दिनांक
28 जून सन् 1976;
श्री
ओशो आश्रम
पूना।
प्रश्नसार:
पहला प्रश्न
:
प्यारे
ओशो! बाउल
अपनी देह में
जीते हुए ही
उत्सव आनंद
मनाते हैं। इस
सम्बंध में
क्या आप कुछ
और अधिक बता सकते
हैं?
अमेरिकन
भी अपने शरीर
को सुस्वाद्व
और सुंदर भोजन
से,
राल्फिंग और मालिश
आदि से स्वस्थ
रखकर जीवन का आनंद
लेते हैं
लेकिन मैं ऐसा
नहीं सोचती कि
यह बाउलों
जैसा ही है।
क्या आप इस पर
हमें कुछ बोध
देने की कृपा करेगे?
इन दोनों में
जमीन और आसमान
का अंतर है और
यह अंतर
मात्रात्मक
नहीं, गुणात्मक
है। आधुनिक
संसार और
आधुनिक मन
केवल खाली
मंदिरों को ही
जानता है। वह
उस सम्बन्ध
में पूरी तरह
भूल चुका है
कि इन मंदिरों
में कौन
सूक्ष्म रूप
से सुरक्षित
है। इसलिए हम
लोग मंदिरों
में पूजा किए
चले जाते हैं
लेकिन वहां
परमात्मा
जैसी दिव्यता
को भूल गये
हैं। जीवन के
केंद्र के
बारे में कुछ
भी न जानते हुए
हम लोग परिधि
पर ही घूमते
हुए ही
संतुष्ट हो
जाते हैं।
अमरीकन
अपने शरीर का
शरीर की ही
भांति मूल्यांकन
करते हुए उसी
से बंधे रहते
हैं, जब
कि बाउल अपने
शरीर को
परमात्मा का
मंदिर मानते
हुए उसकी पूजा
करते हैं।
शरीर अपने
आपमें कुछ भी
नहीं है। शरीर
के पार किसी
और चीज के
कारण ही वह
प्रकाशवान है।
शरीर की गरिमा
और गौरव शरीर
में नहीं है।
वह तो मेजबान
है। उसका
सौंदर्य तो
उसमें रहने
वाले अतिथि के
कारण है। यदि
तुम मेहमान को
भूल जाओ तो
शरीर केवल
कामनाओं को
तुष्ट करने
वाला ही बनकर
रह जाता है।
यदि तुम सदा
मेहमान का
स्मरण करते हो
तब शरीर को प्रेम
करना, शरीर
के द्वारा
उत्सव आनंद
मनाना, पूजा
करने का एक
भाग बन जाता
है।
बाउलों
की दृष्टि
बहुत व्यापक
और विराट है।
उनकी दृष्टि
में शरीर सबसे
निम्र तल, सबसे
अधिक दृश्य
भाग है, सबसे
अधिक
वास्तविक और
स्पर्श कर
महसूस करने वाला
भाग लेकिन यही
सब कुछ नहीं
है, यह तो
केवल
प्रारम्भ है।
तुम्हें शरीर
के द्वारा ही
अंदर प्रवेश
करना होता है,
यह तो ठीक
एक द्वार है।
यह तुम्हें
गहरे रहस्यों
में ले जाता
है। बाउल शरीर
को मूल्य
समझता है
क्योंकि वह
भाषाओं
और आशाओं को
धारण कर उसे
वाहन बनाता है
और शरीर के
द्वारा ही कोई
व्यक्ति यह
जान सकता है
कि जो भावों
और विचारों को
साकार रूप
देता है वह
केवल मात्र
शरीर ही नहीं
है। शरीर तो
मिट्टी के
दीये की भांति
है, परमात्मा
जिसकी ज्योति
है। एक बार
ज्योति बुझ
जाये फिर कौन
शरीर की पूजा करता
है, कौन
उसके द्वारा
उत्सव आनंद
मना सकता है? तब वह कुछ भी
नहीं है, तब
मिट्टी की देह
मिट्टी में
मिल जाती है, वह वापस
पृथ्वी में ही
मिल जाती है।
परमात्मा
के साथ ही
शरीर में धड़कन
होती है, परमात्मा के
साथ ही नाड़ी
चलती है। यदि
तुम नाड़ी में
स्पन्दित
जीवन को समझ
सकते हो, तब
धूल या मिट्टी
भी दिव्य हो
जाती है। यदि
तुम नाड़ी में
स्पन्दित
जीवन को नहीं
समझ सकते, तो
केवल धूल ही
है। तब वहां
उसका कोई अर्थ
रह ही नहीं
जाता।
अमेरिकन
लोग जिस तरह
शरीर की
अत्यधिक
देखभाल करते
हैं, वह
अर्थहीन है।
वे लोग स्वस्थ
रहने के लिए
अच्छे भोजन और
मालिश पर जोर
देते हैं।
रॉल्फिग और
हजार तरह से
अपने जीवन में
कुछ अर्थ
सृजित करने का
प्रयास करते
हैं। लेकिन
जरा उनकी आंखों
में झांको, वहां एक
गहरी रिक्तता
है। तुम
उन्हें देख कर
ही समझ सकते
हो कि वे ही
कहीं चूक रहे
हैं। वहां कोई
सुवास है ही
नहीं, उनके
जीवन पुष्प की
खिलावट हुई ही
नहीं। उसके
अंदर गहरे में
सब कुछ केवल
मरुस्थल जैसा
है, जैसे
उन्होंने सब
कुछ खो दिया
है और वे नहीं
जानते कि अब
किया क्या
जाये। वे फिर
भी अपने शरीर
सुख के लिए
बहुत सी चीजें
किए चले जाते
हैं, लेकिन
यह लक्ष्य से
चूकने जैसा है।
मैंने
एक घटना के
बाबत सुना है
रोजेनफेल्ड
अपने दांत
दिखाते और
मुस्कराते
हुए घर में
प्रवेश करते
ही अपनी पत्नी
से बोला—’‘ तुम उनका
अनुमान भी
नहीं लगा
सकतीं जो कुछ
मोलभाव कर मैं
आज लाया हूं।
मैंने आज चार
पोलिस्टर और
स्टील के
तारों वाले, किसी भी
दिशा में
आसानी से
मुड़ने वाले
रबड़ की कोटिंग
चढ़े, अंदर
से सफेद रंग
से पेंट किए
हैवी डयूटी
वाले क्या
शानदार टायर
खरीदे हैं?''
श्रीमती
रोजेनफेल्ड
ने कहा—’‘ कहीं
तुम्हारा
दिमाग तो खराब
नहीं हो गया? आखिर तुमने
टायर खरीदे
किसके लिए?
तुम्हारे पास
कार तो है ही
नहीं।’’
रोजेनफील्ड
ने उत्तर दिया—’‘ ठीक उसी
तरह जैसे तुम
चोलिया
खरीदती हो, क्या
तुम्हारी
छातियों में
उभार हैं?''
यदि
केंद्र से ही
तुम चुके जा
रहे हो तब तुम
भले ही परिधि
को कितना भी
सजाओ। इससे
दूसरे तो धोखा
खा सकते हैं
लेकिन वे तुम्हें
संतुष्ट नहीं
कर सकते। वे
कभी—कभी
तुम्हें भी
धोखे में डाल
सकते हैं, क्योंकि
कोई भी
व्यक्ति अपने
ही झूठ को बार—बार
दोहराता रहे
तो सच जैसा
लगने लगता है।
लेकिन वह
तुम्हें अंदर
से पूरी तरह
संतुष्टि नहीं
दे सकता।
अमेरिकन जीवन
का मजा लेने
के लिए हर
सम्भव कोशिश
कर रहे हैं, लेकिन फिर
भी आनंद मिलता
दिखाई नहीं
देता। बाउल
जीवन से मजे
लेने की कोशिश
नहीं कर रहा है।
वह कुछ प्रयास
कर ही नहीं
रहा, वह
केवल उसका
आनंद ले रहा
है और उसके
पास मजे लेने
के लिए कुछ है
ही नहीं—वह तो
तो बस सड़क का
भिखारी है, लेकिन उसके
पास कुछ चीज आंतरिक
है, कुछ
अज्ञात
दीप्ति उसे
चारों ओर से
घेरे रहती है।
उसका गीत केवल
मात्र गीत ही
नहीं है उसमें
कुछ स्वाद और
सुवास उस पार
का भी उतर आता
है। जब वह
नाचता है, तो
उसका केवल
शरीर ही नहीं
घूमता, कुछ
चीज उसके अंदर
गहरे में भी
नाचती है। वह
आनंद लेने की
कोशिश कर नहीं
रहा है। आनंद
स्वयं घट रहा
इसे
स्मरण रखें।
जब कभी भी तुम
आनंद लेने की
कोशिश कर रहे
हो, तुम
चूकोगे। जब
तुम
प्रसन्नता
प्राप्त करने
का प्रयास कर रहे
हो, तुम
चूकोगे ही।
प्रसन्नता
करने का
प्रयास ही
व्यर्थ है, क्योंकि
प्रसन्नता
यहां है ही, तुम उसे
प्राप्त नहीं
कर सकते। इस
बारे में कुछ
करने की जरूरत
है ही नहीं, तुम्हें बस
उसे स्वयं से
होने देना है।
वह तुम्हारे
चारों ओर अपने
आप घट ही रही
है। तुम्हारे
अंदर, तुम्हारे
बाहर, केवल
प्रसन्नता ही
है। उसके
अतिरिक्त और
कुछ भी
वास्तविक और
सत्य नहीं है।
निरीक्षण करो,
संसार में
गहरे उतर कर
देखो, वृक्षों
में पक्षियों
में चट्टानों
में बहती
नदियों में, चमकते
सितारों चांद
और सूरज में, मनुष्यों और
जानवरों में
जरा गहरे झांक
कर देखो, अस्तित्व
जिस सामग्री
से बना हुआ है
वह है, प्रसन्नता,
आनंद, सत—चिंतत,
आनंद। वह
परमानंद से ही
ओतप्रोत है।
उस सम्बंध में
कुछ भी करने
की जरूरत है
ही नहीं।
तुम्हारा कुछ
करना ही अवरोध
होगा।
विश्रामपूर्ण
रहो और वह
तुम्हें आनंद
से भर देगी, परम विश्राम
में ही,वह
तुम्हारे
अंदर वेग से
प्रविष्ट
होती है, विश्राम
करो, और वह
अतिरेक से
प्रवाहित
होने लगती है।
बाउल
विश्राममय है, और
अमेरिकन तनाव
में है। तनाव
तभी उत्पन्न
होता है, जब
तुम किसी चीज
का पीछा करते
हो, और
विश्राम तब
घटित होता है
जब तुम किसी
चीज को प्रविष्ट
होने की
अनुमति देते
हो। इसी वजह
से मैं कहता
हूं कि उसमें
बहुत बडा फर्क
है, और वह
फर्क है
गुणात्मक। यह
प्रश्न
मात्रा का
नहीं है कि
बाउलों के पास
अमेरिकन
लोगों से कुछ
अधिक है, अथवा
अमेरिकन
लोगों के पास
बाउलों की
अपेक्षा कुछ
कम है। नहीं, अमेरिकन
लोगों के पास
प्रसन्नता
जैसा कुछ भी नहीं
है, जो
बाउलों के पास
है, और
अमरीकन लोगों
के पास है ही
क्या पीड़ाएं
तनाव दुख और
मानसिक
विक्षिप्तता,
और यह
बाउलों के पास
नहीं है। ये
लोग तो पूरी
तरह से भिन्न
एक दूसरे ही
आयाम में रहते
हैं। बाउल का
आयाम है— '' यहीं
और अभी किन्तु
अमरीकन का
आयाम है—' कहीं
और '—' तब और
वहां ' लेकिन
यहां और अभी ' कभी नहीं।’’
अमेरिकन
पीछा कर रहा
है, भागते
हुए उसे पकड़
लेना चाहता है,
जीवन से कुछ
चीज पाने को
सख्त कोशिश कर
रहा है और
उसका प्रयास
है कि जीवन से
सभी कुछ निचोड़
लिया जाये।
लेकिन इससे
कुछ भी तो
नहीं मिलता, क्योंकि यह
इसका तरीका ही
नहीं है।
तुम
जीवन से कुछ
निचोड़ नहीं
सकते, तुम्हें
उसके प्रति
समर्पण करना
है। तुम जीवन
पर विजय
प्राप्त नहीं
कर सकते।
तुम्हें जीवन
से हारने के
लिए काफी
साहसी बनना
होगा। वहां
पराजय ही विजय
है, और
जीतने के
प्रयास से और
कुछ सिद्ध
होने नहीं जा
रहा है, सिवाय
अंतिम रूप से
तुम्हारी हार
और सफलता के।
जीवन
पर विजय
प्राप्त नहीं
की जा सकती, क्योंकि
खण्ड अखण्ड को
जीत नहीं सकता।
यह ठीक इसी
तरह है जैसे
मानो पानी की
एक छोटी सी
बूंद सागर पर
विजय प्राप्त
करने का
प्रयास कर रही
हो। हां छोटी
सी बूंद सागर
में गिरकर
सागर तो बन सकती
है, लेकिन
वह सागर को
जीत नहीं सकती।
वास्तव में, सागर में गिरकर,
उसमें खो
जाना ही जीतने
का तरीका है।
अपने आप को
विसर्जित कर
दो। बाउल वही
है, जो
जीवन के सागर
में घुल गया।
उसने जीवन से
पूरे हृदय से '
हां ' की,
उसे
स्वीकार किया।
वह उससे कोई
भी चीज
निचोडने की
कोशिश नहीं कर
रहा है। वह बस
प्रतीक्षा
करता है
निष्क्रिय, सजग बनकर, उपलब्ध रहता
है। जब
परमात्मा
उसका दरवाजा
खटखटाता है।
उसका द्वार
हमेशा खुला ही
रहता है, सब
कुछ केवल इतना
ही है।
वह
परमात्मा का
पीछा नहीं कर
रहा है। वह
पीछा कर ही
कैसे सकता है? हम उसे
कहां, किन
रास्तों पर और
किस तरह खोज
सकते हैं? या
तो वह हर जगह
है अथवा वह
कहीं भी नहीं
है। तुम
परमात्मा की
ओर से जीवन को
सम्बोधित
नहीं कर सकते।
तुम उसमें से
कोई लक्ष्य
नहीं बना सकते।
वह अखण्ड है।
अखण्ड को
लक्ष्य बनाया
हीं नहीं जा
सकता। तुम
जहां कहीं भी
दृष्टि उठाते
हो, वह है।
तुम जो कुछ
करते हो, तुम
उसमें होते
हुए ही करते
हो। जब तुम
दुखी भी होते
हो, तुम
उसमें रहते
हुए ही दुखी
होते हो तुम
दुख और वेदना
में भी उसे
कभी खोते नहीं
हो। तुम उसे खो
भी नहीं सकते।
वह, जो खो
सकता है, वह
परमात्मा है
ही नहीं। यही
कारण है कि
बाउल
परमात्मा को 'आधार—मानुष'
कहते हैं—सारभूत
मनुष्य—सारभूत
परम—चेतना। वह
इतना अधिक
महत्त्वपूर्ण
और सारभूत है
कि तुम उसे खो
ही नहीं सकते।
वही तुम्हारा
आधार है, वही
तुम्हारा
अस्तित्व है।
वह अपने शरीर
में उत्सव
आनंद मनाता है
क्योंकि वह
जानता है कि
कोई एक है, जो
उसके पार है, वह शरीर में
ही अतिथि बनकर
रह रहा है।
शरीर ही उसका
घर है, वह
ही उसका मंदिर
है। लेकिन वह
खाली नहीं है।
वह प्रकाश से
आलोकित है, वह जीवन से
भरपूर है और
वहां ' परमात्मा
' विराजमान
है। यह अनुभव
करते हुए ही
वह नाचता है, यह महसूस
हुए ही वह गीत
गाता है, यह
अनुभव करते
हुए ही
मुस्कराता और
रोता है और
ढलकते
अश्रुओं से
उसका चेहरा
भीग जाता है।
यह चमत्कार
देखकर '' मैंने
उसे अर्जित
नहीं किया और
वह यहां है
मैंने उसे
खोजा भी नहीं
और वह यही है, और मैंने
उससे कुछ
मांगा ही नहीं
है और फिर भी यह
यहां है '' उसके
अंदर एक महान
और अत्यधिक
कृतज्ञता
जन्मती है और
इसी कारण बाउल
नृत्य करता है।
अब मैं
यह कहूंगा ही:
अमेरिकन
प्रसन्नता
पाने और खोजने
की कोशिश कर
रहा है, इसीलिए उसका
शरीर के साथ
प्रगाढ़ सम्बन्ध
और तादात्म्य
है। उसके
विचार ने उसे
लगभग
आक्रान्त कर
दिया है। वह
सम्बन्ध और
आसक्ति की
सीमाएं लांघ
कर आवेशित हो
गया है, और
निरंतर शरीर
के बारे में
ही सोचता रहता
है। यह करूं
और वह करूं और
सभी तरह की हर
चीज आजमाऊं।
वह शरीर के
माध्यम से ही
प्रसन्नता
पाने का हर
सम्भव प्रयास
कर रहा है, और
यह सम्भव नहीं
है।
बाउल
ने उसे
प्राप्त किया
है। उसने ' उसे ' अपने
अंदर पहले ही
देखा है, महसूसा
है। उसने अपने
ही शरीर में
उसे गहरे झांक
कर देखा है, मालिश के
द्वारा नहीं,
राल्फिंग
के खेल के
द्वारा नहीं,चंदन के
सुवासित
स्नान से नहीं।
उसने प्रेम और
ध्यान के
द्वारा ही
उसका अनुभव
किया है, उसे
वहां अपने
अंदर पाया है
और उस खजाने
को अंदर ही
छिपा पाया है।
इसीलिए वह
शरीर की पूजा
करता है, इसीलिए
वह शरीर की
देखभाल करता
है। क्योंकि
यह शरीर ही उस
दिव्यता का
वाहन है।
क्या
कभी तुमने इस
बात का निरीक्षण
किया है कि एक
स्त्री जब
गर्भवती होती है
तो वह किस तरह
चलती है। क्या
तुमने एक
स्त्री के
चेहरे पर होने
वाले उस रूप
और आकृति के
परिवर्तन को
देखा है, जब वह
गर्भवती बनती
है। उसका
चेहरा, आशापूर्ण
नवजीवन और नई
संभावना से
स्पंदित होता
है, उससे
जैसे एक आलोक झरता
रहता है।
जरा ' प्रफुल्ल
' की ओर
देखो, अब
वह गर्भवती है।
जरा उसके
चेहरे की ओर
देखो—कितनी
आकृति बदल गई
है उसकी, वह
कितनी
प्रसन्न
दिखाई देती है।
वह अपने साथ
एक महान
सम्पत्ति, एक
खजाना लिए चल
रही है। उसके
द्वारा एक
नवजीवन का
सृजन होने जा
रहा है। वह
बहुत सावधानी
से चलती है, देखभाल कर
आगे बढ़ती है।
चूंकि वह
गर्भवती है।
इसलिए उसमें
एक गरिमा और
गौरव का जन्म
हुआ है। अब वह
अकेली नहीं है
उसका शरीर एक
मंदिर बन गया
है। यह
तुम्हारे लिए
समझने जैसा है।
फिर उस
बाउल के बारे
में क्या कहा
जाए?
उसके अंदर
वहां
परमात्मा है।
दिव्यता उसके
गर्भ में है।
वह प्रकाश से
आलोकित हो रहा
है। वह नाचता
है और गीत
गाता है। कुछ
भी पास न होते
हुए भी उसके
पास सभी कुछ
है, कुछ भी
पास न होते
हुए भी, वह
संसार भर में
सबसे अधिक धनी
व्यक्ति है।
एक तरह से वह
सड़क का एक
भिखारी है, और दूसरी
तरह से वह
सम्राट है।
इसी के कारण
उसके अंदर वह
घटना घटी है
कि वह उसके
प्रति सजग हो
गया है। वह
अपने शरीर के
साथ अति
आनंदित है, वह अपने
शरीर की
देखभाल करता
है और उससे
प्रेम करता है।
यह प्रेम पूरी
तरह से भिन्न
है।
और
दूसरी बात यह
है कि अमेरिकन
का मन
प्रतियोगी है।
कोई जरूरी नहीं
है कि वास्तव
में तुम शरीर
से प्रेम करते
ही हो, तुम
दूसरों के साथ
केवल
प्रतियोगिता
कर रहे हो।
क्योंकि जो
कुछ दूसरे लोग
कर रहे हैं, तुम्हें भी
वही सब कुछ
करना है।
अमरीकी मन
सबसे अधिक
उथला और
महत्त्वाकांक्षी
मन है और ऐसा
मन संसार में
आज तक किसी और
का नहीं रहा।
यह बुनियादी
रूप से वह
पूरी तरह
सांसारिक मन है।
यही कारण है
कि अमेरिका
में व्यापारी
सर्वोच्च
वास्तविकता
बन चुका है।
इसके
अतिरिक्त
प्रत्येक चीज
पृष्ठभूमि
में जाकर
धुंधली हो
चुकी है, व्यापारी
व्यक्ति ही जो
धन का
नियंत्रण
करता है वह ही
एकमात्र
सर्वोच्च वास्तविकता
है।
भारत
में ब्राह्मण
ही सर्वोच्च
स्थान पर प्रतिष्ठित
थे वे
परमात्मा के
खोजी थे।
योरोप में
आभिजात्य
वर्ग का
सर्वोच्च
स्थान था। वे
लोग
सुसंस्कृत, सजग, जीवन
की कोमल और
सूक्ष्म
भावों के
मर्मज्ञ, संगीत,
कला, कविता,
मूर्तिकला
स्थापत्य कला,
शास्त्रीय
नृत्यों तथा
ग्रीक और
लैटिन भाषाओं
के जानकार थे।
जो अभिजात्य
वर्ग था, उसे
सदियों से
जीवन के उच्च
मूल्यों की
स्थापना के
लिए अनुशासन
और आदतों के
एक ढांचे में
ढाला गया, और
वही योरोप की
सर्वोच्च
वास्तविकता
थी। सोवियत
रूस में शोषित
कुचले पददलित
और सर्वहारा
वर्ग का मजदूर
ही सर्वोच्च
वास्तविकता
है। अमेरिका
में यह स्थान
व्यापारी को
प्राप्त है।
जो धन पर
नियंत्रण
रखता है। धन
ही सबसे अधिक
प्रतियोगिता
का क्षेत्र है।
तुम्हें कला
संस्कृति की
कोई जरूरत
नहीं है जरूरत
है केवल धन की।
तुम्हें
संगीत और
कविता के बारे
में जानने की
जरूरत नहीं है,
तुम्हें
प्राचीन
साहित्य, इतिहास,
धर्म और
दर्शनशास्त्र
के बारे में
जानने की भी
कोई जरूरत
नहीं है। यदि
तुम्हारे
बैंक खाते में
एक बड़ी धनराशि
जमा है, तुम
महत्वपूर्ण
व्यक्ति हो।
इसी वजह से
मैं कहता हूं
कि अभी तक
पूरे विश्व में
जितनी भी तरह
के भी मन हैं, उनमें
अमरीकी मन
सबसे अधिक
उथला है और इस
मन ने हर चीज
व्यापार की ओर
मोड़ दी है। मन
निरंतर एक
प्रतियोगिता
में व्यस्त है।
यदि तुम वान
गाग या पिकासो
का कोई चित्र
भी खरीदते हो,
तो तुम उसे
पिकासो के
कारण नहीं
खरीदते, तुम
इसलिए उसे
खरीदते हो, क्योंकि
उसके चित्रों
को पड़ोसियों
ने खरीदा है।
चूंकि उनके
ड्राइंगरूम
में पिकासो की
पेंटिंग टंगी
है, इसलिए
तुम भी उसे
रखने के लिए
धन खर्च क्यों
नहीं कर सकते?
तुम्हारे
पास भी होना
ही चाहिए। तुम
भले ही उसके
बारे में कुछ
भी न जानते हो।
तुम भले ही यह
भी न जानो कि
उसे कैसे टांगा
जाए उसके ऊपर
और नीचे का
भाग कौन सा है।
क्योंकि जहां
तक पिकासो का
संबंध है, यह
जानना कठिन है
कि उसका चित्र
उल्टा लटका है
या सीधा? तुम्हें
यह जानने की
जरूरत नहीं है
कि वह अधिकृत
रूप से पिकासो
की ही पेंटिंग
है अथवा नहीं,
लेकिन
क्योंकि वह
दूसरों के पास
है और वे लोग
पिकासो के
बारे में
बातचीत करते
हैं, इसलिए
तुम्हें भी
अपना कला
संस्कृति का
प्रदर्शन
करना ही है।
लेकिन तुम
केवल अपने धन
का ही
प्रदर्शन कर
रहे हो। इसलिए
जो कुछ भी
कीमती होता है
वही
महत्त्वपूर्ण
बन जाता है, वह चाहे
कितना भी
कीमती क्यों न
हो, उसी के बारे
में यह सोचा
जाता है कि
वही
महत्त्वपूर्ण
है।
ऐसा
लगता है कि
जैसे केवल धन
और पड़ोसी ही
प्रत्येक चीज
को तय करने
वाले मापदण्ड
बन गए हैं, उनकी
कारें, उनकी
कोठियां, बंगले,
उनकी
पेंटिंग्स और
उनके घरों की
साज सज्जा।
लोगों के पास
सुंदर भव्य
स्नानघर है, जिनमें सुवासित
स्नान करने की
व्यवस्था है,
क्योंकि वे
अपने शरीर से
प्रेम करते
हैं। वह
आवश्यकता के
रूप में जरूरी
नहीं है, बल्कि
वह एक ऐसी चीज
है, जो घर
के अंदर इसलिए
होनी चाहिए
क्योंकि वह प्रत्येक
धनी व्यक्ति
के पास है।
यदि वह
तुम्हारे पास
नहीं है तो
तुम्हें लगता
है कि तुम
निर्धन हो।
यदि प्रत्येक
धनी व्यक्ति
की एक कोठी
पहाड़ों पर है,
तो
तुम्हारी भी
वहां एक होनी
चाहिए। तुम
भले ही यह न
जानते हो कि
पहाड़ों पर
आनंद कैसे
लिया जाता है।
तुम हो सकता
है वहां
बोरियत का ही
अनुभव करते हो
अथवा तुम अपना
टीवी. और
रेडियो भी
वहां ले जाते
हो और ठीक उसी
तरह सुनते हो,
जैसे
रेडियो को तुम
अपने घर पर
सुना करते थे
और टीवी. के
वही
कार्यक्रम
देखते हो, जैसे
घर में देखा
करते थे। इससे
क्या फर्क
पड़ता है, कि
तुम कहां बैठे
हुए हो, पहाड़
पर अथवा अपने
घर के कमरे
में? लेकिन
चूंकि दूसरों
के पास ऐसा है.......।
चार कारों को
रखने वाला
गैरेज चाहिए
तुम्हें, क्योंकि
वैसे दूसरों
के पास हैं।
तुम्हें भले
ही चार कारों
की जरूरत भी न
हो।
अमरीकी
मन निरंतर
दूसरों से
प्रतियोगिता
करने में लगा
हुआ है। बाउल
किसी का
प्रतियोगी
नहीं है। उसने
प्रतियोगिता
करना ही छोड़
दिया है। वह
कहता है—’‘ मेरा इसके
साथ कोई
सम्बंध ही
नहीं रह गया
है कि दूसरे
लोग क्या कर
रहे हैं, मेरा
सम्बंध स्वयं
अपने से हैं
कि मैं क्या
हूं? मुझे
इससे कोई मतलब
ही नहीं कि
दूसरों के पास
क्या है, मेरा
सम्बंध केवल
अपने से ही है
कि मेरे पास क्या
है?'' एक बार
तुम इस तथ्य
को समझ तो, तो
जीवन बिना
बहुत सी चीजों
के ही
आनदपूर्ण हो
सकता है। तब
उन चीजों की
फिक्र करता
कौन है?
यही
सभी अंतरों
में मूल अंतर
है, भारत
के त्यागी
संन्यासियों
और बाउलों के
मध्य। बाउल
भिखारी हैं, जैनियों के
साधू भी
भिखारी हैं, लेकिन दोनों
में बहुत बड़ा
अंतर है। जैन
मुनियों के
पास अमरीकी मन
है। उन्होंने
बहुत अधिक
श्रमपूर्ण
प्रयास करने के
बाद संसार का
त्याग किया है,
क्योंकि
उनके विचार
में उस दूसरे
संसार को प्राप्त
करने और नैतिक
गुणों को
अर्जित करने
का केवल यही
एक तरीका है।
लेकिन ये लोग
रहे व्यापारी
ही। जैन भारत
के सबसे बड़े
और समृद्ध
व्यापारी हैं।
इसी वजह से
मैं कहता हूं
कि उनके पास
एक अमरीकी मन
है। उनके
संन्यासी भी
उन्हीं जैसे
हैं।
बाउलों
का त्याग पूरी
तरह भिन्न है।
उन्होंने यह
संसार किसी
दूसरे संसार
को पाने के
लिए नहीं छोड़ा
है। उन्होंने
धन सम्पत्ति
इकट्ठा करने
की बेवकूफी को
देखते और
समझते हुए उसे
एक अनावश्यक
बोझ मानते हुए
ही इस संसार
का त्याग किया
है। उन्होंने
यह समझ कर
त्याग किया है
कि तुम बहुत
सी चीजों के
बिना इतने
अधिक प्रसन्न
कैसे बने रह
सकते हो, फिर उन
चीजों को साथ
ढोकर क्यों
चला जाए? उन्हें
साथ लिए चलने
से उत्कंठा और
व्यग्रता
उत्पन्न होती
है, जो
तुम्हें
बोझिल बनाती
है और
तुम्हारे
परमानंद को
नष्ट करती है।
जैन मुनि
दूसरे संसार
के बारे में
मोक्ष और स्वर्ग
के बारे में
सोचते हैं।
बाउल
किसी दूसरे
संसार के बारे
में फिक्र करता
ही नहीं। वह
कहता है— '' केवल यही एक
संसार है।
लेकिन तभी
तथ्यों और
बातों को समझ
कर उसने एक साधारण
सा सत्य जाना
है, कि
तुम्हारे पास
जितना अधिक
होगा, तुम्हें
उतना ही कम
आनंद मिलेगा।
क्या तुम इसे
नहीं समझ पाते?
यह जीवन का
साधारण सा
गणित है।
जितना अधिक
तुम्हारे पास
होगा तुम उतना
ही कम आनंद पा
सकोगे, क्योंकि
तुम्हारे पास
आनंद मनाने का
समय होगा ही
नहीं। पूरा
समय रखने
रखाने में चला
जाएगा। यदि
तुम्हारे पास
बहुत सी चीजें
होंगी तो तुम
ढेर सारी
चीजों में ही
व्यस्त रहोगे।
तुम्हारे
अंदर का स्थान
भी घिरा हुआ
है। आनंद
मनाने के लिए
तुम्हें थोड़े
से रिक्त स्थान
की जरूरत है, आनंद मनाने
के लिए
तुम्हें थोड़ा
भारमुक्त होने
की जरूरत है, तुम्हें
अपने धन
सम्पत्ति और
वस्तुओं को
मूलने की
जरूरत है और
केवल होना भर
है।’’
बाउल
जीवन से प्रेम
करते हैं, इसीलिए
वह सभी कुछ
छोड़ते हैं।
जैन मुनि जीवन
से घृणा करते
हैं और इसी
कारण वे संसार
का त्याग करते
हैं। इसलिए
कभी— कभी
भावाभिव्यक्ति
और मुद्राएं
एक जैसी लगती
है लेकिन
जरूरी नहीं कि
वे एक जैसी
हों। आंतरिक
महत्त्व पूरी
तरह भिन्न हो
सकता है।
मैंने
सुना है:
वृद्ध ल्यूक
और उनकी पत्नी
का जोड़ा पूरी
घाटी में
व्यंग्यवाण
छोड़ने के लिए
जाना जाता था।
ल्यूक के
मरने के कुछ
ही महीनों बाद
उनकी पत्नी भी
मृत्यु
शैय्या पर पड़ी
थी। उन्होंने
अपनी पड़ोसिन
को बुलाकर
धीमी व कमजोर
आवाज में कहा—’‘ रूढ़ी!
मुझे मरने पर
मेरी काली
सिल्क के
ड्रेस के साथ
मुझे दफनाना,
पर ड्रेस
पहनाने से
पहले उसके
पीछे का भाग
काट देना। और
उस कपड़े से एक
नई ड्रेस बना
लेना, क्योंकि
इस ड्रेस का
कपड़ा बहुत
अच्छा और महंगा
है और उसे
बरबाद करने से
मुझे घृणा है।’’
रूढ़ी
ने कहा—’‘ यह मुझसे न
हो सकेगा। जब
आप और ल्यूक
स्वर्ग की
सोने की
सीढ़ियों पर
चढ़ेंगे तो
आपकी ड्रेस
में पीछे का
भाग न होने पर
आखिर देवदूत
क्या कहेंगे?''
उसने
कहा—’‘ वे
मेरी ओर नहीं
देख रहे होंगे।
मैंने ल्यूक
को बिना पतलून
पहनाए दफन
किया था।’’
सम्बध
हमेशा दूसरे
से है— '' ल्यूक
बिना पतलून के
होंगे, इसलिए
प्रत्येक
उन्हें देख
रहा होगा।
अमरीकी का
सम्बंध भी
दूसरे के ही
साथ है।’’
बाउल
का सम्बंध बस
स्वयं से ही
होता है। इन
अर्थों में
बाउल बहुत
स्वार्थी है।
वह तुम्हारे
बारे में
फिक्र करता ही
नहीं, वह
किसी भी चीज
के बारे में
भी फिक्र नहीं
करता, जो
तुम्हारे पास
है अथवा न उस
चीज के बारे
में कि तुमने
उसके साथ कैसा
व्यवहार किया।
वह तुम्हारी
जीवन गाथा के
साथ कोई
सम्बंध रखता
ही नहीं। वह
इसी पृथ्वी पर
ऐसे रहता है, जैसे मानो
वह अकेला हो।
वास्तव में
उसके पास और
उसके चारों ओर
बहुत विराट
स्थान है, क्योंकि
वह इसी पृथ्वी
पर यों रहता
है, जैसे
मानो वह अकेला
ही। वह इस
पृथ्वी पर
बिना दूसरों
से कोई सम्बंध
रखे और दूसरे
लोग उसके बारे
में क्या
सोचते हैं, इसकी फिक्र
किए बिना
घूमता है। वह
अपना जीवन
अपनी तरह से
जीता है वह
अपना ही काम
करता है और वह
उसे अपने
अस्तित्व के
लिए ही कर रहा
है। वास्तव
में वह एक
छोटे बच्चे की
भांति आनंदित
है। उसकी खुशी
बहुत साधारण
और निर्दोष है।
वह चतुराई या
व्यवस्था से
उत्पन्न नहीं
हुई। वह बहुत
सहज, सरल
सारभूत और
बच्चे जैसी
मौलिक है।
क्या
तुमने कभी
किसी बच्चे को
बस दौड़ते हुए
चीखते
चिल्लाते हुए
अथवा बिना
किसी बात के
लिए अकारण
नाचते हुए
देखा है, क्योंकि
उसके पास कुछ
भी तो नहीं है?
यदि तुम
उससे पूछो—’‘ तुम इतने
खुश क्यों हो?''
तो वह
तुम्हारे
उत्तर देने
में समर्थ न
हो सकेगा वह
वास्तव में
यही सोचेगा कि
तुम पागल हो।
क्या खुश होने
के लिए भी
वहां किसी
कारण की कोई
जरूरत है? उसे
तो इसी बात से
चोट लगेगी कि
यह क्यों शब्द
उत्पन्न ही
क्यों हुआ?
वह
अपने कंधे उचकायेगा
और अपने
रास्ते आगे
बढ़ते हुए फिर
से नाचना और
गाना शुरू कर
देगा। बच्चे
के पास कुछ भी
तो नहीं है।
वह अभी कहीं
का न तो
प्रधानमंत्री
है, न
अमेरिका का
अध्यक्ष है और
न रॉकफेलर
जैसा धनी है।
उसके पास कुछ
भी तो नहीं है,
हां थोड़े से
शंख, सीपी
अथवा थोड़े से
पत्थर हो सकते
है, जो
उसने सागर तट
से बटोरे हैं,
बस सब कुछ
यही उसकी
सम्पत्ति है।
सब कुछ
यही तो रखते
हैं बाउल अपने
पास थोड़े सी सीपिया, थोड़े से
रंगीन पत्थर
वे इन पत्थरों
को पिरोकर एक
माला बना लेंगे
और पहन लेंगे,
एक छोटा सा
वाद्ययंत्र
गीत गाने को, कुछ घंटियां
अपने अंतर्तम
के परमात्मा
को बजाकर
रिझाने के लिए
एक तार वाला
छोटा इकतारा
क्योंकि एक
तार ही काफी
है उनके लिए
और एक छोटी सी
डुग्गी या
ढफली, बस
इतना ही सब
कुछ।
एक
बाउल संसार के
बिना कोई नाता
जोड़े हुए ही चैन
से सोता है।
वह संसारे से
कोई नाता जोड़े
बिना ही घूमता
है। उसका
परमात्मा
हमेशा उसके ही
साथ रहता है, इसलिए वह
जहां कहीं भी
होता है, वहीं
उसका मंदिर और
तीर्थ होता है।
वह कभी किसी
मंदिर में
नहीं जाता, ऐसा नहीं कि
वह उसके
विरुद्ध है।
वह कभी किसी
मस्जिद में भी
नहीं जाता, ऐसा नहीं कि
वह उसके खिलाफ
है। वह असली
मंदिर तक आ पहुंचा
है और अब उसे
कहीं और जाने
की कोई जरूरत
ही नहीं।
प्रेम, उसकी
प्रार्थना और
उसकी पूजा
सारभूत
अस्तित्व की
ही है, कि ' वह ' है।
बाउल
का जीवन
मृत्यु होने
पर समाप्त
नहीं हो जाता, जब कि
अमरीकन के
मरते ही उसके
जीवन का अंत
हो जाता है।
जब शरीर मर
जाता है अमरीकन
का अंत हो
जाता है।
इसीलिए
अमेरिकन
मृत्यु से
बहुत भयभीत
हैं। अमेरिकन
अपने जीवन को
लम्बा बनाने
के लिए हर तरह
की कोशिश में
लगे हुए हैं।
कभी—कभी तो
जीवन बढ़ाने के
लिए वे व्यर्थ
के प्रयास कर
रहे हैं। अब
वहां बहुत से
अमेरिकन ऐसे
हैं, जो
अस्पतालों और
मानसिक चिकित्सालयों
में बस
निष्क्रिय
लेटे हैं। वे
जीवित नहीं
हैं, वे
काफी पहले ही
मर चुके हैं।
डॉक्टरों ने
दवाओं ने और
आधुनिक साजो
समान ने उनके
साँस चलने की
व्यवस्था भर
कर दी है।
किसी तरह वे
केवल सांस की
डोरी से हिलगे
हुए हैं।
मृत्यु
का इतना अधिक
भय है कि
उन्हें : एक
बार यदि तुम
गए तो हमेशा
के लिए चले
जाओगे, कुछ भी
जीवित न बचेगा
और जो व्यक्ति
मृत्यु से
भयभीत है वह
जीवन से भी
डरेगा, क्योंकि
जीवन और
मृत्यु दोनों
एक दूसरे के
इतने अधिक साथ
हैं कि यदि
तुम मरने से
डर रहे हो तो
तुम जीवन से
भी भयभीत बने
रहोगे।
यह
जीवन ही है जो
मृत्यु लाता
है, इसलिए
यदि तुम
मृत्यु से डर
रहे हो तो तुम
वास्तव में
जीवन से कैसे
प्रेम कर सकते
हो? भय तो
वहां बना ही
रहेगा। यह
जीवन ही है जो
मृत्यु लाता
है, तुम
उसे समग्रता
से जी नहीं
सकते। यदि
मृत्यु
प्रत्येक चीज
को समाप्त कर
देती है, यदि
यही तुम्हारे विचार
और समझ है तब
तुम्हारा
जीवन तेजी से
आगे भागते हुए
पीछा करने
वाला जीवन
जैसा बन गया है।
क्योंकि
मृत्यु आ रही
है इसलिए तुम
संतोषी बनकर
बैठ नहीं सकते।
इसीलिए
अमेरिकन को
रफ्तार का भूत
सवार है।
प्रत्येक चीज
बहुत तेजी से
करना है उसे, क्योंकि
मृत्यु शीघ्र
पहुंचने वाली
है, इसलिए
मृत्यु आये, इससे पूर्व
ही जितनी अधिक
से अधिक चीजों
की व्यवस्था
करने की कोशिश
कर सको, जुटा
लो। मरने से
पहले अपने
अस्तित्व को
जितने अधिक से
अधिक अनुभवों
से गुजार सको,
गुजारो और
उन अनुभवों से
उसे पूरी तरह
भर दो, क्योंकि
एक बार तुम
मरे, तो बस
मर ही गए।
इससे एक बहुत
बड़ी
अर्थहीनता
उत्पन्न होती
है और
वास्तविकता
वेदना और
व्यग्रता का
जन्म होता है।
यदि वहां कुछ
भी ऐसा नहीं
है जो शरीर को
जीवित बनाये
रख सके, तब
तुम जो कुछ भी
करते हो, वह
बहुत गहरा
नहीं हो सकता।
तब तुम जो कुछ
भी करो, वह
तुम्हें
संतोष नहीं दे
सकता। यदि
मृत्यु ही अंत
है और कुछ भी
जीवित नहीं रहता,
तब जीवन का
कोई अर्थ और
महत्व नहीं रह
जाता। तब वह
एक मूर्ख की
कही कहानी
होती है—शोर
और क्रोध से
भरी हुई, जिसका
कुछ भी मतलब
नहीं होता है।
बाउल
जानता है कि
वह शरीर में
है, लेकिन
वह शरीर ही
नहीं है। वह
शरीर से प्रेम
करता है, वह
उसका घर है, उसका अपना
आश्रय—स्थल
उसका अपना
मंदिर है। वह
शरीर के
विरुद्ध नहीं
है, क्योंकि
अपने ही घर के
विरुद्ध होना
मूर्खता है, लेकिन वह
भौतिकतावादी
नहीं है। वह
जमीन से जुडा
हुआ है, लेकिन
पदार्थवादी
नहीं है। वह
बहुत सच्चा और
वास्तविक है
लेकिन वह
यथार्थवादी
नहीं है। वह
जानता है कि
उसे एक दिन
मरना है लेकिन
यहां कुछ भी
नहीं मरता।
मृत्यु आती है
लेकिन जीवन
चलता ही रहता
है।
मैंने
सुना है:
मुर्दे
को दफन करने
के सभी
संस्कार पूरे
होने के बाद
कब्रिस्तान
के केयर टेकर
डेसमंड ने देखा
कि एक काफी
वृद्ध सज्जन
उसकी बगल में
ही खडे हुए हैं।
उसने उनसे
पूछा—’‘ क्या
आप शोक—संतप्त
परिवार के कोई
सम्बंधी हैं?''
उस
वरिष्ठ
नागरिक और के
व्यक्ति ने
उत्तर दिया—’‘ हां! मैं
सम्बंधी ही
हूं उनका।’’
'' आपकी
आयु कितनी है?''
'' चौरानवे
वर्ष।’’
गला
खखारते हुए
डेसमण्ड ने
कहा—’‘ फिर
घर तक जाने का
फेरा आपको
बहुत महंगा
पड़ेगा।’’
लोगों
का सारा सोच
विचार शरीरगत
जीवन के बारे
में ही है।
यदि तुम
चौरानवे वर्ष
के हो, तो
बात खत्म हो
गई। तब घर
वापस लौटना
महंगा है, इससे
अच्छा है, अभी
मर जाओ।
तुम्हें भी उस
मुर्दे के साथ
दफन कर दिया
जाये। घर वापस
लौटने की आखिर
क्या तुक है
क्योंकि तुम्हें
शीघ्र यहां
फिर वापस आना
होगा। यह शरीर
अब क्या दे
सकता है.......? जब
मृत्यु ही
अंतिम सत्य है,
तब तुम
चौरानवे वर्ष
के हो या
चौबीस वर्ष के
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
तब अंतर
केवल थोड़े से
वर्षों का ही
तो है। तब
बहुत युवा भी
का अनुभव करना
शुरू कर देता
है और बच्चा
जन्म से ही
मृत होने का
अनुभव करने लगता
है। एक बार
तुम यह समझ
जाओ कि शरीर
ही केवल मात्र
जीवन है, तब
फिर उसका
महत्त्व क्या
रह जाता है? तब उसे ढोये
चले जाने से
होता क्या है?
कामू
ने लिखा है कि
मनुष्य के लिए
आधारभूत
सूक्ष्मतम
समस्या—केवल
आत्महत्या
करना है। मैं
उससे सहमत हूं
यदि केवल शरीर
ही पूरी वास्तविकता
है, तब
फिर तुम्हारे
अंदर ऐसा कुछ
भी नहीं है जो
उसके पार हो, तब वास्तव
में इस बात पर
विचार करना
बहुत महत्वपूर्ण
हैं, उस पर
चिंतन और
ध्यान करना
बहुत जरूरी है।
फिर तुम
आत्महत्या
क्यों नहीं कर
लेते? चौरानवे
वर्ष तक आखिर
प्रतीक्षा
क्यों करते हो?
और फिर
क्यों सभी तरह
की पीड़ाएं और
दुःख भुगतते
हो? फिर
क्यों इस तरह
की समस्याओं
का सामना करते
हो? यदि
कोई व्यक्ति
मरने ही जा
रहा है, फिर
वह आज ही
क्यों नहीं मर
जाता? फिर
क्यों कल
सवेरे फिर
जागना? यह
सभी कुछ
व्यर्थ दिखाई
देता है।
इसलिए
एक ओर तो
अमरीकी
मनुष्य
निरंतर एक
स्थान से
दूसरे स्थान
की ओर दौड़ रहा
है और किसी न
किसी तरह
अनुभवों को
जैसे छीन लेना
चाहता है, वह किसी
की भांति किसी
अनुभव से
चूकना नहीं चाहता।
वह पूरे विश्व
में चारों ओर
एक नगर से
दूसरे नगर में
एक देश से
दूसरे देश में
और एक होटल से
दूसरे होटल में
भागता फिर रहा
है। वह एक
चर्च से दूसरे
पूजा घर में, एक गुरु से
दूसरे गुरु के
पास की खोज
में भटक रहा
है। क्योंकि
मृत्यु चली आ
रही है। एक ओर
तो पागल की
तरह निरंतर
किसी के पीछे
भागने की
प्रवृत्ति और
दूसरी और कहीं
गहरे में एक
चिंता और सोच
कि यहां सभी
कुछ व्यर्थ है
क्योंकि
मृत्यु सभी का
अंत कर देगी
इसलिए तुम भले
ही समृद्धि
भरा जीवन
बिताओ या गरीबी
में रहो, तुम
चाहे
बुद्धिमान बन
कर रहो या
मूर्ख बनकर, चाहे तुम एक
महान प्रेमी
बन कर रहो या
प्रेम से चूक
जाओ, आखिर
इन सभी बातों
से फर्क क्या
पड़ता है?
अंत
में मृत्यु
आती है और
प्रत्येक
व्यक्ति को एक
जैसा कर देती
है बुद्धिमान
और मूर्ख, संत और
पानी, बुद्ध
और बुद्ध सभी
मिट्टी में
मिलकर विलुप्त
हो जाते हैं।
इसलिए इन सभी
चीजों की
जरूरत क्या है?
चाहे तुम
बुद्ध या जीसस
बनकर रहो या
जुदास बनकर, आखिर इससे
क्या फर्क
पड़ता है? जीसस
क्रॉस पर चढ़कर
मर जाते हैं।
जुदास अगले ही
दिन
आत्महत्या कर
लेता है, दोनों
ही पृथ्वी में
समा जाते हैं।
इसलिए
एक ओर तो यह भय
है कि तुम चूक
जाओगे और दूसरे
लोग उसे
प्राप्त कर
लेंगे, और दूसरी ओर
गहरे में यह
चिंता भी है
कि यदि तुमने
उसे प्राप्त
भी कर लिया, तो कुछ भी तो
नहीं पाया।
यदि तुम पहुंच
भी गए तो भी
तुम कहीं नहीं
पहुंचते, क्योंकि
मृत्यु आती है
और प्रत्येक
चीज को नष्ट
कर देती है।
बाउल
अपने शरीर में
ही जीता है, अपने
शरीर से प्रेम
करता है, उत्सव
आनंद मनाता है
लेकिन यह शरीर
नहीं है। वह
उस सारभूत
मनुष्य, उस
' आधार—मानुष
' को जानता
है। वह जानता
है वहां कुछ
चीज उसके अंदर
भी है, जो
उसके मरने पर
भी जीवित
रहेगी। वह
जानता है कि
वहां उसमें
कुछ चीज ऐसी
है, जो
शाश्वत है और
समय भी उसे नष्ट
नहीं कर सकता।
ध्यान के
द्वारा प्रेम
और प्रार्थना
के द्वारा वह
इस अनुभव तक
पहुंचा है।
इसके द्वारा
ही उसे अपने
अंदर
अस्तित्व में
उसका अनुभव
हुआ है। वह
निर्भय है। वह
मृत्यु से
भयभीत नहीं है,
क्योंकि वह
जानता है कि
जीवन क्या है
और वह खुशी या
आनंद के पीछे
नहीं भाग रहा
है, क्योंकि
वह जानता है
कि परमात्मा
उसके पास आनंद
मनाने के
लाखों अवसर
स्वयं भेज रहा
है। उसे केवल
उसे स्वीकार
करना है।
क्या
तुम यह देख
सकते हो कि
वृक्ष पृथ्वी
में अपनी जड़े
जमाये हुए हैं।
वे कहीं और
नहीं जा सकते
और वे फिर भी
प्रसन्न हैं।
वे प्रसन्नता
और आनंद के
पीछे नहीं भाग
सकते।
निश्चित रूप
से वे चलकर
आनंद कहीं और
खोज नहीं सकते।
वे जड़ें जमाये
जमीन पर खड़े
हैं, वे
चल फिर नहीं
सकते, लेकिन
क्या तुम
उन्हें आनंद
से झूमते हुए
नहीं देखते।
क्या तुम यह
नहीं देख सकते
कि जब मेह
बरसता है तो
खुशी से वे
दीवाने हो
जाते हैं, क्या
तुम उनके अंदर
उस संतोष और
तृप्ति को नहीं
देखते, जब
तेज हवा में
वे इधर से उधर
शराबी की तरह
झूमते हैं।
क्या तुम्हें
ऐसा नहीं लगता
कि वे नाच रहे
हैं?
अब नई
खोजें यह
बतलाती हैं कि
जब माली
वृक्षों और
पौधों के निकट
जाता है और
क्योंकि वह
उन्हें प्रेम
करता है, तो उसके
निकट आने पर
वृक्ष और पौधे
भी खुश होकर
आनंद मनाते
हैं। यदि तुम
किसी वृक्ष से
प्रेम करते हो
और तुम उसके
निकट जाओ तो
वह खुशी मनाता
है, जैसे
मानो उसका कोई
महान मित्र
उसके पास आया
हो। अब यहां
इस बात की
जांच करने के
लिए वैज्ञानिक
यंत्र भी है
कि वृक्ष
प्रसन्न है
अथवा नहीं? एक भिन्न लय
से वह स्पंदित
होता है। जब
उसका कोई
शत्रु
लकड़हारा या
बढ़ई उसके निकट
जाता है तो
वृक्ष किसी
उपद्रव होने
की आशंका से
बैचेन और
भयभीत हो जाता
है और जब तुम
किसी वृक्ष को
काटते हो, तो
अब वैज्ञानिक
बतलाते हैं कि
उसके आसपास के
वृक्ष भी रोते
और चीखते हैं।
केवल यह ही
नहीं, कि
तुम जिस वृक्ष
को काटो तो
केवल वही
वृक्ष रोता या
चीखता है, उसके
आसपास के सभी
वृक्ष रोते और
चीखते हैं। और
ऐसा केवल
वृक्षों के
साथ नहीं है, बल्कि यदि
तुम एक पक्षी
भी मारो, तो
भी सभी वृक्ष
रोना शुरू कर
देते हैं
सूक्ष्म आंसू
महान पीड़ा और
वेदना के रूप
में चारों ओर
फैल जाते हैं।
लेकिन वे जड़ें
जमाये थिर खड़े
हैं, वे
कहीं भी आते—जाते
नहीं। फिर भी
जीवन उनमें
स्पंदित हो
रहा है।
यही
बाउलों की भी
समझ है कि
कहीं और जाने
की कोई जरूरत
नहीं। यदि तुम
एक वृक्ष के
नीचे बैठना
शुरू कर दो, तो जैसा
कि बुद्ध को
घटा, परमात्मा
स्वयं उनके
पास चलकर आया।
वह कहीं भी
नहीं जा रहे
थे, बस
वृक्ष के नीचे
केवल बैठे हुए
थे।
तुम बस
वह क्षमता और
योग्यता
उत्पन्न करो, सब कुछ
आता है, तुम
बस उसे आने की
अनुमति दो।
जीवन पहले ही
से तुम्हें सब
कुछ देने को
तैयार बैठा है।
तुम ही इतनी
सारी बाधाएं
खड़ी कर रहे हो,
और सबसे बड़ी
बाधा जो तुम
उत्पन्न कर
सकते हो, वह
है उसका पीछा
करना, उसके
पीछे भागना।
क्योंकि
तुम्हारे
भागने और पीछा
करने से जब भी
जीवन आकर
तुम्हारा
दरवाजा
खटखटाता है, वह तुम्हें
कभी वहां पाता
ही नहीं। तुम
हमेशा कहीं और
ही रहते हो।
जब जीवन
तुम्हारे पास
वहां पहुंचता
है, तुम
वहां से कहीं
और चले गए
होते हो।
' प्रफुल्ल
'। तुम
काठमाण्डू
में थी, जब '
जीवन ' काठमाण्डू
पहुंचता है तो
तुम गोआ में
होती हो। जब
तुम गोआ में
हो और ' जीवन
' किसी तरह
गोआ पहुंचता
है तुम पूना
में होती हो।
और जिस समय वह
पूना आयेगा
तुम
फिलाडेल्फिया
में होगी।
इसलिए तुम ' जीवन ' का
पीछा करती रहो
और जीवन
तुम्हारा
पीछा किए जाता
है और मुलाकात
कभी घटती नहीं।
बस
जहां हो, वहीं बने
रहो, केवल
होना भर रह
जाये, प्रतीक्षा
करो और
धैर्यधारण
करो।
दूसरा
प्रश्न :
प्यारे
ओशो! आपके
पास आने से
पहले, मैं
बौद्धों का एक
ध्यान 'मैत्री
भावना' किया
करता था। वह
स्वयं अपने से
ही बात करने
से शुरू करना
होता था—''मैं
ठीक बना रहूं, मैं
प्रसन्न बना
रहूं, मैं
किसी से
दुश्मनी करने
से मुक्त बना रहूं, मैं स्वयं
विरुद्ध, रुग्ण
इच्छा और भावना
से मुक्त बना
रहूं, ''इन
भावों को अंदर
गहरे में ले
जाने से ये
विचार,
ध्यान का अगला—
चरण उत्पन्न
करते है,
जिसमें मैं उन
लोगों का खयाल
करते हुए जिन्हें
तुम प्रेम
करते हो,
उन तक यहीं
शुभ भावना
सम्प्रेषित
करनी होती है?
तब फिर तुम
जिन
व्यक्तियों
से कम प्रेम
करते हो,
उन तक भी यही
भाव
सम्प्रेषित
किए जाते हैं
और यह तब तक
करना होता है।
जब तक तुम उन
लोगों के लिए
भी करुणा का
अनुभव न करने
लगो? जिनसे
तुम घृणा करते
हो।
इस
ध्यान के
द्वारा मुझे
बहुत अच्छे
अनुभव हुए, इसके
द्वारा किसी
तरह मैं
दूसरों के लिए
खुला और मैं
अब भी यह अनुभव
करता है कि
उसमें वास्तव
में कुछ बीज
गहरी और
आधारभूत है लेकिन
जब मैं आपके
सान्निध्य
में आया तो
मैने इस ध्यान
को इसलिए करना
छोड़ दिया
क्योंकि
मैंने इसमें
एक तरह के
आत्म सम्मोहन
कर खतरा देखा।
मैं अब
भी इस ध्यान
का अनुभव करना
चाहता हूं, लेकिन इस
उलझन में हूं
कि मुझे एक
भिन्न रूप
में इसे फिर
से शुरू करना
चाहिए अथवा इसका
विचार ही छोड़
देना चाहिए।
क्या आप
हम ध्यान के
सम्बंध में
मुझे बताने की
अनुकम्पा करेंगे? मैं आपका
बहुत कृतज्ञ
होऊगा।
मैत्री भावना
सबसे अधिक गहराई
तक ले जाने
वाले ध्यानों
में से एक है।
तुम्हें किसी
भी तरह के
आत्मसम्मोहन
से भयभीत होने
की कोई
आवश्यकता
नहीं है, क्योंकि यह
आत्मसम्मोहन
है ही नहीं।
वास्तव में यह
एक तरह के
सम्मोहन से
वापस होने या
मुक्त होने की
प्रक्रिया है।
यह सम्मोहन
जैसी लगती
जरूर है, क्योंकि
यह सम्मोहन की
उल्टी विधि है,
तुम अपने घर
से चलकर मेरे
पास आ गए हो, तुमने पूरा
रास्ता चलकर
तै कर लिया है।
अब तुम्हें
वापस जाने के
लिए उसी
रास्ते पर चलना
होगा। अंतर
केवल इतना ही
होगा कि अब
तुम्हारी पीठ
मेरी ओर होगी।
रास्ता वही
होगा, तुम
भी वही होगे, लेकिन
तुम्हारा
चेहरा मेरी ओर
था, जब तुम
मेरी ओर आ रहे
थे। अब
तुम्हारी पीठ
मेरी ओर होगी।
मनुष्य
पहले ही से
सम्मोहित है।
प्रश्न उसके
अब सम्मोहित
किये जाने
अथवा न किये
जाने का नहीं
है। तुम पहले
से ही
सम्मोहित हो।
समाज की पूरी
विधि ही एक
तरह का
सम्मोहन है।
किसी
व्यक्ति से यह
कहा जाता है
कि तुम ईसाई हो
और यह निरंतर
इतनी बार
दोहराया जाता
है, कि
उसका मन ईसाई
अनुशासन और
आदतों के
ढांचे में
आबद्ध
अर्थात्
कंडीशंड हो
जाता है और वह
सोचने लगता है
कि वह एक ईसाई
है। कोई
व्यक्ति
हिंदू है, कोई
व्यक्ति
मुसलमान है।
यह सभी सम्मोहन
हैं। यदि तुम
सोचते हो कि
तुम मुसीबत
में हो, यह
भी एक सम्मोहन
है।
तुम
पहले ही से
सम्मोहित हो।
यदि तुम सोचते
हो कि तुम
मुसीबत में हो।
यह भी एक
सम्मोहन है।
यदि तुम सोचते
हो कि
तुम्हारी
अनंत
समस्याएं हैं, तो यह भी
एक सम्मोहन है।
तुम जो
कुछ भी हो, वह एक तरह
का सम्मोहन है।
समाज ने
तुम्हें जो
विचार दिए हैं
और अब तुम उन
विचारों और ' कंडीशनिंग '
से भरे हुए
हो।
मैत्री—
भावना, सम्मोहन से
मुक्त करने का
प्रयोग है।
तुम्हारे मन
को स्वाभाविक
दशा में लाने
और तुम्हें
तुम्हारा मूल
चेहरा वापस
दिलाने का यह एक
प्रयास है। यह
तुम्हें उस
बिंदु पर लाने
का प्रयास है,
जहां तुम
जन्म लेने के
समय थे और
समाज ने तुम्हें
भ्रष्ट नहीं
किया था। जब
एक बच्चा जन्म
लेता है वह
मैत्री भावना
ही में रहता
था। मैत्री—
भावना का अर्थ
है—मित्रता
प्रेम और
करुणा। जब एक
बच्चा जन्म
लेता है वह
किसी घृणा को
न जानकर, केवल
प्रेम को
जानता है।
प्रेम के
अंतर्निहित
घृणा भी छिपी
है यह वह बाद
में सीखेगा।
प्रेम में
क्रोध भी छिपा
है—यह वह बाद
में सीखेगा।
ईर्ष्या, मालकियत
और किसी की
उन्नति देखकर
जलन, ये
सभी कुछ वह
बाद में
सीखेगा। ये
सभी वे चीजे
हैं जो समाज
उसे सिखायेगा:
कैसे
ईर्ष्यालु
बना जाता है, कैसे घृणा
की जाती है और
कैसे क्रोध और
हिंसा से भरकर
पागल हुआ जाता
है। ये सभी
चीजें समाज
द्वारा सिखाई
जाएंगी।
जब
बच्चे का जन्म
होता है, वह केवल
प्रेम ही होता
है। उसे ऐसा
होना ही होता है,
लर' .क्योंकि
इसके अतिरिक्ति
वह और कुछ
जानता ही नहीं।
वह मां के गर्भ
में उसका सामना
किसी शत्रु से
हुआ ही नही।
वह नौ माह तक गहरे
प्रेम में ही रहा
है, चारों
ओर से प्रेम
से घिरे हुए
प्रेम से ही
उसका पोषण हुआ
है। वह किसी
ऐसे व्यक्ति को
नहीं जानता जो
उससे शत्रुता रखता
हो। वह केवल मां
को जानता है
और वह केवल
मां के प्रेम
को जानता है।
जब
उसका जन्म हुआ, उसका
पूरा अनुभव
प्रेम का ही
है, इसलिए
तुम उससे यह
आशा कैसे कर
सकते हो कि वह
कोई भी घृणा
जैसी चीज भी
जाने? यह
प्रेम वह अपने
साथ लेकर आता
है, यह
उसका मौलिक चेहरा
है। बाद में
वहां
मुसीबतें भी
आयेंगी, तब
वहां बहुत से
अन्य अनुभव भी
होंगे। वह
लोगों पर
अविश्वास
करना शुरू कर देगा।
एक नया जन्म लेने
वाला बच्चा केवल
विश्वास के
साथ ही जन्म
लेता है।
मैंने
सुना है:
एक
व्यक्ति ने एक
छोटे बच्चे के
साथ एक नाई की दुकान
में प्रवेश
किया। जब उस
व्यक्ति के
बाल काट दिए
गए दाढ़ी बनाकर
उसका शैम्पू
और पूरी साज
सज्जा आदि
पूरी हो गई, तो उसने
अपनी कुर्सी
पर बच्चे को
बैठालते हुए नाई
से कहा—’‘ मैं
परेड के लिए
एक हरी टाई
खरीदने जा रहा
हूं और कुछ ही
मिनटों बाद
वापस आ रहा
हूं।’’
जब
बच्चे के बाल
काटे जा चुके
और वह व्यक्ति
फिर भी वापस
नहीं लौटा तो
नाई से उससे
कहा—’‘ ऐसा
लगता है
तुम्हारे
पिता
तुम्हारे
बारे में सब
कुछ भूल ही गए।’’—’‘
वह मेरे
डैडी नहीं थे।’’
बच्चे ने
उत्तर दिया।
वह बस
टहल रहे थे
उन्होंने
मेरा हाथ
पकड़कर मुझसे
कहा—’‘ मेरे
बच्चे! मेरे
साथ आओ। हम
लोग मुफ्त बाल
कटवाने चल रहे
हैं।’’
बच्चे विश्वास
करते हैं, लेकिन
ज्यों—ज्यों
वे यहां ऐसे
अनुभवों से
गुजरेंगे, जिनमें
वे धोखे
खाएंगे, जिनमें
वे मुसीबतों
का सामना
करेंगे, जिनमें
उनका विरोध
होगा और जो
उन्हें भयभीत
कर देंगे, तो
धीरे— धीरे वे
संसार की सभी
चाल बाजियां
सीख जाएंगे।
कम या अधिक
ऐसा ही यहां प्रत्येक
व्यक्ति के
साथ घटता है।
अब यह मैत्री—
भावना पुन:
वही स्थिति
सृजित कर रही
है यह प्रति
सम्मोहन है।
यह घृणा को
समाप्त करने
का एक प्रयास
है। यह क्रोध,
ईर्ष्या और
निर्लज्जता
से मुक्त होकर
संसार में
पुन: नया बनकर
वापस आने का
प्रयास है, जैसे तुम
संसार में उत्पन्न
होने वाले
प्रथम
व्यक्ति हो।
यदि तुम यह ध्यान—प्रयोग
करते ही जाओ, तो पहले तो
तुम स्वयं
अपने से प्रेम
करना शुरू करोगे,
क्योंकि
किसी और की
अपेक्षा तुम
स्वयं ही अपने
सर्वाधिक
निकट हो। तब
तुम अपने
प्रेम अपनी
मित्रता, अपनी
करुणा, अपनी
भावनाओं, अपनी
शुभेच्छाओं, अपने
आशीर्वादों
और आनंद को उन
लोगों पर बरसा
दो, जिन्हें
तुम प्रेम
करते हो, जो
तुम्हारे
मित्र और
प्रेमी हैं।
तब धीमे— धीमे
तुम इन्हीं
भावनाओं का और
अधिक लोगों में
प्रसार करो, उन लोगों पर
भी जिन्हें
तुम अधिक
प्रेम नहीं करते,
तब ऐसे
लोगों पर
जिनके प्रति
तुम निरपेक्ष
हो, न
उन्हें प्रेम
करते हो और न
घृणा— और तब
धीमे— धीमे उन
लोगों तक
प्रसारित करो,
जिन्हें
तुम घृणा करते
हो। धीमे—
धीमे तुम अपने
आपको सम्मोहन
से मुक्त कर
रहे हो। धीमे—
धीमे तुम अपने
चारों ओर
प्रेम का एक
गर्भ निर्मित
कर रहे हो।
जब एक
बुद्ध बैठा
होता है, अस्तित्व
में विराजमान
वह ऐसा लगता
है, जैसे
पूरा
अस्तित्व ही
फिर से उसकी
मां का गर्भ
बन गया हो।
उसकी किसी से
भी कोई
शत्रुता नहीं
होती, जैसे
वह अपने मूल
स्वभाव और
प्रकृति को
उपलब्ध हो गया
हो। उसने उस ' सारभूत ' मनुष्य
को जान लिया
है। अब तुम
भले ही उसके
प्राण ले लो, पर तुम उसकी
करुणा को नष्ट
नहीं कर सकते।
मरते
समय भी वह
तुम्हारे
प्रति करुणा
से भरा हुआ
होगा। तुम
उसकी भले ही
हत्या कर दो, लेकिन
तुम उसकी
आस्था को नष्ट
नहीं कर सकते।
अब वह जानता
है कि आस्था
कोई ऐसी मूल
चीज है, जिसे
एक बार यदि
तुम उसे खो दो,
तो तुम सभी
कुछ खो देते
है, और यदि
तुम आस्था
नहीं खोते और
शेष हर चीज खो
जाती है, फिर
भी तुम कुछ भी
नहीं खोते।
तुम उससे
प्रत्येक चीज
ले सकते हो, लेकिन उसकी
आस्था नहीं ले
सकते।
मैत्री—
भावना बहुत
सुंदर ध्यान
है तुम उसे कर
सकते हो। उसे
छोड़ देने की
कोई भी जरूरत
नहीं है। वह
अत्यंत सहायक
सिद्ध होगा।
वह तुम्हारा
नव—निर्माण
करेगा।
अहंकार
बनता है घृणा
शत्रुता और
संघर्ष से।
यदि तुम
अहंकार छोडना
चाहते हो। तो
तुम्हें कहीं
अधिक प्रेम
भावना
उत्पन्न करनी
होगी। जब तुम
प्रेम करते हो
तो अहंकार
विसर्जित हो जाता
है। यदि तुम
बहुत तीव्रता
और गहनता से
प्रेम करते हो
और यदि
तुम्हारा प्रेम
बेशर्त है और
तुम सभी को
प्रेम करते हो, तब
अहंकार रह ही
नहीं सकता।
अहंकार
सबसे अधिक
मूर्खतापूर्ण
चीज है, जो किसी
स्त्री या
किसी पुरुष को
कभी भी हो सकता
है। एक बार यह
घट जाए तो इसे
देख पाना बहुत
कठिन होता है,
क्योंकि यह
तुम्हारी आंखों
को बादलों की
भांति ढक लेता
है।
मैंने
सुना है:
मुल्ला
नसरुद्दीन और
उसके दो मित्र
आपस में एक
दूसरे से अपनी—
अपनी समान
आकृति अथवा
समरूपता के
बारे में बातचीत
कर रहे थे।
पहले
मित्र ने कहा—’‘ मेरा
चेहरा ठीक
विंस्टन
चर्चिल के
चेहरे जैसा है।
मैं प्राय:
उन्हें देखकर
गलती कर बैठता
हूं।’’
दूसरे
ने कहा—’‘ मेरे मामलों
में लोग मुझे
देखकर
प्रेसीडेंट निक्सन
समझकर मुझसे '
आटोग्राफ '
मांग बैठते
हैं।’’
मुल्ला
बोला—’‘ यह
कुछ भी नहीं
है। जहां तक
मेरा अपना
मामला है, मैं
खुद को
परमात्मा
मानने की गली
कर बैठता हूं।’’
पहले
और दूसरे
मित्र ने एक
साथ पूछा—’‘ वह कैसे?''
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा—’‘ ऐसा
है, जब
मुझे चौथी बार
जेल जाने की
सजा दी गई है
और मैं जेल
भेजा गया, तो
मुझे देखते ही
जेलर बोला—’‘ ओह
परमात्मा! तुम
फिर से आ गए?''
एक बार
अहंकार खड़ा हो
जाए फिर वह हर
जगह से कुछ न
कुछ, अर्थपूर्ण
या व्यर्थ सब
कुछ संग्रहीत
करता जाता है
बल्कि उसे
स्वयं के
महत्त्वपूर्ण
होने का अनुभव
होता जाता है।
जब तुम किसी
के प्रेम में
होते हो, तो
कहते हो—’‘ न
केवल मैं, तुम
भी
महत्वपूर्ण
हो।’’ जब
तुम किसी
व्यक्ति से
प्रेम करते हो,
तो तुम क्या
कह रहे हो
उससे? तुम
कुछ कह सकते
हो और नहीं भी
कह सकते, लेकिन
वास्तव में
तुम्हारे
हृदय के गहरे
में है क्या? क्या तुम कह
रहे हो शब्दों
में या मौन
में '' तुम
भी महत्त्वपूर्ण
हो, उतने
ही अधिक जितना
मैं स्वयं हूं।’’
यदि
प्रेम विकसित
होकर अधिक
गहरा हो जाता
है, तो
तुम कहते हो—’‘ तुम मेरे
लिए मुझसे से
कहीं अधिक
महत्त्वपूर्ण
हो। यदि वहां
ऐसी कोई
स्थिति आ जाए।
जहां केवल एक
ही जीवित रह
सकता है, तो
मैं तुम्हारे
लिए मर जाना
पसंद करूंगा
और चाहूंगा कि
तुम जीवित रहो।’’
दूसरा
व्यक्ति
महत्त्वपूर्ण
बन जाता है।
यही अर्थ है—' प्रेमी होने
का ' तुम
जिसे प्रेम
करते हो, तुम
उसके लिए
स्वयं का
बलिदान करने
को तैयार हो
और यदि भावना
फैलती ही जाए '
मैत्री
भावना ' द्वारा
यह विस्तृत और
निरंतर
विस्तृत होती
जाए तब धीमे—
धीमे तुम
विसर्जित
होना शुरू हो
जाते हो।
बहुत
से क्षण ऐसे
आएंगे, जब तुम वहां
नहीं होंगे, पूरी तरह से
मौन होगे, कोई
भी अहंकार
कहीं होगा ही
नहीं, न
उसका कोई
केंद्र होगा,
केवल शुद्ध
शून्यता होगी।
बुद्ध कहते
हैं—’‘ जब
स्थाई रूप से
यह स्थिति
प्राप्त हो
जाती है और
तुम्हारा इस
शुद्ध
शून्यता के
साथ एकीकरण हो
जाता है, तभी
तुम बुद्धत्व
को उपलब्ध हो
जाते हो।’’
जब
अहंकार पूरी
तरह खो जाता
है, तुम
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
जाते हैं। जब
तुम इतने अधिक
अहंकार शून्य
हो जाते हो, कि तुम यह
नहीं कह सकते—’‘
मैं हूं तुम
यह भी नहीं कह
सकते—मैं एक
आत्मा हूं इस
स्थिति के लिए
बुद्ध एक शब्द
का प्रयोग
करते हैं ' अनन्ता
' हूं ही
नहीं, अनस्तित्व,
कोई आत्मा
भी नहीं। तुम
मैं शब्द का
भी प्रयोग
नहीं कर सकते।
यह शब्द
अधार्मिक या
हिंसक बन जाता
है। गहन प्रेम
में भी मैं
विसर्जित हो
जाता है। तुम
पूरी तरह मिट
ही जाते हो।
जब
बच्चे का जन्म
होता है, वह बिना
किसी ' मैं '
के आता है, वह केवल—
होता है एक
कोरे कागज की
तरह, जिस
पर कुछ भी
नहीं लिखा हुआ
है। अब समाज
उस पर लिखना
शुरू करेगा और
समाज उसकी चेतना
को संकुचित
करते जाते, सिकोड़ने की
शुरुआत कर
देगा। फिर
समाज धीमे—
धीमे उसके लिए
एक पात्र का
अभिनय
निश्चित कर देगा।
उससे कहेगा—’‘ तुम्हें
जीवन नाटक में
इस पात्र का
अभिनय करना है,
और तुम बस
यही हो— और
तुम्हें उस
अभिनय से जीवन
भर चिपके रहना
होगा। यह
अभिनय
तुम्हें कभी
भी आनंदित
होने की अनुमति
नहीं देगा, क्योंकि
आनंदित होना
केवल तभी
सम्भव है, जब
तुम अनन्त हो।
जब तुम संकुचित
या सिकुड़े
होते हो, तो
कभी भी आनंदित
नहीं हो सकते।’’
प्रसन्नता
और आनंद का
उत्सव
संकीर्ण और
संकुचित होकर
नहीं मनाया जा
सकता, आनंद
को उत्सव के
लिए अनंत
स्थान चाहिए।
जब तुम्हारे
अंदर इतना
अधिक खाली
स्थान होता है
कि अखण्ड
अस्तित्व भी
तुममें
प्रविष्ट हो सके,
केवल तभी
तुम आनंदित हो
सकते हो।
'' मैत्री
भावना '' ध्यान
बहुत अधिक
सहायक बन सकता
है तुम्हारे लिए।
तीसरा
प्रश्न :
प्यारे
सदगुरू! दूसरे
दिन आपने कहा
कि विश्वास अंधे
व्यक्ति के
हाथों में एक
लालटेन की
भांति होता है
क्या मैं जान
सकता हूं कि
विश्वास या
आस्था है क्या?
आस्था आंखों
के समान होती
है : तुम स्वयं
अपने आप को
देखते हो।
विश्वास, अंधे
व्यक्ति के
हाथों में एक
लालटेन की तरह
है, वह देख
नहीं सकता, वह जलती हुई
लालटने का
प्रयोग भी
नहीं कर सकता।
वह जलती हुई
लालटेन उसके
लिए ठीक एक
बोझ की भांति
होगी, जिसे
उसे ढोना होगा
और यदि लालटेन
की रोशनी बुझ
जाए तो उसे उसकी
कभी खबर भी न
होगी।
विश्वास केवल
यह
विश्वास
करना है कि
दूसरे लोग
क्या कहते हैं
कि उसके बारे
में। यह आस्था
या श्रद्धा है।
श्रद्धा है—जानना, श्रद्धा
होती है
अस्तित्वगत, जब कि
विश्वास होता
है बुद्धिगत।
जो कुछ
बुद्ध कहते
हैं अथवा जो
कुछ मैं कहता
हूं तुम मुझे
सुनते हो, वह
तुम्हारी
बुद्धि को ठीक
लगता है। वह
तुम्हारे
तर्क को कायल
कर देता है और
तुम उस पर
विश्वास करना
शुरू कर देते
हो। तब वह
अंधे व्यक्ति
के हाथों की
एक लालटेन बन जाएगा।
लेकिन यदि तुम
मुझे सुनते हो,
कुछ चीज
तुम्हें ठीक
लगती है और
तुम अपनी बुद्धिगत
समझ के साथ न
ठहर कर उसे
अपना अनुभव
बना लेत हो
यदि
मैं प्रेम की
बात करता हूं
और मुझे सुनते
हुए तुम मेरे
शब्दों में
नहीं बंधते, बल्कि
तुम प्रेम
करने लगते हो,
तुम प्रेम
करने की जोखिम
उठाते हो, तुम
प्रेम के खतरे
में उतर जाते
हो। तब तुम उस
समझ तक
पहुंचोगे जो आंखों
के समान होगी,
वह
तुम्हारी
अंतर्दृष्टि
बनेगी। यदि
तुम केवल मुझे
सुनते भर हो, तो यह बहुत
सस्ता
व्यापार है।
केवल मुझे
सुनकर यदि तुम
सूचनाएं
इकट्ठी करते
हो, तुम कह
सकते हो—हा!
मैं प्रेम के
बारे में बहुत
कुछ जानता हूं
तो तुम्हारा
यह जानना एक
धोखा बन जाएगा।
मैंने
सुना है:
मुल्ला
नसरुद्दीन और
उसकी पत्नी
अपनी छुट्टियां
मनाने इजराइयल
गए और तेल
अबीब के एक
नाइट बल्ब को
देखने पहुंचे।
स्टेज पर एक
विदूषक अपना
कार्यक्रम
प्रस्तुत कर
रहा था और
उसके सभी
संवाद हिबू
भाषा में थे।
उस विदूषक का
अभिनय देखकर
नसरुद्दीन की
पत्नी तो
बराबर खामोश
बैठी रही
लेकिन
नसरुद्दीन प्रत्येक
चुटकुले के
समाप्त होने
पर छत फाड़ ठहाके
लगाता रहा।
जब
विदूषक अपना
अभिनय समाप्त
कर चुका, मुल्ला की
पत्नी ने उससे
कहा—’‘ मुझे
यह नहीं मालूम
था कि तुम
हिबू भाष भी
समझते हो?''
'' मैं
हिबू नहीं
समझता।’’ नसरुद्दीन
ने उत्तर दिया।’’
फिर तुम
उसके मजाकों
और चुटकुलों
पर इतने हंस क्यों
रहे थे?'' नसरुद्दीन
ने उत्तर दिया—
'' ओह! मैंने
उस पर विश्वास
किया।’’
तुम
किसी भी
चुटकुले पर
उसे बिना समझे
हुए भी हंस
सकते हो, लेकिन यह
किस तरह की
हंसी होगी? यह तुममें
स्वत' नहीं
उठेगी, यह
केवल एक
बनावटी, चस्पा
की गई हंसी
होगी। यह केवल
होंठों और
मुंह की एक
कसरत जैसी होगी।
तुम्हारे
अपने
अस्तित्व में
उसका कोई
केंद्र न होगा।
वह कहीं से भी
नहीं आएगी, क्योंकि तुम
उस ' जोक ' को समझ ही
नहीं रहे हो, तुम उस भाषा
को ही नहीं
समझ सकते, फिर
तुम कैसे हंस
सकते हो? मुल्ला
कहता है—’‘ मैंने
केवल उस पर
विश्वास किया।
वह जरूर कोई
सुंदर हंसने
जैसी बात कह
रहा होगा।
दूसरे भी तो
हंस रहे हैं।’’
बुद्ध
जरूर ही कोई
बात बहुत
सुंदर कह रहे
होंगे। बहुत
लोग उनमें
विश्वास करते
हैं इसलिए तुम
भी उन पर
विश्वास करो।
लेकिन तुम ' जोक ' समझे
ही नहीं वह
हंसी
तुम्हारी
नहीं है। वह
तुम्हें
थकायेगी, वह
तुम्हें
ताजगी नहीं
देगी। जब
तुम्हें हंसी
घटती है, वह
तुम्हारे
अस्तित्व से
चारों ओर फैलती
है। वह
तुम्हारे
अस्तित्व के
सबसे भीतरी
केंद्र से सतह
पर आती है।
तुम्हारा
पूरा शरीर
उससे तरंगित
हो उठता है, स्पन्दित
होकर धड़कने
लगता है। वह
तुम्हें एक
तरह से नहला
देती है—’‘ तुम
उसके बाद
ताजगी से भर
जाते हो।
लेकिन यदि तुम
केवल विश्वास
करते हो, तो
विश्वास करने
से कोई सहायता
तुम्हें
मिलने नहीं जा
रही। बहुत से
लोग, कई
सुंदर चीजों
के बारे में
केवल अपने
विश्वासों
द्वारा ही छले
गए हैं।’’
तुम
सोचते हो कि
तुम परमात्मा
पर विश्वास
करते हो, तुम सोचते
हो कि तुम
आत्मा पर
विश्वास करते
हो, तुम
सोचते हो कि
तुम इस और उस चीज
में विश्वास
करते हो और
तुमने कोई भी
चीज अपने
अनुभव से नहीं
जानी है। तब
इससे अच्छा है
कि तुम
विश्वास ही न
करो, क्योंकि
यदि तुम
विश्वास नहीं
करते हो, यदि
तुम जानते हो
कि तुम नहीं
जानते, तब
इस बात की
संभावना है कि
तुम खोज सको
और पा सको।
तुम्हारा
विश्वास ही
तुम्हें
खोजने की
अनुमति नहीं
देगा, क्योंकि
तुम सोचते हो
कि तुम उसे
पहले ही से जानते
हो।
विश्वास
करना ही
खतरनाक है।
इससे अच्छा है
कि कोई भी
व्यक्ति
नास्तिक हो अथवा
उसे अस्तित्व
या सत्य पर
विश्वास ही न
हो। सच्चे बने
रहने के लिए
तुम्हारा कुछ
भी न जानना ही
अच्छा है, क्योंकि
तुम्हारे
स्वीकार करने
की यह ईमानदारी
कि तुम नहीं
जानते, तुम्हारी
सहायता करेकी।
यह ईमानदारी
तुम्हें
विकसित करेगी।
एक न एक दिन
तुम खोजना
शुरू करोगे, क्योंकि कोई
भी व्यक्ति
अधिक लंबे समय
तक गहरे
अज्ञान में
नहीं रह सकता।
प्रत्येक
व्यक्ति
जानना ही
चाहता है।
जानने की ऐसी
ऐसी
स्वाभाविक
प्रवृत्ति है
मनुष्य में, कि यदि तुम
प्रामाणिक हो
तो उसे टाल
नहीं सकते।
कृपया
अपने
विश्वासों को
छोड़ दो जिससे
तुम्हारा मन
जो व्यर्थ के
फर्नीचर और
बेकार की चीजों
से भरा हुआ है, तुम उसे
देख और समझ
सको कि तुम
क्या जानते हो
और क्या नहीं
जानते हो।
ठीक से
यह जाना कि
कोई भी
व्यक्ति क्या
जानता है, और क्या
नहीं जानता है
ज्ञान की ओर
उठाया गया बुनियादी
कदम है।
तुम्हें पूरी
तरह स्पष्ट हो
जाना है यह सब
वह है, जिसे
तुम जानते हो,
और यह सब वह
है जिसे तुम
नहीं जानते हो।
तुम इस स्थिति
में बने नहीं
रह सकते।
तुम्हें
अज्ञात की ओर
बढ़ना शुरू
करना ही होगा,
क्योंकि
खोजना और
जानना मनुष्य
का स्वभाव है।
प्रत्येक
बच्चा अनंत
जिज्ञासाओं
और कौतूहल के
साथ जन्म लेता
है यही वजह है
कि बच्चे अपने
प्रश्नों से
तुम्हें उबा कर
तुम्हें मार
ही देता है।
वे पूछते ही
चले जाते हैं।
वे इस बात की
भी फिक्र नहीं
करते कि तुम
उनके उत्तरों
को देने या न
देने में
दिलचस्पी ले
रहे हो या
नहीं। वे बस
पूछते ही चले
जाते हैं। तुम
उन्हें खामोश
करना चाहते हो, लेकिन
बार—बार उनमें
नये—नये
प्रश्नों के बुलबुले
उठते ही रहते
हैं। यह हो
क्या रहा है? इतने अधिक
प्रश्न आखिर
कहां से आ रहे
हैं? यह
जानने की गहरी
आकांक्षा है।
लेकिन इस
आकांक्षा को
तुम्हारे
विश्वास पंगु
बना देते हैं।
जैसा
कि तुम जानते
हो, विश्वास
तुम्हें एक
आकृति देते
हैं। वह ' यह
मानो ' शब्द
ही बहुत कीमती
है।
मैंने
सुना है:
स्टीम
बोट के
ड्राइवर ने
जैसे ही नदी
में चक्के को
मोड़कर घुमाया, उसने पास
खड़े घबराए हुए
मुसाफिर को
देखकर कहा—’‘ किसी को भी
फिक्र करने की
कोई जरूरत नही
है। मैं इस
नदी में इतनी
लम्बी अवधि से
इस बोट को चला
रहा हूं कि
मैं नदी में
छिपी हर
चट्टान और
उभरे हुए
टीलों को भली
भांति जानता
हूं।’’ तभी
बोट पानी में
छिपे हुए किसी
चट्टान से टकराई,
और इतनी जोर
का झटका लगा
कि पूरी नाव
बुरी तरह डोल
उठी और उसके
पीछे का भाग
किसी सख्त चीज
से टकराया।
ड्राइवर
ने बड़ी शान से
कहा—’‘ मैं
जिन अवरोधों
का जिक्र कर
रहा था, यह
उनमें से एक
है।’’
यह किसी
तरह की
जानकारी है? यह किस
तरह तुम्हारी
सहायता करेगी?
तुम्हारी
तथाकथित सारी
जानकारी जिसे
तुम ज्ञान
कहते हो, ठीक
इसी तरह की है।
इससे कोई भी
सहायता नहीं
मिलती। यह
तुम्हें एक
निश्चित
अहंकार से भरा
हुआ यह विचार
देती है कि
तुम जानते हो।
लेकिन यह जीवन
में सहायक
नहीं है। इससे
अपने मार्ग पर
चलने में
तुम्हें कोई
सहायता नहीं
मिलती, यह
खंदकों और
गड्डों से दूर
रखने में भी
तुम्हारी कोई
सहायता नहीं
करती, यह
तुम्हें सही
दिशा की ओर
आगे बढ़ने में
भी मदद नहीं
देती, और न
यह किसी भी
तरह से आपदाओं
को रोकने में
ही सहायक होती
है। फिर भी
तुम यह सोचे
चले जाते हो
कि तुम जानते
हो। इस
तथाकथित
जानकारी से
मुक्त हो जाओ।
यह बोझा ढोना
व्यर्थ है।
इसे अब और
अपनी खोपड़ी पर
मत लादे रहो।
एक बार तुमने
इसे फेंक दिया
तो तुम्हें एक
ताजगी और नया
हो जाने का
अनुभव होगा।
मैंने
सुना है:
एल्ड्रअस
हक्सले के पास
एक बहुत बड़ा
पुस्तकालय था, वह उसके
पूरे जीवन भर
का प्रयास था।
उसने बहुत ही
दुर्लभ
पुस्तकों का
संग्रह किया
था और एक दिन
उसमें आग लग
गई। पूरी
लाइब्रेरी जल
गई। उसमें
उसकी बहुत सी
मूल्यवान
पाण्डुलिपियां
भी जल गईं।
बहुत सी
मूल्यवान
कलाकृतियां, मूर्तियां
और पेटिंग्ज
भी जल गईं। वह
वास्तव में
सुंदरतम
वस्तुओं का एक
महान खोजी था
और वे सभी
चीजें जलकर
राख हो गईं।
वह आग के
सामने असहाय
बना खड़ा हुआ
था। और कुछ भी
नहीं किया जा
सकता था।
तभी
किसी ने उससे
पूछा—’‘ आप
जरूर ही बहुत
बहुत उदासी का
अनुभव कर रहे
होंगे।’’
उसने
उत्तर दिया—’‘ जो कुछ
मुझे अनुभव हो
रहा है, उससे
मैं स्वयं
आश्चर्यचकित
हूं। मुझे
स्वयं बहुत
आश्चर्य हो
रहा है। मुझे
ऐसा महसूस हो
रहा है जैसे
बहुत सफाई हो
गई, जैसे
मानो पूरा
बोझा हट गया।
मुझे स्वयं आश्चर्य
है क्योंकि
मैं सोचता था
कि मुझे बहुत
अफसोस होगा, मुझे बहुत
ही दुख और
पीड़ा का अनुभव
होगा, मैं
वर्षों तक
अपनी
लाइब्रेरी और
उन सभी चीजों
को जिन्हें
मैंने
संग्रहीत
किया था, कभी
भी भूलने में
समर्थ न हो
सकूंगा लेकिन
यह देखकर कि अचानक
प्रत्येक चीज
आग की लपटों
में जल रही है,
मैं अपने
आपको बहुत
हल्का, भाररहित
और ताजा होने
का अनुभव कर
रहा हूं।’’
जब तुम
अपने
विश्वासों को
आग में फेंक
दोगे, तुम्हें
बहुत ताजगी का
अनुभव होगा।
यह केवल एक
बोझा है। यह
तुम्हारा
नहीं है, यह
तुम्हारी कुछ
भी सहायता
नहीं कर सकता।
हम
जानते हैं कि
क्या ठीक है, लेकिन जो
गलत है,हम
वही करते हैं।
हम जानते हैं
क्रोध करना
बुरा है और हम
बार—बार क्रोध
किए चले जाते
हैं। हम जानते
हैं कि हमें
क्या करना
चाहिए। लेकिन
हम उसे कभी
करते नहीं—हम
ठीक उसका
उल्टा करते
हैं। यह किस
तरह का ज्ञान
है? हम
जानते हैं कि
दरवाजा किधर
है और हम
हमेशा दीवार
से होकर गुजरने
की कोशिश करते
हैं। हम आघात
करते हैं टकराते
हैं, अपने
आप को नुकसान
पहुंचाते हैं
लेकिन फिर भी हर
बार हम दीवार
से ही गुजरने
की कोशिश करते
हैं। हम कहते
हैं—हम जानते
हैं कि दरवाजा
किधर है, क्या
यह सम्भव है
कि तुम दरवाजे
को जानते भी हो
और फिर भी तुम
दीवार से
निकलने की
कोशिश में अपने
को चोट
पहुंचाते हुए
अपना सिर फोड़
लेते हो। यह
सम्भव ही नहीं
है। तुमने बस
दरवाजे के
बारे में सुना
भर है। उस
दरवाजे का
अस्तित्व
केवल
तुम्हारी
कल्पना में है,
यथार्थ में
नहीं।’’
तुम जो
कुछ जानते हो, उसी के
अनुसार तुम
आचरण करते हो।
इसी वजह से
सुकरात की
प्रसिद्ध
घोषणा है—ज्ञान
एक बड़ी अच्छाई
और गुण है—लेकिन
यह तुम्हारा
ज्ञान नहीं है।
वह कहता है एक
बार कोई भी
व्यक्ति यह
जानता है कि
कोई बात ठीक
है तो वह उसे
करता है। इसके
अतिरिक्त कोई
दूसरा रास्ता
ही नहीं है।
जब तुम जानते
हो कि दो में
दो जोड्ने से
चार होते हैं,
तुम उसे
पांच नहीं बना
सकते। क्या
बना सकते हो? एक दिन
कोशिश करके
देखो—बस बैठ
जाओ। लिखो—दो
धन दो, और
तब पांच लिखने
की कोशिश करो।
यह असम्भव
होगा। यदि तुम
पांच लिख भी
दोगे, तो
तुम हंसोगे, तुम मजाक कर
रहे हो, तुम
बेवकूफ बना
रहे हो। एक
बार तुम जान
गए कि दो में
दो जोड्ने से
चार होते हैं,
तो इसे भूलने
का फिर कोई
उपाय नहीं है।
मूल बात यह है
कि तुमने उसे
स्वयं जाना है
और ज्ञान को
तुम्हारा
अनुभव होना
चाहिए अन्यथा
तुम हमेशा
तर्क वितर्क
खोजते रहोगे।
मैंने
एक छोटे से
प्रसंग के
बारे में सुना
है। एक छोटे
से शहर की
गायन मंडली की
एक लड़की की किसी
बड़े थियेटर के
स्टेज पर गाने
की आकांक्षा थी।
उसके माता
पिता ने अंत
में राजी होकर
उसे न्यूयार्क
शहर में जाकर
कोशिश करने की
अनुमति दो शर्तों
पर दी ' पहली
यह कि उसके
कमरे में किसी
पुरुष को
प्रवेश करने
की अनुमति
नहीं होगी और
दूसरी यह कि
उसे कम से कम
सप्ताह में एक
बार घर फोन
करना होगा।
उसकी मां ने
उससे कहा—’‘ याद
रहे, मुझे
तुम्हारे
बारे में बहुत
फिक्र रहेगी,
इसलिए
महेरबानी
करके घर फोन
करने की बात
भूलना मत।’’ परिचय पत्र
के साथ लैस
होकर वह एक
एजेण्ट से मिलने
गई। वह उसकी
सहायता करने
को तैयार हो
गया और वह उसे
शहर के
प्रसिद्ध
स्थानों और
व्यक्तियों
के बारे में
बताने लगा।
सप्ताह के अंत
में उसने घर
फोन मिलाया।
देर होते जाने
से उसकी मां
बहुत परेशान
थी।
'' हनी!''
उसकी मां
बोली—’‘तुम
जानती हो, तुमसे
यह बात तै हुई
थी कि
तुम्हारे
रहने वाले
एपार्टमेंट
में किसी भी
पुरुष को
प्रवेश करने
की अनुमति
नहीं होगी और
और मैं
पृष्ठभूमि में
किसी पुरुष की
आवाज सुन रही
हूं।’’
भावी
अभिनेत्री ने
उत्तर दिया—’‘ ओह
मम्मी! यह
आवाज मेरे बॉय
फ्रेंड की है।
लेकिन आप
फिक्र न करें।’’
उसने अपनी
मां को
शीघ्रता से
आश्वस्त करते
हुए कहा—’‘ हम
लोग उसके
एपार्टमेंट
में हैं।
फिक्र तो उसकी
मम्मी को होना
चाहिए।’’
हम
हमेशा रास्ते
खोज सकते हैं, जिसे हम
टालना चाहते
हैं, उससे
बचने के लिए
और जो हम करना
चाहते हैं, उसके करने
के लिए तर्क
वितर्क खोज
सकते हैं। और
यदि तुम्हारा
ज्ञान केवल
बुद्धिगत है,
केवल वह
शाब्दिक है, तब वास्तविक
जीवन में उससे
कोई सहायता
नहीं मिल सकती
तुम्हें।
वास्तविक
जीवन में
वास्तविक
ज्ञान की
जरूरत होती है।
यदि तुम कोई
पुस्तक लिखना
चाहते हो, फिर
तो वह ठीक
होगा। यदि तुम
कोई भाषण देना
चाहते हो, तो
भी ठीक है।
यदि तुम अपने
मित्रों के
साथ चर्चा—परिचर्चा
करना चाहते हो,
तो वह ठीक
होगा, क्योंकि
शाब्दिक
जानकारी एक
पुस्तक लिखने
के लिए
पर्याप्त है।
वह एक भाषण
देने और मित्रों
से चर्चा करने
के लिए भी
काफी है।
लेकिन यदि तुम
उसे अपने जीवन
में उतारना
चाहते हो तो
वह असम्भव
होगा। जीवन उस
पर विश्वास
नहीं करता, जो कुछ
तुमने बहुत
सस्ते तरीके
से बटोर कर
इकट्ठा किया
है। जीवन केवल
उसमें
विश्वास करता
है जो तुमने
कठिनता से
अनुभव द्वारा अर्जित
किया है।
मैंने
एक सूफी
रहस्यदर्शी
बायजीद के
बारे में सुना
है। उसने
वर्षों तक
ध्यान किया और
यह कहा जाता
है कि
परमात्मा
उसके प्रति
अत्यंत
करुणावान था।
उसने इतना
अधिक विराट
प्रयास किया—उसकी
खोज बहुत कठिन
और श्रमपूर्ण
थी और उसकी प्रार्थना
में प्रबल
शक्ति थी, इसलिए
परमात्मा ने
उसके पास अपना
देवदूत भेजा।
देवदूत ने आकर
बायजीद से कहा—’‘
परमात्मा
तुमसे बहुत
प्रसन्न है और
तुम कुछ भी
मांगना चाहो,
वह तुम्हें
सभी कुछ देने
को तैयार है।
तुम केवल मांगो।
तुम्हारी खोज
और साधना अब
पूरी हो गई।’’
लेकिन
बायजीद ने कहा—’‘ नहीं यह
कोई भी ठीक
तरीका नहीं है।
मैं इसे इतने
सस्ते में
नहीं लेना
चाहता, क्योंकि
मैं भली भांति
जानता हूं .इस
सस्ती सम्भावना
के कारण मैं
अपने जीवन में
बहुत धोखे खा
चुका हूं। अब
तुम मुझे धोखा
नहीं दे सकते।
परमात्मा से
जाकर कहो कि
मैं कठिन
तरीके से उसे
श्रमपूर्वक
अर्जित
करूंगा।’’
लेकिन
देवदूत ने कहा—’‘ तुम
बेवकूफ हो। वह
तुम्हारे
अस्तित्व के
अंदर गहराई
में तुम्हारी
अंतर्ज्योति
जगाने के लिए
तैयार है। तुम
मांगो तो।’’
लेकिन
बायजीद ने कहा—’‘ बहुत
बहुत धन्यवाद,
और उसे भी
मेरा धन्यवाद
दीजिएगा, लेकिन
मैं उससे कुछ
भी मांगने
नहीं जा रहा
क्योंकि वह
उधार लिया हुआ
होगा, भले
ही वह
परमात्मा से
ही क्यों न
लिया गया हो।
मुझे स्वयं
उसे खोज कर
पाने दो।’’
देवदूत
ने कहा—’‘ परमात्मा
इससे नाराज
होगा। ऐसा आज
तक नहीं हुआ।
उसकी भेंट
तुम्हें
स्वीकार करनी
ही होगी।’’
तब
बायजीद ने
अपने चारों ओर
देखा—’‘ उसके
पास एक छोटा
सा दीया था और
उसका तेल लगभग
समाप्त हो रहा
था। उसने कहा—’‘
यदि वह
वास्तव में
रोशनी जैसी ही
कोई चीज देना
चाहता है, तो
उससे कहो कि
मेरा यह दीया
जलता ही रहे, कयोंकि इसका
तेल लगभग
समाप्त होने
को है और रात
बहुत अंधेरी
है और मुझे
अभी भी ध्यान
करना है। बस
इतना करना ही
काफी होगा।
तुम सिर्फ
उनसे जाकर यही
कहना कि वे
मुझे एक ही
आशीर्वाद दें
कि मेरा दीये
का तेल कभी
समाप्त न हो, जिससे मैं
पूरी रात
ध्यान कर सकूं।’’
उसने
बस इतना ही
मांगा और यह
कहा जाता है
कि परमात्मा
बहुत प्रसन्न
हुआ और उसने
कहा—’‘ ठीक
तरीका यही है।’’
यदि उसने
मांगा होता तो
वह चूक गया
होता यदि उसने
वह भेंट
स्वीकार कर ली
होती, तो
वह चूक गया
होता— क्योंकि
जो कुछ भी
बिना अर्जित
किए तुम्हारे पास
आता है, वह
तुम्हारा
नहीं है।
तुम्हारी
अधिकृत
सम्पदा वही है
जिसे तुमने
जीया और जाना
है, जिसे
तुमने श्रम से
अर्जित किया
है।
एक युवा
लडका तैरना
सीख रहा था।
एक दिन दोपहर
तेजी से घर
में प्रवेश
करते ही उसने
बिना सांस लिए
घोषणा की कि
वह अब स्वयं
ही ड्राइविंग
बोर्ड से
छलांग लगाने
जा रहा है।
'' यह
बहुत अच्छी
बात है जोनी।’’
उसके पिता
ने कहा—’‘ लेकिन
मेरा खयाल है
कि तुम मुझे
पिछले सप्ताह बोर्ड
से छलांग
लगाने के बाबत
बता रहे थे।’’‘' मैं जानता
हूं।’’ लड़के
ने कहा— '' लेकिन
पिछले सप्ताह
किसी और ने
मुझे बोर्ड से
धक्का दिया था।’’
स्वयं
अपने आप ही
छलांग लगाना
वास्तव में पूरी
तरह भिन्न बात
है। जब कोई
दूसरा
तुम्हें पानी
में धक्का
देता है तो वह
गुणात्मक रूप
से भिन्न होता
है, जब
मैं तुम्हें
कोई भी चीज
देता हूं तो
वह वैसी ही
नहीं होती, जैसी कि तुम
उसे स्वयं
अर्जित करते
हो। इसे स्मरण
रखें। रास्ते
में बहुत से
प्रलोभन
होंगे। जब चीजें
बहुत सस्ते
में आसानी से
उपलब्ध हों तो
उनसे दूर रहना।
हमेशा स्मरण
रहे कि
प्रत्येक
व्यक्ति को
कठिन राह
स्वयं ही चलनी
है, क्योंकि
केवल वही एक
मार्ग है।
सभी
पगडंडियां या
छोटे रास्ते
नकली और झूठे
हैं और
विश्वास करना, छोटी
पगडंडी के
रास्ते को
पकड़ने जैसा है।
आस्था और
श्रद्धा ही वह
कठिन माग है।
अंतिम
प्रश्न :
सर्वाधिक
प्रिय सदगुरू।
इस सुबह मैं
ज्यों ही आपके
सामने बैठा
मैं परमानंद
और प्रकाश की
बाढ़ में जैसे गहरे
अभिभूत हो
उठा! मुझे पता
ही न चला कि आप
वहां बैठे हैं।
मेरा अन्त आकाश
फैलता चला गया
क्योंकि आप
वहां थे।
अच्छा है, यह बहुत
ही शुभ है।
इसे ऐसा होना
ही चाहिए।
पारस के अंदर
एक बाउल का
जन्म हुआ है, और मैं आशा
करता हूं कि
तुममें से
प्रत्येक के
अंदर एक बाउल
का जन्म होगा।
परमात्मा
प्रत्येक
क्षण उपलब्ध
है। केवल उसे
अनुमति दो, उसे रोको मत,
उसके रास्ते
में अवरोध मत
बनो। केवल
अपने रास्ते
पर बाहर निकल
कर आओ और प्रत्येक
व्यक्ति को यह
घटना शुरू हो
जाएगा।
इस
सुबह मैं
ज्यों ही आपके
सामने बैठा, मैं
परमानंद और
प्रकाश की बाढ
में जैसे डूब
गया, और
जैसे अनंत
आकाश में उड़ने
के लिए पंख
मिल गए। मैं
अभिभूत हो उठा।
मुझे पता ही न
चला कि आप
वहां बैठे हैं।
मेरा अन्त आकाश
विस्तीर्ण
होता चला गया,
केवल आपके
ही कारण।’’
आज बस
इतना ही।
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