दिनांक
: 5 अगस्त, 1976,
7. 00
संध्या, सुमिला,
जुहू, बंबई।
प्रश्नसार:
1—हाथ
हटता ही नहीं दिल
से, हम तुम्हें
किस तरह सलाम करें?
2—बहुत
सी मधुशालाएं देखीं,
पीने वालों को
नशो में धुत देखा।
मगर आपकी मधुशाला
का क्या कहना।
न कभी देखी, न कभी सुनी। आपकी
मधुशाला में पीने
वालों को मस्त
देखा।..........
3—प्रश्न
उठते है और उनमें
से बहुत से प्रश्नों
के उत्तर भी आ
जाते है। यह सब
क्या है?
4—कल
ही मैंने पहली
बार आपका प्रवचन
सुना। आपमें जो
संगम मैंने देखा
है, वैसा संगम
शायद ही पृथ्वी
पर कभी हो। मैंने
ऐसा जाना कि शायद
परमात्मा आपके
द्वारा पहली बार
हंस रहा है।
प्रश्न:
प्यारे भगवान, हाथ हटता ही
नहीं दिल से, हम तुम्हें
किस तरह सलाम
करें?
जीवन
में जो भी
महत्वपूर्ण
है, जो भी
रहस्यपूर्ण
है, उसे
व्यक्त करने
का कोई भी
उपाय नहीं है।
न शब्द उसे
बोल पाते हैं,
न गीत उसे
गुनगुना पाते
हैं, आदमी
उसकी तरफ
इशारा करने
में भी अपने
को असमर्थ
पाता है। वहां
आंसू भी हार
जाते हैं।
तुम्हारा
प्रश्न प्यार
है। अब सलाम
की कोई जरूरत
नहीं। हृदय से
हाथ न हटता हो
तो सलाम पूरा हो
गया है। यूं
भी होता है कि
न चलते हुए भी
मंजिल आ जाती
है। और यूं भी
कि चलते हैं, चलते हैं, जन्मों—जन्मों
तक चलते हैं
और मंजिल की
कोई झलक भी नहीं
मिलती।
मैं
तुमसे कुछ
कहता हूं, जरूरी नहीं
है कि वह वही
हो जो मैं
तुमसे कहना चाहता
था। शब्द पीछे
छूट जाते हैं,
अर्थ आगे
निकल जाते
हैं। तुम मुझे
सुनते हो, जरूरी
नहीं कि जो
तुम सुनते हो,
वही तुम
समझते हो।
सुनना तो, कान
हैं तो हो
जाता है, लेकिन
समझना तो जब
हृदय भी धड़कता
हो कान के साथ—साथ,
जब हृदय भी
हो मौन साधे, झोली फैलाए.....
जिंदगी
ऐसे एक कविता
है। अंग्रेजी
के एक महाकवि
कूलरिज के
जीवन मग यह
घटना है। उसके
जीवन के दिनों
में उसकी
कविताएं विश्वविद्यालय
में पढ़ाई जानी
शुरू हो गयीं
थीं। होगा कोई
ईमानदार
अध्यापक, कि
बीच कविता पर
अटक गया। और
क्षमा मांग ली
विद्यार्थियों
से, कि यूं
तो समझा सकता
हूं क्योंकि
आखिर सभी शब्दों
के अर्थ
शब्दकोश में
लिखे हैं।
लेकिन दिल
कहता है, बेईमानी
हो जाएगी। तुम
मुझे मोहलत दे
दो। आज मुझे
माफ कर दो। और
यह हमारा
भाग्य है कि
कूलरिज अभी
जिंदा है।
मुझे मौका दो
कि मैं जाकर
उससे पूछ लूं,
कि तेरा
अर्थ क्या है?
शब्द क्या
हैं, वह तो
समझ में आता
है। शब्द भी
कीमती हैं, इसमें कोई
शक—शुबहा नहीं,
लेकिन यूं
लगता है कि
अर्थ कुछ और
भी गहरा है।
वह
दूसरे दिन ही
सुबह—सुबह
कूलरिज के
द्वार पर
पहुंच गया।
कूलरिज अपने
बगीचे में
फूलों पर पानी
डाल रहा था।
प्रोफेसर ने
कहा, क्षमा
करना, एक
मुश्किल में
पड़ गया हूं।
यह कविता आपकी
लिखी है, अर्थ
हमें समझाने
पड़ते हैं। और
वर्षों से लोग
इसके अर्थ
समझाते रहे
हैं। मैं भी
समझा सकता
हूं। लेकिन
अंतरात्मा
गवाही नहीं
देती। लगता है,
जो कर रहा
हूं वह अन्याय
है; और फिर
तुम जब अभी
जीवित हो तो
पूछ ही क्यों
न लूं? जरा
देखो और मुझे
बता दो कि
इसमें क्या
अर्थ है।
कूलरिज
ने कविता पढ़ी
और कहा, तुम
जरा देर से
आए। जब मैंने
इसे लिखा था, या ज्यादा
अच्छा होगा
कहना कि इसे
मुझसे लिखवाया
गया था—क्योंकि
यह कह भी झूठ
है कि मैंने
लिखा था। मैं
एक साधारण
आदमी, कहां
से लाऊंगा ये
गहराइयां? कोई
अनजान, कोई
अज्ञात शक्ति
मेरे हाथों को
पकड़कर इसे लिखा
गयी थी। जब यह
कविता घटी थी
तब दो आदमी इस
अर्थ को जानते
थे। अब केवल
एक ही जानता
है। इसलिए
तुमसे कहता
हूं कि तुमने
जरा देर कर
दी। प्रोफेसर
ने कहा, कोई
हर्ज नहीं।
क्योंकि
स्वभावतः वह
समझा कि जब
कूलरिज कहता
है कि लिखते
समय दो जानते
थे, और अब
केवल एक ही
जानता है, तो
वह एक कूलरिज
ही होगा।
कूलरिज
ने कहा, तुम
गलत समझे। जब
मैंने इसे
लिखा था तो
ईश्वर जानता
था और मैं भी
जानता था। अब
वही जानता है।
अब मैं नहीं
जानता हूं।
कहीं मिलना हो
जाए तो पूछ
लेना। इतना सच
है कि
तुम्हारी जो
प्रतीति है, कि शब्दों
से ज्यादा कुछ
छिपा है, मैं
उसका अनुमोदन
करता हूं। मैं
भी उसे खोजता
हूं लेकिन
मिलता नहीं।
किन्हीं—किन्हीं
ऊंचाइयों में,
शांति के
किन्हीं
क्षणों में, प्रेम की
किसी घड़ी में
तुम्हें पंख
लग जाते हैं
और तुम उन
लोकों को छू
लेते हो, जिन्हें
बाद में तुम
सिवाय सपने के
और कुछ भी नहीं
कह सकते।
मैं
समझा
तुम्हारे
प्रश्न को।
हाथ छाती पर
ही रुक जाते
हैं, सलाम
कैसे हो? लेकिन
अब सलाम की
कोई जरूरत
कहां रही? हाथ
छाती तक पहुंच
गए, सलाम
हो गया। हाथ
छाती तक न भी
पहुंचे, सिर्फ
भाव छाती तक
पहुंच जाए, तो भी सलाम
जो जाएगा।
मैं
काठमांडू में
था, रोज सांझ
को हजारों
लोगों की भीड़
दर्शन के लिए
आती थी। एक आदमी—मुसलमान
रहा होगा।
शायद उसे
बेचैनी होती
होगी, कि
इतने हिंदुओं
की भीड़ में
लोग क्या
कहेंगे, कि
मुसलमान होकर.....अपने
गुनाह को
छिपाने को, क्योंकि यह
तो कुफ्र है—छोटी
नजर के सामने,
छोटी नजर
में—तो तब भी
मैं उसके पास
से गुजरता, वह चिल्लाकर
कहता कि भगवान,
और सब
प्रणाम कर रहे
हैं, मैं
सलाम कर रहा
हूं। मैंने
उससे कहा कि
अगर प्रणाम
में और सलाम
में कोई फर्क
है, तो फिर
तुम कुछ भी
नहीं कर रहे
हो।
प्रणाम
भी हृदय का वह
भाव है जहां
हम झुक जाना चाहते
हैं—कसी
गौरीशंकर के
समक्ष, किसी
सूर्योदय के
समक्ष, किसी
सूर्यास्त
में। और सलाम
भी वही है।
भाषा का फर्क
होगा। भाव का
तो फर्क नहीं
है।
तो
मैंने उस आदमी
को कहा, दुबारा
यह बात मत
कहना। मैं
समझा कि यह
तुम क्यों कह
रहे हो। तुम
इसलिए कह रहे
हो कि तुम्हारे
गांव के लोग
पहचान लें, कि हालांकि
तुम एक गैर—मुसलमान
के दर्शन को
आए हो, लेकिन
तुम अब भी
मुसलमान हो।
अब प्रेम करते
क्षण में भी
अगर याद रह
जाए कि मैं
मुसलमान हूं,
मैं हिंदू
हूं, मैं
जैन हूं, मैं
ईसाई हूं, तो
वह प्रेम दो
कौड़ी का भी
नहीं है।
इतना
ही बहुत है कि
तुम्हारा हाथ
छाती तक पहुंच
गया। और हाथ
छाती तक
पहुंचा ही
इसलिए कि भाव
छाती में उभर
आया है। सलाम
भी हो गया, प्रणाम भी
हो गया, प्रार्थना
भी हो गयी, ध्यान
भी हो गया। वे
जीवन में जो
सारे मंत्रवत,
रहस्यपूर्ण
अनुभव हैं, सभी उस छोटी
सी घड़ी में हो
गए। अब कुछ और
मत करो।
क्योंकि तुम
कुछ और करोगे
तो तुम करोगे।
यह हाथ तुमने
नहीं उठाया, यह अपने आप
उठा है। और यह
छाती तुमने
नहीं धड़काई, यह अपने आप
धड़क उठी है।
अब इसमें तुम
कुछ भी करोगे
तो बात सिर्फ
बिगड़ेगी, बनेगी
नहीं।
कूलरिज
फिर मुझे याद
आता है।
कूलरिज जब मरा
तो उसके घर
में चालीस
हजार कविताएं
अधूरी आयी गई।
किसी में एक
पंक्ति और जोड़
देता तो वह पूरी
हो जाती। किसी
में दो
पंक्तियां और
जोड़ देता तो
वह पूरी हो
जाती। और
अदभुत
कविताएं। और जिंदगीभर
उसके मित्र और
उसके मित्रों
का मंडल।
कवियों का ही
मंडल था—वे
उससे कहते, कूलरिज तुम
पागल हो।
कविता पूरी हो
गयी। एक जरा
सी एक पंक्ति
और जोड़ दो।
कूलरिज
कहता, तुम
कभी भी न समझ
पाओगे। इतनी
पंक्तियां
अपने आप उतरी
हैं। इनके ऊपर
हस्ताक्षर
मेरे नहीं हैं।
इन पर आकाश की
छाया है।
इनमें तारों
की झलक है।
मैं
जोडूंगा
उसमें जमीन की
धूल होगी। मैं
अपनी तरफ से
जोड़कर इन्हें
पूरा तो कर सकता
हूं और दुनिया
को धोखा भी दे
सकता हूं, कोई पहचान
भी न सकेगा।
लेकिन मैं
अपनी आत्मा को
कैसे धोखा
दूंगा? और
जहां से ये
कविताएं उतरी
हैं, कभी
उस स्रोत का
सामना हो गया,
तो कैसे
मुंह
दिखाऊंगा? कैसे
सिर उठाऊंगा?
चालीस हजार
नहीं, चालीस
करोड़ कविताएं
भी अधूरी पड़ी रहे?
जिस स्रोत
से इनका आगमन
हुआ है, उसके
सामने मैं
गौरव और गरिमा
से और
प्रतिष्ठा से
खड़ा हो सकता
हूं। मैंने
सिर्फ वही
गाया है जो
उसने चाहा था।
उसमें कुछ भी
जोड़ा नहीं है।
मैं सिर्फ
बांस पोंगरी
था। उसने गाया
तो बांसुरी बन
गया। वह चुप
हो गया तो अब
बांस की पोंगरी
क्या करे?
जीवन
में जो भी
महत्वपूर्ण
अनुभव हैं वे
होते हैं, घटते हैं।
जब तुम उन्हें
करने लगते हो,
बस तभी झूठ,
तभी सब
असत्य हो जाते
हैं। तो जो हो
रहा है वह पर्याप्त
है, वह
पर्याप्त से
ज्यादा है; उसमें कुछ
जोड़ना मत। इस
जोड़ने के कारण
ही सारे धर्म
नष्ट हुए हैं।
जरा सी किरण
उतरी, और
उन्होंने
कल्पना का जाल
बुना और सूरज
बना लिया।
उनकी कल्पना
के उस सूरज
में सत्य की
वह किरण खो
गयी। उससे जगत
को कोई लाभ न
हुआ उससे मनुष्य
का कोई विकास
न हुआ।
जो
मुझे प्रेम
करते हैं, उनसे तो मैं
यह कहना चाहता
हूं कि मेरा
साथ और तुम्हारा
साथ उतना ही
है, जितनी
देर तक
परमात्मा उसे
बनाए रखे।
उससे ज्यादा
नहीं। उससे
ज्यादा गलत
है।
प्रश्न:
प्यारे भगवान, बहुत सी
मधुशालाएं
देखीं, पीने
वालों को नशे
में धुत देखा,
मगर आपकी
मधुशाला का
क्या कहना! न
कभी देखी, न
कभी सुनी।
आपकी मधुशाला
में पीने
वालों को मस्त
देखा। जो पीना
नहीं चाहते
उनकी भी मस्ती
अजीब देखी।
पीए और नशा आए,
वह बात समझ
में आती है।
बिना पीने
वालों को मस्ती
में मस्त
देखता हूं, यह बात समझ
में नहीं आती।
आपकी मधुशाला
की जब भी याद
आती है, खुमारी
सी आ जाती है।
यह तो और भी
गजब की बात है।
यह वास्तव में
ऐसा है, या
मेरा भ्रम है?
मेरे संशय
पर प्रकाश
डालने की
अनुकंपा
करें।
जीवन
में जब भी कुछ
ऐसा घटेगा, जो बाजार
में खरीदा
नहीं जा सकता,
तभी
तुम्हारी
बुद्धि में
संशय उठने
शुरू हो जाएंगे।
तुम्हारी
बुद्धि बाजार
में उपयोगी है,
मंदिर में
बेकार है। और
जिस मधुशाला
की तुम बात कर
रहे हो—जब भी
कोई मंदिर
जिंदा होता है,
मधुशाला
होती है। और
अगर कोई मंदिर
मधुशाला नहीं
है तो वह
सिर्फ कब्र है,
जो कभी
मधुशाला थी।
कभी वहां भी
जीवन था। लेकिन
हम अजीब लोग
हैं। मंदिर
हैं, मस्जिदें
हैं, गुरुद्वारे
हैं, गिरजे
हैं, सब
मुर्दा लाश हैं।
क्योंकि वह
बांसुरी ही अब
वहां नहीं बजती,
वह गीत वहां
नहीं उठता, वे घूंघर
वहां नहीं
बजते, जिनके
कारण कभी वे
पवित्र स्थान
बन गए थे। लेकिन
हम मुर्दों के
पूजक हैं। और
मुर्दों को
पूजते—पूजते
हमारी आदतें
ऐसी हो गयी
हैं, कि जब
भी कोई जिंदा
मंदिर फिर से
खड़ा होगा, संशय
पैदा होगा, संदेह
उठेंगे, शंकाएं
जगेंगी।
संशय
छोड़ो।
क्योंकि
जितनी देर और
जितनी शक्ति
संशय में गंवा
रहे हो, उतनी
ही देर, उतनी
ही शक्ति जो
मधु उपलब्ध है,
उसे पीने
में क्यों
नहीं लगा देते?
तुम्हारा
प्रश्न सुंदर
है। लेकिन उस
आदमी का प्रश्न
है, जो दूर
खड़ा देख रहा
है। जो देख
रहा है कुछ
लोगों को मस्ती
में मस्त होते—बिना
पीए। जो देख
रहा है उनको
भी, जो
पीने न आए थे
और पीकर झूम
रहे हैं।
लेकिन वह स्वयं
तटस्थ है, वह
अभी दूर खड़ा
है। वह अभी
मंदिर के बाहर
है। वह औरों
के संबंध में
विचार कर रहा
है कि यह क्या
हो रहा है?
इसे
समझना हो तो
एक ही उपाय है:
दरवाजे खुले
हैं, भीतर आ
जाओ। एक शराब
तो है, जो
तुम्हें
बेहोश करती
है। और एक
शराब ऐसी भी है
जो तुम्हारे
होश को जगाती
है। एक शराब
है, जिसमें
तुम टूटते हो
और नष्ट होते
हो। और एक शराब
है, जो
तुम्हें अपने
भूल घर वापस
ले आती है।
इस बात
को बौद्धिक
प्रश्न न
बनाओ।
जिन्होंने बौद्धिक
प्रश्न बनाया
वे इस अनूठे
रस से वंचित
रह गए।
क्योंकि
बुद्धि के पास
सिवाय नकारात्मक
उत्तर के, कोई विधायक
सुझाव नहीं
है। अंततः
बुद्धि यही कहेगी
कि पागलों की
जमात है, सिरफिरों
की जमात है।
कहीं कोई बिना
पीए यूं मस्ती
में झूमता है?
और बुद्धि
का तर्क
तुम्हें
संतुष्ट कर
देगा। इससे
पहले कि
बुद्धि
तुम्हें
खींचकर ले जाए,
मंदिर की
सीढ़ियां चढ़
जाओ। जिंदगी
में एक ही बात
को प्रमाण
बनाओ: अनुभव
को।
अगर
इतने लोग इस
मधुशाला में
डोल रहे हैं, झूम रहे हैं,
मस्त हो रहे
हैं, तो इस
रस की धारा
में थोड़ी देर
को तुम्हारे आ
जाने से, थोड़े
से अनुभव से, सारे संशय
दूर हो
जाएंगे। संशय
केवल अनुभव से
दूर होते हैं,
तर्कों से
नहीं।
एक
पुरानी कहानी
है। एक
गर्भिणी
सिंहनी एक छोटी
पहाड़ी से
दूसरी पहाड़ी
पर छलांग
लगाती है। और
जब छलांग
लगाती है तभी उसका
बच्चा पैदा हो
जाता है और
नीचे
पहाड़ियों के, भेड़ों की एक
भीड़ जंगल की
तरफ जा रही
है। वह बच्चा
उस भीड़ में
गिरता है, भेड़ों
में ही बड़ा
होता है, भेड़ों
जैसा ही
व्यवहार करता
है। और जब
भेड़ें डरकर
भागती हैं
किसी जंगली
जानवर के हमले
से, तो वह
भी घसर—पसर
उनके ही बीच
भागता है। और
यह बिलकुल
स्वाभाविक है,
क्योंकि
उसने कभी सोचा
ही नहीं कि वह
कोई और है।
भेड़ों में से
किसी—किसी को
शक आता था, कभी—कभी
उसे भी शक आता
था। क्योंकि
उसकी ऊंचाई
बढ़ती चली गयी,
लंबाई बढ़ती
चली गयी, लेकिन
उन सबने अपने
को समझा लिया
कि प्रकृति में
भूल—चूकें भी
घटित हो जाती
हैं।
लेकिन
एक दिन एक
बूढ़े शेर ने
भेड़ों के उस
झुंड पर हमला
किया। और बूढ़ा
शेर चकित खड़ा
रह गया। वह
अपनी आंखों पर
विश्वास न कर
सका, कि एक
जवान सिंह
भेड़ों के बीच
में भागा चला
जा रहा है।
उसने जिंदगी
बहुत देखी थी,
बूढ़ा हो गया
था, मगर
ऐसा अनुभव न
देखा था। न
किसी भेड़ को
उससे डर है और
न ही वह एक
क्षण को भी यह
सोच रहा है कि
भेड़ नहीं है।
बूढ़े सिंह ने
पीछा किया
बामुश्किल से
उसे पकड़ पाया।
वह मिमियाने
लगा, कि
मुझे छोड़ दो।
मुझे जाने दो।
मुझे मेरे
लोगों के साथ
जाने दो।
लेकिन बूढ़े
शेर ने कहा कि
जाने दूंगा, लेकिन एक
छोटे से काम
के बाद। यह
पास में ही तालाब
है, तू
मेरे साथ आ।
बामुश्किल, बिना अच्छा
के, लेकिन
अब शेर के
सामने भेड़ कर
भी क्या सकती
है? बेचारा
घसीटता हुआ
उसके साथ
तालाब तक गया।
तालाब के
किनारे पर खड़े
होकर बूढ़े शेर
ने उस जवान
सिंह को कहा
कि झांक, और
देख।
शांत
जल में उस
सरोवर के, उस सिंह ने
देखा कि वह
भेड़ नहीं है।
उसने अब तक भेड़ें
ही देखी थीं।
भेड़ों की
दुनिया में
दर्पण तो होते
नहीं। उसने आज
तक अपना चेहरा
भी नहीं देखा
था। आज अपने
चेहरे को भी
देखा, अपने
का भी देखा, और साथ ही यह
भी देखा कि इस
बूढ़े सिंह और
उसके चेहरे
में कोई अंतर
नहीं है।
जवानी और बुढ़ापे
का अंतर है।
और बिना कुछ
समझाए, बिना
कुछ बुझाए, एक हुंकार, एक दबी हुई
हुंकार, जो
जन्म के साथ
ही उसकी छाती
के भीतर दबी
थी, पहाड़ियों
को हिलाती हुई
चारों तरफ
गूंज गयी। एक
पल भर में वह
भेड़ न रहा, सिंह
हो गया। उस
बूढ़े सिंह ने
कहा, मेरा
काम पूरा हुआ।
अब तेरी
मर्जी। जब
तेरा क्या
इरादा है? अपने
पुराने
परिवार में
लौट जाना है
या मेरे साथ
आना है? उसने
कहा, कैसा
पुराना
परिवार? एक
भूल टूट गयी
एक नींद टूट
गयी, एक
सपना मिट गया।
बाहर मत खड़े
रहो। ये जो
तुम्हें
दीवाने
दिखायी पड़ रहे
हैं, इनके
संबंध में
सोचो मत—ये जो
बिना पीए मस्त
हो रहे हैं।
थोड़ा पास आओ। ये
मस्त हवाएं
तुम्हें भी
घेर लें। और
यह यह रस की
वर्षा
तुम्हारे ऊपर
भी थोड़ी हो
जाए। जरा सी
बूंदाबांदी, और सब संशय
बह जाएंगे और
सब संदेह गिर
जाएंगे। अभी
मंदिर जीवित
है। अभी इस मंदिर
का अस्तित्व
से नाता है।
जब मंदिर मर
जाते हैं तो
उनका नाता
शस्त्रों से
रह जाता है, अस्तित्व से
नहीं। शब्दों
से रह जाता है,
अनुभव से
नहीं। फिर कोई
बाइबिल को
घोंट—घोंटकर
पी रहा है, कोई
कुरान को, कोई
गीता को।
परिणाम कुछ भी
नहीं होता। न
तो जीवन में
कोई नृत्य आता
है, न जीवन
में कोई आनंद,
न कोई
मस्ती।
हां, जिन्होंने
कृष्ण के साथ
मंदिर में
प्रवेश किया
होगा, उन्होंने
मधुशाला में
प्रवेश किया
होगा। अब ये
भूली—बिसरी
यादें हैं। इन
मुर्दों को
तुम ढोते रहो,
जब तक तुम
चाहो। यह
सिर्फ बोझ है।
जहां जिंदा, जीवन की
गंगा बहती हुई
मालूम होती हो,
वहां चूकना
मत। एकाध
डुबकी तो कम
से कम लगा ही लेना।
बस, एक ही
डुबकी काफी है
और तुम नए हो
जाओगे। फिर न तो
तुम आश्चर्य
चकित होओगे कि
ऐसा क्यों हो
रहा है? क्योंकि
यह तुम्हारा
अपना अनुभव बन
जाएगा। इसलिए
हो रहा है, कि
अगर एक
व्यक्ति भी
तुम्हारे बीच
अस्तित्व के
मूल स्रोत से
जुड़ा हो, तो
उसकी छाया भी
तुम्हें मस्त
कर दे सकती
है।
प्रश्न
तुम्हारी
उपयोगी है, लेकिन तुम
मुझसे पूछ रहे
हो कि संशय
तुम्हारा कैसे
दूर करूं? और
संशय दूर करने
का एक ही उपाय
है कि मैं
तुम्हें
बुलावा दूं, निमंत्रण
दूं, कि
भीतर आ जाओ।
रिंदों की इस
भीड़ में खो
जाओ।
और
ध्यान रहे, कोई भी
मंदिर हमेशा
जिंदा नहीं
रहता। सभी मंदिर
एक न एक दिन
मकान हो जाते
हैं। सभी
मंदिर एक न एक
दिन दुकान हो
जाते हैं। और
मजे की बात यह
है कि जब
मंदिर मकान हो
जाते हैं, दुकान
हो जाते हैं, तो तुम मजे
से उनके भीतर
आने—जाने लगते
हो। क्योंकि
कोई डर रहा। न
तो मंदिर
तुम्हीं बदल
सकता है, न
दुकान
तुम्हें बदल
सकती है।
लेकिन जब
मंदिर जिंदा
होता है, यानी
जब मंदिर
मधुशाला होता
है, तब डर
लगता है।
क्योंकि एक भी
घूंट जिंदगी
भर के लिए नशे
में डुबा जाता
है। और दूसरे
घूंट की जरूरत
नहीं रहती। और
एक ही घूंट
जीवन के सत्य को
सिद्ध कर जाता
है, किसी
दूसरे घूंट की
कोई आवश्यकता
नहीं रहती। यूं
मौज में तुम
पूरी गंगा को
पी जाओ, वह
तुम्हारी मौज
है।
असली
सवाल पहला
घूंट है। फिर
तुम पीओगे ही
पीओगे। और
असली घूंट के
लिए साहस
चाहिए कैसी
मुश्किल है!
मस्त होने के
लिए भी साहस
चाहिए। यहां लोग
दुखी हो सकते
हैं, साहस की
कोई जरूरत
नहीं है। सारी
दुनिया दुखी है।
चिंतित हो
सकते हैं, साहस
की कोई जरूरत
नहीं। भेड़ों
की पूरी भीड़
तुम्हारे साथ
है। यहां सत्य
का एक भी घूंट
पीने के लिए
हिम्मत और
छाती चाहिए।
क्योंकि उसके
बाद फिर
दुबारा तुम
भेड़ों की उस
भीड़ के हिस्से
न हो सकोगे।
उसके बाद पहली
बार तुम्हारे
जीवन में
व्यक्तित्व, आत्मा, एक
होने का सुरूर,
एक
स्वतंत्रता, और अस्तित्व
के साथ पहली
बार प्रेम का
गठबंधन। तब तम
हिंदू नहीं रह
जाते, न
मुसलमान रह
जाते हो। तब
तुम पहली बार
आदमी बने हो।
और इस
दुनिया में
आदमी बनना
सबसे बड़ी साहस
की बात है।
क्योंकि भीड़
आदमियों की
नहीं है, भेड़ों
की है। और भीड़
के पास ताकत
है। और आदमी अकेला
रह जाता है
इसलिए डर लता
है। इसी भय से
तुम्हारा
प्रश्न उठा
है। आश्वस्त
कर दूं तुम्हें,
कि कोई डर
की बात नहीं
है, आ जाओ।
डर की बात है? मैं तुम्हें
कोई आश्वासन
नहीं दे सकता।
खतरा है।
लेकिन वह आदमी
ही क्या, जो
खतरों के साथ
खेलना न सीखे?
जो जिंदगी
को चुनौतियां
न बना ले। जो
चेतना के
शिखरों पर
चढ़ाने के लिए
सब कुछ
कुर्बान न कर
दे।
तो
सारी
मुसीबतों के
रहते हुए तुम्हें
बुलाता हूं।
लेकिन एक घूंट
भी शांति का, आनंद का, मौत
का, इतना
कीमती है कि
लाख मुसीबतें
भी आदमी सह
सकता है। मौत
भी सह सकता
है।
तो
प्रश्न न
पूछो। जब तक
मधुशाला
जिंदा है, मौका ले लो।
क्योंकि कौन
जाने, कल
मधुशाला हो, न हो।
प्रश्न:
भगवान, प्रश्न
उठते हैं और
इनमें से बहुत
से प्रश्नों
के उत्तर भी आ
जाते हैं। यह
सब क्या है?
ऐसा
कोई प्रश्न
नहीं है, जिसका
उत्तर न हो।
और ऐसा भी कोई
प्रश्न नहीं है,
जिसका
उत्तर
तुम्हारे
भीतर न हो। और
इस बात से
चकित मत होना
कि जब
तुम्हारे
भीतर कोई
प्रश्न उठता
है, तो वह
इसलिए उठता है
कि, इसके
पहले उत्तर
मौजूद है। उस
उत्तर की
मौजूदगी के
कारण ही
प्रश्न पैदा
हैं। आम तौर
से लोग समझते
हैं कि मेरे
भीतर प्रश्न
उठ रहा है, तो
कहीं खोजूं, किसी से
पूछूं। वह
दृष्टि
नासमझी की है।
तुम्हारे
भीतर प्रश्न
ही तब उठता है
जब उत्तर मौजूद
होता है।
लेकिन उत्तर
पर चलने की
तुम्हारी
हिम्मत नहीं
होती। तो तुम
आश्वस्त होना
चाहते हो, कि
उत्तर
तुम्हारे
भीतर है, वह
सच में उत्तर
है या नहीं? शास्त्रों
में भी अगर
वही उत्तर मिल
जाए, तो
हिम्मत बढ़ती
है। सदगुरु भी
अगर वही उतर
दे दे तो
हिम्मत बढ़ती
है। समाज में
अगर हर जगह से
उत्तर आए, तो
तुम निश्चित
होकर उस पर
चलने को राजी
हो जाते हो।
लेकिन
वस्तुतः
तुम्हारे हर
प्रश्न के भीतर
उत्तर मौजूद
होता है।
और इस
कारण एक झंझट
पैदा होती है।
क्योंकि शास्त्र, समाज, तुम्हारे
तथाकथित साधु—संत,
केवल
उन्हीं के
दोहरायेंगे, जिनको मान
लेने में तुम्हें
आसानी होगी; जिनको मान
लेने को तुम
आतुर ही हो, जिनको
वस्तुतः तुम
मान लेना ही
चाहते थे। और
इसलिए वे संत,
वे शास्त्र
तुम्हें
प्रीतिकर हो
जाएंगे।
लेकिन
जरूरी नहीं है
कि यह वही
उत्तर हो, जो तुम्हारी
अंतरात्मा
में छिपा है।
यह तुम्हारा
उत्तर हो यह
जरूरी हनीं
है। इसलिए जो
सचमुच
तुम्हारे
मित्र हैं, जो तुम्हें
सिर्फ
प्रसन्न नहीं
करना चाहते, बल्कि
रूपांतरित
करना चाहते
हैं, वे
तुम्हें कोई
विधि देंगे, ध्यान की
कोई विधि
देंगे ताकि
तुम धीरे—धीरे
अपने उत्तर को
खुद पा सको।
क्योंकि सिर्फ
तुम्हारा
उत्तर ही
तुम्हें
मुक्त कर सकता
है। किसी
दूसरे का
उत्तर सिर्फ
जंजीरें
बनेगा। वह
दूसरे का है, यही उसके
जंजीर होने का
सबूत है। और
चूंकि वह दूसरे
का है, इसलिए
हमेशा
तुम्हारी सतह
को छुएगा।
तुम्हारी
अंतरात्मा को,
तुम्हारी
गहराइयों को,
तुम्हारी
ऊंचाइयों को
छूने की उसकी
सामर्थ्य
नहीं है।
लेकिन हां, उसकी एक
खूबी है कि वह
तुम्हें नष्ट
कर देगा, वह
तुम्हें
सांत्वना
देगा।
और इस
दुनिया में
सांत्वना सब
से बड़ा जहर
है। क्योंकि
सांत्वना
तुम्हें वहीं
ठहरा देती है
जहां तुम हो।
सांत्वना
तुम्हें यह
भ्रम पैदा
करवा देती है
कि सब ठीक है।
ये करोड़—करोड़
जन, जो सारी
दुनिया में
हैं, ये
सभी
रूपांतरित हो
सकते थे। ये
सभी रूपांतरित
हो सकते हैं, इन सब के
भीतर उतनी ही
रोशनी है, जितनी
किसी बुद्ध के
भीतर रही हो।
लेकिन ये बेरौनक
हैं। ये बुझे
हुए दीपक की
तरह जीते
रहेंगे
क्योंकि
चारों तरफ
इनके बुझे
दीपकों को सांत्वना
देने वाले लोग
हैं, धीरज
बांधने वाले
लोग हैं।
मैं
तुम्हें कोई
ऐसा उत्तर
नहीं दे सकता
जो तुम्हें
रोक ले वहीं, जहां तुम
हो। हर उत्तर
तुम्हारे लिए
नयी अग्नि—परीक्षा
बनना चाहिए।
हर उत्तर से
गुजरकर तुम्हें
नया होना
चाहिए। और इसी
कारण मैं सारी
दुनिया में
दुश्मन बनाते
हुए घूमता रहा
हूं क्योंकि
लोग सांत्वना
चाहते है, लोग
जीवन का
रूपांतरण
नहीं चाहते।
लोग चाहते हैं,
कोई तुमसे
कह दे कि तुम
जैसे हो, बिलकुल
ठीक हो। तुम
जैसे हो, इससे
अच्छा अब और
क्या हो सकता
है? कोई
सरकारी सील
लगा दे
तुम्हारे ऊपर,
कि तुम
पहुंच गए, तुम
सिद्ध हो गए।
मेरे
एक परिचित थे, जब मैं
विश्वविद्यालय
में शिक्षक
था। वे भी शिक्षक
थे
विश्वविद्यालय
में। संस्कृत
पढ़ाते थे।
संस्कृत पढ़ने
अब कोई आता
नहीं। दो—चार
लड़के, जिन्हें
किसी विषय में
अनुमति नहीं
मिलती, और
खासकर
लड़कियां, जिन्हें
विषय से कोई
मतलब नहीं है,
जिन्हें
विवाह करना है,
और डिग्री
चाहिए। लेकिन
उन दो—चार
लड़कियों के
सामने भी, व्याख्यान
देने में थर—थर
कांपते थे।
दोहरे
कारण थे थर—थर
कांपने के। एक
तो, मंच पर
खड़े होकर कोई
भी कांपने
लगता है। न
मालूम क्या
मामला है! मंच
पर कैसी
बीमारी पकड़
लेती है आदमी
को। भला—चंगा
आदमी, यूं
घंटों बातचीत
करे, कि
तुम छुटकारा
कराना चाहो तो
छुटकारा न
करे। रास्ते
पर मिल जाए तो
बचकर निकलना
चाहो, कि
कहीं ये भैया
न मिल जाए।
नहीं तो घंटा
भर कम से कम
इनके साथ
खोपड़ी लड़ानी
पड़ेगी। ऐसे—ऐसे
वाचाल, बस
उन्हें मंच पर
खड़ा कर दो, और
उनकी घिग्गी बंध
जाती है। कुछ
कहना चाहते
हैं, कुछ
कह जाते हैं।
कारण
मनोवैज्ञानिक
है, मंच में
नहीं है। हजार
व्यक्तियों
की आंखें देख
रही हैं। वे
सिर्फ देख
नहीं रही हैं,
हजार
व्यक्ति
न्यायाधीश बन
गए अचानक, और
तुम्हें लटका
दिया है सूली
पर। तुम नाहक
ईसा मसीह बन
गए। और ये हजार
आदमियों की
आंखें
तुम्हें देख
रही हैं, कि
कब तुमसे भूल
हो जाए, कि
कब तुमसे अंट—शंट
कुछ निकल जाए।
और अंट—शंट
तुम में इतना
भरा है कि तुम
जानते हो, निकल
सकता है। तो
इधर अंट—शंट
को दबा रहे हो,
इधर ये हजार
आंखें कह रही
हैं कि आने
दो।
तो एक
तो यह उनकी
मुसीबत थी। और
दूसरी मुसीबत
थी ब्राह्मण
थे, बालब्रह्मचारी
थे। और केवल
लड़कियां उनकी
कक्षा में
भरती होती थी।
बालब्रह्मचारी
जैसा लड़कियों
से डरता है, वैसा कैंसर
से भी नहीं
डरता। और गरीब
लड़कियां क्या
करेंगी उसका?
और काफी फासले
पर बिठा रखता
है। लेकिन वे
मुझसे पूछा करते
थे कि क्या
करूं क्या न
करूं। रात
नींद नहीं
आती। दूसरे
दिन की फिकर
लगी रहती है।
ठीक—ठीक
व्याख्यान
तैयार करके
जाता हूं, सब
गड़बड़ हो जाती
है। जैसे ही
लड़कियों को
देखता हूं, ब्रह्मचर्य
डांवाडोल
होता है। और
साधुपुरुष
पहले ही कह गए
हैं कि देखना
ही मत। और उन
साधुपुरुषों
को क्या पता
था कि अध्यापक
भी होना पड़ेगा।
और देखना भी
पड़ेगा। तो कोई
तरकीब मुझे
बताओ।
तो मैं
उनसे कहता, तुम एक काम
किया करो। मैं
जब खाली होता
हूं, तुम आ
गए, यह
तख्त है, इस
पर सवार हो
गए। मैं
तुम्हारी
विद्यार्थी, तुम्हारे
दिल में जो आए,
व्याख्यान
दो। पहले तो
वे थोड़े झिझके,
कि यह जरा
जंचता नहीं।
कहीं मोहल्ले
के लोगों को
पता चल गया तो
वे क्या
कहेंगे?
मैंने
कहा, कुछ भी न
कहेंगे? जिसको
पता चलेगा, उसको ही
निमंत्रित कर
लेंगे, कि
तुम भी आ जाओ।
उसने कहा, यह
न करना। मैं
इसी भीड़—भाड़
से तो डरता
हूं। तो मैंने
कहा, मैं
इंतजाम कर
दूंगा, बाहर
तख्ती लगा
दूंगा, कि
इस समय कोई
भीतर प्रवेश
नहीं कर सकता।
बामुश्किल
उनको राजी
करके खड़ा कर
लेता था। तख्त
पर वे खड़े हो
जाते। बाहर
तख्ती देखते
से ही मोहल्ला
भर इकट्ठा हो
जाता था। बिना
तख्ती के
मोहल्ले के
खबर भी नहीं
होती थी, कि
कब व्याख्यान
होगा। वह एक
सर्कस हो गया।
कोई खिड़की में
से झांक रहा
है, कोई
दरवाजे की
जाली में से
झांक रहा है।
और कुछ लोगों
ने मेरे घर के
नौकर से
दोस्ती कर ली,
वे भीतर से
आने लगे, पीछे
के रास्ते से।
और उनकी दशा
देखने योग्य
है। पसीना—पसीना
हुए जा रहे
हैं, हालांकि
एयरकंडिशंड
मकान था।
पसीना—पसीना
हुए जा रहे
हैं। इसकी
फिकर कम है कि
क्या कह रहे
हैं, इसकी
फिकर ज्यादा
है कि कौन देख
रहा है। कुछ का
कुछ निकल
जाता। मैं
उनसे कहता, तुम फिकर न
करो। जितना
अंट—शंट है, निकल जाने
दो। लोगों को
भी आनंद आ
जाता है।
सिनेमा के भी
पैसे बच गए।
लोग मुझे
धन्यवाद देते
हैं कि यह
आपने अच्छा
काम शुरू कर
दिया। और एक
बार यह निकल
ही जाए यह अंट—शंट,
तो
तुम्हारा डर
भी मिट जाए।
और जब
भी वे बीच
भाषण में होते, मैं एक—आध
कागज उनके हाथ
में थमा देता—प्रश्न।
कागज की बड़ी
खूबी है; हाथ
कंप रहा हो, कागज पकड़ा
दो, तो
कागज ऐसे
हिलता है कि
जिसका हिसाब
नहीं। कि अगर
तुम्हें दिख
भी न रहा हो कि
हाथ हिल रहा
है, तो वह
कागज हिल रहा
है बता देता
है, कि हाथ
हिल रहा है।
वे मुझसे कई
दफें कहें कि
देखो, एक
काम बुरा है, बीच—बीच में
प्रश्न मुझे
मत दिया करो।
मैं पैंट में
अपने दोनों
हाथ डालकर खड़ा
होता हूं, और
तुम्हारे
प्रश्न की वजह
से मुझे हाथ
बाहर निकालना
पड़ता है।
मैंने
कहा, तुम्हें
पता नहीं है, मैं
तुम्हारा हाथ
बाहर निकलवा
कर तुमको बचाता
हूं क्योंकि
तुम्हारा
पैंट हिलता
है। वे बोले, यह मैंने
कभी खयाल नहीं
किया। अगर ऐसा
था तो तुमने
पहले क्यों
नहीं कहा? मैं
क्या कहूं, तुम्हारा
पैंट है, तुम
हाथ डालते हो,
तुम हिलाते
हो। और मैं
क्या करूं? और लोगों की
नजरें तुम पर
कम, तुम्हारे
पैंट पर
ज्यादा होती
हैं। मैंने उनसे
कहा, तुम
कोई और धंधा
ढूंढ़ लो। यह
धंधा
तुम्हारे बस
का नहीं। एक
तो ब्रह्मचर्य
की बीमारी, ऊपर से यह
अध्यापकी, लड़कियों
को पढ़ाना, मंच
पर खड़े होना—बहुत
ज्यादा है।
तुम नाहक मरे
जा रहे हो।
लड़कियां
चाहती हैं कि
लोग उनसे कहें, कि तुम बड़ी
सुंदर हो। ऐसे
दस—पांच
नालायक मिल
जाए और कह दें—मिल
ही जाते हैं
चौपाटी पर
घूमते—घामते,
कि भला वह
कलकत्ता की
काली—वाली हो,
भाई भला हों,
मगर कोई न
कोई नालायक
मिल ही जाएगा
कि अहा! कैसा
सौंदर्य है।
इससे अच्छा
लगता है। कोई
तुमसे कह दे
कि तुम
बुद्धिमान हो,
इससे अच्छा
लगता है।
तुम्हारे
अपने संबंध में
धारणाएं तुम
दूसरों के
उधार विचारों
से इकट्ठी
करते हो। तुम
उनसे प्रश्न
पूछते हो, उनके
उत्तरों को
चिपका लेते
हो। इसे तुम
अपना ज्ञान
समझते हो। इस
सब बासे और
उधार.....। नहीं, कोई और
तुम्हें
ज्ञान नहीं दे
सकता। और कोई
तुम्हारे
किसी प्रश्न
का उत्तर नहीं
बन सकता।
जो सच
में तुम्हारा
हितैषी है, जो सच में
चाहता है कि
तुम जीवन की
ज्योति बनो, वह तुमसे
कहेगा कि
तुम्हारे हर
प्रश्न का उत्तर
तुम्हारे
भीतर है। और
इसलिए रास्ता
यह है, कि
तुम शांत बैठो,
और अपने
भीतर उतरो। और
एक ऐसी घड़ी
आती है कि हर प्रश्न
का उत्तर पाते—पाते,
न उत्तर रह
जाते हैं न
प्रश्न रह
जाते हैं। एक
सन्नाटा और एक
मौन रह जाता
है। एक अपूर्व
शांति रह जाती
है। जैसे बिना
कुछ लिखा हुआ
कागज, निर्दोष।
उसी दशा में
तुम्हें उस
मधुरस का थोड़ा
सा अनुभव होगा,
जिसको तुम
यहां लोगों को
पीते देखते हो,
डोलते
देखते हो।
उनका
आनंद मेरे दिए
गए उत्तर के
कारण नहीं है।
उनकी मस्ती, उनकी मौज, उनकी चमक
मैं जो उनसे
कह रहा हूं, उससे नहीं
है। बोलना
केवल मेरी एक
विधि है। क्योंकि
जब मैं बोल
रहा हूं तब
अनजाने ही तुम
चुप होकर
सुनने लगते
हो। चुप्पी से
तुम्हारा रस निकलना
शुरू हो जाता
है, मेरे
बोलने से
नहीं। मेरा बोलना
तो सिर्फ
बहाना था; वह
तो तरकीब थी।
लेकिन मुझे
सुनने के लिए
तुम चुप हो गए,
तुम्हारी
चुप्पी ने, तुम्हारे
मौन ने
तुम्हें अपने
भीतर के रस—स्रोतों
से जोड़ दिया।
जीवन
कोई उत्तर
नहीं चाहता।
और जीवन का
कोई उत्तर हो
भी नहीं सकता।
जीवन एक अनंत
रहस्य है, और सदा अनंत
रहस्य रहेगा।
लेकिन अपने
मौन में तुम
उस रहस्य से
जुड़ जाते हो।
उस रहस्य की
तरंगें तुम्हारे
भीतर भी
तरंगायित
होने लगती
हैं।
तुमसे
मैं कहता हूं, प्रश्न कोई
पूछना हो तो
पूछ लो, वह
सिर्फ इसलिए
ताकि तुम
सुनने के लिए
चुप हो सको; ताकि मैं
तुम्हें चुप
होने का थोड़ा
बहुत स्वाद दे
सकूं। और एक
आर तुम्हें
चुप होने का
आनंद आ जाए, तो तुम कहीं
भी चुप हो
सकते हो। कुछ
मुझसे पूछने
की जरूरत नहीं
है, किसी
और से पूछने
की जरूरत नहीं
है। जब जहां बैठ
गए, वहीं
मधुशाला है।
तब जहां मौन
हो गए, वहीं
द्वार खुल गए।
मत
चिंता करो
प्रश्नों की, मत चिंता
करो उत्तरों
की। हां, पूछते
रहो जब तक मैं
हूं। क्योंकि
अभी तुम्हें
अपनी चुप्पी
का अनुभव नहीं
है। अगर मैं
चुप हो जाऊं, तुम्हारे
भीतर का जो
घनचक्कर है, वह अपना काम
शुरू कर देगा।
यह
केवल मेरी एक
विधि है, और
इस विधि को
बहुत गलत समझा
गया है। लोग समझते
हैं कि मैं
तुम्हारे
प्रश्नों के
उत्तर दे रहा
हूं। मैं तो
सिर्फ
तुम्हारे
प्रश्नों के
बहाने
तुम्हें चुप
होने का संकेत
कर रहा हूं।
इसलिए जिन
लोगों ने मुझे
नहीं सुना है
उन्हें बड़ी
अड़चन होती है।
क्योंकि मैं
एक ही प्रश्न
के हजारों तरह
से उत्तर दे
चुका हूं। यह
प्रश्न और
उत्तर तो केवल
खेल है। उनके
लिए गंभीरता
हो जाती है, कि ए दो
उत्तर विरोधी
हो गए। मुझे
उनके विरोधी
होने की चिंता
नहीं है। और
मैं याद भी
नहीं रख सकता
कि तीस सालों
में मैंने किस
प्रश्न का क्या
उत्तर दिया।
तुम पूछते हो
तो जो मेरी
मौज में आता
है, वह मैं
कह देता हूं।
मतलब कुछ और
है; मतलब
यह है कि तुम
चुप हो जाओ, कम से कम
मुझे सुनने को
ही चुप हो
जाओ। उतनी ही देर
को चुप्पी
तुम्हारे
भीतर एक
सन्नाटे की लकीर
खींच दे। शायद
पकड़ लो तुम उस
लकीर को, और
कभी अकेले में,
रात के
अंधेरे में
अपने बिस्तर
पर बैठे—बैठे,
उसी लकीर के
सहारे दूर
गहराई—अपनी
अंतरात्मा
में, अपने
शून्य में
उतार ले जाए।
जिस
दिन तुम शून्य
हो गए उस दिन
सब हो गए।
मेरे लिए
शून्यता
दिव्यता है।
और शून्य तुम
तभी हो सकोगे, जब तुम्हें
थोड़ा रस लग
जाए। और कभी—कभी
रस लगाने के
लिए ऐसे आयोजन
करने पड़ते है,
जिनका सीधा—सीधा
संबंध दिखायी
नहीं पड़ता।
मैंने
सुना है, एक
आदमी के घर
में आग लग
गयी। उसके
छोटे—छोटे
बच्चे थे।
पत्नी उसकी मर
गयी थी। वे
बच्चे इतने
छोटे थे कि वे
घर में उठती
हुई चारों तरफ
की लपटों को
खिलवाड़ समझे।
वे नाचें और
कूदे।
उन्होंने यह
मौज कभी न
देखी थी।
दीवालियां तो
देखीं थी, मगर
यह दीवाली गजब
की थी। सारा
गांव इकट्ठा
है और चिल्ला
रहा है कि
बाहर आ जाओ
नालायकों, मर
जाओगे। यह कोई
दीवाली नहीं
है। यह तुम
नाच रहे हो
उचक रहे हो।
तभी उनका पिता
गांव के शहर से
वापस लौटा।
लोगों ने उससे
कहा कि
तुम्हारे बच्चे
बाहर नहीं
निकल रहे। वे
आनंदित मालूम
होते हैं।
हमारी समझ के
बाहर है। हमने
बहुत समझाया
कि आग लगी है, मगर इतना
शोरगुल है और
इतनी भीड़—भाड़
है कि पता
नहीं, हमारी
आवाज भी वे
समझ पाते हैं
या नहीं समझ
पाते हैं। और
वे अपने में
ऐसे मग्न हैं,
और आग की
लपटें इतनी बढ़
गयी हैं।
बाप
मकान के थोड़े
करीब आया और
एक खिड़की के
पास से उसने
चिल्लाकर कहा
कि अरे पागलो, तुम भीतर
क्या कर रहे
हो? तुमने
जो खिलौने
बुलाए थे, वे
मैं सब ले आया
हूं। सारे
बच्चे भागकर
खिड़की के पास
आ गए। उसने एक—एक
को खिड़की के
बाहर निकाल
लिया। और
बच्चे पूछने
लगे, खिलौने
कहा है? उसने
कहा, खिलौने
तो मैं नहीं
लाया लेकिन
तुम्हें बाहर निकालने
का इसके सिवाय
कोई उपाय न
था। खिलौने कल
ले आऊंगा।
लेकिन पागलो,
यह कोई खेल
नहीं है, यह
आग लगी है। घर
जल रहा है, तुम
इस में जलकर
मर जाते। तुम
मेरे झूठ के
लिए मुझे माफ
कर देना।
लेकिन मेरा झूठ
हजार सत्यों
से ज्यादा
कीमती है।
तो यह
सवाल नहीं है
कि तुम्हारा
सवाल क्या है, और यह सवाल
नहीं है कि
मेरा जवाब
क्या है। सवाल
यह है कि क्या
मेरे सवाल और
जवाब के बीच
तुम उस खिड़की
के पास आ गए हो,
जहां से ओ, जो तुम्हारे
सारे घर को, सारे जीवन
को घेरे है, उसकी लपटों
के बाहर निकल
आओ थोड़ी देर
के लिए। तो तुम
मुझे माफ कर
दोगे। अगर
मैंने कोई ऐसी
बात भी कही
होगी जो सच न
थी, तो तुम
मुझे माफ कर
दोगे।
क्योंकि तुम
समझोगे कि
मैंने बात, तुम आग के
बाहर आ जाओ
इसलिए कही थी।
न तो
प्रश्नों में
कोई प्राण है, न उत्तरों
में कोई प्राण
है। प्राण है
तो उस
सन्नाटों में,
जो दोनों के
पार है।
प्रश्न:
प्यारे भगवान
श्री, कल
ही मैंने पहली
बार आपका
प्रवचन सुना।
आपमें जो संगम
मैंने देखा है,
वैसा संगम
शायद ही
पृथ्वी पर कभी
हो। मैंने ऐसा
जाना, कि
शायद
परमात्मा आपे
द्वार पहली
बार हंसा है।
यह
हमारा
दुर्भाग्य है
कि हमने उदासी
को, गंभीरता
को, आत्म—उत्पीड़न
को साधुता
समझा है। जो
अपने को जितना
सताए उतना बड़ा
संत हो गया।
हमने, जीवन
का जिन्होंने
विरोध किया है,
उनकी पूजा
की है।
हालांकि हम
उनका अनुसरण
तो न कर सके, क्योंकि
जीवन के विरोध
में जाना कुछ
आसान नहीं।
लेकिन हमने
उनकी पूजा
करके अपने को
विषाक्त जरूर
कर लिया।
और आज
तक मनुष्य—जाति
के इतिहास में
एक अत्यंत
मूढ़ता से भरा
हुआ खेल जारी
रहा। हम आदर
देते रहे उन
लोगों को, जो जीवन से
दूर हटते गए।
और हमारे आदर
के कारण वे
जीवन से और भी
दूर हटते गए
क्योंकि आदर
का मजा उनके
अहंकार की
तख्ती बनता
गया। वे सूखकर
हड्डियां हो
गए। जीवन के
सारे रस
उन्होंने न केवल
छोड़ दिए, बल्कि
शिक्षा भी
देने लगे कि
दूसरे भी छोड़
दे। एक जीवन—निषेधात्मक
आंदोलन
मनुष्य जाति
को अब उनके अहंकार
की पूजा हो
गयी। और
अहंकार सिवाय
नर्क के और
कुछ नहीं है।
और चूंकि उनके
जीवन—निषेध ने
अहंकार की
तृप्ति दी, वे जितनी
निंदा हमारी
कर सके, क्योंकि
हम अब भी जीवन
में रस ले रहे
थे.....उन्होंने
हमारे सारे रस
को विषाक्त कर
दिया।
मैं
निश्चित रूप
से ही धर्म को
विषाद, आत्म—उत्पीड़न
से, स्वयं
को सताने से
हटाकर आनंद का
एक उत्सव
बनाना चाहता
हूं। मैं
चाहता हूं कि
जीवन हंसे, और ऐसा हंसे,
कि हजार—हजार
फूल बरसें।
जीवन में कुछ
भी नहीं जो
निंदा को
योग्य है। और
जीवन में ऐसा
कुछ नहीं है
जिसे छोड़कर
भागने की
जरूरत है। हां,
जीवन में
ऐसा बहुत कुछ
है, जो
छिपे हुए
खजाने की तरह
है। या ऐसा है जैसे
खदान से
निकाला हुआ
सोना हो। उसकी
सफाई की जरूरत
है, उस पर
निखार लाना है,
उसको चमक
देनी है।
और
धर्म और जीवन
दो विपरीत
आयाम न हो
बल्कि एक ही
संयुक्त धरा
हो। धर्म नाच
सके, हंस सके,
गीता गा
सके। धर्म
उनकी पूजा में,
जिनकी कुल
कला अपने को
सताने में
समाप्त हो
जाती है, बंधा
हुआ न रह जाए।
जिनको तुम संत
कहते हो उनके
मनोवैज्ञानिक
इलाज की जरूरत
थी, तुमने
उनकी पूजा की
है। भविष्य
तुम पर हैरान
होगा। तुमने
विक्षिप्त
लोगों की, बजाय
चिकित्सा के,
उनकी
शिक्षाओं को
ग्रहण करने की
कोशिश की। एक स्वस्थ
धर्म, एक
स्वस्थ जीवन,
विरोधी
नहीं हो सकता।
वे दोनों एक
गाड़ी के पहियों
की भांति
होंगे। उनमें
से एक भी
पहिया खो गया
तो गाड़ी की
गति रुक
जाएगी। और अब
तक यही हुआ। संतों
के हाथ में एक
पहिया था, और
उनके पूजकों
के हाथ में एक
पहिया था; तो
गाड़ी चली ही
नहीं, अटक
कर खड़ी हो
गयी।
तुम्हारा
प्रश्न
समुचित है।
मेरी चेष्टा
यही है कि
दोनों पहिए
फिर जुड़ जाए
और जीवन की
गाड़ी फिर गीत
गा सके, नाच
सके, आह्लादित
हो सके। यह
अस्तित्व—थोड़ा
अपने चारों
तरफ तो देखो—इतने
फूलों से भरा
है। यह सागर—इसकी
लहरों को तो
देखो। यह आकाश—इसके
सितारों को तो
देखो। इनमें
तुम्हारा एक
भी साधु न
मिलेगा और एक
भी संत न मिलेगा।
मैं
तुम्हें इस
विराट
अस्तित्व के
एक अंग की तरह
जुड़ा हुआ
देखना चाहता
हूं, लहरें
उठती हुई
देखना चाहता
हूं। निंदा का
स्वर समाप्त
हो और निंदा
का युग समाप्त
हो। दमन की
परंपरा
समाप्त हो और
जीवन का
उल्लास हमारा भविष्य
बने।
जो समझ
सकते हैं, वे मेरी बात
को प्रेम
करेंगे। जो
नहीं समझ सकते
हैं, वे
मेरी बात के
दुश्मन हो
जाएंगे। और
नासमझों की
भीड़ है।
सुशिक्षित
हैं, पढ़े—लिखे
हैं, थोथे
ज्ञान से भरे
हैं, लेकिन
समझ की एक जरा
सी किरण भी
नहीं। सारी दुनिया
में घूमकर मैं
यह देखने की
कोशिश करता
रहा, कि
जिस आदमी के
लिए मैं नया
आदमी बनाना
चाहता हूं, वह आदमी
सुनने को भी
राजी नहीं है,
कि मेरी बात
को दूसरे लोग
सुन सकें। यह
मेरी पराजय
नहीं है, यह
उसकी पराजय
है।
आज
दुनिया के
सारे देशों ने
अपनी—अपनी
पार्लियामेंट
में मेरे लिए
नियम बनाकर रखा
है कि मैं
उनके देश में
प्रवेश नहीं
कर सकता। न
मैंने उनके
देश में कभी
प्रवेश किया
है, और न
मैंने उनके
देश का कोई
कानून तोड़े
हैं, न
मैंने उनके
देश के विधान
के खिलाफ कुछ
किया है। मैं
वहां कभी गया
ही नहीं। ऐसे—ऐसे
देशों की
पार्लियामेंट
में मेरे
खिलाफ उन्होंने
नियम बनाया है
जिन देशों के
नाम भी मैंने कभी
नहीं सुने थे।
पहली बार ही
नाम सुने।
क्या
घबराहट है? कैसी घबराहट
है? और
तुम्हारा देश
है, तुम्हारी
भीड़ हैं, मैं
अकेला आदमी
हूं। अगर मैं
गलत हूं तो
मुझे गलत कहो,
और अगर मैं
सही हूं तो कम
से कम इतनी
निष्ठा तो अपनी
बुद्धि की
दिखाओ, कि
सत्य को
स्वीकार करो।
लेकिन वहीं
अड़चन है। उनको
भी दिखायी पड़
रहा है कि
उनके पैरों के
नीचे जमीन
नहीं है। और
वे नहीं चाहते
कि कोई आदमी
आकर उनको बताए
कि तुम्हारे
पैरों के नीचे
जमीन नहीं है।
उनको भी मालूम
हो रहा है कि
वे तिनकों के
सहारे बचने की
कोशिश कर रहे
हैं। और इसलिए
घबराहट होती
है कि कोई
आदमी आकर कहीं
यह न कह दे, कि
यह तुम क्या
कर रहे हो? यह
तिनकों के
सहारे तुम बच
न सकोगे। इन
तिनकों को भी
ले डूबोगे।
दुनिया
का यह चक्कर
मेरे लिए
महत्वपूर्ण
रहा। और भी
चक्कर मैं
जारी रखूंगा
क्योंकि
सरकारें
बदलेंगी, पार्लियामेंट
बदलेंगी.....और
मेरे
संन्यासी हर
पार्लियामेंट
में तय किए गए
नियमों के
खिलाफ
अदालतों में
मुकदमे लड़ रहे
हैं। क्योंकि
इससे ज्यादा
बेहूदी कोई
बात नहीं हो
सकती कि एक
आदमी जो कभी
तुम्हारे देश में
ही न आया हो, उस पर तुम
किस इल्जाम
में देश में
आने पर रुकावट
डाल सकते हो? मगर उनकी
मुसीबत मैं
समझता हूं।
क्योंकि बुद्ध
कभी बिहार के
बाहर नहीं गए,
मोहम्मद ने
कभी रब नहीं
छोड़ा। उपनिषद
के ऋषि अपने—अपने
गुरुकुलों
में निवास
किए। नहीं तो
उन सबको
इन्हीं
तकलीफों का
सामना करना
पड़ता।
इस
अर्थों में
मैं एक नए युग
का आरंभ कर
रहा हूं। अब
जिस व्यक्ति
को भी सत्य की
बात करनी हो, उसे पूरी
मनुष्य—जाति
के समक्ष अपने
सत्य को पेश
करने की चेष्टा
करनी चाहिए।
उसी चेष्टा
में बहुत कुछ
निश्चित हो
जाएगा।
सारी
दुनिया के देश
आने को
लोकतंत्र
सिद्ध करते
हैं और बोलने
की
स्वतंत्रता
को बहुत बड़ा
आदर देते हैं।
और मैं उनसे
कुछ और नहीं
मांग रहा था, और कुछ
हमेशा के लिए
रहने के लिए
नहीं मांग रहा
था। तीन
सप्ताह किसी
देश में बोलने
का हक चाहता
था। और वे
इतनी भी
हिम्मत न जुटा
सके, कि
तीन सप्ताह
मुझे सुन
सकते। साफ है,
कि जाने—अनजाने
उन्हें अपनी
कमजोरी का
भलीभांति पता
है। यह भी साफ
है कि मैं तीन
सप्ताह में
उनके दो हजार
वर्षों में
बनाए गए
नियमों, धर्मों,
नैतिकताओं
को मिट्टी में
मिला सकता
हूं। क्योंकि
उनमें कोई
प्राण नहीं
है। और यह मैं
नहीं कह रहा
हूं, यह वे
खुद ही
स्वीकार कर
रहे हैं।
यूनान
में एक युवा
संन्यासिनी
ने—जो कि
प्रेसिडेंट
के बहुत करीब
है, और जिसने
प्रेसिडेंट
को चुनाव में
जिताने में हर
तरह से कोशिश
की है—क्योंकि
संन्यासिनी
एक अभिनेत्री
है और उसका
प्रभाव है
यूनान में—उसने
प्रेसिडेंट को मुझे
चार सप्ताह के
लिए यूनान
प्रवेश के लिए
राजी कर लिया।
यूनान के सबसे
बड़े फिल्म
डाइरेक्टर के
पास एक बहुत
सुंदर और बहुत
प्राचीन, समुद्र
के किनारे बना
हुआ महल है।
उस महल में मैं
दो सप्ताह
रहा। मैं तो
महल के बाहर
गया भी नहीं।
लेकिन दो
सप्ताह के
भीतर यूनान के
चर्च की जड़ें
कैसे हिलने
लगीं, यह
भी मेरी समझ
में न आया।
क्योंकि मैं
यूनानी भाषा
नहीं बोलता।
और जो लोग
मुझे सुनने
आते थे उस महल
में, उनमें
यूनानियों
में सिर्फ
मेरे
संन्यासी थे,
जो कि मुझे
सुन ही चुके
थे और मेरे
संन्यासी थे।
और, या
यूरोप से अलग—अलग
देशों से और
संन्यासी आए
थे। उनको भी
बिगाड़ने का
कोई सवाल न था,
मैं उन्हें
बिगाड़ ही चुका
था।
यूनान
के आर्च बिशप
ने धमकी दी
प्रेसिडेंट
को, कि अगर
मुझे इसी समय—दो
सप्ताह वहां
रहने के बाद, इसी समय—अगर
यूनान के बाहर
नहीं किया
जाता, तो
जिस महल में
मुझे रखा गया
है और जहां और
बहुत से
संन्यासी
ठहरे हुए हैं,
हम उस महल
को उन सारे
लोगों के साथ
जिंदा जला
देंगे। ये
बीसवीं सदी के
हैं! और ये
ईसाइयत के वचन
हैं। और ईसाइयों
का सब से बड़ा
पुरोहित
यूनानी है। और
चर्चों में
शिक्षाएं दी
जाती रहेंगी
कि अपने दुश्मन
को प्रेम करो।
और जो
तुम्हारे गाल
पर एक चांटा
मारे, तुम
उसे दूसरा गाल
भी दे दो।
मैंने
यूनान के
प्रेसिडेंट
को खबर भेजी, कि अभी
मैंने पहला
चांटा भी नहीं
मारा। रही दुश्मनी
का बात; मैं
इस आदमी को
जानता भी
नहीं। दोस्ती
भी नहीं है, दुश्मनी तो
दूर। और जिंदा
जला देने की
बात उन लोगों
के मुंह से, जो ईसा को
सूली पर चढ़ा
देने का इतना
विरोध करते रहे
हैं दो हजार
साल तक, शोभा
नहीं देती। और
वह भी उस आदमी
को, जिसने
न यूनान में
भ्रमण किया है,
न लोगों को
कुछ कहा है, न तुम्हारे
चर्चों में
गया है, न
कोई उपद्रव
किया है।
लेकिन
राजनीतिज्ञ
राजनीतिज्ञ
हैं, उनकी
घबराहटें
उनकी हैं।
मुझे
उसी वक्त
यूनान छोड़ने
के लिए मजबूर
किया गया। मैं
सो रहा था
दोपहर को मुझे
सोते में
गिरफ्तार
किया गया। एक
युवती जो मेरी
सेक्रेटरी थी
यूनान में, उसने कहा कि
कम से कम मुझे
उठा देने दो।
वे अपना हाथ—मुंह
धो लें, कपड़े
बदल लें, तो
उसे धक्के
मारकर, सड़क
पर घसीट कर, कार में
लादकर पुलिस
स्टेशन भेज
दिया। और जब
मैं उठा, तो
मेरी कुछ समझ
में न आया कि
बात क्या है, हो क्या रहा
है? क्योंकि
सारा मकान
पुलिस से घिरा
है, और
पुलिस के लोग
बड़ी—बड़ी
चट्टानों को
उठाकर सदियों
पुरानी कीमती खिड़कियों
को फोड़ रहे
हैं, दरवाजों
को तोड़ रहे
हैं। मैं ऊपर
की मंजिल पर था।
मुझे तो ऐसा
लगा कि जैसे
कोई नीचे बम
फोड़ रहा हो।
तुम्हारे पास
मुझे
गिरफ्तार
करने का कोई वारंट
है? न उनके
पास कोई वारंट
है, न मकान
में प्रवेश का
कोई वारंट है।
उनमें से सिर्फ
एक ने कहा कि
हमारे पास कुछ
भी नहीं है सिवाय
इसके, कि
प्रेसिडेंट
का फोन है, कि
मुझे इसी वक्त
यूनान की जमीन
के बाहर कर
दिया जाए। क्योंकि
हम आर्च बिशप
की धमकी से
भयभीत हैं। इलेक्शन
करीब हैं, और
अगर ईसाई
विरोध में हो
गये, तो
हमारी पार्टी
का जीतना
मुश्किल है।
लोगों
को न सत्य से
मतलब है, न
असत्य से मतलब
है; न आदमी
से मतलब है, न उसकी
आदमियत से मतलब
है। रास्ते
में मुझे
एयरपोर्ट ले
जाते वक्त
उन्होंने
कागजात दिए, जिनमें वे
मुझसे दस्तखत
कराना चाहते
थे। उन कागजों
में यह लिखा
हुआ था कि मैं
यूनान से निष्कासित
किया जा रहा
हूं, क्योंकि
मेरी
उपस्थिति
यूनान में
यूनान के धर्म,
नैतिकता,उसकी
परंपराएं, उसकी
संस्कृति के
लिए खतरा है।
मैंने
उनसे कहा कि
यह मेरे लिए
सर्टिफिकेट
है। तुम दो
हजार सालों
में जिन चीजों
को बना पाए हो, उन्हें अगर
मैंने दो
सप्ताह में
खत्म कर दिया हो,
और दो
सप्ताह और बचे
हैं मेरे, तो
तुमने जो
बनाया है वह
रेत का महल
है। मैं फिर
लौटकर आऊंगा।
क्योंकि जो ची
इतनी सड़ी—गली
है, कि
उसके ठेकेदार
उसके मिटने से
इतने डरे हुए
हैं, उस
सड़ी—गली चीज
को मिटा देना
ही अच्छा है।
जिस
गांव, निकोलस
नाम के द्वीप
पर मैं ठहरा
था, उस
गांव के लोगों
ने खबर भेजी, कि हम क्या
कर सकते है? हम गरीब लोग
हैं। मैंने
उनसे कहा कि
तुम सब कम से
कम इतना कर
सकते हो, कि
निकोलस के
सारे लोग
एयरपोर्ट पर
मुझे विदा देने
को इकट्ठे हों,
ताकि आर्च
बिशप को यह
पता चल जाए कि
कौन आर्च बिशप
के साथ है और
कौन मेरे साथ
है। हालांकि
तुम मुझे नहीं
जानते, और
न ही तुम मुझे
पहचानते हो, न ही तुमने
मुझे सुना है।
मैं
खुद भी चकित
हुआ। पुलिस के
लोग चकित हुए।
क्योंकि
निकोलस की
पूरी आबादी:
तीस हजार लोग
एयरपोर्ट पर
मौजूद थे, और केवल छह
बूढ़ी औरतें
चर्च में
मौजूद थीं४ और
चर्च में विजय
की घंटियां
बजायी जा रही
थीं, क्योंकि
निकोलास के
चर्च के
अधिकारियों
को खबर दी गयी
थी, कि जब
मुझे
निष्कासित
किया जाए, तो
यह एक बड़े
विजय की बात
समझी जाए, कि
हमने एक
संस्कृति, धर्म
और हमारी
परंपराओं के
दुश्मन को
पराजित कर
दिया। मैंने
पुलिस के
प्रधान को कहा,
कि तुम थोड़ा
अपने आर्च
बिशप को जाकर
कहना कि ये छह
बूढ़ी औरतें—और
हो सकता है ये
सभी खरीदी हुई
हों—और नगर के
तीन हजार लोग
एयरपोर्ट पर
मुझे विदा दे
रहे हैं, और
उन घंटियों पर
हंस रहे हैं।
उनसे कह देना
कि इन छह
औरतों के
बलबूते पर तुम
चर्च को टिका
न सकोगे। यह
चर्च गिर गया।
पुराना
धर्म अपने आप
गिरने को
तैयार है, सिर्फ
तुम्हारे
धक्के देने की
जरूरत है। और
वह धर्म कोई
तुम्हारे
बाहर नहीं है,
तुम्हारे
भीतर का कचरा
है। निकाल कर
बाहर फेंक दो,
वह समाप्त
हो जाएगा। और
एक ऐसे धर्म
की घोषणा होनी
जरूरी है जो
गीत गा सकता
हो, जो हंस
सकता हो, जो
आनंदित हो
सकता हो, जो
जीवन का रस ले
सकता हो। अगर
परमात्मा को
जीवन को बनाए
रखने में रस
है, तो उन
महात्माओं को
रोकना ही होगा,
जो जीवन के
विरोध में विष
फैलाने की
कोशिश कर रहे
हैं।
धन्यवाद।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें