दिनांक:
9 अगस्त, 1986,
7.00
संध्या, सुमिला,
जुहू, बंबई
प्रश्नसार:
1— भगवान, हमें जो
आपमें दिखाई
पड़ता है, वह
दूसरों को
दिखाई नहीं
पड़ता। ऐसा
क्यों है भगवान?
क्या
जन्मों-जन्मों
में ऐसा कुछ
अर्जन करना होता
है?
2—आपसे
मैं मोहब्बत
करती हूं। मेरी
भौतिक देह ही सिर्फ
पुरूष की है,
बाकी तो मैं ह्रदय
से मन आपकी प्रेमिका
हूं। मेरे संन्यासी
मित्र मुझ पर दबाव
डालते है कि मैं
लडकी से शादी कर
लूं। मैं उसे कैसे
समझाऊं की एक स्त्री
दूसरी स्त्री
से कैसे शादी कर
सकती है?
3—अभिमान
ओर स्वाभिमान
में क्या भिन्नता
है?
4—सन्
1971 में पहली बार आपको
देखा ओर आपका प्रवचन
सुना था,
तब से आपके प्रेम
में हूं, दुर्भाग्यवश
मेरे परिवार ओर
रिश्तेदारो में
एक भी व्यक्ति
आपमें रूचि नही
रखता।......क्या यह
विरोध समाप्त
होगा? या कि
यह मेरे पूरे जीवन
जारी रहेगा?
प्रश्न:
भगवान, हमें
जो आपमें
दिखाई पड़ता है,
वह दूसरों
को दिखाई नहीं
पड़ता। ऐसा
क्यों है भगवान?
क्या
जन्मों-जन्मों
में ऐसा कुछ
अर्जन करना होता
है?
एक-एक
व्यक्ति की
अलग-अलग
यात्रा है, अलग-अलग
रुझान है, अलग-अलग
दृष्टि है।
किसी को संगीत
प्यारा लगता
है, और
किसी को केवल
शोरगुल मालूम
होता है। किसी
के पास
सौंदर्य को
अनुभव करने की
क्षमता होती है,
और किसी के
पास सिवाय
पत्थर के, और
हृदय में कुछ
भी नहीं होता।
ऐसे ही कोई
प्रेम के झरने
से भरा होता
है और कोई
सूखा।
दो
व्यक्ति समान
नहीं है। हो
भी नहीं सकते।
लेकिन हमारी
अनजाने यह
चेष्टा होती
है कि हम सबको
एक जैसा अनुभव
हो, एक जैसी
प्रतीति हो।
यह असंभव है।
और जितनी ऊंचाई
होगी अनुभूति
की, उतना
ही और असंभव
हो जाएगा।
नीचे तल पर
शायद तालमेल
बैठ भी जाए, बाजार के तल
पर शायद सहमति
हो भी जाए, लेकिन
आकाश की
ऊंचाइयों में
हमारी निजता
और प्रत्येक
व्यक्ति की
अनूठी क्षमता
भरपूर प्रकट
होती है।
तो जो
तुम्हें
मुझमें दिखाई
पड़ता है, वह
जरूरी नहीं है
कि दूसरे को
भी दिखाई पड़े।
निश्चित ही, तुमने
जन्मों-जन्मों
में कुछ
अर्जित किया
होगा। अपनी
आंखों को
निखार दिया
होगा, अपनी
पहचान को
सम्हाला होगा,
तो आज
तुम्हें कुछ
दिखाई पड़ता
है। घने
अंधेरे में भी
रोशनी की किरण
तुम पहचान
लेते हो।
पर
दूसरे को
दिखाई न पड़े, इससे न तो
परेशान होना,
न ही दूसरे
पर नाराज
होना।
क्योंकि यही
हमारी
सामान्य
प्रक्रिया
है। अगर दूसरे
को भी दिखाई
नहीं पड़ता वही,
तो हमें शक
होने लगता है
कि कहीं हम
गलती में तो
नहीं है? और
अगर भीड़
दूसरों की
ज्यादा हो, तो संदेह और
गहरा हो जाता
है। क्योंकि
हम अकेले पड़
गए हैं। हम
अकेले कैसे
सही हो सकते
हैं? जहां
इतने लोगों की
भीड़ है, वहां
निश्चित ही हम
गलत होंगे, भीड़ ही सही
होगी।
मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं, भीड़ न कभी
सही हुई है और
न कभी सही हो
सकती है। सत्य
का अनुभव
वैयक्तिक है।
उसका भीड़ से
कोई भी नाता
नहीं है।
कितने लोग थे,
जिनको वही
दिखाई पड़ता था,
जो गौतम
बुद्ध को दिखाई
पड़ा? सत्य
की यात्रा में
आदमी अकेला, और अकेला
होता चला जाता
है। और एक घड़ी
आती है कि
सारा संसार एक
तरफ, और
तुम बिलकुल
अकेले। इसलिए
भीड़ से मत
घबड़ाना।
यह शुभ
सूचना है कि
तुम अकेले
होने लगे हो।
यह सौभाग्य की
घड़ी है, कि
तुम्हारी
निजता प्रकट
होने लगी है।
तुम भीड़, और
भीड़ के
संस्कारों से
मुक्त होने
लगे हो। तुम्हारी
आंखों पर बंधी
हुई परंपरा की
पट्टियां
उतरने लगी है।
और तुम्हारे
प्राणों में
तुम्हारे
अपने स्वर
गूंजने लगे
हैं, बाजार
और शेअर
मार्केट की
आवाजें नहीं।
इस जगत
में बड़े से
बड़ा धन है:
निजता को
उपलब्ध हो
जाना। सो
घबड़ाना मत।
ठीक राह पर
हो। अभी और
अकेले हो जाओगे।
अभी धीरे-धीरे
और भी बहुत
कुछ दिखाई पड़ेगा, जो औरों को
दिखाई नहीं
पड़ेगा। अंधों
की इस दुनिया
में आंखें बड़े
सौभाग्य से
मिलती हैं।
और
दूसरी बात, नाराज मत
होना औरों पर।
उनको कोई कसूर
नहीं है। उनको
कोई दोष नहीं है।
उनको ऐसे ही
ढाला गया है, जन्मों-जन्मों
से। उन्हें
इसी तर
संस्कारित किया
गया है, कि
वे भीड़ के साथ
ही जी सकते
हैं। भीड़ से
जरा अलग हुए
कि उनके प्राण
छटपटाने लगते
हैं।
इसलिए
तो दुनिया में
भीड़ें
हैं--हिंदुओं
की, मुसलमानों
की, ईसाइयों
की, जैनों
की। और भीड़ों से
भी मन ही नहीं
भरता तो लोग
और भीड़ें
बनाते हैं:
रोटरी क्लब, लायन्स
क्लब।
राजनैतिक
पार्टियां
बनाते हैं।
कोई भी
अकेला नहीं
होना चाहता।
अकेले होते डर
लगता है इसलिए
राजनीति हो, तो कोई
पार्टी को साथ
हो। धर्म हो
तो किसी चर्च
का, किसी
संगठन का
हिस्सा बनो।
सब करो, मगर
खुद अकेले खड़े
होने की कभी
कोशिश मत
करना।
तो
दूसरों पर
करुणा करना, नाराजगी
नहीं। और उनको
सहारा देना कि
वे भी अकेले
हो सकें। मैं
तो उसी को
सदगुरु कहता
हूं जो
तुम्हें
अकेला होना
सिखा दे, जो
तुम्हारा
भीतर एकांत के
द्वार खोल दे।
क्योंकि उन
एकांत के
द्वारों के
भीतर है वह, जो एक है, वह
जो सदा से एक
है, उसका
निवास है।
अकेले होकर
तुम मंदिर बन
जाते हो उस एक
के। भीड़ में
खोकर तुम
सिर्फ एक
अंशमात्र रह
जाते हो, जैसा
कि सैनिकों का
सारी दुनिया
में हाल होता है।
उनके नाम छिन
जाते हैं।
नामों की जगह
उन्हें नंबर
मिल जाते हैं।
ऊपर से देखने
में कुछ फर्क
नहीं मालूम पड़ता,
मगर भीतर
गहरे अर्थ
छिपे हैं।
जब तुम
सांझ को तख्ती
पर पढ़ते हो कि
बार नंबर शहीद
हो गया, तब
तुम्हें यह
ख्याल भी नहीं
आता कि बारह
नंबर के
छोटे-छोटे
बच्चे होंगे।
नंबरों के
कहीं बच्चे
होते हैं? या
कि बारह नंबर
की औरत भी
होगी, जो
घर राह देख
रही है। और
जिसकी
प्रार्थनाएं
सिर्फ इसी
प्रतीक्षा से
भरी हैं कि कब
बारह नंबर घर
लौट आए। मगर
बारह नंबर की
कहीं कोई
पत्नियां
होती हैं? नंबर
शादी वगैरह
करते ही नहीं।
बारह नंबर के
कोई बूढ़े
मां-बाप होते
हैं?
बारह
नंबर
तुम्हारे
भीतर ये सारी
बातें नहीं
उठाता। अगर
वहां असली
आदमी का नाम
लिखा होता, तो बात कुछ
और होती।
तुम्हारे मन
में न मालूम कितनी
भावनाएं
उठतीं, न
मालूम कितने
विचार उठते।
मगर बारह नंबर
तुम तख्तियों
पर पढ़ लेते हो,
और आराम से
गुजर जाते हो।
कोई लकीर भी
दुख की तुम्हारे
भीतर नहीं उठती।
और बड़ी सुविधा
है बारह नंबर
में। क्योंकि
कल किसी दूसरे
को बारह नंबर
दे दिया
जाएगा।
आदमी
एक खो जाए, तो फिर
दुबारा वैसा
ही आदमी खोजना
मुश्किल है।
उसकी जगह अब
खाली है, और
सदा खाली
रहेगी। उसे
भरा नहीं जा
सकता। वह रिक्त
स्थान, वह
घाव अब सदा ही
हरा रहेगा। लेकिन
सुविधापूर्ण
है। यह किसी
की भी छाती पर
चिपका दो...यूं
नंबर गिरते
जाते हैं, नंबर
बदलते जाते
हैं, लेकिन
बारह नंबर
जिंदा रहता
है। आदमी मरते
रहते हैं, सड़ते
रहते हैं, लेकिन
बारह नंबर नए
आदमियों पर
जुड़ता चला जाता
है।
भीड़
में भी तुम एक
नंबर हो जाते
हो। व्यक्तित्व
तुम्हारा खो
जाता है, तुम्हारी
निजता छिन
जाती है। तुम
नहीं तो कोई और
तुम्हारी जगह
ले लेगा।
क्लर्क हो, कोई और
क्लर्क हो
जाएगा। स्कूल
में मास्टर हो,
कोई और
मास्टर हो
जाएगा, लेकिन
तुम जैसा तो
कोई भी नहीं
है। ठीक
तुम्हारी जगह
भरने का कोई
उपाय नहीं है।
तो जिनको
दिखाई न पड़ता
हो तुम्हारे
जैसा, उन
पर प्रेम
बरसना, उन
पर करुणा करना,
उनकी तरफ
दोस्ती का हाथ
बढ़ाना।
उन्हें भीड़ के
बाहर लाना है।
उन्हें भी
अकेलेपन का रस
और स्वाद
दिलाना है।
उन्हें उनकी
खोयी निजता
वापस मिल जाए।
तो अब तक वे एक
मुर्दा थे, अब जिंदा
हुए। अब उनका
पुनर्जन्म
हुआ। अब तक
खाली थे, अब
एक आत्मा बने।
जार्ज
गुरजिएफ
पश्चिम का एक
बहुत अनूठा
सिद्ध-पुरुष, एक बड़ी
अजीब-सी बात
कहा करता था, जो कभी किसी
और साधु ने, किसी और
सिद्ध ने, किसी
और बुद्ध ने
नहीं कही। वह
कहता था कि
सभी के पास
आत्माएं नहीं
होतीं। कुछ
लोग अगर खोज
करें, मेहनत
करें, श्रम
करें तो शायद
उनके भीतर
आत्मा पैदा हो
जाए।
उसकी
बात थोड़ी अजीब
लगती है, मगर
एक गहरा अर्थ
लिए है।
आत्माएं तो
सभी के पास
होती हैं। मगर
होने से ही
क्या होगा? तुम्हें
उनकी याद भी
तो होनी
चाहिए।
तुम्हें अपनी
निजता का कोई
बोध ही नहीं है।
तो लाख आत्मा
तुम्हारे
भीतर पड़ी रहे,
इस गहरे
अंधेरे और इस
नींद में उसका
होना, न
होने के बराबर
है। यही
गुरजिएफ कह
रहा था, कि
सभी के पास
आत्मा नहीं
होती।
और जो
भीड़ में एक
अंग बन गए
हैं--कोई
हिंदू बन गया
है, कोई
मुसलमान बन
गया है, कोई
ईसाई बन गया
है--इनके पास
कोई आत्मा
नहीं होती।
स्वयं बनना
होगा।
तुम्हें
अगर कुछ दिखाई
पड़ने लगा है
तो धन्यवाद दो
अस्तित्व को, और अपने
सौभाग्य को
बांटो। कम से
कम उनमें तो बांटो,
जिन्हें
तुम प्रेम
करते हो। कम
से कम उन्हें
तो खींचो और
जगाओ, जो
तुम्हारे
मित्र हैं।
और इस
दुनिया में अगर
कोई किसी का
कोई भी किस्म
का भला कर
सकता है, तो
वह एक ही भला
है: कि उस
व्यक्ति को
उसकी आत्मा की
याद आ जाए; और
वह अपने
व्यक्तित्व
को, अपनी
निजता को भीड़
से अलग कर ले।
भीड़ से
अलग होते ही
आदमी भेड़ नहीं
रह जाता, आदमी
बनता है। भीड़
भेड़ों की। फिर
नाम उसका कुछ
भी हो।
अकेले
आदमी का कोई
नाम नहीं। जो
अपनी निजता में
डूब गया, उसकी
कोई और पहचान
नहीं है, सिवाय
उसके आनंद के,
सिवाय उसके
उल्लास के, सिवाय उसकी
अंतर्दृष्टि
के। उसे फूलों
में वे रंग
दिखाई पड़ने
लगते हैं जो
औरों को दिखाई
नहीं पड़ते।
उसे जगत में
उस सौंदर्य का
अनुभव होने
लगता है, जहां
से दूसरे यूं
गुजर जाते हैं
जैसे कुछ भी नहीं
हो रहा है।
वही पुराना
जगत, वही
धूल जमी हुई
चीजें, लेकिन
जिस व्यक्ति
को अपनी निजता
का बोध होता है--एक
स्वच्छता, एक
ताजगी चारों
ओर उसके फैल
जाती है। और
तब उसे भी वही
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाएगा,
जो तुम्हें
दिखाई पड़ता
है। उसे भी
वही अनुभव शुरू
हो जाएगा, जो
तुम्हें आज हो
रहा है।
लेकिन
तुम उसे
समझाना मत।
तुम उसे
समझाने चलोगे
तो न समझा
पाओगे। किस
अंधे को कौन
समझा पाया है
कि रोशनी है? किस बहरे को
कौन समझा पाया
है कि संगीत
भी है? समझाना
मत। उसे भी
खींचकर उसी
दशा में ले
आओ--उसी ध्यान
में, उसी
मौन में, उसी
शांति में, जिसमें तुम
आए और
तुम्हारी
आंखें खुलीं।
उसे भी उसी
खिड़की पर ले
जाओ, जहां
से तुमने
तारों को देखा,
और खुला
आकाश देखा।
उसे भी दिखाई
पड़ेगा। जो है
वह दिखाई पड़ने
वाला है ही; बस आंख खुली
होना चाहिए।
समझाने
का सवाल नहीं
है। और समझा
तुम न पाओगे।
अंधों के भी
बड़े तर्क होते
हैं। और कुछ
बातें हैं, जिन्हें
तर्कों से
सिद्ध किया जा
सकता नहीं। रोशनी
को क्या तर्क
दोगे, कि
अंधे आदमी को
भरोसा आ जाए
कि रोशनी है? न तो अंधा
उसे छू सकता
है, न अंधा
उसे चख सकता
है, न अंधा उसे
बजाकर सुन
सकता है, न
अंधा उसकी गंध
ले सकता है।
अंधे
के पास आंख ही
नहीं है, तो
तुम्हारा
तर्क क्या
करेगा? कुछ
बातें हैं, और वे ही
बातें जीवन की
सर्वाधिक
मूल्यवान बातें
हैं--जो
तर्कातीत हैं,
जो तर्क के
पार हैं। और
तुम अगर
समझाने चले, तो खतरा यह
है कि अंधा
कहीं
तुम्हारे पैर
न डगमगा दे।
और अंधों की भीड़
है। सारे मत
उनके साथ हैं
और तुम अकेले
हो।
मैंने
सुना है, एक
आदमी को यह
पागलपन छा गया
कि वह मर गया
है। पागलों को
भी एक से एक
सूझें उठती
हैं। अब क्या गजब
का खयाल है!
क्या अनूठी
सूझ है! क्या
प्रतिभा!
पहले
घर के लोगों
ने समझा कि वह
मजाक कर रहा
है। लेकिन थोड़ी
ही देर में
समझ में आया
कि वह मजाक
नहीं कर रहा
है, तो चिंता
बढ़ी। बहुत
समझाया कि
कैसी बातें
करते हो? अच्छे
भले हो, भले-चंगे
हो। बोलते हो,
उठते हो, बैठते हो।
उसने कहा, वह
सब ठीक है।
लेकिन किसने
तुमसे कहा कि
मुर्दे नहीं
चलते? अब
मैं मुर्दा
हूं और मैं
जानता हूं कि
मुर्दे चलते
हैं, बोलते
हैं, शादी-विवाह
तक करते हैं।
घर के लोगों
ने कहा, हद
कर दी। कम से
कम इतनी दूर
तो न जाओ। और
दुकान का वक्त
हो रहा है।
उसने कहा, दुकान
भी चलेगी। मगर
यह ध्यान रहे
कि मैं मर चुका
हूं। मुर्दे
दुकान भी
चलाते हैं।
दिन-दो
दिन, चार दिन,
सारे
मोहल्ले, गांव,
आसपास के
गांवों में
खबर फैल गई कि
इस आदमी को यह
भ्रांति हो गई
है कि यह मर
गया है।
खाता-पीता है,
दुकान भी
चलता है, उठता-बैठता
भी है...और तर्क
में जो कुशल
थे, पंडित
थे, वे भी
उसे समझाने आए,
मगर सब
हारकर लौटे।
क्योंकि क्या
समझाओ उसे? वह सब बातें
मानने को राजी
है। मगर वह
कहता है कि
मुर्दे ये सब
बातें करते
हैं। अब तुम
मुर्दे हो
नहीं, तो
तुम जानोगे
क्या खाक।
पहले मुर्दा
बनो। अब हम जब
मुर्दा बने तब
हमें पता चला
कि क्या गजब हो
रहा है दुनिया
में।
आखिर
मजबूरी में
उसको एक
मनोवैज्ञानिक
के पास ले गए, कि किसी तरह
कुछ करो, इसकी
यह भ्रांति
तोड़ो।
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, घबड़ाओ
मत। तोड़
देंगे। उसे
बिठाया। उस
आदमी से पूछा,
कि तुम
सोचते हो कि
तुम मर गए हो?
उसने
कहा, हद हो गई।
इसमें सोचने
का सवाल कहां
है? क्या
तुम सोचते हो
कि तुम जिंदा
हो? अरे
तुम्हें
मालूम है कि
तुम जिंदा हो,
इसी तरह
हमें मालूम है
कि हम मर गए।
सोचने की बात
ही कहां आती
है? क्या
तुमने सोच-सोच
कर तय किया है
कि तुम जिंदा
हो? न हमने
सोचा है।
अनुभव की बात
है।
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, बात
तो तुम बड़ी
ऊंची कर रहे
हो। सोचा तो
हमने भी कभी
नहीं। मगर तुम
बोल रहे हो, और गजब के
तर्क दे रहे
हो। कुछ करना
होगा। तुमने
यह सुना है--जब
तुम जिंदा हुआ
करते थे, तब
की बातें कर
रहे हैं--तब
तुमने कभी यह
सुना है, कि
अगर मुर्दे को
हाथ में चोट
पहुंच जाए, तो खून नहीं
निकलता?
उसने
कहा, जरूर सुना
है। जब जिंदा
थे, तब
जैसे तुमने
सुना, हमने
भी सुना था कि
मुर्दे के हाथ
में चोट लगे, तो खून नहीं
निकलता।
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, तब
ठीक है। उसने
चाकू निकाला
और इस पागल के
हाथ में थोड़ा
सा काटा। खून
छलककर बहने
लगा। उसे मनोवैज्ञानिक
ने कहा, अब
क्या इरादे
हैं?
उसने
कहा, इरादे
क्या हैं!
कहावत गलत है।
किसी नालायक
ने कभी कहावत
की परीक्षा
नहीं की। अब
सिद्ध हो गया
कि मुर्दे भी
जब काटे जाते
हैं तो खून
बहता है।
कहावत बदल दो।
पागलों
के भी तर्क
होते हैं।
समझाना मत।
कुछ बातें हैं, जो समझाने
से बिगड़ जाती
हैं, उलझ
जाती हैं।
फुसलाना। यही
मेरा धंधा है।
आहिस्ता-आहिस्ता
फुसलाकर उस
झरोखे पर ले
आना, जहां
से दूर के
चांदत्तारे
दिखाई पड़ते
हैं, जहां
से खुले आकाश
का अनुभव होता
है। फिर तुम्हें
कुछ कहना नहीं
पड़ता। फिर
बिना कुछ कहे
वह व्यक्ति
तुम्हें
धन्यवाद
देगा। जीवन भर
तुम्हारा
अनुगृहीत
रहेगा।
तुम्हारे
प्रति उसके मन
में कृतज्ञता
होगी।
क्योंकि
वह सोया था और
तुमने उसे
जगाया है। वह
आंखें बंद किए
सूरज के सामने
खड़ा था और
तुमने उसकी
आंखें खोलीं।
और इस ढंग से
खोलीं कि उसे पता
भी न चला।
जिसके
जीवन में
अध्यात्म की
कोई किरण
उतरने लगे, उसे बहुत सम्हलकर,
जिनको वह
प्रेम करता है,
उनको इस
अनुभव में
भागीदार
बनाना चाहिए।
मगर बहुत
सम्हलकर, फूंक-फूंक
कर पैर रखना
कि आवाज भी न
हो।
तुम्हें
जो दिखाई पड़
रहा है, अगर
उससे
तुम्हारे
जीवन में आनंद
आया है--तुम्हारे
जीवन में आनंद
आया है, तुम्हारे
जीवन में वसंत
उतरा है, तो
सत्य की और
कोई कसौटी
नहीं है। और
जिसे नहीं
दिखाई पड़ रहा
है, वह दुख
में जी रहा है,
नर्क में जी
रहा है। सत्य
की और कोई
पहचान नहीं
है।
लेकिन
बड़ी कुशलता
चाहिए।
क्योंकि लोग
अपने दुखों से
भी बड़ा मोह
बांध लेते
हैं। उन्हें
भी छोड़ने का
उनका मन नहीं
होता। वह भी
उनकी संपदा बन
जाती है। और
तुम भलीभांति
जानते हो, कि लोग जब
देखो, तब
अपने दुखों की
चर्चा करते
हैं। और
बढ़ा-चढ़ाकर
करते हैं।
सभी को
मालूम है।
क्योंकि तुम
भी वही करते
हो, और भी वही
करते हैं।
जरा-सा
फोड़ा-फुन्सी
हो जाए, तो
कैंसर हो जाता
है। क्योंकि
क्या फोड़ा-फुन्सी!
होगा तो कैंसर
ही होगा। यहां
हर चीज में दौड़
है और हर चीज
में होड़ है।
और हर चीज में
आगे होना है, यहां किसी
से पीछे नहीं
रहना है।
दूसरे कमबख्त
कैंसर लिए घूम
रहे हैं, और
तुम
फोड़ा-फुन्सियों
में उलझे हो।
लोग
अपने दुख को
भी यूं पकड़ते
हैं कि जैसे
वह संपदा हो।
किसी को उसके
दुख के बाहर
निकालना बड़ी
कला की बात है; और बड़े धीरज
की और बड़े
प्रेम की।
तो
जिन्हें
दिखाई नहीं
पड़ता हो, उनकी
बात सुन लेना
और कहना कि हो
सकता है, तुम
सही हो। हो
सकता है कि
मैं जो देख
रहा हूं, वह
भ्रम है।
इसीलिए तो
तुम्हें
दिखाई नहीं पड़
रहा है। मगर
और जरा करीब
आओ, जरा
किसी और कोण
से देखें।
शायद किसी और
कोण से, मन
की किसी और
दशा में, चित्त
की किसी और
शांति में
तुम्हें भी
दिखाई पड़ जाए।
तो
बहुत
आहिस्ता-आहिस्ता
फुसलाना। मगर
यूं छोड़ मत
देना।
क्योंकि वैसा
करना बड़ी
कठोरता होगी, बड़ी क्रूरता
होगी। यह मत
सोच लेना कि
ठीक है, नहीं
दिखाई पता है
तो भीड़ में
जाओ। नहीं, तुम्हारी
अंतर्दृष्टि
अगर खुल रही
है, तो
तुम्हारी
करुणा उसे
खोलने में और
सहयोगी बनेगी।
अगर
तुम चार
व्यक्तियों
में अपने
प्रेम और करुणा
को बांट सको
तो तुम्हारी
आंख और भी साफ
हो जाएगी, दृष्टि और
भी प्रखर हो
जाएगी। जितना
तुमने देखा है,
उससे और भी
ज्यादा देखने
की क्षमता
तुममें पैदा
होगी। बांटो।
अपने अनुभवों
को बांटो। मगर
बांटना बहुत
प्रेम से, प्रसाद-रूप।
तर्क
का लट्ठ लेकर
मत किसी के
पीछे पड़ जाना।
आहिस्ता से, लोरी गाकर:
कि दूसरे को
यह खयाल भी न
हो कि तुम उसकी
मनोदशा को
बदले दे रहे
हो। उसे खयाल
भी आ गया कि
तुम उसकी
मनोदशा को बदल
रहे हो, कि
वह एंठ जाएगा।
लोगों
के बड़े अजीब
अहंकार हैं।
दुख भी है तो अपना
है। और आनंद
भी है तो क्या
लेना-देना है? दूसरे का
है। अंधापन है,
तो भी अपना
है। आदमी अपने
अहंकार से सब
कुछ जोड़ लेता
है।
और जिन
व्यक्तियों
के जीवन में
यह सौभाग्य घटित
होता हो, कि
कहीं से इस
अहंकार में
दरार पड़ जाती
हो और जीवन के
सत्य का
थोड़ा-सा अनुभव
होता हो, उन्हें
करुणा से भर
जाना चाहिए, प्रेम से भर
जाना चाहिए।
प्रेम
के अतिरिक्त
किसी दूसरे को
बदलने का और कोई
उपाय नहीं है।
प्रेम कीमिया
है। प्रेम ही
एकमात्र औषधि
है, जो समाधि
तक ले जा सकती
है। व्याधि से
लेकिन समाधि
तक की यात्रा
प्रेम के
सहारे हो सकती
है।
तो
जिसको दिखाई न
पड़ता हो उसे
प्रेम दो, सहारा दो।
पांडित्य
नहीं, सिद्धांत
नहीं, समझाने
की चेष्टा
नहीं; बल्कि
आहिस्ता-आहिस्ता,
अपनी
भावदशा में
डुबकी लगाने
का एक अवसर।
एक दिन उसे भी
दिखेगा।
क्योंकि जो
तुम्हें
दिखाई पड़ा है,
वह कोई भ्रम
नहीं है।
प्रश्न:
फरिश्तों के
हरम में सब
हूर को हैरत हो
शेर
पेश करूं खुद
मैं, बयां
तेरी ही सूरत
हो।
चुप
साज हो, जन्नत
के गाने की भी
फुरसत हो
बेताब
नगमों को तेरी
आवाज की जरूरत
हो
मौसम-ए-बारिश
की लकीर तिरछा
हुआ खंजर हो
नहलाने
को तू आए, तेरे प्यार
का मंजर हो
बंदा
कोई गाता हो
और तेरी ही
रुबाई हो
तू
ही खुदा हो और
यह फन तेरी
खुदाई हो
मेरे
प्यारे-प्यारे
भगवान, आपसे
में मुहब्बत
करती हूं।
मेरी भौतिक देह
ही सिर्फ
पुरुष की है।
बाकी तो मैं
हृदय से, मन
से आपकी
प्रेमिका
हूं।
मेरे
संन्यासी
मित्र मुझे पर
दबाव डालते
हैं कि मैं
किसी लड़की से
शादी कर लूं।
भगवान, मैं
उन्हें कैसे
समझाऊं कि एक
स्त्री दूसरी
स्त्री से
कैसे शादी कर
सकती है? मेरी
तो शादी आप से
ही हो चुकी है,
और मुहब्बत
भी।
मेरे
प्रेम की
नाजुक कली को
स्वीकार
करें। मेरे
महबूब, वंदन।
मार्गदर्शन
करें।
तुम्हारा
प्रश्न
बहुतेरे
महत्वपूर्ण
सवालों को
जन्म देता है।
सबसे
महत्वपूर्ण
सवाल तो यह है
कि प्रेम
सचमुच, चाहे
पुरुष का हो
चाहे स्त्री
का, व्यक्ति
को स्त्रैणता दे
देता है।
क्योंकि
प्रेम
स्त्रैण है।
पुरुष
शब्द परुष से
बना है। परुष
का अर्थ है कठोर।
पुरुष के
प्राणों में
प्रेम के झरने
दबे होते हैं, प्रकट नहीं।
उसकी सारी
ऊर्जा उसके
विचारों में,
उसकी
बुद्धि में
संलग्न होती
है। उसका हृदय
छूंछा ही रह
जाता है। यूं
वह कभी प्रेम
भी करता है, तो वह यूं ही
होता
है--बूंद-बूंद।
घनघोर वर्षा नहीं
हो पाती। वह
प्रेम भी करता
है, पछताता
भी बहुत है।
प्रेम करके
पछताता भी बहुत
है। प्रेम
करके पछताता
ही है, कि
कहां की झंझट
में पड़ गया।
इन्हें
पुरुषों ने
दुनिया मग उस
अधकचरे संन्यास
को जन्म दिया
कि भागो, संसार
त्यागो।
संसार तो केवल
शब्द था।
उसमें छिपा था,
"भागो
स्त्री से'।
स्त्री ही
संसार है।
छोड़ो
घर-द्वार। यूं
कहने को
घर-द्वार, लेकिन
मतलब साफ था।
कहते भी हम
स्त्री को
घरवाली है।
बड़ा मजा है, घर होता है
पुरुष का, मगर
स्त्री होती
है घरवाली।
संसार हो
कि घर हो कि
स्त्री
हो--अगर हम इस
सबका निचोड़ ठीक
से समझें, तो यह
पुराना
जीवन-विरोधी
संन्यास
वस्तुतः प्रेम-विरोधी
संन्यास था।
प्रेम को
छोड़ो। तुम्हारे
जीवन में
प्रेम की बूंद
न रह जाए, सुखा
डालो। तुम
केवल बुद्धि
रह
जाओ--पांडित्य।
तुम्हारा
सारा होना
तुम्हारी
खोपड़ी के भीतर
हो। तुम्हारा
हृदय सिर्फ
खून को शुद्ध
करने की मशीन
रह जाए। वहां
कोई प्रेम, वहां कोई
काव्य, वहां
कोई रस--इसकी
संभावना भी न
बचे।
तुम्हारा
प्रश्न इसलिए
महत्वपूर्ण
है, कि
स्पष्ट रूप से
तुम्हें एक
बात का दर्शन
हो गया है, कि
जब से तुम
प्रेम में डूबे
हो, तुम्हें
यूं लगने लगा
है कि तुम एक
स्त्री हो।
आधुनिक
मनोविज्ञान, विशेष कर
कार्ल
गुस्ताव जुंग
की
मनोविज्ञान की
खोजें, पूरब
में खोजी गई
हजारों वर्ष
पुरानी
परंपरा को
पुनः सिद्ध
करती है।
तुमने
अर्धनारीश्वर
की प्रतिमा
देखी होगी, जिसमें शिव
आधे पुरुष हैं,
आधे स्त्री
हैं। कार्ल
गुस्ताव जुंग
के पहले यही
समझा जाता रहा
कि यह सिर्फ
एक पौराणिक
कथा है। आधा
पुरुष होना, आधा स्त्री
होना--क्या
पागलपन की बात
है? लेकिन
कार्ल
गुस्ताव जुंग
के जीवन भर का
अनुसंधान इस
बात को
वैज्ञानिक
आधारों पर
सिद्ध करता है,
कि
प्रत्येक
व्यक्ति आधा
पुरुष है, आधा
स्त्री है।
स्त्री भी, पुरुष भी।
क्योंकि तुम
मां-बाप से
पैदा हुए हो।
न अकेली मां
से, न
अकेले बाप से।
तुम्हारे
भीतर
तुम्हारे पिता
की भी आवाज है
और तुम्हारी
मां की भी।
तुम्हारे
भीतर
तुम्हारे
पिता की भी
छवि है और
तुम्हारी मां
की भी। तुम दोनों
का जोड़ हो। हो
सकता है, तुम
पुरुष हो तो
तुम्हारा
स्त्री का रूप
नीचे दबा
रहेगा। लेकिन
जब भी तुम
प्रेम करोगे
तब वह उभर कर आ
जाएगा।
क्योंकि
पुरुष प्रेम
नहीं कर सकता।
वह उसकी
क्षमता नहीं
है।
वह
वैज्ञानिक हो
सकता है, कवि
नहीं। वह
गणितज्ञ हो
सकता है, संगीतज्ञ
नहीं। वह
दार्शनिक हो
सकता है, लेकिन
एक कलाकार
नहीं।
क्योंकि
कलाकार होने के
लिए, संगीतज्ञ
होने के लिए, मूर्तिकार
होने के लिए, नर्तक होने
के लिए, चित्रकार
होने के लिए
जिस कोमलता की
जरूरत है, वह
पुरुष में
नहीं है।
पुरुष में
तलवार की धार
हो सकती है
लेकिन फूलों
की कोमलता
नहीं। और यह
बड़ी अड़चन और
दुविधा की बात
है। क्योंकि
तुम दोनों हो,
इसलिए बड़ी
परेशानी है।
तुम्हारे
भीतर ही द्वंद्व
है।
जापान
से मेरे एक
मित्र ने मुझे
बुद्ध की एक मूर्ति
भेजी थी। मैं
हैरान हुआ।
मूर्ति पुरानी
थी। कोई तीन
सौ, चार सौ
वर्ष पुरानी।
लेकिन मूर्ति
सिर्फ बुद्ध
की मूर्ति न
थी, उसमें
कुछ और भी था।
बुद्ध के एक
हाथ में तलवार
थी और एक हाथ
में दीया। और
मित्र ने मुझे
पत्र लिखा था
कि जब आप
मूर्ति को
देखें तो कृपा
कर तेल भरकर, दीये को
जलाकर, तभी
मूर्ति को
देखना।
क्योंकि इस
मूर्ति की खूबी
यही है।
दीये
को जलाकर जब
मैंने मूर्ति
को देखा तो
मैं सच में
चकित हो गया।
जिस हाथ में
तलवार थी, दीये की
रौनक में वह
तलवार चमक रही
थी। और उस तरफ
बुद्ध का
चेहरा जो था, वह यूं था
जैसे तलवार की
धार हो। और
जिस हाथ में
दीया था, उससे
बुद्ध के
चेहरे का
दूसरा हिस्सा
भी चमक रहा
था। लेकिन वह
ऐसे लग रहा था,
जैसे दीये
की लौ, या
कोई खिला हुआ
गुलाब का फूल।
वैसी मृदुता!
वैसी मधुरिमा!
वैसी मिठास!
उसने
अपने पत्र में
लिखा था कि
जिस चित्रकार
ने यह मूर्ति
बनाई है, वह
कोई साधारण
मूर्तिकार या
चित्रकार
नहीं था। वह
एक
अनुभवसिद्ध
फकीर था।
जुंग ने
इस सत्य को
बहुत
वैज्ञानिक
आधारों पर
सिद्ध करने की
कोशिश की। और
आज यह एक
स्वीकृत सत्य है
कि प्रत्येक
व्यक्ति के
भीतर दोनों
हैं। इन दोनों
के बीच
द्वंद्व है, संघर्ष है।
तलवार और
गुलाब के फूल
के बीच बनती
नहीं, ठनती
है।
और
इसीलिए आदमी
दुखी है और
परेशान है। उसे
किसी तरह का
सामंजस्य
खोजना जरूरी
है। उसे इन
दोनों के बीच
कोई सेतु
बनाना जरूरी
है। ये दोनों
विरोधी न रह
जाएं, एक-दूसरे
के परिपूरक हो
जाएं, तो
व्यक्ति के
जीवन में
शांति का
अवतरण होता है।
तुम्हारा
मेरे प्रति
प्रेम, अगर
तुम्हें
सिर्फ स्त्री
बनाकर छोड़ दे
तो बात पूरी न
हुई। मेरा
प्रेम
तुम्हारे
पुरुष को भी
जगमगा दे, तो
ही बात पूरी
हुई। मेरा
प्रेम
तुम्हारे भीतर
के पुरुष को
मार डाले तो
यह हत्या हो
गई। मैं इस
हत्या के पक्ष
में नहीं हूं।
मैं चाहूंगा कि
मेरा प्रेम
तुम्हारे
भीतर जो
द्वंद्व है, वह जो
तुम्हारे
भीतर दो हैं, उन्हें
जोड़ें।
तुम
कहते हो, मेरी
तो आपसे शादी
हो गई है। अब
मुझे तो न
उलझाओ।
बामुश्किल बच
पाया हूं। और
बेवक्त तुम आ
गए। तुम्हारी
स्त्री की
शादी
तुम्हारे
पुरुष से होनी
चाहिए, मुझसे
नहीं। मुझे
क्षमा करो।
क्योंकि मेरी
भी शादी हो
चुकी है। अब
दो-दो शादी के
जुर्म में
मुझे मत
फंसवाओ। वैसे
ही मुझ पर
मुकदमों की
कमी नहीं है।
मेरा पुरुष तो
मेरे भीतर की
स्त्री से
शादी कर चुका
है। शादी ही
नहीं कर चुका
है, वह
द्वंद्व, वह
विरोध, वह
दूरी, जो
उन दोनों में
होती है, सब
समाप्त हो गई
है।
मैं
कठोर से कठोर
भी हो सकता
हूं तलवार की
तरह, और मैं
कोमल से
कोमलतर भी हो
सकता हूं एक
फूल की तरह।
और मैं एक ही
साथ तलवार और
फूल, दोनों
भी हो सकता
हूं। और तुमने
इसे कई बार अनुभव
भी किया होगा।
तो
भैया, इतनी
कृपा करो। अब
तुम्हें भया
कहूं या बहन
कहूं? जो
भी तुम ठीक
समझो। शादी
होने दो, मगर
तुम्हारे
भीतर ही होने
दो।
तुम्हारे
भीतर भी दोनों
मौजूद हैं। और
परम संन्यास
इस आंतरिक
सम्मिलन का
नाम ही है, जब तुम्हारे
भीतर के पत्थर
फूल हो जाते
हैं; और
तुम्हारे
भीतर के फूल
पत्थरों की
तरह मजबूत हो
जाते हैं; जब
तुम्हारे
भीतर का जहर
अमृत बन जाता
है और तुम्हारे
भीतर का अमृत
जहर से कोई
दुश्मनी नहीं
रखता, जब
तुम्हारे
भीतर दुई नहीं
बचती, जब
तुम्हारे
भीतर एक का ही
साम्राज्य हो
जाता है।
संन्यासी
मित्र तुमसे
कहते हैं, विवाह कर
लो। तुम्हारी
कठिनाई मैं
समझता हूं, कि अब एक
स्त्री दूसरी
स्त्री से
कैसे विवाह करे?
और करना भी
मत। क्योंकि
पुरुष भी
स्त्री से
विवाह करके
इतनी झंझटों
में पड़ता है।
स्त्री
स्त्री से
विवाह करके तो
समझो, कि
नर्क ही नर्क
है। लेकिन
विवाह जरूर
करो। तुम्हारे
भीतर की
स्त्री और
तुम्हारे
भीतर का पुरुष,
दोनों
संयुक्त हों।
और तुम्हारा
वर्तुल पूरा
हो जाए, अधूरा
न रहे।
यही
मनुष्य की
पूर्णता की
धारणा है। तुम
अपने को
स्त्री मानकर
मत बैठ रहना।
क्योंकि
तुमने कहीं
अपने पुरुष को
दबाया होगा।
वह कहीं आस ही
पास दबा होगा।
तुमने काली की
प्रतिमाएं
देखी हैं, जो शिव की
छाती पर खड़ी
हैं? ये
सारी
प्रतिमाएं
पौराणिक
कहानियां नहीं
हैं, यह
मनोवैज्ञानिक
सत्य भी है।
तुम
भूल गए कि
तुम्हारा
पुरुष कहां
है। वह तुम्हारे
ही पैरों के
नीचे दबा हुआ
पड़ा है। उस गरीब
को छुटकारा
दो। यूं बेमौत
न मारो। और
तुम उसे मारकर
अधूरे ही
रहोगे। उसका
दमन कर, उसे
अंधेरे में
फेंककर तुम
कभी पूरे न हो
पाओगे। उसकी
तलाश करो, उसे
कहां दबाया
है। उसकी खोज
करो। शांत
बैठो और तलाश
करो। तुम अपने
ही भीतर दोनों
को पाओगे।
क्योंकि हर एक
के भीतर दोनों
हैं।
और
दोनों
मित्रता से भी
रह सकते हैं
और दोनों शत्रुता
से भी रह सकते
हैं। आमतौर से
उन्होंने
शत्रुता चुनी
है, क्योंकि
शत्रुता
सस्ती बात है।
उसे बुद्धू से
बुद्धू आदमी
कर सकता है।
आमतौर से
लोगों ने
मित्रता नहीं
चुनी।
क्योंकि वह
मंहगा सौदा
है। शत्रुता
में छीन-झपट
है, हिंसा
है। मित्रता
में देने के
सिवाय लेने की
कोई आकांक्षा
नहीं है। वहां
प्रेम है और
करुणा है और
अहिंसा है।
तुम आज
की रात शादी
हो ही जाने
दो। तुम घर
अकेले मत जाना।
और अब, जब
कोई तुमसे
शादी करने को
कहे, तो
कहना कि हो गई
शादी। और वह
जो तुम्हारे
भीतर पुरुष
छिपा है, उससे
शादी करके तुम
मेरे और भी
निकट आ जाओगे।
क्योंकि उससे
शादी करके तुम
और भी शांत हो
जाओगे। एक झील
बन जाओगे, जिसमें
लहर भी नहीं
उठती। एक
संगीत बन
जाओगे, जिसमें
न कोई स्वर है,
न कोई आवाज
है--बस
सन्नाटा है।
तुम
अपने भीतर एक
हो जाओ, तो
तुम मेरा हृदय
जीत लिए; तो
तुमने वह काम
पूरा कर दिया
है, जो
संन्यासी को
पूरा करना है,
हर
संन्यासी को
करना है।
अभिमान
ओर स्वाभिमान
में कया भिन्नता
है?
स्वाभिमान
अभिमान नहीं।
भिन्नता ही
नहीं है, विरोध
है। अभिमान
दूसरे से अपने
को श्रेष्ठ समझने
का भाव है।
अभिमान एक रोग
है। किस-किस
से अपने को
श्रेष्ठ
समझोगे? कोई
सुंदर है
ज्यादा, कोई
स्वस्थ है
ज्यादा, कोई
प्रतिभाशाली
है, कोई
मेधावी है।
अभिमानी
जीवन भर दुख
झेलता है।
जगह-जगह चोटें
खाता है। उसका
जीवन घाव और
घाव से भरता
चला जाता है।
दूसरे से
तुलना करने
में अभिमान
है। और मैं दूसरे
से श्रेष्ठ
हूं, ऐसी धारण
में अभिमान
है।
स्वाभिमान
बात ही और है।
स्वाभिमान
अत्यंत विनम्र
है। दूसरे से
श्रेष्ठ होने
का कोई सवाल नहीं
है। सब
अपनी-अपनी जगह
अनूठे हैं। यह
स्वाभिमान की
स्वीकृति है
कि कोई किसी
से न ऊपर है, और कोई किसी
से न नीचे है।
एक छोटा-सा
घास का फूल और
आकाश का बड़े
से बड़ा तारा, इस अस्तित्व
में दोनों का
समान मूल्य
है। यह छोटा-सा
घास का फूल भी
न होगा तो
अस्तित्व में
कुछ कमी हो
जाएगी, जो
महातारा भी
पूरी नहीं कर
सकता।
स्वाभिमान
इस बात की
स्वीकृति है
कि यहां प्रत्येक
अनूठा है। और
कोई दौड़ नहीं
है, कोई
प्रतिस्पर्धा
नहीं है, कोई
महत्वाकांक्षा
नहीं है। हां,
यदि कोई
दूसरा तुम पर
आक्रामक
हो...स्वाभिमान
में कोई
आक्रमण नहीं
है, लेकिन
अगर कोई दूसरा
तुम पर
आक्रामक हो तो
स्वाभिमान
में संघर्ष की
क्षमता
है--दूसरे को
छोटा दिखाने
के लिए नहीं, दूसरे का
आक्रमण गलत है,
हर आक्रमण
गलत है यह
सिद्ध करने
को।
स्वाभिमान
की कोई अकड़
नहीं।
सीधा-सदा है।
लेकिन बड़ी से
बड़ी शक्ति
दुनिया का
स्वाभिमानी
व्यक्ति को
नीचा नहीं
दिखा सकती। यह
बड़ा अनूठा राज
है।
स्वाभिमानी
व्यक्ति
विनम्र है, इतना विनम्र
है कि वह खुद
ही सबसे पीछे
खड़ा है। अब
उसको और कहां
पीछे
पहुंचाओगे?
अब्राहम
लिंकन के
संबंध में एक
उल्लेख है कि
एक विशेष
वैज्ञानिकों
के सम्मेलन
में उन्हें निमंत्रित
किया गया। वे
गए भी। लेकिन
लोग उनकी राह देख
रहे थे उस
द्वार पर, जो मंच के
निकट था।
क्योंकि देश
का राष्ट्रपति
आए तो मंच पर, सबसे ऊंचे
सिंहासन पर
उनके बैठने की
जगह थी।
लेकिन
वे आए भी उस
द्वार से, जहां से भीड़
आ रही थी आम
लोगों
की--जिनका न
कोई नाम है, न कोई ठौर है,
न कोई
ठिकाना है। और
बैठे रहे वही,
जहां लोग
जूते छोड़ जाते
हैं।
देर
होने लगी सभा
के होने में।
संयोजक
घोषणाएं करने
लगे की बड़ी
मुश्किल है, हमने
अब्राहम
लिंकन को
आमंत्रित
किया है और वे
अभी तक पहुंचे
नहीं। और उनकी
बिना मौजूदगी
के सम्मेलन को
हम शुरू करें,
यह जरा
अपमानजनक है।
और देर होती
जा रही है।
अब्राहम
लिंकन के पास
में बैठे हुए
आदमी ने उन्हें
टिहुनी से
धक्का दिया कि
महाराज, खड़े
होकर साफ-साफ
कह क्यों नहीं
देते कि तुम मौजूद
हो, सम्मेलन
शुरू हो? अब्राहम
लिंकन ने कहा
कि मैं चाहता
था चुपचाप...क्योंकि
यह
वैज्ञानिकों
का सम्मेलन
है। इसमें
मेरे प्रधान होने
का कहां सवाल
उठता है?
लेकिन
तब तक दूसरे
लोगों ने भी
देख लिया।
संयोजक भी
भागे आए और
उनसे कहा, यह आप क्या
कर रहे हैं? यह हमारे
सम्मेलन का
सम्मान नहीं,
अपमान हो
रहा है कि आप
वहां बैठे हैं,
जहां लोग
जूते छोड़ जाते
हैं। अब्राहम
लिंकन ने कहा,
नहीं, मैं
वहां बैठा हूं,
जहां से और
पीछे न हटाया
जा सकूं।
यह बात
कि मैं वहां
बैठा हूं, जहां से और
पीछे न हटाया
जा सकूं--बड़े
स्वाभिमानी
व्यक्ति की
बात है।
स्वाभिमानी
किसी को नीचे
तो दिखाना
नहीं चाहता, और न ही किसी
को मौका देगा
कि कोई उसे
नीचे दिखा
सके।
अभिमान
बहुत सरल बात है।
रोग आम है, स्वाभिमान
का स्वास्थ्य
बहुत मुश्किल
है। और कभी जब
किसी व्यक्ति
में पैदा होता
है, तो
पहचानना भी
मुश्किल होता
है। क्योंकि
उसका कोई दावा
नहीं। लेकिन
चमत्कार तो
यही है कि स्वाभिमान
का कोई दावा
नहीं, यही
उसका दावा है।
स्वाभिमानी
व्यक्ति किसी के
ऊपर अपने को
रखना नहीं
चाहता, और
किसी को कभी
अपने ऊपर
गुलामी लादने
न देगा।
इसलिए
बात थोड़ी जटिल
हो जाती है और
भूल-चूक हो जाती
है।
भारत
में इस
भूल-चूक का
बड़ा बुरा
परिणाम हुआ है।
दो हजार साल
तक हम गुलाम
रहे। हमारी
गुलामी का
कारण क्या था? भारत अकेला
देश है सारी दुनिया
के इतिहास में,
जिसने किसी
पर भी कोई
हमला नहीं
किया। क्योंकि
सदियों से इस
देश के ऋषियों
ने, द्रष्टाओं
ने, प्रबुद्ध
पुरुषों ने एक
बात सिखाई
है--अनाक्रमण,
अहिंसा, करुणा,
प्रेम।
लेकिन यह बात
कुछ अधूरी रह
गई। भारत यह
तो सीख गया कि
आक्रमण नहीं
करना है, लेकिन
यह न सीख पाया
कि आक्रमण
होने भी नहीं
देना है। वह
जो दूसरा
हिस्सा छूट
गया, उसकी
वजह से हम दो
हजार साल
गुलाम रहे। यह
तो भारत सीख
गया कि हिंसा
नहीं करनी, लेकिन यह
बात भूल ही गई
कि हिंसा होने
भी नहीं देनी
है। इससे क्या
फर्क पड़ता है
कि मैं हिंसा
करता हूं किसी
और की, या
किसी और को
हिंसा करने
देता हूं अपने
ऊपर? दोनों
हालत में मैं
हिंसा करने दे
रहा हूं।
अगर
बात को ठीक से
समझा गया होता, तो यह देश दो
हजार साल तक
गुलाम न रहता।
और बात अभी भी
समझी नहीं गई
है। अभी भी हम
उन्हीं पुरानी
परंपराओं, पुराने
खयालों में
दबे हुए हैं।
जितनी
ऊंची
जीवन-अनुभूतियां
हैं, वे सब ऐसी
हैं जैसी
तलवार की धार
पर चलना। जरा-सी
चूक...न बाएं-न
दाएं, ठीक
मध्य में।
वैसा
स्वाभिमान
है। न तो किसी
पर अपने
अहंकार की छाप
छोड़नी है, और
न किसी को यह
हक देना है कि
वह अपने
अहंकार की छाप
पर तुम पर छोड़
सके।
इसलिए
स्वाभिमानी
होना एक
आध्यात्मिक
प्रक्रिया
है। अभिमानी
होना एक
सांसारिक
बीमारी है।
स्वाभिमान
में न तो स्व
है और न
अभिमान। यही
भाषा की
मुश्किल है, यहां जो
कचरा है उसे
प्रकट करने के
लिए तो हमारे
पास शब्द होते
हैं लेकिन जो
हीरे हैं, उनको
प्रकट करने के
लिए हमारे पास
शब्द भी नहीं
होते। तो हमें
शब्द बनाने
पड़ते हैं।
अभिमान
ठीक-ठीक प्रकट
करता है उस
दशा को, जो
अहंकारी की
होती है।
लेकिन
स्वाभिमान
खतरनाक शब्द
हो गया है।
क्योंकि
इसमें अभिमान
आधा है। डर है
कि तुम कहीं
स्वाभिमान की
परिभाषा
अभिमान से न
कर लो। कहीं
तुम अभिमान को
ही स्वाभिमान
न समझने लगो।
और इसमें हमने
""स्व'' भी
जोड़ दिया है।
कहीं स्व का
अर्थ अहंकार न
हो जाए।
जोड़ा
है स्व जिनने, बहुत सोचकर
जोड़ा है। मगर
जोड़ने वाले से
क्या होता है?
जिन्होंने
इसमें स्व
जोड़ा है, उनका
अर्थ है कि
स्वाभिमानी
केवल वही हो
सकता है, जो
स्वयं को
जानता हो, जिसने
स्वयं को
पहचाना हो।
ऐसे व्यक्ति
में अभिमान हो
ही नहीं सकता।
और ऐसा
व्यक्ति किसी
दूसरे को भी
अपने ऊपर
अभिमान थोपने
का मौका नहीं
दे सकता। न
खुद गलती
करेगा, न
दूसरे को करने
देगा।
लेकिन
भाषा की
कमजोरियां
हैं। अभिमान
भी गलत शब्द
है और स्व के
साथ भी खतरा
है, कि उसका
कहीं अर्थ तुम
अहंकार न समझ
लो। आमतौर से
स्वाभिमान
में और अभिमान
में कोई फर्क
नहीं है।
आमतौर से मेरा
मतलब है, तुम्हारे
मनों
में--दोनों
में कोई फर्क
नहीं है। इतना
ही फर्क है कि
तुम अपने
अभिमान को स्वाभिमान
कहते हो, और
दूसरे आदमी के
स्वाभिमान को
अभिमान कहते
हो। बस इतना ही
फर्क है।
लेकिन अगर
मेरी बात समझ
में आ गई हो तो
बारीक जरूर है,
मगर समझ में
न आए इतनी
असंभव नहीं
है।
प्रश्न:
भगवान, सन 1971
में पहली बार
आपको देखा और
आपका प्रवचन
सुना था, तब
से आपके प्रेम
में हूं। उसके
बाद मैंने
आपको पढ़ना और
सुनना जारी
रखा।
दुर्भाग्यवश
मेरे परिवार
और
रिश्तेदारों
में एक एक भी
व्यक्ति
आपमें रुचि
नहीं रखता।
वरन वे सब
मतांधता से
आपके विरोधी
हैं।
दिन-प्रतिदिन
मैं आपके निकट
आता गया हूं।
और वे लोग
बिना मेरी
किसी गलती के,
लगातार
दूरी बढ़ाते
चले गए हैं।
फिर दिसंबर 83
में मैं
संन्यास में
दीक्षित हुआ।
अब
परिस्थिति
ऐसी है कि
केवल मेरी
पत्नी और दो
बेटियों के
सिवाय और कोई
मुझसे बात तक
नहीं करता। सब
एकजुट हो गए
हैं मुझे
अकेला छोड़ने
में। पांच
वर्षों से ऐसा
चल रहा है
लेकिन भगवान, मैं चुपचाप
इस सबको
साक्षीभाव से
देख रहा हूं।
भगवान, क्या यह सभी
समाप्त होगा?
या कि यह
मेरे पूरे
जीवन जारी
रहेगा? कृपया
मेरे इस
अंधेरे
साक्षीभाव पर
कुछ प्रकाश
डालें।
यह
तुम्हारी
अकेले की
मुसीबत नहीं
है, यह
मुश्किल आम
है।
तो
पहले तो हम
इसकी
मनोवैज्ञानिक
पृष्ठभूमि समझ
लें। इसका
किन्हीं
व्यक्तियों
से कोई संबंध
नहीं है--न
तुमसे, न
तुम्हारे
परिवार से।
तो
पहले तो
बिलकुल एक
सीधे
सिद्धांत की
तरह परिस्थिति
का
मनोवैज्ञानिक
अर्थ खयाल में
ले लें। फिर
बात जरा आसान
हो जाएगी। जो
लोग भी तुम्हें
प्रेम करते
हैं--परिवार
के हों, परिचित
हों, वे
कोई भी न
चाहेंगे कि
अचानक
तुम्हारे
प्रेम की सारी
धारा किसी एक
अजनबी आदमी की
तरफ बह जाए।
क्योंकि
उन्हें यू
लगता है कि
जैसे कोई
लुटेरा आ गया।
उन्हें यूं
लगता है कि जो
प्रेम हमें
मिलता था, जिसके
हम हकदार
थे--क्योंकि
कोई बाप है, कोई मां है, कोई भाई है, कोई काका है,
कोई मामा है,
कोई कोई है।
एक
अजनबी आदमी को, जो तुम्हारा
कोई भी नहीं
है, न जो
तुम्हारे
धर्म का है, न तुम्हारे
जाति का है, अचानक तुम
दीवाने हो उठे
और सारे प्रेम
की गंगा उसी
की तरफ बहने
लगी। इन सारे
लोगों के मन
मेंर् ईष्या
जगती है, विरोध
जगता है।
क्योंकि
जिसे हम प्रेम
समझते हैं वह
प्रेम नहीं
है। अगर वह
प्रेम हो तोर्
ईष्या के पैदा
होने का कोई
सवाल नहीं है।
अगर ये सारे
लोग तुम्हें
प्रेम करते
होते तो तुम्हारे
नए प्रेम में
इन सबने
तुम्हें बधाई
दी होती। ये
सब भी
तुम्हारे नए
प्रेम से
परिचित होना
चाहते।
तुम्हें
प्रेम करते थे
तो तुम किसी
और को प्रेम
करने लगे हो, इससे इन्हें
कोई अड़चन न
आती। प्रेम
कोई चीज थोड़े
ही है कि
बांटी जा सके:
कि एक को दे दी
अब दूसरे को
कैसे दें? प्रेत
तो भाव है; वस्तु
नहीं, गुण
है। और जितना
बांटो उतना
बढ़ता है।
मगर
इनमें से किसी
को प्रेम का
कोई अनुभव
नहीं है। ये
तो वही दुनिया
के साधारण
अर्थशास्त्र
को जानते हैं, जहां रुपया
अगर तुम्हारे
पास है, बांटो
तो घटता है।
जो भी बांटो
वही घटता है।
ये केवल उसी
दुनिया से
परिचित हैं, जहां बांटने
से चीजें घटती
हैं। इनके
जीवन में ऐसा
एक भी अनुभव
नहीं है, जहां
बांटने से
चीजें बढ़ती
हों। ये भी
बेचारे क्या
करें। ये सब
दया के पात्र
हैं। ये सब
भिखारियों की
दुनिया का
हिस्सा हैं।
इन्हें प्रेम
जैसे अलौकिक
अनुभव का कोई
पता नहीं है।
अगर ये
तुम्हें सच
में प्रेम करते
होते तो ये
आनंदित होते।
इन्होंने
उत्सव मनाया
होता।
क्योंकि
तुम्हारा
प्रेम इस
ज्योतिर्मय
रूप में कभी
इन्होंने
देखा न था। तुम्हारा
प्रेम इतना
सुगंधिपूर्ण
हो सकता है, इन्होंने
कभी देखा न
था। तुम्हारे
प्रेम में ऐसा
संगीत जग सकता
है, इसका
उन्हें अनुभव
न था।
और अब
यह वर्षा उन
पर भी तो
होगी। जब बादल
बरसता है तो
यह थोड़े ही
देखता है कि
खेत किसका है।
यह थोड़े ही
पता पूछता है
कि यह छत किसकी
है। जब बादल
बरसता है तो
सिर्फ बरसता
है।
एक बार
बरसना आ
जाए...तुम्हारे
परिवार के ये
सारे लोग
व्यर्थ ही
परेशान हो रहे
हैं। क्योंकि मेरे
प्रति
तुम्हारे
प्रेम, इनके
प्रति
तुम्हारे
प्रेम में कोई
कमी नहीं लाने
वाला है।
बल्कि यह मौका
था कि इनके
प्रति भी तुम्हारा
प्रेम अनंत
गुना होकर
बरसता। मगर ये
दूर हट गए।
फिर भी
तुम
सौभाग्यशाली
हो, कि कम से
कम तुम्हारी
पत्नी और
तुम्हारी दो
बच्चियां
तुम्हारे साथ
हैं। क्योंकि
मेरे पास न
मालूम कितने
संन्यासियों
के पत्र आते
हैं, कि हम
आपके प्रेम
में क्या पड़
गए हैं, पत्नी
हमारी जान लिए
लेती है।
पत्नियों के
पत्र आते हैं,
हमारे पति
हैं कि बंदूक
में एकदम गोली
ही भरे रहते
हैं। यह घर
अखाड़ा हो गया
है। पति प्रेम
में पड़ते हैं,
पत्नी
घबड़ाती है, कि गए हाथ
से।
और
आमतौर से
पत्नियां जीत
जाती हैं। क्योंकि
पति बेचारा
कमजोर जीव!
ऐसे बाहर जब
निकलता है घर
के, तो बड़ा
शेर की तरह
निकलता है। और
जब घर आता है तो
यूं, कि
बिलकुल चूहे
ही तरह। घर
में आकर
खटर-पटर भी नहीं
करता, चुपचाप
अखबार पढ़ता
है--जिस अखबार
को वह सुबह से
कई बार पढ़
चुका है।
अखबार पढ़ता है
कि कहीं पत्नी
दिन भर की भरी
बैठी है, टूट
न पड़े। और दिन
भर का
थका-मांदा
आदमी, दफ्तर
की मुश्किलें,
व्यापार की
झंझटें, हजार
तरह के चक्कर।
सोचता है, घर
जाकर किसी तरह
थोड़ी देर
शांति मिल
जाए।
तो उधर
पत्नी तैयार
है। वह दिन भर
से तलवार पर धार
रख रही है।
उसे दूसरा कोई
काम नहीं है।
बच्चे गए
स्कूल, पति
गए दफ्तर, पत्नी
धार रख रही
है। बच्चों के
लौटने पर पिटाई
करेगी और पति
के लौटने पर
खूब धुलाई
करेगी। थका-मांदा
आदमी। एक कप
चाय मिल जाए, इसकी भी आशा
नहीं। भोजन
वगैरह तो दूर।
नौकर-नौकरानियों
से पता चलता
है कि घर में
आज चूल्हा नहीं
जला। पत्नी से
कुछ पूछे, यह
मुश्किल।
क्योंकि उसे
छोड़ना ही
युद्ध का आवाहन
समझो।
सो
बेचारा सोचता
है, छोड़ो
ध्यान वगैरह।
छोड़ो
संन्यास।
पहले ही शांति
थी। हम और
शांति की तलाश
में गए? जितनी
थी, उतनी
ही बहुत है।
पत्नियां
संन्यास लेती
हैं तो मैंने
पाया है कि वे
मजबूत साबित
होती हैं।
पतियों के
हाथ-पैर तो
उखाड़ देती
हैं। उनको तो
रास्ते पर लगा
देती हैं।
लेकिन पति
नहीं लगा पाते
उनको। दुनिया
के हजार काम हैं, वे पहले
निपटाएं कि अब
इन देवी से
झगड़ा करें। और
इनसे झगड़ा
करने का मतलब,
जिंदगी हो
गई हराम। आराम
की फिर कोई
जगह न रही।
पत्नियां
संन्यास ले
लेती हैं तो
टिकती हैं; पतियों के
पैर उखाड़ देती
हैं। थोड़े दिन
गड़बड़ करते
हैं। अनुभव
मेरा यह है कि
औसतन पत्नी
मजबूत साबित
होती है।
क्योंकि
जोर-जोर से
चिल्लाती है।
पति कहता है, बाई, धीरे
बोल। मोहल्ले
वाले न सुनें।
बातचीत, संवाद
तो असंभव है।
तुम कुछ कहो, पत्नी कुछ
कहती है।
अल्लबल्ल
बकती है। और
मोहल्ले
वालों का डर, इज्जत का
डर। किसी को
कुछ पता न चल
जाए। बच्चे क्या
कहेंगे।
क्योंकि वे भी
आंख खोल-खोलकर
देख रहे हैं
कि क्या हो
रहा है। कि
पिताजी की धुलाई
हो रही है। तो
हो जाने दो।
तो
मेरे अनुभव
में यह आया है
कि पति तो भाग
खड़े होते हैं।
दो-चार दिन में
ही हाथ-पैर
उनके ढीले हो
जाते हैं। मगर
झगड़ा क्या है? क्योंकि अगर
कोई ध्यान
करने लगे या
संन्यस्त हो
जाए, या
घड़ी भर आंख
बंद करके
बैठने लगे, तो परेशानी
क्या है? पति
को परेशानी
क्या है?र्
ईष्या। प्रेम
का तो कोई अनुभव
नहीं है।
पत्नी को इस
बात की
परेशानी है कि
मैं तुम्हारे
सामने बैठी
हूं और तुम
अपने गुरु का
ध्यान कर रहे
हो? निकालो
माला। उतारो
वस्त्र। यह इस
घर में नहीं
चलेगा। हर घर
में झगड़ा होता
है।
और
मैंने सुना है
कि एक सरदारजी
के घर में हमेशा
हंसी की आवाज
आती थी। लोग
बड़े हैरान थे, कि और घरों
में से तो
लड़ाई-झगड़े की
आवाज आती है।
औरत चिल्ला
रही है, पति
चिल्ला रहा है,
मगर
सरदारजी के घर
से कभी कोई
झगड़ा नहीं, झांसा नहीं।
खिलखिलाहट की
आवाज आती है।
आखिर
सारे
पड़ोसियों ने
तय किया कि
पूछ ही लेना
अच्छा है। यह
बात बड़े रहस्य
की है। ऐसा
कभी न देखा, न सुना। ऐसा
कभी हुआ नहीं
इतिहास में।
जो इनके घर
में हो रहा
है।
सरदारजी
को दफ्तर से
आते हुए पकड़
लिया कि पहले
राज बताना
पड़ेगा।
सरदारजी ने
कहा, कैसा राज!
किस बात का
राज?
पूछा, कि इस बात का
राज, कि हर
घर में झगड़ा
होता है। बाकी
मोहल्ले के लोग
मजा लेते हैं।
तुम्हारा मजा
लेने का मौका
ही नहीं
मिलता। जब
देखो तब हंसी
की आवाज आती
है। इससे दिल
पर हमारे जो
चोट पहुंचती
है, वह हम
ही जानते हैं।
आज बताना ही
होगा।
सरदारजी
ने कहा, अब
क्यों
बेइज्जत करते
हो गरीब आदमी
को? सच्चाई
यह है कि
पत्नी मेरी
चीजें फेंक-फेंककर
मुझे मारती
है। लोग बोले,
चीजें
फेंक-फेंककर
मारती है? तो
फिर हंसते
क्यों हो? फिर
हंसी की आवाज
क्यों आती है?
तो सरदारजी
ने कहा कि
हंसी की
आवाज...जब उसका
निशाना ठीक
नहीं बैठता तो
मैं
खिलखिलाकर
हंसता हूं। और
जब उसका
निशाना ठीक
बैठ जाता है, तब वह खिलखिलाकर
हंसती है। मगर
भैया, किसी
और से मत
कहना। बात
मोहल्ले की है,
मोहल्ले
में ही रहने
देना।
और
मैंने सुना है
कि इसी सरदार
ने पचास साल
की उम्र में
अदालत में
जाकर
दरख्वास्त दी, कि मैं
डाइवोर्स
चाहता हूं, तलाक चाहता
हूं।
मजिस्ट्रेट
ने कहा कि
कितने दिन हुए
शादी हुए?
""हो
गए होंगे कोई
तीस एक साल''।
""तलाक लेने
का कारण?''।
तो
उन्होंने कहा
कि, ""कारण
यह है कि मेरी
पत्नी हर चीज
फेंक-फेंककर मुझे
मारती है।
चीजें टूटती
हैं सा अलग।
और अब यह नहीं
सहा जाता।
बहुत हो गया।''
जज ने
कहा, ""हद हो
गई। तीस साल
से सह रहे हो, अब होश आया? पहले क्यों
न आए?'' सरदार
ने कहा, ""अब
यह मत पूछो।
पहले वह
कभी-कभी
निशाना चूक भी
जाती थी, अब
अभ्यास ऐसा हो
गया है, कि
मुझे
खिलखिलाने का
मौका ही नहीं
मिलता। जब देखो
तब वही
खिलखिलाती
है। यह नहीं
देखा जाता।
चीजें टूटें,
फूटें, मगर
कम से कम
खिलखिलाने का
मौका आरी-बारी
मिलता रहे, गाहे-बगाहे
मिलता रहे। और
अब इसकी
संभावना नहीं
है, उसका
अभ्यास बड़ा
पक्का हो गया
है। कहीं भी
खड़े रहो, कैसे
भी खड़े रहो...और
ऐसी चोट देती
है। और फिर खिलखिलाकर
हंसती है।
पहले हम भी
हंसते थे, तब
तक ठीक थी।
जिसको
हम शादी कहते
हैं, वह लड़ाई-झगड़ा
ज्यादा मालूम
होता है।
उसमें प्रेम
सिर्फ शब्द
है। और
इसीलिएर्
ईष्या जगती
है। अगर पति
प्रेम करने
लगा मुझे, तोर्
ईष्या जगती
है। अगर पत्नी
प्रेम करने लगी,
तब तो पति
की छाती पर
सांप लोट जाता
है। यह बरदाश्त
के बाहर है कि
उसके रहते, पतिदेव के
रहते...।
एक स्त्री
कुछ ही दिन
पहले मुझसे कह
रही थी कि
मेरे पति कहते
हैं, कि पति
परमेश्वर है।
और मैं उनकी
धुनाई भी कर देती
हूं। और फिर
भी उनको अकल
नहीं आती। फिर
भी वे कहे चले
जाते हैं कि
पति परमेश्वर
है। शास्त्रों
में लिखा है।
और मेरे जीते
जी तू किसी और
के पैर छुएगी?
फांसी
लगाकर मर
जाऊंगा।
तो
मैंने कहा, लेकिन तू तो
संन्यासी है
कोई तीन साल
से। अभी तक
मरे नहीं? वह
बोली, हिम्मत
वह भी नहीं
है। मरने को
निकलते हैं और
थोड़ी देर में
लौट आते हैं, कि बाहर
वर्षा हो रही
है। कभी कहते
हैं, भूख
लगी है, पहले
खाना खा लूं।
कभी कहते हैं,
कपड़े कहां
हैं
धुले-धुलाए? रेलवे की
पटरी पर जाकर
लेटूंगा, इन
कपड़ों को
देखकर लोग
क्या कहेंगे?
सो मरे का
मौका नहीं आ
पाता। तीन साल
हो गए। बातें
करते हैं, मरने-वरने
वाले नहीं
हैं।
और
उनका कहना यह
है कि पति
परमेश्वर है, सो उसकी
मौजूदगी में
किसी और के
पैर छूना, यह
बरदाश्त के
बाहर है। क्या
पागलपन है!
आदमी भी नहीं
हो तो अभी, और
परमेश्वर
होने का
खयाल--किताब
में लिखा है, वह तुमने पढ़
लिया है। और
वह पत्नी कह
रह है, कि
मैं इनकी
धुलाई भी कर
देती हूं, फिर
भी ये कहते
हैं कि मैं
परमेश्वर
हूं।
और एक
बार तो मैंने
इनको इस तरह
से ठिकाने
लगाया है कि
पैर छुआकर
छोड़ा। मगर फिर
भी कहते हैं, शास्त्रीय
वचन तो
शास्त्रीय
वचन हैं। अब
यह तो घर की
बात है, कौन
देखता है? छू
लिए, कौन
झंझट को बढ़ाए!
आधी रात कौन
मोहल्ले को
जगाए! मगर
शास्त्र का
वचन गलत नहीं
जाता: पति
परमेश्वर है।
तुम्हारी
पत्नी कम से कम
तुम्हारे साथ
है। तुम
सौभाग्यशाली
हो। तुम्हारी
बच्चियां
तुम्हारे साथ
हैं, तुम
सौभाग्यशाली
हो। छोटे-छोटे
बच्चे हैं...।
एक
स्त्री ने अभी
चार दिन पहले
ही मुझसे कहा
कि मैं तो आना
चाहती हूं, संन्यास भी
लेना चाहती
हूं, लेकिन
मेरा छोटा
बच्चा विरोध
में हैं। हद
हो गई। इस
छोटे बच्चे को
क्या विरोध
होना है? मगर
बच्चों की
भीर् ईष्याएं
हैं। उनकी मां
किसी और को
प्रेम करे, इतना प्रेम
करे कि दिन
रात उनकी याद
करे, तो
उनके भीतर भी
आग जलती है।
मनोवैज्ञानिक
पृष्ठभूमि तो
यह है कि इस
जगत में हमें
प्रेम करना
सिखाया ही
नहीं जाता। और
सब सिखाया
जाता है: गणित, भूगोल, इतिहास,
सब कचरा
खोपड़ी में भरा
जाता है। मगर
प्रेम? उसकी
कोई बात नहीं
है, उसकी
कोई चर्चा
नहीं है, उसका
कोई शिक्षण
नहीं है। और
प्रेम ही जीवन
है।
तो
चूंकि प्रेम
नहीं है हमारे
जीवन में, जिस थोथी
चीज को हम
प्रेम कहते
हैं, वह सिर्फर्
ईष्या के ऊपर
छाया हुआ
ढंकना है।
इसलिए जरा-जरा
से मौके परर्
ईष्या फूट
पड़ती है, घृणा
बाहर आ जाती
है। प्रेम की
दुश्मनी बनने
में देर नहीं
लगती।
तुम्हारे
परिवार के लोग
सामान्य जन
हैं, जैसे और
सारे लोग हैं।
कुछ बुरे नहीं,
कुछ दुष्ट
नहीं, कोई
राक्षस नहीं।
सिर्फ उन्हें
इस बात की
भ्रांति है कि
वे जानते हैं
कि प्रेम क्या
है। और वे
प्रेम के
प्यासे हैं।
तुमने मुझे
प्रेम दिया है,
ऐसा प्रेम
तुम उनको देते,
यही बात
उनके मन में
खटक रही है।
तुमसे
बन सके और तुम
उन्हें प्रेम
दे सको...भला ही
वे तुम्हें
गालियां ही
देते रहें, भला वे
तुम्हें
पत्थरों से ही
क्यों न मारते
रहे, मगर
तुम उन्हें
प्रेम देते
रहना। वह सब
प्रेम की
आकांक्षा है,
जिसने
उन्हें तुमसे
दूर कर रखा
है।
मैं तो
केवल बहाना
हूं। मेरे
बहाने उनकी
प्यास जाहिर
हो गई है। तो
चिंता न लो।
तुम तो कम से कम
प्रेम करो।
उन्हें दूर-दूर
जाने दो, तुम
तो उनके
पीछे-पीछे
जाओ। वे
तुम्हारे
पीछे न आएं, कोई फिक्र
नहीं है।
तुमसे तो जो
कुछ बला बन सके
उनका, करो।
तुम्हारा
संन्यास
निखरेगा।
तुम्हारे जीवन
में नए दीए
जलेंगे। और
शायद तुम उनको
भी रूपांतरित
करने में सफल
हो जाओगे।
और यह
बात
महत्वपूर्ण
नहीं है कि
तुम सफल होओ
या नहीं, महत्वपूर्ण
यह है कि तुम
कोशिश करो।
तुम प्रेम
दो--उनको भी, जो तुम्हें
घृणा दे रहे
हैं। और मैं
नहीं मानता कि
अंतिम विजय
घृणा की हो
सकती है, या
असत्य की हो
सकती है, या
अंधकार की हो
सकती है।
अंतिम विजय तो
प्रेम की ही
है, सत्य की
ही है, प्रकाश
की ही है।
और तुम
ठीक रास्ते पर
हो, प्रकाश
के रास्ते पर
हो। निर्भय
होकर तुमसे जितना
बन सके, उस
तरह करो। आज
नहीं कल तुम
उनके हृदय को
छू लोगे। आदमी
आखिर आदमी ही
है। आज नहीं
कल उनकी आंखों
में तुम्हारे
लिए प्रेम के
आंसू होंगे। और
वह दिन
तुम्हारे लिए
बड़े सदभाग्य
का दिन होगा।
लेकिन
तुम अभी जो कर
रहे हो, मैं
उससे राजी
नहीं हूं। तुम
केवल साक्षी
बने हो। तुम
कह रहे हो कि
मैं सिर्फ देख
रहा हूं, जो
हो रहा है।
इससे मामला हल
न होगा।
तुम्हारा
साक्षी होना
उन्हें लगेगा
कि तुम
उपेक्षा कर रहे
हो। कि
तुम्हें कोई
मतलब नहीं है,
भाड़ में
जाओ। दूर होना
है तो हो जाओ, क्या बिगाड़
लोगे? कि
तुम पास हो कि
दूर, कोई
अंतर नहीं
पड़ता।
तुम्हारा
साक्षी होना उन्हें
कठोर मालूम
होगा।
नहीं, साक्षी होने
से काम नहीं
चलेगा। यह
मौका साक्षी
होने का नहीं
है तुम्हारे
लिए। यह मौका
तो है कि तुम
और भी
प्रेमपूर्ण
हो जाओ, और
भी करुणा से
भर जाओ। एक
मौका दिया है
उन्होंने, उनको
जीतने के लिए।
तुम अपने
प्रेम को दांव
पर लगा दो।
तुम्हारे
साक्षी होने
से उनके जीवन
में कोई अंतर
नहीं पड़ेगा।
तुम्हारे
साक्षी होने
से तुम्हारे
जीवन में अंतर
पड़ सकता है।
इसलिए तुम्हारे
लिए यह सूत्र
मैं देता हूं:
उनके प्रति प्रेम
से भरो और
तुम्हारे
प्रेम के
उत्तर में वे
जो कुछ भी
करें, इसके
साक्षी रहो।
वे पत्थर
मारें, गालियां
दें, वे
तुम्हें घर से
निकाल बाहर
करें, इसके
साक्षी रहो।
वे जो कुछ
करें, इसके
साक्षी रहो, लेकिन
तुम्हारा
प्रेम उनके
प्रति जारी
रहे।
ज्यादा
देर नहीं
लगेगी। आदमी
का हृदय बहुत
पास है, बहुत
दूर नहीं है।
जरा टटोलो।
अंधेरे में
लगता होगा कि
बहुत दूर है, लेकिन बहुत
दूर नहीं है।
और आदमी बड़ी
जल्दी पसीजता
है। जरा-सी
कोशिश तो करो।
और प्रेम की
कोशिश कभी भी
व्यर्थ नहीं
जाती। प्रेम
का जादू सिर
चढ़कर बोलता
है।
धन्यवाद।
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