दिनांक 15 सितम्बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
सारसूत्र
:
जनि
कोई होवै
बैरागी हो, बैराग
कठिन है।।
जग
की आसा करै न
कबहूं, पानी
पिवै न मांगी
हो।
भूख
पियास छुटै जब
निंद्रा, जियत
मरै तन त्यागी
हो।।
जाके
धर पर सीस न
होवै, रहै
प्रेम-लौ
लागी।
पलटूदास
बैराग कठिन है, दाग
दाग पर दागी
हो।।
अब
तो मैं बैराग
भरी, सोवत से
मैं जागि
परी।।
नैन
बने गिरि के
झरना ज्यों, मुख
से निकरै
हरी-हरी।
अभरन
तोरी बसन धै
फारौं, पापी
जिव नहिं जात
मरी।।
लेउं
उसास सीस दै
मारौं, अगिनि
बिना मैं जाऊं
जरी।
नागिनि
बिरह डसत है
मोको, जात न
मोसे धीर
धरी।।
सतगुरु
आई किहिन
बैदाई, सिर
पर जादू तुरत
करी।
पलटूदास
दिया उन मोको, नाम
सजीवन मूल
जरी।।
जल
औ मीन समान, गुरु
से प्रीति जो
कीजै।।
जल
से बिछुरै
तनिक एक जो, छोड़ि
देति है
प्रान।
मीन
कहै लै छीर
में राखे, जल
बिनु है
हैरान।।
जो
कछु है सो मीन
के जल है, उहिके
हाथ बिकान।
रोते
हैं दो नैन
रोते
हैं दो नैन, पिया
बिन रोते हैं
दो नैन
रुत
बदली और सरसों
फूली
मैं
पागल सब
सुध-बुध भूली
रिमझिम-रिमझिम
मेघा बरसे
जी ललचाए दरस को तरसे
फिर
पापिन ने मन
को हारा, फिर
जमना की बन कर
धारा
रोते
हैं दो नैन
पिया बिन
रोते हैं दो नैन
रोते
हैं दो नैन, पिया
बिन रोते हैं
दो नैन
बादल
गरजे बिजली
कड़के
आग
विरह की मन
में भड़के
कुहू
कुहू कोयल
बोले
कांपे गात
जियरवा डोले
चिंता
की मारी को पल
भर,
विरहन
दुखियारी को
पल भर
आवत
नाहीं चैन
पिया बिन
रोते हैं दो नैन
रोते
हैं दो नैन, पिया
बिन रोते हैं
दो नैन
उनकी
हंसते गाते
गुजरी
मेरी
नीर बहाते
गुजरी
उनकी
कट गई
सोते-सोते
मेरी कट गई
रोते-रोते
उसका क्या जो बीत गई है, रैन
ही
थी
सो
बीत
गई है
बीत गई
है रैन
पिया
बिन
रोते हैं दो नैन
रोते
हैं दो नैन, पिया
बिन रोते हैं
दो नैन
मुझ
निर्दोष का
दोष बता दें
क्यों
रूठे हैं ये
समझा दें
नाले
छाती तोड़ के
निकले
ये पंछी पर जोड़ के निकले
प्रीतम आएं बालम आएं, आएं और आकर सुन जाएं
दुखियारी
के बैन
पिया
बिन
रोते हैं दो नैन
रोते हैं दो नैन, पिया बिन रोते हैं दो नैन
रोते हैं दो नैन
एक है
वैराग्य, जो
प्रीति से
उमगता है; और
एक है वैराग्य,
जो गणित से
पैदा होता है।
गणित से पैदा
होने वाला
वैराग्य झूठा
है; चालाकी
है उसमें, हिसाब
है, बुद्धि
है, लेकिन
हृदय नहीं, प्रेम नहीं,
भाव नहीं।
गणित से पैदा
होने वाला
वैराग्य साधन
है; साध्य
है स्वर्ग, स्वर्ग के
सुख, मोक्ष,
मोक्ष का
आनंद। लेकिन
वैराग्य केवल
साधन मात्र
है। और जब
वैराग्य साधन
होता है तो
सच्चा नहीं
होता। करना
पड़ता है इसलिए
करते हैं; कर्तव्य-बोध
से करते हैं; भाव की
ऊष्मा नहीं
होती; हृदय
की धड़कन नहीं
होती; प्राणों
का नृत्य नहीं
होता; आंखों
में आंसू झूठे
होते हैं, हिसाब
के होते हैं।
रोना चाहिए
प्रार्थना में,
इसलिए रोते
हैं; इसलिए
नहीं कि रोना
रुकता नहीं, रोकना भी
चाहें तो नहीं
रुकता है--तब
बात और, तब
अर्थ और!
एक
वैराग्य है जो
प्रभु-मिलन की
प्यास से पैदा
होता है।
प्रभु नहीं है
मौजूद, प्रभु
नहीं मिल रहे
हैं, प्रभु
दूर हैं, प्रियतम
बहुत दूर है; रास्ता
अंधेरा, कंटकाकीर्ण;
पहुंचना हो
पाएगा या नहीं;
मिलन संभव
है या नहीं--इस
पीड़ा में कोई
रोता है, इस
विरह में कोई
जलता है--तब
वैराग्य सच्चा
है। और तभी
वैराग्य
पहुंचाता है,
तभी
वैराग्य सीढ़ी
बन जाता है।
पलटूदास
कहते हैं: जनि
कोई होवै
बैरागी हो, बैराग
कठिन है।
मुश्किल
से कभी कोई
विरागी होता
है। जनि कोई होवै
बैरागी हो!
कभी-कभी, लाखों
में एक कोई जन
सच में वैरागी
होता है। ऐसे
तो बहुत
विरागी दिखाई
पड़ते
हैं--भभूत
रमाए, धूनी
रमाए। मगर इस
सबके पीछे लोभ
है स्वर्ग का।
इस सबके पीछे
भी वासना है।
प्रार्थना
ऊपर-ऊपर, भीतर
वासना ही
वासना है। फिर
वासना संसार
की हो या
परलोक की, इससे
भेद नहीं
पड़ता। वासना
तो वासना है।
धन चाहो कि
धर्म चाहो, रुपये चाहो
कि स्वर्ग चाहो,
संसार को
विजय करना
चाहो कि
स्वर्ग को
विजय करना
चाहो--सबके
पीछे एक ही
अहंकार है:
मैं बड़ा हो जाऊं!
मेरा राज्य
बड़ा हो! मेरी
संपदा बड़ी हो!
सांसारिक
का लोभ तो
छोटा है; जिसको
तुम साधु कहते
हो उसका लोभ
बहुत बड़ा है।
वह तो कोशिश
में लगा है कि
स्वर्ग का धन
भी उसका अपना
होना चाहिए।
क्षणभंगुर से
उसकी तृप्ति
नहीं; शाश्वत
की आकांक्षा
है।
जनि
कोई होवै
बैरागी...
इसलिए
बहुत मुश्किल
से कोई सच्चा
वैरागी मिलता
है। सच्चा
वैरागी इसलिए
नहीं रोता कि
रोना विधि है
परमात्मा को
पाने की; इसलिए
रोता है कि
परमात्मा
कहां है? खोजूं,
कहां खोजूं?
कहां है
द्वार उसका? कहां है
मार्ग उसका? उसके
प्राणों से
आंसू आते हैं।
उसका खून आंसू
की बूंदों में
टपकता है।
वैराग्य
सोच-विचार
नहीं है; भाव
की, भावना
की बात है।
इसलिए वैरागी,
सच्चा
वैरागी, पागल
मालूम होगा।
झूठा वैरागी
बहुत हिसाब से
चलता है--इतने
उपवास करो, इतने व्रत
करो, तो
स्वर्ग
मिलेगा; इतना
आसन, इतना
व्यायाम, इतना
प्राणायाम, तो स्वर्ग
मिलेगा। एक
तराजू पर रखता
जाता है वैराग्य
और आशा करता
है दूसरे
तराजू पर
स्वर्ग उतरेगा।
सच्चा वैरागी
कुछ पाने को
नहीं रोता है।
सच्चा वैरागी
कुछ पाने की
बात ही नहीं
करता है। उसकी
छाती में तीर
चुभा है विरह
का, उसके
प्राणों में
तूफान उठा है।
वह अपने को अकेला
अनुभव करता है
और बिना
परमात्मा के
ऐसे तड़फता
है--पलटू कहते
हैं आगे के
सूत्रों में:
जैसे मछली
बिना पानी के!
तुम मछली को
जब पानी से बाहर
निकाल लेते हो
तो मछली ऐसा
थोड़े ही सोचती
है कि शास्त्र
कहते हैं कि
अब मुझे रोना
चाहिए; कि
शास्त्र कहते
हैं कि अब
मुझे तड़फना
चाहिए; कि
शास्त्र कहते
हैं कि पानी
से जब मीन अलग
कर ली जाए और न
रोए, न
तड़फे, तो
यह मीन को
शोभा नहीं
देता।
जब तुम
मछली को सागर
से अलग करते
हो तो तड़फती है--किसी
हिसाब से नहीं, किसी
शास्त्र से
नहीं। तड़फन
स्वाभाविक है,
नैसर्गिक
है, स्वस्फूर्त
है। जब
वैराग्य भी
स्वस्फूर्त होता
है तो सच्चा
होता है। जिसे
खलने लगती है
परमात्मा की
गैर-मौजूदगी,
जिसे उसका
अभाव काटने
लगता है, उसके
भीतर एक
वैराग्य का
जन्म होता है।
जैन
मुनि हैं, उनमें
मुझे कभी
वैराग्य नहीं
दिखाई पड़ा; यद्यपि वे
सबसे बड़े
विरागी मालूम
होते हैं भारत
में। हिंदुओं
के संन्यासी
या बौद्धों के
भिक्षु, अगर
वैराग्य के
गणित से सोचा
जाए, तो
जैन मुनियों
से बहुत पीछे
पड़ जाते हैं।
जैन मुनियों
का त्याग काफी
है; उनके
त्याग का पलड़ा
बहुत भारी है।
मगर सब गणित
है। इसलिए सब
झूठा है।
महावीर
का त्याग कुछ
और ढंग का था।
महावीर अगर कई
दिनों तक
उपवासे रह गए
तो इसलिए नहीं
कि उपवास करने
से स्वर्ग
मिलता है।
महावीर
उपवासे रह गए
बहुत दिनों तक, क्योंकि
सत्य की खोज
में भूख ही न
लगी, प्यास
ही न लगी, देह
की सुध-बुध न
रही। यह कोई
क्रियाकांड
नहीं है।
लेकिन जैन
मुनि का उपवास
क्रियाकांड
है। हिसाब से
चल रहा है।
उसके पास
नक्शा है, उस
नक्शे से जी
रहा है।
बुद्धि
सभी चीजों को
थोथा कर देती
है। गहराई बुद्धि
में न होती है, न
हो सकती है।
जनि
कोई होवै
बैरागी हो, बैराग
कठिन है।
और
इसीलिए
वैराग्य कठिन
है। वैराग्य
के कारण नहीं।
वैराग्य तो
सरल है, सहज-स्फूर्त
है; तुम्हारे
कारण कठिन है।
क्योंकि तुम
तो बैठ गए हो
आसन मार कर
बुद्धि में; हृदय की तो
तुम्हें याद
ही न रही।
जहां से स्फुरणा
हो सकती थी, उस स्रोत का
तो तुम
पता-ठिकाना ही
भूल गए हो।
तुम्हारे
भीतर हृदय भी
है, तुम्हारे
भीतर एक और तल
भी है जीवन का,
एक और गहराई,
आयाम भी है
एक और, इसका
तुम्हें
विस्मरण हो
गया है। तुम
तो जीते हो बस
सतह पर। सतह
पर सोच-विचार
है; और
गहराई में
निर्विचार
है। सतह पर
गणित है, तर्क
है; गहराई
में प्रेम है।
जो लोग
बुद्धि में ही
जीने लगे हैं, उनके
बुद्धि में
अटक जाने के
कारण वैराग्य
कठिन हो गया
है। वे सब कर
लेते हैं, लेकिन
सब झूठा।
मेहनत बहुत
करते हैं, लेकिन
सब व्यर्थ चली
जाती है।
जीसस
ने कहा है:
जैसे कोई
मुट्ठी भर
दाने लेकर और
फेंक दे, कुछ
रास्ते पर पड़ें,
कुछ
पत्थरों पर
पड़ें, कुछ
भूमि में पड़ें,
लेकिन बंजर
भूमि में, और
कुछ उस भूमि
में पड़ जाएं
जो उपजाऊ है।
बीज सब एक
जैसे थे। जो
पत्थर पर पड़े,
कभी
अंकुरित नहीं
होंगे।
अंकुरित होने
की क्षमता थी
उनकी, लेकिन
गलत जगह पड़ गए,
पत्थर पर पड़
गए।
ऐसे ही
तुम खोपड़ी पर पड़
गए हो। खोपड़ी
पत्थर है।
वहां कुछ नहीं
ऊगता। वहां
कभी कुछ नहीं
ऊगा। वहां
मरुस्थल ही
मरुस्थल है; वहां
मरूद्यान
नहीं है। जहां
भाव का झरना न
हो, वहां
कहां
मरूद्यान
होगा? वहां
कैसे वृक्ष
हरे होंगे और
कैसे
रंग-बिरंगे
फूल खिलेंगे?
वहां
पक्षियों का
गीत भी नहीं होगा।
वहां
चांदत्तारे
भी नहीं
ऊगेंगे। वहां तो
अमावस की रात
है--तारों से
रहित; गहन
अंधकार है। जो
बीज पत्थर पर
पड़ गया, क्षमता
तो उसकी भी थी
कि फूल बने, सुगंध बने, कि आकाश को
लुटा दे अपनी
सुगंध, कि
भर दे आकाश को
अपनी मिठास
से। मगर नहीं!
मर जाएगा--पत्थर
पर पड़ गया, इसलिए;
गलत जगह पड़
गया, इसलिए।
जो
रास्ते पर
पड़ेंगे वे भी
न ऊग सकेंगे; यद्यपि
पत्थर पर नहीं
हैं, लेकिन
जहां लोग
आते-जाते हैं,
जहां बहुत
आवागमन है, उनके पैरों
के नीचे दब-दब
कर नष्ट हो
जाएंगे।
तुम्हारे
मस्तिष्क में
पत्थर ही नहीं
है,
आवागमन भी
बहुत है। विचारों
का कितना
आवागमन है!
कैसा ट्रैफिक!
सुबह से सांझ,
सांझ से
सुबह हो जाती
है, लेकिन
विचारों का
प्रवाह चलता
ही रहता है।
एक नहीं, दो
नहीं, लाखों
विचार चल रहे
हैं।
तुम्हारी
खोपड़ी में सदा
कुंभ का मेला
ही भरा हुआ
है। एक तो
पत्थर, फिर
विचारों के
कुंभ का मेला!
लाखों की भीड़!
सतत चलती रहती
है यह धारा।
दिन में ही
नहीं, रात
में भी। सो
जाते हो, फिर
भी यह धारा
बंद नहीं
होती। चौबीस
घंटे चलती है।
अगर कहीं
भूल-चूक से
कोई बीज ऊग भी
सकता था, तो
इस सतत आवागमन
में दब जाता
है और मर जाता
है।
और फिर, जीसस
ने कहा, कुछ
बीज बंजर भूमि
पर पड़ जाते
हैं।
तुम्हारी
खोपड़ी में
तीसरा गुण भी
है--बिलकुल बंजर
है। आज तक
मनुष्य के
मस्तिष्क से
कोई सृजन नहीं
हुआ,
न कोई
आविष्कार हुआ,
नये का न
कोई आविर्भाव
हुआ। तुम जान
कर चकित होओगे,
वैज्ञानिक,
जो कि हृदय
को मानते नहीं,
उनके भी
श्रेष्ठतम
आविष्कार
हृदय से होते
हैं, मस्तिष्क
से नहीं!
मैडम
क्यूरी, जिसको
नोबल प्राइज
मिली, एक
गणित को तीन
वर्षों से हल
कर रही थी और
हल नहीं हो
रहा था। सारी
शक्ति लगा दी
थी। इस सदी की सबसे
बड़ी
गणितज्ञों
में से एक थी।
सब ताकत लगा
दी थी, लेकिन
नहीं हल होता
था तो नहीं हल
होता था। थक
गई थी। एक
सांझ बिलकुल
थक कर सो गई।
सोचा अब कल से
छोड़ ही देना
है यह उपाय।
यह नहीं होगा
हल। तीन साल
काफी होता है
एक सवाल को हल
करने के लिए।
धैर्य की भी
सीमा होती है।
कोई पलटू तो
थी नहीं कि
कहती: काहे
होत अधीर! तीन
साल में बहुत
अधीर हो गई।
कोई भी हो
जाए। थकी-मांदी
सो गई। और
सुबह जब उठी
तो बड़ी हैरान
हुई--टेबल पर, जिस उत्तर
की तलाश थी वह
कागज पर लिखा
हुआ रखा है!
दरवाजा तो
ताला लगा दिया
था उसने, कोई
भीतर आया
नहीं। और कोई
भीतर आ भी
जाता तो जो
सवाल मैडम
क्यूरी से हल
नहीं होता, वह किसी और
से हल हो सकता
था? नौकर-चाकर
से? चोर-चपाटी
से? फिर
ताला लगा था, कोई भीतर
आया भी नहीं।
फिर उसने गौर
से देखा, हस्ताक्षर
उसी के हैं।
तब उसे याद
आया कि रात सपने
में वह उठी
थी। ऐसा उसे
सपना आया था
कि वह उठी है
और उसने जाकर
टेबल पर कुछ
लिखा है और लिख
कर सो गई।
इतनी स्मृति
उसे याद आई।
धीरे-धीरे याद
करने पर पूरी
बात याद आ गई।
वह उत्तर उसके
भीतर से आया
है। मस्तिष्क
तो तीन साल में
हार गया था; जब थक गया तो
उत्तर भीतर से
आया। किसी और
आयाम से आया।
यह हृदय का
उत्तर था।
विज्ञान
के बड़े-बड़े
आविष्कार
बुद्धि से
नहीं होते; यद्यपि
बुद्धि
दावेदार है, हृदय दावा
नहीं करता।
बुद्धि बहुत
बेईमान है; जो हृदय से
जन्मता है, उस पर भी
कब्जा कर लेती
है! उसकी भी
घोषणा दुनिया
को कर देती है
कि मैंने यह
निर्माण किया!
दुनिया
का कोई
श्रेष्ठ
काव्य बुद्धि
से पैदा नहीं
होता, हृदय से
पैदा होता है।
फिर उपनिषद हो
कि कुरान, ये
सब हृदय के
आविर्भाव
हैं। ये वहां
से आए हैं जहां
विचार नहीं जा
सकते, लेकिन
प्रेम की जहां
गति है। विचार
तो एक थोथा और
झूठा जीवन
जीते हैं।
विचार तो
पाखंडी हैं।
तर्क खूब बिठा
लेते हैं।
तर्क ऐसा कि
बिलकुल ठीक
लगता है, और
फिर भी बिलकुल
गलत होता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
एक साइकिल
खरीदी।
दुकानदार से
कहा,
सबसे
ज्यादा मजबूत
और सबसे
ज्यादा टिकाऊ
साइकिल हो, कीमत चाहे
जो हो सो ले
लो।
दुकानदार
ने
सर्वश्रेष्ठ
साइकिल देते
हुआ कहा, नसरुद्दीन,
एक साल के
अंदर कोई
टूट-फूट नहीं
होगी, इसकी
गारंटी है।
मुल्ला
साइकिल पर
सवार हुआ, चंदूलाल
कैरियर पर
बैठे, और
चल पड़े घर की
तरफ। पंद्रह
मिनट बाद ही
वापस आ गए और
क्रोध में
उबलते हुए
मुल्ला ने
चिल्ला कर
दुकानदार से
कहा, हद्द
हो गई बेईमानी
की भी! अरे एक
साल की गारंटी
दी और एक घंटे
में टूट-फूट
शुरू। वापस
रखो अपनी
साइकिल! हमें
नहीं चाहिए।
क्या बात
करते हो जी!
दुकानदार ने
हैरत में आकर
कहा,
कहां हुई
टूट-फूट?
दिखता
नहीं, अंधे हो
क्या? मुल्ला
तैश में आकर
बोला, मेरे
चार दांत टूट
गए और इस
बेचारे
चंदूलाल का
कीमती चश्मा
टूट गया!
ऐसी ही
अवस्था
बुद्धि की है।
वहां सब
तर्कयुक्त
मालूम पड़ता है, क्योंकि
सब शाब्दिक
है। टूट-फूट!
उसका शाब्दिक
अर्थ बुद्धि
कुछ और लेती
है। बुद्धि को
वास्तविक
अर्थों का पता
ही नहीं है।
पता हो भी
नहीं सकता।
बुद्धि की
क्षमता वह
नहीं है। उससे
वैसी अपेक्षा
भी नहीं करनी
चाहिए।
अपेक्षा में
ही हमारी भूल
हो जाती है।
अर्थों का
अनुभव तो हृदय
में होता है।
शब्द तो थोथे
हैं; अर्थों
के बिना उनका
कोई मूल्य
नहीं है। और
ऐसा ही
वैराग्य थोथा
है, जो
हृदय से नहीं
जन्मा है।
पंडित
मटकानाथ
ब्रह्मचारी
को अपने आश्रम
के लिए एक
भैंस खरीदनी
थी। वे
गाय-भैंसों के
बाजार में गए।
एक भैंस
उन्हें अच्छी
लगी। उसका शरीर
हृष्ट-पुष्ट, मुख
चमकीला, पूंछ
लंबी, दांत
सफेद, पैर
सुडौल, चाल
मस्त और सींग
भी अत्यंत
सुंदर थे।
उसने अभी पहला
ही बछड़ा जना
था। दूध बीस
किलो रोज देती
थी। लेकिन
कीमत भी उसकी
कम न थी। पांच
हजार से कम
में उसे बेचने
वाला तैयार न
था।
ब्रह्मचारी
आगे बढ़ गया।
आगे
चंदूलाल भी
अपनी पवित्र, धार्मिक,
मरियल, टूटी
टांग व कड़ी
पूंछ वाली
भैंस बेचने के
लिए खड़ा था।
उसके दांत सड़े
और सींग
आड़े-तिरछे थे।
शरीर बस
हड्डियों का
ढांचा था।
ब्रह्मचारी मटकानाथ
ने आश्चर्य से
पूछा, अरे
चंदूलाल! तुम
भी भैंस बेच
रहे हो?
हां, खरीदना
है क्या? चंदूलाल
ने प्रश्न
किया।
यह दूध
कितना देती है?
दूध!
अरे दूध तो
इसने आज तक
नहीं दिया!
और
बछड़े कितनी
बार जन चुकी
है?
चंदूलाल
ने बताया, मेरी
भैंस ने आज तक
एक भी बछड़ा
नहीं जना, और
न कभी जनेगी।
इसे
कौन खरीदेगा
भाई?
पंडित
मटकानाथ
ब्रह्मचारी
ने पूछा, इसकी
कीमत कितनी
रखी है?
बीस
हजार से एक
पैसा कम नहीं।
बाप रे
बाप! होश-हवास
में हो या पी
रखी है चंदूलाल? इसकी
कीमत इतनी
ज्यादा क्यों
है?
ज्यादा
कहां है!
चंदूलाल ने
कहा,
ब्रह्मचारी
होकर भी
ब्रह्मचर्य
का अर्थ नहीं
समझते? भैंस
ब्रह्मचारी
है, बाल-ब्रह्मचारी
है। और चरित्र
की ही कीमत
है।
तुम्हारे
साधु, तुम्हारे
त्यागी, तुम्हारे
महात्मा बस
चंदूलाल की
भैंस हैं। उनका
चरित्र, उनका
वैराग्य, उनके
व्रत-उपवास, उनकी
साधुता--सब
झूठी है, सब
ऊपर-ऊपर है, सब
निर्वीर्य है,
नपुंसक है,
निष्क्रिय
है; उससे
कुछ सृजन कभी
नहीं हुआ।
वास्तविक
ब्रह्मचर्य
सृजनात्मक
होगा। उससे
कुछ जन्मेगा।
अगर बच्चे न जन्मेंगे
तो उपनिषद
जन्मेंगे।
अगर बच्चे न
जन्मेंगे तो
कुरान
जन्मेगी। अगर
बच्चे न जन्मेंगे
तो कोई सुंदर
गीत,
कोई नृत्य,
कोई वीणा
बजेगी, कोई
बांसुरी
बजेगी। लेकिन
जन्म तो
निश्चित होगा।
अगर देह के तल
पर न होगा तो
आत्मा के तल
पर होगा। उससे
बुद्धत्व का
जन्म होगा। उससे
जिनत्व का
जन्म होगा।
उससे असली
वैराग्य का
जन्म होगा।
लेकिन
असली और नकली
की ठीक-ठीक
परख होनी
चाहिए।
क्योंकि नकली
आसानी से मिल
जाता है, सस्ता
मिल जाता है।
नकली बड़ा
सुविधापूर्ण
है। तुम्हें
कुछ गंवाना
नहीं पड़ता, दांव पर कुछ
लगाना नहीं
पड़ता।
तुम्हें कुछ
करना ही नहीं
पड़ता। नकली तो
लोग देने को
तैयार हैं, तुम लेने भर
को राजी हो
जाओ। तुम नहीं
भी राजी होते
तो भी तुम पर
आरोपित कर रहे
हैं। नकली का आरोपण
चलता है। नकली
यानी मुखौटे।
होली
का दिन था और
गांव के
नेताजी को
लोगों ने पकड़
लिया। वैसे ही
साल भर का
गुस्सा था नेताजी
पर और होली का
मौका, दिल खोल
कर कबीर बके
और खूब
गालियां दीं,
खूब दचका और
पटका नेताजी
को। होली है
ही इसीलिए कि
जो साल भर
नहीं कर सके, एक दिन के
लिए छुटकारा,
एक दिन की
छुट्टी। खूब
रंग दिया मुंह
उनका कोलतार
से कि जनम-जनम
लग जाएं धोने
में। फिर सांझ
को उनके घर
देखने गए कि
हालत क्या है,
क्योंकि
कोलतार ऐसा
रंगा था कि
चमड़ी भला निकल
जाए, मगर
कोलतार न
निकले। लेकिन
नेताजी शुभ्र
खादी पहने हुए,
मुस्कुराते
हुए कुर्सी पर
बैठे थे!
चेहरा बिलकुल
जैसा था वैसा,
न कोई
कोलतार, दाग
भी नहीं, चिह्न
भी नहीं। बड़े
हैरान हुए।
कहा कि कोलतार
पोता था सुबह,
उसका क्या
हुआ?
नेताजी
ने कहा, वह
देखो कोने
में! एक
मुखौटा पड़ा था,
उस पर
कोलतार पुता
था। नेताजी ने
कहा, क्या
तुम सोचते हो
कि हम अपना
असली चेहरा
लेकर बाजार
में निकलते
हैं? असली
चेहरा तो हम घर
ही रख जाते
हैं, नकली
लेकर बाजार
आते हैं।
तुमने जिस पर
कोलतार पोता
था, वह वह
रहा, वह
हमारा चेहरा
नहीं है।
सभी
लोग मुखौटे
ओढ़े हुए हैं।
और सभी तो माफ
भी किए जा
सकते हैं, लेकिन
जिनको तुम
महात्मा कहते
हो, त्यागी,
व्रती, वे
भी मुखौटा ओढ़े
हुए हैं।
उन्हें तो माफ
भी नहीं किया
जा सकता।
लेकिन मुखौटे
सस्ते हैं, बाजार में
मिल जाते हैं।
अगर स्वयं के
चेहरे को
बदलना हो और
स्वयं के
चेहरे को
परमात्मा का चेहरा
बनाना हो, तो
श्रम करना
होगा, तो
साधना करनी
होगी। और श्रम
और साधना का
पहल सूत्र है:
मस्तिष्क से
उतरना होगा और
हृदय में
डूबना होगा।
तर्क छोड़ना
होगा और
श्रद्धा पकड़नी
होगी।
जनि
कोई होवै
बैरागी हो, बैराग
कठिन है।
जग की
आसा करै न
कबहूं, पानी
पिवै न मांगी
हो।
वैराग्य
का अर्थ है: जग
से कोई आशा न
रखे।
बुद्ध
ने कहा है:
धन्यभागी हैं
वे,
जो
परिपूर्ण रूप
से हताश हैं।
पहली
दफा वचन पढ़ो
तो थोड़ी
हैरानी होती
है। हताश को
धन्यभागी
कहना! हताश को
तो हम हिम्मत
बंधाते हैं कि
छोड़ो भाई
हताशा, छोड़ो
निराशा! अरे
उठो! आज नहीं
हुआ तो कल हो
जाएगा।
फिर-फिर श्रम
करते रहो। एक
बार हार गए तो
क्या घबड़ाते
हो! याद करो
महमूद गजनी की,
सत्रह बार
हार गया तो भी अठारहवीं
बार हमला
किया। जीता!
आशा जगाए रखो
और चलते चलो।
अमरीका
में तो यह
सूत्र ही हो
गया अमरीका
का: फिर-फिर
चेष्टा करो!
मैंने
सुना है, एक
दंपति वर्षों
तक श्रम करने
के बाद भी
किसी बच्चे को
जन्म न दे
पाए। बड़ी पीड़ा,
बड़ा दुख!
उम्र बीती
जाती हाथ
से--और ऐसे ही मर
जाएंगे, बांझ!
अंततः
उन्होंने
अखबार में खबर
दी कि बीस
वर्ष हो गए
विवाह हुए, बच्चा पैदा
नहीं होता; किसी
व्यक्ति के
पास कोई सुझाव
हो तो कृपा
करके भेजने की
कोशिश करे।
दुनिया
के कोने-कोने
से सुझाव आए।
अलग-अलग कौमें, अलग-अलग
ढंग। अमरीका
से किसी
अमरीकी ने
लिखा कि कोशिश
किए जाओ, फिर-फिर
कोशिश करो, हारो मत!
हारिए न
हिम्मत, बिसारिए
न राम। आज
नहीं तो कल, कल नहीं तो
परसों, श्रम
का फल
सुनिश्चित
मिलता है।
ट्राय अगेन एंड
अगेन! कोशिश
करो, फिर
करो, फिर
करो।
एक
भारतीय ने
लिखा कि योग
से असंभव भी
संभव हो जाता
है। शीर्षासन
करो। पैर पर
खड़े होऱ्हो कर
बीस साल गुजार
दिए,
अब सिर पर
खड़े होओ। जो
पैर पर खड़े
होने से नहीं होता,
वह सिर पर
खड़े होने से
हो जाता है।
किसी
मुसलमान ने
लिखा कि
फलां-फलां
फकीर की मजार
पर चढ़ौती
चढ़ाओ।
और ऐसे
हजारों सुझाव
आए। और एक
फ्रांसीसी ने
लिखा कि क्या
मैं किसी काम
आ सकता हूं? अलग-अलग
लोग, अलग-अलग
सुझाव! मुझे
सेवा का अवसर
दो, उसने
लिखा। जो तुम
नहीं कर सके, हो सकता है
मैं कर सकूं।
लेकिन
बुद्ध कहते
हैं: धन्यभागी
हैं वे, जो
हताश हैं।
हताश
का उनका अर्थ
बहुत और है; वही
नहीं, जो
तुम सोचते हो।
हताशा का अर्थ
नकारात्मक
नहीं है।
बुद्ध कहते
हैं: जिसको यह
समझ में आ गया
कि इस जगत में
कोई आशा कभी
पूरी हो ही
नहीं सकती।
नहीं कि इससे
वह दुखी होता
है; आनंदित
होता है कि एक
सत्य हाथ में
आ गया। उसकी
हताशा में दुख
के कांटे नहीं
होते, आनंद
के फूल होते
हैं। एक परम
सत्य हाथ लग
गया, यह कोई
दुख की बात
थोड़े ही है।
नाचो! गाओ!
इसलिए धन्यभागी
हैं वे, जो
हताश हैं!
रेत से
कोई तेल
निकालने की
कोशिश कर रहा
था और समझ में
आ गया कि रेत
में तेल है ही
नहीं, तो नाच
उठेगा कि झंझट
छूटी, नहीं
तो कब तक रेत
को ही पेलते
रहते! और रेत
से कभी तेल
निकलने वाला
नहीं था, क्योंकि
रेत में तेल
है ही नहीं।
इस
संसार में कोई
तृष्णा पूरी
नहीं होती, कोई
वासना पूरी
नहीं होती।
जग की
आसा करै न
कबहूं, पानी
पिवै न मांगी
हो।
और तो
मांगना ही मत
कुछ,
पानी भी मत
मांगना! मांग
की दृष्टि ही
छोड़ो। भिखमंगापन
छोड़ो। वासना
तुम्हें
भिखमंगा बनाती
है। फिर चाहे
तुम कितने ही
बड़े सम्राट होओ,
अगर
तुम्हारे
भीतर वासना है,
अभी तुम जग
से आशा रखते
हो, तो
तुम्हारे हाथ
में
भिक्षापात्र
रहेगा। तुम
मांगोगे: और
मिल जाए, और
मिल जाए! और
भिक्षापात्र
कभी भरता नहीं
यह। खाली का
खाली रहता है,
कितना ही भर
जाए। अकबर का
नहीं भरता, सिकंदर का
नहीं भरता, नेपोलियन का
नहीं भरता, तुम्हारा
कैसे भर जाएगा?
आज तक किसी
का भी नहीं
भरा, तुम
भी अपवाद नहीं
हो। यह
निरपवाद नियम
है। संसार
सिर्फ धोखा है,
मृग-मरीचिका
है। दूर के
ढोल सुहावने
हैं। बहुत दूर
से लगता है कि
क्षितिज यह
रहा, यह
रहा; थोड़े
चले कि पहुंच
जाएंगे।
लेकिन
तुम्हारे और
क्षितिज के
बीच की दूरी
सदा समान रहती
है, कभी
इंच भर भी कम
नहीं होती, कितने ही
दौड़ो और कितनी
ही तेज रफ्तार
से जाओ।
क्योंकि
क्षितिज है ही
नहीं, सिर्फ
दिखाई पड़ता
है।
संसार
सिर्फ दिखाई
पड़ता है; है
नहीं। किस
संसार की बात
कर रहे हैं--ये
वृक्ष, ये
पहाड़-पर्वत? ये तो हैं।
इस संसार की
बात नहीं है।
तुम्हारे मन
का संसार।
वासना का
संसार।
आकांक्षा, अभीप्सा
का संसार।
ज्ञानियों ने
उसे माया कहा
है। और तुम
समझने लगे कि
पहाड़-पत्थर, ये सब माया
हैं। ये माया
नहीं हैं; सिर
फोड़ कर देख लो,
पता चल
जाएगा। यह
दीवाल माया
नहीं है, नहीं
तो निकल जाते।
दीवाल में से
निकल जाते, दरवाजों की
जरूरत न होती।
यह
संसार तो सत्य
है। लेकिन एक
और संसार है, जो
तुमने इस
संसार के ऊपर
आरोपित कर
दिया है। फिल्म
देखने जाते हो
न, परदा
सत्य
है--शुभ्र
परदा; फिर
उस पर जो
धूप-छाया का
खेल चलता है, वह झूठा है, वह सच्चा
नहीं है।
यह
संसार तो परदा
है,
यह सच्चा
है। इस पर
तुमने जो
अपने-अपने
सपने फैला रखे
हैं, अपने
सपनों का जो
तुमने
विस्तार कर
रखा है, वह
झूठा है। और
कितनी बार कर
चुके, कब
जागोगे? कितने
जन्मों से तुम
यही करते रहे
हो, कब
सम्हलोगे?
महान
जासूस शरलक
होम्स अपने
मित्र डाक्टर
वाटसन के साथ
सिनेमा देखने
गए थे। फिल्म
में घुड़दौड़ का
एक दृश्य था।
शरलक होम्स ने
कहा,
वाटसन, देखो
यह जो पीले
रंग वाला घोड़ा
है न, यही
रेस में
जीतेगा।
नहीं-नहीं, डाक्टर
वाटसन बोले, मेरे खयाल
से तो काला
घोड़ा ही
जीतेगा, वही
सबसे आगे भी
है।
कुछ ही
समय में रेस
के अंत
होतेऱ्होते
पीला घोड़ा
वाकई तेज दौड़
कर आगे आ गया
और जीत गया।
डाक्टर वाटसन
बोले--आश्चर्यविमुग्ध
होकर बोले--मेरे
मित्र, मुझे
तुम पर नाज
है। माना कि
तुम विश्व के
सर्वश्रेष्ठ
ख्यातिनाम
जासूस हो, मगर
तुमने यह कैसे
पता लगाया कि
पीला घोड़ा ही
जीतेगा जब कि
वह दौड़ में
सबसे पीछे था?
यह कोई
कठिन मामला
नहीं, वाटसन--शरलक
होम्स ने
मुस्कुरा कर
भेद खोला--मैं
यह फिल्म पहले
भी कई बार देख
चुका हूं।
इस
संसार की
फिल्म को तुम
कितनी बार देख
चुके हो, अभी
भी तुम्हें
पता नहीं कि
पीला घोड़ा
जीतेगा! अभी
भी तुम आशा
बांधे हो कि
काला घोड़ा
जीतेगा, क्योंकि
काला घोड़ा आगे
है। यहां पीले
घोड़े ही जीतते
हैं।
जीसस
का प्रसिद्ध
वचन है: वे जो
सबसे अंत में
हैं,
मेरे प्रभु
के राज्य में
प्रथम होंगे।
पीले घोड़ों की
बात हो रही
है। पीछे था
सबसे। और जो
यहां प्रथम
हैं, वे
मेरे प्रभु के
राज्य में
अंतिम होंगे।
यहां
कौन है अंतिम? जिसने
जीवन से सारी
आशा छोड़ दी, दौड़ ही छोड़
दी, दौड़ ही
नहीं रहा है।
वह घोड़ा
जीतेगा। जो
दौड़ ही नहीं
रहा है, उसी
का नाम
संन्यासी है।
जो घुड़दौड़ छोड़
कर किनारे बैठ
कर विश्राम कर
रहा है, आंख
बंद कर ली हैं,
भीतर डुबकी
मार गया है।
जिसका लक्ष्य
अब बाहर नहीं
है कहीं; जिसका
लक्ष्य अब
भीतर है। जो
अंतर्मुखी हो
गया है। जिसने
एक नई यात्रा
पकड़ ली
है--अंतर्यात्रा।
वही जीतेगा।
जग की
आसा करै न
कबहूं, पानी
पिवै न मांगी
हो।
तुम तो
क्या-क्या
मांग रहे हो, पानी
भी पीने को मत
मांगना!
क्योंकि इस
जगत में प्यास
ही नहीं
मिटती। कितना
ही पानी पीओ, प्यास बढ़ती
चली जाती है।
इस जगत में
प्यास मिटाने
के उपाय ही
नहीं। प्यास
तो मिटती है
केवल परमात्मा
को पीने से।
और
परमात्मा
मांगने से
नहीं मिलता, परमात्मा
मांग छोड़ देने
से मिलता है।
इस गणित को
खयाल रख लो।
कुछ भी न मांगो।
परमात्मा को
भी मत मांगना।
मोक्ष भी मत मांगना।
मांगना ही मत!
जिस क्षण तुम
उस घड़ी में आ
जाओगे, जहां
तुम्हारे
चित्त में कोई
मांग की रेखा
भी न रही, उसी
घड़ी सब मिल
जाएगा। उसी
क्षण
तुम्हारी गागर
सागर से भर
जाएगी।
भूख
पियास छुटै जब
निंद्रा, जियत
मरै तन त्यागी
हो।
जीते-जी
जो मर जाए, उसको
हम त्यागी
कहते
हैं--पलटू कह
रहे हैं। जीए,
लेकिन ऐसे
जैसे है ही
नहीं। जीए, लेकिन जिसकी
वासना मर गई
है। उसका जीना
चरण-चिह्न
नहीं छोड़ता।
पानी पर लकीर
जैसे तुम
खींचते हो, खिंचती
नहीं। या
पक्षी जैसे
आकाश में उड़ते
हैं, उनके
पैरों के
चिह्न नहीं
छूटते। ऐसे जो
जीता है वह
वैरागी है।
जिसके जीने
में आवाज नहीं
होती। जिसके
जीने से किसी
को कोई दुविधा,
द्वंद्व, कोई पीड़ा
नहीं
पहुंचती।
जिसके जीने से
किसी को पता
ही नहीं चलता
कि वह जी रहा
है। हवा के झोंके
की तरह जो
जीता है--आया
और गया! सूखे
पत्ते की तरह
जो जीता
है--हवाएं
जहां ले जाएं
वहीं चला जाता
है। अपनी कोई
मरजी नहीं, अपनी कोई
इच्छा नहीं; परमात्मा पर
जिसने सब छोड़
दिया! जो
परमात्मा को
अपने भीतर
जीने देता है
और स्वयं को
समाप्त कर
चुका है। जो
कहता है: तेरे
हाथ की
कठपुतली हूं,
तू नचाए तो
नाचूं, तू
न नचाए तो न
नचाए। तू चलाए
तो चलूं, तू
न चलाए तो न
चलूं। तू पूरब
ले चले तो
पूरब, तू
पश्चिम ले चले
तो पश्चिम। तू
मेरा मालिक!
भूख
पियास छुटै जब
निंद्रा...
ऐसे
व्यक्ति को
भूख-प्यास और
निद्रा सब छूट
जाती है। इसका
क्या अर्थ? क्या
बुद्ध भोजन
नहीं लेते? क्या बुद्ध
पानी नहीं
पीते? क्या
बुद्ध रात
विश्राम नहीं
करते?
विश्राम
करते हैं रात।
भूख लगती है।
पानी भी पीते
हैं। लेकिन
फिर भी एक और
गहरे तल पर न
भूख है, न
प्यास है, न
निद्रा है; क्योंकि
भोजन करते
वक्त बुद्ध
साक्षी बने रहते
हैं, कर्ता
नहीं बनते।
शरीर में भोजन
जाता है; बुद्ध
तो सिर्फ
देखते
हैं--द्रष्टा
मात्र! शरीर
में पानी जाता
है; बुद्ध
तो देखते हैं।
शरीर लेट जाता
है, थक
जाता है, सो
जाता है; बुद्ध
तो देखते हैं।
बुद्ध मात्र
साक्षी हैं।
जो साक्षी हो
गया, फिर
उसे न भूख
लगती है, न
प्यास लगती
है।
मैंने
सुना है, एक
पुरानी कहानी
है, कृष्ण
के दिनों की
कहानी है, जैन
शास्त्रों
में है। कृष्ण
के एक चचेरे
भाई, नेमिनाथ,
जैनों के
तीर्थंकर
हुए। नेमिनाथ
का आगमन हुआ है।
यमुना पूर पर
है। असमय पूर
आ गया है।
नेमिनाथ नदी
के उस तरफ
ठहरे हैं। और
कृष्ण ने
रुक्मणी से
कहा कि जाओ, भोजन ले
जाओ। नेमिनाथ
को भोजन करा
आओ। वे तो इस
पार न आएंगे।
नदी पूर पर है
और जैन मुनि
पानी में नहीं
चलता। नदी की
तो बात छोड़ दो,
वर्षा में
नहीं चलता।
क्योंकि
रास्ते पर कहीं
गङ्ढे में
पानी पड़ा हो, कुछ हो।
गीली जमीन पर
नहीं चलता, गङ्ढों की
तो बात छोड़
दो। क्योंकि
गीली जमीन में
कीड़े पैदा हो
जाते हैं छोटे,
सूक्ष्म, वे दब कर मर न
जाएं। घास पर
नहीं चलता।
क्योंकि
घास-पात में
कहीं कोई
छोटे-छोटे
कीड़े दबे हों,
मर जाएं; छिपे हों, दब जाएं। तो
पानी में नहीं
चलता। तो वे
तो आएंगे नहीं,
तुम चली
जाओ।
लेकिन
उन्होंने कहा, हम
कैसे जाएं? नदी बहुत
पूर पर है! नाव
वाले भी नाव
खोलने को राजी
नहीं हैं, पूर
भयंकर है।
कृष्ण
ने कहा, यह
कोई अड़चन की
बात नहीं है।
तुम जाकर
यमुना से कहना
कि हे यमुना, अगर नेमिनाथ
जीवन भर के
उपवासे हों तो
रास्ता दे दो!
और मैं जानता
हूं कि यमुना
रास्ता देगी।
मैं नेमिनाथ
को भी जानता
हूं, यमुना
को भी जानता
हूं। तुम जाओ
तो!
भरोसा
तो नहीं आया।
लेकिन जब
कृष्ण कहते
हैं तो करके
देख लें। और
जिज्ञासा भी
जगी कि कौन जाने
ऐसा हो भी जाए
तो यह चमत्कार
होगा! संकोच
में,
संदेह में,
जिज्ञासा
में बहुत से
थालों में
भोजन सजा कर रुक्मणी
और उनकी
सखियां यमुना
के तट पर
पहुंचीं। बड़ा
पागलपन लग रहा
था यमुना से
यह कहने में कि
हे यमुना...।
लेकिन कहा
झिझकते-झिझकते
कि हे यमुना, अगर नेमिनाथ
जीवन भर के
उपवासे हों तो
रास्ता दे दो!
आंखें फटी की
फटी रह गईं, यमुना ने
रास्ता दे
दिया। दो
हिस्सों में
टूट गई, बीच
में मार्ग बन
गया। रुक्मणी
भोजन के थाल
लेकर सखियों
को लेकर उस
पार उतर गई।
नग्न नेमिनाथ
एक वृक्ष के
नीचे बैठे
हैं। उनकी देह
को देख कर ऐसा
तो नहीं लगता
कि इन्होंने
कभी भोजन न
लिया हो। बड़ी
स्वस्थ देह है।
तुमने
देखा, जैन
तीर्थंकरों
की मूर्तियां
देखीं--महावीर
की, पार्श्वनाथ
की, नेमिनाथ
की? बड़ी
स्वस्थ देह
है! कहते हैं, महावीर जैसी
सुंदर देह
पृथ्वी पर
शायद दोबारा
नहीं हुई।
देख कर
लगता तो नहीं
कि भोजन न
लिया हो कभी, उपवासे
रहे हों सदा।
मगर इस तरह के
लोगों के पास
चमत्कार होते
हैं। यमुना ने
अभी-अभी रास्ता
दिया है तो
कौन जाने...और
यमुना क्यों
रास्ता देती!
असंभव संभव
हुआ है। बहुत
थाल सजा कर
लाई थीं, नेमिनाथ
सब फटकार गए।
जो भोजन सौ
आदमियों के लिए
काफी होता, वे अकेले ही
पा गए।
जब वे
भोजन कर चुके, तब
रुक्मणी
घबड़ाई कि अब
क्या कहेंगे?
हमने कृष्ण
से यह तो पूछा
ही नहीं कि
लौटते वक्त
क्या होगा!
क्योंकि अब तो
हम यह नहीं कह
सकते, किस
मुंह से कहें!
और अब तो
बिलकुल नहीं
कह सकते, यह
आदमी
थोड़ा-बहुत
नहीं, सौ
आदमियों का
भोजन पा गया!
और ऐसा लगता
है कि और लाए
होते तो वह भी
पा गया होता।
और आंखें बंद
करके नेमिनाथ
फिर अपने
ध्यान में बैठ
गए। चिंतित, व्याकुल
यमुना के तट
पर खड़ी हैं कि
अब यमुना से
किस मुंह से
कहें! अब
पुराना सूत्र
तो काम नहीं
आएगा।
नेमिनाथ ने
पूछा कि क्या
दुविधा है? क्यों अटकी
हो? उन्होंने
कहा कि मामला
यह है, हम
यह सूत्र कहे
थे; अब यह
सूत्र तो काम
नहीं आ सकता।
नेमिनाथ खिलखिला
कर हंसे और
उन्होंने कहा,
यह सूत्र
सदा काम आएगा।
तुम फिर से
यही कहो कि यदि
नेमिनाथ जीवन
भर के उपवासे
हों तो यमुना,
मार्ग दे
दे!
पहले
तो कहा था तो
संदेह से कहा
था;
अब तो कहा
तो बिलकुल ऐसा
लगा कि पागलपन
है। मगर कोई
और उपाय था भी
नहीं।
रुक्मणी ने
कहा कि हे
यमुना, राह
दे दो अगर
नेमिनाथ जीवन
भर के उपवासे
हों। और राह
दे दी यमुना
ने!
कृष्ण
से जाकर पूछा
कि राज समझने
के बाहर है। हमें
इतनी
उत्सुकता
यमुना में थी, अब
उससे भी
ज्यादा
उत्सुकता
इसमें है कि
नेमिनाथ कैसे
उपवासे! हमारे
सामने थालों
पर थाल साफ कर
गए, अब
हमें कोई नहीं
धोखा दे सकता
कि वे उपवासे
हैं। यमुना का
मार्ग दे देना
तो छोटा
चमत्कार हो
गया अब।
कृष्ण
ने कहा, वे
उपवासे हैं, क्योंकि
साक्षी हैं।
नेमिनाथ ने
भोजन नहीं
लिया।
नेमिनाथ तो
देखते रहे।
जैसे तुम देखती
रहीं कि
नेमिनाथ भोजन
ले रहे हैं, ऐसे ही पीछे
खड़े नेमिनाथ
देखते रहे
भीतर खड़े कि
नेमिनाथ की
देह भोजन ले
रही है। तुम
भी देख रही
थीं, नेमिनाथ
भी देख रहे थे,
भोजन का
कृत्य तो शरीर
में घट रहा
था।
इसे
याद रखना, नहीं
तो यह सूत्र
खतरे में ले
जाएगा। नहीं
तो कुछ नासमझ
इस तरह की
कोशिश शुरू कर
देते हैं कि
भोजन न लो, पानी
न लो, रात
सोओ मत। सोओ
भी, भोजन
भी करो, पानी
भी पीओ, संसार
में जीओ
भी--मगर
साक्षी रहो।
भूख
पियास छुटै जब
निंद्रा...
और जो
साक्षी है
उसका सब छूट
गया। सब है और
फिर भी सब छूट
गया।
जियत
मरै तन त्यागी
हो।
जीता
है और फिर भी
मर गया।
जाके
धर पर सीस न
होवै, रहै
प्रेम-लौ
लागी।
ऐसे
व्यक्ति के
जीवन में
वैराग्य घटित
होता है। उसके
शरीर में सिर
नहीं होता।
उसके शरीर पर
सिर नहीं
होता।
जाके
धर पर सीस न
होवै...
वह
सीस-रहित होता
है,
क्योंकि
खोपड़ी से नीचे
उतर आया। उसके
पास तर्क नहीं
होता--यह कहने
का एक उपाय है
कि उसके पास सिर
नहीं होता।
तुम्हारे पास
सिर है, हृदय
नहीं। उसके
पास हृदय होता
है, सिर
नहीं।
जाके
धर पर सीस न
होवै, रहै
प्रेम-लौ
लागी।
उसके
भीतर तो बस एक
प्रेम की
ज्योति जलती
रहती है। उसके
भीतर तर्क
गया। तर्क की
जरूरत न रही।
जिसके भीतर
प्रेम की
ज्योति जग गई, प्रकाश
हो गया, तर्क
की आवश्यकता न
रही। तर्क तो
अंधे के हाथ की
लकड़ी है; अनुमान
है टटोलने के
लिए--कि
रास्ता कहां,
द्वार कहां;
कहां चलूं,
कहां न
चलूं। अंधा
टटोल-टटोल कर
चलता है। तर्क
टटोलना है।
आंख वाला लकड़ी
को फेंक देता
है; टटोल
कर चलने की
जरूरत न रही।
लकड़ी तो आंख
का बड़ा दरिद्र
परिपूरक थी।
आंख वाले को
लकड़ी की आवश्यकता
नहीं। जिसके
भीतर प्रेम का
प्रकाश हो गया,
उसके लिए
तर्क की कोई
आवश्यकता
नहीं।
जाके
धर पर सीस न
होवै, रहै प्रेम-लौ
लागी।
पलटूदास
बैराग कठिन है, दाग
दाग पर दागी
हो।।
बहुत
घाव सहने
पड़ेंगे।
प्रेम की बहुत
पीड़ा सहनी
पड़ेगी।
वैराग्य कठिन
है। प्रेम की
अग्नि से
गुजरना होगा।
जब धू-धू करके
प्रेम की
अग्नि तुम्हारे
भीतर जलेगी तो
सब कूड़ा-करकट
जल जाएगा।
कूड़ा-करकट--जिसको
तुमने कल तक
हीरे-जवाहरात
समझा था।
कूड़ा-करकट--जिसे
कल तक तुमने
विचार, ज्ञान
समझा था।
कूड़ा-करकट--जिसे
कल तक तुम सिर पर
लिए
जन्मों-जन्मों
से चलते रहे
थे--मान कर कि
बहुमूल्य है।
सब जल जाएगा।
कठिन होगा, पीड़ा होगी।
पुरानी
मान्यताएं, धारणाएं, पक्षपात, सब जल
जाएंगे। प्रेम
तुम्हें
खालिस सोना कर
जाएगा। लेकिन
खालिस सोना
होने के पहले
आग से गुजरना
होता है।
दाग
दाग पर दागी
हो।
इतनी
तैयारी हो तो
सच्चा
वैराग्य
उत्पन्न होता
है। प्रेम के
संबंध में
सोचने से नहीं, प्रेम
को जीने से
वैराग्य
उत्पन्न होता
है। झूठा
वैराग्य
प्रेम-विरोधी
होता है।
सच्चा
वैराग्य
प्रेम का फूल
है। यह भेद
खयाल में ले
लेना। झूठा
वैराग्य तो
डरता है प्रेम
से, क्योंकि
प्रेम हो तो
कहीं आसक्ति न
लग जाए। सच्चा
वैराग्य, साक्षी-भाव
जहां जग गया, वह अब डरता
नहीं; अब
तो प्रेम में
पूरी डुबकी
मारता है।
जैसे कमल झील
पर तैरता है
और झील का
पानी उसे छूता
नहीं, ऐसे
सच्चा
वैराग्य का
कमल प्रेम की
झील पर तैरता
है और कुछ भी
उसे छूता नहीं,
वह अछूता
रहता है। उसका
क्वांरापन
शाश्वत है।
स्त्री-रोगों
के एक
विशेषज्ञ ने
एक बहुविवाहित
महिला की
जांच-पड़ताल
करते समय पाया
कि वह अभी तक
क्वांरी है।
आश्चर्य से
उसकी आंखें
फटी रह गईं।
वह दांतों तले
अंगुली दबा कर
बोला, मेरा
चिकित्सा-विज्ञान
व्यर्थ और गलत
सिद्ध हो रहा
है। चमत्कार
है कि आप चार
विवाह करने के
बाद भी अभी तक
क्वांरी हैं!
इसका राज क्या
है?
राज-वाज
कुछ भी नहीं, डाक्टर
साहब! मैंने
अपने पहले पति
को इसीलिए
तलाक दिया कि
वह नामर्द था।
दूसरा विवाह
मैंने धन के
लोभ में एक
अस्सी साल के
बूढ़े मारवाड़ी
से किया था।
मेरा तीसरा
पति सुहागरात
के दिन ही
हृदय का दौरा
पड़ने से मर
गया। और मेरा
वर्तमान चौथा
पति--महिला ने
दुखी स्वर में
जवाब
दिया--उसके
बारे में कुछ
न पूछिए। वह
काम-कला का
विशेषज्ञ है
और प्रेम के
दर्शन-शास्त्र
का पंडित है।
वह प्रेम क्या
है, इसके
संबंध में ही
बातें करता
रहता है!
प्रेम करने का
तो अवसर ही
नहीं मिलता।
उसका प्रेम का
ज्ञान इतना है
कि उस ज्ञान
में ही उलझा
हुआ है।
प्रेम
के पंडित
प्रेम को नहीं
जानते, प्रेम
के शास्त्र को
जानते हैं।
उनसे तुम प्रेम
की परिभाषा
समझ सकते हो।
प्रेम पर वे
प्रवचन दे
सकते हैं, शास्त्र
लिख सकते हैं,
प्रेम पर
पीएच.डी. पा
सकते हैं; लेकिन
प्रेम नहीं
जानते।
मैं
विश्वविद्यालय
में बहुत दिन
तक रहा हूं। विश्वविद्यालयों
में जितनी
पीएच.डी.
संतों पर लिखी
जाती हैं, उतनी
किसी पर नहीं।
और मैं चकित
था यह देख कर कि
जो लोग कबीर
पर पीएच. डी.
लिखते हैं, दादू पर
पीएच.डी.
लिखते हैं, पलटू पर
पीएच.डी.
लिखते
हैं--उन्होंने
न कभी ध्यान
किया, न
कभी भक्ति की,
न कभी
वैराग्य को
जीया, न
कभी
साक्षी-भाव का
स्वाद
लिया--और कबीर
पर पीएच.डी.!
कबीर के
विशेषज्ञ हो
जाते हैं!
मैं
कबीर पर बोला, तो
कबीर
संप्रदाय के
जो सबसे बड़े
महंत हैं, उन्होंने
एक लंबा पत्र
लिखा। और लिखा
कि आपने कबीर
की बातों के
कुछ ऐसे अर्थ
किए हैं जो
शास्त्रीय
नहीं हैं और
हमारी परंपरा
के विपरीत हैं।
आपको ऐसे अर्थ
करने के पहले
कम से कम हमसे
पूछ तो लेना
चाहिए था।
मैंने
उनको लिखवाया
है कि आप पहले
कबीरदास को कहो
कि ऐसे सूत्र
लिखने के पहले
कम से कम हमसे तो
पूछ लेना था।
क्योंकि हम तो
उसी जमात के
हैं। जब कबीर
ने ही तुमसे
नहीं पूछा, तो
हम अर्थ करने
के लिए तुमसे
पूछने आएंगे?
और अगर
तुम्हारी
परंपरा के
विपरीत पड़ते
हों मेरे अर्थ,
तो
तुम्हारी
परंपरा गलत
होगी।
क्योंकि मैं कबीर
के संबंध में
नहीं बोल रहा
हूं। कबीर
मेरा अनुभव
है। मैं कोई
कबीर का पंडित
नहीं हूं, कबीर
के शास्त्रों
का ज्ञाता
नहीं हूं।
लेकिन कबीर का
जो अनुभव है
वह मेरा अनुभव
भी है। कबीर
से मेरी पहचान
है। कबीर से
मेरी मुलाकात
है। सीधी!
किसी महंत को
बीच में लेने
की जरूरत नहीं
है।
तुम्हें
अगर बदलना
हो--मैंने
उन्हें
लिखवाया--तो
अपनी किताबों
में बदल लेना।
अर्थ तो मुझे
जो करने हैं
वही मैं
करूंगा; क्योंकि
वही अर्थ हैं,
मैं कर क्या
सकता हूं!
एक
पंडित है, जो
शब्द से जीता
है, शब्द
के ही अर्थों
में लगा रहता
है। और एक ज्ञानी
है, जो
शब्द से नहीं
जीता, जो
निशब्द में
उतरता है, जो
अनुभव को पाता
है। ये बातें
अनुभव की हैं।
तो जब
तक तुम्हें
प्रेम की लौ न
जगे,
जब तक
तुम्हारे भीतर
ध्यान का दीया
न जले, तब
तक तुम्हारा
वैराग्य थोथा
रहेगा, ऊपरी
रहेगा। ऐसे
वैराग्य से
बचना। ऐसे
पांडित्य से
सावधान रहना।
अब तो
मैं बैराग भरी, सोवत
से मैं जागि
परी।
पलटूदास
कहते हैं, जिस
दिन वैराग्य
मुझमें भरा, उस दिन जो
घटना मेरे
भीतर घटी, वह
थी--सोवत से
मैं जागि परी!
उसको ही मैं
साक्षी-भाव कह
रहा हूं। सोना
यानी
कर्ता-भाव।
सोना यानी
तादात्म्य।
सोना अर्थात
यह मानना कि
मैं शरीर हूं,
मन हूं, यह
हूं, वह
हूं, नाम
हूं, जाति
हूं, वर्ण
हूं, हिंदू
हूं, मुसलमान
हूं। ये सब
नींद। ये बस
सोना। ये बस सपने।
जागने का अर्थ
कि मैं न देह
हूं, न मन
हूं, न
ब्राह्मण, न
शूद्र, न
हिंदू, न
मुसलमान; मैं
केवल शुद्ध
चैतन्य
हूं--साक्षीमात्र,
सच्चिदानंद!
इसका नाम
जागना।
अब तो
मैं बैराग भरी, सोवत
से मैं जागि
परी।
और तुम
खूब गहरी नींद
में सो रहे
हो।
अरे
बहन,
आज तुम इतनी
परेशान क्यों
दिखती हो?
रात
सपने में
मैंने देखा कि
मेरे पति किसी
अन्य स्त्री
के साथ मौज कर
रहे हैं।
तो
इसमें इतनी
परेशानी की
क्या बात है
भला?
परेशानी
की बात क्यों
नहीं! अरे जब
मेरे सपने में
वे ऐसी हरकतें
कर सकते हैं
तो खुद के
सपने में
क्या-क्या
नहीं करते
होंगे!
यहां
सपनों का बड़ा
मूल्य है।
यहां
तुम्हारी
जिंदगी ही सारी
सपना है। यहां
तुम जी नहीं
रहे हो
होशपूर्वक, यहां
तो
परिस्थितियों
के धक्के
तुम्हें जिलाए
जा रहे हैं।
परिस्थिति एक
धक्का दे देती
है तो तुम एक
काम कर गुजरते
हो। तुम सोचते
हो मैंने
किया। जरा
सोचो, तुमने
किया? एक
आदमी ने गाली
दी और
तुम्हारे
मुंह से भी
गाली निकली
उत्तर में, यह तुमने दी
या उसने दिलवा
ली? यही
आदमी बुद्ध को
गाली देता तो
बुद्ध गाली देते?
बुद्ध
मुस्कुराते
और आगे बढ़
जाते। या हो
सकता था, इसके
सिर पर हाथ रख
कर आशीर्वाद
देते। यह आदमी
बुद्ध से गाली
नहीं निकलवा सकता
था। क्यों? क्योंकि
बुद्ध जागे
हैं। लेकिन
तुमसे गाली निकलवा
लेता है। तुम
इसके गुलाम हो
गए। यह तुम्हारी
हालत बटन जैसी
कर दी; जैसे
पंखे की बटन
दबाई, पंखा
चल गया; बटन
दबाई, पंखा
बंद हो गया।
किसी ने गाली
दी, तुम
एकदम क्रोध
में आ गए, डंडा
उठा लिया।
किसी ने आकर
प्रशंसा कर दी,
थोड़ी
मक्खनबाजी की,
तुम एकदम
फूल कर कुप्पा
हो गए!
जज:
नसरुद्दीन, तुम्हारी
इतनी हिम्मत
आखिर कैसे हुई
कि तुमने अपनी
पत्नी को झाडू
से मारा?
मुल्ला:
क्या करूं
हुजूर, परिस्थिति
ही ऐसी थी कि
मैं क्या आप
खुद भी यदि
मेरी जगह होते
तो चूकते
नहीं!
जज ने
पूछा: क्या
मतलब? मैं
समझा नहीं।
मुल्ला:
जरा विस्तार
से सुनिए।
मेरी बीबी की
पीठ मेरी तरफ
थी। पास ही
में मूठ वाली
झाडू पड़ी थी।
उसकी गर्दन
में दर्द था, अतः
वह एकदम से
मुड़ कर पीछे
देख भी नहीं
सकती थी। और
फिर पीछे वाला
दरवाजा भी
खुला हुआ था।
अब बताइए
इसमें मेरा
क्या दोष है?
तुम
अपनी जिंदगी
को देखोगे तो
बस ऐसा ही
पाओगे: एक लहर
आई,
धका गई, तुम
कुछ कर गए; दूसरी
लहर आई, धका
गई, तुम
कुछ कर गए। और
फिर भी तुम
सोचते हो तुम
कर्ता हो! फिर
भी तुम सोचते
हो तुम्हारे
कृत्य कर्म
हैं!
नहीं, कर्म
नहीं हैं, प्रतिकर्म
हैं। भीड़ के
धक्कमधक्के
में हो रहे
हैं। तुम अपने
मालिक नहीं
हो। जो जागा
नहीं है, वह
अपना मालिक
होता नहीं है।
तुम नींद में
हो। इस नींद
में तो तुम
अगर स्वर्ग भी
पहुंच जाओ तो
भी नरक ही
पाओगे।
परलोक
की बात है।
धर्मराज
अच्छे मूड में
थे। शायद
लाटरी खुली
होगी या रात
जुए में जीत
गए होंगे। एक
व्यापारी से
कह बैठे, चंदूलाल,
जाओ
तुम्हें
तुम्हारी
मर्जी पर
छोड़ते हैं। स्वर्ग
या नरक, जहां
जाना चाहते हो
वहीं भेज
देंगे।
चंदूलाल
खीसें निपोर
कर बोले, भगवान,
जहां दो
पैसे कमाने की
जुगत हो वहीं
भेजो। स्वर्ग-नरक
में क्या फर्क
पड़ता है!
दो
पैसे जुड़ाने
की जहां जुगत
हो,
वहीं भेजो।
स्वर्ग-नरक
में क्या फर्क
पड़ता है!
चंदूलाल ने
जिंदगी भर बस
दो पैसे
जुड़ाए। वे स्वर्ग
में भी जाएंगे
तो भी दो पैसे
ही जुड़ाने की
आकांक्षा
रखेंगे।
मैंने
सुना है, एक
जहाज डूब रहा
था। सामान
फेंका गया
जहाज के बाहर,
ताकि वजन कम
हो जाए। और
डूब ही नहीं
रहा था जहाज, एक बड़ी
शार्क मछली
जहाज का पीछा
कर रही थी इस प्रतीक्षा
में कि कब
डूबे, कि
उसके
यात्रियों को
सफा कर जाए।
उसको भी किसी
तरह से
संतुष्ट करना
पड़ रहा था। जो
भी सामान था
उसके मुंह में
फेंका जा रहा
था। भोजन
फेंका; जहाज
संतरों के
पिटारे ढो रहा
था, वे
फेंके; टेबल,
कुर्सी, जो
मिल सका
फेंका। मगर
दस-पांच मिनट
के बाद वह फिर
शार्क मछली आ
जाए। और जहाज
डुबकी मारने
के करीब है।
आखिर यह हालत
आ गई कि तय
करना पड़ा कि अब
कुछ लोग भी
फेंकने
पड़ेंगे। सारे
लोग एक यहूदी
को फेंकने के
लिए राजी थे, क्योंकि वह
यहूदी जहाज पर
भी लोगों को
लूट रहा था।
अब अकेला
यहूदी करे भी
क्या! सबने
मिल कर उसको
फेंक दिया
शार्क मछली के
मुंह में!
लेकिन
जहाज को डूबना
था सो डूबा और
अंततः शार्क
मछली सारे
यात्रियों को
हड़प गई।
यात्री जब शार्क
मछली के पेट
में पहुंचे तो
बड़े हैरान
हुए। यहूदी
कुर्सी पर
बैठा था, टेबल
सामने लगा रखी
थी, संतरे
टेबल पर लगा
रखे थे और
दो-दो आने में
बेच रहा था।
पुराने लोग, जो शार्क
मछली खा गई थी,
खरीद रहे
थे।
यहूदी
और क्या करे!
जहां मौका मिल
जाएगा, अपनी
पुरानी आदतों
से जीएगा।
तुम
सोए हो, तुम
स्वर्ग में भी
रहो तो भी सोए
रहोगे। सच तो
यह है, अगर
तुम भरोसा कर
सको मेरी बात
पर तो मैं
तुमसे कहता
हूं: तुम
स्वर्ग में
हो! लेकिन
चूंकि सोए हो,
इसलिए नरक
में पड़े हो।
नींद नरक है, जागरण
स्वर्ग है।
अब तो
मैं बैराग भरी, सोवत
से मैं जागि
परी।
नैन
बने गिरि के
झरना ज्यों, मुख
से निकरै
हरी-हरी।
आंखों
से आंसू झर
रहे हैं आनंद
के और पहली
बार मुख से
अपने आप
हरि-हरि निकल
रहा है। एक तो
निकाला जाता
है कि लिए
माला बैठे
जल्दी-जल्दी
राम-राम
राम-राम किया, देखते
जा रहे हैं
आंख खोल कर कि
घड़ी में कितना
समय है, दुकान
पर कोई ग्राहक
तो नहीं आ गया!
लोग दुकान पर
भी बैठ कर
माला फेरते
रहते हैं।
कुत्ता आता है,
उसको भगा
देते हैं।
नौकर को इशारा
कर देते हैं
कि ग्राहक को
देख! माला जप
रहे हैं, राम-राम
भी जप रहे हैं,
हरि-हरि भी
जप रहे हैं।
लोग तो इतने
चालबाज हैं कि
सोचते हैं
परमात्मा को
भी धोखा दे
लेंगे। आदमी
को तो धोखा
देते ही हैं, अपने को तो
धोखा देते ही
हैं, परमात्मा
को भी धोखा
देने की
आकांक्षा
रखते हैं!
राम का
नाम तो तब सच
होता है जब
तुमसे झरता
है।
जैनों
में एक
प्रीतिपूर्ण
कथा है कि
महावीर बोले
नहीं, उनसे
वाणी झरी। यह
बात मुझे
रुचिकर लगती
है, सत्य
लगती है। बोले
नहीं--झरी! भेद
बहुत हो गया।
बोलने का अर्थ
होता है
प्रयोजन, प्रयास,
चेष्टा।
झरना--जैसे
पत्ता झर जाए
वृक्ष से, कि
सूरज से
किरणें झरें,
कि मेघ से
वर्षा झरे, बूंदाबांदी
हो जाए। ऐसे
मेघ से भर गए
हैं आनंद से, झर रहे हैं।
सत्य से भर गए
हैं, झर
रहे हैं। ठीक
है, महावीर
बोले
नहीं--झरे!
निर्झर हैं।
नैन
बने गिरि के
झरना...
आंखों
से आंसू--आनंद
के,
प्रेम के!
ज्यों
मुख से निकरै
हरी-हरी।
और
मुंह से तो
हरि-हरि निकल
रहा है और
आंखों से आंसू
झर-झर टपक रहे
हैं। यह है
वैराग्य--स्व-स्फूर्त।
लेकिन
तुम्हारा तो
सब झूठा है।
तुम राम को
पुकारो तो
झूठ। तुम रोओ
तो झूठ। तुम
अभिनय करने
में कुशल हो
गए हो।
तुम्हारी कुशलता
अदभुत है। तुम
सब कुछ कर
लेते हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
संगीत-समारोह
में गया। एक
महिला इतना
रद्दी गा रही
थी कि लोग बोर
ही नहीं हो
रहे थे, अनेकों
के तो हाथ
फड़फड़ा रहे थे
कि इसकी गर्दन
दबा दो। पर
महिला जान कर
छोड़ रहे थे।
अगर पुरुष
गायक रहा होता
तो पिटा होता
उस दिन।
मुल्ला भी
बहुत ऊब गया
था। उठ-उठ बैठता
था। कई बार
उसने डंडा उठा
लिया। उसने
अपने बगल में
बैठे हुए एक
शांत श्रोता
से कहा, मुझे
तो उलटी करने
का मन हो रहा
है भाई। यह
औरत गाना कब
बंद करेगी? इसकी आवाज
तो ऐसी सड़ियल
और भद्दी है
कि जैसे कोई
डालडा के
डिब्बे में
कंकड़-पत्थर
डाल कर हिलाए।
गाती है कि
रंभाती है!
आखिर यह है
कहां की गायिका
की दुम? कभी
नाम भी नहीं
सुना इन देवी
जी का। और आप
क्यों इतनी
शांति से सुन
रहे हैं? इस
स्त्री पर तो
मुझे क्रोध आ
ही रहा है, मगर
यह स्त्री तो
दूर है, कहीं
मेरा डंडा
तुम्हारे सिर
पर न पड़ जाए!
पड़ोसी
श्रोता ने
शघमदगी से सिर
हिला कर कहा
कि क्षमा करें, वह
मेरी बीबी है।
कोई सुने या न
सुने, मुझे
तो सुनना ही
पड़ेगा। और फिर
रोज-रोज का अभ्यास
भी काम पड़ रहा
है, यह रोज
ही सुनना पड़ता
है।
नसरुद्दीन
को बड़ा पछतावा
हुआ। उसने झट
से क्षमा
मांगी। कहा, माफ
करना भाईजान,
मेरा मतलब
यह था कि वैसे
आवाज तो
सुरीली है, मधुर है, सुरताल
का ज्ञान भी
अच्छा है, लेकिन
गीत ही जरा
बेढंगा है। न
शब्द अच्छे
हैं, न तुक
ठीक से मिलती
है और न कोई
श्रेष्ठ
भाव-अभिव्यंजना
है। अरे किसी अच्छे
कवि का गीत
चुनना था गाने
के लिए। कहां का
सड़ा-गला गीत
है! किस
मूरखनाथ ने
लिखा है यह गीत?
बगल
में बैठे हुए
आदमी ने शर्म
से सिर झुका
कर नीचे कहा, मैंने
ही लिखा है!
सोए
हुए लोग गीत
लिख रहे हैं, सोए
हुए लोग गीत
गा रहे हैं, सोए हुए लोग
सुन रहे हैं।
सब सड़ा-गला है,
सब
दुर्गंधयुक्त
है। जिंदगी
इतनी कुरूप
ऐसे ही नहीं
हो गई है, हम
सबने बना रखी
है। हम सबने
मिल कर इस नरक
को बनाया है।
तुम सोचते हो
नरक कहीं और
है? नरक
वहीं है जहां
तुम नींद में
हो। और स्वर्ग
भी कहीं और
नहीं है; स्वर्ग
वहीं है जहां
तुम जाग गए।
अभरन
तोरी बसन धै
फारौं, पानी
जिव नहिं जात
मरी।
लेउं
उसास सीस दै
मारौं, अगिनि
बिना मैं जाऊं
जरी।।
पलटू
कहते हैं: तोड़
डाले सारे
आभूषण, फाड़
डाले सारे
वस्त्र। अब
जीने की कोई
आकांक्षा
नहीं है। अब
जीने में कुछ
अर्थ नहीं है--ऐसे
जीने में जैसा
अब तक जीए।
मगर फिर भी
मौत नहीं आ
रही है।
लेउं
उसास सीस दै
मारौं, अगिनि
बिना मैं जाऊं
जरी।
आग तो
नहीं है, लेकिन
जल रही हूं।
फोड़ दूं सिर
को, ऐसी
दशा इस लंबी
नींद ने कर दी
है। इस नींद
में जो वस्त्र
पहन रखे थे, वे फाड़ देने
योग्य थे। जो
आभूषण समझे थे,
वे जंजीरें
थीं। जिसको
अपना समझा था,
पराया था।
जिसको मित्र
समझा था, शत्रु
था। जिसको
जीवन समझा था
वह मृत्यु थी
और जिसको
मृत्यु समझ कर
डरते थे वह
अमृत का द्वार
था।
नागिनि
बिरह डसत है
मोको, जात न
मोसे धीर धरी।
और अब
विरह ऐसा उठ
रहा है, यह जो
प्रेम की लपट
उठ रही है...
देखते
हो,
लपट हमेशा
आकाश की तरफ
उठती है! हर
दीये की ज्योति
आकाश की तरफ
उठती है।
क्यों? यह
सूरज से मिलने
की आकांक्षा,
क्योंकि हर
ज्योति सूरज
का अंग है और
अपने स्रोत
में लौट जाना
चाहती है। जिस
दिन तुम
जागोगे, तुम्हारे
भीतर की
आत्म-ज्योति
भी भागना
चाहेगी, छोड़
देना चाहेगी
इस दीये को--इस
मिट्टी के दीये
को। उड़ जाना
चाहेगी दूर
आकाश
में--सूरज तक, मूल स्रोत
तक प्रकाश के!
सतगुरु
आई किहिन
बैदाई...
लेकिन
अपने से कुछ
नहीं हो सकता
था। अपने किए बहुत
किया, कुछ न
हुआ, करवटें
ले-ले कर सो
गए। लेकिन
सतगुरु मिल
गया।
सतगुरु
आई किहिन
बैदाई...
सदगुरु
आया--वैद्य की
तरह,
चिकित्सक
की तरह।
नानक
ने कहा है कि
नानक तो वैद्य
है। बुद्ध ने भी
कहा है कि मैं
कोई उपदेशक
नहीं हूं, उपचारक
हूं।
सतगुरु
आई किहिन
बैदाई...
सदगुरु
आया और उसने
कुछ चिकित्सा
की--और फूटी आंखें
देखने लगीं, बंद
कान सुनने लगे,
सो गया हृदय
धड़कने लगा।
सिर पर
जादू तुरत
करी।
जैसे
जादू कर दिया!
सदगुरु वही है
जिसके पास जादू
घटित हो जाए।
और जादू क्या
है?
कोई हाथ से
राख निकालना
जादू नहीं है।
यह तो मदारी
रास्तों पर कर
रहे हैं। कि
हाथ से घड़ियां
निकल आएं
स्विसमेक। ये
सब तो
चालबाजियां
हैं। ये सब तो
हाथ की सफाइयां
हैं। जादू तो
बस एक है कि
कोई तुम्हें
सोते से जगा
दे। और सब
बातें व्यर्थ
हैं, मनोरंजन
हैं।
सिर पर
जादू तुरत
करी।
सदगुरु
मिल जाए तो
जादू कर दे।
लेकिन उसके ही
सिर पर कर
सकता है जो
सिर उसके
चरणों में रख
दे। सिर ही न
रखो तो सदगुरु
भी क्या करे!
तुम सिर रखो
तो जादू कर
दे। सदगुरु का
स्पर्श भी
सोते से जगा
सकता है।
रूह का
नगमा बिखरा
हुआ सा
जिस्म
का सोना पिघला
हुआ सा
हुस्न
के शोले फूट
गए हैं
होश के
बंधन टूट गए
हैं
जितने हिरन थे छूट गए हैं
कौन
कमंद-ए-शौक
बढ़ाए
सोए
हुए को कौन
जगाए
कौन ये
इन्सां, कौन
ये राही
दोश पे
डाले ता
मह-ओ-माही
जग की
कहानी, दिल
के फसाने
जितने
कदम,
उतने ही
जमाने
एक
मुसाफिर, लाख ठिकाने
राह जो
पूछे रास न आए
सोए
हुए को कौन
जगाए
खाक पे
कैसी लाश पड़ी
है
शाम-ए-गरीबां
पास खड़ी है
आबरू-ए-मरहूम
है शायद
जीस्त
की रफ्ता धूम
है शायद
जान-ओत्तन-ए-मासूम
है शायद
कौन
गिरे आंसू को
उठाए
सोए
हुए को कौन
जगाए
रोशनी
कैसी, कैसा
धुआं है
आग लगी
है,
किसका मकां
है
फूट
पड़े इफलास के
शोले
दूर
नहीं हैं, पास
के शोले
फैल न
जाएं
यास के शोले
दौड़ रे
साथी गाम बढ़ाए
सोए
हुए को कौन
जगाए
कठिन
है बात, सोए
हुए को कौन
जगाए! नींद
लंबी है, पुरातन
है, बहुत
प्राचीन है, जन्मों-जन्मों
की है। सोए
हुए को कौन
जगाए!
लेकिन
इस पृथ्वी पर
कहीं न कहीं, कोई
न कोई जगाने
वाला सदा
मौजूद होता
है। इतनी
चिंता तो
परमात्मा
तुम्हारी
लेता है कि एक
जगाने वाला
विदा होता है
तो कहीं दूसरा
जगाने वाला
पैदा हो जाता
है। यह
सिलसिला
टूटता नहीं।
एक बुद्ध गया
कि कहीं और
दूसरा कोई
बुद्ध पैदा हो
जाता है। यह
धारा अनवरत
बहती रहती है।
तुम्हारी
कठिनाई यह है
कि तुम मुर्दा
बुद्धों से
जकड़ जाते हो
और इसलिए
जिंदा
बुद्धों को
नहीं देख
पाते।
बुद्ध
को गए पच्चीस
सौ साल हो गए, कोई
अभी भी बैठा
उनकी पूजा कर
रहा है। अब
पूजा व्यर्थ
है। अगर बुद्ध
से सच में
तुम्हारा प्रेम
है तो किसी
जागे हुए
बुद्ध को खोज
लो। परमात्मा
किसी दूसरे
दीये में
रोशनी बना
होगा अब। लेकिन
तुम पुराने
दीये की तस्वीर
लिए बैठे हो
और इसलिए नये
दीये को खोजना
तुम्हें
मुश्किल हो
रहा है। मिल
भी जाए तो
पहचानना
मुश्किल, क्योंकि
तुम पुराने
दीये से
मिलाते हो। और
कोई नया दीया
पुराने दीये
से नहीं
मिलेगा। परमात्मा
नित-नूतन नये
बुद्ध पैदा
करता है। नई
ज्योतियां
आकाश से उतरती
हैं। जहां भी
कभी कोई हृदय
ध्यान में
शून्य हो जाता
है वहीं
परमात्मा की
ज्योति उतर
आती है।
लेकिन
एक बात तुमसे
कहूं: पृथ्वी
कभी परमात्मा
से खाली नहीं
होती। अप्रकट
परमात्मा तो
सब तरफ मौजूद
रहता है, लेकिन
कहीं न कहीं
परमात्मा
प्रकट भी होता
है। तुम्हारी
आंखें अगर पुराने
बुद्धों की
तस्वीरों से न
लदी हों तो तुम
सदगुरु को
जरूर पहचान
लोगे, जरूर
पहचान लोगे!
और
सदगुरु जादू
है,
तिलिस्म
है। उसका
स्पर्श भी जगा
सकता है। जागे
हुए के द्वारा
ही सोए हुए को
जगाया जा सकता
है। सोया हुआ
दूसरे सोए हुए
को कैसे
जगाएगा? हजारों
सोए हुए भी
संगठित हो
जाएं तो भी
एक-दूसरे को
जगा नहीं सकते।
यहां पांच सौ
लोग रात सो
जाएं एक-दूसरे
से कह कर कि हम
जगा देंगे
एक-दूसरे को।
मगर पांच सौ
ही सो जाएंगे।
कौन किसको
जगाएगा! कोई
जागा हुआ जगा
सकता है।
क्योंकि हिला
सकता है, डुला
सकता है, पानी
के छींटे
आंखों पर दे
सकता है। कोई
उपाय खोज
लेगा। पुकार
दे सकता है।
कोई विधि खोज
लेगा।
सीधे-सीधे न
उठोगे तो खींचेगात्तानेगा।
तुम्हारे
योग्य कोई न
कोई मार्ग
तलाश लेगा।
अगर बिलकुल न
माने, घर
में आग लगा
देगा। लपटें
उठती देख कर
भाग खड़े होओगे,
जाग खड़े
होओगे।
सदगुरु कुछ भी
कर सकता है।
क्योंकि
जागना परम धन
है; उसके
लिए कुछ भी
गंवाया जा
सकता है।
लेकिन बस जागा
हुआ ही सोए
हुए के लिए
सहायक हो सकता
है।
सतगुरु
आई किहिन
बैदाई, सिर
पर जादू तुरत
करी।
और एक
क्षण में घटना
घट जाती है।
सोए तुम चाहे जन्मों
से रहे हो, जागना
तो एक क्षण
में हो जाएगा।
पलटूदास
दिया उन मोको, नाम
सजीवन मूल
जरी।
मुझे
जगाया और मुझे
प्रभु का
स्मरण दे
दिया! मुझे
प्रभु की
स्मृति दे दी!
मुझे अपने
स्वभाव का बोध
दे दिया!
जल औ
मीन समान, गुरु
से प्रीति जो
कीजै।
जल से
बिछुरै तनिक
एक जो, छोड़ि
देति है
प्रान।
और
जिसे गुरु मिल
गया,
वह ऐसी मछली
है जिसको जल
मिल गया।
जल औ
मीन समान...
इसलिए
जो प्रेम
चाहिए शिष्य
और गुरु के
बीच,
वह वैसा
चाहिए जैसा जल
और मीन के बीच
है।
जल औ
मीन समान, गुरु
से प्रीति जो
कीजै।
ऐसा
प्रेम होना
चाहिए कि गुरु
के बिना जीना
क्षण भर को
कठिन होने लगे, असंभव
होने लगे। गुरु
तुम्हारी
श्वास बन जानी
चाहिए।
जल औ
मीन समान, गुरु
से प्रीति जो
कीजै।
जल से
बिछुरै तनिक
एक जो, छोड़ि
देति है
प्रान।
मछली
को जल से अलग
करो कि प्राण
छोड़ देती है।
शिष्य गुरु से
अलग नहीं हो
सकता। एक बार
शिष्य हो जाए, एक
बार झुक जाए
और जागने का
रस ले ले, एक
बार समर्पित
हो जाए, एक
बार प्रेम की
लपट उसके भीतर
उठ आए और
प्रेम का
स्वाद पकड़
जाए--बस! फिर
गुरु के बिना
नहीं जी सकता।
फिर गुरु में
ही जीता
है--गुरुमय
होकर जीता है।
मीन
कहै लै छीर
में राखे, जल
बिनु है
हैरान।
जो कछु
है सो मीन के
जल है, उहिके
हाथ बिकान।।
मछली
कहती है कि जल
के बिना तो
मैं हैरान हो
जाती हूं। मेरे
लिए तो जो कुछ
है जीवन, सब
कुछ, वह जल
है। उहिके हाथ
बिकान! उसके
ही हाथ बिक गई हूं।
ऐसा ही शिष्य
कहता है: गुरु
जो कुछ है, वही
मेरा सब कुछ
है। उहिके हाथ
बिकान! उसके
ही हाथ बिक
गया हूं।
इसलिए गुरु और
शिष्य का संबंध
तो बड़े पागल
प्रेम का
संबंध है, दीवानगी
का संबंध है।
यह कोई
होशियारों की
बात नहीं, यह
परवानों की
बात है। यह
मस्तों की बात
है, यह
हिम्मतवरों
की बात है।
पलटूदास
प्रीति करै
ऐसी,
प्रीति सोई
परमान।
ऐसा
प्रेम करे कि
गुरु और शिष्य
दो न रह जाएं, एक
हो जाएं। और
जिस दिन गुरु
और शिष्य एक
हो जाते हैं
उसी दिन
परमात्मा का
प्रमाण मिलता
है, और कोई
प्रमाण नहीं
है। तर्क से, विचार से
शास्त्र से
परमात्मा का
कोई प्रमाण नहीं
मिलता। जहां
गुरु और शिष्य
एक हो जाते हैं
वहां
परमात्मा का
प्रमाण मिलता
है। उस एकता में
ही परम एकता का
बोध होता है।
जैसे शिष्य और
गुरु एक हो गए
हैं, ऐसे
ही वह घड़ी भी
आती है जब
व्यक्ति
समष्टि से एक
हो जाता है।
गुरु और शिष्य
की एकता
व्यक्ति और
समष्टि की
एकता का पहला
कदम है, पहला
स्वाद है।
जैसे
आषाढ़ में
नये-नये मेघ
घिरते हैं, ऐसे
गुरु और शिष्य
आषाढ़ का
महीना। फिर
जल्दी ही खूब
वर्षा होगी और
सावन आता है! और
सावन की झरी
लगेगी! गुरु
और शिष्य के
मिलन के बाद
बस एक ही मिलन
शेष रहा:
व्यक्ति का
समष्टि से
मिलन। उस मिलन
का नाम ही
परमात्मा है,
मोक्ष है।
प्रेम
में जीओ, प्रेम
में डूबो, क्योंकि
प्रेम के
अतिरिक्त और
परमात्मा का
कोई प्रमाण
नहीं है।
प्रेम ही
प्रार्थना है!
प्रेम ही
परमात्मा है!
आज
इतना ही।
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