ध्यान
योग शिविर
दिनांक
13 जनवरी 1972
रात्रि:
माथेरान।
सूत्र
:
सत्यं
ज्ञानमनन्तमानन्द
सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं
कटकमुकुटाद्युपाधिरहित
सुवर्ण
धनवद्विज्ञानचिन्मात्रस्वभावात्मा
यदा भासते
तदा त्वं
पदार्थ:
प्रत्यगात्मुच्येते।
सत्यं
ज्ञानमनंतं
ब्रह्म।
सत्यमाविनाशि।
अविनाशिनाम
देशकाल
वस्तुनिमित्तेषु
विनश्यत्सु
यत्र विनश्यति
तदविनाशि
सत्य,
ज्ञान अनंत और
आनंदरूप सर्व
उपाधि से रहित
और कड़ा,
मुकुट आदि की
उपाधि से रहित
केवल सोना जैसा
ज्ञान
और चैतन्य
रूप आत्मा जब
भासमान होता
है
ब्रह्म
सत्य, अनंत
और ज्ञानरूप
है। जो
अविनाशी है, वह सत्य
कहलाता है।
देश,
काल, वस्तु
आदि निमितों
का नाश होने
पर भी
जिसका नाश
नहीं होता वही
अविनाशी है।
स्वर्ण
के आभूषण बन सकते
हैं बहुत।
बहुत रूप
आकृतियां हो
सकती
हैं--सुंदर या
कुरूप; पर
आकृति स्वर्ण
नहीं है।
यद्यपि आकृति
स्वर्ण के
बिना प्रकट
नहीं हो सकती;
आकृति
अकेली नहीं हो
सकती। रूप का
शुद्ध कोई अस्तित्व
नहीं होता।
रूप तभी दिखाई
पड़ता है जब किसी
पर रूपायित होता
है।
तो
स्वर्ण बहुत
रूप ले सकता
है,
लेकिन कोई
भी रूप स्वर्ण
नहीं है।
स्वर्ण का होना
रूपों से
मुक्त है। और
इसीलिए एक रूप
दूसरे रूप में
बदल जाता है।
अगर स्वर्ण ही
किसी एक रूप
का हो तो फिर
दूसरा रूप
ग्रहण नहीं हो
सकता है।
यद्यपि हमने
वैसा स्वर्ण
भी नहीं देखा
है जो किसी
रूप में न हो।
जब भी स्वर्ण
दिखाई पड़ेगा,
कोई रूप
होगा उसका।
लेकिन चूंकि
स्वर्ण रूप की
बदल सकता है--आज
है कड़ा, कल
कुछ और बन
सकता है, परसों
कुछ और बन
सकता है--रूप
बदल जाता है
लेकिन स्वर्ण
का स्वभाव थिर
होता है।
इसलिए चाहे
हमने रूपरहित स्वर्ण
न देखा हो, फिर
भी स्वर्ण रूप
नहीं है।
इस
उदाहरण से ऋषि
चर्चा शुरू
करता है। वह
कहता है : जगत
में जो भी हम
देख रहे हैं
वह सब रूप है।
जिस पर यह रूप
प्रकट होता है
वह रूपमुक्त
है। उस
रूपमुक्त की
ही खोज सत्य
की खोज है।
उसे खोजना हो
तो रूप का
त्याग करना
पड़े--सब रूप छोड़
देने पड़े, सब
उपाधि छोड़
देनी पड़े, सब
सीमाएं तोड़
देनी पड़े--तो
ही उस असीम और
अनंत और
शाश्वत के
निकट पहुंचना
होसकता है।
लेकिन
रूप से मनघिर
जाता है। रूप
से ही पहली पहचान
होती है। आकार
ही पहले दिखाई
पड़ता है। निराकार
से तो कोई
मिलन बाहर
होता नहीं।
बाहर जो भी
दिखाई पड़ता है, सब
आकार हैं।
इसीलिए हम
आकार से
ग्रस्त हो जाते
हैं और यह भूल
ही जाते हैं
कि जो है वह निराकार
होगा, अन्यथा
इतने आकार कैसे
ले सकता था?
बीज
है;
अभी बीज है,
कल वृक्ष हो
जाएगा। जो बीज
वृक्ष हो सकता
है, उस बीज
में जरूर कुछ निराकार
छिपा है, जो
बीज का आकार
भी ले लेता है,
कभी वृक्ष का
आकार भी ले
लेता है। और
उस बीज में
जरूर ही निराकार
छिपा है, क्योंकि
उस अकेले एक
बीज से संसार
के सारे वृक्ष
पूरी पृथ्वी
को भर दें, इतने
वृक्ष पैदा हो
सकते हैं। एक
बीज से एक वृक्ष
पैदा होता है
और करोड़ों बीज
लग जाते हैं
वृक्ष पर। फिर
करोड़ों बीजों
को हम बो दें
तो और एक-एक
बीज से
करोड़-करोड़ बीज
हो जाते हैं।
एक बीज पूरी
पृथ्वी को
वृक्षों से भर
दे, पृथ्वी
छोटी पड़ जाए
और इनकार करने
लगे कि बस, अब
नहीं..।
इतना
एक बीज में
छिपा हो, तो
आकार में नहीं
छिपा हो सकता
है। आकार तो
बड़ा क्षुद्र
है बीज का; न
के बराबर है।
तो बीज में
जरूर ही
निराकार छिपा
होगा; क्योंकि
एक बीज अनंत
बीजों को पैदा
कर सकता है।
आकार से अनंत
कभी पैदा नहीं
होता; आकार
से जो भी पैदा
होगा उसकी
सीमा होगी।
बीज की एक
क्षमता होनी
चाहिए सीमित,
तब उसके
आकार का कोई
अर्थ है।
लेकिन मैंने
कहा, एक
पृथ्वी को भर
दे यह भी छोटी
बात है, अगर
हम इस गणित को
ठीक से फैलाएं,
तो इस पूरे
ब्रह्मांड को
एक बीज भर
सकता है वृक्षों
से और फिर भी
ब्रह्मांड
छोटा पड़ जाए, और बीज कहे
कि अभी मुझे
और जगह चाहिए।
क्योंकि कोई
अंत नहीं है न!
एक बीज से
करोड़, करोड़
बीज से.. -एक-एक
बीज से फिर
करोड़, फिर
एकएक बीज से
करोड़. इसका कोई
अंत नहीं है।
तो
उस पहले बीज में
जो छिपा था, क्या
वह आकार में
छिपा हो सकता
है? आकार
में अनंत तो
छिपा नहीं।
आकार में तो
जो भी छिपा
होगा वह स-अंत
ही होगा, उसकी।
आकार ही खुद
सीमा है तो
निराकार को
अपने भीतर
कैसे छिपा
पाएगी? तो
बीज में जब
हमें आकार
दिखाई पड़ रहा
है तो वह हमारी
देखने की भूल
है, क्योंकि
हम बीज को
पूरा नहीं देख
पा रहे हैं जितना
वह हो सकता
है। और जो वह
हो सकता है, अभी भी किसी
अर्थ में है, अन्यथा हो नहीं
सकेगा। अगर इस
बीज में संसार
के सारे बीज न
छिपे हों, तो
कभी प्रकट
कैसे हो
सकेंगे? छिपे
हैं आज और अभी
और यहीं, सिर्फ
हमारी आख
उन्हें पकड़
नहीं पाती।
तो
बीज का आकार
हमारी
भ्रांति है, बीज
का स्वरूप तो
निराकार है।
जहां भी आकार
दिखाई पड़ता है,
वहां हमारे
कारण आकार
दिखाई पड़ता
है।
इसे
हम यूं समझें
कि मैं अपने
मकान की खिड़की
पर खड़ा होकर
आकाश को देखता
हूं। और अगर
मैंने कभी
मकान के बाहर
जाकर आकाश न
देखा हो तो
मुझे आकाश
मेरे मकान की खिड़की
के चौखटे में जड़ा
हुआ मालूम पड़ेगा—मेरे
मकान की खिड़की
का आकार आकाश
का आकार बन जाएगा; खिड़की
का आकार आकाश
का आकार मालूम
पड़ेगा। आकार
मेरी खिड़की दे
रही है, आकाश
निराकार है।
लेकिन हम मकान
के बाहर खड़े होकर
भी जब आकाश को
देखते हैं, कोई खिड़की
नहीं होती, फिर भी
पृथ्वी चारों
तरफ से खिड़की
का ही काम करती
है, इसलिए
आकाश हमें गोल
दिखाई पड़ता
है। गोल दिखाई
पड़ने का कारण
केवल इतना है
कि पृथ्वी गोल
है, आकाश
गोल नहीं है।
पृथ्वी फिर
खिड़की बन जाती
है, पृथ्वी
फिर आकार दे देती
है। और हमारी
आख भी खिड़की से
ज्यादा तो
नहीं है हम जो
भी देखेंगे, हमारी आँख उसपर
आकार को जड़ देगी।
तो
वस्तुत: हम
बाहर जब भी
खोजने जाएंगे, हमें
रूप मिलेगा, अरूप नहीं।
अगर अरूप को
खोजना है तो
हमें भीतर
जाना पड़े; क्योंकि
वहां सभी
खिड़कियों को
तिलांजली दी
जा सकती है।
आख बंद करके
भीतर यह स्मरण
रखने की कोई
भी जरूरत नहीं
कि हम किसी
खिड़की पर खड़े
हैं--न किसी आख
की जरूरत, न
किसी खिड़की की,
न किसी पृथ्वी
की-- भीतर
प्रवेश करते
ही हम निराकार
में प्रवेश कर
जाते है।
सत्य
तो बाहर भी है, सत्य
भीतर भी है, लेकिन खोजी
को पहले सत्य
को भीतर ही
जानना होता
है। जिस दिन
भीतर वह जान
लेता है
निराकार को, उस दिन बाहर
भी निराकार ही
रह जाता है; उस दिन आकार
सिर्फ ऊपर से
बैठी हुई
आकृतियां रह
जाती हैं--
हमारी दी हुई
आकृतियां।
' यह जो
निराकार है, यह
जो सत्य है, ज्ञान है, अनंत है, आनंद
रूप है, उपाधिरहित
है, शुद्ध
सोने जैसा
ज्ञान और
चैतन्य है, ऐसा जब
चैतन्य का भास
होता है', तब..
यह सूत्र बहुत
कीमती है...'
ऐसे
चैतन्य का जब
भास होता है' तब उसे ' त्वम्'
कह कर
पुकारा जाता
है; ' तू' कह
कर पुकारा जाता
है, ' मैं' कह कर
नहीं--दाउ, तू
त्वम्।
जिस
दिन किसी ऐसे
निराकार सत्य
का अनुभव होता
है,
उस दिन उसे '
मैं' कहने
का कोई उपाय
नहीं रह जाता,
क्योंकि
मैं की तो
सीमा है। और
जिसको हमने अब
तक मैं कहा था
वह तो बचता
नहीं, अब
हम इसे क्या
कहें? यह
हमें चारों
तरफ से घेर
लेता है--बाहर-
भीतर सब तरफ
से मौजूद हो
जाता है। और
हमारे पास दो
ही शब्द हैं
कहने के लिए.' मैं' कहें
या ' तू' कहें।
मैं कह नहीं
सकते, क्योंकि
मैं जब मिटता
है तभी इस
निराकार का अनुभव
होता है।
इसलिए एक ही
उपाय बचता है
असमर्थ भाषा
के पास कि इसे
तू कहे। इसलिए
भक्तों ने
परमात्मा को '
तू' कहा
है; उसे ' दाउ' कहा
है।
इसे
'तू कहने के
पीछे कारण
इतना ही है
सिर्फ कि 'मैं'
कहने का कोई
उपाय नहीं है।
ऐसे तो तू
कहना भी ठीक
नहीं, क्योंकि
तू सदा मैं के
ही संदर्भ में
होता है; वह
तो एक संबंध
है। जबतक मैं
होताहूं तब तक
कोई तू होता
है। और जब तक
कोई तू होता
है तब तक मैं तो
मैं होता ही
हूं। ऐसे
क्षणों में
जाकर ही भाषा
कितनी व्यर्थ
होती है, इसका
अनुभव शुरू
होता है। मैं
कह नहीं सकते
क्योंकि बचा
नहीं, तू
भी कहें तो
मुश्किल
मालूम पड़ती है,
क्योंकि
कौन कहे तू?.. कौन कहे तू? लेकिन जब
कहना ही हो तो 'मैं' से 'तू' कहना
ज्यादा उचित
है। है तो वह
भी अनुचित; है तो वह भी
ठीक नहीं, लेकिन
मैं से ज्यादा
उचित है.. कम से
कम मैं के अभाव
की घोषणा तो
करता है, एक।
और
दूसरा कारण और
है। हम उसे 'वह'
भी कह सकते
थे--न कहें मैं,
न कहें तू
वह भी कह सकते
थे; ज्ञानियों
ने वह भी कहा
है--दैट।
लेकिन जब परमात्मा
को 'वह' कहें,
तो कोई
प्रेम का
संबंध झलकता
नहीं दिखाई
पड़ता; जब
उसे ' वह' कहें तो
वस्तु जैसी
मालूम पड़ती
है। ' वह' तो हम वस्तुओं
के लिए उपयोग
करते हैं, 'तू'
हम
व्यक्तियों
के लिए उपयोग
करते हैं। और
परमात्मा का
जब अनुभव होता
है तो वस्तु
की भांति नहीं
होता, परम
व्यक्तित्व
की भांति होता
है; परम
जीवंत; अनंत
प्रेम की
वर्षा से भरा
हुआ होता है।
उसकी जो
प्रतीति है वह
किसी के
आलिंगन में
पहुंच जाने की
प्रतीति
है--किसी
प्रेमी के आलिंगन
में। तो ' वह'
कहना
बेहूदा होगा। '
मैं' कह
नहीं सकते। तो
इस चैतन्य को
ऋषि कहता है : ' ऐसे शुद्धतम
निराकार, उपाधिरहित
चैतन्य की जब
प्रतीति होती
है, तब उसे
त्वम्, तू कहा
जाता है। '
इस
सदी के एक
बहुत कीमती
यहूदी विचारक
मार्टिन बूबर
ने एक किताब
लिखी है : 'मैं
और तू'--'आइ
एंड दाउ।' संभवत:
मार्टिन बूबर
मनुष्य-जाति
के इतिहास में
उन थोड़े से
लोगों में से
है, जिसने
मैं और तू के
बीच के गहनतम
संबंधों की खोज
की है।
तरह
से आदमी जी
सकता है : मैं
को केंद्र बना
ले और तू को परिधि
बना ले.. जैसा
सभी साधारण
आदमी जीते
हैं--'मैं' सदा
केंद्र पर
होता है, 'तू'
सदा परिधि
पर होता। तू
का हम उपयोग
कर लेते हैं, तू का हम
शोषण कर लेते
हैं, तू से
हम संबंध लेते
हैं लेकिन सदा
मैं के लिए।
कभी झुकते भी
हैं तू के
सामने तो इसी
आशा में कि
कभी तू को
झुका लेंगे
मैं के लिए; लेकिन सदा
प्रयोजन ' मैं'
होता है।
यही अहंकार की
अवस्था है..
जहां पूरा जगत
चरणों में
रखने की
आकांक्षा है,
और मैं को
सिंहासन पर
बिठा देने की।
तो मैं केंद्र
हो जाता है और
सारा जगत
परिधि हो जाता
है। यही
अधार्मिक
व्यक्ति की
चित्त-दशा है।
एक
दूसरी
चित्त-दशा है, जहां
'तू केंद्र
पर हो जाता है
और 'मैं' परिधि बन
जाता है; जहां
स्वयं को
विसर्जित कर
देने की और
समर्पण कर
देने की ही
प्यास शेष रह
जाती है-- एक ही
अभीप्सा रह
जाती है कि तू
के लिए मैं को
कैसे विसर्जित
कर दूं! यह
भक्त की
अवस्था है, धार्मिक
व्यक्ति की
अवस्था है, तू रह जाता
है, मैं
क्षीण होता
चला जाता है, मैं पतली
परिधि बन जाता
है, तू
केंद्र हो
जाता है। यह
निर-अहंकार
भाव है।
एक
तीसरी अवस्था
और है, जिसे
प्रकट करना
सदा मुश्किल
रहा है; और
वह यह है कि
जहां 'तू' नहीं रह
जाता और 'मैं'
भी नहीं रह जाता--जहां
कोई परिधि
नहीं होती और
जहां कोई केंद्र
नहीं होता।
बुद्ध जैसे
व्यक्ति इसी
बात को कहने
की कोशिश में
उलझ जाते हैं;
नहीं कह
पाते हैं।
कहने का कोई
उपाय नहीं, क्योंकि
सारी भाषा मैं
और तू के बीच
का लेन-देन
है--सारी भाषा!
भाषा मात्र का
जन्म मैं और
तू के बीच
संवाद है।
इसलिए भाषा
में किसी ऐसी
चीज को कहने
का कोई भी
उपाय नहीं जो
मैं और तू के
पार पड़ जाती
हो। इसलिए ऋषि
ने कहा, उसे
' त्वम् ' कहते हैं।
यह ऋषि जो है, जो निकटतम, कम से कम भूल हो
सकती है वह कर
रहा है।
जो
पूर्ण सत्य है
उसे कहा नहीं
जा सकता, इसलिए
सत्य के जो
निकटतम असत्य
हो सकता है
उसे कह रहा
है। ठीक उसे
तो कह ही नहीं
सकते क्योंकि
वहां 'मैं'
और 'तू’ दोनों नहीं
रह जाते, लेकिन
कहना है जरूर;
किसी को
संदेश देना है
जरूर; उस
अपरिचित देश
से लौटा हुआ
अपने
प्रियजनों को
कहना चाहता है
जरूर.. कि क्या
जाना उसने; क्या देखा
उसने।
तो
ऋषि कहता है, ' त्वम्।
' यह वह
शिष्य के लिए
कह रहा है.. वह
जो सीखने बैठा
है, जिज्ञासा
करने बैठा है,
उससे कह रहा
है कि जब
शुद्धतम चैतन्य
जाना जाता है,
तब हम उसे ' तू नाम देते
हैं।
यह
' तू प्रीतिकर
भी है, सत्य
के निकटतर भी...
और अगर कोई
व्यक्ति इस ' तू' के
आस-पास जीवन को
जीने लगे, तो
अत्यंत क्रांतिकारी
भी।
रामकृष्ण
की समस्त
साधना ' तू के
निकट थी। एक
वेदांती साधु
तोतापुरी मेहमान
हुआ
दक्षिणेश्वर
में। तोता पुरी
ने कहा कि '' क्या
तू-तू लगा रखा
है! इसे भी
छोड़ो; वहां
पहुंचो जहां
दोनों नहीं हैं।
'' रामकृष्ण
वैसे विनम्र
थे जैसा भक्त
होना ही चाहिए।
कभी- कभी
विनम्रता बड़ी
अदभुत घटना बन
जाती है।
रामकृष्ण ने
कहा. '' पहुंचा
दो; मैं
राजी हूं। '' तोतापुरी ने
नहीं सोचा था
कि रामकृष्ण
जैसा आदृत, समादृत
परमहंस, लाखों
लोग चरणों में
सिर रखते हैं,
वह इतनी जल्दी
सीखने को राजी
हो जाएगा।
शायद
तोतापुरी को
भी कोई सिखाने
के लिए कहता
तो तोतापुरी
इतने जल्दी
राजी नहीं हो
सकते थे। 'अहं
ब्रह्मास्मि'
उनका स्वर
था.. वेदांत का
स्वर था; मैं
'ब्रह्म हूं।
'
जो
घोषणा करता हो
मैं ब्रह्म
हूं सीखने को
कुछ बचता नहीं
फिर और। यह घोषणा
वास्तविक हो
तब तो सीखने
की जरूरत भी
नहीं रहती, लेकिन
यह घोषणा बहुत
बार धोखा भी
हो सकती है। यह
ब्रह्म को जान
कर कही गई हो
तो ठीक है, कहीं
यह ' मैं' के ही रस में
कही गई हो तो
बहुत कठिन है।
सभी कहना
चाहते हैं ' मैं ब्रह्म
हूं। ' इसे
कहने में कोई
किसी को.. किसी
को भी सुख
मिलेगा; लेकिन
यह जान कर हुआ
हो, तो
उसमें मैं
ब्रह्म हूं यह
केवल शब्द
होता है 'मैं'...'मैं' तो
होताही नहीं,
ब्रह्म ही होता
है।
तोतापुरी
भी चकित हुआ
था,
लेकिन उसे
पता नहीं था
कि जिसने 'तू
को केंद्र
माना हो, वह
इतनी ही सरलता
से किसी भी
बात के लिए
राजी हो सकता
है। 'तू को
केंद्र माना
हो तो! ' मैं' को
केंद्र माना
हो तब तो कोई
उपाय नहीं है।
रामकृष्ण ने
कहा कि '' बिलकुल
सही, मुझे
करवा दो। '' यह
है परिधि पर जीने
वाले
व्यक्तित्व
का ढंग।
लेकिन
बहुत मजे की
घटना घटी।
तोतापुरी ने
कहा कि ठीक है, तो
तुम्हारी
तैयारी पूरी
है?
रामकृष्ण
ने कहा कि जरा
मैं मंदिर में
जाकर मां को
पूछ आऊं.. कि अब
तुझे भी छोड़ना
चाहता हूं आज्ञा
है?
'तू' को
भी छोड़ना
चाहता हूं आशा
है?
तोतापुरी
ने कहा. हो गई
व्यर्थ बात
सब। जिसे छोड़ना
है उससे पूछने
जाने की जरूरत? जिसे
छोड़ना ही है
उससे पूछने
जाने की जरूरत..
और पूछकर कैसे
छोड़ोगे? रामकृष्ण
ने कहा : ''लेकिन
मैं तो बचा
नहीं। तो मैं
तो कैसे
छोडूंगा! वही
बची है अब..
छोड़े-पकड़े..
मैं तो बचा
नहीं अब; इतना
भी निर्णय मैं
नहीं ले सकता
हूं कि छोडूं।
जिस दिन सब
छोड़ दिया उसके
हाथ में, उस
दिन यह निर्णय
भी छोड़ दिया।
अगर आज्ञा न मिली
तो अज्ञानी मर
जाऊंगा, लेकिन
अब कोई उपाय नहीं
है। ''
'
तू' को
केंद्र मान कर
जीने वाले का
भाव है; वह
अज्ञान में भी
मरने को राजी
है। क्योंकि '
'' के लिए
इतनी भी जगह
नहीं रखना
चाहता कि अगर
ज्ञान का मौका
आ जाए तो ' मैं'
उठ कहे कि अच्छा
चलो, राजी
हूं।
'
ने गाया है
कि मुक्ति
नहीं चाहिए
हमें, मोक्ष
नहीं चाहिए, निर्वाण
नहीं चाहिए; बस तेरी
वृंदावन की
गली काफी है, पर्याप्त
है--तेरे
वृंदावन की
गली काफी है, पर्याप्त है;
क्योंकि
मोक्ष तो ' मैं'
का होता है,
वृंदावन की
गली ' तू की होती
है।
तो
भक्तों ने कहा, मोक्ष
नहीं चाहिए
क्योंकि
मोक्ष का तो
मतलब हुआ, ' मेरा
मोक्ष। ' कोई
परमात्मा का
तो मोक्ष होता
नहीं। खयाल रखिए,
मोक्ष तो
मेरा होता है,
निर्वाण
मेरा होता है,
ज्ञान मेरा
होता है। तो
भक्तों ने
गाया है कि नहीं
ज्ञान चाहिए,
नहीं मोक्ष
चाहिए, नहीं
निर्वाण
चाहिए, बस
तेरे वृंदावन
की गली में
पड़े रहें, इतना
काफी है। यह 'तू, को
केंद्र मानकर
जीने वाले का
भाव है।
इस
शुद्धतम
चेतना को 'तू,
कहने के
पीछे बहुत
कारण हैं, उनमें
एक यह भी है कि
शुद्धतम
चेतना को पाना
हो तो वह
शुद्धतम
चेतना ' तम,
स्वभाव की
है, ऐसा मान
कर चलना बहुत
सहयोगी हो
जाता है। वह 'मैं' स्वभाव
की है तो
कभी-कभी खतरे
हो जाते हैं।
सौ में
निन्यानबे
मौके पर खतरा
है इस बात का
कि उसको 'मैं'
स्वभाव का
मान कर चलने
पर अहंकार
प्रबल न हो जाए,
विसर्जित
होने के बजाय।
उपनिषदों
ने ठीक कहा है, 'अहं
ब्रह्मास्मि',
लेकिन उन
लोगों ने कहा
है, जो सौ
में कभी एक ही
बार घटित होते
हैं। यह अपवाद
घोषणा है। यह
उन्होंने कहा
है जिन्होंने
अपने 'मैं' में
सभी कुछ समा
लिया; जिनका
'मैं' इतना
बड़ा हो गया कि
बाहर कोई ' तू
ही न बचा; यह
उन्होंने कहा
है। बड़ा
मुश्किल है, क्योंकि रस
बहुत रहता है 'मैं' का।
और 'मैं' का सारा रस
इसमें रहता है
कि वह किसी तू
के सामने अकड़
कर खड़ा हो सके;
नहीं तो
उसका फिर रस
नहीं रह जाता।
अगर इस जगत में
कोई 'तू' नहीं है, मैं
ही अकेला हूं
तो 'मैं' कहने से भी
क्या अर्थ रह
जाएगा?
अहंकार
का रस ही
दूसरों पर
निर्भर है। इसलिए
बड़े मजे की
बात है, अहंकार
कितनी ही
घोषणाएं करे
स्वतंत्र
होने की, उसे
पता नहीं कि
वह आमूल
परतंत्र है; दूसरे के
बिना वह हो ही
नहीं सकता। जब
एक आदमी कहता
है, 'मैं
सम्राट हूं, तो उसे पता
नहीं कि वह
जिस प्रजा की
छाती पर खड़े
होकर अपने को
सम्राट कह रहा
है, उस
प्रजा के
प्रति
परतंत्र भी है;
क्योंकि
उसके बिना
सम्राट नहीं
हो सकता। जो कहता
है, ' मैं
मालिक हूं,, उसे पता
नहीं कि गुलाम
के बिना वह
मालिक नहीं हो
सकता; और
जिस गुलाम के
बिना मालकियत
न हो सकती हो, वह मालकियत
मालकियत कैसी
है? वह
गुलाम से
परतंत्र है, गुलाम से
बंधी है। 'मैं'
की सभी
घोषणाएं
दूसरे 'तू'
को छोटा
करके दिखाने
में ही खड़ी
होती हैं। तो अहंकार
यह रस भी ले
सकता है।
उपनिषदों
ने जब यह
घोषणा की थी ' अहं
ब्रह्मास्मि'
की, तब
बड़े सरलचित्त
और बड़ा
निर्दोष जगत
था। लेकिन
क्रमश: अनुभव
में आना शुरू
हुआ कि 'मैं'
को केंद्र
पर रख कर खतरा
ज्यादा है। सौ
में एक शायद ' मैं' को
केंद्र पर रख
कर भी
परमात्मा को
उपलब्ध हो जाए,
निन्यानबे
भटक जाते हैं।
और यह सर्वसार
उपनिषद जो है,
यह अधिकतम...
अधिकतम लोगों
की साधना बन
सके, और
अधिकतम
सत्यों का
निचोड़ इसमें आ
जाए, उस
दृष्टि से है।
इसलिए उसे 'त्वम्' कहा
है, 'अहं
ब्रह्मास्मि '
नहीं कहा...
कहा कि वह ' तू,
स्वभाव
वाला है।
इसलिए
पहले से ही
तैयारी रखना
कि उसकी तरफ
जाने का मतलब 'मैं'
को मिटाना
है; उसकी
यात्रा 'मैं'
के विसर्जन
की यात्रा है।
अगर कोई इतना
भी स्मरण रख
सके सतत श्वास
लेते-छोड़ते कि
' मैं ' नहीं
हूं ' तू ' है, तो
सिर्फ थोड़े ही
दिनों में उसे
पता लगेगा कि चित्त
के सारे तनाव
विसर्जित हो
गए; चित्त
का सारा संताप
गिर गया; चिंता
खो गई; क्योंकि
चिंता के लिए,
संताप के
लिए, तनाव
के लिए ' मैं
' की खूंटी
बिलकुल जरूरी
है, उसी पर
टंगती हैं ये
चीजें; उसके
बिना नहीं टैग
सकतीं। अगर
इतना ही भाव
गहन होता चला
जाए कि ' मैं
' नहीं हूं '
तू ' ही
है, तो एक
दिन अचानक आप
पाएंगे कि
चिंतित होना
मुश्किल हो
गया। करना भी
चाहें तो
चिंता नहीं कर
सकते हैं, क्योंकि
चिंता ' मैं
' की छाया
है। ' मैं ' खो जाए तो
चिंता नहीं
है। और
निश्चितता ' तू ' की
छाया है। ' तू
' का भाव
प्रगाढ़ हो जाए
कि 'तू? ही
है, तो
निश्चितता
अपने आप फलित
हो जाती है।
नीत्शे
ने जीवन भर
चेष्टा की इस
भांति जीने की
जैसे
परमात्मा नहीं
है--घोषणा की
कि वह रहा भी
हो कभी तो अब
मर चुका है।
लेकिन नीत्शे
ऐसे अदभुत
प्रतिभाशाली
व्यक्ति था, उसी
हैसियत का
जैसा कोई
बुद्ध, या
जैसा कोई
कृष्ण--उतनी
तीव्र मेधा का
व्यक्ति था; लेकिन ईश्वर
के इनकार करने
से सारी मेधा
चिंता ही बन
गई; सारी
प्रतिभा
चिंता बन गई।
और जब
छोटी-मोटी
प्रतिभा वाले
लोग चिंतित
होते हैं तो
उनकी चिंता भी
छोटी होती है,
ध्यान
रखना। जब महा
प्रतिभा वाले
लोग चिंतित होते
हैं तो उनकी
चिंता भी महान
हो जाती है। तो
नीत्शे के लिए
सिवाय पागल
होने के कोई
उपाय न बचा; विक्षिप्तता
ही फलित हुई।
इतनी बड़ी
प्रतिभा थी कि
छोटी-मोटी
चिंता तो ऐसे
व्यक्ति को
होती ही नहीं;
महाचिंता
फलित हुई। उस
महाचिंता में
आधारभूत कारण
सिर्फ एक था
कि यह व्यक्ति
नीत्शे बुद्ध
जैसी शांति को
उपलब्ध हो
सकता था; इसमें
जरा भी, रत्ती
भर कमी न थी।
लेकिन यह
हजारों
पागलों के
पागलपन को
अकेला उपलब्ध
हो गया। और
एकमात्र कारण
कि पूरे
व्यक्तित्व
को ' मैं ' के आधार पर
खड़ा करने की
कोशिश की।
नीत्शे
ने लिखा है
अपनी एक डायरी
में कि अगर कहीं
कोई परमात्मा
है तो पहले
मैं ही
परमात्मा होना
चाहूंगा; उसे
नंबर दो ही
जगह हो सकती
है। अगर कोई
परमात्मा हो
ही सकता है तो
मुझमें ही ऐसी
क्या कमी है? और अगर
परमात्मा है
ही तो कम से कम
मैं उसे इनकार
करने की घोषणा
और
स्वतंत्रता
तो कर ही सकता
हूं. कि नहीं
है। नीत्शे ने
कहा, कम से
कम इतनी बात
के लिए तो मैं
आत्यंतिक हो
सकता हूं कि
मैं कहता हूं
कि नहीं हो
तुम। और इस
बात के लिए
मुझे मजबूर
नहीं किया जा
सकता कि ईश्वर
है। ईश्वर भी
मजबूर नहीं कर
सकता। कम से
कम इस मामले
में तो मैं
ईश्वर से भी
श्रेष्ठ हो
जाता हूं--
इतनी बात में
कि तुझे भी
होने के लिए
कम से कम मेरी
स्वीकृति चाहिए।
अगर मैं इनकार
करता हूं तो
तेरा भी उपाय नहीं
है कोई कि तू
मुझे राजी कर
ले कि तू है।
यह..
यह '
मैं ' को
केंद्र पर रख
कर जीने का जो
रूप हो सकता
है वह है।
नीत्शे
की पीड़ा को
समझना बहुत
कठिन है।
लेकिन थोड़ी
बहुत पीड़ा हम
समझ सकते हैं
क्योंकि छोटा-मोटा
अहंकार हमारा
भी होता है, उसको
लेकर हम जीते
हैं।
कभी
एक छोटा
प्रयोग करें :
चौबीस घंटे के
लिए '
मैं ' को
केंद्र से हटा
दें, सिर्फ
चौबीस घंटे के
लिए; ' तू? को केंद्र
पर रख लें।
सिर्फ चौबीस
घंटे के लिए
सतत स्मरण
रखें कि ' तू।
' जब पैर
में पत्थर लग
जाए, तब भी,
जब कोई गाली
दे जाए, तब
भी; जब कोई
अंगारा फेंक
दे ऊपर, तब
भी, जब कोई
फूल की माला
गले में डाले,
तब भी; जब
कोई चरणों में
सिर रख दे, तब
भी--चौबीस
घंटे के लिए
स्मरण रख लें
कि ' मैं ' नहीं हूं
केंद्र पर ' तू '
है। तो आपकी
जिंदगी में एक
नये अध्याय का
प्रारंभ हो
जाएगा। अगर
चौबीस घंटे यह
स्मरण संभव हो
सका, अगर
पूरा न भी हुआ,
चौबीस घंटे
में चौबीस
मिनट भी पूरा
हो गया, तो
आप वही आदमी
दुबारा नहीं
हो सकेंगे; क्योंकि एक
बार ' तू' के साथ जीने
की निश्चितता
मिल जाए तो
फिर आप ' मैं
' के साथ
कभी जीना न
चाहेंगे।
' मैं' से
भार ' तू' पर चला जाए
तो शुद्ध
चेतना को
खोजना आसान हो
जाता है, या
शुद्ध चेतना
मिल जाए तो ' मैं ' से
तत्काल ' तू?
की तरफ भाव
चला जाता है।
इसलिए उसे ' त्वम्
' कहा है।
''
ब्रह्म
सत्य, अनंत
और ज्ञानरूप
है। जो
अविनाशी है, वह सत्य
कहलाता है। ''
सत्य
की परिभाषा की
बड़ी चेष्टाएं
हुई हैं। सत्य
क्या है? बहुत-बहुत..
-बहुत- बहुत
द्वारों से
मनुष्य ने
सोचा है, सत्य
क्या है? किसे
हम कहें सत्य?
विज्ञान
तथ्य को सत्य
कहता है, और
विज्ञान की
परिभाषा आज
बड़े पैमाने पर
स्वीकृत है।
विज्ञान कहता
है, जो
तथ्य है, वही
सत्य है। तथ्य
का मतलब यह है
कि जिसे
प्रयोग से
जांचा-परखा जा
सके, जिसके
लिए प्रमाण
वस्तु जगत में
उपलब्ध हो
सकें।
समझें।
यह हाथ मैं
ऊपर उठाता हूं
अगर यहां बैठे
हुए इतने
लोगों में से
एक व्यक्ति
कहे सिर्फ कि
हां,
मैं हाथ को
उठा हुआ देखता
हूं और बाकी
लोग कहें कि
नहीं देखता
हूं तो विज्ञान
कहेगा, यह
आदमी स्वप्न
देख रहा है, क्योंकि कोई
गवाही दूसरी
इसे मिलती
नहीं है। यह
तथ्य नहीं है,
क्योंकि
अगर यह तथ्य
होता तो बाकी
लोग जो मौजूद
हैं उनको भी
यह हाथ दिखाई
पड़ता। यह
स्वप्न है।
स्वप्न होते
हैं वैयक्तिक,
तथ्य होते
हैं सामूहिक।
आपके घर में
रखी टेबल को
सभी लोग देख
पाते हैं, सब
राजी हो सकते
हैं कमोबेश कि
टेबल है; लेकिन
आप जाकर कहें
कि मेरे कमरे
में परमात्मा
मौजूद है, तो
वे सभी लोग
कहेंगे कि आप...
आपको दिखाई
पड़ता हो भला, हमें दिखाई
नहीं पड़ रहा
है। तो आप
किसी कल्पना
में खो गए हैं,
आप किसी
स्वप्न में हैं।
यह
मजे की बात है
कि स्वप्नों
में साझेदारी
नहीं की जा
सकती। आप एक
ही सपना दो
आदमी साथ-साथ
नहीं देख सकते
हैं.. कि देख
सकते हैं? अब
तक नहीं हुआ
ऐसा। स्वप्न
में कोई
साझेदारी, कोई
दोस्ती नहीं
चलती। स्वप्न
सदा वैयक्तिक है।
इसलिए जो
वैयक्तिक है,
विज्ञान
कहता है वह
स्वप्न है, वह तथ्य
नहीं है। और
जो सामूहिक है
वह तथ्य है।
और तथ्य ही
सत्य की
परिभाषा
है--विज्ञान
के लिए।
उपनिषद
को इससे कोई
एतराज नहीं
है। पूर्वीय मनीषा
को इससे कोई
एतराज नहीं है
कि तथ्य सत्य है।
लेकिन
पूर्वीय
मनीषा एक और
गहन सवाल उठाती
है और विज्ञान
दिक्कत में पड़
जाता है।
पूर्वीय
मनीषा यह कहती
है कि माना कि
समूह के सामने
वस्तुगत रूप
से,
ऑब्जेक्टिवली
जो मौजूद है, वह सत्य है; लेकिन जो आज
मौजूद है, वह
कल गैर-मौजूद
हो जाता है, और जो कल
गैर-मौजूद था
वह आज मौजूद
हो जाता है। तो
पूर्वीय
मनीषा यह कहती
है कि हम सत्य
तो उसको कहते
हैं जो कभी
गैर-मौजूद नहीं
होता। ऐसा
नहीं है कि आज
है और कल नहीं
हो गया। जो
सदा ही है, हम
सिर्फ उसी को
सत्य कहते है,
बाकी को हम
तथ्य कहते
हैं।
तो
पूर्वीय
मनीषा तीन
हिस्से करती
है--स्वप्न उसे
कहती है, जो
व्यक्ति की
निजी कल्पना
है; तथ्य
उसे कहती है, जो समूह का
अनुभव है; और
सत्य उसे कहती
है, जो
शाश्वत की
व्यवस्था है,
जो सदा है; क्योंकि जो
कल तथ्य था, वह आज तथ्य
नहीं है।
कल
आप जवान थे और
सभी ने गवाही
दी थी कि आप
जवान हैं, और
आज आप जवान
नहीं हैं!
सत्य का क्या
हुआ? और
अगर सत्य भी
ऐसा बदल जाता
है दस साल में तो
रात भर जो
सपना चला और
दस घंटे बाद
बदल गया, उसमें
और इसमें जो
फर्क है वह
केवल समय की
अवधि का ही तो
हुआ। एक आदमी
सपने में
सम्राट था, रात आठ घंटे
सम्राट रहा, सुबह होकर
फिर वापस
भिखारी हो गया,
तो आठ घंटे
तो वह सम्राट
था। आप कहेंगे,
हम सब इसमें
गवाह नहीं हैं,
लेकिन वह
आदमी कहेगा कि
सपने में
जितने भी लोग
मौजूद थे, सब
इसके गवाह थे।
मैं अकेला ही
सम्राट नहीं
था--नौकर-चाकर
थे, मंत्री
थे, फौजें
थीं, बड़ी
राजधानी
थी--सब था; और
वे सब गवाह थे,
क्योंकि सब
मुझे स्वीकार
करते थे कि
मैं सम्राट
हूं।
तो
फर्क इतना हुआ
कि वह आदमी आठ
घंटे सपना
देखता है, और
आपकी जवानी दस
या बीस साल..
समय का फासला
हुआ। अगर ऐसा
समझ लें कि एक
आदमी कोमा में
पड़ जाए बीस
साल तक और
अपना सपना
देखता रहे
सम्राट होने
का...।
ऐसा
हो जाता है।
मैं एक गांव
में गया तो एक
स्त्री नौ
महीने से
बेहोश है और चिकित्सक
कहते थे कि वह
तीन साल कम से
कम बेहोश रह
सकती है और
जिंदा.. कोमा
में पड़ी है!
अगर यह स्त्री
सपना देख रही
होगी नौ महीने
से कोई, और
जरूर देख रही
होगी। एक तो
बेहोश पड़ी है
और दूसरे
स्त्री! सपना
जरूर देख रही
होगी। तो नौ महीने
में ऐसा कोई
भी तो उपाय
नहीं है जानने
का कि जो यह
देख रही है वह
सपना है। और सपने
में जो भी
होंगे वे सब
राजी होंगे।
तो क्या नौ
महीना लंबा
होने से इसका
सपना सत्य हो
जाएगा? फिर
ऐसा भी नहीं
है, आज
जिसे मैं सपना
देखता हूं कल
हो सकता है वह
समूह का सत्य
भी हो जाए।
अब्राहम
लिंकन ने मरने
के तीन दिन
पहले सपना
देखा। आधी रात
उठ गया और अपनी
पत्नी को उसने
उठाया और कहा
कि बड़ी हैरानी
का सपना मैंने
देखा है : कि
मेरी हत्या कर
दी गई है और
मैं व्हाइट
हाउस के
फलां-फलां
कमरे में मुर्दा
पड़ा हुआ हूं
तू मेरे सिर
कि तरफ खड़ी है, मेरे
पैर की तरफ दो
आदमी खड़े हैं...
और एक आदमी ने
काले रंग के
कपड़े पहन रखे
हैं, लेकिन
वह मेरा
परिचित नहीं
मालूम होता।
पत्नी ने कहा :
सो जाओ, सपना
है। लिंकन ने
भी कहा कि बस, बता दिया।..
सो गया।
तीन
दिन बाद हत्या
हो गई लिंकन
की... और जिस
कमरे में सपना
उसने देखा था
उस कमरे में
उसकी लाश पड़ी है
और पत्नी सिर
के पास है। और
पैर के पास दो
आदमी खड़े हैं, और
एक आदमी काला
कपड़ा पहने हुए
है और पत्नी
जानती है कि
यह लिंकन से
अपरिचित आदमी
है। सारा चित्र
वही का वही।
तो
जो तीन दिन
पहले सपना था, वह
तीन बाद सत्य
हो गया
सामूहिक। तो सपने
को और तथ्य को कितना
फासला करिएगा?
तीन दिन का ही
फर्क पड़ा केवल।
अवधि का ही फर्क
हुआ।
सपने
सत्य हो जाते
हैं,
सत्य सपने
हो जाते हैं।
जिन्हें हमने
बिलकुल तथ्य
माना था एक
दिन खो जाते
हैं हाथ से और
बिलकुल पता
नहीं चलता। आज
मैं किसी को
प्रेम करता
हूं और मैं कह
सकता हूं कि
जान दे सकता हूं
यह प्रेम इतना
सत्य है। और
कल? कल
प्रेम की कहीं
राख भी नहीं
मिलती; कहीं
खोजे से धुआ
भी नहीं मिलता
कि जो आग इतने जोर
से जलती थी, वह कम से कम
कुछ धुआ तो
पीछे छोड़ गई
होती! वह कहीं
पता नहीं
चलता। वह जो
इतना सत्य था,
इतना तथ्य
था कि मैं
जीवन दांव पर
लगा देता, वह
इतना असत्य हो
जाएगा यह
किसने सोचा था?
भौतिकवादी
चिंतन दो
बातों में
फर्क कर पाता
है केवल; वह
कहता है, एक
तो है
स्वप्न--अर्थात
अतथ्य, फिक्शन;
और एक है
तथ्य। और तथ्य
से उसका मतलब
है जिस पर अधिक
लोग राजी हैं,
समूह राजी
है; और
जिसकी
वस्तुगत
सत्ता है; जिसे
हम वस्तुगत
रूप से
जांच-परख सकते
हैं। लेकिन
उपनिषद का यह
ऋषि कहता है : 'जो अविनाशी
है, वही
सत्य है। '
हम
तीन हिस्से
करते हैं..
स्वप्न हम उसे
कहते हैं जो
व्यक्तिगत
अनुभव है।
जरूरी नहीं कि
अतथ्य हो; तथ्य
भी हो सकता है
कभी। जो
सामूहिक
अनुभव है उसे
हम तथ्य कहते
हैं, लेकिन
जरूरी नहीं कि
सदा ही तथ्य
हो; कभी
स्वप्न भी हो
सकता है। इन
दोनों को हम
सत्य नहीं
कहते; हम
सत्य उसे कहते
हैं जो सदा
एकरस, एक
जैसा है--जो न
कभी स्वप्न है,
न कभी तथ्य
है, न कभी
बदलता है, न
कभी यह से वह
होता, न वह
से यह होता, जो बस है।
उसके पहले हम
सत्य को मानने
को राजी नहीं
है। इसलिए सत्य
की हमारी
परिभाषा...
अविनाश, शाश्वतता
को, नित्यता
को आधार मानती
है। इसलिए
हमने जगत को माया
कहा; और
कोई कारण नहीं
है।
जब
हम कहते हैं, जगत
माया है या
शंकर कहते हैं,
जगत माया है,
तो उसका यह
मतलब नहीं कि
जगत नहीं है; उसका केवल
मतलब इतना है
कि जगत ऐसा है
कि सदा नहीं
रहेगा। शंकर
जब कहते हैं
कि जगत माया
है तो बहुत
लोगों ने
भ्रांति समझी
और उन्होंने
समझा कि शंकर
कहते हैं, जगत
नहीं है.. यह जो
वृक्ष दिखाई
पड़ रहा है, यह
नहीं है, कि
आप जो यहां
बैठे हैं, आप
नहीं हैं।
नहीं, शंकर
का ऐसा अर्थ
नहीं है।
शंकर
कहते हैं, आप
बिलकुल हैं, लेकिन आप
ऐसे हैं कि
अभी हैं और कल
नहीं होंगे।
इसलिए हम आपको
सत्य नहीं
कहते; हम
आपको माया
कहते हैं। हम
तो आपके भीतर
उस तत्व को
सत्य कहते हैं
जो अभी भी है, और कल जब आप
नहीं होंगे तब
भी होगा, और
कल जब आप नहीं
थे तब भी था--जब
आप पैदा नहीं
हुए थे तब भी था
आपके भीतर, और जब आप मर
जाएंगे तब भी
होगा, जब
आप जवान हैं
तब भी, और
जब के हैं तब
भी, और जब
यश के शिखर पर
होते हैं तब
भी, और जब
असम्मान की
गर्त में गिर
जाते हैं तब
भी--जो हर हालत
में होगा। हर
हालत में
होगा.. कोई
हालत जिसके होने
में रत्ती भर
का फर्क नहीं
करती है, हम
केवल उसी को
सत्य कहते हैं,
शेष सब माया
है। शेष सब
माया है!
तो
फिर माया और
स्वप्न में हम
क्या फर्क
करेंगे?
पूर्वीय
मनीषा की
दृष्टि से
सामूहिक
स्वप्न का नाम
जगत है और
व्यक्तिगत
जगत का नाम
स्वप्न है। सामूहिक
स्वप्न का नाम
जगत है; व्यक्तिगत
जगत का नाम
स्वप्न है... और
सत्य इन दोनों
में नहीं है।
पर
इसे सोचना
पड़ेगा।
अविनाशी तो
कुछ दिखाई नहीं
पड़ता। कोई
अविनाशी चीज
देखी? अविनाशी
तो कुछ दिखाई
पड़ता नहीं, सभी चीजें
नाशवान मालूम
होती हैं। सभी
क्षणभंगुर
हैं। सभी समय
की सीमा पार
करके आगे नहीं
जा पातीं, समयातीत
नहीं हो पातीं,
सब समय में
बिखर जाती
हैं। कोई जरा
जल्दी, कोई
जरा देर, इससे
कोई अंतर नहीं
पड़ता। देर-
अबेर का सवाल
नहीं है, लेकिन
समय सबको मिटा
देता है।
अविनाशी
कोई चीज आपने
देखी जिसको आप
कह सकें यह
कभी नहीं मिटती? बाहर
तो हम नहीं
देख सकते, क्योंकि
बाहर जिस
माध्यम से हम
देखते हैं वह
माध्यम ही
अविनाशी नहीं
है; जिस आख
से हम देखते
हैं वही
विनाशवान है।
इसलिए
विनाशवान से
अविनाशी नहीं
देखा जा सकता;
यह तो बहुत
सीधी सी बात
है। आख अपने
से ज्यादा बड़े
को नहीं देख
सकती। आख अपनी
सीमा के भीतर
देख सकती है, आख खुद ही
विनाशशील है
इसलिए
विनाशशील को
देख सकती है; कान खुद
विनाशशील है
इसलिए
विनाशशील को
सुन सकता है; हाथ खुद
विनाशशील है
इसलिए
विनाशशील को
स्पर्श कर
सकता है। हाथ
अविनाशी को
कैसे स्पर्श
करेगा?... अविनाशी
को कैसे
स्पर्श करेगा?
अविनाशी
को जानने के
लिए अविनाशी
माध्यम खोजना
पड़े,
विनाशशील
माध्यम से
अविनाशी का
पता नहीं चलता।
और हमारे शरीर
के पास जितनी
इंद्रियां
हैं वे सब
विनाशवान हैं;
शरीर की
इंद्रियां
हैं। तो अगर
अविनाशी की तरफ
चलना हो तो
ऋषि कहेगा कि
अपने भीतर
चलें जहां
इंद्रियों का
उपयोग नहीं
करना पड़ता।
भीतर आख के
बिना भी देखने
की क्षमता
होती है; और
प्रकाश के
बिना भी देखने
की क्षमता
होती है; और
भीतर कान के
बिना भी सुना
जाता है, और
हाथ के बिना
भी भीतर
स्पर्श हो
जाते हैं।
तो
वे स्पर्श, वे
दृश्य, वे
अनुभूतियां
विनाशशील
इंद्रियों से नहीं
होतीं; लेकिन
क्या जो
विनाशशील
इंद्रियों से
नहीं होता वह
अनिवार्य रूप
से अविनाशी
होगा? क्योंकि
भीतर भी जो
दृश्य दिखाई
पड़ता है वह भी
अभी दिखाई
पड़ता है, फिर
कल दिखाई नहीं
पड़ता।
एक
मित्र कल आए
थे;
उन्होंने
कहा : पहले दिन
तो बहुत
प्रकाश दिखाई
पड़ा था, फिर
दूसरे दिन
ध्यान में
नहीं दिखाई पड़
रहा। तो निश्चित
ही वह प्रकाश
अविनाशी तो
नहीं हो सकता,
जो दिखा और
नहीं दिखा.. खो
गया; था और
अब नहीं है; वह भी एक रूप
ही रहा, वह
भी एक आकार ही
रहा। उनको
मैंने कहा कि
प्रकाश दिखे
तो, न दिखे
तो, दोनों
स्थितियों
में एक चीज शाश्वत
है : देखने
वाला। प्रकाश
दिखा तो देखने
वाले ने कहा, प्रकाश
दिखता है; प्रकाश
नहीं दिखा तो
देखने वाले ने
कहा, प्रकाश
नहीं दिखता
है। बाकी एक
दोनों में थिर
है।
तो
भीतर के अनुभव
भी अनिवार्य
नहीं कि
अविनाशी हों, क्योंकि
वे भी आज हैं
और कल नहीं
होते हैं। लेकिन
एक तत्व भीतर
सदा होता है :
वह जो ज्ञाता
है, वह जो
द्रष्टा है, वह जो देखता
है, वह सदा
होता है। वही
एक हमारे भीतर
अविनाशी स्वर
है। उसे हम
पहचान लें तो
हम जगत में भी
अविनाशी स्वर
को पहचानने
लगेंगे। उसके
अलावा शेष सब
विनाशशील है।
मैं
बच्चा था; बचपन
नहीं रहा, लेकिन
जिसने बचपन
देखा था वह
अभी भी मेरे
भीतर है; जवान
हूं जवानी न
रही, लेकिन
जिसने जवानी
देखी थी वह अब
भी मेरे भीतर
है; का हूं
बुढ़ापा भी चला,
लेकिन
जिसने बुढ़ापा
देखा वह भी
मेरे भीतर है।
बचपन, जवानी,
बुढ़ापा, जिसने
तीनों देखे
वही मेरे भीतर
शाश्वत स्वर मालूम
पड़ता है, बाकी
तो सब आया और
गया। सुख देखे,
दुख देखे, सम्मान-असम्मान
देखे, लेकिन
सिर्फ देखने
वाला भर बना
रहता है, शेष
सब बिखरता चला
जाता है।
इस
देखने वाले को
अगर हम थोड़ा
खोज लें, तो
हमें पता
चलेगा, इस
देखने वाले ने
जन्म भी होते
देखा, और
हमें पता
चलेगा कि यह
देखने वाला
मृत्यु को भी
होते देखेगा,
तब हमने एक
शाश्वत स्वर
को पकड़ लिया।
बस यह एक स्वर
हमारे हाथ में
आ जाए तो यह
सारा जगत तत्काल
शाश्वत हो
जाता है। इस
एक शाश्वत को
पहचान लेने से
हमें वह
दृष्टि
उपलब्ध हो
जाती है कि जहां
कहीं भी
शाश्वत है, हम उसे
पहचान लेंगे
और जहां
अशाश्वत है
उसे भी हम
पहचान लेंगे।
तब रूप सभी
अशाश्वत रह
जाते हैं और
पीछे छिपा हुआ
अरूप शाश्वत
हो जाता है।
तथ्य
रूप है, और
सत्य अरूप है।
इसलिए
विज्ञान की जो
परिभाषा है
तथ्य की, धर्म
की सत्य की
परिभाषा उससे
ज्यादा गहन
है... और ज्यादा
पारगामी है।
''
ब्रह्म
सत्य, अनंत
और ज्ञानरूप
है। ''
सत्य
है अर्थात
अविनाशी है।
अनंत है, उसकी
कोई सीमा नहीं;
क्योंकि
जिसकी भी सीमा
हो वह नाश को
उपलब्ध हो
जाएगा।
असल
में सीमा से
ही विनाश शुरू
होता है। सीमा
ही सड़ने लगती
है.. सीमा ही होने
में रत्ती भर
का फर्क नहीं
करती है, हम
केवल उसी को
सत्य कहते हैं,
शेष सब माया
है। शेष सब
माया है!
तो
फिर माया और
स्वप्न में हम
क्या फर्क
करेंगे?
पूर्वीय
मनीषा की
दृष्टि से
सामूहिक
स्वप्न का नाम
जगत है और
व्यक्तिगत
जगत का नाम
स्वप्न है।
सामूहिक
स्वप्न का नाम
जगत है; व्यक्तिगत
जगत का नाम स्वप्न
है... और सत्य इन
दोनों में
नहीं है।
पर
इसे सोचना
पड़ेगा।
अविनाशी तो
कुछ दिखाई नहीं
पड़ता। कोई
अविनाशी चीज
देखी? अविनाशी
तो कुछ दिखाई
पड़ता नहीं, सभी चीजें
नाशवान मालूम
होती हैं। सभी
क्षणभंगुर
हैं। सभी समय
की सीमा पार
करके आगे नहीं
जा पातीं, समयातीत
नहीं हो पातीं,
सब समय में
बिखर जाती
हैं। कोई जरा
जल्दी, कोई
जरा देर, इससे
कोई अंतर नहीं
पड़ता। देर-
अबेर का सवाल
नहीं है, लेकिन
समय सबको मिटा
देता है।
अविनाशी
कोई चीज आपने
देखी जिसको आप
कह सकें यह
कभी नहीं
मिटती? बाहर
तो हम नहीं
देख सकते, क्योंकि
बाहर जिस माध्यम
से हम देखते
हैं वह माध्यम
ही अविनाशी
नहीं है; जिस
आख से हम
देखते हैं वही
विनाशवान है।
इसलिए
विनाशवान से
अविनाशी नहीं
देखा जा सकता;
यह तो बहुत
सीधी सी बात
है। आख अपने
से ज्यादा बड़े
को नहीं देख
सकती। आख अपनी
सीमा के भीतर
देख सकती है, आख खुद ही
विनाशशील है
इसलिए
विनाशशील को
देख सकती है; कान खुद
विनाशशील है
इसलिए
विनाशशील को
सुन सकता है; हाथ खुद
विनाशशील है
इसलिए
विनाशशील को
स्पर्श कर
सकता है। हाथ
अविनाशी को
कैसे स्पर्श
करेगा?... अविनाशी
को कैसे
स्पर्श करेगा?
अविनाशी
को जानने के
लिए अविनाशी
माध्यम खोजना
पड़े,
विनाशशील
माध्यम से
अविनाशी का
पता नहीं चलता।
और हमारे शरीर
के पास जितनी
इंद्रियां
हैं वे सब
विनाशवान हैं,
शरीर की
इंद्रियां
हैं। तो अगर
अविनाशी की तरफ
चलना हो तो
ऋषि कहेगा कि
अपने भीतर
चलें जहां
इंद्रियों का
उपयोग नहीं
करना पड़ता।
भीतर आख के
बिना भी देखने
की क्षमता
होती है; और
प्रकाश के
बिना भी देखने
की क्षमता
होती है; और
भीतर कान के
बिना भी सुना
जाता है, और
हाथ के बिना
भी भीतर
स्पर्श हो
जाते हैं।
तो
वे स्पर्श, वे
दृश्य, वे
अनुभूतियां
विनाशशील
इंद्रियों से
नहीं होतीं; लेकिन क्या
जो विनाशशील
इंद्रियों से
नहीं होता वह
अनिवार्य रूप
से अविनाशी
होगा? क्योंकि
भीतर भी जो
दृश्य दिखाई
पड़ता है वह भी
अभी दिखाई
पड़ता है, फिर
कल दिखाई नहीं
पड़ता।
एक
मित्र कल आए
थे;
उन्होंने
कहा : पहले दिन
तो बहुत
प्रकाश दिखाई
पड़ा था, फिर
दूसरे दिन
ध्यान में
नहीं दिखाई पड़
रहा। तो
निश्चित ही वह
प्रकाश
अविनाशी तो
नहीं हो सकता,
जो दिखा और
नहीं दिखा.. खो
गया; था और
अब नहीं है; वह भी एक रूप
ही रहा, वह
भी एक आकार ही
रहा। उनको
मैंने कहा कि
प्रकाश दिखे
तो, न दिखे
तो, दोनों
स्थितियों
में एक चीज
शाश्वत है :
देखने वाला।
प्रकाश दिखा
तो देखने वाले
ने कहा, प्रकाश
दिखता है; प्रकाश
नहीं दिखा तो
देखने वाले ने
कहा, प्रकाश
नहीं दिखता
है। बाकी एक
दोनों में थिर
है।
तो
भीतर के अनुभव
भी अनिवार्य
नहीं कि
अविनाशी हों, क्योंकि
वे भी आज हैं
और कल नहीं
होते हैं। लेकिन
एक तत्व भीतर
सदा होता है :
वह जो ज्ञाता
है, वह जो
द्रष्टा है, वह जो देखता
है, वह सदा
होता है। वही
एक हमारे भीतर
अविनाशी स्वर
है। उसे हम
पहचान लें तो
हम जगत में भी
अविनाशी स्वर
को पहचानने
लगेंगे। उसके
अलावा शेष सब
विनाशशील है।
मैं
बच्चा था, बचपन
नहीं रहा, लेकिन
जिसने बचपन
देखा था वह
अभी भी मेरे
भीतर है, जवान
हूं जवानी न
रही, लेकिन
जिसने जवानी
देखी थी वह अब
भी मेरे भीतर
है; का हूं
बुढ़ापा भी चला,
लेकिन
जिसने बुढ़ापा
देखा वह भी
मेरे भीतर है।
बचपन, जवानी,
बुढ़ापा, जिसने
तीनों देखे
वही मेरे भीतर
शाश्वत स्वर मालूम
पड़ता है, बाकी
तो सब आया और
गया। सुख देखे,
दुख देखे, सम्मान-असम्मान
देखे, लेकिन
सिर्फ देखने
वाला भर बना
रहता है, शेष
सब बिखरता चला
जाता है।
इस
देखने वाले को
अगर हम थोड़ा
खोज लें, तो
हमें पता
चलेगा, इस
देखने वाले ने
जन्म भी होते
देखा, और
हमें पता
चलेगा कि यह
देखने वाला
मृत्यु को भी
होते देखेगा,
तब हमने एक
शाश्वत स्वर
को पकड़ लिया।
बस यह एक स्वर
हमारे हाथ में
आ जाए तो यह
सारा जगत
तत्काल
शाश्वत हो जाता
है। इस एक
शाश्वत को
पहचान लेने से
हमें वह
दृष्टि
उपलब्ध हो
जाती है कि
जहां कहीं भी शाश्वत
है, हम उसे
पहचान लेंगे
और जहां
अशाश्वत है
उसे भी हम
पहचान लेंगे।
तब रूप सभी
अशाश्वत रह
जाते हैं और
पीछे छिपा हुआ
अरूप शाश्वत
हो जाता है।
तथ्य
रूप है, और
सत्य अरूप है।
इसलिए
विज्ञान की जो
परिभाषा है
तथ्य की, धर्म
की सत्य की
परिभाषा उससे
ज्यादा गहन
है... और ज्यादा
पारगामी है।
''ब्रह्म सत्य,
अनंत और
ज्ञानरूप है। ''
सत्य
है अर्थात
अविनाशी है।
अनंत है, उसकी
कोई सीमा नहीं;
क्योंकि
जिसकी भी सीमा
हो वह नाश को
उपलब्ध हो
जाएगा।
असल
में सीमा से
ही विनाश शुरू
होता है। सीमा
ही सड़ने लगती
है.. सीमा ही सड़ने
लगती है, क्योंकि
सीमा से ही आप
किसी और से
संबंधित होते
हैं और वहीं
संघर्ष है।
अगर आपका शरीर
असीम हो तो
मृत्यु नहीं
घट सकती; क्योंकि
असीम शरीर का
अर्थ यह हुआ
कि आपके बाहर
अब कुछ भी
नहीं है। आप
मरेंगे भी तो
किसमें मरेंगे?
मृत्यु
प्रवेश भी
करेगी तो कैसे
प्रवेश करेगी?
मृत्यु का
संदेशवाहक भी
कोई न हो
सकेगा। कोई बीमारी,
कुछ भी आपके
अतिरिक्त
नहीं है तो आप
मर नहीं सकते
हैं।
शरीर
मरता है...
क्योंकि शरीर
के बाहर बहुत
कुछ है जिससे
वह चौबीस घंटे
संघर्ष में
है। वैज्ञानिक
कहते हैं कि
आदमी का शरीर
सैक्कों साल
तक जी सकता है, लेकिन
घिस जाता है
संघर्ष में।
जैसे लोहे पर
जंग खाती रहती
है, जैसे
हवा के झोंके
आकर वृक्ष को
कमजोर करते
रहते हैं, जैसे
धूप... चारों
तरफ से संघर्ष
है। वैसे ही
आपके शरीर पर
भी संघर्ष है।
घिस-पिस जाते
हैं। सत्तर
साल में
जरा-जीर्ण हो
जाते हैं। मौत
करीब आ गई, उसका
मतलब केवल
इतना है कि
आपकी सीमा पर
पड़ने वाले
आघातों ने
आपको
जरा-जीर्ण कर
दिया।
तो
जो सीमित है
वह जरा-जीर्ण
हो जाएगा, अविनाशी
नहीं हो सकता;
क्योंकि
सीमा के पार
से हमले होते
ही रहेंगे, संघर्ष होता
ही रहेगा।
प्रतिपल
संघर्ष है। अगर
हम एक व्यक्ति
के शरीर को
बिलकुल फ्रीज
कर दें, बिलकुल
ठंडा कर दें, और सब
संघर्ष से
मुक्त कर दें,
तो उस शरीर
को
हजारों-लाखों
साल तक जिंदा
रखा जा सकता
है। कोई अड़चन
नहीं है।
क्योंकि मौत
आती है बाहर
के संघर्षण
से। लेकिन
हजारों- लाखों
साल के बाद भी
वह सड़ ही
जाएगा।
क्योंकि उसकी
सीमा फिर भी सीमा
ही है। लंबा
हो सकता है
समय, लेकिन
शाश्वत नहीं
हो सकता।
इसलिए
हम ब्रह्म को
अनंत कहते हैं; उसकी
कोई सीमा नहीं
है; उसका
कहीं कोई अंत
नहीं है। और
जब अंत नहीं
है तभी वह
पूर्ण हो सकता
है : क्योंकि
अगर अंत होगा
तो अंत सदा
दूसरे से होता
है, स्वयं
से नहीं होता।
आपका
मकान वहीं
समाप्त होता
है जहां दूसरे
का शुरू होता
है। अगर दूसरा
मकान ही न हो
पृथ्वी पर तो
आपको अपने
मकान के
आस-पास बाउंड्री-वॉल
उठाने की
जरूरत नहीं है; सारी
पृथ्वी ही
आपका मकान है।
वह तो पड़ोसी
की वजह से
आपके मकान की
बाउंड्री
बनती है; दूसरे
की वजह से
सीमांत आता
है।
परमात्मा
पूर्ण अगर है, तो
फिर अनंत ही
हो सकता है।
और जो पूर्ण
नहीं है, वह
अविनाशी नहीं
हो सकता; क्योंकि
अपूर्णता से
विनाश जन्मता
है; अपूर्णता
से मौत फलित
होती है।
इसलिए
ब्रह्म को कहा
सत्य, अनंत और
ज्ञान।
मनुष्य के
अनुभव में जो
श्रेष्ठतम
अनुभव है वह
ज्ञान है। इसे
थोड़ी कठिनाई पड़ेगी
समझने में, क्योंकि कोई
कहेगा कि
मनुष्य के
अनुभव में
सबसे श्रेष्ठ
अनुभव जो है
वह प्रेम है; कोई कहेगा
कि मनुष्य के
अनुभव में जो
सबसे श्रेष्ठ
अनुभव है वह
आनंद है--या
कोई कुछ और
कहेगा। लेकिन
वस्तुत:
मनुष्य के
अनुभव में जो
श्रेष्ठतम
अनुभव है वह
ज्ञान है; क्योंकि
ज्ञान के बिना
प्रेम भी नहीं
जाना जाता, और ज्ञान के
बिना आनंद भी
नहीं जाना
जाता। तो जिसके
बिना प्रेम न
जाना जा सके, जिसके बिना
आनंद न जाना
जा सके, वह
दोनों के ऊपर
चला गया, पार
हो गया। ज्ञान
बिना प्रेम के
हो सकता है, और ज्ञान
बिना आनंद के
हो सकता है, लेकिन आनंद
और प्रेम बिना
ज्ञान के नहीं
हो सकते।
इसलिए
परमात्मा को
ज्ञान ऋषियों
ने कहा है।
जीसस
ने कहा है : 'गॉड
इज लव। ' बहुत
महत्वपूर्ण
बात कही है :
ईश्वर प्रेम
है। लेकिन
कारण दूसरे
हैं; परिभाषा
परिस्थितिगत
है, कारण
बिलकुल दूसरे
हैं। वह आदमी
को यह कहलवाना,
समझाना
चाहते हैं कि
परमात्मा
प्रेम है और
अनुकंपा के
लिए तुम आशा
रख सकते हो, परमात्मा
प्रेम है और
तुम असहाय
नहीं हो। तुम उसका
प्रेम मांगो,
मिल जाएगा।
मनुष्य
आश्वस्त हो
सके, इसलिए
परमात्मा की
परिभाषा में
प्रेम को जीसस
ने डाला है।
मैं
भी निरंतर
कहता हूं कि
परमात्मा
प्रेम है; या
यह भी कहता
हूं कि प्रेम
ही परमात्मा
है। वह भी
सिर्फ इसी
खयाल से कि
आदमी को इससे
कोई प्रयोजन
नहीं कि
परमात्मा
ज्ञान है..
इससे कोई
प्रयोजन
नहीं। होगा
परमात्मा
ज्ञान, लेकिन
ज्ञान से
हमारे संबंध
नहीं जुड़ते..
ज्ञान से
हमारे संबंध
नहीं जुड़ते; ज्ञान से एक
अलिप्तता बनी
रहती है, एक
फासला बना
रहता है, एक
दूरी बनी रहती
है। ज्ञान को
स्पर्श करने
में मुश्किल
पड़ेगी, ज्ञान
को स्पर्श
नहीं किया जा
सकता, ज्ञान
और हमारे बीच
कोई सेतु
निर्मित नहीं
होता। इसलिए
परमात्मा को
प्रेम कहने का
कारण सिर्फ
इतना है..
निश्चित ही
परमात्मा
प्रेम' है,
लेकिन वह
उसकी
अल्टीमेट
डेफिनेशन
नहीं है, वह
उसकी आखिरी
व्याख्या तो
वही है जो ऋषि
कर रहा है... कि
परमात्मा
ज्ञान है। वह
परिस्थितिगत
व्याख्या है,
वह मनुष्य
को ध्यान में
रख कर की गई
व्याख्या है
कि परमात्मा
प्रेम है... और
मनुष्य के बड़े
उपयोग की है; यह ज्ञान
वाली परिभाषा
बिलकुल उपयोग
की नहीं है।
यह परिभाषा
बिलकुल ठीक
है--यही ठीक
परिभाषा
है--लेकिन काम
की बिलकुल
नहीं है।
जिन्होंने
कहा परमात्मा
आनंद है, सच्चिदानंद
कहा है, आनंदस्वरूप
कहा है, वह
भी
परिस्थितिगत
परिभाषा है।
आदमी इतने दुख
में है कि अगर
परमात्मा
आनंदस्वरूप
हो तो ही यात्रा
पर निकल सकता
है। बुद्ध का
विचार पांच सौ
साल में भारत
से जडें उखाड़
दी गईं उसकी; कट गया
बिलकुल। उसका
कुल कारण इतना
था कि बुद्ध
ने परमात्मा
की कोई
परिस्थितिगत
व्याख्या नहीं
की। कहा, शून्य
है। अब शून्य
की तरफ जाने
की कहीं कोई वृत्ति
ही नहीं उठती..
बल्कि पता चल
जाए कि इधर
शून्य है तो
आदमी वहां से
बचेगा कि इस
खतरे से बचो।..
-शून्य! क्या
करेंगे वहां
जाकर? बुद्ध
से कोई पूछता
कि क्या
परमात्मा
आनंद है, तो
वे कहते कि
नहीं, सिर्फ
दुख-निरोध--बस
दुख नहीं होगा,
इतना काफी
है। लेकिन
इतने से
प्रेरणा नहीं
उठती.. दुख नहीं
होगा, यह
ठीक है; अच्छा
है कि दुख न हो,
लेकिन इतना
काफी नहीं है
पैर उठने के
लिए। आदमी दुख
में है, गहन
दुख में है, इसलिए
परिस्थितिगत
व्याख्या है
कि परमात्मा
आनंद है।
लेकिन
जिसे हम कहें
निरपेक्ष
व्याख्या, जिसे
हम कहें आदमी
को छोड़ कर
सीधी
व्याख्या, जिसमें
आदमी की फिकर
नहीं है कोई
भी, तो वह
व्याख्या यही
है : 'ब्रह्म
ज्ञानस्वरूप
है।'
इन
परम
व्याख्याओं
के कारण
उपनिषद कभी भी
लोकमानस में
प्रवेश नहीं
कर पाए, क्योंकि
परम
व्याख्याओं
से कोई संबंध
आदमी का जुड़ता
नहीं। बाइबिल
जितने गहरे
प्रवेश कर जाती
है मनुष्य में,
उपनिषद
नहीं कर पाता।
यद्यपि
बाइबिल
उपनिषद के
समक्ष कुछ भी
नहीं है।
लेकिन
व्याख्या
परिस्थितिगत
है, और
आदमी के निकट
है, और
आदमी के काम
की है। और
सूरज ही जलता
हो बहुत दूर, करोड़ों मील
दूर तो किस
काम का है? चलना
यहां है, तो
छोटा सा दीया
भी काम का हो
जाता है। चलना
यहां है, कदम
यहां उठाना है
इस अंधेरे में,
और आप
परिभाषा करते
हैं उस सूर्य
की जो अनंत फासले
पर है। होगा, लेकिन उससे
एक इंच भी तो
चलने का उपाय
नहीं है। माना
यह दीया बहुत
छोटा दीया है,
और सूरज
नहीं है, पर
कदम उठाने में
सहयोगी है। और
कदम उठ जाए तो शायद
कभी हम उस
सूर्य पर भी
पहुंच जाएं
जहां दीये
फेंक दिए जाते
हैं।
लेकिन
उपनिषद परम
व्याख्या कर
रहे हैं। उसका
कारण है कि
जिन दिनों
उपनिषद जन्मे
उन दिनों आदमी
न तो इतने दुख
में था कि कहा
जाए कि आनंद; न
इतना दीन था, असहाय था कि
कहा जाए प्रेम;
आदमी बड़ा
स्वस्थ था, निर्दोष था।
आखिरी
व्याख्या कही
जा सकती थी कि
परमात्मा
ज्ञान है।
यह
जो ज्ञान है, सत्य
है, यह
अविनाशी है।
''
देश, काल,
वस्तु आदि
निमित्तों का
नाश होने पर
भी जिसका नाश
नहीं होता वही
अविनाशी है। ''
समय
मिट जाए, स्थान
मिट जाए, पदार्थ
खो जाए
अस्तित्व खो
जाए, फिर
भी जो बना रह
जाता है, जो
सब होने का
आधार है, वही
अविनाशी है।
आज
इतना ही।
itna hi ki ye sab padne ko mil raha hain samjhne ko mil raha hai us pramhansh ki anukampa hi hain
जवाब देंहटाएं