमक कांटों को इतना छिपा दे कि उसके फूलों में वे कांटे दब जाएं, तो एक दुनिया पैदा हो सकती है, जहां हिंसा न हो और युद्ध न हो। लेकिन पुरुष तो उन गुणों को पसंद भी नहीं करता है--ममता को, प्रेम को, करुणा को।
नीत्शे ने, जो पुरुषों की सभ्यता का इस सदी में सबसे बड़ा समर्थक था, उसने तो बुद्ध को, जीसस को, महावीर को स्त्रैण कहा है कि वे स्त्रैण हैं। वे पुरुष थे ही नहीं, क्योंकि वे जिन गुणों की बातें करते थे वे गुण स्त्रियों के गुण हैं। प्रेम, करुणा और अहिंसा को नीत्शे ने स्त्रैण कहा है। अब तक नीत्शे के विरोध में एक स्त्री ने आवाज नहीं उठाई कि जिन गुणों को स्त्रैण कहा जा रहा है, वे निश्चित स्त्रैण हैं और स्त्रैण होने के कारण अपमानजनक नहीं, बल्कि उतने ही आदरणीय है जितना पुरुष का कोई भी गुण हो।
बल्कि मेरी दृष्टि में स्त्रैण गुण सृजनात्मक गुण हैं। स्त्री को चूंकि मां बनना पड़ता है इसलिए उसके सारे जीवन से हिंसा, घृणा और कठोरता को प्रकृति ने और परमात्मा ने अलग कर रखा है। जैसे ही स्त्री पुरुष के गुणों में दीक्षित होती है वैसे ही वह मां बनने से इनकार करने लगती है। पश्चिम की लाखों स्त्रियों ने मां बनने से इनकार कर दिया। जैसे ही पुरुष की शिक्षा पूरी होगी तुम भी मां बनने से इनकार करोगी। क्योंकि मां बनना तब एक बोझ, एक परेशानी, एक चिंता मालूम होगी। और बड़े आश्चर्य की यह बात है कि कोई भी स्त्री बिना मां बने कभी फुलफिलमेंट को, कभी तृप्ति को उपलब्ध नहीं हो सकती। उसका मोक्ष उसके पूर्णरूपेण मां बन जाने में निर्भर है।
वह जितनी बड़ी मां बन जाती है, जितनी गहरी उतनी ही वह मुक्ति के करीब पहुंच जाती है और परमात्मा के निकट पहुंच जाती है। लेकिन जो धर्म भी विकसित हुए हैं वे भी पुरुषों ने विकसित किए हैं। इसलिए उन धर्मों में भी पुरुष ही प्रमुख है। वे धर्म भी आक्रमक हैं। वे भी परमात्मा के चरणों में सिर रखने की शिक्षा उतनी नहीं देते, जितनी परमात्मा के जगत पर भी हमला कर देने की शिक्षा देते हैं। वे परमात्मा को भी जीत लेने की भाषा में सोचते और बोलते हैं। धर्म, शिक्षा, संस्कृति वे सभी की सभी आक्रमक और महत्वाकांक्षी हैं।
स्त्रियों की संख्या पुरुषों से हमेशा ज्यादा रही है। आज भी ज्यादा है। आधी दुनिया से ज्यादा स्त्रियां हैं। और एक स्त्री की ताकत कम से कम पांच पुरुषों की ताकत के बराबर है। घर में एक स्त्री हो और पांच पुरुष हों, तो पांच पुरुष घर की परिधि पर होते हैं, स्त्री केंद्र पर होती है, वह सेंटर पर होती है, बाकी सर्कमफ्रेंस पर होते हैं, पुरुष घर का, बाहर दीवारी है वह घर की। वह घर के भीतर का, भीतर का बैठक खाना नहीं है। वह घर के बाहर जो दीवाल खींची है सराउंडिंग वह दीवाल है। केंद्र पर स्त्री है। वह मां बनती है तब बच्चे को पालती है, और बच्चा बड़ा होता है। और पत्नी बनती है तब पति जी पाता है।
अगर एक बार स्त्री की शिक्षा सम्यक हो सके और स्त्री के स्वधर्म को पूरा विकसित करने वाली हो सके तो कोई आश्चर्य नहीं कि हम पुरुष के जीवन में भी प्रेम की कुछ बूंदें डाल सकें। तो कोई आश्चर्य नहीं कि हम पुरुष को हिंसा और घृणा के रास्तों से वापस लौटा सकें। तो कोई आश्चर्य नहीं कि पुरुष युद्ध के पागलपन से मुक्त हो जाए और एक शांत और एक आनंदपूर्ण दुनिया के बनाने में संलग्न हो जाए। पुरुष के पास बड़ी शक्तियां हैं। लेकिन वे शक्तियां अगर प्रेम की दिशा में उन्मुख हो जाएं तो एक अच्छी दुनिया बन सकती है। लेकिन वे आज तक प्रेम की दिशा में उन्मुख नहीं की जा सकीं। और अब तो और भी डर पैदा होता है क्योंकि स्त्री को इस तरह से विकृत किया जा रहा है कि इसकी कोई संभावना नहीं मालूम होती कि पुरुष के जीवन में प्रेम को जोड़ा जा सकेगा। स्त्रियां खुद ही प्रेम के आक्रमक जगत में संयुक्त होती चली जा रही हैं।
यह मैं कहना चाहूंगा, आपकी शिक्षण संस्था से, शिक्षकों से, छात्राओं से कि उन्हें इस दिशा में चिंतन करना जरूरी है कि दुनिया में स्त्री को अक्षुण्ण कैसे बचाया जाए? स्त्री को स्त्री ही कैसे बनाया जाए? वे कौन से रास्ते होंगे, कौन सी विधियां होंगी, कौन सी शिक्षा, कौन से विषय होंगे जो स्त्री के भीतर छिपे हुए होने को प्रकट करें और उसे पुरुष होने से बचाएं।
मेरी दृष्टि में विज्ञान की थोड़ी सी प्राथमिक शिक्षा उपयोगी है लेकिन बहुत दूर तक स्त्रियों के लिए विज्ञान की शिक्षा का कोई मूल्य नहीं। अपवाद हो सकते हैं। कुछ स्त्रियां हो सकती हैं लेकिन अपवाद से कोई संबंध नहीं है। विज्ञान की जगह कला और धर्म ज्यादा कीमती बातें हैं। गणित की जगह संगीत ज्यादा मूल्यवान है। कवायद की जगह नृत्य ज्यादा अर्थपूर्ण है। ठीक है कि पुरुष कवायद करें, लेफ्ट-राइट करें। लेकिन स्त्रियां भी मैदानों में जाकर कवायद करें, यह बहुत अशोभन है। स्त्री के व्यक्तित्व में नृत्य की तो जगह है और नृत्य उसके व्यक्तित्व को निखारेगा, गहरा करेगा, ज्यादा सौम्य, ज्यादा प्रीतिकर, ज्यादा आनंदपूर्ण बनाएगा, लेकिन कवायद--कवायद उसे नष्ट करेगी।
और हमें पता नहीं कि छोटी-छोटी चीजें सारे व्यक्तित्व को निर्मित करती हैं। अगर एक आदमी चुस्त कपड़े पहने हुए है, तो एक दूसरे तरह का आदमी निर्मित होता है। और एक आदमी ढीले कपड़े पहने हुए है, तो दूसरी तरह का आदमी निर्मित होता है। सैनिक को कभी भी ढीले कपड़े नहीं पहनाए जा सकते और साधु किसी भी स्थिति में चुस्त कपड़े पहनने को राजी नहीं किया जा सकता। यह आकस्मिक नहीं है, यह एक्सीडेंटल नहीं है। चुस्त कपड़ा लड़ने की तीव्रता देता है। अगर एक आदमी चुस्त कपड़े पहने हुए हैं और सीढ़ियों पर चढ़ रहा है तो वह दो-दो सीढ़ियां एक साथ छलांग लगा कर चढ़ जाएगा। लेकिन ढीले कपड़े पहने हुए है, तो एक गरिमा से, गौरव से और एक-एक सीढ़ी चढ़ेगा। वे चुस्त कपड़े एक तरह की तेजी देते हैं। इसलिए हम सैनिक को चुस्त कपड़े पहनाते हैं ताकि वह तीव्रता से लड़ सके।
सारी दुनिया में स्त्रियां चुस्त कपड़ों पर उतरती जा रही हैं, जो अजीब सी बात है, बिलकुल पागलपन की बात है।
चुस्त कपड़े सैनिकों के लिए ठीक हैं, उन्हें लड़ाई पर भेजना है। उन्हें लड़ने के लिए विक्टिम्स बनाना हैं। उनको एक बेवकूफी के काम में लगाना है जहां कि वे चुस्त कपड़े उनके लिए सहयोगी होंगे। लेकिन उन लोगों के लिए जो शांति से जीना चाहते हैं और प्रेम से, चुस्त कपड़े अर्थहीन हैं। स्त्री के लिए चुस्त कपड़े एकदम ही अर्थहीन हैं। वे उसे एकदम ही बेहूदी हालत में खड़ा कर देते हैं। ढीले कपड़े उसके व्यक्तित्व को एक गरिमा देते हैं। और इतनी हैरानी की बात है कि इतनी क्षुद्र चीजें भी हमारे भीतर के चित्त को, मनस को निर्मित करती हैं।
हम क्या पहनते हैं, कैसे उठते हैं, कैसे बैठते हैं, इन सब का हमारे चित्त पर निरंतर संबंध होता चला जाता है, हमारा चित्त निर्मित होता है। हम क्या देखते हैं, हिटलर जैसे ही हुकूमत में आया, उसने सारे मुल्क की फैक्ट्री में जहां-जहां खिलौने बनते थे, आज्ञा भिजवा दी कि गुड्डे-गुड्डियों के खेल-खिलौने बंद कर दिए जाएं।
उससे पूछा खिलौनों के उत्पादकों ने कि क्या मतलब है आपका?
उसने कहा कि मैं सिर्फ तलवार, बंदूकें, तोपें, टैंक इनके खिलौने देखना चाहता हूं। पहले दिन बच्चा पैदा होगा अस्पताल में और उसके ऊपर झूले के ऊपर घुनघुना नहीं लटकवाएगा हिटलर, टैंक लटकवा देगा। और उसका कहना था कि इसे पहले दिन से ही टैंक देखना चाहिए। क्योंकि आज नहीं कल इसे युद्ध के मैदान में टैंक के साथ जूझना है।
वह समझदार था, वह होशियार था, वह समझ रहा था कि इतनी छोटी चीज का भी परिणाम होता है मनुष्य के मन पर कि वह टैंक देखता है कि घुनघुना देखता है।
छोटी सी घटना सारे व्यक्तित्व को निर्मित करती है। तुम क्या पहने हो, क्या पढ़ती हो, कैसे उठती हो, कैसे बैठती हो, तुम्हारा सारा जीवन इन छोटी-छोटी चीजों से बनेगा।
नेपोलियन का नाम तुमने सुना होगा। नेपोलियन इतना बहादुर आदमी था कि अगर शेर सामने आ जाए तो वह पीठ न दिखाए। लेकिन बिल्ली से नेपोलियन डर जाता था। छोटा था छह महीने का, तब एक जंगली बिल्ली उसकी छाती पर चढ़ गई। उसने कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। नौकर ने आकर उस बिल्ली को हटा दिया। लेकिन छह महीने के नेपोलियन के मन पर बिल्ली की एक बड़ी भयानक तस्वीर बन गई। उसे याद भी नहीं रहा कि मैंने कभी बिल्ली मेरे ऊपर चढ़ी थी। छह महीने की कौन सी याद रहती है, लेकिन चित्त के अचेतन हिस्सों में अनकांशस में बिल्ली बैठी रह गई।
नेपोलियन इतना बड़ा बहादुर सिपाही हो गया। लेकिन बिल्ली अगर कोई सामने ले आए तो उसके हाथ पैर कंप जाते थे। जिस युद्ध में नेपोलियन हारा, शायद तुम्हें पता न हो, उसका जो दुश्मन था, नेल्सन, वह सत्तर बिल्लियां अपनी फौज के सामने बांध कर ले आया था। जैसे ही नेपोलियन ने बिल्लियां देखीं, उसके हाथ पैर कंप गए। और उसने अपने बगल के सैनिक को कहा कि आज जीत मुश्किल है।
और वह पहली हार थी उसकी, उसके पहले वह कभी नहीं हारा था। इतनी छोटी सी बात इतना परिणाम ला सकती है। अगर नेपोलियन की छाती पर बिल्ली न चढ़ी होती, तो आज दुनिया का सारा इतिहास दूसरा होता। अगर नेपोलियन नेल्सन से जीत जाता तो दुनिया दूसरी होती। एक छोटी सी बिल्ली ने सारी दुनिया का इतिहास बदल दिया। वह दो मिनट के लिए न चढ़ती नेपोलियन की छाती पर, तो आज सारी दुनिया का इतिहास ही दूसरा होता। क्योंकि नेपोलियन जीतता तो सारी बात बदल जाती, नेपोलियन हारा तो सारी बात बदल गई।
तुम क्या पहनती हो, क्या पढ़ती हो, किस भांति उठती हो, कवायद करती हो या नृत्य करती हो--ये छोटी-छोटी चीजें तुम्हारे सारे व्यक्तित्व को निर्मित करती हैं और जीवन भर प्रभावित करती हैं। आज शिक्षित होकर लौटती हुई स्त्री बहुत शोभादायक दृश्य उपस्थित नहीं करती। इसमें उसका कोई कसूर नहीं है। कसूर है तो हम जिस प्रक्रिया से उसे ले जा रहे हैं उस प्रक्रिया का कसूर है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं, इसमें बुनियादी एक ही बात मैंने कही और वह यह कि पुरुष और स्त्री के बीच मौलिक भेद है। इन मौलिक भेदों को शिक्षा की आधारशिला बनाया जाना चाहिए। स्त्रियां शिक्षित होनी चाहिए उतनी ही जितने पुरुष शिक्षित होते हैं, लेकिन बिलकुल और तरह से शिक्षित होनी चाहिए। उनकी अपना आयाम और अपनी दिशा होनी चाहिए। हां, कुछ स्त्रियां उन्हें लगता हो कि उनके चित्त के अनुकूल है पुरुषों की शिक्षा, वे उस तरफ जा सकती हैं। कुछ पुरुषों को लगता हो कि उनके चित्त के अनुकूल है स्त्रियों की शिक्षा, तो वे स्त्रियों की शिक्षा की तरफ जा सकते हैं। लेकिन वह अपवाद होगा। वह नियम नहीं हो सकता।
अभी हम उसे नियम बनाए हुए हैं। भेड़-बकरियों की तरह हम एक ही ढांचे में सबको ढालने की कोशिश कर रहे हैं। इसका गहरे से गहरा दुष्परिणाम तो यह हुआ है कि जैसे-जैसे स्त्री पुरुष के करीब आती गई है, एक सी होती गई, वैसे-वैसे पुरुष के लिए कम आकर्षक रह गई है।
स्वभावतः आकर्षण कम होगा। और अगर स्त्री कम आकर्षक हो जाए पुरुष के लिए, अगर उसकी पत्नी कम आकर्षक हो तो सारा समाज व्यभिचार में गिरेगा इसकी हमें कल्पना भी नहीं। पत्नी कम आकर्षक हो तो वेश्या का जन्म होता है। पत्नी कम आकर्षक हो तो पुरुष की आंखें पड़ोस की स्त्रियों की तरफ भटकनी शुरू हो जाती हैं।
यह जो इतना व्यभिचार सारे जगत में बढ़ रहा है उसके बढ़ने का कोई और कारण नहीं। कोई भी एक स्त्री किसी एक पुरुष को तृप्त करने में असमर्थ हो गई है। कोई भी एक स्त्री किसी एक पुरुष के पूरे प्राणों को तृप्ति देने में असमर्थ होती चली जा रही है। स्वभावतः पुरुष यहां-वहां भाग रहा है। वह पीछे के दरवाजे खोज रहा है। वह नामालूम कितनी स्त्रियों से संबंधित होने की कामना और आकांक्षा से भर रहा है। अगर स्त्री ठीक से विकसित हो तो एक स्त्री पुरुष को इतनी तृप्ति, इतनी शांति और इतने संगीत में ले जाने की क्षमता रखती है कि उसके लिए सवाल नहीं रह जाता कि उसका जीवन कभी भी, कभी भी अनैतिक रास्तों पर भटके और जाए।
फिल्में बन रही हैं जो अश्लील हैं और गंदी हैं। किताबें लिखी जा रही हैं जो नंगी हैं, बेहूदी हैं और पुरुष उन्हें रस से पढ़ रहा है। और हम कोई भी यह नहीं सोच रहें, हम सोच रहे हैं कि यह फिल्म प्रोडयूसर्स शरारती हैं, हम सोच रहे हैं ये लेखक गंदे हैं। न लेखक गंदे हैं, न फिल्म बनाने वाले लोग शरारती हैं। स्त्री, एक स्त्री, एक पत्नी पुरुष को शांति देने में असमर्थ होती चली जा रही है। इसलिए सारा जीवन गलत रास्तों से भरता चला जा रहा है। और जितनी यह शिक्षा स्त्री की, पुरुष जैसी होगी उतनी ही स्त्री असमर्थ होती चली जाएगी।
इस बात की संभावना है कि सौ वर्षों के भीतर जबकि सारी दुनिया की स्त्रियां ठीक पुरुषों जैसी शिक्षित हो जाएं, सारी जमीन एक बड़ा वेश्यालय हो जाए। इसकी कोई असंभावना नहीं है। सारी पृथ्वी एक बड़ा वेश्यालय हो जाए इसका कोई आश्चर्य नहीं। और तुम जान कर हैरान होओगी तुमने अब तक यह सुना होगा कि स्त्री वेश्याएं होती थीं, तुम्हें इसका पता नहीं होगा कि आधुनिक विकसित मुल्कों में पुरुष वेश्याएं भी उपलब्ध हो गई हैं। क्योंकि जब पुरुष भटकेगा, और स्त्री कहती है, मुझे हर चीज में समान अधिकार चाहिए, तो इंग्लैंड में एक नई घटना घटी है--पुरुष वेश्याएं।
उन्हें वैश्य कहना चाहिए, लेकिन वैश्य हम किसी और को कहते हैं इसलिए कोई चिढ़ होगी इसलिए मैं वेश्याएं कह रहा हूं। पुरुष वेश्याएं हैं। पुरुष भी उपलब्ध हैं, स्त्रियां वहां जाएंगी और चार रुपये पर उनसे प्रेम का संबंध कायम कर सकती हैं। अब तक जमीन पर ऐसा कभी नहीं हुआ था। अब लेकिन अभी वह हुआ है बहुत विकसित मुल्कों में, इंग्लैंड, अमेरिका, स्विटजरलैंड ऐसे मुल्कों में पुरुष वेश्याएं भी उपलब्ध हैं। और नार्वे और बेल्जियम ने जैसे स्त्री वेश्याओं को लाइसेंस देते हैं, वहां सरकार ने पुरुष वेश्याओं को भी लाइसेंस दिए हैं। सौ वर्ष के भीतर सारी पृथ्वी एक बड़ा वेश्यालय बन जाएगी।
और उसके बनने का कारण बड़ा आश्चर्यजनक है। वे लोग होंगे, जो सुधार और समाज सेवा की आकांक्षा में स्त्रियों को पुरुषों जैसी शिक्षा दिए चले जा रहे हैं। वे हित नहीं कर रहे हैं, वे अहित कर रहे हैं। वे मंगलदायी सिद्ध नहीं हो रहे हैं वे अमंगलदायी सिद्ध हो रहे हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं स्त्रियों को शिक्षा देने के पक्ष में नहीं हूं। मैं बिलकुल पक्ष में हूं। उन्हें पुरुषों से भी ज्यादा शिक्षित किया जाए तो अच्छा लेकिन उनकी शिक्षा बिलकुल ही दूसरे रास्तों पर होगी।
आज तो संभव नहीं होगा कि मैं उन रास्तों की आपसे बात करूं कि किन रास्तों पर उनकी शिक्षा हो, लेकिन दो छोटे सूत्र खयाल में रखने को कहता हूं, स्त्री की शिक्षा मस्तिष्क की कम, हृदय की ज्यादा होगी। स्त्री की शिक्षा गणित की कम, काव्य की ज्यादा होगी। स्त्री की शिक्षा महत्वाकांक्षा की कम, प्रेम की ज्यादा होगी। स्त्री की शिक्षा सारी दुनिया को चिंतन करके नहीं बल्कि एक छोटे परिवार, एक छोटे दंपति, एक छोटे घर का केंद्र बनाने की दृष्टि से होगी। स्त्री एक बहुत छोटे से घर को कैसे सुंदर, कैसा प्रेमपूर्ण और आनंदपूर्ण बना सके इस दिशा में होगी। और ऐसा सोचना गलत है कि जो सारी दुनिया को बनाने का काम करते हैं वे ही लोग बड़ा काम करते हैं।
यह बात अत्यंत मूर्खतापूर्ण है। जो क्षुद्र को भी विराट की क्षमता दे देते हैं सचमुच जीवन की कला को वे ही लोग जानते हैं। और जगत और जीवन छोटी-छोटी चीजों का जोड़ है। अगर एक-एक घर विनष्ट होता है तो सारी पृथ्वी अच्छी नहीं हो सकती और एक-एक घर विनष्ट हो रहा है। सोशलिस्ट हैं वे कहते हैं सारे समाज को बदलना है, नेता हैं वे कहते हैं सारे देश को बनाना है। विचारक हैं वे कहते हैं सारे दुनिया के माइंड को बदलना है। मैं आपसे कहना चाहता हूं, इन सारी बड़ी बातों में बहुत अर्थ नहीं है। अर्थ एक बहुत छोटी सी बात में है कि वे जो छोटे-छोटे घर हैं, वे जो छोटे-छोटे परिवार हैं उन परिवारों को सुंदर और सत्य बनाना है।
न बड़ी दुनिया से कोई संबंध है, न बड़े राष्ट्रों से। राष्ट्र झूठी इकाई है। मनुष्यता कोरा शब्द है। ठोस इकाई तो मनुष्य का परिवार है और उस ठोस इकाई को कैसे सुंदर बनाया जा सकता है, वह बिना स्त्री को सुंदर, सत्य और संगीतपूर्ण दिशाओं में ले जाए, उसे सुंदर बनाने का कोई रास्ता नहीं है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं, इसलिए नहीं कि मैंने जो कहा उसे आप स्वीकार कर लेना। हो सकता है कि मेरी सारी बात गलत हो, हो सकता है मैं जो कह रहा हूं वह बिलकुल ही ठीक न हो। मैंने इसलिए ये बातें कहीं कि इस पर सोचना, इतनी ही मेरी प्रार्थना है कि इस पर सोचना कि क्या स्त्री और पुरुष के बीच कोई बुनियादी भेद है। क्या उनका मनस, उनका शरीर, उनका व्यक्तित्व अलग-अलग है? क्या वे एक सी शिक्षा से गुजरने के योग्य हैं, या कि उन्हें अलग-अलग अनूठी दिशाओं में शिक्षित किया जाना जरूरी है और उचित है? इस पर सोचना, इतनी ही अंतिम मेरी प्रार्थना है और अगर इस पर सोचा तो मैं यह कह सकता हूं कि जो भी इस पर सोचेगा वह कभी इस नतीजे पर नहीं पहुंच सकता कि स्त्री और पुरुष एक जैसे हैं।
सारी मनुष्य-जाति का अनुभव यह है कि स्त्री और पुरुष बिलकुल अनूठे और भिन्न हैं। इतनी भिन्नता है उनके बीच कि न तो आज तक कोई पुरुष किसी स्त्री को पूरे अर्थों में समझ पाया है और न कोई स्त्री आज तक किसी पुरुष को पूरे अर्थों में समझ पाई है। और इसकी बहुत कम संभावना है कि कभी भी यह समझ पूरी हो सकेगी। वे इतने अनूठे और भिन्न हैं, इस पर सोचना, विचार करना।
शिक्षकों से, आपकी संस्था से, छात्राओं से एक ही निवेदन है कि वे सोचें। और इस मुल्क में कम से कम एक हवा बनाएं। पश्चिम में तो स्त्री करीब-करीब रूपांतरित हो गई है। अभी हमारे मुल्क में रूपांतरित होने को है। हम प्रक्रिया से गुजर रहे हैं रूपांतरित होने की। अगर कोई बोध पैदा हो सके, समझ आ सके और हम स्त्री को शिक्षित करें, लेकिन नई शिक्षा में, तो शायद इस मुल्क को उस भूल और पश्चात्ताप से न गुजरना पड़े जिससे पश्चिम गुजर रहा है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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