धरती बरसे अंबर भीजे—(प्रवचन—चौदहवां)
दिनांक
4 दिसंबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार
:
1—मैं
वर्षों तक एक
विरागी
संन्यासी रहा
हूं, लेकिन
आपने मुझे
प्रभु-राग में
डुबो दिया है।
अब आगे क्या
आदेश है?
2—हजारों
वर्ष धरती
तपश्चर्या
करके गर्भ
धारण करती है
तो कहीं एक
बुद्ध का
अवतरण होता
है। और इस देश
में अनंत
बुद्ध हो गये।
फिर भी जब आप
जैसे
बुद्धपुरुष
वर्तमान हैं, तो भी इस देश
के लोगों को, तथाकथित
धर्मगुरुओं
को तथा शासन
में पहुंचे हुए
लोगों को आपकी
बात समझ में
क्यों नहीं
आती?
3—आप
प्रभु की परम
अनुभूति के
लिये कभी-कभी
शराब जैसा
प्रतीक क्यों
प्रयोग करते
हैं? क्या
कोई अच्छा
प्रतीक नहीं मिल
सकता है?
4—मैं
अत्यंत दुखी
हूं। मेरी
पत्नी की जब
से मृत्यु हुई
है, मेरे
दुख का अंत
नहीं है। आपके
पास सांत्वना
पाने आया हूं।
5—जिसे
तू देख ले एक
बार मस्ती भरी
नजर से
तो
रजनीश! वो
उम्र भर हाथों
में अपने जाम
न ले।
आपके
शब्दों में
इतनी मादकता
क्यों हैं?
पहला
प्रश्न:
मैं
वर्षों तक एक
विरागी
संन्यासी रहा
हूं, लेकिन
आपने मुझे
प्रभु राग में
डुबो दिया है।
अब आगे क्या
आदेश है?
विराग
एक बीमारी है।
राग जीवन है, विराग
मृत्यु है।
संसार से राग
हो तो राग की बुराई
नहीं है, बुराई
संसार की है।
गलत से आंखों
को जोड़ दो तो
आंखों की क्या
भूल? हाथ
में हीरे भी
ले सकते हो, हाथ में
पत्थर भी; हाथ
का क्या कसूर?
चूंकि
अधिक लोगों ने
अपने राग को
संसार से जोड़
रखा है, इसलिए
उनके विरोध
में एक
प्रक्रिया
शुरू हुई, कि
राग तोड़ो। राग
की कोई भूल
नहीं है, भूल
है तो उस
कूड़ा-करकट की
है जिससे
तुमने राग को
जोड़ लिया। यही
राग परमात्मा
की सीढ़ी बन
सकता है, बनना
चाहिए। और
जिसने राग ही
छोड़ दिया, उसका
तो परमात्मा
से जुड़ने का
उपाय ही
समाप्त हो
गया। राग
जोड़ता है, विराग
तोड़ता है।
राग
की महिमा
समझो। राग
अर्थात प्रेम
का रंग। राग
शब्द का अर्थ
रंग ही है। और राग
शब्द का अर्थ
संगीत भी है।
प्रेम का रंग, प्रेम का
संगीत। गलत से
प्रेम जोड़ा जा
सकता है लेकिन
इससे प्रेम
गलत नहीं
होता। प्रेम
तो सत्य से भी
जोड़ा जा सकता
है, सम्यक
से भी जोड़ा जा
सकता है--और तब
प्रेम ही द्वार
बन जाता है।
कोई
प्याली में
जहर रखकर पी
रहा है, प्याली
का क्या कसूर?
इसी प्याली
में अमृत भरा
जा सकता है।
प्याली मत तोड़
देना, क्योंकि
प्याली तोड़ दी
तो फिर अमृत
कहां भरोगे?
इसलिए
मैं तुम्हें
राग ही सिखता
हूं--परम राग सिखाता
हूं, प्रभु-राग
सिखाता हूं।
मेरा
संन्यासी
परमात्मा के
प्रेम में
डूबा हुआ
दीवाना है। और
एक बड़े मजे की
घटना घटती है
कि जिसका
परमात्मा से
राग हो जाता
है उसका संसार
से राग टूट जाता
है। टूट ही
जाता है!
सार्थक से जो
जुड़ गया उसका
व्यर्थ से
संबंध न रह
जाएगा। जिसे
सार्थक दिखाई
पड़ने लगा उससे
व्यर्थ
अपने-आप छूट
जाएगा। छोड़ना
भी नहीं पड़ता,
छूट जाता है।
और तभी मजा है,
जब छूट जाए;
छोड़ना पड़े
तो मजा नहीं।
छोड़ना पड़े तो
समझना कि
कच्चे थे अभी।
कच्चे फल को
तोड़ना पड़ता है
वृक्ष से। पका
फल अपने से
गिर जाता है।
पके फल के गिरने
में एक
सौंदर्य है, एक प्रसाद
है। वृक्ष को
पता भी नहीं
चलता कब गिर
गया, कोई
घाव भी नहीं छूटता
पीछे। कच्चे
फल को तोड़ते
हो तो घाव
पीछे छूटता
है। किसी चीज
को कच्चा मत
तोड़ देना, पकने
दो--और गिरने
दो अपने से।
मेरे
जीवन-चिंतना
का यह आधारभूत
सूत्र है: सत्य
की तरफ आंखें
उठाओ, असत्य
से आंखें
अपने-आप हट
जाएंगी। रोशनी
से प्रेम लगाओ,
अंधेरे से
प्रेम अपने-आप
विदा हो
जाएगा। लेकिन
सदियों तक
इससे उल्टी ही
बात की गई है।
सदियों तक
तुमसे कहा गया
है। गलत को
छोड़ो, तब
सही मिलेगा।
मैं तुमसे
कहता हूं: सही
को पा लो, गलत
छूट जाएगा।
सदियों तक
तुमसे कहा गया
है: अंधेरे को
हटाओ, तब
रोशनी जलेगी।
यह न तो
विज्ञान है न
गणित है।
अंधेरे को कोई
हटा सकता है? और जो
अंधेरे को
हटाने में
लगेगा, पागल
हो जाएगा। मैं
तुमसे कहता
हूं: रोशनी
जलाओ, अंधेरा
अपने से हट
जाता है।
अंधेरे की
चिंता छोड़ो।
अंधेरे की
चिंता सिर्फ
अंधे करते
हैं। आंखवाले
रोशनी जलाते
हैं। रोशनी
जलाकर फिर कहां
अंधेरा? फिर
कैसा अंधेरा?
अंधेरा तो
सिर्फ अभाव है
प्रकाश का।
जिसको
तुम संसार का
राग समझे हो
वह केवल परमात्मा
के राग की
अनुपस्थिति
है। तुम्हें
हीरे नहीं
मिले तो तुमने
कंकड़-पत्थरों
पर मुट्ठी कस ली
है। बच्चे को
देखते हो, मां का स्तन
नहीं मिलता, अपना अंगूठा
ही चूसने लगता
है। ऐसे ही
संसार को तुम
अंगूठा समझो,
जिसे तुम
चूस रहे हो।
उससे कुछ
मिलने वाला
नहीं है।
लेकिन बच्चे
को एक
सांत्वना
मिलती है; मान
लेता है कि
यही मां का
स्तन है।
चूसते-चूसते
सो जाता है।
कम-से-कम नींद
तो आ ही जाती
है।
बस
संसार की सारी
सांत्वना
तुम्हें
थोड़ी-सी निद्रा
दे सकेगी।
थोड़ी-सी शांति
मिल जाती
है--बड़ा मकान
बना लिया, बहुत धन
इकट्ठा कर
लिया, बच्चे
हैं परिवार
है। थोड़ी-सी
शांति मिलती
मालूम पड़ती है;
चादर तानकर
थोड़ी देर सो
लेते हो, बस।
संसार
में तुम्हें
जो भी मिलेगा, अंगूठे
चूसने से
ज्यादा नहीं
है। और अगर
अंगूठा चूसने
में ही लगे
रहे तो
सिकुड़ते
जाओगे, भीतर-भीतर
मरते जाओगे
क्योंकि पोषण
न मिलेगा।
पोषण तो
परमात्मा से
मिलता है, वही
पोषण है।
उपनिषद
कहते हैं:
अन्न ब्रह्म
है! मैं तुमसे
कहता हूं:
ब्रह्म अन्न
है। परमात्मा
पोषण है। उसे
पियो।
तुम
कहते हो: "मैं
वर्षों तक एक विरागी
संन्यासी रहा
हूं।' विरागी
रहे होओगे, संन्यासी
नहीं।
क्योंकि
विराग का
संन्यास से
कैसे संबंध
जुड़ेगा? जैसे
अंधेरे का और
प्र्रकाश का
कोई संबंध नहीं
जुड़ता वैसे ही
विराग और
संन्यास का
कोई संबंध
नहीं जुड़ता।
संन्यास तो
उत्सव है, विराग
कहां? संन्यास
तो परम राग है,
परम आनंद की
अनुभूति है।
वहां कहां
उदासी, कहां
उदासीनता? संन्यास
में त्याग है
ही नहीं।
और
खयाल रखना, मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
त्याग नहीं
होता। लेकिन
संसार छोड़ना
नहीं पड़ता।
वास्तविक
संन्यासी को
तो केवल
संन्यस्त
होना पड़ता है,
ध्यानस्थ
होना पड़ता है,
समाधिस्थ
होना पड़ता है,
कूड़ा-करकट
छूटता चला
जाता है, बीमारियां
अपने से गिर
जाती हैं।
सूखे पत्ते अपने
से झड़ जाते
हैं, कब झड़
जाते हैं, कानोंकान
खबर नहीं
होती।
विराग
और संन्यास का
संबंध अब तक
रहा है। वह संबंध
बड़ा घातक
सिद्ध हुआ। उस
संबंध ने
संन्यास को
मार ही डाला।
उसी संबंध को
विच्छिन्न
करना चाहता
हूं। उस गांठ
को तोड़ देना
चाहता हूं। उस
समझौते को मिटा
देना है।
विराग छाती पर
चढ़ बैठा है
संन्यास की, उससे
संन्यासी
उदास हो गया।
इसलिए
तुम्हें संसारी
तो कभी हंसता
मिल जाए, संन्यासी
हंसता नहीं
मिलता। होना
तो उल्टा था
कि संसारी न
हंस सकता, उदास
मिलता, उदासीन
होता और
संन्यासी
हंसता।
संन्यासी के
पास तो
खिलखिलाहट
होनी थी--वही
जो पहाड़ से गिरते
झरनों में
होती है; वही
जो हवाएं
गुजरती हैं
वृक्षों के
भीतर से तो
वृक्षों के
पत्तों में
होती है।
संन्यास में
तो एक नाद
होना था।
लेकिन संन्यास
उदास है।
विराग से गलत
संबंध जुड़
गया। त्याग से
गलत संबंध जुड़
गया। त्याग के
क्षयरोग ने
संन्यास की
छाती जला
डाली।
संन्यासी
को संसार नहीं
छोड़ना
है--परमात्मा
पाना है।
संन्यासी को
सत्य पाना है, असत्य नहीं
छोड़ना है।
संन्यासी को
ध्यान पाना
है--सार पाना
है, असार
नहीं छोड़ना
है। संन्यासी
को तो और बड़े
प्रेम को
जन्माना है।
संसारी
और संन्यासी
में यही फर्क
है। संसारी का
प्रेम छोटा है, क्षुद्र है।
और छोटा प्रेम,
क्षुद्र
प्रेम
तुम्हें
छुद्र कर देता
है। तुम्हारा
प्रेम ही तो
तुम्हें
निर्मित करता
है। प्रेम
सृजनात्मक
है। क्षुद्र
से प्रेम
करोगे, क्षुद्र
हो जाओगे। जो
रुपये-पैसे से
प्रेम करता है
उसकी शकल पर
तुम देखना वही
घिसे-पिसे रुपये
जैसी छाया
दिखाई पड़ने
लगती है। वही,
जैसा नोट कई
हाथों से
गुजरकर गंदा
होता जाता है,
वैसे ही
कृपण की आंखों
में गंदगी हो
जाती है! स्वाभाविक
है। जिससे
प्रेम करोगे
वैसे ही हो
जाओगे। जो
वस्तुओं को
प्रेम करता है
वह आत्मवान
नहीं रह जाता
है; वह
धीरे-धीरे
वस्तुओं जैसा
ही हो जाता है;
जितना बड़ा
प्रेम उतने
बड़े तुम।
आंखें
उठाओ। आकाश से
प्रेम करो।
आकाश तुम्हारे
भीतर उतर
आएगा। विराट
को तलाशो!
लेकिन
दो ही तरह के लोग
हैं इस दुनिया
में। कुछ हैं
जो क्षुद्र को
पकड़े हुए हैं।
और कुछ हैं जो
क्षुद्र को
छोड़ने में लगे
हुए हैं। मगर
दोनों की
आंखें क्षुद्र
पर अटकी हुई
हैं। दोनों
क्षुद्र हो गए
हैं। तुम्हारा
संसारी
क्षुद्र है, तुम्हारे
तथाकथित
संन्यासी
क्षुद्र हैं।
और संसारी को तो
माफ किया जा
सकता है
संन्यासी को
माफ नहीं किया
जा सकता।
लेकिन
कैसे यह
दुर्घटना घटी? संन्यास का
विराग से
संबंध कैसे हो
गया? संबंध
इसलिए हो गया
कि हम
प्रतिक्रिया
से जीते हैं।
हम एक अति से
दूसरी अति पर
चले जाते हैं।
हमने
संन्यासी की
जो प्रतिमा
बनाई है, वह
संसारी के
विपरीत बनाई
है; बस
वहीं भूल हो
गई। जो-जो
संसारी करता
है उससे विपरीत
संन्यासी को
होना चाहिए; वहीं चूक हो
गई।
संन्यासी
संसार का
विरोधी नहीं
है। संन्यासी
परमात्मा का
प्रेमी है। और
तब तत्क्षण
रूपांतरण हो
जाएगा। तब
तुम्हारी
दृष्टि और हो
जाएगी।
परमात्मा का
प्रेमी! और यह
संसार भी
परमात्मा का
है। इसलिए
संन्यासी इस
संसार को भी
प्रेम करेगा, लेकिन
परमात्मा के
अंग की भांति।
और तब पूरा गणित
और हो जाता
है। तब वह
पदार्थ को भी
प्रेम करेगा,
लेकिन
परमात्मा के
प्रतीक की
भांति। वह
अपनी पत्नी को
भी प्रेम
करेगा, लेकिन
उसके भीतर
परमात्मा की
उपस्थिति
अनुभव करेगा।
अपने बेटे को
भी प्रेम
करेगा, लेकिन
बेटे में भी
आया तो वही
है। अब उसके
सारे प्रेम
में परमात्मा
की ही झलक
फैलने लगेगी। अब
अगर संगीत
सुनेगा तो उसे
उसीका अनाहत
नाद सुनाई
देगा। अगर
सूरज को उगते
देखेगा तो उसे
परमात्मा का
ही आविर्भाव
दिखाई पड़ेगा।
रात आकाश
तारों से भर
जाएगा तो वह
परमात्मा की
महिमा का
गुणगान
करेगा।
वृक्षों पर
फूल खिलेंगे
तो वह चमत्कृत
होगा। मिट्टी
से ऐसे फूल
निकल आते हैं,
परमात्मा
के हाथों के
सिवाय यह कला
किसी और की
नहीं है! उसे
हर जगह
परमात्मा के
हस्ताक्षर
दिखाई
पड़ेंगे।
पश्चिम
के एक बहुत
बड़े संत, जैकब
बोहमे ने कहा
है कि जिस दिन
मैंने जाना, उस दिन
मैंने उसके
हस्ताक्षर
पत्ते-पत्ते
पर पाए, कण-कण
पर पाए। यह
सारा जगत उसकी
ही लिखी हुई
पातियां हैं
तुम्हारे
लिए। उसी का
संदेश आता है हवाओं
में। उसी का
संदेश आता
बादलों की
गर्जनों में।
उसी का संदेश
आता है बिजलियों की तड़फन
में। उसी का
संदेश आता
फूलों में।
उसी का संदेश
आता मोर के
नृत्य में और
उसी का संदेश
आता कोयल की
कुहू-कुहू
में।
जो
परमात्मा को
प्रेम करेगा, उस विराट
प्रेम में
संसार का
प्रेम अपने-आप
सम्मिलित हो
जाता है। मगर
गुणात्मक भेद
हो जाता है।
संसार से
प्रेम नहीं
होता, अब
तो परमात्मा
से ही प्रेम
होता है।
सृष्टि से
प्रेम नहीं
होता अब तो
स्रष्टा से ही
प्रेम होता
है। और तब
जो-जो व्यर्थ
है, जो-जो
असार है, वह
अपने-आप गिरता
जाता है। जैसे
तुम रोज अपने घर
से कूड़ा-करकट
निकालकर बाहर
फेंक देते हो,
चिल्लाते
थोड़े ही फिरते
हो कि आज
मैंने फिर सारे
कूड़ा-करकट का
त्याग कर दिया,
कि देखो...!
छाती थोड़े ही
पीटते फिरते
हो कि मेरी शोभायात्रा
निकालो, कि
मैंने
कूड़ा-करकट
त्याग कर दिया
है! लोग तुम्हें
पागल समझेंगे
ऐसा तुम करोगे
तो। कूड़ा-करकट
फेंकने के लिए
ही है। इसमें
त्याग कहां है?
सच्चा
संन्यासी कुछ
छोड़ता नहीं, यद्यपि बहुत
कुछ उससे छूट
जाता है। और
सच्चा संन्यास
संसार-विरोधी
नहीं होता; परमात्मा के
स्वीकार से
जन्मता है।
तुम
कहते हो: "मैं
वर्षों तक एक
विरागी
संन्यासी रहा
हूं।' विरागी
रहे--संन्यासी
नहीं। विराग
और संन्यास का
मेल नहीं
बैठता। जैसे
पानी और तेल
को न मिला
सकोगे, ऐसे
ही विराग और
संन्यास को
नहीं मिलाया
जा सकता है।
सदियों से
चेष्टा की गई
है, लेकिन
मिलन हो नहीं
पाया। हो नहीं
सकता। उनका स्वभाव
भिन्न है।
कहां
संन्यासी की
मस्ती और कहां
विरागी की
उदासी, कैसे
मेल बिठाओगे?
कहते
हो: "लेकिन
आपने मुझे
प्रभु-राग में
डुबा दिया। अब
आगे क्या आदेश
है?' अब आगे
किसी आदेश की
कोई जरूरत
नहीं, बस
प्रभु-राग में
डूबते जाओ।
नाव में बैठ
गए हो। अब
पतवार भी
चलाने की
जरूरत नहीं है,
पाल खोल दो।
उसकी हवायें
तुम्हें ले चलेंगी।
रामकृष्ण ने
यही कहा है कि
या तो पतवार चलाओ
या पाल खोल
दो। रामकृष्ण
ने कहा: अगर
मुझसे पूछते
हो तो मैं
कहता हूं, पतवार
चलाने की झंझट
में क्यों
पड़ते हो, पाल
ही खोल दो! तुम
मग्न होकर
बैठो, उसकी
हवाएं
तुम्हें ले
चलेंगी।
योगी
पतवार चलाता
है, भक्त पाल
खोलता है।
योगी श्रम
करता है; सहजऱ्योगी
विश्राम में
नदी के साथ
अपने को छोड़
देता है। और
इधर तो हम
सरहपा और
तिलोपा की बात
कर रहे हैं; वे दोनों
सहजऱ्योगी
हैं।
सहजऱ्योग
बौद्ध परंपरा
में भक्ति-भाव
का ही संस्करण
है। "भक्ति' शब्द का
उपयोग बौद्ध
परंपरा में
नहीं हो सकता,
क्योंकि
उसमें भगवान
को ही मानने
की कोई धारणा
नहीं है तो
भक्ति कैसी? चूंकि भक्ति
का कोई उपाय
नहीं है लेकिन
भक्ति की
महिमा को
इनकारा भी
नहीं जा सकता,
इसलिए
सहजऱ्योग का
जन्म हुआ।
सहजऱ्योग वही
है बुद्ध भाषा
में, जो
अन्य भाषाओं
में
भक्तिऱ्योग
है। जरा भी भेद
नहीं है।
हंसा
उड़े अकास में, पै नहिं
छूटयौ शब्द
द्वंद्व
मन
अरुझायौ ही
रह्यौ
मानसरोवर-फंद।
हम
बिराग आकाश
में बहुत उड़े
दिन-रैन;
पै
मन पिय-पग राग
में लिपिट
रह्यौ बेचैन।
हम
सेन्द्रिय, बनिबे चले, निपट
निरिन्द्रिय
रूप,
इत, मन बोल्यौ:
बावरे पिय को
रूप अनूप।
व्यर्थ
भये, असफल भये
जोग-साधनाऱ्यत्न,
कौन
समेटे धूरि, जब मन में
पिय-सो रत्न?
कहं
धूनी की राख
यह? कहं
पिय-चरण-पराग?
कहां
बापुरी विरति
यह? कहां
स्नेह, रस
राग?
प्रिय, हम तैं या
देह सौं सधैगौ
न वैराग,
फीके-फीके-से
लगत सबै
जोग-जप-जाग।
सदा
राउरी अर्चना, संतत राउर
ध्यान,
राउर
ढिग रहिबौ
ललकि, यही
हमारी बान।
बस
तुम्हारे पास
रहे आएं...सदा
राउरी अर्चना!
तुम्हारे पास
रहने में ही
प्रार्थना है, पूजा है, अर्चना
है। सदा राउरी
अर्चना, संतत
राउर ध्यान!
यही ध्यान है
कि तुम दिखाई
पड़ते रहो, कि
तुम्हारी
प्रतीति होती
रहे, कि आंखें
तुम्हारे रूप
से भरी रहें।
राउर ढिग रहिबौ
ललकि...बस सदा
तुम्हारे पास
रहें, ऐसी
ललक है। यही
हमारी बान!
व्यर्थ
भये, असफल भये
जोग-साधनाऱ्यत्न,
कौन
समेटे धूरि, जब मन में
पिय-सो रत्न?
सब
धूल है, कूड़ा-करकट
है। जिसको तुम
विराग कहते हो,
यत्न कहते
हो, प्रयास
कहते हो--सब
धूल है।
प्यारा भीतर
बैठा है। उसके
प्रेम में
पड़ो।
थकित
गात, संश्लथ
चरण, हिय, मन, प्राण
उदास,
अब
न नैंक नीकौ
लगै, यह
प्रवास-आयास।
अब
तौ यों कछु
लगत है, बैठि
रहिय वा ठौर,
जहं
लखि पिय कौ
नेह-घन, नाचि
उठै मन मोर।
रिम-झिम
बरसै नेह-घन, नाचै मत्त
मयूर,
ऐसी
रहनी रहहु मन, रहहु न पिय
तैं दूर।
छांड़हु
देस-विदेस कौ
यह पर्यटन
असार,
बैठहु
पिय के चरण
गहि, करहु
सुलोचन चार।
विचरहु
पिय की डगरिया, बसहु पिया
के गांव,
पिय
की डयोढ़ी बैठि
कैं, रटहु
पिया को नांव!
अब
डूबो! अच्छा
हुआ कि आ गए
मेरी भंवर
में। अब डूबो!
अब
तौ यों कछु
लगत है, बैठि
रहिय वा ठौर।
जहं
लखि पिय कौ, नेह-घन, नाचि
उठै मन मोर।
अब
नाचो! अब गाओ!
अब आनंदमग्न
हो उठो!
विचरहु
पिय की डगरिया, बसहु पिया
के गांव,
पिय
की डयोढ़ी बैठि
कैं, रटहु
पिया कौ नांव!
अब
असली संन्यास
शुरू हुआ।
प्रभु से
प्रेम का नाता
जुड़ा कि संन्यास
हुआ।
"संन्यास' शब्द का
अर्थ समझते हो?
संन्यास
शब्द बनता है:
सम्यक
न्यास...ठीक-ठीक
त्याग। जाहिर
है कि कुछ
त्याग होता है,
जो ठीक नहीं
होता। जाहिर
है कि कुछ
त्याग होता है,
जो गलत होता
है। कौन-सा
त्याग गलत और
कौन-सा त्याग
ठीक? वह
त्याग गलत जो
तुम्हें करना पड़े;
वह त्याग
ठीक, जो हो
जाए। वह त्याग
गलत, जिसमें
चेष्टा हो, प्रयास हो, जबरदस्ती हो,
अपने पर
हिंसा हो। वह
त्याग सम्यक,
सही--जो
चुपचाप हो जाए,
बोध से हो
जाए, समझ
से हो जाए! वह
त्याग गलत, जिसमें दुख
हो; वह
त्याग सही, जो महासुख
के अवतरण से
होने लगे।
तुम
रोज इस
प्रक्रिया से
गुजरते हो।
अच्छे वस्त्र
खरीद लाए, फिर पुराने
वस्त्रों का
क्या करते हो?
त्याग कर
देते हो। नया
फर्नीचर ले आए,
फिर पुराने
को बाहर निकाल
देते हो। यह
तुम रोज कर
रहे हो। अगर
तुम जीवन की
सामान्य
व्यवस्था को
ही समझ लो तो
तुम्हारे हाथ
में बड़े से
बड़े सत्यों का
छोर आ जाए।
श्रेष्ठ को ले
आओ, निकृष्ट
निकाल ही दिया
जाता है, अपने-आप!
फिर न पीड़ा
होती है, न
परेशानी होती
है। श्रेष्ठ
को निमंत्रण
दो, उसके
निमंत्रण से
जो त्याग होता
है, वह
सम्यक! यही
संन्यास का
अर्थ है।
तुम
पूछते हो: "आगे
क्या आदेश है?' अब प्रेम की
पातियां
लिखो। अब
प्रेम-पत्र
भेजो परमात्मा
को। अब प्रेम
के गीत गाओ।
यही
नहीं कि हाथ
कंपते हैं, हिय भी
कंपता आज,
पूरन
कैसे होगा
पतिया-लेखन का
यह काज?
बड़े
जतन से, हिम्मत
करके, लिखने
बैठा पत्र
पर
ना जानूं कैसे
यह हो गया
आर्द्र
सर्वत्र!
हिय
धड़के, युग
हस्त कंपें, चिट्ठी का
ओर न छोर,
थोड़े
में समझना
बहुत तुम, हे प्राणों
की डोर!
मेरे
हिय की मंजूषा
में नहीं रतन
अनमोल,
और
नहीं है वहां
तरलता की कोई
कल्लोल!
फिर
भी हूं कर रहा
समर्पित श्री
चरणों में आज,
इसमें
क्या है? तुम
मत पूछो, तुम्हें
लगेगी लाज!
टूटी
सन्दूकची बनी
यह, इसमें
वंशी एक
कभी-कभी
वह रो उठती है
करुण-राग की
रेख!
भेजो
आंसू! भेजो
प्रेम! भेजो
आनंद! जितना
बांट सको अपने
को, बांटो।
और जितना तुम
बांटोगे, उतना
परमात्मा
करीब आने
लगेगा। जितने
तुम नाचोगे
उतना करीब आने
लगेगा। जो
मार्ग नाचकर
तय हो सके, उसे
क्यों उदास
होकर तय करना?
और उसके
मंदिर पर बिना
नाचते हुए
जाओगे, शोभा
होगी? उसके
मंदिर पर
नाचते ही जाना
है। सच तो यह
है, जो
नाचते जाएगा
वही उसके
मंदिर को पा
सकेगा। उदास
गए तो कहीं और
पहुंचोगे, उसके
मंदिर पर न
पहुंचोगे--किसी
मरघट में पहुंचोगे,
किसी कब्र
पर पहुंचोगे।
उस पर जीवन के
मंदिर पर कैसे
पहुंच सकोगे?
फूलों
से कुछ सीखो!
पक्षियों से
कुछ सीखो! वृक्षों
से कुछ सीखो!
चांदत्तारों
से कुछ सीखो! इस
सारे
अस्तित्व में
चल रहा जो
प्रतिपल आनंद
का उत्सव है, इससे कुछ
सीखो! और इस
उत्सव में
तल्लीन होओ, लवलीन
होओ--यही आदेश
है।
दूसरा
प्रश्न:
हजारों
वर्ष धरती
तपश्चर्या
करके गर्भ
धारण करती है
तो कहीं एक
बुद्ध का
अवतरण होता
है। और इस देश
में अनंत
बुद्ध हो गये।
अंतरज्ञान की
अपार संपदा इस
देश ने खोजी।
फिर भी जब आप
जैसे बुद्धपुरुष
वर्तमान हैं, तो भी इस देश
के लोगों को, तथाकथित
धर्म-गुरुओं
को, तथा
शासन में
पहुंचे हुए
लोगों को आपकी
बात समझ में
क्यों नहीं
आती? भारत
पर आपकी कितनी
करुणा है, यह
आपके ही
श्रीमुख से
सुनकर मुझे
लगता है कि करुणा
को भी करुणा आ
गई होगी।
लेकिन
भारतवासियों
का हृदय क्यों
नहीं पिघलता,
कृपा करके
समझायें?
ऐसा
नहीं है कि
धर्मगुरुओं
को मेरी बात
समझ में नहीं
आती। समझ में
आती है, मगर
उनके स्वार्थ
के विपरीत है।
समझ में न आती
होती तो वे
मेरा विरोध ही
न करते। समझ
में तो आती है,
मगर वे
चाहते नहीं कि
समझ में आये।
बहुत
बार ऐसा हो
जाता है, बात
तुम्हारी समझ
में आती है, लेकिन
तुम्हारे
न्यस्त
स्वार्थ के
विपरीत पड़ती
है। अगर बात
समझो तो
तुम्हें
बहुत-सा
स्वार्थ
तुम्हारे छोड़ना
पड़े। उसकी
छोड़ने की
तुम्हारी
तैयारी नहीं
है। और कोई
सोये को तो
जगा सकता है
लेकिन जो जागा
ही पड़ा है और
सोने का अभिनय
कर रहा है उसे
जगाना बहुत
मुश्किल हो
जाता है। यह कैसे
होगा कि उनको
मेरी बात समझ
में न आए? क्योंकि
मैं वही तो कह
रहा हूं जो
वेदों ने कहा,
उपनिषदों
ने कहा। वही
तो कह रहा हूं,
जो कुरान ने
कहा, बाइबिल
ने कहा। यह
कैसे हो सकता
है कि उनकी समझ
में न आए?
बात
तो उन्हें समझ
में आ रही है; यही खतरा
हुआ जा रहा
है। यहीं झंझट
हो रही है।
समझ में न आती
तो वे मेरी
उपेक्षा कर
देते। उनको
चिंता ही न
होती।...होगा
कोई पागल!
क्या
बनता-बिगड़ता
था उनका? बात
समझ में आ रही
है, और यह
भी समझ में आ
रहा है कि अगर
बात को समझा, स्वीकार
किया, तो
फिर हम अपने
न्यस्त
स्वार्थों को
पकड़े न बैठे
रह सकेंगे।
लोग अपने
स्वार्थ को
अपनी समझ से
ऊपर बिठाये
हुए हैं, यही
अड़चन है।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी कई
दिनों से बीमार
चल रही थी।
डाक्टर इलाज
कर-कर के थक गए
थे। सबसे बड़े
डाक्टर को
बुलाया। उसने
कहा कि मैं
दुखी हूं
नसरुद्दीन, कुछ किया
नहीं जा सकता।
बीमारी संघातक
है। पत्नी
तुम्हारी अब
दिन-दो-दिन बच
जाए तो बहुत।
मैं अत्यंत
दुखी हूं। कुछ
किया नहीं जा
सकता।
नसरुद्दीन
ने उसकी पीठ
ठोंकी और कहा
कि नहीं, छी-छी,
आप दुखी न
हों। अरे जब
तीस साल सह
लिया तो दो दिन
और सह लेंगे।
भीतर
बैठे स्वार्थ
हैं।
स्वार्थों
में जब कोई
बात पड़ती है
जाकर, तो
उसके अर्थ
भिन्न हो जाते
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपनी पांचवीं
मंजिल पर खड़ा
था। वहां से
पान की
पिचकारी चला
दी, थूक
दिया। नीचे
किसी भले आदमी
के सिर पर
उसकी पीक पड़ी।
उस भले आदमी
ने ऊपर देखा
और चिल्लाया
कि मुल्ला, आप नीचे
देखकर नहीं
थूकते?
मुल्ला
बोला: आप ऊपर
देखकर क्यों
नहीं चलते? उस आदमी ने
कहा: अगर ऊपर
देखकर चलता, तो सिर के
बजाय मुंह में
गिरती।
अपनी-अपनी
फिक्र पड़ी है।
अपने-अपने को
बचाने की
चेष्ठा चल रही
है। सिद्धांत
इत्यादि तो आड़
हैं। शास्त्र
इत्यादि तो
बहाने हैं।
मनुष्य कहता
कुछ है, उसके
प्रयोजन कुछ
और होते हैं।
और आदमी अपने
अर्थ की बात निकाल
लेने में बड़ा
कुशल है। और
जो अपने स्वार्थ
के विपरीत
पड़ती हो, उसे
छोड़ देने में
भी बड़ा कुशल
है।
वीर-रस
के एक कवि ने
अपने मित्र
से--जो नई
कविता के कवि
थे--कहा: जानते
हो, जब मैं
मंच पर
काव्य-पाठ
करता हूं, तो
श्रोताओं के
रौंगटे खड़े हो
जाते हैं! यह
तो कुछ भी
नहीं--नई
कविता वाले
कवि बोले--जब
मैं कविता-पाठ
करता हूं, तो
श्रोता स्वयं
खड़े हो जाते
हैं।
अपना-अपना
मतलब होगा।
स्वार्थ, निहित
स्वार्थ अड़चन
डाल रहे हैं।
मैं जो कह रहा
हूं ऐसा नहीं
है कि समझ में
नहीं पड़ रहा
है। समझ में
पड़ रहा है। और
वे ही लोग
विरोध में हैं,
जिनके
स्वार्थ के
विपरीत बात पड़
रही है। पंडित-पुरोहित,
मौलवी होगा
ही विरोध में।
उसका
मंदिर-मस्जिद,
उसका पूजा
के नाम पर
चलता
क्रियाकांड, हवन, यज्ञऱ्याज्ञ,
अगर मैं सही
हूं तो सब गलत
है। वही उसकी
रोटी है। वही
उसकी रोजी है।
वही उसका जीवन
है। उसके पैर
के नीचे से
जमीन खिंच
जाएगी। उसे
बचाना ही होगा
अपनी जमीन को।
और
ऐसा वह मेरे
साथ ही नहीं
कर रहा है, यही उसने
सदा सभी
बुद्धों के
साथ किया है।
तुम सोचते हो
जीसस को सूली
देने वाले कोई
दुष्ट लोग थे,
कोई बुरे
लोग थे? नहीं,
पंडित-पुरोहित,
तथाकथित
ज्ञानी...! तुम
सोचते हो
जिन्होंने सुकरात
को जहर पिलाया,
वे कोई
अपराधी लोग थे?
नहीं; समाज
के
प्रतिष्ठित
राजनेता...।
क्या कठिनाई थी
सुकरात से
उनको? यही
कठिनाई थी कि
सुकरात सत्य
बोलता था। और
यह सबसे बड़ी
कठिनाई है इस
जगत में, क्योंकि
जिनका धंधा ही
असत्य बोलने
पर चलता हो, वे सत्य
बोलने वाले
आदमी को
बरदाश्त नहीं
कर सकते। सत्य
उनके लिए जहर
जैसा मालूम
होगा।
मेरे
एक संन्यासी
स्वामी कृष्ण
प्रेम कुछ दिन
पहले मोरारजी
देसाई को
मिलकर आये।
मोरारजी देसाई
ने उनसे कहा
कि "तुम्हारे
गुरु से कुछ वर्षों
पहले मेरा
मिलना हुआ था, लेकिन
उन्होंने कुछ
कठोर शब्द
मुझसे कहे।' मैं सोचने
लगा कि कौन-से
कठोर शब्द
मैंने उनसे
कहे! तब मुझे
याद आया कि
मैंने उनसे
कहा था कि जब
तक
महत्वाकांक्षा
है, तब तक
जीवन में दुख
होगा। और जब
तक
महत्वाकांक्षा
है, तब तक
ध्यान संभव
नहीं होगा।
उन्होंने
पूछा था:
ध्यान करना
चाहता हूं।
मैंने कहा:
राजनीति और
ध्यान साथ-साथ
न चल सकेंगे।
ये
कठोर शब्द हो
गए! ये कठोर
शब्द उन्हें
अभी भी कांटे
की तरह चुभ
रहे हैं। सत्य
कठोर मालूम होता
है, अगर तुम
असत्य से बहुत
ज्यादा जुड़े
हो। उनको बातें
प्यारी लगती
हैं...मुक्तानंद
ने उनको जाकर
कहा कि
"धन्यभाग है
भारत का! यह
देश, धर्म-भूमि,
साधुओं की
भूमि...और आप
जैसा
साधु-पुरुष इस
देश का
प्रधानमंत्री!'
ये मधुर
शब्द हैं। ये
मैं नहीं कह
सकता हूं।
मैंने
उनसे कहा था:
जब तक राजनीति
है मन में तब तक
ध्यान न हो
सकेगा।
अगर
मुझे थोड़ी भी
राजनीतिक समझ
होती, तो
मैं यह बात
नहीं कहता।
उनसे कहता कि
आप तो ध्यानी
हैं ही, आपको
ध्यान की क्या
जरूरत है? तब
वह प्रसन्न हो
गए होते, उनकी
छाती फूल गई
होती, वे
मेरे विरोध
में न होते।
लेकिन मैंने
वही कह दिया
जो सही था।
यह
मैं सोच ही
नहीं सकता कि
महत्वाकांक्षी
चित्त और
ध्यान कर सकता
है। यह असंभव
है। महत्वाकांक्षी
चित्त कैसे
ध्यान कर सकता
है? महत्वकांक्षा
होती है
भविष्य से
जुड़ी और ध्यान
होता है
वर्तमान से
जुड़ा।
महत्वाकांक्षा
का अर्थ है: कल
पा कर रहूंगा।
और ध्यान का
अर्थ होता है:
पाने को कुछ
है ही नहीं।
जो पाने योग्य
है, मिला
है और जो
पानेऱ्योग्य
नहीं है, वह
नहीं मिला है।
महत्वाकांक्षी
परितुष्ट हो
ही नहीं सकता
और ध्यानी को
परितुष्ट
होना ही
पड़ेगा।
परितोष की ही
पृष्ठभूमि
में ध्यान का फूल
खिलता है।
संतुष्ट जो है,
वही ध्यान
कर सकता है।
संतोष ही
ध्यान की भूमिका
है।
अब
मैंने उनसे
सत्य-सत्य कह
दिया। कृष्ण
प्रेम को
उन्होंने कहा
कि आपके गुरु
ने मुझसे बड़े
कठोर शब्द
बोले। वर्षों
बीत
गए...कम-से-कम इस
बात को हुए दस
साल हो गए, मगर वे कठोर
शब्द अभी भी
उनको गड़ रहे
हैं। मैं तो
बहुत सोचकर
याद कर पाया
कि कौन-से
शब्द थे जो
कठोर हो सकते
हैं। क्योंकि
ज्यादा देर
बात हुई भी
नहीं थी और
ध्यान के
संबंध में ही
बात हुई थी।
यही बात उनको
चोट कर गई
होगी।
राजनीतिज्ञ
यह बात नहीं
सुन सकता कि
महत्वाकांक्षा
गलत है, क्योंकि
वही तो उसकी
आत्मा है। यह
तो वह मान ही
नहीं सकता कि
वह साधु नहीं
है; क्योंकि
साधु है, इसी
प्रचार पर तो
वह जीता है।
साधु है, यही
लोगों को
भरोसा
दिला-दिलाकर
तो वह लोगों का
अगुआ बना रहता
है।
और
मैंने उनसे
कहा था कि
राजनैतिक
व्यक्ति साधु
नहीं हो सकता।
राजनीति
असाधुता की जड़
है। बात कठोर
हो गई। बात
चोट करनेवाली
हो गई। नहीं कि
उनकी समझ में नहीं
आई, समझ में
तो ऐसी आई कि
दस साल हो गए
अभी भी भूले नहीं।
समझ में तो
खूब बैठ गई।
समझ में तो
ऐसी आई है कि
मरते समय शायद
यही याद
रहेगा। समझ
में कैसे न
आएगा? जिंदगी-भर
कचरा-कूड़ा
बीनने में गई।
और जो मैंने
बात कही है, वह उनकी
जिंदगी-भर का
सार तो प्रगट
कर रही है।
आखिरी समय में
जहां तक
संभावना इसी
बात की है कि
मुझे ही याद
करते वे विदा
होंगे। वह कठोर
जो बात है...।
मगर चूंकि
मैंने उनके
अहंकार को कोई
पोषण नहीं
दिया...।
और
राजनीति में
जो लोग हैं, पदों पर जो
लोग हैं, वे
आदी हो जाते
हैं, प्रशंसा
के। वे इतने
आदी हो जाते
हैं कि कोई भी
सत्य बात
सुनना उनके
लिए असंभव हो
जाती है। वे
उन लोगों से
घिरे हैं, जो
उनकी प्रशंसा
में हर तरह के
झूठ गढ़ते हैं।
तो लाभ हुआ
मुक्तानंद
को। मेरे
संन्यासी जब भारतीय
राजदूतावासों
में जाते हैं
दुनिया के अलग-अलग
देशों में, आज्ञा
मांगते हैं कि
पूना जाना है,
तो
राजदूतावास
उनसे कहते हैं
कि पूना जाने
की कोई जरूरत
नहीं, तुम
मुक्तानंद के
आश्रम जाओ।
मोरारजी
देसाई प्रसन्न
हुए, मुक्तानंद
ने कहा आप
साधु हैं!
मुक्तानंद को
लाभ हो रहा है
कि मोरारजी
देसाई के
राजदूतावास लोगों
को उनके आश्रम
में भेज रहे
हैं, सुझाव
दे रहे हैं।
यह पारस्परिक
लेन-देन हो
गया। लाभ ही
लाभ है दोनों
का। सत्य
बोलना हो तो
हानि झेलने को
तैयार होना ही
होगा।
क्योंकि सत्य
जिन-जिनके
विपरीत पड़ेगा,
जो-जो नाराज
हो जाएंगे, वे बदला
लेंगे। और
बदला लोग सीधा
नहीं लेते। उतनी
निष्ठा और
उतनी
ईमानदारी भी
कहां है? बदला
भी परोक्ष
लेते हैं। इस
ढंग से लेते
हैं, जिसका
हिसाब नहीं।
अब
आज दो वर्षों
से मैं चेष्ठा
कर रहा हूं एक
विस्तीर्ण...संन्यासियों
का नगर बन
सके। कच्छ के
महाराजा ने
चार सौ एकड़
जमीन दी है
दान। वह पड़ी
है। न तो हां
भरते हैं, न ना करते
हैं। चालबाजी
देखो! अगर वे
ना करें तो
मैं सुप्रीम
कोर्ट जा सकता
हूं। क्योंकि
ना करना
गैर-कानूनी
होगा। कोई हक नहीं
है उन्हें
इनकार करने
का। चूंकि मैं
सुप्रीम
कोर्ट न जा
सकूं, इसलिए
ना भी नहीं
करते। और "हां'
तो करनी
नहीं है। ये
चालबाजियां
हैं।
यहां
महाराष्ट्र
में साढ़े सात
सौ एकड़ जमीन
खरीदी आश्रम
ने। न तो हां
भरते, न ना
करते।
क्योंकि
भलीभांति
जानते हैं कि
ना करना
गैर-कानूनी
है। और कानून
के मामले में
फिर जीत न
सकेंगे अदालत
में। तो इसलिए
ना ही मत करो।
अब जब तक वे ना
न करें, तब
तक अदालत में
नहीं जाया जा
सकता। अदालत
पूछती है कि
अगर वे ना कर
दें, तो
ठीक है। हां
भी नहीं भरते।
टालते रहते
हैं--और आठ दिन,
और आठ दिन, और महीना भर
और दो
महीना...ऐसा-वैसा...टालते
रहो।
सीधा
संघर्ष करने
की भी हिम्मत
झूठे लोगों में
नहीं होती।
झूठ हमेशा
पीछे से वार
करता है, पीठ
में छुरा
भोंकता है।
सामने आने की,
आंख चार
करने की भी
हिम्मत नहीं
होती।
और
क्या-क्या
बहाने लोग
खोजते हैं!
कृष्ण
प्रेम को
मोरारजी
देसाई ने कहा
कि तुम जो
इतने लोग उनसे
प्रभावित हो
गए हो, उसका
कुल कारण इतना
है कि
उन्होंने
तुम्हें सम्मोहित
कर लिया है।
जो उनके पास
जाता है वह सम्मोहित
हो जाता है।
उनके पास जाना
ही नहीं
चाहिए।
तो
राजनेता मेरे
पास आते भी
नहीं। मेरे
विरोध में
बोलते हैं; मेरे पास
नहीं आते, क्योंकि
भय कि कहीं
आंख-से-आंख
मिली और कहीं
सम्मोहित हो
गए! तो यहां आ
भी नहीं सकते।
क्या-क्या
तरकीबें लोग
खोज लेते हैं!
ये
जो हजारों लोग
यहां आ रहे
हैं, ये सब
सम्मोहित हो
गए हैं? जो
यहां मेरे
पक्ष में है
वह सम्मोहित
है; और जो
मेरे विपक्ष
में हैं, वे
ठीक हैं। तब
तो निर्णय
कैसे होगा? तब मैं जो कह
रहा हूं वह
ठीक है या गलत
है, इसका
निर्णय कैसे
होगा? क्योंकि
जो भी मेरे
पक्ष में
गवाही देगा, वह सम्मोहित
है। उसकी बात
का तो कोई
मूल्य ही नहीं
रह गया। और जो
मेरे विरोध
में बोलेगा वह
बुद्धिमान है!
और जो मेरे
विरोध में
बोलता है, वह
यहां कभी आया
नहीं। ऐसी-ऐसी
बातें लोग
कहते हैं कि
बड़ी हैरानी
होती है। न
कभी यहां आते,
न कभी यहां
आकर देखते कि
क्या हो रहा
है। डर पकड़ा
हुआ है, भय
पकड़ा हुआ है
कि कहीं
सम्मोहित न हो
जायें! तो
सम्मोहन का एक
धुआं खड़ा कर
लिया। अब
सुरक्षा हो
गई। आने की
जरूरत भी न
रही और जो
कहना है कहे जाओ।
और पद पर हो, इसलिए जो
तुम कहते हो
वह अखबार भी
छापे चले जायेंगे।
नहीं, ऐसा मत समझो
कि उनकी समझ
में बात नहीं
आ रही। इतनी
बात तो उनकी
समझ में आ रही
है कि कुछ हो
रहा है यहां।
कोई अंगार
यहां पैदा हो
रही है। कोई
आग यहां जल
रही है। उससे
वे भयभीत हो
गए हैं। इस आग
को बुझाने की
सब तरह से
चेष्ठा चल रही
है। मगर यह
गैरिक आग
बुझनेवाली
नहीं है। यह
वह आग ही नहीं
जो बुझ जाए।
इसे जितनी
बुझाने की
कोशिश की
जायेगी, उतनी
यह भड़केगी, उतनी यह
बढ़ेगी। उनके
विरोध के कारण
बहुत-से लोग आ
जाते हैं।
इसलिए
मैं चिंता
नहीं करता कि
मेरे खिलाफ
अखबारों में
क्या चलता है।
चले, खिलाफ भी
चले, तो भी
ठीक है। कुछ
चले...। खिलाफ
पढ़कर ही लोग
कुछ आ जाते
हैं। जो कि शायद
न खिलाफ पढ़ा
होता तो कभी न
आते। और एक
मजे की बात है,
कि जब बहुत
कुछ खिलाफ में
पढ़कर आते हैं,
तो वे
अपेक्षायें
करके आते हैं
कि इतना-इतना
खिलाफ सब
देखने
मिलेगा। जब
उन्हें यहां
देखने को कुछ
भी नहीं मिलता,
वे जो खिलाफ
सुनकर आये थे,
तो एक
रूपांतरण
होता है; एक
धक्का लगता है
कि हम किस तरह
की व्यर्थ की
बातों को
मानते रहे!
नहीं, उससे कुछ
हानि नहीं है।
समझ में उनके
आ रहा है, समझना
वे नहीं चाहते
हैं। समझना
उनके स्वार्थ
के विपरीत है।
और अपनी भूल
तो कभी कोई
स्वीकार करता
नहीं। जो अपनी
भूल स्वीकार
कर ले, उसके
जीवन में तो
धार्मिक
क्रांति घट
जाती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी अपनी
सहेली से कह रही
थी: उन जैसा
लापरवाह भी
जमाने में
शायद ही कोई
दूसरा हो! अब
यही देखो कि
वर्षों मैं
इसी चिंता में
घुलती रही कि
आखिर ये
रोजाना
सारी-सारी शाम
कहां बिताते
हैं? वह तो मैं
अकस्मात उस
दिन शाम को
क्लब से जल्दी
घर लौट आई, तभी
पता चला कि
हजरत घर में
ही बैठे रहते
थे।
अपनी
भूल दिखाई ही
नहीं पड़ती। और
अपनी भूल जिसे
नहीं देखनी है, उसे दूसरों
की भूल देखते
रहने में लगा
रहना होता है।
दूसरों की भूल
में उसे इतनी
उत्सुकता लेनी
चाहिए, ताकि
अपनी भूल
देखने का समय
ही न बचे। उसे
इतने जल्दी
दूसरों के विरोध
में लग जाना
चाहिए कि उसे
कभी याद भी न
आए कि मेरे
भीतर भी कुछ
पड़ा है, जिसका
विरोध करना है,
जिसे तोड़ना
है, जिसे
गिराना है, जिसे समाप्त
करना है, कि
मेरे भीतर भी
बहुत अंधेरा
है, जहां
रोशनी जलानी
है।
पंडित
हैं, पुजारी
हैं, उनकी
तकलीफ है कि
उनका व्यवसाय,
उनकी
रोजी-रोटी
धर्म है।
राजनेता हैं,
उनकी
तकलीफ--कि
अहंकार उनके
जीवन की
आधारशिला है।
और जब भी कोई
बुद्धपुरुष
होगा, तो
दोनों पर चोट
पड़ेगी। सारे
बुद्धों ने
अहंकार पर चोट
की है।
क्योंकि बिना
अहंकार के
टूटे, तुम्हारे
भीतर
परमात्मा का
आविर्भाव
नहीं होगा।
इसलिए जो-जो
अहंकारी हैं,
वे नाराज
होंगे। और
सारे बुद्धों
ने धर्म के नाम
पर चलते
क्रियाकांडों
का विरोध किया
है। क्योंकि
धर्म का असली
रूप
क्रियाकांड
का नहीं है, भाव का है।
ऊपरी आयोजन से
कुछ अर्थ नहीं
है। ये ऊपरी
आयोजनों के
नाम पर अर्थ
तो बिलकुल
नहीं होता, अर्थी निकल
गई है धर्म
की। भीतरी भाव
की दशा पर जोर
होता है। जो
भी जागा है वह
जोर देगा आंतरिक
पर।
पंडित-पुजारी
नाराज होंगे।
धर्मगुरु
और राजनेता, सदा से
बुद्धों के
विपरीत रहे
हैं और सदा
विपरीत
रहेंगे।
इसमें कुछ आज
ही ऐसा हो रहा
है, ऐसा मत
सोचना। यह
शाश्वत नियम
है। लेकिन कोई
सारा देश
राजनेताओं और
धर्मगुरुओं
से नहीं बना
है। देश का
अधिकांश जन न
तो राजनीति
में उत्सुक है,
न
धर्मगुरुओं
में उत्सुक
है। उस तक ही
खबर पहुंचानी
है। उसके और
मेरे बीच
राजनेता और
धर्मगुरु खड़े
होंगे और खबर
नहीं पहुंचने
देंगे, लेकिन
खबर उस तक ही
पहुंचानी है।
राजनेताओं और
धर्म-गुरुओं
की फिक्र
छोड़ो। तुम तो
इस देश के
सामान्य जन तक
खबर पहुंचा
दो। उसका कोई
स्वार्थ नहीं
है। और उसके
जीवन में बड़ी
प्यास है और
बड़ी आकांक्षा
है। उसके भीतर
बड़ी अभीप्सा
है। इस देश ने
सदियों-सदियों
तक परमात्मा
को खोजने की
अभीप्सा पाली है।
वह अब भी
जीवित है
साधारण जन
में। वह जो सामान्य
जन है, उसके
भीतर अभी भी
वह प्यास बुझ
नहीं गई है।
उसी प्यास के
कारण तो
पंडित-पुरोहित
उसका शोषण कर
पाते हैं, नहीं
तो शोषण कैसे
करेंगे?
अगर
कोई आकर
तुम्हारे हाथ
में नकली चीज
पकड़ा जाता है, तो एक बात
पक्की है कि
तुम्हें असली
की तलाश थी।
नहीं तो कोई
नकली भी कैसे
पकड़ाता? नकल
चलती है, क्योंकि
असल की तलाश
है। झूठ चलता
है, क्योंकि
सत्य की खोज
है। मगर प्यास
तो निश्चित है;
जो
पंडित-पुजारी
के चक्कर में
पड़ा है, वह
चक्कर में
पड़ता ही क्यों?
कोई
नास्तिक तो
नहीं पड़ता।
जिसको ईश्वर
से कुछ
लेना-देना
नहीं है, जिसे
धर्म से कुछ
प्रयोजन नहीं
है, वह तो
पंडित-पुरोहित
के चक्कर में
नहीं पड़ता, लेकिन जो
पंडित-पुरोहित
के चक्कर में
पड़ा है, उसे
कुछ लेना है।
वह टटोल रहा
है, खोज
रहा है। उसकी
आंखें तलाश कर
रही हैं। फिर
जो भी उसे मिल
जाता है निकट,
जो भी कहता
है कि ऐसा
करने से मिल
जाएगा, बेचारा
वैसा ही करने
लगता है। उस
तक मेरी खबर पहुंचाओ।
पंडितों की, पुजारियों
की फिक्र
छोड़ो। उस तक
मेरी खबर पहुंचने
दो। उस तक खबर
पहुंचते ही वह
पंडित-पुजारियों
के घेरे के बाहर
हो जाएगा। यही
डर है
पंडित-पुजारी
को कि उस तक
खबर न पहुंच
जाये।
इसलिए
जितनी गुहार
वे मचा सकते
हैं मेरे विरोध
में, मचायेंगे।
मगर उनको पता
नहीं है, जीवन
के नियमों का
उन्हें कुछ
पता नहीं है।
जितना वे मेरा
विरोध करेंगे,
उतनी ही खबर
पहुंचेगी। वे
ही खबर पहुंचा
रहे हैं। मैं
तो कहीं जाता
नहीं। तुम यह
चमत्कार
देखते हो, मैं
अपने कमरे में
ही बैठा रहता
हूं--और दुनिया
में एक देश
नहीं है जहां
मेरी चर्चा न
चल रही हो, विरोध
न हो रहा हो, सभाएं न हो
रही हों मेरे
खिलाफ!
अखबारों में लेख
लिखे जा रहे
हैं। तुमने
कभी सुना, ऐसा
कोई आदमी अपने
कमरे में बैठा
रहे और सारी
दुनिया में
इतना उपद्रव
मचता रहे! मैं
कमरे से बाहर जाता
ही नहीं, तो
कौन मेरा काम
कर रहा है? पंडित-पुजारी
बड़े काम में
लगे हैं। उनकी
बड़ी कृपा है।
वे मानेंगे
नहीं, वे
पहुंचा ही
देंगे खबर
लोगों तक।
पिछले
दो महीने से
जर्मनी में
बड़े जोर से
मेरा विरोध चल
रहा है। शायद
ही एक अखबार
हो जर्मनी का
जिसने मेरे
विरोध में नहीं
लिखा। लेकिन
जब इतने लोग
विरोध में
लिखते हैं तो
कुछ लोग सोचने
लगते हैं कि
मामला क्या है? आखिर किसी
आदमी को, जो
न कभी आया
यहां न कभी
आयेगा, उसकी
खिलाफत इतनी
क्यों की जा
रही है? तो
जर्मनी से
तलाश करने लोग
आने लगे। फिर
जो यहां आये, उन्होंने
पक्ष में
लिखना शुरू कर
दिया। सिलसिला
शुरू हो गया।
अब आने वाले
दोत्तीन
महीनों में
यहां जर्मनी
से सर्वाधिक
लोग होंगे।
रोज जर्मनी से
लोग आ रहे हैं,
इतना जिसके
विरोध में चल
रहा है तो जरूर
कुछ बात होगी।
विरोध करने की
ही सही, मगर
कुछ बात होगी।
उत्सुकता
पैदा होती है।
अब
मेरे
संन्यासी
जर्मनी से आ
रहे हैं, वे
कह रहे हैं कि
पहले तो हम
बहुत डर गये
थे। क्योंकि
हम कहीं भी
रास्ते पर
निकलते थे तो
लोग घूर-घूर
कर देखते थे
कि ये जा रहे
हैं! इतना खिलाफत
में प्रचार
चला कि हम
भयभीत होने
लगे थे कि क्या
होगा! मगर
धीरे-धीरे हवा
बदल गई है।
मैंने
कहा: तुम
फिक्र न करो, मैं अपने
कमरे में
बैठा-बैठा हवा
बदलता रहता हूं।
तुम चिंता न
करो।
अब
लोग पास आकर
पूछते हैं कि
बात क्या है, असली बात
क्या है? जिन्होंने
कभी नहीं पूछा
वे घर भोजन पर
निमंत्रित
करते हैं कि
आओ, जरा
बताओ, बात
क्या है? कोई
किताब पढ़ने को
दो। कुछ खबर
सुनाओ। हम भी
आना चाहते
हैं।
नए-नए
लोग आना शुरू
हुए हैं, जो
शायद कभी न
आते। और तुम
जानते हो, किसने
यह सारा आयोजन
किया? जर्मनी
के
प्रोटेस्टेंट
चर्च ने यह
आयोजन किया।
यह सारा विरोध
का सिलसिला
उन्होंने शुरू
करवाया। यहां
जासूस भेजे।
झूठी
कहानियां गढ़वाईं।
झूठे वक्तव्य
दिलवाये।
प्रोटेस्टेंट
चर्च को क्या
पड़ी थी? स्वभावतः
अड़चन होती है।
जर्मनी से
सैकड़ों युवकऱ्युवतियों
ने आकर
संन्यास लिया
है। और जो संन्यस्त
हो जाता है, वह फिर चर्च
नहीं जायेगा।
चर्च किसलिए
जायेगा? उसका
तो क्राइस्ट
से ही संबंध
जुड़ गया, अब
उसे
क्रिश्चियन
होने की जरूरत
न रही। तो भय
व्याप्त हो
गया। घबड़ाहट
व्याप्त हो
गई।
फिर, जो यहां एक
बार आ जाता है,
वह जब लौटता
है तो दूसरे
ही ढंग का
आदमी होता है।
बहुत-से तो कभी
लौटते ही
नहीं। तो
मां-बाप को
फिक्र होती है,
सरकारों को
फिक्र होती है
कि यह हो क्या
रहा है? निश्चित
ही सम्मोहन चल
रहा है। नहीं
तो जो लोग गए, वे गए ही, फिर
लौटे ही नहीं।
सम्मोहन के
अतिरिक्त और
तो इसका कोई
कारण हो ही
नहीं सकता। और
कुछ उनकी समझ
में नहीं आता।
यह तो वे मान
ही नहीं सकते
हैं कि सत्य
का भी एक सम्मोहन
होता है, कि
प्रेम का भी
एक सम्मोहन
होता है, कि
आनंद का भी एक
सम्मोहन होता
है। यह तो वे
मान ही नहीं
सकते। वे तो
मानते हैं कि
कोई जादू-टोना
कर दिया गया
है लोगों
पर...कि लोग
उनकी इच्छा के
विपरीत
जबर्दस्ती
रोक लिये गए
हैं।
तो
फिर जर्मन
सरकार ने अपने
जासूस भेजने
शुरू कर दिये।
मगर जल्दी ही
सरकारें अपने
जासूस भी भेजना
बंद करेंगी, क्योंकि
जासूसों में
से कुछ ने
संन्यास ले लिया
है। जर्मनी से
आए एक
प्रोटेस्टेंट
पादरी ने
संन्यास ले
लिया।
क्योंकि उसे
लगा मैं तो वही
कह रहा हूं जो
जीसस ने कहा
है। आदमी
हिम्मतवर था।
और अब बड़ी
मुश्किल खड़ी
हो गई है, क्योंकि
वह अपने चर्च
में मेरे
संबंध में बातें
कर रहा है, गैरिक
वस्त्र पहनकर!
अब पूरा
उपद्रव खड़ा हो
गया है।
क्योंकि चर्च
के इतिहास में
ऐसा कभी किसी
ने किया नहीं।
इसलिए इसके
पक्ष-विपक्ष
में कोई नियम
नहीं है कि
कोई आदमी माला
पहनकर किसी की
चर्च में बोल
सकता है या
नहीं, उसे
हक है बोलने
का या नहीं? गैरिक
वस्त्र पहनकर
बोल सकता है
या नहीं? जर्मनी
के चर्च ने उस
आदमी को
थाइलैंड भेज
दिया, वहां
से
स्थानांतरित
कर दिया। मगर
वह आदमी खुश
है। उसने लिखा
है कि मैं बड़ा
प्रसन्न हूं,
क्योंकि
थाइलैंड जाते
वक्त फिर पूना
रुक सकूंगा।
इस बार मेरी
पत्नी भी
संन्यास लेने
आ रही है। और
हमें आज्ञा
दें कि
थाइलैंड में
हम आपका क्या
काम कर सकते
हैं।
घबड़ाओ
मत, विरोध से
कुछ नुकसान
कभी हुआ नहीं
है। जो खोज रहे
हैं, उन्हें
लाभ ही होगा।
और जो
सामान्यजन है,
जिसका कोई
स्वार्थ नहीं
है, उसका
हृदय जल्दी ही
आंदोलित
होगा। उसके
पास हृदय है
भी।
पंडित-पुजारियों
के पास, राजनेताओं
के पास हृदय
इत्यादि कहां!
जरूरत भी नहीं
है वहां हृदय
इत्यादि की। न
हृदय की, न
बुद्धि की--इन
सब चीजों की वहां
जरूरत नहीं
है।
मैंने
तो सुना है कि
एक राजनेता के
मस्तिष्क का
आपरेशन हुआ।
बड़ा आपरेशन
था। तो उसकी
खोपड़ी में से
मस्तिष्क
निकालकर सफाई
की जा रही थी
मस्तिष्क की।
राजनेता का
मस्तिष्क, सफाई तुम
सोच ही सकते
हो कि भारी
सफाई करनी पड़ेगी!
इतनी गंदगी और
कहां इकट्ठी
होगी? इतनी
चोरी-बेईमानी,
इतना
इरछा-तिरछा-पन...।
जब तक
चिकित्सक
उसके मस्तिष्क
की सफाई कर
रहे थे, एक
आदमी आया और
उसने कहा कि
आप यहां लेटे
क्या कर रहे
हैं, आपका
तो चुनाव हो
गया है, आप
तो
प्रधानमंत्री
बन गए। तो वह
नेता तो एकदम
से उठ खड़ा
हुआ।
प्रधानमंत्री
कोई बन जाए तो
मुर्दा उठ खड़ा
हो। वह तो
एकदम चला! डाक्टर
चिल्लाया कि
भाई आप कहां
जाते हैं, मस्तिष्क
तो लगा देने
दें! उसने कहा:
अब मुझे मस्तिष्क
की क्या जरूरत?
अब मैं
प्रधानमंत्री
हो गया हूं।
अब मस्तिष्क
तुम रखो।
राजनेता
को न तो
मस्तिष्क की
जरूरत है, न हृदय की। सच
तो यह है अगर
मस्तिष्क हो,
तो राजनेता
होता? तो
कुछ और सार्थक
काम करता--कवि
होता, चित्रकार
होता, मूर्तिकार
होता, संत
होता, नर्तक
होता, गायक
होता; इस
जीवन को कुछ
सौंदर्य देता;
इस जीवन में
कुछ काव्य
जोड़ता; इस
जीवन को कुछ
रंग देता।
राजनेता होता?
हृदय होता,
तो कैसे
राजनेता हो
पाता? तो
करुणा होती; प्रेम होता।
राजनीति
असंभव हो
जाती। उनके पास
तो हृदय नहीं
है।
लेकिन
वृहत जन के
पास अभी भी
हृदय है, अभी
भी मस्तिष्क
है। उसी तक
खबर पहुंचाओ।
उस तक खबर
पहुंचेगी।
कितनी ही
बाधाएं हों, उस तक खबर
पहुंचेगी।
क्योंकि उसकी
प्यास है। और
जिसकी प्यास
है, सरोवर
है कहीं तो
प्यासा उसे
खोजने निकल
पड़ता है।
तीसरा
प्रश्न:
आप
प्रभु की परम
अनुभूति के
लिए कभी-कभी
शराब जैसा
प्रतीक क्यों
प्रयोग करते
हैं? क्या
कोई अच्छा
प्रतीक नहीं
मिल सकता है?
अच्छा
और बुरा देखने
की बात है, नहीं तो
शराब से
प्यारा
प्रतीक और
क्या होगा? शराब का
अर्थ केवल
इतना ही
है--मस्ती, विस्मरण,
लवलीनता, तल्लीनता।
शराब तो
सूफियों का
बड़ा समादृत प्रतीक
है।
उमर
खैयाम की
रुबाइयात पढ़ी
है? उमर
खैयाम कोई
शराबी नहीं
है। उमर खैयाम
एक सूफी फकीर
है। उमर खैयाम
एक परम ज्ञानी
है--जैसे सरहपा
और जैसे
तिलोपा, ऐसा
परम ज्ञानी
है।
शराब
प्रतीक है। और
शराब से सुंदर
कोई प्रतीक नहीं
हो सकता
परमात्मा के
संबंध में, क्योंकि जो
भी उसमें
डूबता है सदा
के लिए मस्त
हो जाता है, अलमस्त हो
जाता है। शराब
भी और ऐसी
शराब कि फिर
उतरती नहीं, चढ़ी सो चढ़ी!
सिर चढ़कर
बोलती है, ऐसी
शराब। ऐसी
शराब कि
बेहोशी ही
नहीं लाती, बड़ी
विरोधाभासी
है--एक तरफ
बेहोशी लाती
है, एक तरफ
होश लाती है।
अहंकार तो
बेहोश हो जाता
है और आत्मा
जग जाती है।
नहीं, बनेगा नहीं।
शराब का
प्रतीक तो
लाना ही होगा।
हरचंद
हो
मुशाहद-ए-हक
की गुफ्तगू।
बनती
नहीं है, बादा-ओ-साग़र
कहे बग़ैर।।
लाख
तत्व-चर्चा
करो, मगर बनती
नहीं है, बात
बनती नहीं है।
हरचंद हो
मुशाहद-ए-हक
की गुफ्तगू...कितनी
ही ईश्वरीय
चर्चा करो, जब तक शराब
की मादकता, शराब की
सुराही और
साकी की बात न
आ जाए, बात
बनती नहीं है।
कुछ रूखा-रूखा
रह जाता है, कुछ सूखा-सूखा
रह जाता है।
हरचंद
हो
मुशाहद-ए-हक
की गुफ्तगू।
बनती
नहीं है, बादा-ओ-सागर
कहे बग़ैर।।
सागर
तो मधुघट।
शराब--मदमस्ती!
भक्त--पियक्कड़!
साकी--वही
परमात्मा
पिलानेवाला।
लेकिन तुम्हारे
मन में शराब
का साधारण
अर्थ बैठ गया
है। साधारण
अर्थ अगर
तुम्हारे
भीतर बैठा है
तो तुम्हारा
कसूर है। शराब
जैसे प्यारे
शब्द को वहीं
समाप्त मत हो
जाने दो, उसे
ऊपर उठाओ, उसे
मुक्त करो।
उसे शराबियों
के हाथ से
छुड़ाओ, उसे
सूफियों के
हाथ में दो।
प्यारे-से-प्यारे
शब्द की
दुर्गति हो
सकती है गलत
हाथों में और
गलत-से-गलत
शब्द की सुगति
हो सकती है
ठीक हाथों
में--हाथों की
बात है।
अनगढ़-से-अनगढ़
पत्थर ठीक
कलाकार के हाथ
में पड़ जाए तो
सुंदरतम
मूर्ति बन
जाता है।
ऐसा
हुआ कि माइकल
एंजिलो एक
संगमरमर के
पत्थर की
दुकान के पास
से गुजरता था।
उसने दुकान के
बाहर दूर सड़क
के उस तरफ
संगमरमर की एक
बड़ी चट्टान
पड़ी देखी।
उसने
दुकानदार से
कहा कि इस
चट्टान के
कितने दाम
होंगे? दुकानदार
ने कहा: दाम!
उसे कोई
खरीदता
नहीं--इतनी
आड़ी-तिरछी, इतनी बेढंगी
कि कोई
मूर्तिकार
उसे खरीदता नहीं।
इसलिए मैंने
उसे सड़क के उस
तरफ डाल दिया
है। तुम दाम
की पूछो ही
मत। अगर तुम
ले जा सकते हो
अपने खर्चे से
उठाकर तो तुम
ले जाओ। मेरा
छुटकारा हो, मेरी जगह
खाली हो।
माइकल
एंजिलो उस
पत्थर को उठवा
ले गया। दो
वर्ष बाद उसने
दुकानदार को
कहा कि आओ घर, चाय भी पीना,
नाश्ता भी
करना और कुछ
तुम्हें
दिखाना है। वह
दुकानदार तो
भूल ही गया था
उस पत्थर की
बात। चाय
पिलाने के बाद
जब माइकल
एंजिलो उसे ले
गया अपने
स्टूडियो में
और उसने जीसस
की प्रतिमा
दिखाई...मरियम
ने, जीसस
की मां ने, जब
जीसस को सूली
से उतारा गया
तो अपनी गोद
में लिया हुआ
है--ऐसी
प्रतिमा उसने
बनाई, मरियम
और जीसस गोद
में! कहते हैं
माइकल एंजिलो
की यह प्रतिमा
उसकी सर्वश्रेष्ठ
प्रतिमा है।
और उसकी ही
नहीं, शायद
पृथ्वी पर
इतनी सुंदर
प्रतिमा
खोजनी दूसरी
मुश्किल है।
भाव-विभोर हो
गया वह
दुकानदार।
पारखी था वह
भी। काम ही
उसका संगमरमर
बेचना था
चित्रकारों, मूर्तिकारों
को। उसने कहा:
यह पत्थर
तुमने कहां से
पाया? माइकल
एंजिलो हंसने
लगा, उसने
कहा: तुम्हें
याद नहीं, दो
साल पहले
तुम्हारी
दुकान के बाहर
तुमने एक पत्थर
फेंक दिया था,
यह वही
पत्थर है! वह
दुकानदार तो
भरोसा न कर सका।
उसने कहा कि
तुम इस पत्थर
को ऐसा रूप दे
दिए हो, यह
पत्थर जीवित
हो उठा! यह
तुम्हें कैसे
खयाल आया?
माइकल
एंजिलो ने
कहा: मुझे
खयाल नहीं आया, मैं जब
तुम्हारी
दुकान के
सामने से
गुजरता था तो
इस पत्थर में
छिपे जीसस ने
मुझे आवाज दी
कि मुझे मुक्त
करो, मैं
इस पत्थर में
बंद पड़ा हूं।
वही आवाज
सुनकर यह
पत्थर मैं उठा
लाया था। जो
व्यर्थ था वह
काटकर अलग कर
दिया है, जीसस
मुक्त हो गए
हैं।
यही
प्रतिमा, तुम्हें
याद होगा, कोई
डेढ़ साल पहले
वेटिकन के
चर्च में एक
पागल आदमी ने
हथौड़े से तोड़
दी, यही
प्रतिमा थी!
सुंदरतम
प्रतिमा भग्न
कर दी गई। इस
दुनिया में
लोग हैं, जो
पत्थरों को
प्रतिमाएं
बना देते हैं;
इस दुनिया
में लोग हैं, जो
प्रतिमाओं को
भग्न कर देते
हैं, यहां
सृजनात्मक
लोग हैं, यहां
विध्वंसात्मक
लोग हैं।
मैं
तो जीवन में
जो है, उस
सबको एक रूप
देना चाहता
हूं, मेरे
लिए शराब शब्द
में कोई बुराई
नहीं है। अंगूरों
से ढलती है
शराब, आत्माओं
से भी ढलती
है। एक शराब
बाहर की भी है,
एक भीतर की
भी है। और सच
पूछो तो भीतर
की शराब की जो
खोज कर रहे हैं
वे ही बाहर की
शराब के चक्कर
में पड़ जाते
हैं। भीतर
जाना तो कठिन,
बाहर सस्ती
मिल जाती है।
लेकिन मेरी
अपनी समझ, और
मेरी ही समझ
नहीं, आधुनिक
मनोविज्ञान
इसके समर्थन
में है कि जो भी
लोग शराब पीते
हैं उनके भीतर
कोई धार्मिक
तलाश है।
क्यों? क्यों
वे शराब पीने
लगते हैं? वे
अपने अहंकार
को विसर्जित
करना चाहते
हैं, लेकिन
उपाय नहीं खोज
पाते; शराब
उनको थोड़ी देर
के लिए अहंकार
को विस्मरण करने
का बहाना बन
जाती है; थोड़ी
देर को अहंकार
भूल जाता है, चिंता भूल
जाती है, विषाद
भूल जाता है; जगत भूल
जाता है; थोड़ी
देर को वे
दूसरे जगत में
लीन हो जाते
हैं।
यह
तो तुम्हें
पता ही है कि
साधु-संन्यासी
सदियों से
गांजा, भंग,
शराब का
उपयोग करते
रहे हैं।
क्यों? साधु-संन्यासी
क्यों? तलाश
है! इस अहंकार
से कैसे
छुटकारा हो?
असली
छुटकारा तो
ध्यान से होगा, समाधि से
होगा। मगर
समाधि साधना
तो लंबी प्रक्रिया
है। मिले कोई
गुरु, जगाए
कोई गुरु, पुकारे
कोई गुरु
तुम्हारी
नींद से--तो
होगा। लेकिन
शराब सस्ती
मिल जाती है, गांजा आसानी
से मिल जाता
है। बाहर की
शराब भीतर की
शराब की तलाश
में ही पकड़
में आ जाती
है। और अगर दुनिया
को बाहर की
शराब से मुक्त
करवाना है तो
एक ही उपाय है:
भीतर की शराब
बहाओ, भीतर
की मधुशालाएं
खोलो।
यह
भी एक मधुशाला
है--भीतर की
मधुशाला।
बाहर की शराब
से छूट ही
नहीं सकते तुम, जब तक कि
तुम्हें भीतर
की असली शराब
न मिल जाए।
मैकशों
ने पी के तोड़े
जामे-मै।
हाय
वोह साग़र जो
रक्खे रह
गये।।
लेकिन
बहुत हैं यहां, जिनके भीतर
भरी हुई
सुराहियां
रखी थीं शराब
की, वैसी
ही रखी रह
गईं।
उन्होंने कभी
न पी, न
पिलाई। ऐसे ही
आए ऐसे ही गए।
इन
तल्ख़ आंसुओं
को न यूं मुंह
बना के पी
ये
मै है खुद
कशीद इसे
मुस्करा के पी
उतरेंगे
किसके हल्क से
यह दिल ख़राश
घूंट
किसको
पयाम दूं कि
मेरे साथ आ के
पी
बुला
रहा हूं लोगों
को कि यहां एक
मधुशाला खोली
है, आओ--मेरे
साथ बैठो और
पीयो। शराब
तल्ख़ होती है--बाहर
की भी और भीतर
की भी। पीते
वक्त कड़वी मालूम
होती है। सत्य
कड़वा मालूम
होता है पीते
समय; कंठ
से नहीं उतरता;
तुम्हारे
सारे
व्यक्तित्व
के विपरीत
होता है। तुम
तो मीठे झूठ
पीने के आदी
हो गए हो।
इन
तल्ख़ आंसुओं
को न यूं मुंह
बना के पी
ये
मै है खुद
कशीद इसे
मुस्करा के पी
उतरेंगे
किसके हल्क से
यह दिल ख़राश
घूंट
किसको
पयाम दूं कि
मेरे साथ आ के
पी
हिम्मत
चाहिए, क्योंकि
तल्ख़ हैं ये
घूंट, कड़वे
हैं ये घूंट, सत्य के हैं
ये घूंट। थोड़े
हिम्मतवर ही
पी सकेंगे।
हां, एक
बार पी लेंगे
और एक बार
स्वाद लग
जाएगा तो फिर
सारी तल्खी
भूल जायेंगे।
फिर पीते-पीते
एक माधुर्य का
आविर्भाव
होता है, अनुभव
से होता है।
नहीं, मेरे लिए
शराब के प्रतीक
में जरा भी
कुछ खराबी
नहीं है। मुझे
तो यह शब्द
बड़ा प्यारा
है। मैं
पियक्कड़ हूं
और तुम्हें भी
पियक्कड़ ही
बनाना चाहता
हूं: और मैं तुम्हें
ऐसी शराब देना
चाहता हूं जिस
पर कोई पाबंदी
नहीं हो सकती,
जिस पर कभी
कोई पाबंदी
नहीं होगी। और
मैं तुमसे यह
भी कहना चाहता
हूं कि जो
शराब मैं
तुम्हें पिला
रहा हूं अगर न
पी तो बाहर की
पाबंदियां
तोड़कर भी तुम
बाहर की शराब
पीते ही रहोगे,
चोरी-चपाटी
से पीयोगे, खुले न पी
सकोगे। खुले
आम न पी सकोगे
तो बहानों से
पीयोगे। कुछ न
कुछ रास्ते
खोजते रहोगे।
और
मजा यह है कि
यहां शराब
पीने वाले ही
शराब पीने
वाले नहीं हैं
बाहर--कोई धन
की शराब पी
रहा है! तुमने
देखा न धन-मद, कैसी अकड़, कैसी मस्ती!
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने जवान
बेटे के साथ
बरसात के दिन
एक नाले को
पार करता था, एकदम छलांग
लगा गया--
बुङ्ढा छलांग
मारकर उस तरफ
पहुंच गया।
बेटे ने भी
देखा कि जब
बाप छलांग मार
गया तो अब
इज्जत की बात
थी, जवान
होकर वह छलांग
न मारे! उसने
भी छलांग मारी,
मगर बीच
नाले में
गिरा। उठकर
उसने पूछा कि
मेरी कुछ समझ
में नहीं आता,
आप बूढ़े हो
गए और छलांग
मार गए!
नसरुद्दीन
हंसने लगा, उसने कहा:
इसका राज है।
उसने खीसा
बजाकर कलदार खनखनाए।
बेटे ने कहा:
मैं कुछ समझा
नहीं। उसने
कहा: बस पैसा
पास में हो तो
आदमी में
गर्मी होती है,
जवानी होती
है, सब
होता है। अब
तेरी जेब खाली
है, गिरे
बीच में। मैं
तो गिर ही
नहीं सकता बीच
में, क्योंकि
नोट, रुपये
भीग जाएं।
तुमने
देखा, जब
तुम्हारी जेब
भरी भरी होती
है तो पैरों
में चाल होती
है, गर्मी
होती है, बल
होता है। जब
नोट नहीं पास,
बस एकदम
प्राण निकल
जाते हैं, आत्मा
खो जाती है, चलते मुर्दे
जैसे।
धन
का भी मद है।
धन की बड़ी अकड़
है! पद की भी
बड़ी अकड़ है।
पद का भी बड़ा
मद है! ये भी सब
शराबें हैं। ये
जरा सूक्ष्म
शराबें हैं, मगर सब
शराबें हैं।
इस
दुनिया में या
तो तुम्हें
बाहर की शराब
पीनी पड़ेगी और
या भीतर की
पीनी पड़ेगी, बचाव नहीं
है। और अगर
बाहर से बचना
हो तो भीतर की
पी लो।
परमात्मा को
पीयो, फिर
बाहर कुछ पीने
जैसा नहीं रह
जाता। फिर सब बेस्वाद
है बाहर, सब
फीका-फीका है।
मेरा
चंचल मन आता
है
तेरे
रोम-रोम को
छू-छू!
इन्द्रिय
का व्यापार
नहीं है,
तन
का भी अभिसार
नहीं है!
मेरा
कोकिल मन करता
है
तेरे
प्राण-प्राण
में कू-कू!
सभी
चाहते इसे
पकड़ना;
इस
पर अपना कब्जा
करना!
मेरा
रसमय मन जागा
है
तेरे
अंग-अंग से
चू-चू!
जोड़ो
परमात्मा से अपना
संबंध, तो
उसका संगीत
तुमसे बहे, उसका रस
तुमसे बहे।
रसो वै सः! वह
परमात्मा रस-रूप
है।
उसी
परमात्मा के
रस-रूप की
चर्चा वेदों
ने सोमरस की
तरह की है।
सोमरस कोई
गांजा-भांग का
निचोड़ नहीं
है। सोमरस कोई
पुराने जमाने
का एल. एस. डी. और
मारिजुआना
नहीं है।
सोमरस वही
शराब है, जिसकी
मैं तुमसे
चर्चा कर रहा
हूं।
वैज्ञानिक
बड़ी खोज में
रहे हैं कि यह
सोमरस की
जड़ी-बूटी कहां
मिले, क्योंकि
वेदों ने उसकी
बड़ी प्रशंसा
की है! वेद तो
उसकी स्तुति
से भरे हैं।
उसको देवता
कहा है:
सोम-देवता। और
कहा है: जिसने
सोमरस पी लिया
उसने सब जान लिया।
तो स्वभावतः
सवाल उठता है
कि सोमरस की जड़ी-बूटी
है कहां? तो
खोजबीन चलती
रही है, हिमालय
पर न मालूम
कितने
वैज्ञानिक
खोज करने आए
हैं। अब तक
हाथ नहीं लगी
है। कुछ को तो
कुछ-कुछ हाथ
लग गया, उन्होंने
वही सिद्ध
करना शुरू कर
दिया कि यही सोमरस
है।
सोमरस
उसी शराब का
नाम है, जिसकी
मैं बात कर
रहा हूं--बाहर
की किसी
जड़ी-बूटी से
नहीं मिलता, आत्मा में
निचुड़ता है।
मेरा
चंचल मन आता
है
तेरे
रोम-रोम को
छू-छू!
मेरा
कोकिल मन करता
है
तेरे
प्राण-प्राण
में कू-कू!
मेरा
रसमय मन जागा
है
तेरे
अंग-अंग से
चू-चू!
बुझेगी
नहीं
तुम्हारी प्यास, अगर तुमने
शराब न
पी--शराब मेरी,
शराब
बुद्धों की, शराब कृष्ण
की और
क्राइस्ट की!
बहुत
दिन तक करके
विश्वास,
बहुत
दिन तक करके
उपहास,
बहुत
दिन रह करके
दूर, बहुत दिन
तक रह करके
पास!
बुझ
सकी नहीं हृदय
की प्यास!
बहुत
दिन किया किसी
को प्यार,
बहुत
दिन मन पर कर
अधिकार,
बहुत
दिन तक करके
शृंगार, बहुत
दिन तक लेकर
संन्यास!
बुझ
सकी नहीं हृदय
की प्यास!
बहुत
दिन नीड़ों का
निर्माण
बहुत
दिन प्राणों
का अवसान,
बहुत
दिन तक पायी
है भूमि, बहुत
दिन पाया है
आकाश!
बुझ
सकी नहीं हृदय
की प्यास!
बुझेगी
भी नहीं! किसी
मधुशाला का
अंग होना
पड़ेगा। किसी
सत्संग में
डुबकी लगानी
पड़ेगी। जो
पीकर मस्त हो, उसके हाथ
में हाथ दे
देना होगा। उस
प्रक्रिया का
नाम ही
शिष्यत्व है।
शिष्यत्व
है--गुरु के पात्र
से उसे पीना, जो अभी
तुम्हारे
पात्र में
नहीं है, जल्दी
ही तुम भी
योग्य हो
जाओगे।
शिष्यत्व का अर्थ
है--अभी
तुम्हें चलना
नहीं आता, किसी
का हाथ पकड़कर
चार कदम चल
लेना, जल्दी
ही तुम योग्य
हो जाओगे, तुम्हारे
पैर खुद चलने
लगेंगे। मैं
तुमसे कहता
हूं तुम्हारे
भीतर मधुघट, मधुकलश भरा
रखा है।
जब
से तू इन
गीतों में
साकार हुआ है।
मुझ
को अपने गीतों
से कुछ प्यार
हुआ है।
मेरा
जीवन निशा, और तू
स्वप्न
सुनहला!
निशि
का सपने से ही
तो शृंगार हुआ
है।
मुझ
को अपने गीतों
से कुछ प्यार
हुआ है!
दीप
सराहे विश्व, सराहूं नेह
सदा मैं--
जो
दीपक के जलने
का आधार हुआ
है।
मुझ
को अपने गीतों
से कुछ प्यार
हुआ है!
गाती
हूं मैं गीत, रागिनी है प्रिय
तू ही।
स्वर
बिन साथी कौन
यहां स्वरकार
हुआ है।
मुझ
को अपने गीतों
से कुछ प्यार
हुआ है!
उस
अज्ञात शक्ति
को क्या कह
प्राण
पुकारे।
जिस
से तप्त हृदय
में मधु-संचार
हुआ है।
मुझ
को अपने गीतों
से कुछ प्यार
हुआ है!
चित्रकार
तू, छवि तेरी,
मैं एक
तूलिका।
किस
से चित्रित यह
तेरा संसार
हुआ है।
मुझ
को अपने गीतों
से कुछ प्यार
हुआ है!
जब
से तू इन
गीतों में
साकार हुआ है।
मुझ
को अपने गीतों
से कुछ प्यार
हुआ है!
क्या
कहकर पुकारें
हम उसे?
उस
अज्ञात शक्ति
को क्या कह
प्राण
पुकारे।
जिस
से तप्त हृदय
में मधु-संचार
हुआ है।
मुझ
को अपने गीतों
से कुछ प्यार
हुआ है!
उसे
तो मधु ही
कहना होगा।
उसे तो सोमरस
ही कहना होगा।
वह तो शराब
है। नहीं, इससे प्यारा
न कोई शब्द है
न हो सकता है।
चौथा
प्रश्न:
मैं
अत्यंत दुखी
हूं। मेरी
पत्नी की जब
से मृत्यु हुई
है, मेरे दुख
का अंत नहीं
है। आपके पास
सांत्वना
पाने आया हूं।
फिर
तुम गलत जगह आ
गए। सांत्वना
यहां मैं किसी
को देता नहीं।
सत्य लेना हो
तो ले लो, सांत्वना
न मांगो। सब
सांत्वनाएं
झूठी हैं। सब
सांत्वनाएं
घाव की
मलहम-पट्टी
हैं, घाव
का भरना नहीं।
यहां
आए हो तो
अच्छा हो कि
घाव की मवाद
बह जाने दो।
अच्छा हो कि
घाव खोल दो, खुली हवा और
सूरज की रोशनी
पड़ने दो।
अच्छा हो कि
घाव को छिपाओ
मत, क्योंकि
छिपे घाव भरते
नहीं हैं। घाव
को प्रगट कर
दो, ताकि
भर जाए।
तुम
कहते हो: मैं
अत्यंत दुखी
हूं। तो रोओ, बहने दो घाव
को, तो
खोलो घाव को!
घबड़ाते क्यों
हो? सुख
पाया था पत्नी
से, तो दुख
कोई और पाएगा?
सुख तुमने
पाया, तब
तुम नहीं आए
कि बड़ा सुख पा
रहा हूं, थोड़ा
आप भी ले लें।
अब तुम्हें
दुख मिला, अब
तुम सांत्वना
लेने आ गए!
जो
सुख पाएगा वह
दुख भी पाएगा; वे एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
जैसे सुख को स्वीकार
किया था वैसे
दुख को
स्वीकार कर
लो। जैसे सुख
को झेलते वक्त
बेचैन न हुए
थे, ऐसे ही
दुख को झेलते
वक्त भी बेचैन
न होओ।
सुख
के भी साक्षी
बनो, दुख के भी
साक्षी बनो।
तुम
कहते हो: मेरी
पत्नी की जब
से मृत्यु हुई, मेरे दुख का
अंत नहीं है।
पत्नी
के लिए रो रहे
हो, अपने लिए
कब रोओगे? पत्नी
की मृत्यु हो
गई, क्या
तुम सोचते हो
तुम सदा जिंदा
रहोगे? अब
रोने में समय
न गंवाओ। कहीं
ऐसा न हो कि
रोते ही रोते
समाप्त हो जाओ
और फिर दूसरों
को सांत्वना
की तलाश करनी
पड़े।
सत्य
है मृत्यु।
उसे जानो, पहचानो। अभी
जो पत्नी
जिंदा थी, अभी-अभी
जागती थी, बोलती
थी, चलती-फिरती
थी, अभी-अभी
गिर गयी--और
तुम्हीं चढ़ा
आए उसे चिता पर!
ज्यादा देर
नहीं है, तुम्हें
भी दूसरे लोग
चढ़ा आएंगे।
पत्नी को चिता
पर जलते देखकर
अपने को जलता
हुआ देखो।
पत्नी की
मृत्यु में
अपनी मृत्यु
देखो। जब भी
कोई अर्थी
निकले द्वार
से, गौर से
देख लेना, तुम्हारी
ही अर्थी है।
हर मृत्यु में
अपनी ही
मृत्यु का
संकेत पाओ।
सांत्वना
मत खोजो।
सांत्वना तो
झूठी बात है। तुम
सोचते होओगे
कि मैं कहूं
कि मत घबड़ाओ।
अभी
कुछ दिन पहले
हुआ, सुप्रीम
कोर्ट के
जज...कोई सोचता
है सुप्रीम कोर्ट
का जज हो तो
कुछ
बुद्धिमान
होगा; पर
नहीं, आदमी
तो सब आदमी
हैं। पत्नी मर
गई है! रो रहे
हैं, परेशान
हैं। कहते हैं
चित्त को
शांति नहीं है,
सांत्वना
लेने आए हैं।
तो मैंने पूछा
कि मैं क्या
करूं जिससे
आपको
सांत्वना
मिले। तो उन्होंने
कहा: बस मुझे
इतना भरोसा
दिला दें कि
अगले जन्म में
कभी उससे
मिलना होगा।
क्या-क्या
पागलपन की
बातें कर रहे
हो? या कोई
ऐसा उपाय कर
दें, प्लेनचिट
या कोई, कि
इसी जन्म में
कम-से-कम उससे
बात हो जाए।
मैंने
कहा: तुम तीस
साल साथ-साथ
रहे, बातचीत
कुछ बची करने
को? नहीं, कहने लगे, ऐसे तो कुछ
बातचीत...। तीस
साल साथ-साथ
रहे, बात
करने को और
क्या रह गई है?
तीस साल में
पूरी नहीं हुई
तो प्लेनचिट
पर कैसे पूरी
हो पाएगी? इस
जन्म में साथ
रह लिए, क्या
पाया? अगले
जन्म में भी
साथ रहना है? इस जन्म में
कुछ नहीं पाया,
अगला जन्म
भी गंवाना है?
वे
तो बहुत चौंके, क्योंकि वे
आए थे
सांत्वना
लेने। दिल्ली
से कोई आए सांत्वना
लेने...। लेकिन
मैं सांत्वना
दे ही नहीं
सकता। मैं
सत्य दे सकता
हूं। मैंने
उनसे कहा:
समझो! तीस साल
साथ रहकर
गंवाए, अब
पत्नी जा चुकी
है, अब
अकेले में
गंवा रहे हो।
गंवाते ही
रहोगे? उम्र
आ गई, अब तो
थोड़ा चौंको।
पत्नी की
मृत्यु से
आघात लगा है, इसका सदुपयोग
कर लो। इस चोट
को क्रांति
बना लो। यह
चुनौती है।
सांत्वना
मत खोजो, मलहम-पट्टियां
मत खोजो। यह
सत्य है, जो
प्रगट हुआ है
कि यहां हर
जीवन के पीछे
मृत्यु छिपी
है कि यह जीवन
सच्चा जीवन
नहीं है; उस
जीवन की हम
तलाश करें जो
कभी समाप्त न
होता हो। और
उस प्रेमी को
खोजो, जिससे
मिले तो मिले।
पत्नियां तो
मिलेंगी और बिछुड़ेंगी,
पति
मिलेंगे और
बिछुड़ेंगे।
मैंने
उनसे पूछा: कि
तुम अगले जन्म
में मिलने की
पूछ रहे हो, एक बात
तुमसे पूछूं?
पिछले जनम
में भी
तुम्हारी कोई
पत्नी रही होगी,
उसकी याद
आती है?
वे
कहने लगे: कोई
याद नहीं आती।
मैंने कहा:
उसके पिछले
जनम में? न
मालूम कितने
जनम हुए होंगे
तुम्हारे, उन
सारे जन्मों
में न मालूम
कितनी
पत्नियां हुई
होंगी। उन सब
में से किसी
की याद आती है?
उन्होंने
कहा कि नहीं, किसी की याद
नहीं आती।
मुझे याद ही
नहीं है पिछले
जन्मों की।
तो
मैंने कहा:
अगले जनम में
भी तुम्हें इस
जनम की याद
नहीं रह जाएगी।
पत्नी मिल भी
जाएगी तो
पहचानोगे
नहीं। क्यों
फिजूल की
बातों में पड़े
हो? होश
सम्हालो! इतनी
बड़ी चोट खाई, इस चोट का
कोई सदुपयोग
कर लो, कोई
सृजनात्मक
उपयोग कर लो।
भोर
हो गई, मलय-पवन
का
आंचल
फिर लहराया!
झोंका
आया, दीप बुझ
गया;
नया
फूल मुसकाया!
समय-समय
की बात,
किसी
की भोर, किसी
की संध्या;
समय
किसी को मरण,
किसी
को जीवन बन कर
आया!
दीपक
और फूल से
सीखो
कब
बुझना, कब
खिलना!
मिट्टी
में या
सूर्य-किरण
में
कब
दोनों को
मिलना!
दिग्गज
को दहलाने
वाला
कम्प
छिपाए उर में--
धरती
से सीखो मलयज
में
पल्लव-दल-सा
हिलना!
किंतु
न आसन से
हिलते हम,
हिल
जाते सिंहासन!
कभी
रुधिर के
फागुन आते,
अग्नि-वृष्टि
के सावन!
खंभ
फोड़ नरसिंह
निकलते,
पूछा
करते हमसे--
समय
मनुज का वाहन
है या
मनुज
समय का वाहन?
माना, शस्य उगाने
में
लगते
बारह पखवारे;
खेत
एक दिन कट
जाता,
पर
हाथ नहीं
हत्यारे!
कभी
अगाई, कभी
पिछाई
हर
खेती कटती है!
बरसा
कर या तरसा कर,
हर
घिरी घटा हटती
है!
सिवा
समय के, और
सभी के
खेल
खत्म हो जाते--
हर
युग का दिन
ढलता
रजनी
जाती, पौ
फटती है!
जरा
समझो! यह तो
क्रम है जीवन
का--जो जन्मा, मरेगा; जो
उगा, डूबेगा;
जो बना, मिटेगा।
सिवा
समय के, और
सभी के
खेल
खत्म हो जाते--
हर
युग का दिन
ढलता
रजनी
जाती, पौ
फटती है!
लेकिन
नहीं, हम
सांत्वना की
तलाश करते
हैं! मैं
तुमसे कह दूं:
"घबड़ाओ मत, मिलन
होगा, निश्चित
मिलन होगा, अगले जनम
में होगा। फिर
वही तुम्हारी
पत्नी होगी।
फिर तुम उसके
पति होओगे।' बस कुछ लाभ
होगा इससे? ऐसा मानकर
चलने से कुछ
हल होगा? हां,
घाव ढक
जाएगा और मौत
ने जो एक असवर
दिया था चूक जाएगा।
जब
भी कोई
प्रियजन मरे
तो यह ध्यान
की घड़ी है। जब
भी कोई
प्रियजन जाए
तो तुम्हारे
भीतर से इतना
टूट जाता है
कुछ कि इस
मौके पर अगर तुम
जागो तो जाग
सकते हो। चोट
में ही कोई
जागता है। सुख
में तो कोई
जागता नहीं।
सुख में तो आदमी
और चादर
फैलाकर सो
जाता है। दुख
में ही कोई जागता
है।
इसलिए
दुख सुख से
ज्यादा बड़ा
अवसर है। सुख
में तो लोग
भूल ही जाते
हैं परमात्मा
को, दुख में
ही याद करते
हैं। शायद दुख
के कारण ही
तुम यहां आ
गए। पत्नी न
मरती तो शायद
तुम अभी यहां
आते भी नहीं।
पत्नी मर गई
है तो तुम
यहां आ गए।
सोचा होगा कि
चलो सांत्वना मिल
जाए। लेकिन
नहीं, मैं
तुम्हें और
विचलित करना
चाहता हूं।
किन्तु
न आसन से
हिलते हम,
हिल
जाते सिंहासन!
...हम
ऐसे लोग हैं!
अब तुम्हारा
सिंहासन हिल
गया; पत्नी
तुम्हारे
जीवन का आधार
रही होगी, तब
तो इतना दुख
है, तुम्हारी
भूमि पैर के
नीचे से खिसक
गई, मगर
तुम किसी तरह
अपना आसन जमाए
रखना चाहते हो।
उसी को तुम
सांत्वना मान
रहे हो। मैं
तुम्हें किसी
तरह पीठ
ठोंककर कह दूं,
सब ठीक है, घबड़ाओ मत, पत्नी मरी
नहीं, आत्मा
तो अमर है! कि
मैं तुम्हें
कहूं कि बिलकुल
मत घबड़ाओ, तुम्हारी
पत्नी स्वर्ग
पहुंच गई है!
देवी हुई है!
और तुम
प्रसन्न हो
जाओगे? बस
इतने से? बस
इन शब्दों से
तुम्हें
तृप्ति मिल
जाएगी?
नहीं, तृप्ति तो
नहीं मिलेगी।
तुम्हें
मैंने जहर दे
दिया। तुम सो
जाओगे फिर
चादर ओढ़कर।
तुम कहोगे:
"अच्छा ही हुआ,
पत्नी
स्वर्ग में
देवी हो गई।
बहुत अच्छा
हुआ!' तुम्हारे
अहंकार को
तृप्ति
मिलेगी--"होगी
क्यों न, आखिर
मेरी पत्नी
थी।' तुम
देवता, वह
देवी! होना ही
था। स्वर्ग
में उसका
सम्मान हो रहा
है, तुम
निश्चिंत
रहो। तुम जब
पहुंचोगे, वह
तैयारी रखेगी
सब?
क्या
चाहते हो
सांत्वना में? कुछ झूठ
चाहते हो। कुछ
झूठ, जो
प्यारा हो, मधुर हो, मीठा
हो। नहीं
लेकिन, मैं
सांत्वना
देता ही नहीं।
मैं तो
सांत्वना तुम्हें
कुछ मिली हो
तो छीन लेता
हूं। क्योंकि
मैं तुम्हें
संक्राति
देना चाहता
हूं।
सांत्वना
नहीं।
भोर
हो गई, मलय-पवन
का
आंचल
फिर लहराया!
झोंका
आया, दीप बुझ
गया;
नया
फूल मुसकाया!
खेल
तो यह चल ही
रहा है। इधर
कली खिली, उधर फूल
गिरा। इधर कोई
दीप जला, उधर
कोई दीप बुझा।
समय-समय
की बात,
किसी
की भोर, किसी
की संध्या;
समय
किसी को मरण,
किसी
को जीवन बनकर
आया!
तो
सीखो कुछ!
दीपक
और फूल से
सीखो!
कब
बुझना, कब
खिलना!
मिट्टी
में या
सूर्य-किरण
में
कब
दोनों को
मिलना।
जल्दी
ही तुम्हारी
घड़ी भी आती
होगी। हम सब
कतार में खड़े
हैं, पंक्ति
में खड़े हैं, क्यू लगा
है। आगे से
लोग गिरते जा
रहे हैं, तुम
करीब आते जा
रहे हो, प्रतिपल
करीब आते जा
रहे हो।
तुम्हारी मौत
रोज-रोज पास
सरकती आती है।
तुम्हारी
पत्नी
तुम्हें याद
दिला गई है कि
हम मृत्यु की
पंक्ति में
खड़े हैं। और
चूंकि तुमने
पत्नी को चाहा
था, पत्नी को
प्रेम किया था,
इसलिए घाव
छूट गया है।
यह घाव भर मत
लेना, झुठला
मत लेना, क्योंकि
यह घाव एक
अपूर्व
चुनौती है; इसीसे
व्यक्ति
धार्मिक होता
है। अगर
मृत्यु न होती
दुनिया में तो
लोगों ने शायद
परमात्मा को
कभी खोजा ही न
होता। अगर
मृत्यु न होती
दुनिया में और
दुख न होते
दुनिया में, तो मंदिर न
होते, मस्जिद
न होती, गिरजे-गुरुद्वारे
न होते। अगर
मृत्यु न होती
तो कौन अमृत की
बात सोचता? कौन विचार
करता, कौन
ध्यान करता, कौन
समाधिस्थ
होता?
यह
मृत्यु है, यह मृत्यु
की अनुकंपा है
कि तुम पर चोट
करती है, कि
तुम्हें सोने
नहीं देती, कि तुम लाख
उपाय सोने के
करो कि
तुम्हें जगा-जगा
जाती है। मौत तो
एक अलार्म है।
लेकिन तुम
मुझसे कह रहे
हो कि मेरी
पीठ थोड़ी
थपथपा दो, कि
मेरे सिर को
थोड़ा दबा दो, कि मैं फिर
सो जाऊं, कि
इस अलार्म ने
मेरी नींद तोड़
दी है।
अच्छा
हुआ कि नींद
टूटी। जितने
जल्दी टूट जाए
उतना अच्छा
है। तुम
सौभाग्यशाली
हो कि सपना टूटने
का क्षण आ
गया। ध्यान
में डूबो।
तुम्हारे
भीतर वह भी है
जिसकी कोई
मृत्यु नहीं।
और तुम्हारे
भीतर वह
प्यारा भी
छिपा है, जिससे
मिल जाओ तो
फिर कभी
बिछुड़ना नहीं
होता; जिससे
मिलन
आत्यंतिक है।
उसको ही पाओगे
तो संतोष।
उसको ही पाओगे
तो शांति। और
शेष सब संबंध
तो बस
संयोग-मात्र
हैं। राह चलते
लोग साथ हो
लिए हैं, फिर
घड़ी आ जाएगी
विदा की और
अपनी-अपनी राह
पर चल पड़ेंगे।
इनमें ज्यादा
मत भटको, ज्यादा
मत भूलो।
और
मैं तुमसे यह
नहीं कह रहा
हूं कि संसार
छोड़कर भाग जाओ, कि अपनी
पत्नी को छोड़
दो, कि
अपने बच्चों
को छोड़ दो कि
अपने पिता को
छोड़कर भाग
जाओ। यह मैं
नहीं कह रहा
हूं। मैं तो
सिर्फ इतना ही
कह रहा हूं; रहो यहीं, लेकिन जाग
जाओ, जागकर
रहो। यह जानते
हुए रहो कि यह
सब संयोग मात्र
है। यही नए
संन्यास की
अवधारणा
है--संसार में
रहते हुए और
संसार के
बाहर।
आखिरी
प्रश्न:
जिसे
तू देख ले एक
बार मस्ती भरी
नजर से
तो
रजनीश--वो
उम्र भर हाथों
में अपने जाम
न ले।
ओशो, आपके शब्दों
में इतनी
मादकता क्यों
है?
क्योंकि
वे शब्द मेरे
नहीं हैं। वे
शब्द उसके
हैं। मैं तो
बांसुरी हूं, गीत उसका है;
ओंठ उसके
हैं, स्वर
उसके हैं, संगीत
उसका है। मैं
तो वीणा हूं, अंगुलियां
उसकी हैं।
उसकी
अंगुलियां न
हों तो इन
तारों में क्या
है? और
उसके ओंठ न
हों तो इस
बांस की
पोंगरी में क्या
है? मादकता
उसकी है।
परमात्मा
मादक है।
अगर
तुम्हें मेरे
पास बैठकर
मादकता का
अनुभव हो, मुझे
धन्यवाद न
देना, परमात्मा
को धन्यवाद
देना। अगर
तुम्हें मेरी
आंखों में कभी
कोई रस दिखाई
पड़े तो उसकी
याद करना--उसकी
ही याद करना!
मुझे बीच में
मत लेना।
अंबर
बरसै धरती
भीजै, यह
जानैं सब कोई
धरती
बरसै अंबर
भीजै, बूझै
बिरला कोई।
आकाश
बरसता है और
धरती भीजती है, यह तो हमने
देखा; लेकिन
धरती भी बरसती
है और आकाश
भीजता है, यह
हमने नहीं
देखा, यह
कोई बिरला देख
पाता है। इसे
देखने के लिए
बड़ी गहरी आंख
चाहिए। यह तो
हमने देखा कि
लोग बोलते
हैं। इसे
देखने में कुछ
अड़चन नहीं है।
यह तो
सीधी-सीधी बात
है। लेकिन
कभी-कभी ऐसा
होता है कि
बोलनेवाला
चुप होता है
और जो
पारलौकिक है
वही उससे बहता
है।
मैं
तो चुप हूं।
तुम्हें मैं
बोलता दिखाई
पड़ रहा हूं, मैं चुप
हूं। मैं चुप
हूं, इसीलिए
मेरे भीतर से
कुछ बोला जा
रहा है। वह मेरा
नहीं है।
मादकता है तो
उसकी है। कुछ
भूल-चूक हो
जाती हो, मेरी
समझना; कुछ
ठीक-ठाक हाथ
पड़ जाता हो, उसका मानना।
तम
का दिग्जाल
तोड़
निकल
रहा तू किशोर
सूर्य-सा
ललाट पर
प्राची
के
ग्रीष्म-घोर
किरणों
के झोंकों से
आज
खुला
द्वार-द्वार!
ज्योतिर्मय, नमस्कार!
छंदों
के बंध खुले,
गीतों
के प्राण
धुले!
सातों
स्वर-मंडल में
सातों
ही रंग घुले!
वाणी
की वीणा का
कांप
रहा तारत्तार!
दिनेश!
यह तार मेरे
हैं, मगर जो इन्हें
कंपा रहा है, उसको देखो।
इन आंखों से न
देख सकोगे। इन
आंखों को बंद
करो तो भीतर
की आंख खुले।
इन हाथों से उसे
न छू सकोगे।
इन हाथों को
भूल जाओ तो
भीतर हाथ हैं
जिनसे छू
सकोगे।
प्रत्येक
इंद्रिय
दोहरी है, आंख बाहर ही
नहीं देखती, भीतर भी देख
सकती है। कान
बाहर ही नहीं
सुनते, भीतर
भी सुन सकते
हैं। और जब
तुम्हारी
भीतर की
इंद्रियां
सजग हो उठेंगी
तो तुम
पहचानोगे--क्यों
मादकता है, क्यों
उपनिषदों में
इतना रस है, क्यों इतना
काव्य है
कुरान में? मुहम्मद का
कुछ हाथ नहीं।
वही उतरा है।
कुरान में जो
रसधार बही है,
वह आकाश से
उतरी है।
स्वर्गिक
सपनों के रथ
पर चढ़
नव
जीवन का स्वर
भर अनंत,
सौंदर्य-शिखाओं
को मुखरित--
कर
सौरभ भर लाया
बसंत!
देखते
हो, जब बसंत
आता है, अचानक
हरे वृक्ष लाल
फूलों से भर
जाते हैं! चमत्कार
हो जाता है।
कहां हरे
वृक्ष, कहां
लाल फूलों का
जन्म हो जाता
है! हरियाली
में लाली उग
आती है! देखा
बसंत का आगमन!
मगर उसकी
पगध्वनि तो
सुनाई नहीं
पड़ती। किसी ने
बसंत की
पगध्वनि सुनी?
हां, फूलों
की चटक सुनाई
पड़ती है, बसंत
की पगध्वनि तो
सुनाई नहीं
पड़ती। बसंत को
देखा कभी? आ-आकर
फूल खिला जाता
है, लेकिन
उसके हाथों का
कुछ दर्शन
नहीं होता।
बसंत सूक्ष्म
है।
ऐसा
ही परमात्मा
का आगमन है।
आता है और
किसी मनुष्य
को छू देता
है। और मिट्टी
सोना हो जाती है।
और बांसुरी
में प्राण आ
जाते हैं। और
वीणा के तार
कंपने लगते
हैं।
स्वर्गिक
सपनों के रथ
पर चढ़,
नव
जीवन का स्वर
भर अनंत,
सौंदर्य-शिखाओं
को मुखरित--
कर
सौरभ भर लाया
बसंत!
कोमल
कलियों के
अंतर में
भर-स्नेह-प्राण
से नवल रंग,
अलियों
से चुप-चुप
आंख बचा
आकुल
मन से पी मधुर
भंग!
गा
प्रणय-गान, भर नव
प्रवाह
जड़-चेतन
का कर अधर लाल,
आया
बसंत दिशि, बन, गृह, पथ
को
चित्रित कर, बिखरा
गुलाल!
कोमल
किसलय का मृदु
शैशव
फूलों
का यौवन
हिल्लोलित,
इच्छाओं
का साम्राज्य
मूक
लाया
बसंत भर कर
अतुलित!
दिनेश!
बसंत को देखो!
फूल में ही मत
उलझ जाना। फूल
के ही पास खड़ा
है बसंत। बसंत
को देखो। उसने
चमत्कार कर
दिया है। हरे
वृक्ष में लाल
फूल आ गया--और
भी चमत्कार हो
रहा है। फूल
स्थूल है, फूल से
सूक्ष्म
सुवास उठ रही
है। फूल जमीन
के गुरुत्वाकर्षण
से भरा है, लेकिन
सुवास जमीन के
गुरुत्वाकर्षण
से मुक्त है।
फूल गिरेगा तो
जमीन की तरफ
गिरेगा। सुवास
आकाश की तरफ
गिर रही है।
चमत्कार हो
रहा है। मगर
इस अदृश्य
बसंत को देखो।
और
ऐसा ही घटता
है। किसी
तिलोपा के पास, किसी सरहपा
के पास
परमात्मा आकर
खड़ा हो जाता है।
मगर तुम्हें
वीणा बजती
दिखाई पड़ती है,
तुम्हें
उसकी
अंगुलियां
दिखाई नहीं
पड़तीं।
प्रेम
को कभी देखा
है? लेकिन
जिसके ऊपर
प्रेम की
वर्षा हो जाती
वह दिखाई पड़ता
है, उसकी
चाल बदल जाती
है, उसका
रंग-ढंग बदल जाता
है, उसकी
जीवन-शैली बदल
जाती हैं; उसकी
आंखें, जो
कल बिलकुल
धूमिल थीं, एकदम
ज्योतिर्मय
हो जाती हैं।
कल उसके पैर
ऐसे थे जैसे
जंजीरें बंधी
हों, आज
ऐसे जैसे
घूंघर!
नयनों
की भाषा में, जाने क्या
गा गयीं।
यूं
तो थी अमां
निशा, दीप
तुम जला
गयीं।।
मदमाते
यौवन की
रतनारी आंखों
में,
श्यामल
अलकों की
घनी-घनी छावों
में।
बहियां
भर...
अंखियां
भर...
दर्द
दुलरा गयीं।।
जाने
क्या गा
गयीं।।
कंगना
की खन खन से, वातायन गूंज
उठा,
नूपुर
के द्रुतरव से, गीतों का
बोल उठा।
मुग्ध
मगन...
चकित
नयन...
मुझको
तुम भा गयीं।।
जाने
क्या गा गयीं।।
संवरे-से
बालों का, बेना कुछ
बोल उठा,
कानों
के झुमकों का, हर मोती डोल
उठा।
चितवन
से...
मधुवन
में...
मधु
ढरका गयीं।।
जाने
क्या गा
गयीं।।
प्रेमी
को क्या हो
जाता है, कौन-सा
मधुकलश उस पर
उंडल जाता है!
किसी को दिखाई
नहीं पड़ता कि
प्रेम का राजा
आया, मिट्टी
को सोना कर
गया। और यह तो
लौकिक घटना
है। जब वह परम
सम्राट आता है
किसी के पास, किसी के
ध्यान में
गुंजरित होने
लगता है, तो
खूब शराब बहती
है!
मादकता
मेरे शब्दों
में मेरी नहीं
है। वे शब्द
मेरे नहीं
हैं--इसीलिए
मादकता है!
आज
इतना ही।
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