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बुधवार, 18 मई 2016

काहे होत अधीर--(प्रवचन--03)



साजन-देश को जाना—(प्रवचन—तीसरा)
दिनांक 13 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
सूत्र:

जेकरे अंगने नौरंगिया, सो कैसे सोवै हो।
लहर-लहर बहु होय, सबद सुनि रोवै हो।।
जेकर पिय परदेस, नींद नहिं आवै हो।
चौंकि-चौंकि उठै जागि, सेज नहिं भावै हो।।
रैन-दिवस मारै बान, पपीहा बोलै हो।
पिय-पिय लावै सोर, सवति होई डोलै हो।।
बिरहिन रहै अकेल, सो कैसे कै जीवै हो।
जेकरे अमी कै चाह, जहर कस पीवै हो।।
अभरन देहु बहाय, बसन धै फारौ हो।
पिय बिन कौन सिंगार, सीस दै मारौ हो।।
भूख न लागै नींद, बिरह हिये करकै हो।
मांग सेंदुर मसि पोछ, नैन जल ढरकै हो।।
केकहैं करै सिंगार, सो काहि दिखावै हो।
जेकर पिय परदेस, सो काहि रिझावै हो।।
रहै चरन चित लाई, सोई धन आगर हो।
पलटूदास कै सबद, बिरह कै सागर हो।।


प्रेमबान जोगी मारल हो, कसकै हिया मोर।।
जोगिया कै लालि-लालि अंखियां हो, जस कंवल कै फूल।
हमरी सुरुख चुनरिया हो, दूनों भये तूल।।
जोगिया कै लेउं मिर्गछलवा हो, आपन पट चीर।
दूनों कै सियब गुदरिया हो, होई जाब फकीर।।
गगना में सिंगिया बजाइन्हि हो, ताकिन्हि मोरी ओर।
चितवन में मन हर लियो हो, जोगिया बड़ चोर।।
गंग-जमुन के बिचवां हो, बहै झिरहिर नीर।
तेहिं ठैयां जोरल सनेहिया हो, हरि ले गयो पीर।।
जोगिया अमर मरै नहिं हो, पुजवल मोरी आस।
करम लिखा बर पावल हो, गावै पलटूदास।।


सावन बीता जाए, ऐसे में तुम कहां छिपे हो

कोयल कूके, मैना चहके
कलियां चटकें, सब्जा लहके
पात-पात खुशबू से महके
मदिरालय सा गुलशन बहके
बहके, रंग उड़ाए, ऐसे में तुम कहां छिपे हो
सावन बीता जाए, ऐसे में तुम कहां छिपे हो

बिखरीं अलकें, सरके घूंघट
झूमीं सखियां, नाचा पनघट
मन में उमंगें लेती करवट
दूर  कोई  सांवरिया  नटखट
मद्धम स्वर में गाए, ऐसे में तुम कहां छिपे हो
सावन बीता जाए, ऐसे में तुम कहां छिपे हो

बिजली कौंधे, गरजे बादल
तेज हवा खड़काए सांकल
मेरा रोम-रोम है बेकल
तुम्हें   निहारे   बहता   काजल
नेह की जोत जगाए, ऐसे में तुम कहां छिपे हो
सावन बीता जाए, ऐसे में तुम कहां छिपे हो

तांडव नृत्य करे तनहाई
तृष्णा सांपिन सी लहराई
गम ने अलग इक रास रचाई
सांस  अजानी  सी  अकुलाई
धीरज हांक लगाए, ऐसे में तुम कहां छिपे हो
सावन बीता जाए, ऐसे में तुम कहां छिपे हो

परमात्मा की खोज में दो मार्ग हैं: एक तो उनका, जो परमात्मा को सत्य की भांति देखते हैं। और एक उनका, जो उसे प्रीतम की भांति देखते हैं। दोनों ही मार्ग सही हैं। दोनों ही मार्ग एक ही मंजिल पर पहुंचाते हैं। लेकिन दोनों मार्गों के ढंग अलग, रंग अलग।
जो परमात्मा की खोज में सत्य की भाषा से सोचता है, उसकी खोज रूखी-सूखी होगी; वहां कोयल नहीं बोलेगी, मैना नहीं चहकेगी, वहां सावन नहीं आएगा, वहां फूल नहीं नाचेंगे, वहां मोर पंख नहीं फैलाएंगे, वहां इंद्रधनुष नहीं होंगे। वहां गीत नहीं होगा, क्योंकि वहां प्रीति नहीं होगी। सूखा-सूखा मरुस्थल जैसा होगा वह मार्ग। मरुस्थल का सन्नाटा होगा वहां। मरुस्थल का अपना सौंदर्य है, अपनी शांति, अपना मौन। लेकिन इस बगिया की चहचहाहट, ये पक्षियों के गीत, इन सबकी वहां भनक भी सुनाई नहीं पड़ेगी--न गुलाब खिलेंगे, न चंपा, न चमेली, न बेला, न कमल। वहां रंग नहीं होंगे। वहां रास नहीं होगा। वहां बांसुरी नहीं बजेगी। वहां सन्नाटा होगा।
जो परमात्मा को सत्य की भांति देखते हैं, उनका मार्ग ज्ञान का मार्ग है। जो परमात्मा को प्यारे की भांति देखते हैं, उनका मार्ग भक्ति का मार्ग है।
पलटू भक्ति के मार्गी हैं, इसलिए उनकी भाषा को समझने के लिए तुम्हें ध्यान रखना होगा। कहीं तुम उनके प्रेम को अपना प्रेम मत समझ लेना! तुम्हारा प्रेम तो क्षणभंगुर है, पानी का बबूला है! जैसा पलटू ने कहा: तुम्हारा प्रेम तो ऐसे है, जैसे बताशा कोई पानी में डाल दे। अभी है, अभी गया। हवा की एक लहर है, आयी और गई हो गई। तुम्हारा प्रेम टिकता नहीं है। तुम्हारा प्रेम सपने जैसा है।
पलटू जब प्रेम की बात करें तो याद रखना, वे किसी और प्रेम की बात कर रहे हैं। भाषा तो तुम्हारी ही बोलनी पड़ेगी, लेकिन उस भाषा में अर्थ तुम अपने मत डालना। वैसा करने से ही संतों से लोग चूक जाते हैं, कुछ का कुछ समझ लेते हैं।
जिस सावन की बात पलटू कर रहे हैं, वह तुम्हारा सावन नहीं है। वह सावन तो तब घटित होता है जब भीतर समाधि के मेघ घिरते हैं। जिस पपीहे की बात पलटू कर रहे हैं, वह तुम्हारा पपीहा नहीं है। जब तुम्हारे प्राण पी-कहां पी-कहां की पुकार से भर जाते हैं, उस पपीहे की बात पलटू कर रहे हैं।
पलटू का मार्ग हृदय का मार्ग है--प्रीति का, भक्ति का। स्वभावतः रससिक्त, आनंद-पगा! चल सको तो तुम्हारे पैरों में भी घूंघर बंध जाएं। समझ सको तो तुम्हारे ओंठों पर भी बांसुरी आ जाए। आंखें खोल कर हृदय को जगा कर पी सको पलटू को तो पहुंच गए मदिरालय में। फिर ऐसी छने, ऐसी छने, ऐसी बेहोशी आए कि होश भी न मिटे, होश भी प्रज्वलित हो उठे--और बेहोशी भी हो! ऐसी उलटबांसी हो। बेहोशी में सारा संसार डूब जाए और होश में भीतर परमात्मा जागे। बेहोशी में सब व्यर्थ बह जाए और होश में जो सार्थक है निखर आए।
इस बात को खयाल में रख कर पलटू के एक-एक शब्द को लेना। पलटू के लिए परमात्मा प्रीतम है। पलटू विरहिनी की भाषा बोलते हैं।
जेकरे अंगने नौरंगिया, सो कैसे सोवै हो।
जिसके आंगन में विरह-आसक्ति भर गई हो! आंगन यानी जिसके प्राणों में। हमारे प्राण छोटे-छोटे आंगन हैं। छोटे-छोटे आंगन में भी तो आकाश समाया होता है। वही आकाश, जो विराट है, आंगन के भीतर भी होता है, दीवाल के भीतर भी होता है। देह हमारी दीवाल है; देह के भीतर जो भरा आकाश है, वह हमारा आंगन है।
जेकरे अंगने नौरंगिया...
और जिसके भीतर परम प्यारे की याद भर गई हो; वह जो सभी रंगों का मालिक है, उसकी याद भर गई हो; जो सारे सौंदर्य का मालिक है, उसकी आसक्ति, उसकी चाहत पैदा हो गई हो--
सो कैसे सोवै हो।
वह सोना भी चाहे तो सो नहीं सकता।
यहां तुम भेद देखना। ज्ञानी को अपने को जगाने की कोशिश करनी पड़ती है। इसलिए ज्ञानियों की भाषा जागरण की भाषा है--जागो! ध्यान, स्मृति, जागरण--ये उनके शब्द हैं। सजग करो अपने को! सावधान होओ! सावचेत बनो! चैतन्य को उभारो!
बुद्ध कहते हैं: सम्मासति! सम्यक स्मृति को जगाओ! महावीर कहते हैं: विवेक को उकसाओ! कृष्णमूर्ति जागरण की बात करते हैं; गुरजिएफ आत्म-स्मृति की। सबका अर्थ एक है कि झकझोरो अपने को, झाड़ दो सारी धूल निद्रा की, सचेत हो जाओ!
भक्त की हालत बड़ी और है। भक्त सोना चाहे तो नहीं सो सकता। ज्ञानी जगा-जगा कर भी मुश्किल से जगा पाता है और भक्त तो जागा ही रहता है, नींद आती नहीं। क्योंकि विरह की अग्नि जलती है, तो नींद कैसे आए! उसकी याद छाती में चुभी है भाले की तरह, तो नींद कैसे आए! इसलिए भक्तों ने नहीं कहा है जागो। भक्तों ने तो कहा है कि थोड़ी देर तो विश्राम ले लेने दो! कभी तो आंख लग जाने दो! कभी तो क्षण भर सो लेने दो! भक्तों ने प्रार्थना उलटी की है।
ये मार्ग बड़े भिन्न हैं। ज्ञानी को सजग करना पड़ता है अपने को, क्योंकि ज्ञानी अकेला है। और भक्त सजग है, क्योंकि परमात्मा की याद उसे झकझोरे दे रही है। परमात्मा की याद उसमें एक तूफान की तरह उठती है। नींद कहां! नींद बचेगी कहां!
लहर-लहर बहु होय...
वह याद आती ही चली जाती है, लहरों पर लहरें! जैसे सागर की लहरें आती हैं और तटों से टकराती हैं और चट्टानों पर बिखर जाती हैं। और लहरों पर लहरें! सागर थकता नहीं। न मालूम कितनी सदियों से लहरें आती रहीं, आती रहीं, चट्टानें उन्हें बिखेरती रहीं और लहरें आती रहीं। सागर अधीर नहीं होता। काहे होत अधीर--पलटू कहते हैं। ऐसी ही लहरें--प्रीति की, रोमांच से भर जाने वाली लहरें, रोएं-रोएं को कंपा जाने वाली लहरें--भक्त के प्राणों में उठती रहती हैं; सोए तो कैसे सोए!
लहर-लहर बहु होय, सबद सुनि रोवै हो।
और जब कभी सत्संग मिल जाता है और जब कभी सदगुरु मिल जाता है, जब कभी ऐसे व्यक्ति के साथ बैठने का अवसर आ जाता है जिसने पिया है उस परमात्मा के घाट से, तो उसका शब्द सुन कर और क्या करोगे सिवाय रोने के! आंसू झर-झर झरते हैं, आंखें झपकें तो कैसे झपकें! आंखें रोती हैं। रोने में सब नींद बह जाती है। आंसुओं की बाढ़ आती है, सब नींद का कूड़ा-कबाड़ ले जाती है।
ज्ञानी को बड़ी चेष्टा करनी पड़ती है ध्यान साधने की; भक्त को सहज सध जाता है। इसलिए भक्ति सहजऱ्योग है। बस प्रीति उमग आए, प्रीति का बीज तुम्हारे हृदय में पड़ जाए, शेष सब अपने से हो जाता है। न सिर के बल खड़े होना है, न उपवास करके शरीर को गलाना है, न कांटों की सेज पर लेट जाना है। भक्त को तो तुम मखमल की सेज पर भी लिटा दो तो भी वह कांटों पर ही सोया है। वे जो लहरें चली आ रही हैं, वह जो याद टकराती है, वह जो सुरति उठ-उठ कर उठ आती है--कहां मखमल की सेज! कहां महल! उसे तो एक ही धुन लगी है। वह तो अपनी धुन में डूबा है। उसकी तो श्वास-श्वास परमात्मा के लिए पुकार रही है।
लहर-लहर बहु होय, सबद सुनि रोवै हो।
और जब भी कभी शब्द सुनने मिल जाता है...भक्त कहते हैं शब्द उस स्रोत से उठी हुई ध्वनि को, जिसने अनाहत को जाना हो। तुम जिस दिन जानोगे अनाहत को, तुम्हारे भीतर शब्द उठेगा। या जिन्होंने अनाहत को जाना है उनके पास बैठोगे तो उनके शब्द को सुन कर तुम्हारे भीतर प्रीति की लहरें, उमंगें उठेंगी।
जेकर पिय परदेस, नींद नहिं आवै हो।
और जिसका पिया परदेस में हो, बहुत दूर, जिसका पता-ठिकाना भी न मिलता हो, जिसे पाती भी लिखनी हो तो लिखने का उपाय न हो, जिसकी दिशा का पता नहीं, जिस तक पहुंचने वाले रास्ते का कुछ पता नहीं--जिसका पिया ऐसे परदेस में बसा हो!
जेकर पिय परदेस, नींद नहिं आवै हो।
वह चाहे भी तो कैसे नींद आए! नींद ला-ला कर नहीं आती। ज्ञानी को नींद तोड़नी पड़ती है, तोड़त्तोड़ कर नहीं टूटती है। भक्त ला-ला कर भी नींद नहीं ला पाता है।
इस रहस्य को ठीक से खयाल रखना। ज्ञानी को व्यर्थ ही लंबे मार्ग से यात्रा करनी पड़ती है। भक्त का मार्ग सुगम है, सरल है, नैसर्गिक है। प्रीति नैसर्गिक है। हम प्रेम को जानते तो हैं। माना हमारा प्रेम बड़ा कीचड़ भरा है; माना हमारा प्रेम फूल कम कांटे ज्यादा है; माना हमारा प्रेम सुबह कम रात का अंधेरा है। लेकिन रात के अंधेरे में सुबह छिपी है। और फूलों के बीच चाहे कितने ही कांटे हों, तो भी कांटों की सत्ता फूलों को नकार नहीं कर सकती। हजार कांटों में भी एक फूल खिला हो तो भी पर्याप्त है घोषणा के लिए कि परमात्मा है। और अंधेरी रात कितनी ही हो, अगर एक तारा भी उगा है तो पर्याप्त है, रोशनी का प्रमाण है। और अंधेरी रात जितनी अंधेरी होती है, सुबह उतने करीब आने लगती है।
हम प्रेम को जानते हैं--क्षणभंगुर प्रेम को जानते हैं। मगर जो क्षणभंगुर है वह भी तो शाश्वत का अंग है। क्षण भी तो शाश्वत का ही भाग है। हमने अंग को ही पूर्ण समझ लिया, यह हमारी भूल है। पर क्षण भी शाश्वत का ही कण है। भूल मिट जाएगी तो क्षण में भी शाश्वत का दर्शन होगा। बूंद में भी सागर दिखेगा। और एक फूल पर्याप्त है प्रमाण देने को कि परमात्मा है। और एक तारा काफी है ज्योति के होने के सबूत के लिए।
जेकर पिय परदेस, नींद नहिं आवै हो।
बस परदेस में बसे हुए प्यारे की स्मृति तुम्हें पकड़ ले। ज्ञानी कहता है: आत्म-स्मृति को जगाओ! भक्त कहता है: प्यारे की स्मृति को जगाओ! अपनी ही याद करनी बहुत कठिन है। परमात्मा की याद करनी सुगम है। क्योंकि पर की हमने सदा याद की है। पत्नी ने पति की याद की है, पति ने पत्नी की याद की है; मां ने बेटे की याद की है, बेटे ने मां की याद की है; मित्र ने मित्र की याद की है। हमने पर की याद की है। पर की याद के थोड़े से पाठ हमें मालूम हैं। माना कि हमारे पाठ वेद नहीं हैं, छोटे बच्चों की बारहखड़ी है, क ख ग है; मगर क ख ग से ही तो सारे वेद बन जाते हैं। इन्हीं वर्णाक्षरों से तो सारे वेद, सारे उपनिषद, सारे कुरान का जन्म हो जाता है। जिसे बारहखड़ी आ गई उसे सारे वेदों की कुंजी हाथ आ गई। माना कि हमारा प्रेम बड़ा छोटा है--छोटे आंगन जैसा। मगर छोटे आंगन से आकाश की तरफ द्वार खुलता है। इस छोटे प्रेम को बड़ा बनाया जा सकता है।
ध्यान का तो तुम्हें पता ही नहीं है, इसलिए ध्यान को जगाना दुस्तर है, दुरूह है, दुर्लभ है। प्रीति का, चलो ठीक-ठीक प्रीति का पता नहीं है, लेकिन प्रीति का पता तो है--गलत का ही सही। झूठा सिक्का ही हाथ में सही, मगर असली सिक्के की कुछ झलक तो उसमें होगी, तब तो वह झूठे सिक्के की तरह चलता है, नहीं तो चलेगा कैसे? उस पर छाप तो होगी, मुहर तो होगी। गलत ही सही, झूठा ही सही, मगर झूठ में भी सच की थोड़ी झलक होती है, नहीं तो झूठ चल ही नहीं सकता। झूठ को भी सच के पैर उधार लेने पड़ते हैं। झूठ को भी सच की बैसाखी पर चलना पड़ता है।
एक छोटे बच्चे से स्कूल में शिक्षक ने पूछा, तू इतनी देर से क्यों आया है?
तो उसने कहा, मैं गिर पड़ा और लग गई।
उसके शिक्षक ने कहा, अरे-अरे, मुझे माफ कर! मुझे क्या पता कि तू गिर पड़ा और लग गई। कहां लग गई? कहां गिर पड़ा?
उसने कहा, अब आप यह न पूछें तो अच्छा। बिस्तर पर गिर पड़ा और नींद लग गई!
तो शिक्षक ने उसे पास बुला कर एक चांटा रसीद किया। उसने कहा, क्यों मारते हैं आप?
उसने कहा कि बिना चांटा मारे तुझे होश न आएगा, तेरी नींद न टूटेगी। गिर पड़ा और लग गई, तो अब चांटा पड़ेगा तो खुलेगी।
ध्यान के लिए तो बहुत झकझोरना पड़ता है गुरु को, बहुत चोटें मारनी पड़ती हैं।
एक शराबी पच्चीस पैसे का टिकट अपने सिर पर लगाए है, माथे पर लगाए है और लेटर बॉक्स में सिर डालने की कोशिश कर रहा है। एक सिपाही खड़ा उसे थोड़ी देर से देख रहा था, फिर पास आया और कहा कि बड़े मियां, यह क्या कर रहे हो?
उसने कहा कि पत्नी मायके गई है और मैं भी उसे लेने जा रहा हूं। देखते नहीं, पता लिख दिया है पत्नी के मायके का और टिकट भी लगा दी है!
हवलदार ने एक डंडा उसकी खोपड़ी पर मारा। थोड़ा होश लौटा। उस आदमी ने कहा कि डंडा क्यों मारते हो?
उसने कहा, यह सील-मोहर लगा रहा हूं। बिना सील के लेटर-बॉक्स में कहीं जाएगा तो पहुंचेगा?
ध्यान के लिए तो बहुत डंडे खाने पड़ें, तो भी जग जाओ तो बहुत। क्योंकि ध्यान एक अर्थ में तुम्हारा बिलकुल भी परिचित नहीं है। गलत ध्यान से भी परिचय नहीं है, ठीक की तो बात दूर। ध्यान शब्द कोरा है। ध्यान शब्द से तुम्हें कुछ नहीं उठता। लेकिन कोई कहे प्रेम, प्रीति, तो तुम्हारे भीतर थोड़ी उमंग आती है, थोड़ी लहर आती है, थोड़ी सुगंध आती है। इसलिए भक्तों ने सुगम और सहज को चुना है।
जेकर पिय परदेस, नींद नहिं आवै हो।
आओ प्राणाधार
फूल खिले करने के प्रियतम कारी बदरी छाई
गुलशन में, आंगन में, बन में फैल गई कजराई
झूम-झूम कर डाली-डाली गाती है मल्हार
                              आओ प्राणाधार

हरे-हरे पेड़ों पर बैठे कव्वे करत कुलेलें
बादल सूरज की किरणों से मिल कर होली खेलें
ईश्वर जाने तुम क्यूं याद आते हो बारंबार
                              आओ प्राणाधार

थम गई बूंदा-बांदी, डाले इंद्रधनुष ने झूले
पात हुए आपे से बाहर फूल खुशी से फूले
साजन अपने मन पर मेरा रहा नहीं अधिकार
                              आओ प्राणाधार

नाच रही हैं मिल कर सखियां, गूंज उठा है बन
छूम छना न ना छूम छना न ना छूम छना न ना छन
माधुर और गंभीर है कितनी पायल की झंकार
                              आओ प्राणाधार

पुकारा है हम सबने--पर को। अलग-अलग रूपों में पुकारा है। मगर पुकारा है! दूसरे पर हमारी नजर सहज ही लगी है। इसलिए प्रार्थना आसान है, ध्यान कठिन है; क्योंकि प्रार्थना में पर का अंगीकार है। देखते हो तुम, पतंजलि ने ईश्वर को भी कहा कि आवश्यक नहीं है योगी के लिए मानना; सिर्फ एक आलंबन है और बहुत आलंबनों में! एक उपाय है। ईश्वर कोई लक्ष्य नहीं है। परम समाधि को पाने में जैसे और बहुत उपाय हैं, वैसा ही ईश्वर भी एक उपाय है। पतंजलि ईश्वरवादी नहीं हैं। योगी ईश्वरवादी हो ही नहीं सकता। लेकिन तरकीब से इनकार किया पतंजलि ने। सीधा-सीधा इनकार नहीं किया कि ईश्वर नहीं है। कह दिया कि ईश्वर भी एक आलंबन है, एक आधार है। इस आधार से भी कुछ लोगों ने समाधि पाई है। मगर लक्ष्य समाधि है। साधन मात्र ईश्वर। यह तो इनकार करने से भी बड़ा इनकार हो गया--ईश्वर को साधन बना देना!
महावीर ने तो साफ ही कह दिया कि कोई ईश्वर नहीं है। महावीर महायोगी हैं। ईश्वर को स्वीकार करने की कोई गुंजाइश नहीं है वहां। ध्यान पर्याप्त है। वस्तुतः ईश्वर को मानना, महावीर की दृष्टि में, ध्यान के लिए बाधा है। क्योंकि पर की मौजूदगी से मुक्त होना है। पर से मुक्त होना है तो परमात्मा से भी मुक्त होना होगा; परमात्मा भी पर है।
बुद्ध ने भी इनकार कर दिया ईश्वर से।
ये तीन ध्यान की परंपराएं भारत में पैदा हुईं--परम ध्यान की परंपराएं! तीनों ने ईश्वर को इनकार कर दिया। यह इनकार अकारण नहीं है। यह इनकार दार्शनिक भी नहीं है। यह इनकार मौलिक रूप से ध्यान की व्यवस्था का अनिवार्य अंग है। ध्यानी को अकेला होना है--इतना अकेला होना है कि वहां कोई परमात्मा भी न रह जाए; इतना अकेला होना है कि वहां प्रार्थना करने का भी उपाय न रह जाए। दूसरा ही न होगा तो प्रार्थना कैसे होगी! ध्यानी को शून्य होना है।
भक्त को शून्य नहीं होना है। भक्त को पूर्ण होना है। भक्त को अपने को परमात्मा से भर लेना है। भक्त को अपने द्वार-दरवाजे खोल देने हैं और निमंत्रण देना है--नेह निमंत्रण--कि तू आ! हे प्राणाधार, आ और मुझमें समा!
चौंकि-चौंकि उठै जागि, सेज नहिं भावै हो।
भक्त तो चौंक-चौंक कर उठ आता है। जैसे तुम किसी की प्रतीक्षा करते हो, प्रेयसी की, प्रेमी की, तो चौंक-चौंक पड़ते हो। दरवाजे पर हवा का झोंका आता है, खड़खड़ होती है--भागे, दरवाजा खोल कर देखते हो। रास्ते पर सूखे पत्ते खड़खड़ करते हवा में उड़ते हैं--भागे, दरवाजा खोलते हो। कोई रास्ते से गुजरता है--पोस्टमैन गुजरे, कि हवलदार गुजरे, कि दूधवाला गुजरे--कि तुमने दरवाजा खोला कि पता नहीं वही आ गया हो! कहीं ऐसा न हो कि दरवाजा बंद देख लौट जाए!
जीसस ने कहा है: अपना दरवाजा बंद ही मत करना, क्योंकि कौन जाने वह कब आए--किस घड़ी, किस महूरत! दरवाजा खुला ही रखना। द्वार पर बंदनवार सजाए ही रखना। पलक-पांवड़े बिछाए ही रखना। कब आ जाए, किस घड़ी में, कोई नहीं जानता। उसकी कोई भविष्यवाणी भी नहीं हो सकती।
तो कैसे सोए! भक्त नहीं सो पाता।
चौंकि-चौंकि उठै जागि, सेज नहिं भावै हो।
और बिना प्यारे को पाए सेज भाए तो कैसे भाए! सेज काटती है। उसके साथ तो सूली भी भली, उसके बिना सेज भी प्यारी नहीं लगती। और मीरा ने कहा है: सूली ऊपर सेज पिया की! सूली पर ही उसकी सेज है। मगर भक्त मिटने को राजी है। भक्त कहता है: मुझे मिटा दो, तुम ही रहो। ज्ञानी कहता है: सब मिट जाए, बस आत्मा बचे। भक्त कहता है: मैं मिट जाऊं, बस तुम बचो। दोनों पहुंच जाते हैं एक ही जगह। कारण समझ लेना।
ज्ञानी कहता है: मैं बचूं, तू छूट जाए। लेकिन जब सब तू से छुटकारा हो जाता है तो मैं अपने आप छूट जाता है, क्योंकि मैं बिना तू के नहीं बच सकता। मैं के लिए तू की रेखा चाहिए ही चाहिए। मैं में कोई अर्थ ही नहीं होता तू के बिना।
इसलिए बुद्ध की बात में बड़ा अर्थ है। उन्होंने परमात्मा को इनकार किया और फिर आत्मा को भी इनकार कर दिया। इस अर्थ में बुद्ध महावीर से ज्यादा तर्कयुक्त हैं, ज्यादा संगत हैं। क्योंकि महावीर ने परमात्मा को तो इनकार किया, आत्मा को इनकार नहीं किया। महावीर आधे गए, आधे रास्ते गए। कह दिया कि परमात्मा तो नहीं है, तू तो नहीं है; लेकिन यह न कह सके कि मैं नहीं हूं। बुद्ध ने तर्क को उसकी पूरी संगति तक पहुंचाया। जब परमात्मा ही नहीं तो आत्मा कैसे? शून्य बचा।
और यही घटना भक्त को भी घटती है। भक्त मैं को मिटाता है। जिस दिन मैं बिलकुल मिट जाता है उस दिन तू कहां? मैं के बिना कौन कहेगा तू? मैं का संदर्भ चाहिए ही चाहिए तू के अस्तित्व के लिए। मैं की पृष्ठभूमि में ही तू उभर कर प्रकट हो सकता है; नहीं तो तू भी नहीं बचेगा।
जैसे ही ज्ञानी तू को मिटा देता है, मैं मिट जाता है। भक्त मैं को मिटा देता है, तू मिट जाता है। और यह वह घड़ी है जहां दोनों का मिलन हो जाता है: जहां भक्त भक्त नहीं है, ज्ञानी ज्ञानी नहीं है। जहां केवल सत्य ही शेष रह गया। सत्य न तो मैं में है, न तू में। लेकिन सत्य तक पहुंचने के दो उपाय हैं: या तो मैं को मिटाओ, या तू को मिटाओ।
मैं को मिटाना सुगम भी है, खतरे से खाली भी है। तू को मिटाना कठिन भी है और खतरे से भरा हुआ भी है। एक तो पहले मिटाना बहुत मुश्किल तू को, क्योंकि हमारी पूरी जीवन-धारा तू की तरफ प्रवाहित होती है। बच्चा पैदा हुआ कि मां के स्तन खोजने लगता है--जीवन-धारा तू की तरफ बहने लगी। बच्चा पैदा हुआ कि मां से चिपटा; मां को छोड़ता ही नहीं, उसका दामन पकड़े रखता है। रात सोता भी है तो उसकी साड़ी हाथ में रखता है कि कहीं वह रात नींद में उसे छोड़ कर कहीं चली न जाए।
जीवन-धारा तू की तरफ उन्मुख है। यह सहज स्वाभाविक है। इसलिए तू को छोड़ना कठिन है। और अगर छोड़ भी पाओ तो एक बड़ा खतरा है: तू तो छूट जाए और मैं न मिटे। तो तू छूटा नहीं, सिर्फ दब गया, अचेतन में समा गया। और तब मैं बड़ा अहंकार की तरह प्रकट होगा।
इसलिए जो लोग तू को मिटाने चलते हैं वे अहंकार का खतरा मोल लेते हैं। उसका अंतिम परिणाम भयंकर भी हो सकता है। अहंकार इतना प्रगाढ़ हो सकता है कि सत्य के मार्ग में बाधा बन जाए, हिमालय की तरह खड़ा हो जाए।
भक्त का मार्ग सुगम भी है और खतरे से भी खाली है, क्योंकि मैं से ही मिटाना है। तो अहंकार का खतरा तो है ही नहीं।
इसलिए तुम जैन मुनि में जैसा अहंकार देखोगे वैसा सूफी फकीर में नहीं देखोगे। जैन मुनि तू को मिटाता है और तू के मिटाने में मैं मजबूत होने लगता है। डर यही है। अगर बहुत सावधानी न रही...अति सावधानी चाहिए, खड्ग की धार पर चलना है, जरा चूके कि खतरा है। इधर गिरे तो कुआं, उधर गिरे तो खाई।
जैन मुनि का अहंकार बहुत भयंकर हो जाता है। तुम जैन मुनि से नमस्कार करो तो वह हाथ जोड़ कर नमस्कार भी नहीं करता। नहीं कर सकता! वह सिर्फ आशीर्वाद ही दे सकता है। दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार करे--तुम्हें, श्रावक को, पापियों को? असंभव! उसे तुममें परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता, सिर्फ पापी दिखाई पड़ता है।
सूफी फकीर किसी के भी पैर छू लेता है। अरे पैर छूने में भी क्या कोई पात्रता और अपात्रता का हिसाब रखना होगा? किसी के भी पैर छू लेता है। राह चलते लोगों के पैर छू लेता है! सूफी फकीर भक्त है; वह मैं को मिटा रहा है।
जलालुद्दीन की प्रसिद्ध कहानी है। प्रेमी ने अपनी प्रेयसी के द्वार पर दस्तक दी। भीतर से आवाज आई, कौन? उसने कहा, क्या तू पहचानी नहीं--मेरी आवाज, मेरे पैरों की आवाज? मैं हूं तेरा प्रेमी! और भीतर से उत्तर मिला, यह घर प्रेम का बड़ा छोटा है। इसमें दो न समा सकेंगे। अभी जाओ, और पको, और तैयार होओ, फिर लौटना।
कबीर कहते हैं न: प्रेमगली अति सांकरी, तामें दो न समाय!
वैसे ही जलालुद्दीन की उस कहानी में उस कविता में प्रेयसी कहती है, यह प्रेम का घर बहुत छोटा है, इसमें दो नहीं समा सकते। अभी जाओ!
फिर वर्षों बाद प्रेमी लौटा, फिर द्वार पर दस्तक दी। वही सवाल--कौन? उसने कहा, अब मैं नहीं हूं। अब क्या उत्तर दूं? अब तो तू ही है! और द्वार खुल गए।
भक्त मैं को मिटाता है, द्वार खुल जाते हैं। क्योंकि मैं से बड़ी और कोई बाधा नहीं है। सच्चा ध्यानी भी तू को मिटाने के बाद मैं को मिटाने में लगता है। अगर मैं न मिटे तो चूक हो जाती है। लेकिन सच्चे ध्यानी बहुत कम--क्योंकि मार्ग कठिन, खतरों से भरा हुआ। ज्ञानियों की बजाय भक्तों ने ज्यादा निर्वाण को उपलब्ध किया है। ध्यान से कम, भजन से ज्यादा पहुंचे हैं लोग। ज्ञान से कम, प्रेम से ज्यादा पहुंचे हैं लोग।
रैन-दिवस मारै बान, पपीहा बोलै हो।
इधर पपीहा पुकारने लगता है: पी-कहां! और उधर भक्त के प्राणों में गूंज उठने लगती है: पी-कहां! भक्त को तो प्रत्येक चीज परमात्मा की याद दिलाती है।

पपीहा पिया बिना तड़पाए
रात कटे है रोते जागे
मुझ बिरहन की आंख न लागे
सपने नैनन से हैं भागे
कौन मुझे समझाए
पपीहा पिया बिना तड़पाए

बिजली चमके, रैन अंधेरी
मन की दुनिया दुख ने घेरी
मेरा गीत है, लय भी मेरी
दूर से कोई गाए
पपीहा पिया बिना तड़पाए

पिछले शिकवे धो देती हूं
प्रेम में होश भी खो देती हूं
हर इक बात पे रो देती हूं
आशा डूबी जाए
पपीहा पिया बिना तड़पाए

मेरा गीत है, लय भी मेरी
दूर से कोई गाए

पपीहा गाता है, लेकिन भक्त को लगता है--मेरी लय है, गीत भी मेरा है; दूर से यह कौन गाने लगा है? यह उसके प्राणों की पुकार है--पी-कहां!
परमात्मा कहां है? कहां खोजूं? किस दिशा में जाऊं? किन आकाशों में तलाशूं? किन पातालों में खोदूं? कहां है परमात्मा? वह कहां है जो मेरे प्राणों को तृप्ति दे, जो मेरे सूखे कंठ को गीला करे, जो मेरी भटकती हुई जीवन-धारा को सागर तक पहुंचा दे?
पिय-पिय लावै सोर, सवति होई डोलै हो।
बिरहिन रहै अकेल, सो कैसे कै जीवै हो।
ज्ञानी चेष्टा करता है--अकेला रहूं, कैसे अकेला रहूं? ज्ञानी एकांत खोजता है। और भक्त हैरान होता है कि भीड़ में भी अकेला है!
ये मजे की बातें खयाल में रखना। ये भेद तुम्हें साफ होने चाहिए। इससे चुनाव में आसानी होगी। ज्ञानी जंगल जाता है कि अकेले में जाना है। और भक्त कहता है, भीड़ में भी खड़ा हूं, बाजार में, तो भी अकेला हूं। क्योंकि परमात्मा जब तक नहीं मिला तब तक कैसे दुकेला? तब तक तो अकेला ही हूं! हां, भीड़-भाड़ है, ठीक है, बाजार चलता है, राह चलती है, सब ठीक है; मगर मैं तो अकेला हूं। उसके प्राण तो अटके हैं सदा परमात्मा में।

उड़ जा पी के देस रे पंछी, उड़ जा पी के देस

भूल गई हैं प्रेम की घातें
मीठे सपने मदभरी रातें
मन में डूबने वाली बातें
जग ने बदला भेस रे पंछी
उड़ जा पी के देस रे पंछी, उड़ जा पी के देस

मन मंदिर को छोड़ गए हैं
प्रेम के नाते तोड़ गए हैं
दुख से रिश्ते जोड़ गए हैं
जाय  बसे  परदेस  रे  पंछी
उड़ जा पी के देस रे पंछी, उड़ जा पी के देस

राग नहीं बरसात नहीं है
दिन वो नहीं वो रात नहीं है
पहली सी वो बात नहीं है
देस भी है परदेस रे पंछी
उड़ जा पी के देस रे पंछी, उड़ जा पी के देस

तुझ बिन प्रीतम चैन न आए
प्रेम का दीपक बुझता जाए
याद पिया की मन कलपाए
ले  जा  ये  संदेस  रे  पंछी
उड़ जा पी के देस रे पंछी, उड़ जा पी के देस

प्रतिपल एक ही तड़फ--कि कैसे पंख फैलाऊं! कैसे पिया के देश उड़ जाऊं! और हर चीज याद दिलाती है। जगत की हर चीज उसी की तरफ इंगित करती है, इशारा करती है।
बिरहिन रहै अकेल, सो कैसे कै जीवै हो।
जिसने विरह को जाना है परमात्मा के, जिसने उसे प्रेम से पुकारा है, वह तो अकेला ही है--भरे बाजार में अकेला है। उसे अकेलापन नहीं खोजना पड़ता।
जेकरे अमी कै चाह, जहर कस पीवै हो।
और जिसने परमात्मा को चाहा है, जिसने अमृत की चाह की है, संसार उससे अपने आप छूटने लगता है, उसे छोड़ना नहीं पड़ता। ज्ञानी को छोड़ना पड़ता है संसार, त्यागना पड़ता है संसार, चेष्टा करनी पड़ती है; भक्त से छूट जाता है, छोड़ना नहीं पड़ता। क्योंकि जिसे उस प्यारे की याद उठने लगी, इस संसार में कुछ भी उसे सार्थक नहीं मालूम होता। अमृत की जिसे याद आने लगी वह जहर पीएगा? जिस हंस को मानसरोवर की याद आ गई, फिर वह तुम्हारे गांव की तलैया में कीचड़ में बैठेगा? फैला देगा पंख, उड़ चलेगा मानसरोवर को! मोती चुगने वाला हंस कंकड़-पत्थर चुगेगा? हंसा तो मोती चुगै!
भक्त को परमात्मा की प्रीति जैसे-जैसे सघन होने लगती है, वैसे-वैसे स्वाद आने लगता है अमृत का। यह स्वाद कुछ ऐसा नहीं है जो बाहर से आता है। यह तुम्हारे ही प्राणों में ढलती है शराब। यह नशा तुम्हारे भीतर ही उमगता है। भक्त डोलने लगता है--मस्त हो डोलने लगता है। उसके आंसू बहुत जल्दी ही गीत बन जाते हैं। उसकी उदासी बहुत जल्दी संगीत बन जाती है। उसका विरह बहुत जल्दी मिलन के करीब आने लगता है। विरह की जितनी सघनता होती है, मिलन उतने शीघ्र घटित होता है। जिस क्षण विरह परिपूर्ण होता है, पूर्ण होता है, उसी क्षण मिलन घट जाता है।
जेकरे अमी कै चाह, जहर कस पीवै हो।
अभरन देहु बहाय, बसन धै फारौ हो।
त्यागी, ज्ञानी छोड़ता है, मगर छोड़ने में उसका अहंकार प्रबल होता है। वह हिसाब रखता है भीतर--कितने उपवास किए, कितना धन छोड़ा, कितना पद छोड़ा। वह उसकी बार-बार चर्चा करता है। वह उसे भूलता नहीं। वह धीरे-धीरे उसे बढ़ाने भी लगता है। वह धीरे-धीरे बहुत बड़ी-बड़ी बातें करने लगता है--मैंने इतना त्याग किया, महात्यागी हूं! लेकिन भक्त का त्याग बड़े और ढंग से घटता है; जैसा घटना चाहिए वैसा घटता है। उसके आभरण उतर जाते हैं, उसके आभूषण उतर जाते हैं, उसका शृंगार उतर जाता है। क्योंकि जब प्यारा परदेस में हो तो कैसा शृंगार! कैसे आभूषण!
अभरन देहु बहाय...
वह अपने आभूषण बहा देता है।
बसन धै फारौ हो।
अपने वस्त्रों को फाड़ डालता है। किसके लिए? हम वस्त्र अपने लिए तो नहीं पहनते, औरों के लिए पहनते हैं। और हम आभूषण भी अपने लिए तो नहीं पहनते, औरों के लिए पहनते हैं। प्यारा आता हो तो हम दुल्हन जैसे सजते हैं। लेकिन प्यारा दूर हो, उसकी खोज-खबर न मिलती हो, तो बिरहिन सज कर नहीं बैठती; उसके बाल बिखर जाते हैं, उसके बाल सूख जाते हैं। उसके आभरण कब छूट जाते हैं हाथ से, कब गिर जाते हैं, पता नहीं चलता। उसके वस्त्र कब फट गए, इसकी उसे याद भी नहीं रहती। यह सब सहज घटता है।
यही भक्ति का अदभुत रूप है कि ज्ञानी को जो चेष्टा कर-कर के करना पड़ता है, भक्त को अनायास हो जाता है। भक्त पर परमात्मा की अनुकंपा अपार है। ज्ञानी को अकेले करना पड़ता है; भक्त की सहायता परमात्मा करता है।

तोड़ दो मेरा जाम
कि अब मैं पी न सकूंगा
प्यास बुझी तो जी न सकूंगा
तोड़ दो मेरा जाम

प्यास मधुर सपनों का सागर
प्यास छलकते नयन की गागर
सपनों का अंजाम
कि अब मैं पी न सकूंगा
प्यास बुझी तो जी न सकूंगा
तोड़ दो मेरा जाम

प्यास मनोहर प्यार की रजनी
प्यास नशीले रूप की सजनी
लहराए हर गाम
कि अब मैं पी न सकूंगा
प्यास बुझी तो जी न सकूंगा
तोड़ दो मेरा जाम

दीपक, शीशे, फूल, सितारे
छोड़ के बढ़ चल कोई पुकारे
जीवन है संग्राम
कि अब मैं पी न सकूंगा
प्यास बुझी तो जी न सकूंगा
तोड़ दो मेरा जाम

प्यास रसीला स्वप्न मिलन का
मीत हमारे बालेपन का
पीत हुई बदनाम
कि अब मैं पी न सकूंगा
प्यास बुझी तो जी न सकूंगा
तोड़ दो मेरा जाम

प्यास जगत की रीत पुरानी
आशाओं की छांव सुहानी
कर लूं कुछ बिसराम
कि अब मैं पी न सकूंगा
प्यास बुझी तो जी न सकूंगा
तोड़ दो मेरा जाम

प्यास मेरी जानी-पहचानी
प्यास मेरे हृदय की रानी
प्यास मेरा इनआम
कि अब मैं पी न सकूंगा
प्यास बुझी तो जी न सकूंगा
तोड़ दो मेरा जाम

भक्त तो अपने जाम को तोड़ देता है। इस जगत का सब पीकर देख लिया और व्यर्थ पाया। सब पीया और प्यास बुझी नहीं। सब पीया और प्यास बढ़ती ही चली गई।
प्यास मेरी जानी-पहचानी
प्यास   मेरे   हृदय   की   रानी
अब तो वह परमात्मा की प्यास से भरा है। अब वह कहता है, इस जानी-पहचानी प्यास को परमात्मा की तरफ दौड़ाता हूं।
प्यास मेरी जानी-पहचानी
प्यास मेरे हृदय की रानी
प्यास मेरा इनआम
कि अब मैं पी न सकूंगा
प्यास बुझी तो जी न सकूंगा
तोड़ दो मेरा जाम
अब इस जगत में पीने योग्य कुछ भी नहीं है। इस जगत में वह अपने जाम को तोड़ देता है। इसलिए नहीं कि जगत पाप है। इसलिए नहीं कि जगत में जीना घृणित है, गर्हित है। वह जहर को इसलिए नहीं छोड़ता कि जहर है; वह जहर को इसलिए छोड़ता है कि अब उसके भीतर अमृत की चाहत जगी है। वह कांटों को इसलिए छोड़ देता है कि फूलों की आशा...फूल पास ही दिखाई पड़ने लगे, उसके हाथ फूलों की तरफ बढ़ने लगे, इसलिए कांटों से अपने आप छूट जाता है।
ज्ञानी कहता है: पहले त्याग, फिर परमात्मा मिलेगा, या ज्ञान मिलेगा, या सत्य मिलेगा, या जो भी नाम तुम पसंद करो, मोक्ष मिलेगा, निर्वाण मिलेगा। लेकिन पहले त्याग! त्याग से मिलेगा ज्ञान, त्याग से मिलेगा निर्वाण! और भक्त कहता है: निर्वाण का स्वाद आ जाए तो त्याग घटित हो जाता है। त्याग पहले नहीं। अमृत का स्वाद आ जाए तो जाम हाथ से गिर जाता है जहर का और टूट जाता है।
पिय बिन कौन सिंगार, सीस दै मारौ हो।
उस प्यारे के बिना क्या शृंगार करें! दीवालों से सिर फोड़ लेने का मन होता है।
भूख न लागै नींद, बिरह हिये करकै हो।
कैसी भूख! कैसी नींद! हृदय में एक कसक है, एक कड़क है। एक बिजली कौंध-कौंध जाती है। बिरह हिये करकै हो।
मांग सेंदुर मसि पोछ...
अब पोंछ डालो मांग का सिंदूर, पोंछ डालो आंखों का अंजन, काजल।
नैन जल ढरकै हो।
न पोंछोगे तो भी बह जाएगा। क्योंकि आंखों से जो वर्षा शुरू हुई है, वह जो परमात्मा के लिए आंसू झरने शुरू हुए हैं, यह जो सावन की झड़ी लगी है आंखों से--ऐसे भी काजल बह जाएगा, पोंछ ही डालो।
केकहैं करै सिंगार, सो काहि दिखावै हो।
अब किसके लिए शृंगार करना है? किसको दिखलाना है? देखने वाला दिखाई नहीं पड़ रहा है। जब तक वह द्रष्टा मौजूद न हो जाए, जब तक परमात्मा की आंख न पड़े, तब तक न कोई शृंगार है, न कोई भूख है, न कोई प्यास है।
जेकर पिय परदेस, सो काहि रिझावै हो।
रहै चरन चित लाई, सोई धन आगर हो।
व्यर्थ समय न गंवाओ शृंगार में। व्यर्थ समय न गंवाओ संसार को रिझाने में। सारे समय और सारी ऊर्जा को--जो समझदार है, जो चतुर है, बुद्धिमान है--वह एक काम में लगा देता है।
रहै चरन चित लाई, सोई धन आगर हो।
वही है धन्यभागी, वही है बुद्धिमान, जो परमात्मा के चरणों में सारे चित्त को लगा देता है; सब तरफ से बटोर लेता है अपनी ऊर्जा को और उस एक पर समर्पित कर देता है।
पलटूदास कै सबद, बिरह कै सागर हो।
पलटूदास कहते हैं, बुरा मत मानना। मेरे शब्द तुम्हारे भीतर आंसुओं को पैदा करेंगे। विरह का सागर उमगाएंगे। तुम्हारी छोटी सी गागर में विरह का सागर पैदा हो सकता है।
पलटूदास कहते हैं, मेरी बात का बुरा मत मानना। क्योंकि जो विरह में नहीं जला उसे मिलन का आनंद कभी उपलब्ध नहीं होगा। जिसने विरह का जहर नहीं पिया उसे मिलन का अमृत नहीं मिला।
विरह तैयारी है। विरह पात्रता है। और जब पात्र तैयार होगा, तो ही परमात्मा तुम में प्रवेश कर सकता है।
तुमने क्यों वह गीत सुनाया
जिसकी लय में सोए हुए थे मेरे मन के राग
तूफान उठे जीवन-सागर में, फैला दुख का झाग
दुख की लहरों ने उठ-उठ कर सुख और चैन बहाया
तुमने क्यों वह गीत सुनाया

सपने छोड़ गए नैनों को, छाया एक अंधेरा
एक भयानक चिंता ने है मेरे मन को घेरा
फूटे ऐसे भाग कि जिसने ऐसा दिन दिखलाया
तुमने क्यों वह गीत सुनाया

बादल के कोहरे से निकली चंदरमा की नैया
धीरे-धीरे चलती जाए कोई नहीं है खिवैया
तारों ने चमकीला सा आकाश पै जाल बिछाया
तुमने क्यों वह गीत सुनाया

तैर रही है शांति की लहरों पर जीवन की नैया
तुम ही थे पतवार पति और तुम ही नाव खिवैया
दुख की ऐसी चली हवाएं भंवर में आन फंसाया
तुमने क्यों वह गीत सुनाया

सुबह सवेरे पवन ने फूलों के तलवे सहलाए
जागे नींद के माते जब शबनम ने मुंह धुलाए
कली-कली को देकर छींटे ओस ने आन जगाया
तुमने क्यों वह गीत सुनाया

फूल खिले थे डाली-डाली सुंदर रंग-रंगीले
धानी, सुर्ख, गुलाबी, कारे, ऊदे, नीले, पीले
एक कंवल था आशा का, सो वो भी अब कुम्हलाया
तुमने क्यों वह गीत सुनाया

सुबह का तारा खुश्क सी टहनी के पीछे मुसकाए
करवट लेकर याद पिया की रह-रह कर तड़पाए
मन में दुख की बदली उट्ठी, नैनन मेंह बरसाया
तुमने क्यों वह गीत सुनाया
भक्तों को सुनोगे, उनके गीत को सुनोगे, तो पीड़ा जगेगी, विरह की अग्नि भभकेगी। भक्त तो अपने शब्द तुम्हारे भीतर ईंधन की तरह डालते हैं कि तुम्हारे भीतर एक आग भभक उठे--ऐसी आग, जो परमात्मा के सिवाय फिर कोई और न बुझा सकेगा।
गुरु जिस आग को लगाता है, परमात्मा उस आग को बुझाता है। सदगुरु वही है जो तुम्हारे भीतर आग लगा दे।
लेकिन तुम तो गुरुओं के नाम पर उनके पास जाते हो जो तुम्हें सांत्वना देते हैं, आग नहीं; संतोष देते हैं, सत्य नहीं; थपकियां देते हैं, लोरी सुनाते हैं। परदेस बसे पिया की याद नहीं दिलाते। संतों से तुम्हारी आशा यही होती है कि वहां जाएंगे तो थोड़ा संतोष, थोड़ी सांत्वना...
एक मित्र का बेटा गुजर गया। वे मेरे पास आए। और कहा कि संतोष के लिए आया हूं, सांत्वना के लिए आया हूं; बड़ा पीड़ित हूं, जवान बेटा चल बसा! मैंने कहा, फिर तुम गलत जगह आ गए। फिर तुम्हें कहीं और जाना था। बहुत साधु-संत हैं इस देश में, कोई कमी है! और मैं तो उन साधु-संतों की भीड़ से बिलकुल अलग खड़ा हूं।
कुंभ का मेला करीब था। मैंने कहा, तुम कुंभ के मेले चले जाओ। वहां जितनी सांत्वना, जितना संतोष चाहिए, देने वाले मिल जाएंगे--साधु-संत, पंडित-पुरोहित। मेरे पास आए हो तो मैं तो तुम्हें और आग दूंगा। मैं तो तुमसे यह कहूंगा कि बेटा तो चल बसा, जरा सोचो कि जब बेटा तक चल बसा तो बाप होकर तुम कितनी देर बचोगे?
वे तो एकदम नाराज हो गए, कि आप भी क्या बात करते हैं! मैं परिपूर्ण स्वस्थ हूं, सब तरह ठीक हूं। और ऐसी अपशगुन की बात करते हैं!
लोग यह सुनना नहीं चाहते कि तुम भी नहीं बचोगे। मैंने उनसे कहा, अब तुम चाहे सुनो चाहे न सुनो, मैंने तो कह दिया, कान में तुम्हारे पड़ भी गया, याद भी तुम्हें रहेगा, भूल भी न सकोगे। तुम बचोगे नहीं। कोई नहीं बचता! बेटा याद दिला गया है। इस अवसर पर तुम क्यों सांत्वना खोज रहे हो? परमात्मा को खोजो, सांत्वना को नहीं। उसको खोजो जो कभी नहीं मरता। अमृत को खोजो, मृत्यु याद दिला गई। बेटा मर गया। बेटा तुमसे ज्यादा स्वस्थ था या नहीं?
उन्होंने कहा, यह बात तो ठीक है।
कौन सी बीमारी थी बेटे को?
कोई बीमारी न थी; अचानक हृदय गति बंद हो जाने से मृत्यु हुई।
मैंने कहा, बेटा मर गया, केवल पैंतालीस साल का था; तुम पचहत्तर साल के हो, तुम अभी यह आशा बांधे बैठे हो कि जीओगे?
मगर लोग सांत्वनाएं चाहते हैं। वे एम पी थे, संसद के सदस्य थे--सबसे पुराने सदस्य थे। संसद के पिता कहे जाते थे, क्योंकि अंग्रेजों के जमाने से वे पार्लियामेंट के सदस्य थे। वे कोई पचास साल से पार्लियामेंट के सदस्य थे। पहले अंग्रेजों की पार्लियामेंट के सदस्य रहे, फिर कांग्रेस के सदस्य रहे; मगर सदस्य थे। इस पचास साल में एक बार भी वे हारे नहीं। बड़े धनी थे, सुविधा थी, सब व्यवस्था थी।
दिल्ली गए, वहां आचार्य तुलसी को मिले। आचार्य तुलसी ने आंख बंद की और कहा कि चिंता करने की कोई जरूरत नहीं, तुम्हारा बेटा सातवें स्वर्ग में देवता होकर पैदा हुआ है।
चित्त उनका बाग-बाग हो गया। इसको कहते हैं सांत्वना! इसको कहते हैं संतों का मिलना! मेरी उन्हें याद आई होगी कि एक मैं, कि बोला कि तुम भी न बचोगे। और यह है संत एक, कि जिसने फौरन आंख बंद की, सूक्ष्म लोक की यात्रा की, फौरन खबर लाया कि सातवें लोक...। वापस लौट कर जब आए तो मुझसे कहा कि इसको कहते हैं संतत्व! आचार्य तुलसी में मेरी बड़ी श्रद्धा जग गई है।
मैंने कहा, क्या हुआ?
उन्होंने कहा कि उन्होंने जल्दी से आंख बंद की, बड़ी अदभुत उनकी क्षमता है, एक क्षण नहीं लगा, एकदम सातवें स्वर्ग! लौट कर आए और बोले कि तुम्हें चिंता की कोई बात ही नहीं, तुम्हारा बेटा सातवें स्वर्ग में देवता हुआ है।
मैंने कहा कि अब मैं आपको एक और संत का नाम सुझाता हूं। मेरे एक परिचित फकीर थे, राम उनका नाम। मैंने कहा, आप इलाहाबाद कभी जाएं तो राम से मिल लेना। वे बहुत पहुंचे हुए फकीर हैं, तुलसी उनके मुकाबले कुछ भी नहीं। तुलसी तो केवल सातवें तक जाते हैं, वे सात सौ तक यात्रा करते हैं। तुलसी जी की यात्रा कोई बड़ी यात्रा नहीं है। सातवें स्वर्ग तक तो कोई भी चला जाता है; यह तो छोटे-मोटे संतों का काम है।
उन्होंने कहा, क्या सात सौ स्वर्ग होते हैं?
मैंने कहा, सात सौ स्वर्ग और सात सौ नरक। वे राम उस धंधे में बहुत कुशल हैं।
इस बीच राम मुझे मिल कर गए थे तो मैंने उन्हें समझा दिया था कि तुम क्या-क्या कहना। वे गए, राम से भी मिले। राम ने आंखें बंद कीं, डोले, हाथ-पैर हिलाए, उठ कर खड़े हो गए। प्रभावित हुए इससे कि तुलसी तो बस सिर्फ बैठ कर एक मिनट में आंख खोल दिए थे और यह आदमी जरूर कहीं जा रहा है! चक्कर मारा, खड़े हुए, आंख बंद की, खोली, ऊपर देखा, आकाश की तरफ देखा, पाताल की तरफ देखा। सब उनको मैंने कहा था कि यहऱ्यह करना तुम। फिर उन्होंने कहा कि क्षमा करिए, सत्य कहूं कि सांत्वना दूं?
अब जब कोई ऐसा पूछे कि सत्य कहूं कि सांत्वना दूं, तो किसकी हिम्मत जो कहे कि सांत्वना दो, सत्य न कहो! तो उन्होंने कहा, सत्य ही कहिए।
तो उन्होंने कहा कि तुम्हारा लड़का प्रेत हो गया है और तुम्हारे गांव से सात मील दूर फलां-फलां नाम के गांव में एक बगीचा है, उसमें पीपल के एक वृक्ष पर निवास कर रहा है।
वह उन्हीं का बगीचा था। मैंने सब उनको पता दे दिया था कि गांव का नाम, पीपल का वृक्ष...। वे तो बहुत घबड़ा गए।
लौट कर आए और मुझसे कहा, कहां भिजवा दिया! इस आदमी ने सब खराब कर दिया। और यह आदमी सच्चा भी मालूम पड़ता है, क्योंकि ठीक-ठीक सात मील ही दूर गांव है। और गांव का नाम और बगीचा और पीपल का झाड़! है वहां पीपल का झाड़--बड़ा पीपल का झाड़, बहुत प्राचीन! और उसी पर वह कहता है कि तुम्हारा लड़का भूत हो गया है। अब मैं कभी अपने उस गांव भी न जा सकूंगा डर के मारे। वह बगीचा बेचना है हमें। उसे निकाल ही देना ठीक है।
और वे इतने डरने लगे कि बेटा भूत हो गया। और सात मील कोई लंबा फासला है! भूतों के लिए क्या, एक सेकेंड में आ जाएं! मैंने उनसे कहा, आप जाओ या न जाओ, बेटा आ सकता है। आप रात ताला-कुंजी लगा कर ठीक से सोया करें, किसी दिन आकर ऊधम मचा दे, झंझट खड़ी कर दे!
पर उन्होंने कहा कि आपने भेजा क्यों इस आदमी के पास? मैं तो तुलसी जी से बिलकुल सहमत हो गया था।
मैंने उनसे कहा कि न तुलसी जी सही हैं, न वे राम सही हैं। राम ने जो भी कहा, वह मेरा सिखाया हुआ है। और तुलसी जी ने वही कहा जो आप सुनना चाहते थे; वह आपका सिखाया हुआ है। सीधी सी बात इतनी है कि मृत्यु अनिवार्य है। तुम्हें भी मरना होगा। तैयारी करो! बेटा तो गया, तुम तैयारी करो!
नहीं सुना। मेरे पास आना-जाना कम कर दिया। ऐसे आदमी के पास कोई जाता है जो बार-बार...! क्योंकि जब भी वे आते, मैं उनको याद दिलाता--तैयारी शुरू की या नहीं? क्या इरादे हैं, सदा रहोगे?
आखिर मर गए। मरते वक्त जो उनके पास थे, उन्होंने मुझे कहा कि आपकी मरते वक्त याद की और कहा, काश मैंने उनकी सुनी होती! लेकिन सुनना तो दूर, मैंने उनके पास भी जाना बंद कर दिया। काश मैंने उनकी सुनी होती तो आज शायद कुछ लेकर जाता! खाली हाथ जा रहा हूं।
लेकिन लोग सांत्वना चाहते हैं। इसलिए पलटूदास कहते हैं:
पलटूदास कै सबद, बिरह कै सागर हो।
याद रखना, नाराज न हो जाना। ये तो विरह के सागर हैं। लेकिन जो विरह के सागर में डुबकी लगाएगा, वह मिलन के सागर को उपलब्ध हो जाता है।
प्रेमबान जोगी मारल हो, कसकै हिया मोर।
पलटूदास कहते हैं, मैं भी तुम्हारे साथ वही करूंगा जो मेरे गुरु ने मेरे साथ किया।
प्रेमबान जोगी मारल हो, कसकै हिया मोर।
ऐसा कस कर तीर मारा है मेरे हृदय में मेरे गुरु ने कि आर-पार हो गया। वही मैं तुम्हारे साथ करूंगा।
प्रेमबान जोगी मारल हो, कसकै हिया मोर।
जोगिया कै लालि-लालि अंखियां हो, जस कंवल कै फूल।
जब मैंने अपने गुरु को देखा था और उनकी मदमस्त आंखें देखी थीं--लाल-लाल आंखें, जैसे कमल के फूल खिले हों--तभी से मैं उनका दीवाना हो गया। वह मस्ती! वह आंखों में छाई हुई शराब! वह किसी परलोक का नशा! वह खुमार! वह उनकी चाल! वह उनका उठना, वह उनका बैठना!
जोगिया कै लालि-लालि अंखियां हो...
उनकी आंखें लाल थीं। किसी रंग में डूबी थीं। जैसे सुबह का सूरज आंखों से निकल रहा हो, कि जैसे प्रभात प्राची पर फैली हो।
जस कंवल कै फूल।
जैसे कमल के लाल-लाल फूल, ऐसी उनकी आंखें!
गैरिक रंग चुना है संन्यास का इसीलिए। यह मस्ती का रंग है। यह वसंत का रंग है। यह मदमाते लोगों का रंग है। यह पियक्कड़ों का रंग है। यह शराब का भी रंग है। जिन्होंने पीया है, जिन्होंने परमात्मा को थोड़ा सा भी पीया है, वे कहीं पैर रखते हैं और कहीं उनके पैर पड़ते हैं!
प्रेमबान जोगी मारल हो, कसकै हिया मोर।
जोगिया कै लालि-लालि अंखियां हो, जस कंवल कै फूल।
हमरी सुरुख चुनरिया हो, दूनों भये तूल।।
और जो प्रेम-बाण मार दिया तो हमारी चुनरिया भी सुर्ख हो गई, खून से रंग गई, फव्वारा छूट उठा।
हमरी सुरुख चुनरिया हो, दूनों भये तूल।।
और जब गुरु की लाल आंखें, जैसे कमल के फूल खिले हों और हमारी लाल चुनरिया, दोनों मिल कर एक हो गए!
लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।
जोगिया कै लेउं मिर्गछलवा हो, आपन पट चीर।
दूनों कै सियब गुदरिया हो, होई जाब फकीर।।
और तब हम दोनों मिल कर एक हो गए, उनकी मृगछाला और अपने फटे हुए वस्त्र, दोनों को मिला कर हमने गुदड़िया बना ली। गुरु के साथ एकमएक हो गए। उनकी मृगछाला और अपने वस्त्र, दोनों को सीकर एक ही गुदड़िया बना ली।
जब तक शिष्य और गुरु एक ही न हो जाएं, फासला ही न बचे, दूरी ही न बचे, भेद ही न बचे, संदेह-शंकाएं, तर्क-वितर्क, विवाद बहुत पीछे छूट जाएं--तभी वह परम अनुभूति घटित होती है, तभी वे द्वार रहस्यों के खुलते हैं!
गगना में सिंगिया बजाइन्हि हो, ताकिन्हि मोरी ओर।
और जब ऐसी एकता घटी, तब गुरु ने गगन में चढ़ कर नाद किया।
गगना में सिंगिया बजाइन्हि हो, ताकिन्हि मोरी ओर।
और आकाश से मेरी तरफ देखा! सारा आकाश जैसे मुझे देखने लगा! जैसे सारा आकाश मेरा गुरु हो गया! जैसे सारे आकाश के तारे मेरे गुरु की आंखें हो गए! और आकाश में जो अनाहत का नाद है, वह मुझ पर बरसने लगा।
गगना में सिंगिया बजाइन्हि हो, ताकिन्हि मोरी ओर।
और तब पहली दफे मैंने देखा कि जिसमें मैं डूब गया हूं वह मेरा गुरु ही नहीं है, वह परमात्मा भी है।
अकारण नहीं है कि शिष्यों ने अपने गुरु को परमात्मा कहा है। अकारण नहीं है कि कबीर ने कहा: गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागूं पांव; बलिहारी गुरु आपनी, गोविंद दियो बताय। गुरु इशारा है सिर्फ, एक द्वार, जिससे पार होकर परमात्मा मिलता है।

चंचल बादल झूम के छाए, गाए मन मतवाला
पल-पल आंचल उड़े हवा में, छलके रूप का प्याला

मीठे-मीठे गीत सुनाए ये नदिया का शोर
उड़ता बादल देख-देख के नाच उठा मन मोर
सावन की अलबेली रुत ने कैसा रंग निकाला
चंचल बादल झूम के छाए, गाए मन मतवाला

यूं मेरी मखमूर जवानी हवा में तीर चलाए
जैसे इक अनदेखा सपना आंखों में लहराए
बिना मीत के प्रीत निभाऊं, मेरा प्यार निराला
चंचल बादल झूम के छाए, गाए मन मतवाला

इक अनदेखे प्यार को मेरा प्यार भरा दिल तरसे
छाई है घनघोर घटा पर क्या जाने कब बरसे
सोच रही हूं किसे बनाऊं जीवन का रखवाला
चंचल बादल झूम के छाए, गाए मन मतवाला

जल्दी ही रोना गाने में बदल जाता है। जल्दी ही विरह की अग्नि से ही मिलन के कमल खिल उठते हैं। लेकिन तैयारी चाहिए--डूबने की तैयारी! गुरु की मस्ती में मस्त हो जाने की तैयारी!
गगना में सिंगिया बजाइन्हि हो, ताकिन्हि मोरी ओर।
चितवन में मन हर लियो हो, जोगिया बड़ चोर।।
और वे जो आंखें आकाश से मेरी तरफ झांकीं, मेरा हर लिया मन। जोगिया बड़ चोर! गुरु बड़ा चोर निकला।
हम तो भगवान को भी चोर कहते हैं। हरि का अर्थ होता है: चोर, हर लेने वाला। दुनिया की किसी भाषा में भगवान के लिए ऐसा प्यारा शब्द नहीं है, जैसा हमारी भाषा में--हरि। हरि का कोई मुकाबला ही नहीं है। अच्छे-अच्छे शब्द हैं। मुसलमानों के पास सौ शब्द हैं, अच्छे-अच्छे शब्द हैं--करुणावान, दयावान, रहीम, रहमान, न्यायकर्ता। बड़े अच्छे-अच्छे शब्द हैं। मगर हरि के मुकाबले एक भी नहीं, सौ ही शब्द फीके पड़ जाते हैं। चोर!
यह प्रेम की भाषा हुई। वह ज्ञान की भाषा है--न्यायकर्ता, करुणावान, दयावान इत्यादि, इत्यादि। वह भाषा बुद्धि की। जितनी अच्छी-अच्छी बातें हैं सब परमात्मा को बता दीं। लेकिन प्रेमी एक बात जानता है कि वह हमारे हृदय को चुरा लेता है। इससे बड़ा उसका और कोई गुण नहीं है। और सब गुण पीछे आते हैं। पहले तो यह घटना घटती है कि वह हमारे हृदय को चुरा लेता है। पूछता भी नहीं और चुरा लेता है। आज्ञा भी नहीं लेता और चुरा लेता है। हमें पता ही नहीं चलता कि कब चोरी हो गई! जेब कट जाती है, तब पता चलता है। बड़ा कुशल चोर है!
और गुरु तो केवल उसका प्रतिनिधि है। तो गुरु की भी कला चुराना है, चोरी है।
गंग-जमुन के बिचवां हो, बहै झिरहिर नीर।
तेहिं ठैयां जोरल सनेहिया हो, हरि ले गयो पीर।।
"गंग-जमुन के बिचवां हो, बहै झिरहिर नीर।' इस प्रतीक को समझना। प्रयाग को हम महातीर्थ कहते हैं। यह भौतिक प्रयाग से प्रयोजन नहीं है। भौतिक प्रयाग तो केवल प्रतीक है--एक आध्यात्मिक बात को प्रकट करने का उपाय है। कहते हैं प्रयाग में तीन नदियों का मिलन हो रहा है--गंगा, यमुना और सरस्वती। गंगा और यमुना दिखाई पड़ती हैं, सरस्वती दिखाई नहीं पड़ती। सरस्वती अदृश्य है। ऐसी ही दशा प्रत्येक व्यक्ति की है। प्रत्येक व्यक्ति प्रयागराज है, उसमें भी तीन धाराओं का मिलन हो रहा है। देह दिखाई पड़ती है, मन भी दिखाई पड़ता है--ये गंगाऱ्यमुना। और इन दोनों के बीच में झर-झर नीर बह रहा है चैतन्य का, वह दिखाई नहीं पड़ता; उस चैतन्य का नाम ही सरस्वती है। इसलिए सरस्वती को हमने ज्ञान की देवी कहा है--प्रज्ञा की देवी।
गुरु ने पहचान करवा दी। गंगाऱ्यमुना को अलग छांट कर बता दिया और दोनों के बीच में छिपी हुई अदृश्य चेतना की धार--साक्षी से मिलन करवा दिया।
गंग-जमुन के बिचवां हो, बहै झिरहिर नीर।
तेहिं ठैयां जोरल सनेहिया हो, हरि ले गयो पीर।।
गुरु ने उसी ठांव से हमें जुड़ा दिया, उसी मंजिल पर पहुंचा दिया--उस अदृश्य, अगोचर, अनिर्वचनीय! उसको ठैयां कहा है, ठांव कहा है। तेहिं ठैयां जोरल सनेहिया हो! और कला यह है गुरु की कि प्रेम के माध्यम से उस ठांव तक पहुंचा दिया; उस अदृश्य से, अनिर्वचनीय से मिलन करवा दिया। वह भी प्रीति से, प्रेम से!
तेहिं ठैयां जोरल सनेहिया हो, हरि ले गयो पीर।
और हमारे हृदय को ही नहीं चुरा कर ले गया, उसी चोरी के साथ एक चोरी और भी हो गई: हमारी सारी पीर, हमारी सारी पीड़ा भी चुरा कर ले गया। पीछे रह गया सिर्फ आनंद का एक सागर।
जोगिया अमर मरै नहिं हो, पुजवल मोरी आस।
और जिसने भी इस योग को जान लिया, इस मिलन को जान लिया--योग का अर्थ होता है: मिलन--जिसने भी स्वयं के और परमात्मा के मिलन को जान लिया, उसकी फिर कोई मृत्यु नहीं है; वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है।
जोगिया अमर मरै नहिं हो, पुजवल मोरी आस।
करम लिखा बर पावल हो, गावै पलटूदास।।
पलटूदास कहते हैं, घबराना मत। रास्ता अंधेरा हो, चिंता न लेना; कंटकाकीर्ण हो, लौट मत जाना; विरह की अग्नि सताए, घबरा मत जाना। यह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है परमात्मा से मिलना। यह तुम्हारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है।
करम लिखा बर पावल हो...
वह प्यारा मिलेगा, यह तुम्हारी किस्मत में लिखा है। देर-अबेर तुम चाहे कितनी ही करो, वह प्यारा मिलेगा। यह तुम्हारा अधिकार है।
करम लिखा बर पावल हो...
यह विवाह होगा। हां, तुम चाहो तो स्थगित कर सकते हो--बहुत दिनों तक, जन्मों-जन्मों तक। वह तुम्हारी स्वतंत्रता है। लेकिन एक दिन यह विवाह होगा। फिर क्यों देरी करते हो? विवाह होने दो! यह रास रचने दो! यह प्रीति जगने दो! इस प्रीति के जगने के बाद, इस मिलन के होने के बाद, तुम पहली दफे जानोगे जीवन का अर्थ; पहली दफे जानोगे जीवन की महिमा; पहली दफे जानोगे जीवन का काव्य, संगीत, जीवन का महोत्सव!
ओ तंबूर बजाते राही, गाते राही
जाते  राही
साजन-देश को जाना

मंडली-मंडली     चौखट-चौखट
झा झिन झा झिन डिग तट डिग तट
मन की तान उड़ाना
लेकिन  मेरे  दुखों  के  साझी  मेरे  दर्द    गाना
ओ तंबूर बजाते राही, गाते राही
जाते  राही
साजन-देश को जाना

सोच भरे मुख जहर पिए मन
उनकी  आस  बंधाना
झनन झनन झन झनन झनन झन
गीत  मिलन  के  गाना
गली-गली में सावन रुत की मस्त पवन बन जाना
ओ तंबूर बजाते राही, गाते राही
जाते  राही
साजन-देश को जाना

जीवन का एक ही लक्ष्य हो: साजन-देश को जाना!
ओ तंबूर बजाते राही, गाते राही
जाते  राही
साजन-देश को जाना
और कोई चीज इस परम लक्ष्य में बाधा न बने--धन, पद, प्रतिष्ठा। और कोई चीज इस परम लक्ष्य में बाधा न बने--परिवार, प्रियजन, मित्र। और कोई चीज इस परम लक्ष्य में बाधा न बने, इसका स्मरण रखना।
हजार बाधाएं हैं, हजार प्रलोभन हैं। तुम्हारी अवस्था ऐसी है जैसे छोटे से बच्चे की मेले में हो जाती है, जहां खिलौनों ही खिलौनों की दुकानें लगी हैं। इस दुकान की तरफ खिंचता है कि यह खिलौना खरीद लूं, उस दुकान की तरफ खिंचता है कि वह खिलौना खरीद लूं। सारे खिलौने खरीद लेना चाहता है। ऐसी तुम्हारी दशा है।
संसार मेला है, दुकानों पर खिलौने ही खिलौने टंगे हैं--तरहत्तरह के, रंग-बिरंगे खिलौने हैं, मन-भावक खिलौने हैं। मगर सब खिलौने हैं। कितने ही खिलौने खरीद लो, सब टूट जाएंगे, सब यहीं पड़े रह जाएंगे। और तुम्हें खाली हाथ जाना होगा।
और खाली हाथ नहीं जाना है, कस्द करो! संकल्प लो, खाली हाथ नहीं जाना है!

ओ तंबूर बजाते राही, गाते राही
जाते  राही
साजन-देश को जाना

मंडली-मंडली     चौखट-चौखट
झा झिन झा झिन डिग तट डिग तट
मन की तान उड़ाना
लेकिन  मेरे  दुखों  के  साझी  मेरे  दर्द    गाना
ओ तंबूर बजाते राही, गाते राही
जाते  राही
साजन-देश को जाना

सोच भरे मुख जहर पिए मन
उनकी  आस  बंधाना
झनन झनन झन झनन झनन झन
गीत  मिलन  के  गाना
गली-गली में सावन रुत की मस्त पवन बन जाना
ओ तंबूर बजाते राही, गाते राही
जाते  राही
साजन-देश को जाना

आज इतना ही।


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