दिनांक 17 सितम्बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
सारसूत्र :
बनत
बनत बनि जाई, पड़ा रहै संत के द्वारे।।
तन
मन धन सब अरपन कै कै, धका धनी के खाय।
मुरदा
होय टरै नहिं टारै, लाख कहै समुझाय।
स्वान-बिरति
पावै सोई खावै, रहै चरन लौ लाय।
पलटूदास
काम बनि जावै, इतने पर ठहराय।।
मितऊ
देहला न जगाए, निंदिया बैरिन भैली।।
की
तो जागै रोगी, की चाकर की चोर।
की
तो जागै संत बिरहिया, भजन गुरु कै होय।।
स्वारथ
लाय सभै मिलि जागैं, बिन स्वारथ न कोय।
पर
स्वारथ को वह नर जागै, किरपा गुरु की होय।।
जागे
से परलोक बनतु है, सोए बड़ दुख होय।
को
खोलै कपट-किवरिया हो, बिन सतगुरु साहिब।।
नैहर
में कछु गुन नहिं सीख्यो, ससुरे में भई फुहरिया हो।।
अपने
मन की कुलवंती, छुए न पावै गगरिया हो।।
पांच
पचीस रहै घट भीतर, कौन बतावै डगरिया हो।।
पलटूदास
छोड़ि कुल जतिया, सतगुरु मिले संघतिया हो।।
साहिब
से परदा न कीजै, भरि-भरि नैन निरखि लीजै।।
नाचै
चली घूंघट क्यों काढ़ै, मुख से अंचल टारि दीजै।।
सती
होय का सगुन बिचारै, कहि के माहुर क्या पीजै।।
लोक-बेद
तन-मन की डर है, प्रेम-रंग में क्या भीजै।।
पलटूदास
होय मरजीवा, लेहि रतन नहिं तन छीजै।।
पूरा
शहर उदास है, हम किस तरह हंसें
मौसम भी बदहवास है, हम किस तरह हंसें
सदियों से उठ रहा था यहां एक जलजला
अब दिल के आस-पास है, हम किस तरह हंसें
जिसने जला दिया है चमन, आशियां, सहन
उसकी हमें तलाश है, हम किस तरह हंसें
वह कौन मर गया है सरेआम इस तरह
सड़कों पर पड़ी लाश है, हम किस तरह हंसें
दहशत से भर गया है यह ताजा खिला गुलाब
सहमा हुआ पलाश है, हम किस तरह हंसें
फिर से उगा है चांद किसी जख्म की तरह
बिलकुल वही तराश है, हम किस तरह हंसें
पूरा शहर उदास है, हम किस तरह हंसें
मौसम भी बदहवास है, हम किस तरह हंसें
संसार उदास है। लाख लोग मुखौटे लगा
लें हंसी के, आंसू छिपाए छिपते नहीं हैं। लाख आभूषण पहन लें
सौंदर्य के, हृदय घावों से भरा है। इस संसार में कांटे ही
कांटे हैं। फूल तो केवल वे ही देख पाते हैं जो स्वयं फूल बन जाते हैं। इस संसार
में कांटे ही कांटे हैं, क्योंकि हम अभी कांटे हैं। जैसी
दृष्टि वैसी सृष्टि। तुम्हें वही मिलता है जो तुम हो। उससे ज्यादा मिलना असंभव है।
तुम्हारी पात्रता के अनुकूल मिलता है। तुम्हारे पात्र अभी आंसू ही सम्हाल सकते
हैं। इसलिए अमृत की आकांक्षा भला करो, आकांक्षा कोरी की कोरी
रह जाएगी। अमृत पाने के लिए अपने पात्र को निखारना होगा, साफ
करना होगा, अमृत के योग्य बनाना होगा।
प्रभु को तो पुकारते हो, मगर उस अतिथि के लिए बिठाओगे कहां? घर में कोई उसके
बिठाने योग्य सिंहासन भी तो नहीं है। वह द्वार पर आकर खड़ा हो जाएगा तो और भी
तड़पोगे। कहोगे: आज ही घर में बोरिया न हुआ! सिंहासन तो दूर, बिछाने
के लिए बोरिया भी नहीं होगा।
परमात्मा को पुकारना हो तो पुकार के
पहले हृदय की एक तैयारी चाहिए; हृदय में एक धार चाहिए, निखार चाहिए। हृदय में एक उत्सव चाहिए, वसंत चाहिए।
हृदय गुनगुनाता हुआ हो, प्राण नाचते हुए हों। सारे
द्वार-दरवाजे खुले हों कि आएं सूरज की किरणें और नाचें, कि
हो बरसा की बूंदाबांदी, कि आए पवन।
प्रकृति के लिए खुलो तो परमात्मा के
लिए खुल सकोगे, क्योंकि परमात्मा प्रकृति में ही छिपा है। प्रकृति
उसका ही आवरण है, उसका ही घूंघट है। लेकिन हम प्रकृति के लिए
भी बंद हैं और परमात्मा के लिए भी बंद हैं। हम प्रेम के लिए ही बंद हैं, इसलिए हमारी सारी प्रार्थनाएं झूठी हो जाती हैं। हम करते हैं प्रार्थना
मंदिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे में,
गिरजे में--पर सब झूठा, दिखावा, औपचारिक, तोतों की तरह सिखाए गए शब्द। तुम्हारे हृदय
से नहीं उठती है तुम्हारी प्रार्थना। तुम्हारे प्राणों की अभिव्यक्ति नहीं है
उसमें। और जिसमें तुम्हारे प्राण समाहित न हों वह प्रार्थना परमात्मा तक नहीं
पहुंचेगी--नहीं कभी पहुंची है, नहीं कभी पहुंच सकती है। जिस
प्रार्थना में तुम्हारे प्राण ढल जाते हैं, उसे पंख मिल जाते
हैं।
लेकिन हमने एक थोथा संसार बसा रखा है।
भीतर रोते रहते हैं, बाहर हंसते रहते हैं। भीतर घाव हैं, बाहर फूल सजा लिए हैं। भीतर दुर्गंध उठती है, ऊपर से
इत्र छिड़क लेते हैं। दूसरों को धोखा हो जाए भला, तुम खुद
कैसे धोखा खा जाते हो, यह आश्चर्य है। दूसरे तुम्हारे आंसू न
देख पाएं और तुम्हारी मुस्कुराहटों पर भरोसा कर लें, लेकिन
तुम कैसे अपनी मुस्कुराहटों पर भरोसा कर लेते हो?
लेकिन लोगों ने भरोसा कर लिया है। जब
दूसरे तुम पर भरोसा कर लेते हैं तो तुम सोचते हो: जब इतने लोग भरोसा करते हैं तो
बात ठीक ही होगी। तुम अपने चेहरे को सीधा जानने का उपाय ही नहीं जानते; दर्पण में देखते हो। दर्पण में देख कर मुस्कुराते हो। दर्पण बेचारा क्या
करे? तुम मुस्कुराते हो तो मुस्कुराती छवि दिखा देता है।
दर्पण में मुस्कुरा कर तुम सोच लेते हो कि बड़े खुश हो।
दूसरों की आंखें बस दर्पण हैं। और
दूसरों को पड़ी भी क्या कि तुम्हारे अंतस को कुरेदें! अपने ही आंसू तो सम्हलते नहीं
हैं, तुम्हारे आंसुओं की झंझट और कौन ले! इसलिए हमने एक
शिष्टाचार का जगत बनाया है, जहां दुखों को हम दबाते हैं और
झूठे सुखों को प्रकट करते हैं। शिष्टाचार का इतना ही अर्थ है कि दूसरे वैसे ही
दुखी हैं, अब अपना दुख उन्हें और क्या दिखाना! अपना दुख
छिपाओ। झूठे मुस्कुराओ। झूठ के फूल खिलाओ। यही दूसरे कर रहे हैं; वे भी अपना दुख छिपा रहे हैं और झूठे फूल खिला रहे हैं। इससे एक बड़ी
भ्रांति पैदा हुई है: सभी लोग मुस्कुराते और आनंदित मालूम होते हैं! और तब एक
संदेह मन में उठता है: शायद मुझे छोड़ कर और सारे लोग आनंदित हैं। अब अपनी व्यथा भी
कहो तो किससे कहो! और व्यथा कहने से सिर्फ मूढ़ता ही पता चलेगी। जिस दुनिया में
सारे लोगों ने सुखी होने का आयोजन कर लिया है, उसमें मैं ही
नहीं कर पाया आयोजन! इससे पीड़ा होगी, हीनता होगी। इससे
अहंकार को चोट लगेगी। अच्छा यही है, चार दिन की जिंदगी है,
किसी तरह हंस कर गुजार दो। मत रोओ। मत कहो किसी से अपनी पीड़ा।
और इस झूठ में जीना संसार में जीना
है। इस झूठ को तोड़ देना और सच्चे हो जाना संन्यास है। संन्यास जंगल भाग जाना नहीं
है। संन्यास है प्रामाणिक हो जाना; जैसे हो वैसे ही।
नहीं कोई आवरण, नहीं कोई आभूषण, नहीं
कोई मुखौटे। झूठ के सारे परिधान उतार देना संन्यास है। जैसे हो--नग्न! जैसे भी
हो--बुरे-भले, दुखी-पीड़ित, निष्कपट भाव
से अपने को वैसा ही प्रकट कर देना। और एक क्रांति शुरू हो जाती है--एक अदभुत
क्रांति! क्योंकि जिन चीजों को हम छिपाते हैं, वे बच जाती
हैं।
यह जीवन का शाश्वत नियम है: जिन्हें
हम छिपाते हैं वे बच जाती हैं और जिन्हें हम प्रकट कर देते हैं वे कपूर की तरह उड़
जाती हैं। आंसुओं को दबाओगे, छाती में भरे रह जाएंगे।
धीरे-धीरे तुम्हारी छाती सिर्फ आंसुओं ही आंसुओं से भर जाएगी। तुम्हारे पास आत्मा
नहीं बचेगी, आंसुओं का एक अंबार बचेगा। बह जाने दो आंसुओं को
आंखों से; उड़ जाएंगे; और तुम आंसुओं से
मुक्त और तुम आंसुओं से रिक्त पीछे छूट जाओगे। आंसुओं के हटते ही, आंसुओं के जाते ही, आंसुओं के बहते ही--आंखें स्वच्छ
और निर्मल हो जाएंगी।
लेकिन अब तक मनुष्य ने एक झूठा
व्यवहार आरोपित किया है। और उस झूठ के कारण करोड़ों लोग आनंद से वंचित हैं। और धर्म
के नाम पर भी वही झूठ चलता है; और भी ज्यादा चलता है। अधार्मिक
आदमी में तो थोड़ी प्रामाणिकता भी होती है; धार्मिक आदमी में
उतनी प्रामाणिकता भी नहीं होती। वह सांसारिक झूठ ही नहीं बोलता, आध्यात्मिक झूठ भी बोलता है।
तुमसे कोई पूछता है, ईश्वर है? और तुम कहते हो, हां
है। न तुमने जाना, न तुमने देखा, न
तुमने पहचाना और तुम कह देते हो--है! तुम आध्यात्मिक झूठ बोल रहे हो। सांसारिक झूठ
क्षम्य हैं; आध्यात्मिक झूठ क्षम्य भी नहीं। यह तो झूठ की
पराकाष्ठा हो गई। तुमने परमात्मा को भी अपने झूठ से न बचने दिया! या कि हो सकता है
तुम कहो--नहीं है। तब भी तुम झूठ बोल रहे हो। क्या तुमने खोजा और पाया कि नहीं है?
क्या तुमने खोज लिए अस्तित्व के सारे आयाम और पाया कि परमात्मा नहीं
है? नहीं, तुमने खोजे नहीं सारे आयाम।
यहां माक्र्स भी झूठा है, जो कहता है--ईश्वर नहीं है। क्योंकि न कभी ध्यान किया, न कभी प्रार्थना की। किस बलबूते पर माक्र्स कहता है कि ईश्वर नहीं है?
सिर्फ तर्क के आधार पर। तर्क से ईश्वर का क्या लेना-देना है?
तर्क तो वेश्या है, किसी के भी साथ हो लेता
है। और तर्क तो बड़ा चालबाज है। तर्क तो वकील है। जो भी तर्क को समझा ले, बुझा ले, उसके साथ हो लेता है। और तर्क तो बड़े
रास्ते निकाल लेता है। माक्र्स केवल तार्किक अर्थों में कह रहा है कि ईश्वर नहीं
है, क्योंकि तर्क से ईश्वर सिद्ध नहीं होता।
और महात्मा गांधी में भी कुछ भेद नहीं
है; उन्होंने भी ध्यान नहीं किया है। और जिसको वे प्रार्थना कहते थे, प्रार्थना नहीं है, केवल तोतारटंत है। लाख दोहराओ:
अल्ला-ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान। तुम्हारे
दोहराने से कुछ भी नहीं होगा। काश, इतना आसान होता! ईश्वर को
नहीं जाना है; वह भी तर्क से ही माना है। तर्क--कि जब इतना
विराट जगत है तो कोई बनाने वाला होगा। यह भी तर्क है। और माक्र्स कहता है कि अगर
इस जगत को बनाने वाला कोई है तो फिर उसको भी बनाने वाले की जरूरत होगी।
ऐसे तो अंत ही न आएगा। जगत को
परमात्मा ने बनाया, और उसको किसी और परमात्मा ने बनाया, और उसको किसी और परमात्मा ने बनाया--अंत कहां होगा? जहां
भी रुकना चाहेंगे, सवाल उठेगा: इसको किसने बनाया? तो इतनी व्यर्थ की यात्रा पर क्यों जाना, सीधी बात
क्यों स्वीकार नहीं करते कि जगत अनबना है, किसी ने बनाया
नहीं? यह भी तर्क है। तर्क के बड़े जाल हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन से उसका मित्र
चंदूलाल कह रहा था कि नसरुद्दीन, हद हो गई! जो मैंने सुना,
भरोसा तो नहीं आया लेकिन भरोसा करना पड़ता है, क्योंकि
विश्वस्त सूत्रों से सुना कि कल रात तुम ट्रेन में पकड़े गए एक बिलकुल पूर्ण अजनबी
स्त्री से प्रेम करते हुए।
नसरुद्दीन ने कहा, यह सरासर झूठ है! इस संसार में कोई भी पूर्ण नहीं है।
तर्क देखते हो! बचने का उपाय देखते
हो! कैसा दामन को बचा कर निकल गया। तर्क से वही सिद्ध हो सकता है, वही असिद्ध हो सकता है; इसलिए तर्क का भरोसा न करना।
ईश्वर को खोजना होता है अनुभव से। और
अनुभव केवल उन्हें ही मिल सकता है जो अपने जीवन से सारे झूठों के जाल छोड़ दें। झूठ
के जाल में अनुभव की मछली न कभी फंसी है, न कभी फंसती है। और
सत्य का कोई जाल नहीं होता और अनुभव की मछली अपने आप चली आती है। सत्य का एक
आकर्षण है। सत्य का एक अदम्य चुंबकीय आकर्षण है। सत्य का कोई जाल नहीं होता;
सिर्फ महिमा होती है, प्रसाद होता है, गरिमा होती है, प्रकाश होता है। सत्य की किरणें खींच
लाती हैं परमात्मा को तुम्हारे पास।
पहला पाठ धर्म का है कि अपने जीवन से
पाखंड तोड़ो। और यही बात तथाकथित धार्मिकों को सबसे ज्यादा कठिन मालूम पड़ती है, क्योंकि उनका जीवन तो पूरा का पूरा पाखंड है। पाखंड का अर्थ है: जो तुम
नहीं जानते हो वह जबरदस्ती अपने पर थोपे जा रहे हो।
सच्चा धार्मिक खोजी शून्य से शुरू
करता है और पूर्ण पर पहुंच जाता है। शून्य से शुरू करो यात्रा; विश्वास से नहीं, शून्य से। न आस्तिक, न नास्तिक; न हिंदू, न मुसलमान;
न ईसाई, न जैन; न बौद्ध,
न पारसी--शून्य से शुरू करो यात्रा। न भारतीय, न पाकिस्तानी; न चीनी, न
जापानी--शून्य से करो यात्रा। न गोरे, न काले; न स्त्री, न पुरुष--शून्य से करो यात्रा। न आस्तिक,
न नास्तिक। सारी धारणाओं को हटा दो, चित्त को
धारणाओं से मुक्त कर लो, क्योंकि सभी धारणाएं उधार हैं। और
जो भी उधार है, उससे नगद परमात्मा नहीं पाया जा सकता।
परमात्मा नगद है; तुम्हारा ज्ञान उधार है। अगर तुम अपनी सारी धारणाओं को हटा सको और अपने
हृदय के पात्र को शून्य बना सको--उसी को मैं पात्र की तैयारी कह रहा हूं--तो
तुम्हारे भीतर का आकाश परमात्मा को झेलने को राजी हो जाएगा, योग्य
हो जाएगा। परमात्मा को तो पुकारते हो, लेकिन तुम तैयार नहीं
हो; परमात्मा आना भी चाहे तो कैसे आए?
जीवन में कोई मिलके बिछड़ जाए तो क्या
हो
विश्वास का उद्यान उजड़ जाए तो क्या हो
छोटी सी लहर से ही विचारों के भंवर
में
संदेह का तूफान उमड़ जाए तो क्या हो
इज्जत से शुरू होके जो पैसे पे खतम हो
उस दौड़ में इनसान पिछड़ जाए तो क्या हो
सड़कों ने जो देखी हो दीवारों ने सुनी
हो
वह बात हर एक कान में पड़ जाए तो क्या
हो
आंगन में बुढ़ापे के जो बचपन से पली हो
वह उम्र बिना पंख के उड़ जाए तो क्या
हो
जो भूली हुई यादों के जख्मों में दबा
हो
वह
दर्द बिना बात
के बढ़ जाए
तो क्या हो
आंगन में बुढ़ापे के जो बचपन से पली
हो! तुम जिस दिन से पैदा हुए हो, उसी दिन से मर रहे हो। जागो!
सावचेत हो जाओ!
आंगन में बुढ़ापे के जो बचपन से पली हो
वह
उम्र बना पंख
के उड़ जाए
तो क्या हो
और यह उम्र उड़ ही जाएगी, बिना पंख के ही उड़ जाएगी। आज है, कल का कुछ भरोसा
नहीं। और अगर इस उम्र को तुमने धन-पद-प्रतिष्ठा को ही पाने में लगा दिया, तो तुमने प्रमाण दिया कि तुम्हारे भीतर प्रतिभा न थी। जहां हीरे इकट्ठे
किए जा सकते थे, वहां तुम कंकड़-पत्थर बीनते रहे--रंगीन,
रंग-बिरंगे। मगर थे वे पत्थर। जिस जीवन में श्रद्धा का जन्म हो सकता
है, उसमें तुम विश्वास ही पा सके। विश्वास यानी झूठी
श्रद्धा। शब्दकोश में तो लिखा है कि श्रद्धा और विश्वास पर्यायवाची हैं; जीवन के कोश में पर्यायवाची नहीं हैं। श्रद्धा आत्म-अनुभव है, अपनी आंखों देखी बात है। लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी
बात। और विश्वास? अपनी आंखों देखी बात नहीं है; औरों ने देखी, औरों से सुनी, तुमने
मानी। जैसे अंधा आदमी मान ले कि प्रकाश है, वह विश्वास। आंख
वाला आदमी प्रकाश पर विश्वास नहीं करता; उसकी श्रद्धा होती
है; जानता है कि है। बहरा संगीत को मान ले तो विश्वास। कान
वाले को मानना नहीं पड़ता।
पंडित-पुरोहित तुम्हें सिखाते हैं:
विश्वास करो! क्योंकि तुम अंधे रहो, यह उनके हित में है;
तुम बहरे रहो, यह उनके हित में है; तुम सोए रहो, यह उनके हित में है। तुम जाग जाओ,
यह खतरनाक है। क्योंकि जैसे ही तुम जागे, पंडित-पुरोहित
की जरूरत न रही। जैसे ही तुम जागे, परमात्मा और तुम्हारे बीच
किसी की जरूरत न रही--किसी दलाल की, किसी मध्यस्थ की। दलाल
और मध्यस्थ तभी तक जरूरी हैं जब तक तुम सोए हो, अंधे हो,
बहरे हो। पंडित-पुरोहित तुम्हारे बहरेपन पर, तुम्हारे
अंधेपन पर जी रहे हैं। उनका सारा व्यवसाय तुम्हारी बंद आंखों पर टिका है। वे
तुम्हें विश्वास देते हैं और श्रद्धा से बचाते हैं।
सदगुरु वह है जो तुम्हें श्रद्धा दे
और विश्वास से बचाए। विश्वास से बचाने का अर्थ है: जो तुम्हें जगाए इस सत्य के
प्रति कि सत्य दूसरों से नहीं मिलता है, स्वयं खोजना पड़ता है।
प्राणों को निखारना पड़ता है, अग्नि से गुजारना पड़ता है,
तब सत्य उपलब्ध होता है। सत्य ऐसा औरों से मिल जाता, इतना सस्ता होता, तो दुनिया में सभी के पास सत्य
होता। फिर कभी-कभार कोई बुद्ध न होता, बुद्ध ही बुद्ध होते।
उपनिषदों में सत्य तो लिखा है; लेकिन तुम कंठस्थ कर लो,
तुम सोचते हो तुम्हें सत्य मिल जाएगा? कुरान
में सत्य लिखा है; तुम कुरान का रोज-रोज पाठ करते रहो,
सोचते हो तुम्हें सत्य मिल जाएगा? गुरुग्रंथ
में सत्य लिखा है; तुम गुरुग्रंथ पढ़ते-पढ़ते बिलकुल शब्दशः
दोहराने में समर्थ हो जाओ, क्या तुम सोचते हो तुम्हें सत्य
मिल जाएगा?
सत्य तो अपने भीतर पहले खोजना होता
है। जो अपने भीतर देख लेता है, उसे कुरान में भी मिल जाता है और
बाइबिल में भी और धम्मपद में भी और गीता में भी और गुरुग्रंथ में भी। और जो अपने
भीतर उसे नहीं खोज पाता, वह केवल विश्वास करता है। विश्वास
दो कौड़ी का है। विश्वास की नाव में तुम जीवन के सागर से पार न हो सकोगे। यह नाव
कागज की है, क्योंकि यह नाव किताबों से बनी है, किताबें कागज से बनी हैं। तुम्हारे गुरुग्रंथ, कुरान
और गीता, सब कागज से बने हैं। उन्हीं कागजों की नाव में बैठ
कर तुम सोचते हो सागर को पार कर लोगे? डूबोगे! बुरी तरह
डूबोगे!
मैं तुम्हें डूबते देखता हूं। कोई
गीता की नाव में डूब रहा है, कोई कुरान की नाव में डूब रहा है,
कोई बाइबिल की नाव में डूब रहा है। अलग-अलग उनकी नावें हैं, लेकिन सब एक ही कागज से बनी हैं। इसलिए मुझे हिंदू में, मुसलमान में, ईसाई में कुछ भेद नहीं दिखाई पड़ता;
क्योंकि सभी कागज की नावों में डूब जाते हैं। हां, किसी की कागज की नाव पर अरबी में लिखावट है और किसी की कागज की नाव पर
हिब्रू की लिखावट है और किसी की कागज की नाव पर संस्कृत की लिखावट है। मगर ये
लिखावटें बचाएंगी तुम्हें? श्रद्धा बचाती है; विश्वास डुबा देता है।
और ध्यान रखना, विश्वास कभी भी संदेह से मुक्त नहीं होता। हर विश्वास के भीतर संदेह जलता
रहता है। जलेगा ही। सीधी बात है। तुमने मान लिया, अंधे हो और
मान लिया कि प्रकाश है। लेकिन तुम्हारे प्राण तो कहते रहेंगे: कौन जाने हो या न
हो! आखिर दूसरा सच बोलता है, इसका प्रमाण क्या? दूसरा धोखा दे रहा हो। दूसरे का कोई स्वार्थ छिपा हो। दूसरा प्रकाश की
बातें करके लूटने का आयोजन कर रहा हो मुझे। दूसरा प्रकाश की बातें सिर्फ मुझे अंधा
सिद्ध करने को कर रहा हो। इसका प्रमाण क्या है कि दूसरा बेईमान नहीं है? अपनी आंख न खुले तो संदेह बना रहेगा।
जीवन में कोई मिलके बिछड़ जाए तो क्या
हो
विश्वास का
उद्यान उजड़ जाए तो क्या
हो
और विश्वास का उद्यान उजड़ेगा ही।
उजड़ता ही है देर-अबेर। और जितनी जल्दी उजड़ जाए उतना अच्छा है, क्योंकि विश्वास का उद्यान उजड़ जाए तो शायद तुम श्रद्धा के बीज बोओ।
छोटी सी लहर से ही विचारों के भंवर
में
संदेह का तूफान उमड़ जाए तो क्या हो
मगर उमड़ता ही है। जब भी तुम विश्वास
करोगे, संदेह का तूफान उमड़ेगा। अगर तुम्हें संदेह से मुक्त
होना है तो मैं तुम्हें सीधी राह बताता हूं: विश्वास से मुक्त हो जाओ, तुम संदेह से मुक्त हो जाओगे। सारे विश्वास छोड़ दो और तुम्हारे भीतर संदेह
की लकीर भी न बचेगी।
कृष्ण ने कहा है: संशयात्मा विनश्यति।
वह जो संशय से भरा हुआ है, विनष्ट हो जाता है।
पंडित इसका अर्थ करते हैं: विश्वास
करो, संशय नहीं। और मैं इसका अर्थ करता हूं: विश्वास मत
करना, क्योंकि हर विश्वास के पीछे संशय पैदा होता है। जितने
विश्वास उतने संशय। अगर संशय से बचना हो, सारे विश्वास छोड़
दो, फिर कैसे संशय पैदा होगा? संशय के
लिए आधार चाहिए। संदेह के लिए विश्वास चाहिए। यह बात तुम्हें बहुत उलटी लगेगी।
मेरी बातें तुम्हें बहुत बार उलटी लगेंगी, लेकिन अगर जरा
शांति से विचार करोगे तो तुम्हें बात बहुत साफ दिखाई पड़ जाएगी। उलटी लगती है इसलिए
कि तुम्हें सदियों तक कुछ-कुछ कहा गया है। सदियों ने तुम्हें बिगाड़ा है।
मुल्ला नसरुद्दीन पर अदालत में मुकदमा
चला। मुकदमा बड़ा हैरानी का था। उसकी पत्नी उसके ही आगे कार चला रही थी और वह अपनी
कार में पीछे आ रहा था और पत्नी से आकर पीछे से टक्कर हो गई। मजिस्ट्रेट ने कहा, नसरुद्दीन, किसी और से भी टकराते तो ठीक था, अपनी ही पत्नी पर तो दया करते! और तुम्हारी पत्नी कहती है कि उसने हाथ
दिखाया था कि वह बाएं मुड़ना चाहती है। फिर भी तुम समझे नहीं?
नसरुद्दीन ने कहा, उसी हाथ की वजह से तो यह मुकदमा हुआ। न वह हाथ दिखाती, न झंझट होती। मैं मेरी पत्नी को जानता हूं। उलटी खोपड़ी है। जब उसने बाएं
मुड़ने के लिए हाथ दिखाया तो मैं समझा कि दाएं मुड़ेगी अब। वह बाईं तरफ जो हाथ
दिखाना था वही तो दुर्घटना का कारण बना। न यह दुष्ट बाईं तरफ हाथ दिखाती, न मैं धोखे में आता। इसे मैं भलीभांति जानता हूं। बीस वर्षों का सत्संग चल
रहा है इससे। यह पहला मौका है कि इसने बाईं तरफ हाथ दिखाया और बाईं तरफ मुड़ी।
सदियों से तुम्हें एक पाठ सिखाया जा
रहा है। तुम्हारे खून में मिल गया है, तुम्हारी हड्डियों
में समा गया है--विश्वास करो! क्योंकि विश्वास से तुम संदेह से मुक्त हो जाओगे।
इससे बड़ा झूठ दुनिया में दूसरा नहीं
है। विश्वास तो तुम कर रहे हो, संदेह से कहां मुक्त हुए हो?
हर विश्वास संदेह ले आता है। जितने विश्वास उतने ज्यादा संदेह,
क्योंकि एक विश्वास और दस संदेह ले आता है।
जिस आदमी ने ईश्वर पर विश्वास नहीं
किया, क्या ईश्वर पर संदेह कर सकता है? जिस आदमी ने आत्मा पर विश्वास नहीं किया, क्या आत्मा
पर संदेह कर सकता है? संदेह का पहला चरण है विश्वास। पहले
विश्वास करो, फिर संदेह हो सकता है।
मैं कृष्ण से राजी हूं: संशयात्मा
निश्चित विनष्ट हो जाता है। लेकिन संशय को कैसे विनष्ट करें? विश्वास से संशय विनष्ट नहीं होता। विश्वास को जाने दो और उसके साथ ही
संशय की छाया भी चली जाती है। संशय विश्वास की छाया है। न संशय है, न विश्वास--उस अवस्था को मैं शून्य कह रहा हूं। उस अवस्था को मैं ध्यान
कहता हूं--जब तुम्हारे भीतर न विश्वास है, न संशय है;
जब तुम कहते हो, अभी मैं जानता ही नहीं तो
कैसे निर्णय लूं? पक्ष में या विपक्ष में कैसे कुछ कहूं?
अभी मैं चुप ही रहूंगा, कुछ न कहूंगा। अभी मैं
हाथ खाली रखूंगा, कुछ भी न पकडूंगा। जब तक मैं न जान लूंगा,
तब तक नहीं पकडूंगा। और मजा यह है कि जो जान लेता है उसे पकड़ना नहीं
पड़ता। जो जान लिया वह तुम्हारा हो जाता है; तुम पकड़ो,
न पकड़ो, सवाल ही नहीं उठता। जो जान लिया वह
तुम्हारे प्राणों का अंग हो जाता है। उस जानने को मैं श्रद्धा कहता हूं।
श्रद्धा आत्मबोध है। विश्वास दूसरों
के द्वारा सिखाई गई बात है।
इस दुनिया में बहुत संदेह है, क्योंकि इस दुनिया में पंडित-पुरोहितों ने बहुत विश्वास फैलाया है। सदगुरु
वह है जो तुम्हें विश्वास से मुक्त कर दे, संशय से मुक्त कर
दे और तुम्हारे भीतर प्राणों में एक ऐसी अभीप्सा जगा दे कि सत्य को जानना है! मुझे
जानना है! स्वयं जानना है!
बुद्ध ने कहा है: अप्प दीपो भव! अपने
दीये स्वयं बनो।
तुमने अभी जो बनाया है, जो घर, बड़ा झूठा है।
रेत की छत है और पानी की दीवारें हैं।
कितने मजबूत बने आशियां हमारे हैं।
एक गुमशुदगी की वीरानी है घेरे हमको,
हम हैं महफूज कि इतने बड़े सहारे हैं।
पीठ पर बेंत के निशां हैं, पांव में छाले,
जिस्म तनता है और घाव इतने सारे हैं।
रोशनी के इस किले पर हमें है नाज बहुत,
जिसकी दीवार में पड़ने लगी दरारें हैं।
दिल की बस्ती में ठहरते नहीं हैं दो
दिन भी,
ख्वाब की शक्ल में कुछ घूमते बनजारे
हैं।
रेत की छत है और पानी की दीवारें हैं।
कितने मजबूत बने आशियां हमारे हैं।
जरा गौर तो करो, तुमने कैसे घर बनाए हैं रहने के लिए!
रेत की छत है और पानी की दीवारें हैं।
कितने मजबूत बने आशियां हमारे हैं।
फिर अगर तुम्हारा जीवन व्यर्थ हो जाए
तो आश्चर्य तो नहीं है। मृत्यु आए और तुम्हें खाली हाथ पाए तो कुछ आश्चर्य तो नहीं
है। मृत्यु आए और फिर तुम पछताओ...लेकिन पछताने से क्या होगा? फिर तो समय नहीं बचा। और जो भूलें तुमने इस जीवन में दोहराई हैं, वही भूलें तुम अगले जीवन में दोहराओगे, क्योंकि
बार-बार दोहराने से भूलों को दोहराने की आदत हो गई है।
अभी जागो! और जागने का एक ही उपाय है:
किसी जागे हुए के साथ प्रेम कर लो; किसी जागे हुए के साथ
मुहब्बत कर लो; किसी जागे हुए का हाथ पकड़ लो।
पलटू के सूत्र: बनत बनत बनि जाई, पड़ा रहै संत के द्वारे।
जो जाग गया है उसके द्वार को मत छोड़ना, तो बनते-बनते बात बन ही जाएगी। देर भला लगे, अंधेर
नहीं है। और देर भी लगती है तो तुम्हारे कारण लगती है, क्योंकि
तुम अपने कूड़ा-करकट को बड़ी मुश्किल से छोड़ते हो। छूटते-छूटते ही छूट पाता है।
बचा-बचा लेते हो। एक दरवाजे से फेंकते हो, दूसरे दरवाजे से
भीतर ले आते हो।
बनत बनत बनि जाई, पड़ा रहै संत के द्वारे।
प्यारा सूत्र है! पलटू कहते हैं, बनते-बनते बात बन जाती है। एक शर्त पूरी करना: संत के द्वार पर पड़े रहना।
अगर कहीं पा जाओ कोई बुद्ध, अगर पा जाओ कहीं कोई कृष्ण,
अगर पा जाओ कहीं कोई जीसस, कोई मोहम्मद--तो
छोड़ना मत। हालांकि तुम्हारी बुद्धि छोड़ने के लिए बहुत तरह के आयोजन करेगी।
तुम्हारा तर्क बहुत तरह के संदेह, भ्रम पैदा करेगा। तुम्हारा
मन अपने को बचाने की सब चेष्टाएं करेगा, क्योंकि गुरु के
द्वार पर पड़े रहे, पड़े रहे, तो मन की
मौत निश्चित है। और जहां मन मरता है, वहीं से तुम्हारे जीवन
की शुरुआत है।
साधारणतः तो हालत उलटी है। तुम तो मन
ही से जीते हो, मन को ही जीवन मानते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन पर एक अदालत में
मुकदमा था। मजिस्ट्रेट ने पूछा, मुल्ला, तुम्हारी
उम्र कितनी है?
मुल्ला ने कहा, तीस साल।
मजिस्ट्रेट चौंका। पचास से कम नहीं
मालूम होता। उसने अपना चश्मा निकाला, चश्मा पोंछा, गौर से देखा और कहा, नसरुद्दीन, पहली तो बात यह कि जहां तक मुझे याद है, दस साल पहले
भी तुम मेरी अदालत में आए थे और तब भी तुमने कहा था तुम्हारी उम्र तीस साल है और
अभी भी तीस साल?
नसरुद्दीन ने कहा, आपके मन में एक बात है, मेरी तरफ से दो जवाब हैं।
पहला तो यह कि मैं बात का पक्का आदमी हूं, जो एक दफा कह दिया
सो कह दिया। हालांकि मैं हिंदू नहीं हूं, लेकिन बाबा
तुलसीदास में मेरा बड़ा भरोसा है: रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण
जाएं पर वचन न जाई। एक दफा वचन दे दिया सो दे दिया। अब लाख ढंग से पूछो, हमेशा तीस साल ही कहूंगा। और दूसरी बात कि सचाई भी यही है कि मेरी उम्र
तीस ही साल है। क्योंकि तीस साल में मेरी शादी हुई, उसके बाद
क्या उम्र गिनना! उसके पहले उम्र थी, उसके पहले जीवन था।
लोग तो मन की उच्छृंखलताओं को ही जीवन
समझते हैं। मन की आपाधापी को, दौड़-धूप को, वासना को, तृष्णा को, मन की
कामना को--उसे ही जीवन समझते हैं। जैसे ही जवानी जाने लगती है और मन थोड़ा शिथिल
पड़ने लगता है, लोग डरने लगते हैं कि अब मौत आई। और गुरु के
द्वार पर तो मन को एकदम ही अर्पित कर देना होता है। गुरु के द्वार पर पड़े रहने का
अर्थ है: छोड़ो मन का द्वार, पकड़ो गुरु का द्वार। संघर्ष होगा
मन में और गुरु में। तुम्हें चुनना होगा। मन को चुनोगे तो संसार को चुन लोगे;
गुरु को चुनोगे तो मोक्ष तुम्हारा है। और बनते-बनते ही बात बनती है,
जल्दी मत करना। काहे होत अधीर! अधीर मत हो जाना। यह मत कहना कि एक
दिन हो गया, दो दिन हो गए, तीन दिन हो
गए, गुरु-द्वार पर पड़ा हूं और अभी तक कुछ भी नहीं हुआ!
बनत बनत बनि जाई, पड़ा रहै संत के द्वारे।
तन मन धन सब अरपन कै कै, धका धनी के खाय।
और मुसीबत और भी है कि गुरु धक्के
मारेगा कि भागो। गुरु हजार तरह से धकाएगा कि रस्ते पर लगो। जो दुकानदार हैं वे तो
फुसलाएंगे कि टिक जाओ, यहीं रह जाओ, रात यहीं विश्राम
करो; लेकिन गुरु बहुत चोटें करेगा, तिलमिला-तिलमिला
देगा। ऐसा मारेगा कि चिनगारियां छूट जाएंगी। तोड़ेगा, जैसे
मूर्तिकार पत्थर को तोड़ता है छैनी और हथौड़े को लेकर, ऐसे
तुम्हारे अनगढ़ पत्थर को तोड़ेगा तो ही तुम्हारे भीतर मूर्ति प्रकट हो सकेगी। छिपी
है, मगर प्रकट होने के लिए बहुत सा व्यर्थ असार काटना होगा।
गुरु करुणावश कठोर होगा।
पंडित-पुरोहित तो तुम्हारे पैर
दाबेंगे, तुम्हारी खुशामद करेंगे, तुम्हारी
स्तुति करेंगे; तुम्हारी ही नहीं, तुम्हारे
मर गए बाप-दादों की भी! तुम अगर प्रयाग जाओ तो तुम वहां पंडों के पास खाते-बही
पाओगे, जिनमें तुम्हारे बाप और बाप के बाप और उनके बाप के
बाप, उन सब की प्रशंसाएं लिखी हैं। वे सब तुम्हारे अहंकार पर
मक्खन लगा रहे हैं। उसी लिए खाते-बही सम्हाल कर रखे गए हैं। बाप-दादे तो मर गए,
मगर उनके नाम सम्हाल कर रखे गए हैं, क्योंकि
तुम भी उसी सिलसिले के हिस्से हो। तुम्हारे पिता की प्रशंसा, और पंडा बढ़ा कर कहेगा कि आए थे तो इतना दान किया--सोना चढ़ाया, चांदी चढ़ाई, इतना धन चढ़ाया! वह तुम्हें फुला रहा है।
वह तुम्हारे अहंकार में हवा भर रहा है। वह तुम्हारा गुब्बारा बड़ा कर रहा है। वह यह
कह रहा है: जितना हो चढ़ा जाओ, अपने बाप से पीछे थोड़े ही
रहोगे! इज्जत का सवाल है। यह तुम्हारी कुल-मर्यादा है। वह तुम्हें लूटने का इंतजाम
कर रहा है। वह बड़ी सेवा करेगा। सब तरह से तुम्हारी स्तुति करेगा, सब तरह से तुम्हारे पुण्य का गुणगान करेगा। कहेगा कि आए हो तीर्थ में,
यह सभी को उपलब्ध नहीं होता; यह तो सिर्फ
पुण्यात्माओं को...।
लेकिन गुरु के पास जाओगे तो न तो
तुम्हारे बाप-दादों की प्रशंसा करेगा...उलटे ऐसी चोटें करेगा कि तुम भी पिटोगे, तुम्हारे मुर्दा बाप-दादे भी पिटेंगे। वह तुम्हें भी कहेगा कि तुम अज्ञानी
हो और तुम्हारे बाप-दादे भी अज्ञानी थे। वे भी यूं ही मर गए व्यर्थ, तुम भी न मर जाना! वह तुम्हारी खुशामद नहीं करेगा। वह तुम्हें तोड़ेगा। वह
तुम पर चोट करेगा।
ठीक कहते हैं पलटू: तुम तो दोगे अपना
तन-मन-धन, सब अर्पण कर दोगे और गुरु की तरफ से केवल मिलेंगे
धक्के। मगर घबड़ाना मत, धनी के धक्के खाना बेहतर है। निर्धन
की प्रशंसा किस काम की? भिखमंगे तो तुम्हारी प्रशंसा करेंगे
ही, क्योंकि प्रशंसा के द्वारा ही तुम्हें लूटा जा सकता है।
भिखमंगे देखते कैसी प्रशंसा करते हैं--कि हे दाता! कहां जा रहे हो? मेरी तरफ देखो! तुम जैसा दानी और बिना दिए चला जाए!
भिखमंगे तुम्हें बीच बाजार में पकड़
लेते हैं, जहां अपनी इज्जत बचाने की तुम्हें फिक्र हो जाती है
पैदा कि अगर दो पैसे न दो तो लोग क्या समझेंगे कि महाकंजूस! अकेले जाते हो तो
भिखमंगा तुम्हें नहीं पकड़ता, लेकिन अगर चार आदमियों के साथ
हो, एकदम पैरों से लिपट जाता है--कि हे दाता, यह अवसर न चूको! कर लो लाभ! कमा लो पुण्य! परलोक में काम आएगा। यहां दोगे
एक, वहां करोड़ पाओगे। चार आदमियों को देख कर तुम्हें देना
पड़ता है। भिखमंगे को तुम नहीं देते, उन चार आदमियों की
उपस्थिति को देते हो। बीच बाजार में पकड़ लेता है, प्रतिष्ठा
का सवाल खड़ा हो जाता है। भिखमंगा भी मौके देखता है। सुबह भीख मांगने निकलता है,
शाम को नहीं। क्योंकि शाम को तो तुम इतने कुटे-पिटे लौटते हो घर कि
आशा तुमसे रखनी मुश्किल है कि तुम भिखमंगे को कुछ दोगे। उलटे टूट पड़ो उस पर,
या उसी की थैली में से कुछ छीन लो, या झपट्टा
मार कर उसका भिक्षापात्र ले लो कि भाग यहां से! शाम को भिखमंगा नहीं आता; जानता है कि तुम काफी कुट-पिट गए। दिन भर बाजार में पिटे हो, अब यह कोई मांगने का वक्त नहीं। सुबह-सुबह आता है। ताजेत्ताजे, रात भर सोए हुए, मधुर स्वप्नों से जागे हुए, अभी आशा की जा सकती है कि शायद तुम्हें फुसलाया जा सके।
भिखमंगा तुम्हारी प्रशंसा करेगा। ठीक
इससे उलटी हालत धनी की है। और धनी किसको कहते हैं पलटू? जिसने परम धन पा लिया, जिसने प्रभु पा लिया, वही धनी है। वही धन्यभागी है।
धका धनी के खाय।
वह बहुत धकाएगा, बहुत भगाएगा कि भागो यहां से। वह सब तरह के उपाय करेगा कि तुम टिक न पाओ।
वे सब परीक्षाएं हैं। उनसे ही तुम्हारी पात्रता निर्मित होती है। वे कसौटियां हैं।
लेकिन जिसने सिर झुकाया और उठाया ही नहीं, धक्के धनी कितना
ही मारे, जो लौट-लौट आ जाता है, वही
टिक पाता है गुरु के पास।
मुरदा होय टरै नहिं टारै...
तुम तो बिलकुल मुर्दा होकर पड़ जाना, कितना ही टारे गुरु, टरना ही मत।
मुरदा होय टरै नहिं टारै, लाख कहै समुझाय।
गुरु कितना ही समझाए कि भागो, यहां क्या रखा है! तुम उसकी बातों में आना ही मत। न समझाने में आना। तुम
तो उसे देखना। तुम तो उसे पहचानना। तुम तो उसके आस-पास की रोशनी को पीना। तुम तो
उसके सत्संग का स्वाद लेना। और अगर कहीं तुम्हें सत्संग का स्वाद आ जाए तो छोड़ना
ही मत वह द्वार; मुर्दे की भांति पड़ जाना।
स्वान-बिरति पावै सोई खावै, रहै चरन लौ लाय।
जैसे स्वान की वृत्ति होती है--कुत्ते
को भगा दो, फिर लौट आता है--ऐसा ही शिष्य होना चाहिए, स्वान-वृत्ति! तुम भगा कर आ भी नहीं पाए कि वह मौजूद है। कभी-कभी तुमसे
पहले आ जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी बहुत खिलाफ
थी उसके कुत्ते के, कि इसको हटाओ यहां से। तुम मुझ पर नहीं भौंक सकते,
मगर यह मुझ पर भौंकता है। यह बरदाश्त के बाहर है। बहुत पीछे पड़ी थी
तो आखिर एक दिन नसरुद्दीन ने उसे एक बोरे में बांधा, रखा
बैलगाड़ी में और जंगल गया कि दूर-दूर छोड़ आए। फिर जाकर घने जंगल में उसको छोड़ा।
कुत्ता तो छोड़ दिया, लेकिन घर का रास्ता न मिले उसको। आखिर
अपने कुत्ते के पीछे ही आना पड़ा, क्योंकि वह जानता था कुत्ता
तो घर पहुंच ही जाएगा। और कुत्ता घर पहुंच गया।
एक आदमी बाजार में कुत्ता खरीदने गया
था। एक बड़ी कुत्तों की दुकान। पश्चिम की कहानी है, क्योंकि वहां तो
कुत्तों पर बड़ा लगाव है। आदमी आदमी में तो प्रेम करना मुश्किल हो गया है। आदमी
आदमी के बीच सारे सेतु टूट गए हैं। न पति की पत्नी से बनती है, न पत्नी की पति से बनती है; न बच्चों की मां-बाप से
बनती है, न मां-बाप की बच्चों से बनती है। मनुष्य के नाते सब
टूट गए हैं। और बिना नाते के आदमी नहीं रह सकता है। प्रेम चाहिए ही चाहिए। वह उसकी
अनिवार्य जरूरत है। जैसे श्वास चाहिए देह को, ऐसे प्रेम
चाहिए प्राण को। तो मजबूरी हो गई है। तो कुत्ते पालते हैं लोग, बिल्ली पालते हैं लोग। और जो जरा और विचित्र स्वभाव के हैं, कोई सांप भी पालते हैं। तरहत्तरह के जानवर पालते हैं।
एक आदमी बाजार में कुत्ता खरीदने गया
है। सबसे कीमती कुत्ता उसने चुना। शानदार अलसेशियन कुत्ता है। बहुत कुत्ते देखे
हैं उसने, लेकिन इतना शानदार कुत्ता नहीं देखा। उसकी ऊंचाई,
उसकी अकड़, उसका ढंग! वह दुकानदार से पूछता है
कि यह कुत्ता जैसा दिखाई पड़ता है वैसा है भी? क्योंकि दिखाई
पड़ने के धोखे में मैं बहुत आ चुका हूं। दिखता कुछ, भीतर कुछ
निकलता है। यह वफादार है?
दुकानदार ने कहा, इसकी वफादारी की आप बात ही न पूछो।
कुलीन है? नसरुद्दीन ने पूछा।
दुकानदार ने कहा, कुलीन? अगर यह बोल सकता होता तो न तो तुमसे बोलता न
मुझसे बोलता, यह इतना कुलीन है! अभिजात वर्ग से आता है। इसकी
मां भी कुलीन थी, इसका बाप भी कुलीन था। इसकी नस्ल बड़ी ऊंची
है। रही वफादारी की बात, सो आप फिक्र ही मत करो। इसको मैं कम
से कम पचास बार बेच चुका हूं, दो दिन में वापस लौट आता है।
ऐसी वफादारी है! इसकी तो आप बात ही मत करो। वफादारी की तो बात ही मत करो, वह तो दो दिन बाद आपको पता चल जाएगी।
पलटू कहते हैं: स्वान-बिरति! जैसे
स्वान की वृत्ति होती है--भगा दो, वापस लौट आता है। डंडा लेकर
दौड़ते हो, बाहर निकल जाता है; तुम भीतर
लौटे, तुम्हारे पीछे ही पीछे चला आता है। ऐसी शिष्य की
वृत्ति होनी चाहिए। गुरु तो बहुत बार डंडे लेकर दौड़ेगा। डंडे प्रत्यक्ष ही होते
हैं, ऐसा नहीं; अप्रत्यक्ष होते हैं,
सूक्ष्म होते हैं।
मैं भी तुम पर कितनी चोटें करता
हूं--तुम्हारे विश्वासों पर, तुम्हारे धर्मों पर, तुम्हारे शास्त्रों पर, तुम्हारी परंपराओं पर। जो
नासमझ हैं वे तो नाराज हो जाते हैं, वे तो दुश्मन हो जाते
हैं। जो समझदार हैं वे समझते हैं कि न तो मेरा विरोध शास्त्रों से है, न मेरा विरोध सिद्धांतों से है, न मेरा विरोध धर्मों
से है। सच तो यह है: मेरा विरोध सिर्फ तुम्हारे मन से है। और तुम्हारे मन में ये
सारी चीजें बैठी हैं--धर्म, शास्त्र, सिद्धांत--इन
सबको उखाड़ना है। ये उखड़ जाएं तो एक दिन तुम्हारे भीतर सच्चे धर्म का जन्म होगा।
नैसर्गिक, स्वाभाविक, स्फूर्त, धर्म का झरना फूटेगा। और तब तुम जान सकोगे कि तुम्हारे सारे शास्त्रों में
बस इसी का प्रतिफलन है।
मैं तुम्हें असली शास्त्र देने के लिए
तुम्हारे शास्त्रों का विरोध करता हूं। असली धर्म देने के लिए तुम्हारे धर्मों का
विरोध करता हूं। असली जीवन देने के लिए तुम्हारे अतीत का, तुम्हारी परंपराओं का विरोध करता हूं। लेकिन नासमझ तो भाग जाते हैं दुश्मन
होकर; समझदार ही टिक पाते हैं।
स्वान-बिरति पावै सोई खावै, रहै चरन लौ लाय।
मारे कितना ही गुरु, फिक्र न करे। तुम तो गुरु के चरणों में अपनी वृत्ति को लगाए रखना, अपनी लौ को लगाए रखना।
पलटूदास काम बनि जावै, इतने पर ठहराय।
उससे पहले ठहरना ही मत, जब तक काम न बन जाए। तब तक कितना ही गुरु भगाए, कितनी
ही चोटें करे, सब पी जाना--जब तक काम ही न बन जाए। और काम कब
बनेगा? जब तक कि तुम्हारे भीतर चित्त न ठहर जाए, थिर न हो जाए; चित्त की चंचलता विलीन न हो जाए;
चित्त की लहरें शांत न हो जाएं।
मितऊ देहला न जगाए, निंदिया बैरिन भैली।
जिनको तुम साधारणतः मित्र कहते हो, वे काम नहीं पड़ेंगे; वे तुम्हें जगा नहीं सकते। वे
खुद ही सोए हैं।
मितऊ देहला न जगाए...
मित्र ने नहीं जगाया।
निंदिया बैरिन भैली।
और दुश्मन नींद छाई रही, छाई रही।
इसमें मित्र का कसूर नहीं है, नाराज भी न होना। मित्र कर भी क्या सकता है? मित्र
खुद ही सोया है। वह कह भी दे कि मैं तुम्हें जगा दूंगा, वह
खुद ही नहीं जागा है, कैसे जगाएगा?
और एक मन की तरकीब समझना: मन हमेशा
उनको मित्र बनाता है, जो तुमसे नीचे हैं। मन कभी अपने से ऊपर के लोगों को
मित्र नहीं बनाता। क्यों? क्योंकि अपने ऊपर के लोगों से
मित्रता बनानी हो तो अहंकार छोड़ना पड़ता है। अपने ऊपर के लोगों से मित्रता बनानी हो
तो समर्पण करना होता है, झुकना होता है। और अहंकार झुकना
नहीं चाहता। इसलिए अहंकार हमेशा रस लेता है अपने से नीचे लोगों में। वह उनके बीच
अकड़ सकता है।
इसलिए राजनेताओं के पास तुम पाओगे
चमचे इकट्ठे होते हैं। राजाओं के पास, सम्राटों के पास
पुराने दिनों में यही चलता था, चमचे इकट्ठे हो जाते थे। वही
उनके दरबारी, वही उनके वजीर। जो जितना बड़ा चमचा उतना बड़ा
दरबारी। इन चमचों को देखना हो, तुम दिल्ली जाकर देखो। चमचे
वही हैं, राजनेता बदल जाते हैं। मगर चमचे बड़े कुशल हैं। एक
हंडिया फूट गई, वही चमचे दूसरी हंडिया में चले जाते हैं।
उन्हीं को तुम पाओगे एक प्रधानमंत्री के पास, उन्हीं को तुम
पाओगे दूसरे प्रधानमंत्री के पास। बड़े कुशल हैं। प्रधानमंत्री आते-जाते रहते हैं,
चमचे थिर हैं। जैसी टोपी नेता चाहे वैसी टोपी लगा लेते हैं। अगर
गांधीवादी है, तो शुद्ध खादी पहन कर दो अक्टूबर को चरखा लेकर
गांधी की समाधि पर चरखा तक कात लेते हैं, चाहे कते कि न कते,
चले कि न चले। कभी बाप-दादे ने चलाया हो तो चले। मगर बैठ कर,
चरखे का चक्र चला कर, थोड़ी-बहुत पोनी खराब
करके घर लौट आते हैं। अगर नेता समाजवादी है तो लाल टोपी लगा ली; अगर कम्युनिस्ट है तो लाल झंडा ले लिया। जो हो...।
मुल्ला नसरुद्दीन एक नवाब के यहां
नौकरी करता था। दोनों एक दिन भोजन पर बैठे। नवाब प्रेम करता है नसरुद्दीन को।
चमचों को कौन प्रेम नहीं करता! भिंडी की सब्जी बनी, नई-नई भिंडियां आई
थीं। नवाब ने कहा, सुंदर है, स्वादिष्ट
है। नसरुद्दीन पीछे रहता! ऐसे मौकों की तलाश में चमचे रहते हैं। नसरुद्दीन ने कहा,
स्वादिष्ट! अरे वनस्पति-शास्त्र के हिसाब से यह अमृत है। जो भिंडी
की सब्जी खाता है, हजार बरस जीता है। और उसके एक-एक बरस में
हजार दिन होते हैं। भिंडी की सब्जी, जैसे आप सम्राटों के
सम्राट ऐसे भिंडी भी सब्जियों की सम्राट है।
रसोइए ने भी यह बात सुनी, जब ऐसे गुण हैं भिंडी के, अमृत जैसे, तो उसने दूसरे दिन भी भिंडी बनाई, तीसरे दिन भी
भिंडी बनाई, वह रोज ही भिंडी बनाने लगा। सातवें दिन नवाब ने
थाली फेंक दी। उसने कहा, भिंडी-भिंडी-भिंडी! मार डालेगा?
नसरुद्दीन ने अपनी थाली और जोर से
फेंकी और उठ कर एक चपत लगा दी उस रसोइए को कि तू मालिक को मारना चाहता है दुष्ट? भिंडी जैसी सड़ीसड़ाई चीज भिखमंगे भी नहीं खाते! नाम देख--भिंडी! जहर है
जहर! तू दुश्मनों के हाथ में खेल रहा है, किसी षडयंत्र में
भागीदार है।
नवाब ने कहा, नसरुद्दीन, जहां तक मुझे याद आता है, सात दिन पहले तुमने कहा था भिंडी अमृत है।
नसरुद्दीन ने कहा, मालिक, बिलकुल ठीक याद आता है।
तो नवाब ने कहा, मैं समझा नहीं, आज एकदम तुम जहर कहने लगे और बेचारे
रसोइए को मार भी दिया और तुमने थाली मुझसे भी जोर से फेंकी!
नसरुद्दीन ने कहा, मालिक, हम कोई भिंडी के नौकर नहीं, हम तो आपके नौकर हैं। भिंडी की ऐसी की तैसी! भिंडी जाए भाड़ में! जब आपने
थाली फेंकी, हमने और जोर से फेंकी। जब आपने प्रशंसा की,
हमने प्रशंसा के पुल बांध दिए। हम तो नौकर आपके हैं। तनख्वाह हमें
आपसे मिलती है, भिंडी से नहीं। आप दिन को रात कहो, हम रात कहें। आप रात को दिन कहो, हम दिन कहें। हम तो
मालिक के वफादार हैं।
जिनके पास धन है, सत्ता है, जिनके पास थोड़ी सुविधा है, वे अपने से बहुत क्षुद्र तरह के लोगों से घिर जाते हैं। स्वभावतः, क्योंकि वे क्षुद्र लोग उनकी प्रशंसा करते हैं। और प्रशंसा की भूख है।
अहंकार प्रशंसा से तृप्त होता है।
मितऊ देहला न जगाए, निंदिया बैरिन भैली।
वह दुश्मन नींद छाई ही रहती है
तुम्हारी छाती पर। और मित्र कितने ही वायदे करते हों कि हम जगा देंगे, जगा नहीं सकते।
पहले तो मित्र तुम उनको चुनते हो जो
तुमसे ओछे हैं; जो तुमसे भी ज्यादा गहरी नींद में हैं। जो बड़बड़ा रहे
हैं सपनों में, उनको तुम मित्र चुनते हो। नींद में ही वे
बड़बड़ाते हैं, कहते हैं: जगा देंगे, घबड़ाओ
मत। मगर उनके जगाए जागरण नहीं हो सकता। केवल कोई जागा हुआ ही मित्र मिल जाए तो
जागरण हो सकता है।
की तो जागै रोगी...
पलटू कहते हैं: या तो रोगी जागते हैं, क्योंकि सो नहीं सकते। सोना चाहते हैं, सो नहीं
सकते।
की चाकर...
या नौकर जागते हैं--पहरेदार--जबरदस्ती, मजबूरी में।
की चोर।
या चोर जागते हैं, क्योंकि उनका धंधा ऐसा है कि जब और सब सो जाएं तब वे चोरी कर सकते हैं।
की तो जागै संत बिरहिया...
और या फिर जागते हैं विरही संत, क्योंकि परमात्मा का प्रेम उन्हें सोने नहीं देता।
भजन गुरु कै होय।
उनके भीतर भजन ही चलता रहता है। उनके
भीतर भाव की तरंगें ही उठती रहती हैं। उनके भीतर परमात्मा की किरण उतरती ही रहती
है; अंधेरा हो ही नहीं पाता कि वे सो जाएं।
स्वारथ लाय सभै मिलि जागैं...
जो किसी स्वार्थ के कारण जागते हैं, उनका जागना सच्चा नहीं है, क्योंकि स्वार्थ तो नींद
है।
बिन स्वारथ न कोय।
वह चोर, चाकर, रोगी, वे सब स्वार्थ से जागते हैं।
पर स्वारथ को वह नर जागै, किरपा गुरु की होय।
जब तक जागे हुए किसी सदगुरु की कृपा न
हो, तब तक सच्चा जागरण नहीं होता। जागरण--रोगी वाला नहीं, पहरेदार वाला नहीं, चोर वाला नहीं। वे तो सब झूठे
जागरण हैं। उनसे नींद नहीं टूटती। वे तो बड़ी गहरी नींद में पड़े हैं। लेकिन जो
प्रभु के प्रेम में जागा है, जो प्रभु में जागा है, जिसकी आंखों में प्रभु-मूरत समाई है और जिसके हृदय में सतत उसकी धुन बज
रही है, जो अनाहत के नाद से भरा है, जिसके
भीतर सतत संगीत बह रहा है--ऐसे किसी गुरु की कृपा हो जाए तो तुम्हारे जीवन में
जागरण आता है।
जागे से परलोक बनतु है, सोए बड़ दुख होय।
सोना दुख है और जागना आनंद। जागना
स्वर्ग है; सोना नरक।
ज्ञान-खरग लिए पलटू जागै, होनी होय सो होय।
और जब एक बार किसी के भीतर ज्ञान की
ज्योति जग गई, ज्ञान की तलवार चमक गई, फिर कोई
चिंता नहीं रह जाती कि क्या होगा, क्या नहीं होगा। होनी होय
सो होय! फिर जो भी होता है, सब शुभ है। फिर जैसा होता है
वैसा ही स्वीकार है। फिर जरा भी असंतोष नहीं है। फिर परितुष्टि है, फिर परितोष है।
तुम्हारी पत्नी तो बहुत शांत, धीर-गंभीर, सुशील दिखाई देती है ढब्बूजी--ढब्बूजी के
एक नये मित्र ने कहा।
हां, यही तो इसका एकमात्र
गुण है--ढब्बूजी बोले।
क्या--शांत, धीर-गंभीर होना?
नहीं-नहीं, दिखाई देना!
चोर जागा हुआ दिखाई देता है। चाकर
जागा हुआ दिखाई देता है। रोगी जागा हुआ दिखाई देता है। जागे नहीं हैं। जागता तो
सिर्फ योगी है। कृष्ण ने कहा है: या निशा सर्व भूतायाम् तस्याम् जागर्ति संयमी। वह
जो सबके लिए गहन रात्रि है, निद्रा है--वैसी रात्रि में, वैसी
निद्रा में भी योगी जागता है, संयमी जागता है, ध्यानी जागता है।
ध्यानी सो ही नहीं सकता। उसने अपने
भीतर उस तत्व को पहचान लिया है जो कभी सोया ही नहीं, जहां सोने की घटना
घटती ही नहीं। शरीर सोता है, मन सोता है; आत्मा कभी नहीं सोती। तुमने अपने को शरीर मान लिया, इसलिए
तुम्हें सोना पड़ता है; मन मान लिया, इसलिए
सोना पड़ता है। जिस दिन तुम जानोगे कि तुम आत्मा हो, शाश्वत,
न जिसका कोई प्रारंभ है, न कोई अंत; जिस दिन तुम जानोगे तुम अमृत हो, तुम्हारी कोई
मृत्यु नहीं; जिस दिन तुम अपने साक्षी-भाव को पहचानोगे,
उसी दिन से निद्रा गई। शरीर फिर भी सोएगा, मन
फिर भी सोएगा; क्योंकि ये तो यंत्र हैं, थकते हैं। लेकिन साक्षी जागा रहता है।
नींद में भी ध्यानी जागा रहता है।
शरीर सोया रहता है और भीतर जागरण का दीया जलता रहता है। वह जागरण का दीया जिसने भी
पा लिया, स्वर्ग में प्रविष्ट हो गया। स्वर्ग कोई भौगोलिक
स्थान नहीं है कहीं। स्वर्ग तुम्हारे जागरण की अवस्था का नाम है।
एक बार चंदूलाल और ढब्बूजी भंग पीकर
घूमने निकले। दोनों इंडिया गेट के नजदीक से गुजर रहे थे। चंदूलाल बोले, अरे ढब्बू! आज यह इंडिया गेट इतना झुक गया! इतना कैसे झुक गया? देख, सम्हल कर निकलना, नहीं
सिर फोड़ लेगा। यदि हम खड़े-खड़े इसके नीचे से निकलेंगे तो लगता है कि सिर में लगेगा
ही। ऐसा करते हैं घुटने-घुटने चल कर इसके नीचे से निकलते हैं।
ढब्बू बोला, हां यार, लगता तो है कुछ दाल में काला है। इंडिया
गेट इतना कैसे झुक गया! और दोनों घुटने-घुटने चलने लगे।
कुछ ही दूर पहुंचे होंगे कि चंदूलाल
फिर बोले, लगता है ढब्बू, आज इंडिया गेट
को कुछ हो गया! देख न, कितना नीचा हो गया! मुझे तो ऐसा लग
रहा है कि घुटने-घुटने चलने के बावजूद भी सिर में लग सकता है। ऐसा करें, लेट कर पेट के बल खिसकते हैं।
ढब्बू बोले, हां चंदू, तुम ठीक कहते हो। पेट के बल ही घिसट कर
इसे पार करना चाहिए। दोनों पेट के बल घिसटने लगे। भीड़-भाड़ का समय। एक पुलिसवाले ने
आकर दोनों के सिर पर एक-एक बेंत रसीद की। चंदूलाल ने क्रोध और आश्चर्य के साथ
ढब्बू से कहा, हद हो गई यार! पेट के बल घिसट कर निकल रहे थे,
साला तब भी सिर में लग ही गया।
एक बेहोशी की दुनिया है, जहां कुछ भी करके निकलो, सिर फूटने ही वाला है!
अहंकार में जो जी रहा है, उसने भंग पी रखी है। अहंकार से ज्यादा और नशीली कोई चीज नहीं, शराब भी नहीं! शराब तो सांझ पीओगे, सुबह उतर जाएगी।
लेकिन अहंकार जिंदगी भर चढ़ा रहता है।
जागने का अर्थ है: मैं-भाव से जागना; मैं-भाव की मदिरा से मुक्त होना। और यह वहीं हो सकता है जहां कोई
अहंकार-शून्य व्यक्ति तुम्हें उपलब्ध हो जाए। उसी के पास बैठ कर तुम्हें भी
अहंकार-शून्यता का स्वाद अनुभव में आएगा।
एक बार नसरुद्दीन ट्रेन में यात्रा कर
रहा था। टिकट कलेक्टर ने आकर उससे टिकट मांगी। मुल्ला बोला, हुजूर, टिकट तो नहीं है।
टिकट कलेक्टर बोला, मियां, क्या तुम्हें पता नहीं कि बिना टिकट ट्रेन
में बैठना मना है?
मुल्ला ने जवाब दिया, मालूम था हुजूर, इसीलिए तो देखिए न मैं कब से खड़ा
हूं! मैं बैठा ही नहीं!
निद्रा के अपने तर्क हैं, यह याद रखना। निद्रा के भी अपने को बचाने के उपाय हैं, यह याद रखना। निद्रा तुम्हें ऐसे ही न छोड़ देगी। पहले अपनी रक्षा करेगी,
हर भांति रक्षा करेगी। और जो भी तुम्हें जगाएगा, उसका तुम्हें दुश्मन बना देगी। इसीलिए तो जीसस को सूली लगती है, बुद्धों को पत्थर मारे जाते हैं। ये सोए हुए लोग, जो
जागना नहीं चाहते; ये अहंकार से भरे हुए लोग; और बुद्धों की सारी चोट इनके अहंकार पर है, इनकी
निद्रा पर है।
अगर जागना हो तो सोए मन की बहुत मत
सुनना। मन कहे भी तो भी सुनी-अनसुनी कर देना। इसका ही अर्थ है शिष्यत्व। मन की न
सुनना और गुरु की सुनना, यही है शिष्यत्व का सार। गुरु चाहे अटपटी बात भी कहे,
आज अटपटी लगे, आज उलटी लगे, तो भी सुनना। और मन चाहे बिलकुल तर्कयुक्त बात कहे, तो
भी सरका देना एक तरफ। क्योंकि मन के तर्क सिर्फ तुम्हारी निद्रा को बचाने के तर्क
हैं।
रात का समय, मुल्ला नसरुद्दीन अपनी कार से गुजर रहा था। रास्ते में एक गांव पड़ा। गांव के
किनारे की ओर सड़क पर पत्थरों का एक बड़ा ढेर लगा हुआ था और उस ढेर पर एक जलती हुई
लालटेन रखी हुई थी। मुल्ला ने देखा तो उसे थोड़ा आश्चर्य हुआ। वह बड़ी देर तक वहां
रुका रहा। आखिर एक गांव का किसान जब उधर से निकला तो मुल्ला ने उसे बुलाया और पूछा,
क्यों भैया, यह क्या मामला है? यह लालटेन इस ढेर के ऊपर क्यों रख छोड़ी है?
वह व्यक्ति बोला, अरे बड़े मियां, तुम्हें इतना भी नहीं मालूम? अरे यह इसलिए रखी है ताकि आने-जाने वाले लोगों को यह पत्थर का ढेर दिखता
रहे।
मुल्ला बोला, अच्छा, यह बात है! लेकिन यह तो बताओ कि यह पत्थरों
का ढेर यहां क्यों लगा रखा है?
उस व्यक्ति ने बड़ी ही हिकारत से कहा, बड़े मियां, हम तो सुनते थे शहर के लोग बड़े ही
बुद्धिमान होते हैं, मगर तुम तो बिलकुल मूर्खता की बातें कर
रहे हो। और यदि पत्थरों का ढेर नहीं लगाएंगे तो लालटेन किस चीज के ऊपर रखेंगे?
इस लालटेन को रखने के लिए इस प्रकार पत्थरों का ढेर लगाया गया है।
तुम जरा गौर करना अपने मन के तर्कों
पर। वे एक चक्कर में घूमते हैं। लालटेन रखी है, पत्थरों का ढेर दिखता
रहे, इसलिए। और पत्थरों का ढेर इसलिए लगाया है ताकि लालटेन
रखी जा सके, नहीं तो लालटेन कहां रखो!
तुम जरा अपने मन के तर्कों पर विचार
करना और तुम उनको सदा पाओगे कि वे एक चक्कर में घूमते हैं। उनका कोई आधार नहीं है।
मगर अगर अंश तर्क को तुमने देखा तो वह अर्थपूर्ण मालूम होगा। तर्क की पूरी
प्रक्रिया को देखोगे तो तुम्हें तत्काल समझ में आ जाएगा कि पूरी प्रक्रिया भ्रांत है।
लेकिन पूरी प्रक्रिया कौन देखता है? इतना मनन कौन करता है?
इतना ध्यान कौन करता है?
अगर मन पर तुम ध्यान करो तो तुम्हें
बड़ी हंसी आएगी। एक चक्कर में घूमता रहता है कोल्हू के बैल की तरह। सोचता है कहीं
पहुंच रहे हैं; न कभी पहुंचता है कहीं, न कोई
मंजिल आती है। चलता बहुत है। मन कितना चलता है देखो तो! दिन-रात चलता है। सुबह
चलता है, सांझ चलता है; दिन चलता है,
रात चलता है। विचार में, सपने में, चलता ही रहता है, चलता ही रहता है। तुमने कभी यह
पूछा कि इतना चल कर यह पहुंचा कहां? और अगर इतना चल कर कहीं
नहीं पहुंचा तो जरूर वर्तुल में चल रहा होगा, एक गोल घेरे
में घूम रहा होगा। तो चलने का काम भी हो रहा है और पहुंचना भी नहीं हो पाता।
मन के द्वारा कोई कभी कहीं नहीं
पहुंचा है। जो पहुंचे हैं, मन को छोड़ कर पहुंचे हैं। और मन को छोड़ना अत्यंत कठिन
है। क्योंकि तुमने मन में अपनी सब कुछ जीवन ऊर्जा न्यस्त कर रखी है। तुमने सारा
दांव मन के साथ लगा दिया है। और यही मन तुम्हें गुरु से न मिलने देगा।
तुम अनेक बार बुद्धों के करीब आ गए हो
और चूक गए। तुम कोई नये तो नहीं हो, शाश्वत यात्री हो।
तुम में से कुछ जरूर गौतम बुद्ध के करीब से गुजरे होंगे; ऐसे
ही किसी सुबह बैठ कर तुमने गौतम बुद्ध को सुना होगा। कुछ जीसस के पास से गुजरे
होंगे; ऐसे ही किसी सुबह बैठ कर तुमने जीसस के वचन सुने
होंगे। या जरथुस्त्र, या मोहम्मद, या
कबीर, या कौन जाने कोई तुम में से पलटू के वचन भी सुना हो।
तुम यहां सदा से हो। अनेक-अनेक रूपों में, अनेक देशों में,
अनेक जातियों में तुम पैदा हुए हो। अनेक योनियों में तुम पैदा हुए
हो। असंभव है यह बात कि इतनी लंबी यात्रा में कभी तुम किसी बुद्धपुरुष के पास से न
गुजरे होओ। कोई नानक कहीं मिल गया होगा, कोई फरीद कहीं मिल
गया होगा, कोई रूमी कहीं मिल गया होगा, कोई मंसूर कहीं मिल गया होगा। लेकिन तुम चूक गए। तुम देख नहीं पाए।
तुम्हारी आंख पर चश्मा है। यह चश्मा तुम्हारे मन का है। यह मन तुम्हें देखने नहीं
देता। यह मन तुम्हें गुरुओं को देखने ही नहीं देता, क्योंकि
गुरु को देखना मन की मौत का प्रारंभ है।
को खोलै कपट-किवरिया हो, बिन सतगुरु साहिब।
और जब तक तुम सदगुरु को न देखोगे, कौन खोलेगा किवाड़ प्रभु के मंदिर के? कौन खोलेगा
झरोखे, जिनसे तुम झांक सको शाश्वत को--उस परम रहस्यमय को,
उस परम विस्मय को!
नैहर में कछु गुन नहिं सीख्यो, ससुरे में भई फुहरिया हो।
तुम्हारी जिंदगी यूं ही जा रही है।
जनम गुजर जाते हैं, तुम कुछ सीखते ही नहीं।
नैहर में कछु गुन नहिं सीख्यो, ससुरे में भई फुहरिया हो।
न तो नैहर में कुछ सीखा, न ससुराल आकर। ससुराल में आकर और फूहड़पन आ गया।
अपने मन की कुलवंती, छुए न पावै गगरिया हो।
और अपने अहंकार से तुम इतने भरे हो कि
सागर को पाना तो दूर, गागर को पाना भी मुश्किल है। तुम अपने अहंकार से इतने
भरे हो कि सागर तो कहां तुम्हारे भीतर जगह पाएगा, एक गागर को
रखने की भी जगह नहीं है। गुरु गागर है; परमात्मा सागर है।
पांच पचीस रहै घट भीतर, कौन बतावै डगरिया हो।
और तुम एक होते तो भी ठीक था। तुम
पांच-पच्चीस हो। तुम भीड़ हो! महावीर ने कहा है: तुम बहुचित्तवान हो। तुम्हारे भीतर
एक चित्त नहीं है, बहुत चित्त हैं।
सांझ तय करते हो कि सुबह पांच बजे
उठूंगा, अब तो उठूंगा ही उठूंगा, ब्रह्ममुहूर्त
में ही उठना है, चाहे कुछ भी हो जाए। जब सभी ज्ञानी कहते रहे
ब्रह्ममुहूर्त में उठो, तो जरूर कुछ रहस्य होगा। अब तो पक्का
संकल्प करके सोता हूं। और सुबह पांच बजे जब अलार्म बजेगा तो तुम ही अलार्म को बंद
कर दोगे; करवट बदल कर लेट रहोगे और कहोगे कि एक दिन में क्या
बिगड़ता है, कल देखेंगे! जिस चित्त ने तय किया था कि उठूंगा
ही उठूंगा, क्या यह वही चित्त है जो सुबह करवट ले लेता है और
अलार्म बंद कर देता है? नहीं; अब तो
मनोवैज्ञानिक भी महावीर की इस बात से राजी होते हैं कि यह वही चित्त नहीं है,
यह दूसरा चित्त है।
एक चित्त कहता है कि जीवन भर तुम्हें
प्रेम करूंगा। और जीवन भर की बात दूर, सांझ ही झगड़ा हो जाता
है। जिसके लिए मरने को राजी थे, उसी को मारने को तैयार हो
जाते हो। भूल गए जीवन भर के वायदे। यह चित्त और है।
एक चित्त तय करता है: क्रोध नहीं
करूंगा। और कोई तभी गाली दे देता है और क्रोध उमग आता है। यह और चित्त है। और फिर
क्रोध के चले जाने के बाद फिर पछताते हो कि यह फिर गलती हो गई। यह और चित्त है।
तुम्हारे भीतर चित्तों की भीड़ है।
पांच पचीस रहै घट भीतर...
एकाध नहीं हो तुम, नहीं तो मामला आसान हो जाता। अगर एक होते, एकजूट
होते, तो क्रांति बहुत आसान हो जाती।
गुरु के सामने सबसे बड़ी कठिनाई यह
होती है कि शिष्य को एक कैसे बनाए? उसकी भीड़ को कैसे
पिघलाए और एक में ढाले? पांच तो तुम्हारी इंद्रियां हैं और
हर इंद्रिय कम से कम पांच दिशाओं में बह रही है, सो गुणनफल
कर लो: पांच-पच्चीस! एक भीड़ भीतर खड़ी हो गई है।
तुम्हारी अवस्था वैसी ही है जैसे
दिल्ली में प्रधानमंत्रियों की होती है। कोई टांग खींच रहा है, कोई हाथ खींच रहा है, कोई टोपी ही उतार ले भागा। कोई
चूड़ीदार पाजामा ही खींच रहा है। इसीलिए तो चूड़ीदार पाजामा पहनते हैं नेता लोग कि
बड़ी मुश्किल से उतरता है। लाख खींचो, इतना आसान नहीं है
उतरना। चूड़ीदार पाजामा का राज ही यह है। नेहरू ने भला किया जो चूड़ीदार पाजामा
चुना। कहीं बंगाली धोती चुनी होती तो बड़ी मुश्किल हो जाती। कोई धोती ही लेकर भाग
जाता। और तुम अपनी कुर्सी छोड़ नहीं सकते, सो नंग-धड़ंग कुर्सी
पर बैठे रहते। चूड़ीदार पाजामे की खूबी है-- पहनाने को भी दो आदमी चाहिए, उतारने को भी दो आदमी चाहिए।
तुम्हारी दशा भी वैसी है। कोई टांग
खींच रहा है, कोई हाथ खींच रहा है। एक मन कहता है पूरब, एक कहता है पश्चिम; एक कहता है यह करो, दूसरा कहता है वह करो। धक्कमधुक्की हो रही है! तुम कैसे जीए जाते हो,
यह एक चमत्कार है। इस धक्कमधुक्की में भी किसी तरह तुम अपने को
खींचे जाते हो, यह आश्चर्य है। तुम्हारी दशा फुटबाल जैसी है;
इधर से मारा तो उधर, उधर से मारा तो इधर।
पांच पचीस रहै घट भीतर, कौन बतावै डगरिया हो।
और डगरिया बताना भी चाहे कोई तो कौन
बताए? किसको बताए? वहां सुनने वाला
कौन है? वहां तो कलह मची है, संघर्ष
मचा है। और चूंकि तुम एक से अनेक हो गए हो, तुम दीनऱ्हीन हो
गए हो, तुम्हारी सारी ऊर्जा इन छिद्रों से बही जा रही है। हो
सकते थे सिंह, मगर सिंह नहीं हो।
एक आदमी फौज में भरती हुआ। कवायद के
लिए पहले ही दिन ऐसे पैर उठाए सम्हाल-सम्हाल कर कि जैसे किसी की बरात में गया हो; जैसे दूल्हा दुल्हन के द्वार पर चल रहा हो। उसके कप्तान ने डांटा कि सुनते
हो जी, ऐसे नहीं चलेगा! यह कोई बरात नहीं है। यह बराती की
चाल बंद करो। और तुम्हें बता दूं अभी कि मेरा नाम है शेरसिंह, रस्ते पर लगा दूंगा।
वह आदमी बिलकुल रोती आवाज में बोला कि
नाम की न कहिए, नाम तो मेरा भी है बब्बर सिंह, मगर
नाम से क्या होता है! हालत मेरी यही है। इससे ज्यादा तेजी से मैं नहीं चल सकता। कर
भी क्या सकता हूं, शादीशुदा आदमी हूं! पहले ही इतना पिट चुका
हूं कि अब और मुझ गरीब को न पीटो।
अब बस करो गुलजान, नहीं तो मेरे अंदर का जानवर जाग जाएगा--नसरुद्दीन ने क्रोध में आकर अपनी
पत्नी गुलजान से कहा। पत्नी ने मजाक उड़ाते हुए कहा, अरे
जा-जा, जाग जाने दे तेरे भीतर के इस जानवर को। चूहे से डरता
ही कौन है!
आदमी सिंह हो सकता था, लेकिन चूहा भी नहीं रह गया है। सारी ऊर्जा बह जाती है, जैसे घड़े में हजार छेद हों। तो टिकता ही नहीं कुछ। कौन बताए मार्ग?
किसको बताए मार्ग?
अपने मन की कुलवंती, छुए न पावै गगरिया हो।
पांच पचीस रहै घट भीतर, कौन बतावै डगरिया हो।
पलटूदास छोड़ि कुल जतिया, सतगुरु मिले संघतिया हो।
छोड़ो कुल, छोड़ो जात, छोड़ो पांत, छोड़ो
वर्ण--तो ही तुम उस परम साथी को खोज सकोगे जिसका नाम सदगुरु है।
सतगुरु मिले संघतिया हो।
वही एक साथी है, वही एक संगी है। जो परमात्मा से जुड़ा दे वही मित्र है। जो परमात्मा से
तुड़ा दे वही शत्रु है। इसको तुम परिभाषा समझो: शत्रु वह है जो तुम्हें परमात्मा से
तुड़ा दे; और मित्र वह है जो तुम्हें परमात्मा से जुड़ा दे।
साहिब से परदा न कीजै, भरि-भरि नैन निरखि लीजै।
और कभी ऐसा कोई साहब...। संतों का
शब्द साहब बड़ा प्यारा है। वे परमात्मा के लिए साहब का उपयोग करते हैं, क्योंकि वही मालिक है। या मालिक! सूफी फकीरों ने उसको नाम दिया है। साहिब!
कभी अगर तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए जिसमें साहिब का पदार्पण हुआ हो तो उससे
परदा न करना; घूंघट की ओट से मत देखना उसे। चूक मत जाना।
भर-भर आंख देख लेना! क्योंकि बहुत मुश्किल से ऐसी घटना घटती है।
साहिब से परदा न कीजै, भरि-भरि नैन निरखि लीजै।
पी जाना उसे आंखों से! खोल देना आंखों
के द्वार उसके लिए! कानों से हटा लेना सारे परदे! घूंघट हटा देना! सब छोड़ देना, जो भी बाधा बनता हो।
नाचै चली घूंघट क्यों काढ़ै, मुख से अंचल टारि दीजै।
और जब सदगुरु मिल जाए, नाचने की घड़ी आ गई! अब घूंघट को सम्हालने से नहीं चलेगा।
मुख से अंचल टारि दीजै।
अब तो सब घूंघट छोड़ दो। मीरा ने कहा
है: सब लोक-लाज खोई!
सती होय का सगुन बिचारै, कहि के माहुर क्या पीजै।
सती का अर्थ होता है: जिसने एक को ही
चाहा, जिसने एक को ही सब कुछ समर्पित कर दिया। शिष्य में एक
सती-भाव होता है। सती शब्द आता है सत् से। जिसने सत् के लिए सब कुछ समर्पित कर
दिया, वह सती। जिसने अपने प्रिय के लिए सब कुछ समर्पित कर
दिया, वह सती। और सदगुरु से नाता प्रेम का है, प्रीति का है। वह तो आत्मा की आत्मा से भांवर है।
सती होय का सगुन बिचारै...
और फिर यह नहीं देखना पड़ता कि पूछो
लगन-महूरत कि कब देखें गुरु को और कब न देखें। झूठ लगन-महूरत सब! कोई जरूरत नहीं।
गुरु के साथ कोई छिपाव न रखे, कोई भेद-भाव न रखे--सब उघाड़ दे।
गुरु के सामने हृदय को नग्न हो जाने दे। बुरा-भला जैसा है, सब
प्रकट कर दे। तुम चिकित्सक के पास जाते हो तो अपनी सारी बीमारी खोल कर कह देते हो,
छिपाते तो नहीं। नहीं तो चिकित्सक क्या करेगा?
मुल्ला नसरुद्दीन एक डाक्टर के पास
गया। डाक्टर ने पूछा कि क्या तकलीफ है?
मुल्ला ने कहा, अब आप ही बताइए। आप डाक्टर कि मैं डाक्टर?
तो उस डाक्टर ने कहा, आप ऐसा करिए, वेटनरी डाक्टर के पास जाइए। क्योंकि
वेटनरी डाक्टर ही आपका इलाज कर सकता है। जानवर कुछ बताते तो हैं नहीं, डाक्टरों को ही अनुमान करना पड़ता है। मैं आदमियों का डाक्टर हूं, आप गलत जगह आ गए।
डाक्टर के सामने सब खोल कर रख देना
पड़ता है। और जब तुम गुरु के पास आए तो तुम परम चिकित्सक के पास आए हो। देह का ही
इलाज नहीं, आत्मा का इलाज करना है। सब खोल कर रख देना होगा।
सती होय का सगुन बिचारै...
फिर समय नहीं देखा जाता, लाज नहीं देखी जाती, लोक-प्रतिष्ठा नहीं देखी जाती,
गुरु के समक्ष सब बेशर्त खोल दिया जाता है। उस खुलने से ही क्रांति
शुरू हो जाती है।
कहि के माहुर क्या पीजै।
और गुरु अगर जहर भी पीने को दे तो
कह-कह कर मत पीना कि देखो, जहर पी रहा हूं! कि देखो, यह
त्याग दिया! कि देखो, यह छोड़ दिया! कि देखो, कितना अर्पण किया! कैसा मेरा समर्पण! कैसी मेरी श्रद्धा! कह-कह कर मत
करना। कह-कह कर सब खराब हो जाएगा। कह कर पीया तो क्या पीया! गुरु अगर जहर दे तो
आनंद से पी जाना, शब्द भी न निकालना; क्योंकि
गुरु के हाथ से आया हुआ जहर भी अमृत है।
चिकित्सक को कभी-कभी इलाज के लिए जहर
भी देना पड़ता है। चिकित्सक के हाथ में जहर भी औषधि हो जाता है। नासमझ के हाथ में
तो औषधि भी जहर हो जाती है।
लोक-बेद तन-मन की डर है, प्रेम-रंग में क्या भीजै।
और अगर डर है लोक का, वेद का, तन का, मन का--तो एक
बात खयाल रखना, फिर प्रेम के रंग में न भीज सकोगे।
पलटूदास होय मरजीवा, लेहि रतन नहिं तन छीजै।
पलटूदास कहते हैं: तुम तो जीते जी
गुरु के चरणों में मर जाओ। मरजीवा शब्द के दो अर्थ हैं। जीते जी मर जाओ--एक; वह उसका परम अर्थ है। और एक अर्थ है गोताखोर। गोताखोर को मरजीवा कहते हैं,
क्योंकि जीते जी पानी में जब वह गोता लगाता है तो सांस बंद कर लेता
है; मरे जैसा हो जाता है, क्योंकि मरने
पर सांस बंद हो जाती है। तो गोताखोर भी एक अर्थ है कि वह जीते जी गोता मार जाता है,
सांस बंद कर लेता है, मुर्दे जैसा हो जाता है।
गुरु के चरणों में गोताखोर हो जाओ।
उसके चरण सागर जैसे हैं। उसके चरणों की गहराई अनंत है। क्योंकि वह तो है ही नहीं, वह तो केवल परमात्मा के लिए एक द्वार है--एक घाट है सागर का! डुबकी मार
जाओ, गोताखोर हो जाओ!
लेहि रतन नहिं तन छीजै।
घबड़ाओ मत, कुछ छीजेगा नहीं, तन गल नहीं जाएगा। और रतन मिल
जाएंगे। अगर गहरा गोता मारा तो झोली रत्नों से भर जाएगी।
और परम अर्थों में मरजीवा का अर्थ है:
जीते जी मुर्दा हो जाओ। गुरु के पास तुम्हारा अपना कोई जीवन न रह जाए; गुरु का जीवन ही तुम्हारा जीवन हो। उसकी श्वास में श्वास लो। उसके प्राण
की धड़कन में अपनी धड़कन जोड़ दो। उसके संगीत में अपने स्वर मिल जाने दो। जीते जी अगर
तुम मर जाओ तो परम जीवन उपलब्ध हो जाता है। तुम्हारी झोली में अमृत के हीरे,
अमृत के मोती भर जाएंगे।
लेकिन डूबना पड़े, जैसे एक सती अपने पति में डूब जाती है। सती शब्द अब तो पुराना पड़ गया। अब
तो उसके अर्थ भी खो गए। अब तो वह गरिमा न रही, वह महिमा न
रही। कभी उस शब्द के बड़े गहरे अर्थ थे। जब पलटू ने लिखा होगा तब वह शब्द सात
आसमानों पर था। अब तो सती होना कानूनी रूप से अपराध है। अगर कोई स्त्री सती होती
पकड़ ली जाए तो सजा काट जाएगी। शायद आजीवन दंड हो जाए। वे दिन गए। अब दिन और हैं।
अब सती की महिमा न रही।
लेकिन इस शब्द में बड़ी गहराई थी। और
इस देश ने प्रेम की एक अनूठी अनुभूति जानी थी। क्योंकि प्रेम के पकने के लिए समय
चाहिए। प्रेम कोई मौसमी फूल नहीं है। पूरा जीवन जब दो व्यक्ति एक-दूसरे में अपने
को डुबा देते हैं, तो धीरे-धीरे...
बनत बनत बनि जाई, पड़ा रहै संत के द्वारे।
तन मन धन सब अरपन कै कै, धका धनी के खाय।
प्रेम एक बार हो जाए तो हो जाए। लेकिन
दिन बदल गए हैं।
जब मुल्ला नसरुद्दीन रात को जल्दी घर
वापस आ गया, तो उसने देखा कि उसकी बीबी पलंग पर लेटी हुई है तथा
उसको देख कर एकदम से कोई पुरुष पीछे के दरवाजे से भाग गया है। नसरुद्दीन ने क्रोध
को दबाते हुए गुलजान से कहा, कौन था वह? क्या मेरा दोस्त चंदूलाल?
नहीं!
तो फिर क्या ढब्बूजी थे?
नहीं, बीबी ने पूर्ववत कहा।
तब भोंदूमल था? कि मटकानाथ ब्रह्मचारी होगा?
इन प्रश्नों को सुन कर पत्नी रोने
लगी। नसरुद्दीन ने करुणा भाव से कहा, जो हुआ सो हुआ। अब
रोने से क्या फायदा? गुलजान, भविष्य
में ऐसी गलती मत करना। मैंने तुम्हें माफ किया। उठो, चुप हो
जाओ।
मैं इसलिए नहीं रो रही हूं
मुल्ला--बीबी ने सिसकते हुए कहा--मैं तो इसलिए रो रही हूं कि तुमने सिर्फ अपने ही
दोस्तों के नाम लिए, जैसे कि मेरा कोई मित्र ही नहीं है!
दिन बदल गए। अब सती की वह महिमा न
रही। मगर सती की धारणा में बड़ी गरिमा थी। हमने ही नष्ट कर दी, क्योंकि हम स्त्रियों को जबरदस्ती सती बनाने लगे। ये चीजें जबरदस्ती नहीं
होतीं। होती हैं तो होती हैं। और जब हम किसी श्रेष्ठ चीज को भी जबरदस्ती करने लगें
तो हम ही उसके नष्ट करने के कारण हो जाते हैं। जैसे कली को कोई जबरदस्ती खोल कर
फूल बना दे, तो नष्ट कर देगा। कली अपने से खिले तो मजा और।
और तुमने खोल-खाल कर, किसी तरह खींचत्तान कर और ले आए
इलेक्ट्रिक प्रेशर और दबा कर पंखुड़ियों को खोल दिया कमल की--तो मार डालोगे।
यही हुआ। सती की भव्य धारणा...लेकिन
भव्य तभी है जब सहज हो, स्वाभाविक हो, अपने से हो।
लेकिन हमने उलटा कर लिया। हम सदा उलटा कर लेते हैं। हम सारी आकाश की धारणाओं को
मिट्टी में खींच लाते हैं, धूल-धूसरित कर देते हैं। हम
जबरदस्ती हर स्त्री को मजबूर करने लगे कि तेरा पति मरे तो तुझे मरना होगा। हमने
ऐसी मजबूरी पैदा कर दी कि अगर स्त्री न मरे तो निंदित हो जाए, उसे अपराध भाव पैदा हो जाए और समाज सदा फिर उसकी निंदा करे। और हम सती
करने के लिए ऐसा इंतजाम करने लगे कि जबरदस्ती स्त्री को ले जाने लगे मरघट। इतना घी
फेंका जाता था पति की लाश पर और फिर जिंदा स्त्री को उसमें धका दिया जाता था। घी
इसलिए फेंका जाता था ताकि लपटें भयंकर हों और धुआं बहुत उठे। धुआं इतना उठे कि
बाकी लोग जो जलाने आए हैं, उनको यह दिखाई न पड़े कि जिंदा
स्त्री की क्या हालत हो रही है। और पंडित-पुरोहित चारों तरफ मशालें लेकर खड़े हो
जाते थे। क्योंकि स्त्री, जिंदा आदमी को तुम चिता में
जबरदस्ती फेंकोगे तो भागेगा। जरा दीये में हाथ तो डाल कर देखो, हाथ अपने आप खिंच आएगा। पूरे शरीर को, जीवित व्यक्ति
को तुम फेंकोगे लाश पर तो वह भागेगा। वह भाग न पाए इसलिए पंडित-पुजारी चारों तरफ
मशालें लेकर खड़े होते थे कि उसको मशालों से धक्का देकर वापस चिता में डाल दें। और
खूब बैंड-बाजे बजाए जाते थे, तुरही और नगाड़े पीटे जाते थे,
ताकि उसकी चीख-पुकार सुनाई न पड़े। जिंदा आदमी जलाओगे तो चीखेगा,
पुकारेगा, भयंकर चीख उठेगी।
यह तो दुर्गति हो गई। यह सती की
महिमापूर्ण धारणा नारकीय हो गई। यह तो हत्या है। यह सतीत्व नहीं है।
लेकिन सौ में निन्यानबे मौके पर तो यह
बात सच थी कि सती की धारणा हत्या हो गई थी। लेकिन एक मौके पर--और एक मौका भी काफी
है--यह सहज घटता था कि दो व्यक्ति इतने एक हो गए...। जरूरी नहीं है कि कोई कब्र पर
जाकर ही मरे, कि चिता पर जाकर चढ़े; लेकिन पति
के जाने के बाद सती का जीवन मरजीवा हो जाता है। वह जीती है और मुर्दे की भांति
जीती है--जीती भी और नहीं भी जीती। यही उसकी साधना हो जाती है और इसी साधना से वह
परम प्रकाश को पा जाती है। उसके लिए पति ही सदगुरु हो गया। उसकी मृत्यु भी उसके
लिए परमात्मा का द्वार बन जाती है।
मेरे पिता चल बसे तो मेरी मां ने आकर
जो पहली बात मुझसे पूछी, वह यही कि अब मेरे जीवन में कोई अर्थ नहीं। अब मैं भी
कैसे परम ध्यान को उपलब्ध हो सकूं, यह मुझे बताओ। मैं भी
कैसे तुम्हारे पिता की भांति परमात्मा में लीन हो सकती हूं, यह
मुझे बताओ।
मैं जानता हूं, साठ वर्ष उन दोनों का साथ रहना लंबा समय है। साठ वर्ष एकजूट एक-दूसरे को
चाहना, साठ वर्षों में इंच भर को एक-दूसरे का प्रेम न
डगमगाना--लंबी यात्रा है। अब साठ वर्ष के बाद मेरी मां का अकेला रह जाना निश्चित
ही बहुत बड़ा अकेलापन है। लेकिन चिता पर चढ़ जाने से तो कुछ होगा नहीं। हां, ध्यान-समाधि में उतर जाने से जरूर कुछ होगा।
और वही उन्होंने मुझसे आकर पूछा। मैं
आनंदित हुआ। चिता पर चढ़ने से तो सिर्फ शरीर जल जाता, फिर जन्म लेना पड़ता।
लेकिन अगर समाधि उपलब्ध हो सके तो फिर जन्म नहीं होगा। और मैं आशा करता हूं कि
समाधि उपलब्ध हो सकेगी। क्योंकि अब ऐसे जीने का अवसर आ गया है, जैसे जीने और न जीने में अब कोई फर्क नहीं, अब जीवन
और मृत्यु बराबर है। बस यही तो पहला चरण है ध्यान का, समाधि
का। अब समाधि के पाने में कोई रुकावट नहीं है।
जैसे पति-पत्नी के बीच एकजूट, एकाग्र प्रीति का संबंध होता है, वैसा ही संबंध
शिष्य और गुरु के बीच है। अगर तुम गुरु के पास आकर ऐसे हो जाओ जैसे तुम रहे ही
नहीं, अब गुरु ही तुम्हारे लिए सब कुछ है; वही बोलेगा तुमसे, वही उठेगा तुमसे, वही चलेगा तुमसे, वही श्वास लेगा, वही धड़केगा तुम्हारे हृदय में--तो बस काफी हो गया। अब सागर दूर नहीं। घाट
तो मिल ही गया, अब छलांग कभी भी लग जाएगी। और तुमने न भी
लगाई तो गुरु धक्का दे देगा, ठीक अवसर पर, ठीक मौके की तलाश में रहेगा और धक्का दे देगा।
और एक बार तुम उतर गए तो कोई लौटता
नहीं। एक बार डूबने का मजा ले लिया तो कोई लौटता नहीं। जैसे नमक का पुतला अगर सागर
में उतर जाए तो गल जाता है, ऐसे ही तुम भी अगर परमात्मा में उतर गए तो गल जाओगे,
खो जाओगे, शून्य हो जाओगे। और तुम्हारा शून्य
होना पूर्ण का अवतरण है।
लेकिन धीरे-धीरे होती है यह बात।
बनत बनत बनि जाई, पड़ा रहै संत के द्वारे।
आज इतना ही।
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