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शुक्रवार, 13 मई 2016

कोपलें फिर फूट आईं--(प्रवचन--05)

अपार्थिव तत्व की पहचान—(प्रवचन—पांचवां)


दिनांक: 3 अगस्त, 1986,
3. 30 अपराहन, सुमिला, जुहू, बंबई
प्रश्‍नसार:
1—जब कोई मुझसे छल और दगावाजी करता है या जब कोई मुझे वस्‍तु की तरह उपयोग करता है, ऐसी स्‍थिति में मुझे क्‍या करना चाहिए?
2—विपस्‍सना की साधना में कैथार्सिस कब होती है? मैं विपस्‍सना का अभ्‍यास करता हूं। मेरा संगीता का कार्यक्षेत्र होश की दिशा में मेरे लिए किस प्रकार सहायक हो सकता है?
3—दिन में अधिक समय ध्‍यान में डूबी, खोई रहती हूं। शरीर क्षीण हुआ है। कुछ समय पहले दलाई लामा के डाक्‍टर ने मेरा हाथ पकड़ कर किा कि मुझे अधिक पार्थिव होने की जरूरत है। कृपया बातएं कि मुझे क्‍या करना है?


प्रश्न:
भगवान, जब कोई छल और दगाबाजी करता है, या जक कोई मुझे वस्तु की तरह उपयोग करता है, ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए? मैं उस व्यक्ति को चोट भी नहीं पहुंचाना चाहती। मन की शांति कैसे मिले? मैं टूट-फूट गई हूं।
जीवन की उलझनों में दूसरे कभी भी उत्तरदायी नहीं होते। सारा उत्तरदायित्व अपना होता है। जैसे तुम कहा कि जब कोई मुझसे छल और दगा करता है तो मेरे दिल को चोट पहुंचती है। थोड़ा सोचो, दिल को चोट किसी के छल और दगा करने से नहीं होती। तुमने चाहा था कि कोई छल और दगा न करे इसलिए चोट होती है। यह तुम्हारी चाह का फल है। और सारी दुनिया तुम्हारी चाह को मानकर चले, यह तुम्हारे हाथ में नहीं। यह किसी के भी हाथ में नहीं। लेकिन हम यूं ही सोचने के आदी हो गए हैं कि हर चीज का दायित्व दूसरे पर थोप दें। इससे आसानी होती है, राहत मिलती है। राहत मिलती है कि मैं जिम्मेवार नहीं हूं। अब कोई छल कर रहा है इसलिए कष्ट हो रहा है।
लेकिन तुमने चाहा ही क्योंकि कोई छल न करे? और यह हमारे हाथ में कहा है कि हम ऐसी दुनिया बना लें जिसमें छल और कपट न हो? छल भी होगा, कपट भी होगा। हम इतना जरूर कर सकते हैं कि हम अपने के ऐसा बना लें कि दूसरे के छल और कपट को भी स्वीकार कर सकें कर्म उसका है, फल उसका होगा। तुम्हें परेशानी क्यों हो? और तुम्हारी परेशानी उसके छल और कपट को नहीं रोक पाएगी। हां, तुम अगर गैर-परेशान रह जाओ, तुम्हारी शांति में अगर कोई विघ्न और कोई बाधा न पड़े, तुम्हारा हृदय अगर निष्कंप रह जाए, कोई कलुष, कोई शिकायत, कोई शिकवा न उठे तो शायद तुम उस दूसरे व्यक्ति को बदलने में समर्थ भी हो जाओ। यह बहुत मुश्किल है उस आदमी को धोखा देना, जो तुमसे धोखा खाने को चुपचाप राजी है; लेकिन शिकायत है न शिकवा है। इतना गिरा हुआ आदमी जमीन पर पैदा ही नहीं हुआ। और न पैदा हो सकता है। लेकिन तुम्हारा दुख, तुम्हारी पीड़ा उसकी विजय है। और जब उसे छल से और छलावे से विजय मिलती हो तो विजय को छोड़ना बहुत मुश्किल है।
मुझे बहुत प्रीतिकर रही है एक फकीर की कहानी। एक पूर्णिमा की रात, और एक चोर उसके झोपड़े में घुस आया। फकीर के घर में कुछ भी नहीं है। सिर्फ एक कंबल है जिसे ओढ़कर वह बरामदे में लेटा हुआ रात के पूरे चांद को देख रहा है। उसने चोर को भीतर आते देखा और उसकी आंखों में आंसू आ गए। आंसू इस बात के  कि यह नासमझ चोर, इसे इतना भी पता नहीं है कि इस फकीर के घर में कुछ भी नहीं है। काश यह दो दिन पहले मुझे खबर कर देता तो मैं कुछ मांगकर जुटा लेता। इसके लिए कुछ तो इंतजाम कर लेता। गांव से दस मील दूर इस पहाड़ी पर चढ़कर आया है और मेरे घर से खाली जाएगा। जीवन भर के लिए मेरे दिल को एक पीड़ा दे जाएगा। वह उठा, चोर के पीछे हो लिया। जैसे ही चोर घर के भीतर घुसा, फकीर ने मोमबत्ती जला ली। चोर ने कहा, आप कौन हैं?
फकीर ने कहा, तुम इसकी फिकर न करो। इतना ही समझो कि दोस्त हूं, दुश्मन नहीं।
चोर ने कहा, क्या अकस्मात दो चोर इस घर में एक साथ घुस आए हैं?
फकीर ने कहा, मैं घुस नहीं आया हूं। तीस साल से इस घर में रहता हूं। और यह मोमबत्ती मैं इसलिए जला ली है तुम्हें कहीं कोई चोट न लग जाए। घर के भीतर अंधेरा है। और इसलिए भी जला ली है कि तीस साल में मैं खुद भी कुछ खोज न पाया। यह घर इतना खाली है, इतना सुना है, शायद तुम्हारे भाग्य से कुछ मिल जाए। और तुम्हारी कृपा से मैं भी कुछ भागीदार हो जाऊं! चोर तो ऐसे आदमी को देखकर बहुत घबराया। यह मालिक है, और यह कैसी बातें कर रहा है!
चोर ने कहा, मुझे जाने दो।
और उस फकीर ने कहा, यूं नहीं। कम से कम घर की पूरी छानबीन तो कर लो। जब भी कोई काम करो तो पूरा करो। और जब भी कोई काम करो तो समग्रता से करो। और फिर भय किसका? तुम मजे से खोजबीन करो, मैं सहायता के लिए तैयार हूं। अगर तुम मुझे भागीदार नहीं बनाना चाहते तो भी कोई हर्ज नहीं। मुझे तो मिला नहीं। यूं भी नहीं मिला, यूं भी नहीं मिलेगा। तुम सब ले जाना।
ठंडी रात, लेकिन चोर को पसीना छूट गया। उसने कहा, आप आदमी कैसे हैं? यह मकान आपका है।
उस फकीर ने कहा, मकान अगर मेरा होता तो मेरे साथ आता और मेरे साथ जाता। न यह मेरे साथ आया और न यह मेरे साथ जाएगा। यह मकान किसी का भी नहीं है। मुझमें तुममें फर्क यह है कि मैं तीस साल पहले इसमें प्रवेश किया था, तुम तीस साल बाद पीछे प्रवेश किए हो।
लेकिन चोर ने कहा, कुछ भी हो, तुम मुझे क्षमा कर दो और मुझे जाने दो। मुझसे गलती हो गई।
तो फकीर ने अपना कंबल उस चोर को ओढ़ा दिया और फकीर नंगा खड़ा हो गया। और फकीर ने कहा, रात सर्द है और गांव दूर है। अगर तुम्हें सर्दी-जुकाम पकड़ गया तो जिम्मेदारी मेरी होगी। और मैं तो घर के भीतर हूं, किसी तरह गुजार लूंगा सूरज के उगने तक। और कल कहीं से मांगकर कंबल भी जुटा लूंगा। तुम यह कंबल ही ले जाओ। कम से कम राहत रहेगी मन को। तुमने मुझे इतना गौरव दिया है। मुझे सम्राट बना दिया। सम्राटों के घर में चोर घुसते हैं। फकीरों के घर में कोई चोर घुसा है! इंकार न करना।
चोर इतनी घबराहट में था, उसके हाथ ऐसे कंप रहे थे, लेकिन मजबूरी में उसने कंबल ले लिया कि किसी तरह बाहर हो जाऊं। जब वह बाहर हो गया तो उसने लौटकर देखा कि फकीर उसके पीछे चला आ रहा है। उसने पूछा कि कृपा करके अब तो मुझे छोड़ दो।
फकीर ने कहा, अब तुम्हें छोड़कर क्या करूंगा? घर-बार तो तुम ले चले। अब अकेला रहकर मैं यहां क्या करूंगा? जहां तुम रहोगे वहीं मैं रहूंगा। तुमको तो राजी कर लिया, कंबल को कैसे राजी करूंगा? कंबल नाराज होगा कि इतने दिन मैंने साथ दिया और मुझे यूं छोड़ दिया! मैं छोड़ने वाला नहीं हूं। साथ ही रहेंगे। दुख, सुख जो होगा सहेंगे।
चोर ने कहा, मुझे माफ करो। यह कंबल अपना वापस ले लो और अपने घर में जाओ। मैं भूल से घर में घुस गया। मुझे पता न था कि यह फकीर का घर है। मेरी प्रार्थना, मेरी अर्जी स्वीकार कर लो। और मुझे क्षमा करो।
वह फकीर कंबल लेकर भीतर चला गया। और तभी चोर ने जोर की आवाज सुनी कि रुक, कमबख्त! लौट।
चोर हिम्मतदार आदमी था, बहादुर आदमी था लेकिन उसने ऐसी कड़कदार आवाज न कभी जीवन में सुनी थी। जेलों में रहा था। ऐसे काम किया था कि सूलियों पर चढ़ जाए। मगर यह आवाज, यह बुलंदगी। वह घबराहट में पीछे लौट आया। फकीर ने कहा, सुन दरवाजा खोलकर आया था, कम से कम दरवाजा बंद तो कर जा। इतनी सभ्यता तो सीख। और मेरे पास जो कुछ था मैंने तुझे दिया है। कम से कम मुझे धन्यवाद तो दे। अब आ ही गया है तो कम से कम थोड़ी आदमीयत ही सीखकर जा। और तो मेरे पास कुछ नहीं है।
चोर ने जल्दी से धन्यवाद दिया, दरवाजा बंद किया और भागा। जब वह भाग रहा था तब फकीर ने खिड़की से कहा कि देख, जब वक्त पड़ेगा तब मैं काम आऊंगा। यह छोटा सा धन्यवाद तेरी जिंदगी के लिए छाया बन जाएगा।
और कुछ दिनों के बाद चोर पकड़ा गया। आखिर चोर निन्यानबे बार बच जाए लेकिन सौवीं बार तो पकड़ाने ही वाला है। और अदालत में पूछा गया कि कोई है जो तुम्हें जानता हो इस नगर में? चोर ने कहा, मेरा धंधा ऐसा है कि दिन में तो बाहर निकलता नहीं। मेरा धंधा ऐसा है कि जब सब सो जाते हैं निकलता हूं। तो परिचय का कोई उपाय नहीं। हां, एक फकीर जै जो मुझे जानता है। वह गांव के बाहर दस मील दूर रहता है।
फकीर को बुलाया गया। वह प्रसिद्ध फकीर था। चोर नहीं जानता था लेकिन मजिस्ट्रेट जानता था, अदालत जानती थी। उन्होंने उस फकीर को पूछा कि क्या तुम इस चोर को पहचानते हो? फकीर ने कहा, यह आदमी चोर नहीं है। इसे मैं पहचानता हूं, भलीभांति पहचानता हूं। एक रात यह मेरे घर मेहमान हुआ था और चोर तो यह बिलकुल भी नहीं है। चोर होना तो दूर, मैंने इसे कंबल भेंट किया था, जो मैं अभी भी ओढ़े हुए हूं, इसने इसे भी लेने से इंकार कर दिया था। मैं इसका ऋणी हूं। चोर होना तो दूर, मैंने इसे कुछ भी न दे सका, फिर भी मुझे धन्यवाद देकर गया था। चोर होना तो दूर, जो सभ्य और शिष्ट कहे जाते हैं, वे भी इतने सभ्य और शिष्ट नहीं है, कि जब द्वार किसी का खोलें तो द्वार बंद भी करके जाए। यह आदमी बड़ा भला है। यह आदमी बड़ा प्यारा है।
मजिस्टे्रट ने कहा, फिर किसी और गवाही की जरूरत नहीं है। तुम्हारा शब्द पत्थर की लकीर है। चोर की जंजीरें खोल दी गई। फकीर बाहर निकला। चोर फकीर के पीछे आया। फकीर ने कहा, क्या बात है? चोर ने कहा, मुझे माफ कर दो। एक बार और माफ कर दो। उस रात तुम मेरे पीछे आए थे और मैंने तुम्हें लौटा दिया। मुझ जैसा अभागा नहीं है। और आज मैं तुम्हारे पीछे आया हूं और सदा तुम्हारे पीछे रहूंगा। मुझे कभी लौटाना मत। मैंने बहुत आदमी देखे हैं मगर बस आदमी की शक्लें हैं। आदमी मैंने तुम में देखा। मुझे चरणों में ले लो। मुझसे जो सेवा बन पड़ेगी, मैं तुम्हारी करूंगा। फकीर ने उसे अपने साथ ले लिया और रास्ते में कहा, मुझे पता है? मैंने कभी सोचा भी न था कि मेरे भीतर कविता की कोई क्षमता है। जिस रात तू आया और वापस गया और मैं खिड़की पर बैठकर पूरे चांद को और तुझे जाते हुए देख रहा था तो पहली बार मेरे जीवन में काव्य का जन्म हुआ। मैंने पहली कविता लिखी। एकमात्र कविता मैंने जीवन में लिखी। वह कविता बड़ी प्यारी है। उस कविता का अर्थ है कि काश यह मेरे हाथ में होता तो आज मैं इस चांद को तोड़कर उस चोर को भेंट देता। मगर यह मेरे बस में नहीं है।
इस दुनिया में तुम्हें सब तरह के लोग मिलेंगे। और यूं तुम अगर हर आदमी से प्रभावित होते रहे, थपेड़े खाते रहे, तुम्हारे जीवन की नौका यूं ही डगमगाती ही रहेंगी। तुम किनारा कभी पा न सकोगे। तुम मझधार में डूबोगे। साहिल तुम्हें मिलेगा नहीं।
एक बात ठीक से समझ लो। हम अपनी दुनिया खुद बनाते हैं। और अगर कोई तुम्हारे साथ छल करता है, या कपट करता है, क्या छीन लेगा? तुम्हारे पास है क्या? तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। और जो गरीब छल-कपट कर रहा है वह दीन, दरिद्र है। उसके पास भी कुछ नहीं है। सोचता है शायद छल-कपट से कुछ मिल जाएगा।
मेरी सलाह, पहली सलाह: जो तुम्हें धोखा दे, समझना कि बड़ा गरीब है। तुमसे तो ज्यादा गरीब है। जो तुम्हारे साथ छल कर, कपट करे, समझना कि बड़ा दीन है। तुमसे तो बड़ा भिखारी है। उस पर दया करना। उस पर करुणा करना। इसलिए नहीं कि तुम्हारी दया और करुणा से वह बदल ही जाएगा। वह बदले या न बदले लेकिन तुम बदल जाओगे। और असलियत बात यही है कि तुम बदल जाओ। और तुम एक ऐसी स्थिति में आ जाओ कि दुनिया तुम्हारे साथ कुछ भी करे लेकिन तुम्हें डांवाडोल न कर सके।
तुमने पूछा है कि लोग जब किसी वस्तु की तरह मेरा उपयोग करते हैं तो बड़ी चोट पहुंचती है। लेकिन तुम खुद अपने को वस्तु की तरह उपयोग कर रहे हो यह तुमने सोचा? तुमने अपने को आत्मा की तरह उपयोग किया है? कभी जीवन के किसी क्षण में? तुमने खुद अपने को वस्तु की तरह उपयोग किया है, एक शरीर मात्र। और जब तुम खुद ही अपने यह दुर्व्यवहार कर रहे हो, तो दूसरों से क्या शिकायत? वे तुमसे वही कर रहे हैं जो तुम अपने से कर रहे हो। और शरीर तो वस्तु है ही। तुम अपने भीतर छिपे हुए उस चैतन्य को पहचानने की कोशिश करो जो वस्तु नहीं है। फिर तुम्हारा कोई भी कैसा भी उपयोग करे, तुम भलीभांति समझोगे कि तुम दूर खड़े देख रहे हो। वह तुम्हारा उपयोग नहीं है।
सिकंदर भारत आया और भारत से लौटते वक्त अरबों की संपत्ति लूटकर ले गया। भारत की सीमा छोड़ने के पहले उसे याद आया कि उसके शिक्षा-गुरु अरस्तू ने उससे कहा कि जब भारत से तुम वापस लगो तो कम से कम एक संन्यासी को लेते आना। क्योंकि दुनिया में और सब कुछ है, हीरे हैं और जवाहरात हैं, लेकिन संन्यास की अदभुत कल्पना पूरब की बस अपनी है। और मैं एक संन्यासी को देखना चाहता हूं, समझना चाहता हूं। आखिर सारा पूरब अपनी सारी प्रतिभा संन्यासी की दिशा में क्यों अनुप्रणित करता है?
तो सिकंदर ने खबर की आसपास, कि कोई संन्यासी यहां उपलब्ध होगा? किसी ने कहा, यूं तो बहुत संन्यासी हैं लेकिन अगर तुम सच में ही किसी संन्यासी को ले जाना चाहते हो तो इस गांव के बाहर, एक नदी के किनारे वर्षों से एक संन्यासी का डेरा है, उसे राजी कर लो। सिकंदर ने कहा, राजी कर लूं? यह मेरी भाषा नहीं है। मेरी तलवार हर चीज को राजी कर लेती है। तो उस गांव के लोगों ने कहा, फिर तुम्हें संन्यासी का कोई पता नहीं है। यह तलवार सब कुछ कर सकती है लेकिन संन्यासी का कुछ भी नहीं कर सकती। सिकंदर की समझ के बाहर थी यह बात। सिकंदर गया और उसने घोषणा की संन्यासी से कि मैं महान सिकंदर, विश्वविजेता, तुम्हें निमंत्रण देता हूं। तुम मेरे राज्य के अतिथि रहोगे। सारा सुख, सारा वैभव जो मेरा है, तुम्हारा है; लेकिन तुम्हें मेरे साथ यूनान चलना होगा।
वह संन्यासी नग्न खड़ा था सुबह की धूप में। उस संन्यासी ने कहा, पहले तो तुम यह भ्रम छोड़ दो कि तुम विश्वविजेता हो। आज हो, कल पानी के बुदबुदे की तरह मिट जाओगे। यह भ्रम छोड़ दो कि तुम महान हो। क्योंकि जिस आदमी को खुद यह भ्रम होता है कि मैं महान हूं, कम से कम वह तो महान नहीं होता। रही मेरे कहीं जाने की बात। संन्यास का मतलब ही है अपनी मर्जी से जीना, अपनी मौज, अपनी मस्ती। कभी आएगी। मौज, कभी आएगी मस्ती, तो आऊंगा यूनान भी; लेकिन मुझे ले जाया नहीं जा सकता। यह तलवार म्यान के भीतर कर लो। यह तलवार उनको डरा सकती है जिसको अपने भीतर के अमृत का कोई पता नहीं  है।
सिकंदर ने कहा कि तुम मुझे जानते नहीं हो, मैं खूंखार आदमी हूं। मैं तुम्हारी गर्दन एक क्षण में, एक झटके में काट दूंगा। वह फकीर हंसा। उसने कहा, अगर तुम्हें इसमें मजा आता हो, सुख मिलता हो, तो यह मेरा सौभाग्य होगा। गर्दन कभी तो गिरेगी ही। चलो, एक आदमी को सुखी कर गयी। एक बात तुमसे लेकिन कह दूं, जब तुम मेरी गर्दन को जमीन पर गिरते देखोगे तो मैं भी अपनी गर्दन को जमीन पर गिरते देखूंगा। क्योंकि मैं गर्दन नहीं हूं, मैं शरीर नहीं हूं। तुम मुझे न देख पाओगे। लेकिन मैं तुम्हें देख पाऊंगा। फिर खींच लो तलवार। और यह पहला मौका है सिकंदर के जीवन में एक ऐसे आदमी से मिलने का, जो निमंत्रण देता है कि खींच लो तलवार। फिर देर किस बात की है? और सिकंदर के हाथ रुक जाते हैं और सिकंदर कहता है, मुझे माफ कर दें। मैं यह संन्यास की भाषा नहीं समझता।
उस संन्यासी ने कहा, अपने गुरु को सिर्फ यह घटना सुना देना। शायद इस घटना से उन्हें कुछ समझ में आ जाए।
तुम्हें पीड़ा होती है कि कोई तुम्हारा वस्तु की तरह उपयोग करे। वस्तुतः तुम्हारा कोई उपयोग करे, इससे ही पीड़ा होती है। क्योंकि उपयोग का मतलब है, तुम्हारा असम्मान। उपयोग का अर्थ है, तुम्हारे व्यक्तित्व को, तुम्हारी आत्मा को स्वीकृति नहीं दी जा रही। तुमसे वही काम लिया जा रहा है जैसे किसी मशीन से कोई काम लेता हो। लेकिन चौबीस घंटे यही हो रहा है। तुम किसी की पत्नी हो, तुम किसी के पति हो। तुमने अपनी पत्नी की आत्मा जानी है या उसका शरीर ही जाना है? तुमने अपने पति के भीतर झांका है, या सिर्फ बाहर जो दर्पण में दिखाई देता है वही देखा है? तुम्हारे बच्चे हैं। तुम उनका भी तो उपयोग कर रहे हो। कोई अपने बच्चों को डाक्टर बनाना चाहता है, कोई इंजीनियर बनाना चाहता है, कोई वैज्ञानिक बनाना चाहता है। लेकिन भीतरी आकांक्षा क्या है? आकांक्षा है कि इन बच्चों का उपयोग हो। इन बच्चों को धन में कैसे रूपांतरित किया जाए? ये बच्चे रुपए के सिक्कों में कैसे ढाले जाए, यही तो तुम्हारी कोशिश है।
हर आदमी हर दूसरे आदमी को उपयोग कर रहा है। और यह तब तक जारी रहता है जब तक तुम अपने को न पहचान लो। कसूर किसी और का नहीं  है। तुम्हारे प्रश्न में झलक ऐसी है कि जैसे कसूर किसी और का है। तुम शिकार हो और शिकारी कोई और है। नहीं, तुमने खुद भी अभी अपने को नहीं जाना--उसको, जिसको तौला नहीं जा सकता, उसको जिसका कोई जन्म नहीं, उसको जिसकी कोई मृत्यु नहीं। तुम उसे पहचान लो तो फिर कोई हर्ज नहीं है। फिर तुम्हें दुख न होगा। फिर तुम्हें सिर्फ दया आएगी उस आदमी पर, जो तुम्हारा उपयोग कर रहा है। तुम्हारी आंखों में आंसू आएंगे करुणा के, कि इस बेचारे को कुछ भी पता नहीं।
कहानी है यूनान के बहुत बड़े विचारक डायोजनीज के संबंध में। डायोजनीज नग्न रहता था और एक सुंदर व्यक्ति था। अति बलशाली व्यक्ति था। उन दिनों में सारी दुनिया में दासता की प्रथा थी। आदमी बेचे जाते थे, जैसे जानवर बेचे जाते थे। चार चोरों ने देखा इस आदमी को। उन्होंने बहुत आदमी देखे थे लेकिन यह मूर्ति की तरह सुदृढ़ यह गढ़ा हुआ आदमी--सोचने लगे कि अगर इसे हम पकड़ लें--और यह फकीर है निश्चित, नग्न बैठा है--तो बाजार में इतनी कीमत मिल सकती है, जितनी दस-पंद्रह आदमियों को भी बेचने से न मिले। मगर इसको पकड़ेगा कौन? यह हम चार आदमियों के लिए काफी है। यह हम चारों को बेच देगा।
उनकी खुसफुस डायोजनीज ने सुनी झाड़ियों के पीछे छुपे वे विचार कर रहे थे कि इसका कैसे फांसा जाए। डायोजनीज ने कहा, बाहर आओ। झाड़ियों के पीछे खुसफुस करने से काई फायदा नहीं। मुझे बेचना है, मुझसे प्रार्थना करो। जंजीरों की कोई जरूरत नहीं है। मैं अपना मालिक हूं। और अगर चार आदमियों की जिंदगी में खुशी आ सकती है मुझे बेचने से, मैं तुम्हारे साथ चलने को राजी हूं। वे चारों एक-दूसरे की तरफ देखने लगे कि यह आदमी कहीं पागल तो नहीं है?
डायोजनीज ने कहा कि मत घबराओ, मेरे पीछे-पीछे आओ। वे बाजार में पहुंचे जहां आदमी बेचे जा रहे थे। ऊंची तख्ती पर आदमी खड़ा किया जाता था और नीलामी बोली जाती थी। वे चारों आदमी डायोजनीज के सामने चोरों की तरह उसके आसपास छिपे हुए खड़े थे। उनकी इतनी हिम्मत भी न था कि वे कह सकें नीलाम करने वाले से, कि हम एक गुलाम लाए हैं, इसके बेचना है। अंततः डायोजनीज खुद ही तख्ती पर चढ़ गया। और उसने तख्ती पर चिल्लाकर जो ऐलान किया वह सोचने योग्य है। उसने ऐलान किया कि यहां जितने भी गुलाम इकट्ठे हुए हैं--वहां गुलाम इकट्ठे नहीं हुए थे, वहां रईस थे, राजकुमार थे, रानियां थीं, राजा थे जो अच्छे गुलामों की तलाश में आए थे डायोजनीज ने कहा, यहां जितने भी गुलाम इकट्ठे हैं, मैं तुम सबको चुनौती देता हूं कि ऐसा मौका बार-बार न आएगा। आज एक मालिक खुद अपने को नीलाम करता है। नीलामी सस्ती नहीं जानी चाहिए। गुलाम तो बहुत बिके हैं और बिकते रहेंगे। और गुलाम दूसरे बेचते हैं, मैं मालिक हूं।
मैं खुद अपने को बचे रहा हूं। ये बेचारे चार-चार गुलाम मेरे पीछे खड़े हैं। इनको पैसे की जरूरत है। तो किसी को हो हिम्मत मुझे खरीदने की, तो खरीद ले। वहां एक सन्नाटा हो गया। वह आदमी इतना मजबूत था कि उसे खरीदना भी उपद्रव खड़ा करे। रास्ते में गर्दन दबा दे। डायोजनीज ने कहा, मत डरो, जरा इन चार गुलामों की फिकर करो। ये बेचारे मीलों मेरे पीछे चलकर आए हैं। इनकी इतनी हिम्मत भी नहीं है कि ये कह सकें कि मुझे बेचना है। इनकी बोलती खो गयी है। खरीद लो, बिलकुल घबराओ मत। मैं किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा। मालिकों ने की किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। जिस आदमी को अपने भीतर का पता चल जाता है उसे एक मालकियत मिल जाती है। फिर उसके हाथों में जंजीरें भी हों, पैरों में बेड़ियां भी हों, तो भी तुम उसे गुलाम नहीं कर सकते। तुम उसे मार सकते हो लेकिन उसे गुलाम नहीं बना सकते।
तो जो लोग तुम्हारा वस्तुओं की तरह उपयोग करते हैं वे दयनीय हैं। वे खुद अपना भी वस्तुओं की तरह उपयोग करते हैं। यहां हर आदमी अपने को बेच रहा है, बड़े सस्ते में बेच रहा है। और जब वह खुद अपने को बेच रहा है तो तुमको कैसे छोड़ेगा? वह तुमको भी बेचेगा। और खुद को बिकते देखकर दुख होता है। लेकिन इस दुख से कोई हल नहीं है। सिर्फ एक ही बात इस परेशानी से तुम्हें मुक्त कर सती है और वह है, आत्मबोध। इस बात की अनुभूति कि आगे मुझे जला नहीं सकती और तलवारें मुझे काट नहीं सकती। फिर क्या हर्ज है कि तुम किसी के थोड़े काम आ गए?
और वह नासमझ है, कि उसने समझा कि उसने तुम्हारा उपयोग कर लिया। उसकी नासमझी उसके साथ, उसकी नासमझी उसका भाग्य, उसकी नासमझी उसकी नियति। लेकिन तुम्हारे लिए पीड़ित होने का कोई कारण नहीं है।

प्रश्न: प्यारे भगवान श्री, विपस्सना की साधना में केथार्सिस कब होता है? मैं विपस्सना का अभ्यास करता हूं। मेरा संगीत का कार्यक्षेत्र होश की दिशा में मेरे लिए किस प्रकार सहायक हो सकता है।
विपस्सना सदियों पुरानी पद्धति है ध्यान की। इसकी खोज--किसने इसे खोजा, पता नहीं--अदभुत प्रक्रिया है। स्वयं से परिचित होने का सरलतम उपाय है। विपस्सना शब्द का अर्थ है, चुपचाप बैठकर अपने आपका साक्षी हो जाना। पस्य का अर्थ है, देखना। विपस्सना का अर्थ है, बस चुपचाप भीतर बैठकर देखना। यह श्वास भीतर आयी, वह श्वास बाहर गयी, इसको भी देखना। यह हृदय धड़का, इसको भी देखना। चुपचाप भीतर बैठकर जो भी हो रहा है उसे देखना। और देखते-देखते ही सारी आवाजें विलीन हो जाती हैं और एक महाशून्य तुम्हें घेर लेता है।
बुद्ध ने विपस्सना की प्रक्रिया को सारे जगत में विस्तीर्ण किया। लेकिन एक अड़चन है। और वह अड़चन यह है कि बुद्ध को ढाई हजार वर्ष हो गए। विपस्सना की पद्धति वही की वही है। लेकिन आदमी की नालायकी वही की वही नहीं है। आदमी नालायकी से और नालायकी की तरफ बढ़ता गया। विपस्सना किसी भी भोले-भाले आदमी के लिए सरल मामला है। लेकिन आधुनिक आदमी भोला-भाला नहीं है। आधुनिक आदमी इतने शोरगुल से भरा है, इतनी बेईमानी से। औरों की तो बात छोड़ दो, अपने साथ भी ईमानदार नहीं है।
मैंने सुना है, एक चोर एकनाथ के साथ तीर्थयात्रा पर गया। एकनाथ तीर्थयात्रा पर जा रहे थे। उनके सारे शिष्यों का मंडल तीर्थयात्रा पर निकला था। चोर जाहिर था। सारा गांव उसे जानता था। उस चोर ने एकनाथ को कहा कि मुझे भी साथ ले लो। मुझ गरीब को भी बचा लो। मैं भी तुम्हारे साथ सारे तीर्थ हो जाऊं।
एकनाथ ने कहा, मुझे कोई ऐतराज नहीं। एक शर्त है। कम से कम तीर्थयात्रा तीन से छह महीने तक चलेगी। इस बीच तुम चोरी नहीं करोगे। उस आदमी ने वायदा किया कि कसम खाता हूं आपकी, चोरी नहीं करूंगा।
एकनाथ ने कहा, फिर कोई हर्ज नहीं है, तुम साथ हो लो, लेकिन दूसरी ही रात से गड़बड़ शुरू हो गयी। और गड़बड़ बड़ी अजीब थी। किसी के हाथ की चूड़ियां किसी दूसरे के हाथ में पहुंच गयीं। किसी की अंगूठी किसी दूसरे के हाथ में चली गयी। किसी के बिस्तर का सामान किसी दूसरे के बिस्तर में चला गया। लोग सुबह उठकर बड़े हैरान, कि मामला क्या है? चीजें मिल जाती थीं। चोरी नहीं होती थी। मगर आधा दिन इसी खोज मग निकल जाता था कि चश्मा कहां है? किसी के रुपए गायब। रुपए कहां हैं? जब तक पचास-साठ आदमियों की एक-एक चीज न खोजी जाए तब तक रुपए ने मिलें, चश्मा न मिले।
एकनाथ ने अंततः दोत्तीन दिन बाद, एक रात जागकर बिताई। शक उन्हें हुआ कि मामला उसी चोर का है। और मामला उसी चोर का था। जैसे ही सब सो जाते, वह उठता। और इसका सामान उसके सामान में, उसका सामान किसी और के सामान में। एकनाथ ने उससे कहा, पागल तूने कसम खायी थी, चोरी न करेंगे। उसने कहा, मैंने कसम खायी थी चोरी न करेंगे तो चोरी न करेंगे तो चोरी तो नहीं कर रहा। और मैंने यह तो कभी कसम न खायी थी कि चीजें न बदलेंगे। और तुम्हारी तीर्थयात्रा तो तीन महीने में खत्म हो जाएगी। यह मेरा दिन होता है। और रात भर क्या करूं खाक? और किसी का कुछ बिगाड़ तो नहीं रहा हूं। किसी का एक धेला तो लिया नहीं।
आदत! चोरी नहीं करनी लेकिन फिर भी हेराफेरी करनी है। थोड़ा रस तो आ ही जाता है। थोड़ा मजा तो आ ही जाता है। दूसरे दिन सुबह बैठकर वही एक आदमी था, जो मजे से देखता था कि कहां क्या हो रहा है।
मैंने सुना है ऐसे चोरों की बाबत भी, जो अपने एक खीसे से चुराकर दूसरे खीसे में चीजों को रख लेते हैं। दिल तो बहल जाता है। बात तो रह जाती है। इज्जत का सवाल है।
इन ढाई हजार वर्षों में मनुष्य के मन में इतने ज्यादा विकृत विचार, इतना दमन, इतने बादल उमड़-घुमड़ गए हैं कि अब विपस्सना सीधी-सीधी करना बहुत मुश्किल है। और तुम पूछते हो, विपस्सना में केथार्सिस कब होती है? विपस्सना में केथार्सिस का कोई स्थान ही नहीं है। क्योंकि जिस समय विपस्सना खोजी गयी थी, केथार्सिस की कोई जरूरत ही न थी। अब अगर कैंसर ही न हो तो कैंसर के इलाज की क्या जरूरत है?
इसलिए मैं अपने संन्यासियों को विपस्सना में प्रवेश करने के पहले सक्रिय ध्यान का आग्रह करता हूं, ताकि सक्रिय ध्यान मग सारा उपद्रव, कूड़ा-कर्कट बाहर फेंक दें। और ए बार फिर निखालिस छोटे बच्चे हो जाए। फिर विपस्सना शुरू करें। लेकिन अगर तुमने सीधे विपस्सना शुरू की, तो तुम एक खतरा करोगे। वह जो तुम्हारे भीतर इकट्ठा है, वह दबा ही रहेगा। ऊपर-ऊपर तुम शांत दिखायी पड़ने लगोगे और भीतर-भीतर सारी अशांति इकट्ठी होती जाएगी। और वह शांति एक दिन विस्फोट की भांति फूट सकती है। फूटेगी। एक सीमा है, जब तक तुम उसे दबाए रख सकते हो।
विपस्सना सीधी शुरू करने के मैं पक्ष में नहीं हूं। विपस्सना दूसरा चरण है। दो हजार वर्ष पहले पहला चरण था। अब विपस्सना दूसरा चरण है। अब पहला चरण सक्रिय ध्यान है। सक्रिय ध्यान तुम्हें विपस्सना के लिए तैयार करेगा। सक्रिय ध्यान काफी नहीं है, उससे तुम आत्मज्ञान को उपलब्ध नहीं हो जाओगे। लेकिन सक्रिय ध्यान तुम्हें धोकर--जैसा गंगा में स्नान कर आए हो, ऐसा स्वच्छ कर देगा। उन स्वच्छता के क्षणों में विपस्सना में प्रवेश करना उचित है; अन्यथा खतरा है।
लेकिन बड़ी मुश्किल यह है, हजारों वर्ष बीत जाते हैं, लोग अतीत को ऐसा जोर से पकड़ते हैं कि यह भूल ही जाते हैं कि वह अतीत किन्हीं और तरह लोगों के लिए निर्मित किया गया था, तुम्हारे लिए नहीं। तो विपस्सना के शिक्षक अभी भी विपस्सना सिखा रहे हैं। और उन्हें पता ही नहीं कि इन पच्चीस सौ वर्षों में आदमी पर क्या गुजरी है! तूफान गुजर गए हैं, आंधियां गुजर गयी हैं। आदमी के भीतर इतनी टूट-फूट इकट्ठी हो गयी है, इतना कूड़ा-कर्कट इकट्ठा हो गया है कि पहले उसे साफ कर लेना जरूरी है।
तो मेरी सलाह है, सक्रिय ध्यान को पहला कदम बनाओ। और जब तुम अपने भीतर पाओ कि अब निकालने को कुछ भी नहीं, तब विपस्सना शुरू करो। तो विपस्सना ही तुम्हें आत्मज्ञान की तरफ ले जाएगी।
दूसरा प्रश्न तुमने पूछा कि तुम संगीतज्ञ हो, जागरूक रहकर संगीत को कैसे साधो। या जागरूकता और संगीत को साथ-साथ कैसे विकसित करो। यह थोड़ा जटिल मामला है। क्योंकि जब तुम संगीत में खो जाओगे तो जागरूकता भूल जाएगी। जब तुम लीन हो जाओगे संगीत में तो कौन बचेगा जागरूक होने को? और जब तुम जागरूक होओगे तो संगीत टूट-फूट जाएगा। तो तुम दो विरोधी चीजों को जोड़ने की कोशिश में मुश्किल में पड़ जाओगे। बहुत एंचातानी हो जाएगी। कोई कोई भी एक बात चुन लो, पर्याप्त है। दो-दो नावों पर खतरा होगा। संगीत पर्याप्त ही रह जाए। और परमात्मा के द्वार खुल जाएंगे। उसके अनेक द्वार हैं। सौभाग्य है कि उसका एक ही द्वार नहीं है, अन्यथा बड़ी भीड़ हो जाती। बड़ी मुश्किल हो जाती। क्यू लग जाते। सदियों तक क्यू लगे रहते। बुद्धों को सदियों तक खड़े रहना पड़ता दरवाजों पर। लेकिन उसके अनंत द्वार हैं।
संगीत पर्याप्त है। अगर जागरूकता साधनी है तो फिर संगीत को उसकी अंतिम गहराइयों तक नहीं पहुंचाया जा सकता। तुम संगीत को एक विषय बना सकते हो। जागरूक होने के लिए तुम संगीत के प्रति होश रख सकते हो। मगर वह होश संगीत को ऊंचाइयों पर नहीं ले जा सकेगा, न गहराइयों में ले जा सकेगा।
पश्चिम में एक बहुत बड़ा नर्तक हुआ निजिन्सकी। संभवतः मनुष्य के इतिहास में वैसा अदभुत नर्तक दूसरा नहीं हुआ। क्योंकि निजिन्सकी के नर्तक में एक खूबी थी कि नृत्य करते-करते वह ऐसी ऊंची छलांग मारता था, जो कि जमीन के गुरुत्वाकर्षण के खिलाफ है। जो लोग ऊंची छलांग भरने का अभ्यास करते हैं ओलिम्पिक में प्रतियोगिता के लिए, वे भी वैसी छलांग नहीं भर सकते। और निजिन्सकी कोई छलांग का अभ्यासी नहीं था। लेकिन घड़ी आती थी उसके नृत्य में कि जैसे उसे पर लग जाते थे। और वह इतनी ऊंची छलांग भरता था कि वैज्ञानिक चकित थे। जमीन की कशिश के विपरीत इतनी ऊंच छलांग भरी ही नहीं जा सकती। और मामला यहीं तक नहीं था। मामला और भी मुश्किल हो जाता था। जब वह छलांग से नीचे गिरता था तो...।
जमीन बड़ी तेजी से खींचती है चीजों को अपनी तरफ। उनकी रफ्तार बहुत होती है। प्रति मिनिट छह हजार मील की रफ्तार से चीजें खींची जाती हैं। इसलिए तुम रात में जब कभी देखते हो और कहते हो, तारा टूटा--कोई तारा नहीं टूटता। तारे बहुत बड़े हैं। अगर टूट जाएं। तो हम कभी के टूट गए होते। तारे नहीं टूटते। यह तो पृथ्वी जब सूरज से अलग हुई और चांद जब पृथ्वी से अलग हुआ, तो पृथ्वी गीली मिट्टी का लोंदा थी। चांद एक बड़ा टुकड़ा है। अलग उसका अस्तित्व हो गया है। लेकिन साथ में छोटे-छोटे मिट्टी के टुकड़े चारों तरफ छितर गए। वे आकाश में भटक रहे हैं। वे जब भी पृथ्वी के घेरे के भीतर आ जाते हैं--घेरा सौ मील है--जब भी दो सौ मील के भीतर उन मिट्टी के टुकड़ों में से कोई टुकड़ा आ जाता है, तो पृथ्वी उसे इतने जोर से खींचती है--प्रति मिनिट छह हजार मील--कि हवा और उस मिट्टी के घर्षण से आग पैदा हो जाती है। जैसे चकमक से आग पैदा हो जाए। इसलिए वह तुम्हें चमकता हुआ मालूम पड़ता है। वह कोई तारा नहीं है। मिट्टी जा, जो जल उठी है।
निजिन्सकी जब अपनी छलांग से उतरता था तो ऐसे उतरता था, जैसे कोई कबूतर का पंख आहिस्ता-आहिस्ता, डोलता-डोलता जमीन की तरफ उतर रहा हो। कोई जल्दी नहीं। यह और भी आश्चर्य की बात थी। उसका उतरना और भी हैरानी की बात थी। वह जमीन के कशिश के नियम को बिलकुल ही तोड़ दिया। निजिन्सकी से लोग पूछते कि यह मामला क्या है? तुम कैसे करते हो? निजिन्सकी ने कहा कि मुझसे मत पूछो कि मैं कैसे करता हूं। क्योंकि जब भी मैं करने की कोशिश करता हूं तब यह नहीं होता। मैं घर भी करने की कोशिश करता हूं, यह नहीं होता। मैंने मंच पर भी करने की कोशिश की है और यह नहीं हुआ। जब मैं थक जाता हूं कोशिश करते-करते, और भूल जाता हूं इस बकवास को, तब मैं अचानक एक दिन पाता हूं कि यह हो गया। लेकिन यह होता तब है जब मैं नहीं होता। जब मेरा प्रयास नहीं होता, मेरा अभ्यास नहीं होता, मेरी चेष्टा नहीं होती, मेरी आकांक्षा नहीं होती, मेरी वासना नहीं होती। यह मेरे लिए उतना ही बड़ा रहस्य है जितना यह तुम्हारे लिए बड़ा रहस्य है। मैं मिट जाता हूं तब यह घटना घटती है।
बड़े चित्रकारों का भी यही अनुभव है। जब वे मिट जाते हैं तभी उनके हाथ ईश्वर के हाथ हो जाते हैं। बड़े संगीतज्ञों का भी अनुभव है। जब वे नहीं रहते तब कोई और, कोई अनंत शक्ति उनकी वीणा पर संगीत को सजाने लगता है।
तो तुम अगर संगीतज्ञ हो और संगीत से प्रेम है, जागरूकता की फिकर मत करो। तुम संगीत में डूबने की फिकर करो। संगीत ही रह जाए, तुम न बचो। तुम वहीं पहुंच जाओगे जहां वे लोग पहुंचे हैं, जो परम जागरूकता की साधना किए हैं। वहां भी यही करना होता है। परम जागरूकता में भी स्वयं को भूलना पड़ता है। शुरुआत करते समय तो व्यक्ति होता है। जागरण की चेष्टा का अ, , , तो व्यक्ति शुरू करता है लेकिन अंतिम अक्षर व्यक्ति नहीं लिखता। वह जो निर्व्यक्ति हमारे भीतर है, वह निराकार हमारे भीतर है, वे उसके हाथ से लिखे जाते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किस द्वार से शून्य को उपलब्ध होते हो। सभी द्वार उसके हैं। तुम्हें जो द्वार प्रीतिकर हो। क्योंकि तुम्हारा प्रेम ही तुम्हें गहराइयों तक ले जा सकेगा--उन गहराइयों तक, जहां कि तुम मिटने को राजी हो जाओ। प्रेम के अतिरिक्त कोई दूसरी चीज तुम्हें मिटने को राजी नहीं कर सकती।
तो भला है कि तुम संगीतज्ञ हो। तो संगीत में डूबो। संगीत को ही रह जाने दो। पहुंच जाओगे। पता भी नहीं पड़ेगा कब पहुंच गए। पहुंच जाओगे तभी जानोगे कि अरे, मैं कहां हूं। परमात्मा है। मैं कहां हूं? अस्तित्व है। मगर दो घोड़ों पर सवार हो जाते हैं। कहीं भी पहुंचते नहीं। सिर्फ हाथ-पैर तुड़वा कर किसी अस्पताल में भर्ती होते हैं। एक ही घोड़ा काफी है। एक को पाने के लिए बस एक काफी है। दुई खोनी है। और तुम दुई पर सवार हो रहे हो।

प्रश्न: प्यारे भगवान, दिन में अधिक समय ध्यान में डूबी, खोयी रहती हूं। शरीर क्षीण हुआ है। कुछ समय पहले दलाई लामा के डाक्टर ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा कि मुझे अधिक पार्थिव होने की जरूरत है। कृपया बताएं कि मुझे क्या करना है?
सको ही मैं कहता हूं, दो घोड़ों पर सवार होना।
यह गुणा का सवाल है। कोई दलाई लामा का डाक्टर गुणा के घर आया हो, यह तो संभव नहीं है। यह गुणा ही दलाई लामा के द्वार पर पहुंची होगी घोड़े की तलाश में। अभी दलाई लामा भी कहीं नहीं पहुंचे, उनका डाक्टर कहां पहुंचेगा? और जब दलाई लामा के डाक्टर ने कहा था, थोड़ी पार्थिव हो जाओ, एक झापड़ खींचकर देना था। उससे तुम्हारे पार्थिव होने का सबूत मिल जाता। और दलाई लामा का डाक्टर आध्यात्मिक है या नहीं, यह भी सबूत मिल जाता।
कोई पार्थिव होने की जरूरत नहीं है। पार्थिव तो तुम जन्मों-जन्मों से हो। पार्थिव के अतिरिक्त तुम हो ही क्या? और ज्यादा आत्मिक होने की जरूरत है। मगर यही मुश्किल है। लोग भटकते फिरते हैं।
दलाई लामा के डाक्टर के पास जाने की गुणा, तुझे जरूरत क्या थीं? लेकिन नहीं लोग सोचते हैं शायद दलाई लामा के पास कुछ मिल जाएगा, कि शायद अरविंद आश्रम में कुछ मिल जाएगा, कि शायद किसी और स्वामी के पास कुछ मिल जाएगा। यह भिखारीपन छोड़ो। जो मिलना है, वह तुम्हारे भीतर मिलना है। और दलाई लामा के डाक्टर ने खुद तुम्हारा हाथ पकड़कर कहा, इससे तुम्हारा चित्त बड़ा प्रसन्न हुआ होगा कि अहा! धन्य हूं मैं। खुद दलाई लामा मेरा हाथ, उनका डाक्टर मेरा हाथ पकड़कर कह रहा है! जो सलाह बिना मांगे देता है वह नालायक है।
और क्या पार्थिव होना है? शरीर है तुम्हारे पास। खोपड़ी है हजार कीड़ों से भरी हुई। और पार्थिव होने की क्या जरूरत है?  और पार्थिव होना हो तो कठिन क्या है? और थोड़ा भोजन ज्यादा करने लगो।
पार्थिव नहीं होना है। वह जो तुम्हारे भीतर छिपा है अपार्थिव, उसके साथ अपने को जोड़ना है और जानना है कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं पार्थिव नहीं हूं। और एक बार और दुबारा जाना, और उस डाक्टर का हाथ पकड़कर कहना कि तुम्हें थोड़ा आध्यात्मिक होने की जरूरत है।
पार्थिव तो हम हैं ही। थोड़ी सी किरण अपार्थिव की हमारे भीतर है, उस किरण को और प्रज्वलित करना है। ध्यान उसी किरण को थोड़ी और उकसाहट देता है जैसे कोई आग को उकसाता हो, राख को झाड़ता हो। अंगारे जो राख में दब गए हैं, उभर आते हों। बस वैसे ही।
मगर मैं उन लोगों के बहुत पक्ष में नहीं हूं जो भिखारियों की तरह यहां-वहां, हर कहीं पूछते फिरते हैं, क्या करें? करना कुछ भी नहीं है। एक फैशन है। इस शंकराचार्य के पास जाओ, दलाई लामा के पास जाओ। आचार्य तुलसी के पास जाओ। और इस मुल्क में इतनी दुकानें हैं जिनका कोई हिसाब नहीं। जन्मों-जन्मों तक ये दुकानें तुम्हें भटकाती रही हैं, और जन्मों-जन्मों तक भटकते रहो। और इस सारी भटकन में एक बात भूले बैठे हो कि जिसकी तुम खोज कर रहे हो वह तुम्हारे भीतर है।
दलाई लामा जब तिब्बत से भारत भागे तो जो सब से बड़ी सुखद घटना घटी वह यह थी, कि ल्हासा के किले में जितना सोना था वह तो सब दलाई लामा साथ ले आए, लेकिन जितने परेशान शास्त्र थे वे सब वहीं छोड़ आए। या यूं कहो कि गोबर ले आए और सोना छोड़ आए। गोबर की कीमत है। और तिब्बत के पास कीमती शास्त्र थे। लेकिन उन शास्त्रों को लाने की कोई फिकर नहीं। उनमें ऐसे शास्त्र थे जिनके मूल संस्कृत जला डाले गए हैं। क्योंकि हिंदुओं ने बौद्धों को नष्ट करने के लिए उन शास्त्रों को जला दिया। अब उनको पाने का एक ही उपाय है। उन्हें निब्बतीय से फिर वापस भारतीय भाषाओं में अनुवादित किया जाए। उन शास्त्रों में जीवन की बहुमूल्य कुंजियां छिपी हैं। लेकिन सोना ज्यादा कीमती है!
तो करोड़ों रुपयों का सोना...उसे तो...पूरा ल्हासा का किला खाली कर लिया और उसको लेकर भागे। इस आदमी में अगर जरा भी अध्यात्म होता तो यह सोना तो वहीं छोड़ देता, उस खालिस पारस को लेकर अपने साथ आता जो कभी भारत से तिब्बत गया था और फिर भारत से विलीन हो गया। लेकिन पारस पत्थर को पहचानना मुश्किल है। सोना तो किसी भी आंख में दिखाई पड़ जाता है।
तो न तो दलाई लामा के पास कोई अध्यात्म है; रही उनके डाक्टर की बात, सो उन बेचारे के पास क्या हो सकता है? हां, उसने एक भ्रांत धारणा जरूर गुणा के मन में भर दी कि और पार्थिव हो जाओ। बंबई में रहकर अब और पार्थिव कैसे होओ? अब तो नर्क ही जाना पड़ेगा। करो कोशिश। जाओ चौपाटी पर और छिड़को परफ्यूम, खाओ इडली-डोसा, बनो पार्थिव। तरू माता से दोस्ती कर लो।

धन्‍यवाद।


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