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रविवार, 1 मई 2016

सहज योग--(प्रवचन--13)

प्रार्थना अर्थात संवेदना—(प्रवचन—तैरहवां)

दिनांक 2 दिसंबर, 1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—सिद्ध सरहपा और तिलोपा यह तो बता गए कि क्रियाकांड और अनुष्ठान धर्म नहीं है। कृपया बताएं कि उनके अनुसार धर्म क्या है? उनका संदेश क्या है?

2—मैं नाच रहा हूं यहां। मैं अपने पर चकित हूं। पूछता हूं कि यह क्या हो गया है मुझे?

3—जीवन में दुख-ही-दुख क्यों है? परमात्मा ने यह कैसा जीवन रचा है?

4—प्रश्न का कोई अस्तित्व नहीं, यह जानते हुए विनम्रतापूर्वक मैं जानना चाहूंगा--मा दर्शन ने गुरुकुल कांगड़ी के वेदज्ञाता को आपके भगवान होने के संबंध में उत्तर दिया। मेरी मंद बुद्धि के अनुसार यह उत्तर वही दे सकता है जिसे स्वयं स्मरण है। और जिसे स्वयं स्मरण है, वह स्वयं को भी तो भगवान कह सकता है। लेकिन तब इस उदघोषणा से बचा क्यों जाए?


5—इस मुर्दा देश को क्यों आपने कार्यक्षेत्र की तरह चुना है?


पहला प्रश्न :

सिद्ध सरहपा और तिलोपा यह तो बता गये कि क्रियाकांड और अनुष्ठान धर्म नहीं है। कृपया बतायें कि उनके अनुसार धर्म क्या है? उनका संदेश क्या है?

आनंद मैत्रेय, नेति-नेति धर्म की खोज का सार-सूत्र है। यह भी नहीं, यह भी नहीं--ऐसे परखते-परखते, जो है, वह शेष रह जाता है। उसे कहने की कोई आवश्यकता नहीं होती।
निषेध सम्यक धर्म की खोज का उपाय है।
क्रियाकांड धर्म नहीं है, तीर्थयात्रा धर्म नहीं है, पूजा-पाठ धर्म नहीं है। स्वभावतः प्रश्न उठता है कि क्या धर्म नहीं है, यह तो बता दिया, फिर धर्म क्या है? शास्त्र धर्म नहीं हैं, सिद्धांत धर्म नहीं हैं, मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे धर्म नहीं हैं, फिर धर्म क्या है? धर्म है उस सबका निषेध, जिसका निषेध हो सके। जब तक निषेध हो सके निषेध करते जाना। अभी निषेध और गहरा होगा--यह देह भी धर्म नहीं है; यह मन, विचार की प्रक्रिया भी धर्म नहीं है। निषेध करते ही जाना, तब शेष रह जायेगा सिर्फ साक्षी, सिर्फ देखनेवाला। न पूजा करनेवाला बचेगा, न कर्म करनेवाला बचेगा, न देह बचेगी, न मन बचेगा--बचेगा सिर्फ साक्षी। और साक्षी का निषेध नहीं हो सकता है; वही एकमात्र तत्व है जो असंदिग्ध है।
कोई भी यह नहीं कह सकता कि मैं नहीं हूं; क्योंकि ऐसा कहना तो विरोधाभास होगा। जैसे तुम किसी आदमी के द्वार पर दस्तक दो और आदमी भीतर से कहे कि मैं घर पर नहीं हूं, तो क्या अर्थ होगा? उसकी यह घोषणा कि मैं घर पर नहीं हूं, उसके होने का सबूत होगी। वह कह सकता है--मेरी पत्नी घर पर नहीं है, मेरा बेटा घर पर नहीं है--और सबका निषेध कर सकता है, सिर्फ अपना निषेध नहीं कर सकता। यह नहीं कह सकता कि मैं घर पर नहीं हूं। यह तो कहना उलटा हो जायेगा। यह तो प्रमाण हो जायेगा कि वह घर पर है। तुम और जोर से द्वार पीटने लगोगे।
ऐसे ही तुम सबका निषेध कर सकते हो, सिर्फ इस भीतर छिपे साक्षी का नहीं, वही साक्षी तुम्हारा स्वभाव है, स्वरूप है। वही साक्षी तुम्हारी सहजता है। इसलिये सरहपा और तिलोपा खंडन तो करते हैं, मंडन नहीं करते। यह तो बताते हैं कि क्या-क्या छोड़ दो मगर यह नहीं बताते कि क्या पकड़ लो; क्योंकि तुम जो भी पकड़ोगे गलत होगा; क्योंकि तुम जो भी पकड़ोगे वह तुम नहीं हो। जो पकड़ा जा सकता है, वह तुम कैसे होओगे? जो किया जा सकता है, वह तुम कैसे होओगे? तुम तो वह हो जो हर कृत्य का द्रष्टा है--जो सिर्फ देखता है। दर्शन की वह क्षमता तुम हो।
तुम दर्पण हो। दर्पण के सामने जो भी आता है, वह दर्पण नहीं है। अगर कोई दर्पण पूछे कि मैं कौन हूं, तो तुम क्या करोगे? एक स्त्री उसके सामने बाल बना रही है और दर्पण को लगता है कि मैं स्त्री हूं, यही स्त्री! सुंदर भी है, मनमोहक है और दर्पण लुभा जाता है। अगर तुमसे पूछे दर्पण कि मैं कौन हूं, क्या मैं यह स्त्री नहीं हूं, तो तुम क्या कहोगे? तुम कहोगे कि नहीं, यह स्त्री तुम नहीं हो। फिर कोई पुरुष अपनी दाढ़ी बना रहा है, बड़ा मजबूत है, बड़ा शक्तिशाली है और दर्पण फिर लुभा जाता है और सोचता है यह मैं हूं; स्त्री नहीं हूं तो पुरुष होऊंगा। स्वभावतः लोग विपरीत की तरफ मुड़ जाते हैं: अगर स्त्री नहीं हूं तो पुरुष होना ही चाहिये। और फिर तुम कहते हो कि नहीं, यह भी तुम नहीं हो। तो दर्पण पूछेगा, फिर मैं हूं कौन?
क्या जवाब दोगे? तुम यही कहोगे : तुम प्रतिफलन की क्षमता हो। सब रूप तुममें बनेंगे, सब आकार तुममें बनेंगे। न तो तुम कोई रूप हो न तुम कोई आकार हो, न तुम्हारा कोई नाम है। तुम वह शून्य भाव हो, जिसके सामने सब गुजरता है; जिसके सामने सब दृश्य आते हैं और जाते हैं। संसार बनते हैं और उजड़ते हैं। सृष्टि होती है और प्रलय आती है। तुम वह हो जो सदा देखता रहता है। तुम वह द्रष्टा हो। इस द्रष्टा के लिये कुछ और कहा नहीं जा सकता, क्योंकि जैसे ही कुछ कहोगे--कोई रूप, कोई आकार, कोई नाम दोगे--वैसे ही भूल हो जायेगी।
इसलिये जो परम ज्ञानी हुए हैं उन्होंने धर्म की निषेधपरक व्याख्या की है।
तुम्हारी तकलीफ भी मैं समझता हूं। यही आदमी की सदा से तकलीफ रही है। आदमी चाहता है विधेय और बुद्ध पुरुष देते हैं निषेध। आदमी कहता है कि कुछ विधायक बात कहो; हमें बताओ कि क्या धर्म है, तो हम करें। अगर हज जाना धर्म है तो हम हज जायें। अगर काशी की यात्रा करना धर्म है तो हम काशी चले जायें। अगर मंदिर में पूजा धर्म है तो हम वहां पूजा कर लें। अगर फूल चढ़ाना धर्म है तो हम फूल चढ़ा दें। अगर नारियल फोड़ना धर्म है तो हम नारियल फोड़ दें। यह सब हम कर सकते हैं। लेकिन कुछ विधायक बताओ। जनेऊ पहन लें, चोटी रखा लें कि चोटी कटा लें, कि जनेऊ तोड़ दें--कुछ विधायक बताओ।...कि चंदन लगायें, कि किस तरह का चंदन, कि किस तरह का टीका? कुछ विधायक बता दो। कब उठें सोकर, कब सो जायें सांझ, कौन-सी प्रार्थना दोहरायें--वेद की कि कुरान की? कौन-से शब्दों का उच्चार करें? अल्लाह को पुकारें कि राम को? कुछ विधायक बता दो।
हम कुछ पकड़ना चाहते हैं और बुद्धपुरुष कहते हैं : यह भी नहीं, यह भी नहीं। इसलिये बुद्धपुरुष और हमारे बीच मेल नहीं हो पाता, तालमेल नहीं हो पाता। पंडितों से हमारा तालमेल हो जाता है। पंडित विधायक धर्म देता है। वह कहता है : यह रहा धर्म। इस मूर्ति की अगर ठीक-ठीक पूजा की तो जरूर पहुंच जाओगे। और मजा ऐसा है कि पहुंचोगे कभी नहीं, और पंडित कहेगा : ठीक-ठीक पूजा नहीं की। न होगी कभी ठीक पूजा, न कभी तुम पहुंचोगे। पूजा से कोई कभी पहुंचा है? मगर एक तरकीब है उसमें कि कभी ठीक तुमने की नहीं...हम कर भी क्या सकते हैं? ठीक करते जरूर पहुंच जाते। तुम्हारी पूजा में भूल रह गई। तुम्हारी पूजा के पीछे संदेह रहा। तुम्हारी श्रद्धा पूर्ण नहीं थी। तुम्हारे मन में संशय उठते रहे, इसलिये चूक हो गई। यह मंत्र पढ़ो, अगर ठीक से पढ़ोगे, बराबर पहुंच जाओगे।
मगर ठीक से कोई मंत्र पढ़ ही नहीं पाता। मंत्र पढ़नेवाला और ठीक से पढ़ पाये, मंदबुद्धि है यह तो साफ ही है, नहीं तो मंत्र पढ़ने बैठता? अब ठीक से क्या पढ़ पायेगा? और फिर मंत्र में ऐसी शर्तें लगा दी जाती हैं...तुमने प्रसिद्ध कहानी सुनी है न? तिब्बती कहानी। एक आदमी एक फकीर की सेवा में था। बहुत सेवा की और पीछे पड़ा था: बस एक ही बात कि कोई एक मंत्र दे दो, कि उसके पढ़ते ही सिद्धि मिल जाये। कि फिर मैं जो चाहूं वही हो। कल्पवृक्ष मिल जाये, कि जो आशा हो तत्क्षण भर जाये। और उसकी सेवा तो ठीक थी, पैर भी दबाता था, पानी भी भर लाता था, रोटी भी पकाता था, लेकिन बार-बार यही प्रश्न। फकीर भी ऊब गया। उसने कहा कि ठीक, एक दिन...। तू नहीं मानता तो यह ले मंत्र। पांच मिनट इसे पढ़ लेना, सिद्धि हो जायेगी। फिर तुझे जो चाहिये वह मिल जायेगा। इसी के लिये तो वह आदमी तीन साल से सेवा कर रहा था। सेवा भी लोग मेवा पाने के लिये ही करते हैं। अब मेवा मिल गया तो छोड़ा फकीर को तो वह भागा अपने घर की तरफ। जब वह सीढ़ियां उतर रहा था मंदिर की, तो उस फकीर ने कहा: सुन भाई। एक बात तो मैं भूल ही गया। जब तू पांच मिनट तक मंत्र का पाठ करे तो याद रखना, बंदर की याद न आये।
उस आदमी ने कहा : तुम भी क्या फिजूल की बातें कर रहे हो! बंदर की याद मुझे जिंदगी-भर नहीं आई, अब क्यों आयेगी?
मगर बस घर भी नहीं पहुंच पाया, रास्ते में ही बंदर की याद आने लगी। उसने झिड़का भी अपने को, कि मैं यह क्या कर रहा हूं, मगर बंदर थे कि बढ़ते ही चले गये, कि बंदर थे कि झांकने लगे उसके भीतर, कि खिलखिलाकर हंसने लगे, कि मुंह बनाने लगे! वह तो बहुत घबड़ाया कि अगर यही शर्त थी इस मंत्र की तो इस नासमझ फकीर ने बताया ही क्यों, चुप रह जाता। अभी दुनिया का कोई जानवर नहीं आ रहा, मगर यह बंदर...। घर पहुंचा, नहाया-धोया, लेकिन कुछ सार नहीं। बंदर हैं कि पीछे आते ही जा रहे हैं। कतारें लगी हैं उनकी। आंख बंद करे कि बंदर ही बंदर दिखाई पड़ें। रात-भर कोशिश की कि मंत्र पांच मिनट पढ़ ले बिना बंदरों के, नहीं हो पाया। सुबह तक एक बात साफ हो गई कि अब यह जिंदगी-भर भी कोशिश करे तो बंदरों से छुटकारा नहीं, क्योंकि बंदर रात में बढ़ते ही चले गये। सुबह जाकर मंत्र लौटा दिया फकीर को और कहा कि आप भी खूब हो! तीन साल मुझे परेशान किया। तीन साल के बाद यह दिया भी तो यह शर्त लगा दी। अगर यही शर्त थी तो चुप रह जाते, तो मैं पक्का तुम्हें भरोसा दिलाता हूं कि बंदर की मुझे याद न आती।
फकीर ने कहा : मैं भी क्या कर सकता हूं, शर्त तो बतानी ही होगी, बिना शर्त के मंत्र करोगे तो मंत्र से सिद्धि नहीं मिलेगी। हर मंत्र के पीछे शर्त है। तुम्हें चाहे पता हो, चाहे न पता हो, चाहे तुम्हें साफ-साफ कहा गया हो या छुप-छुपकर इशारा किया गया हो, हर मंत्र के पीछे शर्त है : श्रद्धा पूर्ण होनी चाहिये!
जिस आदमी की श्रद्धा पूर्ण है वह मंत्र पढ़ेगा? जिसकी श्रद्धा पूर्ण है वह तो भगवत्ता को उपलब्ध हो जायेगा श्रद्धा की पूर्णता में। जिसके सब संदेह गिर गये उसे बचा क्या पाने को? निःसंदिग्ध चित्त की दशा मिल गई, वही तो भगवत्ता है। अब जिसकी श्रद्धा पूर्ण नहीं है वही तो मंत्र पढ़ेगा। और मंत्र सिद्ध होते नहीं बिना श्रद्धा पूर्ण होने के। यह गणित देखते हो?
जिसके भीतर पूजा का भाव जगा है वह पूजा नहीं करता। भाव काफी है। भाव के सुमन काफी हैं। जिसके भीतर पूजा का भाव नहीं है, वहीं मंदिर में जाकर घंटियां बजाता है, पानी छिड़कता है, फूल चढ़ाता है, धूप-दीप जलाता है। पूजा का भाव नहीं है, इसलिये पूजा का अभिनय करता है। यह अभिनय है। और तुम चाहते हो कि तुम्हें कुछ बता दिया जाये कि धर्म क्या है--विधायक--कि क्या करें, कैसा भोजन करें, कैसे कपड़े पहनें, कैसे उठें, कैसे बैठें, सीधा-साफ हमें नियम दे दिये जायें।
नियम तो तुम्हें दिये गये बहुत बार और जब भी नियम दिये गये, देनेवाले बेईमान थे, लेनेवाले बेईमान थे। नियमों से कुछ हल नहीं हुआ। पृथ्वी वैसी की वैसी अधार्मिक है। नियमों की कोई कमी है? सब तरफ नियमों का पालन किया जा रहा है, लेकिन कहीं भी धर्र्म का सूरज उगता दिखाई नहीं पड़ता। क्षितिज पर लाली नहीं दिखाई पड़ती। आदमी का आकाश बिलकुल अंधेरे से भरा है; एक तारा भी नहीं चमकता। और इतने धर्म और इतने विधायक नियम और पंडित उनका विस्तार किये चले जाते हैं!
तुम्हें कितनी आज्ञायें दी गई हैं, कितने आदेश दिये गये हैं। और ऐसा भी नहीं कि तुमने पूरे नहीं किये। जितना तुमसे बन सकता था, जितना मानवीय क्षमता में था...मंत्र तो उस आदमी ने रात-भर पढ़ा, और खूब स्नान कर-करके, बार-बार स्नान कर-करके पढ़ा, लेकिन कुछ जो मानवीय क्षमता में नहीं है...वह बंदर को कैसे भूले ? जिसे तुम भुलाना चाहते हो, उसे भुलाया नहीं जा सकता, क्योंकि भुलाने की कोशिश में और याद आता है। जितना भुलाओगे उतना याद आयेगा। जितना याद आयेगा उतना भुलाना मुश्किल हो जायेगा। जितना याद आयेगा उतना भुलाना चाहोगे और जितना भुलाना चाहोगे उतना याद आयेगा। तुम उलझ गये एक द्वंद्व में। इस द्वंद्व के बाहर अब तुम कभी न हो पाओगे।
लेकिन पंडित तुम्हारी तृप्ति कर देते हैं। तुम सस्ता धर्म मांगते हो, पंडित तुम्हें सस्ता धर्म दे देता है। विधायक धर्म सस्ता धर्म होता है। उसमें बहुत सीधी-साफ बातें होती हैं : पानी छानकर पी लेना, एकादशी का व्रत कर लेना, मंदिर चले जाना, पूजा कर लेना, रमजान आये तो रमजान के दिन में उपवास कर लेना। कुछ सीधी-सादी बातें होती हैं, जो कोई भी कर ले; जिनमें कुछ बहुत अर्थ नहीं है; जिनका धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है।
लेकिन बुद्धपुरुष हमेशा निषेधात्मक धर्र्म देते हैं। नेति-नेति उसका स्वभाव होता है, स्वरूप होता है। न यह न वह। चलो काटते। करते चलो निषेध। उस जगह आ जाओ जहां निषेध करने को कुछ न बचे। काटते चलो, उस जगह आ जाओ जहां काटने को कुछ न बचे फिर जो बच रहा--अनकटा, जिसको न शस्त्र छेद सकते हैं और न आग जला सकती है, जिसको इनकार भी करना चाहो तो इनकार करने का कोई उपाय नहीं--उसका एक बार स्वाद मिल जाये, उस साक्षी की जरा सी प्रतीति हो जाये कि उग गया धर्म का सूर्य, कि हो गई सुबह, कि कट गई रात लंबी जन्मों-जन्मों पुरानी, कि गया सब अंधेरा, कि मिटी मृत्यु कि बरसा अमृत!
सरहपा और तिलोपा क्रियाकांड और अनुष्ठान को धर्म नहीं कहते। तुम पूछते हो : कृपया बतायें कि उनके अनुसार धर्म क्या है? वैसा चैतन्य, जिसमें न कोई क्रियाकांड है, न कोई अनुष्ठान है, न कोई विचार है, न कोई धारणा है, न कोई सिद्धांत है, न कोई शास्त्र है। वैसा दर्र्पण, जिसमें कोई प्रतिछवि नहीं बन रही--न स्त्री की, न पुरुष की, न वृक्षों की, न पशुओं की, न पक्षियों की। कोरा दर्पण, कोरा कागज, कोरा चित्त...वह कोरापन धर्म है। उस कोरेपन का नाम ध्यान है। उस कोरेपन की परम अनुभूति समाधि है। और जिसने उस कोरेपन को जाना उसने परमात्मा को जान लिया।
और ऐसा नहीं कि परमात्मा बाहर खड़ा हुआ मिलेगा--विषय की तरह नहीं--अपने अंतरतम की तरह। उसी, साक्षी का दूसरा नाम परमात्मा है। जिस दिन तुमने अपने भीतर छिपे साक्षी को जान लिया, तुमने सबके भीतर छिपे साक्षी को जान लिया। तुमने इस जगत के भीतर छिपे हुए चैतन्य का मूलस्रोत पकड़ लिया। तुम जगत के केंद्र पर आ गये।
कर्ता अलग-अलग हैं; साक्षी एक है। दृश्य अनेक हैं; द्रष्टा एक है।

दूसरा प्रश्न :

मैं नाच रहा हूं यहां। मैं जो कि कभी नाचा नहीं। नाचना तो दूर, कभी सोचा भी नहीं था कि मैं नाचूंगा। मैं अपने पर ही चकित हूं। पूछता हूं कि यह क्या हो गया है मुझे?

प्रेम हो गया है तुम्हें, धर्म हो गया है तुम्हें। तुम अपने घर की तरफ आने लगे। तुम लौट पड़े। तुम अपने स्रोत की तरफ चल पड़े। गंगा गंगोत्री की तरफ बहने लगी है। उलटबांसी हो गई। जहां से आये थे उस तरफ तुम्हारे पहले कदम पड़ने लगे।
और उस तरफ जो पहले कदम पड़ते हैं, उन्हीं के कारण नाच पैदा होता है। परमात्मा से जितने दूर जाते हो उतना नाच खोता जाता है। उतना जीवन में उदासी, हताशा, विषाद छाता जाता है। जब तुम बहुत दुख में होते हो तो समझना कि परमात्मा से बहुत दूर होते हो
ऋषियों ने परमात्मा की व्याख्या की है सच्चिदानंद--वह सत है, वह चित है, वह आनंद है। सरहपा कहते हैं, तिलोपा कहते हैं : वह महासुख है। इसका अर्थ हुआ कि जितने तुम दुख में होते हो उतने उससे दूर होते हो। तुम्हारे दुख का अनुपात तुम्हारी दूरी का अनुपात है। तुम्हारे दुख की मात्रा तुम्हारी दूरी की सीमा है। जितना कम दुख उतने उसके पास। जब तुम नाच ही नहीं सकते, जब तुम्हारे भीतर सब रसधार सूख जाती है, जब तुम गा नहीं सकते, जब तुम मस्त नहीं हो सकते, जब तुम बिलकुल पत्थर जैसे हो जाते हो--तो समझना कि परमात्मा से बहुत दूर पड़ गये। जैसे-जैसे करीब आओगे, वैसे-वैसे सुगंध आयेगी उसके फूलों की; वैसे-वैसे उसकी वीणा का नाद सुनाई पड़ेगा; वैसे-वैसे उसकी थाप मृदंग पर; वैसे-वैसे उसकी बांसुरी के स्वर तुम्हारे कानों को छुएंगे। फिर कैसे रुकोगे? फिर अवश नाचना होगा। मस्त होना ही होगा। परमात्मा करीब आ रहा हो तो नाचे बिना कोई उपाय नहीं।
तुम सोचते हो कि मीरा नाच-नाचकर परमात्मा को पा गई, तो तुम गलती में हो। मीरा जैसे-जैसे परमात्मा को पाती गई वैसे-वैसे नाच बढ़ता गया। अगर नाचने से कोई सोचता है परमात्मा मिलेगा तो सब नर्तकियों को मिल जाये। लेकिन परमात्मा मिलने से जरूर नाच पैदा होता है। यहीं तुम्हें भेद समझ लेना होगा। अगर तुमने सोचा नाचने से परमात्मा मिलता है तो नाचना क्रियाकांड हो जायेगा। नाचना नहीं, मटकना होगा। भीतर तो कोई नाचेगा नहीं। भीतर तो सब सन्नाटा रहेगा। भीतर तो तुम वही के वही रहोगे जैसे थे। शरीर को मटका लोगे, हिला-डुला लोगे। एक तरह का व्यायाम होगा। व्यायाम का जितना लाभ है उतना मिलेगा।
लेकिन एक और नाच है--नाच, जो क्रियाकांड नहीं है; जो अंतरउमंग है; जो उल्लास है; जो उत्सव है। यह नाच तो तभी पैदा होता है जब तुम परमात्मा के करीब पहुंचने लगते हो।
तुम कहते हो : मैं नाच रहा हूं यहां। धन्यभागी हो तुम! नाचो। कंजूसी मत करना, कृपणता मत कर जाना।
लोग हर चीज में कृपण हो गये हैं हर चीज में सम्हाल-सम्हालकर चलते हैं, हर चीज में नियंत्रण रखते हैं। लोग मुस्कुराते भी हैं तो ऐसे जैसे कि बड़ा खर्च हुआ जा रहा है। लोग प्रसन्न भी होते हैं तो बहुत सोच-विचारकर। प्रसन्न होने में कुछ खर्च नहीं होता, कुछ खोता नहीं। प्रेम करने में कुछ खर्च नहीं होता, कुछ खोता नहीं। मिलता है बहुत, पाया जाता है बहुत। मगर लोग ऐसे कृपण हो गये हैं कि न मुस्कुरा सकते हैं, न नाच सकते हैं, न गा सकते हैं।
और लोगों का कसूर नहीं है। यही उन्हें सिखाया गया है। सदियों-सदियों का संस्कार यही है कि धर्म यानी गंभीर बात, अति गंभीर। इसलिये तुम्हारे साधु-संन्यासी बिलकुल गंभीर मालूम होते हैं, पथरीले मालूम होते हैं, रेगिस्तानी मालूम होते हैं--कि जिनके हृदय में कोई मरूद्यान नहीं; जिनके हृदय में कोई झरना नहीं बहता जीवन के रस का। यह चारों तरफ जगत नाच रहा है। तुम देखते हो, हर चीज वर्तुलाकार नाच रही है। यह रास चल रहा है। जिस पृथ्वी पर तुम बैठे हो, यह भी भागी जा रही है बड़ी त्वरा से, नाची जा रही है। यह थिर नहीं है। यह नृत्यमय है। यह सूरज का चक्कर लगा रही है। इसका नाच सूरज के पास चल रहा है। सूरज इसका प्रेमी है। सूरज इसका कृष्ण है, यह गोपी है। और ऐसे ही चांद भी नाच रहा है। चांद पहले तो पृथ्वी का चक्कर मार रहा है, फिर पृथ्वी के साथ सूरज का चक्कर मार रहा है ऐसे ही और ग्रह-उपग्रह नाच रहे हैं। ऐसे ही सारे तारे नाच रहे हैं। अनंत-अनंत तारों का यह महोत्सव तुम देखते हो! यहां हर चीज नाच रही है। बड़ी से बड़ी चीज, सूरज भी किसी और महासूर्य के इर्द-गिर्द नाच रहा है। वैज्ञानिक उसकी खोज में लगे हैं कि वह महासूर्य कहां है, जिसके केंद्र को मानकर हमारा सूर्य नाच रहा है? जरूर नाच तो रहा है, इसलिये कोई केंद्र भी होगा। जब कोई नाचेगा तो केंद्र भी बनेगा। परिधि होगी तो केंद्र भी होगा। उस सूरज की खोज चल रही है। बहुत दूर होगा। हो सकता है, वही इस अस्तित्व का केंद्र हो; या कौन जाने, वह भी किसी और केंद्र के पास नाचता हो! कतारों पर कतारें हैं। बीच में कृष्ण हैं, फिर गोपियों की एक कतार है, फिर दूसरी कतार, फिर तीसरी कतार। कतारों पर कतारें हैं। दीपमालिकाओं पर दीपमालिकाएं हैं।
तुम "कृष्ण' शब्द का अर्थ समझते हो? कृष्ण का अर्थ होता है--जो आकृष्ट करे। कृष्ण शब्द का वही अर्थ होता है जो ग्रेविटेशन का होता है--आकर्षण--कर्षण--कृष्ण। कृष्ण शब्द का अर्र्थ होता है जो केंद्र है सारे आकर्षण का; जिसके आसपास सब नाच चल रहा है। जैसे ही तुम नाचोगे, चाहे कृष्ण कितने ही फासले पर हो, वह तुम्हारा केंद्र बन गया। तुम परमात्मा के पास ही नाच सकते हो! किसी भी कारण से नाचो, परमात्मा का एक झोंका तुम्हारी जिंदगी में आ जायेगा। किसी स्त्री के प्रेम में पड़कर नाचे हो, वह भी परमात्मा का ही झोंका है। यह आई हवा की एक लहर। तुम्हारे घर बेटा पैदा हुआ है और तुम नाच उठे हो, आई उसी की एक लहर! तुम्हारे बगीचे में फूल खिला है गुलाब का और तुम नाच उठे हो, आई उसी की खबर!
आये नूपुर के स्वन झन-झन,
खिंच गये प्राण भर गये श्रवण,
आये नूपुर के स्वन झन-झन!

हो उठा तरंगित सुख-समीर,
कांपा अम्बर का वक्ष धीर,
आयी श्रवणों में उत्कंठा
जग गयी जगत की विसुध पीर
जब ध्वनि आयी रुन झुनन-झुनन, जब गूंजा मादक नूपुर स्वन!

भग गया दिशाओं में सपना!
जग भूला अहंभाव अपना!
मृण्मय भी बना परम तन्मय!
झंकृति-गुंजार-वितान तना!
स्वर भर लहराया मलय पवन! आये नूपुर के स्वन झन-झन!

कोऽहं की तान पुरानी मम,
अब तक थी अनुत्तरित विभ्रम,
पर अब नूपुर-गुंजारों में!
मिल गया समुद्र सोऽहं का सम!
हमने पाया कुछ आश्वासन; आये नूपुर के स्वन झन-झन!

हिय का यह हाहाकार निरा,
जिससे यह जीवन आज घिरा,
क्यों अब न शांत, उपरमित बने?
मन अब क्यों डोले फिरा-फिरा?
जब कान पड़ी यह ध्वनि नूतन, आये नूपुर के स्वन झन-झन!

झन-झन श्रवणागत अनिल-लहर, 
झन-झन यह अनहद नाद गहर,
झन-झन ये ध्वनि-सुरधुनी-भंवर,
झन-झन-झन-अमर प्रणय-अक्षर;
झन-झन-झन गूंजा हिय आंगन; आये नूपुर के स्वन झन-झन!

दायें-बायें आगे-पीछे,
बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे,
सब ओर सुनी गुंजार वही,
ध्वनि ने जल-थल अम्बर सींचे;
अनमने प्राण, मन नाद-मगन; आये नूपुर के स्वन झन-झन!

आये अग को करते जग वे
अपगा को देते गति-पग वे,
चंचलता का पल्ला पकड़े,
आये धीमे धरते डग वे,
हुलसा सिरजन, गूंजा कण-कण, आये नूपुर के स्वन झन-झन!

धरती नाची; नाचा अंबर,
तारक-माला नाची सत्वर;
ता-थइ, ता-थइ कर नाच उठे,
अनगिनत सौर-मंडल थर-थर,
उनने जब किया चरण-नर्तन; आये नूपुर के स्वन झन-झन!

उल्लास भरे, उन्माद भरे,
मद भरे और अवसाद भरे,
हम आज पूछते हैं उनसे,
कोई किस तरह विवाद करे,
जब नूपुर बोलें झनन-झनन, हो उठे प्राण-मन, जब उन्मन?

जब सप्तदी पूरी होगी,
जब लुप्त द्वैत दूरी होगी,
जब पिय गलबहियां डालेंगे
जब उनकी मंजूरी होगी
तब हम बन उनके नूपुर स्वन, गूंजेंगे झन-झन, झनन-झनन।
एक यात्रा शुरू हुई। नृत्य की यात्रा ही तीर्थ-यात्रा है। तुम जहां नाचो वहीं तीर्थ बन जाता है। तुम जहां नाचो वहीं कृष्ण। तुम जहां नाचो वहीं परमात्मा है। पूरे भाव से नाचो तो तुम उसके पैरों के घूंघर बन जाओगे। पूरे हृदय से गाओ, तुम्हारे कंठ में वही गायेगा। तुम संगीतमय हो उठो तो उसने ही तुम्हारे हृदय की तंत्री को छेड़ा। वही जब छेड़ता है तभी यह स्वर जगते हैं।
तुम कहते हो : "मैं नाच रहा हूं यहां। मैं, जो कि कभी नाचा नहीं!'
नृत्य खो गया है--तुम्हारा ही नहीं, पूरी मनुष्यता का खो गया है। आदमी तो बस सोच-विचार में पड़ा है, वाद-विवाद में पड़ा है, नाचने की फुरसत किसे है! और जब जीवन में नाच नहीं होता तो हम बहाने खोज लेते हैं। हम कहते हैं : आंगन टेढ़ा, नाचें तो कैसे नाचें? हम कहते हैं कि अभी इतना धन नहीं कि नाचें, कि अभी इतना पद नहीं कि नाचें, कि अभी जो चाहा है वही नहीं मिला तो नाचें कैसे? हम नाचने पर शर्तें लगाते हैं। वे शर्तर् कभी पूरी नहीं होतीं। वे शर्तें पूरी होने वाली हैं भी नहीं। तुम कभी न नाच सकोगे। और जो नहीं नाचा वह अभागा था। बहुत पास होकर परमात्मा से बहुत दूर रह गया।
नाचो! तुम कहते हो : "नाचना तो दूर, मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं नाचूंगा। मैं अपने पर ही चकित हूं।' जब पहली बार हृदय में धर्म का आविर्भाव होता है तो सभी चकित होते हैं, आश्चर्यचकित होते हैं। क्योंकि हम धन के पागल कभी ध्यान के लिये पागल हो जायेंगे, इसका विचार ही नहीं उठा था; कि हम पद के पागल, कभी प्रभु के दीवाने हो उठेंगे, इसका स्वप्न भी नहीं जगा था; कि हम कूड़ा-करकट इकट्ठा करनेवाले, कभी भीतर के खजाने से हमारी पहचान हो जायेगी, ऐसा कोई हमसे लाख कहता तो भी हम भरोसा न करते।
और कहा है। जो जागे हैं उनसे पूछो। वे यही कह रहे हैं कि परमात्मा का राज्य तुम्हारे भीतर है। हम सुन भी लेते हैं, लेकिन मन भरोसा नहीं करता। हम सिर भी झुका लेते हैं। हम बुद्धों, क्राइस्टों के चरणों में जाकर नमस्कार भी कर आते हैं, मगर वैसे के वैसे वापिस लौट आते हैं। न कोई स्नान होता, न कोई ध्यान होता, न हमारे जीवन में उस परम का कोई स्वाद जन्मता है।
यहां तो एक जीता-जागता हुआ धर्म पैदा हो रहा है--नाचता हुआ धर्म, हंसता हुआ धर्म। मैं जीवन के गहन प्रेम में हूं और वही तुम्हें सिखा रहा हूं। मैं जीवन विरोधी नहीं हूं। मैं तुम्हें जीवन का त्याग नहीं सिखा रहा हूं। जीवन को कैसे भोगा जाये, यही सिखा रहा हूं। यही तो अड़चन है पंडित-पुरोहितों को, क्योंकि वे समझते हैं मैं भोगी हूं। ठीक ही समझते हैं। क्योंकि मेरी धारणा है कि परमात्मा महाभोगी है। परमात्मा भोग रहा है इन वृक्षों की हरियाली, इन चांदत्तारों के प्रकाश को। परमात्मा बड़ा वैभवशाली है। यह सारा वैभव उसका है। इसलिये तो हम उसे ईश्वर कहते हैं। ईश्वर का अर्थ है : जिसका सारा ऐश्वर्य है।
परमात्मा त्यागी नहीं है। भूलकर भी मत सोचना कि परमात्मा तुम्हें मिलेगा तो लंगोटी लगाये होगा। भूलकर भी मत सोचना। यह तो हो सकता है कि फूलों का हार उसने पहना हो; लंगोटी से कोई संबंध नहीं जुड़ता उसका। यह तो हो सकता है कि चांदत्तारों का हार उसने पहना हो, कि सूरज उसके मुकुट में जड़े हों कि उसके हाथ में बांसुरी हो और अनाहद का नाद हो रहा हो। यह तो हो सकता है मगर लंगोटी...परमात्मा से उसका कोई संबंध नहीं जुड़ता।
तुम सोचते हो लंगोटी लगानेवाला परमात्मा ऐसा प्यारा जगत निर्मित कर सकता है? लंगोटी लगानेवाला परमात्मा गुलाब के फूल बनायेगा, कि कमल खिलायेगा, कि जुही में गंध भरेगा, कि तितलियों के पंख रंगेगा? तुम जरा सोचो। त्यागी परमात्मा इतना सुंदर जगत निर्मित करेगा? क्यों? यह तो महाभोगी परमात्मा ही कर सकता है। यह जगत उसके भोग का शाश्वत प्रमाण है।
और मैं तुम्हें त्यागी नहीं बनाना चाहता। मैं तुम्हें भोग की कला देना चाहता हूं कि कैसे भोगो, कि इतने गहरे भोगो कि तुम्हें उस महाभोगी से मिलन हो जाए। ऐसे नाचो की नाच में खो ही जाओ कि वही रह जाये शेष, तुम मिट ही जाओ। ऐसे गाओ कि तुम्हारा गीत कब उसका गीत हो गया, तुम्हें पता भी न चले। और वैसी घड़ी आ जाती है, गाते-गाते जब तुम्हें स्वयं का विस्मरण हो जाता है तो गीत तुम्हारा नहीं रह जाता। नाचते-नाचते जब तुम्हें याद ही नहीं रह जाती है कि कौन नाच रहा है, नाच ही बचता है, नर्तक नहीं बचता कोई, तब तुम ध्यान रखना, फिर वही तुम्हारे भीतर नाचता है।
यह तो बारीक मामला है, सूक्ष्म मामला है, नाजुक है। यह तो सिर्फ उसी को अनुभव होगा जिसको अनुभव होगा। बाहर से तो पता ही नहीं चलेगा। बाहर से तो तुम मीरा में और नर्तकी में क्या भेद कर पाओगे? यह भी हो सकता है कि नर्तकी ज्यादा अच्छा नाचे, ज्यादा प्रशिक्षित हो। मीरा के नाच में, हो सकता है, थोड़ा अनगढ़पन हो, थोड़ी अल्हड़ता हो। होनी ही चाहिये। इतने मस्त लोग कहां नियम की फिक्र करेंगे! कोई पैरों की गिनती थोड़े ही करेगी मीरा, कि कहीं पैर भूल-चूक का तो नहीं पड़ रहा है! मीरा तो मस्ती में नाचेगी, तो कुछ भूल-चूक भी हो सकती है। नर्तकी बिलकुल गणित से नाचेगी, भूल-चूक नहीं होगी। बाहर से तो शायद तुम्हें नर्तकी के नृत्य में ही ज्यादा कला मालूम पड़े, मगर भीतर नर्तकी मौजूद है, हिसाब-किताब बिठाकर नाच रही है। उसकी नजर तुम्हारे नोटों पर लगी है। उसके नाच में हेतु है। और उसके नाच में अहंकार की तृप्ति है।
मीरा को पता ही नहीं है...लोक-लाज छोड़...। उसे पता ही नहीं है कि कब उसका आंचल सरक गया है। बीच बाजार में नाच रही है, लोग क्या कहेंगे! होश कहां है! यह मैं का भाव कहां है! भीतर कोई नहीं है अब।
तो जब मीरा नाचती है तो जानना कि कृष्ण नाचते हैं। जब भक्त नाचते हैं तो जानना कि भगवान नाचते हैं। मगर यह तो भीतर के स्वाद का भेद है। यह तुम नाचोगे तो पता चलेगा। तुम्हें पता चलता रहेगा: एक घड़ी आयेगी, जब तक तुम रहोगे और फिर अचानक तुम नहीं हो! और जहां से तुम नहीं हो वहीं से नृत्य धार्मिक हुआ, वहीं से नृत्य ध्यान हुआ।
नाचो! सोचो मत, विचारो मत। और-और चकित होने की घड़ियां घटेंगी। और-और आश्चर्य तुम्हारी प्रतीक्षा करते हैं।

तीसरा प्रश्न :

जीवन में दुख-ही-दुख क्यों हैं? परमात्मा ने यह कैसा जीवन रचा है?

जीवन दुख-ही-दुख नहीं है। यह तुमसे किसने कहा? हां यहां दुख भी हैं, लेकिन दुख केवल भूमिकाएं हैं सुख की। जैसे फूल के पास कांटे लगे हैं, वे सुरक्षायें हैं फूल की। कांटे फूलों के दुश्मन नहीं हैं; उनके रक्षक हैं, पहरेदार हैं। कांटे फूलों के सेवक हैं।
जीवन दुख-ही-दुख नहीं है। यद्यपि दुख यहां हैं। पर हर दुख तुम्हें निखारता है और बिना निखारे तुम सुख को अनुभव न कर सकोगे। हर दुख परीक्षा है। हर दुख प्रशिक्षण है। ऐसा ही समझो कि कोई वीणावादक तारों को कस रहा है। अगर तारों को होश हो तो लगेगा कि बड़ा दुख दे रहा है, मीड़ रहा है, तारों को कस रहा है, बड़ा दुख दे रहा है! लेकिन वीणावादक तारों को दुख नहीं दे रहा है; उनके भीतर से परम संगीत पैदा हो सके, इसका आयोजन कर रहा है। तबलची ठोंक रहा है तबले को हथौड़ी से। तबले को अगर होश हो तो तबला कहे : बड़ा दुख है, जीवन में दुख-ही-दुख है! जब देखो तब हथौड़ी, चैन ही नहीं है। मगर तबलची तबले को सिर्फ तैयार कर रहा है कि नाद पैदा हो सके।
दुख नहीं है, जैसा तुम देखते हो वैसा। परमात्मा तुम्हें तैयार कर रहा है। यह सुख की अनंत यात्रा है। लेकिन यात्रा में कुछ कीमत चुकानी पड़ती है, मूल्य चुकाना पड़ता है। सोने को शुद्ध होने के लिये आग से गुजरना पड़ता है। बीज को वृक्ष होने के लिये टूटना पड़ता है। नदी को सागर होने के लिये खोना पड़ता है। इस सबको तुम दुख कहोगे? दुख कहोगे तो चूक गये बात। यह कोई भी दुख नहीं है। ऐसा जो जानता है वही जानता है। यहां दुख भी हैं; सुख भी हैं। लेकिन हर दुख सुख की सेवा में रत है। यहां कांटे भी हैं, फूल भी हैं लेकिन हर कांटा फूल की सेवा में रत है।
हैं नयन में अश्रु भी यदि,
अधर पर मुस्कान भी है।
और जिनकी आंखें कभी रोई नहीं, उनकी मुस्कान बासी होती है। उनकी मुस्कान में तुम धूल जमी पाओगे। उनकी मुस्कान में धुलावट नहीं होती। उनकी मुस्कान में चमक नहीं होती। जो रोये ही नहीं कभी, जिनकी आंखों से आंसू नहीं बहे कभी, उनके ओंठ गंदे होते हैं। आंख से आंसू बहते रहें, तो ओंठ ताजे होते हैं, सद्यःस्नात होते हैं। जो रो सकता है, जब हंसता है, तो उसकी हंसी में फूल झरते हैं। और जो रोने की कला जानता है उसके तो आंसुओं में भी फूल झरने लगते हैं। जो पूरा-पूरा निष्णात हो जाता है उसके आंसू भी सुंदर हैं, उसकी मुस्कराहट भी सुंदर है।
अगर समझ हो तो तुम जब माला गूंथो फूलों की, अगर होशियार हो तो कांटों का भी उपयोग कर सकते हो। देखने की आंख चाहिये।
अब तुम देखते हो, नये युग में गुलाब से भी ज्यादा आदृत कैक्टस हो गया है। देखने की आंख चाहिये। लोगों ने घरों में गुलाब नहीं लगा रखे हैं, लोगों ने घरों में कैक्टस रख छोड़े हैं। कैक्टस! आज से तीन सौ साल पहले या दो सौ साल पहले दुनिया में अगर कोई घर में अपने कैक्टस रखता तो लोग उसको पागल समझते, कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, यह धतूरे का पेड़ कहां भीतर लिये आ रहे हो! यह जहर है! इसका कांटा किसी को गड़ जायेगा, मौत हो जायेगी। लोग इस तरह के कैक्टस के झाड़ तो खेतों की बागुड़ में लगाते थे सिर्फ, ताकि जानवर न घुस जायें, कोई चोरी खेत से न कर ले जाये। इनको कोई घर में लाता था?
लेकिन मनुष्य की संवेदनशीलता विकसित होती गई है, परिष्कार हुआ है। अब कैक्टस में भी एक सौंदर्य है! और निश्चित सौंदर्य है। अब दिखाई पड़ना शुरू हुआ कैक्टस का सौंदर्य। ऐसी ही घटना घटती है। आंखवाले को दुख में भी सौंदर्य दिखाई पड़ने लगता है। सुख दिखाई पड़ने लगता है।
हैं नयन में अश्रु भी यदि,
अधर पर मुस्कान भी है।

प्रार्थना बेला पुजारिन,
क्यों प्रकम्पित गात तेरा।
है यहां अवहेलना भी,
पर यहां वरदान भी है।
हैं नयन में अश्रु भी यदि,
अधर पर मुस्कान भी है।

डगमगाते क्यों चरण,
मंजिल तुझे करती इशारा।
देख इस अनजान पथ की,
एक चिर पहचान भी है।
हैं नयन में अश्रु भी यदि,
अधर पर मुस्कान भी है।

अबल है या सबल मानव,
हृदय युग-युग की समस्या।
है यहां यदि प्राप्ति आशा,
तो यहां प्रतिदान भी है।
हैं नयन में अश्रु भी यदि,
अधर पर मुस्कान भी है।

आंसुओं की लहरियों पर,
हास का सरसिज खिला है।
है हृदय में करुण क्रन्दन,
पर स्वरों में गान भी है।
हैं नयन में अश्रु भी यदि, 
अधर पर मुस्कान भी है।
थोड़ा जागो। थोड़ा खोजो। किसने तुमसे कहा कि जीवन में दुख ही दुख है? ये तुम्हारे तथाकथित त्यागीत्तपस्वी, ये तुम्हें इसी तरह के व्यर्थ बातें कहते रहे हैं : जीवन में दुख ही दुख है, कांटे ही कांटे हैं, सब बुरा ही बुरा है। त्यागो। भागो। छोड़ो।
लेकिन खयाल रखना, जो जीवन को त्यागता है, जीवन को छोड़ता है, उसने परमात्मा का अपमान किया है। वह नास्तिक है। वह आस्तिक नहीं है। क्यों मैं ऐसा कह रहा हूं? खूब सोचकर ऐसा कह रहा हूं। अगर तुम चित्रकार को प्रेम करते हो तो उसके चित्र का त्याग कैसे करोगे? और अगर तुम मूर्तिकार को प्रेम करते हो तो उसकी मूर्ति का त्याग कैसे करोगे? और अगर तुमने संगीतज्ञ को चाहा है तो तुम उसकी वीणा को सिर-माथे धरोगे। परमात्मा ने अगर यह सृष्टि की है तो तुम इसका त्याग कैसे करोगे? इसके त्याग में तो परमात्मा के प्रति शिकायत है। इसके त्याग में तो यह घोषणा है कि यह तूने क्या बनाया? इसके त्याग में तो इस बात की घोषणा है कि तुझसे अच्छा तो हम जानते हैं कि कैसा जगत होना चाहिये था, हम बना लेते तुझसे अच्छा, यह तूने क्या बनाया? यह कैसा दुख ही दुख भर दिया है?
नहीं, दुख ही दुख नहीं है। दुख पृष्ठभूमि है सुख की। और जैसे रात में ही तारे दिखाई पड़ते हैं, दिन में भी तारे होते हैं आकाश में, कहीं भाग नहीं गये हैं, कोई दिन में संन्यास नहीं लेते तारे। दिन में भी आकाश तारों से भरा है, लेकिन दिखाई नहीं पड़ते, क्योंकि पृष्ठभूमि नहीं है। अंधेरे की पृष्ठभूमि चाहिये! इसलिये जितनी अंधेरी रात होती है उतने तारे चमकते हैं। अमावस की रात तारों में जैसी ज्योति होती है वैसी कभी नहीं होती। काले ब्लैकबोर्ड पर लिखते हैं न हम सफेद खड़िया से; सफेद दीवाल पर लिखो, कुछ दिखाई न पड़ेगा। लिखावट भी हो जायेगी, कुछ दिखाई न पड़ेगा। ब्लैकबोर्ड पर लिखना पड़ता है, तब कुछ दिखाई पड़ता है। पृष्ठभूमि चाहिये। दुख सुख की पृष्ठभूमि है। कांटे फूलों की पृष्ठभूमि हैं। आंसू मुस्कुराहटों की पृष्ठभूमि हैं। और तुम पृष्ठभूमि को छोड़ दोगे, तो तुम्हारा जीवन बिलकुल नीरस हो जायेगा, अस्त-व्यस्त हो जायेगा। तुम्हारे जीवन की सारी आधारशिला गिर जायेगी। मगर त्यागीत्तपस्वी यही सिखाता रहा है कि भागो। वह तुम्हें अंगुलियां गड़ा-गड़ाकर दिखाता रहा है...तुम्हारी आंख में अंगुलियां डाल डालकर दिखाता रहा है कि यह दुख, यह दुख। वह दुखों की गिनती करवाता रहा है। किसी ने तुम्हें सुखों की गिनती नहीं करवाई अब तक।
और मैं तुमसे कहता हूं : ऐसा कोई दुख ही नहीं है जो सुख का आयोजन न कर रहा हो। हर दुख सुख के लिये पृष्ठभूमि है; सुख के तारों के लिये अमावस की रात है। इसे जानना मैं जीवन की कला मानता हूं। तब यह सारा जगत अपूर्व सौंदर्य से भरा हुआ मालूम होगा। और उस अपूर्व सौंदर्य में ही परमात्मा की पहली झलक मिलती है।
खयाल रखो, जिस जीवन में चुनौतियां नहीं हैं दुख की वह जीवन नपुंसक हो जाता है। जिस जीवन में बड़े प्रश्न नहीं जगते उस जीवन में बड़ा चैतन्य पैदा नहीं होता।
वह जीवन का पथ है सूना
जिसमें कांटों के तार नहीं,
वह मानव का मानस सूना
जिसमें उठते उदगार नहीं!

है धूलि-पिण्ड वह मानव-उर
जिसमें यदि दहकी आग नहीं,
वह जीवन का संगीत शून्य
जिसमें करुणा का राग नहीं!

वे कांच-खण्ड सी आंखें हैं
जिनमें आंसू की धार नहीं,
वह है पशुओं का-सा जीवन
जिसमें असीम का प्यार नहीं!

वह निद्रा क्या है जड़ता है
जिसमें स्वप्निल-संसार नहीं,
वह विजय-हर्ष, क्या विजय-गर्व
जिसने देखी यदि हार नहीं!

उस सत्य प्रेम में सिद्धि कहां
जिसमें वियोग का स्वाद नहीं,
वह जीवन क्या बस मौत कहो
जिसमें पीड़ा अवसाद नहीं!

उस जीवन में आनंद कहां
जिस पर नैराश्य-प्रहार नहीं,
यदि सूने अधरों के पट पर
आहों की वंदनवार नहीं!

यदि सही न पीर प्रतीक्षा की
उस पाने में कुछ सार नहीं
जिसको न व्यथा के नैन मिले
वह देख सका संसार नहीं!
दुख को बदलो। दुख को सुख की सेवा में लगाओ। दुख को सुख का निखार बनाओ। दुख से भागो मत। जो भागता है, बुद्धिहीन है। जो जागता है, बुद्धिमान है। और ध्यान रखना, दुख न हो तो जाग ही न सकोगे।
तुमने एक मजे की बात देखी, कि अगर रात कोई मधुर, मीठा सपना चलता हो तो कभी नींद नहीं टूटती! जैसे तुम सम्राट हो गये, सोने के महल हैं, सुंदर स्त्रियां हैं, शराब की महफिल जमी है, नर्तकियां नाच रही हैं...नींद टूटेगी? क्यों टूटेगी? इतना मधुर सपना चल रहा है, नींद क्यों टूटेगी? मधुर ही मधुर है, नींद क्यों टूटेगी? लेकिन तुम एक दुख-स्वप्न देखते हो कि एक सिंह तुम्हारे पीछे लगा है और पास आता चला जा रहा है और तुम भाग रहे हो, प्राण छोड़कर भाग रहे हो...पहाड़ियां...और भागे जा रहे हो, बड़ी-बड़ी छलांगें मार रहे हो, पत्थरों से टकरा रहे हो, गिर रहे हो, उठ रहे हो, कांटे छिद गये हैं, पैर लहू-लुहान हैं और सिंह है कि चला आ रहा है और उसकी गर्जना और पास और पास सुनाई पड़ती है...और आखिर में सिंह ने तुम्हारी पीठ पर हाथ रख दिया। अब तुम्हारी नींद लगी रहेगी? एकदम नींद खुल जायेगी। हालांकि नींद खुलेगी, तुम पाओगे : कोई नहीं है, पत्नी ने सिर्फ हाथ रखा है पीठ पर। कोई सिंह इत्यादि नहीं है, सिर्फ पत्नी है। वह नींद में भी चिंतित रहती है, कहीं भाग-भूग तो नहीं गये। हाथ रखे हुए है, कि कोई गलत सपना तो नहीं देख रहे हो!
दुख-स्वप्न तत्क्षण नींद तोड़ देता है। इस जगत में जो दुख हैं वे जागरण के लिये उपाय हैं। यह जगत बिलकुल सोया हुआ होता अगर यहां दुख न होते। जरा सोचो, दुख न होता तो इस जगत में बुद्ध न होते। बुद्धत्व हुआ इसलिये कि इस जगत में दुख है। दुख है तो आदमी ने विचार किया, सोचा, ध्यान किया। दुख हैं तो आदमी ने खोज की, अन्वेषण किया। दुख हैं तो कांटे चुभे। कांटे चुभे तो फूलों की तलाश शुरू हुई। मृत्यु है, इसलिये अमृत की खोज शुरू होती है। तो तुम मृत्यु को दुश्मन न समझो।
बुद्ध की कथा तो तुमने सुनी। राह पर रथ पर बैठे हुए उन्होंने देखा एक बीमार बूढ़ा और पूछा सारथी से : इसे क्या हो गया है? तब तक उन्होंने कोई बीमार और बूढ़ा नहीं देखा था। उनके पिता ने ऐसी व्यवस्था की थी, क्योंकि जब वे पैदा हुए थे तो ज्योतिषियों ने कहा था कि इन्हें थोड़े सम्हालकर रखना; या तो यह बच्चा चक्रवर्ती सम्राट होगा और या फिर महाबुद्ध होगा। कौन बाप अपने बेटे को देखना चाहता है कि वह बुद्ध हो जाये! चक्रवर्ती सम्राट सभी बाप चाहते हैं कि हमारे बेटे हो जायें। तो बाप ने कहा कि यह तो बड़ी खतरनाक बात तुमने कह दी। मैं कैसे रोकूं मेरे बेटे को कि वह बुद्ध न हो पाये, चक्रवर्ती सम्राट ही हो? तो समझदारों ने सलाह दी कि इसे कभी बुढ़ापे का पता न चले, बीमारी का पता न चले, मुर्दा इसे कभी दिखाई न पड़े। अब यह सोचते हो, उन्होंने जो सलाह दी, एक अर्थ में बड़ी महत्वपूर्ण सलाह दी! उन्होंने कहा : ये ही चीजें हैं, जिनकी चोट पड़ती है और जिनकी चोट में आदमी जाग जाता है। इस पर चोट ही मत पड़ने देना। इसको सुलाये रखो। इसे सुख के सपनों में सुला दो।
तो बुद्ध के पिता ने महल बनवा दिये, अलग-अलग ऋतुओं के लिये अलग-अलग महल। और हर महल में ऐसा इंतजाम किया कि सुंदरतम स्त्रियां राज्य की इकट्ठी कर दीं, सौंदर्य ही सौंदर्य दिखाई पड़े। मीठा ही मीठा सब। आज्ञा थी मालियों को कि वृक्षों में पत्ते कुम्हलायें, इसके पहले अलग कर दिये जायें, कि कहीं वृक्षों के पत्तों को कुम्हलाया देखकर, सूखा देखकर बुद्ध के मन में यह सवाल न उठ जाये कि कहीं जीवन भी तो इसी तरह कुम्हला न जायेगा! उनकी बगिया से रात में सब फूल अलग कर दिये जाते थे, जो सूखने के करीब होते थे। बुद्ध ने कभी सूखा फूल नहीं देखा था। कोई बूढ़ा महल में प्रवेश नहीं कर सकता था। और बुद्ध को कभी जब राजधानी में निकलना होता था तो रास्ते खाली कर दिये जाते थे, कि रास्तों पर कोई बूढ़ा न हो, कोई बीमार न हो, कोई कुरूप न हो, कोई अपंग न हो, कोई मुर्दे की खबर ही बुद्ध को न मिले।
बुद्ध जब तक जवान हो गये उन्हें पता ही न था कि मौत होती है। तो स्वभावतः जब पहली दफा उन्होंने बूढ़े को देखा तो वे चौंके। सारथी ने कहा कि इसे कुछ हो नहीं गया है, कुछ खास बात नहीं हो गयी सभी इसी तरह बूढ़े हो जाते हैं। बुद्ध ने तत्क्षण पूछा क्या मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा? और सारथी ने कहा कि होना ही पड़ेगा, कोई अपवाद नहीं। और तब बुद्ध ने देखा एक मुर्दा। उन्होंने पूछा : इसे क्या हो गया है? लोग क्यों इसे बांधकर कंधों पर उठाये लिये जाते हैं? सारथी ने कहा: यह आदमी मर गया है। यह बुढ़ापे के आगे का कदम है।
मर गया! मरना यानी क्या? बुद्ध को पहली दफा मृत्यु का आभास हुआ। और बुद्ध ने पूछा : क्या मैं भी मर जाऊंगा? क्या एक दिन मुझे भी लोग इसी तरह बांधकर कंधे पर रखकर ले जायेंगे? फिर क्या करते हैं?
सारथी ने कहा : फिर जला देते हैं, और तो कोई उपयोग नहीं।
"तो मुझे भी एक दिन जला देंगे!' और बुद्ध ने कहा : तब लौटा लो रथ को वापिस। वे जा रहे थे युवक-महोत्सव का उदघाटन करने, उन्होंने कहा : रथ को वापिस लौटा लो। अब न कोई युवक है न कोई महोत्सव है। अब मुझे जीवन की तलाश करने दो। अब मुझे कुछ ऐसे तत्व को खोजने दो जिसकी मृत्यु नहीं होती और जो बूढ़ा नहीं होता।
देखते हो दुख न होता तो बुद्ध कभी पैदा न होते। दुख न होता तो जगत में धर्म होता ही नहीं। जगत में धर्म इसलिये है कि दुख है और दुख न होता तो तुम्हें परमात्मा की कभी याद ही न आती। सुख में तो सभी लोग परमात्मा को भूल ही जाते हैं। दुख में ही थोड़ी-बहुत याद आती है। इसलिये दुख का तुम उपयोग समझो, दुख का अभिप्राय समझो।
संसार में दुख है, क्योंकि संसार में अमृत छिपा पड़ा है। दुख तुम्हें चौंकायेगा, जगायेगा, तो अमृत के तुम मालिक हो जाओगे। मृत्यु के पीछे अमृत है, दुख के पीछे सुख है। इस जीवन के रसायन को समझो। दुख-दुख कहकर भाग मत खड़े होना। भागकर कहां जाओगे? दुख-दुख कहकर सिकुड़ मत जाना, डर मत जाना, भयभीत मत हो जाना। दुख तो चुनौती है।
वह जीवन का पथ है सूना
जिसमें कांटों के तार नहीं,
वह मानव का मानस सूना
जिसमें उठते उदगार नहीं!
वे कांच-खंड सी आंखें हैं
जिनमें आंसू की धार नहीं,
वह है पशुओं का-सा जीवन
जिसमें असीम का प्यार नहीं!
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन अपने गांव के महा कंजूस सेठ के पास मस्जिद के लिये कुछ दान मांगने गया। उस सेठ ने कभी किसी को दान दिया ही नहीं था। उसकी यही ख्याति थी कि जीवन में उसने कभी किसी को दान नहीं दिया था। उसके पास था बहुत, मगर वह एक से एक तरकीबें निकालता था। एक दफा कुछ लोग दान मांगने गये थे, उन्होंने कहा कि हम अनाथालय के लिये दान मांगते हैं। तो उसने कहा : सुनो मेरी मां अस्सी साल की बूढ़ी है और भूखों मर रही है। मेरा भाई लंगड़ा है, दाने-दाने को मोहताज है। मेरा पत्नी बीमार पड़ी है, दवा का भी इंतजाम नहीं।
जो लोग आये थे दान मांगने, वे तो बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा : आप इतने कष्ट में हैं, यह तो हमें मालूम ही न था। उसने कहा : कष्ट में मैं नहीं हूं, मगर मेरी मां अस्सी साल की है, उसकी मैं कुछ सहायता नहीं करता; मेरा भाई लंगड़ा है, उसकी मैं कोई सहायता नहीं करता; मेरी पत्नी बीमार पड़ी है, खाट से लगी है, उसकी मैं दवा नहीं करता--तो जब मैं अपनों की ही नहीं करता तो मैं दूसरों की क्यों फिकिर करूं? होंगे अनाथ। मेरे घर में ही काफी अनाथ हैं।
बहुत तरह से लोगों ने कोशिश की थी, लेकिन कभी उसने किसी को दान दिया नहीं था। जब मुल्ला उससे दान मांगने गया और मुल्ला ने बड़ी करुण गाथा सुनाई कि मस्जिद बिलकुल गिरी जा रही है और उपासकों के ऊपर किसी दिन गिर जायेगी तो हत्या हो जायेगी--और आपके रहते...! तो उसने कहा : एक काम कर, मेरी एक आंख नकली है और एक असली है। तू बता दे कि कौन-सी नकली है? अगर तूने ठीक-ठीक बता दिया तो मैं दान दूंगा।
मुल्ला ने एक क्षण उसकी आंखें देखीं और कहा कि आपकी बाई आंख नकली है। सेठ बहुत चौंका। उसने कहा : तूने जाना कैसे? उसने कहा कि जाना इसलिये कि बायीं आंख में थोड़ी दया-ममता मालूम होती है। यह नकली होनी चाहिये आंख। असली आंख तो बिलकुल पत्थर की है, उसमें तो कोई दया-ममता का सवाल नहीं है।
लोग संवेदन-शून्य हो जाते हैं। उनकी आंखें पथरीली हो जाती हैं। अगर सिकुड़ना शुरू किया तो संवेदना खो जायेगी। और संवेदना प्रार्थना है। तुम अगर धीरे-धीरे दुख-ही-दुख देखकर कठोर होते गये...और कठोर न होओगे तो क्या करोगे? अगर दुख देखोगे तो कठोर हो ही जाओगे, क्योंकि दुख से सुरक्षा कठोरता में है। इसलिये तुम्हारे तथाकथित त्यागीत्तपस्वी कठोर हो जाते हैं। उनके हृदय पत्थर हो जाते हैं। उनके जीवन का काव्य खो जाता है। वे बातें करुणा की भला करते हों और प्रेम की भला चर्चा चलाते हों और ब्रह्मसूत्रों पर प्रवचन देते हों, लेकिन उनके भीतर कहीं कोई झरना नहीं होता--आनंद का, रस का, प्रेम का। हो ही नहीं सकता। जीवन में दुख-ही-दुख है। दुख से बचना है तो आदमी को कठोर होना पड़ेगा। जितने तुम कठोर हो जाओगे उतने ही दुख से बचाव हो जायेगा। जितने तुम सदय रहोगे, कोमल रहोगे, उतना ही दुख तुम पर हमला करेगा और पीड़ा देगा। दुख से सुरक्षा कठोरता में है।
इसलिये मैं तुमसे नहीं कहता कि जीवन में दुख-ही-दुख है, क्योंकि इसका अंतिम परिणाम बहुत संघातक है। अगर जीवन में दुख-ही-दुख है तो तुम पत्थर हो जाओगे, तुम पाषाण होकर मरोगे।
नहीं, जीवन में बहुत सुख भी है। दुख नहीं है, ऐसा मैं नहीं कहता, क्योंकि वह तो झूठ होगा। वह तो दूसरी अति हो जायेगी। कोई कहते हैं कि जीवन में सुख है ही नहीं; वह एक अति। मैं तुमसे न कहूंगा कि जीवन में दुख ही नहीं है; दुख है, खूब है! मगर सुख के मुकाबले कुछ भी नहीं। और सारे दुख को सुख की सेवा में नियोजित किया जा सकता है। सीढ़ियां बनाओ दुख की। राह के ऊपर पड़े पत्थरों को पत्थर और बाधायें ही मत समझो, सीढ़ियों में बदल लो। यही जीवन की कला है। इसको ही मैं धर्म कहता हूं। धर्म त्याग नहीं है--महाभोग है।

चौथा प्रश्न :

प्रश्न का कोई अस्तित्व नहीं, यह जानते हुए विनम्रतापूर्वक मैं जानना चाहूंगा--मा दर्शन ने गुरुकुल कांगड़ी के वेदज्ञाता को आपके भगवान होने के विषय में उत्तर दिया : "भगवान तो आप भी हैं, लेकिन आपको स्मरण नहीं है।' मेरी मंद बुद्धि के अनुसार यह उत्तर वही दे सकता है, जिसे स्वयं स्मरण है। और जिसे स्वयं स्मरण है, वह स्वयं को भी तो भगवान कह सकता है! यदि स्मरण होते हुए भी नहीं कहा, तो इसका अर्थ है--निर-अहंकार के कारण नहीं कहा। लेकिन तब इस उदघोषणा से बचा क्यों जाये?

पूछा है भाई महकवाला, दिल्लीवालों ने। दर्शन भी दिल्ली से है, शायद इसी से अड़चन हुई होगी।
प्रश्न को ठीक से विश्लेषण करना जरूरी है, क्योंकि प्रश्न करीब-करीब उत्तर अपने में लिये हुए है!
पहली तो बात, कहा कि प्रश्न का कोई अस्तित्व नहीं। फिर पूछते क्यों हो? जब इतना पता ही है कि प्रश्न का कोई अस्तित्व ही नहीं, फिर पूछते क्यों हो? यह तो ऐसे ही हुआ कि गये डाक्टर के पास, कहा बीमारी का कोई अस्तित्व नहीं, फिर भी हाथ तो देखें, कुछ उपचार तो लिख दें, इंजेक्शन तो लगा ही दें, यद्यपि बीमारी का तो कोई अस्तित्व नहीं! क्यों शुरुआत की इस बात की कि प्रश्न का कोई अस्तित्व नहीं? शायद दिखाना चाहते हैं कि मैं और प्रश्न, मेरे लिये प्रश्न इत्यादि का कोई अस्तित्व नहीं है! लेकिन भीतर प्रश्न ही प्रश्नों का अंबार भरा होगा।
नाम तो है भाई महकवाला, मगर महक तो निष्प्रश्न चित्त में होती है! प्रश्नों से सिर्फ दुर्गंध ही उठती है, महक नहीं उठती। प्रश्नों से तो सिर्फ बास उठती है, दुर्गंध उठती है। निष्प्रश्न चित्त में समाधि की सुवास आती है। सुना होगा कि प्रश्न नहीं होने चाहिये; निष्प्रश्न होना चाहिए। इसलिये शुरुआत किया, लेकिन बचकर न जा सकोगे। ऊपर-ऊपर से कहोगे, इससे क्या होता है? भीतर तो प्रश्न भरे हैं।
और प्रश्न भी तुम्हारा अपना नहीं, दर्शन के संबंध में। दर्शन को पूछना हो दर्शन पूछे, गुरुकुल कांगड़ी के वेदज्ञाता को पूछना हो गुरुकुल कांगड़ी के वेदज्ञाता पूछें। तुम तो दोनों नहीं हो। तुम नाहक बीच में क्यों उतर आये? यह प्रश्न तुम्हारा नहीं है, फिर भी तुम्हारे मन को मथा होगा, नहीं तो यह पूछते क्यों? पर इतनी ईमानदारी भी नहीं है कि साफ कह दो कि मेरे मन में इससे पीड़ा हो रही है, इसलिये मुझे पूछना है; यह प्रश्न मुझे परेशान कर रहा है, इसलिये मुझे पूछना है।
इस देश में इस तरह का पाखंड बहुत फैल गया है। मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं कि ऐसे तो हमें ध्यान हो गया, मगर सोचा कि आपसे भी पूछ आयें कि ध्यान कैसे करना! यह भी नहीं कह सकते कि हमें ध्यान नहीं हुआ है। ध्यान तो हो ही गया है, समाधि का अनुभव हो रहा है; मगर ऐसे ही पूछने चले आये। मैं कहता हूं : काहे इतनी मेहनत की? नाहक परेशान हुए! जब आपको ध्यान हो ही गया है तो मैं कुछ और न कहूंगा अब। जब तक आप यह नहीं कहेंगे कि मुझे ध्यान नहीं हुआ है तब तक मैं क्यों कुछ कहूं? मेरा समय क्यों खराब करते हो? समाधिस्थ व्यक्तियों को किसी से जाकर पूछने की कोई जरूरत नहीं है। बात घट ही गई।
लेकिन ऐसा पाखंड है हमारे देश में। है कुछ स्थिति, कहेंगे कुछ और। हम मुखौटे ओढ़ने में बड़े कुशल हो गये हैं।
अब तुम पूछते हो : "प्रश्न का कोई अस्तित्व नहीं, यह जानते हुए विनम्रतापूर्वक मैं जानना चाहूंगा!' अब यह विनम्रतापूर्वक भी कुछ विनम्रता नहीं है इसमें। क्योंकि किसी दूसरे के संबंध में प्रश्न पूछना कैसे विनम्रता हो सकती इसमें? प्रश्न में लांछन है। प्रश्न में निंदा है। दर्शन ने कुछ गलत किया है, इसका आग्रह है। इसमें विनम्रता हो कैसे सकती है? नहीं है तो कहने की कोई जरूरत भी नहीं है।
लेकिन ऐसा ही हमारे देश में चलता है। "विनम्रतापूर्वक पूछना चाहता हूं...।' प्रश्न ही अविनम्र है। प्रश्न ही अहंकार को लगी चोट से उठा है। शायद आप भी थोड़े-बहुत वेदज्ञाता होंगे। शायद गुरुकुल कांगड़ी से आपका भी कुछ नाता होगा। शायद चोट आपके ऊपर भी वही है जो गुरुकुल कांगड़ी के वेदज्ञाता को थी। लेकिन हटाकर पूछ रहे हैं, खुद बाहर रहकर पूछना चाहते हैं।
ईमानदारी सीखो! कहो कि चोट लगी है मुझे, यह बात मुझे जंची नहीं है, इसलिये पूछना है। तो प्रश्न में कुछ गर्मी होगी। प्रश्न को बिलकुल निस्तेज कर डाला। पूछते हो : "मा दर्शन ने गुरुकुल कांगड़ी के वेदज्ञाता को आपके भगवान होने के विषय में उत्तर दिया--भगवान तो आप भी हैं, लेकिन आपको स्मरण नहीं है। मेरी मंद बुद्धि के अनुसार...।' सच में तुम समझते हो कि तुम मंदबुद्धि हो? ईमान से मानते हो कि तुम मंदबुद्धि हो? ये आदतें छोड़ो। यहां हर कोई कहता है।
एक सज्जन आये और कहने लगे : मैं तो आपके पैर की धूल हूं। मैंने कहा : यह तो मुझे सदा से पता ही है। बस वे नाराज हो गये। मैंने कहा : आप खुद ही कहते हैं कि पैर की धूल हैं और मैंने स्वीकृति दी, तो आप नाराज क्यों होते हैं? वे यह थोड़े ही कह रहे थे कि मैं पैर की धूल हूं, वे तो यह बता रहे थे देखो मेरी विनम्रता; कि मैं अपने को आपके पैर की धूल बता रहा हूं। वे सुनना यह चाहते थे कि मैं उनसे कहूं कि नहीं-नहीं, आप और पैर की धूल! आप तो सिर पर रखे फूल हैं! तब वे खुश होते।
अब तुम कह रहे हो : "मेरी मंद बुद्धि के अनुसार...।' अगर बुद्धि मंद ही है तो चुप रहो। अगर बुद्धि मंद नहीं है तो ही इस तरह के प्रश्नों में पड़ना चाहिये। लेकिन इसको हम शिष्टाचार समझते हैं। यह सब पाखंड है, शिष्टाचार नहीं। कहते हो : "मेरी मंद बुद्धि के अनुसार यह उत्तर वही दे सकता है जिसे स्वयं स्मरण है और जिसे स्वयं स्मरण है वह स्वयं को भी तो भगवान कह सकता है।'
दर्शन को स्मरण आ रहा है, पूरा-पूरा नहीं आ गया--जैसे सुबह नींद भी टूट गई और जागे भी नहीं हैं। दूधवाला दूध तौल रहा है द्वार पर खड़े होकर, थोड़ी-थोड़ी भनक पड़ रही है। बच्चे स्कूल जाने की तैयारी कर रहे हैं, थोड़ी-थोड़ी भनक पड़ रही है। पत्नी चौके में नाश्ता बना रही है, थोड़ी-थोड़ी बर्तन की आवाज भी आ रही है। पड़ोसी भी उठ गये हैं, पक्षी भी बोल रहे हैं बगीचे में। लेकिन तुम करवट लेकर और चादर ओढ़कर पड़े हो। थोड़े जाग भी गये हो, थोड़े जागे भी नहीं हो, आधे-आधे।
दर्शन वहीं है, आधी-आधी। भनक तो पड़ गई है, एहसास तो होने लगा है। दिन अब करीब ही है, सूरज निकलने को ही है। उसने उत्तर ठीक ही दिया।
चलती ट्रेन के स्लीपर में ऊपर वाले मुसाफिर की नींद खुली तो झुककर नीचे वाले से बोला: भाई साहब, क्या बजा है? "बज के पांच'--जवाब मिला।
बज के पांच! थोड़ी देर बाद समझने की कोशिश कर चुकने के बाद उन्होंने फिर पूछा : भाई साहब, कित्ता बजा है? "बज के दस'--जवाब मिला।
"क्या बज के पांच, बज के दस लगा रखा है। साफ-साफ बताते नहीं कि टाइम क्या है?' डांटते हुए ऊपरवाले मुसाफिर ने कहा। नीचे वाले ने अपनी घड़ी दिखाते हुए सफाई दी: भाई साहब, जब छोटा कांटा है ही नहीं तो आप ही बताओ, मैं क्या बताऊं?
बज के पांच, बज के दस।...अभी दर्र्शन का एक कांटा रास्ते पर आया है, दूसरा भी आ जायेगा। अभी वह इतना ही कह सकती है : बज के पांच, बज के दस! मगर इतना तो कहेगी! अभी वह मेरे संबंध में कह सकती है कि वे भगवान हैं, अभी अपने संबंध में जरा संकोच करती है। अभी बज के दस, अभी बज के पांच...। मगर जब एक कांटा चल पड़ा तो दूसरा भी चलेगा। घड़ी पूरे काम में लगी है, अब एक ही कांटा बिठाने की बात है। अगली बार तक जब वेदज्ञाता आयेंगे, दर्शन कहेगी : मैं भगवान हूं! तुम सुन लेना या तुम्हीं पूछ लेना उससे अब। अब मैं उसको आज्ञा देता हूं कि तेरा दूसरा कांटा भी आज बिठा दिया, अब तू फिकिर छोड़ कि बज के दस, बज के पांच; अब तो सीधा-सीधा कह देना कि इतने बजकर इतने।
यह जान लेने पर भी कि स्वयं भगवान भीतर बैठा हुआ है, जरूरी नहीं कि सभी उसकी घोषणा करें। बुद्ध ने सिद्धों के दो भेद किये हैं। एक को वे कहते हैं अर्हत और दूसरे को कहते हैं बोधिसत्व। अर्हत तो वे हैं जो जान लेते हैं और चुप रह जाते हैं। बोधिसत्व वे हैं जो जानते हैं और मकानों की मुंडेर पर चढ़कर सारे जगत को जगाते हैं। अर्हत ऐसा समाधिस्थ व्यक्ति है, जिसने जान लिया और चुप हो गया, किसी से कहना नहीं है। उसका तर्क यह है कि कौन समझेगा, कौन पहचानेगा? यह बात इतनी कठिन है कि सौ से कहो तो एकाध समझ पायेगा। और जो एकाध समझेगा उससे अगर न भी कहा होता तो देर-अबेर वह समझ ही लेता। जिसमें इतनी बुद्धिमत्ता थी, वह कितने देर तक रुकता समझने से, समझ ही लेता।
बोधिसत्व घोषणा करता है कि मैंने पा लिया है और तुम भी पा सकते हो। यहां मेरे पास दोनों तरह के फूल लगेंगे--अर्हत भी लगेंगे और बोधिसत्व भी लगेंगे। जो बोधिसत्व होंगे वे घोषणा करेंगे। जो अर्हत होंगे वे चुप रहेंगे। जानकर भी चुप रहेंगे।
तुमने अल हिल्लाज़ मंसूर का नाम सुना है। अदभुत सूफी हुआ। उसे लोगों ने सूली लगा दी, क्योंकि उसने घोषणा कर दी कि मैं ईश्वर हूं। उसके गुरु जुन्नैद ने अल हिल्लाज़ को कहा कि तू यह घोषणा मत कर। क्या तू समझता है मुझे पता नहीं है? मुझे भी पता है लेकिन मैं चुप हूं। तू भी चुप रह।
और जब गुरु ने शिष्य को कहा कि तू भी चुप रह तो अल हिल्लाज़ ने कहा कि आप कहते हैं तो चुप ही रहूंगा। लेकिन परमात्मा कि मर्जी कुछ और थी। अल हिल्लाज़ अर्हत नहीं हो सकता था। वह उसका गुणधर्म नहीं था। वह तो बोधिसत्व ही हो सकता था, तो जब भी मस्ती छाती और जब भी वह ध्यान में गहरा उतरता, फिर चिल्ला देता: अनलहक! जुन्नैद ने कहा देख, तू मानता ही नहीं। अल हिल्लाज़ ने कहा : मैं तो मानता हूं, मगर अब परमात्मा नहीं माने तो मैं भी क्या करूं? मैं जब तक रहता हूं, जब तक होश मैं अपना सम्हालता हूं तब तक मैं चुप रहता हूं; लेकिन एक घड़ी आती है कि मैं खो जाता हूं और तब वही बोल देता है। फिर मैं क्या करूं? मेरा वश क्या?
जुन्नैद अर्हत है। अल हिल्लाज़ बोधिसत्व है। जुन्नैद भी वही जानता है लेकिन चुप रहा। बोधिसत्व चुप नहीं रह सकता। बोधिसत्व को बोलना होगा। अर्हत सदगुरु नहीं बनते; वे एकाकी यात्री होते हैं। अकेले अपनी मंजिल पर पहुंच जाते हैं और अकेले ही समाप्त हो जाते हैं, शून्य में लीन हो जाते हैं। बोधिसत्व सदगुरु होते हैं, वे घोषणा करते हैं। घोषणा करोगे तभी सदगुरु हो सकोगे। और बुद्ध ने कहा है : हो सके तो बोधिसत्व होना। न हो सके तो अर्हत होना ठीक है, क्योंकि बोधिसत्वों से औरों का भी जागरण होता है। जगाना। पुकारना। फिर चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े, चाहे प्राणों से ही कीमत क्यों न चुकानी पड़े। वही हुआ मंसूर के साथ : हत्या कर दी लोगों ने। वही हुआ जीसस के साथ : हत्या कर दी लोगों ने।
बोधिसत्वों की हत्या हो जायेगी, हो सकती है। अर्हतों का कोई नुकसान नहीं होगा। अर्हत बोलेंगे ही नहीं वे चुप रहेंगे। जान लिया, हीरा मिल गया, कबीर कहते हैं गांठ में गठिया लिया, फिर चुप रहे, बताना क्या है? खोल-खोलकर क्या बताना है?
इसलिये यह मत सोचना कि पता होकर अनिवार्यता है घोषणा करने की। पता भी हो तो भी अनिवार्यता की कोई बात नहीं। और ऐसा भी तो जरूरी नहीं है कि जो घोषणा करे उसे पता ही हो, क्योंकि ऐसे भी लोग हैं जो बिना पता हुए घोषणा कर रहे हैं। इस जगत में सभी तरह का वैविध्य है। लेकिन इन चिंताओं में न पड़ो तो अच्छा। कुछ अपनी जिज्ञासाएं उठाओ, कुछ महक तुममें पैदा हो सके, ऐसे प्रश्न पूछो। कुछ अपने प्रश्न पूछो, निज के प्रश्न पूछो। तुम्हारी समस्याएं हल हों ऐसी कुछ बात पूछो।
यह तो दर्शन को पूछना चाहिये। उसे पूछना है तो पूछ लेगी। लेकिन वह तो कभी पूछती नहीं। अनेक वर्षों से मेरे पास है और मेरे जो बहुत निकट हैं उनमें से एक है। लेकिन कभी उसने कोई प्रश्न पूछा नहीं। कभी-कभी मुझे ही उसे उत्तर देना पड़ता है, पूछती नहीं तो देना पड़ता है। उसने कभी मुझे पत्र नहीं लिखा, मैंने ही उसे पत्र लिखा फिर। पूछना उसकी आदत नहीं है। प्रश्न उठाना उसकी आदत नहीं है। चुपचाप पीती है। जो मिल रहा है वह काफी है।
 मगर तुम क्यों चिंता में पड़ गये? यह प्रश्न तुम्हें क्यों खलबली उठाया? दूसरों की फिकिर छोड़ो। और जब प्रश्न पूछो तो ईमानदारी से पूछो; फिर उसमें शिष्टाचार मत लाओ कि प्रश्न का कोई अस्तित्व नहीं...कि मैं विनम्रतापूर्वक पूछता हूं। यद्यपि प्रश्न है ही नहीं, फिर भी पूछता हूं। मैं मंदबुद्धि हूं, मंदबुद्धि के अनुसार पूछता हूं।
किसी नगर में एक कवि हैं, जो दो उपनामों से लिखते हैं--एक तो "ढेंचू' और दूसरा "राही'। एक कवि-सम्मेलन में संचालक ने कहा : अब ढेंचू जी अपनी रचना पढ?ेगे। "मैं आज "राही' उपनाम से पढ़ूंगा--' ढेंचू जी ने कहा--"गंभीर रचना है।' गंभीर रचना होती है तो वे राही के नाम से पढ़ते हैं, हंसी-मजाक की होती तो ढेंचू नाम से। तो उन्होंने कहा : "मैं आज राही उपनाम से पढ़ूंगा, गंभीर रचना है।' लेकिन जनता में से आवाज आई, क्या फर्क पड़ता है, आवाज तो वही निकलेगी! अब ढेंचू से तो ढेंचू ही ढेंचू निकलेगा, फिर कितनी ही गंभीर रचना हो। मुखौटे हम कोई भी लगा लें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।
और तुम्हारे मन में यह सवाल तो उठ गया कि दर्शन को अगर पता है तो उसे खुद ही घोषणा करनी थी कि मैं भगवान हूं। मगर तुम्हें यह सवाल न उठा कि तुम्हें पता है कि जिनको पता होता है वे घोषणा करते ही हैं? तुम्हें पता है कि जो चुप रह जाते हैं उन्हें पता होता ही नहीं? तुमने यह सोचा ही नहीं।
ऐसा हुआ, दो दार्शनिक एक नदी पर के पुल से गुजरते थे। एक दार्शनिक ने कहा : अहा, नदी कैसा किलकार कर रही है! पहाड़ी नदी, बड़ा शोरगुल, गीत गाती, नाचती, घूंघर बजाती जा रही थी। तो एक ने कहा कि देखो, कितने उल्लास में, कितने आनंद में नदी भागी जा रही है सागर की तरफ! दूसरे ने कहा : तुम नदी नहीं हो, तुम्हें कैसे पता चलेगा कि नदी को उल्लास है, आनंद है? बात तो बड़ी साफ पूछी : तुम नदी नहीं हो, तुम्हें कैसे पता चल रहा है कि नदी आनंदमग्न है? दूसरे दार्शनिक ने पता है, क्या कहा? उसने कहा : तुम मैं नहीं हो, तुम्हें कैसे पता चल रहा है कि मुझे पता नहीं है?
अगर दार्शनिक-विवादों में पड़ना हो तो बड़ी मुश्किल है। मालूम है पहले दार्शनिक ने क्या कहा? उसने कहा कि ठीक है, तुम नदी नहीं हो इतना मुझे साफ है और यह भी मुझे पता है कि मैं तुम नहीं हूं। लेकिन तुम्हें यह कैसे पता है कि मुझे पता नहीं हो सकता तुम्हारे संबंध में? तुम भी तो "मैं' नहीं हो।
अब इस विवाद का क्या अंत होगा? अब इसका कोई अंत नहीं हो सकता है। यह तो व्यर्थ की सिरफोड़ होगी। यह तो बाल की खाल निकालनी होगी?
गुरुकुल कांगड़ी के भूतपूर्व कुलपति सत्यव्रत आश्रम देखने आये थे, दर्शन उन्हें दिखाने ले गई थी। सत्यव्रत ने उपनिषदों पर बड़ी महत्वपूर्ण किताबें लिखी हैं, मगर किताबें ही होंगी। क्योंकि उपनिषदों की घोषणा यही है : अहं ब्रह्मास्मि! यह तो उनका मूल स्वर है। उनको बेचैनी एक ही रही होगी, परेशानी एक ही रही होगी, तो उन्होंने दर्शन को पूछा कि आप अपने गुरु को भगवान क्यों कहते हैं? तो दर्शन ने कहा: भगवान वे हैं...उतने ही जितने आप हैं। उन्हें पता है, उन्हें होश है; आप को होश नहीं है।
इसी संदर्भ में यह प्रश्न पूछा गया है। दर्शन ने बिलकुल ठीक ही कहा। इतना ही भेद है। बुद्धों में और गैर-बुद्धों में और जरा भी भेद नहीं है, बस इतना ही भेद है : एक को होश आ गया, एक को होश नहीं आया; एक सोया है; एक जाग गया। जो सोया है वह भी जाग सकता है। जो जाग गया है वह भी कल तक सोया था। दोनों में कोई बुनियादी भेद नहीं है; जो जागा है वह सोया था, जो सोया है वह जाग सकता है।
और दर्शन, जैसा मैंने कहा, अभी आधी-आधी है। थोड़ी-थोड़ी सोई है, थोड़ी-थोड़ी जाग रही है। लेकिन जब भी थोड़ा-थोड़ा जागरण होता है, थोड़ी-थोड़ी नींद होती है, तो जागरण की ही विजय होने वाली है, नींद की विजय नहीं हो सकती। क्योंकि नींद की सत्ता ही क्या है? सामर्थ्य ही क्या है? जागने की एक किरण भी काफी है; गहन से गहन निद्रा को तोड़ जायेगी। छोटा-सा दीया भी काफी है; पुराने से पुराने अंधकार को नष्ट कर देता है। उसने ठीक ही उत्तर दिया। उसे भी थोड़ी-थोड़ी एहसास की झलक मिलने लगी है।
यहां जो मेरे पास इकट्ठे हैं, उन्हें अगर झलक नहीं मिल रही है तो मेरे पास होने का कोई अर्थ ही नहीं है, कोई प्रयोजन ही नहीं है। मेरे पास रुक ही वे लोग सकते हैं, जिनकी जबान पर थोड़ा-थोड़ा स्वाद फैलने लगा, थोड़ा-थोड़ा है अभी, कल बहुत भी हो जायेगा। शुरुआत हो गई तो पूर्णाहुति भी हो जायेगी। मेरे पास किसी और कारण से तो कोई रुक ही नहीं सकता, क्योंकि मेरे पास रहने से कोई समाज में प्रतिष्ठा नहीं मिलती, सम्मान नहीं मिलता, कोई पद नहीं मिल जायेगा। मेरे पास रहने से कोई तुम्हें धन कमाने की सुविधा नहीं हो जायेगी। अड़चनें पड़ जायेंगी। समाज में होगी प्रतिष्ठा तो खो जायेगी। कुछ नाम होगा तो और बदनामी हो जायेगी। जहां होओगे वहीं बेचैनी हो जायेगी।
मेरे संन्यासी होकर और अगर समाज तुम्हें चैन से रहने दे तो चमत्कार होगा--ऐसा ही चमत्कार...एक मित्र मुझे मिले, बहुत दिन बाद मिले। मैंने उनसे पूछा कि कहो कैसे हो? उन्होंने कहा कि बड़ा चकित हूं। बड़ा चमत्कार ही समझो। मैंने कहा : क्या हुआ ऐसा? तो उन्होंने कहा : मेरे बड़े लड़के का नाम संजय, मझले लड़के का नाम सुरेश, छोटे लड़के का नाम कांति--फिर भी घर में शांति! इससे मैं चमत्कृत हूं।
मैंने कहा : यह कुछ नहीं। अगर और चमत्कार देखना है तो संन्यासी हो जाओ। फिर तुम्हारे घर में शांति रहे, तब तुम समझना कि कोई चमत्कार हुआ। पत्नी खिलाफ हो जाएगी, बच्चे खिलाफ हो जाएंगे, मां-बाप खिलाफ हो जाएंगे। फिर जहां जाओगे वहीं लोग उंगली उठाएंगे।
मेरे पास जो हैं उन्हें तो अनिवार्यरूपेण तपश्चर्या से गुजरना पड़ रहा है। दर्शन कोई सस्ते में तो मेरे पास नहीं है। घर-द्वार छोड़कर आई है। पति छोड़कर आई है। सब प्रतिष्ठा, सम्मान, धन छोड़कर आई है। इतना सब छोड़कर जब कोई आता है तो कुछ पाता होगा इसलिये आता है। तुम जरा विचार करना। मंदबुद्धि तो हो मगर फिर भी थोड़ा विचार करना। दर्शन ऐसे ही नहीं आ गई है; बहुत कुछ गंवा कर आई है। और आकर मस्त है, प्रसन्न है, आनंदित है! जरा उसके पास बैठना, उसका सत्संग करना। भाई महकवाला दिल्ली, दर्शन का थोड़ा सत्संग करो! मेरी बात तो शायद तुम्हें बहुत दूर की मालूम पड़े,  दर्शन की शायद इतनी दूर की मालूम न पड़े, क्योंकि वह आधी सोई आधी जागी है। कुछ-कुछ तुम्हारी भाषा में बोल सकेगी।
मगर सदा याद रखो, प्रश्न अपने ही संबंध में हों तो अच्छे। दूसरे के संबंध में प्रश्न पूछना बड़ा आसान होता है। लेकिन तुमने देखा, मैंने प्रश्न को तुम्हारे संबंध में ही बदल दिया! क्योंकि मैं यही उचित मानता हूं।
ढब्बू जी ने पूछा चंदूलाल को: चंदूलाल, लगता है तुम्हारा दांत तुम्हें काफी तकलीफ दे रहा है।
अगर मेरा दांत--ढब्बू जी ने कहा--ऐसे परेशान करता तो मैं उसे कब का उखाड़कर फेंक देता। चंदूलाल ने कहा : हां, अगर आपका दांत होता तो मैं भी वैसा ही करता।
दूसरे का दांत उखाड़ने में क्या दिक्कत है, अपना उखड़वाना मुश्किल हो जाता है! मुझसे जब प्रश्न पूछो तो अपने दांतों के संबंध में पूछना।

आखिरी प्रश्न :

इस मुर्दा देश को क्यों आपने अपने कार्यक्षेत्र की तरह चुना है?

सीलिए! मुर्दा है, सो जिलाना है। जो जी रहे हैं, उन्हें क्या जिलाना? बीमार की चिकित्सा करनी होती है, स्वस्थ की तो नहीं!
यह देश मुर्दा है, और सदियों से मुर्दा है। और इसको पुनः प्राण देने हैं। और यह देश मूल्यवान देश है। यह मुर्दा नहीं होना चाहिए। इसका मुर्दा होना महंगा सौदा है। यह देश जीवित होना ही चाहिए। पुनरुज्जीवित होना ही चाहिए, क्योंकि इस देश के पास एक बड़ी संपदा है। यह अगर पुनरुज्जीवित हो जाए, तो सारे जगत को रोशनी मिले।
मगर यह देश मुर्दा पड़ा है। यह अपनी संपदा के ऊपर लाश होकर लेटा है। न यह खुद लाभ ले रहा है उस संपदा का, न किसी और को लाभ दे रहा है उस संपदा का। इस मुर्दे में प्राण फूंकने हैं, इसे जगाना है। क्योंकि इतनी बड़ी संपदा किसी और देश के पास नहीं है। यही मेरी मुसीबत है।
यह देश मुर्दा है, मगर इसके पास बड़ी संपदा है! बुद्धों ने, सिद्धों ने सदियों-सदियों में जो खोजा है वह इस देश के पास है। अभी भी है! यद्यपि हम मुर्दा हैं, इसलिये कोई उपयोग नहीं कर पा रहे हैं; न अपने लिए कर पा रहे हैं न किसी और के लिए कर पा रहे हैं। अगर हम जीवंत हो जाएं, अगर यह संस्कृति नई हो उठे, अगर यह संस्कृति समसामयिक हो जाए, अगर हम बीसवीं सदी में जीने लगें--तो हम सारे जगत के लिए क्रांति के स्रोत हो सकते हैं।
मगर तुम ठीक कहते हो, देश तो बिलकुल मुर्दा है। देश तो इतना मुर्दा है कि जिसका कोई हिसाब नहीं!
कल मैंने अखबार में खबर पढ़ी कि दिल्ली में ओरियण्टल सर्कस का दिवाला निकला जा रहा है, क्योंकि मोरारजी देसाई ने पाबंदी लगा दी है कि बाहर साल से ऊपर की लड़कियां सर्कस में चुस्त कपड़े पहनकर काम नहीं कर सकतीं। बारह साल के ऊपर की लड़कियां! उनको कमीज़-सलवार पहनना चाहिए।
अब तुम जरा सोचा, रस्सी पर कमीज-सलवार पहनकर कोई लड़की चले...जाएगी काम से! या झूले पर पचास फीट ऊंचाई पर झूले, उल्टी लटके और सलवार कहीं उलझ जाए...। और सलवार न उलझे, ऐसा हो नहीं सकता। और कुर्ती और दुपट्टा भी शायद...फरिया। तो कोई महिलाएं जो काम करती हैं सर्कस में, वे राजी नहीं हैं ये कपड़े पहनकर काम करने को, उनकी जान को खतरा है। और मोरारजी राजी नहीं हैं, कि वे चुस्त कपड़े पहनकर काम कर सकें। सर्कस का दिवाला निकला जा रहा है।
अब मोरारजी जैसे लोगों के हाथ में जिस देश की सत्ता हो, वह मुर्दा न हो जाए तो और क्या होगा? इस देश को युवा करना है। बड़ी मेहनत का काम है। बड़ा मुश्किल काम है। क्योंकि मुर्दे जो लोग बहुत दिन तक रहे हैं उनका मुर्दा होने में रस पैदा हो गया है। उनका मुर्दा होने में न्यस्त स्वार्थ हो गया है।
इसलिये तुम पूछते हो, तुम्हारी बात भी मैं समझता हूं। तुम्हारी बात प्रेमपूर्ण है। तुम यह कह रहे हो कि क्यों मैं यहां नाहक मेहनत कर रहा हूं, कोई मुझे समझेगा नहीं। यह सच है। यह असंभव को करने का उपाय है। मेरी बात कोई समझेगा, मेरी बात कोई सुनेगा इस देश में--यह असंभव को करने की चेष्टा है। लेकिन इसलिये मुझे इसमें रस भी है, चुनौती भी है।
अरे, ओ निरगुन फागुन मास!
मेरे कारागृह के शून्य अजिर में मत कर वास
अरे, ओ निरगुन फागुन मास!
यहां राग-रस-रंग कहां है?
झांझन मंदिर-मृदंग कहां है?
अरे चतुर्दिक फैल रही यह
मौत भावना जहांत्तहां है
इस कुदेश में मत आ तू रसमय हंसता सोल्लास
अरे, ओ भोले फागुन मास!
कोल्हू में जीवन के कण-कण
तेलत्तेल हो जाते क्षण-क्षण
प्रति दिन चक्की के घम्मर में
पिस जाता गायन का निकवन
फाग सुहाग भरी होली का यहां कहां रस राग
अरे, ओ मुखरित फागुन मास!
राम-बांस की कठिन गांस में
मूंज-बान की प्रखर फांस में
अटकी हैं जीवन की घड़ियां
यहां परिश्रम-रुद्ध सांस में
यहां न फैला तू अपना लाल-गुलाल विलास
अरे, अरुणारे फागुन मास!
छायी जंजीरों की झनझन
डंडा बेड़ी की यह घनघन
गर्रे का अर्राटा फैला
यहां कहां पनघट की खन खन
कैसे तुझको यहां मिलेगा होली का आभास
अरे, हरि हारे फागुन मास!
अरे, ओ निरगुन फागुन मास!
मेरे कारागृह के शून्य अजिर में मत कर वास
तुम्हारा प्रीतिकर प्रश्न मैं समझा। तुम यह कह रहे हो कि यहां क्यों मैं श्रम कर रहा हूं? यहां लोग नाच न सकेंगे; उनके पैर जड़ हो गए हैं। यहां लोग गा न सकेंगे; उनके कंठ खो गये हैं। यहां लोग प्रेम से अभिभूत न हो सकेंगे; उन्होंने प्रेम की शत्रुता बहुत-बहुत सदियों से की है। यहां मदिरता को फैलाना कठिन है। मगर इसीलिए! इन पत्थरों में फूल खिलाने हैं। इस मरुस्थल को फिर बगिया बनाना है।
अरे, ओ निरगुन फागुन मास!
मेरे कारागृह के शून्य अजिर में मत कर वास
यहां राग-रस-रंग कहां है?
झांझन मंदिर मृदंग कहां है?
अरे चतुर्दिक फैल रही यह
मौत भावना जहांत्तहां है
इस कुदेश में मत आ तू रसमय हंसता सोल्लास
अरे, ओ भोले फागुन मास!
लेकिन फिर फागुन मास और कहां जाए? फिर और कहीं जाने की तो जरूरत नहीं है। जहां मृदंग बज ही रही है, जहां झांझन बज ही रही है और जहां गीत गाए ही जा रहे हैं, वहां फागुन मास के जाने की जरूरत क्या है? मृदंग नहीं है तो मृदंग बनाएंगे। राग-रस-रंग खो गया है, जन्मायेंगे। झांझन बजेगी। यह जो मौत की भावना ने पकड़ लिया है इस देश को, इससे छुटकारा करायेंगे।
मैंने तुम्हें गैरिक रंग दिया है संन्यास का--गैरिक वसंत का रंग है। इस देश को वसंत से भर देना है। यह बुद्धों की, सिद्धों की भूमि मुर्दों के हाथ में पड़ी न रह जाए। इसे वापिस छीन लेना है मुर्दों से। इसे पंडित-पुरोहितों से वापिस छीन लेना है। इसे फिर जीते-जागते, गीत गाते, नाचते लोगों के हाथों में दे देना है। यह हो सकता है। कठिन तो बहुत है; मगर कठिन है इसलिए करने योग्य भी है।
ज़माने के अंदाज बदल गए
नए राग हैं साज़ बदल गए
उजाला है मसरिफ के इवान में
सहर हो गई शामो-लबनान में
नई सुबह है और नया आफताब
मुबारिक ज़माने की यह इन्कलाब
हम्हीं सुबहे-नौ हैं हमीं आफताब
हमीं हैं बगावत हमीं इन्कलाब
अंधेरी शबों के सितारे हैं हम
जो बुझते नहीं वह शरारे हैं हम
दिये बनो! ऐसे अंगार बनो--
जो बुझते नहीं वह शरारे हैं हम
अंधेरी शबों के सितारे हैं हम
थोड़े से ही दीये पैदा हो जाएं, तो रोशनी हो जाये। कोई सारे देश को ही जाग्रत होने की जरूरत नहीं है; थोड़े लोग जाग जायें, तो हवा में बातास आ जाए, माधुर्य आ जाये। थोड़े से लोग जागकर आनंद से जीने लगें, तो दूसरों को भी संक्रामक हो जाएगी बीमारी।
और यह करना ही है। और कोई भी कीमत चुकानी पड़े, यह करना ही है। क्योंकि इस देश के पास इतनी अपार संपदा है! उसे मरे हुए, मुर्दों के भूत-प्रतों से और मुर्दे जो सांप होकर बैठ गए हैं संपदा के ऊपर फन मारकर, उनसे उसका छुटकारा दिलवाना है।
इस देश के पास सूत्र हैं जो सारे जगत को सौरभ से भर दें। इस देश के पास अपरिसीम विज्ञान है--अंतर का विज्ञान।
पश्चिम ने बाहर के विज्ञान को पैदा कर लिया, आधा काम पश्चिम ने पूरा कर दिया है। हमने भीतर का विज्ञान पूरा कर लिया है; आधा काम हम बहुत पहले पूरा कर चुके हैं। अगर ये दोनों काम मिल जायें, तो पहली दफा पूरा मनुष्य पैदा हो और मनुष्य की अखंड समग्र संस्कृति पैदा हो।
मैं जो प्रयास यहां कर रहा हूं, वह यही है--पूरब-पश्चिम को आलिंगनबद्ध कर देने का; पूरब-पश्चिम को एक-दूसरे में डुबा देने का। पश्चिम से आये विज्ञान, पूरब का जागे धर्म, दोनों का हो मिलन--तो पहली दफा पृथ्वी स्वर्ग बन सकती है। एक अपूर्व अवसर है। अगर हमने श्रम किया, तो जैसा कभी नहीं हुआ था, वैसा आज हो सकता है। बुद्ध लाख कोशिश करते तो भी बाहर का जगत तो दरिद्र था और दरिद्र ही रहता। भीतर का जगत शांत हो सकता था, समृद्ध हो सकता था, मगर बाहर का जगत तो दरिद्र ही रहता। वह आधी संपदा होती। पश्चिम आज लाख कोशिश करे...अच्छे मकान बना लिए, अच्छी कारें हैं, अच्छे रास्ते हैं, अच्छी दवाइयां हैं, सब है, लेकिन आदमी की आत्मा खो गई है। पश्चिम की सारी कोशिश व्यर्थ हो जायेगी। मिलन की एक अपूर्व घड़ी है।
मगर पूरब का धर्म मुर्दों और अंधों के हाथ में पड़ गया है। पश्चिम का विज्ञान जिंदा लोगों के हाथ में है लेकिन उन जिंदा लोगों को अपनी आत्मा का कुछ पता नहीं है। इसलिए कहीं चूक न हो जाये! कहीं ऐसा न हो कि घड़ी आ गई, रोटी भी बन सकती थी--आटा तैयार था, पानी तैयार था, नमक तैयार था, घी तैयार था, चूल्हा भी जला था; मगर रसोइये को यही समझ में न आया कि हम आटे को गूंथे कैसे? बस इतनी कमी है--आटा गूंथने की कमी है। सब तैयार है। इतना तैयार कभी भी नहीं था।
अतीत में दुनिया तो बाहर गरीब थी और गरीब ही रहती। आज बाहर तो दुनिया अमीर होती जा रही है, मगर भीतर गरीब है। अगर हम पुनरुज्जीवित कर सके, बुद्ध, सरहपा, तिलोपा के विज्ञान को और पश्चिम के विज्ञान को--आइंस्टीन, न्यूटन, एडिंग्टन, इन्होंने जो दान दिया है उसको। अगर ये दोनों मिल जायें--अगर आइंस्टीन और बुद्ध का मिलन हो जाए--तो मनुष्य के जगत में सबसे पहली बार...पहली बार मनुष्य के पूरे इतिहास में, एक ऐसी दुनिया होगी जो बाहर-भीतर दोनों तरफ फूलों से भर जाये...।
मैं पश्चिम जा सकता हूं। मुझे सुविधा होगी। मुझे निमंत्रण है पश्चिम के देशों से। मुझे सुविधा होगी। मुझे व्यर्थ की झंझटों में न पड़ना पड़ेगा। मोरारजी देसाई जैसे लोगों से व्यर्थ की बातचीत में न उलझना पड़ेगा। काम सुगम होगा। मेरे लिए तो काम सुगम होगा, लेकिन भारत की संपदा खो जाएगी। यहां मुझे कोई दूसरा नहीं दिखाई पड़ता, जो उसे पुनरुज्जीवित कर ले। असंभव होगा उसे पुनरुज्जीवित करना। और पश्चिम में उसे पुनरुज्जीवित करना बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि पश्चिम के पास वैसी आधारशिला नहीं है।
इसलिए मैं चाहता हूं यह पूरब को पुनरुज्जीवित करने की घटना यहां घटे। यहां आसानी से घट सकती है। और पश्चिम से लोग यहां आसानी से आ सकते हैं। तुम यहां से आसानी से पश्चिम न जा सकोगे। वह भी अड़चन है। मैं तो हट जाऊं यहां से पश्चिम। मुझे सब तरह की सुविधा होगी। काम आसान हो जाएगा, सुगम हो जाएगा। लेकिन तुम जानते हो, तुम तो यहां भी नहीं आ सकते हो जब मैं यहां हूं, तुम पश्चिम कैसे आ सकोगे?
और पश्चिम में तो बड़ी खोज है। और सुविधा भी है। पश्चिम से जिसको आना है वह कहीं भी आ जाएगा। यहां भी चला आ रहा है। हजार बाधाओं के बावजूद चला आ रहा है।
कल ही दिल्ली से डेढ़ सौ संन्यासियों के नाम नोटिस मिला है कि तत्क्षण भारत छोड़ दें। रोज यह उपद्रव चलता है। जो संन्यासी भारत के बाहर भारत के राज-दूतावासों में आज्ञा लेने जाते हैं, जानते ही कि वे मेरे संन्यासी हैं, उनके लिए आज्ञा निषिद्ध हो जाती है। उन्होंने कहा कि उन्हें पूना जाना है कि बस फिर उन्हें भारत आने कि आज्ञा नहीं मिल सकती। फिर भी वे आ जाते हैं। वे हजार उपाय कर लेते हैं। नहीं आते भारत, पहले नेपाल जाते हैं, फिर नेपाल से प्रवेश करते हैं; कि पाकिस्तान जाते हैं, फिर पाकिस्तान से प्रवेश करते हैं; कि लंका जाते हैं, फिर लंका से प्रवेश करते हैं। वे तो हजार उपाय कर लेंगे।
न मालूम कितनी पाश्चात्य संन्यासिनियों ने यहां आकर झूठी शादी की है। कोई मतलब नहीं है शादी से उन्हें। पति से कुछ लेना-देना भी नहीं है। मगर वे हिम्मतवर लोग हैं। उन्हें रहना है यहां मेरे पास, तो उन्होंने किसी भारतीय से शादी कर ली। तुम यह न कर सकोगे। कोई भारतीय स्त्री सिर्फ इसीलिए शादी न कर सकेगी पश्चिम आकर कि उसे मेरे पास रहना है। यह उसकी कल्पना के बाहर होगा। यह उसे असंभव मालूम होगा। हमने साहस ही खो दिया है। हमने अभियान खो दिया है।
इसलिए मैं यहां रुका हूं--रुकूंगा! यहां की संपदा को मुर्दों के हाथ से छीनना ही है। और रही पश्चिम की बात, तो पश्चिम से जिनको आना है वे यहां आ जायेंगे; कोई अड़चन नहीं है। यह मिलन घट सकता है। एक ऐसा तीर्थ बन सकता है जहां पूरब और पश्चिम एक हो जायें; जहां विज्ञान और धर्म एक हो जायें। मैं बाहर की संपदा का विरोधी नहीं हूं। मैं भीतर की संपदा का उतना ही पक्षपाती हूं जितना बाहर की संपदा का पक्षपाती हूं।
अब तक तुमने ऐसे लोग जाने हैं जो बाहर की संपदा के पक्षपाती हैं, तो भीतर की संपदा के विराधी हैं--जैसे चार्वाक, जैसे एपीकुरस, जैसे माक्र्स। तुमने ऐसे लोग भी जाने हैं जो भीतर की संपदा के पक्षपाती हैं, तो बाहर की संपदा के विरोधी हैं--जैसे महावीर, जैसे बुद्ध। तुमने मेरे जैसा आदमी अब तक जाना नहीं है; तुम्हारा कोई कसूर नहीं है अगर तुम मुझे न समझ पाओ। दुनिया ने ही मेरा जैसा आदमी नहीं जाना--जिसमें चार्वाक और बुद्ध का मिलन हो; जिसमें एपीकुरस और याज्ञवल्क का मिलन हो; जो नास्तिक से ज्यादा गहरा नास्तिक हो, जो आस्तिक से ज्यादा गहरा आस्तिक हो; जिसका अध्यात्मवाद भौतिकवाद का विरोधी न हो; जिसका भौतिकवाद अध्यात्मवाद का विरोधी न हो।
मेरे लिए बाहर और भीतर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मैं बाहर की संपदा का विरोधी नहीं हूं, मैं भीतर की संपदा का परिपूर्ण पक्षपाती हूं। मैं चाहता हूं तुम सब भांति संपन्न होओ--बाहर भी और भीतर भी। बाहर-भीतर का भेद ही व्यर्थ है। जैसे श्वास बाहर आती है, भीतर आती है, वही श्वास बाहर है वही भीतर है। वही परमात्मा बाहर है वही परमात्मा भीतर है।
तुम जरा मेरी कल्पना के मनुष्य को समझो। मेरी कल्पना का मनुष्य बाहर भी सुख, वैभव, आनंद में जीयेगा। और भीतर भी। तो मेरा विरोध तो होने वाला है। मेरा विरोध अध्यात्मवादी करेंगे क्योंकि वे कहेंगे कि मैं भौतिकवादी हूं। और मेरा विरोध भौतिकवादी करेंगे क्योंकि वे कहेंगे मैं अध्यात्मवादी हूं। मेरा विरोध दोनों तरफ से होना है। लेकिन जो जानते हैं, जो थोड़े समझदार हैं, वे दोनों तरफ से मेरा समर्थन भी करेंगे। हालांकि समझदार सदा कम होते हैं--सौ में एक इसलिए निन्यानबे आदमी मेरे दुश्मन होंगे और एक आदमी मेरा मित्र होगा।
मगर चिंता की कोई बात नहीं है। नादान दोस्तों से तो दाना दुश्मन बेहतर होता है। वे निन्यानबे किसी काम के भी नहीं हैं। उनकी दोस्ती का कोई मूल्य भी नहीं। मैं तो थोड़े से दाना दोस्तों की तलाश कर रहा हूं। थोड़े समझदार संन्यासी मुझे चाहिए। और यह काम होगा। यह ज्योति जलेगी! ये इशारे ऊपर से ही आ गए हैं कि ज्योति जलेगी।
दुख को बदलो। दुख को सुख की सेवा में लगाओ। दुख को सुख का निखार बनाओ। दुख से भागो मत। जो भागता है, बुद्धिहीन है। जो भागता है। और ध्यान रखना, दुख न हो तो जाग ही न सकोगे।

आज इतना ही।



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