दिनांक
26 जून 1976;
श्री
ओशो आश्रम
पूना।
प्रश्न
सार:
पहला
प्रश्न :
प्यारे
ओशो! कल
आपने कहा था
कि
अंतर्यात्री
के पास केवल
दिशा होती है?
और लक्ष्य
नहीं। इन
दोनों के मध्य
क्या अंतर है?
क्या आप इसे
स्पष्ट करने
की कृपा करेने?
यह उत्तर
बहुत सूक्ष्म
है, लेकिन
यह वैसा ही
अंतर है। जैसे
वहां मन और
हृदय के मध्य
होता है, जैसा
तर्क और प्रेम
के मध्य होता
है या यह कहना
अधिक उचित
होगा, जैसे
वहां गद्य और
कविता के मध्य
होता है।
एक
मंजिल या
लक्ष्य एक
बहुत स्पष्ट
चीज है, दिशा गहरे
अंतर्ज्ञान
द्वारा हुआ
अनुभव है।
मंजिल कुछ ऐसी
चीज है जो
तुम्हारे
बाहर होती है,
वह एक वस्तु
की तरह अधिक
होती है। दिशा
या मार्ग एक आंतरिक
अनुभव है, वह
वस्तु की तरह
नहीं है, लेकिन
तुम्हारी
अपनी
वैयक्तिकता
है। तुम दिशा
का अनुभव कर
सकते हो, लेकिन
उसे जान नहीं
सकते। तुम
मंजिल को जान
सकते हो? तुम
उसका अनुभव
नहीं कर सकते।
मंजिल या
लक्ष्य
भविष्य में
होता है। एक
बार यदि तुमने
तै कर लिया तो
तुम अपना जीवन
उस ओर
व्यवस्थित
करना शुरू कर
देते हो।
तुम
भविष्य को
कैसे निश्चित
कर सकते हो? तुम
अज्ञात को तय
करने वाले
होते कौन हो? भविष्य को
तैयार करना
कैसे सम्भव है।
भविष्य वह है,
जो अभी तक
ज्ञात नहीं है,
भविष्य एक
खुली हुई
संभावना है।
लक्ष्य को तय
करने से
तुम्हारा
भविष्य एक खुली
हुई संभावना
हो जाता है।
लक्ष्य को तय
करने से
तुम्हारा
भविष्य फिर आगे
भविष्य रही
नहीं जाता।
क्योंकि अब वह
आगे के लिए
खुला नहीं
रहता। अब
तुमने बहुत से
विकल्पों में
से एक विकल्प चुन
लिया है।
क्योंकि जब
सभी विकल्प
खुले थे, वह
भविष्य था। जब
सभी विकल्प
छोड़ दिए गए
हैं, और
केवल एक
विकल्प चुन
लिया गया है।
अब वह आगे
भविष्य रह ही
नहीं गया, वह
तुम्हारा
अतीत है।
अतीत
ही तै करता है, जब तुम एक
लक्ष्य
निर्धारित
करते हो।
तुम्हारे
अतीत का अनुभव
और तुम्हारे
अतीत की जानकारी
ही उसे तय
करनी है। तुम
भविष्य को मार
देते हो। तुम
भविष्य को मार
देते हो। तब
तुम अपना ही
अतीत दोहराते
जाते हो, भले
ही वह थोड़ा सा
सुधारा हुआ हो,
यहां और
वहां उसमें
थोडा सा
परिवर्तन हो,
या तुमने
अपनी सुविधा
के अनुसार
उसमें रंग—रोगन
लगा दिया हो, या उसका
नवीनीकरण
किया हो।
लेकिन फिर भी
वह अतीत से ही
है। यही वह
तरीका है
जिससे कोई भी
व्यक्ति
भविष्य की लीक
खो देता है वह
मृत हो जाता
है वह एक मशीन की
तरह कार्य
करना शुरू कर
देता है।
दिशा
जीवंत होती है, वह इसी
क्षण होती है।
वह भविष्य के
बारे में कुछ
भी नहीं जानती,
वह अतीत के
बारे में भी
कुछ नहीं
जानती, लेकिन
उसमें
स्पन्दन होता
है, धड़कन
होती है, लेकिन
वह अभी और
यहीं होती है।
और इस
स्पन्दित
क्षण में से
अगले क्षण का
जन्म होता है।
तुम्हारे
द्वारा किसी
लिए गए निर्णय
के अनुसार
नहीं, लेकिन
केवल इसलिए
क्योंकि तुम
इस क्षण को
जीते हो, और
तुम इसे पूरी
समग्रता से
जीते हो और
तुम इस क्षण
को इतनी
पूर्णता से
प्रेम करते हो,
कि इसी
पूर्णता और
समग्रता से
अगले क्षण का
जन्म होता है।
यह एक दिशा होने
जा रहा है। वह
दिशा
तुम्हारे
द्वारा दी
नहीं गई, वह
तुम्हारे ऊपर
थोपी नहीं गई,
वह स्वयं
प्रवर्तित है।
इसी को बाउल 'सहज मानुष' अथवा सहज
स्वाभाविक और
स्वयं
प्रवर्तित
मनुष्य कहते
हैं।
यह सहज
मनुष्य ही
अथवा सच्चे
मनुष्य, सारभूत
मनुष्य और
परमात्मा तक
अथवा अपने ही
अंदर जाने का
मार्ग है। तुम
इसकी दिशा तय
नहीं कर सकते,
तुम केवल इस
क्षण को जी
सकते हो, जो
तुम्हें
उपलब्ध है।
जीने से ही
दिशा का जन्म
होता है। यदि
तुम नृत्य
करते हो, तो
अगला क्षण एक
गहन नृत्य
बनने जा रहा
है। वह नहीं, तुम जिसे तय
करते हो, बल्कि
इस क्षण तुम
केवल नृत्य
करते हो तुमने
एक दिशा सृजित
की है, तुम
उसे
नियंत्रित
नहीं कर रहे
हो। अगला क्षण
और भी अधिक
नृत्यपूर्ण
होगा फिर और अधिक
नृत्य उसका
अनुसरण करेगा।
लक्ष्य
मन के द्वारा
तय किया जाता
है। और दिशा
जीते हुए
अर्जित की
जाती है।
लक्ष्य
तर्कपूर्ण है:
कोई व्यक्ति
डॉक्टर बनना
चाहता है, कोई
व्यक्ति
इंजीनियर
बनना चाहता है,
कोई
व्यक्ति
वैज्ञानिक
अथवा
राजनीतिज्ञ
बनना चाहता है,
कोई
व्यक्ति धनी
अथवा
प्रसिद्ध
व्यक्ति बनना
चाहता है यह
सभी लक्ष्य है।
और दिशा? कोई
भी व्यक्ति इस
क्षण को गहरे
विश्वास के साथ
केवल जीता है।
जिसे जीवन ही
तय करेगा। कोई
भी व्यक्ति इस
क्षण को इतनी
समग्रता से जीता
है कि उसी
समग्रता से एक
नवीनता का
जन्म होता है।
इसी समग्रता
और पूर्णता
में अतीत
विसर्जित हो
जाता है और
भविष्य अपना
रूप लेना शुरू
कर देता है।
लेकिन यह रूप
तुम्हारे
द्वारा नहीं
दिया गया है, यह तुम्हारे
द्वारा
अर्जित किया
गया है।
झेन
सद्गुरु
रिन्झाई मर
रहा था, वह अपनी
मृत्यु
शैथ्या पर पड़ा
था। किसी
शिष्य ने उससे
पूछा—’‘ आदरणीय
सद्गुरु! आपके
जाने के बाद
लोग पूछेंगे
आपकी सारभूत
सिखावन क्या
थी? आपने
बहुत सी चीजें
कही हैं आपने
बहुत सी चीजों
के बाबत बात
की है, उन
सभी को सघन और
संक्षिप्त
करना हम लोगों
के लिए कठिन
होगा। आप अपना
शरीर छोड़ने से
पूर्व कृपया
स्वयं अपनी
सिखावन को
संक्षेप में
एक वाक्य में
बताने की कृपा
करें जिसे हम
लोग खजाना
बनाकर अपने
पास रख सकें।
और जहां कहीं
भी लोग, जो
आपको नहीं
जानते हैं
आपकी सिखावन
जानना चाहें
तो उन्हें हम
आपकी सारभूत
सिखावन दे
सकें।’’
रिन्झाई
ने मरते हुए
भी अपनी आंखें
खोलीं और सिंह
गर्जना जैसी
एक झेन चीख
निकली। वे सभी
स्तब्ध रह गए।
कैप गए। वे
लोग विश्वास
ही न कर सके,कि एक
मरते हुए
व्यक्ति में
भी इतनी अधिक
शक्ति और ऊर्जा
हो सकती है और
वे ऐसी आशा भी
नहीं कर रहे
थे। यह अनूठा
व्यक्ति सदा
से ऐसा ही था, उसके बारे
में निश्चय ही
कुछ भी नहीं
कहा जा सकता
था। लेकिन इस
शख्स के
अनिश्चित
व्यवहार के
बावजूद, वे
लोग किसी भी
तरह से यह
अपेक्षा नहीं
कर रहे थे कि
मरते हुए भी
अपने आखिरी
क्षण भी वह
सिंह जैसी
गर्जना भरी
चीख निकाल
सकते हैं। और
उसे सुनकर जब
उन्हें आघात
लगा तो वे
विस्मय विमूढ़
हो गए उनके मन
रुक गए तब
उन्हें वापस लाते
हुए रिन्झाई
ने कहा—’‘ यही
है वह।’’ यह
अंतिम शब्द
कहते हुए उसकी
आंखें मुंद गई
और वह मर गया।
यही है
वह......
यह
क्षण, यह
शांत और मौन
से आपूरित
क्षण यह क्षण
जो किसी भी
विचार से
प्रदूषित
नहीं है। पर
गहन मौन जो
चारों ओर
व्यास हो गया
था, वह
विस्मय, मृत्यु
पर आखिरी यह
सिंह गर्जना,
यही है वह।
हां, दिशा
मिलती है, इस
क्षण को जीने
से। राह कोई
ऐसी चीज नहीं
है, जिसकी
तुम व्यवस्था करते
हो। उसकी
योजना बनाते
हो। यह घटती
है, यह
बहुत सूक्ष्म
है। और तुम
इसके बारे में
कभी भी
निश्चित न हो
सकोगे, तुम
उसे केवल
महसूस कर सकते
हो। यही वजह
है कि मैं
कहता हूं कि
वह एक कविता
की भांति है, गद्य जैसी
नहीं, प्रेम
के समान अधिक
है कोई तर्क
नहीं, कला
जैसी अधिक है,
विज्ञान की
भांति नहीं।
वह अस्पष्ट है,
धुंधली है
और यही उसका
सौंदर्य है
इसमें एक झिझक
है। जैसे घास
की पत्ती पर
गिरते हुए ओस
झिझकती है, सुबह उगते
हुए सूरज की
किरणों का
स्पर्श पाकर वह
बस फिसल जाती
है।
दिशा
बहुत ही
सूक्ष्म, नाजुक और
आसानी से टूट
जाने वाली चीज
जैसी है। इसी
कारण
प्रत्येक
व्यक्ति
लक्ष्य का
चुनाव करता है।
माता—पिता, शिक्षक, संस्कृति,
धर्म और
सरकारें। यह
सभी तुम्हें
जीवन का एक
बंधा बंधाया
ढांचा देने का
प्रयास करते
हैं। वे नहीं
चाहते कि
तुम्हें
स्वतंत्र और
अकेला, अज्ञात
में भटकने के
लिए छोड़ दिया
जाए। लेकिन इस
तरह उन्होंने
बोरियत या ऊब
पैदा कर दी है
यदि तुम अपना
भविष्य पहले
से ही जानते हो
तो वह पहले ही
से उबाने वाला
बन गया। यदि
तुम जानते हो
कि ' तुम यह
बनने जा रहे
हो, ' तो वह
पहले ही से
उबा देता है।
कुरान
में मुहम्मद
जिस बहिश्त या
स्वर्ग की बात
कहते हैं, लेकिन
पहले ही से
उसकी
भविष्यवाणी
कर वे उसे एक
लक्ष्य या
मंजिल की
भांति बना
देते हैं, वह
पहले ही से
व्यर्थ लगने
लगता है।
बहिश्त शब्द
अथवा इसी का
समानार्थी
मुस्लिम शब्द
है—’‘ फिरदौस
'' यह दोनों
का एक ही मूल
है जिसका अर्थ
है—' चहारदीवारी
से घिरा एक
उद्यान ' और
परमात्मा की
चहारदीवारी
से घिरे
उद्यान में हर
चीज पहले से
व्यवस्थित
हैं, लगभग
प्रत्येक
वस्तु के
विवरण के साथ।
वहां बहते
चश्मे हैं, शराब के
चश्मे हैं और
लोग छायादार
वृक्षों के नीचे
बैठे हैं।
वास्तव में
मुहम्मद ने
जरूर ही
रेगिस्तान की गर्मी
को शिद्दत से
भुगता होगा।
वहां लोग
वृक्षों की
छाया तले अपनी
पत्नियों के
मजे उड़ा रहे
हैं। पत्नी के
साथ नहीं, पत्नियों
के साथ
क्योंकि
मुहम्मद की नौ
पत्नियां थीं।
इसके सिवा वे
और क्या कर
सकते हैं? वहां
बहते चश्मों
से शराब पियो,
वृक्षों की
छाया तले पडे
गद्दों पर
अपनी
पत्नियों के
साथ मजे करो, और इसके
सिवा करने को
कुछ है ही
नहीं।
लेकिन
तब यह सोचकर
वे परेशान हो
गए कि जब तुम मरोगे
तब तक
तुम्हारी
पत्नियां भी
बूढ़ी हो चुकी
होगी। इसलिए
अब क्या किया
जाए? इसके
लिए भी फिर
उन्होंने
प्रबंध किया।
जो भले लोग
हैं
जिन्होंने
अपना जीवन
धर्म के
अनुसार
व्यतीत किया
है, परमात्मा
उनकी
पत्नियों को
फिर से युवा
बना देगा।
इसलिए यह याद
रखें यदि तुम
भले आदमी नहीं
हो, तो
तुम्हें अपनी
की बीबी के
साथ ही रहना
होगा और तुम
उसके साथ
हमेशा के लिए
बंध जाओगे। और
नौकर भी होगे
वहां, जो
तुम्हारी
प्रत्येक इच्छा
को पूरा
करेंगे। बस
सोचा नहीं कि
वह इच्छा पूरी
हुई।
लेकिन
यह सभी कुछ
पहले से ही
बना बनाया और
निश्चित है कि
यह अर्थहीन हो
जाता है। इस
बारे में
हिंदू जैन और
बौद्धों ने
अधिक सूक्ष्मता
से सोचा है।
बौद्ध सबसे
अधिक गढ़ हैं।
वे निर्वाण के
बारे में अधिक
बात नहीं करते।
वे कहते हैं
प्रत्येक
व्यक्ति को
उसे जानना है, और उसे
जानने के लिए
उसमें होना
होगा, अन्य
कोई उपाय है
ही नहीं। वे
इसका वर्णन
नहीं करते। वे
उसका कोई
विवरण नहीं
देते, क्योंकि
विवरण खतरनाक
होंगे, सभी
शब्द एक
निश्चित अर्थ
देते हैं और
रहस्य समाप्त
हो जाता है।
भविष्य
एक दिशा होना
चाहिए लक्ष्य
नहीं। इसे
निर्वाण की
भांति ही अधिक
होना चाहिए।
जो शब्द बुद्ध
प्रयुक्त
करते हैं, उनका
अर्थ है कि वह
सब कुछ जो तुम
जानते हो, वहां
वैसा कुछ भी
नहीं होगा।
यही उनकी
निर्वाण की
परिभाषा
है: वह सभी कुछ
जिसे तुम
जानते हो, वहां
नहीं होगा। वह
सभी कुछ जिसका
तुमने अनुभव
किया है, वह
वहां नहीं
होगा। वह सब
कुछ मिलाकर जो
तुम हो, वह
भी वहां नहीं
होगा। कुछ चीज
पूरी तरह नई
होगी, कुछ
चीज ऐसी होगी।
जिसे तुम समझ
नहीं सकते, क्योंकि
तुम्हारे पास
समझने वाली वह
भाषा ही नहीं
है, तुम्हें
समझने का कोई
अनुभव ही नहीं
है। कुछ चीज
पूरी तरह से
एकदम नई—जिसके
बारे में बात
भी नहीं की जा
सकती।
निर्वाण एक
दिशा है।
फिरदौस और
स्वर्ग जिसकी
कल्पना
मुसलमानों और
ईसाइयों ने की
है—लक्ष्य या
मंजिलें हैं,
यह बात बहुत
स्पष्ट और साफ
है।
औसत
दर्जे का मन
साफ सुथरे
लक्ष्यों को
मांगता है, क्योंकि
वह इतना अधिक
असुरक्षित है
कि अपनी जानकारी
पर विश्वास
नहीं कर सकता
और न जीवन पर विश्वास
कर सकता है।
औसत मन को खोज
से बहुत डर
लगता है। और
खोज ही जीवन
का सबसे बड़ा
रहस्य है।
विस्मयविमूढ़
होने के लिए
पहले ही से
तैयार होने का
अर्थ है कि वह व्यक्ति
निर्दोष है, खोजने का
प्रयास कर रहा
है। और जीवन
कुछ ऐसा है कि
तुम खोजे ही
चले जाओ।
जितना अधिक
तुम खोजते हो,
उतना ही
अधिक जानते हो
कि अभी भी
खोजने को बहुत
कुछ और है। यह
कभी भी समाप्त
न होने वाली
प्रक्रिया है।
दिशा है यही, कभी भी
समाप्त न होने
वाली प्रक्रिया।
स्मरण रहे यह
एक प्रक्रिया
या कार्यविधि
है, एक
गतिशीलता है।
जब कि लक्ष्य
एक मृत चीज है।
लक्ष्य, अहंकार
के अधिकार में
होता है, और
दिशा होती है
जीवन और
अस्तित्व के
अधिकार में।
व्यक्ति को
संसार की दिशा
में गति करने
के लिए गहरे
विश्वास की
जरूरत होती है।
क्योंकि वह
व्यक्ति
असुरक्षा में
गतिशील हो रहा
है, वह
अंधकार में चल
रहा है। लेकिन
अंधकार में एक
रोमांच होता
है, तुम
बिना किसी नक्शो
के बिना किसी
पथप्रदर्शक
के अज्ञात में
जा रहे हो, हर
कदम ही एक नई
खोज है। और यह
खोज केवल बाहर
के संसार की
ही नहीं है।
इसके ही साथ—
साथ तुम कुछ
चीज अपने अंदर
भी खोज लेते
हो। एक खोजी
केवल वस्तुएं
ही नहीं खोजता।
जैसे वह अधिक
से अधिक
अनजाने संसार
खोजता है साथ
ही साथ वह
स्वयं अपने ही
अंदर खोजता चल
जाता है। उसकी
बाहर की
प्रत्येक खोज,
अंदर की भी
खोज होती है।
तुम जितना
अधिक जानते हो,
तुम उतना ही
अधिक जानने
वाले के बारे
में जानते हो।
तुम जितना
अधिक प्रेम
करते हो, उतना
ही अधिक तुम
प्रेमी के
बारे में
जानते हो।
मैं
तुम्हें कोई
लक्ष्य नहीं
देने जा रहा
हूं। मैं
तुम्हें केवल
दिशा दे सकता
हूं। जागृत, अनजानी, सदा विस्मित
करने वाली
जिसके बारे में
निश्चयपूर्ण
कुछ न कहा जा
सके ऐसी अनिशिचित
और जीव से
स्पन्दित।
मैं तुम्हें
कोई नक्शा
देने नहीं जा
रहा हूं मैं
तुम्हें केवल
खोजने के लिए
उत्कंठा और
उत्साह दे
सकता हूं। तब
मैं तुम्हें
अकेला छोड़
दूंगा। तब तुम
स्वयं अपनी
दिशा में आगे
बड़े। विराट और
अनंत में गतिशील
होकर धीमे—
धीमे उस पर
विश्वास करना
सीखो। अपने
आपको जीवन के
हाथों में छोड़
दो क्योंकि जीवन
ही परमात्मा
है। जब जीसस
कहते हैं—’‘ तेरा
ही साम्राज्य
आयेगा, तू
जो करेगा वही
होगा।’’ वह
यही कह रहे
हैं यदि
परमात्मा
मृत्यु भी लाता
है तो उससे भी
डरने की कोई
जरूरत नहीं है।
यह वही है जो
मृत्यु ला रहा
है, इसलिए
इसका कुछ कारण
होना जरूरी है,
उसमें कुछ
रहस्य छिपा
होना जरूरी है
और कुछ सिखावन
भी वहां जरूर
है। वह ही
अपने द्वार
खोल रहा है।
वह मनुष्य जो
विश्वास करता
है, वह
मनुष्य जो
धार्मिक है।
वह मृत्यु के
द्वार पर जाकर
भी पुलकित और
रोमांचित हो
उठता है। वह
वहां भी सिंह
की भांति दहाड़
सकता है। भले
ही वह मर रहा
हो—क्योंकि वह
जानता है यहां
कुछ भी नहीं
मरता है—मृत्यु
के अंतिम क्षण
भी वह कह सकता
है, ' वह यही
है।’ क्योंकि
प्रत्येक
क्षण, यह
वही है। वह
जीवन को सकता
है। वह मृत्यु
हो सकती है, वह सफलता हो
सकती है, वह
असफलता हो
सकती है, वह
प्रसन्नता हो
सकती है, वह
अप्रसन्नता
हो सकती है।
प्रत्येक
क्षण...... .यह वही
है।
यही है
वह जिसे मैं
सच्ची
प्रार्थना
कहता हूं। और
तब तुम्हें
दिशा मिलेगी।
तुम्हें उस
बारे में
फिक्र करने की
जरूरत ही नहीं, तुम्हें
तैयारी करने
की भी कोई
जरूरत नहीं तुम
श्रद्धापूर्वक
अपना कदम आगे
बढ़ा सकते हो।
दूसरा
प्रश्न :
प्यारे
ओशो! ऐसा
क्यों है कि
ग्रीक मंदिर
डेल्फी में
लगे
शिलालेख में
लिखा है— 'स्वयं को
जानो' और ' स्वयं को
प्रेम
करो' यह
नहीं लिखा?
यूनानी मन
जानकारी या
ज्ञान से
आवेशित है।
यूनानी मन
ज्ञान के
सम्बन्ध में
ही विचार करता
है, कैसे
जाना जाये।
यही कारण है
कि ग्रीस ने
दार्शनिकों, महान
विचारकों
तर्कशास्त्रियों
और महान विचारशील
मस्तिष्क
वाले
विद्वानों को
जन्म दिया।
लेकिन तीव्र
उत्कंठा है।
इस
संसार में
जैसा मैं देखता
हूं वहां दो
ही तरह के मन
हैं। यूनानी
और हिंदू मन।
यूनानी मन की
व्यग्रता है
जानने की और
हिंदू मन की
उत्कंठा है—होने
की। हिंदुओं
का उत्साह
जानने के बारे
में न होकर ' होने के '
सम्बन्ध
में है।’ सत
‘‘ अस्तित्वगत
‘‘ होने की ' ही पूरी खोज
है—मैं कौन
हूं इसे पूर्ण
ढंग से जानना
नहीं है। लेकिन
अपने ही
अस्तित्व में
डूबकर इसका
स्वाद लेना है,
जिससे कोई
भी ' होने
को ' उपलब्ध
हो सके—
क्योंकि वहां
वास्तव में
जानने का और
कोई रास्ता ही
नहीं है। यदि
तुम हिंदुओं
से पूछो तो वे
कहेंगे होने की
अपेक्षा
जानने का और
कोई दूसरा रास्ता
है ही नही।
तुम प्रेम को
कैसे जान सकते
हो? इसका
एक ही रास्ता
है। स्वयं
प्रेमी बनकर
अनुभव करो।
प्रेमी बनो और
तुम प्रेम को
जान जाओगे। और
यदि तुम अनुभव
से बाहर खड़े
केवल एक देखने
वाले की तरह
से जानने की
कोशिश कर रहे
हो तो तुम प्रेम
के बारे में
तो जान सकते
हो लेकिन
प्रेम को कभी
न जान सकोगे।
यूनानी
मन के द्वारा
ही पूरा
वैज्ञानिक
विकास हुआ है।
आधुनिक
विज्ञान
ग्रीक मन का
बाई प्रोडक्ट
है। आधुनिक
विज्ञान का
आग्रह
आवेगरहित
होने पर है, बाहर दूर
खड़े, बिना
किसी
पूर्वाग्रह
के निरीक्षण
करते रहे।
वस्तुगत और
अवैयक्तिक
बनो। यदि तुम
वैज्ञानिक
बनना चाहते हो
तो ये ही उसकी
मूल जरूरतें
हैं। अपनी
भावनाओं
द्वारा कोई भी
रंग मत दो, बिना
किसी
उद्देश्य के
तटस्थ बने रहो
और किसी भी
तरह किसी
कल्पना में
कोई रुचि मत
लो, और
केवल तथ्यों
की ओर ही देखो।
उनसे कोई
सम्बंध मत
जोड़ो और उनके
बाहर बने रहो।
उनके सहभागी
मत बनो। यही
है ग्रीक
उत्कंठा—जानने
के लिए एक
उद्वेगरहित
खोज।
इसने
सहायता की
लेकिन केवल एक
ही दिशा में
सहायता की; और वह
दिशा है
पदार्थ की।
किसी पदार्थ
को जानने का
यही एक तरीका
है। इस तरह से
तुम मन को कभी
भी न जान सकते,
केवल
पदार्थ को ही
जान सकते हो।
इस तरह से तुम
कभी भी चेतना
को नहीं जान
सकते। तुम
केवल बाहर ही
बाहर जान सकते
हो।
तुम
कभी भी अंदर
नहीं जान सकते, क्योंकि
अपने अंदर
जाते ही तुम
उससे सम्बन्धित
हो जाते हो।
उससे अलग बाहर
खड़े होने का
कोई रास्ता ही
नहीं है। तुम
पहले से ही
वहां हो। अंदर
तुम स्वयं हो
ही—तुम वहां
से बहार जा
कैसे सकते हो?
मैं एक
पत्थर, चट्टान
या एक नदी को
बिना किसी
भावावेग के
देख सकता हूं
क्योंकि मैं
उनसे अलग हूं।
मैं स्वयं
अपने आपको ही
भावरहित होकर
कैसे देख सकता
हूं? मैं
उससे
सम्बंधित हूं।
मैं उससे बाहर
नहीं हो सकता।
मैं स्वयं को
अस्तित्व से
घटाकर वस्तु
में नहीं बदल
सकता। मैं
विषय बना ही
रहूंगा। और
मैं विषय ही
बना रहूंगा
मैं चाहे कुछ
भी करूं, मैं
ही जानने वाला
ज्ञाता हूं
मैं वह नहीं
हूं जिसे जान
गया, अर्थात्
ज्ञेय।
इसलिए
यूनानी मन
धीमे— धीमे
पदार्थ की ओर
सरकता गया।
उसका
मूलमंत्र, जो
डेल्की मंदिर
के शिलालेख पर
खुदा है—’‘ स्वयं
को जानो, पूरी
वैज्ञानिक
प्रगति का
स्रोत बन गया।
लेकिन धीमे—
धीमे
आवेगरहित
होकर जानने का
विचार ही
पश्चिमी
मस्तिष्क को
उसके स्वयं के
अस्तित्व से
दूर ले गया।’’
हिंदू
मन, जो
संसार में
दूसरे तरह का
मन है—की दिशा
ही दूसरी है, वह दिशा है—' होने की ' उपनिषद
में सद्गुरु
उद्दालक ऋषि
अपने पुत्र और
शिष्य
श्वेतकेतु से
कहते हैं—’‘ तत्त्वमसि
श्वेतकेतु '' वह तू ही है।
वहां, ' वह
और तू ' में
कोई भी भेद
नहीं है। वही
तेरी
वास्तविकता
और सत्य है
उनमें कोई भी
भेद या अतर नहीं
है। यहां जैसे
तुम एक चट्टान
को जानते हो, वहां उसे
जानने की कोई
संभावना नहीं
है। जैसे तुम
दूसरी चीजों
को जानते हो, उस तरह वहां
उसे जानने की
कोई संभावना
ही नहीं है, तुम केवल
उसमें हो सकते
हो।
वास्तव
में डेल्की के
मंदिर पर यह
जरूर लिखा है—’‘ स्वयं को
जानो।’’ यह
यूनानी मन की
ही
अभिव्यक्ति
है क्योंकि वह
मंदिर यूनान
में है और
शिलालेख भी
यूनान का ही
है। यदि वह
मंदिर भारत
में हुआ होता
तो शिलालेख पर
लिखा होता—’‘ स्वयं वैसा
ही बनो।’’ क्योंकि
तू वही है।
हिंदू धीमे—
धीमे गति करता
हुआ स्वयं
अपने ही
अस्तित्व के
निकट से निकट
पहुंचता है
यही कारण है
कि वह अवैज्ञानिक
है। वह
धार्मिक बन
गया है लेकिन
अवैज्ञानिक
होकर, वह
अंर्तमुखी बन
गया है, लेकिन
तब उसने बाहर
के संसार रूपी
सागर में अपने
जीवन रूपी
जहाज के सारे
लंगर तोड़' दिए
हैं। हिंदू मन
अंदर से बहुत
समृद्ध बन गया
लेकिन बाहर वह
बहुत निर्धन
हो गया।
एक
बहुत बड़े
संश्लेषण की
या जुड्ने की
जरूरत है।
हिंदू और
यूनानी मन के
बीच एक
संश्लेषण
होना बहुत
जरूरी है।
यह
पृथ्वी के लिए
बहुत बड़ा
वरदान हो सकता
है। अब तक तो
यह संभव नहीं
हुआ, लेकिन
अब वहां
बुनियादी
आवश्यकताएं
और एक संश्लेषण
होना संभव है।
पूरब और
पश्चिम बहुत
सूक्ष्म रूप
से एक दूसरे
से मिल रहे
हैं। पूरब के
लोग विज्ञान
सीखने पश्चिम
जा रहे हैं, जिससे
वैज्ञानिक बन
सकें और
पश्चिम से
खोजी लोग पूरब
धर्म सीखने के
लिए आ रहे हैं।
एक दूसरे में
लीन होकर एक
महान मिश्रण
तैयार हो रहा
है।
भविष्य
में पूरब, पूरब ही
नहीं बना रह
जायेगा और
पश्चिम, पश्चिम
ही होने तक ही
सीमित रह जाने
वाला नहीं है।
पूरी पृथ्वी
एक
विश्वव्यापी
गांव बनने जा
रहा है। एक
ऐसा छोटा
स्थान जहां
सारे भेद मिट
जाएंगे। और तब
पहली बार एक
महान
संश्लेषण का
उदय होगा।
जैसा आज तक
कभी हुआ ही
नहीं, जो
अतियों के
बारे में नहीं
सोचेगा, जो
यह भी नहीं
सोचेगा कि यदि
तुम बाहर
ज्ञान की खोज
में गये तो
तुम अस्तित्व
में अपनी जड़ें
खो दोगे अथवा
यदि तुम स्वयं
की खोज में
अंदर गए तो
तुम संसार और
विज्ञान के
क्षेत्र में
अपनी जड़ें खो
दोगे। दोनों
ही साथ—साथ हो
सकते हैं, और
जब भी ऐसा
होगा। तो
मनुष्य के पास
दोनों पंख
होंगे, वह
आकाश में
जितनी ऊंचाई
तक उड़ना
सम्भव होगा
उड़ेगा।
अन्यथा
तुम्हारे पास
एक ही पंख है।
जैसा
मैं देखता हूं
कि हिंदू मन
जितना अधिक असुंलित
है, ग्रीक
मन भी उतना ही
अधिक
असंतुलित है।
दोनों ही
वास्तविकता
और सत्य के
आधा— आधा भाग
हैं। आधा धर्म
है और आधा
विज्ञान। कुछ
ऐसा होना
चाहिए जिससे
धर्म और
विज्ञान को
साथ—साथ लाकर
एक महान
पूर्णता को
जन्म दिया जा
सके जहां
विज्ञान धर्म
से इंकार न
करे और जहां
धर्म विज्ञान
की निंदा न
करें।
'' ऐसा
क्यों है कि
यूनान के
डेल्की मंदिर
में लगा
शिलालेख कहता
है।’ स्वयं
को जानो ' और
यह नहीं कहता
कि ' स्वयं '
को प्रेम
करो?''
स्वयं
को प्रेम करना
केवल तभी संभव
है, यदि
तुम स्वयं को
ही उपलब्ध हो
जाओ यदि—’‘ तू
' केवल ' वह
' हो जाए ' अन्यथा यह
संभव ही नहीं
है। अन्यथा
केवल यही
संभावना है कि
तुम यह जानने
का प्रयास
करते रहो कि
तुम कौन हो और वह
भी बाहर से, और बाहर से
यह निरीक्षण
करते रहो कि
तुम कौन हो।
एक वस्तुगत
मार्ग है वह
अंतर्यात्रा
में अंदर जाना
नहीं है।’’
यूनानी
मन ने एक
अद्भुत तीव्र
तार्किक
क्षमता
विकसित की।
अरस्तु इस
तर्क प्रणाली
और दर्शन का
जनक है। पूरब
का मन
तर्कसंगत
नहीं लगता, वह है भी
नहीं। ध्यान
पर जोर देना
अतर्कपूर्ण
लगता है क्योंकि
ध्यान कहता है
तुम केवल तभी
जान सकते हो, जब मन को
इशरा दो, जब
विचारों को भी
गिरा दो, और
तुम अपने ही
अस्तित्व में
इतनी समग्रता
से लीन हो जाओ
कि तुम्हारा
ध्यान हटाने
को वहां एक भी
विचार तक न हो
केवल तुम तभी
जान सकते हो।
और यूनानी मन
कहता है तुम
केवल तभी जान
सकते हो जब
विचार, प्रक्रिया,
स्पष्ट, तर्कपूर्ण
विवेकपूर्ण
और व्यवस्थित
हो। हिंदू मन
कहता है जब
विचार
प्रक्रिया
पूरी तरह
विसर्जित हो
जाती है, केवल
तभी वहां जानने
की कोई
संभावना होती
है। यह दोनों
पूरी तरह से
एक दूसरे से
विपरीत दो विरोधी
दिशाएं है।
लेकिन दोनों
के विश्लेषण
या जोड़ होने
की भी वहां
संभावना है।
एक
व्यक्ति
पदार्थ पर काम
करते हुए अपने
मन का प्रयोग
कर सकता है, तब तर्क
एक महान उपकरण
या माध्यम की
भांति होता है।
और वही
व्यक्ति मन को
एक ओर अलग
रखकर ध्यान की
ओर गतिशील
होता हुआ अमन
में गति करता
है। क्योंकि
तुम मन नहीं
हो और मन केवल
ठीक हाथों और
पैरों की तरह
एक यंत्र या
उपकरण है। यदि
मैं चलना
चाहूं तो
पैरों का मैं
प्रयोग करता
हूं और यदि
मैं न चलना
चाहूं तो उनका
प्रयोग नहीं
करता हूं। ठीक
इसी तरह से
तुम तर्क—वितर्क
करने में मन
का प्रयोग कर
सकते हो, यदि
तुम पदार्थ के
बारे में
जानने का
प्रयास कर रहे
हो। यह
पूर्णत: ठीक
भी है और वहां
यह जमता भी है।
और जब तुम
अंदर की ओर
गतिवान हो तो
मन को उठाकर अलग
रख दो। जब
चलना नहीं है
तो पैरों की
भी जरूरत नहीं
होती, इसी
तरह अब सोचने
की जरूरत नहीं
है तो मन की भी जरूरत
नहीं होती। अब
तुम्हें
निर्विचार की,
एक गहरी मौन
दशा की जरूरत
है।
और ऐसा
किसी व्यक्ति
में घट सकता
है और जब मैं इसकी
बात कर रहा
हूं तो अपने
अनुभव के आधार
पर ही कह रहा
हूं। मैं इन
दोनों को ही
करता रहा हूं।
जब जरूरत होती
है तब मैं
किसी यूनानी
की भांति ही
तर्कपूर्ण बन
सकता हूं। जब
इसकी जरूरत
नहीं होती तो
मैं किसी भी
हिंदू जैसा ही
तर्करहित और
असंगत भी बन
सकता है।
इसलिए जब मैं
जो कुछ कहता
हूं वही उसका
अर्थ भी होता
है, और
यह मात्र कोई
कल्पना की बात
नहीं है।
मैंने उस तरह
से उसका अनुभव
भी किया है।
मन का प्रयोग
भी किया जा
सकता है। और
उसे उठाकर अलग
भी रखा जा
सकता है। वह
एक यंत्र है, एक बहुत
खूबसूरत
उपकरण। उसके
साथ इतना अधिक
परेशान होने
की जरूरत नहीं
है, न उसके
साथ स्थाई रूप
से जुड़ जाने
की जरूरत है।
तब वह एक
बीमारी बन
जाती है। जरा
उस व्यक्ति के
बारे में
विचार करें जो
बैठना चाहता
है लेकिन बैठ
नहीं सकता, क्योंकि वह
कहता है—’‘ मेरे
पास तो पैर
हैं, मैं
कैसे बैठ सकता
हूं?'' अथवा
एक ऐसे
व्यक्ति के
बारे में
सोचें और जो शांत
और मौन होना
चाहता है, और
वह चुप और मौन
नहीं बैठ सकता
क्योंकि वह कहता
है : ' मेरे
पास तो मन है।’
यह भी उसी
तरह ही है।
मैं तुमसे
बातचीत कर रहा
हूं। मैं
तुम्हारे साथ
समस्याओं पर
चर्चा कर रहा
हूं यह तर्कपूर्ण
है, इसमें
मन का प्रयोग
किया जा रहा
है। और तभी
मैं तुमसे
कहता हूं मन को
गिरा दो, और
गहरे ध्यान
में चले जाओ।
यदि तुम नृत्य
कर रहे हो तो
इतनी समग्रता
से नृत्य करो
कि वहां
तुम्हारे
अंदर एक भी
विचार न रहे
और तुम्हारी
पूरी ऊर्जा
नृत्य ही बन
जाये। अथवा
गीत गाओ, तब
केवल गाना ही
बन जाओ। अथवा
बैठ जाओ तब
बैठना ही बन
जाओ। झाझेन
में बने रहो, अन्य कोई
दूसरा काम करो
ही मत। एक भी
विचार को
गुजरने की
अनुमति मत दो।
बस शांत, पूरी
तरह मौन हो
जाओ। ये
परस्पर
विरोधी चीजें
हैं।
हर
सुबह तुम
ध्यान करते हो, और
प्रत्येक
सुबह तुम मुझे
सुनने के लिए
आते हो।
प्रत्येक
सुबह मुझे
सुनते आते हो,
इसके बाद
तुम ध्यान
करने के लिए
जाते हो। यह
विरोधाभासी
है। यदि मैं
ठीक यूनानी मन
होता, तो
मैं तुमसे
बातचीत ही
करता, तुम्हारे
साथ एक
तर्कपूर्ण
संवाद
स्थापित करता,
लेकिन तब
मैं तुमसे
ध्यान करने के
लिए नहीं कहता।
वह मूर्खता
होती। यदि बस
मैं एक हिंदू
मन ही होता तब
वहां तुमसे
बातचीत करने
की कोई जरूरत
ही नहीं होती।
मैं कह सकता
था—' बस जाओ
और जाकर ध्यान
करो, क्योंकि
बात करने की
आवश्यकता
क्या है? प्रत्येक
व्यक्ति को
शांत और मौन
हो जाना चाहिए।
मैं दोनों एक
साथ हूं। और
यही मैं तुमसे
भी आशा करता
हूं। कि तुम
दोनों ही बनो
क्योंकि तब
जीवन बहुत
अधिक समृद्ध,
अत्यधिक
समृद्ध होगा।
तब तुम कुछ भी
खोओगे नहीं।
तब प्रत्येक
चीज तुम अपने
में अवशोषित
कर लोगे तब
तुम एक महान
आरकेस्ट्रा
बन जाओगे। तब
दोनों विपरीत
ध्रुव तुममें
आकर मिल जाएंगे।
यूनानियों
के लिए यह
विचार ही—’‘ स्वंय से
प्रेम करो।’’ असंगत होगा,
क्योंकि वे
कहेंगे और वे
तर्क देकर
कहेंगे कि प्रेम
तो दो
व्यक्तियों
के बीच होना
ही संभव है।
तुम किसी अन्य
व्यक्ति से
प्रेम कर सकते
हो, तुम
अपने शत्रु से
भी प्रेम कर
सकते हो, लेकिन
तुम स्वयं
अपने से ही
प्रेम कैसे कर
सकते हो? केवल
तुम ही वहां
हो अकेले।
प्रेम का
अस्तित्व तो
द्वैतता के
बीच दो विपरीत
ध्रुवों के
बीच हो सकता
है। तुम स्वयं
अपने ही से
प्रेम कैसे कर
सकते हो? केवल
तुम ही हो
वहां अकेला
प्रेम का
अस्तित्व तो
द्वैतता के
बीच दो विपरीत
ध्रुवों के
बीच हो सकता
है। तुम स्वयं
से प्रेम कैसे
कर सकते हो? यूनानी मन
के लिए स्वयं
से प्रेम करने
का विचार ही
व्यर्थ और
असंगत है।
प्रेम करने के
लिए दूसरा
होना आवश्यक
है।
और
हिंदू मन के
लिए......
उपनिषदों में
वे कहते हैं
तुम अपनी
पत्नी से प्रेम
करते हो, पर पत्नी
होने के कारण
नहीं, तुम
अपनी पत्नी को
केवल अपने
कारण ही प्रेम
करते हो। तुम
उसके द्वारा
स्वयं को ही
प्रेम करते हो,
क्योंकि वह
तुम्हें आनंद
देती है इसी
कारण तुम उसे
प्रेम करते हो,
लेकिन बहुत
गहरे में तुम
अपने आनंद को
ही प्रेम करते
हो। तुम अपने
पुत्र से
प्रेम करते हो,
तुम अपने
मित्र से
प्रेम करते हो,
लेकिन उनके
कारण नहीं
बल्कि तुम
अपने ही कारण बहुत
गहरे में
तुम्हारा
बेटा तुम्हें
प्रसन्नता
देता है, तुम्हारा
मित्र
तुम्हें सकून
देता है। यही
है वह जिसकी
तुम्हें
लालसा थी।
इसलिए उपनिषद
कहते हैं
वास्तव में
तुम स्वयं से
ही प्रेम करते
हो। तुम भले
ही यह कहो कि
तुम दूसरों से
प्रेम करते हो,
वह केवल
मात्र
तुम्हारा
स्वयं से
प्रेम करने का
एक माध्यम
मात्र है, स्वयं
से ही प्रेम
करने का वह एक
घुमाव भरा लंबा
रास्ता है।
हिंदू
कहते हैं कि
वहा कोई दूसरी
अन्य संभावना
है ही नहीं, तुम केवल
स्वयं को ही
प्रेम कर सकते
हो। और यूनानी
कहते हैं कि
स्वयं को ही
प्रेम करने की
कोई संभावना
है ही नहीं, क्योंकि कम
से कम प्रेम
करने के लिए
दो की जरूरत
है। यदि तुम
मुझसे पूछो तो
मैं हिंदू और
यूनानी दोनों
एक साथ हूं।
यदि तुम मुझसे
पूछो तो मैं
कहूंगा प्रेम
असंगत है।
प्रेम बहुत ही
विरोधाभासी
घटना है। उसे कम
करके एक ही
ध्रुव तक लाने
की कोशिश मत
करो, उसके
लिए दोनों
ध्रुवों की
आवश्यकता है।
दूसरा तो
जरूरी है ही, लेकिन गहरे
प्रेम में
दूसरा बचता ही
नहीं। यदि तुम
दो प्रेमियों
को देखो, तो
वे दो हैं और
एक साथ मिलकर
एक हैं। यही प्रेम
का विरोधाभास
और यही इसका
सौंदर्य भी है।
वे दो हैं।
हां! वे दो हैं :
और फिर भी वे
दो नहीं है, वे एक ही हैं।
यदि यह ईकाई
होना या
अद्वैत नहीं
घटा, तब
प्रेम करना
व्यर्थ है। वे
लोग प्रेम के
नाम पर कुछ और
ही कर रहे हैं।
यदि वे अभी भी
दो हैं और
इसके ही साथ एक
नहीं हुए तब
उनके बीच
प्रेम घटा ही
नहीं। और यदि
तुम केवल
अकेले हो और
वहां कोई अन्य
दूसरा नहीं है,
तब भी प्रेम
होना संभव
नहीं है।
प्रेम एक
विरोधाभासी
घटना है। पहले
स्थान पर दो
की जरूरत होती
है और अंतिम स्थान
पर उसे दो की
जरूरत तो होती
है, एक
बनकर रहने के
लिए। यह सबसे
बड़ी पहेली है,
यही सबसे
बड़ी उलझन है।
यदि
तुमने किसी से
भी प्रेम किया
है, तो
जो मेरे कहने
का अर्थ है, उसे तुम भली
भांति समझ
जाओगे। तुम
जानते हो कि
दूसरा दूसरा
ही होता है, लेकिन फिर
भी अपनी बहुत
गहराई में तुम
यह अनुभव करते
हो कहीं उसके
साथ एक सेतु
बन गया है। यह
ऐसा ही जैसे
मानो सागर में
यात्रा करते
हुए तुम किसी
द्वीप के निकट
से गुजरो। वह
है महाद्वीप
से अलग, लेकिन
बहुत गहरे में
वह है समुद्र
तल के नीचे ही,
भूमि एक ही
है। वह
महाद्वीप से
जुड़ा हुआ है
वह वास्तव में
पृथक नहीं है।
वह अलग होते
हुए भी अलग नहीं
है, यह जो
प्रेम है, वह
भी ऐसा ही
होता है।
इसलिए यदि तुम
मुझसे पूछते
हो तो मैं यही
कहूंगा कि
तुम्हारे लिए
स्वयं से
प्रेम करना
संभव है, लेकिन
तब तुम्हें
अपने को दो
भागों में
विभाजित करना
होगा। तब
तुम्हें
प्रेमी और
प्रेमिका
दोनों एक साथ बनना
होगा। और यह
भी संभव है कि
तुम किसी
दूसरे अन्य से
प्रेम करते हो।
लेकिन तब
तुम्हें दो से
एक बनना होगा।
प्रेम कुछ ऐसी
चीज है, जो
दो
व्यक्तियों
के बीच ही
घटता है, लेकिन
जब वह घटता है,
तो वे अधिक
समय तक दो
नहीं रह पाते,
एक ही हो
जाते हैं।
तीसरा
प्रश्न :
प्यारे
ओशो! फिर वही
सुबह फिर वही
शाम, सब
कुछ फिर वही
बार— बार पीछा
कर रहा है
जैसे! वही
होशपूर्ण
होने के विचार
होशपूर्ण
होने की फिर
वही बातें फिर
वही बार— बार
वही वही....?
यह निर्भर
करता है।
एक तरह
से यह वैसा ही
है सब कुछ। वह
अन्यथा हो भी
कैसे सकता है?
वही
सूरज, वही
सूर्योदय हर
सुबह होता है।
और वही
सूर्यास्त, हां—लेकिन
यदि तुम बहुत
निकट से
निरीक्षण करो,
तो क्या
तुमने दो
सूर्योदय ठीक
एक जैसे देखे
हैं? क्या
तुमने आकाश के
रंगों को देखा
है? क्या
तुमने सूरज के
चारों ओर
बादलों का
बनना देखा है?
दो
सूर्योदय एक
जैसे नहीं
होते, दो
सूर्यास्त भी
एक जैसे नहीं
होते यह संसार
रुक—रुक कर
चलती हुई
निरंतरता है—रुक—रुक
कर चलती हुई, क्योंकि
प्रत्येक
क्षण कुछ न
कुछ नया घट
रहा है और फिर
भी निरंतरता
बनी हुई है।
क्योंकि वह
पूरी तरह से
नया नहीं है।
वह जुड़ा हुआ
है। इसलिए
दोनों कथन ठीक
है। यहां एक
कहावत कही
जाती है। कि
इस सूरज के
नीचे कुछ भी
नया नहीं है, और एक दूसरी
कहावत भी कही
जाती है, जो
ठीक इसके
विपरीत है—यहां
सूरज के तले
कुछ भी पुराना
नहीं है। यह
दोनों ही सत्य
है।
कुछ भी
न तो नया है और
न कुछ भी
पुराना है।
प्रत्येक चीज
बदल रही है और
फिर भी किसी न
किसी तरह वह
वही रहती है, किसी तरह
वही रहती है, और फिर भी
बदले जा रही
है। यही इसका
सौंदर्य है, यही इसकी
गढ़ता और यही
इसका रहस्य है।
तुम इसे कम
करके कोई
श्रेणी नहीं
बना सकते। तुम
यह नहीं कह
सकते; कि
यह वैसी ही है,
तुम यह भी
नहीं कह सकते
कि यह वैसी
नहीं है। तुम
जीवन को घटाकर
उसके संवर्ग
नहीं बना सकते।
तुम्हारे ये
कबूतरों जैसे
दड़बे बस
निर्मूल्य
हैं। जब ये
जीवन के निकट
आते हैं तो
तुम्हें इन
कबूतर के
दड़बों, सभी
संवर्गों और
श्रेणियों को
छोड़ देना पड़ता
है। यह
तुम्हारे
संवर्गों की
अपेक्षा कहीं अधिक
विशाल है, यह
सभी
श्रेणियों के
पार है। यह
इतना अधिक
विराट है कि
तुम इसका
प्रारंभ और
अंत नहीं खोज
सकते।
प्रश्नकर्त्ता
कहते हैं—’‘ फिर वही
सुबह फिर वही
शाम। सब कुछ
फिर वही बार—बार
जैसे पीछा कर
रहा है। वही
होशपूर्ण
होने के विचार,
होशपूर्ण
होने की फिर
वही बातें।
फिर वही, बार—बार
नहीं...... .नहीं.......।’’
हां, एक तरह से
यह वही है, और
दूसरी तरह से
कुछ भी वैसा
नहीं है। मैं
कल भी यहां था,
लेकिन मैं
आज ठीक वैसा
ही नहीं हूं।
मैं हो भी
कैसे सकता हूं?
इस बीच गंगा
जी में बहुत
पानी बह गया।
आज मैं चौबीस
घंटे पुराना हूं
चौबीस घंटों
का अनुभव
मुझमें और जुड़
गया है। चौबीस
घंटों की सघन
सजगता और जुड़
गई है। मैं अब
अधिक समृद्ध
हूं। मैं अब
कल जैसा ही
नहीं हू।
मृत्यु कुछ और
निकट आ गई है।
तुम भी ठीक वह
नहीं हो, और
यद्यपि मैं भी
वैसा ही दिखाई
देता हूं और तुम
भी वैसा ही
दिखाई देते हो।
तुम्हें
वह आवश्यक बात
देखनी है।
मेरे कहने का
यही अर्थ है
जब मैं कहता हूं
कि जीवन एक
रहस्य है, तुम इसका
विभाजन कर इसे
श्रेणीबद्ध
नहीं कर सकते,
तुम
निश्चित रूप
से यह नहीं कह
सकते कि यह
वैसा ही है।
जिस क्षण तुम
यह कहते हो, तुरंत ही
तुम सजग हो
जाओगे कि जीवन
ने तुम्हें
झूठा बना दिया।
क्या
ये वृक्ष वैसे
ही हैं जैसे
कल थे? बहुत
से पुराने
पत्ते झड़ गए।
बहुत से नए
पत्ते निकल आए
बहुत से फूल
झड़ गए। वे और
ऊंचे हो गए।
वे ठीक वैसे
ही हो कैसे
सकते हैं? जरा
देखो आज उस पर
बैठी कोयल गीत
नहीं गा रही है।
आज कितनी
खामोशी है। कल
कोयल गीत गा
रही थी। वह
दूसरी तरह का
मौन था, वह
गीतों से भरा
हुआ था। आज की
खामोशी अलग
तरह की है, वह
गीतों से
आपूरित नहीं
है। आज हवा भी
नहीं चल रही
है। जैसे हर
चीज रुक सी गई
है। कल बहुत
तेज हवा चल
रही थी। आज
वृक्ष ध्यान
कर रहे हैं कल
वे नृत्य कर
रहे थे। यह सब
कुछ वैसा ही
नहीं हो सकता
और फिर भी वह
वैसा ही है।
यह तुम
पर निर्भर
करता है। तुम
जीवन को किस
तरह से देखते
हो। यदि तुम
यों देखते हो
जैसे मानो वह
वैसा ही है तो
तुम ऊब जाओगे।
तब अपनी
जिम्मेदारी
दूसरों पर मत
फेंको। यह
तुम्हारा ही
दृष्टिकोण है।
यदि तुम कहते
हो कि वह वैसा
ही है तब तुम
ऊब जाओगे। तुम
उसमें निरंतर
होते
परिवर्तन को
एक बाढ़ की तरह, अपने
चारों ओर तेजी
से घूमती हवा
के चक्रवात की
तरह और जीवन
की सक्रियता
के साथ देख
सको, जिसमें
प्रत्येक
क्षण पुराना
होकर विलुप्त हो
रहा है और
नूतन क्षण आ
रहा है।
यदि
तुम निरंतर
कुछ नया जन्म
लेते देख सको, यदि तुम
निरंतर सृजित
करते हुए
परमात्मा के हाथों
को देख सको, तब तुम
आनंदित और
रोमांचित हो
जाओगे।
तुम्हारे
जीवन में ऊब
नहीं होगी।
तुम निरंतर
विस्मय विभोर
रहोगे— अब आगे
क्या......? तुम
बुझे—बुझे
नहीं रहोगे। तुम्हारी
बुद्धि
तीक्ष्ण, जीवंत
और युवा बनी
रहेगी।
अब यह
तुम पर निर्भर
करता है कि
तुम क्या चाहते
हो। यदि तुम
एक मृत
व्यक्ति की
भांति, मूर्ख, जड़
बुद्धि दुखी
और बोर बनना
चाहते हो, तब
तुम विश्वास
करो कि यह
जीवन और
अस्तित्व वैसा
ही है। यदि
तुम युवा, जीवंत,
नूतन और
दीप्तिवान
बनना चाहते हो
तब विश्वास
करो जीवन
प्रतिक्षण
नया और ताजा
है।
हेराक्लाईटस
की एक पुरानी
उक्ति है—’‘ तुम
उसी नदी के जल
में दोबारा
कदम नहीं रख
सकते।’’ तुम
दोबारा उसी
व्यक्ति से
नहीं मिल सकते,
तुम वही
वैसा ही
सूर्योदय
दुबारा नहीं
देख सकते। यह
तुम्हारे ऊपर
निर्भर है। और
यदि तुम मुझे
समझ सकते हो
तो मैं कहूंगा।
चुनाव मत करो।
यदि तुम यह
विचार चुनते
हो कि हर
वस्तु पुरानी
है तो तुम
बूढ़े बन जाते
हो। यदि तुम
यह चुनते हो
कि प्रत्येक वस्तु
युवा और नवीन
है तो तुम
युवा बन जाते
हो। यदि तुम
मुझे समझ सकते
हो तो मैं
कहता हूं
चुनाव करो ही
मत; देखो, वे दोनों ही
सत्य है। तब
तुम भी
श्रेणियों का
अतिक्रमण कर
जाते हो। तुम
न वृद्ध हो और
न युवा। तब
तुम शाश्वत बन
जाते हो, तब
तुम परमात्मा
जैसे ही हो
जाते हो।
मैंने
एक वृत्तांत
सुना है:
न्यूयार्क
या वस्तुत:
ब्रुकलिन में
न्यायाधीश
दूने कचहरी में
अपनी कुर्सी
पर बैठा हुआ
था, तभी
एक बहुत बहुत
मूर्ख गवाह से
प्रश्न पूछे जा
रहे थे।
सरकारी
वकील ने उससे
प्रश्न किया—’‘ क्या तुम
दुर्घटना के
दिन फोर्थ और
एल्म के कोने
में खड़े हुए
थे?''
गवाह
ने कहा—’‘ कौन?
क्या मैं?''
सरकारी
वकील ने कहा—’‘ हां तुम
क्या तुमने उस
वक्त यह बात
नोट नहीं की
कि घायल महिला
की देखभाल के
लिए वहां एम्बुलेंस
आई या नहीं?''
''कौन?
क्या मैं?''
'' हां
तुम। क्या
तुमने यह नोट
नहीं किया था
कि वह महिला
बुरी तरह घायल
थी। थी या
नहीं?''
'' कौन?
क्या मैं?''
इस बीच
सरकारी वकील
बहुत अधिक
क्रोध से भर
उठा। उसने
झुंझला कर कहा—’‘ निश्चित
रूप से तुम!
तुम यह क्यों
सोच रहे हो कि
तुम यहां हो।’’
गवाह
ने कहा—’‘ मैं यहां
इसलिए आया
जिससे न्याय
होता देख सकूं।’’
जज दूने ने
कहा—’‘ कौन? क्या मैं
मुझसे?''
यदि तुम
यह विश्वास
करते हो कि हर
चीज वैसी ही
है। तब हर चीज
थिर और अडिग
होगी—कौन? क्या
मुझसे? और
तुम ऊबने जा
रहे हो। बार—बार
दोहराना
तुम्हें मार
ही देगा। तीक्ष्ण
और जीवंत बनने
के लिए एक
व्यक्ति को
कुछ ऐसी चीज
की जरूरत है
जिसकी
पुनरावृत्ति
न हो। कुछ नया
हो, निरंतर
घट रहा हो, तुम्हें
जीवंत बना रहा
हो, और
तुम्हें
जीवंत तथा सजग
रख रहा हो।
क्या
तुमने किसी
कुत्ते को
खामोशी से
बैठे हुए देखा
है? एक
चट्टान भी यदि
उसके सामने
पड़ी हो तो वह
फिक्र नहीं
करता। लेकिन
चट्टान को
हिलाना शुरू
करो। बस एक
रस्सी से उसे
बांध दो और
उसे खींचो और
कुत्ता उछल
पड़ेगा। वह
भौंकना शुरू
कर देगा। गति
उसे तीक्ष्ण
बनाती है। तब
सारी सुस्ती
चली जाती है।
तब वह और अधिक
समय तक सोया—सोया
नहीं रहता। तब
वह और अधिक समय तक
मक्खियों और
दूसरी चीजों
का स्वप्न नहीं
देखता रहता।
तब वह बस अपनी
नींद से उछलकर
बाहर आ जाता
है। किसी चीज
ने उसे बदल
दिया।
परिवर्तन
तुम्हें गति
प्रदान करता
है, लेकिन
निरंतर
परिवर्तन भी
तुम्हें
समाप्त कर
सकता है। जैसे
बिना बदली हुई
थिर स्थिति
जड़ता उत्पन्न करती
है, वैसे
ही निरंतर
परिवर्तन भी
जड़ों से
उखाडने वाला
हो सकता है।
पश्चिम
में ऐसा ही हो
रहा है, लोग बदल रहे
हैं।
सांख्यिकी के
जानकार बताते
हैं कि
अमेरिका में
एक व्यक्ति की
किसी भी कार्य
को करने की औसत
अवधि तीन वर्ष
है। लोग अपनी
नौकरी और धंधे
बदल देते हैं,
शहर बदल
लेते हैं, अपना
पति या अपनी
पत्नी बदल
लेते हैं, प्रत्येक
वर्ष अपना घर
और अपनी कार
बदल लेते हैं,
वे
प्रत्येक चीज
बदलने की
कोशिश करते
हैं। उनके सभी
मूल्य ही बदल
गए हैं।
इंग्लैंड में
वे रोल्सरॉयस
कार बनाते हैं।
उनका विचार है
कि उसे ऐसा
बनाओ जिससे वह
हमेशा चलती ही
रहे, कम से
कम जीवन
पर्यन्त तो
चले। अमेरिका
में वे सुंदर
कारें तो बनाते
हैं, उनके
टिकाऊपन के
गुण के बारे
में कोई भी
फिक्र नहीं
करते, क्योंकि
एक ही कार को
जीवन पर्यन्त
कौन अपने पास
रखने जा रहा
है? यदि वह
एक साल भी चल
जाये तो काफी
है। जब
अमेरिकन कार
खरीदने जाता
है तो वह उसके
टिकाऊपन के
बारे में
परेशान नहीं
होता। वह
उसमें परिवर्तन
करने के बारे
में सोचता हैं।
अंग्रेज अभी
भी उसकी
मजबूती और
टिकाऊपन के बारे
में पूछते हैं
कि कार काफी
टिकाऊ है या
नहीं, क्योंकि
वह उसे एक बार
ही खरीदता है
और बात खत्म
हो गई। वह
बहुत पुरानी
फैशन का है।
वह किसी भी
तलाक के बारे
में भी नहीं
जानता, और
ऐसा ही कार के
भी साथ है। एक
बार शादी कर
ली सो कर ली।
कार के भी साथ
वह यही करता
है। वह बहुत
ईमानदार है।
पर एक अमेरिकन
परिवर्तन के
संसार में
जीता है वह हर
चीज बदल रहा
है। लेकिन तब
अमेरिकन ने
अपनी जड़ें खो
दी हैं।
अपने
पुराने कस्वे
में जहां मैं
कभी—कभी जाया
करता था और
मैं देखकर
आश्चर्यचकित
हो जाता था।
हर चीज वहीं
की वहीं ठहरी
मिलती थी।
स्टेशन पर
मुझे लेने वही
पुराना कुली
होता था, क्योंकि
केवल एक ही
कुली था
स्टेशन पर, और वही
पुराना तांगा
वही सड़क, और
मुझे चारों ओर
घूमते—फिरते
वही लोग दिखाई
देते थे। लगभग
हर चीज वहां
ज्यों की
त्यों दिखाई
देती थी। कभी—कभार
कोई मर जाता
था। और कभी—कभार
कोई नया जन्म
ले लेता था
अन्यथा हर चीज
लगभग जैसी बनी
रहती थी। और
जब लोग मर भी
जाते थे तो
उनका स्थान
उनके पुत्र तो
लेते थे और वे
भी लगभग वैसे
ही दिखाई देते
थे। कुछ भी तो
नहीं बदलता, वही घर थे, वही गप्पें
थीं। ऐसा लगता
था कि जैसे
समय थम गया है।
कस्वे
में वापस जाकर
मैं हमेशा
आश्चर्य में पड़
जाता था। पहली
चीज मुझे यही
दिखाई देती थी, कि उस
कस्वे में
जैसे समय का
कोई अस्तित्व
है ही नहीं।
प्रत्येक
वस्तु शाश्वत
रूप से वैसी
की वैसी ही
दिखाई देती थी।
लेकिन तब वहां
के लोगों की
अपनी जड़ें थी।
वे बुझे—बुझे
से ही लगते थे
लेकिन अपनी
जड़ों से गहरे
जुड़े थे। वे
बहुत प्रसन्न
और बहुत आराम
से थे। वे
विदेशी जैसे
तो नहीं लगते
थे। उन्हें
देख अजनबीपन
का अहसास नहीं
होता था। उनके
अजनबी होने का
अनुभव हो कैसे
सकता था? प्रत्येक
चीज इतनी समान
जो थी। जब वे
पैदा हुए थे, तब वे वैसे
ही थे। जब वे
मर जाएंगे तब
भी वैसे ही
रहेंगे।
प्रत्येक चीज
में जैसे एक
स्थायित्व था।
तुम अजनबी
होने का अनुभव
कैसे कर सकते
हो? पूरा
कस्बा एक छोटे
परिवार की
भांति था।
अमेरिका
में प्रत्येक
चीज जड़ों से
उखड़ी हुई है।
कोई भी नहीं
जानता कि कहां
का रहने वाला
है। कहीं के
होने का बोध
ही जाता रहा
है। यदि तुम
किसी भी
व्यक्ति से
पूछो—’‘ तुम
कहां के रहने
वाले हो?'' तो
वह अपने कंधे
उचका देगा
क्योंकि वह
अधिक शहरों
में रह चुका
है, बहुत
से कॉलेज और बहुत
से विश्व
विद्यालयों
में पढ़ चुका
है। वह
निश्चित रूप
से कुछ भी
नहीं कह सकता
क्योंकि उसकी
पहचान बहुत
तरल और ढीली
है। एक तरह से
यह अच्छा भी
है क्योंकि
मनुष्य तेज तीक्ष्मा
और जीवंत बना
रहता है।
लेकिन अपनी
जड़ें खो देता
है।
स्वयं, दृढ़ता से
थिर रहने और
जड़ों से उखड़ने
दोनों ही
चीजों को ही
आजमा चुका हूं।
सूरज तले कुछ
भी नया नहीं
है। हमने कई
सदियों तक
अतीत में इसे
आजमाया है।
इसने मनुष्य
के मनों में
जंग लगा दी है।
लोग चिंता
मुक्त तो हो
गए लेकिन अधिक
जीवंत नहीं
रहे।
तब
अमेरिका में
कुछ नई चीज
हुई और पूरे
विश्व भर में
फैल गई।
क्योंकि
अमेरिका ही
संसार का
भविष्य है।
वहां जो कुछ
भी होता है, वह देर—सवेर
हर जगह होने
लगता है।
अमेरिका ही
रुख तय करता
है। अब लोग
बहुत ही जीवंत
है, लेकिन
अपनी जड़ों से
उखड़े हुए हैं,
वे यह भी
नहीं जानते कि
वे कहां के
रहने वाले हैं?
कहीं
के होने की एक
बहुत बड़ी
आकांक्षा जाग
उठी है। इस
बड़ी कामना को
कहीं अपनी
जड़ें जमाना है, किसी
व्यक्ति को
अपने अधिकार
में लेना है
और किसी अन्य
व्यक्ति के
अधिकार में
रहना भी है, कोई ऐसी चीज
जो टिकाऊ हो, कोई ऐसी चीज
जिसमें
स्थायित्व हो,
कुछ चीज
केंद्र जैसी
थिर हो—क्योंकि
लोग पहियों की
तरह घूम रहे
हैं, और
वहां विश्राम
जैसी कोई चीज
दिखाई नहीं
देती। निरंतर
बदलते और
बदलते रहने से,
वहा निरंतर
एक बहुत बड़ा
तनाव है। और
इस परिवर्तन
की गति दिन
प्रतिदिन
बढ़ती जा रही
है, और तेज
और तेज होती
जा रही है।
अब वे
कहते हैं कि
बहुत बड़ी और
मोटी
पुस्तकें
नहीं लिखी
जानी चाहिए
क्योंकि जब तक
वह बड़ी पुस्तक
लिखी जाती है
वह समय के
बाहर हो जाती
है।
जानकारियां
बड़ी तेजी से
बदल रही हैं।
इसलिए केवल
छोटी छोटी
पुस्तिकाएं
ही लिखा जाना
उचित है।
जिससे वे
जानकारियां
बदलने से पहले
ही लोगों तक
पहुंच जायें।
अन्यथा इससे
पहले कि वे
बाजार तक
पहुंचें, वे पुस्तकें
समय के बाहर, व्यर्थ और
कूड़ा बन जाती
हैं।
प्रत्येक
वस्तु इतने
अधिक बड़े
परिवर्तन, कोलाहल
और अव्यवस्था
की स्थिति में
है, कि मनुष्य
बहुत गहराई से
तनाव का अनुभव
कर रहा है, वह
बहुत थकावट और
तनाव में है।
दोनों
के ही अपने
लाभ हैं और
दोनों के अपने
अभिशाप भी हैं।
मेरी दृष्टि
में इन दो अलग—
अलग दिशाओं
में जाने वाली
इन दोनों
चीजों का एक
संश्लेषण
बनना चाहिए।
प्रत्येक
व्यक्ति को
सजग होना
चाहिए कि जीवन
दोनों ही
पुराना और नया
साथ—साथ है, वह एक ही
समय होने वाला
है—वह पुराना
है, क्योंकि
पूरा अतीत
वर्तमान क्षण
में उपस्थित
है; वह नया
है क्योंकि
पूरा भविष्य
इस वर्तमान क्षण
में पूरी
संभावनाओं के
साथ उपस्थित
है। यह
वर्तमान क्षण
पूरे अतीत को
चरम सीमा और
पूरे भविष्य
का प्रारंभ है।
इस क्षण में
वह सभी कुछ
छिपा है जो
पहले घट चुका
है और वह भी
छिपा है जो
भविष्य में
घटने जा रहा
है। प्रत्येक
क्षण, अतीत
और भविष्य
दोनों एक साथ
है। यह अतीत
और भविष्य का
एक बिंदु पर
मिलन है।
इसलिए कुछ चीज
नई है और कुछ
चीज पुरानी और
यदि तुम दोनों
के प्रति साथ——
साथ सजग रह
सको तो तुम
जीवंतता और
प्रखरता के
साथ, जड़ों
से भी जुड़े रह
सकते हो। तुम
बिना किसी
तनाव के
विश्राममय
रहोगे। तुम
बुझे—बुझे से
न बने रहकर
बहुत सजग और
सचेत रहोगे।
मैने
सुना है:
दोपहर
बाद जब
श्रीमती
मैकमोहन अपनी
रसोईघर में
गईं, तो
उन्होंने
वहां रखी
प्रत्येक
प्लेट और प्याले
तोड दिए और
प्राय _ उनका
साफ सुथरा
बिना धब्बों
के रहने वाला
रसोईघर
बेढंगा कबाड बन
गया। पुलिस
वहां पहुंची
और उन्हें शहर
के मानसिक चिकित्सालय
में ले गई।
मुख्य
मनोचिकित्सक
ने उनके पति
को बुलाकर उनसे
संकोच के साथ
पूछा—’‘ क्या
आप जानते हैं
कि वजह क्या
थी? आपकी
पत्नी का
अचानक दिमाग
खराब क्यों हो
गया?''
मि.
मैकमेहन ने
उत्तर दिया—’‘ जितना
आश्चर्य आपको
है, उतना
मुझे भी है।
मैं कल्पना भी
नहीं कर सकता
कि उन्हें हो
क्या गया है? वह हमेशा से
बहुत शांत और
परिश्रम से
काम करने वाली
महिला रही है,
और जाने
क्यों बीस वर्षों
से वे कभी
रसोई घर से
बाहर ही नहीं
निकलीं।’’
तब कोई
भी व्यक्ति
पागल हो सकता
है। यह बहुत
साधारण सा दो
और दो जोड़ कर
चार होने का मामला
है। यदि कोई
स्त्री बीस
वर्षों में
रसोई घर से बाहर
ही नहीं आई, तो यह
पागलपन के लिए
काफी है।
लेकिन विपरीत
स्थिति हमेशा
पागल बनाती है।
यदि तुम बीस
वर्षों में
कभी भी अपने
घर नहीं गए और
बस एक आवारा
बन गए हमेशा
आते रहे लेकिन
कभी भी किसी
मंजिल पर नहीं
पहुंचे, हमेशा
इधर—उधर भटकते
रहे और पहुंचे
कही भी नहीं, यदि तुम एक
घुमक्कड़
जिप्सी बन जाओ
और तुम्हारा
कोई भी घर न हो,
तब तुम भी पागल
हो जाओगे।
दोनों को अलग—
अलग लेना
खतरनाक है।
दोनों को यदि
साथ लिया जाए
तो वे जीवन को
बहुत समृद्ध
बनाते हैं। दो
विपरीत ध्रुव
जीवन को
समृद्ध बनाते
हैं। यिन और
यांग, पुरुष
और स्त्री, अंधेरा और
प्रकाश, जीवन
और मृत्यु
परमात्मा और
शैतान, संत
और पापी यह
दोनों जीवन के
दो छोर हैं।
सभी छोरों को
एक साथ लेकर
चलने से ही
जीवन धनी होता
है। अन्यथा
जीवन नीरस बन
जाता है।
नीरस
और थकाने वाली
जीवन शैली मत
चुनो। समृद्ध
बनो।
चौथा
प्रश्न :
प्यारे
ओशो! प्रत्येक
शिविर के बाद
मेरे अंदर
गहरार्ड़
में एक निराशा
और बेचैनी
जैसी रह जाती
है? जैसे
मानो
मैं
कुछ घटने की
प्रतीक्षा कर
रहा था, जो कभी घटती
नही?
और मैं
स्वयं अपने आप
से कहता हूं '' हीरा!
तुम उसी नाव
में
फिर से
वापस आ गए इस
पर टिप्पणी
करने की
अनुकम्पा
करें।''
पहले मैं
तुम्हें एक
घटना के बाबत
बताना चाहता हूं।
एक नया आया
अपराधी
वार्डेन से
शिकायत कर रहा
था मुझे न तो
यहां का खाना
पसंद है, न यह
क्वार्टर और न
मैं तुम्हारा
चेहरा देखना चाहता
हूं।
वार्डेन
ने कहा—’‘ यह तो ठीक है
पर क्या अन्य
कोई चीज और भी
है जो तुम्हें
पसंद न हो?''
अपराधी
ने उत्तर दिया—’‘ इस समय
तो बस इतना ही
काफी है। मैं
यह नहीं चाहता
कि तुम यह
सोचो कि मैं बिलकुल
ठीक नहीं हूं।’’
हीरा!
तुम बिलकुल भी
ठीक नहीं हो।
पहली
बात तो यह है
कि तुमने
सैकड़ों
जन्मों से ध्यान
नहीं किया।
ध्यान न करने
की बात
तुम्हारे
हृदय और
तुम्हारी
अस्थियों में
गहरी
प्रविष्ट हो
गई है...... .वह एक
कठोर ढांचा बन
चुका है। अब
अचानक तुम
ध्यान करने
लगे हो और
तुमने बहुत
आकांक्षाएं
करना शुरू कर
दिया है। यह
न्यायसंगत
नहीं है।
वास्तव
में सभी
अपेक्षाएं
जरा भी ठीक
नहीं है बल्कि
जब कोई
व्यक्ति
ध्यान से कुछ
भी मिलने की
अपेक्षा करता
है वह पूरी
तरह गलत होता
है। क्योंकि
ध्यान का आधार
और ध्यान की
बुनियाद ही यह
समझना है कि
सारी
अपेक्षाएं
छोड दी जाएं।
अन्यथा ध्यान
की शुरुआत
होती ही नहीं।
यह आशा और
अपेक्षा ही है
जो तुम्हारे
मन में निरंतर
विचारों के
ताने—बाने
बुनती रहती है।
यह अपेक्षा ही
है जो तुम्हें
तनाव से भर
देती है। यह
अपेक्षा ही है
जब यह पूरी
नहीं होती तो
तुम्हें
निराश और दुखी
बनाती है।
अपेक्षा करना
छोड़ो और ध्यान
पुष्पित होगा
ही, लेकिन
वह केवल तभी
खिल सकता है, जब तुम
अपेक्षाएं
करना छोड़ दो, तुम अनेक
जन्मों तक आशा
और अपेक्षा ही
करते रहोगे और
ध्यान को
पुष्पित होने
की अनुमति ही
नहीं दोगे
मैंने
सुना है:
जब
लानाहन के बाल
झड़ते ही गए तो
उसने अपने नाई
से शिकायत
करते हुए
चीखते हुए कहा—’‘ तुमने जो
भी चीज मुझे
प्रयोग करने
को दी वह खराब
है। तुमने कहा
था कि उसकी दो
बोतलों के
प्रयोग से मेरे
बाल उगने
लगेंगे, लेकिन
कुछ भी तो
नहीं हुआ।’’
नाई ने
उत्तर दिया—’‘ मैं कुछ
समझ नहीं पा
रहा हूं। वह
तो बालों को
पहले जैसी
स्थिति में
लाने वाली
सर्वश्रेष्ठ
चीज थी।’’
यह
सुनकर लानाहन
ने कहा—’‘ ठीक है! फिर
मुझे दूसरी
बोतल पीने में
कोई आपत्ति
नहीं, लेकिन
उसे अच्छा काम
करना चाहिए।’’
अब
अपेक्षाओं के
साथ ध्यान
करना भी बाल
उगने वाले
लोशन की बोतल
पीने जैसा है।
यह कोई भी असर
करने नहीं जा
रही। यह तो
नुकसान ही
अधिक कर सकती
है। यह खतरनाक
ही हो सकती है।
अपेक्षा
के साथ ध्यान
करने से अच्छा
है कि ध्यान
किया ही न जाए
क्योंकि कम से
कम तुम्हें
निराशा तो
नहीं भोगनी
होगी। मत करो
ध्यान। लेकिन
यदि तुमने
ध्यान करने का
निश्चय ही कर लिया
है, तब
तुम्हें यह
स्पष्ट हो जाय
कि ध्यान करने
से तुम्हें
कोई भी चीज
मिलने की कोई
गारंटी नहीं
है। ऐसा नहीं
कि उसे करने
से कुछ घटता
नहीं, वह
घटता है, लेकिन
उसकी कोई
गारंटी नहीं
है। अत्यधिक
संभावनाओं का
द्वार खुलता
है, लेकिन
उनकी अपेक्षा
नहीं कर सकते।
यदि तुम
अपेक्षा करते
हो तो द्वार
बंद ही रहते
हैं। यह
तुम्हारी
अपेक्षा ही है
जो तुम्हारा
मार्ग रोक
देती है।
सड़क पर
दो मित्र मिले।
उनमें
से पहला बोला—’‘ मैं इतना
अधिक दुखी हूं
कि मैं सिर्फ
चीख ही सकता
हूं।’’
'' आखिर
क्यों?''
''दो
सप्ताह पूर्व
मेरे चाचा की
मृत्यु हो गई
और वह मेरे
लिए दस लाख
डालर छोड़ गए।’’
दूसरे
ने कहा—’‘ तो इसमें
चीखने जैसी
क्या बात है?''
पहले
ने उत्तर दिया—’‘ यह तो
ठीक है कि इस
बात से मुझे
खुश होना चाहिए।
लेकिन इस
हफ्ते मेरे
दूसरे चाचा भी
मर गए है और वह
मेरे लिए बीस
लाख डालर छोड़
गए।’’
''लेकिन
फिर तुम इतने
दुखी क्यों हो?''
पहले
व्यक्ति ने
कहा—’‘ मेरे
सिर्फ दो चाचा
ही हैं।’’
अपेक्षा
करना, बहुत
बहुत अधिक
खतरनाक है।
अपेक्षा करने
के साथ यदि
कुछ भी होता
है तो तुम्हें
उससे पूर्ण
संतुष्टि का
अनुभव नहीं
होगा, क्योंकि
अपेक्षा करना
लगभग पागलपन
है। तुम अधिक
से अधिक की
अपेक्षा करते
ही चले जाओगे।
अब वह व्यक्ति
इसलिए दुखी है
क्योंकि उसके
केवल दो चाचा
ही हैं। जो
कुछ भी होता
है, वह
तुम्हें खुश
नहीं करने जा
रहा, यदि
तुम शुरू से
ही अपेक्षाएं
कर रहे हो।
अपेक्षा करना
छोड़ो— ध्यान
करने में वह
ठीक चीज नहीं
है और फिर तुरंत
ही चीजें घटना
शुरू हो
जाएंगी।
अगले
शिविर में या
कल से ही तुम
बस ध्यान करो।
सहज
स्वाभाविक
रूप से उसका
आनंद लो।
परिणाम पाने
के लिए वहां
देखने की कोई
जरूरत ही नहीं
है। जो होता
है, उसे
होने दो।
भविष्य को
स्वयं अपने आप
आने दो। ध्यान
करने को कोई
लक्ष्य मत
बनाओ—बस केवल
दिशा सभी कुछ
करेगी। आनंद
मनाओ, उस
बारे में
उत्सवपूर्ण
रहो।
ध्यान
करना ही एक
महान आनंद है।
बस केवल नृत्य
करने के योग्य
बनो, गीत
गाने योग्य
बनो, बस
शांत होकर बैठ
जाने और अपनी
श्वांस देखने
में समर्थ बनो
और तुम्हारा
होना ही, आवश्यकता
से अधिक है।
किसी और चीज
के लिए पूछो
ही मत।
क्योंकि
तुम्हारा
पूछना ही
तुम्हारे
अस्तित्व को
दूषित कर देता
है। तुमने
दूसरी तरह से
कोशिश की है, अब मेरी बात
सुनो और मेरे
बताए रास्ते
पर चलने की
कोशिश करो।
तुम बस केवल
ध्यान करो।
'' प्रत्येक
शिविर के बाद,
मेरे अंदर
गहराई में एक
निराशा और
बैचेनी ही रह
जाती है....... ''
शिविर
के बाद यह
समस्या खड़ी
नहीं होती, यह शिविर
से पहले होने
वाली समस्या
है। पहले तुम
अपेक्षाओं के
बीज बोते हो......
.तब उसे
भोगेगा कौन? कष्ट
तुम्हें ही
होगा।
तुम्हें यह
फसल काटनी ही
होगी।
''...... .जैसे
मानो मैं कुछ
चीज घटने की
प्रतीक्षा कर
रहा था, जो
कभी भी घटती
नहीं है।’’
यह कभी
घटेगी भी नहीं।
तुम जिस चीज
की भी
प्रतीक्षा कर
रहे हो, तुम्हारी
प्रतीक्षा
व्यर्थ है।
ऐसा कुछ भी
होने नहीं जा
रहा है। और जो
भी होने जा
रहा है, उसका
तुम्हारी
इच्छाओं और
अपेक्षाओं से
कुछ भी लेना
देना है। तुम
बस उसे आने दो,
उसका
रास्ता मत
रोको। तुम
अपने रास्ते
से स्वयं अपने
आप को हटा दो।
इस बार बिना
किसी अपेक्षा,
बिना किसी
चाह और बिना
आशा के साथ—’‘ बस ध्यान करो।''
''...... और
मैं स्वयं
अपने आपसे
कहता हूं
हीरा! तुम उसी
नाव में फिर
से ''
वापस आ
गए।
यदि
तुम मुझे सुन
रहे हो, तो तुम फिर
उसी नाव में
होना ही नहीं।
यह अपेक्षा की
ही नाव है।
निराशा उसका
प्रतिफलन या
बाई प्रोडक्ट
है। तुम इस
निराशा से
छुटकारा पाना
चाहते हो, लेकिन
तुम अपेक्षा
से छुटकारा
नहीं पाना चाहते।
तब यह असम्भव
होगा।
ऐसा
कहा जाता है
कि बुद्ध ने
एक बार कहा—’‘ यदि तुम
जन्म और
मृत्यु से
छुटकारा पाना
चाहते हो, यदि
तुम दुखों से
छुटकारा पाना
चाहते हो, यदि
तम प्रसन्नता
के लिए वासना
से मुक्त होना
चाहते हैं तो
इसका कोई दूसरा
मार्ग है ही
नहीं, सिवाय
कामना मुक्त
होने के।
कामना पूरी न
होने पर दुख
होता है।’’
और जब
वहां कोई दुख
नहीं रह जाता, वहां
प्रसन्नता ही
होती है।
लेकिन यह
इसलिए नहीं है,
क्योंकि
तुमने उसकी
कामना की, ऐसा
इसलिए है क्योंकि
तुम्हारी कोई
कामना थी ही
नहीं।
कामनारहित
होने की गहरी
स्थिति में
तुम आनंद से
भर जाते हो।
पांचवां
प्रश्न :
प्यारे
ओशो! आपके
विरोधाभासी
वक्तव्य मुझे
बहुत अधिक
पीड़ा भरी भाव
दशा मे फेंक
दिया करते थे!
अब मैं आपको
सुनता हूं!
लेकिन
निर्विचार
में शांत रहते
हुए मेरे
बर्तन का पानी
खौलकर भाप बने? क्या मैं
उससे पूर्व ही
पलायन कर गया?
पहले एक
प्रसंग सुनो
एक मां कोने
वाली दुकान पर
एक नये
यांत्रिक
खिलौने का
परीक्षण कर
रही थी और
उसने
आश्चर्यचकित
होकर कहा—’‘ क्या यह
एक छोटे बच्चे
के लिए बहुत
अधिक जटिल और
उलझन भरा नहीं
है?''
विक्रेता
ने मुस्कराते
हुए कहा—’‘ नहीं जी! यह
शिक्षाप्रद
खिलौना है।
इसे विशेष रूप
से इस तरह
डिजायन किया
गया है जिससे
यह बच्चे को
हमारी आज की
सभ्यता के
बारे में कुछ
सिखा सके।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता कि
बच्चा इसे
कैसे साथ लेकर
चलता है। वह
गलत ही होगा।
तुम
मेरे साथ अपना
सामंजस्य
बिठाकर रखने
की कोशिश मत
करो, अन्यथा
तुम गलती
करोगे। इसे
इसी तरह से
डिजायन किया
है। मैं स्वयं
अपने कहे का
स्वयं विरोध
करता रहूं
मेरा तरीका ही
यही है।
तुम्हें
कोंचते हुए
प्रेरित करता
रहा, यही
मेरा तरीका है।
लेकिन अब
तुमने तरकीब
सीख ली है, वह
अब मुझे गहरी
शांत दशा में
सुनता है। इस
बात की फिक्र
करो ही मत कि
जो कुछ मैंने
पहले कहा था, मैं कुछ और
उसके
विरोधाभास
में कहता हूं।
बस मुझे इसी
क्षण सुनो—उसके
साथ अतीत को
मत लाओ। यदि
तुम उसे सुनते
हुए अतीत को
साथ न लाओ, तो
वहां कोई भी
विरोधाभास
नहीं है। यदि
तुम उसमें
अतीत को साथ
ले आते हो, तभी
विरोधाभास है।
केवल अतीत को
साथ मत लाओ और
यही होती है
शांति। तुम
केवल इस क्षण
मुझे सुनो। तब
कहीं भी
विरोधाभास न
होगा। और यही
मेरा पूरा
प्रयास है कि
अपने कहे का
ही विरोध किये
जाऊं। एक न एक
दिन तुम्हें
यह निर्णय
लेना ही पड़ेगा
कि यदि
तुम्हें इस
व्यक्ति का
सुनना है तो
तुम्हें वह सब
कुछ भूलना
होगा। जो उसने
पहले कहा था।
तुम्हें
सच्चा बनाने
का यह एक
मार्ग है कि
अतीत उसके साथ
न आये। यदि
मैं बहुत ही
पक्के रूप से
नियमित बातें
ही कहे जाऊं तो
तुम मुझे
सुनना बंद कर
दोगे—क्योंकि
फिर सुनने की कोई
जरूरत ही नहीं
होगी— '' यह
व्यक्ति तो
बार—बार एक
जैसी बातों को
ही कहे जा रहा
है।’’
यदि
तुम्हें
सुनते हुए
नींद भी आ जाए
तो भी तुम
किसी चीज से
चूकोगे नहीं।
लेकिन मैं
तुम्हें सोने
नहीं दूंगा, क्योंकि
तुम फिर चूक
जाओगे, तुम
मुझ पर कभी
भरोसा नहीं कर
सकते।
एक
समाचार पत्र
में वहां एक
विज्ञापन था, एक धनी
व्यक्ति को
रात में एक
सुरक्षा
गार्ड की
जरूरत है।
उसकी तीन
शर्तें थीं —
पहली उसे बहुत
लंबा होना
चाहिए
शक्तिशाली होने
के साथ—साथ
उसे दिखने में
सख्त होना
चाहिए। उसे
सजग होने के
साथ शराब आदि
किसी नशे का
आदी नहीं होना
चाहिए और
तीसरी शर्त थी
कि उसे विश्वसनीय
होना चाहिए।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
प्रार्थना
पत्र भेजा।
उसे
साक्षात्कार
के लिए बुलाया
गया, लेकिन
वह धनी
व्यक्ति उसे
देख कर
आश्चर्य में पड़
गया क्योंकि
वह छोटे कद का
था, लंबा
तो था ही नहीं,
वह देखने
में भी सख्त न
था और एक
विनीत व्यक्ति
सा दिखाई देता
था।
उस
व्यक्ति ने
कहा—’‘ मुझे
ताजुब इसलिए
हुआ कि तुमने
यहां आने की
व्यर्थ तकलीफ
की और तुमने
मेरा
विज्ञापन
पढ़कर प्रार्थनापत्र
ही व्यर्थ
भेजा। क्या
तुमने देखा नहीं,
कि उसमें
तीन शर्तें
लिखी थीं पहली
तो यह कि उस
व्यक्ति को
लंबा होना
चाहिए कम से
कम छू फीट का
और तुम पांच
फीट से अधिक
लंबे लगते
नहीं। दूसरे
देखने में उस
व्यक्ति को
सख्त और हिंसक
लगना चाहिए जब
कि मैंने
तुम्हारे
जैसा सरल और
लगभग साधारण
व्यक्ति अब तक
नहीं देखा।
तुम तो बहुत
विनीत और
दब्यू जैसे
दिखाई देते हो।
तुम यहां
क्यों आये हो
और तुम शराब
पीते हो या नहीं?''
नसरुद्दीन
ने उत्तर दिया—’‘ मैं बहुत
अधिक शराब
पीता हूं।’’
तब तुम
मेरा समय
बरबाद क्यों
कर रहे हो? तुम यहां
आये ही क्यों?
नसरुद्दीन
ने कहा—’‘ मैं सिर्फ
यही कहने के
लिए यहां आया
हूं कि मैं
विश्वसनीय
व्यक्ति तो
हरगिज भी नहीं
हूं।’’
मैं भी
एक विश्वसनीय
व्यक्ति नहीं
हूं। मैं यह
पूरी तरह भूल
ही जाता हूं।
कि कल मैंने
तुमसे क्या
कहा था। मैं
एक पियक्कड़ भी
हूं। यही वजह
है कि मैं
इतनी आसानी से
अपनी कहीं हुई
बात का विरोध
करता हूं
अन्यथा वह
बहुत अधिक
कठिन हो जाता।
मेरे मन में
यह बात कभी
आती ही नहीं
कि मैं विरोधाभासी
हूं। जो कुछ
भी मैं कह रहा
हूं वह यही है।
मैं इस बात की
कभी फिक्र ही
नहीं करता कि
इससे पहले
मैंने क्या
कहा था। मेरा
उससे अब कोई
सम्बंध नहीं
है। वह उस क्षण
का सत्य था, यह इस
क्षण का सत्य
है और मैं
भरोसा करने
लायक व्यक्ति
नहीं हूं।
मैं
ऐसी कोई बात
नहीं कह रहा
हूं जिसे मैं
कल फिर कहने
जा रहा हूं।
कौन जानता है? मैं
स्वयं अपने आप
को नहीं जानता।
यदि तुम
वास्तव में
मुझे सुनते हो
तो धीमे— धीमे
तुम हर क्षण
को भी सुनोगे।
यही मेरा पूरा
प्रयास है।
मैं
तुम्हें कोई
दर्शनशास्त्र, कोई
सिद्धांत या
मत देने की
कोशिश नहीं कर
रहा हूं। कोई
भी मत या
सम्प्रदाय ही
पक्के और
नियमित होते
हैं। मैं
तुम्हें किसी
विशिष्ट
विश्वास में
तुम्हारा
रूपांतरण
करने की कोशिश
नहीं कर रहा
हूं क्योंकि
विश्वास तो जड़
बना देता है।
मैं तुम्हें
उस खिड़की तक
लाने की कोशिश
कर रहा हूं
जिससे उसके
पार तुम खुला
आकाश और सत्य
देख सको। उस
सत्य का वर्णन
नहीं किया जा
सकता। और इस
सत्य को मत या
विश्वास नहीं
बनाया जा सकता
और इस सत्य
में सभी विरोधाभास
समाहित हैं।
क्योंकि यह
अत्यन्त
विराट है।
इसलिए मैं
तुम्हें इसकी
झलकें और सभी
पहलुओं का
दर्शन कराता
रहूंगा। इसका
एक पहलू या
दृष्टिकोण
दूसरे
दृष्टिकोण का
विरोधाभासी
है। लेकिन
पूर्ण सत्य
में उसके सभी
दृष्टिकोण और पहलुओं
का मिलन और
समन्वय है और
सभी मिलाकर एक
हैं।
मेरे
सुनने का
तरीका ठीक यही
है। यदि तुम
मुझे सुनना
चाहते हो तो
प्रत्येक को यहीं
पहुंचना होगा।
यदि तुम मेरे
साथ होना
चाहते हो तो
तुम्हें उस
शांति तक
पहुंचना होगा
जहा तुम अतीत
की ओर कोई
ध्यान दोगे ही
नहीं। जो कुछ
मैंने कहा था—’‘ उसे मैं
जितनी गहराई
से भूल चुका
हूं तुम भी
उसे भूल जाओ।
तुम तो बस
मुझे इसी क्षण
सुनो। तब वहां
कोई भी
विरोधाभास न
होगा क्योंकि
वहां कोई
तुलना नहीं
होगी। और तब
मैं जो भी
कहता हूं तुम
उससे बंधोगे
नहीं। वह केवल
एक दिशा है, कोई लक्ष्य
नहीं है। वह
तुम्हें सजग
और सचेत बनाने
में केवल
सहायता करता
है। वह
तुम्हें कोई
दार्शनिक
विचारधारा
नहीं देता।
वस्तुत: वह
तुम्हें एक
सूक्ष्म
वातावरण देता है,
पूरी तरह से
भिन्न जीवन की
एक दृष्टि
देता है। वह
मेरी दृष्टि
में तुम्हें
सहभागी बनाता
है।’’
एक
व्यस्त
सरकारी उच्च
कार्यालय के आसपास
टहलते हुए एक
सैल्समैन ने
एक अधिकारी से
पूछा—’‘ सबसे
नई तरह की
अत्याधुनिक
टाई खरीदने के
बारे में आपका
क्या खयाल है?''
उस
अधिकारी ने
कहा—’‘ मुझे
कोई जरूरत
नहीं उसकी। आप
बस रफूचक्कर
हो जायें।’’
सेल्समैन
ने कहना जारी
रखते हुए कहा—’‘ वे शुद्ध
सिल्क हैं।’’
उस
अधिकारी का धैर्य
जवाब दे गया।
उसने कहा—’‘ देखो!
मैंने कहा था
कि तुम भागो
नहीं तो मैं
तुम्हें पीट
दूंगा। और यही
मेरा अर्थ भी
है।’’ यह
कहते हुए उस
अधिकारी ने उस
सेल्समैन को
उठाकर आगे
उछाल दिया।
नमूने की
टाइयों के डिब्बे
खुल कर चारों
ओर बिखर गए।
सेल्समैन
निडर होकर उठा,
उसने अपने
कपड़ों पर से
धूल झाड़ी, अपना
बिखरा सामान
समेटा और आफिस
की ओर जाते हुए
कहा—’‘ अब तो
जो कुछ भी
क्रोध आपके
अंदर था, बाहर
निकल चुका है,
अब मैं आपका
ऑर्डर लेने के
लिए तैयार हूं।’’
मैं
यही तुम से
कहता हूं— अब
जो कुछ भी
तुम्हारे
हृदय में था, वे
विरोधाभास
जिनके कारण
तुम मुसीबत
में पड़े थे और
जो तुम्हें
भावनात्मक
रूप से परेशान
कर रहे थे, क्योंकि
तुम एक
दार्शनिक
विचारधारा
खोज और मानसिक
विश्वास खोज
रहे थे और कुछ
ऐसा खोजने का
प्रयास कर रहे
थे जिससे तुम
आबद्ध हो जाओ,
लेकिन मैं
तुम्हें इसकी
अनुमति नहीं
दूगा, अब
तुम्हारा
हृदय खुल चुका
है और मैं
तुम्हारा
आर्डर लेने के
लिए प्रस्तुत
हूं।
अंतिम
प्रश्न :
प्यारे
ओशो! मैं उन सभी
चमत्कारों
वरदानों
और
आनंद के लिए
आपको धन्यवाद
देना चाहता
हूं लेकिन
मैं इसके
लिए कोई भी पर्याप्त
उचित तरीका
खोज ही नहीं सकता।
मैं इस
सभी से अत्यंत
अभिभूत हूं।
एक छोटा सा
प्रसंग:
एक
हिप्पी टाइप
का आवारा एक
गिरजाघर में
गया और वहां
से बाहर
निकलते हुए
उसने पादरी से
कहा—’‘ डैडी!
आप तो बिना
किसी बाधा के
मजे से झूम
रहे थे।’’
पादरी
ने कहा—’‘ फिर से कहें,
मैं आपकी
बात समझा नहीं
श्रीमान! उस
आवारा हिप्पी
ने कहा—’‘ मेरे
कहने का मतलब
है. मैं
वास्तव में
तुम्हारे
संगीत और
झूमने से हिल
उठा। और दादू!
मैंने वहां
रखी तुम्हारी
पुरानी प्लेट
में थोड़ी सी
रेजगारी रख दी
है।’’
पादरी
ने झुकते हुए
बाहर निकले
हाथ को नीचे
लाते हुए कहा—’‘ शांत हो
जाओ, पूरी
तरह शांत।’’
यही वजह
है कि मैं
तुमसे कह रहा
हूं—शांत हो
जाओ। पूरी तरह
शांत।
तुम्हें
कृतज्ञता
व्यक्त करने
की कोई जरूरत ही
नहीं है। यह
कठिन होगा।
यदि तुम उसे
अभिव्यक्त कर
सके तो भी वह
निर्मूल्य
होगा। यदि वह
किसी कीमत का
है भी, तो
तुम उसे
व्यक्त नहीं
कर सकते।
लेकिन
यदि तुम मुझे
केवल औपचारिक
रूप से
धन्यवाद देना
ही चाहते हो तो
तुम उसे
व्यक्त कर
सकते हो।
लेकिन मैं उस
व्यक्ति को
जानता हूं
जिसने तुमसे
यह कहा है।
कुछ चीज जो
वास्तव में घट
रही हैं, जो अभिभूत
करने वाली है,
लेकिन उसे
अभिव्यक्त करने
की कोई
आवश्यकता
नहीं है।
वास्तव
में तुम उसे
जान पाओ, मैं उससे
पहले ही उसे
जान लेता हूं।
जब कभी भी वह
किसी को भी
घटती है तो
यहां मैं ही उसे
सबसे पहले
जानता हूं। वह
भले ही
तुम्हें घट
रही हो लेकिन
तुम उसे जानने
वाले दूसरे
व्यक्ति होगे
क्योंकि उसे
तुम्हारे मन
तक पहुंचने
में समय लगता
है। उसे थोड़ी
लंबी यात्रा
करनी होती है।
वह मेरी ओर
अधिक तेजी से
यात्रा करती
है। मैं जानता
हूं कि वह
विह्वल कर
देती है, लेकिन
उसे व्यक्त
करने की कोई
जरूरत नही, बस शांत हो
जाओ। और अधिक
शांत बनो और
मैं उसे जान
जाऊंगा और दूसरे
अन्य व्यक्ति
भी इसे जान
जाएंगे और
पूरा संसार
यहां तक कि
वृक्ष, चट्टानें
और नदियां भी
इसे जान
जाएंगी।
जब यह
वास्तव में
घटता है, तो उसे कहने
की कोई जरूरत
ही नहीं।
तुरंत ही पूरा
अस्तित्व उसे
अनुभव करता है
कि कुछ घटना
घटी है। किसी
के लिए अज्ञात
का द्वार खुला
है। कोई फूल
कहीं खिला है,
कहीं
सहस्त्र दल
कमल खिला
आज बस
इतना ही।
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