दिनांक
7 दिसंबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार
:
1—"नयी
दिल्ली' नामक
अंग्रेजी
पत्रिका में
आश्रम में
चलने वाली
समूह-मनोचिकित्सा
संबंधी कई
चित्र
प्रकाशित हुए
हैं, जिसके
संबंध में, मेरे दिल्ली
प्रवास के समय,
वहां के
संपादक मुझसे
पूछते थे कि
आप इस संबंध
में क्या कहते
हैं?
2—भारतीयों
को सामूहिक
मनोचिकित्सा
में क्यों
नहीं
सम्मिलित
किया जाता है?
3—आप
ही मेरे सब
कुछ हो। आपके
पहले मेरा न
किसी संत से
मिलना हुआ, न आगे किसी
से मिलने की
इच्छा है। फिर
भी शायद आगे
किसी तथाकथित
साधु से मिलना
हो जाए, तो
क्या उसके
सम्मोहन का
मुझ पर असर हो
जाएगा?
4—मृत्यु
से मुझे इतना
भय नहीं लगता
जितना वृद्धावस्था
के विचार से
या
वृद्धावस्था
से। ऐसा क्यों
है?
5—रोम-रोम
में प्यार बसा
क्यों एक
तुम्हारा?
दृश्य-दृश्य
क्यों रूप
दिखाता एक
तुम्हारा?
पहला
प्रश्न:
ओशो!
"नयी दिल्ली' नामक
अंग्रेजी
पत्रिका में
हाल ही में
आश्रम में
चलने वाली
समूह-मनोचिकित्सा
संबंधी कई चित्र
प्रकाशित हुए
हैं। जिनको
लेकर समाचार-पत्रों
तथा अन्यत्र
भी काफी चर्चा
है, कुछ
गलतफहमी भी।
मेरे दिल्ली
प्रवास के समय
वहां के कई
संपादक मुझ से
पूछते थे कि
आप इस संबंध
में क्या कहते
हैं? कृपापूर्वक
इस पर कुछ
कहें।
कृष्ण
प्रेम! नग्नता
मनुष्य का
जन्म-सिद्ध
अधिकार है।
परमात्मा ने
मनुष्य को
नग्न ही बनाया
है। वस्त्र तो
आदमी की ईजाद
है। नग्नता को
अस्वीकार
करना
परमात्मा को
अस्वीकार
करना है। और वस्त्रों
की ईजाद
सुविधा के लिए
हो, तब तो
ठीक। सर्दी हो
और कोई वस्त्र
पहने, प्रकृति
से बचाव के
लिए कोई
वस्त्र पहने;
लेकिन
वस्त्रों की
मौलिक ईजाद
प्रकृति से बचने
के लिए नहीं
है, अपने
को छिपाने के
लिए है।
वस्त्रों के
पीछे पाखंड
है। इसलिए जब
भी कोई नग्न
खड़ा होगा, तो
तुम्हारे
पाखंड को चोट
लगती है।
महावीर
नग्न हुए, बहुत विरोध
हुआ। उससे भी
ज्यादा विरोध
हुआ जब लल्ला,
कश्मीर की
फकीर स्त्री,
नग्न हुई।
मगर ये
इक्के-दुक्के
लोग थे। हमने
किसी तरह सह
लिया।
मेरी
दृष्टि में
नग्नता सहज
स्वाभाविक
होनी चाहिए।
और जब भी
सुविधा हो, व्यक्तियों
को नग्न होने
का नैसर्गिक
अधिकार होना
चाहिए।
वस्त्र
छिपाते हैं।
और छिपाने में
ही सारी
पोर्नोग्रैफी
है। छिपाने
में ही
अश्लीलता है।
आदिवासियों
में कोई
अश्लीलता न
मिलेगी, क्योंकि
वे नग्न हैं।
जितना
छिपाओगे, उतनी
अश्लीलता
मिलेगी।
क्योंकि
जितना छिपाओगे,
उतना
दूसरों के मन
में कल्पना को
जन्म मिलता
है--कि पता
नहीं जो
छिपाया गया है,
कितना
रसपूर्ण होगा!
छिपाने
से रस पैदा
होता है, विकृति
पैदा होती
हैं। जिस चीज
को भी हम छिपा लेते
हैं, उसे
देखने की
आतुरता पैदा
होती है।
बुर्का डालकर,
घूंघट
डालकर एक
स्त्री
रास्ते से
निकलती है, लोग
झुक-झुककर
देखने लगते
हैं। वही
स्त्री बिना
बुर्का डाले
निकलती है, कोई उसके
चेहरे पर
ध्यान नहीं
देता। स्त्री
की तो छोड़ दो, तुम किसी
पुरुष को
बुर्का
पहनाकर निकाल
दो रास्ते से
और लोग आतुर
हो जायेंगे और
पीछे चलने लगेंगे।
हजार काम
छोड़कर देखने
की उत्सुकता पैदा
हो जायेगी।
बुर्के में
राज है। जो
छिपा है, वह
सहज ही
जिज्ञासा
पैदा करता है।
कल्पना भी उसी
से जन्मती है।
तो थोड़ा छिपाओ
और थोड़ा प्रगट
रखो--यह
अश्लीलता का
सूत्र है।
जरा-सा प्रगट
करो और जरा-सा
छिपाये रखो, तो जो प्रगट
है वह छिपा है,
उसके संबंध
में जिज्ञासा
को जन्माता
रहेगा।
आदिवासी
नग्न रहते
हैं। न
स्त्रियों को
चिंता है
पुरुषों की, न पुरुषों
को चिंता है
स्त्रियों
की। सारे पशु
नग्न हैं।
वृक्ष नग्न
हैं। तुम्हें
कोई अड़चन नहीं
हो रही है।
मनुष्य को
क्या हो गया
है?
ईसाइयों
की कहानी कहती
है कि जैसे ही
अदम और ईव ने
ज्ञान के
वृक्ष का फल
खाया, जो
पहली बात
उन्हें याद
आयी वह थी
अपनी नग्नता।
उन्होंने
जल्दी से
पत्ते उठाकर
अपनी नग्नता
ढांक ली। यह
कहानी
प्रीतिकर है,
अर्थपूर्ण
है। ज्ञान का
फल खाया। जैसे
ही अहंकार
जगा--ज्ञान का
फल अहंकार
जगाता है--और
इसलिए अदम और
ईव को
परमात्मा ने
स्वर्ग के
राज्य से बाहर
निकाल दिया।
क्योंकि
उनमें अहंकार
का जन्म हो
चुका था। और
जहां अहंकार
का जन्म होता
है, वहां
छिपावट, दुराव
पैदा होता है।
मैं
समस्त दुराव
का दुश्मन
हूं। मैं
समस्त छिपाव
का विरोधी
हूं। मैं
चाहता हूं कि
तुम न केवल
शारीरिक
अर्थों में, मानसिक
अर्थों में, आध्यात्मिक
अर्थों में सब
तलों पर नग्न
होने की
सामर्थ्य
जुटाओ।
परमात्मा के
सामने नग्न होना
है सब तलों
पर...। तुम जैसे
हो वैसे ही
अपने को प्रगट
करो। छिपाने
से कुछ भी न
होगा।
फिर
छिपाने के
पीछे तुम
बीमारियां
देखते हो, रोग देखते
हो? एक तरफ
हम छिपाते हैं;
लेकिन जरा
गौर से देखो
कि जो हम
छिपाते हैं, उसी को हम और
उभार कर
दिखाना चाहते
हैं। स्त्रियां
स्तन छिपाती
हैं। लेकिन
छिपाती हैं या
उभारती हैं? स्तनों को
उभारने के लिए
कितने
अंग-वस्त्र ईजाद
किये जाते हैं,
ताकि स्तन
सुडौल मालूम
पड़ें, बड़े
मालूम पड़ें, स्पष्ट दिखाई
पड़ें। एक तरफ
छिपा रहे हो
वस्त्रों में,
दूसरी तरफ
उभारकर दिखला
रहे हो, उछाल
रहे हो।
तुम
जानकर चकित
होओगे, यूनान
में और रोम
में ठीक इसी
तरह की बीमारी
अतीत में
आदमियों को
पैदा हुई थी।
तो वे अपनी जनेंद्रिय
पर एक चमड़ा
चढ़ा लेते थे।
चमड़े की एक खोल
पहन लेते थे।
ऊपर से वस्त्र
पहनते, अंदर
चमड़े की खोल
जनेंद्रिय पर
पहन लेते थे, ताकि
वस्त्रों के
ऊपर से
जनेंद्रिय का
बड़ा रूप दिखाई
पड़ता रहे।
इसको तुम
रुग्ण कहोगे,
या स्वस्थ
कहोगे?
स्त्रियों
के स्तन के
संबंध में भी
कुछ भेद नहीं
है, यही बात
है। झूठे स्तन
बाजार में
बिकते
हैं--रबर और
फोम के। झूठे
नितंब भी
बाजार में बिकते
हैं। ऊपर से
वस्त्र हैं, भीतर झूठे
नितंब हैं, झूठे स्तन
हैं। एक तरफ
छिपाने का खेल
चल रहा है, दूसरी
तरफ उछालने का
खेल चल रहा
है।
कल
मैंने अखबार
में देखा, लोकसभा में
स्त्रियों के
अंग-वस्त्रों
पर कुछ चर्चा
चली। तो मोहन
धारिया ने कहा
कि जिनको भी
इस संबंध में
ठीक से समझना
हो, वे
श्री रजनीश
आश्रम, पूना
जायें।
मैं
स्वागत करता
हूं, लोकसभा
के सारे मित्र
यहां आयें। यह
तो उन्होंने
व्यंग्य में
कहा है। लेकिन
मैं निश्चित कहता
हूं, उन्हें
समझना हो कुछ
भी जीवन के
संबंध में तो
यहां आयें।
मोहन धारिया
तो पूना ही
रहते हैं, कभी
आये नहीं
यहां। पूछते
हैं जो भी
मिलता है उससे
आश्रम के
संबंध में, आने की
हिम्मत नहीं
जुटाते यहां!
इस आश्रम के द्वार
पर कमजोरों का
काम नहीं है।
इतनी भी हिम्मत
नहीं जुटाते
कि आकर यहां
देख लें। पूना
ही रहते हैं, पूना ही घर
है। लोकसभा
में दूसरों को
निमंत्रण दे
रहे हैं, खुद
कभी यहां आये
नहीं। और ऐसा
भी नहीं है कि
पूछत्ताछ
नहीं करते। जो
भी आश्रम से
संबंधित है, उनसे
संबंधित है, प्रत्येक से
पूछत्ताछ
करते हैं कि
क्या वहां हो
रहा है?
एक
पाखंड का लंबा
सिलसिला है।
उस पाखंड के
कारण जरा-जरा
सी बातों से
उपद्रव हो जाते
हैं।
नयी
दिल्ली
पत्रिका में
लीला नाम के
समूह-चिकित्सा
के प्रयोग के
कुछ नग्न
चित्र छपे
हैं। उससे
बहुत उपद्रव
मच गया
है--बिना समझे
बिना बूझे!
चित्र भी सब
चुराये हुए
हैं। क्योंकि
चित्र जिसने
लिये थे, जिस
जर्मन
पत्रकार ने, वह अब
संन्यासी है।
स्टर्न के
जर्मन
पत्रकार सत्यानंद
ने उन चित्रों
को लिया था और
जर्मनी की
पत्रिका
स्टर्न में
बड़ी
महत्वपूर्ण
व्याख्या के
साथ उन
चित्रों को
छापा है।
व्याख्या तो
छोड़ दी नयी
दिल्ली की
पत्रिका ने; सिर्फ चित्र
छाप दिये हैं
बिना किसी
व्याख्या के;
बिना
समझाये कि ये
क्या हैं और
क्या हो रहा
है।
ये
जालसाजियां
हैं। यह
अनैतिक
व्यवहार है। यह
अशोभन, अलोकतांत्रिक
व्यवहार है।
यह
न्याययुक्त बात
नहीं है। एक
तो चित्र
चुराये हैं, स्टर्न से
कोई आज्ञा
नहीं ली है--जो
कि अंतर्राष्ट्रीय
कानून का
उल्लंघन है।
फिर बिना
व्याख्या के
छाप दिये
हैं--जो कि
अनीतिपूर्ण
है। उनकी
व्याख्या में
ही उनका अर्थ
छिपा है।
सिर्फ चित्र
को छाप देने
से कुछ भी न
होगा। चित्र
को छापकर तो
सिर्फ लोगों
को भड़काने की
चेष्टा की
जाती है। और
इस देश में इतना
गहन अज्ञान है,
और इस देश
में इतना गहन
दमन है कि हर
छोटी-मोटी चीज
लोगों को भड़का
देती है।
पहली
तो बात, मनुष्य
ने वस्त्रों
को ओढ़-ओढ़कर
अपने को खूब
मिस्टिफाई कर
लिया है, खूब
रहस्यमय बना
दिया है। मैं
उस रहस्य को
तोड़ देना
चाहता हूं। वह
रहस्य
पोर्नोग्रैफी
का जन्मदाता
है, अश्लीलता
का जन्मदाता है।
जैसे ही कोई
व्यक्ति नग्न
हो जाता है
डि-मिस्टिफाई
हो जाता है, उसका रहस्य
विलीन हो जाता
है।
तुम्हें
खुद भी अनुभव
होगा। इसलिए
तो तुम्हें
अपनी पत्नी
में कोई रस
नहीं रह जाता, अपने पति
में कोई रस
नहीं रह जाता;
लेकिन पड़ोस
की पत्नी में
रस होता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन घर आया और
उसने देखा, उसका निकटतम
मित्र उसकी
पत्नी का
आलिंगन कर रहा
है। उसने तो
एकदम सिर पीट
लिया। मुल्ला
ने सिर पीट
लिया और कहा
कि मैं हैरान
हूं, तू यह
क्यों कर रहा
है, मुझे
तो करना पड़ता
है!
पत्नियों
में क्यों रस
समाप्त हो
जाता है, कारण
तुमने खोजा है?
तुम उनकी
देह से परिचित
हो गये हो।
रहस्य खो गया।
जिज्ञासा का
कोई अर्थ नहीं
रहा। कल्पना को
खुलकर खेलने
का कोई मौका
नहीं रहा।
लेकिन पड़ोसी
की पत्नी है, उसके संबंध
में कल्पना को
खेलने का मौका
है।
नग्न
व्यक्ति को
कितनी देर तक
देखते रहोगे? थोड़ी देर
बाद पाओगे, बात खतम हो
गयी। आखिर
नग्न व्यक्ति
में क्या हो
सकता है? जो
होता है
वस्त्रों
में।
वस्त्रों की
छिपावट में
सारी
अश्लीलता का
राज छिपा है।
दुनिया
से अश्लीलता न
मिटेगी, जब
तक नग्नता
मनुष्य का
जन्मसिद्ध
अधिकार स्वीकृत
नहीं हो जाता।
और
फिर ये चित्र
तो कोई
सामूहिक
स्थानों पर
नहीं लिये गये
हैं। ये तो
समूह-चिकित्सा
में, बंद
कमरों में हुए
प्रयोगों के
चित्र हैं। इससे
किसी को कोई
प्रयोजन नहीं
होना चाहिए।
फिर इन
चित्रों के
पीछे क्या
प्रक्रिया है
उसको समझने की
चेष्टा करनी
चाहिए। ये
चित्र कोई संभोग
के चित्र नहीं
हैं। इन
चित्रों में
स्त्री और
पुरुष नग्न
हैं, क्योंकि
नग्नता में एक
मुक्तिदायी
तत्व है। जैसे
ही तुम
बहुत-सी
स्त्रियों और
बहुत-से पुरुषों
को नग्न देख
लेते हो, वैसे
ही तुम्हारे
मन में जो सदा
दूसरों को नग्न
देखने की
आतुरता छिपी
है, वह
विलीन हो जाती
है। उसका विलीन
होना बड़ा
मुक्तिदायी
है। उसके
विलीन होने से
ही एक
कामातुरता
नष्ट हो जाती
है। तुम सहज, सरल, निश्चल
हो जाते हो।
तुम्हारे
पीछे जो एक
रोग पड़ा था, तुम्हारे
स्वप्नों में
जो नग्न
स्त्रियां आ रही
थीं और गीता
में जो तुम
फिल्मी
पत्रिकाएं छिपा-छिपाकर पढ़
रहे थे--वह सब
बंद हो जाता
है। इससे एक
बड़ी निश्च्छल
स्वतंत्रता
उपलब्ध होती
है। एक सरलता
आती है, जो
छोटे बच्चों
में होती है।
आखिर
स्तन स्तन
हैं।
जननेंद्रियां
जननेंद्रियां
हैं। नितंब
नितंब हैं।
उनमें कुछ भी
नहीं है।
उनमें कुछ
होना भी नहीं
चाहिए। लेकिन
छिपाने के
कारण बहुत कुछ
हो गया है।
तुम
जरा अपने
दरवाजे पर एक
तख्ती लगा दो
कि यहां
झांकना मना
है। फिर उस
रास्ते से एक
भी इतना
हिम्मतवर
आदमी न निकल
सकेगा, जो
बिना झांके
निकल जाये।
एक
मेरे मित्र
हैं; उनके
मकान की दीवाल
के पास लोग
पेशाब कर जाते
थे। उन्होंने
मुझ से कहा:
मैंने कहा:
तुम एक बड़ी
तख्ती लगा दो
कि यहां पेशाब
करना सख्त मना
है। उन्होंने
तख्ती लगा दी।
पांच-सात दिन
बाद मेरे पास
आये और बोले:
आपने और मुसीबत
कर दी! जो बिना
पेशाब किये
निकलते थे, वे भी करने
लगे। क्योंकि
जब तख्ती पढ़ी
कि यहां पेशाब
करना सख्त मना
है, तो
अड़चन पैदा हो
जाती है, एकदम
याद आ जाती
है--जिनको याद
नहीं भी थी; जो अपने मजे
से काम पर चले
जा रहे थे।
मैं
रोज सुनता हूं, जैसे ही
मैत्रेय जी
खड़े होते हैं,
मुझे पता चल
जाता है कि वह
खड़े हो गये, क्योंकि लोग
एकदम खांसने
लगते हैं।
उनकी आवाज तो
बाद में सुनाई
पड़ती है, लेकिन
तुम्हारी
खांसी की आवाज
सुनकर मैं समझ
जाता हूं कि
मैत्रेय जी
खड़े हो गये।
उन्हें देखकर
ही...उसके पहले
तुम बिलकुल
शांत बैठे थे,
न कोई गले
में खराश थी, न कोई खांसी
थी। लेकिन
मैत्रेय जी
क्या खड़े हुए,
बस एकदम
सबके गले में
खराश हो जाती
है! इसे तुम रोज
देखते हो, रोज
अनुभव करते
हो।
निषेध
में एक तरह का
निमंत्रण हो
जाता हैं। वस्त्रों
ने निषेध पैदा
कर दिया है और
निमंत्रण पैदा
कर दिया है।
मोहन
धारिया को
जरूर मैं कहता
हूं: आओ और
दिल्ली के
बाकी पागलों
को भी अपने
साथ ले आओ।
यहां
पश्चिम से
मेरी
संन्यासिनियां
हैं, वे किसी
तरह का
अंग-वस्त्र
नहीं पहनतीं।
भारतीय स्त्रियों
को अड़चन होती
है। मुझसे
एक-दो भारतीय
स्त्रियों ने
कहा है कि आप
पश्चिमी
संन्यासी
स्त्रियों को
क्यों नहीं
कहते कि बाडी
पहनें, अंगिया
पहनें। लेकिन
बाडी या
अंगिया तो
सिर्फ अंगों
को उभारने के
लिए पहनी जाती
हैं। वह तो जो
स्तन ढल गये
हैं, नहीं
ढले हैं ऐसा
दिखलाने के
लिए पहनी जाती
हैं। लेकिन
भारतीय
स्त्रियां
सोचती हैं कि
उसमें शील है,
लाज है, संकोच
है। उल्टी बात
है। उन्होंने,
मेरी
पाश्चात्य
संन्यासिनियों
ने अंग-वस्त्र
छोड़ दिया है, क्योंकि
उसमें लाज
नहीं है, अश्लीलता
है। उसमें
निमंत्रण है।
उसमें दूसरे
की आंखों पर
हमला है।
तुम्हारे
उभरे हुए स्तन
सिर्फ दूसरों
के भीतर
लुच्चाई पैदा
करते हैं और कुछ
भी नहीं।
लुच्चे
का
मतलब--घूर-घूरकर
देखने की
आकांक्षा पैदा
करते हैं।
लुच्चा
शब्द बनता है
"लोचन' से
आंख से। और
जैसे ही तुम्हारे
अंग-वस्त्रों
में उभरे हुए
झूठे स्तन कोई
देखता है, उसकी
आंख अटक जाती
है। यह
आश्चर्यजनक
नहीं है कि
सारी दुनिया
के लोगों का
यह अनुभव है
कि भारतीय
स्त्रियां
दुनिया की
किसी भी जाति
की स्त्रियों
से ज्यादा
आकर्षक मालूम
होती हैं! राज?
राज है उनकी
धोती, राज
है उनकी साड़ी,
उनके
अंग-वस्त्र।
छिपा-छिपाकर
लाज में
सकुची-सकुची
चलती हैं।
जितनी
छिपी-छिपी हैं,
उतनी ही
आकर्षक मालूम
होती हैं।
कुरूप
से कुरूप
स्त्री भी
घूंघट में
सुंदर हो जाती
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
शादी की।
पत्नी घर आयी।
जैसा
मुसलमानों
में रिवाज है, पत्नी ने
पहली ही बात
जो पूछी वह यह
कि मैं अपना
बुर्का
किन-किन के
सामने उठा
सकती हूं? इसके
पहले मुल्ला
ने उसका चेहरा
तो देखा नहीं था।
विवाह के पहले
देखने का तो
कोई रिवाज था
नहीं तब। पहली
दफा चेहरा
देखा।...सांस
भी रुक गयी।
उसने कहा:
मुझे छोड़कर, जिसके भी
सामने तुझे
चेहरा दिखाना
हो दिखाना, बस मुझे भर
छोड़कर!
बुर्के
में तो कुरूप
से कुरूप
स्त्री सुंदर
मालूम होती
है। घूंघट
कुरूप
स्त्रियों का
आविष्कार है।
बुर्का कुरूप
स्त्रियों की
खोज है।
और
वस्त्रों में
तुम क्यों
अपने को छिपा
रहे हो? क्योंकि
वस्त्र
तुम्हें एक
तरह के झूठ
में जीने की
सुविधा देते
हैं। समझो, तुम पुरुष
हो। तुम ने एक
सुंदर स्त्री
देखी। अगर तुम
नग्न हो, तो
तुम्हारी देह
कह देगी कि
तुम आकर्षित
हो; तुम्हारे
अंग-प्रत्यंग
कह देंगे कि
तुम आकर्षित
हो गये हो।
अगर तुम
स्त्री हो, तो भी।
तुमने एक
पुरुष को देखा
और तुम्हारे
चित्त में
आकर्षण जगा, तत्क्षण
तुम्हारा
शरीर सत्य को
प्रगट कर देगा।
इस सत्य को
कैसे छिपायें?
एक ही
रास्ता है
वस्त्र ओढ़ लो,
तो मन में
कुछ भी चलता
रहे, देह
प्रगट न कर
पाये।
खयाल
करना, देह
बड़ी ईमानदार
है। देह को
तुम झुठला
नहीं सकते।
देह झूठ नहीं
बोलती। मन को
तुम झुठला
सकते हो, क्योंकि
मन भीतर है; दूसरे को
पता न चलने दो
तो न चलने दो।
लेकिन देह तो
बाहर है, उपलब्ध
है। अगर कोई
पुरुष किसी
स्त्री में उत्सुक
हो गया है, उसकी
जननेंद्रिय
सूचना दे देगी
कि वह उत्सुक हो
गया है। अगर
स्त्री
उत्सुक हो गयी
है, उसके
स्तन सूचना दे
देंगे कि वह
उत्सुक हो गयी
हैं। मगर यह
तो बड़ी अड़चन
हो जायेगी; इसको कैसे
छिपाना? वस्त्रों
ने तरकीब दे
दी, आड़ दे
दी, तुम
उत्सुक भी
होते रहते हो
दूसरों में और
शरीर जिन
सत्यों को
प्रगट करता, उनको तुम
वस्त्रों की
आड़ में छिपाते
रहते हो। ऐसे
एक बेईमानी का
जाल चल रहा
है। मैं इस
जाल को तोड़
देना चाहता हूं।
ये
समूह-चिकित्सा
के प्रयोग इस
जाल को तोड़ने
के प्रयोग
हैं। फिर मैं
कोई अभी जाकर
बाजार में और
सड़क पर तुम से
ये प्रयोग
करने को कह भी
नहीं रहा हूं।
इसलिए किसी को
क्यों चिंता
होनी चाहिए? जो इस
उपद्रव से
छूटना चाहते
हैं, स्वेच्छा
से, उनके
लिए
समूह-चिकित्सा
का आयोजन किया
जा रहा है।
फिर जब स्त्री
और पुरुष, बहुत-सी
स्त्रियां और
बहुत-से पुरुष
नग्न होते हैं,
एक दूसरे की
आंखों में
झांकते हैं, एक-दूसरे के
हाथ में हाथ
लेते हैं, नाचते
हैं, कुछ
प्रयोग ऊर्जा
को जगाने के
करते हैं, वर्तुलाकार
घूमते हैं...।
यह कोई संभोग
नहीं हो रहा
है, सिर्फ
एक-दूसरे की
ऊर्जा को
चुनौती दे रहे
हैं। ऊर्जा
जगनी शुरू
होती है...।
खयाल
रखना, ऊर्जा
जग जाये तो
उसके दो
परिणाम हो
सकते हैं। या
तो संभोग हो, तो ऊर्जा
स्खलित होती
है। और अगर
संभोग न हो और
ऊर्जा जग जाये
और जागती चली
जाये, तो
उसका
ऊर्ध्वगमन
शुरू हो जाता
है। या तो अधोगमन
होगा, या
ऊर्ध्वगमन
होगा।
नयी
दिल्ली
पत्रिका में
जो चित्र छिपे
हैं, वे लीला
नाम के
समूह-चिकित्सा
के चित्र हैं।
लीला, ऊर्जा
की लीला का
प्रयोग है।
स्त्रियों को
देखकर, पुरुषों
को देखकर
दोनों के भीतर
ऊर्जा का
प्रवाह जगता
है। उस प्रवाह
को इतनी
चुनौती देनी
है कि तुम्हारे
भीतर जो सोये
पड़े हुए हैं
जन्मों-जन्मों
के स्रोत, वे
सब सजग हो
जायेंगे। और
फिर उसे
अधोगामी नहीं
होने देना है,
उसे
ऊर्ध्वगमन की
तरफ ले जाना
है।
ये
कुंडलिनी
जागरण के ही प्रयोग
हैं। ये कुछ
नये प्रयोग
नहीं हैं, ये सदियों
से तंत्र के
मार्ग पर चलने
वाले साधक
करते रहे हैं,
सरहपा और
तिलोपा और
कणहपा सदियों
से इन प्रयोगों
को करते रहे
हैं। मैं पहली
बार इन
प्रयोगों को
एक वैज्ञानिक
आधार-भूमि
देने की
चेष्टा कर रहा
हूं। ये
प्रयोग चुपचाप
किये जाते रहे
हैं।
शास्त्रों
में इनका उल्लेख
भी है। लेकिन
सामान्य-जन को
इनकी कभी कोई
खबर नहीं दी
गयी है।
क्योंकि
सामान्य-जन का
कभी सम्मान
नहीं किया गया
है। मैं
सामान्य-जन का
सम्मान कर रहा
हूं। मैं कहता
हूं कि क्यों
सामान्य-जन का
इतना अपमान
हो। आखिर उसे भी
इन अनूठे
प्रयोगों का
अवसर मिलना
चाहिए। क्योंकि
वह क्यों न
जाने कि ऊर्जा
के ऊपर जाते हुए
आयाम भी हैं? वह क्यों
वंचित रह जाये?
जो ऊर्जा
जननेंद्रिय
से स्खलित
होती है, वह
क्यों न
सहस्रार में
चढ़े और क्यों
न सहस्रार का
कमल खिले?
जो
अब तक
छिपा-छिपा था, गुप्त-गुप्त
था, उसे
मैं प्रगट कर
रहा हूं, यही
मेरा कसूर है।
यह मेरा अपराध
है। इस अपराध
के लिए मुझे
हजार तरह की
परेशानियां
झेलनी पड़ रही
हैं और झेलनी
पड़ेंगी।
क्योंकि मैं
इस प्रक्रिया
को बंद
करनेवाला
नहीं हूं, परिणाम
कुछ भी हों।
इस प्रक्रिया
को और गहन करूंगा।
इस प्रक्रिया
को और-और
लोगों तक
पहुंचाऊंगा।
जो भी सुनने
को राजी होंगे,
समझने को
राजी होंगे, उनको जीवन
की ऊर्जा का
रूपांतरण
कैसे किया जाये,
नीचे जाती
ऊर्जा को ऊपर
कैसे ले जाया
जाये--ये अनूठे
प्रयोग मैं अब
जगत के सामने
प्रगट करना चाहता
हूं। अब इनको
थोड़े-बहुत लोग
चुपचाप
अपने-अपने
मठों में, छिपकर
करते रहें, इतने से
नहीं होगा।
पूरी
मनुष्य-जाति
कामवासना से
तड़प रही है, परेशान हो
रही है। और
औषधि हमारे
पास हो और कुछ
लोग इसका
उपयोग करते
रहें, यह
ठीक नहीं। यह
औषधि
सर्वसुलभ
होनी चाहिए। यह
सब को मिल
जानी चाहिए, क्योंकि यह
सभी का रोग
है।
वे
जो चित्र "नयी
दिल्ली' पत्रिका
में प्रकाशित
हुए हैं, इसी
तरह के प्रयोग
के चित्र हैं।
स्त्री और पुरुष
नग्न, एक-दूसरे
का हाथ में
हाथ लिये, या
एक-दूसरे की
देह को स्पर्श
करते हुए; या
एक-दूसरे की
आंख में आंख
डाले
हुए--चुनौती दे
रहे हैं, वह
जो भीतर छिपा
है उसे जागने
के लिए, जगाने
के लिए। इससे
संबंध संभोग
का कोई भी नहीं
है। यह तो
संभोग के
बिलकुल
विपरीत दिशा
है। ऊर्जा
पहले जगनी
चाहिए--और
जगती है
विपरीत के आघात
से। पुरुष है
धन विद्युत, स्त्री है
ऋण विद्युत; और दोनों का
एक-दूसरे पर
आघात हो, तो
ही ऊर्जा जगती
है। तुम भी
जानते हो कि
ऊर्जा जगती है,
मगर तुम उसे
दबा जाते हो।
इन
प्रयोगों में
उस ऊर्जा को
दबाना नहीं है, उस ऊर्जा को
सहारा देना
है। उस ऊर्जा
को उठाना है; जितना उठ
सके उठाना है।
और एक खास
सीमा पर जाकर
रूपांतरण
होता है। जैसे
सौ डिग्री पर
पानी भाप बन
जाता है। ऐसे
ही तुम्हारे
भीतर जब सौ
डिग्री ऊर्जा
जगती है, तो
नीचे न जाकर
ऊपर जाने लगती
है: तुमने
देखा, पानी
तो नीचे की
तरफ जाता है, भाप ऊपर की
तरफ जाती
है!...क्रांति
घट गयी! और जैसे
ही काम-ऊर्जा
ऊपर की तरफ
जाती है, राम
की झलक मिलनी
शुरू हो जाती
है।
मगर
यह तो वे ही
समझ पायेंगे, जो इन
प्रयोगों को
करने का साहस
करेंगे। मोहन धारिया
नहीं समझ
पायेंगे।
मोहन धारिया
तो इस आश्रम
के दरवाजे के
भीतर प्रवेश
करने की हिम्मत
नहीं कर सकते।
और बिना
समझे-बूझे
वक्तव्य देना,
सिर्फ
मूढ़ता के
लक्षण हैं, और कुछ भी
नहीं।
यहां
एक अनूठा
रासायनिक
प्रयोग हो रहा
है। यह प्रयोग
हिम्मतशालियों
के लिए है।
मनुष्य ऊर्जा
के अतिरिक्त
और कुछ भी
नहीं है। और
प्रत्येक
मनुष्य में
दोनों
ऊर्जाएं छिपी
हैं। पुरुष के
भीतर अचेतन
में स्त्री
छिपी है।
स्त्री के
भीतर अचेतन
में पुरुष
छिपा है। अब
यह
मनोवैज्ञानिक
सत्य है।
कार्ल
गुस्ताव जुंग
के अन्वेषणों
ने इस प्राचीन
सत्य को
आधुनिक कलेवर
में, आधुनिक
तर्क से सिद्ध
कर दिया है।
हम तो इसे जानते
रहे हैं
सदियों से।
तभी तो हमने
अर्धनारीश्वर
की प्रतिमा
बनाई थी।
अर्धनारीश्वर
की प्रतिमा
क्या कहती है?
शिव आधे
स्त्री हैं, आधे पुरुष।
यह तो केवल
प्रतीक है।
प्रत्येक
व्यक्ति, फिर
वह पुरुष हो
या स्त्री, आधा-आधा है।
होना ही
चाहिए।
क्योंकि
तुम्हारा
जन्म मां और
पिता के मिलन
से हुआ है।
आधा हिस्सा
मां ने दिया
है, आधा
पिता ने दिया
है, तब तुम
बने हो। तो
तुम्हारे
भीतर आधी
स्त्री है आधा
पुरुष है। अगर
तुम पुरुष हो
शारीरिक
दृष्टि से, तो चेतन मन
में तुमने
अपने को पुरुष
जाना है; उसके
पीछे ही छिपा
हुआ अचेतन मन
है, उसमें
तुम स्त्री
हो। और अगर
तुम स्त्री हो
शारीरिक रूप
से तो चेतन मन
में स्त्री और
अचेतन में
पुरुष छिपा
है।
ये
जो लीला के
प्रयोग हैं, ऊर्जा के
प्रयोग हैं।
इनमें बाहर की
स्त्री का, बाहर के
पुरुष का
सहारा लेकर
भीतर छिपी
स्त्री और
भीतर छिपे
पुरुष को
उकसाया जा रहा
है, जगाया
जा रहा है।
तुम जब भी
किसी बाहर की
स्त्री में
आतुर होते हो,
उत्सुक
होते हो, तो
तुम्हें पता
हो या न हो, कहीं
न कहीं किसी अनजान
अर्थों में, अज्ञात
अर्थों में
तुम्हारे
भीतर की
स्त्री की झलक
तुम्हें बाहर
की स्त्री में
मिली है। नहीं
तो तुम हर
स्त्री के
प्रेम में
क्यों नहीं पड़
जाते हो? तुम
ने कभी इस पर
विचार किया है?
हर पुरुष
तुम्हें
आकर्षित नहीं
करता, हर
स्त्री
तुम्हें
आकर्षित नहीं
करती। कभी
अकस्मात किसी
व्यक्ति को
पहली दफा
देखते हो और
आकर्षित हो
जाते हो। क्या
होगा इसका
कारण? इसका
कारण एक ही है,
वह जो बाहर
की स्त्री है,
वह किसी रूप
में तुम्हारे
अचेतन में
छिपी स्त्री
का प्रतिबिंब
है। उसकी झलक
दे रही है।
उसने
तुम्हारे
भीतर की स्त्री
को सप्राण कर
दिया, सोये
को जगा दिया।
लीला-चिकित्सा
में इसको
जानकर प्रयोग
किया जाता है।
लीला-चिकित्सा
की पूरी
प्रक्रिया और पद्धति
ऐसी है कि
जिसमें बाहर
की स्त्री का
सहारा लेकर
भीतर की
स्त्री को
सोये से झकझोर
देना है; और
बाहर के पुरुष
का सहारा लेकर
भीतर के पुरुष
को झकझोर देना
है। जब
तुम्हारे
भीतर की
स्त्री और
पुरुष दोनों
जग जाते हैं, तो एक
अपूर्व मिलन
घटित होता है।
तुम्हारे भीतर
घटित होता है!
एक अपूर्व
स्त्री और
पुरुष ऊर्जा
का सम्मिलन
तुम्हारे
भीतर घटित
होता है! उस
सम्मिलन में
तुम पूर्ण हो
जाते हो, क्योंकि
फिर
अधूरा-अधूरापन
नहीं रह जाता।
और
आश्चर्य की
बात तो यह है, जिसके भीतर
यह घटन हो
जाये, जिसके
भीतर यह संगठन
हो जाये, जिसके
भीतर की
स्त्री और
पुरुष एक हो
जायें, उसे
फिर बाहर की
स्त्री और
पुरुष में कोई
रस नहीं रह
जाता। मेरी
बातें ऊपर से
तो ऐसी लगती हैं
कि मैं लोगों
को भोग की तरफ
ले जा रहा
हूं। बस ऊपर से
ही लगती हैं
और नासमझों को
लगती हैं।
उनको लगती हैं
जिनकी बात का
कोई मूल्य
नहीं है।
मैं
तुम्हें परम
ब्रह्मचर्य
की तरफ ले चल
रहा हूं।
क्योंकि जिस
दिन तुम्हारे
भीतर की स्त्री
और पुरुष का
मिलन हो
जायेगा उसी
दिन परम
ब्रह्मचर्य
घटित हो
जायेगा। उस
दिन के बाद फिर
तुम्हें कोई
रस नहीं रह
जायेगा बाहर
की स्त्री में
और बाहर के
पुरुष में। और
भागना भी न पड़ेगा
कहीं, दबाना
भी न पड़ेगा
कुछ। एक
अपूर्व शांत,
मौन
क्रांति घट
जाती है, शोरगुल
भी नहीं होता।
तुम्हारे
भीतर द्वंद्व
समाप्त हो
जाता है, निर्द्वंद्व
का जन्म हो
जाता है।
ब्रह्मचर्य
शब्द का अर्थ
सोचा है कभी? ब्रह्म जैसी
चर्या। यह
सिर्फ
कामवासना को
दबा लेने से
कोई ब्रह्म
जैसी चर्या को
उपलब्ध नहीं
होता। ब्रह्म
जैसी चर्या को
तो कोई तभी
उपलब्ध होता
है जब
अर्धनारीश्वर
हो जाये--आधा पुरुष
आधा स्त्री, दोनों मिल
जायें--और एक
हो जायें। इस
सम्मिलन में,
इस समन्वय
में, इस
संगीत में
ब्रह्मचर्य
का जन्म है।
यहां
जो भी हो रहा
है, उसका
अंतिम लक्ष्य
ब्रह्मचर्य
है। मगर जो ऊपर-ऊपर
देखेंगे, वे
तो बड़े परेशान
होंगे। वे तो
परेशान हो ही
रहे हैं। उनकी
परेशानी को
जितना बन सके
समझने की
कोशिश करो। मगर
उनकी परेशानी
के कारण तुम
परेशान मत हो
जाना। उनकी
परेशानी को
अपनी परेशानी
मत बना लेना।
नासमझों
का एक समूह है, वह चलता
रहेगा। वह
मुझे गालियां
देता रहेगा। उसकी
फिक्र छोड़ो।
उसकी चिंता न
लो। उसमें उलझो
भी मत। तुम अपने
काम में लगे
रहे हो।
धीरे-धीरे जब
यहां ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
चेतनाएं खड़ी
हो जायेंगी, वे चेतनाएं
ही असली उत्तर
होंगी। और कोई
उत्तर सार्थक
नहीं हो सकता।
मैं फिक्र में
हूं कि प्रमाण
जुटा सकूं। और
उस फिक्र को
तुम ही पूरा
कर सकते हो।
कृष्ण
प्रेम, चिंता
न लो। मेरे
जैसे व्यक्ति
जब जमीन पर
आते हैं तो बहुत
ऊहापोह मचता
है, बहुत
तूफान-आंधियां
उठती हैं।
दूसरा
प्रश्न :
भी
पहले से
संबंधित है:
ओशो! भारतीयों
को ग्रुप-थैरेपी, सामूहिक-मनोचिकित्सा
में सम्मिलित
क्यों नहीं
किया जाता? क्या पश्चिम
को ही
सामूहिक-चिकित्सा
की आवश्यकता
है और पूर्व
को नहीं? परंतु
वस्तुस्थिति
ऐसी नहीं
दिखती।
वास्तविकता
तो यह है कि
नब्बे
प्रतिशत
भारतीय ही यौन-विक्षिप्त
पाये जाते
हैं। इस
संदर्भ में यह
स्पष्ट करने
की अनुकंपा
करें कि
भारतीयों को इस
विशिष्ट
पद्धति से
वंचित रखना
कहां तक उचित है
और क्यों?
पूछा
है डाक्टर तपन
कुमार चौधरी
ने। डाक्टर
हैं, तो
निश्चित वे
जानते हैं कि
भारतीयों की
असली मानसिक
दशा क्या है।
ठीक है, नब्बे
प्रतिशत ही
नहीं, निन्यानबे
प्रतिशत
भारतीय
काम-दमन से
पीड़ित हैं। और
मैं जानता हूं
उन्हें जितनी
आवश्यकता है,
उतनी शायद
किसी और को
नहीं।
लेकिन
अड़चनें हैं
बहुत। पहली तो
बात, भूमिका
का अभाव है।
भारत सदियों
से दमन की धारा
में जीया है।
तो किसी
भारतीय को अगर
मैं कहता भी
हूं कि तुम
जाओ और
सामूहिक-चिकित्सा
में सम्मिलित
हो जाओ, तो
वह सम्मिलित
नहीं होता।
भाग खड़ा होता
है। यहां आता
ही नहीं फिर।
यहां से भगाना
हो किसी को, तो मैं उसे
सामूहिक-चिकित्सा
का सुझाव दे
देता हूं।
उससे मेरी भी
झंझट छूट जाती
है और उसको भी
आने का उपाय
दोबारा नहीं
रह जाता।
भूमिका का
अभाव है।
सामूहिक-चिकित्सा
के पीछे एक
मानसिक
भूमिका चाहिए।
न तो उन्हें
पता है कि
एनकाउंटर क्या
है, न उन्हें
पता है कि
प्रायमल-थैरेपी
क्या है, न
उन्हें पता है
कि
बायोइनरजेटिक्स
क्या है। यह
सारा विज्ञान
पश्चिम में
पैदा हुआ है।
मैं तुमसे कहे
देता हूं कि
अगर तुम जल्दी
नहीं जागे तो
पश्चिम
तुम्हें
आध्यात्मिक
अर्थों में भी
पीछे छोड़
देगा। भौतिक
अर्थों में तो
तुम्हें पीछे
छोड़ ही दिया
है पश्चिम ने,
क्योंकि
तुम नहीं
जागे। जाग
सकते थे। भारत
में पहली दफा
गणित पैदा हुआ
था। लेकिन फिर
भारत आइंस्टीन
को क्यों पैदा
नहीं कर सका? सुस्ती है, काहिलता है।
भाग्य पर छोड़े
बैठे हैं सब।
तो गणित भारत
में पैदा हुआ,
लेकिन आइंस्टीन...उसकी
पूर्णाहुति
भारत में न
हुई, पूर्णाहुति
पश्चिम में
हुई।
भारत
ने करीब-करीब
सभी
विज्ञानों की
प्राथमिक खोज
कर ली थी।
लेकिन उसका
अंतिम
उत्कर्ष भारत
में नहीं हुआ, पश्चिम में
हुआ। हमने
सर्जरी का
प्राथमिक प्रयोग
किया था, लेकिन
फिर सर्जरी ने
अपनी पराकाष्ठा
पश्चिम में
पायी। औषधि हो,
कि गणित हो,
कि सर्जरी
हो, कि
रसायन-विज्ञान
हो, कि
भौतिकी हो--हर
दिशा में भारत
ने सबसे पहले
प्राथमिक
प्रयोग किये
थे। मगर
प्राथमिक पर
ही हम रुक
जाते हैं।
आत्यंतिक तक
जाने का न हम
साहस जुटा
पाते, न
शक्ति जुटा
पाते, न
उतना मनोबल
जुटा पाते
हैं।
अब
वही
दुर्भाग्य
फिर घटने को
है। तंत्र पर
हमने सबसे
पहले प्रयोग
किये थे। और
हमने तंत्र पर
बड़ी गहराइयां
पायी थीं। मगर
अब पश्चिम
हमसे आगे
निकला जाता
है। और अगर
थोड़ी देर और
की, तो जैसे
अभी तुम्हारे
बच्चों को
पश्चिम जाना पड़ता
है गणित और
विज्ञान
सीखने; कुछ
आश्चर्य न
होगा कि किसी
दिन धर्म और
ध्यान सीखने
भी पश्चिम
जाना पड़े। तुम
उसमें भी पिछड़ते
जा रहे हो, जिसमें
तुम सदा
अग्रणी थे। अब
तुम उसमें भी
अग्रणी
ज्यादा देर न
रहोगे।
तुम्हारी आदत
ही पिछड़ने की
हो गई है। तुम
किसी भी चीज
में अपनी सारी
सामर्थ्य
लगाकर नहीं
जुटते हो। अब
तुमने पूछा है
कि भारतीयजनों
को
सामूहिक-चिकित्सा
से वंचित क्यों
रखा जा रहा है?
पहली
तो बात यह है
कि कोई भारतीय
यहां तीन-चार महीने
आकर रुकने को
राजी नहीं
होता। तीन-चार
महीने न रुके
तो
सामूहिक-चिकित्सा
के प्रयोग नहीं
किए जा सकते।
भारतीय तो आता
है दो दिन के
लिए, दर्शन
करने के लिए।
वह कहता है
दर्शन हो गए, सब हो गया।
तुम्हें यह
आदत पकड़ गई है
सदियों से कि
गए और किसी
सदगुरु के
दर्शन कर लिए
और सब हो गया।
बात खतम हो
गई। चरण छू आए,
आशीर्वाद
ले लिया; कुछ
और करना नहीं
है। पश्चिम से
जो लोग आते हैं
तीन से छह
महीने का समय
लेकर आते हैं।
तुम यहां आते
हो दिन-दो-दिन
के लिए। बहुत
किसी ने हिम्मत
की तो वह दस
दिन के लिए, शिविर के
लिए आ जाता
है।
शिविर
में भी तुम
ध्यान कम करते
हो, देखते
ज्यादा हो कि
दूसरे क्या कर
रहे हैं। तुम्हारा
रस कुछ
विक्षिप्त हो
गया है। दांव
पर तुम कुछ भी
लगाना नहीं
चाहते।
कुछ
भारतीयों को
मैंने
चिकित्साओं
में भेजा। मैं
चाहता हूं कि
ये चिकित्सा
का जो लाभ हो सकता
है वह
भारतीयों को
भी मिले; मिलना
ही चाहिए। और
तपन कुमार, तुम ठीक
कहते हो कि
निन्यानबे
प्रतिशत लोग
यहां रुग्ण
हैं, इनको
आप चिकित्सा
का अवसर न
देंगे? देना
चाहता हूं।
पहली तो बात, किसी को
चिकित्सा के
लिए कहो, तो
वह राजी नहीं
होता। अब
जबर्दस्ती तो
किसी के ऊपर
चिकित्सा
नहीं थोपी जा
सकती। आदमी
भाग रहा हो...और
तुम उसे लिटाओ
और आपरेशन करो,
यह तो नहीं
हो सकता।
कम-से-कम उसकी
स्वीकृति तो
चाहिए ही।
स्वेच्छा से
ही चिकित्सा
हो सकती है।
फिर
किन्हीं को
मैंने
समझा-बुझाकर
भेज भी दिया, तो वे
चिकित्सा में
पहुंच भी जाते
हैं, सम्मिलित
नहीं होते।
बैठे रहते हैं
एक कोने में।
भागीदार नहीं
बनते। वहां भी
दर्शक बने रहते
हैं। तो उनके
कारण जो और
लोग चिकित्सा
में सम्मिलित
हैं, उनको
बाधा पड़ती है।
तो मुझे
पाश्चात्य
संन्यासी आकर
कहते हैं कि
आप भारतीयों
को मत भेजिए, क्योंकि वे
सम्मिलित तो
होते नहीं। और
एक पत्थर की
तरह वहां खड़े
हो जाते हैं? किसी चीज
में भाग लेते
नहीं, तो
जो धारा बहनी
चाहिए समूह की,
उसमें एक
चट्टान पड़ जाती
है; धारा
में बाधा आ
जाती है।
एक
तो भूमिका का
अभाव है, क्योंकि
तुम दमन की
हवा में पले
हो। तुम्हारी छाती
पर मोरारजी
देसाई जैसे
लोग इतनी
सदियों से
बैठे हैं कि
जब तक तुम
उन्हें न उतार
दो, तुम्हारे
रोग न उतरेंगे,
तुम्हारी
बीमारियां न
उतरेंगी।
तुम्हारे पास
ऐसी-ऐसी
धारणाएं
चित्त में घर
कर गई हैं कि
उनके साथ अड़चन
है।
अब
तुमने पूछा है
तपन कुमार, लेकिन अगर
किसी भारतीय
को मैं कहता
हूं कि तुम
जाकर
लीला-थैरेपी
में या
एनकाउंटर में
सम्मिलित हो
जाओ, तो वह
कहता है: पहले
मैं अपनी
पत्नी को
पूछूंगा!
पत्नी राजी
नहीं है, क्योंकि
वहां और
स्त्रियां
हैं, पता
नहीं तुम क्या
करोगे!
एक
मित्र को
मैंने मालिश
करवाने के लिए
भेजा, क्योंकि
उनके शरीर में
तकलीफ है।
उनकी पत्नी वहां
खड़ी रहती है
जाकर। मालिश
भी नहीं
करवाने देगी
उनको; देखती
है खड़ी होकर
कि कोई गड़बड़
तो नहीं हो
रही है। पत्नी
को अगर भेजूं
चिकित्सा में
तो पति राजी
नहीं है। तो
कैसे भेजूं, क्या उपाय
किया जाए?
फिर
जो भारतीय आते
हैं वे कभी
अपनी
वास्तविक बीमारियां
तो बताते नहीं; मुझे दिखाई
पड़ती हैं, मगर
वे तो बातें
दूसरी ही करते
हैं। भारतीय
आकर पूछता
है--समाधि
कैसे मिले, मोक्ष कैसे
मिले? उसको
मैं कहूं कि
तुम जाओ और
तुम एक
चिकित्सा पद्धति
में सम्मिलित
हो जाओ। वह
कहेगा: चिकित्सा
से क्या
लेना-देना है,
मुझे मोक्ष
चाहिए! मोक्ष
तो नहीं मिलता
चिकित्सा-पद्धति
से; यद्यपि
चिकित्सा-पद्धति
से कूड़ा-कचरा
तुम्हारे
चित्त का साफ
होगा, जो
कि मोक्ष के
मिलने में
सहयोगी है।
मगर सीधा
मोक्ष नहीं
मिलता।
तुम
बातें ही हवाई
पूछते हो आकर।
फिर तुम जो पूछते
हो, वही
तुम्हें
उत्तर देने
पड़ते हैं।
तुमने जो पूछा
नहीं है उसका
उत्तर देना
ठीक भी नहीं
है। तुम उसे
झेल भी न
सकोगे। तुम
उसे लेने को
राजी भी न
होओगे।
इसलिए
मेरी मजबूरी
समझो। मैं
चाहता हूं कि
भारत वंचित न
रहे। लेकिन
भारत तय किये
बैठा है कि
वंचित रहेगा। तुम
देखते हो, पूना में हर
तरह की चेष्टा
चल रही है कि
यह आश्रम पूना
में न बचे, इस
आश्रम को पूना
से हटना
चाहिए। और ऐसा
भी नहीं कि
पूना से हटना
चाहिए, यह
भारत में कहीं
और भी नहीं
जाना चाहिए।
और ऐसा भी
नहीं कि यह
भारत के बाहर
चला जाए...।
अभी
कल मैंने
अखबारों में
पढ़ा कि
मुसलमानों ने
एक सभा करके
सरकार से
निवेदन किया
है कि मेरा
पासपोर्ट
जप्त कर लिया
जाए! तो अब तो
मुझे सिवाय
मोक्ष जाने के
कोई जगह बची
नहीं! मैं बड़ा
ही प्रसन्न
हुआ, मैंने
कहा: यही तो
मैं...! पूना रह
नहीं सकता।
कच्छ जा नहीं
सकता। सासवड़
में आश्रम बन
नहीं सकता।
पासपोर्ट है,
वह भी जप्त
कर लेना
चाहिए। तब तो
फिर मेरे लिए सिर्फ
निर्वाण ही रह
जाता है।
और
तुम कह रहे हो:
भारतीयों को
मैं
चिकित्सा-पद्धति
में क्यों
नहीं सम्मिलित
करवाता? किनको
करवाऊं--मोहन
धारिया को, मोरारजी
देसाई को, किसको?
वे तो इस
आश्रम को ही
जीवित नहीं
रहने देना चाहते।
यह आश्रम बचना
ही नहीं
चाहिए।
मोरारजी देसाई
ने कहा कि अगर
मेरा वश चले
तो मैं इस
आश्रम को
नेस्तनाबूद
कर दूं। और
ऐसा नहीं है
कि वे नेस्तनाबूद
करने में कोई
कमी छोड़ रहे
हैं। वे सब
तरह से कोशिश कर
रहे हैं। और
वश उनका क्यों
नहीं चलता? सारी सत्ता
उनके हाथ में
है, वश की
क्या अड़चन है?
बस थोड़ा-सा
एक संकोच उनको
लगता है कि अब
मैं कोई
राष्ट्र के
भीतर सीमित
नहीं हूं, अब
मेरी स्थिति
अंतर्राष्ट्रीय
है। वही उनको संकोच
का कारण है, नहीं तो वश
चलने में क्या
दिक्कत है।
बुलडोजर लाकर
इस आश्रम को
गिरवा दें।
लेकिन अब उनको
पता है कि मैं
भारत में
सीमित नहीं
हूं। दुनिया के
कोने-कोने में
मेरे
संन्यासी
हैं। सारी दुनिया
में तूफान
मचेगा, अगर
मेरे साथ कुछ
भी ज्यादती की
गई तो उसका
परिणाम सारी
दुनिया में
प्रतिफलित
होगा। छहों
महाद्वीप पर
मेरे
संन्यासी
हैं। इस बात
को ऐसे ही
नहीं छोड़ दिया
जायेगा। यह
बात आसान नहीं
होगी। अगर इस
आश्रम को कोई
भी चोट पहुंची,
तो मोरारजी
देसाई किसी
देश में
प्रवेश नहीं कर
सकेंगे। जहां
जायेंगे, वहां
मुसीबत होगी।
तो इस देश के
राजदूतावास
किसी देश में
बचे नहीं रह
सकेंगे। इससे
घबड़ाहट है, इससे
परेशानी है कि
उपद्रव खड़ा हो
जाएगा, कि
फिर हम अपनी
लोकतांत्रिक
प्रतिमा को
कैसे बचायेंगे,
क्योंकि यह
तो
गैर-लोकतांत्रिक
कदम होगा।
मैंने
कोई कानून
नहीं तोड़ा है।
कमरे के भीतर
नग्न होने का
प्रत्येक को
अधिकार है, नहीं तो सभी
पति-पत्नियों
को जेल में
डालना पड़ेगा।
मैंने कोई
कानून नहीं
तोड़ा है। मैं
इस हिसाब से
होशियारी से
चल रहा हूं।
मेरे ऊपर कोई कानूनी
जुर्म नहीं है,
न मेरे
आश्रम पर कोई
कानूनी जुर्म
है। सारी फिक्र
इस ढंग से की
है कि कानूनी
ढंग से तो कोई
तरह से वे पकड़
ही नहीं सकते।
नहीं तो तुम
सोचते हो, वे
छोड़ते? अगर
वे संजय गांधी
पर बाईस
मुकदमे चला
सकते हैं तो
मुझ पर दो सौ
बीस चलाते।
मगर सब चार सौ
बीस मिलकर भी
मुझ पर दो सौ
बीस मुकदमे
नहीं चला सकते।
मुकदमे का कोई
कारण नहीं है।
इसलिए एक
नपुंसकता
अनुभव हो रही
है कि क्या
करें, वश
नहीं चलता है,
नहीं तो
मिटा देते।
मगर जितना वश
चलता है उतनी
चेष्टा जारी
रखते हैं।
तुम
कहते हो: मैं
भारतीयों को
इन चिकित्सा
पद्धति में
क्यों
सम्मिलित
नहीं करता? किसको
सम्मिलित
करूं? फिर
सम्मिलित
होने इस तरह
के लोग जरूर
आते हैं, जिनका
प्रयोजन
दूसरा है--जो
चाहते हैं कि
चित्र ले लें
वहां जाकर और
चित्रों को अखबारों
में छपवा दें।
जिसको सम्म्लित
होना है, उसे
ध्यान करना
होगा, शिविर
करने होंगे।
और जो
चिकित्सा-पद्धति
मैं दूंगा
उनमें
सम्मिलित
होना होगा।
उतना धीरज
नहीं है। उतने
प्रयोगों से
गुजरने की
क्षमता नहीं
है।
एक
तो भूमिका का
अभाव है।
पश्चिम में
पिछले पचास
वर्षों में
मनोविज्ञान
ने बड़ी
ऊचाइयां ली हैं, बड़े शिखर
छुए हैं! उसका
कोई बोध नहीं
है। और गैर-पढ़े-लिखे
आदमी की बात
छोड़ दो; विश्वविद्यालय
में तुम्हारे
जो शिक्षक मनोविज्ञान
पढ़ा रहे हैं, वे भी
तीस-चालीस साल
पुरानी
किताबों के
आधार से पढ़ा
रहे हैं।
उन्होंने जो
पढ़ा था
विश्वविद्यालय
में, वही
पढ़ा रहे हैं।
उनके लिए अब
भी मैकडूअल की
किताबें वेद
हैं। उन्हें
कोई पता नहीं
है अब्राहम
मैसलो का, उन्हें
कोई पता नहीं
फ्रिडज
पर्ल्स का।
उन्हें कोई
पता नहीं
जैनोव का।
उन्हें कोई
पता नहीं कि
नई-नई क्या
खोजें हो रही
हैं। उन्हें
विलियम राइक
का कोई पता
नहीं है।
मगर
फिर यह भारत
की ही बात
नहीं है।
विलियम राइक
तो अमरीका में
था, लेकिन
अमरीकी सरकार
ने उसे जेल
में डाल दिया,
क्योंकि
उसने
काम-ऊर्जा के
रूपांतरण के
कुछ प्रयोग
किए।
काम-ऊर्जा के
रूपांतरण के
प्रयोग, और
विलियम राइक
दिक्कत में
पड़ा। और फिर
उन्होंने
आखिरी क्या
तरकीब की, तुम्हें
पता है? कोई
उसके खिलाफ
कानूनी उपाय
नहीं मिल सका,
तो झूठा, जबर्दस्ती
उसे पागल करार
दे दिया। और
पागल करार
देकर जेलखाने
में रख दिया।
विलियम राइक
जेलखाने में
मरा। इस सदी का
सबसे बड़ा
तांत्रिक
शोधक पागल की
तरह जेलखाने
में मरा; जबर्दस्ती
मारा गया। अब
अमरीका में
अगर ऐसा होता
हो, तो
भारत का तो
तुम सोचो कि
क्या हालत
होगी!
इसलिए
भूमिका का
अभाव बड़ी अड़चन
हैं। शिक्षा का
अभाव बड़ी अड़चन
हैं। तुम
मुझसे कहते हो, सामूहिक-चिकित्सा
में भारतीयों
को प्रवेश दूं।
मैं देना भी
चाहता हूं:
लेकिन यह ऐसा
ही होगा कि
जिसे साधारण
गणित नहीं आता
वह अल्बर्ट आइंसटीन
की
सापेक्षवाद
के सिद्धांत
को समझने के
लिए कोशिश
करे। नहीं समझ
पायेगा। उसकी
भूमिका तय
करनी होगी।
धीरे-धीरे, शनैः शनैः
उसकी भूमिका
तैयार कर रहा
हूं। यह मेरे
संन्यास का
व्यापक
प्रसार उसी
दिशा में आयोजन
है। धीरे-धीरे
तुम मुझसे
राजी होने लगो,
मेरी बात
तुम्हें समझ
में आने लगे; धीरे-धीरे
तुम इतनी
श्रद्धा से भर
सको कि अपनी
धारणाओं के
विपरीत भी
प्रयोग करना
हो तो कर
सको--तो फिर
मैं
आहिस्ता-आहिस्ता
तुम्हें प्रयोग
करवाऊं। और
तुम्हें
प्रयोग
करवाने के लिए
ही नए कम्यून
को बनाने का
आयोजन कर रहा
हूं। क्योंकि
पाश्चात्य
व्यवस्था से
सामूहिक-चिकित्सा
तुम्हारी न हो
सकेगी।
तुम्हारे लिए
मुझे नए ढंग
ही खोजने
होंगे, जो
तुम्हारी
भारतीय शैली
और व्यवस्था
के अनुकूल
हों।
पाश्चात्य
चिकित्सा
महंगी है; यद्यपि
मैंने उसे
इतना सस्ता
किया है जितना
किया जा सकता
है। जिस
चिकित्सा के
लिए पश्चिम में
पांच हजार
रुपये खर्च
होते हैं, उस
चिकित्सा के
लिए यहां पांच
सौ रुपये में
व्यवस्था की
है। लेकिन
भारतीय के लिए
तो पांच सौ
रुपये भी बहुत
हैं। उसके लिए
तो पचास रुपये
में व्यवस्था
हो सके, तो
ही काम हो
सकेगा। तो नए
कम्यून में
जहां ज्यादा
जगह होगी, ज्यादा
विस्तार होगा,
ज्यादा
सुविधा से
प्रयोग हो
सकेंगे। अब
यहां तो हर
चीज की अड़चन
है। यहां तो
साउंडप्रूफ
कमरा चाहिए, एअरकंडीशन्ड
कमरा चाहिए।
क्योंकि
साउंडप्रूफ न
हो तो
चिकित्सा में
जो आवाजें
निकलेंगी...पड़ोसी
परेशान करते
हैं, वे
पुलिस को फौरन
खबर कर देते
हैं।
एयरकंडीशन्ड
होना चाहिए तो
ही
साउंडप्रूफ
हो सकता है। नहीं
तो लोग मर
जायेंगे भीतर
बंद कमरे में।
तो महंगा हो
गया: एयर
कंडीशन्ड
होगा, साउंडप्रूफ
होगा--आवाज
बाहर नहीं
जानी चाहिए।
खास तरह की
ईंटों से बना
होगा। तो सारी
चीज महंगी हो
गई।
भारतीयों
के पास सुविधा
नहीं है कि वे
अभी पांच सौ
रुपये भी
चिकित्सा के
लिए खर्च कर
सकें। फिर
चिकित्सा के
समय में खास
तरह का भोजन
दिया जाता है, क्योंकि
प्रत्येक
चिकित्सा
तुम्हारी
ऊर्जा पर काम
करती है। किस
ऊर्जा के लिए
कैसा भोजन जरूरी
है, वही
भोजन दिया
जाता है। वह
भी महंगा हो
जाता है। अब
कौन भारतीय
पंद्रह दिन के
लिए पांच सौ रुपया
चिकित्सा का
देने के लिए
तैयार है।
लाये भी कहां
से, इतनी
तो उसकी मासिक
तनखाह भी नहीं
है। वह महीने
भर अपने बच्चों
को क्या
खिलायेगा, पत्नी
को क्या
खिलायेगा?
चाहता
हूं, बहुत
हृदय से चाहता
हूं; भीतर-भीतर
चिंतित होता
हूं कि क्यों
तुम्हारे लिए
भी सारा साधन
न उपलब्ध हो
जाए। मगर फिर
उसके लिए बहुत
विस्तीर्ण
जगह चाहिए, जहां कोई पड़ोसी
न हो, तो न
एयरकंडीशन की
जरूरत होगी न
साउंडप्रूफ की
जरूरत होगी।
फिर
भाषा का
प्रश्न हैं।
अभी तो हमारे
पास जितने
चिकित्सक हैं, वे सब
पश्चिम से आए
हैं। क्योंकि
मैंने पश्चिम
के श्रेष्ठतम
चिकित्सकों
को यहां
इकट्ठा किया
है...तुम जानकर
चकित होओगे, इस समय पृथ्वी
पर चिकित्सा
का इतना
श्रेष्ठ कोई
केंद्र नहीं
है! क्योंकि
जितने पश्चिम
के श्रेष्ठ
चिकित्सक थे,
सब मेरे
संन्यासी हो
गए हैं। वे
समझ सके हैं मुझे,
तत्काल समझ
सके। पश्चिम
के कई
चिकित्सा-केंद्र
बंद हो गए, क्योंकि
उनके
संस्थापक तो
पूना आ गए
हैं। इंग्लैंड
के दो चिकित्सा-केंद्र
बंद हो गए--जो
बड़े
चिकित्सा-केंद्र
थे, यूरोप
के सबसे
प्रतिष्ठित
चिकित्सा
केंद्र थे। एक
को तीर्थ
चलाता था, एक
को सोमेन्द्र
चलाता था; वे
दोनों यहां आ
गए। सारी
दुनिया से
श्रेष्ठ चिकित्सक
यहां हैं।
लेकिन भाषा का
सवाल है।
तो
अब मैं फिक्र
कर रहा हूं
इसकी कि
भारतीय
भाषाओं में
चिकित्सक तैयार
हो सकें। तो
फिर भारतीय
चिकित्सा में
उतर सकेंगे, नहीं तो
भाषा अड़चन बन
जाती है। जिस
भाषा को तुम
बिना किसी
अड़चन के नहीं
बोल सकते, उस
भाषा में बहुत
गहरा संवाद
नहीं हो सकता।
और ये सारी
चिकित्सायें
संवाद पर
आधारित हैं।
क्योंकि
तुम्हारे
हृदय को पूरा
का पूरा प्रगट
करना है। समझो
कि तुम
अंग्रेजी बोल
लेते हो
कामचलाऊ; लेकिन
अगर झगड़ा हो
जाए, मार-पीट
होने लगे, तो
फिर अंग्रेजी
न बोल सकोगे।
फिर एकदम
हिंदी में
गाली दोगे।
क्योंकि गाली
देना
अंग्रेजी में
किसी स्कूल
में सिखाया भी
नहीं गया, न
किसी
विश्वविद्यालय
में। मगर तब
यह बात अड़चन
की हो जायेगी।
कहानी
है प्रसिद्ध
कि भोज के
दरबार में एक
विद्वान आया
और उसने कहा
कि मैं तीस
भाषाओं का पारंगत
हूं। और
तुम्हारे
दरबार के जो
रत्न हैं उनको
चुनौती देता
हूं कि कोई
मेरी
मातृभाषा पहचान
ले। मातृभाषा
पहचान ले, तो एक लाख
स्वर्ण-मुद्राएं
मैं भेंट
करूंगा। और
अगर कोई न
पहचान सका, तो दस लाख
स्वर्ण
मुद्रायें
तुम्हें मुझे
भेंट करनी
पड़ेंगी।
यह
चुनौती बड़ी
थी। भोज के
दरबार में
बड़े-बड़े विद्वान
थे। कालिदास
भी भोज के
दरबार में थे।
बड़े-बड़े
विद्वानों ने
चुनौती स्वीकार
की, लेकिन हर
एक हारता गया।
वह व्यक्ति
इतना अदभुत था
कि हर भाषा
ऐसे बोलता था
जैसे उसकी
मातृभाषा हो!
अंततः
कालिदास ही
बचे। भोज ने
कहा कि कुछ
करो, नहीं
तो यह बड़ा
अपमान होगा।
दुनिया
हंसेगी कि हमारे
दरबार में एक
आदमी नहीं है
ऐसा, जो
इसकी
मातृभाषा
पहचान सके।
भोज की बात
सुनकर भी
कालिदास चुप
रहे। उस दिन
आखिरी
विद्वान
हारा। इसके
बाद के दिन
कालिदास का
नंबर आने को
था। सब विदा
हो रहे थे। वह
दस लाख
अशर्फियां उस
दिन लेकर फिर
लौट रहा था। जैसे
ही सीढ़ियों से
महल के उतरते
थे, कालिदास
ने उसे एक
धक्का दे
दिया। थैली
गिर गई, अशर्फियां
बिखर गईं। वह
आदमी कोई पचास
सीढ़ी राजमहल
की नीचे खिसट
कर जमीन पर
गिरा, उठकर
एकदम गाली
देने लगा।
कालिदास ने
कहा: यही
तुम्हारी
मातृभाषा है।
मुझे क्षमा
करो, और
कोई उपाय नहीं
था जानने का।
और वही उसकी
मातृभाषा थी।
प्रेम
करना हो या
गाली देनी हो, दूसरे की
भाषा में नहीं
किया जा सकता।
इसलिये अगर कोई
भारतीय किसी
पाश्चात्य
स्त्री के
प्रेम में पड़
जाता है या
पाश्चात्य
पुरुष किसी
भारतीय
स्त्री के
प्रेम में पड़
जाता है, ज्यादा
देर टिकता
नहीं मामला, क्योंकि
हार्दिकता
प्रगट नहीं हो
पाती, संवाद
नहीं हो पाता।
कुछ-कुछ फासला
बना रह जाता
है। प्रेम हो
कि घृणा, ये
इतने उत्तप्त
भाव हैं कि
इनके लिए अपनी
ही भाषा
चाहिए। यह
अड़चन है। अभी
हमारे पास कोई
भारतीय
चिकित्सक
पैदा नहीं हो
सके। उनके
पैदा होने की
सुविधा बनाना
चाहता हूं, लेकिन
मोरारजी
देसाई बनने
नहीं देना
चाहते। कच्छ
की तो
उन्होंने कसम
खा ली है कि
कच्छ में तो
आने नहीं
देंगे, क्योंकि
उनके प्रदेश
गुजरात को मैं
बरबाद कर दूंगा।
गुजरात को तो
उन्हें बचाना
है। और अब वे
महाराष्ट्र
की भी चिंता
में पड़ गए हैं
कि महाराष्ट्र
को भी बचाना
है। दोनों तरफ
जमीनें लेकर
पड़ी हुई हैं, लेकिन कोई
निर्णय नहीं
देते। और
मैंने उनको
खबर भेजी है
कि कह
दो--"नहीं', तो
भी काम हो
जाए। वे "नहीं'
भी नहीं
कहते।
क्योंकि वे
जानते हैं, "नहीं' कहना
गैर-कानूनी
है। "नहीं' कहेंगे
तो मैं अदालत
से फैसला ले
सकता हूं। तो
"नहीं' भी
नहीं कहते, ताकि "नहीं'
भी रुकी
रहेगी तो मैं
अदालत भी नहीं
जा सकता। इस
तरह का लोकतंत्र
इस देश में चल
रहा है। इसको
जयप्रकाश नारायण
कहते
हैं--दूसरी
स्वतंत्रता!
विन्सटन
चर्चिल ने जब
भारत आजाद हुआ
तो इंग्लैंड
की
पार्लियामेंट
में जो शब्द
कहे थे, वे
करीब-करीब
भविष्यवाणी
की तरह सही
सिद्ध हो गए
हैं। उसने जो
शब्द कहे थे
वे ये थे।
एटली को उसने
कहा था कि
महानुभाव, आप
भारत को
स्वतंत्रता
तो दे रहे हैं,
लेकिन तीस
साल के भीतर
यह लुच्चे और
लफंगों के हाथ
में पड़ जाएगा।
तीस साल पूरे
हो गए और लुच्चे
और लफंगों के
हाथ में देश
पड़ गया।
मैं
थोड़ा हैरान
हुआ कि
विन्सटन चर्चिल
को कुछ
ज्योतिष-शास्त्र
आता था क्या! विन्सटन
चर्चिल कैसे
यह कह सका, ठीक तीस
साल...और देश
लुच्चे-लफंगों
के हाथ में पड़
जाएगा? और
वैसा ही हो
गया है।
तो
पहली बात, भूमिका का
अभाव है। दमन
की लंबी
परंपरा है। और
ये सारी
चिकित्साएं
दमन के विपरीत
हैं। ये चिकित्साएं
विसर्जन की
हैं, कैथार्सिस
की हैं, रेचन
की हैं। इनमें
जो भी दबा पड़ा
है, बाहर
निकाल देना
है। अगर क्रोध
दबा है, तो
क्रोध बाहर
निकाल देना
है। और तुमने
जिंदगी-भर
सीखा है क्रोध
को दबा लेना।
तो बड़ी मुश्किल
हो जाती है, तुम क्रोध
निकालोगे
कैसे?
एक
भारतीय युवती
को मैंने
चिकित्सा के
लिये भेजा।
उसने कहा कि
क्रोध पड़ा है, मगर
जिंदगी-भर की
शिक्षा...निकालना
भी चाहती हूं
तो निकलता
नहीं है। बस
रह जाता है, अटका रह
जाता है, छाती
में अटका रह
जाता है।
कितनी सदियों
से तुम्हें
सिखाया गया है
नियंत्रण; और
ये सारी
चिकित्साओं में
अनियंत्रण
सूत्र है। छोड़
दो बिलकुल
अपने को सहज।
क्रोध है तो
क्रोध, काम
है तो काम; जो
भी है निकलने
दो, बहने
दो--ताकि मवाद
बह जाये। ये
मवाद निकालने के
प्रयोग हैं।
ये
चिकित्सायें
वमन की चिकित्सायें
हैं।
इसलिये
तुम घबड़ाओगे।
इसलिए चित्र
जो तुम देख रहे
हो अखबारों
में, बहुत
घबड़ाने वाले
हैं--कि यह
क्या वीभत्स
कृत्य हो रहा
है! यह वीभत्स
कृत्य नहीं
है। यह तुम्हारे
भीतर सदियों
से
पंडित-पुरोहितों
ने जो दबा रखा
है, उस
मवाद को
निकालने का
प्रयोग है। और
मवाद जब निकलेगी,
तो दुर्गंध
तो थोड़ी
फैलेगी। मगर
मवाद निकल जाए,
तो तुम
स्वच्छ हो
जाओ। तो दमन
की लंबी
परंपरा बाधा
डाल रही है।
पर मैं
धीरे-धीरे
प्रयोग कर रहा
हूं। कुछ-कुछ
भारतीयों को
भेजता हूं।
दो-चार भारतीयों
ने बड़ी गहराई
से प्रयोग
किये और बड़े
आनंदमग्न
बाहर आए। और
उनका जीवन एक
नई शैली ले लिया।
विनोद
को मैंने भेजा
प्रयोग के
लिए--और विनोद
खरा उतरा। खूब
गहरा गया। और
उसके बाद से
उसके जीवन ने
एक नया ढंग ले
लिया। एक नई
शैली, एक नई
मस्ती आ गई।
एक दूसरे
मित्र को
भेजा। वही
आग्रह करते थे
बहुत दिन से
कि मुझे
भेजें। कामवासना
से परेशान
हैं। तो आग्रह
करते थे कि मुझे
तंत्र-चिकित्सा
में भेज दें।
मैंने उनसे
कहा कि तुम
कहते हो कि
तुम्हें
तंत्र-चिकित्सा
में भेज दूं, लेकिन तुम
उसमें उतर न
पाओगे अभी।
तुम्हें पहले
उचित होगा कि
तुम प्रायमल
थैरेपी में
जाओ। मगर
प्रायमल
थैरेपी चलती
है कोई दस दिन,
बारह दिन।
उन्होंने कहा:
उतना तो मेरे
पास समय ही
नहीं है। मुझे
तो तीन दिन का
तंत्र भर दे
दें। नहीं माने,
तो मैंने
कहा कि ठीक है
जाओ। जानता था
कि व्यर्थ
होगा; क्योंकि
प्रायमल
थैरेपी से
गुजरो पहले तो
तंत्र में
प्रवेश कर
सकोगे, नहीं
तो नहीं कर
सकोगे। समझ
में ही न
आएगा। वे तीन
दिन वहां बैठे
रहे। उनकी अकल
में कुछ भी न
आया कि क्या
हो रहा है। और
तंत्र में जो
लोग सम्मिलित
थे उन्होंने
शिकायत की कि
इस आदमी को
अपने क्यों
भेज दिया है? यह सिर्फ
वहां बैठा
रहता है पालथी
मारे। इसकी मौजूदगी
हमें अखर रही
है। न कुछ
बोलता, न
कुछ चालता; चौंका-सा; घबड़ाया-सा
कि यह क्या हो
रहा है!
अब
वह फिर आ गए थे
कि मुझे फिर
तंत्र में
जाना है। मैंने
कहा कि अब
नहीं; अब
तुम दो-चार
चिकित्साओं
में पहले जाओ,
आहिस्ता-आहिस्ता।
अनुभव
यह कह रहा है
कि मुझे
भारतीयों के
लिए थोड़ी उदार, थोड़ी
कुनकुनी
चिकित्साएं
विकसित करनी
होंगी।
पश्चिम की
चिकित्साएं
बहुत उत्तप्त
हैं। पश्चिम
के लोगों को
जरा अड़चन नहीं
है। पश्चिम ने
बड़ी हिम्मत कर
ली है।
तुम
जरा सोचो, पश्चिम से
युवतियां चली
आई हैं...बिना
फिक्र किए, यहां परदेश
में अटकी हैं।
तुम्हारी सब
तरह की बेहूदगियां
झेलती हैं।
संन्यासिनियों
को रोज
रास्तों पर
कोई धक्का
देता है। कोई
उनके कपड़े
खींच लेता है।
कोई उनका बैग
ही छीनकर भाग
जाता है। सब
तरह का उपद्रव
झेल रही हैं।
लेकिन फिर भी
मौजूद हैं, टिकी हैं।
एक बड़ा साहस
पश्चिम में
पैदा हुआ है।
वैसा साहस
हमारे लोगों
ने खो दिया
है।
हमने
हजारों साल से
अभियान नहीं
किया है कोई। हम
बिलकुल मुर्दा
हो गए हैं।
हमने देश को
एक मरघट बना
दिया है। इस
मरघट में मैं
फिर से
तुम्हें
पुकार रहा हूं।
कुछ जागने लगे
हैं लोग, वही
मेरे
संन्यासी
हैं। कुछ
हिम्मतवर
स्वीकार करने
लगे हैं
चुनौती, वही
मेरे
संन्यासी
हैं। जल्दी ही
जैसे ही सुविधा
जुट जायेगी, भारतीयों के
लिए भी
चिकित्सा का
इंतजाम, तपन
कुमार, हो
सकेगा। करना
ही चाहता हूं,
भारत को बड़ी
जरूरत है!
तीसरा
प्रश्न :
ओशो!
आप ही मेरे सब
कुछ हो। आपके
रंग में पूरी
तरह डूब गयी
हूं। मेरा यह
समर्पण पूरा
है या अधूरा, मैं कुछ
नहीं जानती।
फिर भी मैं
जैसी हूं, आनंदित
हूं। आपके
पहले मेरा न
किसी संत से
मिलना हुआ, न आगे किसी
से मिलने की
इच्छा है। फिर
भी शायद आगे
किसी तथाकथित
साधु से मिलना
हो जाए कि जो चमत्कार,
जादू-टोना
करनेवाला हो,
तो क्या
उसके सम्मोहन
का मुझ पर असर
हो जाएगा? कृपया
बताने की
अनुकंपा
करें।
शांता
भारती! जिस पर मेरा
सम्मोहन चल
गया, फिर उस पर
किसी का
सम्मोहन नहीं
चलता है। उसकी
तू चिंता छोड़।
आखिरी बात हो
ही गई। अब
कहां जादू-टोना!
क्या
आशा अभिलाषा, बन्दे अब यह
रोना-धोना
क्या?
दृष्टि
लग गई जब कि
नियति की, तब जादू और
टोना क्या?
इतना
तो हो चुका
अभी तक, अरे
और अब होना
क्या?
अपने
ही को जब कि खो
चुके तब आगे
अब खोना क्या?
नंग
नहाये ताल
तलैया धोना और
निचोना क्या?
जब
यों बे-घर-बार
हुए तब बाती
दीप संजोना
क्या?
जब
आकाश बन गया
चंदुवा तब
छप्पर में
सोना क्या?
जब
संग्रह का
विग्रह छूटा
तब अब स्वर्ग
खिलौना क्या?
हलके
हो कर तुम
निकले हो फिर
यह बोझा ढोना
क्या?
कथरी
छोड़ी कासा
छोड़ा, गठरी
और बिछौना
क्या?
तुमने
कब दुकान
लगायी तब
डयौढ़ा औ पौना
क्या?
मस्त
रहो, ओ रमते
जोगी लुटिया
आज डुबौना
क्या?
अब
फिकर छोड़ो। अब
कोई जादू-टोना
कुछ कर सकेगा नहीं।
अब तो डूब ही
गये। अब और
कोई क्या डुबायेगा? अब बचे
नहीं। अब कोई
और क्या
मिटायेगा? नहीं,
अब कोई
चिंता नहीं
है।
और, तू
सौभाग्यशाली
है शांता, कि
सीधे ही सागर
के पास आ गयी!
छोटी
तालत्तलैयों
में न उलझी।
और जिसने सागर
देख लिया, अब
तालत्तलैया
कुछ भी न कर
सकेंगे। जिसे
मेरी बात रुच
जाती है, उसे
चिंता के बाहर
हो जाना
चाहिये। जादू
चल गया।
अब
तू यह भी
चिंता मतकर कि
पूर्ण समर्पण
है या नहीं।
एक बीज भी पड़
जाये समर्पण
का, तो काफी
है। एक बीज ही
फिर वृक्ष हो
जाता है। एक
बीज से ही फिर
बहुत बड़ा
वृक्ष हो जाता
है। वह बीज पड़
गया है। एक
बूंद अमृत की
काफी है। कोई पूरा
सागर अमृत का
थोड़े ही पीना
पड़ता है। एक बूंद
काफी है। और
वह बूंद पड़ गई
है। वह बूंद न
पड़े, तो
मुझसे संबंध
ही नहीं
जुड़ता।
मुझसे
थोड़े-से ही
लोगों का
संबंध जुड़
सकता है।
मुझसे संबंध
जुड़ना ही अपने
आप में एक बड़ी
परीक्षा है, एक कसौटी
है।
आदमी
की उंगलियों
में कल्पना जब
दौड़ती है
पत्थरों
में जान पड़
जाती है
मूर्तियां
सप्राण हो कर
जगमगाती हैं।
स्पर्श
में संजीवनी
है।
आदमी
का स्पर्श
उंगली से उतर
कर
पत्थरों
की मूर्तियों
में वास करता
है
मूर्तियां
जीवित बनी
रहतीं हजारों
साल तक,
बस, यही लगता, किसी ने आज
ही इनको छुआ है।
और
इस कारण
बहुत-सी
वस्तुएं
प्राचीन युग
की
खुशनुमा
हैं, मोहनी
हैं।
क्योंकि
वे हैं आज भी
गर्मी
लिये उन
उंगलियों की
था
जिन्होंने एक
दिन उनको छुआ
आवेश में।
मैं
जिसे छू रहा
हूं, उसे आवेश
में छू रहा
हूं। मैं
आविष्ट हूं।
जो मेरे पास
संन्यस्त हो
रहा है वह भी
आविष्ट हो रहा
है। यह एक
जादू के जगत
में दीक्षा
है। जो झुकेगा,
अंजुली
भरेगा। जरा-सा
पी लेगा यह जल,
फिर कभी
उसकी प्यास न
उठेगी।
जीसस
एक सांझ एक
कुएं पर रुके।
कुएं पर भरती
थी एक स्त्री
जल। उन्होंने
उस स्त्री से
कहा : मुझे
प्यास लगी है, मुझे थोड़ा
पानी दोगी? उस स्त्री
ने जीसस की
तरफ देखा। वह
स्त्री अत्यंत
दीन-हीन
स्त्री थी।
छोटी जाति की
स्त्री थी।
उसने देखा कि
जीसस छोटी
जाति के नहीं
हैं। उनके
कपड़े-लत्ते, उनका ढंग, उनका
चेहरा...। उसने
कहा : क्षमा
करें! राही, शायद
तुम्हें पता
नहीं कि मैं
बहुत गरीब, दीन-हीन, छोटी
जाति की
स्त्री हूं।
आपकी जाति के
लोग मेरा छुआ
पानी नहीं
पीते।
जीसस
ने कहा : तू
फिकिर छोड़! तू
मुझे पानी
पिला। और, मैं भी तुझे
पानी
पिलाऊंगा।
उस
स्त्री ने कहा
: आप भी मुझे
पानी
पिलाएंगे!
थोड़ी चौंकी।
उसने कहा : न तो
डोर है आपके
पास, न आपके
पास बाल्टी
है। आप मुझे
कैसे पानी
पिलाएंगे? और
आप मुझे पानी
पिला सकते हैं
तो फिर मुझसे
क्यों पानी
मांगते हैं?
जीसस
ने कहा : तेरा
पानी और, मेरा
पानी और। तू
मुझे पानी
पिला। लेकिन,
तेरा पानी
ऐसा है कि घड़ी
भर बाद फिर
प्यास लग आएगी।
मैं भी तुझे
पानी
पिलाऊंगा।
लेकिन मेरा पानी
ऐसा है कि फिर
तुझे कभी
प्यास न
लगेगी।
और
कहते हैं, उस स्त्री
ने जीसस की
आंखों में
झांका और जीसस
की हो गई। उन
आंखों में पी
लिया उसने जल।
मिल गया उसे
अमृत।
झांको
मुझमें, संन्यास
का इतना ही तो
अर्थ है कि
मेरे करीब आ सको,
कि मैं अपनी
आविष्ट
अंगुलियों से
तुम्हें छू
सकूं, कि
जो मुझे घटा
है उसका थोड़ा
संस्पर्श
तुम्हें भी हो
जाये, कि
तुम्हारी
वीणा को थोड़ा
झंकार दूं। एक
बार बज जाये
राग तो फिर
कभी कोई और
राग न तो उसके
ऊपर है, न
कभी था, न
हो सकता है।
चौथा
प्रश्न :
ओशो!
मृत्यु से
मुझे इतना भय
नहीं लगता
जितना वृद्धावस्था
के विचार से
या
वृद्धावस्था
से। ऐसा क्यों
है?
कृष्ण
वेदांत, भय
तो सिर्फ एक
ही है--मृत्यु
का। बाकी सब
बहाने हैं। हर
भय के पीछे
मृत्यु का भय
है।
जो
आदमी डरता है
कि मेरा धन न
खो जाये, तुम
सोचते हो धन
के कारण भयभीत
है? नहीं, धन सुरक्षा
है। धन है तो जीवन
है। ऐसी उसकी
प्रतीति है।
धन खो गया तो फिर
जीवन भी गया।
धन है तो कल
बीमार होऊंगा
तो चिकित्सा
करवा सकूंगा।
धन है, कल
बूढ़ा होऊंगा
तो कोई मेरी
सेवा करेगा।
धन है तो
मृत्यु से कुछ
बचाव है। धन
गया तो फिर
मैं बिलकुल ही
असुरक्षित हो
जाऊंगा।
इसलिये लोग धन
को पकड़ते हैं।
धन को पकड़ते
हैं मृत्यु के
डर के कारण।
तुमने
परिवार को
पकड़ा हुआ है।
तुम सोचते हो, परिवार के
लिये? नहीं,
अकेले में
डर लगता है।
अकेले में
आदमी को अपनी
मौत याद आने
लगती है।
इसलिये तो रात
के अंधेरे में
तुम अगर निकलो
किसी रास्ते
से अकेले, तो
घबड़ाहट पकड़
लेती है।
भूत-प्रेतों
की आवाजें आने
लगती हैं।
भूत-प्रेत चल
रहे हैं
आसपास...पैरों
की पगध्वनि
मालूम होने
लगती है। खुद
के ही पैर की
आवाज, भूत-प्रेत
की आवाज मालूम
होने लगती है!
खुद की छाया
किसी प्रेत का
आगमन मालूम
होने लगती है।
क्या
हो जाता है
अकेले में? ये कौन
प्रेत? ये
कोई और प्रेत
नहीं है। यह
मृत्यु ही है,
जिसे तुम
दबाये रहते हो
भीड़-भाड़ में, खोये रहते
हो भीड़-भाड़
में--अकेले
में प्रकट हो जाती
है।
वृद्धावस्था
से क्या डर हो
सकता है? डर
इतना ही है कि
वृद्धावस्था
आ गई, अब
आखिरी कदम मौत
है, और कुछ
भी नहीं।
वृद्धावस्था
मौत का द्वार
है।
तुम
कहते हो : मौत
से मैं नहीं
डरता। शायद
इसलिये कि मौत
से तुम
अपरिचित हो।
मौत को देखा
तो किसी ने
नहीं। लोगों
ने
वृद्धावस्था
देखी है और
फिर वृद्धावस्था
के बाद मौत की
अनजानी घटना
घटते देखी। मौत
तो किसी ने
देखी नहीं।
इसलिये मौत का
सीधा-सीधा डर
पकड़ में नहीं
आता।
वृद्धावस्था
का डर पकड़ में
आता है
क्योंकि
वृद्धावस्था
के पीछे ही
आती होगी
मौत--अनजान, अपरिचित, अदृश्य।
कृष्ण
वेदांत, भय
तो सब मृत्यु
का है। सारे
भय निचोड़े
जाएं तो
मृत्यु का भय
ही मिलेगा।
तुम
अपने बच्चों
को पकड़ते हो, सम्हालते हो,
बड़ा करते
हो। तुम सोचते
हो--बड़ा प्रेम
है। तुम गलती
में हो।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, बच्चों
के माध्यम से
तुम अमर होना
चाहते हो। मैं
तो मर जाऊंगा,
लेकिन मेरा
बेटा रहेगा।
इसलिये इस देश
में तो जब तक
बेटा न हो जाए
तब तक बड़ी
बेचैनी होती
है--जाओ, पूजा
करो, पाठ
करो, हनुमान-चालीसा
पढ़ो, ज्योतिषियों
से मिलो, भृगुसंहिता
दिखवाओ, कुछ
करो!...हवन-यज्ञ,
जादू-टोना!
मगर बेटा तो
होना ही
चाहिए! बिना
बेटा के मर गए
तो व्यर्थ मर
गए। क्यों? क्योंकि
बेटे के आधार
से एक झूठी
अमरता मिल जाती
है : मैं तो न
रहूंगा, लेकिन
मेरा बीज
रहेगा। यह देह
तो चली जाएगी,
मगर मेरा
कोई अंश
रहेगा। मेरा
कोई नाम-लेवा
रहेगा। कोई तो
होगा जो हर
साल श्राद्ध
करवा देगा।
कोई तो होगा
जिसके कारण
मेरा कोई
चिह्न इस जगत
में छूट
जाएगा।
स्मरण
रखो भय यानी
मृत्यु का भय, फिर बहाने
कुछ भी हों।
तुम्हारे मन
में इसने वृद्धावस्था
का बहाना ले
लिया।
वृद्धावस्था
में क्या भय की
बात हो सकती
है? वृद्धावस्था
का तो अपना
सौंदर्य है।
वृद्धावस्था
तो एक शिखर
है। जीवन जब
पक जाता, जीवन
के अनुभव जब
पक जाते, जीवन
की वासनाओं के
उद्दाम वेग जा
चुके, जीवन
की आपाधापी
समाप्त हो गई,
जीवन की महत्वाकांक्षाएं
विदा हो गईं, वासनात्तृष्णा
का ज्वर चला
गया--वृद्धावस्था
तो एक परम
शांत दशा है!
वृद्धावस्था
तो बड़ी सुंदर
है।
रवींद्रनाथ
ने कहा है :
वृद्धावस्था
तो ऐसे है
जैसे हिमालय
के उत्तुंग
शिखर, जिन
पर कुंवारी
बर्फ
सदियों-सदियों
से छायी है।
ऐसे ही जब किसी
बूढ़े के सिर
पर सफेद बाल
होते
हैं...हिमाच्छादित
शिखर!
वृद्धावस्था
का सौंदर्य
तुमने गौर से
देखा? हां, मैं जानता
हूं कि बहुत
कम वृद्ध
सुंदर हो पाते
हैं। उसका
कारण यह नहीं
है कि
वृद्धावस्था
में कोई खराबी
है। उसका कारण
यही है कि
जीवन-भर गलत
जीये, जीवन-भर
व्यर्थ जीये।
तो
वृद्धावस्था
व्यर्थ हो
जाती है। अगर
जीवन को थोड़ा
सार्थक ढंग से
जीये होते, थोड़ा
काव्यपूर्ण, थोड़ा
रसपूर्ण, थोड़ा
आनंदपूर्ण, थोड़ा प्रभु
का स्मरण किया
होता, थोड़ा
ध्यान साधा
होता, थोड़ा
काम-ऊर्जा का
ऊर्ध्वगमन
किया होता--तो
वृद्धावस्था
बड़ी सुंदर
अवस्था है।
वृद्धावस्था
तो निचोड़ है
तुम्हारे
जीवन का, पराकाष्ठा
है। तुम्हारी
पूरी कथा है।
वृद्ध
के चेहरे पर
पड़ी हुई
झुर्रियों
में वेद छिपे
हैं, अगर कोई
ठीक से जीया
हो तो। गलत
जीया हो तो
निश्चित ही उन
झुर्रियों
में कुछ भी
नहीं है--सिर्फ
जीवन का विषाद
है, सिर्फ
जीवन की हार
है। उन
झुर्रियों
में फिर विजय
की कोई चमक
नहीं है।
लेकिन जब भी
कोई ढंग से
जीता है, सम्यकरूपेण
जीता है तो
वृद्धावस्था
प्रमाण होती
है। और जिसका
वृद्धावस्था
का काल सुंदर होता
है उसे मृत्यु
आती ही नहीं।
दूसरों को दिखाई
पड़ती है उसकी
मृत्यु आयी है,
उसके लिये
तो अमृत का ही
द्वार खुलता
है।
सब
सुंदर हो सकता
है। बचपन
सुंदर हो सकता
है; वह नहीं
हो
पाता--क्योंकि
शिक्षक हैं, मां-बाप हैं,
समाज है, वे बचपन को
कुरूप करवा
देते हैं।
पंगु कर देते
हैं।
अभी
परसों ही एक
युवती ने मुझे
कहा कि मेरे
बेटे को कुछ
कहिये--वह
बेटे को साथ
लेकर आई थी।
बेटा प्यारा
है! मैंने
पूछा : इसकी
क्या तकलीफ है? उसने कहा कि
यह बहुत
ज्यादा
शोरगुल, नाचकूद,
भागदौड़
मचाये रखता
है। इसे कुछ
समझाइये।
मैंने
कहा कि तू गलत
आदमी के पास
ले आयी। यही होना
चाहिये! यही
क्षण हैं
नाचने-कूदने
के। अगर यह
बहुत उछल-कूद
करता है तो
इसको नृत्य
सिखाओ। आखिर
सक्रिय ध्यान
किसके लिये है? कुंडलिनी
सिखाओ। बजाये
नाचना-कूदना
बंद करवाने के
इसके
नाचने-कूदने
को कला दो, कुशलता
दो। फर्क समझ
रहे हो? इसको
आज्ञा दो कि
बैठो शांत, एक कोने
में। यह नहीं
बैठ सकेगा। और
अगर बैठ गया
तो इसकी ऊर्जा
मर जाएगी।
इसकी ऊर्जा
बैठ जाएगी, फिर जिंदगी
भर नहीं
उठेगी। ना, इसकी ऊर्जा
को दिशा दो, अवरुद्ध मत
करो। अगर यह
उछलता-कूदता
है तो इसके
उछलने-कूदने
को नृत्य
बनाओ। फिर
नृत्य सुंदर
हो गया। अगर
यह शोरगुल
मचाता है तो
शास्त्रीय
संगीत किसके
लिये है? तो
इसको आलाप
भरवाओ, इसकी
आवाज को
शास्त्रीय
संगीत में
रूपांतरित
करो। अगर यह
शांत नहीं बैठ
सकता तो
वृक्षों पर
चढ़ना सिखाओ, पहाड़ों पर
चढ़ाओ, नदियों
में तैराओ, समुद्रों
में उतारो। यह
मौका चूकने का
नहीं है। इसको
बचपन को इसकी
पूरी गरिमा
में जीने दो, क्योंकि इसी
गरिमा के बाद इसका
यौवन आयेगा।
और तब इसका
यौवन भी
प्रगाढ़ होगा,
गहन होगा।
जिसका
बचपन
रूखा-सूखा हो
गया, उसका
यौवन भी
दीन-हीन हो
जाता है।
जिसका यौवन दीन-हीन
हो गया उसका
बुढ़ापा रुग्ण
हो जाता है।
जब यह जवान हो
जाए तो इसे मत
सिखाना
व्यर्थ की बातें।
इसको सिखाना
जीवन का रंग, जीवन का रस।
जब यह युवा हो
जाये तो इसे
कहना कि सारे
रंग, पूरा
इंद्रधनुष
तेरा है। और, सारे स्वर
तेरे हैं, सारा
सरगम तेरा है।
नाच, जी!
भरपूर जी! कुछ
छोड़ मत देना
अधूरा। हर
क्षण को पूरा
का पूरा पी जा,
ताकि जवानी
जाते-जाते
जवानी की दौड़
और जवानी की
महत्वाकांक्षा
और जवानी की
तृष्णा सब
अनुभव से गिर
जाये।
इसको
जवानी में
संतोष मत
सिखाना। इसे
जवानी में
संघर्ष
सिखाना। इसे
जवानी में
कहना: कर ले जितनी
विजय की
यात्राएं
करनी हों, क्योंकि फिर
बुढ़ापा आता
है। फिर
बुढ़ापे में बैठना
मौन। फिर
बुढ़ापे में
होना शांत।
फिर वृद्धावस्था
में
प्रभु-स्मरण,
सुरति।
ऐसे
अगर क्रम से
जीवन चले तो
वृद्धावस्था
अपूर्व है, अद्वितीय
है। और, हमने
ऐसे वृद्ध
जाने थे, इस
देश में।
इसीलिये तो
हमने वृद्धों
को इतना सम्मान
दिया।
वृद्धावस्था
सम्मानित हो
गई थी इस देश
में, क्योंकि
हमने बड़े
प्यारे वृद्ध
लोग जाने थे।
वे केवल उम्र
से बूढ़े नहीं
थे, वे
अनुभव से
परिपक्व थे।
इस देश में
वृद्धों को ही
अधिकार था कि
वे शिक्षक हों,
गुरु हों
क्योंकि
उन्होंने
जीवन जीया है,
सब उतार
चढ़ाव देखे, अंधेरी
रातें देखीं,
अमावस्याएं
देखीं, पूर्णिमाएं
देखीं। सुख
देखे, दुख
देखे! कांटे
चुने, फूल
चुने।
उन्होंने सब
जाना है। वे
सब तरह से पक
गये हैं।
उन्हीं
के पास हम
बच्चों को
भेजते थे, क्योंकि
उनके जीवन-भर
की दौलत; काश,
बच्चों को
मिल जाये तो
बच्चे अभी से
समृद्ध होने
लगें। जो
ठीक-ठीक वृद्ध
हुआ है--और
ठीक-ठीक वही
वृद्ध होता है
जो ठीक-ठीक
पूरा जीवन जीया
है...।
इसलिये, मैं तुमसे
कहता हूं: योग
की फिक्र
छोड़ो। तुम भोग
को इतनी
परिपूर्णता
से भोगो कि
तुम भोग से भोग
के कारण ही
मुक्त हो जाओ।
और तब योग
अपने-आप
जलेगा।
अपने-आप दीया
जलेगा। फिर
मौत नहीं। फिर
तो मृत्यु भी
सिर्फ एक ही
संदेश लाती
है--देह-मुक्ति
का। फिर
मृत्यु अंत
नहीं
है--सिर्फ एक
नई यात्रा का प्रारंभ
है; सिर्फ
देह से
छुटकारा है।
और देह तो
संकीर्ण है।
देह तो ऐसी है
जैसे कोई
कारागृह में
बंद है, कि
पक्षी पिंजड़े
में बंद है।
मौत तो खबर
लाती है कि
पिंजड़ा टूट
गया। और अब
हंसा उड़ सकता
है। हंसा जाये
अकेला! अब चलो
मानसरोवर! अब
चलें अपने घर!
कैसा
मरण-संदेसा
आया?
किसके
कंठाभरण
स्वरों ने
लय-संगीत
सुनाया?
कैसा
मरण-संदेसा
आया?
देह
थकित जर्जरित
हो गयी, बिगड़
गया कुछ खटका,
संज्ञा-शून्य
शरीर हो गया, लगा मृत्यु
का झटका,
देख
लुप्त होते
जीवन को मन
संभ्रम में
अटका
जीवन
का रहस्य यह
क्या है? क्या
यह मृण्मय
माया?
कैसा
मरण-संदेसा
आया?
दो
विभिन्न
गतियां जगती
में: इक जड़मय
इक चेतन;
जड़गति
है घूर्णित
आंदोलन, चेतन
है उद्वेलन,
जब
जड़कण-समूह बन
आया चेतन का
सुनिकेतन,
तब
उसमें विकास
गति आई: जड़ ने
जीवन पाया;
अभिनव
मरण-संदेसा
आया!
जिन
ने मर कर चिर
जीवन का रुचिर
रूप पहचाना,
जिन
ने निज को
खोने ही में
शुचि निजत्व
को जाना,
वे
बोले कि मरण
है जीवन का ही
एक बहाना,
अभिनव
मरण-संदेसा
आया!
जीवन
का अखंड
वैश्वानर
हहर-हहर कर
चमका,
भय
भागा, संदेह
हट गया छूटा
संशय तम का;
अपने
"स्व' को
"स्वधा' सम
होमा, टूटा
फंदा सम का;
अपने
मन की हुई
मृत्यु, तब
चिर जीवन
लहराया;
नव-नव
मरण-संदेसा
आया!
शरीर
से छूटकर
आत्मिक जीवन
मिलता है। मन
से छूटकर
चैतन्य की
अपूर्व असीम
यात्रा शुरू
होती है।
मृत्यु में
अमृत का संदेश
छिपा है।
आज
बजी शहनाई, भाई, आज
बजी शहनाई,
कित
देह के
कर्णरंध्र
में मंद-मंद
ध्वनि आई!
भाई, आज बजी
शहनाई!
मंगल
घट ले मृत्यु
खड़ी है इस
प्रयाण की
बेला,
औ, अनंत-से अगम
पंथ में छिटका
अलख उजेला,
जीवन
के उपकरण छोड़
कर चेतन चला
अकेला,
महानिष्क्रमण
की स्वर लहरी
मन-आंगन में
छाई,
भाई, आज बजी
शहनाई!
निर्ममता
की अश्रुविगलिता
जो मृत्तिका
पुरानी,
उससे
निर्मित
मंगल-घट ले
आयी मृत्यु
भवानी;
मरण-द्वार
पर खड़ी हुई है
ठसक भरी
ठकुरानी,
ना
जाने किस दूर
देश का वह
संदेसा लाई,
भाई, आज बजी
शहनाई!
मत
कर सोच-विचार, छोड़ तू झंझट
इस बस्ती का;
नहीं
खात्मा होगा, प्यारे, तेरी
इस हस्ती का,
बंधन
तोड़, चला चल
पीकर प्याला
अलमस्ती का
मरण
एक बंधन-खंडन
है, मरण नहीं
दुखदाई,
भाई, आज बजी
शहनाई!
पौ
फट गई, मिट
गया क्षण में
अंधकार
अज्ञानी,
नभरानी
ऊषा मुसकानी, भव-भय-निशा
सरानी;
अनजानी
की अकल कहानी
अब चेतन ने
जानी,
उसने
आज अलख की
अश्रुत पायल
ध्वनि सुन पाई;
भाई, आज बजी
शहनाई!
नचिकेता
बोला गुरु यम
से: आर्य, ईश
हैं साक्षी,
मैं
मुमुक्षु हूं
मृत्यु तत्व
का मुझे न दो
मीनाक्षी;
अंतक
यम बोले:
"नचिकेतो, मरणे
मानुप्राक्षीः'
किंतु
फंसा कब वह
माया में जिसे
मरण-धुन भायी?
भाई, आज बजी
शहनाई!
मरण
की धुन समझो--
मृत्यु का
संगीत
पहचानो।
मृत्यु की
शहनाई सुनो।
डरो मत, डरने
को कुछ भी
नहीं है। तुम
अमृत के पुत्र
हो। "अमृतस्य
पुत्रः'!
आखिरी
प्रश्न:
ओशो,
रोम-रोम
में प्यार बसा
क्यों एक
तुम्हारा?
दृश्य-दृश्य
क्यों रूप
दिखाता एक
तुम्हारा?
पल-पल
निकले नाम
तुम्हारा
क्यों अधरों
से?
रात-रात
क्यों स्वप्न
न टूटे एक
तुम्हारा?
जगदीश!
ऐसा ही हो, तभी कोई
शिष्य है। ऐसा
ही हो, तभी
कोई दीक्षित
हुआ। ऐसा ही
संबंध जुड़
जाये, ऐसा
ही सेतु बन
जाये, ऐसा
ही प्रेम...तो
ही समझना गुरु
से गांठ बंधी
और फिर सब
संभव है। फिर
असंभव भी संभव
है। गांठ भर
बंध जाये तो
उंडेला जा
सकता है सब।
जो गुरु में
है, वह सब
शिष्य के
पात्र में भरा
जा सकता है।
लेकिन, संबंध
न जुड़े, थोड़ी
भी दूरी रह
जाये तो चूक
हो जाती है।
दूरी
मिट रही है।
यह अच्छा हो
रहा है।
धन्यभागी हो!
कौन-सी
यह प्रीति
जागी? कौन-सा
यह राग जागा?
कौन-से
ये स्मरण जागे? कौन उलटा
भाग जागा?
कौन
कहता है कि
बाहर से लहर
पै आ गये स्वर?
करुण
मेरे गीत ही
हैं भर रहे
पाताल अंबर,
पर
मुझे ये लग
रहे हैं
अजनबी-से
किंतु मनहर,
हाय, अपने को
बिगाना कर रहा
हूं मैं अभागा,
कौन-सा
यह राग जागा?
हलचलों
के बीच भी
वाणी रहे मेरी
अकंपित,
और
विप्लव भी न
कर पाये
सुघड़मय गीत, खंडित,
साध
भी यह, किंतु
देखा कंठ है
आक्रोश-मंडित,
और
मैं बस रो रहा
हूं हिचकियों
के राग गा गा,
कौन-सा
यह राग जागा?
कौन-सी
यह प्रीती
जागी? कौन-सा
यह राग जागा?
कौन-से
ये स्मरण जागे? कौन उलटा
भाग जागा?
जगदीश, भाग के
जागने की घड़ी
आ गई। पलक
खुलने का
मुहूर्त आ गया।
डरना मत, भयभीत
न होना। संकोच
न कर जाना, सिकुड़
न जाना। छलांग
लगाओ।
प्रिय, मैं आज भरी
झारी-सी
ललक-ढुलूंगी
श्री चरणों
में निज तन-मन
वारी-सी,
साजन, आज भरी
झारी-सी!
अर्पित
करने
कंचन-काया,
मैं
आयी हूं लख
तम-छाया,
प्राणार्पण
में नहीं
सुहाती,
जग
उजियाले की वह
माया,
आज
अंधेरे में
खिल डोली हिय
कलिका न्यारी
सी,
प्रिय, मैं आज भरी
झारी-सी!
यह
तम का पर्दा
रहने दो,
मेरी
"अहं' यहां
बहने दो,
चली
आ रही हूं
ध्रुव-पग धर,
बरबस
खिंचती-सी निज
मग पर,
तारा
चंद्र रहित मम
अंबर,
दिशा-शून्य
मम पंथ विघ्न
हर
आज
सभी दिक्शूल
बने हैं सुमन
कली प्यारी सी,
प्रिय
मैं आज भरी
झारी-सी!
तुम
शायद सोचो हो
मन में,
कौन
बला आयी तम घन
में,
क्यों
यों सोचो हो
तुम प्यारे,
हूक
उठा कर इस
जीवन में?
मेरी
और तुम्हारी
तो है युग-युग
की यारी-सी;
प्रिय, मैं आज भरी
झारी-सी!
भूल
गये क्या
मुझको, साजन?
मैं
हूं वे
एकत्रित
रज-कण--
जिनको
तुमने
स्वकर-परस से,
कभी
किया था झन-झन
उन्मन,
आज
वही माटी की
पुतली आयी
हिय-हारी-सी;
प्रिय
मैं आज भरी
झारी-सी!
नाचो!
खिलने दो फूल, झरने दो
फूल। यही घड़ी
है, जो
प्रत्येक शिष्य
तलाश रहा है।
तुम कहते
जगदीश--
रोम-रोम
में प्यार बसा
क्यों एक
तुम्हारा?
दृश्य-दृश्य
क्यों रूप
दिखाता एक
तुम्हारा?
पल-पल
निकले नाम
तुम्हारा
क्यों अधरों
से?
रात-रात
क्यों स्वप्न
न टूटे एक
तुम्हारा?
जुड़ो, इतने जुड़ो
कि यह मैंत्तू
का भेद भी न रह
जाये! पहला कदम
उठा लिया, अब
दूसरा भी
उठाना: यह
मैंत्तू का
भेद भी न रह जाये।
जिस क्षण
शिष्य और गुरु
में मैंत्तू
का भी फासला
नहीं रह जाता,
उसी क्षण
शिष्य भी
समाप्त, गुरु
भी समाप्त और
परमात्मा का
प्रगटीकरण होता
है--उसी क्षण
परमात्मा का
साक्षात्कार।
एक
कदम तुमने उठा
लिया, एक
अभी और उठाना
है। कठिन कदम
तो उठा ही
लिया, अब
दूसरा कदम तो
सरल है। और दो
ही कदम में
सत्य की
यात्रा पूरी
हो जाती है।
आज
इतना ही।
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