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शुक्रवार, 6 मई 2016

सहज योग--(प्रवचन--19)

प्रेम प्रार्थना है—(प्रवचन—उन्‍नीसवां) 

दिनांक 9 दिसंबर, 1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

 1--कुछ लोग आपके आश्रम की तुलना जोन्सटाउन से करते हैं। जिस भांति गुयाना के जंगल में सामूहिक आत्मघात हुआ, वैसा ही कुछ क्या यहां होने की संभावना है?

2—क्या आप समझाने की कृपा करेंगे कि आपकी शिक्षा और प्रयोगों में और संप्रदाय में क्या अंतर है?

3—मैं बिलकुल पत्थर हूं और फिर भी प्रार्थना में डूबना चाहता हूं, पर जानता नहीं कि प्रार्थना क्या है? मुझ अंधे को भी आंखें दें।

4—विवाहित जीवन के संबंध में आपके क्या खयाल हैं?


5—दो माह पहले मेरे भाई, मासी के पुत्र की छब्बीस वर्ष की आयु में मृत्यु हो गयी। वे भाई पुत्र से भी ज्यादा आत्मीय थे। हमने भजन गाये और उत्सव मनाया।...


पहला प्रश्न:

ओशो, कुछ लोग आपके आश्रम की तुलना जोन्सटाउन से करते हैं। जिस भांति सामूहिक आत्मघात गुयाना के जंगल में हुआ, वैसा ही कुछ क्या यहां होने की संभावना हो सकती है? क्या आप अपने संन्यासियों से अपने प्रति या अपनी धारणाओं के प्रति प्रतीक-रूप में ऐसा कुछ बलिदान करने को कह सकते हैं?

बैरी स्लाटर! मैं भी मृत्यु सिखाता हूं--मगर एक और भांति की मृत्यु। मृत्यु, जैसा जीसस ने कहा। जीसस ने कहा: जिन्हें प्रभु के राज्य में प्रवेश करना है, उन्हें पुनर्जन्म लेना होगा। उन्हें मरना होगा एक तल पर और जागना होगा दूसरे तल पर। उन्हें शरीर से मुक्त होना होगा और चेतना के आकाश में पंख फैलाने होंगे। मैं उसे ही वास्तविक मृत्यु कहता हूं।
देह तो मरती रहती है; अपने-आप ही मरती रहती है। उसे मारना तो मारे हुए को मारना है। मारना है मन को, जो कि मर-मरकर नहीं मरता; जो हर मृत्यु के पार फिर नये जन्मों का सिलसिला शुरू कर देता है
मैं मन मांगता हूं, तन नहीं। मैं चाहता हूं: तुम मरो। मैं चाहता हूं कि मेरा संन्यासी मरे। मरे--भौतिक तल पर, ताकि जी सके आध्यात्मिक तल पर। मरे कीचड़ की भांति, ताकि हो सके कमल।
मृत्यु तो सारे सदगुरुओं ने सिखायी है। लेकिन जो जोन्सटाउन में हुआ, उसका धर्म से कोई भी संबंध नहीं है। वह तो एक प्रकार की विक्षिप्तता है; एक तरह की आत्मघाती वृत्ति है। जोन्सटाउन में रेवरेंड जिम जोन्स ने जो किया, उससे केवल एक बात सिद्ध होती है कि वह स्वयं भी विक्षिप्त था और उसने जिन लोगों को अपने आसपास इकट्ठा कर लिया था, वे भी विक्षिप्त थे। वह पागलों की एक जमात थी! विध्वंसक, आत्मविध्वंसक लोगों का एक समूह था। जो किसी भी बहाने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
इस आश्रम में ऐसा कभी कुछ नहीं हो सकता है। क्योंकि इस आश्रम में तो जो प्रविष्ट हो चुका है, वह तो मर ही चुका। अब उसे और मरने का उपाय नहीं है। अब तो शाश्वत जीवन उसके लिए है। अब तो अमृत का जीवन उसके लिए है। संन्यास का अर्थ ही मृत्यु होता है। मृत्यु--मनोवैज्ञानिक--अस्मिता की, अहंकार की। मैं नहीं हूं, ऐसा भाव ही तो संन्यास है। और जब मैं नहीं हूं, तो अब कौन मरेगा? मैं का मिट जाना ही तो संन्यास है।
इसलिए जो लोग इस आश्रम की तुलना जोन्सटाउन से करते हैं, वे न तो जोन्सटाउन को समझते हैं, न इस आश्रम को समझते हैं। उन्हें कुछ समझ नहीं है। वे तो जीसस की तुलना भी रेवरेंड जोन्स से करेंगे। वे तो बुद्ध की तुलना भी रेवरेंड जोन्स से करेंगे। क्योंकि बुद्ध ने भी कहा है, प्रतिपल मरो। और जीसस ने तो बार-बार दोहराया है कि जब तक तुम मरोगे नहीं, तब तक उसे पा न सकोगे। लेकिन किस मृत्यु की बात कर रहे हैं जीसस और बुद्ध? कोई और ही मृत्यु है। कोई और ही रासायनिक प्रक्रिया है।
मैं भी कहता हूं, प्रतिपल मरो। अतीत के प्रति मरते चलो। अतीत का बोझ न ढोओ। तुम्हारे चित्त के दर्पण पर अतीत की कोई छाया न इकट्ठी हो, कोई धूल न जमे। पोंछते चलो, झाड़ते चलो, रोज स्नान करते चलो। प्रतिपल समझो कि नया जन्म हुआ। अतीत मर जाये और भविष्य जन्मे--उस ताजगी में ही, उस ओस जैसी ताजगी में ही तुम परमात्मा से संबंधित हो पाओगे।
लेकिन वैसा मरना कठिन है। वैसे मरने के लिए लंबी साधना की यात्रा करनी होगी। और जो जोन्सटाउन में हुआ, वैसा मरना बहुत आसान है। जहर खाकर मर जाना कोई बहुत बड़ी कला तो नहीं! बोध को जगाकर मर जाना कला है, योग है। जहर खाकर मरोगे, तो तुम्हारा जीवन भी व्यर्थ गया, तुम्हारी मृत्यु भी व्यर्थ गयी। बेहोशी में मरे। और बेहोशी में वही मरता है, जो बेहोशी में जीया हो। क्योंकि मृत्यु तो जीवन की परम अभिव्यक्ति है।
मैं तुम्हें जागकर जीने को कहता हूं। ऐसे जागकर जीयो कि जब मौत आये तब भी तुम जागे रहो। मौत भी ध्यान में घटित हो। तुम वहां जागे रहो और यहां मौत घटित हो। वहां चैतन्य का दीया जलता रहे और शरीर से छुटकारा हो। बस अगर तुम जागकर मर सको, तो फिर दोबारा न जन्मोगे न मरोगे। फिर अमृत से तुम्हारा संबंध हो गया।
रेवरेंड जोन्स कोई सदगुरु तो नहीं--मनोविकारग्रस्त व्यक्ति होगा। मेरे पास भी ऐसे मनोविकारग्रस्त लोग कभी आ जाते हैं। मुझसे आकर कहते हैं कि ओशो, आप आज्ञा दें तो हम आपके लिए मरने को तैयार हैं। मैं उनको कहता हूं कि अगर मेरी आज्ञा ही माननी हो, तो पहले मेरे लिए जीने को तो तैयार हो जाओ। जीयो मेरे लिए पहले; मैं जो कहता हूं वैसे जीयो। मरना तो बड़ा सुगम है। मरने में देर कितनी लगती है? जीना कठिन बात है; मरना तो क्षण में हो जाता है। कूद गये पहाड़ी से जाकर। एक क्षण की ही हिम्मत की जरूरत है। जीना, सत्तर साल जीना होगा...। हजारों ऋतुएं बदलेंगी। हजारों मन के भाव बदलेंगे। परिस्थितियां बदलेंगी। अनुकूलताएं प्रतिकूलताएं आयेंगी, सफलताएं-विफलताएं आयेंगी। फिर भी एक धागे को पकड़कर जीना, एक प्रेम के धागे को पकड़कर जीना, एक प्रार्थना को अडिग और अकंप रखना--कठिन मामला है--अति कठिन मामला है। और जब मैं किसी से कहता हूं जैसे मैं कहता हूं वैसे जीयो, तो वह शिथिल हो जाता है; मरने को तैयार है।
यही तो सदियों से हुआ है। लोग धर्म के नाम पर मरते रहे; धर्म के नाम पर जीया कौन? मैं तुम्हें धर्म के नाम पर जीना सिखाता हूं। मेरा तो सारा संदेश जीवन के अहोभाव का संदेश है--नृत्य का, गीत का, उत्सव का। मैं तो चाहता हूं: तुम फूल बनो, खिलो; कि पक्षी बनो, आकाश में उड़ो; कि सीखो चांदत्तारों से नृत्य; कि सीखो झरनों से गीत-गान। मैं तो जीवन का प्रेमी हूं, क्योंकि मेरे लिए जीवन ईश्वर का पर्याय है। और जीवन कभी मरता नहीं; जीवन शाश्वत है। देहें बदल जाती हैं, रूप बदल जाते हैं, रंग बदल जाते हैं, नाम बदल जाते हैं; लेकिन जो तुम्हारे भीतर बसा है, वह तो कभी बदलता नहीं।
जोन्सटाउन में जो हुआ, वह तो बड़ी रुग्ण-चित्त की अवस्था है। इसका धर्म से कोई संबंध नहीं है। हां, धर्म के नाम पर बहुत तरह के उपद्रव दुनिया में चल रहे हैं, चलते रहे हैं; उनसे ही इस बात का संबंध है।
रेवरेंड जोन्स एडोल्फ हिटलर जैसा रुग्ण-चित्त, विक्षिप्त आदमी रहा होगा। भ्रांतियां रही होंगी उसे। और अपनी भ्रांतियों को सिद्ध करने के लिए आदमी कुछ भी कर सकता है। लोगों को जीवन जीना तो नहीं सिखा पाया...।
जब तुम कुछ सृजन नहीं कर पाते तो तुम्हारी ऊर्जा विध्वंसक हो जाती है। जब तुम बना नहीं पाते तो मिटाने की आतुरता पैदा हो जाती है। स्मरण रहे, जो भी हार जायेगा बनाने से, वह मिटाने को उत्सुक हो जाता है। कम से कम इतनी तो घोषण कर दे कि नहीं बना सका, कोई बात नहीं; मिटा तो सका। मिटाने में भी तो ऐसा लगता है कि मैं बलशाली हूं, मेरी प्रभुता है। आखिर दुनिया में विध्वंस का इतना रस क्यों है? इसीलिए रस है, नहीं बना सके, कोई फिक्र नहीं; मिटा तो सकते हैं। मिटाने में भी लगता है कि हम महत्वपूर्ण हो गये, महिमाशाली हो गये। दो ही तो कृत्य हैं इस जगत में: बनाओ या मिटाओ। जो बना सकता है, मिटायेगा नहीं। जो नहीं बना सकता है, वही मिटाता है।
सदगुरु तो वह है जो जीवन को जगाता है; जीवन को बनाता है। सदगुरु तो मूर्तिकार है; अनगढ़ पत्थरों को गढ़ता है। टूटे-फूटे लोगों को सुघड़ता देता है। सौंदर्य देता है उनको, जो कुरूप हो गये हैं। स्वास्थ्य देता है उनको, जिनकी छातियों में सिर्फ घाव हैं और कुछ भी नहीं। जिनके प्राणों में मवाद भरी है उनके प्राणों से मवाद खींचता है। उनके जीवन से जहर को बाहर करता है; अमृत का दान देता है। कोई सदगुरु ऐसा करेगा?
एक पागल आदमी के आसपास कुछ और पागल इकट्ठे हो गये होंगे। और पश्चिम में यह जोर से हो रहा है। क्यों हो रहा है पश्चिम में यह जोर से? इसलिए हो रहा है कि परंपरागत धर्म सड़ गया है। परंपरागत ईश्वर अर्थहीन हो गया है। चर्चों और मंदिरों में सूनापन है, सन्नाटा है। वहां से देवता कभी के विदा हो चुके हैं। वहां पंडितों ने और पुजारियों ने, पादरियों ने दुकानें खोल रखी हैं! और आदमी के मन में ईश्वर की तलाश पैदा हुई है। और इसलिए तलाश पैदा हुई है कि पश्चिम पहली बार समृद्ध हुआ है। जब भी कोई समृद्ध होता है, जब भी जीवन की सारी सुविधाएं पूरी हो जाती हैं, तो परमात्मा की खोज अनिवार्य होती है। क्योंकि फिर और कुछ खोजने को बचता नहीं। धन पा लिया, पद पा लिया, प्रतिष्ठा पा ली--और कुछ भी तो न मिला! तब एक आध्यात्मिक रिक्तता की प्रतीति होती है। तब एक संताप पकड़ लेता है। उसी संताप में आज पश्चिम है।...तलाश कर रहा है।
और जब लोग तलाश करते हैं, तो झूठे लोगों की बन आती है। जब लोग तलाश कर रहे होते हैं, तो झूठे सिक्के भी चल जाते हैं। जब लोग टटोल रहे होते हैं, तो जो दरवाजे नहीं हैं, वे भी दरवाजे की घोषणा कर देते हैं। हिंदुस्तान में भी जितने बेईमान किस्म के साधु-संन्यासी हैं, वे सब अमरीका की तरफ भाग रहे हैं। फिर महर्षि महेश योगी हों कि स्वामी मुक्तानंद हों, या कोई और हों। उनको वहां बाजार दिखाई पड़ रहा है। केलिफोर्निया धर्म का बाजार हो गया है। पांच हजार संप्रदाय नये, केलिफोर्निया में चल रहे हैं। कोई भी...कोई भी मूढ़ जोर से घोषणा कर सकता हो जाकर केलिफोर्निया में, तो शिष्य खोज लेगा। शिष्य तैयार ही हैं; किसी के भी पीछे चलने को तैयार हैं।
मैंने जानकर ही तय किया कि पश्चिम नहीं जाऊंगा। क्योंकि पश्चिम धर्म के नाम पर बाजार बन गया है। जिनको आना है उन्हें यहां आना होगा। अगर तलाश है, खोज है, तो हजारों मील का फासला तय करके लोग यहां आ जायेंगे। जिनको, जिन तथाकथित गुरुओं को यहां से वहां जाना पड़ रहा है, खयाल रखना, वे शिष्यों की तलाश में हैं, शिष्य उनकी तलाश में नहीं हैं। शिष्य जिसकी तलाश में हैं, उसे कहीं जाने की जरूरत नहीं है।
मैं तो अपने कमरे में बंद होकर बैठ गया हूं। इसे तुम चमत्कार समझो कि जो आदमी कमरे के बाहर नहीं जाता, उसके पास सारी दुनिया से लोग चुपचाप चले आ रहे हैं! हजार तरह की अड़चनें झेलकर चले आ रहे हैं। और मैं चाहता भी हूं कि पहले वे उन सब तथाकथित गुरुओं के पास हो लें तो अच्छा। इसलिए मेरे पास जो लोग आ रहे हैं, वे बहुत गुरुओं के पास होकर आ रहे हैं। अब उन पर काम हो सकता है। क्योंकि जिसने असार देख लिया है, उसी को सार दिखाई पड़ सकता है। जिसने झूठ को पहचान लिया है, वही सत्य की दिशा में कदम उठा सकता है। असार को असार की भांति जान लेना, सार को जानने के लिए पहला कदम है, पहली सीढ़ी है।
मैं तो यहां जीवन का उत्सव सिखा रहा हूं--जीवन का इंद्रधनुष, जीवन के सातों रंग! मैं जीवन निषेधक नहीं हूं। मैं तो जीवन के प्रेम में हूं, अनंत प्रेम में हूं।
यहां तो ऐसी घटना घट ही नहीं सकती। अगर कोई स्थान है जहां ऐसी घटना असंभव है, तो वह स्थान यही है। मैं तुम्हें रुग्ण तो नहीं बनाना चाहता। यद्यपि जो झूठे गुरु हैं वे तुम्हें रुग्ण बनायेंगे, क्योंकि तुम जितने रुग्ण हो जाओगे, उतनी ही तुम्हें उनकी जरूरत होगी। वे तुम्हें दीन-हीन बनाएंगे। वे तुम्हें पापी बनाएंगे। तुम पापी हो, ऐसी घोषणा करेंगे। तुम जितने दुर्बल हो जाओगे, तुम्हारी दुर्बलता में उनका बल है
मैं घोषणा कर रहा हूं कि तुम पापी नहीं हो। मैं कह रहा हूं कि कोई पापी नहीं हैं। मैं घोषणा कर रहा हूं कि तुम्हारे भीतर परमात्मा अपनी परम शुद्धि में उपस्थित है। तुम क्वांरे परमात्मा हो। मैं घोषणा कर रहा हूं तुम्हारी परम वैभवशीलता की, तुम्हारी परम समृद्धि की। मैं तुम्हें बल दे रहा हूं। मैं तुम्हें आत्मा दे रहा हूं। तुम्हें दीन-हीन नहीं कर रहा हूं।
स्मरण रहे, यही कसौटी है। जहां तुम दीन-हीन किये जाओ, समझ लेना कि जो व्यक्ति तुम्हें दीन-हीन कर रहा है, वह व्यक्ति तुम्हारे ऊपर बल, अधिकार, मालकियत की घोषणा करना चहता है। दुर्बलों पर ही मालकियत हो सकती है। मैं तुम्हें जितना बल दे रहा हूं, उतना तो किसी ने कभी नहीं दिया है। बेशर्त तुम से कह रहा हूं कि तुम्हारे जीवन में कुछ भी नहीं है, जिसके लिए तुम अपराधी अनुभव करो। तुम्हें नर्क नहीं जाना है। कहीं कोई नर्क नहीं है। तुम्हें जागना है; और तुम पाओगे कि तुम स्वर्ग में हो।
बैरी स्लाटर, तुमने पूछा कि कुछ लोग आप के आश्रम की तुलना जोन्सटाउन से करते हैं। वे वे ही लोग होंगे, जो न यहां कभी आये हैं, न जिन्होंने कभी मेरी आंख में आंख डालकर देखा है, न जो कभी मेरे पास बैठे हैं, न जिन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया है। वे ही लोग, जिन्होंने इस सत्संग की शराब कभी नहीं पी। वे ही लोग, जो इस मधुशाला से दूर-दूर हैं। उनकी बातों का कोई मूल्य नहीं है।
तुमने पूछा कि जिस भांति सामूहिक आत्मघात गुयाना के जंगल में हुआ, वैसा ही कुछ क्या यहां होने की संभावना हो सकती है?
यहां तो जो संन्यासी होता है, उसने आत्मघात कर ही लिया! संन्यास का अर्थ ही वही है कि मरता हूं जैसा मैं था, ताकि अब जी सकूं वैसा जैसा कि मैं हूं। मेरे पाखंड को छोड़ता हूं। मेरे मुखौटे छोड़ता हूं। मेरे व्यक्तित्व को जाने देता हूं...नदी की धार में, ताकि मेरी आत्मा प्रगट हो सके।
संन्यास तो आत्मघात है--सही अर्थों में आत्मघात। क्योंकि उसी के बाद सच्चा जीवन शुरू होता है। यहां तो अब आत्मघात को कोई बचा नहीं। यहां तो कोई उपाय नहीं है। यहां तो सन्नाटा है। यहां तो शांति है। यहां तो उस शांति से आनंद के गीत उठ रहे हैं। वह भी संन्यासी गा रहे हैं ऐसा नहीं, संन्यासी सिर्फ परमात्मा को अपने भीतर से गाने दे रहे हैं...ऐसा।
तुमने यह भी पूछा कि क्या आप अपने संन्यासियों से अपने प्रति या अपनी धारणाओं के प्रति प्रतीक-रूप में ऐसा कुछ बलिदान करने को कह सकते हैं?
पहली तो बात, मेरी कोई धारणाएं नहीं हैं। मैं धारणाएं सिखाता नहीं। मैं धारणाओं से मुक्ति सिखाता हूं। मैं सिखाता हूं कि कैसे ज्ञान से छुटकारा हो। मैं तुम्हें ज्ञान देता नहीं, तुमसे ज्ञान छीनता हूं। मैं तुम्हें शून्य देना चाहता हूं। शून्य का ही दूसरा नाम ध्यान है। जब तक ज्ञान है तब तक ध्यान नहीं। जब सारा ज्ञान गिर जाता है तब ध्यान का आविर्भाव होता है।
ध्यान उस निर्मल दशा का नाम है, जब ज्ञान की कोई धूल तुम्हारी चेतना के दर्पण पर नहीं बचती। मैं तुम्हें कोई धारणा नहीं सिखा रहा हूं। मैं तो यह भी नहीं कहता कि मानो कि ईश्वर है। मैं तो यह भी नहीं कहता कि मानो कि मोक्ष है। मैं तो यह भी नहीं कहता कि मानो कि पुनर्जन्म है। मैं तो कहता ही नहीं कि कुछ मानो।
मैं तो कहता हूं: जो है, इस क्षण, अभी, यहां, उसे जानो। मानने पर मेरा जोर नहीं है। क्योंकि जो भी तुम्हें मनाता है, वही तुम्हें गुलाम बना लेगा। मनाने का अर्थ है: तुम्हारे हाथ में झूठ पकड़ा देना। जो तुम्हारा अनुभव नहीं है, वह झूठ है। मेरा अनुभव मेरे लिए सत्य है। तुम्हारा अनुभव तुम्हारे लिए सत्य होगा। मेरा अनुभव तुम्हारे लिए कभी सत्य नहीं हो सकता। मैंने स्वाद लिया, तुम्हें तो स्वाद नहीं आया। मैंने संगीत सुना, तुम्हारे कान तो वैसे के वैसे वंचित रहे। मैंने भोजन किया, मेरी भूख मिटी; तुम्हारी तो न मिट जायेगी। अगर मेरे भोजन करने से मेरे संन्यासी की भूख नहीं मिटती; तो मैं परमात्मा को जान लूं, इससे मेरा संन्यासी कैसे परमात्मा को जान सकेगा? जब शरीर की भूख तक नहीं मिटती, तो आत्मा की भूख कैसे मिट जायेगी?
इसलिए स्मरण रहे कि सत्य जब भी जानने वालों के हाथ से गैर-जाननेवालों के हाथ में जाता है, उसी प्रक्रिया में झूठ हो जाता है। दूसरे का सत्य तुम्हारे लिए झूठ है। इसलिए मैं कोई धारणाएं नहीं दे रहा हूं। अगर कुछ मैं दे रहा हूं तो जागरण, होश। इसलिए मेरी धारणाओं पर बलिदान करने का तो कोई सवाल ही नहीं है, कोई प्रश्न ही नहीं है।
त्याग और बलिदान मेरी जीवन-शैली के अंग ही नहीं हैं। मैं तुमसे कुछ भी मेरे लिए छोड़ो, ऐसा न कहता हूं न कह सकता हूं। हां, तुम्हें जो दिखाई पड़ने लगे व्यर्थ है, वह छूट जायेगा और जो सार्थक है, तुम उसे पकड़ने लगोगे। लेकिन यह घटना घटेगी तुम्हारे भीतर, तुम्हारे अंतरतम में; तुम्हीं इसके निरीक्षक, तुम्हीं इसके मालिक होओगे।
मैं तुम्हारा मालिक नहीं हूं, ज्यादा-से-ज्यादा तुम्हारा संगी-साथी हूं।
बुद्ध ने स्वयं को कहा है, मैं कल्याण-मित्र हूं। वही मैं तुमसे कहता हूं: मैं तुम्हारा कल्याण-मित्र हूं।
तुम मेरे शिष्य हो, इससे तुम यह मत समझ लेना कि मेरे भीतर कोई गुरु-भाव है। तुम जरूर मेरे शिष्य हो, क्योंकि तुम अभी तलाश कर रहे हो। लेकिन जहां तक मेरा संबंध है, मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं, न तुम मेरे शिष्य हो। क्योंकि मुझे तो वह दिखाई पड़ रहा है: तुम जिसे तलाश कर रहे हो, वह तुम्हारे भीतर मौजूद है। मेरी तरफ से तो मैं मित्र हूं, तुम्हारी तरफ से गुरु हूं। तुम अज्ञानी हो। तुम अज्ञानियों की सारी धारणाएं गलत हैं। उसी में यह धारणा भी सम्मिलित है कि मैं तुम्हारा गुरु हूं, कि तुम मेरे शिष्य हो। जब दीया जलेगा, तुम्हारे भीतर रोशनी होगी, ये धारणाएं भी विदा हो जायेंगी। न तुम पाओगे कि तुम शिष्य हो, न तुम पाओगे कि मैं गुरु हूं। न रहेगा मैं, न रहेगा तू; परमात्मा ही रह जाता है--न कोई शिष्य, न कोई गुरु। और जहां दोनों खो जाते हैं, वहीं सत्य का प्रथम साक्षात्कार है।

दूसरा प्रश्न भी पहले से संबंधित है:

ओशो, रेवरेंड जिम जोन्स का किस्सा और गुयाना में घटित सामूहिक आत्मघात की कहानी पिछले कुछ सप्ताहों से समाचार-पत्रों में छायी हुई है। इस कांड में एक आदर्श रोचक समाचार-कथा के सब लक्षण हैं। इस घटना की फलश्रुति हैं--अंतहीन विश्लेषण और टीकाएं, और साथ ही सभी गैर-परंपरागत धार्मिक प्रयोगों का पुनर्परीक्षण। प्रचार-साधनों की शास्त्रीय भाषा में ये चीजें संप्रदायों, "कल्ट्स' के नाम से ज्ञात हैं--जो कि एक तरह से अनुमानित दोषारोपण है।
मैं निश्चित समझता हूं कि यही बात रजनीश आश्रम के साथ लागू हो सकती है। क्या आप हमें समझाने की कृपा करेंगे कि आपकी शिक्षा और प्रयोगों में, और संप्रदाय ("कल्ट्स') में क्या अंतर है?

रोहित! पहली तो बात, मेरे पास जो लोग इकट्ठे हुए हैं, ये किसी संप्रदाय में दीक्षित नहीं हो रहे हैं, ये तो सिर्फ एक जीवंत प्रयोग में भागीदार हो रहे हैं। यह प्रयोगशाला है। न मैं हिंदू हूं, न मैं मुसलमान हूं, न मैं ईसाई हूं, न जैन, न बौद्ध। यहां तो सारी मनुष्य-जाति की जो वसीयत है--उसमें हिंदू भी सम्मिलित हैं, मुसलमान भी, जैन भी, ईसाई भी, बौद्ध भी, यहूदी भी, सिक्ख भी, उसमें सारी दुनिया के जाग्रत पुरुष सम्मिलित हैं, उन सारे पुरुषों ने जो जाना है, जो जीया है और जो अनूठे प्रयोग दिये हैं, उन सबके लिये यह एक प्रयोग-स्थल है।
यह एक विश्वविद्यालय है। यह कोई संप्रदाय नहीं है। जो मित्र यहां संन्यासी हो गए हैं, उनके संन्यासी होने से अब वे ईसाई नहीं रहे, हिंदू नहीं रहे, मुसलमान नहीं रहे--ऐसा नहीं है। उनकी मौज है। जो कभी मुसलमान थे ही नहीं, झूठे मुसलमान थे, वे संन्यासी होकर मुसलमान न रह जाएंगे। जो सच में मुसलमान थे वे संन्यासी होकर और गहरे मुसलमान हो जाएंगे।
संन्यास तो तुम्हें धर्म देगा और धर्म विशेषण-रहित। मैं तुम्हें कोई विशिष्ट धर्म नहीं दे रहा हूं--सिर्फ एक धर्म-भाव दे रहा हूं। मैं तुम्हें किन्हीं परंपराओं में नहीं बांध रहा हूं, किन्हीं औपचारिकताओं में, किसी क्रियाकांड में नहीं बांध रहा हूं। मैं तो तुम्हें जो सार-निचोड़ है, जिसके माध्यम से, जिस कुंजी से तुम अपने भीतर के रहस्यों के ताले खोल लो, वह कुंजी दे रहा हूं। ताला खुल जाए, कुंजी फेंक देना, फिर क्या करोगे कुंजी का? नदी पार हो जाओ, नाव छोड़ देना, फिर क्या करोगे नाव का?
संप्रदाय तो तब पैदा होता है जब तुमसे कहा जाता है कि नदी भी पार हो जाए तो भी नाव को सिर पर ढोना। अब यह बड़े आश्चर्य की बात है कि कोई संन्यस्त हो जाता है, फिर भी जैन रहता है; संन्यस्त हो जाता है, फिर भी हिंदू रहता है; संन्यस्त हो जाता है, फिर भी बौद्ध रहता है। ध्यान में उतर गए, इतने ध्यान में उतर गए कि संन्यास भी फला; अब भी नाव ढोओगे--शास्त्रों की, शब्दों की, सिद्धांतों की? अब तो अपना अनुभव हो गया। अब ये उधार और बासे शब्दों को क्यों ढोना?
यह कोई संप्रदाय नहीं है। फिर संप्रदाय को बनाने के लिए तो एक विशेष धारणा-पद्धति चाहिए। मेरे पास आते हैं लोग, वे कहते हैं कि आप कोई एक ऐसी छोटी-सी किताब लिख दें, जैसे ईसाइयों का कैटजिज्म होता है, जिसमें सब सार आ जाए--कि इतने सिद्धांत, इतनी बातें मानना, इतनी बातें नहीं मानना, इतना करना इतना नहीं करना; ऐसा भोजन, ऐसा उठना ऐसा बैठना--सब संक्षिप्त में आ जाए। वे मांग कर रहे हैं कि मैं उन्हें एक संप्रदाय दूं। मैं उन्हें पूरा आकाश दे रहा हूं। वे कहते हैं: हमें छोटा आंगन दो, साफ-सुथरा हो, दीवाल से घिरा हो, सुरक्षित हो। मैं उन्हें पूरा आकाश देना चाहता हूं। वे कहते हैं: हमें पींजड़ा दो।
मैं कोई पींजड़ा किसी को नहीं दे रहा हूं। इसलिए यहां मेरे पास सारे धर्मों के लोग हैं। मैं उनसे पूछता भी नहीं कि तुम किस धर्म से आते हो। मैं उनसे कहता भी नहीं कि तुम कुछ छोड़ो कि तुम कुछ पकड़ो। मुझे जो अनुभव हुआ है, उसे तुम्हारे सामने फैला देता हूं। यदि तुम्हारे भीतर भी कोई तार झंकृत हो जाएं तो चल पड़ो तुम भी खोज पर। मैं एक अभियान देता हूं--एक यात्रा। मैं तुम्हें मंजिल नहीं देता। मैं तुम्हें बंधी हुई धारणाएं, सिद्धांत, बंधे हुए लक्ष्य नहीं देता। मैं तुम्हें निर्बंध...मुक्ति की एक पुकार देता हूं। यह बड़ी भिन्न बात है।
तुम मुझे धर्मगुरु न समझो। अच्छा हो, तुम मुझे एक कवि समझो। तुम मुझे धर्मगुरु न समझो। अच्छा हो कि तुम मुझे एक शराबी समझो। मैं एक पियक्कड़ हूं, जिसने परमात्मा की शराब पी ली है और जो अपनी मस्ती में कुछ गुनगुना रहा है। गुनगुनाहट शायद तुम्हें पकड़ जाए, शायद पास बैठे-बैठे तुम्हें भी मेरी शराब का स्वाद लग जाए, तो खोज पर निकल पड़ना।
जिनको वैसा स्वाद लग गया है वे ही मेरे संन्यासी हैं।
तो पहली तो बात, यह कोई कल्ट या संप्रदाय नहीं है। यह तो समस्त संप्रदायों से मुक्ति है । और ये कौन लोग हैं जो कल्ट और संप्रदायों की निंदा करते हैं। ये खुद ही सांप्रदायिक लोग हैं--कोई ईसाई है, कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है। ये संप्रदायों की निंदा करते हैं। क्यों? इनके संप्रदायों को खतरा है। ये खुद बंधे हैं धारणाओं में, मगर इनको डर है कि कोई प्रतिस्पर्धी न पैदा हो जाए। हां, एक बात उनके पक्ष में है कि वे कहते हैं कि हम परंपरागत हैं, इसलिए हम कल्ट नहीं हैं; हम धर्म हैं। जो परंपरागत नहीं है; वह संप्रदाय; जो परंपरागत है, वह धर्म। यह भी खूब परिभाषा हुई! तो फिर जीसस ने जब पहली दफा ईसाइयत को जन्म दिया, तब वह धर्म था या कल्ट? तब तो वह परंपरागत नहीं था। तो फिर यहूदियों ने ठीक ही किया कि जीसस को सूली पर लटका दिया। क्योंकि यह कल्टिस्ट था। यह एक संप्रदाय पैदा कर रहा था, यहूदियों को भड़का रहा था, बिगाड़ रहा था। तो फिर बुद्ध ने जब बौद्ध धर्म को जन्म दिया तब वह कल्ट था, संप्रदाय था, धर्म नहीं था।
फिर सोचने की बात है कि जो जन्म के समय में ही संप्रदाय था, वह दो हजार साल चलने के बाद धर्म कैसे हो जाएगा? जो जन्मा गधे की तरह है वह मरेगा भी गधे की तरह। और जो जन्मा है फूल की तरह वह मरेगा भी फूल की ही तरह। आखिर अगर जन्म के समय ही बुद्ध की बातें सांप्रदायिक हैं और धर्म नहीं हैं, तो फिर दो हजार साल चलने के बाद तो और भी सांप्रदायिक हो जाएंगी। क्योंकि दो हजार साल पंडित-पुरोहित और जोड़ते चले जाएंगे। जिंदा बुद्ध जब सांप्रदायिक हैं तो दो हजार साल बाद तो लाश सड़ चुकी होगी शब्दों की। उस पर खूब टीकाएं चढ़ चुकी होंगी।
लेकिन ईसाई, अगर कोई नया धर्म पैदा होता है, कोई नया उदभव होता है चेतना का, तो उसको कहते हैं: कल्ट। फिर जीसस जब नए थे, तब? हिंदू कोई नई बात पैदा हो तो उसके विपरीत खड़े हो जाते हैं। लेकिन कभी कृष्ण भी नए थे, कभी कबीर भी नए थे, कभी नानक भी नए थे, कभी मुहम्मद भी नए थे। जो नया है वही तो एक दिन पुराना होता है। नहीं तो पुराना कैसे होगा? और जो पुराना है वह एक दिन नया रहा होगा, अन्यथा पुराना कैसे होता? तो अगर कल का है तो धर्म और अगर आज का है तो संप्रदाय--यह तो बड़ी अजीब परिभाषा हुई!
नहीं, ऐसी मैं परिभाषा स्वीकार नहीं करता। फिर मेरी क्या परिभाषा है? जो शब्दों और सिद्धांतों और शास्त्रों से बंधा है वह संप्रदाय और जो अनुभव से जीता है वह धर्म। मैं कहता हूं: ईसाइयत, हिंदू, मुसलमान, जैन, बौद्ध सब संप्रदाय हैं। हां, कृष्णमूर्ति के पास बैठकर जो लोग सुन रहे हैं, यह धर्म है। मेरे पास बैठ गये हैं जो लोग, यह धर्म है।
धर्म तो सदा ताजा होता है, नया होता है, धर्म तो गंगोत्री पर होता है। फिर गंगोत्री से जैसे ही गंगा उतरती है नीचे, रोज-रोज गंदी होती जाती है। तुमने भी खूब किया है, काशी में आकर पूजा की गंगा की! तब तक न मालूम कितने नदी-नाले, न मालूम कितनी गंदगी शहरों की गंगा में गिर चुकी होगी। गंगा क्वांरी है गंगोत्री पर--जब अभी उतरी-उतरी है, भगीरथ के बालों से अभी उतरी-उतरी है, अभी शंकर उसे उतारकर लाए ही हैं आकाश से, अभी गंगा भटक ही रही थी उनकी केश-राशियों में! यह हिमालय शंकर की केश-राशि है। अभी जब उतर ही रही है गंगा, शिव के बालों से झर ही रही है अभी, तब धर्म है। और जब काशी पहुंच गई तो संप्रदाय हो जाएगा।
समय संप्रदाय बनाता है। परंपरा संप्रदाय बनाती है। नूतनता, नवीनता...अभी जो मैं तुमसे कह रहा हूं यह गंगोत्री है। हां, सौ-दो-सौ साल बाद मेरे जाने के बाद यह गंगोत्री नहीं रह जाएगी। लेकिन तुम, काशी पर जब मैं पहुंच जाऊंगा, तब तुम तीर्थ बनाओगे, तुम ऐसे अंधे हो! गंगोत्री को गाली दोगे, काशी को पूजोगे।
मुहम्मद को टिकने न दोगे एक गांव में--मक्का से मदीना, मदीना से मक्का भगाते फिरोगे। मुहम्मद के पीछे तलवार लेकर लगे रहोगे और फिर जब मुहम्मद विदा हो जाएंगे तो तुम सदियों तक पूजा करागे! तुम बड़े अजीब लोग हो! तुम मुर्दों के पूजक हो। तुम खुद मुर्दे हो और मुर्दों की पूजा करते हो।
मुर्दे जब मुर्दों की पूजा करते हैं, उसको मैं संप्रदाय कहता हूं। जो मुहम्मद के पास इकट्ठे हो गए थे, वे हिम्मतवर लोग। जिन्होंने मुहम्मद के पास बैठकर कुरान सुनी थी, जिन्होंने मुहम्मद से जन्म होती हुई गंगा को अनुभव किया था--वे धार्मिक लोग थे।
तो मेरी तो परिभाषा उल्टी है। जितना पुराना हो, जितना सड़ा हो, जितना गला हो--उतना संप्रदाय। जितना नया हो, जितना ताजा हो, अभी-अभी उतरती हो गंगा आकाश से, अभी-अभी किसी की समाधि के हिमालय से गंगोत्री झरती हो--तो धर्म।
धर्म विशेषण-रहित होता है, क्योंकि नए का कोई विशेषण नहीं होता। जब बुद्ध बोले पहली दफा तो उसका कोई विशेषण नहीं था। तब तक बौद्ध धर्म का जन्म नहीं हुआ था। यह तो तुम जानते हो न कि जीसस यहूदी की ही तरह पैदा हुए और यहूदी की ही तरह मरे। जीसस ईसाई नहीं थे। अभी ईसाइयत का जन्म ही कहां हुआ था? ईसाइयत तो तब पैदा होगी जब गंगा काशी पहुंच जाएगी। जीसस तो यहूदी ही रहे, यहूदी ही मरे।
अभी मेरे पास किसी धर्म का नाम नहीं है--अभी धर्म है! मेरे जाने के बाद नाम होगा। तब संप्रदाय होगा। तब उससे बचना। वह फिर मेरा हो या किसी और का हो, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। मरी हुई चीज से बचना। जीवित के पास जाना, क्योंकि परमात्मा जीवन है।
रोहित! जो यहां घट रहा है यह संप्रदाय नहीं है--अभी धर्म है। और अभी जो आ गए हैं मेरे पास वे धन्यभागी हैं; पीछे जो आएंगे मेरे विदा हो जाने पर वे अभागे होंगे। मगर अभागों से दुनिया भरी है।

तीसरा प्रश्न:

मैं बिलकुल पत्थर हूं और फिर भी प्रार्थना में डूबना चाहता हूं, पर जानता नहीं कि प्रार्थना क्या है। कैसे करूं प्रार्थना? मुझ अंधे को भी आंखें दें!

आंखों की कोई जरूरत नहीं है प्रार्थना के लिये--आंसुओं की जरूरत है। और अंधा भी रो सकता है उतना ही जितना आंखवाले रो सकते हैं। फिकिर छोड़ो आंखों की। आंखों के मांगने में तो तुमने ज्ञान को मांगना शुरू कर दिया--और ज्ञान प्रार्थना का दुश्मन है। आंसू मांगो। भाव मांगो, हृदय मांगो।
आंखें मांगने में तो तुमने मस्तिष्क मांगना शुरू कर दिया। आंखें तो मस्तिष्क के द्वार हैं। आंखें मत मांगो। आंखें न हुईं तो चलेगा--हृदय चाहिए। और हृदय की भी आंख है। आंखें नहीं हैं--आंख है! मस्तिष्क की दो आंखें हैं, हृदय की एक आंख है। मस्तिष्क द्वंद्वात्मक है, द्वैत है; इसलिये दो आंखें हैं। हृदय की एक आंख है; वही तीसरा नेत्र है, शिवनेत्र। नाम ही है नेत्र का...मैं उसी आंख को प्रेम कहता हूं।
ज्ञान मत मांगो। ज्ञान में हमेशा द्वंद्व है। ज्ञान में तर्क है। और जहां तर्क है वहां कोई निश्चय नहीं। जहां तर्क है वहां विवाद है। जहां विवाद है, वहां कोई निष्पत्ति न हो सकती है न हुई है न होगी। तुम जो भी मानोगे उसके विपरीत तर्क दिये जा सकते हैं। तुम्हारा हर विश्वास खंडित किया जा सकता है, क्योंकि विश्वास और संदेह बराबर शक्ति के हैं। इसलिये तो दुनिया में न आस्तिक जीत पाते न नास्तिक जीत पाते। कितने हजार साल हो गये आदमी को, अब तक निर्णय हो जाना चाहिए था। अगर आस्तिक ठीक थे तो सारी दुनिया आस्तिक हो जाती। अगर नास्तिक ठीक थे तो सारी दुनिया नास्तिक हो जाती। लेकिन कोई निर्णय नहीं हो पाता। आस्तिक अपनी दलीलें देते हैं, नास्तिक अपनी दलीलें देते हैं। दोनों की दलीलें करीब-करीब समान बल की हैं।
मेरा अपना अनुभव यह है कि तर्क हमेशा दोनों तरफ से समान बल का होता है। तर्क वेश्या है। वह किसी के भी साथ जाने को तैयार है। तर्क वकील है। वह किसी के भी साथ जाने को तैयार है--जो पैसे चुका दे, जो कीमत चुका दे, जो खरीद ले। तर्क कभी भी निर्णायक नहीं हो पाता। तुम मानो कि ईश्वर है, तो जिन प्रमाणों के आधार पर तुम मानते हो कि ईश्वर है वे सभी प्रमाण खंडित किये जा सकते हैं; उतने ही बलपूर्वक जितने बलपूर्वक तुमने उन्हें सिद्ध कर रखा है।
इसलिए हर विश्वास के नीचे संदेह दबा रहता है और हर संदेह के नीचे विश्वास की इच्छा बनी रहती है। मेरे देखने में कोई नास्तिक होता है तो उसके भीतर मैं छिपा हुआ आस्तिक देखता हूं और कोई आस्तिक होता है तो उसके भीतर छिपा नास्तिक देखता हूं। नास्तिक-आस्तिक साथ-साथ होते हैं--एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिये मस्तिष्क कहीं भी नहीं ले जाता, सिर्फ भरमाता है, भटकाता है। कोल्हू के बैल की तरह चलाता है। बस घूमते रहते हो एक ही जगह। घूमने से लगता है, चल रहे हो, पहुंच रहे हो। न कहीं पहुंचना होता है न कहीं चलना होता है।
ऐसा हुआ कि बर्नार्ड शा एक होटल में ठहरा था किसी यूरोपीय देश के। उसने टैक्सी बुलाई। उसे स्टेशन जल्दी पहुंचना था। टैक्सी में जाकर बैठ गया। टैक्सी वाले ने गाड़ी शुरू की। बर्नार्ड शा ने कहा कि जल्दी चलो, मुझे जल्दी पहुंचना है। गाड़ी भागने लगी। लेकिन थोड़ी देर बाद बर्नार्ड शा को लगा कि यह तो स्टेशन की तरफ न जाकर उल्टी दिशा में जा रही है। तो उसने पूछा कि तुम कहां जा रहे हो? तो टैक्सी ड्राइवर ने कहा: यह मुझे पता नहीं, यह मुझे किसी ने कहा भी नहीं कि मुझे कहां जाना है। लेकिन एक बात पक्की है कि जहां भी जा रहा हूं तेजी से जा रहा हूं।
बर्नार्ड शा ने सोचा था कि होटल के जिस नौकर को भेजा था टैक्सी बुलाने उसने बता दिया होगा कि स्टेशन जाना है, इसलिये उसने खुद ने तो बताया नहीं कि स्टेशन जाना है; सिर्फ इतना कहा तेजी से चलो, जल्दी पहुंचना है। टैक्सी-ड्राइवर भी पहुंचा हुआ दार्शनिक रहा होगा। उसने भी नहीं पूछा, कि जब खुद जानेवाला नहीं बता रहा है तो मैं भी क्यों पूछूं? सिर्फ तेजी से पहुंचना है, तेजी से पहुंचो।
लोग तेजी से चले जा रहे हैं! खूब सोचते-विचारते, खूब तर्क करते--और भूल ही गये हैं कहां जा रहे हैं!
मस्तिष्क चलाता तो बहुत है, पहुंचाता कहीं नहीं। चलाता काफी तेजी से है!
एक हवाई जहाज रास्ता भटक गया बादलों में। हवाई जहाज के पायलट ने यात्रियों को सूचना दी कि दो समाचार हैं--एक सुखद, एक दुखद। पहले सुखद समाचार, कि हम परिपूर्ण रफ्तार से गन्तव्य की ओर जा रहे हैं; और अब दुखद समाचार कि गन्तव्य कहां है, इसका अब हमें कोई पता नहीं है।
मगर ऐसी अवस्था आदमी की है। बड़ी तेजी से चले जा रहे हैं लोग। और तेजी को कैसे तेज करें, इसके नये-नये ईजाद कर रहे हैं लोग। मगर कहां जा रहे हो?
हृदय मंजिल की सूचना देता है। हृदय गन्तव्य की तरफ संकेत करता है, क्योंकि हृदय प्रेम है। इसलिये हृदय का जो इशारा है वह परमात्मा की तरफ लगा रहता है।
दिशा-सूचक यंत्र होता है न, तो तुम कैसा ही उसे घुमा-फिराकर रखो वह ठीक दिशा बताने लगता है। उत्तर कहां है, वह बता देता है। ऐसे ही हृदय सदा ही परमात्मा की तरफ लगा हुआ है। और वह जो परमात्मा की तरफ लगाव है, उसका नाम प्रार्थना है। उस प्रार्थना का जो मूलस्रोत है, उसका नाम प्रेम है।
तुम आंखें मत मांगो--आंख मांगो! तुम तर्क मत मांगो, ज्ञान मत मांगो--प्रेम मांगो। आंख नहीं आंसुओं से काम हो जायेगा।
पूछते हो तुम: "मैं बिलकुल पत्थर हूं!' सब ही पत्थर हैं। जब तक परमात्मा नहीं घटा है तब तक सभी पत्थर हैं। इसलिये मन में कोई हीनता न लेना। परमात्मा के घटते ही सब पत्थर प्रतिमाएं बन जाते हैं, अपूर्व सौंदर्य प्रगट होता है।
टूट जाता है कभी पाषाण भी।
भेद कब खुलने दिया जल बिंदु ने,
घोर बड़वानल छिपाई सिंधु ने।
सह रहा है किंतु सह पाता न जब,
उठ कभी जाता प्रबल तूफान भी।
टूट जाता है कभी पाषाण भी।

शाप भी प्यारा मुझे वरदान भी।
मान लो भगवान तो पाषाण भी।
किंतु ऐसे क्षण न कम हैं जब कभी--
अश्रु बन जाती मधुर मुसकान भी!
टूट जाता है कभी पाषाण भी।

सोचती है यह हठीली कामना,
अंत तक क्या साथ देगी साधना?
आंधियों में बुझ न पाया दीप जो,
वह बुझा सकता सहज पवमान भी।
टूट जाता है कभी पाषाण भी।

जानती हूं मौन रह दीपक जला,
मौन रह कर फूल कांटों में खिला।
किंतु मैं तो मौन भी कैसे रहूं,
है विवशता यह कि हूं इंसान भी।
टूट जाता है कभी पाषाण भी।
घबड़ाओ न, पत्थर भी टूट जाते हैं। देखते नहीं, गिरती है क्षीण-सी जलधार और पत्थर टूट जाते हैं।
लाओत्सु ने कहा है: पत्थर से मत सीखो, सीख लो जलधार से सब राज। जलधार कोमल है, स्त्रैण है, सुकुमार है। तोड़ देती है कठोर से कठोर पाषाण को। बड़े-बड़े शिलाखंड रेत होकर बह जाते हैं। जब पहली दफा जलधार गिरी होगी पत्थरों पर तो पत्थरों को खयाल भी न आया होगा कि हम और टूट जायेंगे। इस क्षीण-सी जलधार के मुकाबले, इस स्त्रैण जलधार के मुकाबले हमारा पुरुष हार जायेगा; सोचा भी न होगा। जो सदियों-सदियों से वहां टिके थे, समय आया और गया, हजारों-हजारों ऋतुएं आईं और गईं, न मालूम कितने सूरज उगे न मालूम कितने चांद ढले और जो पत्थर सदा से वैसे के वैसे रहे थे, समय जिनका कुछ भी न बिगाड़ पाया था--यह जलधार कुछ बिगाड़ लेगी! पत्थर हंसे होंगे। मगर जल्दी ही पता चलता है कि कोमल जलधार पत्थर को तोड़ जाती है।
ऐसे ही आंसू गिरने शुरू हो जायें तुम्हारे। आंख मत मांगो, आंसू मांगो--और पत्थर टूट जायेंगे। आंसू पिघलाते हैं हृदय के पथरीलेपन को: आंसू बहा ले जाते हैं हृदय के आस-पास जो दीवालें बनी हैं उनको। और तब तुम्हारे भीतर से एक सुवास उठनी शुरू होती है। फिर तुम जो बोलो वही प्रार्थना है। फिर तुम जो करो वही अर्चना है। फिर तुम जहां बैठो-उठो वही उपासना है।
बार-बार कुछ कह जाती हूं,
तुमसे मैं अनजाने में ही!

सजी आरती, सहमी प्रतिमा,
सहमी स्वयं पुजारिन भोली!
बीत चुकी अर्चन की बेला,
कैसे आज चढ़ाऊं रोली!
नयन खुले ना, अधर हिले ना, भोर हुआ अनजाने में ही!
बार-बार कुछ कह जाती हूं, तुमसे मैं अनजाने में ही!

अर्चन का जलता प्रदीप यह,
साध एक पाले था मन में!
जब-जब जन्म मिले दीपक बन,
ज्योति भरूं जग के कण-कण में!
अरमानों का भार उठाए, दीप बुझा अनजाने में ही!
बार-बार कुछ कह जाती हूं, तुमसे मैं अनजाने में ही!

दीपशिखा फिर ज्योतित देखी,
देखा नहीं जलाने वाला!
झंकृत देखी वीणा सब ने,
देखा नहीं बजाने वाला!
तार कसे जीवन-वीणा के, किस प्रिय ने अनजाने में ही!
बार-बार कुछ कह जाती हूं, तुमसे मैं अनजाने में ही!

सहसा फिर प्रतिमा मुसकाई,
मुसकाया मंदिर का कण-कण!
युग-युग के चिर-स्वप्न अधूरे,
मानो थे साकार उसी क्षण!
हार-हार कर जीत गई मैं, यह बाजी अनजाने में ही!
बार-बार कुछ कह जाती हूं, तुमसे मैं अनजाने में ही!
बस आंसू बहाने की कला आ जाये, फिर तुम जो कहो वही प्रार्थना है। राम पुकारो तो ठीक, अल्लाह पुकारो तो ठीक। न पुकारो तो चलेगा। मौन रहो तो ठीक। बोले तो ठीक, अबोले तो ठीक। मगर हृदय पिघलने लगे आंसुओं में।
ज्ञान न मांगो--भाव मांगो, भक्ति मांगो। फिर धीरे-धीरे तुम्हें वह सुनाई पड़ने लगता है जो साधारणतः नहीं सुनाई पड़ता, क्योंकि कान मस्तिष्क के शोरगुल से भरे हैं। इसलिए हृदय की धीमी-धीमी आवाज पहुंच नहीं पाती। पहले तो बीन की झंकार सुनाई पड़ती है और फिर धीरे-धीरे बीनकार भी दिखाई पड़ता है।
दीपशिखा फिर ज्योतित देखी,
देखा नहीं जलाने वाला!
झंकृत देखी वीणा सब ने,
देखा नहीं बजाने वाला!
तार कसे जीवन-वीणा के, किस प्रिय ने अनजाने में ही
बार-बार कुछ कह जाती हूं, तुमसे मैं अनजाने में ही!
प्रार्थना कोई कला नहीं है कि तुम कहीं सीख लोगे। प्रार्थना की कोई पाठशाला नहीं है। और पाठशालाओं ने ही प्रार्थना को विकृत किया है। तुम्हें प्रार्थना सिखा दी गई, यही तुम्हारी अपनी प्रार्थना के जन्मने में बाधा बन गई है।
प्रार्थना अनगढ़ होती है। प्रार्थना अपनी-अपनी होती है।
मूसा एक पहाड़ी से गुजर रहे हैं और उन्होंने एक आदमी को प्रार्थना करते देखा। एक चरवाहा, एक गड़रिया, अपनी भेड़ों को विश्राम देकर पास में ही बिठाये झाड़ के नीचे, हाथ जोड़े घुटने टेके परमात्मा से कह रहा है: हे प्रभु! तू अकेला रहते-रहते परेशान हो जाता होगा, मुझे बुला ले। मैं तेरी देखभाल करूंगा। तू मान मेरी। ऐसी देखभाल करूंगा कि तू भी पछतायेगा कि पहले क्यों न बुलाया! तुझे नहला भी दूंगा। रोज नहला दूंगा। पता नहीं कोई नहलाता भी है कि नहीं। तू मेरी भेड़ों को देख कैसा नहलाता हूं, जग-मग हो रही हैं! ऐसे ही जगमगा दूंगा। थका-मांदा होगा, पैर दबा दूंगा। तेरे सिर में जूएं पड़ जायेंगे, जूएं निकाल दूंगा।
परमात्मा से कह रहा है यह आदमी! मोज़िज़ ने तो सुना और कहा, यह तो बहुत हो गया है और कहा कि चुप, नासमझ! ठीक यहां तक भी मैंने बरदाश्त कर लिया कि तू नहला देगा और जगमगा देगा और भेड़ों जैसा...अब तू जूएं भी बीन देगा? तू सोचता है परमात्मा को जूएं पड़े हुए हैं!
उस भोले आदमी ने मोज़िज़ की तरफ देखा, चरण छुए और कहा: मुझे माफ कर दें! मैं गड़रिया हूं। और कोई भाषा जानता नहीं, भेड़ों को जूएं पड़ जाते हैं सो जूएं बीनता हूं। तो मैंने सोचा कि पड़ जाते होंगे उसको भी, मुझको भी पड़ जाते हैं। तो मैं सीधा-साधा आदमी हूं। नाराज न हों, आप कुपित न हों। अगर मैं कुछ गलत कह रहा होऊं, मुझे समझा दें, मैं ठीक कर लूंगा। मोज़िज़ ने कहा: मैं तुझे ठीक प्रार्थना बताता हूं। यह है प्रार्थना। इस तरह प्रार्थना करनी चाहिए। ये-ये वचन बोलने चाहिए, इस भाव से बोलना चाहिए। इस ढंग से बैठना चाहिए।
उसने कहा कि ठीक, तो अब मैं ऐसा ही करूंगा। एक बार और दोहरा दें क्योंकि मैं बे-पढ़ा-लिखा हूं, भूल न जाऊं। फिर तीसरी बार भी उसने पूछा। मोज़िज़ बड़े प्रसन्न हुए कि एक भटके-भूले को रास्ते पर ले आये। जब उसे छोड़कर वे जंगल में अकड़े मस्त अपनी मस्ती में जा रहे थे कि एक भूले-भटके को रास्ते पर लगा दिया...इसीलिए तो परमात्मा ने मुझे भेजा है कि भूले-भटकों को रास्ते पर लगाऊं...तभी जंगल में एक जोर से आवाज उठी, बिजली कौंधी। घबड़ाकर मूसा ने अपने घुटने टेक दिये। आवाज आई आकाश से कि मूसा, मैंने तुझे इसलिये भेजा था कि जो मुझसे दूर हैं, उन्हें तू पास लाना; लेकिन आज तूने मेरे एक प्यारे को मुझसे दूर कर दिया। अब उसकी प्रार्थना थोथी हो गई, उधार और बासी हो गई। जा क्षमा मांग। अपनी प्रार्थना वापिस ले। उसकी प्रार्थना मुझ तक पहुंच रही थी। उससे मुझे लगाव हो गया था। उसकी बातें मुझे बड़ी प्रीतिकर लगती थीं। उसकी बातों में बड़ी मिठास थी। तूने सब कड़वा कर दिया। तू जा, इसी क्षण जा! और आगे याद रखना।
और कथा कहती है कि मोज़िज़ गये और उससे क्षमा मांगी और कहा: मुझे माफ कर दो और मैंने जो सिखाया वह भूल जाओ।
तुम्हें भी प्रार्थना सिखा दी गई है। वही अड़चन है। मां-बाप ने सिखा दी, स्कूल में सिखा दी, पंडित-पुरोहितों ने सिखा दी, चर्च में, मंदिर में सिखा दी। सब सीखी हुई प्रार्थना है। उस सीखी हुई प्रार्थना के कारण तुम परमात्मा से दूर पड़ गये हो।
तुम पूछते हो: मैं प्रार्थना कैसे करूं? प्रार्थना में "कैसे' मत जोड़ो। भाव से उठने दो।...सहसा फिर प्रतिमा मुसकाई।...भाव से उठे तो मंदिर की पत्थर की प्रतिमा भी मुसका दे।
सहसा फिर प्रतिमा मुसकाई,
मुसकाया मंदिर का कण-कण!
युग-युग के चिर-स्वप्न अधूरे!
मानो थे साकार उसी क्षण!
हार-हार कर जीत गई मैं, यह बाजी अनजाने में ही!
बार-बार कुछ कह जाती हूं, तुमसे मैं अनजाने में ही!
हारना सीखो, और बाजी जीत जाओगे। प्रेम है हारने का ढंग, शैली। हारो! परमात्मा के सामने तुम्हें कुछ औपचारिक शिष्टाचार नहीं निभाना है, कि घंटी बजाओ कि फूल चढ़ाओ, कि पानी छिड़को...। नहीं-नहीं, सूरज उगा हो, भाव-विभोर हो जाओ, दो बातें मन में आती हों कर लो। फूल खिला हो, नाच उठो।
कैसा आश्चर्य कि गुलाब खिलता है तुम्हारी बगिया में और तुम कभी नाचे नहीं! चमत्कार होते रोज देखते हो और नाचे नहीं। और कोई उल्टे-सीधे लोग फिजूल के चमत्कार दिखा देते हैं और चले तुम हजारों की भीड़ में। किसी ने हाथ से राख निकाल दी, जो कोई मदारी रास्ते पर कर दे, उसको तुम चमत्कार कहते हो। मदारी को दो पैसे न दोगे और कोई बाबा यही कर देगा तो बस तुम्हें सब मिल गया! तुम्हारी मूढ़ता का अंत नहीं है। और चमत्कार रोज हो रहे हैं। बीज टूटता है, जिसमें कुछ भी दिखाई न पड़ता था, जिसको तुम तोड़ते तो कुछ भी न पाते--उसमें से एक विराट वृक्ष पैदा हो जाता है और तुम झुकते नहीं? तुम विभोर नहीं होते? हरे वृक्ष में से एकदम लाल गुलाब का फूल निकल आता है हरियाली लाली बन जाती है, क्रांति घट जाती है! तुम अवाक नहीं होते, विस्मय-विमुग्ध नहीं होते, आश्चर्य-चकित नहीं होते? तुम्हारी आंख से आनंद के दो आंसू नहीं गिरते? रात आकाश ऐसे तारों से भर जाती है...! नहीं तुम्हें दिखायी पड़ते वे हाथ जो उन तारों को सम्हाले हैं, मगर तारे तो दिखाई पड़ते हैं! नहीं दिखाई पड़ते वे हाथ जो वीणा पर संगीत उठा रहे हैं, लेकिन संगीत तो सुनाई पड़ता है! संगीत ही सुनते-सुनते उन हाथों की भी पहचान आ जाएगी।
इस जगत के सौंदर्य को पूजो; वही प्रार्थना है। इस जगत के रहस्य को अनुभव करो; उसी से तुम गदगद होओगे। वही प्रार्थना है। नहीं तुमसे कहता मंदिर जाओ, नहीं कहता मस्जिद जाओ। मंदिर और मस्जिद तो आदमी के बनाए हुए हैं, खेल-खिलौने हैं। तुमसे मैं कहता हूं: यह जो प्रकृति चारों तरफ फैली है, परमात्मा के हाथ की जिस पर छाप है, इसके करीब जाओ। किसी झरने के पास बैठो, वही मंदिर है! किसी नदी के पास बैठो, वही मस्जिद है! किसी वृक्ष को आलिंगन करो। जहां से भी तुम्हें जीवन की थोड़ी-सी ऊष्मा मिले, वहीं झुक जाओ। और फिर जो तुम्हारे मन में हो...नहीं कोई बंधे-बंधाए शब्द, नहीं कोई रटी-रटाई बातें...जो तुम्हारे मन में सहज भाव उठता हो, प्रगट करो! प्रार्थना के लिए थोड़ा पागलपन चाहिए। पहले तो संकोच होगा।
अब तुम देखते हो, अगर तुम मंदिर में जाओ, पत्थर की मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाओ और कहने लगो जय जगदीश हरे, जय जगदीश हरे, तो तुम अपने को पागल नहीं समझते, क्योंकि यह स्वीकृत पागलपन है। लेकिन अगर तुम किसी वृक्ष के पास जाकर हाथ जोड़कर खड़े हो जाओ तो लोग कहेंगे: कुछ दिमाग खराब हो गया, यह क्या कर रहो हो!
और मैं तुमसे कहता हूं: यह पागलपन प्रार्थना है। और वह जो तुमने पहला पागलपन किया था, वह न तो पागलपन है, न प्रार्थना है, सिर्फ मूढ़ता है; क्योंकि सिखावट...औरों ने कहा था, इसलिए कर लेते थे। किसी भय के कारण कर रहे थे। बचपन में जबरदस्ती थोप दिया गया था तुम्हारे ऊपर, फिर आदत बन गई। अब नहीं करते हो तो ऐसा लगता है कुछ कमी रह गयी, तो कर लेते हो। वह मूढ़ता थी। लेकिन उगते सूरज के सामने झुक जाना, क्योंकि रोशनी है तो उसकी है, क्योंकि सारी रोशनी उसकी है...कि किसी सुंदर स्त्री या किसी सुंदर पुरुष को देखकर हर्ष से भर जाना, उल्लास से भर जाना, क्योंकि सौंदर्य है तो उसका है। किसी बच्चे को किलकारी मारते देखकर तुम्हारे भीतर भी गुनगुनाहट आ जाए, क्योंकि सारी किलकारियां उसकी हैं!
तुम पूछते हो कि प्रार्थना में डूबना चाहता हूं। डूबो न! चारों तरफ तो उसका सागर मौजूद है, कौन रोकता है? सीखना क्या है इसमें? डूबने के लिए सीखना कुछ भी नहीं होता। तैरना हो तो शायद सीखना भी पड़े, डूबने के लिए क्या सीखना है? उस पार जाना हो तो सीखना भी पड़े, मगर डूब ही जाना है तो क्या सीखना है? प्रार्थना किनारे मानती ही नहीं। प्रार्थना तटों की तलाश ही नहीं करती। प्रार्थना तो डूबती है। प्रार्थना तो मदमस्ती है।
पूछते हो: जानता नहीं प्रार्थना क्या है।
कभी प्रेम किया है? किसी को भी प्रेम किया--पति को पत्नि को, बेटे को मां को, मित्र को? किसी को भी कभी प्रेम किया? उसी प्रेम की किरण को बड़ा करते चलो। वह प्रेम की किरण कहीं भी रुके न, फैलती चली जाये, अनंत तक फैलती चली जाये--बस प्रार्थना है। और ऐसा तो कोई भी मनुष्य नहीं जिसने किसी को भी प्रेम न किया हो।
लेकिन तुम्हारी अड़चन मैं जानता हूं। तुम्हारे पंडितों ने, तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरुओं ने, उन सबने जिन्होंने तुम्हारे जीवन को विषाक्त किया है, उन्होंने तुम्हें प्रेम के विपरीत समझाया है। उन्होंने समझाया है: प्रेम किया तो प्रार्थना में बाधा पड़ जायेगी। इसलिए तुम मुश्किल में पड़ गये हो। और प्रेम ही प्रार्थना है। प्रेम प्रार्थना का पाठ है।
मैं तुमसे कहता हूं: प्रेम की ही किरण को निखारो, उजालो। बस प्रेम का जो तुम्हें थोड़ा-सा अनुभव मिला हो उसी अनुभव को बड़ा करना है। और अगर वहां तुम्हारा कोई अनुभव नहीं तो फिर प्रार्थना में उतरने का कोई उपाय नहीं। मगर ऐसा मैं मान ही नहीं सकता, क्योंकि परमात्मा जिनको भी पैदा करता है, पशु-पक्षियों को भी, प्रेम से भरा हुआ पैदा करता है। मनुष्य को तो उसने बहुत प्रेम से भरकर पैदा किया है।
लेकिन चारों तरफ दुष्टों की जमात है। उन्होंने तुम्हारे प्रेम की सीमाएं बड़ी संकुचित कर दी हैं और प्रेम निंदित कर दिया है। प्रेम पाप है, ऐसा तुम्हारे मन पर संस्कार डाल दिया है। इसी कारण मनुष्य परमात्मा से टूट गया है।
इस पृथ्वी पर जो इतना अधर्म है, वह तुम्हारे पंडित-पुरोहितों के कारण है। यह अधर्म जा सकता है, लेकिन इस पृथ्वी को फिर प्रेम का राज सिखाना होगा। प्रेम पहला सोपान है। फिर तुम्हारे पास कुछ भी न हो--कुछ ज्ञान न हो, कुछ समझ न हो प्रार्थना की--कोई चिंता न करो। तुम्हारे प्रेम से सृजनात्मकता पैदा होगी। प्रेम सृजनात्मकता है। तुम जो भी करोगे प्रेम के हाथ से...मिट्टी भी छुओगे तो सोना हो जायेगी।
आज पूजा के नहीं कुछ
उपकरण हैं पास,
सर्जना के क्षण
तुम्हारी अर्चना के फूल!

पीड़ितों के दर्द की अनुभूति
बनती अर्चना-जल-धार
बनती अर्चना का गीत
बन मेरे हृदय में शूल!

आराधना के क्षण वही
जब प्राण को निस्पंद
कर देती नशीली ज्योत्स्ना में स्नात
पागल रात!
शांत बेसुध जागरण के बाद
ऊषा की किरण के साथ
लेकर सर्जना का रूप
खिलता अर्चना जलजात!

प्रार्थना के क्षण वही
जब सोचता मानव-व्यथा की बात!
भावना के जलधि में तूफान,
जीवन की तरी यह खोजती है
सृजन के पावन क्षणों का कूल!
आज पूजा के नहीं कुछ
उपकरण हैं पास,
सर्जना के क्षण
तुम्हारी अर्चना के फूल!
फिर नहीं कोई उपकरण चाहिए, प्रेम पर्याप्त है, क्योंकि प्रेम से सृजन की धार पैदा होती है। तुम्हारे जीवन में निर्माण मूल्यवान हो जाता है, विध्वंस की जगह। राजनीति की जगह धर्म मूल्यवान हो जाता है। महत्वकांक्षा की जगह आनंद-भाव मूल्यवान हो जाता है। वासना की जगह परितोष तुम्हारे भीतर खिलने लगता है। बस उसी परितोष की सुवास प्रार्थना है। संतुष्ट हो तुम जैसे हो जहां हो; परितुष्ट हो तुम; जिनके बीच हो उनकी व्यथा को भी अनुभव करते हो, उनकी पीड़ा भी तुम्हें छूती है, उनको तुम प्रेम भी बांटते हो...तुमने प्रेम से एक सूखते वृक्ष के ऊपर पानी की जलधार छिड़क दी, प्रार्थना हो गई! तुमने प्रेम से किसी के सिर में दर्द था और उसके सिर पर हाथ रखकर उसे पुचकार दे दी, प्रार्थना हो गई! कोई पीड़ित था, तुमने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। तुमने किसी के आंसू पोंछ दिये, प्रार्थना हो गई! प्रार्थना कोई बंधी-बंधायी प्रक्रिया नहीं है; प्रार्थना तो जीवन को प्रेमपूर्ण ढंग से जीने का ही नाम है।

चौथा प्रश्न:

विवाहित जीवन के संबंध में आपके क्या खयाल हैं?

मैं विवाहित नहीं हूं, इससे ही मेरे क्या खयाल हैं, तुम्हें समझ में आ जाना चाहिए। इससे बड़ा वक्तव्य और क्या होगा?
जार्ज बर्नार्ड शा को एक मित्र, उसकी कहानी पर आधारित एक नाटक खेला जा रहा था, उसे दिखाने ले गये। चाहता था बर्नार्ड शा अपना मन्तव्य प्रगट करें। बर्नार्ड शा सबसे बड़ा नाटककार था इस सदी का, उसके मन्तव्य का मूल्य था। मित्र ने पहला ही नाटक लिखा था और पहली ही बार उसका मंचन हो रहा था, खेला जा रहा था। बर्नार्ड शा ने तो दो-एक मिनट देखा और फिर सो गया और घर्राटे लेने लगा। मित्र बड़ा बेचैन हुआ। उसको जगाना भी ठीक नहीं। बड़ा आदर भी था बर्नार्ड शा के प्रति। मगर यह तो बात ठीक न हुई, इतने मुश्किल से तो आया, आया तो आकर सो गया। जब नाटक समाप्त हुआ, बर्नार्ड शा ने आंख खोली, मित्र ने पूछा कि आपका कोई मन्तव्य? बर्नार्ड शा ने कहा: तुम समझे नहीं? मैं सो गया, यह मेरा मन्तव्य है। मैंने घर्राटे लिये, यह मेरा मन्तव्य है। अब और मन्तव्य देना है क्या? देखने-योग्य नहीं था, सोने-योग्य था।
तुम मुझसे पूछते हो कि विवाहित जीवन के संबंध में आपके क्या खयाल हैं? पहली तो बात, अविवाहित आदमी से ऐसा पूछना नहीं चाहिए। विवाहित आदमी से पूछना चाहिये। हालांकि विवाहित आदमी भी...अगर पत्नी मौजूद हो तो पति सच नहीं बोल सकता, अगर पति मौजूद हो तो पत्नी सच नहीं बोल सकती, या डर भी हो कि दूसरे को पता चल जाएगा तो भी सच नहीं बोला जा सकता।
टालस्टाय, चैखव, तुर्गनेव रूस के तीन बड़े विचारशील लेखक एक बगीचे में बैठकर गपशप कर रहे थे। बात विवाह की उठ गई। बात भी कहां है और इस दुनिया में! अब बोलो यहां तुम आध्यात्मिक सत्संग करने आये, बात विवाह की उठा ली! विवाह का भूत तुम्हारे पीछे पड़ा होगा। विवाह की बात उठ गई। चैखव ने कहा: तुर्गनेव से कि तुम्हारा क्या विचार है? तुर्गनेव ने अपना विचार बताया। तुर्गनेव ने पूछा चैखव से, तुम्हारा क्या विचार है? चैखव ने अपना विचार बताया। फिर दोनों ने पूछा टालस्टाय से, आप चुप क्यों हो? आप क्यों नहीं बोलते? उन्होंने कहा, मैं तब बोलूंगा जब मेरा एक पैर कब्र में। जल्दी से बोलकर मैं कब्र में समा जाऊंगा, क्योंकि मुझे पता है कि तुम दोनों मेरी पत्नी से भी मिलते-जुलते हो। मेरा मन्तव्य जल्दी पहुंच जायेगा उस तक। अभी मैं सत्य नहीं बोल सकता। सत्य तो मैं सिर्फ कब्र में जाते वक्त ही बोलूंगा, आखिरी वक्त कह दूंगा कि यह है सत्य।
एक ट्रेन में दो यात्री साथ बैठे हैं। एक ने पूछा दूसरे से: विवाहित जीवन के बारे में तुम्हें मेरे विचार मालूम हैं? दूसरे यात्री ने कहा: क्या तुम विवाहित हो?
पहला यात्री: हां।
तो दूसरे ने कहा: तो फिर मालूम हैं। अब और बताने को क्या है?
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे पूछ रही थी: क्या तुमने कभी सोचा मुल्ला कि यदि मेरी शादी किसी और से हो जाती तो कितना अच्छा होता? मुल्ला ने उत्तर दिया: नहीं, मैं किसी व्यक्ति का बुरा क्यों चाहने लगा!
एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन मेरे पास बैठा था। अखबार सामने पड़ा था, शिमला की तस्वीर छपी थी--सुंदर झील, सुंदर पहाड़ियां! मुल्ला एकदम बोला: अहा शिमला! प्यारा शिमला! जिंदगी के रंगीन और मधुर क्षण मुझे शिमला ने ही दिये हैं!
मैं थोड़ा चौंका, क्योंकि मुझे पता है मुल्ला नसरुद्दीन कभी शिमला गया नहीं। तो मैंने पूछा: मगर मुल्ला, तुम तो कभी शिमला गये ही नहीं!...उसने कहा कि नहीं, मेरी पत्नी गई थी।
एक आदमी मुझसे आकर पूछा कि ओशो, आपके आश्रम का कोई युवक नियम भंग करके शादी कर ले तो आप उसे क्या सजा देते हैं? मैंने कहा: कुछ नहीं। उसने कहा: क्यों? मैंने कहा: वही उसकी सजा है। और बेचारे को सजा! इतना पर्याप्त है, अब भोगेगा।
अकेले लोग रह नहीं सकते, साथ चाहिए। साथ भी रह नहीं सकते, क्योंकि जब अकेले ही नहीं रह सकते तो साथ कैसे रह सकेंगे? जब अपने साथ न रह सके तो दूसरे के साथ कैसे रह सकेंगे? दो व्यक्ति जो दोनों ही अकेले रहने में असमर्थ हैं, जब मिल जायेंगे तो उनके दुखों में जोड़ ही नहीं होगा, गुणनफल हो जाता है। और यही हो रहा है। विवाह के नाम पर ऐसे व्यक्ति साथ हो लेते हैं, जिनको अभी अकेले में जीना भी नहीं आता। तो साथ जीना तो जरा और कुशलता की बात है, और कला की बात है।
मेरे हिसाब से इस पृथ्वी पर विवाह तभी सुंदर होगा जब विवाह के पहले ध्यान की प्रक्रियाओं से लोग गुजरेंगे, अन्यथा विवाह कभी भी सुंदर नहीं हो सकता, कुरूप ही रहेगा। इस देश के प्रज्ञावानों को यह बात समझ में आ गई होगी, इसलिए हमने जीवन के पहले पच्चीस वर्ष गुरुकुल में बिताने का आयोजन किया था। यह कुछ उल्टी सी बात लगती है कि जीवन के पच्चीस पहले वर्ष गुरुकुल में ध्यान करते, प्रार्थना करते, पूजा में लीन, सत्य की खोज करते, मौन रहते, एकांत का रस अनुभव करते...। पहले पच्चीस वर्ष, एकांत में कैसे जीया जाए, अकेले में कैसे आनंदित हुआ जाए, इसमें बिताने थे। यह बिलकुल वैज्ञानिक सूत्र है।
फिर दूसरे पच्चीस वर्ष विवाह में, क्योंकि जो व्यक्ति अकेले में रहने की कला सीख गया है, अब दूसरा कदम उठा सकता है।
तुम ऐसा समझो न, मैं एक नदी के किनारे बैठा था, एक आदमी अचानक डूबने लगा और चिल्लाया--मरा-मरा! बचाओ! एक दूसरा आदमी भी मेरे पास ही बैठा था। वह एकदम भागा और उसे बचाने के लिए कूद पड़ा। तब मुझे भी भागना पड़ा। मुझे दो को बचाना पड़ा, क्योंकि वह जो आदमी कूद पड़ा था उसको भी तैरना नहीं आता था। मैंने उससे कहा: नासमझ तू क्यों कूदा? उसने कहा: मैं भूल ही गया। यह आदमी मर रहा है, यह सोचकर मुझे याद ही न रही कि मुझे तैरना नहीं आता।
मैंने कहा: तूने और मुसीबत की। एक की जगह दो को बचाना पड़ा। खतरनाक हालत खड़ी कर दी तूने।
मगर उसकी भी बात मेरी समझ में आती है। इतनी तेजी से उसने आवाज दी कि बचाओ, कि वह कूद पड़ा। होश कहां है, लोग होश में कहां जी रहे हैं! मगर दूसरे को बचाने के लिए पहले तुम्हें तैरना आना चाहिए।
पच्चीस वर्ष, इस देश के प्रज्ञावान पुरुषों ने कहा था: प्रत्येक को गुरुकुल में बिताने चाहिए। वहां से लौटो तुम सीखकर एकांत का रस। अब तुम साथ रह सकते हो, क्योंकि अब दोनों के पास एकांत का रस है और दोनों रस बांट सकते हैं। अब आदान-प्रदान हो सकता है, अब संवाद हो सकता है।
इस देश ने विवाह को एक अनुपम सौंदर्य दिया था, जो दुनिया में कोई देश कभी नहीं दे पाया। इस देश की दुनिया को जो कुछ देन है, उनमें विवाह भी एक था। अब नहीं है, कभी था। अब तो टूट गई सारी व्यवस्था। अब तो इस देश का विवाह बहुत कुरूप है। लेकिन कभी हमने प्रयोग किये थे--हिम्मत के प्रयोग किये थे।
पहला पाठ: अपने साथ होना सीखो। इतने मस्त तुम्हें अकेले में होना चाहिए कि दूसरा न हो तो तुम्हारी मस्ती में बाधा न पड़े। तुम्हारी मस्ती दूसरे पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। जब दो ऐसे व्यक्ति मिलते हैं, जिनकी मस्ती एक-दूसरे पर निर्भर नहीं है तो तो दाम्पत्य घटता है। तब वे एक-दूसरे के गुलाम नहीं हैं, न एक-दूसरे के मालिक हैं।
खलिल जिब्रान ने कहा है: प्रेमियों को ऐसे होना चाहिए जैसे मंदिर के दो स्तंभ पास-पास खड़े, फिर भी दूर-दूर, एक ही छप्पर को सम्हाले, फिर भी दूर-दूर। प्रेमियों का ऐसे होना चाहिए  जैसे मंदिर के दो स्तंभ! खूब निकट, एक ही छप्पर को सम्हाले! एक ही प्रेम का छप्पर सम्हालना है, लेकिन दूर-दूर। बहुत पास आ जायें अगर मंदिर के स्तंभ, मंदिर गिर जायेगा। थोड़ा फासला चाहिये। और फासला तभी हो सकता है जब परनिर्भरता न हो। स्वतंत्र व्यक्ति ही फासला रख सकते हैं। परतंत्र व्यक्ति तो एकदम चिपकते हैं एक दूसरे से, एक-दूसरे को पकड़े रखते हैं, एक-दूसरे पर नजर रखते हैं कि कहीं दूसरा यहां-वहां निकल कर बच न जाये, कहीं भाग न जाये!
पत्नी जांच-पड़ताल करती रहती है कि पति कहीं किसी और स्त्री के रस में तो नहीं डूबा जा रहा है। और कपड़े गौर से देखती है कि कहीं किसी स्त्री का बाल तो कपड़ों पर नहीं है।
मुल्ला नसरुद्दीन की एक स्त्री, उनकी स्त्री, एक सांझ एकदम कपड़े देखकर और रोने लगी, जोर-जोर से छाती पीटकर रोने लगी। मुल्ला ने कहा: आज क्या है? आज तो कोई बाल भी नहीं है।
उसकी पत्नी ने कहा: इसीलिये रो रही हूं, तो अब तुमने गंजी स्त्रियों के साथ भी जाना शुरू कर दिया? अब तो हद हो गई।
पति भी नजर रखे हैं कि कहीं पत्नी किसी और में रस तो नहीं ले रही! जहां एक-दूसरे के पीछे इस तरह की खुफियागिरी चल रही हो, वहां कैसे आनंद होगा? जहां एक दूसरे पर इतना भी भरोसा न हो, वहां कैसे प्रेम उमगेगा? प्रेम तो अत्यंत श्रद्धापूर्ण वातावरण में जन्मता है। श्रद्धा ही नहीं है, दूसरे का सम्मान भी नहीं है और दूसरे पर निर्भरता इतनी ज्यादा है कि पकड़े रखो, एक-दूसरे की जंजीर बन जाओ।
तुम ठीक ही कहते हो जब निमंत्रण पत्र इत्यादि अपने बेटे-बेटियों के छपवाते हो--कि मेरा बेटा प्रणय-बंधन में बंधने जा रहा है। तुम्हें कुछ अकल है? प्रणय तो मुक्ति होनी चाहिए, बंधन नहीं। ये कोई जंजीरें हैं कि विवाह के बंधन में बंधने जा रहा है? मगर ऐसे तुम सच ही कह रहे हो।
मुल्ला नसरुद्दीन के बेटे की शादी होने वाली थी। मुल्ला ने उसे एकांत में बुलाया और कहा कि दो बातें सदा खयाल रखना, जीवन के अनुभव से कह रहा हूं। अब तू विवाह कर रहा है, इसलिये सार-निचोड़ तुझे समझा देता हूं। पहली बात: पत्नी को कोई भी वचन दे, सदा पूरा करना। फिर मुल्ला कुछ झिझका। बेटे ने पूछा: और दूसरी बात? मुल्ला ने कहा कि अब कहनी पड़ेगी: और  भूलकर भी पत्नी को कोई वचन मत देना। दो बातें खयाल रखना। नहीं तो तू मुश्किल में पड़ेगा।
कल मैं एक किताब पढ़ रहा था। अदभुत किताब है। किताब है: असत्य बोलने की कला। उसमें सारे...किन-किन स्थितियों में आदमी को असत्य बोलना पड़ता है, उस सबके बहुत-से उद्धरण और बहुत-से सुझाव दिए हैं। उस किताब की लाखों प्रतियां अमरीका में बिकीं। इतनी प्रतियां बिकीं, इसलिये मैंने खबर भिजवाई कि कोई मुझे वह किताब भेजो। देखा उसमें, तो जरूर बिकीं होंगी। सभी पति-पत्नियों के काम की है, क्योंकि उसमें काफी स्पष्टता से उदाहरण पूर्वक हर स्थिति में बहुत-से झूठ बोलने सुझाये हैं--आत्मरक्षा के निमित्त।
पति-पत्नी ऐसे ही झूठ बोल रहे हैं एक-दूसरे से। जिनके बीच सत्य भी नहीं है, उनके बीच आनंद कैसे होगा? जिनके बीच एक-दूसरे के प्रति संदेह ही संदेह हैं, उनके बीच संबंध ही क्या होगा? संदेह तो तोड़ता है, जोड़ता नहीं।
विवाह एक अपूर्व कला है। तुम जन्म से ही विवाह के योग्य पैदा नहीं होते। ठीक था कि पच्चीस वर्ष तक तुम अकेला रहना सीखते और फिर तुम विवाह में उतरते। लेकिन वह प्रयोग भी असफल हुआ, उसका कारण था। उसका कारण था कि वह प्रयोग अधूरा था, पुरुषों के लिए तो किया गया, स्त्रियों के लिये नहीं किया गया। इसलिये वह प्रयोग मरा। पच्चीस वर्ष तक युवक तो गुरुकुल में रहते थे और एकांत का और ध्यान का रस लेकर आते थे, लेकिन युवतियों के लिये वह अवसर नहीं था। यह एकांगी प्रयोग था, इसलिये मर गया।
मैं उस प्रयोग को फिर दोहराना चाहता हूं। लेकिन अब मैं उसे दोनों तरफ से दोहराना चाहता हूं। युवक और युवती दोनों के लिये लागू होना चाहिए। दोनों ध्यान की कला सीखें। और विवाह में तो तभी सम्मिलित होना चाहिए जब तुम इस योग्य हो गये, इतने प्रौढ़ हो गये, कि दूसरे के साथ जी सकोगे, क्योंकि दूसरे के साथ जीने का अर्थ होता है: दूसरा तुम जैसा नहीं है; तुमसे भिन्न है--अलग ढंग से पला है, अलग ढंग से बड़ा हुआ है, उसके अलग संस्कार हैं, अलग सोच-विचार हैं। दूसरे के साथ होने का मतलब है कि तुम्हें अब बहुत-सी चीजों में उदार होना पड़ेगा, सहिष्णु होना पड़ेगा। दूसरे के साथ होने का अर्थ है कि तुम्हें लेन-देन करना होगा। दूसरे के साथ होने का अर्थ है तुम्हें समन्वय करना होगा।
एक आदमी बांसुरी बजाता है--सोलो, अकेला, यह एक बात है। फिर वह तबले के साथ बांसुरी बजाये तो कला और भी सीखनी पड़ेगी, क्योंकि अब तबले की ताल के साथ बांसुरी जानी चाहिए, अब संगत सीखनी पड़ेगी। विवाह संगत है दो वाद्यों के बीच में। ध्यान सोलो है; अपने बैठे बांसुरी बजा रहे हैं। ठीक बजाओ कि गलत बजाओ, किसी को लेना-देना भी नहीं है। अगर तुम्हीं बजानेवाले हो और तुम्हीं सुननेवाले हो, तुम्हारी मौज। लेकिन जब तुम दूसरे के साथ बांसुरी बजाते हो और दूसरा भी ताल दे रहा है तबले पर तो फिर तबले के साथ चलना होगा, तो दोनों के बीच संगत बनानी होगी।
विवाह संगत है। बड़ी कुशलता चाहिये। इस जगत में बहुत थोड़े-से विवाह सफल होते हैं। थोड़े-से भी हो जाते हैं, यह चमत्कार है। होने नहीं चाहिए। दुर्घटना-वश हो जाते हैं, संयोगवशात। अधिक तो असफल हो जाते हैं। सौ मैं निन्यानबे विवाह तो असफलता की कथाएं हैं। लेकिन तुम्हारे साधु-संन्यासी चाहते भी नहीं थे कि तुम्हारा विवाह सफल हो जाये, क्योंकि उनका सारा त्याग का धंधा तुम्हारे विवाह की असफलता पर निर्भर है। इसको तुम समझने की कोशिश करना। गणित के पीछे गणित हैं।
समझ लो कि अगर तुम्हारा विवाह सफल हो जाये तो कौन संन्यास लेगा? पुराने ढब का संन्यास तो कम से कम नहीं लेगा। मेरा ही संन्यास ले सकता है फिर। अगर विवाह सफल हो जाये तो फिर कौन सुनेगा विरागियों की? और विरागी लाख कहें स्त्री नरक का द्वार है, तुम कहोगे: "चुप रहो, बकवास बंद करो! मुझे पता है।' लेकिन जब विरागी कहता है स्त्री नरक का द्वार है, तुम एकदम राजी हो जाते हो। तुम कह रहे हो कि महाराज, बिलकुल ठीक कह रहे हो! मेरा भी अनुभव यही है। जब तुलसीदास जैसे लोग कहते हैं कि स्त्री की गिनती करो--शूद्र, गंवार, पशु, नारी--तो तुम तैयार हो जाते हो।...ये सब ताड़न के अधिकारी! तुम्हारा दिल कहता है: अहा! इन्हीं महात्मा की तो तलाश थी! मारना तो तुम भी अपनी पत्नी को चाहते हो। मारते न होओ भला, मगर दिल में उमंगें तो बड़ी-बड़ी उठती हैं।
ऐसा पुरुष खोजना कठिन है जो पत्नी की हत्या की बात कभी न कभी नहीं विचारता हो। ऐसी पत्नी खोजनी मुश्किल है जो कभी न कभी सोचती हो कि छुटकारा हो जाये इस आदमी से तो अच्छा, कि हे परमात्मा! इसको उठा ही क्यों नहीं लेता?
तुम्हारा विवाह अगर सफल हो जाये तो तुम्हारे चर्च, मंदिर, तुम्हारी मस्जिदें एकदम असफल हो जायेंगी। इसलिये पंडित-पुरोहित ने तुम्हारे विवाह को सफल नहीं होने दिया है। उसने पूरी चेष्टा की है कि तुम्हारी जिंदगी दुख से भरी रहे। तुम्हारी जिंदगी दुख से भरी रहे, तो ही तुम उसके पास आते हो। समझना, कुछ धंधे ऐसे हैं जो विरोधाभासी हैं। जैसे चिकित्सक का धंधा। चिकित्सक के धंधे में यह खतरा है कि वह बीमार की चिकित्सा करता है, उसका धंधा तो यही है कि बीमार का इलाज करे, उसे ठीक करे; लेकिन अंतरतम भावना यही होती है कि लोग बीमार पड़ते रहें,  नहीं तो उसका क्या होगा? ऊपर से इलाज भी करता है, भीतर कहीं बहुत गहरे में चाहता है कि लोग बीमार भी होते रहें। यह तो बड़ी विरोधाभासी बात हो गई।
एक शराब-घर में एक रात एक आदमी आया अपने मित्रों के साथ, खूब शराब पिलवाई उसने, खूब मजा-मौज किया। बारह बज गये, शराब की दुकान वाला मालिक तो गदगद हो गया। खूब रुपये लुटाये उसने! अपनी पत्नी से वह बोला कि ऐसे ग्राहक अगर रोज आते रहें तो कुछ ही दिनों में चांदी ही चांदी हो जाये। जाते वक्त उसने इस अदभुत ग्राहक को कहा कि भाई, कभी-कभी आ जाया करो। तुम जैसे ग्राहक सदा आते रहें तो हमारा सौभाग्य!
उस आदमी ने कहा: हमारा धंधा चलता रहे, प्रार्थना करो कि हमारा धंधा चलता रहे तो हम भी बराबर रोज आयें। वह तो अभी धंधा हमारा तेजी से चल रहा है। अभी तो हम आयेंगे आठ-पंद्रह दिन में। यह तो मौसम है हमारा।
उस आदमी ने पूछा: लेकिन मैं यह भी पूछूं कि तुम्हारा धंधा क्या है? उसने कहा: मेरा धंधा है मरघट पर लकड़ी बेचना। जब लोग ज्यादा मरते हैं, तब हमारा धंधा चलता है। इस वक्त लोग मर रहे हैं। साल के इस हिस्से में हमारा सीजन होता है। इस वक्त तरहत्तरह की बीमारियां होती हैं और लोग मरते हैं। प्रार्थना करो परमात्मा से, हमारा धंधा चलता रहे, लकड़ियां बिकती रहें, हम तो रोज आते रहें।
बड़े अजीब-अजीब धंधे हैं। किसी का धंधा है कि वह मरघट पर लकड़ियां बेचता है। वह परमात्मा से प्रार्थना करता ही है कि मेरा धंधा चलता रहे; लोग मरें, इसकी प्रार्थना। चिकित्सक की प्रार्थना है कि लोग बीमार होते रहें। पंडित-पुरोहितों की, विरागियों की प्रार्थना है कि संसार में सुख न हो जाये।
इसलिए अगर वे मेरे विपरीत हैं तो कुछ आश्चर्य नहीं, क्योंकि मेरी चेष्टा बड़ी उल्टी है। मैं कह रहा हूं: तुम्हारे जीवन में सुख हो सकता है। यह पृथ्वी स्वर्ग हो सकती है, होनी ही चाहिये! अगर नहीं हो पा रही है तो कहीं हमारा कसूर है। परमात्मा ने इसे स्वर्ग के योग्य ही बनाया, इसमें कुछ कमी नहीं छोड़ी। सब है, सिर्फ आदमी नासमझी कर रहा है। यह पृथ्वी स्वर्ग हो सकती है। लेकिन तब एक दूसरे ढंग का संन्यास होगा--मेरे ढंग का संन्यास होगा।
एक तो परमात्मा की तलाश है जो दुख से शुरू होती है, कि जीवन में इतना दुख पाया कि अब परमात्मा को खोजने चले। एक परमात्मा की तलाश है जो सुख से पैदा होती है, जीवन में इतना सुख पाया कि अब सुख का परम स्रोत खोजने चले। ये बड़ी भिन्न तलाशें हैं। इसलिये मेरा संन्यासी और पुराने ढंग का संन्यासी बिलकुल विपरीत लोग हैं। मैं विरागियों से बिलकुल विपरीत हूं। इसलिये वे सारे एकजुट होकर मेरा विरोध कर रहे हैं। मैं समझता हूं, यह स्वाभाविक है। उनके न्यस्त स्वार्थ पर मैं हमला कर रहा हूं।
मैं यह कर रहा हूं कि विवाह सुंदर हो सकता है; असुंदर है तो हमारी भूल के कारण है। मैं कहता हूं: बांसुरी और तबले के बीच संगत बैठ सकती है; नहीं बैठ रही तो हमने संगीत ठीक से नहीं सीखा है, इसलिये। संगीत सीखा जा सकता है।
मैं कहता हूं इसी जीवन में, शरीर के जीवन में, बड़ी-बड़ी रहस्य की संभावनाएं छिपी पड़ी हैं। परमात्मा शरीर में उपलब्ध हो सकता है और परमात्मा बाजार में उपलब्ध हो सकता है, घर-गृहस्थी में उपलब्ध हो सकता है। परमात्मा का और संसार का कोई विरोध नहीं है। तुम जहां हो वहां उपलब्ध हो सकता है।
चूंकि मेरी ऐसी उदघोषणा है, इसलिये मेरी प्रक्रिया भी पूरी अन्य होने वाली है। मैं चाहता हूं कि तुम रागी बनो, तुम प्रेमी बनो। ऐसा प्रेम का तुम्हें रस लगे कि एक दिन तुम कहो कि अब तो बस परमात्मा का प्रेम मिले तो ही तृप्ति होगी। मैं तुम्हें संगीत की थोड़ी समझ देना चाहता हूं, ताकि तुम और-और संगीत की तरफ बढ़ने लगो, ताकि एक दिन अनाहत नाद को सुनने की आकांक्षा जगे।
पुराना संन्यास विषादपूर्ण था, वैराग्यपूर्ण था। मेरी अवधारणा संन्यास की, विषाद की नहीं, आह्लाद की है; दुख की नहीं, आनंद की है। और अगर परमात्मा सच्चिदानंद है तो हमें भी सच्चिदानंद होकर जीना चाहिये, तो ही हमारा उससे तालमेल हो सकेगा। दाम्पत्य सुंदर हो सकता है, और प्रेम धीरे-धीरे प्रार्थना के लिये रास्ता बन सकता है।

आखिरी प्रश्न:

ओशो! दो माह पहले मेरे भाई, मासी के पुत्र की छब्बीस वर्ष की आयु में मृत्यु हो गयी। वे हमारे साथ पांच वर्ष रहे थे और वे भाई और पुत्र से भी ज्यादा आत्मीय थे। हमने उनकी मृतात्मा के आगे की यात्रा के लिए सुंदर विदाई दी। हम जानते थे कैसे। हमने भजन और धुन गाये। मृत्यु-शोक नहीं--उत्सव। एक भजन था: मुखड़ा नी माया लागी रे...मोहन प्यारा, मुखडूं में जोयूं तारूं, मन मारूं धयूं न्यारूं रे...मोहन प्यारा! इस गीत में कृष्ण को संबोधित मधुरता थी, और साथ ही स्वर्गवासी राज की याद थी।
आज पहली बार आपका साक्षात प्रवचन सुनने के साथ ही उपरोक्त भजन सहज ही मुझसे गूंज उठा और दिन भर साथ रहा। शायद यह झलक थी--उस भजन के अंतरंग अर्थ की, जो हमने गाया था--मुखड़ा नी माया लागी रे...!

रोहित! मृत्यु इस जगत का सबसे बड़ा झूठ है। मृत्यु होती ही नहीं। जीवन है और जीवन है। जीवन के पार जीवन है। पर्त-पर्त जीवन है। जीवन की अनंत शृंखला है। मृत्यु तो केवल परिधान का बदल लेना है; जीर्ण वस्त्रों को छोड़ देना, बस इतना ही।
जैसे पतझर आता है और पुराने पत्ते गिर जाते हैं और वृक्ष नग्न खड़ा रह जाता है; मगर नग्न वृक्ष में जिसके सारे पत्ते झड़ गये हैं, उदासी नहीं है, दुख नहीं है, पीड़ा नहीं है। और आकाश की पृष्ठभूमि में तभी तो पत्तों से शून्य वृक्ष का भी एक अपूर्व सौंदर्य होता है। पत्तों से शून्य नग्न वृक्ष का भी एक अपना अनूठा ढंग, शैली और व्यक्तित्व होता है। उसकी अपनी शांति होती है, अपना शून्य होता है। फिर आयेगा मधुमास, फिर बसंत आयेगा, फिर अंकुर निकलेंगे, फिर नये पत्ते, फिर नये फूल। वृक्ष को भरोसा है, इसलिये उदास नहीं है; विश्राम कर रहा है मधुमास की प्रतीक्षा करेगा।
हमारा भरोसा बहुत कम है, इसलिये हम दुखी हो जाते हैं। हमारी श्रद्धा बहुत दीन-दुर्बल है, इसलिये हम दुखी हो जाते हैं।
रोहित! तुमने ठीक ही किया। यही मेरी शिक्षा है। मृत्यु को भी उत्सव बनाओ, क्योंकि चला कोई नये जीवन के मार्ग पर। जितने दिन हमारे साथ था, उस सबके लिये धन्यवाद तो दो, जाते यात्री को धन्यवाद तो दो। इतनी लंबी यात्रा पर जा रहा है, फिर मिलना होगा या न होगा, इसे उदास क्षण तो न बनाओ। रो-धोकर इसके सौंदर्य को खंडित तो न करो! विदा प्रीतिपूर्ण हो, उत्सवपूर्ण हो, शुभाशीषों से भरी हो, अनंत यात्रा की कामना से भरी हो।
और ध्यान रखना, इसके बड़े गहरे अर्थ हैं। अगर तुम उत्सवपूर्वक विदा दे सको तो तुमने उस चेतना को जो इस देह से मुक्त हो गई है, आगे जाने के लिये संबल दिया, सहारा दिया, पाथेय दिया। और तुमने उसे इस जगत से, इस जीवन से, इस जीवन के संबंधों से मुक्त होने की सामर्थ्य भी दी; नहीं तो मन पीछे लौट-लौटकर देखेगा। तुम रोओगे, तुम पीड़ित और परेशान होओगे, तो वह आत्मा लौट-लौट तुम्हारे आस-पास चक्कर काटेगी। तुम उसे भटकाओगे। तुम उसे उलझा दोगे।
नहीं, अब सारे सेतु टूट जाने दो। जाने दो उसे नये मार्ग पर। उसकी घड़ी आ गई। उसकी यात्रा का क्षण आ गया। उसकी नाव किनारे लग गई। और तुम अगर अपने मित्र को, अपने भाई को, अपने पति को, अपनी पत्नी को, अपने बेटे को आनंदपूर्ण ढंग से विदा दे सको तो तुम्हारे जीवन में भी क्रांति होगी, क्योंकि तुम भी अब मृत्यु से डरोगे नहीं। अब तुम्हारी अपनी मृत्यु भी एक दुर्घटना नहीं मालूम होगी। तुम्हारी जीवन की समझ इससे गहरायेगी, परिपक्व होगी।
तुमने अच्छा किया। मृत्यु तो उत्सवपूर्वक ही मनानी चाहिये। आंसू भी गिरें तो भी कृतज्ञता के हों, धन्यवाद के हों।
और पैमाने सभी बेकार हैं,
अन्य नापों का तो जड़ आधार है;
एक अपने ही हृदय के नाप से,
नाप सकते हम निखिल संसार ये!

कह रहा यह सांध्य-रवि ढलता हुआ,
यों सदा चढ़ कर उतरना है अटल;
फूल चढ़ तरु के शिखर पर हंस दिया,
अंत में तो धूल का आंचल मृदुल!

चिर दुखों की ठोकरों से चूर होकर,
भूल कर इस जिंदगी का दांव हारा;
विश्व के आलोक के हित चमकने का,
कह रहा आकाश से टूटा सितारा!

हृदय की गहराइयों को नापने,
यंत्र यह विज्ञान दे पाया नहीं;
एक करुणा-यंत्र से तुम नाप लो,
स्नेह है या स्वार्थ की छाया कहीं?

गीत क्या गाऊं भला मुख खोल मैं,
जब कि मेरे गीत ही तव राग है;
आंसुओं से क्या बुझाऊं उर-जलन,
जब कि अन्तर में तुम्हारी आग है!
विदा दो आनंद से, क्योंकि जो फूल अभी गिरा है धूल में, फिर कभी फूल होकर उगेगा। जो तारा अभी गिर गया है, फिर तारा बनेगा। अनंत है यात्रा; न इसका कोई आदि है न कोई अंत। क्षण-भर को हम मिल लेते हैं, साथ हो लेते हैं, उन क्षणों को प्रीतिकर बनाओ, मधुमय बनाओ। लेकिन उन क्षणों पर निर्भर न हो जाओ, उन क्षणों से बंध मत जाओ।
हम सब यात्री हैं और हमारा संबंध नदी-नाव संयोग है। विदा तो होना होगा देर-अबेर। मिलन के क्षण में भी विदा न भूले तो ही यह संभव हो पायेगा कि विदा के क्षण में तुम मिलन के लिये धन्यवाद दे सकोगे।
इस गणित को ठीक से हृदय में बैठ जाने दो: मिलन के क्षण में विदा न भूले। जब तुम किसी को आलिंगन करो तो जानना ही कि अलग होना होगा। जब तुम किसी का हाथ प्यार से हाथ में लो तो जानना ही कि हाथ छोड़ देना होगा। जब फूल खिले तो स्मरण रखना, सांझ गिरेगा। यह स्वाभाविक है।
कह रहा यह सांध्य-रवि ढलता हुआ,
यों सदा चढ़कर उतरना है अटल;
फूल चढ़ तरु के शिखर पर हंस दिया,
अंत में तो धूल का आंचल मृदुल!
लेकिन धूल का आंचल भी बहुत मृदुल है, बहुत प्यारा है, विश्राम है। मृत्यु विश्राम है--जीवन की थकान से, जीवन के सफलताओं-असफलताओं के घाव से। मृत्यु एक महानिद्रा है; फिर सुबह होगी, फिर नया जीवन उठेगा।
लेकिन हम क्यों इतने दुखी होते हैं? हम इसलिये इतने दुखी हो जाते हैं कि जो हमें जीवन में देना चाहिये था, नहीं दिया, उसका अपराध-भाव हमें पकड़ता है। तुम यह जानकर चौंकोगे । जब कोई मरता है तो तुम उसकी मृत्यु के कारण दुखी नहीं होते। तुम दुखी होते हो इसलिये कि अब क्या होगा, व्यक्ति जा चुका और मैंने इसे नहीं दिया जो मुझे देना था; जो प्रेम मुझे करना था मैंने नहीं किया; कल पर टालता रहा; कहा कि आज तो धन इकट्ठा कर लूं, कल तुम्हें प्रेम कर लूंगा, जल्दी क्या है; छोटी-छोटी चीजों पर लड़ता-झगड़ता रहा; क्षुद्र-क्षुद्र बातों पर एक-दूसरे को घाव पहुंचाये जाते रहे--और आज व्यक्ति विदा हो गया! अब क्षमा मांगने का भी उपाय नहीं। अपराध-भाव पकड़ता है, इससे दुख होता है ।
फिर इससे भी दुख होता है, कि हम एक-दूसरे से बंध जाते हैं। हम इतने बंध जाते हैं कि जब दूसरा विदा होता है तो हमें यह भरोसा ही नहीं आता कि अब हम अकेले कैसे जी सकेंगे! जब दूसरा मरता है तो हमारे भीतर कुछ मर जाता है। यह भी गलत जीवन की शैली है। किसी पर इतना निर्भर नहीं होना है। अगर सुबह के सूरज पर बहुत निर्भर हो गये तो सांझ पछताओगे, क्योंकि सांझ सूरज तो डूबेगा। तुम्हारी निर्भरता के कारण इस जगत के नियम रूपांतरित नहीं होंगे। तुम्हीं दुखी होओगे।
जो इस सत्य को जानता है कि अलग होना होगा, क्योंकि मिलना हुआ तो अलग होना भी होगा, सब संयोग बिखर जाते हैं--वह निर्भर नहीं होता। वह अपना मालिक रहता है। वह दूसरे को भी अपने पर निर्भर नहीं करता। सच्चा प्रेमी वही है, जो दूसरे को भी अपने पर निर्भर नहीं करता। सच्चा प्रेमी वही है जो दूसरे को भी अपने पैरों पर खड़ा होने देता है; क्योंकि कब मैं विदा हो जाऊंगा, पता नहीं, तो मेरी पत्नी कहीं दुखी न हो पीछे, रोये न! सच्चा प्रेमी वही है, जो पत्नी को इस योग्य बना जाता है कि जब मैं जाऊंगा तो वह अपने पैर पर खड़ी हो सकेगी। और सच्चा प्रेमी वही है जो जानता है कि मैंने अपनी पत्नी को इतना प्रेम दिया है कि कल अगर मैं जाऊंगा तो मेरे प्रेम के कारण वह फिर प्रेम कर सकेगी।
इससे तुम और चौंकोगे।
सच्ची प्रेमिका वही है जो जानती है कि मैंने इतना प्रेम दिया है अपने पति को कि अगर कल मैं विदा हो गई तो मेरा पति फिर प्रेम कर सकेगा। मैंने इतना प्रेम दिया है कि प्रेम में रस जगा दिया है, मैंने प्रेम के योग्य बना दिया है।
लेकिन हम तो उल्टा काम करते हैं। हम तो मरते वक्त भी कसम लिवाना चाहते हैं पत्नी से कि तू सदा मेरी ही याद में रोती रहना; कभी किसी को प्रेम मत करना; कभी भूलकर किसी को प्रेम मत करना।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर रही थी तो उसी मरती स्त्री ने कहा कि मुझे मालूम है मुल्ला, कि मेरे मरते ही तुम फिर से विवाह रचोगे। तुम लाख कहो, मुझे मालूम है।
मुल्ला ने कहा : कभी नहीं! कसम खाता हूं तेरी, कभी नहीं! ऐसे कैसे हो सकता है? मैं और विवाह करूं, नहीं-नहीं! अगले जन्म की प्रतीक्षा करूंगा, फिर तुझी से विवाह करूंगा। जनम-जनम का साथ!
पत्नी बड़ी प्रसन्न थी। आश्वस्त तो नहीं थी, क्योंकि जिंदगी-भर का मुल्ला का अनुभव भी था कि जो जिंदगी में भी दगा देता रहा, वह मौत में साथ देगा इसका भरोसा क्या है! फिर भी उसने कहा : ठीक है, तुम कहते हो तो मान लेती हूं, मगर एक बात खयाल रखना--अगर कभी शादी करो ही तो देखो मेरे कपड़े उस स्त्री को मत पहनने देना, इससे मेरी आत्मा को बड़ा दुख होगा।
उसने कहा : तू बिलकुल फिकिर मत कर। रजिया को तेरे कपड़े बनेंगे भी नहीं।
वे तैयारी किये ही बैठे हैं, मरने की ही राह देख रहे हैं।
इस देश में यह घटना घटी, हमने स्त्रियों को जबरदस्ती सती होने के लिये मजबूर किया। पुरुषों का अहंकार देखते हो, कि मैं मर जाऊं तो मेरे साथ चिता पर चढ़ जाना! भय, संदेह...ये कोई प्रेम के लक्षण हैं? हां, कोई स्त्री अपने से चढ़ जाये, और बात; लेकिन यह समझाया जाये बुझाया जाये, इसके पाठ पढ़ाये जायें और अगर कोई स्त्री न चढ़ना चाहे तो जबरदस्ती चढ़ाई जाये...। जबरदस्ती स्त्रियां चढ़ाई गईं। धक्के दे-देकर उनको चिताओं पर ले जाया गया। इतना घी डालते थे चिताओं में कि धुआं इतना पैदा हो जाये कि वह स्त्री भाग न सके। चारों तरफ मशाल लेकर लोग खड़े रहते थे। क्योंकि जिंदा आदमी अगर आग में गिरेगा कभी, दीये को हाथ से छूकर देखा तो समझ आयेगा, तो पूरी जलती हुई आग में जिंदा आदमी...स्त्री भागेगी, होश छोड़कर भागेगी। कोई भागने के लिये चेष्टा नहीं करनी पड़ेगी। तुम आग को छुओगे तो हाथ अपने से हट जाता है। ऐसे ही शरीर छलांग लगाकर बाहर हो जाना चाहेगा। यह तुम्हारी कोई वश की बात नहीं होगी। तो मशालों से उसको वापिस गिरा देना है। और इतना धुआं पैदा करना है और इतने बैंड-बाजे बजाते थे कि उसका शोरगुल, उसका चीत्कार...चीत्कार तो उठेगा, जिंदा आदमी जलेगा तो...सुनाई न पड़े। यह तो हत्या थी। फिर इस सती के नाम पर चबूतरा बना देंगे--सती का चौरा! फिर उस पर फूल चढ़ायेंगे। जिंदा को मारेंगे, मुर्दा पर फूल चढ़ायेंगे।
यह पुरुष का अहंकार था। और अगर यह सच है कि अहंकार था तो हमने जो सतियों के नाम पर बड़ी कहानियां गढ़ रखी हैं, उनको विदा करो। और मैं कहता हूं : यह अहंकार था, क्योंकि अगर यह अहंकार नहीं था, प्रेम था तो कोई पुरुष क्यों नहीं स्त्री की चिता पर चढ़ा? क्योंकि प्रेम क्या इकतरफा होता है? स्त्रियां मरती रहीं और पुरुष फिर-फिर विवाह करते रहे। सच तो यह है स्त्री मरती थी, मरघट पर ही उसको विदा करते वक्त ही विचार होने लगता! अब इसकी शादी कहां कर देनी है! मैं भी कुछ मरघटों पर गया हूं तो मैं चकित हुआ हूं कि विचार शुरू हो जाता है कि इसकी शादी कहां कर देनी है!
पुरुष ने तो प्रेम का एक भी लक्षण न दिया, एक भी सता न हुआ। सतियां ही सतियां...एकाध सता का चौरा देखा कहीं। यह तो चालबाजी हो गई। यह स्त्रियों के साथ बेईमानी हो गई। यह तो धोखा हो गया। मगर भय था पुरुष को कि मेरे हट जाने के बाद स्त्री किसी के प्रेम में न पड़ जाये। यह संदेह का रिश्ता था, प्रेम का रिश्ता नहीं। प्रेम का रिश्ता तो कुछ और होगा।
मेरी दृष्टि में, अगर पुरुष मर रहा है तो वह अपनी पत्नी को कहेगा कि जरूर तू किसी को प्रेम करना, क्योंकि प्रेम देवता है। तू फिर प्रेम करना। तू मेरी याद में प्रेम करना। तूने मुझे चाहा था तो किसी और को चाहना। क्योंकि जैसे परमात्मा मुझमें प्रगट हुआ है, ऐसे ही किसी और में भी प्रगट हुआ है। तू खुश होगी किसी को चाहकर, तू फिर नाचेगी किसी को चाहकर, तो मुझे आनंद होगा, मेरी आत्मा को आनंद होगा।
मेरे देखने के ढंग भिन्न हैं। प्रेम मेरे लिये परम मूल्य है। इसलिये विदा दो किसी को--आनंद से दो! और फिर बैठकर रोने की कोई जरूरत नहीं है। फिर जिंदगी भर रोने की कोई जरूरत नहीं है। अगर तुमने सच में प्रेम किया है उसे, तो फिर किसी को प्रेम करना। रोहित, तुमने अगर प्रेम किया है अपने भाई को, मौसी के पुत्र को, राज को, तो फिर किसी और को राज बनाना। फिर किसी को और भाई बनाना। प्रेम का स्रोत सूख न जाये।
और राज अपनी पत्नी पीछे छोड़ गया है, शैल्या, वह भी आज यहां उपस्थित है। मेरा उसको यह संदेश है : अगर तूने राज को प्रेम किया हो तो फिर किसी को प्रेम करना, फिर किसी राज को खोजना। वही सबूत होगा प्रेम का। वही प्रमाण होगा प्रेम का। और भूलकर भी यह मत सोचना कि किसी और को प्रेम किया तो यह राज के साथ धोखा हुआ, गद्दारी हुई। नहीं; यही प्रमाण हुआ कि तूने राज को चाहा था। उसकी चाह में किसी और को भी चाहना। चाह को इतना बड़ा करो, प्रेम को इतना बड़ा करो, संकीर्ण न करो। अगर तूने फिर किसी को प्रेम नहीं किया और राज की याद में बैठी रोती रही, तो वह सिर्फ इस बात का सबूत होगा कि राज के प्रेम ने तुझे इतना आनंद नहीं दिया था कि तू फिर प्रेम के झंझट में पड़े। वह इसी बात का सबूत होगा कि अच्छा हुआ यह झंझट मिट गई। राज भी गये, यह विवाह की झंझट मिट गई। अब तो किसी झंझट में पड़ना नहीं है। यह तो राज का अपमान होगा।
मेरी तर्क-सरणी को समझना। मेरी तर्क-सरणी को समझना थोड़ा कठिन पड़ता है, क्योंकि बंधी-बंधाई मान्यताओं के मैं बिलकुल विपरीत हूं। मेरे हिसाब में तू तो जब फिर प्रेम करेगी, फिर फूलों से लदेगी, फिर पैरों में घूंघर बांधकर नाचेगी, तो सबूत होगा कि तूने किसी को चाहा था, खूब चाहा था! और उसने भी तुझे चाहा था और उसने तुझे प्रेम का ऐसा पाठ दिया था कि आज व्यक्ति विदा हो गया तो कोई हर्ज नहीं। अगर एक मंदिर गिर जाये तो दूसरे मंदिर में आराधना चलेगी। अगर एक पूजा का थाल न मिले तो दूसरे पूजा के थाल से आराधना चलेगी। लेकिन आराधना चलेगी।
प्रेम प्रार्थना है।

आज इतना ही।





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