दिनांक
10 दिसंबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार
:
1—आपकी
हत्या की
धमकियां दी जा
रही हैं । यह
मुझसे न सुना
जाता है और न
सहा जाता है।
2—मेरे
महबूब तुझे
मेरी मुहब्बत
की कसम
ऐ
मेरे ख्वाब की
ताबीर मेरी
जाने-गज़ल
जिन्दगी
मेरी तुझे याद
किये जाती है।
3—आपने
कहा कि सदगुरु
शिष्य को
संपूर्ण
स्वतंत्रता
देता है। इसका
तो अर्थ हुआ
कि वह शिष्य की
जरा भी चिंता
नहीं करता!
4—अपनी
समझ से मैं
संन्यास
ग्रहण करने की
तैयारी करके
आया था। यहां
आकर पत्नी ने
कड़ा विरोध खड़ा
किया। इसलिये
मैं तत्काल
टाल गया। अब लगता
है कि मैं ही
इसमें सहयोगी
हुआ। प्रवेग क्षीण
पड़ गया। शायद
इतना उत्साह न
जुटा पाया कि
मैं डूब सकता।
दुखी हूं।
समाधान देने
की अनुकंपा
हो!
5—इस
जगत में
सर्वाधिक
आश्चर्यजनक
नियम कौन-सा
है?
6—श्री
मोरारजी
देसाई
राष्ट्र-हित
में यह करूंगा, वह करूंगा
ऐसी बातें तो
बहुत करते हैं,
फिर कुछ
करते क्यों
नहीं?
7—आपका
संदेश?
पहला
प्रश्न :
ओशो, आपकी हत्या
की धमकियां दी
जा रही हैं।
यह मुझ से न
सुना जाता है,
और न सहा
जाता है।
आनंद
भारती, मृत्यु
होती कहां है?
धमकियां
व्यर्थ हैं। न
कोई कभी मरा
है, न कोई
कभी मर सकता है।
जो सोचते हैं
कि मार सकेंगे,
भ्रांति
में हैं ; जो
सोचते हैं कि
मर जायेंगे, वे भी
भ्रांति में
हैं। मृत्यु
इस जगत में
सबसे बड़ा झूठ
है। न हन्यते
हन्यमाने
शरीरे।
शरीर
के विदा हो
जाने से
मृत्यु घटित
नहीं होती। न
तो जीसस मरे
सूली पर, न
सुकरात मरा
जहर देने से।
साधारणतः भी
जो मरते हैं
वे भी मरते
नहीं। इसलिये
न तो चिंता की
कोई बात है, न पीड़ा की
कोई बात है।
धमकियां
स्वाभाविक
हैं, धमकियां
दी ही जानी
चाहिये। मेरे
जैसे व्यक्ति
को हत्या की
धमकियां न दी
जायें, वही
आश्चर्यजनक
होगा। यह तो
बिलकुल
तर्कसंगत है,
इसकी जरा भी
चिंता न लेना;
चिंता लेना
अज्ञान होगा।
कौन
कहता है कि
मौत आयी तो मर
जाऊंगा
मैं
तो दरिया हूं, समंदर में
उतर जाऊंगा
तेरा
दर छोड़ के, मैं और किधर
जाऊंगा
घर
में घिर
जाऊंगा, सहरा
में बिखर
जाऊंगा
तेरे
पहलू से जो
उठूंगा तो
मुश्किल यह है
कि
सिर्फ इक शख्स? को पाऊंगा
जिधर जाऊंगा
अब
तेरे शहर में
आऊंगा
मुसाफिर की
तरह
साय-ए
अब्र की
मानिंद गुजर
जाऊंगा
चारासाजी
से अलग है
मिरा मियार कि
मैं
जख्म
खाऊंगा तो कुछ
और संवर
जाऊंगा
तेरा
पैमाने वफा, राह की
दीवार बना
वरना
सोचा था कि जब
चाहूंगा मर
जाऊंगा
अब
तो खुर्शीद को
डूबे हुए
सदियां
गुजरीं
अब
उसे ढूंढ़ने
मैं ताबे सहर
जाऊंगा
जिंदगी
शम्अ की
मानिंद जलाता
हूं "नदीम'
बुझ
तो जाऊंगा मगर
सुबह तो कर
जाऊंगा
दीया
बुझता है, लेकिन सुबह
कर जाता है।
और...
चारासाज़ी
से अलग है
मिरा मियार कि
मैं
जख्म
खाऊंगा तो कुछ
और संवर
जाऊंगा
मैं
जो कह रहा हूं
वह और संवर
जायेगा। मैं
जो कह रहा हूं
वह पत्थर की
लकीर हो
जायेगा। मुझे
मारने वाले
मुझे सदा के
लिये
मनुष्य-जाति
के चित्त पर
अमर कर जायेंगे।
उनकी चिंता न
लो, वे भी
मेरे ही काम
में लगे हैं।
मित्र ही काम
में नहीं
शत्रु भी काम
में लगे हैं।
काम बड़ा है, इसमें दोनों
की जरूरत है।
काम इतना
विराट है कि
यह मित्रों के
ही भरोसे न हो
सकेगा, इसमें
शत्रुओं का भी
सहयोग चाहिये,
चाहिये ही
चाहिये।
पर
मैं तुम्हारी
तकलीफ समझता
हूं। लेकिन
तुम्हारी
तकलीफ को बहुत
बोझिल मत बना
लेना। तुम्हारे
प्रेम को
समझता हूं।
लेकिन
तुम्हारा प्रेम
इतना बड़ा होना
चाहिये कि
मृत्यु के पार
अमृत को देखने
में समर्थ हो
सके, तो ही
तुमने मुझे
प्रेम किया।
अगर मेरी देह
के रहने से ही
तुम्हारा
प्रेम रहा तो
कोई मुझे न भी
मारे तो भी यह
देह एक दिन
छूट जायेगी।
देर-अबेर की
बात है, आज
मरे कोई कि कल
मरे कोई। देह
तो छूटेगी।
देह तो छूटनी
ही है। तो फिर
तकलीफ होगी।
वही पीड़ा
होगी। इसके
पहले कि देह
छूटे, देह
के पार देखो।
इसके पहले कि
दीया बुझे, सुबह की
तलाश करो ।
जिंदगी
शम्अ की
मानिंद जलाता
हूं "नदीम'
बुझ
तो जाऊंगा मगर
सुबह तो कर
जाऊंगा
मैं
जब अभी यहां
हूं तो मेरी
देह से ही मत
बंध जाओ, मेरे
शब्दों में मत
अटक जाओ। मेरे
पार देखो। मेरा
इशारा मुझसे
पार की तरफ
है। मैं तो
सिर्फ एक
इशारा हूं--एक
अंगुली--जो
आकाश में उगे
चांद को दिखा
रही है।
अंगुली का
क्या, रही
कि न रही! तुम
चांद देख लो, अंगुली का
काम पूरा हो
गया ।
मैं
तुम्हें परमात्मा
की याद दिला
जाऊं, बस
इतना
पर्याप्त है।
और अगर कोई
धमकियां दे रहा
है मुझे मारने
की, तो तुम
जल्दी करो।
समय मत गंवाओ।
तुम देरी मत करो। तुम
आहिस्ता-आहिस्ता
न चलो, त्वरा
पकड़ो, गति
पकड़ो। भभककर
जलो, कि
इसके पहले कि
दीया बुझे, प्रभात हो
जाये; इसके
पहले कि देह
छूटे, देह
के पार का
दर्शन हो
जाये।
और किसी
चिंता में समय
व्यर्थ करना
उचित नहीं है।
समय थोड़ा है।
समय सदा थोड़ा
है। होशियारी
से, सावधानी
से उसका उपयोग
कर लेना
चाहिये। और एक
ही उपायोग है
जीवन का, जीवन
के समय का कि
हम परमात्मा
को जानने में
समर्थ हो जायें;
उसे जानने
में समर्थ हो
जायें जो अमृत
है।
दूसरा
प्रश्न :
मेरे
महबूब तुझे
मेरी मुहब्बत
की कसम
ऐ
मेरे ख्वाब की
ताबीर मेरी
जाने गज़ल
जिन्दगी
मेरी तुझे याद
किये जाती है।
रात
दिन मुझ को
सताता है
तसव्वुर तेरा
दिल
की धड़कन तुझे
आवाज दिये
जाती है।
ओ
मेरे, नरगिसी
आंखों का
सहारा दे दो।
देव
वीणा, ऐसे
ही मांगो। ऐसे
ही उसके द्वार
पर खटखटाओ। यही
पूजा है, यही
प्रार्थना
है। और उसका
सहारा तो मिला
ही हुआ है।
सिर्फ
पहचानने की
देर है। उसके
हाथों ने ही
तो तुम्हें
सम्हाला है।
उसकी आंखों ने
ही तो
तुम्हारी
आंखों से देखा
है। वही तो
धड़कता है
तुम्हारे
हृदय में। पर
अभी पहचान
नहीं है। पहचान
भी हो जायेगी।
परमात्मा
को पाना नहीं
है, सिर्फ
पहचानना है।
परमात्मा को
हमने पाया ही
हुआ है, इसलिये
उसे दूर तलाश
करने मत जाना।
उसे खोजना अपने
ही भीतर। अपने
ही हृदय को
खटखटाना है।
अपने ही भीतर
के द्वार
तोड़ने हैं।
पुकारो, जरूर
पुकारो--
मेरे
महबूब तुझे
मेरी मुहब्बत
की कसम
ऐ
मेरे ख्वाब की
ताबीर मेरी
जाने गज़ल
जिन्दगी
मेरी तुझे याद
किये जाती है।
रात
दिन मुझ को
सताता है
तसव्वुर तेरा
दिल
की धड़कन तुझे
आवाज़ दिये
जाती है।
पुकारो।
इतना पुकारो
कि पुकारने
वाला पुकार
में लीन हो
जाये। बस उसी
घड़ी मिलन हो
जाता है। ऐसे
नाचो कि नाचने
वाला नाच में खो
जाये। बस उसी
घड़ी मिलन हो
जाता है। जब
भी कोई कृत्य
तुम्हारे
कर्ता को अपने
में डुबा लेता
है, बस
प्रार्थना की
घड़ी आ गई, प्रार्थना
की पूर्णता आ
गई। नहीं किसी
यम-नियम की
जरूरत है, न
तपऱ्योग
की--सहजता की।
या चाहो तो
कहो--सहजऱ्योग
की।
इधर
बहुत दिनों से
हम सरहपा और
तिलोपा की ही
बात कर रहे
हैं--सहजऱ्योग
की। सहजऱ्योग
का अर्थ है :
मिला ही हुआ
है, जरा आंख
अपनी भीतर
लगानी है।
दीया लेकर हम
बाहर खोज रहे
हैं। जरा दीये
को भीतर लाना
है। और
प्रार्थना
जितनी सरलता
से दीये को
भीतर ले आती
है कोई और
तत्व नहीं ला
पाता, क्योंकि
प्रार्थना
तुम्हारे
प्रेम का ही
संघीभूत रूप
है, तुम्हारे
प्रेम की ही
सघनता है। और
प्रेम स्वाभाविक
है, प्रत्येक
को मिला है।
तुम्हें
पता है कि
हीरा कैसे
बनता है? हीरा
कोयले से बनता
है। कोयला ही
हजारों-हजारों
साल पहाड़ों के
नीचे दबा-दबा
हीरा बन जाता
है। कोयले और
हीरे में कोई
रासायनिक भेद
नहीं है। ऐसा
ही प्रेम सघन
होतेऱ्होते
सघन
होतेऱ्होते प्रार्थना
बन जाता है।
चाहे अभी
तुम्हारा प्रेम
कोयले जैसा हो,
घबड़ाना मत;
यही कोयला
हीरा हो
जायेगा।
कोयले से हीरे
की यात्रा, यही तो सारे
मनुष्य-जीवन
की कथा है।
क्या
जानूं
यम-नियम-उपनियम, सनम, तुम्हारी
गलियों के?
यों
ही उलझ गयी
फन्दे में मैं
तो तुम-से
छलियों के
मैं
ग़रीबिनी क्या
जानूं तव पूजन
की विधियां सारी?
मैं
क्या जानूं
क्या होती हैं
योग-नियम-विधियां
सारी?
आंख
लगी, अरमान
जगे, अब
कहते हो कि
नियम पालो।
अब
तो आन पड़ी हूं
दर पे जैसे जी
चाहो टालो।
छोड़ो
फिकिर और सब।
देव
वीणा, तेरी
आंखों में
देखकर मुझे जो
प्रतीति हुई
वह यही है:
प्रार्थना
तेरे लिये
सूत्र है।
पुकार तेरे
लिये मार्ग
है। मगर पुकार
ऐसी हो कि फिर
पुकारने वाला
न बचे। पुकार
ही पुकार हो
जाये। बाढ़
आये।
बूंदा-बांदी
से नहीं होगा,
मूसलाधार
वर्षा हो। और
यह तेरी
क्षमता है। यह
हो सकता है। न
हुआ तो तेरे
अतिरिक्त और
कोई जुम्मेवार
न होगा।
परमात्मा
न मिले तो
सिर्फ अपने को
ही दोषी ठहराना।
परमात्मा की तरफ
से मिलने का
पूरा आयोजन
है। परमात्मा
की तरफ से तो
परमात्मा
मिला ही हुआ
है, हमारी
तरफ से ही हम
पीठ किये खड़े
हैं। अब सूरज की
तरफ पीठ कर
लोगे तो सूरज
से चूक जाओगे।
और ऐसा नहीं
था कि सूरज
तुम्हारे
लिये नहीं उगा
था।
लौटो!
पलटो। जिस
दिशा में भागे
जा रहे हो उसमें
न भागकर, उसके
विपरीत आंखें
करो। लोग धन
की तरफ भाग
रहे हैं, ध्यान
से वंचित रह
गये; पद की
तरफ भाग रहे
हैं, प्रार्थना
से वंचित रह
गये। वासना
अर्चना में
नहीं उतरने
देती। तृष्णा
उपासना में
नहीं बैठने
देती--दौड़ाती
है। इतनी-सी
बात है।
सार
की बात बहुत
थोड़ी है कि
आंखें बंद करो; कि भीतर कौन
है, उसे
देखो। महबूब
वहां छिपा है।
प्यारा वहां मौजूद
है। एक क्षण
को भी
अनुपस्थित
नहीं है। अनुपस्थित
हो जाये तो हम
समाप्त हो
जायें। वही तो
हमारा जीवन
है। वही तो
हमारी श्वास
है। वही हमारा
प्राण है।
तीसरा
प्रश्न :
आपने
कहा कि सदगुरु
शिष्य को
संपूर्ण
स्वतंत्रता
देता है। इसका
तो अर्थ हुआ
कि वह शिष्य
की जरा भी चिंता
नहीं करता।
चिंता
तो सदगुरु
किसी की भी
नहीं कर सकता।
चिंता तो
सदगुरु में
निर्मित ही
नहीं हो सकती।
चिंता के पार
है, इसीलिए
तो सदगुरु है।
हां, शिष्य
का ध्यान रखता
है, चिंता
नहीं करता, चिंता बड़ी
और बात है।
चिंता
तो ऐसे कि कोई
बीमार है तो
तुम भी बीमार होकर
उसके पास लेट
गये। इससे
बीमार को कोई
लाभ नहीं
होगा। इससे
तुमने कोई
सेवा भी नहीं
की। शिष्य
चिंतित है, दुविधाओं से
घिरा है, समस्याओं
से घिरा है--और
सदगुरु भी
चिंतित हो गया
तो चिंता
दुगनी हो गई, कम न हुई, घटी
न। और जो
स्वयं चिंतित
हो जाये वह
दूसरे को कैसे
चिंता से
मुक्त करेगा?
नहीं, चिकित्सक को
कोई बीमार
होकर बीमार के
पास लेट जाने
की जरूरत नहीं
है। चिकित्सक
को बीमार की चिंता
नहीं करनी है;
बीमार का
ध्यान करना है,
बीमार की
सहायता करनी
है, उपचार
करना है।
सदगुरु
चिंता नहीं
करता। फिर, बात और भी
थोड़ी समझने
जैसी है।
बीमार की तो
बीमारी
चिकित्सक को
असली मालूम
होती है, सदगुरु
की तो और
कठिनाई है।
शिष्य की सारी
बीमारियां
झूठी हैं।
चिंता क्या
खाक करे? शिष्य
की सारी
बीमारियां
झूठी हैं। सपने
देख रहा है
शिष्य। तुमने
सपने में सांप
देख लिया है, सदगुरु
चिंता करे? सपने में
तुम्हारे महल
में आग लग गई
है, सदगुरु
चिंता करे, तो फिर
सदगुरु न
होगा। हां, सदगुरु
करुणा करता
है। और करुणा
का यह मतलब मत
समझना कि
तुम्हारे महल
में आग लगी है
तो उसे बुझाने
का आयोजन करता
है, क्योंकि
तुम्हारा महल
झूठा, तुम्हारी
आग झूठी। और
जो बुझाने
आयेगा वह भी तुम्हारे
जैसा पागल है।
तुम्हारे महल
में जब आग लगी
होती है तो
सदगुरु
तुम्हें
जगाने की कोशिश
करता है।
तुम्हारे महल
से तो कुछ
संबंध नहीं बन
सकता।
तुम्हारा महल
तो है ही
नहीं।
इसलिये
कभी-कभी ऐसा
भी लग सकता है
कि सदगुरु बड़ा
कठोर है; हमारे
महल में तो आग
लगी है, वह
हिला-डुला रहा
है; हम
सांत्वना
लेने आये हैं,
वह
सांत्वना तो
दे नहीं रहा, वह उल्टा
हमें और चोटें
मार रहा है।
सोते हुए आदमी
को कोई जगाये
तो प्रीतिकर
तो नहीं लगता।
चाहे दुख-स्वप्न
में ही क्यों
न दबा हो, मगर
जागना
प्रीतिकर
नहीं लगता।
करवट लेकर सो जाना
चाहता है।
सदगुरु तो
सोये हुए लोग
उन्हें मानते
हैं जो उनकी
चादर को और
ठीक से ढक दें,
कंबल को उढ़ा
दें; सुबह
थोड़ी सद्र हो
गई है, जो
उनके सिर को
थपथपा दें--और
कहें: वत्स, खूब गहरी
निद्रा में
सोओ!
अच्छे-अच्छे
सपने
देखो--परमात्मा
के, मोक्ष
के, स्वर्ग
के, परियों
के, अप्सराओं
के, देवदूतों
के।
अच्छे-अच्छे
सपने देखो।
धार्मिक सपने
देखो। सोओ मजे
से।
शिष्य
भी मानता है
कि गुरु हो तो
ऐसा हो।
सदगुरु
तो कष्ट देता
मालूम होगा।
सुबह-सुबह जब
मीठी-मीठी सर्दी
पड़ रही है, तब वह
तुम्हारा
कंबल छीन रहा
है, तब वह
तुम्हें
उठाने की
कोशिश कर रहा
है, कि
ठंडा पानी
तुम्हारी
आंखों पर मार
रहा है। दुश्मन
मालूम होगा।
सांत्वना
तो सदगुरु
नहीं देता, न तुम्हारी
बीमारियों की
चिंता लेता
है। हां, तुम्हारी
बीमारियों को
सुनकर भीतर-भीतर
हंसता है।
कठोर लगेगा।
और मैंने जब
कहा कि सदगुरु
शिष्य को
संपूर्ण
स्वतंत्रता
देता है तो
तुम्हारे मन
में सवाल उठा:
इसका तो अर्थ
हुआ कि वह
शिष्य की जरा
भी चिंता नहीं
करता? शिष्य
का उपचार करना
चाहता है, उपकार
करना चाहता है,
इसलिये
शिष्य को
संपूर्ण
स्वतंत्रता
देता है, क्योंकि
स्वतंत्रता
ही मोक्ष का
मार्ग है। लेकिन
शिष्य नहीं
चाहता यह। यह
तुम समझ लेना।
शिष्य
स्वतंत्रता
नहीं मांगता।
शिष्य कहता है
कि मैं आपका
गुलाम होने को
तैयार हूं।
शिष्य कहता
है: मुझे
सहारा दो, स्वतंत्रता
नहीं। मेरे
पैर बन जाओ कि
मेरे पंख बन
जाओ, मगर
मेरे पंखों को
पैदा करने की
कोशिश मत करो,
क्योंकि वह
कठिन बात है।
फिर
जब शिष्य कहता
है कि मेरे
सहारे बन जाओ
तो सारा
उत्तरदायित्व
सदगुरु पर छोड़
देता है। और
उत्तरदायित्व
जब भी तुम छोड़
दोगे, तुम्हारा
विकास
अवरुद्ध हो
जायेगा।
उत्तरदायी तो
तुम ही हो।
परमात्मा
तुम्हारे
गुरु से नहीं
पूछेगा कि तुम
क्यों नहीं
जागे--तुमसे
पूछेगा!
उत्तरदायी तुम
हो। तुम्हारे
लिए कोई दूसरा
उत्तरदायी नहीं
है। तुम्हारे
और परमात्मा
के बीच कोई
दूसरा खड़ा
नहीं हो सकता,
लेकिन
लोगों की गलत
आदतें बचपन से
पड़ जाती हैं।
पहले मां-बाप
पर निर्भर
रहते हैं, फिर
स्कूल के
शिक्षकों पर
निर्भर हो
जाते हैं, फिर
राजनेताओं पर
निर्भर हो
जाते हैं। ऐसे
जिंदगी
निर्भरता-निर्भरता
में बीतती
है।...किसी पर
निर्भर। खुद
अपने पैर पर न
कभी खड़े होते
हैं, न कभी
अपनी
स्वतंत्रता
की उदघोषणा
करते हैं। दूसरे
करने भी नहीं
देते, क्योंकि
दूसरे चाहते
हैं कि तुम
गुलाम रहो। दूसरे
चाहते हैं कि
तुम निर्भर
रहो। निर्भर
रहो तो
तुम्हारा
शोषण हो सके।
सदगुरु
तो तुम्हें इस
सारी
निर्भरता से
मुक्त करेगा।
वह तुम्हें
जगायेगा। वह
तो कहेगा कि तुम्हें
तुम्हीं होना
है--किसी और की
नकल नहीं, किसी और
आदर्श का
अनुकरण नहीं।
वह तो
तुम्हारी अद्वितीयता
की, तुम्हारी
महिमा की
तुम्हें
प्रतीति
देगा। वह तो
कहेगा: तुम
जैसे हो सुंदर
हो। परिपूर्ण
स्वतंत्रता
में तुम्हारा
फूल खिले, इसका
आयोजन करेगा।
तुम्हें सारी
सुविधा देगा
कि तुम जैसे
होना चाहिये
वैसे हो सको, लेकिन
तुम्हारे ऊपर
कोई आदर्श कोई
आचरण नहीं थोपेगा।
मेरा
अर्थ यही था
कि सदगुरु
शिष्य को पूरी
स्वतंत्रता
देता है।
हैरानी
तुम्हें होती
होगी।
एक
मित्र ने मुझे
आकर कहा कि वे
विनोबा के पवनार
आश्रम में थे, विनोबा जी
बड़ी चिंता
लेते हैं
शिष्यों की।
मैंने कहा:
मतलब? उन्होंने
कहा कि रोज
प्रत्येक
शिष्य के कमरे
में आकर देखते
हैं कि सब
साफ-सुथरा है?
इतना ही
नहीं, शिष्य
के स्नानगृह
और संडास में
भी झांककर देखते
हैं कि सब
साफ-सुथरा है
या नहीं? बड़ी
चिंता लेते
हैं!
मैंने
कहा: यह काम तो
किसी जमादार
का हुआ! इसका सदगुरु
से क्या लेना-देना? और अगर
शिष्यों को
इतनी बुद्धि
नहीं मिली कि
अपनी संडास की
सफाई कर सकें
तो और क्या
खाक करेंगे!
और कहां की
सफाई करेंगे!
इसके लिये भी
अगर विनोबा को
आना पड़ता
है...और रोज...तो
यह तो खूब सत्संग
हो रहा है!
स्वभावतः
ऐसे
व्यक्तियों
को लगेगा कि
मैं जरा भी चिंता
नहीं करता, क्योंकि मैं
तो यह भी नहीं
जानता कि कौन
शिष्य इस
आश्रम में किस
कमरे में रहता
है। कौन-कौन लोग
इस आश्रम में
रहते हैं, इसका
भी मुझे पक्का
पता नहीं है।
मैं किसी के कमरे
में आज तक गया
नहीं हूं।
अपने कमरे से
और यहां तक का
रास्ता भर
मुझे मालूम
है। मैं इस
आश्रम में भी
पूरा कभी नहीं
गया हूं, कभी
घूमा नहीं हूं,
इसका मैंने
एक चक्कर भी
नहीं लिया है।
इस आश्रम के
दफ्तर में कभी
नहीं गया हूं।
मुझे पता नहीं
है, कौन
कहां क्या कर
रहा है।
इतना
बोध अगर न जग
सके शिष्यों
में कि ये
छोटे-छोटे काम
खुद सम्हाल
लें, तो बात ही
क्या हुई?
तुम
हैरान होओगे
कि इस आश्रम
का काम मेरे
बिलकुल बिना
चल रहा है। और
इतना बड़ा
आश्रम इस पृथ्वी
पर कहीं भी
नहीं है, लेकिन
मुझसे बिलकुल
बिना चल रहा
है। मैं उसमें
भागीदार हूं
ही नहीं। मैं
अगर एक दिन
चुपचाप अपने
कमरे से
अदृश्य हो
जाऊं तो आश्रम
में कहीं कोई
बाधा नहीं
पड़ेगी, सब
ऐसा ही चलता
रहेगा, कोई
अंतर नहीं
आयेगा, क्योंकि
मेरा कहीं कोई
हाथ ही नहीं
है।
मैंने
तुम्हें बोध
दिया, समझ
दी, अब तुम
उसका उपयोग
करो। और इसे
तो मैं
थोड़ा-सा विनोबा
के लिये अशोभन
मानता हूं।
किसी की संडास
में जाकर
झांकना, उसका
अपमान करना है,
उसकी
अवमानना है।
इसमें निंदा
का स्वर है।
इसमें भरोसा
नहीं है। और
जब गुरु को
इतना भरोसा अपने
शिष्यों पर न
हो तो शिष्यों
का क्या खाक भरोसा
गुरु पर होगा।
और शिष्य अगर
डरकर संडास साफ
रखते हों कि
गुरुदेव आते
होंगे--गुरुदेव
यानी सेनिटरी
इंस्पेक्टर--अगर
इसलिये संडास
साफ रखते हों,
तो यह कोई
संडास का साफ
रखना हुआ? ठीक
है, संडास
में तो झांक
लोगे, इनकी
आत्माओं को
कौन साफ करेगा?
कैसे इनकी
आत्माओं को
साफ करोगे?
उन
मित्र ने कहा
कि वे
छोटी-छोटी चीज
की फिक्र करते
हैं कि किसी
ने चाय तो
नहीं पी ली, किसी ने
सिगरेट तो
नहीं पी ली? रात ठीक समय
पर सब लोग सो
गये कि नहीं? नौ बजे
प्रकाश बुझ
गया कि नहीं? ये कारागृह
की बातें हैं,
आश्रम की
नहीं। आश्रम
कोई
कन्सन्ट्रेशन
केंप थोड़े ही
है, कोई
कारागृह थोड़े
ही है। किसी
को दस बजे
सोना ठीक लगता
है, वह दस
बजे सोता है; और किसी को
सुबह तीन बजे
उठना ठीक लगता
है वह तीन बजे
उठता है; और
किसी को छह
बजे ठीक लगता
है वह छह बजे
उठता है।
विनोबा नौ बजे
सोते हैं, इसलिये
प्रत्येक को
नौ बजे सोना
चाहिए, यह
ज्यादती हो
गई। मैं रोज
बारह बजे सोता
हूं, अब
मैं सब पर
थोपूं कि बारह
बजे सोना
चाहिए, यह
तो ज्यादती हो
जायेगी।
विनोबा तीन
बजे उठते हैं
तो हर-एक को
तीन बजे उठना
चाहिए। तो लोग
उठते हैं, बेमन
से उठते हैं, गालियां
देते उठते
हैं। मुझे उन
लोगों का पता है।
मजबूरी में
उठते हैं।
लेकिन यह तो
कारागृह हुआ।
इस कारागृह से
मुक्ति की
यात्रा कैसे होगी?
यह
तो ठीक है, सैनिकों के
साथ ऐसा
व्यवहार किया
जाये, लेकिन
संन्यासियों
के साथ तो ऐसा
व्यवहार नहीं
किया जा सकता।
सैनिक की तो
स्वतंत्रता
मारनी है।
सैनिक को तो
इतना गुलाम
बनाना है कि
जब उससे कोई
मूढ़तापूर्ण
कृत्य करने को
भी कहा जाये
तो वह इनकार न
कर सके। और
सैनिक से काम
ही मूढ़तापूर्ण
करवाने हैं...!
किसी की छाती
में गोली मार
दो। अगर सैनिक
में थोड़ी
बुद्धि हो तो
वह कहेगा:
"क्यों? इस
आदमी ने कुछ
बिगाड़ा नहीं।'
मगर इतनी
बात अगर सैनिक
कहे तो ये
राजसत्तायें
नहीं टिक
सकतीं। इसलिए
सैनिक से तो
उल्टे-सीधे न
मालूम
कैसे-कैसे काम
करवाने हैं।
उसकी तो
बुद्धि
बिलकुल नष्ट
कर देनी है।
उसको तो
बिलकुल
नियमबद्ध कर
देना है कि
यंत्रवत काम
करे। बायें
घूम, तो वह
बायें घूमे।
एक
दफा एक
दार्शनिक
दूसरे
महायुद्ध में
भरती हुआ।
जरूरत थी
ज्यादा
सैनिकों की तो
सभी वर्गों के
लोग युद्ध पर
जा रहे थे, दार्शनिक को
भी जाना पड़ा।
और जब उसे
कवायद करवाई
गई, कहा
बायें घूम, तो वह खड़ा ही
रहा। लोग
बायें भी घूम
गये, दायें
भी घूम गये वह
खड़ा ही रहा।
आखिर जाहिर दार्शनिक
था तो कवायद
करवाने वाले
कप्तान ने आकर
कहा कि क्षमा
करें, मुझे
पता है कि आप
प्रसिद्ध
व्यक्ति हैं,
मगर यहां यह
नहीं चलेगा।
बायें घूम
यानी बायें
घूम। लेकिन
उसने पूछा:
क्यों? मैं
यही तो सोच
रहा हूं खड़ा
हुआ कि बायें
क्यों घूमूं।
इसका प्रयोजन
क्या है, अभिप्राय
क्या है? घूमने
से हल क्या
होगा? और
जो घूम गये
उनको क्या
मिला? और
घूमकर वे फिर
वहीं आ गये
जहां मैं खड़ा
ही हुआ हूं। तो
मैं बचा झंझट
से।
यह
सोचकर कि यह
आदमी तो किसी
काम का
नहीं...इतना सोच-विचार
करो तो फिर
सैनिक नहीं हो
सकते। इतनी
बुद्धिमत्ता
सैनिक को नहीं
चाहिए। इसलिए
तो सैनिक से
कवायद करवाते
हैं: बायें
घूम, दायें
घूम, आगे
जा, पीछे
जा। वह
जाता-आता सुबह
से सांझ यही
करता रहता है।
करते-करते
उसकी बुद्धि
बिलकुल ही मंद
हो जाती है।
सोच-विचार की
हत्या हो जाती
है। फिर एक
दिन उससे कहते
हैं गोली मार,
तो वह गोली
मार देता है।
उसको बायें
घूम और गोली
चलाने में कोई
अंतर नहीं रह
गया अब। उससे
तो कहो खुद को
गोली मार तो
वह खुद को
गोली मार लेगा।
यह
रेवरेंड
जोन्स, जिनकी
मैंने कल
तुमसे चर्चा
की, यह
अपने शिष्यों
से यह काम
करवा सका कि
सब जहर पी लो
और उन सबने
जहर पी लिया, तुम सोचते
हो कि वह
आश्रम कैसा
रहा होगा? इसकी
कोई ने पहले
खबर नहीं दी, लेकिन यह
पहली घटना
नहीं हो सकती।
ये नौ सौ आदमियों
को जिन्होंने
आत्महत्या की
रेवरेंड
जोन्स की बात
मानकर, वर्षों
तक कवायद
करवाई गई है, तब यह घटना
घट सकती है।
अचानक किसी से
जाकर कहो जहर
पीयो तो वह
पूछेगा: क्यों?
तुम जानकर
हैरान होओगे,
इस घटना को
घटाने के लिये
वर्षों से
रिहर्सल किया
जा रहा था।
घंटी बजती थी
खतरे की। हर
महीने में
करीब-करीब एक
बार दो बार
घंटी बजती खतरे
की, कभी
भी। सारा
आश्रम इकट्ठा
होता और सबको
प्यालियों
में कुछ दिया
जाता कि यह
जहर है। यह
रिहर्सल था।
लोग धीरे-धीरे
इसके आदी हो
गये। यह कई
दफे हो चुका
था, यह कई
साल से हो रहा
था। लोग उस रस
को पी लेते, स्वीकार
करके।
रेवरेंड
जोन्स का कहना
था कि यही
तुम्हारे
समर्पण का
सबूत है कि
अगर मैं जहर
भी दूं तो तुम
जहर पीयो। ये
लोग रिहर्सल
करते-करते भूल
ही गये यह बात
कि एक दिन
असली जहर अगर
दिया जाएगा तो
फिर क्या
होगा! यह नकली
जहर था ये लोग
तो मजे में
लेते थे, घंटी
भी झूठी थी।
लेकिन इस बार
घंटी सच्ची
बजी! वह
तैयारी ही कर
रहा था इसकी।
इस बार उसने
जहर दे ही
दिया। लोग जहर
पी गये। नौ सौ
लोग मर गये।
रेवरेंड
जोन्स ने
संन्यासी
पैदा नहीं
किये, सैनिक
पैदा किये थे।
उनकी हर
छोटी-छोटी बात
की वह फिकिर
रख रहा था, जिसको
तुम चिंता
कहते हो--वे कब
उठते, कब
सोते, कैसे
बैठते, कोई
नियम का
उल्लंघन तो
नहीं हो रहा
है? यह तो
लोगों की
आत्माओं को
मारने का उपाय
है। यह आदमी
मौलिक रूप से
हत्यारा था।
छोटे
पैमाने पर ये
काम सभी
आश्रमों में
चलते हैं।
छोटे पैमाने
पर चलते हैं
तो तुम्हें
पता नहीं चलता, लेकिन आत्महत्या
तो वहां भी की
जा रही है।
अगर तुम अपनी
नींद के खुद
मालिक नहीं हो,
अगर तुम
अपने भोजन के
खुद मालिक
नहीं हो, अगर
तुम्हें इतनी
भी बुद्धि
नहीं है कि
क्या खाओ, क्या
पीओ, कब
सोओ, कब
उठो, स्नान
करो या न करो, अगर इतना भी
बोध तुम्हें
सदगुरु के पास
रहने से नहीं मिल
रहा है और
इसके लिए डंडा
लेकर
तुम्हारे पीछे
पड़ा जाये, तो
फिर मैं मानता
हूं ऐसी जगह
को आश्रम कहना
ठीक नहीं है, कारागृह
कहना ठीक है।
मैं
तुम्हें पूरी
स्वतंत्रता
देता हूं क्योंकि
मेरी तुम पर
पूरी श्रद्धा
है। शिष्य ही
थोड़े ही सिर्फ
सदगुरु पर
श्रद्धा करता है--सदगुरु
वही है जो
अपने शिष्य पर
भी श्रद्धा
करता है।
श्रद्धा करता
है, तुम्हारा
सम्मान करता
है, तुम्हारी
आत्मा का गौरव
स्वीकार करता
है। तुम
महिमावान हो।
आज सोये हो, कल जाग
जाओगे। बुद्ध
सोया भी हो तो
भी है तो बुद्ध
ही। तुम भी
प्रबुद्ध हो,
देर-अबेर की
बात है। और
तुम्हें
जितनी
स्वतंत्रता
दी जाये उतना
ही तुम्हें
अपने बोध से
जीना पड़ेगा।
और जितना
तुम्हें अपने
बोध से जीना
पड़ेगा उतना ही
बोध जागेगा।
और बोध को
जगाना है।
लेकिन तुमने
कुछ का कुछ
समझ लिया।
अकसर
ऐसा हो जायेगा, जितनी बड़ी
बात होगी उतनी
ही समझनी कठिन
हो जाती है।
तुम कुछ का
कुछ समझ लिये।
स्वतंत्रता
का अर्थ यह
नहीं है कि
मेरे मन में
तुम्हारे
लिये काई लगाव
नहीं है। ठीक
उल्टा। स्वतंत्रता
दे रहा हूं, क्योंकि
तुमसे प्रेम
है। तुमने
स्वतंत्रता का
अगर नासमझी से
उपयोग किया तो
यह स्वच्छंदता
हो जायेगी।
कसूर
तुम्हारा होगा।
अगर तुम मेरे
प्रेम को समझे,
मेरी
श्रद्धा को
समझे, मैंने
तुम्हें जो
सम्मान दिया
है उसे
समझे--तो यही
स्वतंत्रता
परम मुक्ति बन
जायेगी।
लेकिन
खतरा कुछ भी
हो, मैं
तुम्हारी
स्वतंत्रता
नहीं छीन
सकता। मैं यह
खतरा लेने को
तैयार हूं कि
तुम स्वच्छंद हो
जाओ, मगर
यह खतरा लेने
को तैयार नहीं
हूं कि तुम
गुलाम हो जाओ,
कि तुम
परतंत्र हो
जाओ। मैं
तुम्हें यहां
महाजीवन
दिखाने को हूं,
महाजीवन की
तरफ ले चलने
को हूं। मैं
तुम्हें मार
नहीं डालना
चाहता हूं।
लेकिन
लोग तो अपने
ढंग से समझते
हैं: कुछ सुनेंगे
कुछ समझेंगे।
ढब्बू
जी अपने एक
बीमार दोस्त
से मिलने गये
और उसकी तबीयत
का हाल पूछा।
दोस्त ने कहा:
बुखार तो टूट
गया, अब टांग
में दर्द है।
ढब्बू जी ने
कहा: घबराओ मत,
जब बुखार
टूट गया तो
टांग भी जल्दी
ही टूट जायेगी।
एक
आदमी, एक
बिलकुल
अपरिचित आदमी
मुल्ला
नसरुद्दीन के
पास पहुंचा।
नमस्कार के
बाद उसने
निवेदन किया
कि क्या आप
मुझे पांच
हजार रुपये
उधार दे सकते
हैं?
लेकिन
मैं तो आपको
पहचानता नहीं, मुल्ला ने
चकित होकर
कहा। उस आदमी
ने कहा: यह भी
खूब रही! जो
पहचानते हैं,
वे पांच
रुपये देने को
तैयार नहीं।
किसी के पास
जाता हूं, तो
वे कहते हैं:
हम तो आपको
पहचानते हैं,
आगे बढ़ो। अब
आप कहते हैं
पहचानता नहीं
हूं, इसलिये
नहीं दूंगा।
तो मैं जाऊं
किसके पास?
थोड़ा
समझो। मैं जो
कहता हूं उसे
एकदम जैसा तुम्हारी
बुद्धि में आ
जाये वैसा ही
मत मान लेना, थोड़ा उस पर
ध्यान करना, थोड़ी उसकी
बारीकियों
में उतरना, थोड़ी उसकी
गहराइयों में
डुबकी मारना।
जल्दी निष्कर्ष
मत लिया करो।
निश्चित, मैं तुम्हें
पूर्ण
स्वतंत्रता
देता हूं। यह मेरा
सम्मान है
तुम्हारे
प्रति। तुम भी
स्वतंत्रता
का सम्मान
करना। तुम भी
स्वतंत्रता का
सदुपयोग
करना। तुम इस
स्वतंत्रता
को सीढ़ी बनाना।
यह सीढ़ी ही
तुम्हें
मोक्ष की तरफ
ले जायेगी।
मोक्ष
है अंतिम
स्वतंत्रता
और जिसे उस
अंतिम स्वतंत्रता
को पाना है
उसे पहले कदम
से ही स्वतंत्रता
का अभ्यास
करना होगा मैं
तुम्हें किन्हीं
भी नियमों में, जंजीरों में
बांधना नहीं
चाहता। मैं
तुम्हारा
दुश्मन नहीं
हूं। और न ही
मुझे रस है इस
बात में कि
मैं अपने को
तुम्हारे ऊपर
थोप दूं। यह
तो हिंसा है।
मगर महात्मा
गांधी और विनोबा
भावे, इस
तरह के लोग
इसी तरह की
हिंसा को
शिष्य की चिंता
कहते हैं।
अपने आग्रह उस
पर थोप देते
हैं, जबर्दस्ती
थोप देते हैं।
मेरा
कोई आग्रह
नहीं है। मैं
तो जो भी कह रहा
हूं उसमें कोई
भी आदेश नहीं
है कि तुम्हें
मानना ही है।
मैं तो सिर्फ
अपने विचार
निवेदन कर रहा
हूं।
आज्ञायें
नहीं हैं ये, सिर्फ मेरी
अंतर्दृष्टि
तुम्हें साफ
कर रहा हूं।
ऐसा मुझे
दिखाई पड़ता
है। सुनो, गुनो।
तुम्हें भी
दिखाई पड़े तो
चल पड़ना और जब तक
तुम्हें दिखाई
न पड़े तब तक
चलने की कोई
भी जरूरत नहीं
है।
और
जरा ध्यान
रखना, मतलब
अपने मत ले
लेना।
ढब्बू
जी अपने बेटे
को कह रहे थे:
आज तुम्हारे मास्टर
जी ने शिकायत
की है, तुम
रोजाना देर से
स्कूल
पहुंचते हो।
ढब्बू जी का
बेटा, आखिर
ढब्बू जी का
बेटा! उसने
कहा: इसमें
मेरा कोई कसूर
नहीं है।
ढब्बू जी ने
कहा: तुम्हारा
मतलब? उसने
कहा: मेरे
स्कूल
पहुंचने से
पहले ही वे लोग
घंटी बजा देते
हैं: और एक दिन
नहीं, रोज
यही हो रहा
है।
अपने-अपने
मतलब हैं!
नहीं, तुम
अपने मतलब मत
लेना। थोड़ी
सहानुभूति, थोड़ा समभाव
मुझसे साधो।
थोड़ा मेरी
आंखों से
झांको, तो
चीजें कुछ और
ही रूप में
प्रगट होंगी,
और ही रंग।
नहीं
तो मुझे गलत
समझना बहुत
आसान है, क्योंकि
मैं बातें ही
इतनी
ऊंचाइयों की
कर रहा हूं
तुमसे कि अगर
तुमने आंखें
ऊपर न उठाईं तो
तुम नहीं समझ
पाओगे। और मैं
नीचाइयों की
बातें नहीं
करूंगा।
नीचाइयों की बातें
करने वाले तो
बहुत लोग हैं
इस देश में। अगर
उनसे ही
तुम्हें
संबंध जोड़ना
है तो तुम मेरे
पास आओ ही मत।
तुम्हें अगर
चाहिए कोई ऐसा
गुरु जो चौबीस
घंटे
तुम्हारे
पीछे लगा रहे
खुफिया की तरह,
तो तुम मेरे
पास आओ मत।
मैं तो
तुम्हारे
पीछे बिलकुल न
लगूंगा। मैं
तो निवेदन कर
दूंगा और तुम
पर छोड़ दूंगा।
तुम
पर छोड़ने में
भी राज है।
मैं चाहता हूं
कि तुम अगर
कोई चीज
अंगीकार करो
तो तुम्हारी
निजता से
अंगीकार होनी
चाहिए। मेरे
आग्रह से नहीं।
मैंने कहा, इसलिये
नहीं।
तुम्हें
दिखाई पड़ा, इसलिये।
तुमने ऐसा
अनुभव किया, इसलिये।
जब
भी कोई सत्य
सिर्फ किसी के
आग्रह से
स्वीकार किया
जाता है, झूठ
हो जाता है।
सत्य तभी सत्य
है जब
तुम्हारी
प्रतीति से
उमगता है, जब
तुम्हारे
भीतर अंकुरित
होता है।
चौथा
प्रश्न:
ओशो!
अपनी
समझ से मैं
संन्यास
ग्रहण करने की
तैयारी करके
आया था। यहां
आकर पत्नी ने कड़ा
विरोध खड़ा
किया। इसलिये
मैं तत्काल
टाल गया। अब
लगता है कि
मैं ही इसमें
सहयोगी हुआ।
प्रवेग क्षीण
पड़ गया। शायद
इतना उत्साह न
जुटा पाया कि
मैं डूब सकता।
दुखी हूं।
समाधान देने
की अनुकंपा
हो।
केदारनाथ
सिंह! समाधान
न मांगो, समाधि
मांगो।
क्योंकि
समाधि से ही
समाधान है। और
संन्यास तो
समाधि की तरफ
जाने का संकल्प
है और कुछ भी
नहीं।
पत्नी
बाधा बनी, यह बिलकुल
स्वाभाविक
है। इसे तो
तुम्हें पहले
से ही अपेक्षा
करनी थी। यह
तो कुछ अनूठा
न हुआ। यह तो
होता ही है।
इसके पीछे
गणित है। अब
तक तुम पत्नी
के थे, संन्यस्त
होकर तुम मेरे
हो जाओगे।
पत्नी से भी
ज्यादा तुम
मेरे हो जाओगे।
यह पत्नी को
अड़चन की बात
तो है। अब तक
तुम पूरे-पूरे
उसके थे, अब
तुम पूरे-पूरे
उसके न रह
जाओगे। अब तक
पत्नी प्रथम
थी, जिस
दिन से तुम
संन्यास लोगे
उसी दिन से
द्वितीय हो
जायेगी। अगर
किसी दिन
चुनना होगा
पत्नी और मेरे
बीच तो तुम
मुझे चुनोगे।
इससे
पत्नी को पीड़ा
तो होगी, अड़चन
भी होगी। इतने
पुराने दिन का
अधिकार कोई ऐसे
ही नहीं छोड़
देता, झंझट
तो खड़ी करेगी।
मगर उसकी झंझट
से झुक जाना न
तो तुम्हारे
हित में है न
उसके हित में
है।
और
ध्यान रखना, जब भी पत्नी
तुम्हें
झुकाये और तुम
झुक जाओ तो
पत्नी के मन
में तुम्हारे
प्रति जो आदर
है वह कम हो
जाता है। यह
भी खयाल रखना,
जीवन बड़ा
जटिल है।
पत्नी उसी पति
का आदर करती है
जो न झुके।
कौन स्त्री उस
पति का आदर
करती है जो
ऐसा झुक जाये
और पूंछ
हिलाने लगे!
इसीलिए तो
पत्नियों की
श्रद्धा
पतियों में
नहीं रह जाती,
क्योंकि
पति
लल्लो-चप्पो
करने लगता है
और उन्होंने
सोचा था कि
किसी पुरुष के
पास समर्पण हो
रहा है। और
फिर पाती है
कि
पुरुष-मुरुष
कहां, जरा-सी
बात में झुका
लो।
स्त्रियों
के मन में पति
के प्रति आदर
नहीं रह जाता।
कारण? पतियों
का खुद का
व्यवहार है।
पति जल्दी ही
समझौते कर
लेते हैं।
पत्नियां
इतने जल्दी
समझौते नहीं
करतीं। मेरे
हिसाब में
पत्नियां
ज्यादा
आत्मबल प्रगट
करती हैं। और
तुम्हें सभी
को अनुभव होगा
इस बात का। अगर
तुममें और
तुम्हारी
पत्नी में
झंझट हो गई तो
झुकना
तुम्हीं को
पड़ता है, पत्नी
नहीं झुकती।
दिन बीतें, दो दिन
बीतें, तीन
दिन बीतें, नहीं झुकती।
रोयेगी, खाने
में ज्यादा
नमक डालेगी, रोटियां
जलायेगी, बच्चों
को पीटेगी, बर्तन
गिरायेगी, दरवाजे
भड़कायेगी, सब
करेगी--मगर
झुकेगी नहीं!
तुम्हें सता
डालेगी सब तरफ
से। आखिर
तुम्हें उस
हालत में कर
देगी कि अब या
तो पागल हो
जाओ और या झुक
जाओ। मगर
ध्यान रखना, जब तुम
झुकते हो तभी
तुम्हारे
प्रति
श्रद्धा समाप्त
हो जाती है।
स्त्री
का मन उस पति
को आदर देता
है जो संकल्पवान
है। अगर तुम न
झुको, पहली
बार न
झुको...पहली
बार ही भूल हो
जाती है।
एक
गांव के गंवार
ने शादी
की...शहरी होता
तो इतनी
हिम्मत नहीं
रख सकता
था...गांव का
गंवार था। पत्नी
को लेकर चला
वापिस। घोड़ा
गाड़ी थी उसके
पास। घोड़ा बीच
में अटक गया।
उसने एक कोड?ा
मारा घोड़े को
और कहा कि एक...!
घोड़ा एकदम चल
पड़ा। फिर
अटका। उसने
फिर उसे दो
कोड़े मारे और
कहा दो...! पत्नी
बैठी-बैठी सुन
रही थी कि यह हो
क्या रहा है!
फिर तीसरी बार
घोड़ा अटका। वह
उतरा नीचे, निकाली उसने
बंदूक और घोड़े
को वहीं मार
दी गोली। धड़ाम
से घोड़ा नीचे
गिर गया। दो
दफे चेतावनी
दे दी, पर्याप्त;
अब तीसरा
मौका आ गया।
पत्नी ने कहा:
यह तुमने क्या
किया? उसने
कहा: एक...!
बस...फिर उसके
बाद दो की
नौबत नहीं आई।
मगर वह तो
गांव का गंवार
था। मामला
पहली दफा
रफा-दफा हो
गया। ऐसे
पुरुष का
स्त्री आदर करती
है!
केदारनाथ
सिंह, तुमने
क्या किया? कहना था: एक...।
तुम तो मेरे
पास पहली दफा
आये हो, लेकिन
तुम्हारे संबंध
में मुझे पहले
से बहुत कुछ
ज्ञात है, क्योंकि
तुम्हारे
पिता मेरे पास
आते थे। केदारनाथ
सिंह
स्वर्गीय
महाकवि दिनकर
के बेटे हैं।
उन्होंने
बहुत बार
तुम्हारी भी
चर्चा मुझसे
की है। वे भी
बहुत बार आये
और खाली गये।
दिल में तो
उनके भी बहुत
था कि कुछ हो
जाये, ध्यान
हो समाधि हो, संन्यास हो;
मगर हिम्मत
न जुटा पाये।
तुम्हारे
पिता खाली गये,
तुम भी खाली
जाना चाहते हो?
उन्होंने
सुंदर गीत
लिखे, मगर
उन सुंदर
गीतों के पीछे
एक बहुत ही
दुखी चित्त
था। उन्होंने
अमृत के भी
गीत लिखे, मगर
मृत्यु से
उन्हें बड़ा डर
था।
तो
जब मैं दिनकर
की अमृत की
कवितायें
पढ़ता हूं तो
बहुत हैरान होता
हूं। क्योंकि
मैं उन्हें
जानता हूं। वे
मेरे पास आते
थे तो मृत्यु
से बहुत भयभीत
थे। मृत्यु से
बहुत डरे हुए
थे, कंपे हुए
थे। लेकिन
बातें
उन्होंने
अपने गीतों
में आत्मा की
अमरता की की
हैं। कारण है।
ऐसा ही अकसर
हो जाता है।
कवि को अनुभव
नहीं होते, सिर्फ अनुभव
को प्रगट करने
की क्षमता
उसके पास होती
है, अनुभव
नहीं होता।
ऋषियों को
अनुभव होते
हैं। कभी-कभी
ऐसा होता है
कि उनको प्रगट
करने की क्षमता
नहीं होती। जब
कभी कोई ऋषि
और कवि एक साथ होता
है तो सदगुरु
पैदा होता है।
अकसर ऐसा नहीं
होता। कवि कह
पाते हैं, जानते
नहीं। ऋषि
जानते हैं, कह नहीं
पाते। जब कोई
जानकर कह पाता
है तब सदगुरु
पैदा होता है।
सदगुरु का
अर्थ है:
जिसने जाना है
और जो जना भी
सकता है; जिसने
शून्य को
अनुभव किया है
और जो शून्य
की थोड़ी-सी
झलक अपने
शब्दों से तुम
तक पहुंचा भी
सकता है।
संन्यास
का और क्या
अर्थ है--किसी
सदगुरु के निकट
आना; आत्मीय
बनाना; उसका
अंतरंग
बनाना। उसके
समीप होने की
क्षमता और
पात्रता का
नाम संन्यास
है।
और
मैं तुमसे
कहता हूं:
तुम्हारा
संन्यास तुम्हारी
पत्नी को भी
चेतायेगा, अन्यथा वह
भी सोई-सोई मर
जायेगी। तुम
जागो, साहस
करो। पहले
थोड़ी अड़चन
आयेगी, स्वाभाविक
है। मगर इस
दुनिया में
कोई चीज सदा नहीं
टिकती, तो
अड़चन कैसे सदा
टिकेगी? न
सुख टिकते न
दुख टिकते।
पत्नी कुछ दिन
शोरगुल
मचायेगी, मचाने
देना। जब-जब
पत्नी शोरगुल
मचाये तभीत्तभी
तुम सक्रिय
ध्यान करने
लगना।
मोहल्लेवालों
के डर से वह
खुद ही शांत
हो जायेगी, कि बाबा
सक्रिय ध्यान
न करो। इतने
ध्यान मैंने
ईजाद किये हैं
पतियों के
लिये कि अपनी
ही पत्नी नहीं,
पड़ोस की सभी
की पत्नियों
को तुम पागलपन
की दशा में
भेज सकते हो।
इतने
जल्दी नहीं
झुक जाना था।
एक तो झुकना
ही नहीं
चाहिये। और जब
कोई चीज ठीक
करने चले हो
तब तो झुकना
ही नहीं
चाहिए। तुम
कुछ गलत काम
करने नहीं चले
थे--तुम न तो
शराबी बन रहे
थे, न जुआरी
बन रहे थे, न
तुम
वैश्यागामी
बन रहे थे--तुम
संन्यासी बनने
चले थे। और
बड़ा मजा है, आदमियों को
देखकर बड़ी
हैरानी होती
है! अगर उनको
शराब पीनी है
तो पत्नी से
नहीं डरते, पीये चले
जाते हैं; और
ज्यादा पीने
लगते हैं। अगर
उन्हें जुआ
खेलना है तो
पत्नी नहीं
रोक पाती।
बुराई से कोई
पत्नी उन्हें
नहीं रोक
पाती। तुम समझ
ही लो, अगर
बुराई से
पत्नियां
रोकने में
समर्थ होतीं
तो इस दुनिया
में सारी बुराइयां
रुक गई होतीं,
क्योंकि
यहां सभी तो
पति हैं।
लेकिन कोई
बुराई नहीं
रुकी है। शराब
चल रही है, चोरी
चल रही है, बेईमानी
चल रही है, रिश्वत
चल रही है, जुआ
चल रहा है, सब
चल रहा है।
कोई पत्नी
नहीं रोकने
में समर्थ हो
पा रही है। तो
तुम्हें जो
करना है वह तो
तुम करते हो।
संन्यास के
लिये तुम
जल्दी से रुक
गये, कहीं
तुम्हारे
भीतर ही
निर्णय की कमी
थी।
इसलिये
तुमने ठीक ही
सोचा है कि
अपनी समझ से मैं
संन्यास
ग्रहण करने की
तैयारी करके
आया था।
लेकिन
तैयारी ऊपरी
रही; भीतर
कहीं-न-कहीं
थोड़ा-सा अटकाव
था। पत्नी ने उसी
का उपयोग कर
लिया। यहां
आकर पत्नी ने
कड़ा विरोध खड़ा
किया, वह
तो तुम्हें
जानना ही था
कि करेगी; तुम्हारी
पत्नी है, तुम
न जानोगे, कौन
जानेगा? वह
तो तुम्हें
पहले ही सोच
लेना था कि
पत्नी कड़ा
विरोध करेगी।
मगर उसके
सामने झुकना,
तुम्हारा
भी आत्मगौरव
नष्ट हुआ, उसका
भी आत्मगौरव
नष्ट हुआ।
क्योंकि उसने
तुम्हें एक
अच्छी दिशा
में जाते हुए
भी झुकते देखा
कि तुम समझौता
कर सकते हो।
और तुम्हारी
पत्नी
भलीभांति जानती
है कि और किसी
चीज में तुमसे
समझौता नहीं करवा
पायी है, लेकिन
इसमें समझौता
करवा लिया।
कमजोरी
कहीं
तुम्हारे
भीतर थी। उसे
पहचानो और उस
कमजोरी को हटा
दो। यह
तुम्हारे भी
हित में होगा
और तुम्हारी
पत्नी के भी
हित में होगा।
अगर तुम मस्त
हो सको, आनंदित
हो सको और
ध्यान और
संन्यास
तुम्हारे जीवन
में कुछ फूल
खिला सके, तो
तुम्हारी
पत्नी भी
संन्यस्त
होगी।
अड़चनें
तो स्वाभाविक
हैं। कुछ तो
हमें मूल्य
चुकाना ही
पड़ेगा। यही तो
तपश्चर्या है।
धूप में खड़ा
होना
तपश्चर्या
नहीं है, न
भूखे मरना
तपश्चर्या
है। यही है
असली तपश्चर्या
कि जब तुम
बदलना शुरू
करोगे तो
तुमसे संबंधित
सारे लोग बाधा
डालेंगे। जब
भी तुम बदलते हो
तो तुमसे
संबंधित सारे
लोगों को अड़चन
होती है। एक
आदमी के बदलने
से सैकड़ों
आदमियों को अड़चन
होती है।
क्यों? क्योंकि
वे, तुम
जैसे हो तुमसे
भलीभांति
परिचित हो गये
थे, तुम्हारे
साथ व्यवहार
का समायोजन हो
गया था; अब
तुम नये हो
रहे हो, अब
उनको फिर से
तुम्हारे साथ
नया समायोजन
करना पड़ेगा।
अब तुम्हारे
संबंध में
पुनर्विचार
करना होगा। अब
तक तुम्हारे
संबंध में जो
उन्होंने
आदतों का एक
जाल बना लिया
था, वह सब
टूट गया। यही
तो अड़चन है, एक मित्र
बनाता हूं मैं,
तो सौ
दुश्मन हो
जाते हैं।
मुझसे
लोग पूछते हैं
कि आप इतने
दुश्मन कैसे खड़े
कर लेते हैं? उसका कारण
सीधा है: एक मित्र
बनाऊं, सौ
दुश्मन हो ही
जाने वाले
हैं। क्योंकि
जितने लोग
उससे संबंधित
थे--उसकी
पत्नी है, वह
नाराज हो गई; पत्नी के
परिवार के लोग
हैं, वे
नाराज हो गए; उसके पिता
हैं, मां
हैं, वे
नाराज हो गये
हैं; उसके
बेटे-बेटियां,
वे नाराज हो
गये; उसके
मित्र, वे
नाराज हो गये।
एक तूफान आ
गया उसके
संबंधों के
जगत में।
जितने उससे
संबंधित लोग
थे, उन
सबको अड़चन खड़ी
हो गई। अब यह
आदमी कुछ और
हो गया। अब
इससे फिर से
पहचान करो। अब
इससे फिर से संबंध
जोड़ो। अब यह
पुराने भरोसे
का आदमी न रहा।
और
इस दुनिया में
कोई भी आदमी
कुछ सीखना
नहीं चाहता।
लोग पुराना जो
सीख लिया उसी
के आधार से जीना
चाहते हैं।
इसीलिये तो
लोग आदतें
नहीं बदलते।
गलत आदतें भी
हजारों साल तक
चलती हैं। जीवन-घातक
आदतें भी चलती
रहती हैं।
क्योंकि नये को
कौन सीखे, कौन झंझट
करे! पुराने
के साथ एक
सुविधा रहती है।
अब
समझो कि
तुम्हारी पत्नी
यह जानती है
कि अगर
तुम्हें
परेशान करेगी
तो तुम
क्रोधित हो
जाते हो, नाराज
हो जाते हो--और
तुम्हें
नाराज कर लेना
तुम्हारी
मालकियत है!
पत्नी जानती
है कि तुम्हारी
बटन कैसे
दबाना; जरा
दबाई कि तुम
नाराज हुए।
नाराज कर लिया
तो काम हो
गया। अब तुम
कितनी देर
नाराज रहोगे?
थोड़ी देर
में नाराजगी
के कारण
अपराध-भाव
पैदा होगा कि
यह मैंने क्या
किया, बेचारी
स्त्री, इसको
क्यों परेशान
कर रहा हूं!
जाकर साड़ी
खरीद लाओगे।
पत्नियां
जानती हैं कि
अगर साड़ी खरीदवानी
हो तो पहले
तुम्हें
नाराज करो; पहले
तुम्हें इतना
नाराज कर दो, तुम्हें ऐसी
गलत स्थिति
में खड़ा कर दो,
तुम्हारी
स्थिति, कि
तुम्हें खुद
ही लगने लगे
कि मैंने गड़बड़
की। जैसे
तुम्हें लगा
कि मैंने गड़बड़
की, कि अब
इसका भरपाव, इसका कुछ
प्रतिकार
करना होगा, परिपूरक कुछ
खोजना होगा।
जाओ साड़ी खरीद
लाओ, कि
जाओ सिनेमा
दिखा लाओ, कि
पत्नी चाहती
थी कि नया
जेवर खरीदना
है तो खरीद ही
दो। अब कुछ न
कुछ करके
संतुलन वापिस
स्थापित करना
होगा।
अगर
तुम ध्यान
करोगे, संन्यस्त
हो जाओगे, पत्नी
तुम्हें
नाराज न कर
सकेगी। तुम
हंसोगे, तुम
मुस्कराओगे।
तुम उसकी
व्यर्थ की
बकवास सुनकर
परेशान न
होओगे।
तुम्हारे ऊपर
से कब्जा गया।
तुममें
अपराध-भाव
पैदा न करवा
पायेगी, तो
बस तुम्हारे
ऊपर से
मालकियत गई।
हमारे
बड़े गहरे जाल
हैं एक-दूसरे
से बंधे हुए।
पत्नी नहीं
चाहती कि तुम
शांत हो जाओ, क्योंकि तुम
शांत हो गये
तो शांत
व्यक्ति पर कैसे
मालकियत
करोगे? पत्नी
नहीं चाहती कि
तुम ध्यान करो,
न पति चाहते
हैं कि पत्नी
ध्यान करे।
बड़ी
अजीब दुनिया
में हम जी रहे
हैं। पागलों
की एक जमात है, उसमें कोई
नहीं चाहता कि
तुम पागलपन
छोड़ो। अंधों
की एक जमात है,
उसमें कोई
नहीं चाहता कि
तुम आंखवाले
हो जाओ, क्योंकि
उससे सभी
अंधों का
अपमान होता
है। वे खींचकर
तुम्हें अंधा
ही रखना
चाहेंगे।
इसलिए
केदारनाथ
सिंह, अड़चन
तो स्वाभाविक
थी पहले ही
सोच लेना था।
कोई हर्जा
नहीं, नहीं
सोचा पहले, अब तो अड़चन
साफ हो गई।
मगर मैं
तुम्हें कहना
चाहता हूं, इतने जल्दी
निर्णय नहीं
बदलने चाहिए।
नहीं तो
मनुष्य की
आत्मा पैदा
नहीं हो पाती।
आत्मा तो पैदा
ही चुनौतियों
में होती है।
अंधकार
में टटोल
ढूंढ़ता
प्रकाश मैं!
दीप
है, परन्तु
लौ लगी नहीं;
ज्योति
के समीप से
जगी नहीं!
चाहता
अनंत गगन
भेदकर विकास
मैं!
दीप
कहीं और अमर
ज्योति कहीं;
दीपक
से अग्नि शिखा
मिली नहीं!
फिर
भी श्रम करता
हूं जाता अभ्यास
मैं!
माना, ये राहें
हैं दुर्गम
पथरीली;
लेनी
हैं सांसें सब
ठंडी, जहरीली!
मृत्यु
से रहा निकाल
छिपा अमृत हास
मैं!
आशा
है, पाऊंगा
ज्ञान वह,
होगा
जब सफल कठिन
पर्वत-अभियान
यह!
कोने
में दुबका-सा, भय से
प्रकाश
के, ममतात्तम
जायेगा
छिप-छिप कर
सहम-सहम!
जाऊंगा
स्वयं ज्योति
का बन आकाश
मैं!
अंधकार
में टटोल
ढूंढ़ता
प्रकाश मैं!
संन्यास
का भाव उठा, अंधेरे में
प्रकाश के
ढूंढ़ने की
आकांक्षा उठी,
अभीप्सा
उठी, इसे
मर न जाने दो।
दीप है, परंतु
लौ लगी नहीं!
तुम भी दीये
हो, जरा लौ
लग जाये।
ज्योति के
समीप से जगी
नहीं। तुम भी दीये
हो, बुझे
दीये हो, पुकारता
हूं कि आओ
मेरे करीब!
जले दीये के
करीब आ जाये
बुझा दीया, बहुत करीब आ
जाये, तो
ही छलांग लगती
है, ज्योति
से फिर ज्योति
जल जाती है।
अंधकार
में टटोलता
ढूंढ़ता
प्रकाश मैं!
दीप
है, परन्तु, लौ लगी नहीं;
ज्योति
के समीप से
जगी नहीं!
दीप
कहीं और अमर
ज्योति कहीं;
दीपक
से अग्नि-शिखा
मिली नहीं!
मिल
सकती है!
इसीलिए तो
गैरिक वस्त्र
चुने हैं
संन्यास के
लिये; वे
ज्योतिशिखा
के प्रतीक हैं,
अग्नि के
प्रतीक हैं।
आओ करीब! साहस
लो! शेष सब सम्हल
जाता है। तुम
मर भी जाओगे, तो भी
दुनिया ऐसे ही
चलती रहेगी।
तुम्हारे
संन्यस्त
होने से कोई
दुनिया अस्त-व्यस्त
नहीं हो जाने
वाली। हां, तुम्हारे
संन्यस्त
होने से
तुम्हारे
जीवन में
क्रांति हो
जायेगी, तुम्हारी
बाती जल
जायेगी।
पांचवां
प्रश्न:
इस
जगत में
सर्वाधिक
आश्चर्यजनक
नियम कौन-सा है?
एक
सूफी कहानी।
एक चोर रात के
समय किसी मकान
की खिड़की में
से भीतर जाने
लगा, कि खिड़की
की चौखट टूट
जाने से गिर
पड़ा और उसकी टांग
टूट गयी। अगले
दिन उसने
अदालत में
जाकर अपनी
टांग के टूटने
का दोष उस
मकान के मालिक
पर लगाया।
मकान-मालिक को
बुलाकर पूछा
गया, तो
उसने अपनी
सफाई में कहा:
इसका जिम्मेदार
वह बढ़ई है, जिसने
कि खिड़की
बनायी। बढ़ई को
बुलाया गया, तो उसने कहा
कि मकान बनाने
वाले ठेकेदार
ने दीवार का
खिड़की वाला
हिस्सा
मजबूती से
नहीं बनाया
था।
ठेकेदार
ने अपनी सफाई
में कहा:
मुझसे यह गलती
एक औरत की वजह
से हुई, जो
वहां से गुजर
रही थी। उसने
मेरा ध्यान
अपनी तरफ खींच
लिया था।
जब
उस औरत को
अदालत में पेश
किया गया, तो उसने कहा:
उस समय मैंने
बहुत बढ़िया
लिबास पहन रखा
था। आमतौर पर
मेरी तरफ किसी
की नजर उठती
नहीं है। सो, कसूर उस
लिबास का है
जो इतना बढ़िया
सिला हुआ था।
न्यायाधीश
ने कहा: तब तो
उसे सीने वाले
दर्जी को
बुलाया जाये, वही मुजरिम
है। उसे अदालत
में हाजिर
किया जाये। वह
दर्जी उस
स्त्री का पति
निकला और वही
वह चोर भी था
जिसकी टांग
टूटी थी।
यह
इस जगत का
सर्वाधिक
आश्चर्यजनक
नियम है: जो
गङ्ढे तुम
दूसरों के
लिये खोदते हो, उनमें स्वयं
गिरना पड़ता
है। फिर तुमने
चाहे गङ्ढे
जानकर खोदे
हों चाहे
अनजाने खोदे हों।
जो कांटे तुम
दूसरों के
लिये बोते हो,
वे
तुम्हारे ही
पैरों में
छिदेंगे। अगर
फूलों पर चलना
हो तो सभी के
रास्तों पर
फूल बिखराना,
क्योंकि
तुम्हें वही
मिलेगा जो तुम
दोगे।
यह
कहके आख़िरे-शब
शमअ? हो गई
ख़ामोश
किसी
की ज़िंदगी
लेने से
ज़िंदगी न
मिली।।
कितने
पतंगों की
ज़िंदगी ले ली
रात-भर में, मगर अंतिम
परिणाम में
शमा को खुद
बुझ जाना पड़ता
है। जो दूसरों
को बुझाती रही
रात-भर, सुबह
होते खुद भी
बुझ जाना
होगा।
यह
कह के
आख़िरे-शब शमअ? हो गई ख़ामोश--
किसी
की ज़िंदगी
लेने से
ज़िंदगी न मिली।।
फलक
के तारों से
क्या दूर होगी
जुल्मते-शब।
जब
अपने घर के
चिरागों से
रोशनी न
मिली।।
वोह
काफिले कि फलक
जिनके पांव का
था गुबार।
रहे-हयात
से भटके तो
गर्द भी न
मिली।।
वोह
तीरह-बख्त
हकीकत में है
जिसे मुल्ला।
किसी
निगाह के साये
की चांदनी न
मिली।।
यह
कह के
आख़िरे-शब शमअ? हो गई ख़ामोश
किसी
की ज़िंदगी
लेने से
ज़िंदगी न
मिली।।
वही
मिलेगा जो
दोगे। जिंदगी
दोगे, जिंदगी
मिलेगी।
जिंदगी लोगे,
जिंदगी छिन
जायेगी। जगत
प्रतिध्वनि
करता है। गीत
गाओ, चारों
तरफ से गीत
तुम पर बरस
जायेंगे।
गालियां दो, चारों तरफ
से गालियां
तुम पर बरस
जायेंगी। जो
चाहो लो। मगर
शर्त यही है
कि वही दोगे
तो मिलेगा।
जगत प्रतिदान
है। तुम दान
करो। जगत
प्रतिदान है।
हजार गुना
होकर लौट आता
है सब।
यह
कहानी तो एक
व्यंग्य है, एक मजाक है।
मगर जिंदगी
ऐसी ही है।
अगर इस नियम
को तुम
पहचानकर चलने
लगे तो बस
तुम्हारा रास्ता
स्वर्ग की तरफ
मुड़ गया। अगर
इस नियम को न पहचाना,
न समझे और
इसके विपरीत
चलते रहे तो
नर्क ही तुम्हारी
मंजिल है।
छठवां
प्रश्न:
श्री
मोरारजी
देसाई
राष्ट्र-हित
में यह करूंगा
वह करूंगा, ऐसी बातें
तो बहुत करते
हैं, फिर
कुछ करते
क्यों नहीं?
एक
सज्जन को मैं
जानता हूं। वह
जिंदगी भर से
चुनाव लड़ते
हैं और
जिंदगी-भर से
चुनाव हारते
हैं। चुनाव
लड़ना और चुनाव
हारना, यही
उनकी कथा है।
कहीं भी चुनाव
हो, कैसा
भी चुनाव हो; उनको खबर भर
लग जाये, वे
चुनाव में खड़े
होते हैं। और
हर बार उनकी
जमानत जब्त
होती है।
मैं
थोड़ा विचार में
पड़ा कि मामला
क्या है! और
आदमी भले हैं, सच्चे हैं, ईमानदार
हैं। मैंने
खोज-बीन की, तो पता चला
कि उनकी भलाई,
उनकी सचाई,
उनकी
ईमानदारी के
ही कारण जमानत
जब्त होती है।
एक चुनाव में
खड़े थे, लोगों
ने उनसे पूछा
कि आप चुनाव
में किसलिए खड़े
हैं, जनता
की सेवा के
लिए? उन्होंने
कहा कि नहीं, मुझे पद का
मजा लेना है।
अब इसको कोई
वोट देगा, इस
आदमी को? हालांकि,
बात सच्ची
कही उन्होंने
कि जनता की
सेवा वगैरह से
मुझे कुछ
लेना-देना
नहीं है। मुझे
पद का मेवा
लेना है; जनता
की सेवा से
मुझे क्या
लेना-देना है?
भाड़ में
जाये जनता!
बिलकुल
ईमानदारी की
बात कह दी: मगर
ऐसे आदमी की
जमानत तो जब्त
होगी ही।
लोगों ने
मारा-पीटा
नहीं, यही
क्या कम है!
उनसे
लोग पूछते हैं
चुनाव में कि
आप आश्वासन दें, क्या करेंगे?
वह कहते
हैं: कोई
आश्वासन मैं
नहीं दे सकता।
क्योंकि
आश्वासन अगर
पूरे न हो सके
तो? तो
पहले मैं पद
में पहुंच
जाऊं; फिर
तुम से कह
सकूंगा कि
क्या कर सकता
हूं, क्या
नहीं कर सकता
हूं।
मगर
ऐसे आदमी को
कोई मत देगा? मत तो तुम
झूठों को देते
हो, बेईमानों
को देते हो।
और उन
बेईमानों की
सारी कला यही
है कि तुम्हें
खूब आश्वासन दें। और
आश्चर्य तो यह
है कि तुम्हें
हर बार
आश्वासन
मिलते हैं; कभी पूरे
नहीं किये
जाते। फिर भी
दोबारा जब मिलते
हैं, तब
तुम फिर
उन्हें एकदम
से गटक जाते
हो, एकदम
से स्वीकार कर
लेते हो। फिर
आशा करने लगते
हो कि अबकी
बार पूरे
होंगे।
तुम्हारी आशा
कब टूटेगी? कब तुम
समझोगे?
आश्वासन
राजनेता पूरे करने
को नहीं देते।
आश्वासन देने
का लक्ष्य उनको
पूरा करना
नहीं है।
आश्वासन देने
का लक्ष्य
तुम्हारा मत
लेना है। जब
मत ले लिया, आश्वासन
देने का काम
पूरा हो गया; फिर क्या
पूरा करना है?
फिर दूसरे
काम पूरे करने
हैं, जिनके
लिये मत लिया
था। वे भीतरी
हैं। वे तुम से
कहे नहीं थे।
वे तुम से
कहते तो तुम
कभी मत न देते।
आखिर
राजनेता की भी
मजबूरी समझो।
तुम मत तब दोगे
जब वह तुम्हें
बड़े-बड़े
आश्वासन दे।
और उसके भीतर
जो छिपी
इच्छाएं हैं
जो उसे पूरी
करनी हैं, वह तभी पूरी
कर सकता है जब
पद पर पहुंच
जाये। तो तुम
से कहेगा कुछ,
करेगा कुछ।
वही कुशल
राजनीतिज्ञ
है जो तुम्हें
बार-बार धोखा
दे सके और
तुम्हें कभी
भी इतना होश में
न आने दे कि
तुम यह
सीधी-सी बात
समझ जाओ कि राजनेता
आश्वासन पूरा
करने को नहीं
देते हैं।
एक
झील के किनारे
मुल्ला मछली
मार रहा था।
झील के सामने
तख्ती लगी है
कि मछली मारना
सख्त मना है।
जो भी मछली
मारेगा, मुकदमा
चलाया
जायेगा। मगर
ऐसी झीलों में
तो मछलियां
मिलती हैं।
जहां सभी
मछलियां मार
रहे हों वहां
क्या खाक
मिलेगा!
दिन-भर बैठे
रहो बंसी
लटकाये, राम-राम
जपो, कुछ
नहीं होता।
ऐसी झीलों में
मुल्ला बहुत
मछलियां मार
चुका; कभी
कुछ नहीं
मिलता। और शाम
को जाकर
मछलीवाले से
उसको मछली
लेनी पड़ती है।
क्योंकि
पत्नी को तो
दिखाना ही
पड़ेगा कि
मारकर आया है।
नहीं तो वह
कहेगी दिन-भर
बरबाद किया।
वह जाता है
मछलीवालों की
दुकान पर।
बाहर खड़े होकर
कहता है कि
भाई, जरा
मछली फेंक
देना।
मछलीवाला
पूछता है: मछली
फेंक क्यों
देना, ले
क्यों नहीं
लेते हाथ में?
उसने कहा कि
चाहे कुछ भी
हो जाये, मछली पकड़
सकूं या न, लेकिन
झूठ कभी नहीं
बोलूंगा।
पत्नी से जाकर
कहना है कि
मछली पकड़ी है।
तुम फेंको तो
मैं पकड़ लूं।
झूठ मैं नहीं
बोल सकता।
इधर
तो मछलियां ही
मछलियां थीं।
उसने फिक्र
छोड़ दी तख्ती
की। ऐसे समय
में कोई
तख्तियां, नियमों
इत्यादि की
फिक्र करता है?
कौन पकड़ने
वाला है; देखा
जायेगा जब जो
होगा। मजे से
मार रहा था मछलियां,
तभी मालिक आ
गया। बंदूक
लिए पीछे आकर
खड़ा हो गया।
कहा कि मेरी
तरफ देखो।
तख्ती देखते
हो?
मुल्ला
ने तख्ती देखी, कहा कि हां, देखता हूं।
"तो
यहां क्या कर
रहे हो?' तो
कहा: "मछलियों
को तैरना सिखा
रहा हूं।'
अब
और क्या
करोगे!
तो
कांटे में आटा
क्यों लगाया
है?'
तो
उसने कहा:
मछली बिना
उसके तैरना
नहीं सीखती, इसलिए कांटे
में आटा लगाया
है। मछली फंसे
तो फिर उसको
तैरना सिखा दूं।
मछलियों
को तैरना कोई
सिखाता है? कांटे में
आटा कोई
मछलियों के
हित में लगाता
है?
तुम
राजनेताओं के
हाथ में
मछलियां हो।
और जब आश्वासन
का आटा लगाकर
कांटे
तुम्हारे गले
में डाले जाते
हैं, तभी तो
तुम उनको
गटकते हो; नहीं
तो तुम गटकोगे
ही नहीं। आटे
के लोभ में कांटे
को गटक जाते
हो। मतलब
राजनेता का
पूरा हो जाता
है। और यह कोई
एक की बात
नहीं है, यह
राजनीति का
पूरा-का-पूरा
जाल है।
सदियों से
आदमी इसी तरह
शोषित हुआ है
और होता रहेगा;
जब तक कि
जागे न, जब
तक कि यह बात
ठीक से देख न
ले।
तुम
यह भी नहीं
सोचते कि
राजनेता जो आश्वासन
देते हैं, वे पूरे
करेंगे कैसे?
समस्याएं
इतनी बड़ी हैं,
वे पूरा
करना भी चाहें,
तो नहीं कर
सकते। और तुम
यह भी नहीं
सोचते कि अगर
वे पूरा
करेंगे, तो
तुम्हारे ही
खिलाफ बहुत-सी
बातें करनी
होंगी, तब
पूरा कर
पायेंगे। और
वह तुम
बरदाश्त न
करोगे।
देश
गरीब है। हर
राजनेता को
तुम्हें
आश्वासन देना
पड़ता है कि गरीबी
मिटा दूंगा।
मगर तुम जानते
हो गरीबी मिटाने
के लिये जो
करना पड़ेगा
उसमें
तुम्हें बहुत
अड़चन आयेगी।
तुम बरदाश्त न
कर सकोगे।
तुम्हें
बच्चे पैदा
करने पर बाधा
पड़ जायेगी, क्योंकि अगर
इस देश की
गरीबी मिटानी
है तो इस देश
की संख्या
रुकनी ही
चाहिए। सच तो
यह है कि अभी
जितनी संख्या
है इससे आधी
संख्या होनी
चाहिए, तो
यह देश
खाता-पीता
खुशहाल हो
सकता है, नहीं
तो यह देश कभी
खुशहाल नहीं
हो सकता। संख्या
रोज बढ़ी जा
रही है। इस
सदी के पूरे
होतेऱ्होते
एक अरब आदमी
भारत में
होंगे। अभी भी
पचासी
प्रतिशत लोग
दरिद्र हैं।
सम्यकरूपेण
उनको भोजन
नहीं मिल रहा
है। अभी तो
साठ-पैंसठ
करोड़ ही आबादी
है, इस सदी
के पूरे
होतेऱ्होते
सौ करोड़ आबादी
होगी, एक
अरब।
हम
भयंकर गर्त
में जा रहे
हैं, लेकिन
अगर रोकना हो
तो तुम्हें
अड़चन आती है।
तो तुम कहते
हो कि यह तो
बात ठीक नहीं
कि हमें
जबर्दस्ती
संतति-नियमन लगाया
जाये। तो
तुम्हें खुश
करना हो तो
संतति-नियमन
नहीं होना
चाहिए। मगर तब
तुम गरीब रहोगे।
तब आश्वासन
पूरा नहीं
होता।
मोरारजी
देसाई के
सत्ता में आने
के बाद संतति-नियमन
के लिये जो भी
महत्वपूर्ण
प्रयास इंदिरा
ने किया था वह
सब समाप्त कर
दिया गया, क्योंकि
तुम्हें खुश
करना है।
इसीलिये तुमने
उनको वोट दी।
इंदिरा
से तुम नाराज
हो गये, क्योंकि
इंदिरा ने
चेष्टा की कि
कुछ हो सके। मगर
उस चेष्टा में
कष्ट
होनेवाला है।
अब किसी के
मवाद को
निकालना
चाहोगे शरीर
से, तो
पीड़ा होगी।
आपरेशन करोगे,
तो दर्द
होगा। और दर्द
कोई झेलना
नहीं चाहता।
इस
देश की
समस्याएं
इतनी बड़ी हैं
कि तुम्हारी स्वेच्छा
पर छोड़ दी
जायें तो पूरी
नहीं हो सकतीं।
तुम कहते हो:
"ब्रह्मचर्य
से हम बच्चों
को राकेंगे।' कैसे रोकोगे?
कितने
ब्रह्मचर्य
से लोग बच्चों
को रोक सके हैं?
ब्रह्मचर्य
तो तुम साध
रहे हो सदियों
से! लेकिन अगर
संतति-नियमन
का कोई उपाय
तुम्हें दिया
जाये, तो
तुम्हें
बेचैनी होती
है। तुम घबड़ा
जाते हो।
अगर
पुरुषों की
नसबंदी की
जाये, तो वे
समझते हैं कि
उनका
पुरुषत्व
नष्ट हुआ। मूढ़तापूर्ण
बात है।
नसबंदी से
किसी का
पुरुषत्व
नष्ट नहीं
होता। मगर लोग
भागते हैं कि
यह नसबंदी न
हो जाये।
दूसरे गांव
में भाग जाते
हैं। मुझे ऐसे
आदमियों का
पता है जो
इंदिरा के समय
में, उनके
गांव में
नसबंदी चल रही
थी, भागे
सो भागे...अब तक
नहीं लौटे
हैं! इतनी दूर
निकल गये
मालूम होता है,
कि अब कभी
लौटेंगे कि
इसका भी कुछ
शक है। नसबंदी
करनेवाले
डाक्टरों पर
हमले बोले
गये।
यह
तो फिर कैसे
गरीबी दूर
होगी? और
अगर गरीबी दूर
करना हो, तो
तुम्हारी
हड़तालें और
तुम्हारे
घिराव, और
तुम्हारी
मोर्चाबंदी
और तुम्हारी
सारी मूढ़ताएं
अगर चलती रहें,
तो गरीबी
बंद नहीं होने
वाली। कारखानों
में काम ही
नहीं होता।
हड़ताल करो, कि कारखाना
चले? लेकिन
इसको हम मानते
हैं हमारी
स्वतंत्रता है।
हड़ताल, घिराव
इसमें हम बड़ा
मजा लेते हैं।
नारेबाजी में
हमें बड़ा रस
है। बस कोई भी
नारा लगाता
निकलता हो कि
फिर तुम चल
पड़ते हो साथ।
चिल्लाने में
खूब मजा आता है।
शोरगुल मचाने
में दिल की
भड़ास निकल
जाती है।
मैं
एक सज्जन को
जानता हूं, जो किसी
पार्टी का
मोर्चा हो
उसमें जाते
थे। कम्युनिस्ट
का हो, कि
सोशलिस्ट का
हो, कि
कांग्रेस का
हो, कि
जनसंघियों का
हो। मैं
उन्हें देखता
था तो मैं
थोड़ा हैरान था
कि आदमी है
किस पार्टी का!
आखिर मैंने एक
दिन उनका हाथ
पकड़ा, कि
मैं तुम्हें
बार-बार देखता
हूं इसी झाड़
के नीचे खड़े
होकर। कोई भी
मोर्चा, कोई
भी उपद्रव, तुम चले...।
उन्होंने
कहा: हमें
किसी से क्या
मतलब? हमें
तो चिल्लाने
में मजा आता
है। कवायद भी
हो जाती है, घूमना भी हो
जाता है, दिल
की भड़ास भी
निकल जाती है।
मगर
उन्होंने कहा
कि एक बात
मुझे भी आप से
पूछनी है, क्योंकि मैं
भी आप से
परेशान हूं, किसी पार्टी
का मोर्चा हो,
किसी का
उपद्रव हो, आप क्यों
झाड़ के नीचे
हमेशा खड़े
होकर देखते हैं?
मैं भी आप
से यही पूछना
चाहता था? क्योंकि
आप अकेले आदमी
हैं जो मुझे
पकड़ सकते हैं,
और मुझे कोई
नहीं जानता।
मैं तो सभी
पार्टियों का
सदस्य हूं।
सदस्य भी हैं
वे सभी
पार्टियों के!
एक अकेले आप
आदमी हैं
जिनसे मुझे डर
है क्योंकि आप
मुझे हमेशा
देखते हैं। और
आप मुझे गौर
से देखते हैं।
आप क्यों खड़े
रहते हैं?
उनकी
परेशानी भी ठीक
है, क्योंकि
खड़े-खड़े देखने
से तो कोई
भड़ास नहीं निकलती।
खड़े-खड़े देखने
से तो कोई
उपद्रव करने
की जो तबीयत
है वह भरती
नहीं। मैंने
उनसे कहा: जैसे
मैं तुम्हें
उपद्रव करते
देखता हूं, ऐसे ही मैं
मन को भी अपने
एक दिन उपद्रव
करते देखता
था।
देखते-देखते
मन विदा हो गया।
वहां उपद्रव
शांत हो गया।
अब मैं तुम सब के
उपद्रव
अध्ययन कर रहा
हूं, कि
किसी तरह
तुम्हें भी
साथ दे सकूं
और तुम्हारे
उपद्रव
समाप्त हो
सकें। मैं सभी
के उपद्रव देख
रहा हूं।
इस
देश में भारी
उपद्रव चल रहे
हैं। तुम इन
उपद्रवों को
देखो, जरा
द्रष्टा बनो,
तो तुम्हें
समझ में आयेगा
कि इन
उपद्रवों के
चलते इस देश
की कोई समस्या
हल नहीं हो
सकती।
समस्याएं बड़ी
हैं, बहुत
बड़ी हैं।
एक
बार दो
चींटियां एक
हाथी से
मिलीं। एक ने
कहा: "क्यों रे, हम से
कुश्ती लड़ेगा?'
इससे पहले
कि हाथी कुछ
बोलता, दूसरी
चींटी कहने
लगी: "अरे, बेचारा
कैसे लड़ेगा, वह अकेला और
हम दो!
तुम
जरा समस्याएं
देखते हो, कितनी बड़ी
हैं! समस्याएं
बहुत बड़ी हैं।
और भारत की
क्षमता बहुत
छोटी--चींटी
जैसी!
सदियों-सदियों
से हमने भारत
की क्षमता को
बढ़ाया नहीं है।
हम सिकुड़ गये
हैं। हम फैलना
भूल गये हैं।
हमें विस्तार
की कला नहीं
रही याद। हमने
दीनता और
गरीबी को भी
गौरव मान लिया
है। संतोष...हर
स्थिति में
संतोष। उसका यह
दुर्भाग्य का
फल भोग रहे
हो। संतोष ठीक
है उसके लिये
जिसने स्वयं
को जान लिया।
संतोष स्वयं
को जानने की
छाया है; समाधि
की सुवास है।
उसके पहले तो
संतोष झूठा है,
सांत्वना
है, अपने
मन को समझाना
है। जैसे
लोमड़ी ने समझा
लिया था कि
अंगूर खट्टे
हैं, क्योंकि
पहुंच नहीं
पाई अंगूरों
तक। कोशिश तो
की, पहुंच
नहीं पाई। सोच
लिया अंगूर
खट्टे हैं, पहुंचने
योग्य ही नहीं
हैं। ऐसे हम
अपने अहंकार
को छिपा लेते
हैं संतोष
में।
सदियों
से इस देश को
संतोष का जहर
पिलाया जा रहा
है। फिर हम
भाग्यवादी हो
गये हैं।
संतोषी
भाग्यवादी हो
ही जायेगा।
एक
काहिल आदमी ने
अपने दोस्त से
कहा: देखो, कुदरत कैसी
मेरी मदद करती
है! मुझे कुछ
पेड़ काटने थे
और तूफान ने
आकर मेरी
समस्या हल कर
दी। फिर मुझे
कूड़े-करकट का
एक ढेर जलाना
था, तो
बिजली गिरी और
वह खुद-ब-खुद
जल गया।
यह
सुनकर दोस्त
बोला: अब आपका
आगे का क्या
प्रोग्राम है? उसने जवाब
दिया: मुझे
आलू और गाजर
जमीन से निकालनी
हैं इसलिए
भूचाल का
इंतजार कर रहा
हूं।
संतोषी
आदमी है...फिर
धीरे-धीरे
भाग्यवादी हो ही
जायेगा। इस
देश को भाग्यवाद
ने मारा!
समस्याएं बड़ी
होती चली गयीं
और हम समाधान
खोज न पाये।
उल्टे समाधान
खोजने की जगह, हम दरिद्रता
को
आध्यात्मिक
मानने लगे। यह
वही अंगूर
खट्टे वाली
बात है। हम
कहने लगे:
दरिद्रता बड़ी
आध्यात्मिक
है! दरिद्रता
बड़ी पवित्र
है! दरिद्रता
बड़ी निर्दोष
है! दरिद्रता
में बड़ा संतोष
रहता है। धनी
आदमी को बड़ी
चिंता होती है,
बड़ी फिक्र
होती है, बेचैनी
होती है। गरीब
को न फिक्र न
फांटा। ऐसे-ऐसे
सुंदर-सुंदर
हमने अपने
चारों तरफ जाल
खड़े कर लिये
हैं।
और
मजा यह है कि
जिन्हें तुम
चुनते हो, मोरारजी
देसाई जैसे
लोग, वे भी
इसी तरह की
बातों को
मानते हैं। इन
से हल कैसे
होगा? और
तुम उन्हीं को
चुनते हो, जो
तुम्हारी
बातें मानते
हैं। तुम उनको
तो चुन ही
नहीं सकते जो
तुम्हारी
बातें नहीं
मानते हैं। इस
संकट को समझो।
तुम उनको
चुनते हो जो तुम्हारी
बातें मानते
हैं।
तुम्हारी
बातों के ही
कारण तुम
परेशान हो।
तुम्हारी
बातों ने ही
तुम्हें मारा
है। तुम्हारे
विचारों ने
तुम्हारी फांसी
लगा दी है। और
तुम उनको
चुनते हो जो
तुम्हारे
विचारों से
सहमत हैं। हल
कैसे होगा?
कैंसर
के मरीजों ने
तय कर रखा है
कि हम तो डाक्टर
उसी को
चुनेंगे, जो
कैंसर का मरीज
हो। हम जैसा
हो, उसी को
चुनेंगे।
अंधों ने
चुनाव कर लिया
है कि हम तो
सिर्फ अंधों
को चुनेंगे, हम आंखवालों
को क्यों
चुनें? हम
तो अपने जैसे
लोगों को
चुनेंगे। मगर
फिर आंख का
इलाज कैसे
होगा?
यह
एक बड़ा भारी
संकटपूर्ण
प्रश्न
है--बड़ा उलझाव
का है। इस देश
में चुनाव में
उनको मत मिलते
हैं, जो
तुम्हारी
मूढ़ताओं का
समर्थन करते
हैं। उनको तो
तुम मत दे ही
नहीं सकते जो
तुम्हारी मूढ़ताओं
के विपरीत हैं,
क्योंकि वे
तो दुश्मन
हैं।
मेरी
तो लोग जबान
काटना चाहते
हैं, हाथ
काटना चाहते
हैं। पत्र आते
हैं रोज कि
मैं बोलना बंद
कर दूं, नहीं
तो मुझे मार
डाला जाएगा।
मुझे भी वे
वोट दे सकते
थे। मुझे भी
वे
राष्ट्रपति
बना सकते थे, अगर मैं
उनकी मूढ़ताओं
का समर्थन
करता। अगर मैं
एक लंगोटी
लगाकर खड़ा हो
जाता, एक
भिक्षापात्र
ले लेता और
दरिद्र-नारायण
के गीत
गाता--और कहता:
"भगवान तो
वहां है जहां
मजदूर पत्थर
तोड़ रहा है।
और भगवान तो
वहां है जहां
किसान भूखा मर
रहा है।' तो
जरूर कोई मेरी
जबान नहीं
काटता और न
कोई मेरे हाथ
काटने की
योजनाएं
बनाता, न
कोई गोली
मारने की
बातें करता।
तो वे मुझे उठा
लेते सिंहासन
पर। तब मैं भी
अंधा होता और
अंधे मेरे साथ
हो जाते।
इस
देश को जरूरत
है आंखवालों
की। और
आंखवाले
तुम्हारी
मान्याताओं
से राजी नहीं
हो सकते।
तुम्हारी
मान्याताएं
गलत हैं।
तुम्हारी
धारणाएं गलत
हैं। उन्हीं
धारणाओं ने
तुम्हारी यह
गति कर दी।
अमरीका
तीन सौ सालों
के इतिहास में
समृद्धि के
शिखर पर पहुंच
गया। हमारा
इतिहास दस
हजार साल पुराना
है। हम
दरिद्रता के
शिखर पर पहुंच
गये! जरूर
कहीं कोई अड़चन
है, कहीं कोई
तर्क की भूल
है। और हमारी
भूमि किसी दूसरी
भूमि से कम
उपजाऊ नहीं।
और हमारा देश
किसी दूसरे
देश से कम
सौभाग्यशाली
नहीं। हमारे पास
पहाड़ हैं, नदियां
हैं, भूमि
हैं--सब रंग, सब ऋतुएं
हैं। हमारा
देश तो सारी
ऋतुओं को लिए
हुए है। ऐसी
कोई जगह नहीं
जो हमारे देश
में न हो।
अधिकतम वर्षा वाले
स्थान हमारे
देश में हैं।
कम-से-कम
वर्षा वाले
स्थान हमारे
देश में हैं।
बर्फ जमी रहे जहां
सदा, ऐसे
भी स्थान
हमारे देश में
हैं। आग बरसती
है जहां, ऐसे
भी स्थान
हमारे देश में
हैं। हमारा
देश तो सारी
दुनिया का एक छोटा-सा
रूप है। इतनी
समृद्ध भूमि
तो कोई भी नहीं
है।
लेकिन
असमृद्ध
भूमियां
समृद्ध हो
गयीं। जिनके
पास कुछ भी न
था, उनके पास
सब हो गया। और
हम बैठे हैं!
हम भूचाल की
राह देख रहे
हैं। क्योंकि
गाजर और
मूलियां निकालनी
हैं। हम
भाग्यवादी
हैं। और
सिकुड़ने की
कला हमने ऐसी
सीखी है...और
ऐसी मूढ़ता
पूर्ण आदतें
हो गयी हैं, जिसका हिसाब
नहीं।
हमारे
मंत्री, मोरारजी
देसाई एंड
कंपनी, सारे
लोग इसी भाषा
में सोचते
हैं--कि
मंत्रियों की
तनख्वाह
थोड़ी-सी कम
कैसे हो जाये।
जैसे कि
मंत्रियों की तनख्वाह
थोड़ी कम हो
जाने से इस
देश की गरीबी
मिट जायेगी।
तुम बातें
क्या कर रहे
हो? संजीव
रेड्डी सोचते
हैं कि छोटे
मकान में राष्ट्रपति
कैसे रहने
लगे।
रहते-वहते
नहीं, सोचते
हैं। सोचने से
ही काफी हवा
बन जाती है; लोगों को
एकदम भाव हो
जाता है कि
आहा, यह
रहा महात्मा!
मगर
राष्ट्रपति
के किसी छोटे
मकान में रहने
से देश की
समस्या हल हो
जायेगी? इतनी
छोटी समस्या
है? इतनी
आसानी से अगर
समस्या हल
होती होती तो
कभी की हल हो
गयी होती।
इतने लोग तो
छोटे-छोटे झोपड़े
में रह रहे
हैं और समस्या
हल नहीं हो
रही। एक सज्जन
और छोटे
झोंपड़ों में
रहने लगे, इससे
समस्या हल हो
जायेगी? इतने
लोग तो बेकार
हैं, तनख्वाह
ही नहीं मिल
रही बिलकुल।
कुछ सज्जनों
ने अपनी
तनख्वाह कम कर
ली, इससे
समस्या हल हो
जायेगी? मगर
यह पाखंड खूब
चलता है।
एक
साहब बेहद
कंजूस थे। एक
दिन वह
सुबह-सुबह उदास
सिर झुकाये
बैठे थे, कि उनके
एक दोस्त ने
पूछा: भाई
क्या बात है, क्यों उदास
हो? उन्होंने
उत्तर दिया; पहले पंद्रह
रुपये किलो घी
मिलता था और
अब दस रुपये
किलो घी हो
गया है। यह
सुनकर दोस्त
ने कहा: फिर तो
तुम्हें खुश
होना चाहिए; एक किलो घी
लेने पर पांच
रुपये
बचेंगे। उन
साहब ने कहा:
यही तो दुख है,
पहले मैं घी
न खाकर पंद्रह
रुपये बचाता
था और अब केवल
दस रुपये
बचेंगे।
इस
तरह समस्याएं
हल की जा रही
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन का
बेटा घर आया, उसने अपने
बाप से कहा कि
सुनते हो, आज
मैंने आठ आने
बचाये; बस
में नहीं बैठा,
बस के पीछे
दौड़ता आया।
मुल्ला ने उसको
दो चपत रसीद
दी, एकदम
दो चपत रसीद
किये, कि
उल्लू के
पट्ठे! अगर
बचाना ही था, तो टैक्सी
के पीछे भागना
था। साढ़े तीन
रुपये बचते।
अट्ठनी बचाकर
आ गये!
इस
तरह के लोग इस
देश की
समस्याएं
सुलझाने में
लगे हैं। कोई
सोचता है:
चरखा कातने से
समस्या सुलझ
जायेगी। कोई
सोचता है कि
सप्ताह में एक
दिन उपवास
करने से समस्या
सुलझ जायेगी।
छोड़ो ये
मूढ़तायें, और छोड़ो इस
तरह के मूढ़ों
का संग, इनका
पीछा। और इनको
तुम्हारी
समस्याओं से
कोई प्रयोजन
नहीं है। इनको
प्रयोजन कुछ
और है--
इधर
कुर्सी, उधर
कुर्सी
यहां
कुर्सी, वहां
कुर्सी
जगह
पायी नहीं ऐसी
नहीं
पहुंची जहां
कुर्सी
सखे!
यह हाल है
इस
देश में
कुर्सी के
मारों का
गधे
भी रेंक कर
कहते हैं--
लाओ
इधर वह कुर्सी
कुर्सियों
कुर्सियों
में खूब ठनी
कुर्सियों
कुर्सियों से
मेल हुआ
कुर्सियों
कुर्सियों की
आंख लड़ी
यारो, शासन न हुआ, खेल हुआ
कुर्सी
हमारी आन-बान-शान
है कुर्सी
कुर्सी
ही दीन-धर्म
है, भगवान है
कुर्सी
कुर्सी
की याद मन में
उठाती है
कुरकुरी
पिछले
कई जन्मों का
वरदान है
कुर्सी
किस्सा
कुर्सी का बात
कुर्सी की
दिन
भी कुर्सी का
रात कुर्सी की
जिह्वा
जपती है मंत्र
जन-हित का
दिल में
खटकी है घात
कुर्सी की
ये
सारे लोग
कुर्सी के
पीछे दीवाने
हैं; इन्हें
कोई तुम्हारी
समस्याएं हल
करनी हैं? ये
बेचारे अपनी
समस्याएं हल
करने में लगे
हैं।
तुम्हारी
समस्याएं तो
उनसे हल हो
सकती हैं, जिनको
अपनी
समस्याएं हल
हो गयी हों।
इस
देश को
समाधिस्थ लोगों
का नेतृत्व
चाहिए। इस देश
को ऐसे लोगों
का नेतृत्व
चाहिए, जिनकी
खुद की कोई
समस्या नहीं
है। तो कुछ हल
हो; नहीं
तो हल नहीं हो
सकता। हल की
जगह हालतें और
रोज बिगड़ती
जाती हैं।
लेकिन तुम इसी
तरह के लोगों
के पीछे हो।
तुम इन्हीं की
चापलूसी में
लगे हो। लोग
इन्हीं के
चमचे हो गये
हैं। और कारण
है, क्योंकि
चमचों को लगता
है कि ये भी
माल लूट रहे
हैं, कुछ
चमचे के हाथ
भी लग जायेगा।
थोड़ा-बहुत हम
भी...। और ऐसा
नहीं है कि वे
गलती में हैं,
कुछ-न-कुछ
उनके हाथ लग
भी जाता है।
मगर देश से किस
को लेना-देना
है?
एक
साहब एक
शानदार होटल
में पहुंचे।
और उन्होंने
उमदा कीमती
खाना खाया। जब
बैरा बिल लाया, तो उन्होंने
पैसे देने से
इनकार कर
दिया। बैरा
मैनेजर के पास
पहुंचा, उसे
सारी बातें
बताईं।
मैनेजर ने आकर
उनकी अच्छी
तरह मरम्त की।
मार खाकर वह
कराहते हुए
दरवाजे की तरफ
बढ़ रहे थे कि
अचानक बैरे ने
झपटकर उनके
मुंह पर दो
घूंसे रसीद
दिये। मैनेजर
ने बैरे को
डांटा, जब
मैं मार चुका
हूं, तो
तुम्हें मारने
की क्या जरूरत
पड़ी? बैरे
ने कहा: जी, वह
तो आपने अपना
बिल वसूल किया
था; मुझे
भी तो अपना
टिप वसूल करने
दीजिए।
तो
नेता हैं, वे अपना बिल
वसूल कर रहे
हैं; उनके
चमचे हैं, वे
अपना टिप वसूल
कर रहे हैं।
तुम कुटे-पिटे
जा रहो हो।
मगर तुम
इन्हीं को
बार-बार
समर्थन दिये
जा रहे हो, कोई
करे भी तो
क्या करे?
देश
को जगाओ! देश
को थोड़ा-सा
होश से भरो।
समस्याएं बड़ी
हैं। तुम्हें
बड़े लोग
चाहिए। जो
तुम्हारी
समस्याएं हल
कर सकें। दूर-दृष्टि
लोग चाहिए।
वैज्ञानिक
क्षमता, प्रतिभा
के लोग चाहिए।
सड़े-गले लोगों
को मुर्दों को
तुम बिठा दोगे
दिल्ली
में...इससे
सिर्फ समय
कटेगा। और समय
के साथ
समस्याएं
बढ़ती चली जाती
हैं।
अच्छे-अच्छे
नाम...परिणाम
कुछ भी नहीं
हैं।
लोकतंत्र
के नाम पर
श्री मोरारजी
देसाई को
तुमने पद पर
बिठा दिया है।
और लोकतंत्र
की सब भांति
हत्या की जा
रही है। और
समस्याएं हल
करना तो दूर, लोकतंत्र की
सब भांति
हत्या की जा
रही है।
कम-से-कम
शासन को
श्रेष्ठतम
शासन कहा गया
है। और इस देश
में सर्वाधिक
शासन हो रहा
है। हर छोटी-छोटी
चीज पर कानून पर
कानून। इतने
कानूनों का
जाल कि आदमी
जी सके, यह
असंभव मालूम
होता है। यह
कैसा
लोकतंत्र है जहां
कानून ही
कानून के जाल
हैं जहां आदमी
को रत्ती-भर
हिलने-डुलने
की सुविधा
नहीं है? फिर
लोग
बेईमानियां
करते हैं। फिर
लोग कानूनों
से बचने के
लिए रास्ते
निकालते हैं।
फिर उनकी
बेईमानी
रोकने के लिए
और कानून
बनाने पड़ते
हैं। फिर
कानूनों के
छेद भरने के
लिए और कानून
बनाने पड़ते
हैं। और लोग
नये छेद खोज
लेते हैं। और
यह जाल बढ़ता
जा रहा है।
कम-से-कम
शासन होना
चाहिए।
न्यूनतम शासन
होना चाहिए।
लोगों को थोड़ी
जीने की
स्वतंत्रता
दो, थोड़ी
सांस लेने की
स्वतंत्रता
दो। वह भी
नहीं हो पा
रहा है।
खाने-पीने की
स्वतंत्रता
नहीं है।
मैं
शराब का
विरोधी हूं, लेकिन
शराब-बंदी का
पक्षपाती
नहीं हूं।
क्योंकि यह तो
व्यक्ति की
निजी
स्वतंत्रता
है। अगर कोई
व्यक्ति शराब
पीना ही चाहता
है, तो उसे
पीने का हक
है। यद्यपि
हमें फिक्र
करनी चाहिए कि
उसे पूरी तरह ज्ञात
हो कि शराब के
क्या-क्या
नुकसान हैं।
देश में हवा
होनी चाहिए कि
शराब के
नुकसान क्या-क्या
है। लेकिन फिर
भी कोई तय करे
पीने का, तो
लोकतांत्रिक
व्यवस्था में
उस पर जबर्दस्ती
नहीं होनी
चाहिए। किसी एक आदमी
को क्या हक है?
मोरारजी
देसाई शराब के
विरोध में हो
सकते हैं; लेकिन उनको
क्या हक है कि
अपनी जिद को, अपनी हठ को
सारे देश की
छाती पर थोप
दें? कल
समझ लो, कोई
शराबी मुल्क
का
प्रधानमंत्री
हो जाये और कहे
सबको शराब
पीनी पड़ेगी, तब तुम
कहोगे कि यह
कैसा
लोकतंत्र हुआ!
तुम्हें पीना
हो पीयो, न
पीना हो न
पीयो।
तुम्हें जो
ठीक लगता हो
उसका प्रचार
करो, हवा
पैदा करो, लोक-मत
बनाओ; लेकिन
जबर्दस्ती
क्यों?
अब
विनोबा भावे
कहते हैं कि
वह अनशन
करेंगे, अगर
बंगाल में
गऊ-हत्या बंद
नहीं होती।
मैं कोई
गऊ-हत्या का
पक्षपाती
नहीं हूं।
लेकिन फिर भी इस
तरह की
धमकियां देना
हिंसात्मक
है। बकरों की
हत्या हो, विनोबा
जी को कोई
फिक्र नहीं।
विनोबा जी जरा
अपने गुरु
महात्मा
गांधी की तो
याद करो, जिंदगी-भर
बकरी का दूध
पीकर जिये।
बकरियां कटती
रहें, बकरे
कटते रहें, कोई मतलब
नहीं।
बकरी-बकरे
जैसे मुसलमान
हैं! गायें हिंदू
हैं! यह भी खूब
रहा, बकरी-बकरों
को पता ही
नहीं कि वे कब
मुसलमान हो
गये!
हिंसा
नहीं होनी
चाहिए, लेकिन
इसका वातावरण
पैदा करो। फिर
भी अगर लोग कुछ
मांसाहार
करना ही चाहते
हैं, तो
उनको
जबर्दस्ती से
रोकना तो गलत
बात है। फिर
तो कल कोई जैन
सत्ता में
होगा तो वह कहेगा:
मछली भी मत
खाओ। फिर तो
बड़ी मुश्किल
हो जायेगी। वह
कहेगा कि
प्याज भी मत
खाओ, आलू
भी नहीं।
क्योंकि जैन
धर्म में जमीन
के नीचे गड़ी
हुई सब चीजें
वर्जित हैं।
उन्हें खाने से
पाप होता है।
तो आलू, मूली,
गाजर सब
पाप!
प्रत्येक
को अपने ढंग
से जीने दो।
लोकतंत्र का
अर्थ ही यह
होता है: जब तक
कि कोई
व्यक्ति किसी
दूसरे के जीवन
में बाधा न
डालने लगे, तुम बाधा न
बनो।
लोकतंत्र का
अर्थ
नकारात्मक होता
है।
और
जो करने योग्य
है, वह तो
करेंगे नहीं।
संतति-नियमन
होना चाहिए, वह तो
करेंगे नहीं।
शराब-बंदी
होना चाहिए।
जैसे शराब बंद
हो जायेगी तो
देश की
समस्याएं हल
हो जायेंगी, तुम सोचते
हो! गरीबी मिट
जायेगी, बीमारी
मिट जायेगी, अशिक्षा मिट
जायेगी? गऊ-वध
बंद हो जायेगा
तो तुम सोचते
हो देश की समस्याएं
मिट जायेंगी,
गरीबी मिट
जायेगी? एकदम
धन की वर्षा
हो जायेगी? अगर ऐसा
होता तो
अमरीका जैसे
देश को तो
दुनिया का
सबसे गरीब देश
होना चाहिए, क्योंकि
गऊ-हत्या चलती
है।
लेकिन
ये तरकीबें
हैं तुम्हारे
मन को उलझाने की।
गऊ-हत्या की
बंदी होनी
चाहिए, यह
सुनकर हिंदू
खुश हो जाता
है, वोट दे
देता है।
गऊ-हत्या होने
से, नहीं
होने से कोई
समस्या का हल
नहीं है। और
याद रखना, मैं
यह नहीं कह
रहा हूं:
गऊ-हत्या होनी
चाहिए। लेकिन
एक वातावरण
होना चाहिए।
सुसंस्कार की एक
हवा पैदा होनी
चाहिए।
जोर-जबर्दस्ती
नहीं।
धर्म-परिवर्तन
तक की आजादी
नहीं है, और
जयप्रकाश
नारायण कहते
हैं: यह दूसरी
आजादी आ गयी।
अब कोई हिंदू
अगर ईसाई होना
चाहे तो नहीं
हो सकता। कोई
ईसाई अगर
हिंदू होना
चाहे तो नहीं
हो सकता।
क्यों? यह
कैसा देश है!
लेकिन
हिंदुओं को
खुश करना है।
जनसंघी सत्ता
में पहुंच गये
हैं, उनको
खुश रखना है।
राष्ट्रीय
स्वयंसेवक
संघ का जहर
सत्ता में है;
उसको खुश
रखना है। तो
अब कोई हिंदू
ईसाई नहीं हो
सकता।
लेकिन
अगर कोई हिंदू
ईसाई होना
चाहे, तो
क्यों रोक
होनी चाहिए? कोई ईसाई
हिंदू होना
चाहे तो क्यों
रोक होनी चाहिए?
अगर कोई
व्यक्ति अपने
धर्म को भी
नहीं चुन सकता,
तो यह कैसा
लोकतंत्र हुआ,
यह कैसी
विचार की
स्वतंत्रता
हुई?
आश्वासन
तो कोई पूरे
नहीं हुए। ये आश्वासन, जो कभी नहीं
दिये थे, ये
पूरे किये जा
रहे हैं। ये
किसी ने मांगे
भी नहीं थे।
देश
को एक बहुत
जागरूक लोकमत
बनाना चाहिए।
मेरा
राजनीति से
कुछ लेना-देना
नहीं है। मैं
चाहता भी नहीं
कि मेरे
संन्यासियों
का राजनीति से
कोई लेना-देना
हो। लेकिन फिर
भी मैं कहूंगा
कि मेरे
संन्यासी को
देश में एक
जागरूक लोकमत
पैदा करने में
सहयोगी होना
चाहिए, क्योंकि
समस्याएं
तुम्हारी भी
हैं। देश की समस्या
तुम्हारी
समस्या है।
मैं नहीं कहता
कि तुम चुनाव
लड़कर और
लोकसभा में
पहुंच जाओ।
नहीं! मगर
जहां हो हवा
पैदा करो, जागरूकता
थोड़ी पैदा करो।
लोगों को कहो
कि समस्याएं,
असली
समस्याएं
क्या हैं।
असली
समस्याओं का समाधान
क्या हो सकता
है। झूठी
समस्याओं को
बताओ कि ये
झूठी
समस्याएं हैं;
इनमें
आदमियों का मन
उलझाया जाता
है। तुम्हारा
मन हटाने के
लिए झूठी
समस्याएं खड़ी
कर दी जाती
हैं।
और
लोगों को इतना
सजग करो कि जब
वे मत देने
जायें, तो
जो कम-से-कम
झूठ बोलता
हो--यह तो मैं
कह ही नहीं
सकता कि जो सच
बोलता हो उसको
वोट देना
क्योंकि वह तो
मुश्किल
है--जो कम-से-कम
झूठ बोलता हो,
जो कम-से-कम
राजनैतिक हो,
जो कम-से-कम
पद लोलुप हो, उसको ही मत
देना। इसकी
हवा पैदा करो।
और जिंदा
लोगों को मत
दो। मुर्दों
को, जो कभी
के मर चुके
हैं, जिन्हें
कब्रों में
होना चाहिए था,
वे चूड़ीदार
पाजामा पहनकर,
अचकन पहनकर
सत्ता कर रहे
हैं! जिंदगी
को मत दो, जवानों
को मत दो! इसकी
हवा जरूर पैदा
करो।
आखिरी
प्रश्न:
आपका
संदेश?
चाहता
हूं
एक
ताजी गंध भर
दूं
सब
दिशाओं में
तोड़
लूं फिर
आम्रवन के
ये
अनूठे बौर
पके
महुए आज
मुट्ठी में,
भरूं
कुछ और
दूं
सुना
कोई
सुवासित
श्लोक फिर
मन
की सभाओं में
आज-प्राणों
में उतारूं
एक
उजला गीत
भावनाओं
में बिखेरूं
चित्रमय
संगीत
खिलखिलाते
फूल
वाले छंद धर
दूं
मृत
हवाओं में
मर
गया है यह देश, इस पर श्वास
फूंक दूं!
इसके गीत खो
गये हैं, इसे
छंदबद्ध कर
दूं! इसकी
वीणा खो गई है,
इसके तार
छेड़ दूं! और यह
हो सकता है, तुम्हें
देखता हूं तो
भरोसा आता है
कि यह हो सकता
है।
इक
तसव्वुर
जिंदगी पाने
को है
ऐसा
लगता है कि तू
आने को है
हर
तरफ है तेरे
आने की खुशी,
हर
तरफ है शोर
तेरे प्यार का
जिक्र
है तेरे लबो
रुखसार का
आसमां
भी फूल बरसाने
को है।
यूं
निखरती जा रही
है जिन्दगी,
खिल
उठे जैसे
बहारों में
चमन
गुनगुनाती
फिर रही है
यूं हवा
जैसे
छू कर आई हो
तेरा बदन
ये
हंसी वादी महक
जाने को है।
ऐसा
लगता है कि तू
आने को है
तेरे
आ जाने से ऐ
जाने-बहार
मेरे
नग्मों को
जुबां मिल
जायेगी,
इन
फजाओं को
मिलेगा
बांकपन
रास्ते
को कहकशां मिल
जायेगी।
हुस्न
तेरा जलवा
दिखलाने को
है।
ऐसा
लगता है कि तू
आने को है।
तुम
गैरिक
संन्यासियों
को देखता हूं
तो आशा बंधती
है कि
परमात्मा
पुकारा जा
सकता है। फिर
मंदिर बन सकता
है इस पृथ्वी
पर--जीवंत, नृत्यमय, उत्सवमय! पर
बहुत कुछ
तुम्हें करना
है।
हे
अमृत, मृत्यु
से उठो, उठो!
अंधकार, अंधकार!
फैला
है आर-पार!
आपको
न जहां कहीं
अपनी
भी पहचान!
तुम
वहां
प्रकाशवान
हे
मनुज, मर्त्य
से उठो, उठो!
पशुता
का पाश
तुम्हें
जड़ता
का वास
तुम्हें!
कर
रहे ये ही कुछ
सदियों
से नाश
तुम्हें!
तुम
अनंत
शक्ति-वीर्य,
हे
पुरुष
द्वंद्व से
उठो, उठो!
झुक
गया गाण्डीव;
झुक
गया स्कन्ध
ग्रीव!
बन
गये तुम
प्रवीर!
क्षण
में हतभाग्य, क्लीव!
पूर्णपात्र
तुम विराट,
हे
प्रबल, दैन्य
से उठो, उठो!
युगऱ्युग
से तुम अजेय,
प्राप्त
करो पुनः
श्रेय;
स्वप्नों
की माया में
भूल
गये पुण्य
ध्येय?
तुम
अशोक, परम
हर्ष;
हे
कमल, पंक से
उठो, उठो!
तुम
अकाटय, अविच्छेद;
भाग
नहीं, नहीं
भेद!
क्या
अभाव, जो
ललाट पर
छलक
उठा स्वेद?
तुम
अखंड
ज्ञान-ज्योति
हे
अरुण, कुहा
से उठो, उठो!
भय
से क्यों
भृकुटी बंक?
स्वयं
बने हीन, रंक!
वर्ना, तुम तो महान,
तुम
प्रबुद्ध, तुम अशंक!
हे
सुह्यद, द्रोह
से उठो, उठो!
रौंद
रहा है भविष्य;
खींच
रहा है अतीत!
वर्तमान
तो घिसा
पिसा
हुआ है सभीत!
तुम
प्रदीप्त
तेज-पुंज;
हे
अनल, धूम्र से
उठो, उठो।
यही
संदेश है कि
जागो। यही
संदेश है कि
उठो। हे कमल
पंक से उठो, उठो!
आज
इतना ही।
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