दिनांक
27 जून 1976;
श्री
ओशो आश्रम
पूना।
बाऊलगीत:
जब तक
तुम पृथ्वी पर
हो
तुम
पृथ्वी
अर्थात् अपनी
माटी की देह
के प्रति
स्वयं ही
वचनबद्ध हो।
ओ मेरे
हृदय!
यदि तू
उस अप्राप्य
पुरुष को
प्राप्त करना
चाहता है—
तो
उसके चरणों
में
अपने
भावों के
पुष्पों को
अर्पित कर दे;
और
अपनी
प्रार्थना के आंसुओ
से
जो
तेरी आंखों से
बाढ़ की तरह
उमड़ रहे हैं
उन
चरणों को भिगो
दे।
जिस
मानुष की तू
खोज कर रहा है।
वह
तेरी इस माटी
के तन में ही
है।
मृत्यु
से नवजीवन का
प्रारंभ होता
है।
और
मरने के बाद
मृत्यु उसके
अस्तित्व को
माटी में ही
मिला देती है।
और
मृत्यु के साथ
मर ही जाना है
परतुझे जीवित
रहते हुए ही
उसे
जरूर खोज लेना
चाहिए।
बाउलों का
धर्म, पृथ्वी
का ही धर्म है।
वस्तुत: वह
मौलिक धर्म है,
क्योंकि वह
अस्तित्व की
जड़ों से जुड़ा
है। जब मैं कह
रहा हूं कि
पृथ्वी का
धर्म है तो
इसके कई अर्थ
हैं, यह
देह का धर्म
है, यह
प्रकृति का
धर्म है, यह
वास्तविक
यथार्थ का
धर्म है।
बाउलों
का विश्वास
किन्हीं
काल्पनिक
कथाओं में
नहीं, और
न उनका
विश्वास किसी
स्वर्ग या
बहिश्त में है।
वे दूर के
लक्ष्यों में
विश्वास नहीं
रखते, वे
काल्पनिक
आदर्श संसार
का सपना नहीं
संजोते, वे
बहुत अधिक
जमीन से जुड़े
वास्तविक
मनुष्य हैं।
यह चीज धर्मों
के संसार में
बहुत विशिष्ट
है। क्योंकि
साधारण धर्म
और कुछ भी
नहीं है, बल्कि
वह दुखी
मनुष्यता के
सपनों और
कामनाओं को
पूरा करते हैं।
क्योंकि
मनुष्यता दुख
भोग रही है, इसलिए वह
वास्तविक
जीवन की अधूरी
कामनाओं को सपनों
में पूरा करते
हैं। एक
निर्धन
व्यक्ति अपने
आपको आश्वस्त
कर सकता है कि
वह कम से कम
परमात्मा के
राज्य में तो
प्रथम होगा।
वह इस तरह
कहकर अपने
आपको संतोष दे
सकता है।
धन्यभागी हैं
वे विनम्र और
दबे हुए लोग
क्योंकि वे ही
एक दिन
उत्तराधिकार
में पृथ्वी का
राज्य
प्राप्त
करेंगे। निर्धन
आत्मा वाले ही
परमात्मा के
लोग हैं, जो
यहां सबसे
अधिक अंत में
हैं, लेकिन
परमात्मा के
राज्य में वे
सर्वप्रथम हो
जाएंगे। गरीब
व्यक्ति को इन
सभी
आश्वासनों की
जरूरत होती है।
मनुष्य
मृत्यु से
डरता है। उसे
बार—बार यह
आश्वस्त होने
की जरूरत होती
है— '' तुम
आत्मा हो, मृत्यु
के पार शाश्वत—केवल
शरीर मरता है।
तुम नहीं।’’ मनुष्य एक
हजार एक
उलझनों से
पीड़ित है।
उसका लगभग
पूरा जीवन ही
लगभग दुख
उदासी और पीड़ाओं
का एक पारावार
है। उसे सहन
करना बहुत
कठिन है।
इसीलिए सपनों
की जरूरत है, एक बेहतर
भविष्य के लिए
आशाओं की
जरूरत है। वह
भले ही मृत्यु
के पार हो, लेकिन
केवल यह विचार
ही—कि वहां
तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रहा है— और ये
सभी दुख केवल
आज ही है—इन्हें
किसी तरह
गुजार दो और
कल पर विश्वास
करो। देर सवेर
तुम उनसे
मुक्त हो
जाओगे।
सामान्य धर्म
आने वाले कल
के धर्म हैं।
वे केवल यही
इंगित करते
हैं कि
क्योंकि
मनुष्य दुखों
में जी रहा है,
उसे सपनों
की जरूरत है।
बाउलों
का धर्म नीचे
इसी पृथ्वी ही
में है वह अभी
और यहां में
विश्वास करता
है। वह यह
नहीं कहता कि
स्वर्ग कहीं
और है वह यहीं है
और तुम उसे
आगे के लिए
स्थगित नहीं
कर सकते। सभी
चीजों को आगे
के लिए टाल
देना या
स्थगित कर
देना बहुत
खतरनाक है, वह
आत्मघाती है।
यदि तुम उसे
अभी और यहीं
नहीं खोज सकते,
तो तुम उसे
कहीं भी कभी न
खोज सकोगे, क्योंकि तुम
तो ज्यों के
त्यों बने
रहोगे। और तुम
जहां कहीं भी
होगे जीवन
हमेशा अभी और
यहीं के रूप
में तुम्हारे
सामने होगा।
इसलिए सत्य का
द्वार केवल
यही है और इसी
क्षण में है।
बाउल
कहते हैं—’‘ यही है
सत्य और
वास्तविकता
और वहां कोई
भी वह नहीं है।
वे सत्य को दो
में विभाजित
नहीं करते, वे यह नहीं
कहते कि यह
माया या भ्रम
है और यह रहा
सत्य। वे माया
और ब्रह्म, की बात नहीं
कहते, वे
यह और वह की
बात नहीं कहते।
वे कहते हैं—’‘ सब कुछ यही
है।’’ यह
क्षण अपने आप
में पूरा है
और सभी विभाजन
खतरनाक है
क्योंकि सत्य
को कहीं भी
विभाजित नहीं
किया जा सकता।
वह अविभाज्य
है।
परमात्मा
के बारे में
वे कुछ बात
करते ही नहीं
कि वह कहीं
सातवें आसमान
में बैठा हुआ
है। वे लोग
पूरी तरह
भिन्न एक अलग
परमात्मा की
बात करते हैं।
जो गहरे में
तुम्हारे ही
अंदर जड़ें
जमाये हुए हैं, जिसकी
जड़ें जमीन में
है, माटी
की इस देह में
है, जिसकी
जड़ें यहां के
सभी तनावों और
खींचतान में
है। बाउलों का
परमात्मा ही
बहुत
वास्तविक
ईश्वर है। तुम
उसे छू सकते
हो, तुम
उसे प्रेम कर
सकते हो, तुम
उसे आलिंगन
में बांध सकते
हो, तुम
उसके साथ रह
सकते हो, और
तुम उसे जी
सकते हो। वह
कहीं दूर नहीं
है, वह
बहुत निकट है,
निकट से भी
निकटतम है, क्योंकि वह
तुम ही हो। वे
लोग परमात्मा
शब्द का
प्रयोग करते
ही नहीं। परमात्मा
के लिए उनका
शब्द है—’‘ आधार
मानुष।’’ सारभूत
मनुष्य।
मनुष्य स्वयं
अपने आप में
दिव्य है। यदि
तुम स्वयं
अपने ही अंदर
प्रवेश करो, तो तुम
परमात्मा में
ही प्रवेश
करोगे।
इसका
यह अर्थ नहीं
है कि वहां
कोई परमात्मा
नहीं है। यह
एक मौलिक
दृष्टिकोण है
लेकिन यह नकारना
नहीं है। यह
बहुत
क्रांतिकारी
दृष्टि है लेकिन
यह नकार नहीं
है। इसका यह
अर्थ नहीं है
कि परमात्मा
का कोई अस्तित्व
है ही नहीं।
वास्तव में
इसका अर्थ है
कि परमात्मा
यहीं और अभी
मौजूद है। और
उसे खोजने की
तुम्हारी ही
जिम्मेदारी
है। और वहा
कोई गवाही
नहीं है, वहां उसे
टालने का कोई
बहाना नहीं है।
चीन
में ताओवादी
भी इसी परिणाम
पर पहुंचे, उन्होंने
परमात्मा
शब्द को ही
छोड़ दिया।
उन्होंने ' ची लॉन ' शब्द
का प्रयोग
करना शुरू कर
दिया।’ ची
लान ' का
अर्थ है जो
स्वयं से अपने
आप घटता है जो
पहले ही से घट
रहा है, जो
हमेशा से ही
घटता रहा है
और जो हमेशा
घटता ही रहेगा।
यही ताओ शब्द
का भी अर्थ है।
वेदों में
हिंदुओं के
पास एक सुंदर
शब्द है, वे
उसे ' ऋतम् '
कहते हैं।
यह ठीक वही
शब्द है जो ' ताओ ' और ' चीलान ' है।’
ऋतम् ' का
भी अर्थ होता
है। प्रकृति।
परमात्मा
नहीं।
क्योंकि जब भी
तुम परमात्मा
कहते हो, किसी
न किसी तरह वह
हमेशा कहीं और
होता है, यहां
नहीं होता, कम से कम
तुममें नहीं
होता, तुम्हारे
आस—पास नहीं
होता। यह
पृथ्वी यहां
परमात्मा के
रहने योग्य
पर्याप्त
नहीं है।
जैन और
बुद्ध—' धम्म ' शब्द
का प्रयोग
करते हैं।
उसका भी ठीक—ठीक
अर्थ प्रकृति
या स्वभाव है।
संस्कृत शब्द '
धर्म ' का
भी अर्थ
स्वभाव ही है।
यह अंग्रेजी
शब्द रिलीजन
का समानार्थी
नहीं है। नहीं,
यह बिलकुल
भी वह सब नहीं
है। वास्तव
में दोनों
ध्रुव विरोधी
हैं। रिलीजन
का अर्थ होता
है—जो तुम्हें
बांधता है।
तुम्हें एक
निश्चित
संगठन देता है,
पूजाघर या
चर्च देता है,
तुम्हें
किसी के
अधिकार में
देता है और
धर्म का अर्थ
है वह जो
तुम्हें सभी
चर्चों
(पूजाघरों) से
और संगठनों से
मुक्त करता है।
धर्म
वैयक्तिक है,
रिलीजन
सामाजिक है।
रिलीजन
सामूहिक भीड़
के अधिकार में
होता है रिलीजन
वैयक्तिक
नहीं होता। ईसाइयत
हिन्दुत्व
जैनिल्म, और
बुद्धिज्म यह
सभी रिलीजन
हैं धर्म नहीं
है— धर्म का
कोई विशेषण
नहीं होता।
प्रत्येक
व्यक्ति को
अपना धर्म
स्वयं खोजना होता
है। प्रत्येक
को अपना
स्वभाव या
अपनी प्रकृति
स्वयं खोजनी
होती है।
बाउलों
का यह
दृष्टिकोण कि
परमात्मा
यहीं तुम्हारे
ही अंदर हैं, इसे
जितनी भी
गहराई से संभव
हो सके, तुम्हें
समझना है, क्योंकि
इसके
अतिरिक्त
अन्य कोई
दूसरा परमात्मा
नहीं है।
वास्तव में
चूंकि अन्य
तथार्काथेत
धर्म (रिलीजन)
कहीं दूसरी
जगह परमात्मा
के बारे में
बात करते रहें
हैं, यही
कारण है कि
संसार अधिक से
अधिक
परमात्मा
रहित हो गया
है। क्योंकि
जो परमात्मा
यहां नहीं है,
जिसे
स्पर्श नहीं
किया जा सकता
है, जिसे
देखा नहीं जा
सकता है, जिसे
साथ रहकर जिया
नहीं जा सकता।
अधिक से अधिक
आकर्षक सिद्ध
नहीं हो सकता।
मनुष्य ज्यों—ज्यों
विकसित होता
जाता है, परमात्मा
उतना ही
विलुप्त और
महत्त्वहीन
होना शुरू
होता जाता है।
जब भी
मनुष्य
परिपक्व और
विकसित हो
जाता है, सपनों और
कल्पना के वे
सभी देवता
लुप्त हो जाते
हैं, और
मनुष्य बिना
परमात्मा के
रह जाता है।
इस युग में जो
कुछ हुआ है, वह यही है।
ऐसा
नास्तिकों के
कारण नहीं हुआ
है कि मनुष्य
बिना
परमात्मा के
रह रहा है, ऐसा
परमात्मा की
गलत धारणा के
कारण हुआ है।
मार्क्स
ईसाइयों के
परमात्मा की
निंदा कर सका,
लेकिन
मार्क्स
बाउलों के
परमात्मा की
निंदा नहीं कर
सकता है।
वैज्ञानिक भी
तथाकथित
धर्मों के
परमात्मा से
इंकार नहीं कर
सकते—क्योंकि
वे सपनों जैसी
किसी भी चीज
को
प्रक्षेपित
नहीं करते। वे
वास्तविक
यथार्थ की
धरती पर खड़े
हैं।
मैंने
एक सुंदर
वृत्तांत के
बारे में सुना
है:
रूस के
एक उच्च
अधिकारी ने एक
किसान से पूछा—
'' हमारे
गौरवपूर्ण
महान नेता के
निर्देशन में नई
किस्म के आलू
उत्पादन की
योजना कैसा
परिणाम ला रही
है?''
किसान
ने उत्तर दिया—’‘ हमारी
आलू की फसल ने
तो चमत्कार कर
दिया। यदि हम
लोग फसल की
सभी आलुओं का
एक ढेर लगा
दें, तो वह
एक पहाड़ बनकर
परमात्मा के
चरणों तक पहुंच
जाएगा।’’
उस
उच्च अधिकारी
ने कहा— '' लेकिन तुम
तो जानते हो
कि वहां कोई
परमात्मा है
ही नहीं।’’
''मैं
जानता हूं '' किसान ने
कहा—’‘लेकिन
वहां आलू भी
तो नहीं है।’’
आसमान
में बैठा
परमात्मा
झूठा
परमात्मा है।
ऐसा नहीं है
कि आसमान बिना
परमात्मा के
है—पूरा आसमान, पृथ्वी
की ही भांति
परमात्मामय
है। लेकिन
परमात्मा की
पहली समझ की
जड़ें तो पृथ्वी
के ही अंदर
जानी हैं।
पहली समझ तो
जड़ों के बाबत
होना चाहिए और
उन जड़ों से भी
तुम्हारी समझ
विकसित होगी
और वह अस्तित्व
के दूरस्थ
कोनों तक
पहुंच जाएगी।
लेकिन यात्रा
तो घर से ही
शुरू होती है।
वह तुम्हारे
अंदर की गहराई
में ही उसकी
शुरुआत होती
है। परमात्मा
की पहली झलक
तो तुम्हें
अपने हृदय की
ही अनंत गहराई
में मिलती है।
यदि तुमने उसे
वहां नहीं
देखा।
तो तुम
उसके बारे में
बातें किए
जाओगे, लेकिन तुम
उसे कहीं भी
देखने में
समर्थ न हो सकोगे।
तुम्हारे
अंदर ही उससे
आमने—सामने
मिलने की घटना
घटती है। एक
बार जब यह घट
जाती है। तो
तुम
आश्चर्यचकित
हो जाओगे कि
फिर तुम्हें
प्रत्येक
स्थान पर
परमात्मा
दिखाई देना
शुरू हो जाता
है। बस एक बार
तुमने उसे
अपने हृदय में
देख लिया, फिर
तुम उसे कैसे
चूक सकते हो? क्योंकि हर
जगह हृदय उसी
के साथ ही धड़क
रहा है। वही
वृक्ष और वही
चट्टान के रोम—रोम
में व्यास है।'
वही नदियों
और सागरों में,
वही
जानवरों और
पक्षियों में
और वही
सर्वत्र व्यास
है।
एक बार
तुमने उनकी
धड़कन का अनुभव
कर लिया, एक बार
तुमने उसका
अपने रक्त में
परिभ्रमण करने
का अनुभव कर
लिया, एक
बार तुमने
अपनी
अस्थियों में
बहते जीवन रस में
उसका अनुभव कर
लिया, तब
वह हर कहीं है।
तुम जहां भी
देखोगे, उसी
को पाओगे।
लेकिन यह किसी
और तरह से
नहीं घट सकता।
यदि तुम उसके
अनुभव से
वंचित और
रिक्त हो, तो
तुम संसार के
किसी दूरस्थ
कोने में भी
चले जाओ, फिर
भी तुम्हारी
यात्रा
व्यर्थ होगी।
तुम उसके
मंदिर तक कभी
न पहुंच सकोगे।
क्योंकि तुम
उसके मूल से
ही चूक गए।
तुम उससे अपने
ही घर में चूक
गए। यदि
तुम्हारा
अपना ही घर
उसका मंदिर
नहीं बना, तो
कोई भी मंदिर
उसका घर नहीं
हो सकता। यदि
तुम्हारा
अपना घर ही
उसका मंदिर बन
गया, तब
फिर सभी घर
उसके ही घर
हैं।
जब
बाउल कहते हैं
कि प्रत्येक व्यक्ति
को जमीन की ओर
उन्यूख अपने
जड़ों से जुड़ा
रहना चाहिए तो
इसका अर्थ यह
नहीं कि आकाश
परमात्मा से
रिक्त है
बल्कि वे कहते
हैं, यदि
पृथ्वी ही
उससे भरी नहीं
है, तो
आकाश तो रिक्त
होगा ही। जब
वह पृथ्वी के
ही कण—कण में
व्यास उससे
भरा हुआ नहीं
है, तो
आकाश उससे भरा
हुआ कैसे हो
सकता है? यदि
वहां यह नहीं
है, तो वह
वहां कैसे हो
सकता है? यदि
वह ' यह ' नहीं
है, तो वह ' वह ' कैसे
हो सकता है? यदि वह 184 ३
प्रेम योग आज
नहीं है, तो
कल कैसे हो
सकता है? यदि
वह इस जीवन
में नहीं है, तो वह अगले
जन्म में कैसे
है? उनका
तर्क सरल और न
काटे जाने
वाला है।’’
लेकिन
मनुष्य ने
परमात्मा का
सृजन आसमानों
में किया है
क्या? यह
परमात्मा
सच्चा
परमात्मा
नहीं है, यह
उसका
प्रतिस्थापन
है, क्योंकि
तुम उससे यहां
चूक रहे हो और
तुम उसे बहुत
तीव्रता से
चूक रहे हो? जिससे तुमने
उसे कहीं और
बहुत तीव्रता
से चूक रहे हो,
जिससे
तुमने उसे
कहीं और रख
दिया है, अन्यथा
तुम बहुत
अकेलेपन का
अनुभव करोगे,
तुम इतने
अधिक अकेलेपन
का अनुभव
करोगे, कि
तुम जीवन का
अर्थ ही भूल
जाओगे। और यह
अच्छा है कि
तुमने उसे
बहुत दूर रख
दिया है, क्योंकि
तब वहां
पहुंचने की
कोई जल्दी
नहीं है। वह
मात्रा इतनी
अधिक दूर की
है, कि तुम
उसे आज ही
पूरा नहीं कर
सकते। इसके
लिए यह जीवन
भी पर्याप्त
नहीं है।
इसलिए उसे
टालने को
पर्याप्त
स्थान है, और
कहने की भी
बहुत अधिक
गुंजाइश है—’‘ हां! एक न एक
दिन मैं उसे
पूरा करूंगा।
यह बहाने
बनाने की भी
काफी गुंजाइश
है कि
तुम्हारी
उसमें पूरी
दिलचस्पी है
और संसार में
रहना जारी
रखते हुए भी
तुम उसी समय
में ही परमात्मा
के बारे में
बातें किए
जाते हो। यह
दो तरह की
बातें हैं और
सामान्य
मनुष्यता इसी
दोहरे बंधन
में बंधी है।
लोग बातें तो
परमात्मा की
करते हैं, और
रहते हैं
शैतानों की तरह।
वे जाते तो
मंदिर हैं, पर कभी वहां
पहुंचते ही
नहीं। वे
बाइबिल पढ़ते
हैं, वे
कुरान पढ़ते
हैं, लेकिन
वे कभी भी
सुनते नहीं
केवल परिधि पर
ये सभी बहाने
हैं। इसी तरह
से अच्छाई का
मुखौटा लगाए
हुए इस अपराधग्रस्त
मनुष्यता का
जन्म हुआ है।
एक नकली, छद्य
मनुष्यता।’’
मैंने
सुना है:
एक बार
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने
मनोचिकित्सक के
पास जाकर बोला—
'' डॉक्टर
साहब! क्या आप
मेरे लिए ही
मुझ पर यूक सकते
हैं?''
''क्यों?
आखिर तुम
ऐसा क्यों
चाहते हो?'' डॉक्टर
ने
आश्चर्यचकित
होकर पूछा।
मुल्ला
ने कहा—’‘ क्योंकि मैं
इतना अधिक
अकेलापन महसूस
कर रहा हूं।’’
परमात्मा
के बिना
मनुष्य बहुत
अकेलेपन का
अनुभव करता है
और असली
परमात्मा को
खोजना, खड़े पर्वत
पर चढ़ने जैसा
श्रमपूर्ण है।
एक ऐसे नकली
परमात्मा का
सृजन करना
बहुत आसान है,
जो
परमात्मा
जैसा दिखाई
देता हो, जो
परमात्मा की
तरह लगता हो।
वह कम से कम यह सान्त्वना
तो देता ही है
कि तुम अकेले
नहीं हो। क्या
तुमने कभी
परमात्मा की
धारणा पर
ध्यान दिया है?
क्या वह
तुम्हारे
अपने
अस्तित्व के
अनुभव से उत्पन्न
हुआ है, अथवा
वह तुम्हारे
अकेलेपन के
अनुभव से
जन्मा है? यही
इसकी कसौटी है।
यदि
तुम्हें
परमात्मा पर विश्वास
है, क्योंकि
तुम अकेलेपन
का अनुभव करते
हो, तो
तुम्हारा
परमात्मा
झूठा और नकली
है और यदि तुम
परमात्मा में
विश्वास करते
हो क्योंकि तुमने
उसका अनुभव
अपने एकांत
में किया है, यदि वह
तुम्हारे
अपने
अस्तित्व से
जन्मा है, तब
परमात्मा में
विश्वास करते
हो, क्योंकि
तुमने उसका
अनुभव अपने
एकांत में
किया है, यदि
वह तुम्हारे
अपने
अस्तित्व से
जन्मा है, तब
वह परमात्मा
असली है। तब
नीवो को करने
दो घोषणा—कि
तुम्हारा
परमात्मा मर
गया है—तुम्हारा
परमात्मा कभी
भी मर ही नहीं
सकता, तुम्हारा
परमात्मा
तुम्हीं में
जीवित है।
नीवो यह घोषणा
कैसे कर सकता
है कि
परमात्मा मर
गया है? यह
घोषणा कर सका
और न केवल
उसने घोषणा ही
की, उसकी
घोषणा एक
भविष्यवाणी
बन गई। सौ
वर्षों में ही
उसकी घोषणा
वास्तविकता
में बदल गई।
चर्चों का
परमात्मा मर
गया, मंदिरों
का परमात्मा
मृत हो गया, शास्त्रों
का परमात्मा मुर्दा
बन गया। नीवो
जैसा
भविष्यवक्ता
कोई दूसरा आज
तक हुआ ही
नहीं।
परमात्मा
विलुप्त होता
जा रहा है, 'परमात्मा'
शब्द ही
कुरूप बन गया
है।
ठीक
दूसरे ही दिन
मैं एक ईसाई
पादरी द्वारा
लिखी हुई एक
पुस्तक पढ़ रहा
है। मैं हैरान
था, क्योंकि
मैंने ऐसी कुछ
परिस्थितियों
के बारे में
सुना था, विशेष
रूप से भारत
में जहां लोग
यदि कोई अश्लील
नग्न चित्रों
वाली पुस्तक
पढ़ना चाहें तो
वे उसे गीता
और बाइबिल में
छिपाकर पढ़ते
हैं। इसके
बाबत मैंने
केवल सुना ही
था। लेकिन वह
ईसाई बता रहा
था कि उसे
बाइबिल पढ़ते हुए
इतना डर लगता
था कि वह नग्न
चित्रों की
पत्रिका के
कवर के पीछे
बाइबिल को
छिपाकर पढ़ा
करते थे। ऐसी
घटनाएं
पश्चिम में
घटी हैं।
इसलिए जब वह
प्रत्येक
रविवार
सौंदर्य
प्रसाधन के
सैलून में
जाता था, तो
बाइबिल अपने
साथ ले जाता
था।
लेकिन
दूसरे लोग उसे
बाइबिल पड़ता
देखकर समय के
बाहर मान सकते
हैं, इस
भय से वह नग्न
चित्रों की
पत्रिका के
कवर में
बाइबिल
छिपाकर पढ़ा
करता था।
एक दिन
बाइबिल पढ़ते
हुए वह जीसस
के इस वचन से गुजरा—’‘ यदि तुम
मुझसे इंकार
करते हो, तो
याद रखो, निर्णय
के अंतिम दिन
मैं भी तुमसे
इंकार कर दूंगा।
इसलिए यह पढ़कर
वह बहुत अधिक
डर गया, क्योंकि
प्लेबुक के
कवर में
छिपाकर
बाईबिल पढूगा
भी एक तरह से
इंकार करना ही
था। वह इतना
अधिक डर गया
कि उसके पसीना
छूटना शुरू हो
गया क्योंकि
जीसस कहते हैं—’‘
यदि तुम
मुझे इंकार
करते हो, तो
परमात्मा के
सामने मैं
तुम्हें
पहचानूंगा
नहीं।’’ इसलिए
उसने अश्लील
चित्रों वाली
वह प्लेबुक
मैगजीन तुरंत
फेंक दी और ऐसा
कर उसे बहुत
अच्छा लगा। वह
पादरी के पास
गया और उससे
कहा—’‘ आज
मैंने एक महान
कार्य किया है।
मैं इतना साहस
बटोर सका कि
लोग जानें कि
मैं बाइबिल
पड़ता हूं।’’
परमात्मा
मर गया है, उसे मरना
ही चाहिए।
क्या तुमने
स्वयं का
निरीक्षण
किया है? यदि
तुम अपने साथ
एक बाइबिल लिए
जा रहे हो तो तुम्हें
थोड़ा भद्दा सा
लगता है अथवा
यदि तुम मंदिर
की ओर जा रहे
हो तो तुम
बहाने ढूंढना
शुरू कर देते
हो। तुम वहां
इसलिए जा रहे
हो, क्योंकि
तुम्हारी
पत्नी वहां गई
हुई है और वहां
तुम्हें भी
कुछ काम करना
है अथवा
तुम्हारे
पिता वहा है
और तुम्हें बस
औपचारिकता
निभाने ठीक एक
सामाजिकतावश
वहां जाना है।
क्या तुमने
कभी गौर किया
है कि चीजें
कैसे बदल जाती
हैं?
मुझे
इसका स्मरण तब
आया, जब
मैं एक सुंदर
कहानी पड़ रहा
था—
एक
डाकू एक महान
लुटेरे की
डकैती डालने
की अमरीकन
शैली में
दिलचस्पी
उत्पन्न हो गई।
अब प्रत्येक
उस व्यक्ति को
दिलचस्पी
लेनी ही पड़ती
है क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
धंधे के
सिलसिले में
अमेरिका जाने
की कोशिश कर
रहा है।
डॉक्टर जा रहे
हैं, इंजीनियर
जा रहे हैं, इसलिए उस
डाकू ने सोचा— ''
हमीं क्यों
नहीं जा सकते
वहां? हम
वहां जाकर
डकैती डालने की
आधुनिक
विधियां सीख
सकते हैं।’’
इसलिए
वह अमेरिका
गया, और
डाकुओं के एक
गिरोह में
सम्मिलित हो
गया। और वह
निरीक्षण
करता रहा कि
वे अपने काम
में किन
आधुनिक
विधियों का
प्रयोग कर रहे
हैं। वह वह
देखकर
आश्चर्यचकित
रह गया क्योंकि
पहले
उन्होंने एक
सुंदर स्त्री
का अपहरण किया
और तब
उन्होंने
पत्र लिखा......
.लेकिन उसने
कहा—’‘ यह सब
तो ठीक है
क्योंकि भारत
में भी हम लोग
किसी स्त्री
का अपहरण करते
हैं और तब हम
उसके पति को
पत्र लिखते
हैं कि यदि
तीन दिनों में
उसने पचास
हजार रुपये
नहीं दिए तब
हम लोग उसकी
पत्नी की
हत्या कर
देंगे। इसलिए
उसने
आश्चर्यचकित
होकर कहा—’‘ आखिर
इसमें नई बात
क्या है?'' तब
उसने देखा कि
वे लोग पत्र
में क्या लिख
रहे थे। उसने
आश्चर्यचकित
होकर पूछा— '' आप लोग यह
क्या रह रहे
हैं?'' क्योंकि
पत्र में उन
लोगों ने लिखा
था—’‘ यदि
तीन दिनों के
अंदर आपने
हमें पचास
हजार डालर
नहीं भेजे तो
हम लोग आपकी
पत्नी को वापस
भेज देंगे।’’
यह
संसार बहुत
तेजी से बदल
रहा है। लोग
प्लेबॉय
पत्रिकाएं
पहले बाइबिल
की जिल्द में
छिपाकर पढ़ते
थे, लेकिन
अब वे बाइबिल
को नग्न
चित्रों की
पत्रिकाओं
में छिपा रहे
हैं। नीवो
बिल्कुल ठीक
था, जिसने
कहा—’‘ परमात्मा
मर चुका है।
लेकिन असली
परमात्मा
नहीं मर सकता,
यह असम्भव
है। यह कहना
है कि
परमात्मा मर
गया है, यही
कहने जैसा है
कि जीवन ही मर
गया है। यदि
परमात्मा का
अर्थ जीवन है,
तब यह
वक्तव्य '' परमात्मा
मर चुका है '' महज एक
बेवकूफी है, यह अर्थहीन
और
विरोधाभासी
है।
इसे
सुनकर बाउल
हंसेंगे और
कहेंगे—’‘ तब तुम असली
परमात्मा को
समझे ही नहीं।
हां तुम्हारा
परमात्मा मर
चुका है
क्योंकि वह
नकली था, क्योंकि
हमने कभी
परमात्मा के
बारे में बात
की ही नहीं— हम
तो जीवन और
प्रेम के बारे
में बात करते
हैं। यदि सभी
मंदिर गिरा
दिए जाएं सभी
मस्जिदें और
गुरुद्वारे
जला दिए जाए
तो भी
परमात्मा का
कुछ बिगडेगा
नहीं, क्योंकि
उन पूजाघरों
में सुरक्षित
और संरक्षित
परमात्मा
असली नहीं है।
तुम्हारे
अंदर
विराजमान
परमात्मा ही
असली परमात्मा
है और उसे
नष्ट नहीं किया
जा सकता। जीवन
को नष्ट नहीं
किया जा सकता,
जीवन तो
गतिशील है। वह
तो शाश्वत
सरिता की
भांति बहा जा
रहा है।’’ लेकिन
कोई भी
व्यक्ति
अकेलेपन का
अनुभव करता है।
अपने अकेलेपन
में वह
कल्पनाएं और
स्वप्न निर्मित
करता है।
मनुष्य इतना
अधिक अकेला हो
गया है कि वह
कहीं भी किसी
भी तरह चैन
पाना चाहता है।
यह दुर्भाग्य
है उसका, लेकिन
सत्य को खोजने
का यह कोई
मार्ग नहीं है।
मैं एक
प्रसंग के
बारे में कहीं
पड़ रहा था:
इरा ने
कॉलेज छोड़ते
हुए पीठ पर
समान लादा और
पैदल, वाहनों
पर लिफ्ट लेता
हुआ अमेरिका
घूमने चल पड़ा।
एक वर्ष से
अधिक समय बीत
जाने पर उसने
घर फोन किया—’‘ हल्लो
मम्मी! आप ठीक
तो हैं।’’
'' ओह
मेरे प्यारे
बेटे! बहुत
अच्छी तरह से
हूं। तुम घर
कब आ रहे हो? मैं
तुम्हारे लिए
जिगर का कीमा,
चिकन सूप और
स्वादिष्ट
भुने केकड़े
बनाकर रखूंगी।’’
'' मां!
मैं यहां से
काफी दूरी पर
हूं।’’
'' ओह!
मेरे प्यार
बेटे!'' निराश
होकर मां ने
चीखते हुए कहा—’‘
तू बस घर जा
आ बेटे। मैं
तेरे लिए तेरी
पसंद की ओट
मील की पतली
पतली केक बना
दूंगी।’’ लड़के
ने उत्तर दिया—’‘
मां! मुझे
ओटमील कुकीज
जरा भी अच्छी
नहीं लगती।’’
उसकी
मां ने
आश्चर्य से
पूछा—’‘ क्या
कह रहा है तू
क्या वह अच्छी
नहीं लगती
तुझे?''
'' कृपया
बताएं?'' इरा
ने पूछा—’‘ क्या
यह फोन नं
सेंचुरी 5 — 7682
है?'‘
‘' नहीं।’’
'' तब
यह जरूर ही
गलत नम्बर है।’’
उस
स्त्री ने
पूछा—’‘ क्या
इसका मतलब है
कि तू घर नहीं
लौट रहा है बेटे।’’
लोग
वास्तव में
बहुत अकेले
हैं। यदि वह
उसका बेटा भले
ही न हो, कम से कम कोई
तो आ रहा है।
तुम बहाने बना
सकते हो, तुम
विश्वास कर
सकते हो, तुम
स्वयं को सान्त्वना
दे सकते हो।
वह
परमात्मा जो
मंदिरों में
रहता है, असली
परमात्मा
नहीं है। वह
परमात्मा जो
ऊपर आसमान में
रहता है, वह
तुम्हारा ही
प्रक्षेपण है?
असली
परमात्मा तो
तुम्हारे ही
अंदर है। वह
जिसे तुम खोज
रहे हो, वह
कहीं और नहीं
है, वह
तुम्हारे उस
खोजने में ही
है। वह तो
स्वयं खोजने
के ही अंदर है।
जिसे खोजा गया,
वह तो खोजी
के ही अंदर है।
तुम्हीं
एकमात्र सत्य
हो, हाड़मांस
के तुम्हीं
जीवन्त परमात्मा
हो। तुम्हारे
अंदर ही
परमात्मा ने
जन्म लिया है।
तुममें ही
परमात्मा ने
अवतार लिया है,
परमात्मा
ने जन्म लिया
है। तुममें ही
परमात्मा ने
अवतार लिया है,
परमात्मा
ही तुम्हारा
शरीर लेकर
तुममें प्रकट
हुआ है। तुम
कहां खोज रहे
हो उसे? तुम
जा कहां रहे
हो? बाउल
कहते हैं—’‘ जरा
प्रतीक्षा
करो, सुनो,
और अपने ही
अंदर जाओ।’’
वे गाते
हैं:
मनुष्य
के अंदर
घुलमिल एक
होकर
परमात्मा
ही उसमें
निवास कर रहा
है।
ओ मेरे
अदृश्य हृदय
तेरी आंखें
निर्बुद्धि
और नासमझ हैं।
तू कैसे
उस अकृत—अपार—गुणों
के भंडार उस
मनुष्य की खोज
कर सकता है?
वह
अदृश्य अरूप
मानुष,
समझ और
होश की दीप्ति
में निवास
करता है
मूर्च्छित
और आंखों वाले
अंधों से, वह अपन
पहचान छिपा कर
रखता है।
उसके
ठहरने का
ठिकाना ही
मनुष्य का तन
है,
उसी के
द्वारा वह
प्रकट होता है
और उसी के साथ नष्ट
हो जाता है।
ठीक
पलकों को
झपकाने की तरह।
वे बार—बार
गाए ही चले
जाते हैं :
हम सभी
भिन्न—भिन्न
मार्गों और
विधियों से
उस
परमात्मा के
बारे में
सोचते, उसका ध्यान
या पूजा
प्रार्थना
करते हैं।
वह
परमात्मा जो
सभी
इद्रियजनित
ज्ञान और भावों
के पार हैं।
यद्यपि
वह प्रेम के
सार में ही
पाया जाता है।
अपने
स्वयं के
अस्तित्व
सागर के उस
पार दूसरे छोर
पर।
द्रव
की जो एक अमृत
बूंद कांपते
हुए झरती है।
जो
जैसे सभी का
मूल स्रोत है।
सभी की
जड़ों का आधार
तुझमें ही है।
उस
सारभूत आधार
मानुष तक
पहुंचने के
लिए उस आधार
को खोजो
उस
प्रीतम
प्यारे को
पाने के लिए
अपने
भावों के
द्वार खोलो
अपनी
जिह्वा, स्वाद और
इंद्रिय जनित
संवेदनाओं के
प्रति समर्पित।
जहां
वासना और
प्रेम एक ही
स्थान पर
मिलकर एक हो
गए हैं।
वहां—
उस
ब्रह्म कमल से
अमृत सहजता से
झर रहा है
वहां
फिर न दुख
रहते हैं और न
रहता है सुख
सभी
द्वैत के पार
रह जाता है
केवल आनंद
वे
मनुष्य में
विश्वास रखते
हैं। वे
मनुष्य की
शक्ति और उसकी
संभावनाओं पर
विश्वास करते
हैं। वे
विश्वास करते
हैं कि मनुष्य
ही तीर्थ है परमात्मा
का। वे देह पर
विश्वास करते
हैं। तंत्र के
अतिरिक्त
किसी भी अन्य
धर्म ने शरीर
के ही अंदर
चेतना की
चमत्कारिक
घटना को समझने
की कभी कोशिश
नहीं की। अन्य
सभी धर्म शरीर—विरोधी, जीवन—विरोधी
होने के साथ
जीवन और शरीर
को नकारते रहे
हैं, उसकी
निंदा करते
रहे हैं, जैसे
मानो तुम
जितना अधिक
शरीर को
सताओगे और उसे
क्षति
पहुंचाओगे, तुम उतने ही
अधिक दिव्य और
उतने ही अधिक
परमात्मा के
निकट हो जाओगे।
बाउल
कहते हैं यदि
तुम शरीर को
हानि
पहुंचाते या
उसे सताते हो, तो तुम
मूल आधार को
ही नष्ट कर
रहे हो। यदि
तुम अनुभूति
और संवेदना को
नष्ट करते हो,
तो तुम अपनी
इंद्रियों को
ही नष्ट करते
हो, तब फिर
तुम कैसे
स्वाद ले
सकोगे, तुम
कैसे सुन
सकोगे, और
तुम कैसे देख
सकोगे? यदि
तुम प्रेम को
नष्ट करते हो
तो तुम उसे
प्रेम कैसे कर
सकोगे? यदि
तुम अपनी
वासना को नष्ट
करते हो तो
तुम नपुंसक हो
जाओगे।
वास्तव
में इन लोगों
के पास संसार
को सिखाने के
लिए एक
क्रांतिकारी
धर्म है। ये
बहुत
अशिक्षित लोग
हैं, लेकिन
इनके पास एक
गहरी
अंतर्दृष्टि
है। यह हो
सकता है कि
उनके पास
भरपूर
अंतर्दृष्टि
इसीलिए है, क्योंकि वे
अशिक्षित है......
.क्योंकि वे
शास्त्रों के
बारे में अधिक
नहीं जानते और
न वे
दर्शनशास्त्र
और आत्मज्ञान
के बारे में
ही अधिक जानते
हैं। क्योंकि
ये लोग
पुस्तकें नही
पढ़ सकते, इसलिए
वे अपनी ही
देह को पढ़ते
हैं, क्योंकि
वे मन के
सूक्ष्म
विचारों और
सिद्धांतों
को नहीं समझ
सकते, वे
यह खोजने की
कोशिश करते
हैं कि वे कौन
है, क्योंकि
वे लोग
विद्वान नहीं
बन सकते, वे
लोग तो एक
गांव से दूसरे
गांव में
नाचते गाते और
आनंद मनाते
हुए घूमने
वाले गरीब
भिखारी हैं, इसीलिए ये
लोग सत्य के
इतने अधिक
निकट हैं। ये
लोग समाज, संस्कृति
और शिक्षा के
प्रदूषण से
मुक्त, बहुत
ही प्रामाणिक
लोग हैं। ये
लोग बहुत भोले
और निर्दोष
हैं और यही
उनकी समझ है
कि यह शरीर
दिव्य है। यह
शरीर पवित्र
है क्योंकि
प्रत्येक
वस्तु पवित्र
है। लेकिन यह '
पवित्र ' शब्द बहुत
अच्छा नहीं है।
बाइबिल के
पुराने
टेस्टामेंट
में ' सेक्रिड
' (पवित्र)
इसलिए पुकारा
जाता है
क्योंकि वह इस
संसार के सत्य
से पृथक सत्य
है। इसे सुनकर
बाउल हसेंगे।
वे कहेंगे—’‘ तुम पागल हो
गए हो। कोई
पृथक सत्य है
ही नहीं। यह
संसार की
वास्तविकता
ही परमात्मा
है। बाउल पूरे
संसार की
वास्तविकता
को ही पावन पवित्र
और दिव्य बना
देते हैं।
उनकी दृष्टि
इतनी विराट है
कि पदार्थ भी
उनके विचार
में पदार्थ
जैसा नहीं रह
जाता। उनकी
दृष्टि से
पदार्थ भी
दीसिवान हो
जाता है, शरीर
भी केवल शरीर
नहीं रह जाता
वह माटी से
पृथ्वी से बना
है और अपने
में वह एक
दिव्यता लिए
हुए हैं।’’
मैंने
एक हसीदीरबी
के बारे में
सुना है—’‘ उसका नाम
रबी बोनुम था।
जब वह मर रहा
था, तो
उसने अपने
शिष्यों के
लिए अपना
संदेश छोड़ते
हुए कहा— '' प्रत्येक
व्यक्ति को दो
जेबें जरूर
रखना चाहिए
जिससे
आवश्यकता के
अनुसार उसके
हाथ पहली या
दूसरी तक
पहुंच सकें।
पहली जेब में
यह वाक्य होना
चाहिए '' यह
संसार मेरी ही
खातिर बनाया
गया '' और
बायीं जेब में
यह वाक्य होना
चाहिए—’‘ मैं
और कुछ भी
नहीं सिर्फ
मिट्टी या
पृथ्वी हूं।’’
अति
सुंदर। वह कह
रहा है—’‘ मनुष्य और
कुछ भी नहीं, माटी का
पुतला है। एक
जेब में यह
संदेश रखना, और दूसरी
जेब में—यह
पूरा संसार
मेरे लिए ही
बनाया गया है।
मैं ही पूरे
संसार का
परमात्मा हूं ''
यह संदेश
रखना। दोनों
ही संदेश सत्य
हैं क्योंकि
एक वास्तविक
सत्य को
प्रदर्शित
करता है और
दूसरा तुम्हारी
संभावना या
क्षमता को
दिखाता है। एक
' तथ्य ' को
दिखलाता है और
दूसरा ' सत्य
' को।’’
वास्तविकता
यही है कि हम
सभी मिट्टी या
पृथ्वी से ही
बने हुए हैं, सत्य यही
है कि हम सभी
उसी की छवि के
रूप में ही बने
हैं। हम दोनों
ही हैं
परमात्मा, पृथ्वी
में सबसे अधिक
मूल्यवान हैं,
एक तीर्थ की
भांति है। हम
सभी पृथ्वी ही
से बने हैं और
इसीलिए उसके अंदर
उच्चतम आकाश
तक उठने की
तीव्र
उत्कंठा है।
जरा वृक्षों
को देखो—’‘ वे
सभी क्या कर
रहे हैं? वे
पृथ्वी के
गर्भ से आते
हैं, वे
पृथ्वी के ही
पुत्र हैं, उनकी जड़ें
पृथ्वी में ही
हैं और वे सभी
सूर्य तक
पहुंचने का
प्रयास कर रहे
हैं, वे
सितारों तक
पहुंचने की
कोशिश में हैं।
पृथ्वी में
जड़ें जमाकर वे
स्वर्ग की ओर
गतिशील है।
यही तो बाउलों
का चरित्र और
चिह्न है—पृथ्वी
में जड़ें
जमाये हुए
वृक्ष, स्वर्ग
की ओर जा रहे
हैं। देह ही
में बने रहकर
तुम्हें
आत्मा की ओर
जाना है।’’
तब यह
दोनों एक
दूसरे के
विरोधी नहीं
है, यह
दोनों ही एक
ही प्रक्रिया
और एक ही
सक्रिय ऊर्जा
है।
झेन
सद्गुरु बाशो
जब साठ वर्ष
की आयु में
मरने जा रहा
था तो ठीक
मृत्यु होने
से पूर्व
पद्यासन
लगाकर बैठ गया
और उसके चारों
ओर जो भी शिष्य
वहां थे, उनसे उसने
कहा—’‘ कभी
भटकना या
बहकना मत।
प्रत्यक्ष
रूप से सीधे
देखना— '' यह
क्या है?'' इस
वाक्य को उसने
दोबारा जोर से
दोहराया और शांति
से मर गया।
जो कुछ
उसने कहा, मैं उसे
फिर से दोहरा
रहा हूं—’‘ भटक
मत जाना। सीधे
देखना। यह
क्या है?'' उसने
इसे जोर से
दोहराया और मर
गया। यह ही
पूरा अर्थ
सम्प्रेषित
कर रहा है।
इसे
प्रत्यक्ष
रूप से सीधे
अनुभव करना है।
वहां वह है ही
नहीं।’ यह '
ही ' वह ' है। यह इतना
विराट है कि
वहां ' वह ' के बने रहने
की कोई
आवश्यकता हीं
नही है।’ यह
' में ' वह
' भी शामिल
है।
'' कहीं
भटक मत जाना, बहकना मत '' उसने कहा था।
क्योंकि सबसे
अधिक भटकाने
वाले लोग वे
हैं जो
वास्तविक
सत्य से
परमात्मा को
पृथक देखते हैं,
जो तथ्य से
सत्य को अलग
करते हैं, जो
आत्मा को शरीर
से अलग देखते
हैं, जो
वासना को
प्रेम से अलग
करते हैं और
जो कमल से
कीचड़ को पृथक
देखते हैं। ये
लोग ही संसार
भर में सबसे
अधिक बहकाने
वाले लोग हैं।
ये लोग
विषतुल्य हैं, क्योंकि
एक बार यदि इन
लोगों ने
तुम्हारे दिमाग
में यह स्पष्ट
रूप से उतार
दिया तो
तुम्हारा मन
एक अनुशासन और
आदत के ढांचे
में ढल जाता है,
कंडीशंड हो
जाता है कि
कमल कभी कीचड़
से नहीं हो
सकता, तब
ये लोग कमल के
होने की
संभावना को ही
नष्ट कर देते
हैं। तब
तुम्हारे पास
एक प्लास्टिक
का बना कमल हो सकता
है, लेकिन
असली कमल नहीं,
क्योंकि
असली कमल की
जड़ें तो हमेशा
कीचड के अंदर
जमी होती है
वे तो कीचड़ का
ही एक भाग
होती हैं और
वह कीचड़ की ही
खिलावट है। यह
पृथ्वी का ही
गौरव है, यह
पृथ्वी का ही
सार तत्व है।
एक बार तुम
देख सकते हो
कि वासना और
प्रेम एक जैसे
हैं, क्रोध
और करुणा भी
एक जैसे हैं, शरीर और
आत्मा भी एक
ही हैं वे उसी
ऊर्जा की दो लय
हो सकती हैं, एक ही शक्ति
के दो रूप हो
सकते हैं। एक
जैसी सामग्री
के दो ठोस अलग—
अलग रूप हो
सकते हैं। यदि
तुम संसार और
परमात्मा को
ठीक कीचड़ और
कमल की भांति
वासना और
प्रेम की
भांति ही देख
सको, तब
तुम बाउलों का
दृष्टिकोण
समझ सकते हो।
यदि तुम्हारे
पास यह दृष्टि
नहीं है, तब
वहां भटक जाने
की पूरी
संभावना है।
और भटकाने
वाले लोग बड़े
चालाक और महान
तर्क
शास्त्री है।
वे तुम्हें
कायल कर सकते
हैं, वे
अपने
दृष्टिकोण के
लिए तर्क—
वितर्क कर
सकते हैं।
मैंने
सुना है:
गृहस्वामिनी
गोल्ड फार्ब
टहलती हुई एक
कसाई की दुकान
में गई और
दुकान के
मालिक से ताजा
मुर्गी का
क्या मांगा और
मिलते ही उसका
निरीक्षण
करना शुरू कर
दिया।
उन्होंने
उसका एक पंख
उठाया और उसे
अपनी नाक के
नीचे रख कर
सूंघा और
अरुचि से
घोषणा की—’‘ यह तो
बुरी तरह गंधा
रहा है।’’ तब
उन्होंने
उसकी एक टांग
खींचकर उसे
सूंघा और कहा—’‘
फूं।’’ फिर
उस चूजे के
सबसे अंत वाले
भाग को सूंघते
हुए मिसेज
गोल्ड फार्ब
ने जोर से कहा—’‘
इससे तो
बदबू आ रही है
और इसी को तुम
ताजा चिकेन
कहते हो?''
उस
कसाई ने कहा—’‘ देवी जी!
आप मुझे यह
बताइये क्या
ऐसे निरीक्षण
और जांच से आप
स्वयं गुजर
सकती हैं?''
ये लोग, जो संसार
की निंदा किये
चले जा रहे
हैं, शरीर
की और
प्रत्येक चीज
की निंदा कर
रहे हैं जरा
उनसे पूछो—’‘ इसी तरह के
निरीक्षण के
सामने
तुम्हारा
परमात्मा भी
क्या खरा उतर
सकता है? तब
कुछ भी नहीं
बचेगा, क्योंकि
तुम पूरी
वास्तविकता
और सत्य को
बुरा कहते हो।
तब केवल एक
सामान्य
विचार और
काल्पनिक
परमात्मा बच
रहता है। हां!
उस काल्पनिक
परमात्मा को
तुम बुरा नहीं
कह सकते, क्योंकि
इस परमात्मा
से दुर्गंध
नहीं आयेगी, तब उसके
पसीना भी नहीं
निकलेगा, क्योंकि
उसका इस
पार्थिव जगत
से क्या नाता
है? तब
उसके हाथों
में कीचड़ में
नहीं लगेगी।
तब वह केवल
काल्पनिक
होगा।’’
क्या
तुमने कभी इस
बात पर गौर
किया है कि
सभी धर्मों ने
पूरे संसार को
यह समझाने की
कोशिश की है
कि उनके सभी
संस्थापक लगभग
सामान्य
मनुष्य जैसे
वास्तविक
नहीं थे। जैन
कहते है कि
महावीर के कभी
पसीना नहीं
आता था
क्योंकि
परमात्मा के
मनुष्य में
पसीना कैसे आ
सकता है? सामान्य
मनुष्यों के
पसीना आता है,
महावीर के
नहीं। वे कहते
हैं कि महावीर
पर चोट या
प्रहार किया गया,
लेकिन कभी
भी उनके शरीर
से रक्त नहीं
निकला। आखिर
निकला क्या
उनके शरीर से— ''
दूध!
सामान्य
मनुष्यों की
तरह उनके शरीर
से रक्त कैसे
निकल सकता था।
अब वे महावीर
को एक ऐसे
आधार—स्तम्भ
पर रखने का
प्रयास कर रहे
हैं कि उन्हें
अवास्तविक बनने
को बाध्य होना
पड़े। तब यदि
लोग आकर कहते
हैं—’‘ हम
तुम्हारे
महावीर पर
विश्वास नहीं
करते, वे
तो कल्पित कथा
प्रतीत होते
हैं, तो वे
ठीक कहते हैं।
वे कैसे
वास्तविक हो
सकते हैं? तुम
वास्तविकता
और सत्य से
इंकार करते हो,
तुम इसे गलत
कहते हों।
ऐसा ही
संसार के अन्य
महान
सद्गुरुओं के
भी साथ हुआ है।
उनके अनुयायी
उन्हें
अवास्तविक और
नकली बनाने का
प्रयास कर रहे
हैं। अनुसरण
करने वाले लोग
हमेशा डरते
रहते हैं क्योंकि
यदि उनके
सद्गुरुओं के
हाथ गंदे
दिखाई दिए.......।
' डर्टी
' अर्थात्
गंदा शब्द, ' डर्ट ' या
गर्द से निकला
है। और यह
गंदा शब्द
नहीं है। इसका
अर्थ है—मिट्टी
से बना, पृथ्वी
का। एक माली
अपने उद्यान
में काम करता
है तो उसके हाथ
गर्द या धूल
से सनकर, गंदे
नहीं होते, सिर्फ धूल
या गर्द उन पर
जम जाती हैं
और गर्द और
धूल अच्छी चीज
है। हम धूल और
मिट्टी से ही
बने हुए हैं।’
ह्यमेन ' शब्द ' ह्यमस
' से निकला
है और ' झूमस
' का अर्थ
पृथ्वी होता
है।’ आदम ' शब्द ' एडेमुस
' से निकला
है और इसका भी
अर्थ पृथ्वी
है। हम सभी
पृथ्वी या
मिट्टी से ही
बने हैं।
बाउल
यही कहते हैं।
हम सभी मिट्टी
से बने हैं—लेकिन
उस पुतले या
देह के अंदर
गहरे में
चेतना या
आत्मा की
दिव्यता
सुरक्षित हैं।
तुमने
भारत में
मिट्टी के बने
दीए जरूर देखे
होंगे। वे
मिट्टी से बने
होते हैं।
लेकिन उनकी
ज्योति
मटमैली या
मिट्टी जैसी
नहीं होती।
दीया जरूर
मिट्टी का
होता है, लेकिन उसकी
ज्योति
निरंतर
ऊर्ध्वगामी
होती है, वह
ऊपर की ओर
उच्चता और
दिव्यता की ओर
गतिशील होती
है। मनुष्य भी
एक मिट्टी का
ही दीया है
मिट्टी से ही
बना हुआ, फिर
भी उसके मंदिर
में एक दिव्य
ज्योति विराजमान
है।
बाउल
पृथ्वी से
गहरे जुड़े हुए
वास्तविक और
सच्चे लोग हैं।
उनके विराट दृष्टिकोण
में एक अनूठा
सौंदर्य है।
वे संसार के
प्रति
नकारात्मक
नहीं है, वे सांसारिक
वस्तुओं या
व्यक्तियों
को सहज रूप
में
स्वीकारते
हैं, ' न ' नहीं
करते। यदि तुम
संसार में
रहते हुए उसे
बहुत अधिक ' न ' कहोगे,
तो फिर
तुम्हारा
परमात्मा भी
काल्पनिक हो
जाएगा क्योंकि
संसार को
नकारते जाने,
उसे न कहने
से संसार भी
सिकुड़ता हुआ
परमात्मा जैसी
वास्तविकता
बन जायेगा।
तुम जो
कुछ कहते हो, तुम्हारा
' न ' अर्थात
इंकार सिकुड़
कर तुम्हारा
परमात्मा बन
जाएगा। धीमे—
धीमे जब तुम
पूरे संसार को
नकार दोगे, ' न ' ही
करते जाओगे, तो संसार भी '
कुछ ' नहीं
बनकर
परमात्मा
जैसी ही एक
कल्पना बन जाएगा।
परमात्मा भी
और कुछ भी
नहीं है बल्कि
वह एक धारणा
है, एक
खाली और
नपुंसक शब्द
है, एक ऐसा
डिब्बा या खोल
है जिसके अंदर
कुछ भी सारतत्व
नहीं है।
वास्तविक
सत्य तो यही
जमीन या
पृथ्वी है।
संसार
से इंकार कर
उसे छोड़ दिया
गया और उसके
स्थान पर एक
विरोधी शक्ति
के रूप में
परमात्मा को
स्थापित किया
गया, जैसे
मानो वह संसार
के विरोध में
है। अब जरा
इसकी
व्यर्थता को
देखो — इन जैसे
लोग ही यह कहे
चले जाते हैं ''
परमात्मा
ने इस संसार
को बनाया।’’ वह उसके
विरोध में हो
ही नहीं सकता
अन्यथा वह उसे
बनाता ही
क्यों? सृष्टिकर्ता
या सृष्टा, अपनी ही
सृष्टि के
विरुद्ध नहीं
हो सकता। यह
मापदंड ही इस
बात का प्रमाण
है, कि वह
उससे प्रेम
करता है, यह
सृष्टि उसी की
प्रशंसा है, यह सृष्टि
उसी का एक खेल
है यह सृष्टि
उसी का प्रेम
और उसी की
दिव्य पुकार
है।
परमात्मा
इस संसार का
सृजन करता है, क्योंकि
वह उसे प्रेम
करता है।
गुरजिएफ
कहा करता था—’‘ सभी धर्म
परमात्मा के
विरोध में हैं,
क्योंकि वे
उसकी सृष्टि,
इस संसार के
विरुद्ध हैं।
तुम उस कवि के
कैसे हो सकते
हैं, यदि
तुम उसकी
कविता का
विरोध करते हो?
तुम उस मनुष्य
के कैसे हो
सकते हो, यदि
तुम उसके
चरित्र के
विरुद्ध हो? तुम उस
चित्रकार के
प्रिय कैसे बन
सकते हो, यदि
तुम उसके ही
बनाए चित्र का
विरोध कर रहे
हो। गुरजिएफ
बिल्कुल
तर्कपूर्ण और
पूरी तरह ठीक प्रतीत
होता है कि
सभी धर्म
परमात्मा के
विरुद्ध होना
दिखाई देते हैं।
वे बातें तो
परमात्मा की
करते हैं, लेकिन
वे हैं उसके
विरुद्ध
क्योंकि वे
उसके बनाए
संसार के
विरोध में है।
वे तुम्हें
संसार से
इंकार करना
सिखाते हैं लेकिन
तुम उससे
इंकार नहीं कर
सकते, क्योंकि
तुम्हारी
जड़ें उसी के
अंदर हैं। तब
आखिर होता
क्या है? तुम
झूठे बन जाते
हो, नकली
बन जाते हो, तुम
बहानेबाज और
दोहरे चेहरे
वाले बन जाते
हो। तुम्हारे
पास एक चेहरा
संसार को
दिखाने के लिए
होता है और
दूसरा चेहरा
उसके साथ रहने
के लिए होता
है। यह
संकटकालीन
स्थिति में
उठाया एक कदम
होता है, मनुष्य
इसके
अतिरिक्त और
कुछ कर ही
नहीं सकता।
आखिर
किया क्या जाए? तुम
वास्तविक
सच्चाई से
इंकार नहीं कर
सकते तुम उसे
स्वीकार भी
नहीं कर सकते, उसे
बने रहने की
अनुमति भी
नहीं दे
सकते-क्योंकि
तुम्हारे
धर्म तुम्हें
उसका विरोध
करना सिखाते
हैं। इसलिए
मनुष्य ने एक
स्वर्णिम
मध्य खोज लिया
है, वास्तविक
रूप से इंकार
मत करो, केवल
शब्दों के
द्वारा ही
इंकार किया
जाओ, और
सारी समस्या
हल हो गई।
परमात्मा के
प्रति भी
सम्मान प्रकट
करो और संसार
को भी
वास्तविक
जानकर जीते
रहो।
मनुष्य
को समझदार
बनाने में, धर्मों
ने कोई भी
सहायता नहीं
की। उन्होंने
पागल, मानसिक
रोगी और
विभाजित
बनाने में
सहायता की है।
एक
बार एक चर्च
में ऐसा हुआ, एक
व्यक्ति अपने
अपराधों को
स्वीकार कर
रहा था तभी
पादरी ने उस
व्यक्ति से
पूछा-’‘ कवानाघ!
उस बड़े ढेर से
तुमने कितना
भूसा चुराया?''
कवानाघ
ने कहा-’‘ आदरणीय
फादर! मैं
पूरे ढेर को
ही चुराने का
अपराध
स्वीकार करना
चाहता हूं
क्योंकि वहां
जो भूसा बचा
रह गया है उसे
मैं आज रात
में उठाने जा
रहा हूं।’’
वह
अपराध
स्वीकार भी कर
रहा है, लेकिन
फिर भी उसे
रात में करने
की योजना भी
बना रहा है।
तब तुम अपराध
स्वीकार ही
क्यों रहे हो?
नहीं, वह
अपने आपको एक
आसान स्थिति
में रखना
चाहता है
क्योंकि लोग
कहते हैं-’‘ यह
बुरा काम है
और '' चोरी
करना पाप है।’’
और लोगों ने
' अपराध
स्वीकृति ' को एक
सद्गुण बना
लिया है, जैसे
मानो अपराध
स्वीकार करना
ही अपने आप
में एक सद्गुण
है। जब तक यह
प्रामाणिक न
हो, यह
अर्थहीन है।
एक
सड़क एक बार
ऐसा हुआ, कि
प्रोटेस्टेंट
चर्च का
मंत्री अपनी
नई नवेली कार
को, जो उसे
चर्च द्वारा
पिछले जलसे के
अवसर पर उपहार
स्वरूप
प्राप्त हुई
थी, ड्राइव
करता हुआ
डबलिन की ओर
जा रहा था।
अचानक सामने
से आती हुई एक
कार तेज आवाज
करती हुई उससे
घिसटती हुई
आगे आकर रुकी।
चर्च
का वह मंत्री
भयंकर रूप से
क्रोधित होकर खूनी
आंखों से
सामने वाली
कार पर आधी के
वेग से झपटा।
तब उसने देखा
कि उस दूसरी
कार को एक
कैथोलिक पादरी
चला रहा था।
उसे देखकर वह
दांत पीसते
हुए बोला-’‘ आदरणीय
महोदय! यदि आप
चर्च के पादरी
न होते, तो
आपको आज मैं
बिना पीटे हुए
नहीं छोड़ता और
आपकी जान पर
बन आती।’’
उस
पादरी ने कार की
खिड़की के बाहर
अपना सिर बाहर
निकालते हुए कहा-’‘ महोदय!
और यदि आप
पादरी न होते
और यदि आज
पवित्र
शुक्रवार का
दिन न होता तो
मैं आपके
मर्मस्थल पर
ऐसा प्रहार
करता कि आप
उसे कभी भूलते
नहीं।’’
सभी
धर्मों का
पूरा प्रयास
यही है कि
कैसे मनुष्य को
अपराधी होते
हुए भी अच्छाई
का मुखौटा लगा
कर अपने का
महत्त्वपूर्ण
होने का दावा
करना चाहिए।
उनकी
वास्तविकता
और असलियत
पूरी तरह
भिन्न है-उनके
लगाए मुखौटे
असलियत से
पूरी तरह
भिन्न हैं।
बाउल इसके
विरुद्ध हैं।
वे कहते हैं-’‘ संसार
भर को प्रेम
करो, और इस
प्रेम के
द्वारा ही तुम
अपना
परमात्मा
खोजो, जिससे
तुम अपने ही
अंदर वहां कोई
विभाजन न करो।’’
मनुष्य
को नकली
मुखौटा लगाकर
केवल अपनी
सुरक्षा करने
के लिए कपटी
बनना पड़ा है।
धर्मों ने
उसके लिए कोई
मार्ग या कोई
संभावना ही
नहीं छोड़ी
जिससे वह
सच्चा और
ईमानदार हो सके।
अब जरा इस
व्यर्थता को
तो देखो वे
सिखाए चले जाते
हैं।
'सच्चे बनो' और उनकी
पूरी शिक्षा
झूठा बनना
सिखा रही है।
एक ओर तो वे
तुम्हें
सच्चा और
प्रामाणिक
होना सिखा रहे
हैं और दूसरी
ओर उनकी पूरी
शिक्षा इस तरह
की स्थिति
उत्पन्न कर
रही है, कि
यदि तुम सच्चा
बनना चाहते हो,
तो
आत्महत्या
करनी पड़ेगी
तुम जीवित रह
ही नहीं सकते।
यदि तुम सच्चे
बनकर रहना
चाहते हो तो
आत्महत्या
करना ही होगी,
लेकिन यदि
तुमने
आत्महत्या ही
कर ली, फिर
सच्चे बने
रहने का अर्थ
ही क्या रह
जायेगा? तुम
सच्चे बने
रहने के लिए
यहां रहोगे ही
नहीं। यदि तुम
जीवित रहना
चाहते हो तो
तुम झूठा बनना
ही होगा।
लेकिन वह
तुम्हारा
कुसूर
तुम्हारा
नहीं है यह
कसूर तो उस
पूरे
कार्यक्रम का
है, जो
धर्म और समाज
द्वारा
तुम्हारे
दिमाग में ठूंसा
गया है। यह
पूरा
कार्यक्रम ही
दोषपूर्ण है।
मनुष्य
को सच्चा होना
चाहिए अस्तित्व
के प्रति
सच्चा और
प्रामाणिक।
वास्तविकता
या सत्य जो
कुछ हो, मनुष्य
को उसे
स्वीकार करना
ही है और गहन
कृतज्ञता से
उसे जीना है, उसे इतने
अधिक आदर और
श्रद्धा के
साथ जीना है, क्योंकि वह
परमात्मा का
ही अस्तित्व
है। यह उसी का
एक मंदिर है।
जब
मोजेज उस
पर्वत पर
पहुंचे, जहां
उनका
परमात्मा से
साक्षात्कार
हुआ था, तो
उन्होंने एक
झाड़ी के नीचे
जलती हुई आग
देखी और झाड़ी
नहीं जली थी।
वह हमेशा की
तरह ही हरी-
भरी थी, लेकिन
आग की लपटें
उसी से निकल
रही थीं। वह
अपन आंखों पर
विश्वास ही
नहीं कर सके।
उन्होंने उस
झाड़ी की ओर बढ़ना
शुरू
किया। जो कुछ
उन्होंने
देखा था, वे एक
चुम्बकीय
आकर्षण से
उसकी ओर बड़े
जा रहे थे।
तभी अचानक
परमात्मा की
तेज आवाज गंजी—’‘
मोजेज! अपने
जूते उतार कर
आगे बढ़ो। तुम
पवित्र और
पावन भूमि पर
चल रहे हो।’’
मैं
हमेशा इस कथा
से प्रेम करता
रहा हूं लेकिन
मैं तुमसे
कहना चाहता
हूं कि केवल
सिनाई पर्वत
पर ही नहीं, लेकिन
तुम जहां कहीं
भी चल रहे हो, तुम पवित्र
भूमि पर ही चल
रहे हो
क्योंकि सभी भूमि
उसकी ही है, क्योंकि सब
कुछ वही ही तो
है।
वह
प्रीतम
प्यारा कितने
अधिक रूपों
में मौजूद हैं।
वासना भी उसी
की है, प्रेम
भी उसी का है।
बाउल कहते हैं—’‘
किसी भी चीज
से इंकार करो
ही मत, क्योंकि
इंकार करना ही
आदर पाने की
चाह है। यह
परमात्मा को
अस्वीकार
करना है।’’
एक दिन
मैंने देखा कि
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने लड़के को
सिखा रहा था
कि कैसे स्वयं
अपनी रक्षा
करने में
समर्थ बना जाए
इसलिए वह उसे
बॉक्सिंग की
श्रेष्ठतम आवश्यक
बातें सिखा
रहा था।
मैंने
उससे पूछा—’‘ लेकिन
मुल्ला जरा
सोचो—यदि वह
किसी बड़े
दिग्गज के
सामने पड़ जाये
जो बॉक्सिंग
जानता हो, फिर
क्या होगा?''
मुल्ला
ने उत्तर दिया—’‘ मैंने इस
बारे में पहले
ही से विचार
कर लिया है।’’ नसरुद्दीन
ने उत्तर दिया—’‘
इसलिए मैं
यह भी सिखा
रहा हूं कि
जरूरत पड़ने पर
कैसे दौड़ा
जाये।’’
एक ओर तो
हम लोगों को
सच्चा बने की
शिक्षा दे रहे
हैं तो दूसरी
ओर सूक्ष्म
रूप से हम उन्हें
झूठा बनना भी
सिखा रहे हैं।
माता—पिता और
समाज द्वारा
प्रत्येक
बच्चे को मानसिक
रोगी बनाया जा
रहा है और हम
जानते हैं कि
हम ऐसा कर रहे
हैं और हम भी
जानते हैं कि
दूसरों ने भी
हमारे साथ ऐसा
ही किया है।
तुम स्वयं तो
इसे करना बंद
करो ही और
दूसरों के लिए
भी यह करना
बंद करो। सजग
बनो। केवल
प्रामाणिक
बनो। मैं सत्य
से अधिक जोर
वास्तविकता
या असली बनने
पर देना चाहता
हूं क्योंकि
सत्य का
प्रयोग जीवन
विरोधी लोगों
द्वारा बहुत
अधिक किया गया
है, और
उनके गलत
सम्बन्ध भी
हैं। असली और
प्रामाणिक
बनो। यदि तुम
सच्चे और
प्रामाणिक हो,
तो
तुम्हारे
हृदय से एक चीज
विलुप्त होना
शुरू हो जाएगी
और वह है
अपराध—बोध।
एक
मनोविश्लेषक
और
मनोचिकित्सक
शेपर्ड ने 'अपराध
मुक्त' होने
के शब्द पर
खोज की। मैं
इस शब्द को
बहुत अधिक
पसंद करता।
असली धर्म
हमेशा
अपराधमुक्त
होने की एक
प्रक्रिया है।
नकली धर्म
हमेशा अपराधी
बनाने की
प्रक्रिया है।
वे तुम्हें
अधिक से अधिक
अपराधी बनाते
हैं, वहां
क्रोध होता है,
वहां वासना
होती है, वहां
सेक्स होता है,
वहां लालच
होता है, वहां
आसक्ति और
घृणा होती है
वहां प्रेम
होता है और वे
हर चीज की
निंदा करते
हैं। तुम
अपराध बोध का
अनुभव करते हो,
तुम्हें
अपने गलत होने
का अनुभव होना
शुरू हो जाता
है कि तुम गलत
हो, तुम
स्वयं ही से
घृणा करते हुए
स्वयं को
निंदित करना
शुरू कर देते
हो। यदि तुम
स्वयं को घृणा
करना शुरू कर
देते हो तो
तुम कभी
परमात्मा को न
खोज सकोगे, क्योंकि वह
तुम्हारे ही
अंदर छिपा हुआ
है।
अपराध
बोध से मुक्त
हो जाओ। तुम
जो कुछ भी हो, तुम जैसे
भी कुछ हो, तुम
हो, तुम्हें
परमात्मा ने
स्वीकार किया
है। जब
परमात्मा ने
ही तुम्हें
स्वीकार किया
है तो फिर
क्यों स्वयं
को ही स्वीकार
करो? अपने
जीवन को
विचारों और
धारणाओं के
अनुसार नहीं,
अपने शरीर,
अपने भावों
और अनुभवों के
द्वारा जीना
शुरू करो।
जीवन को इस
तरह से जीना
शुरू करो, जैसे
मानो तुम्हें
समाज द्वारा
कभी प्रदूषित
किया ही नहीं
गया, जैसे
मानो तुम सीधे
परमात्मा के
हाथों से अभी—
अभी इस संसार
में बस नये
आये हो, और
किसी ने अभी
तक तुम्हें
कुछ भी नहीं
सिखाया है। बस
जीना शुरू कर
दो—’‘ यही
जीवन ही सच्चा
और असली जीवन
है। तब तुम
अपने हृदय की
बात सुनते हो,
तुम अपने
शरीर की बात
सुनते हो। तुम
दमन नहीं करते
हो, तुम
उसे समझने की
कोशिश करते हो,
और समझ के
द्वारा ही
रूपांतरण
होता है।’’
बाउल
गीत केवल आज
और अभी के लिए
ही गाते हैं,
ओ मेरे
हृदय!
यदि तू
उस 'दुर्लभ
मानुष' को
प्राप्त करना
चाहता है,
तो इस
पृथ्वी पर
रहते हुए
तू
अपनी माटी की
देह के प्रति
वचनबद्ध होकर
जी।
तुम
स्वयं अपने आप
में इस पृथ्वी
के प्रति वचनबद्ध
हो कहीं और
होने वाले
कल्पित
स्वर्ग के लिए
प्रतिबद्ध मत
बनो, प्रतिबद्ध
होना है अपने
चारों ओर की
वास्तविकता
के प्रति, उस
सत्य के प्रति,
जो अभी और
यही है।
प्रतिबद्ध
बनो पूरी
मनुष्यता के
प्रति, उस
पृथ्वी के
प्रति जो ठीक
तुम्हारे
पैरों के नीचे
हैं, जिस
पर तुम खड़े हो।
पृथ्वी पर
रहते हुए
तुम्हें इस
पृथ्वी के प्रति
वचनबद्ध होकर
रहना है। बाउल
कहते हैं—’‘ जब
हम दूसरी
दुनिया में
जायेंगे अथवा
स्वर्ग की ओर
बढ़ेंगे हम तभी
उसके बारे में
सोचेंगे, जब
उसे हम स्वयं
देखेंगे। एक
बार तुमने यदि
सीख लिया कि
यहीं और अभी
के प्रति कैसे
समर्पित हुआ
जाता है, तब
तुम वहां भी
प्रतिबद्ध
रहोगे, क्योंकि
जब भी भविष्य
आता है, वह
हमेशा
वर्तमान की ही
भांति आता है।
दूसरा संसार
भी इसी संसार
की तरह ही
आयेगा। क्या
तुमने कभी
देखा है कि जब
तुम नदी के एक
किनारे से
दूसरे किनारे
की ओर बढते हो,
और जब तुम
दूसरे किनारे
के निकट
पहुंचते हो तो
दूसरा किनारा
ही यह किनारा
बन जाता है।
पहला किनारा
जिसे हम यह
किनारा कहा
करते थे वह
किनारा बन
जाता है।
इसलिए तुम
जहां कहीं हो,
तुम चारों
ओर से यह के
होने से घिरे
हुए हो।’’
मैंने
सुना है:
एक बार
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
बहुत अधिक
शराब पी ली और
वह सड़क पर इधर
से उधर की ओर
लड़खड़ाते हुए
चल रहा था। वह
लोगों से पूछ
रहा था— '' सड़क का
दूसरा किनारा
किधर है?''
किसी
ने उसे बताया—’‘ दूसरा
किनारा वहां
है। वह वहां
गया और वहां
जाकर उसने
लोगों से पूछा—’‘
सड़क का
दूसरा किनारा
किधर है?''
उन
लोगों ने
सामने इशारा करते
हुए कहा—’‘ दूसरी साइड
वहां है।’’
उसने
कहा—’‘ ये
लोग मूर्ख
दिखाई देते
हैं। जब मैं
उस ओर जाता
हूं तो लोग
कहते हैं कि
दूसरी साइड
वहां उस ओर है
और जब मैं इधर
इस ओर जाता हूं
तो लोग कहते
हैं कि दूसरी
साइड वहां उधर
सामने है।
क्या ये लोग
पागल हो गए
हें?''
दूसरी
साइड हमेशा
वहां उस ओर ही
होती है। और
तुम जब भी
जहां भी होते
हो, वह
हमेशा ' यहां
' होता है।
तुम यह के
होने से चारों
ओर से घिरे
रहते हो। ठीक
दूसरे ही दिन
मैं उद्दालक
ऋषि की अपने
बेटे
श्वेतकेतु को
दी गई महान
सीख का उद्धरण
दे रहा था—’‘ तू
' वह ' ही
है श्वेतकेतु।’’
( तत्त्वससि
श्वेतकेतु)
बाउल लोग इस
कथन में थोड़ा
परिवर्तन
करना चाहेंगे।
वे कहेंगे—’‘ तू ' यह ' ही है, ' वह '
नहीं, क्योंकि
' वह ' शब्द
बहुत दूर बैठे
परमात्मा का
विचार देता है।
यह अधिक
मिट्टी से
जुड़ा शब्द है।’’
ओ मेरे
हृदय!
यदि तू
उस दुर्लभ
मानुष को
प्राप्त करना
चाहता है
तो
पृथ्वी पर
रहते हुए
तू
अपनी माटी की
देह के प्रति
वचनबद्ध होकर
ही जी।
यदि
तुम उस ' दुर्लभ
मनुष्य ' को
' आधार—मानुष
' या
अस्तित्वगत—सारभूत
मनुष्य को
प्राप्त करना
चाहते हो, तो
यहां और अभी
के प्रति
वचनबद्ध हो
जाओ।’’
वर्तमान
के प्रति
प्रतिबद्ध
रहो, वास्तविकता
और सत्य के
प्रति जो इस
क्षण तुम्हें
उपलब्ध है, वचनबद्ध
होकर रहो।
वहां इसके
अतिरिक्त और
कोई
वचनबद्धता और
विश्वास है ही
नहीं।
उसके
चरणों में तू
अपने भावों के
पुष्पों को अर्पित
कर दे
और
अपनी
प्रार्थना के
अश्रुओं से
जो तेरी
आंखों से बाढ़
की तरह उमड़
रहे हैं
उन
चरणों को भिगो
दे।
ये लोग
बहुत सच्चे और
प्रमाणिक
व्यक्ति है।
ये कहते हैं—’‘ भावों के
पुष्पों को।’’
सामान्य
फूलों से काम
नहीं चलने का।
तुम वृक्षों
से फूल तोड़कर
अपने मंदिरों
में बैठे
परमात्मा के
चरणों में चढ़ा
सकते हो, लेकिन
यह परमात्मा
तो
वास्तविकता
से पृथक काल्पनिक
परमात्मा है
और फूल भी
उधार के हैं।
वास्तव में
वृक्षों पर
लगे हुए पुष्प
ही कहीं अधिक
परमात्मा के
साथ लयबद्ध थे।
वृक्षों पर
लगे हुए वे
जीवंत थे।
उन्हें तोड़कर
उस पर चढ़ाते
हुए परमात्मा
के निकट लाकर
तुमने तो उन
फूलों की
हत्या कर दी।
जब मैं
जबलपुर में
रहा करता था
तो मेरा
उद्यान बहुत
सुंदर था और
मैं धार्मिक
लोगों का
निरंतर शिकार
बनता रहता था।
क्योंकि वहां
निकट ही दो
मंदिर भी थे, इसलिए
कोई भी
व्यक्ति जो
वहां पूजा
करने आता था, मेरी
फुलवारी से
बिना पूछे फूल
तोड़ना शुरू कर
देता था। देश
के उस भाग में
ऐसा खयाल किया
जाता है कि यदि
कोई अपने
परमात्मा पर
चढ़ाने के लिए
फूलों को
तोड़ता है तो
उसे रोकना
अच्छी बात
नहीं है।
इसलिए मुझे
वहां एक नोटिस
बोर्ड टांगना
पड़ा, क्योंकि
यदि मैं
उन्हें रोकता
तो वे कहते—’‘ फूल तो मैं
धार्मिक
कृत्य के लिए
तोड़ रहा हूं।’’
उस नोटिस
बोर्ड पर लिखा—’‘
तुम फूलों
को किन्हीं
दूसरे कारणों
से तो तोड़ सकते
हो, लेकिन
धार्मिक
कृत्यों के
लिए नहीं।
क्योंकि जैसा
मैं देखता हूं
कि पौधे में
लगे हुए पुष्प
परमात्मा को
कहीं अधिक
समर्पित और जीवंत
हैं। उन्हें
तोड़कर तुम
उनकी हत्या कर
दोगे।
तुम्हारे
परमात्मा तो
जड़ और बोगस
हैं और उसके
लिए तुम फूलों
को मार दोगे।
यह पूरी पूजा
ही नकली है।’’
बाउल
कहते हैं—’‘ तुम अपने
भावों के
पुष्पों को
उसके चरणों पर
चढ़ा दो।’’ तुम्हारा
प्रेम, तुम्हारी
करुणा, तुम्हारी
समझ, जीवन
को जीते हुए
तुम्हारे किए
अनुभव, तुम्हारी
दृष्टि, तुम्हारा
स्वाद और
तुम्हारी
समृद्धता यही
भावों के
पुष्प हैं।’’ भावनाओं के
इन पुष्पों और
आंसुओ से लिखी
प्रार्थनाओं
को उसके चरणों
पर चढ़ा दें।’’ क्योंकि
शब्दों से कुछ
भी नहीं होगा।
शब्द
कैसे
प्रार्थना बन
सकते हैं? शब्द तो
मुर्दा होते
हैं। उनका कोई
अधिक कार्य
नहीं होता।
हां उनमें
वहां शोर तो
बहुत होता है,
लेकिन उनका
अधिक अर्थ
नहीं होता।
मौन में बहाये
अश्रु उनसे
कहीं बेहतर
हैं। इसलिए
तुम बाउलों को
सड़क के किनारे
खड़े रोते आंसू
बहाते और
नाचते गाते
पाओगे और यदि
तुम उनसे पूछो—’‘
तुम लोग
क्या कर रहे
हो?'' वे
कहेंगे—’‘ हम
प्रार्थना कर
रहे हैं।’’ और
तुम वहां न
कोई समाधि
देखोगे और न
कोई मंदिर और
यहां तक कि
वहां कोई
वृक्ष का
देवता भी नहीं
होगा। वे
सिर्फ सड़क के
किनारे खड़े
हैं या तो आंसू
बहा रहे हैं
अथवा वे नाच
या गा रहे हैं।
तुम यदि उनसे
पूछोगे—’‘ तुम्हारा
परमात्मा है
कहां?'' और
वे कहेंगे—’‘ वह प्रत्येक
वस्तु में है,
वह हर कहीं
है। जब कभी
हमें
प्रार्थना के
लिए ठीक क्षण
उपलब्ध होता
है, जब भी
हमें यह अनुभव
होता है कि उस
क्षण वह ग्राह्य
है, वही
प्रार्थना
करने का ठीक
क्षण होता है,
और हम लोग
प्रार्थना
करना शुरू कर
देते हैं।’’ वे आंसू
बहाते
प्रार्थना
करते हैं, वे
नाचते हुए
प्रार्थना
करते हैं और
वे गीत गाते
हुए
प्रार्थना
करते हैं, लेकिन
उनकी
प्रार्थना
जीवंत होती है।
बाउल
गाते हैं:
भिक्षुक
की दीनता के
साथ,
मैंने
तेरे द्वार पर
दस्तक दी है।
कोई भी
व्यक्ति तेरे
घर से
जिसमें
अनंत
भण्डारहैं।
आज तक
निराश नहीं
लौटा है।
तेरे
पास सभी
समृद्धिया और
सब कुछ है।
और
बिना मेरी
मांग के
तूने
मुझे इतना
अधिक दिया है।
अब
मुझे किसी और
धन सम्पत्ति
की कोई
आवश्यकता नहीं
है।
ओं
मेरे मालिक!
तू मुझे
बस अपने चरण
दे दे।
अब
मुझे और किसी
धन सम्पत्ति
की कोई
आवश्यकता नहीं
है, ओ
मेरे मालिक!
तू मुझे अपने
चरण दे दे, बस
तेरे चरण ही
पर्याप्त है,
जिससे मैं
उन्हें
अश्रुओं से धो
सकूं, जिससे
मैं नाचते
गाते तेरी
प्रार्थना कर
सकूं।
तू
उसके चरणों
में
अपने
भावों के पुष्पों
को अर्पित कर
दे,
और
अपने अश्रुओं
से
जो
प्रार्थना बन
कर तेरी आंखों
से बाढ़ की तरह
उमड़ रहे हैं
उन
चरणों को भिगो
दे।
जिस ' मानुष ' की तू खोज कर
रहा है।
वह
तेरे इसी माटी
के तन में ही
है।
मृत्यु
तो नवजीवन का
प्रारम्भ
होता है।
और
मरने के बाद
मृत्यु उसके
अस्तित्व को
माटी ही में
मिला देती है
मरने से पूर्व
तुझे जीवित
रहते हुए ही
उसे जरूर खोज
लेना चाहिए।
जिस
मनुष्य की तू
खोज कर रहा है, वह माटी
में ही छिपा
है, तेरी
ही देह में
अवतार हुआ है।
तेरा शरीर ही
तेरी मिट्टी
या माटी है और
जिस मानुष की
तू खोज कर रहा
है वह भी यही
है, वह
तेरे माटी के
ही देह—मंदिर
में सुरक्षित
है, और वह
मृत्यु में भी
सुरक्षित है।
जीवन की
ज्योति
मृत्यु के
मंदिर में ही
सुरक्षित है।
वह वहीं से
पुन— प्रदीप्त
होती है......
.इसलिए न तो
मिट्टी से
डरना है और न
मृत्यु से।
तेरे रहने के
लिए यह दोनों
ही उसे सम्भव
बनाते हैं।
केवल
मृत्यु के
कारण ही जीवन
का संभावना है, देह के
कारण ही आत्मा
की संभावना।
जड़ों के कारण
ही वृक्ष होने
की संभावना है,
इसलिए जड़ों
से डरो मत और न
मृत्यु से डरो।
अपनी देह से
भी नहीं डरना
है। इस
वास्तविकता
और सत्य को
स्वीकार करो।
मृत्यु
के साथ मर ही
जाना है।
पर
तुझे जीवित
रहते, उसे
जरूर खोज लेना
है।
जब तक
जीवन है उसे
जियो। इस माटी
की देह के
प्रति जब तक
यह देह रहे, उसके
प्रति
प्रतिबद्ध
रहो, उस पर
विश्वास करो
और जब मृत्यु
आती है तब मर जाओ।
जीवन के साथ
गतिशील रहो और
मृत्यु के भी
साथ भी। मरना
है तो जीवन से
बंधे मत रहो, मरना है तो
मृत्यु में
अवरोध मत बनो—मृत्यु
आए तो मर जाओ।
जब तक जीवन है,
उसे जियो, मृत्यु आये
तब मर जाओ। उस
क्षण को
समग्रता से लो।
उसे स्वीकार
करते हुए उसके
साथ बहो। जब
मुत्यु आती है
तब उदास मत हो।
तब मृत्यु को
स्वीकार करो।
तब उसे इतनी
समग्रता से
स्वीकार करो
कि मृत्यु भी
तुम्हें मार न
सके।
एक
पूर्ण मनुष्य
को मारा नहीं
जा सकता और एक
खण्डित तथा
विभाजित
व्यक्ति कभी
जीवित होता ही
नहीं। एक
पूर्ण मनुष्य
पहले ही से
मृत्यु के पार
है। अखण्डता, मृत्यु
के पार है।
विभाजित खण्ड—खण्ड
होकर अलग— अलग
टुकड़ों में
बंटे हुए तुम
समग्र नहीं हो,
तुम जीवित
दिखाई देते हो,
लेकिन तुम
जीवंत नहीं हो।
तुम मर ही रहे
हो, मर ही
जाओ मृत्यु के
प्रति
समर्पित कर दो
अपने आप को।
अब वह
परमात्मा ही
है जो मृत्यु
के रूप में आया
है।
बाउलों
के लिए
प्रत्येक
वस्तु दिव्य
है। चाहे वह
जीवन हो या
मृत्यु। कुछ
भी ऐसा नहीं
है जो दिव्य न
हो। उनके लिए
कहीं किसी
शैतान का कोई
अस्तित्व है
ही नहीं।
तुमने
जीसस के जीवन
की वह कहानी
जरूर सुनी होगी, जब मेरी
मैग्दलीन
जीसस से भेंट
करने आई, वह
सात प्रेतों
के अधिकार में
थी। उसे जीसस
ने जैसे ही
छुआ कि सातों
प्रेत उसके अंदर
से निकल कर
समुद्र की ओर
भागे और उसी
में डूब गए।
अब यह कहानी
बहुत
महत्त्वपूर्ण
है।’ डेमन '
(प्रेत)
शब्द जिस मूल
शब्द से निकला
है उसका अर्थ
है विभाजित या
खण्डित
(डिवीजन) यदि
तुम कहानी को
मनोवैज्ञानिक
भाषा में
अनुवाद करो तो
इसका केवल
इतना ही अर्थ
है कि मेरी
मैग्दलीन सात
भागों में
विभाजित थी, खण्डित थी।
जीसस ने उसका
स्पर्श किया
और वह अखण्ड
बन गई, अब
वह किसी की
गुलामी में न
रही, वे
प्रेत वे खण्ड
विसर्जित हो
गए।’ डेमन '
(प्रेत) का
अर्थ ही है
खण्डित होना,
विभाजित
होना। बाउल
कभी विभाजन
नहीं करता, वह अखण्ड
जीवन जीता है।
वह किसी भी
वस्तु या
व्यक्ति के
विरुद्ध नहीं
है, वह
किसी भी वस्तु
या व्यक्ति के
लिए नहीं जी रहा
है, वह बस
जी रहा है। उस
क्षण जो भी
सामने आता है,
वह उसे जीता
है। वह वास्तविक
यथार्थ और
सत्य के प्रति
समर्पित है और
यही उसकी
प्रार्थना है।
मृत्यु आती है,
वह सुदंरता
और गरिमा के
साथ समर्पण कर
देता है, और
मर जाता है।
वह मृत्यु के
साथ सहयोग
करता है। वहां
वह जरा सा भी
प्रतिरोध
नहीं करता, तनिक सा भी
नहीं। वह
मृत्यु से
संघर्ष नहीं करता,
उससे लड़ता
नहीं, वह
मृत्यु का
आलिंगन करता
है।
आती
हुई मृत्यु के
साथ मर जाओ,
पर
तुझे जीवित
रहते ' उसे
' जरूर खोज
लेना है।
और तब
आगे और आगे ही
बढ़ता जाता है।
उसकी खोज अनंत
है। परमात्मा
को पूरी तरह
कभी भी नहीं
जाना जा सकता, क्योंकि
वह अनंत है।
हम उसे अधिक से
अधिक जानते
चले जाएंगे, हम उसके
अधिक से अधिक
निकट आते
जाएंगे लेकिन
परमात्मा कोई
लक्ष्य या
मंजिल नहीं है।
कोई भी यह
नहीं कह सकता
कि मैं पहुंच
गया उस तक।
यदि कोई ऐसा
कहता है, तब
कुछ चीज गलत
है उसके साथ।
उपनिषद कहते
हैं, कि जो
भी व्यक्ति यह
कहता है—’‘ मैं
परमात्मा को
जानता हूं।’’ वह ' उसे ' नहीं जानता
क्योंकि तुम
शाश्वत और
अनंत को कैसे
जान सकते हैं?
हां तुम उसे
जी सकते हो, तुम उसे
प्रेम कर सकते
हो, तुम
उसमें हो सकते
हो, लेकिन
तुम उसे जान
नहीं सकते—क्योंकि
जानकारी एक
परिभाषा बन
जाएगी जानकारी
उसे सीमित बना
देगी। जो
समग्र रूप से
जान लिया जाता
है वह सीमित
और ज्ञात बन
जाता है।
लेकिन
परमात्मा तो
अज्ञात बना
रहता है। तुम
जितना अधिक
उसे जानते हो,
उतने ही
अधिक द्वार
खुलते हैं, उतने ही
अधिक रहस्य
खुलते हैं।
प्रत्येक
मृत्यु अतीत
का द्वार बंद
कर देना और भविष्य
की एक नई
दृष्टि है।
तुम मर
रहे हो, मर ही जाओ।
जीवित
रहते तुम्हें
उसे जरूर खोज
लेना है।
और कोई
भी व्यक्ति
उसे खोजे ही
चला जाता है।
यात्रा
शाश्वत और
अनंत है। तभी
बाउल गाते हैं
प्रबल
कामवासना के
चेहरे पर
द्वार बंद कर
दो।
उस
अप्राप्य
मनुष्य को जो
महानतम है उसे
प्राप्त करो।
और जो
कुछ भी करो, ठीक
प्रेमियों की
भांति करो,
और
मृत्यु होने
से पूर्व ही
मृत्यु से
साक्षात्कार
करो।
मृत्यु
आने पर सहजता
से मरना केवल
तभी संभव है, यदि
मृत्यु से
पूर्व तुमने
उसका
साक्षात्कार
किया हो।
अन्यथा यह
कठिन होगा।
तुम्हारी
उससे कुछ
पहचान होनी
जरूरी है। यदि
मृत्यु आती है
और तुम उससे
परिचित नहीं हो,
तो
तुम्हारे लिए
उसके प्रति
समर्पण करना
कठिन हो जाएगा।
ध्यान वही है,
और इसी के
बारे में ही
है कि मरने से
पूर्व तुम्हारी
मृत्यु से
मुलाकात हो
जाए थोड़ी सी
जान पहचान हो
जाए थोड़ा सा
आमना—सामना हो
जाए मृत्यु का—जिससे
तुम उसके
सौंदर्य से
प्रेम करना
शुरू कर दो
तुम उसके
प्रेम में
मरना शुरू कर
दो, जिससे
तुम मृत्यु
में भी उस
परमात्मा की
दिव्यता देख
सको।
केवल
एक ध्यानी ही
बिना किसी
संघर्ष के मर
सकता है
अन्यथा अचेतन
संघर्ष करता
है। ऐसा नहीं
है कि तुम उससे
लड़ोगे, तुम अपने को
उससे संघर्ष
करते हुए
पाओगे, और
यह लगभग असंभव
होगा कि तुम
उससे संघर्ष न
करो। यह
संघर्ष और
प्रतिरोध
अचेतन में
होगा, यह
तुम्हें जन्म
से ही मिला है।
ध्यान
करो अथवा
प्रेम करो, क्योंकि
मृत्यु से
पहचान करने के
यह दो ही मार्ग
हैं। यदि तुम
प्रेम करते हो
तो यह एक छोटी
सी मृत्यु है।
यदि तुम बहुत
अधिक गहराई से
प्रेम करते हो
यह एक बड़ी
मृत्यु है।
यदि तुम
वास्तव में
सच्चे प्रेम
में हो तो तुम
वैसे ही नहीं
रह जाओगे, जैसे
उससे पूर्व थे।
तुममें से कुछ
चीज विसर्जित
हो जाती है
तुम्हारा नया
जन्म होता है।
प्रेम एक
पुनर्जन्म है।
जीवन
में बहुत बार, ध्यान और
प्रेम के
द्वारा
तुम्हें
मृत्यु के साथ
पहचान करनी
चाहिए जिससे
जब मृत्यु
वास्तव में
आती है तुम
उसे अतिथि के
रूप में भली
भांति पहचान
सको और उससे
भयभीत न हो
जाओ। तुम
अतिथि का
स्वागत कर सको,
तुम अपार
प्रेम, और
महान आनंद
उत्सव के साथ
उसका स्वागत
कर सको।
बाउल
उस सारभूत
अस्तित्वगत
मनुष्य अथवा ' आधार—मानुष
' के बारे
में कहते हैं:
उसके
लिए विष और
अमृत
एक
जैसे ही हैं
वह
समग्रता से
जीते हुए भी
मृत ही
हैं।
यदि
ध्यान और प्रेम
के द्वारा
तुम्हारी
मृत्यु से जान
पहचान हो गई, तो धीरे—
धीरे तुम
देखने लगोगे
कि जीवन और
मृत्यु एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं, अमृत
और विष भी उसी
सिक्के के दो
चेहरे हैं, पदार्थ और
मन भी उसी
सिक्के के दो
पहलू हैं।
अच्छा और बुरा
और सारी
द्वैतता उसी
सिक्के के दो
रूप हैं। तब
तुम परेशान
नहीं होते, तब तुम कुछ
भी चुनते नहीं,
तब तुम एक
चुनावरहित
होशपूर्वक
जीवन जीते हो,
तब सब कुछ
एक जैसा ही
होता है। यदि
तुम जीवन
चुनते हो, तो
तुमने मृत्यु
को चुन लिया।
यदि तुम
मृत्यु को
नकारते हो तो
तुमने जीवन को
भी नकार दिया—इसलिए
वहां न तो
चुनने की कुछ
जरूरत है और न
किसी से इंकार
करने की। वह
व्यक्ति केवल
प्रतीक्षा
करता है और जो
कुछ भी भेंट
या उपहार
परमात्मा की
कृपा से मिलता
है, उसे
स्वीकार करता
है।
यही है
वह : जिसके
बारे में बाउल
कहते हैं '' वह
समग्रता से
जीते हुए भी
मुर्दे जैसा
ही है।’’ वह
पूरी तौर से
जीवंत है
लेकिन एक अर्थ
में मृत भी है,
क्योंकि
सभी द्वैतता
उसके अंदर
समाहित है और उनका
एक संश्लेषण
बन गया है। न
तो तुम जीवित
हो और न मृत, तुम दोनों
की कैद में हो।
एक
पूर्ण मनुष्य
दोनों ही एक
साथ हो। वह
सभी
द्वैतताओं का
अतिक्रमण कर
गया है। वह
अत्यन्त
समृद्ध है
क्योंकि जीवन
उसमें अपने को
उड़ेलता जा रहा
है और मृत्यु
भी उसमें उड़ेलती
जा रही है। जो
कुछ भी जीवन
उसे दे सकता
है वह उसे
स्वीकार करता
है और जो कुछ
भी दुख और
पीड़ाएं वह उसे
देता है, वह उसे भी
स्वीकार करता
है।
और
स्मरण रहे, जैसे
वहां खुशियों
में खजाने
छिपे हैं। उसी
तरह वहां
दुखों में भी
खजाने छिपे
हुए हैं। यदि
तुमने केवल
खुशियों के
खजानों को ही
जाना है, तब
तुमने अधिक
नहीं जाना।
यदि तुमने
केवल
प्रसन्नता के
खजानों को
जाना है, तो
तुमने अधिक
नहीं जाना।
वहां दुःखों
और उदासियों
के भी खजाने
हैं। वहां कुछ
ऐसे भी खजाने
हैं जिन्हें
केवल उदासी ही
तुम्हें दे
सकती है। वहां
हंसी के भी
खजाने हैं और आंसुओ
के भी।
बाउल
कहते हैं कि
एक व्यक्ति को
इतना सक्षम होना
चाहिए कि वह
सभी
द्वैतताओं को
मिलने और अपने
तक आने की
उन्हें
अनुमति दे।
केवल तभी वह ' सारभूत
मनुष्य ' प्रगट
होता है और यह '
आधार मानुष '
अथवा
सारभूत
मनुष्य ही
बाउलों का
परमात्मा है।
ओ मेरे हृदय।
जब तक तू
इस माटी की देह
में है।
इस माटी
की देह के प्रति
तू समर्पित होकर
जी।
यदि तू उस
अप्राप्य दुर्लभ
मनुष्य को उपलब्ध
होना चाहता है।
तो उसके
चरणों मे अपने
भावों के पुष्प
अर्पित कर दे
और अश्रुओं
की आंखों से उमडती
बाढ से
उसके चरण
भिगो दे।
जिस मनुष्य
को तू खोज रहा है।
वह इसी माटी
की देह में ही है।
तू जीवित
रहते हुए मरने
का स्वाद जान ले।
तू मर रहा
है, तो मर
ही जा।
लेकिन मरने
से पूर्व, जीवित रहते
तुझे 'उसे'
खोज लेना है।
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