दिनांक
8 दिसंबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार
:
1—यह
विश्वास ही
नहीं आता कि
ऋषि-मुनियों
के इस देश में
और आप जैसे
मनीषी के साथ
ऐसा दुर्व्यवहार
किया जा रहा
है!
2—इस
बार कुछ
अजीब-सी
परिस्थिति
में आपके पास
पहुंचा। यहां
पहुंचने पर घर
से तार मिला:
जल्दी आओ।
परंतु आपकी
निकटता के
अत्यंत
प्रसादपूर्ण, शीतल आनंद को
छोड़ पाना इतना
सरल नहीं था।
3—राजनैतिक
लुच्चे-लफंगों
से देश का
छुटकारा कब
होगा?
4—मैं
कैसे भवसागर
पार करूं, नौका है
टूटी-टूटी!
6—मैं
ध्यान करने
बैठती हूं, तो जैसे
आपकी आंख को
देखती हूं,
कुछ
देर देखते
रहने से आंखों
से आंसू बहते
हैं।
7—तुम्हारी
याद में जादू
भरा है,
पुलकते
प्राण हैं, मन नाचता है!
पहला
प्रश्न:
ओशो, यह विश्वास
ही नहीं आता
है कि
ऋषि-मुनियों
के इस देश में
और आप जैसे
मनीषी के साथ
ऐसा दुर्व्यवहार
किया जा रहा
है।
वियोगी!
पहले तो यह
भ्रम छोड़ दो
कि कोई देश
ऋषि-मुनियों
का देश है। न
तो ऋषि-मुनि किसी
देश के होते
हैं, न कोई देश
ऋषि-मुनियों
का होता है।
देश और काल के
जो पार हो
जाते हैं, वे
ही तो ऋषि
हैं। ऋषि
भारतीय नहीं
हो सकते; और
अगर हों, तो
समझना ऋषि
नहीं होंगे।
ऋषि तो अपनी
देह से भी
अपना
तादात्म्य नहीं
करता, तो
अपने देश से
कैसे करेगा? जो अपनी देह
से, इतनी
निकट जो
मिट्टी है, उससे भी
अपने को भिन्न
मानता है, तो
पृथ्वी की
मिट्टी...उससे
तो अपने को
भिन्न मानेगा
ही, जानेगा
ही।
कोई
ऋषि भारतीय
नहीं होता, न कोई ऋषि
ईरानी होता है,
न अरबी होता
है। ऋषि का तो
जन्म होता है
साक्षी-भाव
में। साक्षी
के शिखर पर सारे
तादात्म्य
छूट जाते
हैं--देह के, जाति के, वर्ण
के, रंग के,
मन के। वहां
तो केवल रह
जाती है झलकती
हुई एक चैतन्य
की ज्योति।
चैतन्य का कोई
देश है, कोई
अपना है, कोई
पराया है? चैतन्य
तो
सर्वव्यापी
है।
फिर
दोहरा दूं:
ऋषि-मुनि किसी
देश के नहीं
होते और न
ऋषि-मुनियों
का कोई देश
होता है। इस
भ्रांति को
तोड़ ही दो, क्योंकि इस
भ्रांति के
कारण सिवाय
अहंकार के और
कुछ पलता नहीं
पुसता नहीं।
यह भाव कि यह
देश
ऋषि-मुनियों
का है, तुम्हारे
अहंकार को
पोषित करता
है। यह भाव तुम्हें,
दूसरों से
श्रेष्ठ हो, इस तरह की
भ्रांति देता
है। और दूसरे
से श्रेष्ठ
होने की जो
भ्रांति है, वह अधार्मिक
है, पाप
है। इस
भ्रांति ने
सदियों में
मनुष्य को बहुत
सताया है।
क्योंकि
जिसने भी समझ
लिया कि हमारे
पास धर्म की
बपौती है, वही
दूसरों को
हानि
पहुंचाने का
कारण बन गया।
जिसको भी ऐसा
खयाल पैदा हो
गया, ऐसी
अस्मिता आ गई
कि मेरी किताब
सच्ची किताब,
कि मेरा देश
सच्चा देश, बस फिर
दूसरों के साथ
अत्याचार
करने की उसे
सुविधा मिल
गई। उनके ही
हित में वह
दूसरों से अत्याचार
करने लगा।
उसने
मस्जिदें
जलाईं, उसने
मंदिर तोड़े, उसने गिरजे
जलाये, उसने
गुरुद्वारे
तोड़े। जिसको
भी यह भ्रांति
आ गई कि धर्म
मेरे पास है, स्वभावतः
दूसरों के पास
धर्म नहीं है,
उन्हें
धर्म देना
जरूरी है। और
अगर सीधे-सीधे
न लेते हों, तो
जबर्दस्ती
देना जरूरी
है। अगर
समझ-बूझकर न लेते
हों, तो
तलवार की धार
पर देना जरूरी
है; मगर
धर्म तो देना
ही पड़ेगा। अगर
धर्म देने में
उनके प्राण भी
जायें तो कोई
हर्ज नहीं।
चाहे वे धर्म
लेना चाहते
हों या न लेना
चाहते हों...।
अहंकार
बड़ा सूक्ष्म
है और बड़े
कुशल रास्ते
खोजता है।
अपने को
छिपाने के लिए
अहंकार
ऐसे-ऐसे
परिधान पहनता
है कि तुम
पहचान न सको।
अहंकार बड़ा
बहुरूपिया है!
और जो श्रेष्ठतम
परिधान अब तक
अहंकार खोज
सका है अपने
को छिपाने के
लिए, वह है
धर्म का
परिधान--हिंदू
का, ईसाई
का, मुसलमान
का, जैन का,
बौद्ध का।
छिप जाओ...।
धर्म के
परिधान में
छिपना बहुत
आसान है। अगर
शैतान को कहीं
भी छिपना हो, तो मंदिरों
और मस्जिदों,
गुरुद्वारों
और चर्चों के
सिवाय उसे और
कोई ठीक जगह न
मिलेगी।
क्योंकि वहां
तो कोई शक ही न करेगा।
शैतान बाजार
में नहीं छिप
सकता, क्योंकि
वहां तो सभी
संदेह से भरे
हैं। वहां तो
सभी चौंककर चल
रहे हैं।
शैतान पुजारी
के पीछे छिपता
है। शैतान वेद
की आड़ में
छिपता है।
कहावत है कि
शैतान भी शास्त्रों
के उद्धरण
देता है।
शास्त्र बड़ी सुविधापूर्ण
व्यवस्था है।
मैंने
सुना है कि एक
आदमी ज्ञान को
उपलब्ध हो गया।
खलबली मच गई
शैतान के
शिष्यों में।
क्योंकि जब भी
कोई ज्ञान को
उपलब्ध होता
है तो शैतान
के व्यवसाय पर
चोट पड़ती है।
शिष्य भागे, उन्होंने
अपने गुरु
शैतान को कहा
कि कुछ करो, जल्दी कुछ
करो। एक आदमी
ज्ञान को
उपलब्ध हो गया
है। देखते हो,
पृथ्वी पर
उस वृक्ष के
नीचे बैठा
कैसा प्रकाशित
हो रहा है, कैसा
ज्योतिर्मय!
वह हमारे सारे
धंधे को चौपट कर
देगा।
शैतान
ने कहा: तुम
फिक्र मत करो, जब तक
पुजारी हैं और
पंडित हैं, तब तक हमें
कोई भी चिंता
नहीं। तुम जरा
ठहरो। हमें
कुछ बीच में
पड़ने की जरूरत
नहीं, जल्दी
ही पंडित और
पुजारी उसके
आसपास इकट्ठे हो
जायेंगे।
जल्दी ही
मंदिर बनेगा।
जल्दी ही शास्त्र
रचा जायेगा।
जल्दी ही धर्म
का जन्म हो
जायेगा। बस, पंडे-पुजारी
हमारे साथ
हैं। तो ऐसे
एकाध-दो कभी
जो बुद्ध हो
जाते हैं इनकी
चिंता न लो।
इनकी रोशनी को
ढांकने के लिए
पंडित और
पुजारी काफी हैं।
तुम
कहते हो: यह
विश्वास नहीं
आता है कि
ऋषि-मुनियों
के इस देश में
और आप जैसे
मनीषी के साथ
ऐसा दुर्व्यवहार
किया जा रहा
है! यही तो सदा
होता रहा है, यह कुछ नया
तो नहीं। तुम
सोचते हो क्या
सुकरात को जिन
लोगों ने जहर
पिलाया था वे
बुरे लोग थे? जिनको तुम
भले लोग कहते
हो वे ही थे।
कोई हत्यारे
नहीं थे, सम्मानित
सदगृहस्थ थे।
कोई अपराधी
नहीं थे। शास्त्रों
के जानकार थे;
नीति-नियम
को मानकर चलते
थे। उन्हीं को
तो अड़चन आई थी
सुकरात से।
अपराधी को
क्या अड़चन आनी
थी? वेश्या
को, चोर को,
जुआरी को
क्या अड़चन आनी
थी, शराबी
को क्या अड़चन
आनी थी सुकरात
से? सुकरात
कह रहा था
सत्य की बात; इसलिए जो
लोग सत्य के
नाम पर असत्य
का धंधा कर रहे
हैं, सिर्फ
उन्हीं को
अड़चन आनी थी।
सुकरात
को जिन लोगों
ने सूली दी, वे भले लोग
थे--तथाकथित
भले लोग, सम्मानित,
आदृत, समाज
के प्रमुख
मुखिया।
उन्हीं लोगों
ने मिलकर--न्यायाधीशों
ने, पुरोहितों
ने, ज्ञानियों
ने
मिलकर--सुकरात
को जहर
पिलाया।
जीसस
को किसने मारा? यहूदियों
में जो
सर्वाधिक
शास्त्रज्ञ
थे, रबाई
यहूदियों के
धर्मगुरु, ऋषि-मुनि
यहूदियों के,
उन्होंने
मिलकर जीसस को
सूली पर चढ़ा
दिया।
और
मंसूर के
हाथ-पैर किसने
काटे? क्या
अधार्मिकों
ने? तो तुम
गलती करोगे।
धार्मिकों ने!
जिनको खयाल था
कि उन्हें
मालूम है कि
धर्म क्या है।
जो कुरान के
पाठी थे। जो
वचन-वचन में
मुहम्मद का
उल्लेख करते
थे, उन्होंने।
मुहम्मद जैसे
ही दूसरे आदमी
को, मंसूर
को मार
डाला--मुहम्मद
का ही नाम
लेकर! मुहम्मद
जैसे एक दूसरे
मसीहा को
परेशान
किया--मुहम्मद
का नाम
लेकर--मुहम्मद
कहीं होंगे तो
जार-जार रोये होंगे--जब
मंसूर को काटा
गया, उसके
हाथ-पैर काटे
गये, उसकी
आंखें फोड़ी
गईं। अगर कोई
इस दुनिया में
मुहम्मद के
बाद मुहम्मद
की जैसी
क्षमता का व्यक्ति
था, तो
मंसूर था। मगर
मारा किसने? मारा
उन्होंने
जिनको
भ्रांति है कि
वे मुहम्मद के
पक्षपाती
हैं।
ऋषि-मुनि, तुम्हारे
तथाकथित
पंडित-पुरोहित...उनका
बड़ा जाल है! तो विश्वास
करो या न करो, मगर यही सदा
होता रहा है।
बुद्धों के
साथ, महावीरों
के साथ, यही
सदा होता रहा
है। यही फिर
होगा। आदमी
बदलता ही
नहीं! तो अभी
तो कुछ ज्यादा
दुर्व्यवहार
हुआ नहीं, आगे-आगे
देखिये होता
है क्या-क्या...!
करंट
के नये अंक
में
ऋषि-मुनियों
की किसी संतान
ने, किसी
भारतीय
संस्कृति के
आराधक, संरक्षक
ने सरकार से
प्रार्थना की
है कि मुझे देश
से तत्क्षण
निकाला जाये।
इतना ही नहीं,
इससे उनकी
तृप्ति नहीं
हुई। भारतीय
संस्कृति का
हृदय इतने से
नहीं भरा।
ऋषि-मुनियों
की संतान इतने
से राजी नहीं
हुई कि सिर्फ
मुझे देश से
बाहर निकाला
जाये, साथ
में यह भी
सुझाव दिया है
कि मेरी जबान
काट दी जाए
ताकि मैं कहीं
बोल न सकूं और
मेरे हाथ काट
दिये जाएं, ताकि मैं
लिख न सकूं!
अहो, धन्यभूमि
भारत! अहो, पुण्यभूमि
भारत! जहां
देवता भी
जन्मने को
तरसते
हैं।...जबान
कटवानी होगी
अपनी, हाथ-पैर
कटवाने होंगे
देवताओं को
अपने, तो
ही तरसते
होंगे! और ये
हैं संस्कृति
के संरक्षक!
आदमी
बदलेगा कभी या
नहीं! आश्चर्य
इस पर करो। इस
पर आश्चर्य मत
करो कि
ऋषि-मुनियों
का यह देश और
आपके साथ दुर्व्यवहार
क्यों कर रहा
है। आश्चर्य
इस पर करो कि
आदमी कभी
बदलेगा या
नहीं! यही तो
तुमने मंसूर
के साथ किया
था। जबान काटी
थी। हाथ काटे
थे। आंखें फोड़
दी थीं।
बीसवीं
सदी में, एक
लोकतांत्रिक
देश
में--जिसको यह
भ्रांति है कि
वह जगत का
सबसे बड़ा
लोकतंत्र
है--वहां लोग खुलेआम
अखबारों में
सलाहें देते
हैं, छापते
हैं! और किसी
को अड़चन नहीं
होती, किसी
को बेचैनी
नहीं होती!
मेरी जबान काट
लेनी चाहिए, मेरे हाथ
काट डालने
चाहिए। और
मुझे देश में
फिर भी नहीं
टिकने देना
चाहिए। हो
सकता है आंख से
इशारे करूं और
लोगों को कुछ
बिगाडूं, लोगों
को कुछ
भड़काऊं। इनको
तुम ऋषि-मुनियों
की संतान कहते
हो!....उल्लू मर
गए, औलाद
छोड़ गए। इन
उल्लू के
पट्ठों को तुम
ऋषि-मुनियों
की संतान
समझते हो? काश,
इतना आसान
होता
ऋषि-मुनियों
की वसीयत को
सम्हालना!
लेकिन
तुम्हारे
तथाकथित
ऋषि-मुनियों
में सभी
ऋषि-मुनि भी
नहीं हैं, यह भी याद
रखना। ऋषि-मुनि
तो कभी कोई
होता है। ऋषि
होने के लिए
ऐसा हृदय
चाहिए जिसमें
परमात्मा का
काव्य पैदा हो।
ऋषि का अर्थ
होता है कवि।
साधारण कवि
नहीं, असाधारण
कवि। साधारण
कवि को तो
कभी-कभी झलक
मिलती है
सौंदर्य की; ऋषि को
चौबीस घंटे
सतत सौंदर्य
की धारा बहती
रहती है। कवि
को तो दूर से
झलक मिलती है
हिमाच्छादित
शिखरों की; ऋषि वहां
निवास करता
है। कवि के
लिए तो कविता के
कभी-कभी क्षण
आते हैं, ऋषि
कविता जीता
है।
क्या
है काव्य? जहां अहंकार
विलीन हो गया
है और जहां
कोई व्यक्ति
केवल बांस की
पोंगरी हो गया
है...और जहां परमात्मा
बहना शुरू होता
है उस बांस की
पोंगरी से और
बांस की पोंगरी
बांसुरी बन
जाती है! ऋषि
का अर्थ है, जिसके भीतर
से परमात्मा
बोलता है।
पंडित
ऋषि नहीं
होते। जिनसे
उपनिषद बहा है, वे ऋषि हैं।
जो उपनिषदों
की टीकायें
लिखते हैं और
उपनिषदों की
व्याख्याएं
करते हैं, वे
ऋषि नहीं हैं।
जिनसे वेद
जन्मे हैं, वे ऋषि हैं।
लेकिन
चतुर्वेदी और
त्रिवेदी और द्विवेदी,
इनको तुम
ऋषि मत समझ
लेना।
मुनि
कौन है? जिसके
भीतर शब्द की
पकड़ छूट गई है,
शास्त्र की
पकड़ छूट गई है,
सिद्धांत
की पकड़ छूट गई
है। ऐसा
सन्नाटा छाया है,
ऐसा मौन
उतरा है जिसके
भीतर, ऐसा
शून्य
व्याप्त हो
गया है कि अब
शून्य का ही
नाद है...। अगर
ऐसा व्यक्ति
कुछ बोलता है,
तो शून्य से
ही निकलती है
वह वाणी। वह
उसकी अपनी
वाणी नहीं है;
वह
आकाशवाणी है,
क्योंकि
शून्य से
निकली है।
इलहाम है, उदघोष
है, अपौरुषेय
है...। कभी-कभी
कोई बुद्ध, कोई
महावीर...।
लेकिन
बुद्ध को
तुमने पत्थर
मारे। तुमने
बुद्ध को
गालियां दीं।
तुमने महावीर
को एक गांव से
दूसरे गांव
खदेड़ा।
महावीर मुनि
हैं। बारह वर्ष
मौन रहे। उनके
मौन में तुमने
उनको जितना
सताया उतना
शायद ही किसी
को सताया हो।
मौन थे, तो
कुछ बोल भी
नहीं सकते थे।
लोगों ने कानों
में खीले ठोंक
दिये कि बोलता
क्यों नहीं है?
बुलवाने के
लिए कानों में
खीले ठोंक
दिये! गांव-गांव
खदेड़ा, क्योंकि
महावीर नग्न
थे। महावीर
ऐसे निर्दोष
थे कि
उन्होंने
वस्त्र अपने
गिरा दिये, और वस्त्रों
के साथ
तुम्हारी
सारी थोथी
सभ्यता गिरा
दी। वस्त्रों
के गिरते ही
सभ्यता गिर
जाती है।
तुम्हारी
सभ्यता
वस्त्रों में
अटकी है। यह मेरा
भी अनुभव है।
वस्त्र
गिराते ही तुम
कुछ और ही हो
जाते हो।
वस्त्र
गिराते ही वह
तुम्हारी जो
तथाकथित
पाखंड की
व्यवस्था है, टूट जाती
है। तुम फिर
पशुओं और
वृक्षों के
जगत में
प्रवेश कर
जाते हो। फिर
निर्दोष हो
जाते हो। जैसे
अदम फिर लौट
आया ईश्वर के
बगीचे में!
इसलिए
इस आश्रम में
चलने वाली
समूह-चिकित्साओं
में नग्न होने
पर बल है, जोर
है। वस्त्र के
गिरते ही
अपूर्व
परिणाम देखे
जाते हैं। लाज
गई, संकोच
गया...। और
तुम्हारी जो
धारणायें थीं
छिपाने की
अपने को, बचाने
की अपने को, सुरक्षा के
वे जो तुमने
आवरण ओढ़ रखे
थे, वे भी
सब गिर गए।
वस्त्र
तो प्रतीक
हैं।
वस्त्रों के
भीतर वस्त्र
हैं; वे सभी
उघाड़ देने
हैं। मनुष्य
तो ऐसा हो गया
है--जैसे कि
प्याज की गांठ
हो।...पर्त पर
पर्त, वस्त्र
पर वस्त्र, मुखौटे पर
मुखौटे हैं। उघाड़ते
जाना है।
प्याज को
छीलते जाना
है...! और प्याज
जब छीलते हो
तो आंख से
आंसू गिरते
हैं, पीड़ा
भी होती है।
और तब तक
छीलते जाना है
जब तक कि
शून्य ही हाथ
न लग जाये।
वही शून्य मौन
है।
महावीर
ऐसे ही मुनि
हुए थे। सारे
वस्त्र छोड़ दिये।
सारे संस्कार
छोड़ दिए। सारी
सभ्यता छोड़
दी। क्योंकि
जो आदमियों से
नहीं मिला था, वह वृक्षों
और
पशु-पक्षियों
के पास रहकर
मिला; उनके
ही जैसे रहकर
मिला। वृक्ष,
पशु-पक्षी
अब भी प्रकृति
के अंग हैं।
मुनि वह है जो
फिर प्रकृति
का अंग हो
जाता है। हां,
एक फर्क
होता है उसमें
और पशुओं
में--पशु बेहोशी
में प्रकृति
के अंग हैं, मुनि
होशपूर्वक
प्रकृति का
अंग हो जाता
है।
समझो, भाषा ने ही
तुम्हें
उपद्रव में
डाला है। भाषा
को छोड़कर ही
तुम उपद्रव के
पार जा सकोगे।
तुम्हें
भिन्नता, भेद
किसने पैदा
करवाये हैं? कोई कहता है
मैं मुसलमान
हूं कोई कहता
हैं मैं हिंदू
हूं...बस बोले
कि भेद हुआ।
अगर दोनों चुप
बैठे रहें, भेद कैसे
होगा? अगर
दोनों चुप
बैठे हों, कैसे
जान सकोगे कौन
हिंदू है, कौन
मुसलमान है, कौन सिक्ख
है? एक ने
कहा मैं वेद
को मानता हूं,
एक ने कहा
मैं धम्मपद को
मानता हूं, एक ने कहा कि
मैं गीता को
मानता हूं; भेद शुरू हो
गया। एक ने
कहा कि मैं
ऐसा परमात्मा
मानता हूं, दूसरे ने
कहा मैं वैसा
परमात्मा
मानता हूं; भेद शुरू हो
गये। सारे भेद
भाषा के हैं।
अगर भाषा गिर
जाये तो अभेद
आ जाये।
मुनि
का अर्थ होता
है, जिसने
भाषा को गिरा
दिया। और तुम
तो तथाकथित भाषा-शास्त्रियों
को मुनि समझते
हो, ज्ञानी
समझते हो, पंडित
समझते हो, प्रज्ञावान
समझते हो। और
इन्हीं
उपद्रवियों
के कारण इस
जगत पर अभिशाप
की काली छाया
है।
अब
देखते हो, जिन सज्जन
ने यह सुझाव
दिया है--बड़े
धार्मिक भाव
से दिया है, बड़े धार्मिक
जोश से दिया
है--कि मेरी
जबान और मेरे
हाथ काट दिये
जाने चाहिए।
इसमें बड़ा
धार्मिक भावावेश
है; बड़े
आविष्ट होकर
दिया है! और इस
आदमी को खयाल
भी न आया कि यह
क्या कह रहा
है! ये
धार्मिक
व्यक्ति के
लक्षण हैं कि
जबान काट दी
जाए, कि
हाथ काट डाले
जाएं? अगर
यह जबान किसी
की है, तो
परमात्मा की।
अगर ये हाथ
किसी के हैं, तो परमात्मा
के हैं। किसी
की भी जबान
काटो, तुम
परमात्मा की
ही जबान
काटोगे। और
किसी के भी
हाथ काटो, तुम
उसी के हाथ
काटोगे।
मंसूर को नहीं
मारा तुमने, "उसकी' आवाज
को मारा। जीसस
को नहीं तुमने
सूली चढ़ाया, "उसके' ही
रूप को, उसके
ही अवतरण को
तुमने सूली
चढ़ा दिया।
सुकरात को
तुमने जहर
नहीं पिलाया,
वह जहर अब
भी परमात्मा
के कंठ में
है। उसका कंठ
नीला इसीलिए
तो हो गया है।
वह नीलकंठ हो
गया है! तुम्हारा
सारा जहर उसी
के कंठ में
पहुंच जाता है।
किसी को पिलाओ,
सब कंठ उसके
हैं।
लेकिन
ऐसा नहीं है
कि इस पंडितों
की संस्कृति के
झूठे, थोथे
पोषकों की
भीड़-भाड़ में
कभी कोई सच्चा
आदमी नहीं
होता। सच्चे
आदमी भी होते
हैं, प्यारे
आदमी भी होते
हैं--जिनके
भीतर मुनि का कुछ
रंग होता है!
जिनके भीतर
ऋषि की कुछ
आभा होती हैं!
एकदम अंधेरी
रात ही नहीं
है, यहां
कुछ तारे भी
टिमटिमाते
हैं। इसलिए
थोड़ी आशा है।
इसलिए मनुष्य
के संबंध में
एकदम निराश हो
जाने की जरूरत
नहीं है।
कल
मैंने एक पत्र
पाया। कल ही
करंट में यह
लेख पढ़ा और कल
ही मैंने एक
पत्र पाया।
संतुलन हो गया।
आदमी पर
डगमगाता
भरोसा ठहर
गया। अजमेर में
भारत के
मुसलमानों की
सर्वाधिक
पूज्य दरगाह
है--ख्वाजा
निजामुद्दीन
चिस्ती की
दरगाह! उस
दरगाह शरीफ के
प्रधान
हैं--एस. अयाज
महाराज। तुम
थोड़ा चौंकोगे--एस.
अयाज तो
मुसलमान का
नाम है--और महाराज!
क्योंकि
ख्वाजा
निजामुद्दीन
चिस्ती की दरगाह
हिंदू और
मुसलमान
दोनों के लिए
एक-सी प्यारी
है। होनी ही
चाहिए। इसलिए
दरगाह का जो
प्रधान है, उसको महाराज
भी कहते हैं।
वहां हिंदू भी
पूजा करते हैं,
मुसलमान भी
पूजा करते
हैं। मैं तो
चौंका! कल एस.
अयाज महाराज
का पत्र पाकर
बहुत चौंका।
पत्र में
उन्होंने
लिखा है कि
"आपका एक ही
प्रवचन मैंने
टेप से सुना
है--"द सीक्रेट
आफ द सीक्रेट्स'
का दसवां
प्रवचन--और
मैं दीवाना हो
गया हूं! क्या मुझे
आप अपना शिष्य
स्वीकार
करेंगे? मैं
देर नहीं सह
सकता। मुझे
पता ही नहीं
था कि आप हैं।
मुझे बुला
लें। मेरी
पात्रता नहीं
है, लेकिन
क्या मुझे आप
अपना शिष्य
स्वीकार करेंगे?'
बार-बार
दोहराया है।
मुश्किल
में पड़ जायेंगे
एस. अयाज! मैं
तो उनको लिखवा
दिया कि आ जायें।
मैं तुम जैसे
ही दीवाने
लोगों के लिए
हूं। मगर
मुश्किल में
पड़ जायेंगे!
पीछे जो हजारों
मुसलमान
उन्हें पूजते
हैं, मानते
हैं, वे तो
बड़े क्रुद्ध
हो जायेंगे।
लेकिन आदमी हिम्मत
के मालूम होते
हैं।
ऐसे
थोड़े-से आदमी
हैं जिनको ऋषि
कहो, जिनको
मुनि कहो, जिनके
पास आंखें
हैं। फिर वे
हिंदुओं में
हों, मुसलमानों
में हों, ईसाइयों
में हों, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। जिनके
पास आंखें हैं
वे ही मुझे
पहचान
सकेंगे। एस.
अयाज समझ पाये।
क्योंकि सूफी
का दिल है। और
अगर मेरी बात
न समझ पाते, तो प्रमाण
होता कि सूफी
का दिल नहीं
है। मैं जो कह
रहा हूं वह
सूफियों का
सार है, भक्तों
का सार है, सारे
ज्ञानियों का
निचोड़ है।
उसमें कुरान
का स्वर है।
उसमें वेद का
स्वर है।
उसमें धम्मपद की
आवाज है।
उसमें बाइबिल
की छाया है, छाप है।
मैं
किसी एक देश
के लिए, एक
धर्म के लिए, एक जाति के
लिए नहीं बोल
रहा हूं। यह
सारी पृथ्वी
मेरी अपनी है।
यह सारा मेरा
विस्तार अपना है।
और ऐसा ही यह
तुम्हारा भी
होना चाहिए।
छोड़ो ये बातें
कि यह
ऋषि-मुनियों
का देश...। अब तो
सारी पृथ्वी
हमारी है।
और
विश्वास करो
कि इसी तरह के
लोग धर्म को
नष्ट करते रहे
हैं। विश्वास
नहीं आता, क्योंकि
हमारी धारणा
धार्मिक
आदमियों के प्रति
कुछ और होती
है। हम उनसे
यह आशा नहीं
करते कि वे
जबानें काटने
और हाथ तोड़ने
की बातें करेंगे।
हम उनसे
हत्याओं की
आशा नहीं
करते। हम उनसे
जीवन का वरदान
चाहते हैं। हम
चाहते हैं कि वे
अभिशाप नहीं
होंगे--वरदान
होंगे, आशीष
होंगे। मगर
वैसे आशीष
होने वाले
व्यक्ति तो
कभी-कभी होते
हैं, सौ
मैं एक, और
निन्यानबे
जिनको तुम
ऋषि-मुनि
समझते हो उस एक
के विपरीत हो
जाते हैं।
तो
तुम जरा भेद
करना सीखो।
तुम्हारे
ऋषि-मुनियों
में दुर्वासा
भी हैं।
तुम्हारे
ऋषि-मुनियों
में व्यर्थ के
लोग भी हैं, व्यर्थ के
दावेदार भी
हैं। और उनकी
भीड़ है। क्योंकि
नकल करना सदा
आसान है, असल
होना बहुत
कठिन है। असल
के लिए कीमत
चुकानी पड़ती
है। असल के
लिए साधना से
गुजरना पड़ता है।
नकल के लिए तो
बस ओढ़ लिया एक
बाना, काम
हो गया। कुछ
कूड़ा-करकट
शास्त्रों का
इकट्ठा कर
लिया, कुछ
लफ्फाजी सीख
ली। बस
पर्याप्त है।
थोड़े कुशल
तोता हो गए, और बात हो
गई। कुशल
तोतों से
सावधान! वे
फिर चाहे किसी
शास्त्र का
उल्लेख करते
हों और किसी संस्कृति
का दावा करते
हो--तोतों से
सावधान। तोतों
ने मनुष्य
जाति को
यंत्रवत कर
दिया है। और
हम काफी पीड़ित
हो लिए हैं।
अब समय
आ गया है कि
आदमी थोड़ा
जागे, थोड़ा
होश से भरे।
इस
दुनिया में न
हिंदुओं की
जरूरत है, न मुसलमानों
की, न
ईसाईयों की; इस दुनिया
में तो सिर्फ
धार्मिक
लोगों की जरूरत
है। और
धार्मिक
व्यक्ति
सांप्रदायिक
नहीं होता। धार्मिक
व्यक्ति
राजनैतिक
नहीं होता।
धार्मिक
व्यक्ति किसी
देश, किसी
सीमा में
आबद्ध नहीं
होता है।
दूसरा
प्रश्न:
इस
बार कुछ
अजीब-सी
परिस्थिति
में आप तक
पहुंचा। यहां
पहुंचने पर घर
से तार मिला:
जल्दी आओ! परन्तु
आपकी निकटता
के अत्यंत
प्रसादपूर्ण
शीतल आनंद को छोड़
पाना इतना सरल
नहीं था।
द्वंद्वपूर्ण
स्थिति में भी
यहीं रुके
रहने का
निर्णय लिया।
आज बड़ा प्रसाद
उतरा है। भीतर
की वीणा पर
स्पष्ट रूप से
टयूनिंग का
आभास पहली बार
मिला है। आनंदित
हूं, आश्चर्यचकित
हूं। उचित
समझें तो कुछ
कहने की अनुकंपा
करें।
प्रेम
वेदांत! जब
कोई कुछ
चुकाता है तभी
कोई कुछ पाता
है। मुफ्त कुछ
भी नहीं। सत्य
तो मुफ्त
मिलता ही नहीं।
इस बार तुमने
कुछ चुकाया।
घर से खबर आई
कि चले आओ, द्वंद्व
हुआ। मन ने
कहा होगा: चलो,
घर है, गृहस्थी
है, परिवार
है, कोई
अड़चन होगी, कोई मुसीबत
होगी। मन ने
खींचा होगा कि
चलो। मन
चिंतित हुआ
होगा।
स्वाभाविक।
फिर भी तुम
रुके। उस "फिर
भी' में ही
सारा राज है।
तुमने कुछ
छोड़ा। तुमने
चिंता छोड़ी।
तुमने एक लगाव
छोड़ा, एक
आसक्ति छोड़ी।
यहां होने के
लिए तुमने
पहली बार कीमत
चुकायी।
आते
तुम पहले भी
थे, मगर तब
आना एक था।
रुकते तुम
पहले भी थे, लेकिन तब
रुकना एक था।
इस बार मन के
विपरीत रुके।
और जो मन के
विपरीत रुक
गया वही आत्मा
में प्रवेश
करता है। इस
बार तुमने मन
को त्यागा, तुमने कहा:
करता रह तू
चीख-पुकार, नहीं जाना
है। इस बार
तुमने मन की
उपेक्षा की।
उस उपेक्षा
में ही मन से
तुम्हारे
धागे टूटे। और
मन से धागे
टूटें तो
आत्मा से
जुड़ें। या तो मन
से जुड़े रहो
या आत्मा से
जुड़ जाओ, बस
दो ही उपाय
हैं। दोनों के
साथ एक साथ
जोड़ नहीं
बनता। या तो
बहिर्मुखी या
अंतर्मुखी।
इस बार
बहिर्मुखता
तुमने थोड़ी-सी
छोड़ी। तुमने
थोड़ा दांव पर
लगाया। मन ने
हजार शंकायें
भी उठायी
होंगी।
कर्तव्य के न
मालूम
कितने-कितने
विचार मन में
आये होंगे कि
पता नहीं
कौन-सी मुसीबत
है! तार में तो
सिर्फ लिखा है
जल्दी आओ, पता
नहीं पत्नी
बीमार है कि
मरणशैया पर है,
कि मां
बीमार है, कि
पिता बीमार
हैं,कि
चोरी हो गई घर
में, कि
डाका पड़ गया, कि दुकान
लुट गई, कि
आग लग गई, पता
नहीं क्या है!
हजार चिंताएं
उठी होंगी। उन
सारी चिंताओं
को तुमने एक
पोटली में
बांधकर अलग कर
रख दिया। उसी
के कारण, बस
उसी के कारण
इस बार
तुम्हें लगा
कि मन की वीणा
पर कुछ स्वर
बज रहा है।
जो
भी कीमत
चुकाने को
राजी है, उसे
मिलता है--उसे निश्चित
मिलता है।
कबीर ने कहा
है: "कबिरा खड़ा
बाजार में, लिये लुकाठी
हाथ। जो घर
बारै आपना चले
हमारे साथ।' कुछ तो
जलाना पड़े।
कुछ जगाना हो
तो कुछ जलाना पड़े।
कुछ नया जन्म
देना हो तो
पुराने के
प्रति कुछ
मरना पड़े।
जितने मरोगे
उतने ही
जन्मोगे। अगर
पूरे-पूरे मर
जाओ अतीत के
प्रति तो
तुम्हारा
संपूर्ण जन्म
हो जाए, नवोन्मेश
हो जाए। एक नई
लहर उठे
तुममें, जिससे
तुम भी परिचित
नहीं! एक नयी
चैतन्य की ज्योति
जले तुममें, जिसका तुमने
सपनों में भी
आभास नहीं
पाया!
पर
शुरुआत हुई, अच्छा हुआ
कि तुम रुक
गये। तार
मानकर चले भी
गए होते तो भी
क्या कर लेते?
अगर घर में
आग लग गयी थी
तो लग गयी थी, तुम भी जाकर
क्या बुझा
लेते? तुम्हारे
जाते-जाते तो
बुझ ही चुका
होता घर भी और
आग भी।
तुम्हारे
जाने से ही
क्या
होनेवाला था?
पहुंचकर भी
कोई क्या कर
लेता है? तुम
नहीं भी
पहुंचे तो भी
जिंदगी रुक
नहीं गयी, जिंदगी
बहती ही रही
है। कभी-कभी
तो ऐसा हो जाता
है कि न
पहुंचने का
परिणाम लाभकर
वहां भी हुआ
हो। पत्नी
बिस्तर पर पड़ी
है, एक-दो
दिन राह देखी
होगी कि अब
आते स्वामी, अब आते
स्वामी, फिर
सोची होगी कि
नहीं आते। फिर
उठ आई होगी। फिर
काम-धाम में
लग गई होगी।
फिर भूल-भाल
गई होगी
बीमारी।
क्योंकि पति न
हो तो पत्नी
को बीमारी
बनाये रखने
में रस ही
नहीं होता।...पति
हो तभी पत्नी
को बीमार होने
का मजा होता है।
मैं
एक घर में
बैठा था, सामने।
दंपत्ति घर के
बाहर गये थे।
अपने बच्चे को
छोड़ गये थे
मेरे पास
खेलते। वह
खेलते-खेलते
सरक गया और
बगल की दीवार
से गिर गया, कोई
चार-पांच फीट
नीचे। गिरकर
उसने मेरी तरफ
देखा। मैं
जैसा बैठा था
वैसा ही बैठा
रहा। मैंने
कुछ जैसे हुआ
ही नहीं, ऐसे
ही बैठा रहा।
उसने देखा।
थोड़ी देर
देखता रहा
होगा। वह भी
समझ गया होगा
कि कोई सार
नहीं है। उठा,
कपड़े झाड़कर
फिर अपने
खेलने में लग
गया। आधा घंटे
बाद जब उसके
मां-पिता लौटे,
एकदम रोने
लगा। मैंने
कहा: देख, यह
बिलकुल ठीक
नहीं है। उसने
कहा: क्यों
ठीक नहीं है? मैंने कहा:
आधा घंटा हो
चुका तुझे
गिरे, अब
रोने का क्या
मतलब? उसने
कहा: लेकिन तब
रोने का क्या
मतलब था? आप
तो ऐसे बैठे
थे जैसे पत्थर
की मूर्ति
हों। आप तो बस
देखते रहे।
मैं भी चौंका।
अब मेरी मां आ
गयी, अब भी
न रोऊं?
गिरने
से कोई संबंध
रोने का जरूरी
नहीं है। मां
हो तो बच्चा
ज्यादा रोता
है, मां न हो
तो देखकर समझ
जाता है कोई
सार नहीं है।
पति घर पर हो
तो पत्नी की
बीमारी लंबा जाती
है। पति घर पर
न हो, पत्नी
उठ आती
है--बच्चों को
स्कूल भेजना
है, काम-धाम
करना है।
जीवन
बहुत अदभुत
है। तुम नहीं
गये, इससे कुछ
हानि हो गयी
होगी ऐसा मत
सोचना। हानि
होने को इस
जगत में कुछ
है ही नहीं।
इस जगत में ऐसा
कुछ मूल्यवान
है ही नहीं
जिसकी हानि हो
जाये। हां, तुम गये
होते तो जरूर
कुछ हानि हो
गयी होती। यह
जो वीणा में
थोड़ी-सी झंकार
उठी, इससे
तुम चूक गये
होते। और मजा
ऐसा है कि
तुम्हें कभी
समझ में भी न
आता कि कुछ
चूक गये हो।
क्योंकि
चूकने का तो
पता ही तब
चलता है जब
झंकार उठने
लगे। यही तो
दुर्भाग्य है
करोड़ों लोगों
के जीवन में; वीणा में
झंकार नहीं
उठती, वे
सोचते हैं वे
कुछ चूक नहीं
रहे हैं, उनकी
जिंदगी ठीक चल
रही है। क्लब
जाते हैं, सिनेमा
देखते हैं, रेडियो
सुनते हैं, टेलीविजन
देखते हैं, पत्नी है, बच्चे हैं, धन-दौलत है, सब ठीक चल
रहा है।
उन्हें याद भी
आये तो कैसे
आये कि कुछ
चूक रहा
है--कुछ जो
सर्वाधिक
मूल्यवान है।
चूकने का भी
पता तब चलता
है जब थोड़ा स्वाद
आये। जिसने
सुनी थोड़ी
झंकार उसे पता
चलेगा कि अरे,
काश मैं चला
गया होता तो
पता नहीं क्या
चूक जाता!
अब
इस बात को भूल
मत जाना। आदमी
की स्मृति बड़ी
कमजोर है, जल्दी भूल जाता
है। स्मृति की
कमजोरी बड़ी
घातक है। भूल
मत जाना। यह
जो अभी तुमने
वीणा में
थोड़ी-सी टयूनिंग
मालूम पड़ी है,
यह कोई अंत
नहीं है, यह
प्रारंभ है।
यह तो पहली
चोट है। अभी
बहुत कुछ होना
है। अभी बहुत
राग उठने हैं।
रागों पर राग
हैं, महाराग
हैं, उनका
कोई अंत नहीं
है। जितने तुम
गहरे जाओगे
उतने रहस्य और
गहरे होते
जाते हैं।
रहस्य कभी
चुकते नहीं।
इसलिए तो हम
कहते हैं कि
परमात्मा
अनंत है; जान-जानकर
भी जानने को
शेष रह जाता
है। कितना ही
जानो, फिर
भी जानने को
शेष रह जाता
है। पर एक शुभ
किरण तुम पर
उतरी।
चिटकीं
ये बेले की
कलियां, ओ
मधुराधर,
छिटकी
हो मानो तव
मंद-मंद
स्मिति मनहर।
मुकुलित
हो गया अमित
जीवन-उल्लास-हास,
वृन्तों
पर थिरक उठा, नव चेतन का
विकास;
पांखुरियों
में स्पंदित
नवल
जागरण-विलास;
अलिगण
की गुन-गुन
में गूंजे हैं
नव-नव स्वर;
ओ
मेरे
मधुराधर।
सर-सर-सर-सर
करता नाच उठा मधु
समीर,
फर-फर-फर-फर
करती आयी है
विहग-भीर
जीवन
का जय-निनाद
उमड़ा है गगन
चीर,
लहर
उठीं नभ-सर
में बाल अरुण
किरण-लहर;
ओ
मेरे
मधुराधर।
जग
में है
ज्योति-हास, जड़ में
चेतन-प्रकाश,
तृणत्तृण
में सुरस-रास, चिन्मय है
महाकाश;
तव
हिय क्यों हो
उदास? मानव
क्यों हो निराश?
उपल-हृदय
में भी तो लहर
रहा निर्झर,
ओ
मेरे
मधुराधर।
निरख-निरख
कलियों की
मादक मुसकान
अमल--
बलि
जाऊं! आयी है
तव स्मिति की
स्मृति
विह्वल!
मन
मन-सर में
विकसित हैं तव
युग नयन-कमल,
परिमल
मिस आयी तव
तन-सुवास
सिहर-सिहर!
चिटकीं
ये बेले की
कलियां, ओ
मधुराधर,
छिटकी
हो मानो तव
मंद-मंद
स्मिति मनहर।
ओ
मेरे
मधुराधर।
उसकी
पहली किरण
उतरी। उस
प्रिय की पहली
झलक आयी। पहला
घूंट गले के
नीचे उतरा है।
अभी बहुत पीने
हैं, सागर
पीने हैं।
लेकिन सूत्र
याद रखना, कुछ
इस बार छोड़ा
है इसलिए कुछ
पाया है, यह
गणित भूल न
जाए। जितना
छोड़ोगे उतना
पाओगे। जितना
दांव पर
लगाओगे उतना
पाओगे--उतना
ही पाओगे!
जीवन बड़ा
न्यायपूर्ण
है।
तीसरा
प्रश्न:
राजनैतिक
लुच्चे-लफंगों
से देश का
छुटकारा कब
होगा?
बहुत
कठिन है।
क्योंकि
प्रश्न
राजनैतिकों
से छुटकारे का
नहीं है, प्रश्न
तो तुम्हारे
अज्ञान के
मिटने का है।
तुम जब तक
अज्ञानी हो, कोई-न-कोई
तुम्हारा
शोषण करेगा।
कोई-न-कोई तुम्हें
चूसेगा--पंडित
चूसेंगे, पुरोहित
चूसेंगे, राजनेता
चूसेंगे। तुम
जब तक जाग्रत
नहीं हो, तब
तक लुटोगे ही।
फिर किसने
लूटा, क्या
फर्क पड़ता है?
किस झंडे की
आड़ में लूटा, क्या फर्क
पड़ता है? मंदिर
में लुटे कि
मस्जिद में, समाजवादियों
से लुटे कि
साम्यवादियों
से, क्या
फर्क पड़ता है?
तुम
लुटोगे।
लुटेरों के
नाम बदलते
रहेंगे और तुम
लुटते रहोगे।
राजनीति
तो झूठ का खेल
है। जब तक तुम
सच को न पहचानने
लगोगे तब तक
तुम झूठों के
हाथ में पड़ते ही
रहोगे, पड़ते
ही रहोगे।
ऐसा
मत पूछो कि
राजनैतिक
लुच्चे-लफंगों
से देश का
छुटकारा कब
होगा? यह
प्रश्न
अर्थहीन है।
ऐसा पूछो कि
मैं कब इतना
जाग सकूंगा कि
झूठ को झूठ की
तरह पहचान
सकूं। और जब
तक सारी
मनुष्य-जाति
झूठ को झूठ की
भांति नहीं
पहचानती, तब
तक छुटकारे का
कोई उपाय नहीं
है।
हम सिर्फ
अपने कंधों के
बोझ बदलते
रहते हैं। मरघट
तुमने देखा है, लोग अर्थी
ले जाते हैं!
एक कंधा थक
जाता है, तो
फिर अर्थी को
दूसरे कंधे पर
रख लेते हैं।
कुछ अर्थी का
बोझ कम नहीं
हो जाता कंधा
बदलने से।
लेकिन थका
कंधा, थोड़ी
राहत ले लेता
है, गैर-थका
कंधा थोड़ा
सम्हाल लेता
है। फिर जब वह
कंधा थक
जायेगा, फिर
कंधा बदल
लेंगे।
बस
ऐसे ही एक
राजनेता को
हटाते हो
दूसरे को बिठलाते
हो; कंधा थक
जाता है, फिर
तीसरे को
बिठाल लोगे।
यह खेल चलता
रहता है...सदियां
बीत गईं! आदमी
के भीतर कहीं
कोई किरण की
कमी है, कहीं
कोई रोशनी की
कमी है। झूठ
नहीं पहचान
पाता। और कैसे
झूठ तुमसे
बोले जाते हैं,
फिर भी तुम
नहीं पहचान
पाते! राजनेता
ऐसे झूठ बोलते
हैं, जिसको
कोई भी पहचान
ले, बच्चा
भी पहचान ले
कि यह झूठ है।
लेकिन फिर तुम
भ्रम में आ
जाते हो। तुम
उनके
आश्वासनों को फिर
मान लेते हो।
तुम फिर भरोसा
कर लेते हो कि
आ गया
रामराज्य, इस
बार पक्का आ
गया! कभी नहीं
आता।
राजनेताओं
से रामराज्य
कभी आने को है
भी नहीं! सच तो
यह है कि राम
के राज्य में
भी कहां रामराज्य
था, तो अब
क्या आयेगा? रामराज्य
कभी रहा ही
नहीं है।
शूद्र उतने ही
पीड़ित थे राम
के राज्य में
जितने आज
पीड़ित हैं। एक
शूद्र के
कानों में
शीशा पिघलाकर
डाल दिया गया
था, क्योंकि
उसने
वेद के वचन
सुन लिये थे। यह
रामराज्य है!
यह कैसा
रामराज्य? शूद्र
और ब्राह्मण
का यह भेद, रामराज्य!
स्त्री-पुरुष
के बीच इतना
भेद था जिसका
हिसाब नहीं।
जब राम सीता
को रावण से
छीनकर ले आये,
तो उसकी
अग्नि-परीक्षा
ली। स्वयं भी
तो देनी थी।
क्योंकि सीता
अकेली रही थी,
राम भी
अकेले रहे थे।
और कई
इतिहासज्ञ
हैं जिनको शक
है कि राम का
शबरी से प्रेम
था। मैं नहीं जानता,
मैं कोई
गवाही नहीं दे
रहा हूं कि था
कि नहीं। मुझे
कुछ लेना-देना
भी नहीं है--न
शबरी से न राम
से। लेकिन
इतिहासज्ञ
हैं, मैंने
किताबें पढ़ी
हैं, जिनको
शक है।
लेकिन
स्त्री-पुरुष
में भेद है।
स्त्री को तो अग्नि-परीक्षा
देनी पड़ी।
पुरुष...पुरुष
तो सदा ही
शुद्ध है! पति
तो परमात्मा
है! उसको
परीक्षा क्या
देनी? यह तो
बेईमानी हो
गई। या तो
सीता की
परीक्षा नहीं
लेनी थी। और
अगर लेनी थी
तो दोनों को
आग से गुजरना
था। और फिर भी
तुम देखते हो,
परीक्षा से
भी क्या हुआ!
लौटकर
अयोध्या में
सरसरी फैली
होगी कि इतने
दिन तक रावण
के वहां रही, पता नहीं
क्या संबंध
रहा, कैसा
रहा! लोग तो
सदा लोग हैं, अफवाहों पर
जीते हैं!
अफवाहें ही
उनकी सारी
संपदा हैं।
कहानी
कहती है कि एक
धोबी के कहने
से, मगर मैं
यह नहीं मान
सकता, कई
धोबी कह रहे
होंगे।
क्योंकि
धोबियों को मैं
जानता हूं।
उनका धंधा ही
यही है। एक
धोबी तभी कह
सकता है, जब
कई धोबी कह
रहे हों। हवा
रही होगी, पूरे
गांव में यही
चर्चा रही होगी।
अयोध्या में
यही कानाफूसी
चल रही होगी कि
मामला क्या है,
इतने दिन तक
रावण के घर
रहकर सीता को
ले आये! कोई एक
धोबी के कहने
से राम ने
सीता को छोड़ा
होगा, यह
बात जंचती
नहीं है। यह
तो बड़ा ही
अलोकतांत्रिक
हो जायेगा कि
निन्यानबे
प्रतिशत लोग
पक्ष में थे
और एक प्रतिशत
पक्ष में नहीं
थे। उस एक
प्रतिशत के
लिए
निन्यानबे
प्रतिशत के
विचार की
हत्या की गई, यह तो
रामराज्य
नहीं होगा। यह
तो अल्पमत का
राज्य हो
जायेगा।
और
फिर, जब
अग्नि-परीक्षा
ले ली थी; फिर
तो सीता को
छुड़वा देना
जंगल
में--गर्भवती सीता
को--बड़ा
अन्यायपूर्ण
है! फिर
परीक्षा का
क्या हुआ, फिर
परीक्षा का
अर्थ क्या था?
और अगर ऐसा
ही था कि लोग
बहुत निंदा कर
रहे थे, तो
स्वयं भी सीता
के साथ जंगल
चले जाना था।
तो कुछ बात भी
होती। राज्य
बचा लिया, पद
बचा लिया, पत्नी
छोड़ दी? स्त्री
का मूल्य ही
क्या है, लोग
तो उसको पैर
की जूती समझते
रहे हैं!
नहीं, उस दिन भी
रामराज्य
क्या खाक रहा
होगा! रामराज्य
कभी नहीं रहा।
रामराज्य
आयेगा तब, जब
तुम्हारे
भीतर ज्योति
होगी; जब
तुम्हारे
भीतर ध्यान का
प्रकाश होगा।
जब बहुत लोग
ध्यानपूर्वक
जीयेंगे, तब
यह संभव है।
राजनीति
तो झूठ पर
चलती है।
ढब्बू
जी ने एक नेता
जी से पूछा: एक
झूठ बोलकर तो
दिखाइये बिना
सोचे। नेताजी
ने कहा: मैं
झूठ नहीं
बोलता। ढब्बू
जी ने कहा:
शाबास! आपने
सोचने में जरा
भी वक्त नहीं
लिया।
नेताजी
और झूठ न
बोलें, तो
नेताजी
बोलेंगे क्या!
श्रीमती
जी ने यह
सुनकर कि आज
उनके मित्रों
को उनके
पतिदेव ने, जो कि एक
राजनेता हैं,
खाने पर
बुलाया है...।
तो नेताजी
आनन-फानन उठे
और घर-भर की
छतरियां तथा
हैट उठाकर
भंडार घर में
छिपा आये।
श्रीमती जी ने
जरा चकित होकर
पूछा कि क्या
आपको डर है कि
मेहमान लोग
छतरियां और हैट
चुरा ले
जायेंगे? यह
बात नहीं, नेताजी
ने खोपड़ी खुजाते-खुजाते
कहा, मुझे
यह डर है कि वे
लोग अपनी
वस्तुएं
पहचान न लें।
नेताओं
की जिंदगी तो
झूठ और चोरी
पर ही चलेगी।
और फिर
ज्यादा-से-ज्यादा
तुम बदलाहट कर
सकते हो--एक
चोर की जगह
दूसरा चोर। और
चोर वही के
वही हैं। चोरी
वही की वही
है। छाप तुम
कोई भी लगा लो।
तुम
देखते हो, एक ही तरह के
चोर इस मुल्क
की छाती पर
सवार हैं। इस
पार्टी से उस
पार्टी में
चले जाते हैं;
उस पार्टी
से इस पार्टी
में चले जाते
हैं; चोर
वही के वही!
मुल्ला
नसरुद्दीन
केमिस्ट की
दुकान पर गये
और दुकानदार
से बोले: याद
है, कल मैं
आपके यहां से
एक स्याही के
दाग दूर करने
वाली दवा ले
गया था? दुकानदार
ने कहा: हां, क्या
नसरुद्दीन, दूसरी शीशी
चाहिए, मुल्ला
ने कहा कि
नहीं, अब
उस दवा के दाग
को मिटाने
वाली दवा हो
तो दे दीजिए।
एक
राजनैतिक
पार्टी
नुकसान करती
है। फिर उसको
सुधारने के
लिए दूसरी को
लाओ; वह और
नुकसान करती
है। फिर तीसरी
को लाओ।...यह
जारी रहा है।
आदमी की छाती
पर शोषण जारी
रहा है। और
जारी रहेगा। कसूर
तुम्हारा है।
तुम जागो।
कसूर
राजनैतिक का
नहीं है।
राजनैतिक तो
सिर्फ
अवसरवादी है।
वह तो अवसर का
फायदा ले रहा
है। वह देखता
है कि तुम
राजी हो
सीढ़ियां बनने
को तो तुम्हारी
सीढ़ियां
बनाकर चढ़ जाता
है। उसे
कुर्सी तक
पहुंचना है।
तुम कुर्सी को
जब तक आदर
दोगे, तब
तक कुछ लोग
तुम्हें
सीढ़ियां
बनाकर कुर्सी पर
पहुंचते
रहेंगे।
कुर्सी को आदर
देना बंद करो।
कोई जरूरत
क्या है? अगर
प्रधान
मंत्री गांव
में आ जायें, तो सारे
गांव को वहां
मूढ़ों की तरह
इकट्ठे होने
की आवश्यकता
क्या है? आने
दो, जाने
दो; तुम
चिंता छोड़ो।
तो कुर्सी का
जो मूल्य बन
गया है, वह
नीचे गिरे।
कुर्सी
का मूल्य
गिराओ।
कुर्सी को
नीचे हटाओ।
कुर्सी को
इतने नीचे हटा
दो कि कुर्सी
पर बैठने का
मजा ही न रह
जाये। जब तक
कुर्सी पर
बैठने का मजा
है, तुम चले
पूजा करने:
तुम चले
फूलमालाएं
लेकर। और मजा
यह है कि वे ही
नेता जब तक पद
पर नहीं थे, तुम्हारे
गांव में आये
तो तुम्हें
कोई चिंता न
थी। जैसे ही
वे पद पर
पहुंच जाते
हैं, तुम
एकदम दीवाने
हो जाते हो, जैसे उनमें
कोई ईश्वरीय
शक्ति का
अवतरण हो जाता
है! कुर्सी का
इतना समादर
करोगे, तो
फिर लाखों लोग
कुर्सी तक
पहुंचने के
लिए तड़फेंगे।
और जब लाखों
लोग तड़फेंगे,
तो संघर्ष
छिड़ेगा, महत्वाकांक्षा
होगी, गलाघोंट
प्रतिस्पर्धा
होगी। फिर
उनमें जो सबसे
ज्यादा
चालबाज होगा,
वही पहुंच
पायेगा।
राजनीति
में तो वही
जीतेगा जो
सबसे ज्यादा
चोर, सबसे
ज्यादा
बेईमान होगा।
और इतना कुशल
होना चाहिए कि
बेईमानी भी
करता रहे और
ईमानदारी का झंडा
भी उठाये रहे।
साधु-संत भी
बना रहे ऊपर-ऊपर
और भीतर-भीतर
सारे उपद्रव
भी जारी रखे।
इस सबके पीछे
आधार क्या है?
तुम क्यों
कुर्सी को
इतना मूल्य देते
हो?
पद
के मूल्य को
गिराओ। हर चीज
का मूल्य बढ़
रहा है, कम-से-कम
एक चीज का
मूल्य मत बढ़ने
दो। कुर्सी का
मूल्य मत बढ़ने
दो। उसका
मूल्य-हृास
करो। जैसे
रुपये की कीमत
गिरती जाती है,
ऐसे ही
कुर्सी की
कीमत गिराते
जाओ। एक घड़ी
ऐसी आ जाये कि
जिसको तुम
कुर्सी पर
बिठा दो, वह
बैठा ही रहे, न कोई फूल
माला लाये, न कोई
शोरगुल मचाये,
न कोई
जय-जयकार करे।
तब तुम पाओगे
कि राजनीति में
दूसरी तरह के
लोग उत्सुक
होंगे, जो
कुछ सेवा करना
चाहते हैं।
तब! नहीं तो
चोर और लफंगे
और लुच्चे ही
उत्सुक होंगे,
जो ताकत में
होना चाहते
हैं।
कुर्सियां
डस रही हैं
मौसम को
पर
उन्हें सब
सलाम करते हैं
कुर्सियां
आज बन गई हैं
रोग
कितने
मासूम ब-अदब
हैं लोग
चोट
खाखाकर
मुस्कराते
हैं
राज-काजों
में कट गया सब
दिन
घर
की राहों में
आह भरते हैं
कुर्सियां
डस रही हैं
मौसम को
पर
उन्हें सब
सलाम करते हैं
कुर्सियों
के बिना गुजर
भी नहीं
कुर्सियों
की बड़ी उमर भी
नहीं
कुर्सियां
सभ्यता का
लालच हैं
कुर्सियां
मौत से बड़ा सच
हैं
कुर्सियां
सोचती नहीं
खुद तो
सोचते
वे कि जो
उतरते हैं
या
कि जो
कुर्सियों से
डरते हैं
कुर्सियां
डस रही हैं
मौसम को
पर
उन्हें सब
सलाम करते
हैं।
कुर्सियों
को सलाम करना
बंद करो।
कुर्सी-पूजा
बहुत हो चुकी।
जितनी कुर्सी
की पूजा कम हो
जाये उतने ही गलत
लोग कुर्सी की
तरफ जाना बंद
कर देंगे। तुमने
कुर्सी को
बहुत आकर्षण
दे दिया है।
लेकिन
अखबारों में
राजनेता की
चर्चा है पहले
पृष्ठ से लेकर
आखिरी पृष्ठ
तक। गांव में
उसकी चर्चा है, होटलों में
उसकी चर्चा है,
चौपालों
में उसकी
चर्चा है।
जहां देखो
वहां राजनीति
की चर्चा है।
सुबह से उठे
नहीं कि बस अखबार
की तरफ दौड़ते
हो। चाय भी
पीछे, पहले
अखबार पीते
हो। जरा खाली
समय मिला कि
रेडियो पर बैठ
जाते हो कि
लगा लिये कान
दिल्ली पर।
मेरा
प्रयास यही
है। अगर मैं
राजनीति के
खिलाफ कभी बोलता
हूं तो उसका
कारण यह नहीं
है कि मुझे
राजनीति में
कोई रस है।
उसका कुल कारण
इतना है कि मैं
चाहता हूं कि
तुम्हारे मन
से राजनैतिक
की प्रतिष्ठा
समाप्त हो
जाये।
प्रतिष्ठा
समाप्त होगी
तो
प्रतिष्ठा-लोलुप
व्यक्ति उस तरफ
जाने अपने-आप
बंद हो
जायेंगे। तुम
जिस चीज को
मूल्य देते हो, लोग उसी तरफ
जाने लगते
हैं।
तुमने
देखा, पुराने
जमाने में हम
संन्यासियों
को मूल्य देते
थे, तो हर
आदमी के मन
में एक कामना
होती थी कि
कभी-न-कभी
संन्यासी
होना है। होना
ही है। आज
नहीं कल, कल
नहीं परसों, मगर एक दिन
वह सौभाग्य की
घड़ी जरूर
आयेगी, जब
मैं भी
संन्यस्त हो
जाऊंगा। लोग
सपना देखते थे
संन्यासी
होने का! छोटे
बच्चे
संन्यासी होने
का सपना देखते
थे। संन्यासी
का मूल्य था, क्योंकि
सम्राट भी
संन्यासी के
चरण छूते थे। तो
संन्यास की एक
हवा थी।
अब
छोटे बच्चे ही
नहीं, बूढ़े
भी सोचते हैं
कैसे फिल्म के
नेता हो जायें
अभिनेता हो
जायें। अगर
नेता नहीं हो
सकते तो
कम-से-कम
अभिनेता हो
जायें। मगर दो
ही चीजें होती
हैं लोगों को
या तो नेता या
अभिनेता।
बच्चे एकदम
बंबई की तरफ
भागते हैं या
दिल्ली की तरफ।
और किसी चीज
का कोई आकर्षण
नहीं मालूम
होता। किसी को
फिकिर नहीं है
कि कुछ और भी
जीवन में
है--बस
अभिनेता या
राजनेता।
क्योंकि
दोनों को खूब
सम्मान मिल
रहा है, खूब
आदर मिल रहा
है, खूब
प्रशंसा मिल
रही है, फूलमालायें
मिल रही हैं।
अहंकार
जहां तृप्त
होता है उस
तरफ लोग दौड़ने
लगते हैं।
बदलो
इस मूल्य को।
अगर आदर ही
देना हो तो उन
चीजों को आदर
दो जिनकी तरफ
लोग दौड़ेंगे
तो जीवन का सौंदर्य
बढ़े।
संगीतज्ञ को
आदर दो। उस
साधक संगीतज्ञ
को आदर दो जो
आठ घंटे रियाज
करता है और वर्षों
के बाद कभी
कुशल हो पाता
है। उसे आदर
दो। उस
मूर्तिकार को
आदर दो जो
पत्थर को
तोड़ता है और
पत्थर में
प्राण डालता
है, कि एक दिन
पत्थर बोलने
लगता है, सजीव
हो उठता है।
उस कवि को आदर
दो, जिसके
गीत आकाश की
कुछ खबर लाते
हैं। उस ऋषि को
आदर दो जो
वर्षों ध्यान
में डूब-डूबकर
एक दिन अपने
शून्य को
प्रगट करता
है।
आदर
ही देना है तो
कुछ ऐसी चीजों
को आदर दो, जो लोगों के
जीवन में बढ़े
तो जगत सुंदर
बने, मनोरम
हो, यह
पृथ्वी
स्वर्ग बने।
मगर तुम गलत
लोगों को आदर
देते हो। तुम
राजनेताओं को
आदर देते हो
या अभिनेताओं
को आदर देते
हो। फिर भी
मैं तुमसे कहता
हूं कि अगर
आदर इन दोनों
में से ही
चुनना हो तो
अभिनेता को
देना, राजनेता
को तो देना ही
मत। अभिनेता
फिर भी एक तरह
की कला के जगत
में अपने को
लगाता है।
बहुत कीमती
उसकी कला नहीं
है, सतही
है, थोथी
है। क्योंकि
तृतीय श्रेणी
की जो भीड़ है उसको
तृप्त करने के
लिए उसकी कला
है। उसकी कला में
कोई अभिजात्य
नहीं है। हो
भी नहीं सकता,
क्योंकि
बाजारू है।
नहीं तो उसकी
फिल्म चलेगी
कहां, देखेगा
कौन?
अगर
तुम ध्यान
करते लोगों की
फिल्म बनाओ, देखेगा कौन?
हुड़दंग
चाहिये, तो
लोग देखेंगे,
क्योंकि
हुड़दंगे हैं।
चारों तरफ उस
तरह के लोग
हैं। जितनी
हुड़दंग हो
फिल्म में, जितना
शोर-शराबा मचे,
उतने लोग
देखेंगे।
सतही है, मगर
फिर भी
कम-से-कम कला
तो है। और एक
बात तो निश्चित
है, कम-से-कम
हानि नहीं
होती उससे
कुछ। राजनेता
निश्चित
नुकसान
पहुंचाता है,
क्योंकि
राजनीति का
मौलिक आधार ही
बेईमानी है, जालसाजी है,
चालबाजी
है।
यह
कौन-सा गगन है
हर
ओर
चांदत्तारे
लगते
बुझे-बुझे से
कहते
कि जल रहे हैं
हर
फूल कह रहा है
माली
सही नहीं है
और
शूल कह रहे
हैं
खुशबू
रही नहीं है
यह
कौन-सा चमन है
हर
ओर रंग बिखरे
लेकिन
कदम हवा के
विपरीत चल रहे
हर
धूप सेंकती है
छाया
गुनाह
करके
निर्माण
चाहती है
हिंसा तबाह
करके
यह
कौन-सा भवन है
चारों
उदास कोने
दीवार
है पुरानी
परदे
बदल रहे
बदली
गई सुराही
दो
स्वाद एक नशा
है
आंसू
किसी हंसी के
भुज
पाश में बंधा
है
यह
कौन सा शमन है
मरघट
गुलाल छिड़के
कुछ
अर्थहीन नारे
मुख
से निकल रहे
पहले
हृदय से घायल
अब
बुद्धि से हैं
घायल
अब
दुख रहे हैं
कंगन
तब
दुख रही थी
पायल
यह
कौन सा तपन है
भयभीत
कल्पनाएं
यह
रक्त बीज दृग
में
दिन-रात
पल रहे हैं
एक
दुख-स्वप्न चल
रहा है और
सदियों से चल
रहा है। इस
दुख-स्वप्न को
तोड़ना है।
मनुष्य की
महत्वकांक्षा
को कुछ
ऊंचाइयां दो।
परमात्मा पाने
की अभीप्सा दो, पद पाने की
नहीं। ध्यान
की तलाश दो, धन की तलाश
नहीं। दूसरों
को जीतने का
प्रलोभन मत दो,
स्वयं को
जीतने का
विचार
जन्माओ।
राजनीति
का अर्थ होता
है: दूसरों को
कैसे जीत लूं? धर्म का
अर्थ होता है:
स्वयं को कैसे
जीत लूं? इसलिये
धर्म और
राजनीति बड़े
विपरीत हैं।
धर्म फैले तो
राजनीति
अपने-आप सिकुड़
जायेगी और अगर
धर्म न फैला
तो राजनीति फैलती
ही रहेगी।
आदमी जीतेगा
तो...जीतने की
आकांक्षा
आदमी के
प्राणों में
है। अगर अपने
को नहीं
जीतेगा तो
दूसरों को
जीतेगा।
धन्यभागी
हैं वे जो
स्वयं को
जीतते हैं, क्योंकि
स्वयं को
जीतकर ही
परमात्मा के
मंदिर का
द्वार खुलता
है, शाश्वत
जीवन उपलब्ध
होता है। और
अभागे हैं वे,
जो दूसरों
को ही जीतने
में लगे रहते
हैं क्योंकि
दूसरों को तो
जीत ही नहीं
पाते, दूसरों
को जीतने की
चेष्टा में
स्वयं को भी
गवां बैठते
हैं।
चौथा
प्रश्न:
मैं
कैसे भवसागर
पार करूं? नौका है
टूटी-फूटी, पतवारें हाथ
में नहीं, सागर
विशाल है और
मेरी
सामर्थ्य अति
सीमित। कहीं
मध्य में ही
डूब तो न
जाऊंगा?
पहली
बात, डूबने की
कला ही भवसागर
को पार करने
की कला है। जो
डूबने को
तैयार हैं वे
ही भवसागर के
पार होते हैं।
जो डूबते हैं
उन्हीं को
किनारा मिलता
है। इसलिए तुम
यह मत पूछो कि
कहीं मैं डूब
तो न जाऊंगा? डूबने से
डरे, तो
चूक जाओगे।
डूबने से डरे
तो इसी किनारे
पर अटके रह
जाओगे। डूबने
से डरे, तो
अहंकार को बचा
रहे हो, और
क्या कर रहे
हो?
डूबने
का क्या अर्थ
है? शरीर तो
एक दिन मौत ले
लेगी, डूबेगा।
अब मन बचता है,
चाहो तो बचा
लो। बचा लोगे
तो नये शरीर
को ग्रहण कर
लेगा। फिर नयी
नौका में बैठ
जायेगा। फिर
भवसागर की
यात्रा शुरू
हो जाएगी। मन
को बचाया तो
नये गर्भ में
प्रवेश कर
जाओगे। देह तो
चढ़ जाती है चिता
पर, मन
जल्दी से नये
गर्भ में
प्रवेश कर
जाता है।
डूबने
से मेरा क्या
अर्थ है? डूबने
से मेरा अर्थ
है: शरीर तो
अपने-आप
मृत्यु ले
लेगी, तुम
अपने मन को
ध्यान में
डुबा दो। जैसे
शरीर चिता पर
जल जायेगा, ऐसे तुम
अपने मन को
साक्षी में
जला दो। न बचे
शरीर न बचे मन,
फिर जो शेष
रह जायेगा, तुम्हारे
भीतर का
आकाश--वही
मोक्ष है, वही
मुक्ति है। हो
गये पार। मध्य
में डूबो तो
पार हो जाओ।
हम
भी अजब जंतु
हैं जग में चढ़
कागज की नाव,
प्रेम-समंदर
चले लांघने
लगा प्राण के
दांव;
पेशेवर
मल्लाह हंस
पड़े यह बौड़मपन
देख,
पर
हमने दे टीप, अलापी अपने
मन की टेक।
दुनियादारो, तुम क्या
समझो हम
मस्तों का खेल?
शास्त्र
हमारा अलग जगत
से अलग हमारी
गैल;
सरकण्डे
की डांड़ हमारी, और कागज की
नाव,
लहर, भंवर का इस
सागर में हमें
नहीं अटकाव।
इन
उपकरणों को ही
लेकर सदियों
पहले यार,
जिन
पगलों ने किया
संतरित यह रस
पारावार,
हम
भी उन ही के
वंशज हैं, फिर हमको
क्या सोच?
कैसी
झिझक? जुगुप्सा
कैसी? क्या
भय? क्या
संकोच?
तरल
तरंगित, पवन
विकम्पित
प्रेमाम्बुधि
के बीच;
वे
समान-धर्मा
अलबेले लीक
गये हैं खींच,
अरे, आज भी दीख
रहे हैं उनके
वे नौ-यान,
क्षीरोदधि
में राजहंस की
पांतों से
अम्लान।
हमने
भी डाली सागर
में नौका
जर्जर क्षीण,
गल
जाये तो भी
क्या चिंता? होंगे सागर
लीन,
तिरती
है तब तक तो
उसमें बैठे हम
रस-खान,
हो
निःशंक
रहेंगे गाते
पुण्य प्रेम
के गान!
जब
तक हो, गाओ
गीत! जब तक हो, उठाओ
प्रार्थना! जब
तक हो, बहने
दो अर्चना! और
जब डूब जाओ तो
आनंदमग्न लीन
हो जाना सागर
में। बचाव की
सोचो ही मत।
डरो मत।
जीसस
का प्रसिद्ध
वचन है: जो
बचायेंगे वे
खो जाएंगे। और
जो खोने को
राजी हैं वे
बच गये।
विरोधाभासी
दीखता यह वचन
अदभुत है, अपूर्व है।
यह समस्त
ध्यानियों की
आधारशिला है।
यही नाव है
जिसमें बैठो।
मिट जाओ तो बच
जाओगे। पोंछ
दो अपने को।
बचाने की
किंचित भी चिंता
न करना, क्योंकि
जितने तुम
बचोगे उतना ही
तुम्हारे और
परमात्मा के
बीच अवरोध रह
जाएगा। जब तुम
बिलकुल नहीं
होते हो तो
परमात्मा
पूरा का पूरा
प्रगट होता
है। तुम्हारे
न होने में
उसका होना है।
तुम्हारे
होने में उसका
न होना है।
और
यहां है भी
क्या खोने को? हमारे पास
है भी क्या? कुछ लेकर
आये न थे, कुछ
लेकर जाएंगे
नहीं। खाली
हाथ आये खाली
हाथ जाएंगे।
इस बीच के
पड़ाव पर थोड़ा
शोरगुल मचा लिया
है, मकान
बना लिया है, थोड़ा धन
इकट्ठा कर
लिया है, बैंक
में बैलेंस
जमा करवा दिया
है। मगर यह सब बीच
का खेल है; एक
सपने से
ज्यादा इसका
मूल्य नहीं
है।
सपना
मैं किसे कहता
हूं? सपना मैं
उसे कहता हूं,
जो मौत छीन
लेगी। जिस चीज
को भी मौत छीन
लेगी, वह
सपना है। चाहे
तुम सत्तर साल
देखो, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? सात
घंटे देखो रात
में कि सत्तर
साल देखो दिन में,
कोई फर्क
नहीं पड़ता।
निर्णायक
कसौटी मौत है।
जो मौत तुमसे
छीन लेगी वह
तुम्हारा
नहीं था--उसके
लिए तुम नाहक
परेशान थे।
उसके लिए तुम
नाहक बचा रहे
थे। उसके लिए
तुम नाहक उपाय
और आयोजन कर
रहे थे। वह तो
छिनेगा।
कि
जिस दिन तक है
जिसका काम,
उसी
दिन तक यह
दुआ-सलाम;
तभी
तक आवभगत, अनुरक्ति, तभी तक है
मेरा सम्मान!
जानकर
के भी मैं
अनजान!
प्राप्ति
से दूर, कर्म
के पास;
मुक्ति
से दूर, धर्म
के पास;
तर्क
से दूर मर्म
के पास, लीन
होंगे ये मेरे
प्राण।
जानकर
के भी मैं
अनजान!
देह
पर इतना
अत्याचार,
गेह
पर इतना
अत्याचार;
सत्य
चातक है
क्षम्य न
विश्व-मेह
पर इतना
अत्याचार;
बुझा
लूं क्या मैं
अपनी ज्योति
विश्व को करके
दीप प्रदान!
जान
करके भी मैं
अनजान!
जान-जानकर
अनजान बने हो!
ये सब
दुआ-सलाम--राह
पर मिल गये
अजनबियों के
बीच है। ये
पत्नी ये पति ये
बेटे, पिता-मां
भाई मित्र, परिजन
परिवार...।
कि
जिस दिन तक है
जिसका काम,
उसी
दिन तक यह
दुआ-सलाम;
तभी
तक आवभगत, अनुरक्ति, तभी तक है
मेरा सम्मान!
जानकर
के भी मैं
अनजान!
कब
तक अपने को
धोखा देना
चाहते हो? यहां खोने
को क्या है?
प्राप्ति
से दूर, कर्म
के पास;
मुक्ति
से दूर, धर्म
के पास;
तर्क
से दूर मर्म
के पास, लीन
होंगे ये मेरे
प्राण।
तर्क
से दूर, मर्म
के पास, लीन
होंगे ये मेरे
प्राण।
जानकर
के भी मैं
अनजान!
कहां
डूबोगे तुम? हृदय में
डूबोगे!
बुद्धि काम न
आयेगी। तर्क
काम न आयेंगे।
शास्त्र, सिद्धांत
काम न आयेंगे।
बस प्रेम और
प्रार्थना
काम आयेगी।
तर्क
से दूर, मर्म
के पास, लीन
होंगे ये मेरे
प्राण।
जानकर
के भी मैं
अनजान!
अब
जागो! बहुत
दिन अनजान रह
चुके, बहुत
समय गंवाया।
डूब जाओ। उसकी
वस्तु उसी को दे
दो। कह दो:
गोविन्द तेरी
वस्तु है, तू
संभाल!
त्वदीयं
वस्तु
गोविन्द, तुभ्यमेव
समर्पये!
तुम्हारी
वस्तु
तुम्हारे पास!
मिली
थी कुछ दिन
हेतु उधार,
किया
था मैंने भी
तो सत्कार,
आज
ले लो तुम
अपनी देन, और यह मेरा
अमर प्रयास!
तुम्हारी
वस्तु
तुम्हारे पास!
स्वाति-घन
हंसे, हुए
चुपचाप,
हंसे
फिर बोले अपने
आप;
हुआ
क्या नहीं अभी
तक पूर्ण, तृषित चातक
तेरा अभ्यास!
तुम्हारी
वस्तु
तुम्हारे पास!
नहीं
सह पाया तप का
भार,
उतर
ही आया शशि
सुकुमार;
कह
गया कानों में
आकाश, "तुम्हारी
वस्तु
तुम्हारे पास'!
तुम्हारी
वस्तु
तुम्हारे पास!
दे
दो! तुम्हारा
है क्या? बचाते
क्या हो? बचाना
क्या है? डूबो!
डूब जाना है।
जैसे सरिता
सागर में डूब
जाती है, ऐसे
डूब जाओ। और
स्मरण रखो, सरिता सागर
में डूबकर
सागर हो जाती है।
पांचवां
प्रश्न:
ओशो, क्या लोग
कभी भी आपको
समझ पायेंगे
या नहीं?
तुम
समझ जाओ, इतना
काफी। लोगों
की चिंता न
करो। लोग यानी
कौन? कोई
समझेगा, कोई
नहीं समझेगा।
जो समझ लेगा
लाभ ले लेगा।
जो नहीं
समझेगा, उसकी
मर्जी। तुम
उनकी चिंता न
करो। कहीं ऐसा
न हो कि उनकी
चिंता करने
में तुम्हीं
समझने से
वंचित रह जाओ।
फिर, प्रत्येक
व्यक्ति
स्वतंत्र है।
बात खोलकर रख
दी है; जिसको
लेना हो ले ले,
जिसको न
लेना हो उसकी
भी
स्वतंत्रता
है। किसी पर
जबर्दस्ती
थोड़े ही थोपे
जाते हैं
सत्य।
समझाकर
ही रहेंगे, ऐसा आग्रह
मत करना। उसी
से मतांधता
पैदा होती है।
उसी से उपद्रव
पैदा होता है।
उसी से लोग
किसी को हिंदू
है तो ईसाई बनाने
में लगे हैं; कोई ईसाई को
आर्यसमाजी
बनाने में लगा
है; कोई
कुछ कर रहा है
कोई कुछ कर
रहा है। और
अकसर मजा ऐसा
है...
एक
आर्यसमाजी
पंडित एक बार
मेरे घर
मेहमान हुए।
उनकी पूरी
जिंदगी इसी
में गई है कि
कोई मुसलमान
हो गया तो
उसको कैसे
आर्यसमाजी
बनाओ, कोई
ईसाई हो गया, उसको कैसे
आर्यसमाजी
बनाओ। सुबह हम
दोनों साथ-साथ
बैठे थे।
सर्दी की सुबह,
मीठी-मीठी
धूप पड़ती थी।
मैंने उनसे
पूछा कि आपको
कई वर्षों से
जानता हूं, एक बात मुझे
पूछनी है, सच-सच
कहना, ईमान
से कहना; यह
सूरज उग रहा
है इसकी कसम
खाकर कहना।
उन्होंने
कहा: ऐसी
कौन-सी बात है? मैंने कहा:
तुम
आर्यसमाजी
खुद हो पाये
कि नहीं? तुम
न मालूम कितने
लोगों को
आर्यसमाजी
बनाने में लगे
हो, तुम
खुद हो पाये
या नहीं?
एक
क्षण को वे
झिझक गये।
मैंने उनसे
कहा कि अब कुछ मत कहना, क्योंकि
झिझक ने सब कह
दिया। तुम
एकदम से उत्तर
न दे पाये, सहज
उत्तर न निकल
पाया, तुम्हारी
सांस एक क्षण
रुक गई। और जो
तुम स्वयं
नहीं हो पाये,
किसको बना
पाओगे? तुम
समझे हो धर्म?
नहीं; इसकी उन्हें
चिंता ही नहीं
है। उनकी
चिंता इसमें
लगी है कि कोई
हिंदू
मुसलमान न हो
जाये। मैंने
उनसे पूछा कि
अगर ऐसा होता
हो कि वह
हिंदू मुसलमान
होकर ज्यादा
बेहतर आदमी हो
जाता हो तो अड़चन
क्या है? और
अगर जैसा
हिंदू था वैसे
ही मुसलमान
होकर रहता हो
तो भी क्या
अड़चन है? वैसे
का वैसा आदमी
है। मंदिर
जाता था, अब
मस्जिद जाने
लगा। कुछ फर्क
तो पड़ा नहीं
है, वही का
वही है। तब
जैसा था अब भी
वैसा ही है।
हां, चिंता
तो तुम तब करो
जब कि वह
जितना हिंदू
था उससे भी
बुरा हो जाए
मुसलमान होकर,
तो
थोड़ी-बहुत
चिंता करो।
हिंदू-मुसलमान
से क्या
लेना-देना है?
चिंता इसकी
होनी चाहिए कि
आदमी कहीं
बुरा तो नहीं
हो गया।
तो
मैंने उनसे
कहा कि तुम
क्यों इस
फिक्र में लगे
रहते हो। वे
उस वक्त आये
ही इसलिए थे
उस गांव में
कि एक मुसलमान
ने एक हिंदू
युवती से शादी
कर ली थी, तो
उसका छुटकारा
करवाने आये
थे। तुम किसी
का छुटकारा कर
रहे हो? उस
हिंदू स्त्री
को अगर प्रेम
है उस मुसलमान
से तो तुम कौन
हो बीच में
बाधा डालने
वाले? अगर
वह प्रसन्न है
उस मुसलमान के
साथ--और मैं जानता
हूं कि वह
प्रसन्न है, क्योंकि उस
गांव में मेरे
सिवाय उनको
आशीर्वाद
देने वाला कोई
था ही नहीं, तो वे मेरे
ही पास
आशीर्वाद
लेने आये थे।
मुसलमान
नाराज थे कि
ये झंझट तुम
मत लो क्योंकि
हम थोड़े हैं, कही हिंदू
भड़क जायें और
कोई
झगड़ा-झांसा हो
जाये, तो
नाहक परेशानी
होगी।
मुसलमान
प्रसन्न नहीं
थे। और हिंदू
तो नाराज
होंगे ही, क्योंकि
एक हिंदू
स्त्री गयी।
अपमान हो गया!
स्त्रियों को
तो लोग
संपत्ति
मानते हैं न, तो संपत्ति
जहां चली गयी,
नुकसान हो
गया। अगर कोई
हिंदू किसी
मुसलमान स्त्री
को अपने घर ले
आये तो हिंदू
खुश होते हैं,
संपत्ति घर
आयी है!
तुम
स्त्री को
इतना भी
सम्मान नहीं
देते मनुष्य
होने का?...संपत्ति!
और मुसलमान के
घर चली गयी तो
भारी नुकसान
हो गया, संपत्ति
चली गयी! फिर
उसके बच्चे
पैदा होंगे और
मुसलमानों की
संख्या बढ़ती
जाएगी और
संख्या बढ़ने में
तो राजनीतिक
बड़ी झंझट खड़ी
हो जाती है, वोट
इत्यादि। तो
मैंने कहा कि
मुझे पता है
कि वे दोनों
खुश हैं, तुम
उनमें बाधा मत
डालो। और मैं
जानता हूं कि तुम
खुश नहीं हो।
लेकिन तुम
अपनी उदासी और
अपने दुख को
भुलाने के लिए
इस तरह की
झंझटों में पड़
गये हो। तुम
दूसरों को
कैसे सुधारना,
इसमें लग
गये हो--यह भूल
ही गये कि अभी
खुद घर साफ-सुथरा
न हुआ था।
तुम
चिंता न करो
कि लोग कभी
मेरी बात समझ
पायेंगे या
नहीं। तुम समझ
लो। तुम समझ
लो, पर्याप्त
है।
फिर
लोग हजार ढंग
के हैं। और
लोग हजार ढंग
के हैं, यह
दुनिया में
वैविध्य है।
अच्छा है।
यहां सभी लोग
मेरी बात समझ
लें तो उसका
अर्थ होगा: एक
ही तरह के लोग
हैं। नहीं, वह दुनिया
बहुत सुंदर
नहीं होगी, जहां एक ही
तरह के लोग
होंगे। बस
गुलाब ही गुलाब
खिले हैं पूरी
बगिया में, कितने ही
अच्छे लगते
हों तो भी
गुलाब ही
गुलाब...। नहीं,
कुछ जुही भी
होनी चाहिए, कुछ चमेली
भी होनी चाहिए,
कुछ चंपा
भी। और-और
हजार फूल हैं,
सब फूल होने
चाहिए।
मुल्ला
नसरुद्दीन
मुझसे कह रहा
था: जी हां, जब मैं बंबई
से पूना की
तरफ आ रहा था
तब डाकुओं ने
मुझे आ घेरा।
और मेरे पास
के सभी रुपये,
घड़ी और सोने
की चेन छीनकर
चंपत हो गये।
मैंने
पूछा:
नसरुद्दीन, किंतु
तुम्हारे पास
पिस्तौल भी तो
थी।
"हां
थी, लेकिन
उस पर उन
लोगों की नजर
ही नहीं पड़ी।'
समझें
भी तो ऐसी ऐसी
हैं! करोगे
क्या? मगर
ये भी प्यारे
लोग हैं, ऐसे
थोड़े लोग
चाहिए।
एक
दिन मुल्ला
नसरुद्दीन
साइकिल पर
अपने छोटे
बच्चे को
बैठाकर सब्जी
खरीदने बाजार
जा रहा था।
रास्ते में हर
पांच मिनिट के
बाद लड़के को एक
चपत जमा देता।
जब उसने
पांचवीं बार
यह हरकत की तो
मुझसे न रहा
गया। मैंने
पूछा कि
नसरुद्दीन, इस बच्चे को
बिना वजह
क्यों मार रहे
हो? उसने
कहा: क्या
बताऊं साइकिल
में घंटी नहीं
है!
उल्टी
खोपड़ियां भी
हैं। पर थोड़ी
उल्टी खोपड़ियां
भी चाहिए, इससे जीवन
में थोड़ी
हंसी-मजाक
रहती है।
एक
कवि रचना पढ़
रहे थे।
शीर्षक था
उनकी कविता का
यथार्थ और
भ्रम। एक आदमी
बीच में खड़ा हो
गया, श्रोता
और उसने कहा:
कृपा करके
यथार्थ और
भ्रम का पहले
अंतर स्पष्ट
कर दें, क्या
यथार्थ क्या
भ्रम? कवि
बोले--आपका
यहां उपस्थित
रहना और मेरा
कविता पढ़ना
यथार्थ है। पर
मेरा यह मानना
कि कविता आप
समझ रहे हैं
या समझ सकेंगे,
मेरा भ्रम
है।
सभी
नहीं समझ
सकेंगे।
इसलिए तुम इस
चिंता में ही
मत पड़ो।
मैं
मुल्ला
नसरुद्दीन के
घर गया था।
उसने अपना घर
मुझे दिखाया।
कहा कि यह रहा
मेरा संगीत-कक्ष।
मैंने उसके
संगीत-कक्ष को
देखा, मैं
थोड़ा हैरान
हुआ--बिलकुल
खाली! उसमें
कुछ भी नहीं--न
कोई वीणा, न
कोई बांसुरी,
न कोई तबला,
कुछ नहीं, बिलकुल
खाली! मैंने
उससे कहा कि
नसरुद्दीन, लेकिन मुझे
यहां कोई
वाद्य नजर
नहीं आ रहा है,
यह कैसा
संगीत-कक्ष है?
उसने कहा:
वाद्य की क्या
आवश्यकता है?
यहां बैठकर
मैं पड़ोसियों
के घर का
रेडियो सुनता
हूं। इसलिए
इसका नाम
संगीत-कक्ष
है।
नहीं; सारे लोग
नहीं सम)ोगे।
लेकिन थोड़े-से
समझ लें तो
बहुत...थोड़े-से
भी जिस दिशा
में मैं इशारा
कर रहा हूं, उस दिशा में
देख लें तो
बहुत...बुद्ध
आये, कितने
लोग समझे? थोड़े-से
इने-गिने लोग।
महावीर को
कितने लोग समझे?
मुहम्मद को
कितने लोग
समझे? इने-गिने
लोग। यह बात
भी तो इतनी
ऊंचाई की है!
आकाश की तरफ
सभी लोग सिर
उठाना भी तो
नहीं चाहते; उनकी नजरें
तो जमीन पर
गड़ी हैं। उनको
तो जमीन में
ही खजाने
खोजने हैं।
इसीलिए तुम
अगर उन्हें
आकाश की तरफ
कहो भी कि जरा
आंख उठाओ, वे
कहते हैं हमारा
समय खराब मत
करो।
लोग
ताश खेल सकते
हैं और उनके
पास समय है।
शतरंज बिछाकर
बैठ जाते हैं, उनके पास
समय है। और
उनसे अगर कहो
कि ध्यान करो
तो वे कहते
हैं कि समय
कहां है।
शतरंज खेलने के
लिए समय है! ये
वे ही लोग, जो
तुम्हें कहते
मिल जायेंगे
कि क्या करें
भाई, समय
नहीं कट रहा
है, तो ताश
खेल रहे हैं।
कि फिल्म
देखने जा रहे
हैं, समय
नहीं कट रहा
है, कि
फिजूल के गपशप
में लगे हैं, समय नहीं कट
रहा है। मगर
इनसे तुम कहो
कि ध्यान, और--तत्क्षण
उनका उत्तर
आता है कि समय
कहां है!
समय
बहुत है लेकिन
ध्यान में कुछ
अर्थ है, इस
बात को समझने
के लिए भी
चित्त की एक
ऊंचाई चाहिए,
एक
निर्मलता
चाहिए, एक
भूमिका
चाहिए, एक
तैयारी
चाहिए।
मैं
जो कह रहा हूं, उसको हर-एक
कैसे समझ
सकेगा? यह
आखिरी कक्षा
की बात है। यह
आत्यंतिक बात
है। इसलिए
इसकी फिक्र भी
न करो, इसकी
अपेक्षा भी न
करो। मैं तो
चाहता हूं कि
थोड़े-से लोग
समझ लें तो बस
काम हो गया।
थोड़े-से दीए
जल जाएं, फिर
उन दीयों के
सहारे कुछ और
दीये जलते
रहेंगे और
दीयों से दीये
जलते रहेंगे।
बस पर्याप्त है।
एक सिलसिला
शुरू हो जाए, उतना काफी
है। यह सारी
पृथ्वी
रूपांतरित हो
जाए, यह
सारी पृथ्वी
आज ही इस बात
को समझ जाए--इस
तरह के आग्रह
अगर मन में
उठते हैं तो
खतरनाक हैं। क्योंकि
फिर आदमी
जल्दबाजी में
पड़ता है और
जल्दबाजी में
जब पड़ता है तो
हिंसा पर उतर
आता है। जल्दी
करवाना हो तो
किसी की छाती
पर छुरा रख दो,
कहो कि
समझते हो कि
नहीं? उसको
कहना ही पड़ेगा,
कि बिलकुल
समझते हैं।
ऐसी
कहानी है
मुल्ला
नसरुद्दीन के
संबंध में कि
एक झक्की आदमी
ने, जो एक
किस्म का दादा
था, एक
उपद्रवी, गांव
का बड़ा गुंडा,
उसने
नसरुद्दीन को
बुला भेजा।
उसने कहा कि
मेरे शागिर्द
कहते हैं कि
तुम बड़े
चमत्कारी हो,
बड़े
रहस्यवादी हो,
वे कहते हैं
तुम्हें
अदृश्य चीजें
दिखाई पड़ती
हैं, तुम्हें
ईश्वर का
दर्शन हुआ! और
उसने छुरा
निकाल लिया और
उसने कहा कि
मुझे भी कुछ
दिखलाओ, नहीं
तो आज ठीक
नहीं होगा।
नसरुद्दीन ने
नीचे की तरफ
देखा जमीन में
और कहा: यह
देखो, पाताल,
नर्क! लोग
सड़ाये जा रहे
हैं, काटे
जा रहे हैं, आग के कढ़ाहे
जल रहे हैं, लोग कढ़ाहों
में डाले जा
रहे हैं!
उस
गुण्डे ने
नीचे देखा, उसे तो कुछ
दिखाई पड़ा
नहीं। फिर
नसरुद्दीन ने कहा:
यह देखो
ऊपर--बहिश्त!
शराब के चश्मे
बह रहे हैं, हूरें नाच
रही हैं, ऋषि-मुनि
मजा कर रहे
हैं। यह ऊपर
देखो!
उस
आदमी ने कहा
कि मुझे तो
कुछ दिखायी
नहीं पड़ता, तुम्हें
कैसे दिखायी
पड़ता है? उसने
कहा: तुम छुरा बंद
करो भीतर तो
मुझे भी दिखाई
नहीं पड़ता।
तुम्हारे
छुरे की वजह
से ये चीजें
मुझे दिखाई पड़
रही हैं। तुम
छुरा तो भीतर
रखो। मुझे भी
कुछ दिखाई
नहीं पड़ रहा
है।
मगर
भय आदमी को जो
न दिखला दे, थोड़ा है। और
तुम समझ लेना
तुम्हारे
शास्त्रों
में पंडितों
ने जो नर्क की कथायें
गढ़ी हैं, वे
सिर्फ भय हैं,
छुरे हैं।
उन छुरों के
आधार पर
तुम्हें कुछ
चीजें मनवाने
की कोशिश की
गयी है। और जो
स्वर्ग की
कथायें गढ़ी
हैं, वह
लोभ है, प्रलोभन
है, पुरस्कार
है। उन
पुरस्कार के
आशा पर
तुम्हें कुछ
चीजें मनवाने
की कोशिश की
गयी।
न
तो मैं
तुम्हें नर्क
का भय देता
हूं न स्वर्ग
का प्रलोभन
देता हूं! न
कोई नर्क है न
कोई स्वर्ग
है। नर्क तुम्हारे
चित्त की एक
दशा है--जब तुम
मूर्च्छा में
जीते हो।
स्वर्ग
तुम्हारे
चित्त की दशा
है--जब तुम
जागरूक होकर
जीते हो। नर्क
और स्वर्ग कोई
भौगोलिक
अवस्थाएं
नहीं
हैं--मनोवैज्ञानिक
अवस्थाएं
हैं।
मैं
तुम्हें न कोई
भय देता हूं न
प्रलोभन देता
हूं। मैंने जो
जाना है वह
तुम्हारे
सामने रख देता
हूं।
कबिरा
खड़ा बजार में
लिये लुकाठी
हाथ।
जो
घर बारै आपना
चले हमारे
साथ।।
छठवां
प्रश्न:
मैं
ध्यान करने
बैठती हूं, तो जैसे
आपकी आंख को
देखती हूं, कुछ देर
देखते रहने से
आंखों से आंसू
बहते हैं। अब
तो मेरी नाक
से भी आंसू
टपकते हैं। यह
कैसे?
तू
प्यार करे या
ठुकराये, हम तो हैं
तेरे दीवानों
में
चाहे
तू हमें अपना
न बना, लेकिन
न समझ बेगानों
में
मरने
से हमें इनकार
नहीं, जीते
हैं मगर इक
हसरत में
भूले
से हमारा नाम
कभी, आ
जाये तेरे
अफसानों में
मनोरमा!
जो भी मेरे
रंग में रंग
गया है, मेरे
अफसानों में आ
गया। जो भी
संन्यस्त हुआ
है, मेरे
जीवन का अंग
हो गया। तूने
संन्यास का
साहस किया, उसी दिन से
तू मिट गयी।
संन्यास
का अर्थ ही
यही है, कि
शिष्य ने कहा
कि अब मैं
अपने को अलग
से न सोचूंगा,
कि मेरी
बूंद अब
अलग-थलग न
होगी, कि
मैं अब डूबता
हूं। दीक्षा
का अर्थ होता
है: शिष्य का
गुरु के साथ
ऐसा जुड़ जाना
कि शिष्य का
अलग से कोई
तादात्म्य न
रह जाये। वह
घट गया है और
आंसुओं से अब
उसी की झलक आ
रही है। ये
आंसू आनंद के
आंसू हैं। ये
आंसू तेरे
हृदय से उठी
प्रार्थनायें
हैं। इन्हें
रोकना मत।
मस्त होकर
इन्हें बहने
दो, ये
जितने बहें
उतना अच्छा
है। ये आंसू
ही नहीं हैं, ये तेरे
हृदय के फूल
हैं। ये फूल
ही नहीं हैं, ये तेरे
प्राणों की
सुवास हैं।
और
मैं इतना ही
तो सिखाता हूं
यहां। रोना
सिखाता हूं
आनंदमग्न
होकर। हंसना
सिखाता हूं
आनंदमग्न
होकर। गीत
गाना सिखाता
हूं, नाचना
सिखाता हूं।
मस्ती
सार-संक्षेप
में। तुम्हें
मस्त होना
सिखाता हूं, क्योंकि जो
मस्त हैं वे
परमात्मा के
हैं।
यह
फूल नहीं है, मेरे मन की
भाषा है!
अवनी
के मन में
अंबर से मिल
जाने की
अभिलाषा है!
बन
गई नयन-मुसकान
शब्द,
हो
गया हृदय का
मौन मुखर!
अन्तर्मन
के अनजाने
कोने का--
आया
मधु-भाव उभर!
यह
फूल नहीं है, अलिखित मेरे
छंदों की
परिभाषा है!
चिर
हुई अचिरता
में पल भर
सौरभ-रंग-रस
की एक लहर!
मुरझा
कर झरने के
क्रम में
खुल
कर खिलना बस
एक पहर!
यह
फूल नहीं है, कर्म-वचन-मन
खिल पाने की
आशा है!
यह
खुला हुआ अपलक
जैसे
अंतरतम
का ध्यानस्थ
नयन!
है
पलक-पंखुरियों
पर हंसता
रवि-कर-चुम्बित
चंचल हिम-कन!
यह
फूल नहीं है, मंत्र-लुब्ध
नयनों की अमर
पिपासा है!
इन
आंसुओं को
आंसू न समझना!--
अलिखित
मेरे छंदों की
परिभाषा है
अवनि
के मन में
अंबर से मिल
जाने की
अभिलाषा है!
कर्म-वचन-मन
खिल पाने की
आशा है!
मंत्र-लुब्ध
नयनों की अमर
पिपासा है!
ये
आंसू नहीं हैं, ये फूल हैं।
ये फूल ही
नहीं हैं, ये
तुम्हारे
भीतर आनंद की
तरंगें हैं।
तुम्हारी
वीणा छू ली
गयी।
तुम्हारी
वीणा में स्वर
आने शुरू हो
गये हैं। खुशी
मनाओ, जश्न
मनाओ, उत्सव
मनाओ।
और
जिस दिन
संन्यस्त हुई
मनोरमा, उसी
दिन मेरे
अफसाने में
सम्मिलित हो
गयी, मेरी
कहानी का
हिस्सा हो गयी,
मेरे गीत की
कड़ी हो गयी!
आखिरी
प्रश्न: ओशो,
तुम्हारी
याद में जादू
भरा है,
पुलकते
प्राण हैं, मन नाचता
है।
कभी
गाता, कभी
हंसता,
कभी
रोता, बिलखता
हूं।
अहं
पाषाण गलता है,
दृगों
से अश्रु झरते
हैं।
लुटा
है मन, ठगा
है तन,
रुंधा
है कंठ कम्पित
स्वर।
तुम
में लीन होने
को,
बिलखते
प्राण हैं
मेरे।
तुम्हारी
याद में जादू
भरा है,
पुलकते
प्राण हैं, मन नाचता
है।
धर्म
वेदांत! यही
हो, इसका ही
तो सारा आयोजन
चल रहा है। यह
धर्म क्षेत्र,
यह काबा
इसीलिए तो
निर्मित किया
जा रहा है कि फिर
एक बार
तुम्हें
परमात्मा की
याद आये, जो
तुम
जन्मों-जन्मों
से भूले बैठे
हो; कि फिर
एक चोट पड़े
तुम्हारे
हृदय पर; कि
फिर तुम्हारा झरना
जो भीतर दब
गया है, फूट
पड़े। बहुत गीत
उठेंगे, बहुत
सुवास झरेगी,
बहुत दीये
जलेंगे। चलते
चलो।
जैसे-जैसे
डूबोगे ध्यान
में और
जैसे-जैसे
डूबोगे--इस रस
में, जिसको
मैं संन्यास
कहता
हूं--वैसे-वैसे
अपूर्व
चमत्कार
तुम्हारे
जीवन में
प्रत्यक्ष
होने लगेंगे
क्योंकि वैसे-वैसे
परमात्मा
तुम्हारे
करीब आयेगा, उसकी
पगध्वनि
सुनायी
पड़ेगी।
ख्वाबों
के उफक पे
जगमगाया कोई,
खुरशीद
सिफ्त व
मुस्कुराया
कोई।
टूटा
ये तिलिस्मे
शबे गम अब
टूटा,
आया
निगहे शौक!
यों आया कोई।
सोई
हुई यादों को
जगाता गुजरा,
एहसास
में हलचल सी
मचाता गुजरा।
तजदीदे
रहो रहम हो
जैसे मंजूर;
यूं
पास से कोई
मुस्कुराता
गुजरा।
गुंचों
के लबों पे
मुस्कराहट आई,
बुझते
तारों में
जगमगाहट आई,
दिल
पिछले पहर आज
कुछ ऐसे धड़का;
जैसे
तेरे कदमों की
अब आहट आई।
खामोशी
की गुफ्तगूं
सही है बरसों,
यूं
उसकी सुनी
अपनी कही है
बरसों।
मैं
उसके लिए नया
न वो मेरे
लिये,
ख्वाबों
में मुलाकात
रही है बरसों।
जिससे
अब तक
तुम्हारा
कभी-कभी सपनों
में थोड़ा-सा
साक्षात्कार
हुआ है उसे
खुली आंखों, तुम से मिला
देना है।
जिसकी झलक
कभी-कभी किन्हीं
अनायास
क्षणों में
तुम्हें मिली
है, किसी
दिन सूरज को
उगते देखकर और
तुम्हारे
भीतर गदगद भाव
उठा है और झुक
जाने का मन
हुआ है--कि झुक
जाने का
घुटनों पर, कि सिर टेक
देने का
पृथ्वी पर, कि कभी आकाश
को तारों से
भरा देखकर
तुम्हारे हृदय
में एक
गुदगुदी दौड़
गयी है, रहस्य
की थोड़ी-सी
प्रतीति हुई
है, कि कभी
किसी खिले फूल
को देखकर, कि
पपीहे की
पी-पी की
पुकार सुनकर
तुम्हारे
भीतर कोई सोई
पुकार झंकार
गयी है, कि
कभी गहन संगीत
में, कि
कभी गहन प्रेम
में तुम्हें
परमात्मा की
थोड़ी-थोड़ी आहट
मिली--वह सब
ख्वाब में हुआ
था!
मैं
उसके लिए नया
न वो मेरे
लिये,
ख्वाबों
में मुलाकात
रही है बरसों।
अब
खुली आंख से
मुलाकात कर
लो।
ख्वाबों
के उफक पे
जगमगाया कोई
देखो
वो दूर
क्षितिज पर
उगने लगा
परमात्मा का सूरज।
ख्वाबों
के उफक पे
जगमगाया कोई,
खुरशीद
सिफ्त वो
मुस्कराया
कोई।
टूटा
ये तिलिस्मे
शबे गम अब
टूटा,
टूटने
लगी यह रात
अंधेरे की, ये विरह की।
टूटा
ये तिलिस्मे शबे
गम अब टूटा,
आया
निगहे शौक!
यों आया कोई।
कोई
आने लगा
पास--कोई
रोज-रोज आने
लगा पास! शनैः शनैः
आवाज करीब आने
लगी।
सोई
हुई यादों को
जगाता गुजरा
एहसास
में हलचल सी
मचाता गुजरा।
तजदीदे
रहो रस्म हो
जैसे मंजूर;
यूं
पास से कोई
मुस्कराता
गुजरा।
पहले
तो भनक पड़ेगी।
पहले तो सिर्फ
एहसास होगा।
पहले तो उसकी
मौजूदगी
अनुभव होगी।
वह दिखाई नहीं
पड़ेगा। फिर धीरे-धीरे-धीरे-धीरे
आंखें राजी हो
जाएंगी। जैसे
कभी तुम भरी
दोपहरी के बाद
घर लौटे हो, तो अपने
कमरे में
अंधेरा मालूम
पड़ता है, कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता है। फिर
धीरे-धीरे
आंखें राजी हो
जाती हैं। फिर
कमरे में
रोशनी मालूम
होने लगती है।
गुंचों
के लबों पे
मुस्कराहट आई,
बुझते
तारों में
जगमगाहट आई,
और
जिसके जीवन
में परमात्मा
से थोड़ा-सा
संपर्क हो जाए, थोड़ा-सा
भी--उसके जीवन
की सारी कहानी
बदल जाती है।
उसके जीवन का
गीत बदल जाता
है। उसके प्रत्येक
अनुभव में
ज्योतिर्मयता
फलित होने लगती
है।
गुंचों
के लबों पे
मुस्कराहट आई,
फूल
तो पहले भी
देखे हैं, लेकिन अब
फूलों में उसी
की
मुस्कुराहट
दिखाई पड़ेगी।
गुंचों
के लबों पे
मुस्कराहट आई,
बुझते
तारों में
जगमगाहट आई,
तारे
तो पहले भी
देखे थे बहुत, मगर अब तारे
वही नहीं हैं।
अब हर रोशनी
में उसकी
रोशनी झलकेगी।
हर रोशनी में
उसकी रोशनी
है। हर सौंदर्य
में उसी का
सौंदर्य है।
अब तुम किसी
सुंदर स्त्री
को देखोगे और
ऐसा नहीं
लगेगा कि कोई
सुंदर स्त्री
देखी है--ऐसा
ही लगेगा कि
वही झलक दे गया!
अब किसी बच्चे
को प्रसन्न
मुस्कुराते
देखोगे, खिलखिलाते
देखोगे--और
तत्क्षण
तुम्हें एहसास
होगा, वही
खिलखिला गया!
गुंचों
के लबों पे
मुस्कराहट आई
बुझते
तारों में
जगमगाहट आई,
दिल
पिछले पहर आज
कुछ ऐसे धड़का;
जैसे
तेरे कदमों की
अब आहट आई।
खामोशी
की गुफ्तगूं
सही है बरसों,
यूं
उसकी सुनी
अपनी कही है
बरसों।
मैं
उसके लिए नया
न वो मेरे
लिये,
ख्वाबों
में मुलाकात
रही है बरसों।
धर्म
वेदांत! रुकना
नहीं, क्योंकि
यह कठिनाई आती
है। लोग ऐसे
हैं कि जरा-सा
कुछ मिल जाता
है तो बस वहीं
रुक जाते हैं।
और आगे, और
आगे! तुम्हें
मैं टेरता ही
रहूंगा और
पुकारता ही
रहूंगा--और
आगे!
इतनी
नाकामियां
इतनी
महरूमियां
इतनी
मजबूरियां
इतनी
लाचारियां
कितना
चाहा मगर
फिर
भी उठ न सका,
उनकी
महफिल में जो
एक
बार आ गया,
इश्क
मगमूम था,
इश्क
नाशाद था,
हुस्न
बेचैन था,
हुस्न
बेताब था
मंजिलें
दूरियां
छोड़कर
आ गईं
शौक
से जब भी
उनको
पुकारा गया
उठ
तो न सकोगे अब
इस महफिल से।
लेकिन बैठे ही
न रह जाना।
बैठे-बैठे भी
यात्रा करनी
है। अंतर्यात्रा
तो बैठे-बैठे
ही होती है।
इतनी
नाकामियां
इतनी
महरूमियां
इतनी
मजबूरियां
इतनी
लाचारियां
मुझे
पता है, बहुत
कठिनाइयां
हैं, बहुत
सीमाएं हैं, बहुत पत्थर
हैं रास्तों पर।
हजार बाधायें,
अड़चनें हैं!
सारा संसार
विपरीत हो
जाएगा। क्योंकि
जैसे ही तुम
परमात्मा की
तरफ बढ़ने शुरू
हुए, पाओगे
कि अपने पराये
होने लगे, कि
अपने ही
दुश्मन होने
लगे।
इतनी
नाकामियां
इतनी
महरूमियां
इतनी
मजबूरियां
इतनी
लाचारियां
कितना
चाहा मगर
फिर
भी उठ न सका,
उनकी
महफिल में जो
एक
बार आ गया
मगर
अब उठने का
उपाय नहीं, महफिल में
तुम आ ही गये।
सम्मिलित हो
ही गये--दीवानों
की इस बस्ती
में--दीवानों
की इस मस्ती में!
कितना
चाहा मगर
फिर
भी उठ न सका,
उनकी
महफिल में जो
एक
बार आ गया,
इश्क
मगमूम था
इश्क
नाशाद था,
हुस्न
बेचैन था
हुस्न
बेताब था।
मंजिलें
दूरियां
छोड़कर
आ गईं
शौक
से जब भी
उनको
पुकारा गया।
और
अब कहीं जाना
नहीं है। अब
तुम जहां हो
वहीं परमात्मा
आयेगा।
पुकारे चलो।
मगर
पुकारना--परिपूर्ण
अभीप्सा से।
सारे जीवन को
दांव पर लगाकर
पुकारना।
पुकारना कि
श्वास-श्वास पुकार
बन जाये, हृदय
की धड़कन-धड़कन
पुकार बन जाए।
तुम समग्रता से
पुकारो तो
द्वार खुलने
में देर नहीं
है। देर कभी
नहीं थी, तुमने
पुकारा ही
नहीं।
जीसस
ने कहा है:
मांगो और
मिलेगा।
खटखटाओ और द्वार
खोल दिये
जाएंगे। खोजो
और पा लोगे।
वही मैं तुमसे
पुनः पुनः कह
रहा हूं।
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