दिनांक
30 जून सन्1976;
श्री
ओशो आश्रम
पूना।
प्रश्नसार:
पहला
प्रश्न :
प्यारे
ओशो! बाउलों
को किसने जन्म
दिया? उनकी
शुरुआत कब
कैसे हुई?
कृपया
स्पष्ट करने
की अनुकम्पा
करें।
बाउल जैसे
लोगों को किसी
ने जन्म नहीं
दिया। बाउलों
जैसे धर्म, धर्म से
अधिक घटनाएं
हैं। गुलाबों
को किसने
उत्पन्न किया?
उन गीतों को
किसने रचा, जो पक्षी हर
सुबह
गुनगुनाते
हैं? नहीं,
हमें ऐसे
प्रश्न कभी
पूछने ही नहीं
चाहिए। ऐसा
यहां हमेशा ही
होता है।
दार्शनिक
विचार धाराओं
का जन्म होता
है, तुम
इस्लाम उसके
अधिकृत
उपदेशकों और
धर्मों के
जन्म के बारे
में खोज कर
सकते हो। बाउल
का कोई धर्म
या पंथ नहीं
है। वह एक सहज
स्वाभाविक
जीवन—शैली है।
लोग हमेशा से
इसी तरह ही
रहते आये हैं।
जो लोग वास्तव
में जीवन को
जीते हैं वे
हमेशा इसी तरह
से रहते आये
हैं। ऐसे लोग
जो जीवंत बने
रहते आए हैं
किसी और तरह से
रहते हुए
जीवंत हो ही
नहीं सकते थे।
चाहे उन लोगों
को बाउलों के
रूप में जाना
जाता रहा हो
अथवा नहीं, यह बात
व्यर्थ है। इस
नाम का स्रोत
कहीं भी हो
सकता है, लेकिन
मेरा उसके साथ
कोई सम्बंध ही
नहीं है।
इस
शब्द का एक ही
अर्थ है—’‘ पागल मनुष्य
अस्तित्व के
प्रेम में बावरा
व्यक्ति, जीवन
रस में पागल
मनुष्य लेकिन
यह दीवानापन उसमें
हमेशा ही से
रहा है। और यह
अच्छा है कि
कुछ लोग ऐसे
दीवाने हमेशा
ही से रहे हैं
जिससे हम
लोगों ने
अस्तित्व की जड़ों
के साथ अपना
सम्बंध नहीं
खोया है। यह
उन लोगों के
कारण है, अन्यथा
हम, हम न
होते। वे लोग
गीत गा सकते
हैं, नाच
सकते हैं और
प्रेम से जी
सकते हैं। यह
लोग ही अपने
केंद्र पर
होते हुए
सच्चे और
प्रमाणिक हैं।’’
इसलिए मैं
नहीं जानता उन
लोगों की
शुरुआत कब से
हुई। यदि वहां
कोई प्रारम्भ
था तो आदि काल
से ही उन्होंने
जरूर ही
शुरुआत की
होगी।
पहले
मनुष्य के साथ
जरूर रूप से
यह शुरुआत हुई
होगी, क्योंकि
उनकी पूरी
शिक्षा सारभूत
मनुष्य के
बारे में ही
है। वास्तव
में धीमे—
धीमे वे
विलुप्त हो गए।
शुरू में वे
लोग जरूर ही
बहुत रहे
होंगे, लेकिन
धीमे— धीमे वे
कम होते गए।
दिन प्रतिदिन
उनकी संख्या
कम होने लगी, निरंतर कम
और कम होती गई,
क्योंकि यह
संसार अधिक
सांसारिक
होता गया, और
बहुत अधिक
चालाक और
बेईमान बनता
गया। ऐसा
संसार सहजता
सरलता से हृदय
में जीने की अनुमति
देता ही नहीं।
यह संसार बहुत
अधिक
महत्वाकांक्षी
और प्रतियोगितात्मक
बन गया है। वह
उस सब को भुला
बैठा है, जो
सुंदर है, वह
उसे भी भुला
बैठा है जिसका
उत्पादन नहीं
किया जा सकता
है। वह भूल
बैठा है कि
कैसे समर्पित
होकर उस
शाश्वत सत्य
को संयम से
घटित होने की
स्वतंत्रता
दी जाए। वह
परमानंद की
भाषा ही भूल
चुका है।
हम
जितना अधिक
वापस पीछे की
ओर चलें, हमें उतने
ही अधिक बाउल
मिलेंगे।
शुरू—शुरू में
तो पूरी
मनुष्यता ही
बाउलों जैसी
निश्चित रूप
से रही होगी।
तुम अब भी इसे
देख सकते हो।
प्रत्येक
बच्चा जन्म से
बाउल जैसा ही
होता है, और
तब बाद में वह
प्रदूषित हो
जाता है। वह
जीवन के साथ
प्रेम में
पागल होकर ही
फिर से जन्म
लेता है, लेकिन
हम उसका विकास
करते हैं, उसकी
कांट —छांट
करते हैं और
उसके
अस्तित्व को
सरलता और
सहजता से
खिलने की
अनुमति नहीं
देते। हम उसे
आदतों और
नैतिक
अनुशासन के
ढांचे में ढालकर
उसे एक
विशिष्ट
चरित्र देते
हैं।
बाउलों
के पास चरित्र
नहीं होता। वे
चरित्र से
नहीं, चेतना
से जीने वाले
मनुष्य हैं।
वास्तव में एक
होशपूर्ण
व्यक्ति का
कभी कोई चरित्र
होता ही नहीं।
चरित्र एक
जड़ता है, चरित्र,
पूर्व
धारणाओं और
भ्रमों से भरी
एक चित्तवृत्ति
है, और
चरित्र एक कवच
है। तुम्हें
केवल वही
कार्य करना है,
जिसकी
चरित्र
तुम्हें
अनुमति दे।
चरित्र कभी भी
सहज
स्वाभाविक
नहीं हो सकता।
चरित्र हमेशा
वर्तमान पर
अतीत के
द्वारा थोपा
जाता है।
तुम्हें जीवन
को अपने ढंग
से जीने और
प्रति उत्तर
देने की
स्वतंत्रता
नहीं होती, तुम केवल
तदनुसार
कार्य करते हो।
बाउल
स्वयं
प्रवर्तित
सहज मानुष में
विश्वास करते
हैं बाउल कहते
हैं, सारभूत
मनुष्य के लिए
स्वयं
प्रवर्तित और
स्वाभाविक
बनना ही
एकमात्र मार्ग
है। स्वाभाकि
बनना ही उस
मार्ग पर चलने
जैसा है, जो
सारभूत
मनुष्य तक
जाता है।
प्रत्येक
बच्चा बाउल ही
होता है।
इसलिए जैसाकि
मैं देखता हूं
कि शुरू—शुरू
में, यदि
वहां इसकी
शुरुआत हुई
होगी, पूरी
मनुष्यता
बाउलों जैसी
ही सच्ची, प्रमाणिक,
ईमानदार और
गहरे प्रेम
में जरूर ही
पागल रही होगी
और उत्सव आनंद
बनाने की
परमात्मा
द्वारा दी गई
भेंट और अवसर
को पाकर खुश
होगी।
जीवन
पर हमारा कोई
दावा नहीं है।
क्या तुमने
कभी इस बात पर
गौर किया है
कि हमारे पास
दावा करने
जैसा कुछ है
ही नहीं। यदि
हम थे ही नहीं, तो न तो
हमारे वहां होने
का ही कुछ
उपाय होता और
न किसी तरह की
अपील करने का
कोई रास्ता
होता। उसके
विरुद्ध
शिकायत करने
का भी कोई
उपाय न होता।
यदि तुम दो ही
नहीं, तो
तुम नहीं हो।
अगले ही क्षण
तुम विलुप्त
हो सकते हो।
जीवन बहुत
नाजुक है, और
बिना किसी
दावे का है।
हमने इसे
अर्जित नहीं
किया है। जब
हम कहते हैं
कि यह एक
उपहार है, तो
यही इसका अर्थ
है। उपहार कुछ
इस तरह की चीज
होता है, जिसे
तुम अर्जित
नहीं करते और
इसीलिए
तुम्हारा उस
पर कोई अधिकार
नहीं होता।
तुम यह नहीं
कह सकते कि
उसे पाने का
तुम्हें कोई
अधिकार है। एक
उपहार तो कुछ
ऐसी चीज है, जो तुम्हें
दी गई है।
जीवन
एक उपहार है।
वह तुम्हें
बिना किसी
कारण दिया गया
है। तुम उसे
अर्जित नहीं
कर सकते थे
क्योंकि तुम थे
ही नहीं, तो तुम
अर्जित करते
कैसे? जीवन
एक उपहार है, लेकिन हम
इसे भूले चले
जाते हैं। और
हम उसके प्रति
धन्यवाद तक
प्रकट नहीं
करते। हम उसके
प्रति कृतज्ञ
भी नहीं होते।
निश्चित रूप
से हम एक हजार
एक शिकायतें
करते हैं, जिनके
बाबत हम यह
सोचते हैं कि
हम जीवन में
उन्हें चूके
जा रहे हैं, लेकिन हम
कभी भी स्वयं
जीवन के प्रति
अहोभाव का
अनुभव नहीं
करते।
तुम्हें
यह शिकायत हो
सकती है कि
तुम्हारा घर अच्छा
नहीं है बरसात
आ गई है और वह
टपक रहा है।
तुम्हें
शिकायत हो
सकती है कि
तुम्हारा
वेतन पर्याप्त
नहीं है।
तुम्हें
शिकायत हो
सकती है कि
तुम्हारे पास
एक सुंदर शरीर
नहीं है। तुम
शिकायत कर
सकते हो कि
तुम्हारे साथ
ऐसा या वैसा
क्यों नहीं हो
रहा? तुम्हारी
एक हजार एक
शिकायतें हो
सकती हैं।
लेकिन क्या
कभी तुमने इस
बात पर ध्यान
दिया है कि
तुम्हारे
पूरे जीवन की
सभी
संभावनाएं कि तुम
ठीक से सास ले
सकते हो, देख,
सुन और समझ
सकते हो, स्पर्श
कर सकते हो, प्रेम कर
सकते हो और
प्रेम पा सकते
हो, क्या
यह सब कुछ
बहुत बड़ा
उपहार नहीं है?
यह सब कुछ
तुम्हें दिया
गया है, क्योंकि
परमात्मा के
द्वारा बहुत
कुछ तुम्हें
दिया गया है, क्योंकि
परमात्मा के
पास बहुत कुछ
देने को है, यह इस कारण
नहीं है कि
तुमने इसे
अर्जित किया है।
बाउल
एक कृतज्ञता
और अहोभाव से
जीता है। वह
गाता और नाचता
है— यही उसकी प्रार्थना
है। वह प्रेम
में रोता है।
वह आश्चर्य
करता है कि
उसे यह जीवन
क्यों और किसके
लिए दिया गया
है, आखिर
ऐसा क्या है, जो उसे आकाश
में
इन्द्रधनुष, और पृथ्वी
पर खिलते फूल
और सुंदर
तितलियों को देखने
का सौभाग्य
मिला है, आखिर
ऐसा क्या है
जिससे उसे
बहती सरिताओं,
चट्टानों, और इतने
लोगों से
मिलने की
अनुमति मिली
हुई है? आखिर
क्यों और
किसलिए? क्योंकि
जीवन इतना
अधिक सरल और
स्पष्ट है और
उसमें छिपी
हुई अनंत
भेटों को भूलने
की तुम्हारी
प्रवृत्ति बन
गई है।
एकदम
शुरुआत में
प्रत्येक
व्यक्ति
निश्चित रूप
से बाउल ही
रहा होगा, क्योंकि
तब वहां
मनुष्य को
प्रदूषित
करने, सभ्यता
का जन्म नहीं
हुआ था, उसे
बरबाद करने के
लिए वहां कोई
समाज न था।
वहां पुरोहित
और पूजाघर नही
थे, जो
तुम्हें
चरित्र देकर
तुम्हारी
राहें तंग कर
देते। शुरू—शुरू
में तो जीवन
जरूर ही
प्रवाहमान
रहा होगा।
प्रत्येक
व्यक्ति जरूर
ही स्वयं अपने
छंद से
स्वच्छंद
जीता होगा
इसीलिए नहीं
कि वह
परमात्मा के
दस आदेशों
अथवा किन्हीं
शास्त्रों का
पालन कर रहा
था। तब न कहीं
कोई धर्म
ग्रंथ या
शास्त्र थे और
न दस—दैवी
आदेश ही थे।
तब तक दस
आज्ञाएं
ग्रहण करने
वलो मोजेज का
जन्म भी न हुआ
था। तो शुरू—शुरू
में प्रत्येक
व्यक्ति जरूर
बाउल ही रहा होगा
और अब भी
प्रत्येक
बच्चा, जब
वह जन्मता है,
बाउल ही
होता है। एक
बच्चे का
निरीक्षण
करते हुए समझो
कि एक बाउल
बनना होता
क्या है, वह
कितनी
उल्लेखनीय
घटना है
अस्तित्व की?
देखो, बच्चे
बिना किसी
कारण खुश हो
रहे हैं, आनंद
से
किलाकारियां
भर रहे हैं।
अतिरेक से
बहती ऊर्जा से
इधर—उधर
कुलाचें भर
रहे हैं। जब
तुम एक बाउल
बनते हो तो
फिर एक छोटे
बच्चे जैसे हो
जाते हो।
एक
बाउल बनना एक
आदिम मनुष्य
जैसा है। बाउल
बनने से
व्यक्ति अपनी
आदिम मूल
प्रवृत्तियों
का फिर से
दावेदार बनता
है। उसका फिर
से नया जन्म
होता है, पुनर्जन्म
होता है।
उसमें एक बचपन
घटता है।
तुम्हारा
शरीर और मन
पुराना हो
सकता है लेकिन
तुम्हारी
चेतना, शरीर
और मन के
बन्धनों से
मुक्त हो जाती
है। तुम्हारा
एक अतीत है और
तुम्हारे पास
बहुत से
पुराने अनुभव
भी होंगे
लेकिन फिर वे
तुम्हारे लिए
बोझ नहीं बनते।
तुम उन्हें
उठाकर एक तरफ
रख देते हो।
जब आवश्यकता
होती है, तुम
उनका प्रयोग
कर लेते हो।
अन्यथा चौबीस
घंटे तुम उनको
सिर पर निरंतर
लादे घूमते
नहीं, यही
है वह मुक्ति :
यह तुम्हें
अस्तित्व से
जीवन से
पुष्पों और
प्रेम से
मुक्त नहीं करती,
यह तुम्हें
मुक्त करती है
तुम्हारे
अतीत से।
वास्तव में
तुम जितने
अधिक मुक्त
होते हो, तुम
उतने ही अधिक
परमात्मा के
प्रेम में
डूबते हो। तुम
जितने अधिक
मुक्त होते हो
तुम उतने अधिक
प्रेम करने और
उत्सव आनंद
मनाने में
समर्थ होते हो।
इसलिए
मुझसे यह पूछो
ही मत, किसने
जन्म दिया
बाउलों को।
ऐसे लोगों को
कोई भी जन्म
देने वाला
होता नहीं।
मेरा पूरा जोर
स्वाभाविकता
और सहजता पर
है। वास्तव
में आइंस्टीन
के सापेक्षवाद
के सिद्धान्त
के लिए आइस्टीन
जैसे व्यक्ति
की ही जरूरत
होती है। बिना
उस जैसे
व्यक्ति के
ऐसे
सिद्धान्तों
का जन्म हो ही
नहीं सकता, बिना उस
जैसे व्यक्ति
के ऐसे
सिद्धान्त
अस्तित्व में
होते ही नहीं।
सापेक्षवाद
जैसे जटिल
सिद्धान्त के
लिए एक बहुत
अधिक जटिल और
सूक्ष्म मन की
आवश्यकता होती
है।
बाउल
कोई
सिद्धान्त
नहीं होते। वे
बस कहते हैं—’‘ तुम्हें
जिन सब चीजों
की जरूरत है
वे सब कुछ
तुम्हारे पास
पहले से ही
हैं।’’ यह
प्रश्न बहुत
होशियार बनने
का नहीं है, यह प्रश्न
तो बस सरल और
सहज बनने का
है। बाउल बनने
के लिए किसी
प्रतिभा की
कोई जरूरत नहीं
है। यही इसका
सौंदर्य है।
कुशाग्र
बुद्धि होने
की कोई जरूरत
नहीं है। एक
बच्चा बनने के
लिए किसी
बुद्धि की
जरूरत होती ही
नहीं। संत और
बेवकूफ सभी
बच्चे के रूप
में ही जन्म लेते
हैं। इसके
किसी प्रतिभा
की कोई जरूरत
नहीं होती।
बचपना, प्रत्येक
व्यक्ति का बस
सहज स्वभाव है।
बाउल
बनने के लिए
कुछ भी नहीं
चाहिए।
वास्तव में
जिस क्षण, जब
तुम्हें किसी
चीज की जरूरत
नहीं होती, तुम बाउल बन
जाते हो। जिस
क्षण तुम
भारमुक्त और
भारहीन होते
हो और तुम
अपने पास कोई
भी चीज नहीं
रखते, तुम्हारा
कोई अतीत नहीं
होता, तुम
एक बाउल होते
हो। नहीं इस
तरह की चीजें
और इस तरह के
व्यक्ति कभी
पैदा नहीं किए
जाते। कोई भी
व्यक्ति
उन्हें गढ़ता
नहीं, वे
तो स्वयं से
एक घटना की
तरह घटते हैं,
वे बस होते
हैं। वे
प्रकृति के एक
भाग हैं।
दूसरा
प्रश्न :
प्यारे
ओशो कई बार
मैं आपके
शब्दों को समझ
नहीं याता, क्योंकि
आपके शब्दों
की ध्वनि झरने
की भांति मेरे
ऊपर झरती और बरसती
है। आपकी
ध्वनि ऊर्जा
मुझ पर आधात करती
हुई पूरी तरह
मेरे अंदर
मुझे भर देती
है, मैं
अपने
मेरुदण्ड में
एक धक्के की
भाति एक
उत्तेजन, कंम्पनों
और तरंगों का अनुभव
करता हूं!
क्या आपके
शब्दों के
अर्थ के लिए
मुझे सावधानी
से सजग बनना
चाहिए।
ऐसी स्थिति
में शब्दों के
अर्थ के
सम्बंध में तुम्हें
सावधान बनने
की कोई जरूरत
नहीं है, यह एक अवरोध
ही बनेगी। यदि
तुम मेरे
शब्दों की
ध्वनि के साथ
लयबद्ध होने
का अनुभव करते
हो, तो वही
उसका अर्थ है।
यदि तुम महसूस
करते हो कि
तुम नूतन
ऊर्जा में सान
कर रहे हो और
यदि तुम्हें
रोमांच, कम्पन
और स्पंदन का
एक नया अनुभव
हो रहा है, जिसे
तुमने पहले
कभी जाना नहीं,
और यदि तुम
अपने
अस्तित्व में
एक नए तरह के
आयाम को उठता
हुआ अनुभव कर
रहे हो, और
वह मेरे
शब्दों की
ध्वनि के कारण
है तो मेरे
बारे में भी
सभी कुछ भूल
जाओ। तब कुछ
और की कोई
आवश्यकता ही
नहीं, तुम
पहले ही उनका
अर्थ पा गए।
उस
ध्वनि के
प्रपात में
खान करना ही
उसका अर्थ है, मेरुदण्ड
में वह सिहरन
और कम्पन ही
उसका अर्थ है,
वे स्पंदन
और तरंगें जो
तुम्हें ताजा
बना रही हैं, वही उसका
अर्थ है। तब
शब्दों के
सामान्य अर्थ
के बारे में
फिक्र करने की
कोई जरूरत ही
नहीं। तब तुम
उसका गहन अर्थ
पा रहे हो, तब
तुम अर्थ के
एक उच्चतम
शिखर पर पहुंच
रहे हो। तब
तुम वास्तव
में शीशी को
नहीं, उसमें
रखे रस को
प्राप्त कर
रहे हो। मेरे
शब्दों का
अर्थ तो, बस
उस शीशी में
रखा सार तत्व
है।
यदि
ऐसा तुम्हें
घट रहा है, तो मेरे
शब्द फिर
तुम्हारे लिए
शब्द ही नहीं
रह गए वे
अस्तित्वगत
बन गए हैं। तब
वे जीवंत हैं
और एक
हस्तांतरण बन
गए हैं। तब
मेरी और
तुम्हारी
ऊर्जा के बीच
कोई चीज घट रही
है। तब वहां
कुछ ऐसी चीज
हो रही है
जिसे बाउल ' प्रेम ' कहते
हैं।
उसे
होने दो।
शब्दों और
उनके अर्थों
के बारे में
तुम सब कुछ
भूल ही जाओ। इनको
तुम उन बेवकूफ
लोगों के लिए
छोड़ दो, जो केवल
शब्दों का
संग्रह करते
हैं और कभी
उनके सारतत्व
के सम्पर्क
में नहीं आते।
शब्द तो ठीक
बाहर के खोलों
जैसे हैं, उनके
पीछे छिपा हुआ
मैं तुम्हें
एक महान संदेश
भेज रहा हूं।
ये संदेश
बुद्धि से
नहीं समझे जा
सकते, सन्देशों
में छिपा
रहस्य
तुम्हें अपने
पूरे अस्तित्व
से खोलना होगा।
यह जो कुछ घट
रहा है—’‘ यह
सिहरन, कम्पन,
स्पंदन और
एक नई ताजा
ऊर्जा का
बरसना, यह
सभी कुछ
तुम्हारे
अस्तित्व
द्वारा उसी संदेश
के रहस्य की
गुत्थी को
सुलझाने जैसा
ही है। यही
सच्चा श्रवण
या सम्यक
श्रवण है। यही
है वास्तव में
मेरे
सान्निध्य
में मेरे साथ
होकर रहना, मेरी
उपस्थिति में
बस ' होना‘ भर।‘'
एक बार
मैं अपने
मित्र के साथ
ठहरा हुआ था।
उसके बगीचे
में एक बहुत
बडा पिंजरा था, और उस
पिंजरे में
उसके पास एक
गरुड़ था। वह
मुझे पिंजरे
के पास ले गया
और कहा—’‘ देखिए!
कितना सुंदर
गरुड़ पक्षी है?
गरुड
वास्तव में
बहुत सुंदर था,
लेकिन
मैंने उसके
लिए हृदय में
एक पीड़ा महसूस
की।’’
मैंने
अपने मित्र से
कहा—’‘ यह
असली गरुड़
पक्षी नहीं है।’’
उसने
कहा—’‘ आखिर
आपके कहने का
मतलब क्या है?
यह असली
गरुड़ है। क्या
आप गरुड़ पक्षी
को पहचानते
नहीं?''
मैंने
कहा—’‘ मैं
उन्हें भली
भांति जानता
हूं लेकिन
मैंने उन्हें
आकाश में
स्तवंत्र हवा
के विरुद्ध, ऊंचे स्वर्ग
की ओर उड़ते
हुए ही जाना
है। जिन्हें
मैंने जाना है
वे लगभग इस
संसार के जैसे
थे ही नही, वे
अपने भार का
संतुलन साधे
स्वतंत्र
मुक्ताकाश
के गहरे प्रेम
में जैसे बह
रहे थे। मैंने
उन्हें परम
स्वतंत्रता
से सिर्फ उड़ते
ही देखा है।
यह गरुड़ तो
गरुड़ ही है
नहीं।
क्योंकि
पिंजरे में
बंद गरुड़ के
पास खुला आकाश
कहां है और
बिना स्वर्ग
जैसी
ऊंचाइयों पर
बिना संतुलन
साधे
स्वतंत्रता
से हवा में
उड़ता हुआ यदि
गरुड़ न हो, तो वह
असली गरुड़
होता ही नहीं।
उसकी वह
पृष्ठभूमि
कहां है
पिंजरे में—मैं
कहता हूं कि
यह उसकी आकृति
भर है।’’
पिंजरे
में बंद गरुड़
का असलीपन तो
नष्ट हो गया।
तुम पिंजरे
में असली गरुड़
को कैद कर ही
नहीं सकते, क्योंकि
असली गरुड़ तो
अत्यधिक
स्वतंत्रता के
साथ रहता है।
इस पिंजरे में
वह
स्वतंत्रता
कहां है? इसकी
आत्मा तो जैसे
है ही नहीं।
सारभूत
अस्तित्व तो
लुप्त हो गया,
जो यहां रह
गया वह तो
असार है। यह
तो जैसे एक
मृत गरुड़ है
मृत गरुड़ से
भी कहीं अधिक
मृत और असहाय।
इसे पिंजरे से
मुक्त करने
इसे सच्चा
गरुड़ बनने का
अवसर दो।’’
जब मैं
तुमसे बातचीत
करता हूं तो
मेरे शब्द गरुड़
के पिंजरे
जैसे हैं, मेरे
शब्द जैसे एक
कैद में हैं।
यदि तुम
वास्तव में
मुझे सुनते हो,
तुम शब्दों
के पिंजरे में
से उसके
सारभूत असली
गरुड़ को मुक्त
कर दोगे।
यह जो
घट रहा है...... .यह
रोमांच।
तुम्हें
स्वतंत्रता
मिल रही है, तुम गरुड़
बनकर ऊंचे और
ऊंचे चेतना के
शिखर पर पहुंचो।
तुमने पृथ्वी
बहुत दूर छोड़
दी है। तुम
उसके बारे में
सब कुछ भूल
चुके हो। जो
साधारण था, वह पीछे छूट
गया। खोल या
पिंजरा छोड़
दिया तुमने और
अब पूरा आकाश
तुम्हारे
सामने खुला है,
तुम, तुम्हारे
पंख और यह
आकाश....... और इसका
कोई अंत ही
नही है। अब तो
शाश्वत
यात्रा हो
चुकी है।
शब्दों
और उनके
अर्थों के
बारे में सब
कुछ भूल ही
जाओ, अन्यथा
पिंजरे से
तुम्हारा
सम्बंध अधिक
रहेगा और तुम
स्वयं अपने ही
अंदर उस गरुड़
को मुक्त करने
में समर्थ न
हो सकोगे।
तीसरा
प्रश्न :
प्यारे
ओशो! प्रत्येक
बार मैने किस?ई व्यक्ति
से प्रेम किया
और उसके बाद
उसे दफन कर
दिया
मैने पाया कि
वह प्रेम जैसा
कुछ था ही
नहीं वह प्रेम
के नाम पर कुछ
और ही चीज थी इस
तरह अब मुझे
प्रेम पर कोई
विश्वास नहीं
रहा मैं यह
विश्वास नहीं
कर सकता कि हम
जैसे है,
वैसे प्रेम भी
कर सकते हैं।
प्रश्नकर्त्ता
कह रहा है कि
और ठीक ही
कहता है वह कि
जब भी वह
प्रेम में पड़ा
है उसने प्रेम
को नकली
प्रदर्शन या
दिखावा भर ही
पाया है और वह
प्रेम पर अपनी
आस्था खो बैठा
है।
इसका
पहला भाग तो
पूरी तरह ठीक
है, यदि
तुम गहराई से
निरीक्षण करो
तो पाओगे, कि
प्रेम के पीछे
हमेशा ही वह
कुछ झूठ या
नकली चीज छिपा
रहा है। लेकिन
नकली चीज का
भी अस्तित्व
केवल तभी हो सकता
है क्योंकि
असली सिक्के
भी हैं। यदि
वहां असली
सिक्के न हों,
तो नकली
सिक्के भी
कैसे अपना
अस्तित्व
बनाये रख सकते
हैं? कभी—कभी
यह अधिकार
जमाने की
इच्छा होती है,
जो प्रेम के
पीछे अपने को
छिपाती है कभी
यह वासना और
कभी—कभी यह
ईर्ष्या जैसी
कुछ और चीज
होती है।
लेकिन
वे उसे प्रेम
के पीछे क्यों
छिपाते हैं? क्योंकि
वे प्रेम को
असली सिक्के
की तरह महसूस
करते हैं, और
तुम उसे पीछे
छिपा सकते हो,
बहाने बना
सकते हो, क्योंकि
तुम प्रेम के
पीछे
सुरक्षित बने
रह सकते हो।
जब भी तुम
अपने को कहीं
भी छिपाते हो,
तो इससे यही
प्रकट होता है
कि कहीं स्थान
सुरक्षित है
और वह
तुम्हारे
चारों ओर एक
कवच बन सकता
है।
प्रत्येक
चीज प्रेम के
पीछे ही क्यों
छिपना चाहती
है? क्योंकि
संसार में
प्रेम ही सबसे
बड़ी सुरक्षा
है, वही
संसार की सबसे
बड़ी
वास्तविकता
है और वही ऊर्जा
भी है। इसके
सिवा
प्रत्येक चीज
नकली है केवल
प्रेम ही
सच्चा और
प्रामाणिक है।
वह सब कुछ जो
प्रेम नहीं है,
नकली है और
कुछ भी तुम कर
रहे हो, वह
प्रेम न होकर
मात्र छीजन है।
वह सब कुछ जो
प्रेम है, वही
यथार्थ
वास्तविकता
है और प्रेम
के रास्ते में
तुम जो कुछ भी
करते हो, उससे
तुम्हारा
अस्तित्व
विकसित होता
है, वह
तुम्हें अधिक
विश्वसनीयता
देता है, और
वह कहीं अधिक
प्रामाणिक
बनाता है। इसे
जानकर ही
प्रत्येक चीज
अपने को प्रेम
के पीछे छिपाती
हैं, क्योंकि
प्रेम
सुरक्षा दे
सकता है।
प्रेम इतना
अधिक सुंदर है
कि कुरूप
चीजें भी उसके
पीछे छिप सकती
हैं और सुंदर
होने का बहाना
बना सकती हैं।
मैं
शेपर्ड की एक
पुस्तक बियान्ड
सेक्स थैरेपी
(सेक्स उपचार
के पार) पढ़ रहा
था। उसमें
इससे
सम्बंधित वह
एक प्रसंग का
जिक्र करता है।
वह एक
युवा स्त्री
के प्रेम में
पड़ गया था।
कुछ मित्र
उससे मिलने के
लिए आए लेकिन
वह पूरे समय
उस स्त्री के
साथ बातचीत
करता हुआ उसके
ही साथ बना
रहा, जैसे
मानो मित्रों
में उसकी कोई
दिलचस्पी ही न
हो। उन्होंने
कुछ अपमान का
अनुभव करते
हुए उस स्त्री
से कहा—’‘ हम
आपकी अपेक्षा
शेपर्ड को
अधिक अच्छी
तरह से जानते
हैं। यह कई
स्त्रियों के
साथ प्रेम
करता रहा है, एक स्त्री
जाती थी और
दूसरी आती थी।
इसलिए स्मरण
रखियेगा कि
देर—सबेर यह
किसी दूसरी
स्त्री में
दिलचस्पी लेने
लगेगा, तब
आप क्या
करेंगी?''
उस
स्त्री ने कहा—’‘ मैं
ईर्ष्या का
अनुभव करूंगी,
लेकिन वह
मेरी अपनी
समस्या होगी,
लेकिन मैं
यह चाहती हूं
कि यह मेरा
आदमी हर तरह
के प्रेम को
जाने, अपने
मरने से पूर्व,
जो कुछ भी
सम्भव है, वह
सभी कुछ जाने।
मैं यदि
ईर्ष्या भी
करूंगी तो वह
मेरी अपनी समस्या
है। उसे मुझे
सुलझाना होगा
और उससे बाहर
आना होगा।
उससे उनका कुछ
भी लेना—देना
नहीं होगा।
जहां तक उनका
सम्बंध
है, मेरी यही
इच्छा है कि
उन्हें सब कुछ
जानना चाहिए
जो वह मृत्यु
से पहले जानना
चाहते हैं, क्योंकि एक
बार जो जाता
है वह बस
हमेशा के लिए ही
चला जाता है।
मैं चाहती हूं
कि जितना भी
सम्भव हो, वह
उतनी ही अधिक
अनुभव की
सम्पदा लेकर
जीये। यदि
ईर्ष्या जैसी
या अन्य जो भी
समस्याएं आती
हैं, तब वे
मेरी अपनी
समस्याएं
होंगी।’’
यही है
वह, जिसे
प्रेम कहते
हैं। वह प्रेम
और ईर्ष्या के
बीच का अंदर
भली भांति
जानती है। इस
बारे में उसे
कोई भ्रम नहीं
है। ईर्ष्या
उसके प्रेम के
पीछे छिप नहीं
सकती, वह
प्रेम बनने का
बहाना नहीं
बना सकती।
इसलिए
पहली चीज तो
ठीक है, प्रश्नकर्त्ता
पूरी तरह ठीक
है।’’ प्रत्येक
बार मैंने
किसी से प्रेम
किया और बाद
में उसे दफन
कर दिया, मैंने
पाया कि वह
प्रेम था ही
नहीं। वह कुछ
और ही था....... '' यह
पूरी तरह ठीक
और सत्य है.......'' प्रेम के
नाम पर इस तरह
मेरी अब कोई
आस्था ही नहीं
रही...... .यही
गलत है
क्योंकि
तुमने प्रेम
को अभी तक जाना
ही नहीं। तुम
उस प्रेम पर
आस्था कैसे खो
सकते हो, जो
तुमने अभी
जाना ही नहीं?
तुम
ईर्ष्या पर से
अपना विश्वास
खो सकते हो, तुम अपने
अधिकार जमाने
और पकड पर
विश्वास खो सकते
हो, तुम
अपने क्रोध और
अपनी वासना पर
विश्वास खो सकते
हो, लेकिन
तुमने अभी तक
उस सच्चे
प्रेम का
स्वाद पाया ही
नहीं, फिर
तुम कैसे उस
पर विश्वास खो
सकते हो? विश्वास
खोने और आस्था
पाने के लिए
कम से कम
प्रेम का कुछ
अनुभव होना तो
बहुत आवश्यक
है और तुम अभी
तक ऐसे से
होकर नहीं गुजरे
हो।
अपने
अंदर थोड़ी सी
खुदाई और करो
और फिर तुम छांटने
में समर्थ हो
जाओगे कि
ईर्ष्या क्या
होती है? फिर तुम
जानोगे किसी
पर अधिकार
जमाना या मालकियत
क्या होती है।
यह अच्छा है
कि तुम विकसित
हो रहे हो।
इसी तरह से
प्रत्येक
व्यक्ति को
विकसित होना है।
शुरू में हर
चीज मिली हुई
गड्डमड्ड
होती है जैसे
सोने की धूल
में मिट्टी और
कबाड़ मिला
हुआ हो। तब उस
सोने की धूल
को कोई
व्यक्ति आग पर
जलाता है, उसमें
जो कुछ सोना
नहीं है, वह
सब कुछ जल जाता
है और केवल
शुद्ध स्वर्ण
ही निकल कर आग
के बाहर आता
है। होश और
चेतना ही वह
अग्नि है, प्रेम
ही वह कुंदन
या शुद्ध
स्वर्ण है, ईर्ष्या, मालकियत, घृणा, क्रोध
और वासना ही
वह
अशुद्धियां
हैं। अब तुम
अधिक
होशपूर्ण बन
रहे हो। अब
तुम देख रहे
कि ईर्ष्या
क्या है और
तुम यह भी देख
सकते हो कि यह
प्रेम नहीं है।
तुमने आधी
लड़ाई तो जीत
ली, पचास
प्रतिशत लड़ाई
तो पूरी हो गई।
अब तुम
ईर्ष्या को
पहचान सकते हो।
लेकिन अभी तक
तुमने यह नहीं
जाना कि प्रेम
क्या होता है।
तुम ठीक
रास्ते पर चल
रहे हो। लेकिन
निराश मत होओ,
न अपना साहस
खोओ और न
प्रेम पर से
अपनी आस्था, क्योंकि देर—सवेर
तुम जानने में
जरूर समर्थ
होगे कि प्रेम
क्या है। तुम
धीमे— धीमे
अपने घर के
निकट उग रहे
हो।
इतने
जल्दबाज मत
बनो। सच्चाई
अपना घूंघट
स्वयं उघारती
है। सत्य
प्रकट होता ही
है। वह एक
दैवी प्रेरणा
है। तुम बस
उसे ढूंढते
खोजते और
तलाशते रहो।
इसमें बहुत सी
भूलें भी
होंगी। लेकिन
विकसित होने
के लिए अन्य
कोई दूसरा रास्ता
है ही नहीं।
जांच करो और
गलियां करो, केवल यही
एक मार्ग है।
कम से कम
गलियां हों और
अधिक से अधिक
शुद्धता उपलब्ध
होती रहे। बीच
में कहीं रुको
मत।
मैंने
सुना है:
मुल्ला
नसरुद्दीन को
बैंक में
नौकरी मिल गई।
खजांची ने
उसकी ओर सौ
रुपयों के
नोटों की एक गड्डी
उछालते हुए
कहा—’‘ इन्हें
चैक कर गिनो
कि यह पूरे सौ
ही हैं।’’
मुल्ला
ने गिनना शुरू
किया। उसने
पचपन तक गिने, वे ठीक थे,
वह गिनता
गया...... .छप्पन, सत्तावन और
फिर उसने उस
गड्डी को
ड्राअर में फेंकते
हुए अपने आगे
बैठे व्यक्ति
से कहा—’‘ यहां
तक जब यह
गिनती में ठीक
निकले, तो
शायद आगे भी
यह ठीक ही
होंगे।’’
इतनी
शीघ्रता मत
करो। यदि
तुम्हारा
अनुभव अभी तक
गलत रहा तो यह
मत सोचो कि
पूरे रास्ते
भर वह गलत ही
रहेगा। सौ
डिग्री पर.......
अचानक ठीक
दिशा मिल जाती
है। एक
व्यक्ति को
सभी
अशुद्धियों
तक गहरे पहुंचना
होता है।
लेकिन तुम सही
रास्ते पर चल
रहे हो, इसलिए
तुम्हें खुश
होना चाहिए।
और
प्रेम की गहरी
चाह के कारण
ही तुम यह
पहचानने में
समर्थ हो सके
कि प्रेम में
क्या नहीं
होता। अन्यथा
तुम इसे
पहचानते कैसे? यह चीज
स्वर्ण नहीं
है, तुम
उसे तभी तो
पहचान सकते हो,
जब स्वर्ण
का अस्तित्व
होता है।
अन्यथा यह जानने
का वह कौन सा
मापदण्ड है कि
वह प्रेम नहीं
है। तुममें
कुछ ऐसी समझ
अंतर्निहित
है जो अभी तक
सचेतन नहीं है,
वह मूक है, अभी गहरे
में छिपी है।
समझ या ' अंडरस्टैंडिंग
' का यही
अर्थ होता है
कि जो अंदर या
नीचे खड़ा हुआ
हो। तुम्हारे
पास एक मूक
अंतर्निहित
समझ है, तुम्हारे
गहरे में कोई
ऐसी
अंतर्धारा चल
रही है जो यह
जानती है कि
प्रेम क्या
होता है। यही
कारण है कि
तुम उसे खोज
सकते हो—कि यह
प्रेम नहीं है,
और यह प्रेम
है। अच्छा है,
तुम ठीक
रास्ते पर चल
रहे हो। बड़े
चलो, तुम्हें
पूरे रास्ते,
आखिर तक
जाना है।
प्रेम
की सम्भावना
के कारण ही
तुम ईर्ष्या, मालकियत
क्रोध, वासना
और अपनी
कामनाओं को
तुष्ट करने की
आकाक्षा के
प्रति सजग बने
और कृतज्ञता
के साथ एक
हजार एक चीजों
के प्रति भी तुम्हारी
सजगता बढ़ी है।
लेकिन
तुम्हारा
सबसे
महत्त्वपूर्ण
केंद्रीय भाग,
प्रेम की
मौन समझ पर ही
आश्रित है।
सत्य की
प्रवृत्ति
स्वयं अपने
रहस्य प्रकट करने
की होती है।
मैं कुछ
प्रसंगों के
बाबत चर्चा
करना चाहता
हूं।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी की
शवयात्रा के जुलूस
की तैयारियां
की जा रही थीं।
उसने अवसर के
अनुकूल गहरे
काले रंग के
वस्त्र पहने
थे। शवयात्रा
के निर्देशक
ने आदरपूर्वक
मुल्ला के कान
में
फुसफुसाते
हुए कहा—’‘ और आप सबसे आगे
चलने वाली कार
में अपनी सास
के साथ
बैठेंगे।’’
मुल्ला
ने त्यौरी
चढ़ाते हुए कहा—’‘ मैं और
अपनी सास के
साथ?''
'' हां!
निश्चित ही
आपको उनके साथ
ही बैठना
चाहिए।’’
'' क्या यह
जरूरी है?''
'' हां!
यह बहुत
आवश्यक है
अपने पति और
अपनी मां से
बिछुड़ कर जाने
वाली मृतात्मा
को दो सबसे
नजदीकी
रिश्तेदारों
को एक साथ बैठना
चाहिए।’’ मुल्ला
नसरुद्दीन ने
अपनी सास के
लम्बे लटके हुए
गम्भीर चेहरे
की ओर देखते
हुए कहा—’‘ फिर
ठीक है। लेकिन
मैं पहले ही
से ठीक अभी यह
कह देना जरूरी
समझता हूं कि
तुम मेरे इस
अवसर के आनंद
को बरबाद करने
जा रहे हो।’’
तुम्हारी
शोक प्रकट
करने वाली
काली पोशाक
सत्य को छिपा
नहीं सकती, तुम्हारे
आंसू भी सत्य
को नहीं छिपा
सकते। अपने
गहरे में
मुल्ला खुश हो
रहा है और अब
वह स्वतंत्र
हुआ अब उसे
फिर उसी
स्त्री के
बंधन में न
फंसना पडेगा।
केवल ऊपर ही
ऊपर वह पत्नी
से बिछुड़ने के
दुख का
प्रदर्शन कर
रहा है।
सत्य
की अपने को
स्वयं प्रगट
करने की
प्रवृत्ति
होती है। यदि
तुम बस थोड़े से
सजग रहो तो
तुम हमेशा जान
लोगे कि सत्य
क्या है। सत्य
को सीखने की
कोई जरूरत
नहीं है, सिर्फ उस
व्यक्ति को
थोड़ा सा सजग
होने की आवश्यकता
है, और तब
सत्य स्वयं
सामने आ जाता
है। उसका
प्रकट होना
सत्य में
अंतर्निहित
होता है। और
जब सत्य सामने
आता है तो उसी
के साथ एक
हजार एक झूठ
भी खुलते हैं।
वे सभी झूठ, सच होने के
बहाने तभी तक
बन सकते थे, जब तक सत्य
जाना नहीं गया
था।
एक बार
ऐसा हुआ :
मुल्ला नसरुद्दीन
का मित्र
अब्दुल रहमान
बहुत बीमार पड़ा।
प्रत्येक
व्यक्ति उसकी
बीमारी के
बारे में चिंतित
था।
वास्तव
में वह बहुत
अधिक बीमार था
और उसके मित्र
उसे बारी—बारी
से देखने आते
थे जिससे वह
उसे हिम्मत
बंधाते रहे।
रात जब
मुल्ला उसे
देखने गया तो
उसे पहले ही से
सावधान किया
गया कि अब्दुल
रहमान
क्योंकि बहुत अधिक
अवसाद में है, इसलिए
उसे
हतोत्साहित
करने जैसी
उससे बात न कही
जाए।
नसरुद्दीन
बातचीत बहुत
खूबसूरती से
कर रहा था और
उनकी सुनाई कई
कहानियों पर
रहमान मुंह दबाकर
हंसा और
मुस्कराया भी।
लेकिन अचानक
मुल्ला रुका
और जोरों से
अपना सिर
हिलाने लगा।
रहमान
ने उत्सुकता
से पूछा—’‘ मुल्ला! यह
तुम क्या कह
रहे हो?'' आखिर
मामला क्या है?
नसरुद्दीन
ने जवाव दिया—’‘ मैं सोच
रहा था इस घर
की मोड़ भरी
सीढ़ियों से होकर
पवित्र
पैगम्बर के
नाम पर वे लोग
जनाजे को आखिर
कैसे निकालते
होंगे?''
अब ऊपर
से तो वह उस
व्यक्ति को
साहस बंधा रहा
है, लेकिन
अपने अंदर
गहरे में वह
भली भांति यह
जानता है कि
वह मरने जा
रहा है और
उसके अंदर यह
विचार चल रहा
है कि जब
सीढ़ियों में
इतने अधिक मोड़
हैं तो लोग
उसके जनाजे को
नीचे से ऊपर
कैसे ले जाएंगे?''
सत्य
की यही
प्रवृत्ति है
कि वह स्वयं
प्रकट हो जाता
है। बस थोड़ा
सा सजग बनो और
तुम्हारा
हृदय तुम्हें
रास्ता
दिखलायेगा।
और तब प्रेम
के पीछे कुछ
भी छिपाने में
तुम समर्थ न
हो सकोगे।
प्रेम के पीछे
जो तुम्हें
जीवंत बनाये
हुए है।
विश्वास खोना
ही है। चीजें
छिपाई जा सकती
हैं, क्योंकि
तुम मूच्छिर्त
हो। यह कुसूर
प्रेम का न
होकर
तुम्हारी
मूर्च्छा का
है। इसलिए
प्रेम पर
अविश्वास मत
करो। प्रेम पर
आस्था मत खाओ,
क्योंकि
प्रेम ने
तुम्हारे साथ
कुछ भी नहीं किया
है। इस सभी के
बावजूद
वास्तव में यह
प्रेम ही है
जो तुम्हें
जीवंत बनाए
हुए हैं। मैं
इसे पुन—
दोहराना
चाहता हूं तुम
जो भी हो, उसके
बावजूद भी वह
प्रेम ही है
तो अपनी
मूर्च्छा पर
खोओ। यदि तुम
होशपूर्ण हो
तो तुम प्रेम
के पीछे कुछ
भी नहीं छिपा
सकते। तब कोई
भी नकली चीज
तुम्हें धोखा
नहीं दे सकती।
तुम कहते
हो—’‘ प्रेम
के नाम पर वह
हमेशा कुछ और
ही चीज होती है
और इस तरह
प्रेम पर मेरी
कोई आस्था
नहीं रह गई है।’’
यह
व्यर्थ की बात
है। यह तर्क
ही गलत है।
तुम अभी तक
प्रेम के
सम्पर्क में
ही नहीं आये, फिर तुम
प्रेम में
आस्था कैसे खो
सकते हो?
कुछ और
अधिक खुदाई
करो, उसके
अंत तक जाओ
तुम अपने अंदर
जितने अधिक
गहराई में
जाओगे, तुम
शुद्धतम
कुन्दन पाओगे।
यह ठीक
एक कुंआ खोदना
जैसा है तुम
कुंए के लिए खुदाई
करते हो, पहले
तुम्हें केवल
पत्थर, चट्टानें
और कूड़ा कबाड
मिलता है।
उसके बाद अधिक
शुद्ध मुलायम
मिट्टी की
पर्त मिलती है,
उसके बाद
गीली मिट्टी,
उसके भी
नीचे कीचड़ भरा
गन्दा पानी और
तब सबसे आखीर
में शुद्धतम
जल मिलता है।
तुम जितनी
अधिक गहराई
में जाते हो, उतने ही
शुद्धतम जल के
तुम्हें झरने
और स्रोत मिलते
हैं। और ऐसा
ही तुम्हारे
हृदय के अंदर
भी है। ऊपरी
सतह पर तो
केवल, धूल,
धमास और चट्टाने
हैं, तब
सूखी जमीन फिर
गीली मिट्टी
आती है—लेकिन
अपनी आस्था मत
खोना, तब
कीचड़ भरा जल
आता है तब भी
आस्था मत खोना,
तुम अपने घर
के निकट आते
जा रहे हो, और
तभी शुद्ध जल
मिल जाता है।
'' मैं
कभी यह
विश्वास कर ही
नहीं सकता कि
हम जैसे जो
हैं, वैसे
ही बने रहकर कभी
प्रेम भी कर
सकते हैं।’’
तुम्हारा
यह कहना ठीक
है कि तुम जिस
तरह के हो, वैसे बने
हुए तुम प्रेम
नहीं कर सकते।
लेकिन तुम
जैसे हो, उसी
रास्ते पर बने
रहने का चुनाव
करने की जरूरत
क्या है, तुम्हें
अपने ढांचे से
बांधे रहने की
जरूरत क्या है?
तुम उसे बदल
सकते हो। तुम
उस ढांचे को
फिर से नया
बना सकते हो।
मैं
यहां यही सभी
कुछ तो कह रहा
हूं हम लोग एक
साथ मिलाकर जो
कुछ भी करने
का प्रयास कर
रहे हैं, वह तुम्हारा
पुनर्निर्माण
ही तो कह रहे
हैं, जिससे
तुम अपना
संयोजन फिर से
करते हुए
प्रामाणिक बन
सकते, जिससे
तुम्हारा
पुराना रूप
नष्ट हो जाए
और नये का
जन्म हो।
यह
सत्य है—तुम
जिस तरह के हो, उसी रूप
में प्रेम
नहीं कर सकते,
लेकिन
प्रेम पर
आस्था खोने का
यह कोई भी
कारण नहीं है।
तुम अपने
अहंकार पर
विश्वास नहीं
खोते, तुम
स्वयं पर से
विश्वास नहीं
खोते। यदि वह '
तुम ' हो,
जो तुम्हें
प्रेम करने से
रोकता है तो
इस अपने ' तुम
' को क्यों
नहीं छोड़ते
तुम? क्योंकि
प्रेम
मूल्यवान है,
इसलिए लाखों
तुमों का भी
प्रेम के एक
क्षण जितना भी
मूल्य नहीं है।
अपने ढांचे को
गिरा कर
पुनर्निर्माण
करो। आकाश को
कह रहे हो कि
तुम हो, यह '
तुम ' और
कुछ भी नहीं
बल्कि एक
पिंजरा है।
तुम अपने जिस '
तुम ' का
अनुभव कर रहे
हो, यह और
कुछ भी नहीं
है, बल्कि
समाज के
द्वारा दिया
गया एक पिंजरा
है। खुले आकाश
को चुनो और
पिंजरे को
तरंत छोड़ दो।
चौथा
प्रश्न :
प्यारे
ओशो! दो
दिन पूर्व मैं
आपके प्रवचन
में पूरा समय
सोता रहा और
उसके समाप्त
होने के समय
आपका एक शब्द ''
केवल अकेला
एक मन '' सुनते
हुए ही मैं
जागा इसलिए अब
मैं क्या करूं?
केवल एक मन के
साथ जियो। यह
संदेश इतना अधिक
स्पष्ट कि
इसमें पूछने
जैसा है ही
क्या? तुम्हारे
ही अस्तित्व
ने तुम्हें एक
महान संदेश दे
है।
कभी—कभी
ऐसा होता है
कि गहरी नींद
के बाद तुम
अपने आrस्तत्व के
गहरे केन्द्र
से संदेश पाते
हो। सुबह उठते
ही अपने मन
में आने वाले
पहले विचार को
सुनने का
प्रयास करो, क्योंकि
नींद से जागते
ही तुम अपने
अस्तित्व के बहुत
निकट होते हो।
जागने के दो
या तीन सेकिंड
में इस बात की
अधिक
सम्भावना
होती है कि तम
अपने अस्तित्व
की गहराई की
कुछ झलक या
संदेश पा सको।
दो या तीन क्षणों
के बाद ही
तुम्हारा
उसके साथ
सम्बंध टूट
जाता है। तुम
फिर से इसी
संसार में
फेंक दिए जाते
हो। लेकिन कभी—कभी
ऐसा भी होता
है और ऐसा
बहुत थोड़े से
लोगों को ही होता
है, कि
मुझे सुनते ही
वे सो जाते
हैं। यहां
भिन्न—भिन्न
तरह के
व्यक्ति हैं।
उदाहरण
के लिए ठीक
अभी शीला गहरी
नींद में है, लेकिन
उसकी नींद
वास्तव में
बहुत सुंदर है,
यह नींद न
होकर एक तरह
के परमानंद की
स्थिति है। वह
केवल परम
विश्राम में
है। मुझे गहरे
में सुनते हुए
वह
तनावग्रस्त
नहीं हो सकती
थी। उसका सारा
तनाव दूर हो
गया, इसिलए
वह विश्राम
में चली गई
अपने
अस्तित्व की
गहरी पर्त में
वह विश्राम कर
रही है। बाहर
से देखने वाले
सभी लोगों को
वह गहरी नींद
में सोती हुई
दिखेगी। जब वह
जागेगी तो वह
स्वयं नहीं
समझ पाएगी कि आखिर
हुआ क्या, क्योंकि
उसे भी वह
नींद ही दिखाई
देगी, यह
नींद नहीं है
यह विशिष्ट
दशा है योग
में हम इसे
तंद्रा कहते
हैं। यह
जागृति और
निद्रा के
बिना
स्वप्नों की
मध्य की
स्थिति है।
इसलिए
गहरी निद्रा
और जागरण के
मध्य वहां दो
तल होते हैं।
यदि तुम दोनों
के मध्य की
स्थिति में हो, तो
स्वप्न देखने
की सामान्य
दशा होती है, जब तुम सपने
देखते हो।
या तो
तुम जागे हुए
हो, अथवा
तुम गहरी नींद
में हो, अथवा
तुम स्वप्न
देख रहे हो।
और सपने, जागने
और सोने के
ठीक बीच में
होते हैं। यह
दोनों के बीच
एक गलियारा है।
सामान्य रूप
से होता ही
होता है।
लेकिन
यदि तुम्हारा
ध्यान गहराई
तक जाता है, अथवा
तुम्हारा
प्रेम बहुत
गहरे में जाता
है, तो
तुम्हारी
चेतना में जो
पहला
परिवर्तन घटित
होता है। वह
मध्य की
स्थिति में
होता है और
स्वप्न आना बंद
हो जाता है।
अब यह कहना
बहुत कठिन है
कि यह क्या है।
तुम इसके बारे
में यह सोच
सकते हो कि यह
निद्रा है
अथवा यह जागृति
है। यह दोनों
जैसे साथ—साथ
हैं यह ठीक
दोनों के बीच
का संतुलन है,
यह एक बहुत
संतुलित दशा
है।
तंद्रा
पहली झलक है।
यह सतोरी की
शुरुआत है।
सपने पहले
मिटते हैं। तब
अगले कदम में
नींद भी मिट
जाती है और तब
तीसरे चरण में
जिसे तुम जागृति
कहते हो, वह भी चली
जाती है। और
जब यह तीनों
चीजें
विलुप्त हो
जाती हैं, तब
जो स्थिति
उत्पन्न होती
है उसी को हम
वास्तविक
जागरण कहते
हैं। तब कोई
भी बुद्धत्व
को, या बोध
को उपलब्ध
होता है। तंद्रा
पहला चरण है
सपने विलुप्त
हो रहे .
है।
इसलिए
कभी—कभी ऐसा
होता है कि
लोग यहां सो
जाते हैं, वे परम
आनंद और
विश्राम की
स्थिति में
पहुंच जाते
हैं। इस
स्थिति को
तंद्रा कहा जा
सकता है। सभी
व्यवहारिक
कार्यों के
लिए ये लोग
सोये हुए हैं,
ये लोग मेरे
शब्दों को याद
न रख सकेंगे।
लेकिन जब वे
वापस आते हैं,
तब उन्हें
यह स्मरण आएगा
कि कोई चीज
बहुत गहरे मौन
में घटित हुई
है किसी चीज
का उनकी ऊर्जा
में परिवर्तन
हुआ है। यह
बहुत गहरे
विश्राम की
स्थिति है।
इसी गहन
विश्राम की
स्थिति में
कोई संदेश मिलता
सा लगता है, इसे बहुत सावधानी
से सुनो।
तुम
कहते हो—’‘ दो दिन
पूर्व मैं
आपके प्रवचन
में पूरे समय
सोता रहा, और
उसके समाप्त
होने के समय
आपका केवल एक
शब्द—केवल
अकेला एक ही
मन बचे—सुनते
हुए ही मैं
जागा। उस सुबह
मैं अकेले एक
मन के बाबत ही
चर्चा कर रहा
था।
यह
प्रश्न बहुत
पुराना है। यह
प्रश्न झेन
बोध कथा माला
से सम्बंधित
है। मैं उस
समय केवल एक
ही मन, एक
अकेले मन होने
के बाबत चर्चा
कर रहा था।
तुमने सम्भवत
उसे नहीं सुना
होगा। तुम
तंद्रा में थे
जो कुछ मैं कह
रहा था, उसके
प्रति
सम्मोहित दशा
में थे। लेकिन
मैं तुम्हें
जो कुछ
सम्प्रेषित
करना चाहता था,
वह
सम्प्रेषित
हो गया।
तुम्हारे
अस्तित्व ने
उसे सुना, तुम्हारे
पूरे शरीर के
प्रत्येक रोम—रोम
ने उसे सुना, तुम मुझे
पूरी तरह पी
ही गए जो कुछ
मैं कह रहा था
और वहां जो
मेरी
उपस्थिति थी,
तुमने उसे
अपने में जज्व
कर लिया। और
जब वापस आए तो
जैसे तुम्हें
घनीभूत संदेश
मिला, तुम्हारी
परिधि को अपने
गहरे केंद्र
से जैसे एक
उपहार मिला।
एक अकेला शब्द
है।
'केवल एक ही
मन बचे ' —तुम्हारी
चेतना में
उत्पन्न हुआ।
अब तुम पूछते
हो क्या किया
जाए? बस केवल
अकेला एक ही
मन बचे।
और जब
मैं कहता हूं
केवल अकेला एक
ही मन बचे, तो आखिर
इसका अर्थ
क्या है? वास्तव
में यह कहना
कि चित्त
अकेला एक ही
रहे इसका लगभग
यही अर्थ है—
अमन में रहो
क्योंकि मन का
अस्तित्व
केवल संघर्ष
की ही स्थिति
में होता है।
मन केवल अनेक
होकर जीता है।
जब बहुत से
विचारों की
भीड वहां नहीं
रह जाती, तब
हम उसे केवल
एक अकेला
चित्त कहते
हैं अथवा तुम
उसे अमन कह
सकते हो, क्योंकि
मन विसर्जित
हो चुका है।
मन तो अनेक ही
होते हैं
अकेला एक मन
का अर्थ ही है—
अब जब तुम
अकेले एक हो, एक साथ हो—
अंदर कहीं कोई
संघर्ष नहीं
है। कोई
विभाजन नहीं
है, सारे
शैतान बिदा हो
गए। तुम
अविभाजित बन
गए प्रत्येक
चीज कहीं गहरे
में आपस में
जुड़ गई, लयबद्ध
हो गई एक
दूसरे से आपस
में जुड़ गईं, लयबद्ध हो
गईं, एक
दूसरे से
मिलकर एक
अकेली
आरकेस्ट्रा
की एक धुन रह
गई, तब उसे
ही अमन कहते
हैं।
' अकेला
एक चित्त ' यह शब्द
योग की
परम्परा का है।
अमन का भी यही
अर्थ होता है,
लेकिन यह
दूसरी
परम्परा का
पारभाषिक
शब्द है, जो
झेन की
परम्परा है।
लेकिन दोनों
का एक ही अर्थ
है भीड़ बनकर
भीड़ में मत
रहो, बहुचित
वादी बनकर मत
रहो। केवल
अकेले एक
संयुक्त
चित्त के होकर
रहो।
पांचवां
प्रश्न :
प्यारे
ओशो! मैं
बोधमय आत्म
प्रेम और अहंकार—ग्रस्त
प्रेम के अंतर
को कैसे पहचान
सकता हूं?
अंतर बहुत
सूक्ष्म है, लेकिन
कठिन न होकर
बहुत स्पष्ट
है। सूक्ष्म
अवश्य है, लेकिन
कठिन नहीं हे।
यदि तुम
अहंकार
ग्रस्त हो, तो तुम अपने
लिए अधिक से
अधिक दुख
सृजित करोगे।
तुम्हारे दुख
और पीड़ाए ही
इंगित करेंगी
कि तुम रुग्ण
हो। अहंकारी
बन कर रहना एक
रोग है, यह
आत्मा का
कैंसर है।
अहंकारग्रस्तता
तुम्हें अधिक
से अधिक तनावग्रस्त
बनायेगी, वह
तुम्हें अधिक
से अधिक
घबडाहट देगी
और तुम्हें
किसी भी तरह
विश्राम में
जाने ही नहीं
देगी। वह
तुम्हें
पागलपन की ओर
ले जाएगी।
आत्म
प्रेम, अहंकारग्रस्तता
से ठीक विपरीत
है। आत्म
प्रेम में
अपना ' मैं '
अपना अहम
नहीं होता, केवल प्रेम
होता है।
अहंकारग्रस्त
होने पर वहां
कोई भी प्रेम
नहीं होता, केवल अपनी
वैयक्तिकता
और अपना ही
हित है। आत्म—प्रेम
में तुम अधिक
से अधिक
विश्राममय
होना शुरू हो
जाओगे। एक
व्यक्ति जो
स्वयं से
प्रेम करता है
पूर्णरूपेण
विश्राम मय
होता है। किसी
दूसरे से
प्रेम करने
में थोड़ा सा
तनाव उत्पन्न
हो सकता है, क्योंकि यह
जरूरी नहीं कि
दूसरा
व्यक्ति हमेशा
तुमसे लयबद्ध
होकर रहे।
दूसरे की
स्वयं अपनी
पसंद और उसके
अपने विचार हो
सकते हैं।
दूसरा
व्यक्ति एक
अलग संसार है।
वहां टकराव और
संघर्ष की
पूरी संभावना
है। वहां
तूफान आने और
बिजली गिरने
की पूरी सम्भावना
है, क्योंकि
दूसरे
व्यक्ति का
अपना एक अलग
संसार है।
वहां हमेशा एक
सूक्ष्म
संघर्ष चलता
ही रहता है।
लेकिन जब तुम
स्वयं से
प्रेम करते हो,
वहां अन्य
कोई दूसरा
नहीं होता।
वहां कोई
संघर्ष नहीं
होता वहां
शुद्ध जीवंत मौन
होता है, वहां
अत्यधिक
प्रसन्नता
होती है। तुम
अकेले ही होते
हो, कोई भी
परेशान करने
वाला नहीं
होता। किसी
दूसरे
व्यक्ति की
जरा भी आवश्यकता
नहीं होती। और
मेरे देखे एक
व्यक्ति जो
स्वयं से इतना
गहरा प्रेम
करने में
समर्थ हो जाता
है वह दूसरों
से भी प्रेम
करने में
समर्थ होता है।
यदि तुम स्वयं
से प्रेम नहीं
कर सकते, तो
तुम दूसरों से
प्रेम कैसे कर
सकते हो? पहले
तो इसका अपने
ही निकट आसपास
होना जरूरी है,
पहले तो
इसका स्वयं
में घटना
जरूरी है, तभी
यह दूसरों की
ओर फैलता है।
लोग
दूसरों को
प्रेम करने का
प्रयास करते
हैं, इस
बात के प्रति
सजग हुए बिना,
कि अभी तक
उन्होंने
स्वयं से ही
प्रेम नहीं किया
है। फिर तुम
दूसरों से
कैसे कर सकते
हो प्रेम? जो
कुछ तुम्हारे
पास स्वयं
नहीं है, तुम
उसे दूसरों को
कैसे बांट
सकते हो? तुम
दूसरों को
केवल तभी दे
सकते हो, जब
वह पहले से ही
तुम्हारे पास
स्वयं हो।
इसलिए
प्रेम की ओर
जो सबसे अधिक
बुनियादी और पहला
कदम उठाना
जरूरी है, वह है
स्वयं से
प्रेम करना, लेकिन इसमें
कोई अहम् नहीं
होता। मैं
तुम्हारे लिए
मैं इसे और
स्पष्ट करना
चाहूंगा।
' मैं '
का जन्म
केवल ' तुम '
की तुलना
में ही होता
है।’ मैं ' और तुम का
अस्तित्व एक
दूसरे के साथ
होता है।’ मैं
' केवल दो
आयामों में रह
सकता है। पहला
आयाम है—' मैं
वह हूं ' तुम
_ तुम्हारा
घर, तुम, तुम्हारी
कार, तुम, तुम्हारा धन—'
मैं ‘‘ वह
हूं '। जब
वहां यह ' मैं
' होता है, यह ' मैं
वह हूं ' का
ही ' मैं ' हैं, तुम्हारा
' मैं ' लगभग
एक वस्तु की
भांति होता है।
यह चेतना नहीं
होती, यह
गहरी नींद में
भयानक स्वप्न
देखने जैसी स्थिति
होती है।
तुम्हारी
चेतना नहीं
होती वहां।
तुम
केवल वस्तुओं
की भांति होते
हो, अनेक
वस्तुओं के
बीच एक वस्तु
की भांति, होते
हो, तुम
अपने घर के एक
भाग होते हो, अपने
फर्नीचर अथवा
अपने धन के एक
छोटे से हिस्से
होते हो।
क्या
तुमने इसका
निरीक्षण
किया है? एक व्यक्ति,
जो धन के
बारे में बहुत
अधिक लालची
होता है। धीमे—
धीमे उसमें धन
के बहुत से
गुण प्रकट
होना शुरू हो
जाते हैं। वह
धन मात्र होकर
ही रह जाता है।
वह अपनी आत्मा
खो देता है, उसके पास
कोई आत्मा रह
ही नहीं जाती।
वह घट कर एक
वस्तु जैसा हो
जाता है। यदि
तुम धन से
प्रेम करते हो,
तो तुम धन
जैसे ही बन
जाओगे। यदि
तुम अपने घर
से प्रेम करते
हो, तो
धीमे— धीमे
तुम एक पदार्थ
जैसे बन जाओगे।
तुम जिससे भी
प्रेम करते हो,
तुम वैसे ही
हो जाते हो।
प्रेम एक
रासायनिक
प्रक्रिया है।
कभी भी गलत
चीज से प्रेम
मत करो, क्योंकि
वह तुम्हें
रूपांतरित कर
देगी प्रेम
जैसा
रूपांतरण
करने वाला और
कुछ भी नहीं
है। प्रेम कुछ
ऐसी चीज है जो
तुम्हें ऊंचे
से ऊंचे शिखर
तक पहुंचा
सकती है।
प्रेम कुछ ऐसी
चीज है, जो
तुम्हारे पार
है। धर्म का
पूरा प्रयास
यही है।
तुम्हें
परमात्मा
जैसी कोई चीज
दे दी जाए जिससे
फिर वहां नीचे
गिरने का कोई
मार्ग न बचे।
एक व्यक्ति को
उससे ऊपर उठना
होता है।
तो एक
तरह के ' मैं ' का
अस्तित्व, ' मैं ' वह
हूं जैसा होता
है, और
दूसरी तरह के '
मैं ' का
अस्तित्व—' मैं तू हूं ' जैसा होता
है। जब तुम
किसी व्यक्ति
से प्रेम करते
हो तो तुम्हारे
अंदर एक दूसरी
तरह के ' मैं
' का जन्म
होता है।’ मैं
तू हूं।’ तुम
एक व्यक्ति से
प्रेम करते हो,
तुम वह
व्यक्ति ही बन
जाते हो।
लेकिन ' स्वप्रेम
' के बारे
में मैं क्या
होता है?
वहां कोई
वस्तु नहीं है
और वहां कोई
दूसरा व्यक्ति
' तू ' नहीं
है। मैं
विसर्जित हो
जाता है, क्योंकि
' मैं ' केवल
दो संदर्भों
में रहता है _ ' वह वस्तु ' और दूसरा
व्यक्ति या तू
' मैं ' एक
आकृति है।’ वह वस्तु ' और ' तू ' एक क्षेत्र
की तरह कार्य
करते हैं। जब
यह क्षेत्र
मिट जाता है
तो ' मैं ' भी मिट जाता
है। जब तुम
अकेले छोड़ दिए
जाते हो, तो
बस तुम ही
होते हो, लेकिन
तुम्हारा ' मैं ' तुम्हारे
साथ नहीं होता,
तुम किसी भी
' मैं ' का
अनुभव नहीं
करते। तुम बस
गहरे में होते,
मात्र हो।
सामान्यत हम
कहते हैं’‘ मैं
हूं ' उस
स्थिति में जब
तुम अपने
स्वयं के गहरे
प्रेम में
होते हो, मैं
विसर्जित हो
जाता है। केवल
' होना
मात्र ', शुद्ध
अस्तित्व या
शुद्ध
उपस्थिति
मात्र रह जाती
है। यह स्थिति
तुम्हें
अत्यधिक आनंद
से भर देगी।
यह तुम्हें
उत्सव आनंदमय
बना देगी। तब
वहां इन दोनों
के बीच अंतर
कर पहचानने
में कोई
समस्या नहीं
होगी।
यदि
तुम अधिक से
अधिक कष्ट पा
रहे हो और
दुखी हो तो
समझ लो कि तुम
अहंकार की
यात्रा पर हो।
यदि तुम अधिक
से अधिक शांत, मौन, प्रसन्न
और सभी को साथ
लेकर चल रहे
हो, तो तुम
किसी और ही
यात्रा पर हो,
और वह
यात्रा पथ है—'
स्वप्रेम '
का। यदि तुम
अहंकार की
यात्रा पर हो
तो तुम दूसरों
के लिए विध्वंसात्मक
होंगे
क्योंकि
अहंकार दूसरे
को ' तू ' को
नष्ट करने की
कोशिश करता है।
यदि तुम
स्वप्रेम की
ओर बढ़ रहे हो, तो अहंकार
लुप्त हो
जाएगा। और जब
अहंकार
विसर्जित
होता है तो
तुम दूसरे को
अनुमति देते
हो कि वह अपने '
स्व ' में
जी सके। तुम
उसे पूर्ण
स्वतंत्रता
देते हो। यदि
तुम्हारे
अंदर अंहकार
नहीं है, तो
तुम दूसरे के
लिए जिसे तुम
प्रेम करते हो,
तुम पिंजरा
बनाकर उसमें
बंदी बनाकर
नहीं रख सकते।
तुम दूसरे को
अनुमति देते
हो कि वह एक
गरुड़ पक्षी
बनकर उड़ते हुए
स्वर्ग की
ऊंचाईयों तक
पहुंचे। तुम
दूसरे को
अनुमति देते
हो कि वह
स्वयं अपने
छंद से जी सके,
तुम उसे
परिपूर्ण
स्वतंत्रता
देते हो।
प्रेम
पूरी
स्वतंत्रता
देता है।
प्रेम एक
स्वतंत्रता
ही है।
तुम्हारे लिए
भी
स्वतंत्रता
और तुम्हारे
अपने
प्रेमपात्र
के लिए भी
स्वतंत्रता।
अहंकार एक
बंधन है
तुम्हारे लिए
भी बंधन और बंधन
उसके लिए भी
जो तुम्हारा
शिकार है।
लेकिन अहंकार
तुम्हारे साथ
बहुत गहरी
चालें चल सकता
है। वह बहुत
चतुर है, और उसके
रास्ते बहुत
सूक्ष्म है।
वह स्वप्रेम
में होने का
बहाने बना
सकता है।
मैं
तुम्हें एक
प्रसंग के
बारे में बताना
चाहता हूं।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
जैसे ही उस व्यक्ति
को पहचाना, जो
मेट्रो
रेलमार्ग की
सीढ़ियां चढ़ता
हुआ उसकी ओर
चला आ रहा था, वैसे ही
उसका चेहरा
चमक उठा।
उसने
बहुत
हार्दिकता से
उसकी पीठ पर
ऐसी धौल जमाई
और वह व्यक्ति
नीचे गिर पड़ा।
मुल्ला हर्ष
से चिल्लता
हुआ बोला—’‘ गोल्डबर्ग!
मैं तुम्हें
बहुत मुश्किल
से पहचान सका।
जब मैंने
तुम्हें
पिछली बार
देखा था तब से
तुमने अपना
तीस पौंड वजन
क्यों बढ़ा
लिया है? और
तुम्हारी नाक
ने भी मुझे
द्विविधा में
डाल दिया, और
मैं कसम खाकर
कहता हूं कि
तुम पहले से
दो फीट लम्बे
भी हो गए हो।’’
वह
मनुष्य उसकी
ओर क्रोध से
देखता हुआ
बहुत ठंडी
आवाज में बोला—
'' लेकिन
मैं
गोल्डबर्ग
हूं ही नहीं।’’
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा—’‘ आहा!
तो तुमने अब
अपना नाम भी
बदल लिया है?''
अहंकार
बहुत चतुर
होता है, अपने आप को
पूरी तरह
न्यायसंगत
ठहराता है।
यदि तुम बहुत
अधिक सजग नहीं
हो, तो वह
अपने आपको
अपने स्वप्रेम
के पीछे छिपा
सकता है। यह' शब्द ' स्व
' ही उसके
लिए सुरक्षा—कवच
बन जायेगा। वह
कह सकता है—मैं
ही तुम्हारा
घनिष्ट मित्र
हूं। वह उसका
वजन बदल सकता
है, वह
उसकी ऊंचाई
बदल सकता है
और वह उसका
नाम भी बदल
सकता है। और
क्योंकि वह
केवल एक विचार
है, उस
बारे में उसके
लिए कोई
समस्या ही
नहीं। वह छोटा
भी बन सकता है
और बड़ा भी बन
सकता है। वह
केवल
तुम्हारी
कल्पना मात्र
है।
बहुत
अधिक सावधान
रहो। यदि तुम
वास्तव में
प्रेम में
विकसित होना
चाहते हो, तो बहुत
अधिक सावधानी
की जरूरत होगी।
प्रत्येक कदम
बहुत गहरी सजगता
के साथ उठाने
की जरूरत होगी,
जिससे
अहंकार कोई
छिद्र पाकर
अपने को उसके
पीछे छिपा न
सके।
तुम्हारा
सच्चा और
वास्तविक
आत्म या ' स्व ' न तो '
मैं ' है
और न ' तू ', वह न तो ' तुम
' है और न
अन्य दूसरा ही।
तुम्हारा
वास्तविक ' आत्म ' तो
पूरी तरह सभी
का अतिक्रमण कर
सभी के पार है।
जिसे तुम ' मैं
' कहते हो, वह तुम्हारा
असली आत्म
नहीं है।’ मैं
' तो
वास्तविकता
पर आरोपित है।
जब तुम किसी
व्यक्ति को ' तुम ' कहते
हो, तो तुम
उस दूसरे
व्यक्ति के
असली आत्म को
सम्बोधित
नहीं कर रहे
हो। तुमने फिर
उसके ऊपर एक
लेबिल लगा
दिया है। जब
लगाये गये सभी
लेबिल हटा दिए
जाते हैं, तभी
असली आत्म
बचता है और यह
असली आत्म
जितना अधिक
तुम्हारा है,
उतना ही वह
दूसरों का भी
है। असली आत्म
तो एक ही है।
यही
कारण है कि हम
यह कहे चले
जाते हैं कि
हम एक दूसरे
के अस्तित्व
के लिए
सम्मिलित
होकर कार्य
करते हैं। हम
हर दूसरे के
साथ एक ही
समाज के सदस्य
हैं। हमारी
असली
वास्तविकता
और सत्य हमारे
अंदर का
परमात्मा है।
हम सभी सागर
में तैरते हुए
हिमखण्डों
जैसे हैं, जो सभी
अलग— अलग
दिखाई देते
हैं। लेकिन जब
हम पिघलेंगे
तो कुछ भी
नहीं बचेगा।
परिभाषाएं खो
जायेंगी, सीमाएं
विलुप्त हो
जायेंगी और वे
बर्फ के तैरने
हिमखण्ड फिर
वहां नहीं
होंगे, वे
सभी पिघल कर
सागर का ही
भाग बन जाएंगे।
अहंकार
ही वह हिमखण्ड
है। उसे
पिघलने दो। वह
गहरे प्रेम
में ही पिघलता
है और विलुप्त
हो जाता है और
तुम अस्तित्व
सागर के एक
भाग बन जाते
हो। मैंने
सुना है:
वह
न्यायाधीश
बहुत कठोर
दिखाई देता था।
उसने
मुल्ला से कहा—’‘ तुम्हारी
पत्नी कहती है
कि तुमने बेस
बॉल के बल्ले
से प्रहार
किया और उसे
उछालते हुए
सीढ़ियों के
नीचे फेंक
दिया है। तुम
इस सम्बंध में
अपने बारे में
क्या कहना
चाहते हो?''
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
अपने हाथ से
अपन नाक को एक
ओर से दबाते
हुए जैसे
ध्यान किया और
अंत में उत्तर
दिया—’‘ श्रीमान!
मेरे अनुमान
मे इस मामले
के तीन पहलू
हैं—मेरी
पत्नी की
कहानी, मेरी
कहानी और सत्य।’’
'' हां!
वह पूरी तरह
ठीक ही कह रहा
है।’’
'' आपने
वास्तविक
यथार्थ के दो
पहलुओं के
बारे में ही
सुना होगा।’’ उसने कहा—’‘ वहां
उसके तीन आयाम
होते हैं।’’ और वह बिलकुल
ठीक कह रहा है।
वहां
तुम्हारी
कहानी है मेरी
कहानी है और
वास्तविक
यथार्थ है, मैं और तुम
और वास्तविक
सच्चाई।
सत्य
कभी भी न तो ' मैं ' होता
है, और न ' तू '।
सत्य के अनंत
विस्तार में '
मैं ', और '
तू ' तो
आरोपण हैं।’ मैं ' नकली
है, ' तू ' भी
नकली हैं।
इनकी
उपयोगिता है
संसार में, ये उपयोगी
हैं। बिना ' मैं ' और ' तू ' के
संसार में
व्यवस्था
करना कठिन हो
जायेगा। वे
अच्छे हैं, ठीक है, उनका
उपयोग करो
लेकिन वे
संसार में काम
चलाने के लिए
केवल साधन हैं।
वास्तविकता
और सत्य में
वहां न तो ' तू
' होता है।
और न ' मैं '। वहां कोई
चीज कोई
व्यक्ति या
कोई ऊर्जा
होती है
अस्तित्व में,
जिसकी कोई
सीमाएं और
सरहदें नहीं
होतीं। हम सभी
वहीं से आते
हैं और उसी के
अंदर विलुप्त
हो जाते हैं।
छठा
प्रश्न :
प्यारे
ओशो!
कभी—कभी प्रेम
जैसी भावना
मेरे हृदय में
भी उठती है? लेकिन तुरंत
ही अगले ही
क्षण मुझे ऐसा
लगना शुरू
होने लगता है
कि यह प्रेम
नहीं है? कम
से कम यह तो
प्रेम नहीं ही
है, यह सभी कुछ
सेक्स के लिए
मेरी छिपी हुई
आकांक्षा ही
है।
आखिर इसमें
गलत क्या है? वासना ही
से तो प्रेम
का जन्म होता
है। यदि तुम
वासना से
बचोगे, तो
तुम स्वयं
प्रेम की पूरी
सम्भावना को
टाल दोगे।
प्रेम वासना
नहीं है, यह
सच है। लेकिन
प्रेम, बिना
वासना के भी
नही होता—यह
भी तो सत्य है।
प्रेम, वासना
का उच्चतम तल
है, लेकिन
यदि तुम वासना
को पूरी तरह
मिटा दोगे, तो तुम कीचड़
से कवल
उत्पन्न होने
की सम्भावना को
ही नष्ट कर
दोगे। प्रेम,
कमल का
पुष्प है और
वासना कीचड़ है,
कमल, कीचड़
से ही उत्पन्न
होता है।
इसे स्मरण
रखें, अन्यथा
तुम कभी भी
प्रेम को
उपलब्ध न हो
सकोगे। अधिक
से अधिक तुम
यह बहाना बना
सकते हो कि
तुमने वासना
का अतिक्रमण
कर लिया है।
पर कोई भी
व्यक्ति बिना
प्रेम के
वासना का अतिक्रमण
नहीं कर सकता।
तुम उसका दमन
कर सकते हो।
दमन करने से
वह अधिक
विषैला हो
जाता है। वह
तुम्हारे
पूरे
अस्तित्व में
फैल जाता है, वह जहरीला
बन जाता है और
तुम्हें
बरबाद कर देता
है। वासना ही
प्रेम में
रूपांतरित
होकर तुम्हें दीप्तिवान
बनाती है।
तुम्हें
चमकाती है।
तुम भारहीन
होकर एक
प्रकाश का
अनुभव करना
शुरू कर देते
हो। जैसे तुम
उड़ सकते हो।
तुम्हें पंख
लगने जैसी
अनुभूति होना
शुरू हो जाती
है। जब कि
दमित वासना के
साथ तुम जैसे
वजनी बन जाते
हो, जैसे
मानो तुम एक
बोझ या भारी
भार लिए हुए
चल रहे हो
जैसे मानो एक
बड़ी चट्टान
तुम्हारी
गर्दन के
चारों ओर लटकी
हुई है। दमित
वासना के साथ
तुम आकाश में
उड़ने के सभी अवसर
खो देते हो।
वासना का
प्रेम में
रूपांतरण
होते ही जैसे
तुम अस्तित्व
द्वारा ली गई परीक्षा
में उत्तीर्ण
हो जाते हो।
तुम्हें जैसे
कार्य करने के
लिए ही
अस्तित्व द्वारा
एक कच्चा
पदार्थ दिया
गया है, जिससे
तुम
सृजनात्मक
बनो, और
वासना ही वह
कच्चा पदार्थ
है।
मैंने
सुना है:
बरकोवित्व
और माइकलसन जो
केवल
व्यापारिक—साझीदार
ही नहीं, बल्कि जीवन
पर्यंत के लिए
एक दूसरे के
मित्र भी थे, उन दोनों ने
आपस में करार
किया उनमें से
जो भी पहले मर
जाएगा, वह
वापस लौटकर
दूसरे को यह
बतायेगा कि
स्वर्ग जैसा
अनुभव होता
क्या है।
छ:
महीने बाद
बरकोवित्व की
मृत्यु हुई।
वह संत जैसा
बहुत नैतिक
व्यक्ति था, एक कट्टर
धार्मिक
व्यक्ति, जिसने
कभी भी कोई
गलत कार्य कभी
किया ही नहीं था,
जो हमेशा
सेक्स और
वासना से
भयभीत रहता था।
माइकलसन ने
अपने से अलग
हुए अपने
प्यारे पवित्र
मित्र की ओर
से कुछ ऐसे
संकेत पाने की
प्रतीक्षा की,
जिससे वह
अपने पृथ्वी
पर लौटने को
प्रकट करे।
माइकलसन ने
बरकोवित्व की
ओर से संदेश
पाने की
आतुरता और
बैचेनी से
प्रतीक्षा
करते हुए वह समय
गुजारा। तब
अपनी मृत्यु
के एक वर्ष
बाद
बरकोवित्व ने माइकलसन
को अपना संदेश
दिया। रात
काफी गुजर
चुकी थी और
माइकलसन अपने
बिस्तरे पर
लेटा हुआ था
तभी
बरकोवित्स की
आवाज गंजी— '' माइकलसन!
माइकलसन!''
'' क्या यह तुम
बोल रहे हो
बरकोवित्व?''
'' हां! ''
'' तुम कैसे हो? कहां से
बोल रहे हो?''
'' हम
नाश्ता करते
हैं, उसके
बाद हम प्रेम
करते हैं, फिर
हम लंच लेते
हैं उसके बाद
हम फिर प्रेम
करते हैं और
तब डिनर लेने
के बाद भी हम
प्रेम करते
हैं।’’
'' क्या
यह वही है
स्वर्ग जैसा?''
माइकलसन ने
पूछा।
'' स्वर्ग
के बारे में
कौन बता रहा
है यह सब कुछ?'' बरकोविल्ल
ने कहा— '' मैं
तो
बिस्कोनसिन
में हूं और
मैं एक सांड
हूं।’’
याद रखें, यह सब कुछ
उन लोगों के
साथ घटता है, जो सेक्स का
दमन करते हैं।
इसके
अतिरिक्त कुछ
और घट ही नहीं
सकता क्योंकि
पूरी दमित
ऊर्जा एक बोझ
बन जाती है, जो तुम्हें
नीचे की ओर
खींचती है।
तुम अपने
अस्तित्व के
निम्न धरातल
की ओर गतिशील
होते हो। यदि
प्रेम का जन्म
वासना से हुआ
है, तो तुम
अपने
अस्तित्व के
उच्चतम तल की
ओर उठना शुरू
हो जाते हो।
इसलिए
स्मरण रहे, तुम क्या
बनना चाहते हो—एक
बुद्ध अथवा एक
सांड— यह सब कछ
तुम्हीं पर
निर्भर है।
यदि तुम एक
बुद्ध बनना
चाहते हो, तो
सेक्स से कभी
भयभीत नहीं
होना है।
उसमें उतरो, उसे भली भांति
जानो, उसके
बारे में अधिक
से अधिक सजग
बनो। सावधान
रहो, क्योंकि
यह अत्यधिक
मूल्यवान
ऊर्जा है। इसे
एक ध्यान बनाओ,
और इसे
रूपांतरित
करो, धीमे—
धीमे यही
प्रेम बन जाती
है। यह कच्चे
माल की तरह है,
खदान से
निकले हीरे की
तरह है, तुम्हें
इसे काटना है,
इस पर पालिश
करनी है। तब
यह अत्यधिक
मूल्यवान बन
जाता है। यदि
कोई भी
व्यक्ति
तुम्हें बिना
पालिश किया हुआ
बिना तराशा, खदान से
निकला हीरा
देता है तो
तुम उसे पहचान
भी नहीं सकते
कि वह एक हीरा
हैं। यहां तक
कि कोहिनूर भी
खदान से
निकलने पर कच्चे
पदार्थ के रूप
में बदशक्ल था।
वासना ही वह
कोहिनूर है, जिसे तराशकर
उस पर पालिश
की जानी है, यह बात भली
भांति समझने
जैसी है।
प्रश्नकर्त्ता
भयभीत और
विरोधी
सिद्धांत से
आक्रांत
प्रतीत होता
है। तभी वह
कहता है—’‘ यह सभी कुछ
सेक्स के लिए
मेरी छिपी हुई
आकांक्षा ही
है।’’ उसके
प्रति उसमें
निंदा का भाव
है। इसमें कुछ
भी गलत नहीं
है, मनुष्य
एक कामुक पशु
है। हम सब लोग
ऐसे ही हैं।
यही है वह
जीवन का
रास्ता, हमारे
यहां होने का
यही अर्थ है।
इसी रास्ते से
होकर ही हम
सभी को अपने
यहां पाते हैं।
उसके
अंदर उतरो।
बिना उसमें
जाये हुए तुम
कभी भी उसे
रूपांतरित करने
में समर्थ न
हो सकोगे। मैं
केवल वासना की
तुष्टि की बात
नहीं कह रहा हूं।
मैं उसमें गति
करते हुए गहरे
ध्यान के साथ
उस ऊर्जा को समझने
के बाबत कह
रहा हूं कि
उसे जानो कि
वह है क्या
उसे कुछ ऐसी
मूल्यवान चीज
जरूर होना ही
चाहिए
क्योंकि तुम
सभी का जन्म
उसी ऊर्जा से
हुआ है, क्योंकि
पूरा
अस्तित्व
उसका आनंद ले
रहा है, क्योंकि
पूरा का पूरा
अस्तित्व ही
कामवासना से
भरा हुआ है।
परमात्मा ने
इस संसार में
बने रहने के
लिए सेक्स का
ही मार्ग चुना
है। भले ही
ईसाई कितना भी
क्यों न कहे
चले जायें कि
जीसस एक कुंवारी
स्त्री से
उत्पन्न हुए
थे। यह सभी
मूर्खतापूर्ण
बात है। वे
केवल बहाने
गढ़ते हैं कि
जीसस के जन्म
में काम
क्रीड़ा या
सेक्स नहीं
हुआ। वे लोग
सेक्स से इतने
अधिक भयभीत
हैं कि वे इसी
तरह की
बेवकूफी की
कहानियां
गढ़ते हैं कि
जीसस का जन्म
कुंवारी मेरी
से हुआ। मेरी
बहुत ही पावन
और पवित्र
स्त्री जरूर
रही होगी, यह
सभी सच है कि
वह जरूर ही
आत्मिक रूप से
कुंवारी ही
रही होगी।
लेकिन बिना
सेक्स ऊर्जा
से गुजरे हुए
जीवन में
प्रवेश करने
का अन्य कोई
रास्ता है ही
नहीं। शरीर
कोई दूसरा
नियम जानता ही
नहीं। और
प्रकृति में
सभी कुछ सम्मिलित
है, वह
अपवादों में
कोई विश्वास
नहीं करती, वह अपवादों
को स्वीकारती
ही नहीं।
सेक्स के
द्वारा ही
तुम्हारा
जन्म हुआ है
और तुम सेक्स
ऊर्जा से
लबालब भरे हुए
हो। लेकिन यह
उसका अंत नहीं
है, यह
उसकी शुरुआत
हो सकती है।
सेक्स एक
प्रारम्भ है,
लेकिन वह
अंत नहीं है।
यहां
तीन तरह के
लोग होते हैं।
एक तरह के
व्यक्ति
सोचते हैं कि
सेक्स पर ही सब
कुछ समाप्त हो
जाता है। यह
ऐसे लोग हैं
जो अपनी
इच्छाओं को
तुष्ट करते
हुए जीते हैं।
ऐसे लोग यह
भूल जाते हैं
कि सेक्स
प्रारम्भ तो
है पर अंत
नहीं है। तब
यहां ऐसे लोग
हैं जो
इच्छाओं को
तुष्ट करने के
विरोध में है।
ये लोग दूसरे
विपरीत ध्रुव
या अति पर चले
गए हैं। ये
लोग प्रारम्भ
में भी सेक्स
नहीं चाहते, इसलिए वे
उससे कटना
शुरू हो जाते
हैं। उससे
कटकर दूर होकर
वे स्वयं को
घायल कर लेते हैं,
बरबाद कर
लेते हैं।
अपने आप नष्ट
करके वे मुरझा
कर सूख जाते
हैं। ये दोनों
ही व्यवहार
मूर्खतापूर्ण
है।
यहां
एक तीसरी भी
संभावना है, वह
संभावना है उन
प्रज्ञावान
लोगों की जो
जीवन को ध्यान
से देखते हैं,
जिनके पास
जीवन पर बलात्
थोपने के लिए
कोई सिद्धांत
नहीं होते, जो केवल उसे
समझने का
प्रयास करते
हैं। वे समझ
कर यह देख
पाते हैं कि
सेक्स
प्रारम्भ तो
है, लेकिन
वह अंत नहीं
है। सेक्स
केवल विकसित
होकर उसके पार
जाने का एक अवसर
है, लेकिन
उसे उसके
द्वारा
गुजरना ही
होता
अंतिम
प्रश्न :
प्यारे
ओशो! पहले
मैं सोचा करता
था कि मैं जानता
है कि समर्पण
क्या होता है, अब मैं उसे
समझ रहा हूं, कि वह
सम्बंधों को
जोड़ने के लिए
मन की एक
राजनैतिक खेल
भरी यात्रा थी।
अब यहां उसके
खड़े रहने के
लिए कोई स्थान
ही नहीं है, लेकिन जहां
मैं हूं अब
मुझ पर चारों
से परमानंद
बरस कर मुझमें
प्रविष्ट हो
रहा हो आपने
मेरी दिशा मोड़कर
मुझे स्वयं का
स्वाद दे दिया, बहुत बहुत
धन्यवाद।
यह बहुत अधिक
महत्त्वपूर्ण
है कि यह बात
तुम्हारी समझ
में आ गई कि
समर्पण क्या
होता है। यह
सभी कुंजियों
में से एक
कुंजी है, लेकिन
लोग इसका
प्रयोग करने
से बहुत डरते
हैं क्योंकि
यदि तुम
समर्पण करते
हो, सारे
अवरोध हटा कर
मिट जाते हो, पूरी तरह खो
ही जाते हो, तो वह
मृत्यु जैसा
होता है। यह
कुछ ऐसा होता
है, जैसे
मानो किसी ने
आत्मघात कर
लिया हो।
इसलिए लोग
दूसरी चीजें
किए चले जाते
हैं और वे उसे
समर्पण कहते
हैं।
इसकी
एक झलक पाकर
और उसे समझ
लेने के बाद
कि तुम अभी तक
समर्पण के
बारे में जो
भी सोचा करते
थे वह असली
चीज नहीं है।
यह रूपांतरण
की ओर उठा हुआ
बहुत बड़ा कदम
है। एक बार
तुमने नकली
चीज का नकली
होना समझ लिया, तुम असली
चीज को असली
जानने में
समर्थ हो गए हो।
नकली चीज को
नकली समझना ही,
असली को
असली समझने की
शुरुआत है। छो
का पर्दाफाश
होना ही चाहिए।
एक बार झूठ या
असत्य प्रकट
हो जाता है, तो नग्न
सत्य निरावरण,
प्रकट हो
जाता है।
आज बस
इतना ही।
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