दिनांक
: 8 अगस्त, 1986,
7.00
संध्या, सुमिला,
जुहू, बंबई।
प्रश्नसार:
1— भगवान, आज सारी
दुनिया में
आतंकवाद
(टेरेरिज्म)
छाया हुआ है।
मनुष्य की इस
रुग्णता और
विक्षिप्तता
का मूल स्रोत
क्या है? यह
कैसे निर्मित
हुआ? इसका निदान
और इसकी
चिकित्सा
क्या है? क्या
आशा की जा
सकती है, कि
कभी मनुष्यता
आतंकवाद से
मुक्त हो
सकेगी?
2—मेरा
मार्ग क्या
है? बताने की
अनुकंपा करें।
3—क्या
इस यात्रा का
कोई अंत नहीं
है?
4—बुद्ध
को तो उनके महापरिनिर्वाण
के बाद भारत ने
विदा किया ओरविश्व
ने अपनाया। आपकोदुनया
भर से निष्कासित
किया गया,
जब कि विश्व शिक्षित
हो चुका है। यह
सब से बड़े दुख
की बात है।.........
5—आपने
विश्व भर में
इतने संन्यासियों
को असीम प्रेम
किया है उसका
कोई ऋण चुका सकता
नहीं।फिर भी कितने
ऐसे संन्यासी
है जो आपकी कृपा
के बहुत नजदीक
थे, तब भी वह ही
अब जुदास की तरह
आपसे वर्तव कर
रहे है। जुदास
की यह परंपरा क्या
कभी बंद न होगी? ओर उनका क्या
राज है?
प्रश्न:
भगवान, आज
सारी दुनिया
में आतंकवाद
(टेरेरिज्म)
छाया हुआ है।
मनुष्य की इस
रुग्णता और
विक्षिप्तता
का मूल स्रोत
क्या है? यह
कैसे निर्मित
हुआ? इसका निदान
और इसकी
चिकित्सा
क्या है? क्या
आशा की जा
सकती है, कि
कभी मनुष्यता
आतंकवाद से
मुक्त हो
सकेगी?
मनुष्यता
आज आतंक से छा
गयी होती तो
बात बड़ी आसान
थी। मनुष्यता
सदा से ही
आतंक से छायी
रही। इसलिए
बात बहुत जटिल
है। आतंक के
रूप बदलते रहे
हैं।
विक्षिप्तता
ने नए-नए रंग, नए-नए ढंग
लिए हैं।
लेकिन पूरे
इतिहास में
उंगलियों पर
गिने जा सकें
ऐसे थोड़े से
लोगों को छोड़कर
और शेष सारे
आदमी किसी न
किसी तरह
बीमार थे। ये
बीमारियां
उतनी ही
पुरानी हैं, जितना
पुराना आदमी
है। और इसलिए
इन बीमारियों
की, विक्षिप्तताओं
को दूर करने
की जिसने भी
कोशिश की है; विक्षिप्त
लोगों की भीड़
ने उसे ही दूर
कर दिया है।
जिन
लोगों ने
सुकरात को जहर
पिलाया और
जिन्होंने
जीसस को सूली
पर चढ़ाया, वे इस बात के
सबूत हैं।
सुकरात जो कह
रहा था, आदमी
को स्वस्थ
करने के लिए
ठीक-ठीक निदान
दे रहा था।
लेकिन भीड़
मानने को राजी
नहीं होना
चाहती कि
विक्षिप्त
है। और जिस
आदमी को भी
स्वस्थ होना
हो, उसे कम
से कम पहले तो
यह बात माननी
ही पड़ेगा कि वह
स्वस्थ नहीं
है। और यहीं
अड़चन खड़ी हो
जाती है।
दुनिया
में हजारों
पागलखाने हैं, लेकिन एक भी
ऐसा पागल नहीं
है, जो
मानने को राजी
हो कि वह पागल
है। हर पागल
सिद्ध करने की
कोशिश करता है
कि सारी
दुनिया होगी
पागल, लेकिन
मैं पागल नहीं
हूं।
जिन
लोगों के जीवन
में क्रांति
घटी है, जो
रूपांतरित
हुए हैं, वे
थोड़े से लोग
वे ही थे, जिन्होंने
यह स्वीकार
किया कि हम
विक्षिप्त हैं,
हम रुग्ण
हैं, हम
अशांत हैं।
जीवन
के स्वास्थ्य
के लिए पहला
चारण अपने
अस्वास्थ्य
को स्वीकार
करना है।
लेकिन कोई भी
तुमसे कहे, तुम सुंदर
हो, तो
प्रीतिकर
लगता है। और
कोई तुमसे कहे,
तुम सुंदर
नहीं हो, तो
अप्रीतिकर
लगता है। कोई
तुमसे कहे कि
तुम सही हो, तो भला लगता
है, आश्वासन
मिलता है, सांत्वना
मिलती है। और
कोई उघाड़कर
तुम्हारे
घावों को
तुम्हें
दिखाए, तो
वह आदमी
दुश्मन जैसा
मालूम होता
है। आदमी के
इस अस्वस्थ
होने के कारण
बहुत सीधे-साफ
हैं।
सब से
पहली बात, कि आदमी ने
प्रकृति के
स्थान पर, स्वाभाविक
के स्थान पर
अस्वाभाविक
को जीवन का
लक्ष्य बना रखा
है। सहज होने
की जगह, असहज
पर हमारी
आंखें टिकी
हैं। जो आदमी
जितनी ही
अस्वाभाविक
हो जाता है, हम उसे उतना
ही आदर देते
हैं। वह साधु
होता है, संत
होता है, महात्मा
होता है, सिद्ध
होता है।
हमारा आदर उसे
और भी
अस्वाभाविक
होने के लिए
प्रेरणा देता
है। और हमारा
आदर हमें भी
उसका अनुसरण
करने के लिए, उसके चरणों
पर चलने के
लिए एक प्यास
बन जाता है।
क्योंकि
हम देखते हैं, उस आदमी को
सारी दुनिया
आदर दे रही
है। हम गलत हो
सकते हैं, सारी
दुनिया तो गलत
नहीं हो सकती।
लेकिन हर आदमी
ऐसा ही सोचता
है। इस तरह
गलतियों की
पूजा होती है,
भ्रांतियों
को सम्मान
मिलता है।
अस्वाभाविकताओं,
श्रद्धा...और
हम जाल में
उलझ जाते हैं।
कोई आदमी अगर
उपवास करता है,
तो हमारे
आदर का पात्र
हो जाता है।
जैसे भूखे मरने
से कोई
अध्यात्म का
संबंध हो। अगर
भूखे मरने से
अध्यात्म का
संबंध होता, तो दुनिया
के सारे भूखे आध्यात्मिक
हो जाते। न तो
कोई भूखे होने
से आध्यात्मिक
होता है, न
कोई जरूरत से
ज्यादा भोजन
करने पर
आध्यात्मिक
होता है।
जीवन
में समता
चाहिए, संतुलन
चाहिए। जीवन
यूं है, जैसे
कोई तलवार की
धार पर चले।
जरा इधर, जरा
उधर, कि
भटकना शुरू हो
जाता है।
स्वस्थ होने
का सूत्र है:
सम्यक समता।
इस बात का बोध,
कि जीवन में
किसी भी चीज
की अति न हो
अति रुग्णता
है। और तुम
सारे धर्मों
के पृष्ठों को
उठाकर देखो, सारे धर्मों
के इतिहास को
समझो तो तुम
पाओगे, अति
सब जगह पूज्य
है। जो
व्यक्ति
साधारण है, सीधा-सादा
है उसे तो कोई
पूछता ही नहीं।
साधारण होने
का तो कोई
सम्मान ही
नहीं है। यहां
असाधारण की
पूजा है, असाधारण
को सम्मान है।
और असाधारण
होने के लिए
अतियों पर
जाना जरूरी
है।
यह
सारी
मनुष्यता, जो
विक्षिप्त
तुम्हें
दिखाई देती है
और यह जो आतंक
छाया हुआ है
सारे विश्व पर,
यह सदियों
की अतियों का
परिणाम है।
आदमी
नंगा खड़ा हो
जाए, तुम पूजा
देते हो।
रेगिस्तानों
में, अरब
में, सूफी
फकीर भयंकर
गरमी में, जहां
सूरज आग की
तरह बरसता है
और जहां रेत
आग की तरह
जलती है, वहां
कंबल ओढ़कर
रहते हैं।
उन्हें आदर
मिलता है। यह
जानकर
तुम्हें
हैरानी होगी,
सूफी शब्द
का अर्थ ही
कंबल से
निकलता है।
सूफी का अर्थ
होता है ऊन।
जो ऊन से बने
हुए कंबल को
ओढ़े रहता है, उसको सूफी
कहते हैं।
और खूब
मजा है। और जब
तुम पागल पन
की पूजा करोगे, तो तुम इस
बात की खबर दे
रहे हो, कि
तुम खुद भी उस
पागलपन को
जीना चाहते
हो। माना कि
आज मजबूर हो, माना कि आज
इतनी हिम्मत
नहीं, माना
कि आज
परिस्थितियां
अनुकूल नहीं;
तो कल सही, अगले जन्म
में सही। मगर
तुम्हारी
पूजा तुम्हारे
जीवन की दिशा
बताती है और
तुम्हारे
भीतर की
आकांक्षा
बताती है।
सीधा-सादा
आदमी, साधारण
आदमी, जिसके
जीवन में कोई
अति न हो, वह
तो तुम्हें
दिखाई भी नहीं
पड़ेगा, वह
तुम्हारी नजर
में ही न
आएगा। और वही
स्वस्थ है। वह
आनंदित होगा,
शांत होगा,
निश्चित
होगा, लेकिन
समादृत नहीं।
अंश
शब्दों में
में कहूं, हमें अपने
समादर के
मूल्य बदलने
होंगे। हमने अहंकारियों
को बहुत
सम्मान दिया
है। और अहंकार
के बड़े
सूक्ष्म रास्ते
हैं। और
अहंकार से बड़ी
कोई बीमारी
नहीं है। और
हम बचपन से हर
बच्चे को जहर
पिलाते हैं--अपने
बच्चों को। और
हम जो करते
हैं, प्रेम
के कारण करते
हैं। हमारी
इच्छाओं में कोई
खराबी नहीं
है। मैं
तुम्हारी
सदिच्छा पर संदेह
नहीं कर रहा
हूं। लेकिन हम
जहर पिलाते हैं,
अनजाने। हर
बाप चाहता है,
उसका बेटा
कक्षा में
प्रथम आए, विश्वविद्यालय
में प्रश्न आए,
देश में
प्रतिष्ठित
हो, पदम
भूषण बने, भारतरत्न
बने, नोबेल-प्राइज,
का विजेता
हो।
लेकिन
कोई भी नहीं
सोचता कि
परिवार में, विद्यालय
में, पड़ोस
में, सब
तरफ से सम्मान
अहंकारी को दिया
जा रहा है, जो
आगे है। फिर
आगे होने की
एक दौड़, एक
ज्वर यूं पकड़
लेता है कि
आदमी जिंदगी
भर दौड़ता रहता
है: आगे होना
है। और ऐसी
गजब की भीड़ है।
और तुम कहीं
भी होओ, कोई
न कोई तुमसे
आगे है। मन को
चोट पहुंचती
है, मन को
दुख होता है।
मैं
कलकत्ता में
एक परिवार में
मेहमान होता
था। उनके पास
कलकत्ते की सब
से सुंदर
इमारत थी, बहुत प्यारा
बगीचा था। कभी
जब कलकत्ता
राजधानी थी, तब वह
गवर्नर का
निवास था।
उन्हें अपने
मकान का बड़ा
गौरव था। वह
मकान के सिवाय
दूसरी कोई बात
ही न करते थे।
मैं कई
बार उनके घर
ठहरा था। मैं
उनसे कहता कि
मैं सब देख
चुका हूं।
तुम्हारे घर
के इंच-इंच से
परिचित हूं।
अब तो मुझ पर
कृपा करो।
बार-बार कहां
तक यह प्रशंसा
सुनूं? लेकिन
आखिरी बार जब
मैं उनके घर
मेहमान हुआ, तो मुझे बड़ी
हैरानी हुई।
वे एकदम चुप
थे। घर की कोई
बात ही नहीं
करते थे।
मैंने कहा, कुछ तो घर की
बात छेड़ो। कुछ
अजीब लगता है।
तुम, और
चुप बैठे हो?
उन्होंने
कहा, अब कोई घर
की बात न होगी?
देखते नहीं
हो सामने? किसी
दूसरे आदमी ने
एक और महल खड़ा
कर लिया है। और
जब तक इस महल
से ऊंचा महल
खड़ा नहीं कर
लिया, तब
तक अब मकान की
कोई बात नहीं
करनी है। अब
मकान से कुछ मतलब
नहीं है।
मैंने कहा, यह वही
प्यारा मकान
है, ये वही
प्यारी चीजें
हैं--ऐतिहासिक।
और मैंने कहा,
उसने मकान
खड़ा कर लिया
है, उसने
तुम्हारे
मकान को तो
छुआ भी नहीं।
तुम्हारा
मकान वही का
वही है। तुम
क्यों परेशान
होते हो?
संयोग
की बात, जिसने
मकान बनाया था
वे भी मेरे
परिचित थे।
मैं आया हूं, तो मुझे
मिलने आए और
मुझे
निमंत्रित
किया भोजन के
लिए। और मेरे
साथ मेजबान को
भी निमंत्रित
किया। उनके हट
जाने बाद मेरे
मेजबान ने कहा,
मैं उस मकान
में कदम नहीं
रख सकता। आग
लगवा दूं उस
महल में; चाहे
अपना जीवन भी
क्यों न खोना
पड़े। इसको
मिटवा कर
रहूंगा।
मैंने
कहा, वह आदमी
तो भला है।
बेचारा मिलने
आया। तुम्हें
निमंत्रित भी
कर गया।
उन्होंने कहा,
यह
भलापन-वलापन
कुछ भी नहीं
है। ये शरारती
बातें हैं। वह
किसी भी तरह
से मुझे अपने
महल के अंदर
की चीजें
दिखाना चाहता
है। क्योंकि
मैं बहुत बार
उसे दिखा चुका
हूं। मगर मैं
नजर भी न
उठाऊंगा। मैं उसके
मकान की तरफ
देखता भी
नहीं। मैंने
अपने कार के
दरवाजों पर
परदे लगवा दिए
हैं। मैंने अपने
कार के
दरवाजों पर
परदे लगवा दिए
हैं। मैंने
अपने बगीचे की
दीवाल ऊंची
उठवा दी है।
मैं किसी तरह
यह भूल ही
जाना चाहता
हूं कि वह
मकान है भी
तुम्हें
अकेले जाना
हो...मुझे माफ
करो, मैं
तुम्हारे साथ
न आ सकूंगा।
क्या
पागलपन है!
लेकिन हर
बच्चे को दूध
के साथ जहर
घोल-घोल कर
पिलाया जा रहा
है
महत्वाकांक्षा
का--एम्बिशन।
यूं ही न मर
जाना। कुछ
होकर दिखाना।
इतिहास में
नाम रह जाए।
दुनिया याद करे, कि कभी तुम
भी थे।
और तुम
बड़े से बड़े
पदों पर पहुंच
जाओ, बहुत धन
इकट्ठा कर लो,
ऊंची
अटारियों के
निवासी बन जाओ,
तब मुसीबत
शुरू होती है
कि यह सब पाने
के लिए जीवनभर
दौड़े? जो
नहीं पा सके
वे तड़प रहे
हैं, जिन्होंने
पा लिया वे
तड़प रहे हैं।
जो नहीं पा
सके वे तड?प
रहे हैं, क्योंकि
जिंदगी एक हार
हो गयी।
अहंकार बन भी
न पाया और
छिन्न-भिन्न
हो गया। और
जिन्होंने पा
लिया वे तड़प
रहे हैं, कि
यह जो पा लिया,
फिजूल
मेहनत की।
जिंदगी इसको
पाने में गंवा
दी। शांति का
एक क्षण नहीं
है। प्रेम की
एक बूंद नहीं
है। संगीत का
एक स्वर नहीं
है। भीतर सब
खालीपन है, अर्थहीनता
है।
सारी
मनुष्यता पर
एक रोग है। और
वह रोग है, महत्वाकांक्षा
का रोग--लड़े
जाओ। यह भी
चिंता छोड़ दो
कि जिन साधनों
से लड़ रहे हो, वह ठीक है या
गलत? फुरसत
किसे है? समय
थोड़ा है और
जिंदगी का कोई
भरोसा नहीं।
तो चाहे साधन
सही हों या
गलत, मगर
तुम्हें
सिद्ध करके
बताना है कि
तुम कुछ हो।
और मजा यह है
कि दोनों तरफ
हार है। हारे
तो हारे, जीते
तो और बुरी
तरह हारे।
तो
स्वभावतः हर
आदमी रुग्ण
मालूम होता
है। हर आदमी
बेचैन मालूम
होता है। हर
आदमी के भीतर
सिर्फ लपटें
हैं,र् ईष्या
है, जलन है;
शांति नहीं,
आनंद नहीं।
कोई काव्य
जन्म नहीं
लेता, कोई
नृत्य नहीं
उठता। और मौत
द्वार पर आ
जाती है। और
तुम्हारे पास
सिवाय आंसुओं
के और एक हारी
हुई जिंदगी के,
मौत को भेंट
करने को कुछ
भी नहीं होता।
यह
महत्वाकांक्षा
की लंबी
यात्रा अपनी
अंतिम घड़ी पर
पहुंच गयी है।
अब यूं नहीं
है कि यह कोई
धीमी-धीमी
जलती हुई आग है, कोई
कुनकुनी...अब
यह भयंकर
लपटों की तरह
जल रही है।
सारी दुनिया
बुरी तरह
बेचैन है। और
एक ही उपाय है
कि, हम
मनुष्य को
महत्वाकांक्षा
से मुक्त कर
दें।
महत्वाकांक्षा
बाहर दौड़ती है
और पहुंचती कहीं
भी नहीं है।
ये रास्ते जो
बाहर दौड़ते
मालूम पड़ते
हैं, ये
कहीं भी नहीं
जाते। चलते
जाओ, चलते
जाओ--इनका कोई
अंत नहीं आता।
तुम्हारा अंत
आ जाता है। ये
रास्ते यूं ही
पड़े रहते हैं।
ये रास्ते
समाप्त नहीं
होते, तुम
समाप्त हो
जाते हो।
महत्वाकांक्षा
की जगह
आत्म-अभीप्सा--अपने
को जानने की
आकांक्षा, अपने को
पहचानने की, अपने में
डूबने की। बस,
एक ही इलाज
है। एक ही
बीमारी है।
नाम अलग-अलग होंगे,
रूप अलग-अलग
होंगे। इलाज
भी एक ही है।
सारी
शिक्षा
व्यर्थ है, सारे उपदेश
व्यर्थ
है--अगर वे
तुम्हें अपने
भीतर डूबने की
कला नहीं
सिखाते। और
वहां रस-धार
बह रही है।
तुम भिखमंगों
की तरह बाहर
भटक रहे हो, और तुम्हारे
भीतर सम्राट
होने की
संभावना छिपी
है। इस दुनिया
में जिन थोड़े
से लोगों ने
अपने भीतर
झांककर देखा
है, बस
केवल वे ही
स्वस्थ हुए
हैं, बाकी
सब अस्वस्थ और
रुग्ण और
विक्षिप्त
हैं।
मैं तो
एक ही बात को
केवल धर्म, दर्शन, जीवन-दृष्टि,
जो भी नाम
देना चाहो--एक
ही बात को
मूल्य देता हूं,
और वह मूल्य
है, स्वयं
की पहचान।
और यह
स्वयं की
पहचान
किताबों के
द्वारा नहीं है।
यह स्वयं की
पहचान किसी और
के द्वारा
नहीं है। यह
स्वयं की
पहचान स्वयं
के द्वारा है।
अपने भीतर भी
नहीं जा सकते, तो और कहां
जाओगे? थोड़ी
सी देर को
अपने भीतर भी
नहीं डूब सकते
हो तो और कहां,
किन सागरों
की यात्रा को
निकले हो?
अगर हम
चाहते हैं कि
मनुष्यता
स्वस्थ हो जाए
और यह जो आतंक
चारों तरफ
बढ़ता ही चला
जाता है, विस्फोट
होता जाता है,
हिंसात्मक
होता चला जाता
है, यह
समाप्त हो जाए;
ये आग की
लपटें फूलों
में बदल जाए
तो एक ही रास्ता
है: उस रास्ते
का नाम समाधि
है।
सहज
बनो, समता में
जीयो। और जो
तुम्हारे
भीतर छुपा है
राज, उससे
अपरिचित न
रहो। उससे
परिचित होते
ही वह महाक्रांति
घटित हो जाती
है, जो
मिट्टी को
सोना बना देती
है, जो एक
साधारण
व्यक्ति को
बुद्ध बना
देती है, जो
तुम्हें जमीन
से उठाकर
आसमान के
तारों की ऊंचाइयों
पर ले जाती
है।
मैं
सारी दुनिया
में इस एक ही
बात को कहता
हुआ घूम हूं।
और चकित और
हैरान हुआ हूं
कि लोग यह बात
सुनने को राजी
नहीं हैं। लोग
दरवाजे बंद कर
लेते हैं।
राष्ट्र अपने
दरवाजे बंद कर
लेते हैं। क्योंकि
धर्मों के
धंधों का क्या
होगा? धर्मग्रंथों
का क्या होगा?
क्योंकि
मैं तो सिर्फ
एक किताब को
जानता हूं--जो
तुम हो।
कबीर
तो कहते थे,
ढाई
आखर प्रेम का
पढ़े सो
पंडित होय
मैं तो
कहता हूं, ढाई की भी
छोड़ो, एक
ही अक्षर, जो
तुम्हारे
भीतर छिपा है।
उस एक अक्षर
और शाश्वत को
जान लो। और
सारी प्रज्ञा,
सारा
पांडित्य
तुम्हारे
पैरों में है।
लेकिन
तब शास्त्रों
के ठेकेदार
मेरे दुश्मन हो
जाते
हैं--चर्चों
के, मंदिरों
के, हिंदुओं
के, मुसलमानों
के, ईसाइयों
के। पुरोहित
का एक जाल है
जो तुम्हारी
बीमारी पर
जाती है। वह
नाराज हो जाता
है। शिक्षक, विश्वविद्यालय,
शिक्षा के
पंडित, वे
नाराज हो जाते
हैं क्योंकि
अगर
महत्वाकांक्षा
बीमारी है, तो
राजनीतिज्ञ
सबसे बड़ा
बीमार है।
क्योंकि राजनीतिज्ञ
होने की
आकांक्षा किस
बात का सबूत है?
इस बात का
सबूत है कि
कोई
प्रेसिडेंट
होना चाहता है,
कोई
प्रधानमंत्री
होना चाहता
है। लोग भीड़
के ऊपर उठकर
भीड़ के मालिक
होना चाहते
हैं।
जो
अपने मालिक
नहीं हैं, वे सारी
दुनिया के
मालिक होना
चाहते हैं। और
बीमारों की इन
जमातों के पास
बड़ी ताकत है, सारी ताकत
है।
इसलिए
बहुत आसान था
सुकरात को जहर
दे दो, कि
जीसस को सूली
पर लटा दो, कि
मुझे देशों
में आने से
रोको, मुझे
बोलने से रोको,
जरूरत पड़े
तो मेरी हत्या
कर दो। लेकिन
जब तक जिंदा
हूं तब तक मैं
यह तुमसे कहता
ही रहूंगा, कि जो
तुम्हारी
बीमारी का
शोषण कर रहे
हैं और जो
तुम्हारी
बीमारी पर
व्यवसाय कर
रहे हैं, उन
सारे निहित
स्वार्थों को
तोड़ना जरूरी
है--अगर हम
चाहते हैं एक
स्वस्थ, शांत,
आनंद से भरी
हुई दुनिया; अगर हम
चाहते हैं इस
दुनिया को एक
खिले हुए फूलों
की बगिया की
तरह--सुगंधित,
सुवासित, सुंदर।
तो
तुम्हें मैं
जो कह रहा हूं, मेरी बात
सुननी ही
पड़ेगी। और अगर
तुम समझ जाओ
तो मामला आसान
है। क्योंकि
तुम्हें किसी
और के पास
नहीं जाना है,
अपने ही
भीतर जाना है।
तुम्हें किसी
से कुछ मांगना
नहीं है।
महत्वाकांक्षा
की किन्हीं सीढ़ियों
पर नहीं चढ़ना
है। बल्कि
चुपचाप अपने
मौन में, अपनी
गहराइयों
में--जिनके तुम
मालिक हो, जो
तुम्हारा
जन्मसिद्ध
अधिकार
है--उसमें चुपचाप
उतर जाना है
बिना किसी
शोरगुल के।
और अगर
इस पृथ्वी पर
हम हजारों
लोगों को
शांति का जरा
सा स्वाद भी
चखा दें, अमृत
की थोड़ी सी
झलक भी दिखा
दें, या
अपने ही भीतर
की मधुशाला से
थोड़ी सी भी
पहचान हो जाए,
तो मनुष्य
स्वस्थ हो
सकता है।
आज तक
यह हो न सका।
क्योंकि आज तक
हमने सुकरातों
का साथ न दिया, मंसूरों का
साथ न दिया, सरमदों का
साथ न दिया।
आज तक अलग
लोगों के हाथ में
खिलौने बने
रहे।
जरा सा
जागरण, और
स्वर्ग का
राज्य
तुम्हारा है।
प्रश्न:
प्यारे भगवान, मेरा मार्ग
क्या है?
मार्ग
न मेरा होता
है, न तेरा
होत है। जो
मैंने अभी-अभी
कहा, वही
मार्ग है।
और
मार्ग एक ही
है, और सब के
लिए एक ही है, सब सदियों
में एक है।
पहले भी वही
था, आज भी
वही है, कल
भी वही होगा।
इस एक मार्ग
को कोई नाम मत
दो। क्योंकि
यह हिंदू नहीं
है। भीतर जाने
से हिंदू होने
का क्या संबंध?
यह मुसलमान
नहीं है।
क्योंकि भीतर
जाने से मुसलमान
होने का क्या
नाता? इसे
बेनाम ही रहने
दो। नहीं तो
दुनिया मग
नामों के झगड़े
खड़े हो गए
हैं। और बड़ी
छीना-झपट है, बड़ी
खींचातानी
है। क्योंकि
हर एक का दावा
है, उसका
मार्ग सही है।
और मार्ग एक
ही है। दो भी
होते तो कोई
तुलना हो सकती
थी, कि कौन
सही है, और
कौन गलत है।
भीतर की तरफ
जाना सही है
और बाहर की
तरफ जाना गलत
है।
तो जो
मैंने कहा, वही मार्ग
है--तुम्हारा
भी, मेरा
भी, उनका
भी--जो इतनी
गहरी नींद में
सोए हैं, कि
उन्होंने अभी
पूछा भी नहीं
है कि उनका
मार्ग क्या है?
और शायद
सोए-सोए ही
कब्र में उतर
जाएंगे, और
स्मरण भी न
आएगा कि हम आए
क्यों थे और
जा क्यों रहे
हैं।
और हम
जीए किसलिए? और यह जीवन
क्या था? यह
ऊर्जा क्या थी?
यह जो भीतर
हृदय में धड़क
रहा था, यह
जो श्वासों को
ले रहा था, यह
जो चैतन्य था
यह कौन था?
बड़ी
अजीब दुनिया
है! यहां लोग
भूगोल पढ़ते
हैं, दूर-दूर
के तारों के
नाम याद करते
हैं--नक्षत्रों
के, और अपन
को भूल ही
जाते हैं!
मेरे
भूगोल के
शिक्षक थे, मैंने पहले
ही दिन उनसे
पूछा कि कुछ
अपने संबंध
में कहिए। वे
कहने लगे, आदमी
तुम कैसे हो!
यह भूगोल की
क्लास है, यहां
मेरे संबंध
में कुछ कहिए,
का क्या
सवाल है? मैंने
कहा, आपका
भूगोल? वह
बोले, जिंदगी
हो गयी मुझे
भूगोल पढ़ाते,
किसी ने
मेरा भूगोल
नहीं पूछा।
भूगोल
दुनिया का
होता है, आदमी
का नहीं होता।
मैंने
कहा, मैं आपसे
शुरू करूंगा।
और अगर आपको
अपना भूगोल
पता नहीं है, तो पहले
उसका पता
करिए।
टिम्बक्टू
कहां है, इसे
जानने से क्या
होगा? कुश्तुनतुनिया
कहां है, इसे
पहचान भी लिया
तो क्या होगा?
और
टिम्बक्टू
में मरे कि
कुश्तुनतुनिया
में मरे--बात
सब एक है। मगर
तुम थे कौन?
वे
मुझसे कहने
लगे, देखो, भूगोल
पढ़ना हो तो
भूगोल की
बातें करो।
उल्टी-सीधी
बातें नहीं--।
मैंने कहा, मैं सिर्फ
भूगोल की ही
बातें कर रहा
हूं। मैं अपना
भूगोल समझना
चाहता हूं, इसलिए आपका
भूगोल
पहले...उन्होंने
मुझ से कहा, यह बात चल
नहीं सकती।
तुम मेरे साथ
प्रिंसिपल के
पास आओ।
वे
प्रिंसिपल से
पूछे, कि अब
करना क्या है?
इस युवक को
आपने भूगोल
में भरती कर
लिया है। अब
या तो यह
भूगोल पढ़ेगा
या मैं भूगोल
पढ़ाऊंगा। हम
दोनों साथ एक
ही कक्षा में
नहीं हो सकते।
प्रिंसिपल
ने कहा, मेरी
कुछ समझ में
नहीं आता। बात
क्या है, झगड़ा
क्या है? इस
शिक्षक ने कहा,
तुम्हारी
समझ में क्या
खाक आएगा, मेरी
भी समझ में वह
नहीं आ रहा
है। बात भूगोल
की होती तो
समझ में भी
आती। यह तो न
मालूम कहां की
बात कर रहा
है। यह मुझसे
पूछता है, तुम्हारा
भूगोल समझाओ।
मैंने
कहा, कोई फिकर
नहीं। स्कूल
में नहीं समझा
सकते हो, घर
आ जाऊंगा।
कहीं एकांत
में दूर बैठकर
समझाना हो, वहां चला
चलूंगा। मगर
पहले
तुम्हारा
भूगोल समझूंगा,
फिर आगे
बढ़ूंगा।
प्रिंसिपल
ने मुझसे कहा, भैया, तुम
कोई दूसरा
विषय चुन लो।
ये हमारे
पुराने शिक्षक
हैं, और हम
इनको नहीं
खोना चाहते।
रही भूगोल की
बात, सो
मैं कुछ जानता
नहीं, क्योंकि
मैंने भूगोल
कभी पढ़ा नहीं।
और पता नहीं
कि तुम किस
भूगोल की बात
कर रहे हो।
तुम किसी और
को सताओ, इनको
छोड़ो।
मैंने
कहा, जैसी
मर्जी। मैं तो
जिस क्लास में
जाऊंगा वहीं
झंझट खड़ी होने
वाली है
क्योंकि क्या
फिजूल की
बकवास...। कोई
फिकर कर रहा
है चंगेजखान
की, तैमूरलंग
की, नादिरशाह
की, अलेक्जेंडर
की और अपनी
जरा भी फिकर
नहीं। और नालायकों
की इस जमात से
क्या
लेना-देना है!
भूगोल
छोड़कर मैं
इतिहास में
प्रवेश किया।
शिक्षक
सिकंदर महान
के संबंध में
समझा रहे थे।
मैंने उनसे
कहा, आपको
शर्म नहीं आती,
यह कहते हुए,
सिकंदर
महान है? यह
महान शब्द को
तो खराब न करो!
नहीं तो बुद्ध
को क्या कहोगे,
सुकरात को
क्या कहोगे, पाइथागोरस
को क्या कहोगे?
और
तुम्हें
मालूम है कि
जब सिकंदर मरा
था, तो मरने
के पहले अपने
वजीरों से
उसने कहा था कि
मेरी वसीयत है
यह। और खयाल
रहे कि मेरी
वसीयत में कोई
बदलाहट न हो।
वसीयत छोटी सी
है, कि जब
तुम मेरा
ताबूत मरघट की
तरफ ले चलो, तो मेरे हाथ
ताबूत के बाहर
लटके रहने
देना। लोगों
ने कहा, अजीब
वसीयत है।
ताबूत के बाहर
हाथ नहीं
लटकाए जाते।
यह परंपरा
नहीं है।
सिकंदर ने कहा,
परंपरा की
फिकर छोड़ो।
उसी परंपरा
में मैं मरा, व्यर्थ मरा।
मगर किसलिए
तुम अपने हाथ
बाहर लटकाना
चाहते हो? उन्होंने
जिज्ञासा की।
सिकंदर ने कहा,
इसलिए ताकि
सारी दुनिया
देख ले कि मैं
खाली हाथ आया
था, खाली
हाथ जा रहा
हूं। और सारी
दुनिया बेकार
गयी। मेरे
हाथों में कुछ
भी नहीं है।
मैं एक भिखमंगे
की तरह मर रहा
हूं।
और तुम
इस आदमी को
महान सिकंदर
कह रहे हो, जो खुद अपने
को कह गया है
कि मैं एक
भिखमंगे की तरह
मर रहा हूं, और मेरी
जिंदगी बेकार
गयी? और
तुम इसे महान
कहकर इन सारे
लोगों को ,जो
यहां पढ़ने आए
हुए हैं, इन
सबके दिमाग
में जहर भर
रहे हो। इन सब
के दिमाग में
यह सुरसुरी
पैदा कर रहे
हो कि ये भी महान
हो जाएं, ये
भी सिकंदर हो
जाए। न तो
बाहर कुछ पाने
से कोई महान
हो सकता है, न बाहर कुछ
जानने से कोई
ज्ञानी हो
सकता है।
मार्ग
एक है, मेरा
भी, तुम्हारा
भी, सब का
स्वयं को
जानना।
सुकरात का वचन
है: नो दाइसेल्फ--अपने
को जानो।
इसमें सारी
बात आ गयी। और
इससे ज्यादा
कुछ और कहने
को बचता नहीं।
प्रश्न:
भगवान, क्या
इस यात्रा का
कोई अंत नहीं
है?
न
तो कोई
प्रारंभ है इस
यात्रा का, न कोई अंत
है। हम अनंत
के हिस्से हैं,
हम शाश्वत
के अंश हैं।
हम सदा से हैं,
और सदा
रहेंगे। यह
बात और है, कि
लहरें बदलती
हुई दिखाई
पड़ती हैं, मगर
समुंदर वही
है। रूप बदल
जाते हैं।
लगता है ऐसे
कि एक यात्रा
पूरी हुई, दूसरी
यात्रा शुरू
हुई, लेकिन
वस्तुतः जो भी
है, शाश्वत
है। न कोई
प्रारंभ है, न कोई अंत
है। और इससे
बड़ी आनंद की
और क्या बात होगी
कि तुम अनंत
हो, तुम
अमृत हो?
उपनिषद
के ऋषि एक ही
खोज मग संलग्न
थे: अंधेरे से
कैसे प्रकाश, असत्य से
कैसे सत्य और
मृत्यु से
कैसे अमृत...।
अंधेरे
में जीयोगे तो
असत्य में
जीयोग, असत्य
में जीयोगे तो
मृत्यु में
जीयोगे। वह तीनों
एक ही सरणी,एक ही तर्क
के हिस्से
हैं। अपने
भीतर की ज्योति
को पहचान लोगे,
तो सत्य को
भी पहचान लोगे।
साथ ही साथ।
तत्क्षण। और
सत्य को पहचान
लिया तो अमृत
को भी जान
लोगे।
तत्क्षण। पल
भर की देर
नहीं होगी। वह
दूसरी सरणी
है। अब यह तुम्हारी
मर्जी है।
एक
सरणी में तुम
अब तक अपने
जीवन को न
मालूम कितनी
यात्राओं में
बिताते आए
हो--न मालूम
कितने रूपों
में, न मालूम
कितने शरीरों
में। बहुत देर
वैसे ही हो
चुकी है।
लेकिन फिर भी,
जिन्होंने
जाना है उनका
वचन है, कि
सुबह का भूला
अगर सांझ भी
घर आ जाए, तो
उसे भूला नहीं
कहते। अभी भी
घर आ जाओ, तो
भूले न कहे
जाओगे। वैसे
तुम्हारी मौज
है। अभी और
थोड़ा भूलना हो,
अभी और थोड़ा
भटकना हो, अभी
और यात्रा
शुरू करनी हो,
और
यात्राएं
मिटानी
हों--अभी कुछ
और रह गया हो रस
कूटने का, पिटने
का, तो
मेरी मत
मानना। किसी
की मत मानना।
कूटो, पिटो,
जीयो, मरो।
इस
गर्भ में नौ
महीने सड़ो, उस गर्भ में
नौ महीने सड़ो।
और तुम्हारा
क्या बिगड़ता
है? मरोगे
तो दूसरे चार आदमियों
के बोझ बनोगे।
अपनी अर्थी
खुद तो उठानी
नहीं पड़ती कम
से कम।
तुम्हारे
रास्ते पर यह
बड़ा फायदा है।
मैंने
सुना है, एक
यहूदी
मरणास्न्न
है। बूढ़ा है, बहु अमीर
है। उसके
चारों बेटे
उसके पास ही
बैठे हैं।
सांझ हो गयी, सूरज भी डूब
गया, अंधेरा
भी उतरने लगा।
अब बेटे विचार
कर रहे हैं, कि करना
क्या हैं? सब
से छोटे बेटे
ने कहा कि
इतना धन है
हमारे बाप के
पास...और
जिंदगी भर एक
इच्छा रही, कि एक रोल्स
रॉयस गाड़ी
खरीद लें, और
न खरीद पाया।
चलो, किराए
की एक रोल्स
रॉयस गाड़ी ले
आए और कम से कम मरघट
तक तो रोल्स
रॉयस में
पहुंचा दें। न
सही जिंदा, मुर्दा सही।
मगर सवारी तो
हो जाएगी
रोल्स राय पर।
दूसरे बेटे ने
कहा, तू
नासमझ है। अभी
बच्चा है। अरे,
जब जिंदगी
भर रोल्स रॉयस
पर नहीं चढ़े
तो मरकर क्या
चढ़ना! और जब मर
ही गए तो क्या
फर्क पड़ता है कि
रोल्स रॉयस पर
चढ़े, कि
एंबेसेडर पर
चढ़े? बैलगाड़ी
हो तो भी का चल
जाएगा। अब
मेरे आदमी को
कुछ पता चलता
है? वह
मरता हुआ बाप
सब सुन रहा
है। दूसरे
बेटे ने कहा
कि मेरा तो
खयाल है, एंबेसेडर
बिलकुल ठीक
रहेगी। यह
बुङ्ढा इसी के
लायक है।
तीसरे
ने कहा, एंबेसेडर?
नाहक खर्चा
करने पर उतारू
है! अरे अपना
एक दोस्त है, जिसके पास
तांगा है।
हालांकि
तांगा क्या है,
एक नमूना है;
कि अगर
गर्भवती
स्त्री को
बिठाकर
अस्पताल ले जाओ,
तो बीच में
ही बच्चा पैदा
हो जाता
है--ऐसे दचके देता
है। मगर मरे
आदमी को क्या
फर्क पड़ता है?
और पहचान का
है, रास्ते
में तय हो
जाएगा।
चौथे
ने कहा, मैं
तुम सब की
बकवास में
नहीं पड़ना
चाहता। आखिर
कुछ तो देना
ही पड़ेगा।
अपने बाप से
कुछ तो सीखो।
मैं अपने बाप
का असली बेटा
हूं--यह सब से
बड़ा बेटा था--तुम
सब से ज्यादा
अपने बाप को
पहचानता हूं।
मरे हुए बाप
की इज्जत का
मुझे खयाल है।
म्युनिसिपल
का कचरे का
ठेला रोज मरघट
जाता है।
भिखारी
इत्यादि मर
जाते हैं, उनको
ले जाता है।
अब बाप मर ही
गया तो अब
क्या बाप और
क्या भिखारी!
बस, बाहर
कचरे-घर के
पास टिकाकर रख
दो। अपने आप
म्युनिसिपल
की गाड़ी इसको
ले जाएगी।
तभी
मरता हुआ बाप
बोला, मेरे
जूते कहां हैं?
लड़कों ने
कहा, अरे
आप अभी क्या
जिंदा है?
उन्होंने
कहा, तुम्हारी
सब चर्चा सुन
ली। सब नालायक
हो, सिवाय
खर्चे के कोई
काम नहीं। जब
देखो तब खर्चा।
मेरे जूते
लाओ। अभी इतनी
जिंदगी है, कि मैं खुद
ही पैदल चला
चलता हूं। मैं
ठेठ वहीं
मरूंगा, मरघट
पर। ले जाने, लाने का
खर्चा, और
झंझट...। कोई
पहचान लेख तुम
यहां बाहर
बिठाल दो मुझे,
मैं मर
जाऊं...दुनिया
मुझे जानती है,
सारा गांव
मुझे पहचानता
है, ड्राइवर
पहचानता
होगा। कोई भी
पहचान ले। और
क्या सोचेंगे
वे लो? न
तुम्हें
बदनामी की
फिकर है, न
तुम्हें
खर्चे की फिकर
है। बड़ी रईसी
मार रहे
हो--रोल्स
रॉयस, एंबेसेडर,
तांगा। कभी
बाप-दादे बैठे
हैं?
वैसी
तुम्हारी
मर्जी। जीयो।
मरो। फिर-फिर
जीयोगे, फिर-फिर
मरोगे। मगर
किसी न किसी
दिन आना ही होगा
राह पर। कोई
चारा नहीं।
कोई और राह
नहीं। किसी न
किसी दिन
सोचना ही
पड़ेगा, बहुत
हो चुका। अब
अंधेरे से
रोशनी की तरफ
चलें। अब एक
शरीर से दूसरे
शरीर में नहीं,
बल्कि
अंधेरे से
रोशनी में
यात्रा करनी
है। अब एक रूप
से दूसरा रूप
नहीं, बल्कि
असत्य से सत्य
की तरफ चलना
है। और अब एक घर
को छोड़कर
दूसरे घर में
प्रवेश नहीं,
अब मृत्यु
को छोड़कर अमृत
से गांठें
बांधनी हैं।
फिर
कोई अंत नहीं
है। फिर
यात्रा अनंत है।
फिर यात्रा
अनंत की है।
फिर तुम
भागीदार हो गए, हिस्सेदार
हो गए। तुम
लीन हो गए
उसमें, जो
अविनाशी है।
और जब तक यह न
हो जाए तब तक
जानना, कि
अभी समझ की
किरण नहीं
फूटी।
प्रश्न:
भगवान, बुद्ध
को तो उनके
महापरिनिर्वाण
के बाद भारत ने
विदा किया और
विश्व ने
अपनाया। आपको
दुनिया भर से
निष्कासित
किया गया, जब
कि विश्व
शिक्षित हो
चुका है। यह
सब से बड़े दुख
की बात है। तो
क्या भगवान, विश्व ऐसा
ही रहेगा? सुकरात
से सरमद तक जो
हालत की गयी, वह कब बंद
होगी?
गौतम
बुद्ध को
हालांकि हमने
जहर नहीं दिया, सूली पर
नहीं चढ़ाया
लेकिन इससे यह
मत समझना कि
हमारे पास कोई
आंतरिक रोशनी
है, कि
हमारा
शिवनेत्र
खुला है, कि
हम देखने में
समर्थ हैं।
हमने
बुद्ध को सूली
तो नहीं दी, लेकिन कुछ
दिया जो सूली
से भी बदतर
है। पहले थोड़ी
मैं उसकी बात
कर लूं, ताकि
हमारा यह भ्रम
छूट जाए।
अन्यथा इस देश
के लोगों को
यह भ्रम है कि
यूनान ने तो
सुकरात को जहर
दे दिया, जूडिया
ने जीसस को
सूली पर लटका
दिया, मुसलमानों
ने अलहिल्लाज
और सरमद की
गरदनें काटीं।
लेकिन
हम...हमारी बात
और है। हमने
बुद्ध की गरदन
काटी, न
महावीर को जहर
दिया। हम
आध्यात्मिक
लोग हैं।
ऊपर-ऊपर
ऐसा लगता है।
बात कुछ और
है। बात है कि हम
ज्यादा
बेईमान हैं, ज्यादा
चालाक हैं।
क्योंकि
यूनान...बुद्ध
अगर यूनान में
पैदा होते तो
जहर देता, अगर
जूडिया में
पैदा होते तो
सूली पर चढ़ता।
इसमें कोई शक
नहीं। लेकिन
यूनान ने
सुकरात को जहर
तो दे दिया।
लेकिन
जिन्होंने
जहर दिया था, उनमें से एक
का भी नाम आज
याद नहीं। और
सुकरात का
एक-एक वचन
अमिट होकर
आदमी के
प्राणों पर छा
गया है। जहर
ने उसका शरीर
तो मिटा दिया,
लेकिन उसके
संदेश को अमर
कर दिया।
जीसस
को सूली मिली।
आदमी आज नहीं
कल मरता ही है।
मौत ने न मारा, लोगों ने
मार डाला।
लेकिन उसी
मृत्यु के
कारण ईसाइयत
को जन्म मिला।
आज आधी दुनिया
ईसाई है। वह
तो जीसस को
सूली है, वह
जीसस के संदेश
को अमिट छाप
दे गयी।
हम
चालाक लोग हैं, क्योंकि
हमारी कौम बड़ी
पुरानी है।
बूढ़े चालाक हो
जाते
हैं--स्वाभाविक;
उस्ताद हो
जाते हैं।
हमारे लिए साफ
थी यह बात, कि
किसी को भी
मारना खतरे से
खाली नहीं है।
अगर हम बुद्ध
को मारते हैं,
तो बुद्ध जो
कह रहे हैं, उसको हम
पत्थर की लकीर
बनाते हैं।
हमने कुछ दूसरा
रास्ता
निकाला। और
रास्ता हमारा
ऐसा था, कि
बुद्ध के मरने
के बाद इस देश
में बुद्ध का
नाम लेना भी न रहा।
बोधिगया
में जहां
बुद्ध को
बुद्धत्व
मिला, और
जहां उनकी
स्मृति में
मंदिर खड़ा है,
उस मंदिर का
पुजारी भी
ब्राह्मण है।
क्योंकि उस
मंदिर में
पूजा करने को
भी कोई बौद्ध
न मिला। बुद्ध
की प्रतिभा
करोड़ों लोगों
के प्राणों पर
छा गयी। लेकिन
क्या हुआ? क्या
जादू, कि
बुद्ध के मरने
के बाद बुद्ध
ऐसे रफा-दफा
हो गए, कि
जैसे वे कभी हुए ही
नहीं हों?
ब्राह्मणों
ने एक पुराण
रचा शिव
पुराण। उस पुराण
में एक छोटी
सी कथा है। वह
कथा हमारी
चालाकी, बेईमानी,
हमारी
होशियारी, हमारी
बूढ़ी
संस्कृति और
इसके
अनंत-अनंत
अनुभवों का
सार है। वह
कथा बड़ी अदभुत
है और बहुत
सोचने जैसी
है। और मैं
बड़ा चकित हूं
कि कोई भी उस
कथा पर सोचता
नहीं--न कोई
बुद्ध, न
कोई हिंदू!
कथा है, कि परमात्मा
ने जगत को
बनाया, उसी
समय नर्क को
भी बनाया, कि
जो पाप करेंगे
वे नर्क
जाएंगे। और
शैतान को
बनाया नर्क का
अधिकारी।
स्वर्ग भी
बनाया कि जो
पुण्य करेंगे,
वे स्वर्ग
जाएंगे। फिर
सदियों पर
सदियां आयीं
और गयी।
स्वर्ग में
भीड़-भड़क्का
बढ़ता गया, बढ़ता
गया। और शैतान
अकेला बैठा
रहा, बैठा
रहा, बैठा
रहा। नर्क कोई
आया ही नहीं।
क्योंकि किसी
ने कोई पाप ही
न किया। अंततः
शैतान ने जाकर
ईश्वर से कहा
कि यह क्या
पागलपन है? मुझे नाहक
वहां बिठा रखा
है। न कोई पाप
करता है, न
कोई आता है।
खत्म करो यह
नर्क।
ईश्वर
ने कहा, मत
घबड़ाओ। मैं
जल्दी ही
बुद्ध के रूप
में भारत में
अवतार लूंगा
और लोगों के
ऐसी बातें
समझाऊंगा, कि
वे अपने आप
नर्क की तरफ
जाने शुरू हो
जाएंगे।
देखना
चालाकी। एक
तरफ बुद्ध को
ईश्वर का अवतार
स्वीकार किया
और दूसरी
तरफ--बुद्ध को
मानकर मत चलना, नहीं तो
नर्क में
पड़ोगे। और तब
से नर्क में
ऐसी भीड़ मची
कि शैतान भी
घबड़ा गया है।
कहां बिठाए इन
लोगों को? क्योंकि
जो-जो बौद्ध
हो गए, वे
सब नर्क गए।
इस
कहानी में तुम
भारतीय
पुरोहितों की
चालाकी देख
सकते हो।
बुद्ध को
ईश्वर का
अवतार
मानना--यूं
सम्मान भी दे
दिया। कोई यह
भी न कहेगा कि
तुमने बुद्ध का
अपमान किया।
और यूं, बुद्ध
को जो मानेगा
वह नर्क में
जाकर गिरेगा...।
बुद्ध की
शिक्षाओं पर
पानी फेर
दिया।
तो अगर
भारत से बुद्ध-धर्म
विनष्ट हो
गया...सुकरात
के नामलेवा तो
अब भी यूनान
में हैं। और
जीसस के पीछे
चलने वाले
लोगों की कतार
की कतार तो
दुनिया में सब
से बड़ी है, लेकिन भारत
में, जो
बुद्ध की
जन्मभूमि है,
वहां सिर्फ
बुद्ध का नाम
रह गया है।
वहां कोई बुद्ध
की शिक्षा, बुद्ध की क्रांति--जो
कि
महाक्रांति
थी, जिसके
द्वारा कि
आदमी के जीवन
में रूपांतरण
हो सकता था, उसको भारत
के पुरोहितों
ने मिटा डाला,
पोंछ डाला।
और इस तरकीब
से पोंछ डाला
कि यह किसी को
पता भी न चले।
हमने
भी बुद्ध को
सूली दी।
हमारे सूली
देने का ढंग
हमारा था।
भारतीय ढंग से
सूली दी।
शुद्ध खादी के
वस्त्रों में, गांधी टोपी
पहनाकर। ढंग
से मारा।
सोच-समझकर मारा।
मगर बुद्ध जो
क्रांति लाए
थे, उसको
हमने घटित
होने नहीं
दिया।
अब तुम
पूछते हो कि
मुझे सारी
दुनिया में
निष्कासित
किया गया है
और दुनिया अब
सभ्य हो गयी है, शिक्षित हो
गयी है, सुसंस्कृत
हो गयी है, लोकतंत्र
है, विचार
की
स्वतंत्रता
है, आदमी
की बुद्धि
परिष्कृत
है...तो दुख
होता है यह
बात जानकर
तुम्हें।
तुम्हें
दुख इसीलिए
होता है कि
तुम भ्रांति में
हो। दुनिया
शिक्षित हो
गयी है, लेकिन
उस शिक्षा ने
उसकी आदमियत
को कोई परिष्कार
नहीं दिया है।
वह शिक्षा
पदार्थ की है,
वह शिक्षा
रसायनशास्त्र
की है, भौतिकशास्त्र
ही है। उस
शिक्षा ने
आदमी को विज्ञान
दे दिया है, हत्या करने
के नए-नए साधन
दे दिए हैं।
लेकिन उस
शिक्षा ने
आदमी को अपनी
आत्मा को
आविष्कृत करने
का कोई उपाय
नहीं दिया है।
वरन अगर कोई
उपाय उसके पास
थे, भी तो
उन सबको
धुंधला दिया
है। घुप्प
अंधेरा है।
अच्छी-अच्छी
बातें हैं।
लेकिन उन
बातों के पीछे
कुछ यथार्थ
नहीं है।
दुनिया में
कहीं भी विचार
की कोई
स्वतंत्रता
नहीं है। और न
ही मनुष्य
रूपांतरित
होने को राजी
है। और अगर
मनुष्यों में
से कुछ लोग
रूपांतरित भी
होना चाहते
हैं, तो
पुरोहितों का
जाल है, राजनीतिज्ञों
का जाल है।
उनकी दीवाल है
बड़ी। वे चाहते
हैं कि मेरी
आवाज उन लोगों
तक न पहुंच
जाए। जो बदल
सकते हैं। वे
चाहते हैं कि
लोग मुझ तक न
पहुंच पाए, जो बदल सकते
हैं।
अमरीका
ने दो शर्तें
सारी दुनिया
की सरकारों के
सामने रखी
हैं...जिनको
मुझे हर मुल्क
में...या तो उस
देश के
राजदूतों ने, जिनमें से
कुछ मुझसे
प्रभावित हैं
और जो बहुत दुखी
हैं इस बात से,
कि मेरे साथ
जो व्यवहार
किया गया है
वह एकदम अनुचित
है, मुझे
जो सूचनाएं दी
हैं, वे
इतने स्रोतों
से मिली हैं
कि गलत नहीं
हो सकतीं।
क्योंकि
सूचनाएं वही
की वही हैं।
अलग-अलग देशों
में मैं गया
और अलग-अलग
देशों में वही
सूचनाएं हैं।
मेरे हवाई
जहाज के आगे-आगे
अमरीकी हवाई
जहाज चलता
रहा। जिस देश
में मैं उतरा,
मुझसे पहले
अमरीकी एजेंट
उस देश की
सरकार को सूचित
करने के लिए
मौजूद थे।
शर्तें
क्या थीं? एक शर्त, कि
मुझे हर हालत
में भारत वापस
भेजा जाए।
मुझे भारत को
छोड़कर किसी और
देश में, कहीं
भी, एक इंच
जमीन का टुकड़ा
नहीं मिलना
चाहिए। और कुछ
देशों को
राजनीतिज्ञों
ने मुझसे कहा,
कि आपके
आगमन से हमें
कम से कम इस
बात का एहसास हुआ
कि हम भ्रांति
में थे, कि
हम स्वतंत्र
हैं। क्योंकि
अमरीका सिर्फ
सूचना नहीं दे
रहा है, साथ
में धमकी भी
दे रहा है।
अगर तुम इस
खतरनाक व्यक्ति
को अपने देश
में रहने देते
हो, तो
हमने जितना ऋण
तुम्हें दिया
है--अरबों-खरबों
का--वह सब वापस
कर दो। और आगे
के लिए हमने
जो ऋण देने के
वायदे किए हैं,
और समझौते
किए हैं, वे
सब रद किए
जाते हैं।
सारे
देश इतने गरीब
हैं, कि
उन्होंने
अरबों-खरबों
का ऋण पहले
लिया है। अमरीका
भलीभांति
जानता है, उन्हें
उसे लौटाने के
कोई उपाय नहीं
हैं। लौटाने
के उपाय ही
होते, तो
उन्होंने ऋण
लिया ही क्यों
होता? और आगे
ऋण मिलना बंद
हो जाएगा, तो
उनके देश में
भयंकर बेकारी,
कारखाने
बंद, नई-नई
योजनाएं जो
उन्होंने आगे
के लिए बना
रखी हैं, वे
सब
समाप्त...उनका
भविष्य एकदम
अंधकार में हो
जाएगा।
तो देश
में मैं गया, अमरीका ने
यह एक शर्त, धमकी के
साथ...और साबित
कर दिया कि
दुनिया में
केवल दो देश
हैं--एक
अमरीका और एक
रूस। बाकी कोई
देश नहीं हैं।
बाकी सब गुलाम
हैं। या तो इस
तरफ या उस तरफ,
मगर सब तरफ
गुलाम ही हैं।
और
भारतीय सरकार
को अमरीका जोर
देकर कहता रहा
है, कि मुझे
भारत से बाहर
न जाने दिया
जाए। और मेरे
पास, भारत
से बाहर जो
हजारों, लाखों
लोगों का समूह
मुझसे प्रेम
करता है, उसे
पहुंचने न
दिया जाए। उस
पर रुकावटें
डाली जाए। और
खास कर समाचार
पत्रों के
प्रतिनिधियों
को, टेलीविजन
के
प्रतिनिधियों
को, रेडियो
के
प्रतिनिधियों
को किसी भी
हालत में मेरे
पास न पहुंचने
दिया जाए। और
इसके पीछे भी
धमकी वही है:
चुनाव के लिए
तुम स्वतंत्र
हो।
यह भी
सुकरात को जहर
देना या जीसस
को सूली देना--उससे
भिन्न नहीं
है। ज्यादा
चालबाजी से
भरा हुआ है, ज्यादा
कूटनीतिज्ञता
से भरा हुआ
है। लेकिन अमरीका
को, या
दुनिया के
किसी और देश
को यह बात
स्मरण रखना
चाहिए, कि
मुझे मृत्यु से
कोई भय नहीं
है। और ज्यादा
से ज्यादा
मुझे मार सकते
हो। मैं अपनी
बात कहना जारी
रखूंगा, और
भी बलपूर्वक
कहूंगा। और एक
बात तो सिद्ध
हो गयी है कि
जरूर मैं सही
हूं, अन्यथा
तुम्हें इतना
भय नहीं होता।
अमरीका की
घबड़ाहट, पोप
की घबड़ाहट, ईसाइयत की
घबड़ाहट...।
आज ही
मुझे खबर मिली
है, कि
पुर्तगाल की
सरकार मुझे
स्थापी निवास
देने को राजी
है। लेकिन
शर्त है कि
तीन साल तक
मैं बोलूंगा
नहीं; और
तीन साल के
बाद अगर मैंने
बोलना शुरू
किया तो मैं
ईसाइयत के
खिलाफ, अमरीका
के खिलाफ, पुर्तगाल
की सरकार के
खिलाफ, ईसाइयत
खिलाफ, इनमें
से किसी विषय
पर नहीं बोल
सकूंगा।
मैंने
उन्हें खबर
भेजी है कि दो
गज जमीन के टुकड़े
के लिए तुम
किसी की आत्मा
खरीदना चाहते
हो? और तीन
साल मैं
बोलूंगा नहीं,
इसके बाद
तुम्हारा
क्या भरोसा है
कि तुम यह नहीं
कहने लगेंगे,
कि अब बोलो
ही मत। और मैं
तीन साल तक न
बोलूं...ऐसी
कौन सी बात
मैंने कही है,
जिससे किसी
का कोई नुकसान
पहुंचा है? और अगर उन
लोगों को
नुकसान
पहुंचा है, जिनसे आदमी
को नुकसान
पहुंच रहा है,
तो उनको
नुकसान
पहुंचना
चाहिए।
मैं
किसी को कोई
शर्त मंजूर
करने को राजी
नहीं हूं। मैं
भारत सरकार की
शर्त से भी
राजी नहीं हो
सकता। जो मुझे
कहना है वह
मैं कहूंगा।
हालांकि वे
उपाय करना
शुरू कर दिए
है। इधर मैं
उतरा हूं भारत
में, और मेरे
पास अदालतों
के सम्मन्स
आने शुरू हो गये।
कि एक मुकदमा
कुलू मनाली
में, दूसरा
मुकदमा बंगाल
के छोर पर, तीसरा
मुकदमा केरल
में--मुझे
भटकाओ इन
अदालतों में,
ताकि मैं
कोई और दूसरा
काम न कर
सकूं।
ये भले
लोग हैं? ये
लोग हैं, जिनके
भरोसे पर यह
देश सोच रहा
है अपने अतीत
गौरव को पा
लेने को, फिर
से
स्वर्ण-शिखर
छू लेने को।
और ये
सारे मुकदमे
झूठे हैं।
लेकिन यह कोई
सवाल नहीं है।
मुकदमा झूठा
हो या सच, मुझे
परेशान तो किया
ही जा सकता
है। और हर
मुकदमे की जड़
क्या है? मुझ
पर बहुत
मुकदमे चले
हैं इस बीच।
हम मुकदमे की
जड़ यह है कि
मैंने किसी के
धर्म, किसके
धार्मिक
विश्वास को
चोट पहुंचा
दी। क्या
विश्वास हैं
तुम्हारे? इतने
लचर, इतने
जल्दी पंक्चर
हो जाते हैं।
तुम्हारे भीतर
कुछ आत्मा
जैसी चीज भी
है या नहीं? शर्म आनी
चाहिए कहते
हुए किसी आदमी
को कि मेरे
धार्मिक
विश्वास को
चोट पहुंचती
है। अगर विश्वास
गलत है तो छोड़
दो उसे। और
अगर विश्वास
सही है तो
कैसे चोट
पहुंच सकती है?
सत्य को कोई
चोट नहीं
पहुंचती।
मैंने
जीवन भर सारी
दुनिया में
निंदा सही है, हर तरह की
निंदा सही है,
लेकिन मेरे
मन में एक
प्रति भी यह
शिकायत नहीं
है कि मुझे
चोट पहुंचती
है। उल्टे जिन
लोगों ने मेरी
निंदा की है, उन लोगों ने
यह सबूत दिया
है कि मैं जो
कह रहा हूं, उससे उनके
प्राण
तिलमिला उठे
है। मुझे तो
चोप नहीं
पहुंच रही है।
हजारों लोग
मेरे खिलाफ
हैं। जो मन
में चाहे वह कहते
हैं, जो मन
में चाहे वह
लिखते हैं। न
तो मैं उस
कचरे को पढ़ता
हूं, न उस
कचरे की कोई
फिकर करता
हूं।
क्योंकि
मैंने जो कहा
है वह मेरा
अपना सत्य है, मेरा अपना
अनुभव है।
सारी दुनिया
उकसे खिलाफ खड़ी
हो जाए, तो
भी उसे कोई
चोट नहीं
पहुंच सकती।
और जिनको
जरा-जरा सी
बात में चोट
पहुंचती जाती
है, मतलब
साफ है--छिछले
विचार, उधार
विचार, जिनकी
गहराई चमड़ी से
भी ज्यादा
नहीं है। जरा
सी खरोंच, और
खून भी आता तो
ठीक था, पानी
बाहर आता है।
क्योंकि खून
तो जीवित लोगों
में होता है, मुर्दों में
नहीं होता।
अहमदाबाद
में मुझ पर एक
मुकदमा था। आज
से कोई बीस
साल पहले, कि मेरे
विचारों ने
हिंदू धर्म को
बहुत ज्यादा
चोट पहुंचा
दी। और जब
अदालत में
मैंने मजिस्ट्रेट
के सामने बयान
किया कि जो
मैंने कहा है,
यह हिंदू
धर्म का सार
है। और अगर
इससे किसी को चोट
पहुंचती है, तो उसकी
धारणा गलत थी।
उसे अपनी
धारणा बदल लेनी
चाहिए। या कि
वह मेरा
मुकाबला करे।
और अदालत को
कोई हजारों
लोगों ने घेरा
हुआ था। और उस
आदमी
ने--अदालत ने
मुझे तो बरी
दिया--और उस
आदमी ने मजिस्ट्रेट
से प्रार्थना
की, कि
मुझे पुलिस
में संरक्षण
की आवश्यकता
है। मैंने
मजिस्ट्रेट
से कहा, इससे
पूछो, बाहर
जितने लोग हैं
वे सब हिंदू
हैं। पुलिस का
आरक्षण मुझे
चाहिए, क्योंकि
मैंने हिंदू
धर्म को चोट
पहुंचायी है।
यह तो बेचारा
हिंदू धर्म की
रक्षा कर रहा
है। यह क्यों
घबड़ा रहा है? इसे पुलिस
के आरक्षण की
क्या जरूरत है?
और
मजिस्ट्रेट
भी हैरान हुआ।
उसने कहा, यह बात तो
ठीक है। अगर
हिंदू धर्म को
चोट पहुंची है,
तो बाहर तो
सारे हिंदू ही
हैं। खतरा
मुझे हो सकता
है। मैंने
पुलिस आरक्षण
नहीं मांगा।
तुम पुलिस का
आरक्षण मांग
रहे हो।
तुम्हारा कोई
अलग हिंदू
धर्म है, बाहर
जो हिंदू हैं
इनसे? वह
बोला कि इन
बातों में मत
पड़िए। वे बड़े
खतरनाक लोग
हैं, बाहर
जो इकट्ठे
हैं। वे मुझे
घुसे बता रहे
हैं। अब
दुबारा ऐसा
मुकदमा न
करूंगा।
मैंने
कहा, फिर
तुम्हारे
धर्म का क्या
होगा? वह
जो चोट लगी है
उसका क्या
होगा? तुम
मेरे साथ आओ
और मेरे पीछे
आओ। मैं उनसे कहूंगा
कि यह हिंदू
धर्म नहीं है
कि तुम इस बेचारे
को मारो। यह
तो नालायक है,
अब और इसको
क्या मारना!
यह तो मुर्दा
है, अब
मुर्दे को और
क्या मारना।
एक तो मुकदमा
हार गया, और
तुम इसको घुसे
बता रहे हो।
और हिंदू होकर
घुसे बता रहे
हो, यह बात
ठीक नहीं है।
उसे
मुझे बचाकर
उसकी गाड़ी तक
पहुंचाना
पड़ा। मैंने
कहा, किसी तरह
इसे ले जाओ, क्योंकि भीड़
का क्या भरोसा?
मेरे सामने
ले जाओ।
इधर
मैं उतरा हूं
हवाई जहाज से, और मुझे
सम्मन्स
मिलने शुरू हो
गए। अभी मैंने
कुछ कहा भी
नहीं है और
लोगों को
चोटें पहुंच गयी।
इसको कहते हैं
जादू!
प्रश्न:
भगवान, आपने
विश्व भर में
इतने
संन्यासियों
को असीम प्रेम
किया है, कि
उसका कोई ऋण
चुका सकता
नहीं। फिर भी
कितने ऐसे
संन्यासी हैं
जो आपकी कृपा
के बहुत नजदीक
थे, लेकिन
वे ही अब
जुदास की तरह
आपसे वर्तन कर
रहे हैं।
जुदास की यह
परंपरा क्या
कभी बंद न होगी?
और इसका
क्या राज है?
जुदास
की परंपरा बंद
तो होनी चाहिए, मगर शायद
बंद कभी भी
नहीं होगी।
राज बहुत सीधा-सादा
है। जीसस के
खास शिष्यों
में जुदास एक
था। और जुदास
जीसस के
शिष्यों में
सब से ज्यादा
शिक्षित था।
अकेला
शिक्षित था, बाकी तो सब
अशिक्षित, गांव
के गंवार थे। खुद
जीसस
अशिक्षित थे,
बेपढ़े-लिखे
थे। एक पढ़ई के
बेटे थे।
जुदास मात्र
मध्यवर्गीय, सुशिक्षित,
संस्कारों
में पला हुआ
व्यक्ति था।
स्वभावतः वही
जहर जिसकी
मैंने तुमसे
बात
कही--महत्वाकांक्षा
का जहर, उसके
भीतर था। उसके
मन में यह था
कि जीसस के बाद
में जीसस का
प्रतिनिधि, उनकी सारी
आध्यात्मिक
संपदा का
अधिकारी होने
ही वाला हूं।
इसमें कोई
शक-शुबहा नहीं
था। लेकिन यह
तभी हो सकता
है, जब
जीसस की
मृत्यु हो। जब
तक जीसस जिंदा
है, तब तक
जुदास लाख
परिष्कृत हो,
लाख
शिक्षित हो, उसकी वाणी
में वह जादू
नहीं, उसके
शब्दों में वह
निखार नहीं, उसकी आंखों
में वह चमक
नहीं, उसकी
जिंदगी में वह
चमत्कार नहीं,
जो जीसस की
जिंदगी में
था।
और
जीसस की उम्र
जुदास से कम
थी। यही
मुश्किल थी।
जीसस को जब
फांसी की सजा
मिली, तब
उनकी उम्र
केवल तैंतीस
वर्ष थी।
जुदास के पास
एक ही रास्ता
था कि किसी
तरह जीसस को
दुश्मनों के
हाथों बेच दे।
तो बाकी जो
शिष्य थे, वे
तो बेपढ़े-लिखे,
गंवार थे।
उनको अपने
पीछे चला लेना,
कोई कठिन न
होगा। और जीसस
के साथ
रहते-रहते जीसस
की सारी बातें,
जैसे कोई
तोता रट लेता
है, ऐसी ही
जुदास को भी
रट गयी थीं।
कोई ज्यादा बातें
भी न थीं, थोड़ी
सी बातें थीं।
अगर जीसस
मौजूद न हों
तो जुदास के
लिए संभावना
है कि वह भी
अपने को
प्रोफेट, पैगंबर,
मसीहा, घोषणा
करवा दे। यह
लोभ...इस लोभ के
कारण उसने तीस
चांदी के
टुकड़ों में
जीसस को
दुश्मनों के
हाथ में बेच
दिया। मगर
अचेतन आदमी से
और ज्यादा आशा
नहीं की जा
सकती।
यह वह कर
तो गुजरा, लेकिन उसने
परिणाम इतना
भयंकर न सोचा
था, कि
छाती पर यह
पत्थर बहुत
भारी पड़ेगा, कि जिस आदमी
ने सिवाय
प्रेम के मुझे
कभी कुछ न दिया,
उसको मैंने
सिर्फ तीस
चांदी के
टुकड़ों में बेच
दिया। जीसस की
सूली के बाद
जुदास का
पश्चात्ताप
इतना गहन हुआ,
कि उसने चौबीस
घंटे के भीतर
आत्महत्या कर
ली।
ईसाई
इस बात का
उल्लेख नहीं
करते।
क्योंकि यह उल्लेख
जुदास के
निंदा करने
में बाधा
पड़ेगा। चौबीस
घंटे के भीतर
जुदास ने अपनी
आत्महत्या कर
ली एक झाड़ से
लटककर--इस
पश्चात्ताप
में कि मैंने
जो किया है, उसकी सिवाय
इसके और कोई
सजा नहीं हो
सकती, कि
मैं अपने को
समाप्त कर
दूं।
जुदास
आदमी बुरा न
था। आदमी भला
रहा होगा। महत्वाकांक्षा
के भूत ने एक
भूल करवा दी।
लेकिन फिर भी
होश आ गया, जल्दी होश आ
गया। और जो
दाग खून के
उसके ऊपर पड़े
थे। उसने
आत्महत्या
करके उन दागो
को धो डाला।
लेकिन ईसाई
इसकी बात नहीं
करते।
क्योंकि इसकी
बात करेंगे तो
जुदास के भीतर
भी एक जागरण
की किरण थी, यह स्वीकार
करना पड़ेगा।
जरा देर से
उसे होश आया, मगर होश
आया।
वह जो
महत्वाकांक्षा
का जहर है, वह हर जगह
है। और उन
लोगों में
ज्यादा होगा,
जो सदगुरु
के बहुत करीब
होंगे।
क्योंकि उनको एक
आशा है कि हम
इतने करीब हैं,
कि अगर
सदगुरु
समाप्त हो जाए
तो उसकी जगह
पर बैठ सकते
हैं।
ऐसी एक
घटना घटी, कि मुझे एक
विश्व हिंदू
सम्मेलन में
आमंत्रण मिला।
जिस
शंकराचार्य
ने उस सम्मेलन
को बुलाया हुआ
था, वह
मुझसे अलग से
भी मिलना
चाहता था।
उसने मेरे
बाबत बहुत कुछ
सुन रखा होगा
भला-बुरा। वह
मुझे देखना चाहता
था।
जब मैं
वहां गया तो
उस कक्ष में
कोई पचास लोग
होंगे।
शंकराचार्य
तख्त पर, अपने
सिंहासन पर
बैठे थे। तख्त
के पास एक
छोटा तख्त, उस पर एक
बूढ़ा
संन्यासी
बैठा हुआ था।
और भी संन्यासी
थे, और
दर्शक इकट्ठे
हो गए थे कि
मेरे और उनके
बीच क्या
वार्ता होता
है।
लेकिन
वार्ता शुरू
होने से पहले
ही उन्होंने मुझसे
कहा, इसके
पहले कि हम
बातचीत करें,
मैं आपका
परिचय करा
दूं। ये जो
मेरी बगल में
बैठे हैं, ये
कोई साधारण
आदमी नहीं हैं,
ये उत्तर
प्रदेश की
हाइकोर्ट के
चीफ जस्टिस थे,
और रिटायर
होने के बाद
संन्यस्त हो
गए। लेकिन
इनका विनय भाव
ऐसा है कि मैं
इनसे लाख कहता
हूं कि मेरे
तख्त पर ही
बैठ जाओ--तख्त
पर। वे तख्त
पर रखे हुए
सिंहासन पर
बैठे हैं--मैं
उनसे लाख कहता
हूं कि तख्त
पर ही बैठ जाओ,
मगर इनकी
विनम्रता का
भाव ऐसा है, ये कहते हैं
कि नहीं, मैं
तो इसे छोटे
तख्त पर ही
अच्छा हूं।
आपकी कृपा है।
मैंने
कहा, यह बड़ा
अजीब मामला
है। आपने
शुरुआत ही
अजीब ढंग से
करवा दी। जब
कि दूसरे
संन्यासी
फर्श पर बैठे
हुए हैं, तो
इनको छोटे
तख्त की क्या
जरूरत है? ये
भी सब के साथ
नीचे बैठे
सकते हैं, जैसे
सब बैठे हैं।
यह छोटा तख्त
जरा खतरनाक
है। तो
शंकराचार्य
बोले, क्यों?
मैंने कहा,
आप मतलब
नहीं समझते।
ये छोटा तख्त
पर बैठे-बैठे
यही सोच रहे
हैं कि कब आप
लुढ़को। और
इसीलिए ये
आपके तख्त पर
बैठते नहीं
हैं। इनको
बैठना सिंहासन
पर है। क्या
तख्त पर
बैठना! तब तक
छोटे तख्त पर
प्रतीक्षा
करने में कम
से कम
विनम्रता है,
समादर है।
और आप
खुद इनकी जो
इतनी प्रशंसा
कर रहे हैं कि वे
चीफ जस्टिस थे, कभी आपने
खयाल न किया
होगा कि यह
खुद आप अपनी प्रशंसा
कर रहे हैं, कि यह जो
मेरा शिष्य है,
कोई साधारण
शिष्य नहीं है,
यह
हाइकोर्ट का
चीफ जस्टिस
था। और ऐसा
विनम्र है कि
छोटे से तख्त
पर बैठा है। और
मैं पक्का
कहता हूं इस
आदमी को देखकर,
कि यह
रास्ता देख
रहा है कि तम
कब लुढ़को। तुम
लुढ़के, और
यह बैठा।
इसीलिए छोटे
तख्त पर बैठा
है, क्योंकि
बिलकुल पास
में है, एक
ही कदम ऊपर
रखना है। और
तुम कानून
जानने वाले
लोग और कानून
तोड़ने वाले
लोगों में
बहुत ज्यादा
फर्क नहीं
होता। और
कानून जानने
वाले लोग बड़ी
तरकीब से
कानून तोड़ते
हैं, कि
उनको पकड़ना भी
बहुत मुश्किल
होता है।
मैंने
कहा, छोटा
तख्त छीन लो।
इसे फर्श पर
ही बैठने दो।
यह छोटा तख्त
बिलकुल हटा दो
यहां से।
शंकराचार्य
तो बड़े हैरान
हुए। वे कहने
लगे, कैसी
बातें करते हो?
मैंने कहा,
कैसी बातें
नहीं कर रहा
हूं मैं। अगर
इस आदमी में
थोड़ी भी ईमान
है, और
इसकी नीयत में
थोड़ी भी सफाई
है तो मैं
कहता हूं, उतर
आओ अपने छोटे
तख्त से नीचे
और बैठो फर्श
पर।
मगर वह
आदमी न उतरा।
मैंने कहा, आप देखते
हैं विनम्रता?
न यह ऊपर के
तख्त पर चढ़ता
है, न यह
नीचे उतरता
है। यह
विनम्रता
नहीं है। यह सीढ़ी
लगाए बैठा है।
यह
महत्वाकांक्षा
का रोग है, यह हमेशा
जुदास पैदा
करवाता
रहेगा। जब तक
कि जमीन
महत्वाकांक्षा
से खाली नहीं
हो जाती, उस
दिन कोई जुदास
पैदा नहीं
होगा। कोई
जरूरत भी न
होगी।
तुम्हें किसी
जीसस के उत्तराधिकारी
होने की जरूरत
नहीं है। तुम
खुद अपने भीतर
के परमात्मा
को जगा सकते
हो। तुम्हारी
खुद की संपदा
इतनी है कि
तुम किसी और
की संपदा लेकर
क्या करोगे? नाहक का
बोझ। ये तो
भिखारी हैं जो
दूसरों की संपदा
की वसीयत का खयाल
रखते हैं।
मैं एक
दुनिया चाहता
हूं जहां हर
आदमी अपने खजाने
का मालिक हो, जहां उसे
दूसरे के
खजाने पर नजर
न रखनी पड़े जहां
कोई आदमी किसी
और की वसीयत
लेने के लिए
उत्सुक न हो, उस दिन
जुदास पैदा
होने बंद
होंगे। जब तक
महत्वाकांक्षा
का यह ज्वर
उतर नहीं जाता,
तब तक जुदास
पैदा होते ही
रहेंगे। कुछ
किया नहीं जा
सकता।
दुनिया
के जो बड़े
राजनीतिज्ञ
हैं, जिनके
हाथ में बड़ी
ताकत होती है,
वे किसी को
अपने पास नहीं
आने देते, वे
एक फासला रखते
हैं।
हिटलर
के संबंध में
यह कहा जाता
है। कि उसका कोई
दोस्त न था।
पूछे जाने पर
क्या? हिटलर
ने ने कहा, दोस्त
बनाने का मतलब
है, एक
संभावित
दुश्मन।
दोस्त बनाने
का मतलब है, उसे इतने
करीब आने देना
कि कल अगर उसे
मौका मिल जाए
तो गर्दन घोंट
देगा।
ताकत, अधिकार, सत्ता,
ऐसी भूख है।
तुम हैरान
होओगे जानकर
कि हिटलर ने
शादी नहीं की।
बड़ा महात्मा
था, बालब्रह्मचारी।
यूं कई
स्त्रियों से
शादी करना चाहता
था क्योंकि
उतनी बड़ी
ताकत...कोई
स्त्रियों से
उसे भी प्रेम
था, लेकिन
उसने कभी किसी
स्त्री को
बहुत करीब न
आने दिया। वह
अपने कमरे में
हमेशा अकेला
सोया भीतर से
ताला बंद
करके। उसके
कमरों में कभी
जिंदगी में
कोई भी नहीं
सोया।
इतना
बड़ा अधिकार, इतनी बड़ी
सत्ता, इतना
बड़ा भय भी साथ
रहेगा।
क्योंकि किसी
को भी मौका
देना कमरे में,
रात में कोई
छुरा भोंक दे
और कल मालिक
हो जाए।
और
जानकर तुम
हैरान होओगे
कि मरने के
तीन घंटे पहले, जब जर्मनी
हार ही चुका
और बर्लिन पर
भी बम गिरने
लगे, और जब
बमों के धड़ाके
जमीन के नीचे
छिपे हुए उसके
मकान तक
पहुंचने लगे,
तब उसने कहा,
जल्दी से
बुलाओ किसी
पादरी को, मैं
विवाह करना
चाहता हूं।
उसके
सेनापतियों ने
कहा, अब
विवाह का क्या
करोगे? उसने
कहा, देर
मत करो, बातचीत
मत करो, जल्दी
कोई भी
पुरोहित पकड़
लाओ।
कोई
पुरोहित
पकड़कर लाया
गया और उसने
उसने विवाह
करवाया। और
विवाह करने के
बाद जो दूसरा
काम हिटलर ने
किया, वह था,
दोनों ने
जहर खा लिया।
पेट्रोल
दोनों ने अपने
ऊपर डाल लिया
और आग लगवा
दी। इतनी सी देर के
लिए विवाह। यह
स्त्री बहुत
पीछे पड़ी थी, उसने वायदा
किया था, कि
तुझसे विवाह
करूंगा।
मरते-मरते भी,
मगर मुझसे
विवाह
करूंगा। घबड़ा
मत। आश्वासन पूरा
करना था इसलिए
विवाह किया।
मगर विवाह तब
किया, जब
सब हाथ से खो
ही जा चुका
था। अब कुछ
बचा भी न था
सिवाय मौत के।
उसको बड़े से
बड़े सेनापति
भी उससे मीलों
फासले पर थे।
जुदास
का डर...। किसी
को भी करीब
लेना खतरे से
खाली नहीं है।
जिसको भी करीब
लो, वही धोखा
दे सकता है।
पश्चिम
के बहुत बड़े
राजनीति
शास्त्री
मैक्यावेली
ने...और
तुम्हें
जानकर हैरानी
होगी, कि
मैक्यावेली
की नातिन मेरी
संन्यासिनी
है।
मैक्यावेली
पश्चिमी
चाणक्य है।
उसने पश्चिम
की राजनीति के
सारे सूत्र
लिखे हैं। उन
सूत्रों में
एक सूत्र यह
भी है, कि
हर राजनेता को
ध्यान रखना
चाहिए, कि
वह बात अपने
दोस्त से न
कहे, जो वह
अपने दुश्मन
से नहीं कहना
चाहता। वह बात
दुश्मन के
संबंध में भी
किसी से न कहे,
जो वह अपने
दुश्मन के
संबंध में
कहना चाहता है।
क्योंकि जो आज
दोस्त है, कल
दुश्मन हो
सकता है। और
जो दुश्मन है,
कल दोस्त हो
सकता है। तब
मुश्किल
होगी। इसलिए राजनेता
को बहुत
सोच-समझ कर
बोलना चाहिए।
और इस ढंग से
बोलना चाहिए
कि उसके हर
बोलने का दोहरा
मतलब हो सके।
कि जब जैसी
जरूरत पड़े, गिरगिट की
तरह वह रंग को
बदल ले।
यूरोप
के सारे
राजकुमार और
सारे राजा
मैक्यावेली
के पास
राजनीति
सीखने आते थे, लेकिन कोई
भी उसको अपना
मुख्यमंत्री
बनाने को राजी
नहीं था। वह
बड़ा हैरान था।
उसको गुरु बनाने
को राजी थे, मुख्यमंत्री
बनाने को राजी
नहीं थे। उसने
पूछा कि बात
क्या है? उन्होंने
कहा कि आपकी
बातों को
सुनकर, समझकर
इतनी अक्ल तो
आ गयी है कि
आपको उतने करीब
आने देना बहुत
खतरनाक है।
गुरु की तरह
आप ठीक। चरण
छुएं और
नमस्कार आपको
करें, यह
ठीक। मगर अगर
आप
मुख्यमंत्री
बनकर, वजीर
बनकर पास में
बैठ गए, तो
ज्यादा देर न
लगेगी कि आप
तख्त पर होंगे
और हम कब्र
में होंगे।
और
उनका कहना ठीक
था।
मैक्यावेली
को जिंदगी भर
कोई नौकरी
नहीं मिली।
कौन उसे नौकरी
देगा? आदमी
अदभुत था।
उसकी
मस्तिष्क की
धार बड़ी तेज थी,
लेकिन वह
जुदास साबित
होता। किसी के
भी पास, वह
किसी की भी
गर्दन काटता।
आशा कर
सकते हैं हम, कि कभी
दुनिया में वह
दिन होगा जब
महत्वाकांक्षा
का ज्वर चला
जाएगा, तो
जुदास पैदा
नहीं होंगे।
लेकिन यह आशा
ही है। दुनिया
बड़ी है, भीड़
बहुत है, बीमारी
पुरानी है, नस-नस तक
फैली है। थोड़े
से लोगों की
भी हट जाए, तो
बहुत। मैं कोई
निराशावादी
नहीं हूं, लेकिन
अगर एक बड़ा
अंश भी दुनिया
का बदल जाए, तो भी बड़ी
क्रांति हो
जाएगी।
क्योंकि जो
लोग पीछे रह
जाएंगे इस
क्रांति में,
जिनको
दिखाई पड़ने
लगेगा और
लोगों का आनंद,
जिनको
सुनाई पड़ने
लगेगा नया
संगीत, ढोलक
पर पड़ी हुई
नयी थाप, उनमें
से लोग
धीरे-धीरे इस
नए जीवन और नए
मनुष्य के साथ
सम्मिलित हो
सकते हैं।
लेकिन
तुम अपने से
शुरुआत करो।
तुम इसकी फिकर
छोड़ो, कि
दुनिया
बदलेगी कि
नहीं बदलेगी।
ऐसे बहुत लोग
हैं जो दुनिया
का हिसाब
लगाते रहते
हैं, कि
दुनिया
बदलेगी कि
नहीं बदलेगी।
और यह भूल ही
जाते हैं कि
अपने संबंध
में क्या खयाल
है। सोचो पहली
बात अपने
बदलने की।
तुम्हारा
बदलना दुनिया
के बदने की
शुरुआत है।
धन्यवाद।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें