कुल पेज दृश्य

सोमवार, 15 जुलाई 2019

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-003

(मनुष्य धर्म के बिना नहीं जी सकता-तीसरा) 

प्रिय जया बहिन,
प्रणाम।
मैं आनंद में हूं। आपका पत्र मिले देर हुई। मैं बीच में बाहर था, इसलिए उत्तर में विलंब हुआ है। इंदौर और शाजापुर बोल कर लौटा हूं।
एक सत्य के दर्शन रोज-रोज हो रहे हैं कि मनुष्य धर्म के बिना नहीं जी सकता है।
धर्म के अभाव में उसमें कुछ खाली और रिक्त छूट जाता है।
यह रिक्तता पीड़ा देने लगती है, और फिर इसे भरने का मार्ग नहीं दीखता है।

ऐसी स्थिति आधुनिक मनुष्य की है।

इससे मैं निराश नहीं हूं, क्योंकि इसमें ही शायद मनुष्य की रक्षा और भविष्य की एकमात्र आशा है।
इस पीड़ा से ही उस प्यास का जन्म हो रहा है--जो यदि सम्यक दिशा दी जा सकी--तो विश्व में धर्म के पुनरुत्थान में परिणत हो सकती है।
अंधेरी रात के बाद जैसे प्रभात का जन्म होता है, ऐसे ही मनुष्य की अंतरात्मा भी एक नये प्रभात के करीब है।
इस होने वाले प्रभात की खबर प्रत्येक को दे देनी है, क्योंकि यह प्रभात प्रत्येक के भीतर होना है।
और, इस प्रभात को लाने के लिए प्रत्येक को प्रयत्नशील भी होना है।
हम सब इसे लाएंगे, तो ही यह आ सकता है।
यह अपने से नहीं आ सकता है।
चेतना का जन्म, प्रयास और प्रतीक्षा मांगता है।
और, प्रसव की पीड़ा भी।
यह प्रयास, प्रसव-पीड़ा और प्रतीक्षा दुखद नहीं होती है, क्योंकि उसके माध्यम से ही क्षुद्र विराट को पाता है।
विराट को अपने में जन्म देने से बड़ा आनंद और कुछ नहीं है।
यह जान कर प्रसन्न हूं कि आप जीवन-साध्य की ओर गतिवान हैं।
चलते भर हम चलें, पहुंचना तो निश्चित है।
ईश्वर साथ दे, यही कामना है।

रजनीश के प्रणाम
15 अप्रैल, 1963
(प्रतिः सुश्री जया शाह, बंबई)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें