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मंगलवार, 16 जुलाई 2019

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-012

(शांत मन में अंतर्दृष्ट का जागरण-बारहवां)

प्रिय सुशीला जी,
प्रेेम।             
आपका पत्र मिला है।
आपकी साधना और तत्संबंध में चिंतन से प्र्र्र्रसन्न हूं।
देश की वर्तमान स्थिति से चिंता होना स्वाभाविक है।
लेकिन, चिंता जितनी ज्यादा हो चिंतन उतना ही असंभव हो जाता है।
चिंता और चिंतन विरोधी दिशाएं हैं।
मन को शांत रखें तो जो करने योग्य हो, उसके प्रति अंतर्दृष्टि क्रमशः जाग्रत होने लगती है।
शांत मन सहज ही कत्र्तव्य को करने में संलग्न हो जाता है।
फिर, अंतःकरण स्वयं ही पथ और पथ पर प्रकाश दोनों ही बन जाता है।
मैं ‘क्या करें’ इस संबंध में कोई सलाह नहीं देता हूं।

मेरी सलाह तो परिपूर्णतः शांत होने के लिए है।
उसके बाद स्वयं से ही आदेश मिलने प्रारंभ हो जाते हैं।
ये आदेश सदा अचूक होते हैं और उनमें कोई दूसरा विकल्प, शंका या संदेह की संभावना भी नहीं होती।
विचार से नहीं, वरन अंतर्दृष्टि से जीने के लिए ही मेरी सलाह है।
ध्यान में अधिक देर बैठना स्वास्थ्य के कारण संभव न हो, तो लेट कर ही ध्यान करें।
प्रश्न बैठने या लेटने का बिलकुल भी नहीं है।
असली प्रश्न तो चित्त-स्थिति का है।
शरीर से नहीं, साधना का कार्य मूलतः तो मन से ही संबंधित है।
शिविर तो अभी नहीं हो रहा है। अब देखना है कि कब आपका निकट से सहयोगी बन सकूं?    
मेरे प्रेम को सदा अपने साथ अनुभव करें। वहां सबको मेरे प्रणाम कहें।

रजनीश के प्रणाम
18-9-1966
(प्रतिः सुश्री सुशीला सिन्हा, पटना)

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