दिनांक
5 दिसंबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार
:
1—आपने
कहा कि तुझसे
पहले भी मैं
ऐसे दो जोड़े
बना चुका हूं, तेरा तीसरा
जोड़ा है। पर
मेरी तो कोई
पात्रता भी
नहीं, फिर
आपने मुझे
कैसे चुना?
2—आप
कहते हैं कि
जीवन को उसके
सभी आयामों
में जीयो। इससे
आपका क्या
प्रयोजन है?
3—पाखंड
का इतना बल और
आकर्षण क्या
है?
4—यहूदी
संत
मुरजुत्रा का
विचार था कि
"चेले ऐसे
पात्र हैं कि
उनमें गुरु का
रंग झलकना
चाहिए। यदि
गुरु की
गुरुता के
बावजूद शिष्य
में अपेक्षित
गुण नहीं आए
तो उसमें दोष
गुरु का है।'...कृपया इस
कथन पर प्रकाश
डालें।
पहला
प्रश्न:
ओशो, आपने कहा कि
"तुझसे पहले
भी मैं ऐसे दो
जोड़े बना चुका
हूं, तेरा
तीसरा जोड़ा
है।' पर
ओशो मेरी तो
कोई पात्रता
ही नहीं, फिर
आपने मुझे
कैसे चुना? बताने की
कृपा करें।
कृष्ण
चेतना, प्रेम
एकमात्र तत्व
है जो मृत्यु
को जीत ले। शेष
सब मृत्यु से
हार जाता है।
जीवन
और मृत्यु में
विरोध नहीं
है। असली विरोध
प्रेम और
मृत्यु में है, जीवन और
मृत्यु में तो
विरोध होगा ही
कैसे! क्योंकि
जीवन की
परिसमाप्ति
हमेशा ही
मृत्यु में
होती है। तो
मृत्यु तो जीवन
का फल है, उसकी
निष्पत्ति
है। जीवन है
यात्रा, मृत्यु
है मंजिल।
विरोध कैसे
होगा? निरपवाद
रूप से
प्रत्येक
जीवन मृत्यु
में लीन हो
जाता है।
इसलिये
मृत्यु तो
जीवन का परम शिखर
है। मृत्यु
जीवन की
विरोधी नहीं
हो सकती।
फिर
किससे विरोध
है मृत्यु का? प्रेम से विरोध
है। प्रेम
एकमात्र तत्व
है, जिससे
मृत्यु हारती
है; जिसके
सामने मृत्यु
समर्पण करती
है। इसे समझना।
इसीलिये
जिसका हृदय
प्रेम से भरा
है उसके जीवन
में भय
विसर्जित हो
जाता है।
क्योंकि सभी
भय मृत्यु का
भय है। और
जिसके जीवन
में भय है उसके
जीवन में
प्रेम का अंकुरण
नहीं हो पाता।
भयभीत
व्यक्ति धन
इकट्ठा करेगा,
पद-प्रतिष्ठा
की खोज करेगा;
लेकिन
प्रेम से
बचेगा।
प्रेमी सब
लुटा देगा प्रेम
के ऊपर, सब
निछावर कर
देगा--पद भी, प्रतिष्ठा
भी, धन भी, जरूरत पड़े
तो जीवन भी।
सिर्फ
प्रेम ही
जानता है, जीवन का
समर्पण भी
किया जा सकता
है । क्योंकि
प्रेम को पता
है कि जीवन के
बाद भी एक और
जीवन है; कि
जीवन को छोड़कर
भी शाश्वत
जीवन शेष ही
रह जाता है।
लेकिन, प्रेम बहुत
थोड़े-से लोग
ही जान पाते
हैं। जैसे
ध्यान बहुत
थोड़े-से लोग
जान पाते हैं,
ऐसे ही
प्रेम भी बहुत
थोड़े-से लोग
जान पाते हैं।
जिन्होंने
ध्यान जान
लिया
उन्होंने
परमात्मा को जाना--एकांत
में, अकेले
में। और, जिन्होंने
प्रेम जाना
उन्होंने
परमात्मा को
जाना--संबंध
में, संग-साथ
में।
प्रेम
है--किसी
व्यक्ति के
साथ इस तरह
लीन हो जाना
कि जरा भी
द्वि न रह
जाये, जरा
भी भेद न रह
जाये, कोई
परदा न रह जाये,
कोई घूंघट न
रह जाये। दो
व्यक्ति जब
एक-दूसरे के
सामने अपनी
आत्माओं को
परिपूर्ण
नग्न कर देते
हैं--सचाई में,
प्रामाणिकता
में; जैसे
हैं वैसे ही
एक दूसरे के
सामने हो जाते
हैं--तो उस
अपूर्व घड़ी
में परमात्मा
घटता है। यह
एक उपाय है
परमात्मा के
घटित होने का।
दूसरा
उपाय है: यदि
प्रेम संभव न
हो, यदि
इसमें
असुविधा
मालूम पड़े कि
मैं किसी के भी
सामने अपने को
पूरा-पूरा
प्रगट न कर
पाऊंगा, लाज-संकोच
रहेगा, कुछ
दुविधा रहेगी,
कुछ
द्वंद्व
रहेगा, कुछ
भीतर संशय
रहेगा, प्रगट
भी करूंगा तो
थोड़ा अभिनय
रहेगा, थोड़ा
पाखंड
रहेगा--तो फिर
दूसरा मार्ग
है, ध्यान
का, कि फिर
चुप हो जाओ, मौन हो जाओ, अपने एकांत
में डूब जाओ।
दोनों
के बीच एक ही
घटना घटती है।
जब दो व्यक्ति
प्रेम में
होते हैं तो
अहंकार
विसर्जित हो जाता
है और जब कोई
एक व्यक्ति
ध्यान में
होता है तब भी
अहंकार
विसर्जित हो
जाता है। ध्यान
और प्रेम, दोनों ही
अहंकार को
विसर्जित
करने की कलाएं
हैं। कुछ लोग
हैं जो प्रेम
से विसर्जित
करेंगे, कुछ
लोग हैं जो
ध्यान से
विसर्जित
करेंगे। पुरुष
के लिये आसान
है ध्यान से
विसर्जित
करना। स्त्री
के लिये आसान
है प्रेम से
विसर्जित करना।
क्योंकि
पुरुष का जीवन
ज्यादा से
ज्यादा दस
प्रतिशत
प्रेम हो पाता
है, नब्बे
प्रतिशत
प्रेम नहीं हो
पाता। स्त्री
का जीवन नब्बे
प्रतिशत
प्रेम हो पाता
है--आसानी से, दस प्रतिशत
में ही अड़चन
होती है।
स्त्री
और पुरुष की
अंतर्व्यवस्था
भिन्न-भिन्न
है। इसलिये
जिन्होंने
परमात्मा
जाना है--यदि
वे पुरुष थे
तो ध्यान से
जाना है; यदि
वे स्त्रियां
थीं तो प्रेम
से जाना है।
लेकिन, स्त्री-पुरुष
के भेद को
बहुत जड़ता से
मत पकड़ लेना।
क्योंकि
बहुत-से पुरुष
हैं, जिनके
पास
स्त्रियों
जैसा प्रेम
करनेवाला हृदय
है और बहुत-सी
स्त्रियां
हैं, जिनके
पास पुरुषों जैसा
विचार करने
वाला
मस्तिष्क है।
फिर भेद होगा,
फिर
भिन्नता हो
जाएगी।
मीरा
ने
जाना--प्रेम
में, भक्ति
में। लल्ला ने
जाना--ध्यान
में। लल्ला भी
स्त्री है और
मीरा भी
स्त्री है।
लेकिन लल्ला
ऐसी स्त्री
है--जैसे
महावीर; जैसे
महावीर का नया
आविर्भाव।
लल्ला अकेली स्त्री
है
मनुष्य-जाति
के फकीरी के
इतिहास में, जो नग्न
रही। मीरा
प्रेम में
जानी, तल्लीन
होकर
जानी--कृष्ण
में।
फिर
ऐसी ही बात
पुरुषों में
भी है। बुद्ध
ने ध्यान से
जाना, चैतन्य
ने प्रेम से
जाना। बुद्ध
ध्यान में अकेले,
और अकेले, और अकेले
होते गये। और
चैतन्य मस्त होते
गये नाच में, कृष्ण के
प्रेम में।
ऐसे डूबे
कृष्ण के
प्रेम में कि
चैतन्य का
पुरुष बचा ही
नहीं। तो
चैतन्य
यद्यपि पुरुष
हैं, मीरा
स्त्री है; लेकिन, दोनों
एक ही मार्ग
के राही हैं।
और लल्ला यद्यपि
स्त्री है, महावीर
पुरुष हैं; लेकिन दोनों
एक ही मार्ग
के राही हैं।
इसलिये, स्त्री-पुरुष
से शारीरिक
भेद नहीं कर
रहा हूं; स्त्री-पुरुष
से तुम्हारी
अंतर्व्यवस्था
का भेद कर रहा
हूं।
प्रेम
से जो जान सके, उसे ध्यान
की जरूरत नहीं
है। जो प्रेम
से न जान सके, उसे ही
ध्यान की
जरूरत है। और, मैं
तुमसे यह कहना
चाहता हूं कि
ध्यान दोयम है,
नंबर दो है।
क्योंकि, ध्यान
थोड़ा
रूखा-सूखा
होगा--प्रेम
की हरियाली न
होगी, प्रेम
के फूल न
होंगे, प्रेम
के झरने न
होंगे।
चेतना
को जब मैंने
संन्यास दिया
तब उसे मैंने नाम
दिया "कृष्ण
चेतना'; उसके
पति को नाम
दिया "कृष्ण
चैतन्य'।
इस नाम में
संकेत था, इशारा
था--कि दोनों
को प्रेम में
डूब जाना है।
और, उन्होंने
समझा। दोनों
को एक-दूसरे
के प्रेम में
इस भांति डूब
जाना है कि दो
न बचें, एक
ही बचे। इसी
संदर्भ में
चेतना ने पूछा
है कि आपने
कहा कि तुझसे
पहले मैं ऐसे
दो जोड़े बना चुका
हूं, तेरा
तीसरा जोड़ा
है।
जोड़े
तो बहुत हैं, दुनिया में,
बस
नाममात्र को
हैं; कभी-कभार
कोई असली जोड़ा
होता है।
पति-पत्नी तो
होना आसान
है--जोड़ा होना
मुश्किल है।
"जोड़ा' शब्द
का अर्थ समझते
हो?--जो जुड़
गये। किसी
कानूनी
व्यवस्था से
नहीं, किसी
सामाजिक नियम
से नहीं--जो
अंतरतम से जुड़
गये। जो दो
देह रहे, लेकिन
एक प्राण हो
गये। ऐसे जोड़े
मुश्किल से होते
हैं। इस तरह
के जोड़े अपने
प्रेम को ही
परमात्मा का
मार्ग बना
लेते हैं। इस
तरह के जोड?ो के जीवन
में प्रेम की
शाश्वतता उतर
आती है। फिर, प्रेम
क्षणभंगुर
नहीं होता--कि
आज है और कल नहीं,
कि अभी है
और अभी गया। फिर,
प्रेम के
ऐसे मौसम नहीं
आते। फिर, प्रेम
एक थिरता होती
है। चेतना में
वैसी थिरता
है। इसलिये
कहा।
और
तूने पूछा
चेतना कि पर
ओशो, मेरी तो
कोई पात्रता
ही नहीं है...।
यही तेरी पात्रता
है। प्रेमी
मानता ही नहीं
कि उसकी कोई पात्रता
है। वही तो
उसकी
गुणवत्ता है।
प्रेमी
विनम्र होता
है। प्रेमी
निरहंकारी
होता है।
प्रेमी घोषणा
नहीं कर सकता
कि मैं प्रेमी
हूं। ज्ञानी
घोषणा कर सकता
है। प्रेमी
घोषणा नहीं कर
सकता। प्रेमी
तो कहता है, "मैं नहीं
हूं'।
"नहीं' होने
में ही उसकी
सारी पात्रता
है। प्रेमी तो
खाली होता है,
रिक्त
पात्र होता
है। उसी रिक्त
पात्र में तो
धीरे-धीरे परमात्मा
का रस झरता है
और भरता है।
तूने
पूछा कि मेरी
तो कोई
पात्रता ही
नहीं है, फिर
आपने मुझे
कैसे चुना? इसीलिये!
पात्रता होती
तो ऐसी बात
मैं न कहता।
पात्रता नहीं
है, कोई
पात्रता का
भाव ही नहीं
है। इसलिये, चेतना बहुत
शीघ्र मेरे
बहुत निकट आ
गई है, अनायास;
कुछ प्रयास
किया है उसने,
ऐसा भी नहीं
है। जैसे, जन्मों-जन्मों
का प्रयास है
पीछे, उसकी
फलश्रुति हुई
है। मेरे पास
आती है तो एक शब्द
बोल नहीं पाती
है, सिवाय
आंसुओं के।
पास आती है तो
रोमांचित हो जाती
है, उसका
रोआं-रोआं नाचने
लगता है। होश
खो देती है।
जिस शराब की
मैं बात कर
रहा था, जैसे
ही मैं उसे
बुलाता हूं, वैसे ही
अपने बस में
नहीं रह जाती
है। कोई एक पार
की मस्ती उसे
पकड़ लेती है।
ये प्रेमी के
लक्षण हैं, ये दीवाने
के लक्षण हैं।
उसके
हृदय से सदा
मैंने ऐसी
आवाज सुनी है:
पधारो, बैठ रहो इस
अमराई की सघन
कुंज में आज,
मेरी
अमराई में आज!
यहां
आने में लगती
है निदाघ की
दोपहरी को लाज,
दहकती
दोपहरी को
लाज!
लू
चलती है
हहर-हहर कर
आग
बरसती है
पृथ्वी पर,
जल
रहे हैं
पल-क्षण, तुम
यहां बिता लो
कुछ घड़ियां
बिन काज;
पधारो, बैठ रहो इस
अमराई की सघन
कुंज में आज!
अति
सूनी है यह
अमराई,
यहां
अमित नीरवता
छाई,
कि
केवल कोयल
गाती है पंचम
में अपने स्वर
को साज;
सुघड़, इस समय
पधारो गज-गति
से तुम अमराई
में आज!
देखो
अमियां
गदरायी हैं
मन
में सिहरन उठ
आयी है,
गुदगुदी
अंतर की कहती
है तुमसे: आओ, हे रसराज!
पधारो
सहज, सलज
मुसकाते मेरी
अमराई में आज!
ऐसा
उसने कभी कहा
नहीं। ऐसी
बातें कही
नहीं जातीं।
ऐसी बातें तो
बिन-कही ही
प्रकट होती
हैं। ऐसे
निमंत्रण
शब्दों में
नहीं दिये
जाते। ऐसे
निमंत्रण तो
निःशब्द में
दिये जाते हैं, कोरे कागजों
पर भेजे जाते
हैं। लिखो तो
खराब हो जाते
हैं। लिखो तो
छोटे हो जाते
हैं, बोलो
तो ओछे हो
जाते हैं।
इतने विराट
आमंत्रण मौन
ही वहन कर
सकता है।
नहीं
चेतना कुछ
बोलती है, नहीं चेतना
कुछ कहती है; मगर उसका
हृदय सब कह
जाता है। उसका
अबोल सब बोल
जाता है।
ओ
मेरे गोपाल
छबीले कुछ
ठुनका दो
पांजनियां,
झुन-झुन
खुन-खुन-टुन-टुन-धुन
की तुम बरसा
दो यांकनियां;
पांजनियां-किंकिणियां
गूंजे, हुलस
उठें ब्रज की
जनियां,
मैं
बलि जाऊं, तुम कुछ
ठुनको, डोलो,
मम
घर-आंगनियां,
प्यासे
श्रवण, हृदय
अकुलाया, धुन
सुनने को
नूपुर की
अहो, हठीले जरा
ठिठक, टुक
आज हरो पीड़ा
उर की
एक-एक
रुन-झुन में
उलझीं
आकांक्षाएं
कई-कई;
तुम
क्या जानो, निठुर, जगी
हैं क्या-क्या
पीड़ा नयी-नयी
रही-सही
यह लाज निगोड़ी, बह-बह गयी
नयन जल में
उझक-उझक
मग जोह रही है
कठिन
प्रतीक्षा
पल-पल में
कुटिया
के दरवाजे
बैठी कब से
कान लगाये मैं,
निष्ठुर, अब तो आ जाओ, इस घनी कुहू
के साये में।
चुपचाप, चेतना बढ़ी
जाती है। और
भी बहुत मित्र
हैं, जो
चुपचाप बढ़े
जाते हैं। कोई
घोषणा नहीं है,
कोई
दुंदुभि नहीं
पीटनी है। पता
ही न चले, पगध्वनि
भी सुनाई न
पड़े। यही
पात्र का
लक्षण है।
पात्रता की
चर्चा तो
सिर्फ अपात्र
करते हैं।
पात्रता की
चर्चा तो वे
ही करते हैं, जो हीन
ग्रंथि से
पीड़ित हैं।
जिनके भीतर
कोई हीन
ग्रंथि
नहीं--और जहां
प्रेम है, जहां
ध्यान है, वहां
कैसी हीन
ग्रंथि--वे
प्रेम की
चर्चा नहीं
करते, ध्यान
की चर्चा नहीं
करते। वे
पात्रता की
चर्चा नहीं
करते, योग्यता
की चर्चा नहीं
करते। लेकिन,
उनकी आंखें,
उनके आंसू
सब कह जाते
हैं--सब, जो
नहीं कहा जा
सकता।
चेतना
को मैंने
जानकर ही कहा
है। यहां मेरे
संन्यासियों
में तीन जोड़े
हैं, मेरे
अंकन में--जो
एक-दूसरे में
डूब जायें तो
परमात्मा को
पा लेंगे।
चेतना और
चैतन्य का जोड़ा
उनमें एक है।
दूसरा
प्रश्न:
आप
कहते हैं कि
जीवन को उसके
सभी आयामों
में जीओ। इससे
आपका क्या
प्रयोजन है?
मनुष्य
शरीर है, मन
है, आत्मा
है--और
परमात्मा भी!
जब मैं कहता
हूं कि जीवन
को उसके सब
आयामों में
जीओ, तो
मैं कहता
हूं--शरीर की
भांति भी, मन
की भांति भी, आत्मा की
भांति भी और
परमात्मा की भांति
भी, अपनी
समग्रता में
जीओ। किसी का
निषेध न हो, किसी का
खंडन न हो।
ऐसा न हो कि
तुम्हारा
परमात्मा तुम
अपने देह के
विपरीत समझ
लो। देह के विपरीत
होता तो देह
में क्यों
होता? विपरीत
ही होता तो
देह में उतरने
की कोई जरूरत
ही न थी। उतरा
है तो कारण
होगा। उतरा है
तो रहस्य
होगा। इतनी
लंबी यात्रा
की है, अदृश्य
से दृश्य की; तो यूं ही
नहीं की होगी।
तो
जब मैं कहता
हूं कि सब
आयाम में जीया
जाये जीवन, तो तुम से यह
कह रहा हूं कि
जीवन का कोई
भी अंग त्यागना
मत, छोड़ना
मत, तोड़ना
मत। एक अंग को
दूसरे अंग के
विपरीत मत मान
लेना। तुम्हारे
जीवन के सारे
अंग एक ही
माला में पिरोये
हुए फूल हैं, एक ही धागे
में अनस्यूत
हैं।
तुम्हारे
सारे जीवन में
एक ऐसा संगीत
होना चाहिये,
जिसमें
तुम्हारे
सारे
वाद्य--देह के,
मन के, आत्मा
के, परमात्मा
के--समवेत हो
जायें, एक
स्वर में डूब
जायें।
तुम्हें एक आरकेस्ट्रा
बनना है।
संगीत
सोलो भी होता
है। कोई आदमी
सिर्फ बांसुरी
बजाता
है--सोलो
बांसुरी-वादक।
लेकिन फिर कोई
तबले पर तबले
के साथ तबले
की संगति में
बांसुरी
बजाता है। तब
रस और गहरा हो
जाता है। क्योंकि
तबला अपनी
भाव-भंगिमा ले
आता है। फिर
वाद्य बढ़ते
जाते हैं। फिर
आरकेस्ट्रा
तुमने देखा है? पचासों
वाद्य एक साथ
बजते हैं।
सारे वाद्यों के
बीच एक
अनस्यूत
संगीत होता
है। जितना बड़ा
संगीतज्ञ
होगा उतने
अधिक वाद्यों
को समाहित करेगा,
क्योंकि
उतना ही उसका
संगीत अनंत
आयामी हो जायेगा।
अब
तक धर्म
एक-आयामी रहा
है। चुन लो एक
दिशा और शेष
सब उसी दिशा
पर त्याग कर
दो। तो
धार्मिक व्यक्ति
तो पैदा हुए; लेकिन
सृजनात्मक
व्यक्ति पैदा
न हो सके। धार्मिक
व्यक्ति तो
पैदा हुए, लेकिन
बड़े अधूरे, अपंग, अपाहिज।
किसी के पास
सिर्फ आंखें
थीं, कान
नहीं थे और
किसी के पास
सिर्फ पैर थे
हाथ नहीं थे
और किसी के
पास जबान थी, और हाथ नहीं
थे--लेकिन
अपंग।
मैं
एक ऐसे
धार्मिक
व्यक्ति को
पृथ्वी पर जन्म
देना चाहता
हूं, जिसकी
आंखें भी हों,
कान भी हों,
हाथ भी हों,
पैर भी
हों--जो
सर्वांगीण हो,
जो सर्वांग
हो। लेकिन, सर्वांग तुम
तभी हो सकोगे,
जब तुम जीवन
में कुछ भी न
छोड़ो; जब
तुम जीवन का
सब समाहित कर
लो; जब तुम
इतने कुशल हो
जाओ कि पूरे
जीवन को समाहित
करके भी जीवन
से बंधो न।
देह
तो परमात्मा
का मंदिर है।
अब तक तुम्हें
समझाया गया है
कि देह
परमात्मा का
शत्रु है--देह
को गलाओ, जलाओ,
उपवास करो,
कोड़े मारो,
धूप में रखो,
कांटो पर
सुलाओ।
मैं
कहता हूं: देह
को अंगीकार
करो। देह
तुम्हारा
सौभाग्य है; परमात्मा की
भेंट है, प्रसाद
है। हां, देह
को चाहो तो
जुआघर बन सकती
है देह और
चाहो तो मंदिर
बन सकती है।
घर तो घर है--घर
में चाहे जुआ
खेलो और चाहे
पूजा करो, प्रार्थना
करो। लेकिन घर
के दुश्मन मत
हो जाना--सिर्फ
इसलिये कि
किसी घर में
लोग जुआ खेलते
हैं। क्या घर
को आग लगा
दोगे? यह
जुआ खेलने
वालों की भूल
होगी। इसी घर
को प्रार्थना-पूजा
का गृह बनाया
जा सकता है, इसी घर में
परमात्मा
प्रतिष्ठित
हो सकता है। इसी
में धूप उठे, दीये जलें; इसी में
वीणा बजे। यह
घर वही है। घर
न तो जुआ
खेलने से
जुआघर हो जाता
है, न पाप
करने से पापी
हो जाता है, न बुराई
करने से बुरा
हो जाता है।
घर तो निष्पक्ष
है; तुम जो
करोगे वही हो
जाता है। घर
तो तुम्हारे साथ
है। यह देह तो
तुम्हारी
सेवक है।
तो
मैं एक ऐसा
धर्म चाहता
हूं जिसमें
देह का अंगीकार
हो, स्वागत
हो, अभिनंदन
हो। ऐसा धर्म
जो देह को
भित्ती बना ले;
जो देह के
स्वास्थ्य
में रस ले; जो
देह के आनंदों
को अस्वीकार न
करे।
देह
के आनंद
प्यारे हैं।
लेकिन, तुम्हें
कहा गया है:
अस्वाद साधो।
मैं तुमसे कहता
हूं: स्वाद
साधो। ऐसा
स्वाद साधो कि
भोजन में भी
परमात्मा की
ही प्रतीति
होने लगे। है
तो सब परमात्मा
ही--जो तुम
भोजन कर रहे
हो, उसमें
भी वही है। अस्वाद
साधने का अर्थ
हुआ कि स्वाद
मत लेना भोजन
में। मगर यह
तो परमात्मा
का अंगीकार
नहीं हुआ, अस्वीकार
हुआ। यह तो
अनादर हुआ।
"अन्नं ब्रह्म'। तुम तो
अन्न में भी ब्रह्म
का ही स्वाद
लो। तब
तुम्हारे
जीवन में शरीर
के सारे रहस्य
समृद्ध
करेंगे
तुम्हें।
ऐसे
ही मन के
रहस्य हैं।
संगीत सुनते
हो? वह मन का
आयाम है। गीत
गुनते हो, वह
मन का आयाम
है। सूरज उगा
और तुमने सूरज
का सौंदर्य
देखा, उगते
सूरज को--वह मन
का आयाम है।
कि तुमने एक
सुंदर
प्रतिमा देखी
कि सुंदर
चित्र देखा और
तुम अभिभूत
हुए--वह मन का
आयाम है।
तुमने एक सुंदर
स्त्री देखी
कि सुंदर
पुरुष देखा और
एक क्षण को
तुम ठिठके और
अवाक हुए--वह
मन का आयाम है।
उसे इनकार मत
करना, क्योंकि
उस स्त्री में
भी परमात्मा
ने ही एक झलक
दी है।
सुबह
के सूरज में
भी वही उग रहा
है, फूल में
वही खिल रहा
है, किसी
सुंदर चेहरे
पर उसी की आभा
है और किन्हीं
सुंदर आंखों
में वही झांक
रहा है।
अब
एक धर्म है, जो कहता है:
अगर आंख से
सुंदर स्त्री
दिखाई पड़े तो
आंख फोड़ लो।
लोग कहते हैं,
इसीलिये
सूरदास ने
अपनी आंखें फोड़
ली थीं। मैं
नहीं मानता।
कहानी झूठ
होगी। क्योंकि
सूरदास का
काव्य मुझसे
कहता है कि
सूरदास
सौंदर्य के
पारखी हैं, उनके काव्य
में इतनी
रसमयता है कि
मैं यह मान नहीं
सकता। इतिहास
लाख कहे, लोग
कुछ भी कहें; मेरे लिये
अंतःप्रमाण
हैं कि सूरदास
स्त्री को
देखकर आंख नहीं
फोड़ सकते। हां,
इतना मैं
जरूर कहूंगा
कि किसी भी
स्त्री को देखकर
सूरदास को
कृष्ण की ही
याद आयेगी। यह
जरूर सच है।
अब इसके लिये
कोई प्रमाण हो
या न हो। मैं
इतिहास पर
आधार रखता भी
नहीं हूं।
मेरे आधार
आंतरिक हैं।
मैं भीतर से
यह जानता हूं
कि सूरदास आंख
नहीं फोड़ सकते
और सूरदास आंख
फोड़ेंगे तो दो
कौड़ी के हो
जायेंगे; उनका
कोई मूल्य
नहीं रह जाता।
सूरदास का
मूल्य तो तभी
है जब सुंदरतम
स्त्री में भी
उसी परमात्मा
की झलक मिले, अभिभूत हो
जायें, आनंदित
हो जायें।
सुंदर स्त्री
की पायल की झंकार
में भी उसी की
पाजेब की
झंकार सुनाई
पड़े, उसी
का घुंघुरू
बजे।
हर
बांसुरी में
उसी का स्वर
मालूम होना
चाहिये। तो
फिर तुम मन के
आयाम को भी
आत्मसात कर
लिये।
फिर
आत्मा के दो
आयाम
हैं--प्रेम और
ध्यान। बन सके
तो दोनों को
एक साथ
आत्मसात कर
लो। न बन सके
तो एक को
आत्मसात करना, दूसरा उसके
पीछे छाया की
तरह अपने-आप आ
जायेगा।
जिसने प्रेम
किया वह
ध्यानी हो
जायेगा और
जिसने ध्यान
किया वह प्रेम
से भर जायेगा।
लेकिन
तुम्हारे
तथाकथित
साधु-संन्यासी
अगर ध्यान
करते हैं, तो उनके
जीवन में
प्रेम नहीं
दिखाई पड़ता।
यह प्रमाण है
कि उनका ध्यान
झूठा है। कैसा
वृक्ष जिस पर फूल
न खिलें? और
कैसी रात जो
तारों से न
भरी? और
कैसी वीणा कि
जिसमें स्वर न
जगें? कैसा
ध्यान, जिससे
प्रेम की धारा
न बही? कैसा
हिमालय, जिससे
गंगा न उतरे? झूठा होगा, फिल्मी
होगा। ध्यान
थोप-थापकर बैठ
गये होंगे।
मगर अभी
अंतःसलिला
जगी नहीं, अभी
अंतर की गंगा
उतरी नहीं।
नहीं तो प्रेम
में बहेगी।
बुद्ध
ने कहा है:
जिसे ध्यान
होगा उसके
जीवन में
करुणा होगी ही
होगी। अगर न
हो करुणा तो
समझ लेना कि
ध्यान नहीं।
करुणा कसौटी
है। "करुणा' बुद्ध का
नाम है, "प्रेम'
के लिये।
और
अगर कोई कहता
है कि मैंने
प्रेम को पा
लिया और उसके
जीवन में
ध्यान की
एकाग्रता न हो, ध्यान की
तन्मयता न हो,
ध्यान की
थिरता न हो, ध्यान का
निश्चल भाव न
हो, ध्यान
की शांति न
हो--तो समझना
कि उसने प्रेम
अभी पाया नहीं,
प्रेम के
नाम से उसने
वासना को ही
पूज लिया होगा,
प्रेम के
नाम से कामना
को ही मंदिर
में प्रतिष्ठित
कर दिया होगा।
उसने अभी
प्रेम जाना
नहीं; प्रेम
का धोखा खाया
है, प्रेम
की प्रवंचना
में पड़ा है।
लेकिन प्रेम का
परमात्मा अभी
उतरा नहीं। नहीं तो
उसके साथ आती
ही है ध्यान
की
शांति--अनिवार्यरूपेण,
अपरिहार्य
रूप से।
प्रेम
आये तो ध्यान
उसकी छाया की
तरह आता है, ध्यान आये
तो प्रेम उसकी
छाया की तरह
आता है। एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। तुम
एक पहलू घर ले
आये, तो
तुम सोचते हो
दूसरा पहलू
साथ न आ
जायेगा? उसी
के पीछे
छिपा-छिपा चला
आ रहा है।
आयेगा ही।
दोनों पहलू
साथ ही हो
सकते हैं, अलग-अलग
करने का कोई
उपाय नहीं है।
यह आत्मा का
आयाम है।
फिर
परमात्मा का
आयाम भी है।
परमात्मा का
आयाम का अर्थ
है: मैं नहीं
हूं। आत्मा तक
"मैं' का
थोड़ा-सा भाव, थोड़ी-सी
अस्मिता शेष
रहती
है--शुद्ध
अस्मिता, बड़ी
सुंदर, बड़ी
शांत, आह्लादपूर्ण!
प्रेम का विष
तो चला गया
होता है--जैसे
विष वाले सांप
के हमने दांत
तोड़ दिये, मगर
सांप अभी है।
ऐसे ही जैसे
रस्सी जल गयी,
मगर एंठ अभी
है। किसी काम
की नहीं है अब
एंठ, राख
ही है अब; छुओगे
तो बिखर
जायेगी। मगर
जली रस्सी में
भी एंठ रह
जाती है, राख
में भी एंठ रह
जाती है।
परमात्मा
का आयाम है:
जहां "मैं' परिपूर्ण
रूप से
विसर्जित हो जाता
है; जहां
बूंद सागर में
गिर गई। आत्मा
तक बूंद शुद्ध
होती है, परिपूर्ण
शुद्ध होती
है। शुद्ध हो
जाये तो ही परमात्मा
में गिर सकती
है। लेकिन
परमात्मा में
गिरे तभी बूंद
सागर हो, तभी
क्षुद्र
विराट हो।
ये
चार आयाम हैं।
कुछ लोग शरीर
पर रुक गये
हैं। इनको हम नास्तिक
कहते हैं, इनको हम
भौतिकवादी
कहते हैं। इन
पर दया करो। ये
मंदिर में आये
और सीढ़ियों पर
ही बैठ रहे।
इन्होंने
सीढ़ियों पर ही
घर बना लिया।
इन्होंने समझा
कि आ गया
मंदिर। इन पर
दया करना, नाराज
न होना।
इन्होंने
शायद सीढ़ियां
भी कभी नहीं
देखी थीं!
सीढ़ियां भी इतनी
प्यारी हैं, पोर्च भी
इतना सुंदर है,
कि
इन्होंने
समझा आ गया
घर। बैठ रहे, वहीं रहने
लगे, वहीं
निवास कर
लिया। पूरा
भवन पड़ा था, कभी आंख ही न
उठाई उस तरफ।
ये छोटे बच्चे
हैं जो
खिलौनों से
उलझ गये।
सच्चा
धार्मिक
व्यक्ति इनके
विरोध में
नहीं होता।
सच्चा प्रौढ़ व्यक्ति
बच्चों के
खिलौनों के
विरोध में
नहीं होता। और
अगर कोई
बच्चों के
खिलौनों के
विरोध में हो
तो समझना कि
प्रौढ़
व्यक्ति नहीं
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
अपने
मनोचिकित्सक
को कहा कि
मेरे बच्चे
में कुछ गड़बड़
है, कुछ ठीक
करना पड़ेगा, आप कुछ
फिक्र करें।
चिकित्सक
ने पूछा: क्या
गड़बड़ है, क्या
तकलीफ है?
तो
उसने कहा: वह
दिन-भर अपनी
गुड़िया को ही
लिये रहता है।
तो
मनोवैज्ञानिक
ने कहा: बच्चा
है, इसमें
कुछ खराबी
नहीं है, इसमें
कोई रोग नहीं
है। बड़ा हो
जायेगा, सब
ठीक हो
जायेगा।
खेलने दो।
मुल्ला
ने कहा: वह तो
ठीक है, लेकिन
फिर मुझे
गुड़िया लेने
का मौका ही
नहीं मिलता।
वही दिन भर
लिये रहे तो
मैं कब लूं?
अब
इसका ऐतराज जो
है, वह बता
रहा है कि
मुल्ला खुद भी
प्रौढ़ नहीं है।
जो
धार्मिक
व्यक्ति
नास्तिकों का
दुश्मन होता
है समझ लेना
कि वह धार्मिक
नहीं है। अभी
वह भी पोर्च
में ही उलझा
है, सीढ़ियों
में उलझा है।
अभी वह भी
भीतर गया नहीं
है, अभी
विवाद वहीं चल
रहा है। सच्चा
धार्मिक व्यक्ति
तो, जो
सीढ़ी पर अटक
गया है उस पर
दया करेगा, करुणा
करेगा।
सोचेगा कि
क्या करूं, कैसा उपाय
करूं कि इसे
भी भीतर बुला
लूं।
मेरे
पास नास्तिक
आते हैं, वे
कहते हैं हम नास्तिक
हैं। क्या आप
हमें संन्यास
देंगे?
मैं
उनसे कहता
हूं: तुम्हें
तो मैं पहले
दूंगा, आस्तिकों
से पहले
दूंगा। मगर वे
कहते हैं, कि
हम नास्तिक
हैं, नास्तिक
संन्यासी हो
सकता है? मैंने
कहा: संन्यास
इतनी बड़ी बात
है कि नास्तिकों
को भी पी
जाये। तुम
फिकर न करो।
तुम
चिकित्सक से
यह तो नहीं
कहते कि मैं
बीमार हूं, क्या बीमार
की भी
चिकित्सा हो
सकती है? क्या
बीमार को भी
दवा दी जा
सकती है? और
अगर कोई
चिकित्सक
तुमसे यह कहे
कि पहले ठीक
होकर आओ, तब
दवा दूंगा, तो तुम क्या
समझोगे? यह
चिकित्सक है?
मैं
तो नास्तिक को
आलिंगन कर लेता
हूं, तत्क्षण।
प्रतीक्षा ही
करता था कि
कभी वह राजी
हो जाये तो
उसे घर के
भीतर बुला
लिया जाये।
कुछ
लोग शरीर पर
उलझ गये हैं।
उन्होंने
स्वाद को ही
जीवन का
लक्ष्य समझ
लिया है या धन
को या पद को।
काम को, भोग
को उन्होंने
जीवन का
प्रारंभ और
अंत, दोनों
समझ लिया है।
इनके विपरीत
तुम्हारे
तथाकथित
धार्मिक लोग
हैं। वे इनसे
ही लड़ते रहते
हैं और ऊपर ही
ऊपर नहीं, भीतर
भी इनसे लड़ते
हैं। अगर ये
भोजन में रस
लेते हैं तो
वे अस्वाद
व्रत साधते
हैं। मगर चाहे
तुम भोजन में
दीवाने हो जाओ
और चाहे भोजन
के विपरीत
दीवाने हो जाओ,
तुममें कुछ
फर्क नहीं है,
तुम दोनों
एक ही साथ हो, तुम चचेरे
भाई-बहन हो, तुम एक ही
थैली के
चट्टे-बट्टे
हो।
एक
स्त्री के
पीछे दीवाना
है, दूसरा
स्त्री से
भागा है और
हिमालय की तरफ
चला गया है।
दोनों एक ही
साथ हैं।
दोनों की
दृष्टि
स्त्री पर लगी
है या पुरुष
पर लगी है।
फिर
कुछ हैं जो मन
में उलझ गये
हैं। जो थोड़ा
आगे बढ़े, सीढ़ियों
से ऊपर गये, दहलान तक
पहुंचे हैं, मगर वहीं
उलझ गये हैं।
उनके लिये मन
के ही रस सब-कुछ
हैं--काव्य है,
संगीत है, साहित्य है,
कला है--वे
वहीं खो गये
हैं। थोड़े तो
गये, मगर
बहुत आगे न
गये।
फिर
कुछ हैं जो आत्मा
में उलझ गये
हैं। जो कहते
हैं: कोई
परमात्मा
नहीं है, इसके
आगे और कोई भी
नहीं है, बस
पा लिया सब।
अपनी प्रतीति
होने लगी है, अपना अहसास
होने लगा है।
बूंद शुद्ध हो
गई, अब और
क्या चाहिये?
ये गये, काफी
भीतर गये; लेकिन,
फिर भी
परिपूर्ण रूप
से भीतर नहीं
गये। क्योंकि
बूंद को अभी
एक कदम और
लेना है, अभी
बूंद को सागर
भी बनना है।
जब
मैं तुमसे
कहता हूं सब
आयामों में
जीयो, तो
मैं यह कह रहा
हूं: पोर्च भी
तुम्हारा, दहलान
भी तुम्हारी,
भीतर के
कक्ष भी
तुम्हारे, अंतरतम
तुम्हारे भवन
का जो
गर्भ-गृह है
जहां परमात्मा
विराजमान है--वह
भी तुम्हारा।
और
सब रूपों में
जीयो। बस एक
ही बात ध्यान
रहे कि सब
रूपों से
परमात्मा ही
सिद्ध हो। बस
सब तरह से
केंद्र से
जुड़ते जाओ, फिर कोई
अड़चन नहीं है।
ऐ
शख्स! अगर "जोश' को तू
ढूंढना चाहे
वो
पिछले पहर
हल्का-ए-इर्फां
में मिलेगा
और
सुबह को वो
नाज़िरे-नज्ज़ारा-ए-कुदरत
तरफे-चमनों-सहने
बयाबां में
मिलेगा
और
दिन को वो
सरगश्ता-ए-इसरारो-मआनी
शहरे-हुनरो-कूए-अदीबां
में मिलेगा
और
शाम को वो
मर्दे-खुदा
रिन्दे-ख़राबात
रहमत
कदा-ए-बादा-फूरोशां
में मिलेगा
और
रात को वो
ख़िल्वतों-ए-काकुलो-रुखसार
बज्म?त्तरबो-कूचा-ए-खूबां
में मिलेगा
और
होगा कोई जब्र
तो वो
बंदा-ए-मजबूर
मुर्दों
की तरह
ख़ाना-ए-वीरां
में मिलेगा
ऐ
शख्स?! अगर
"जोश' को तू
ढूंढना
चाहे...कवि
कहता है कि
अगर तुम्हें
मुझे खोजना
हो...
ऐ
शख्स! अगर "जोश' को तू
ढूंढना चाहे
वो
पिछले पहर
हल्का-ए-इर्फां
में मिलेगा
...तो
पिछले पहर
अध्यात्मवादियों
की गोष्ठी में
खोजना, वह
वहीं होगा। और
सुबह को वो
नाज़िरे-नज्ज़ारा-ए-कुदरत।
और अगर सुबह
हो और उसे
खोजना हो तो
फिर प्रकृति
के पास
खोजना--जहां
सूरज उगता हो,
पक्षी गीत
गाते हों, फूल
खिलते हों।
क्योंकि वह
प्रकृति का
प्रेमी है, या तो
बगीचों में
मिलेगा या
जंगलों में
मिलेगा।
और
सुबह को वो
नाज़िरे-नज्ज़ारा-ए-क़ुदरत
तरफे-चमनों-सहने
बयाबां में
मिलेगा।
और
दिन को वो
सरगश्ता-ए-इसरारो-मआनी
और
अगर दिन में
खोजना हो तो
वह शास्त्रों
में, शब्दों
की गहराइयों
में, काव्य
में, काव्य
की
अनुभूतियों
में, भाषा
की ऊहापोह में,
दर्शन के
विचार
में--वहां
डूबा मिलेगा।
और
दिन को वो
सरगश्ता-ए-इसरारो-मआनी
शहरे-हुनरो-कूए-अदीबां
में मिलेगा
फिर
तुम्हें अगर
उसे दिन में
ढूंढना हो तो
वह वहां
मिलेगा जहां
विद्वानों की
महफिल होती है; जहां
विचारशील लोग
उठते-बैठते
हैं; जहां
तर्क, चिंतन,
मनन की
ऊंचाइयां छुई
जाती हैं।
शहरे-हुनरो-कूए-अदीबां
में मिलेगा।
तब तुम उसे
अदीबों की गली
में खोज लेना।
और
शाम को वो
मर्दे-खुदा
रिन्दे-ख़राबात।
और अगर शाम की
बात हो, तो
वह पियक्कड़
है।
और
शाम को वो
मर्दे-खुदा
रिन्दे-ख़राबात।
अगर शाम को
खोजना हो तो
उस पियक्कड़ को
तुम एक ही जगह
पा
सकोगे...रहमत
कदा-ए-बादा-फरोशां
में
मिलेगा...जहां
कोई कृपालु
हृदय अपने पात्र
से मदिरा
ढालता हो, तुम उसे
वहां खोजना।
वह किसी
मधुशाला में
मिलेगा। और
रात को वो
खिल्वतों-ए-काकुलो
रुख़सार। और वह
सौंदर्य का
प्रेमी है।
अगर रात हो...
और
रात को वो
खिल्वतों-ए-काकुलो-रुख़सार
बज्म?त्तरबो-कूचा-ए-खूबां
में मिलेगा
...तो
जहां कहीं
आनंद-उत्सव हो
रहा हो और
सुंदरियां
नाचती हों और
सौंदर्य का
जश्न मनाया जा
रहा हो--वहां
उसे खोजना, वहां
मिलेगा।
और
होगा कोई जब्र
तो वो
बंदा-ए-मजबूर, और अगर कहीं
तुम्हें खबर
मिल जाये कि
कोई परेशान है,
कोई पीड़ित
है, कोई
दुखी है...
और
होगा कोई जब्र
तो वो
बंदा-ए-मजबूर
मुर्दों
की तरह खाना-ए
वीरां में
मिलेगा
...और,
अगर कहीं
कोई मजबूर
होगा, कहीं
कोई दुखी होगा,
कहीं
जिंदगी किसी
को तोड़े डाल
रही होगी, तो
करुणा से भरा
हुआ वह
तुम्हें किसी
वीरान घर में
मिलेगा।
जीवन
सब आयामों में
जीया जाना
चाहिये। यह
सारा
अस्तित्व
तुम्हारा है।
इसका सौंदर्य
तुम्हारा, इसका स्वाद
तुम्हारा, इसकी
शराब
तुम्हारी।
मालकियत की
घोषणा करो। इसीलिये
मैं अपने
संन्यासियों
को "स्वामी' कहता
हूं--मालकियत
की घोषणा करो।
यह सारा अस्तित्व
तुम्हारा है।
मुझे पता नहीं,
पुराने
लोगों ने
क्यों
संन्यासी को
"स्वामी' कहा
था--उनके मतलब
कुछ और थे; मेरे
मतलब कुछ और
हैं। मेरा
मतलब है कि
तुम इस सारे
अस्तित्व के
स्वामी हो, मालिक हो।
यह सब
तुम्हारा है।
ये
चांदत्तारे तुम्हारे
लिये
परिभ्रमण
करते हैं, ये
वृक्ष
तुम्हारे
लिये हरे हैं,
ये फूल
तुम्हारे
लिये खिले हैं,
ये लोग
तुम्हारे
लिये हैं। यह
सारा
अस्तित्व तुम्हारे
लिये है। इससे
दुश्मनी
साधकर दूर मत
हट जाओ। इसमें
डुबकी मारो, इसमें गहरे
डूबो, इसमें
विसर्जित हो
जाओ और तब
तुम्हारे
जीवन में एक
समृद्धि
होगी। इसी
समृद्धि का
नाम "धर्म' है।
धर्म
कोई दीनता
नहीं है, हीनता
नहीं है। धर्म
परम ऐश्वर्य
है। वह ईश्वर
की अनुभूति
है। धर्म
व्यक्ति को
समृद्ध बनाता
है और तब कभी
ऐसा चमत्कार
भी देखने में
आता है कि
बुद्ध जैसा
भिखारी
रास्ते पर
चलता हो तो भी
सम्राटों को
झेंप आ जाये।
धर्म इतना
समृद्ध बनाता
है व्यक्ति को
कि भिखारी के
पास भी धर्म
की अनुभूति हो
तो सम्राट दो
कौड़ी के मालूम
होते हैं। और
यह संसार और
यहां की
धन-दौलत तुम
कितनी ही
इकट्ठी कर लो,
यहां की
कौड़ियां तुम
कितनी ही जुटा
लो, लेकिन
अगर तुमने
जीवन के समस्त
आयाम अनुभव नहीं
किये हैं, अगर
तुम जीवन को
उसकी समग्रता
में नहीं जीये
हो, परिपूर्णता
में अगर तुमने
जीवन को
अंगीकार नहीं
किया है, अभिनंदन
नहीं किया है,
तो हो सकता
है तुम्हारे
पास दुनिया-भर
की धन-दौलत हो,
मगर
तुम्हारी
आंखों में
भिखमंगापन
होगा। तुम
सिंहासन पर
भला बैठे रहो,
मगर तुम
रहोगे
भिखारी।
क्योंकि
बादशाहत तो
सिर्फ उनकी है
जो इस
अस्तित्व के
साथ अपना सरगम
जोड़ लेते हैं;
जिनका छंद
इस अस्तित्व
के साथ जुड़
जाता है; जिनका
नाच इस
अस्तित्व के
साथ जुड़ जाता
है। जो इस
विराट
रासलीला के
अंग हो जाते
हैं।
थोड़े-थोड़े
चलो, एक-एक कदम
ही सही। एक-एक
कदम से हजारों
मीलों की
यात्रा पूरी
हो जाती है।
मेरी
दृष्टि
तुम्हें
समझने में
थोड़ी-सी कठिन मालूम
होगी, क्योंकि
निषेध और
निषेध और
निषेध में तुम
जीये हो।
"नहीं' तुम्हारा
स्वर हो गया
है और मैं
तुम्हें "हां'
कहना सिखा
रहा हूं।
प्यार
दे सकते न यदि
तुम, प्यार का
विश्वास तो
दो।
अर्चना
का गीत बनकर,
जल
रहे हैं प्राण
मेरे।
कर
रहे हैं आरती
सी,
ये
सिसकते गान
मेरे।
तुम
सदय हो ठीक, पर
इसका
मुझे आभास तो
दो।
प्यार
दे सकते न यदि
तुम, प्यार का
विश्वास तो
दो।
जल
चुका है दीप, कैसे
अब
जले बाती बता
दो।
हृदय
यह कब तक संभाले,
पीर
की थाती बता
दो।
वेदना
ही दे रहे हो,
पर
कभी उल्लास तो
दो।
प्यार
दे सकते न यदि
तुम, प्यार का
विश्वास तो
दो।
मैं
नहीं हूं अमर
फिर भी
अमर
मेरी भावना
है।
स्वर्ण-सी
जो तप रही है,
वह
मनोरम कामना
है।
विरह
श्वासों में
छिपा कर
मिलन
की इक श्वास
तो दो।
प्यार
दे सकते न यदि
तुम, प्यार का
विश्वास तो
दो।
मैं
भिखारिन ही
सही,
फिर
भी नहीं झोली
पसारी।
तुम
महादानी अमर,
तुमने
कभी ली सुधि
हमारी?
शून्य
सा यह हृदय-वन,
इसमें
कभी मधुमास तो
दो।
प्यार
दे सकते न यदि
तुम, प्यार का
विश्वास तो
दो।
अगर
तुम जीवन को
समग्रता में जीयो
तो वही
तुम्हारी
प्रार्थना हो
जाएगी, वही
तुम्हारी
अर्चना हो
जायेगी और फिर
तुम्हें यह न
कहना पड़ेगा:
प्यार दे सकते
न यदि तुम, प्यार
का विश्वास तो
दो।
प्यार
बरसेगा--चहुं-दिशाओं
से, ऊपर से
नीचे से, इधर
से उधर से, बाहर
से भीतर से।
प्रेम की बाढ़
आ जायेगी। विश्वास
न मांगना
पड़ेगा। प्रेम
ही आ जायेगा।
अनुभव आ
जायेगा। मैं
उस व्यक्ति को
धार्मिक कहता हूं
जो जीवन को
बेशर्त उसकी
समग्रता में
जीता है। नहीं
कुछ इनकार
करता है, नहीं
कुछ काटता है।
कहता
है: जैसा
परमात्मा ने
बनाया है, वैसा
पूरा-पूरा
जिऊंगा, क्योंकि
इसमें से कुछ
भी काटना
परमात्मा का
अपमान होगा, अवमानना
होगी। इस भाव
का नाम
"आस्तिकता' है।
तीसरा
प्रश्न:
सभी
ज्ञानियों ने
पाखंड का बहुत
विरोध किया है।
लेकिन पाखंड
में कुछ है कि
वह उनके ही
पीछे चलने
वाले
संप्रदायों
में प्रवेश कर
जीवन पाता रहा
है। पाखंड का
इतना बल और
आकर्षण क्या
है?
पाखंड
तो बिलकुल
निर्बल है, उसमें जरा
भी बल नहीं
है। और पाखंड
में कोई आकर्षण
नहीं
है--पाखंड में
बड़ा विकर्षण
है। लेकिन
पाखंड अपने
पैरों से चलता
ही नहीं है; उसके पास
अपने पैर हैं
भी नहीं।
पाखंड आदर्श की
आड़ में चलता
है। जहां
आदर्श दिये
जायेंगे वहां
पाखंड
अनिवार्य रूप
से पैदा होगा।
पाखंड आदर्श
की छाया है; जैसे भरी
दुपहरी में
तुम चलोगे तो
तुम्हारी छाया
बनेगी। इस
जीवन में जो
भी आदर्श लेकर
चलेगा वह पीछे
पाखंड की छाया
को छोड़
जायेगा।
और, इसे समझना
निश्चित ही
बहुत कठिन है
क्योंकि हम तो
सोचते हैं आदर्श
और पाखंड
विपरीत हैं।
विपरीत नहीं,
संगी-साथी
हैं।
अनिवार्यरूपेण
संगी-साथी हैं।
कोई भी आदर्श
पैदा करो, तत्क्षण
पाखंड पैदा हो
जायेगा।
एक
ऐसा धर्म
चाहिये, जो
आदर्शवादी न
हो, यथार्थवादी
हो। मैं वही
तुमसे कह रहा
हूं--एक यथार्थवादी
धर्म। फिर
पाखंड पैदा
नहीं हो सकता।
समझो
तुमसे किसी ने
कहा कि भोजन
में स्वाद मत लेना; यह आदर्श
है। ऐसा
महात्मा
गांधी के
आश्रम में नियम
था--
"अस्वाद-व्रत',
भोजन में
स्वाद मत
लेना। स्वाद
लिया तो यह
आदर्श से पतन
हो गया। अब
जिसने स्वाद
लिया है, क्या
करे? और
स्वाद तो
आयेगा, क्योंकि
तुम्हारी जीभ
पर स्वाद लेने
की क्षमता
वाले अणु हैं।
मीठा मीठा
मालूम पड़ेगा
और कड़वा कड़वा
मालूम पड़ेगा।
तुम्हारी जीभ
जीवित है। हां,
कभी-कभी
लंबे बुखार के
बाद स्वाद
नहीं आता है, क्योंकि जीभ
मुर्दा हो
जाती है, उसकी
संवेदनशीलता
क्षीण हो जाती
है। क्या तुम
सोचते हो सारे
लोगों की जीभ
ऐसी हो जाये
जैसे लंबे
बुखार के बाद
हो जाती है? तुम जीवन के
पक्षपाती हो
या दुश्मन हो?
तुम मृत्यु
के पूजक हो या
जीवन के आराधक?
लेकिन
बड़ी अड़चन हो
जायेगी। अगर
तुम महात्मा गांधी
के आश्रम में
थे तो
तुम्हारे
लिये दो ही उपाय
थे। एक तो यह
था कि तुम किसी
तरह अपने जीवन
की
संवेदनशीलता
नष्ट कर लो। क्योंकि
जो बात जीभ पर
लागू है वही
आंख पर लागू है, वही कान पर
लागू है, वह
सभी
इंद्रियों पर
लागू है।
व्रतों का
अर्थ ही यही
है कि
धीरे-धीरे
सारी
इंद्रियों को
मार डालो। तुम
क्या करते? एक तो
रास्ता यह है
कि तुम जीभ की संवेदनशीलता
नष्ट कर दो।
उसके उपाय
गांधी ने किये
थे। हर
व्यक्ति को वह
कहते थे कि
भोजन के साथ-साथ
नीम की चटनी
भी खाओ। अब
नीम की भी
चटनी होती है
कोई? और
नीम की चटनी
खाओगे तो भोजन
का स्वाद मर
ही जायेगा।
लुई
फिशर नाम के
एक विचारक ने
लिखा है कि
मैं गांधी का
आश्रम देखने
गया।...गांधी
के भक्तों में
से एक था लुई
फिशर। गांधी
ने उसे अपने
साथ भोजन पर
बिठाया और नीम
की चटनी तो
खास चीज थी।
भोजन भी
परोसवाया। जो
भोजन परोस रहा
था, उसने नीम
की चटनी नहीं
परोसी--यह
सोचकर कि नया आदमी
है, आगंतुक,
कि नीम की
चटनी देना...यह
कोई अंतेवासी
तो नहीं है
आश्रम का, अतिथि
है। लेकिन
गांधी ने देखा
कि नीम की
चटनी नहीं दी
गई तो
उन्होंने कहा:
अरे! नीम की
चटनी दो। तो
नीम की चटनी
दी गई। लुई
फिशर ने तो
सोचा कि यह
कोई खास चीज
होगी। उस
बेचारे को
क्या पता! उसने
चखा--जहर, शुद्ध
जहर! तो बड़ा
हैरान हुआ।
गांधी ने उसे
समझाया कि
"अस्वाद-व्रत'
का अंग है; इससे जीभ का
स्वाद मर जाता
है।
लुई
फिशर ने
सोचा--पश्चिम
का आदमी, हिसाब
लगाकर चलता
है--गणित से
उसने सोचा कि
यह तो झंझट है,
इसमें पूरा
भोजन खराब हो
जायेगा, अगर
यह चटनी के
साथ रोटी खानी,
सब्जी
खानी। उसने
सोचा, ज्यादा
आसान रास्ता
यह
होगा--वैज्ञानिक
बुद्धि का आदमी--कि
पहले यह चटनी
एक ही गटाक
में खतम कर
जाओ, पानी
पी कर मुंह
साफ कर लो और
फिर मजे से
भोजन करो। तो
वह जल्दी से
एक ही बार
किसी तरह जी
संभालकर
राम-राम
कहकर...और उसने
पूरा गोला गटक
गया। लेकिन
गांधी भी ऐसे
छोड़ देने वाले
तो नहीं।
उन्होंने कहा
कि और लाओ।
देखो, मैंने
कहा था कि
नहीं, कि
चटनी कितनी
पसंद आई! और
लाओ चटनी!
और
चटनी दे दी
गई। अब यह भी
उपाय न रहा
गटकने का। लुई
फिशर ने लिखा
है कि पूरा
भोजन खराब हो
गया। मगर
स्वाद नहीं
आया।
एक
तो उपाय यह
है--रुग्ण
उपाय। और फिर
मैं यह पूछता
हूं कि चटनी
का स्वाद
स्वाद नहीं है? यह किसी ने
पूछा नहीं है।
यह लुई फिशर
ने भी नहीं
पूछा। मैं
जरूर यह पूछना
चाहता हूं कि
क्या मिठास का
स्वाद ही
स्वाद है? कड़वाहट
का स्वाद
स्वाद नहीं है?
अगर नीम का
स्वाद आया तो
अस्वाद-व्रत
कैसे सधा? हां,
नीम के स्वाद
ने जहर ने और
सारे स्वादों
को मार डाला।
लेकिन
"अस्वाद-व्रत'
कैसे सधा? यह तो "नीम
के स्वाद का
व्रत' सधा।
मगर यह है
स्वाद का ही
व्रत। तुम नीम
के प्रेमी हो,
इससे इतना
ही पता चलता
है। इससे कोई
अनासक्ति नहीं
हो गई, सिर्फ
नीम से आसक्ति
हो गई।
और
मैं मानता हूं
कि यह आसक्ति
थोड़ी विकृत है, अस्वाभाविक
है--यह सहज
नहीं है।
सरहपा और तिलोपा
भी इसका
समर्थन न
करेंगे; मैं
भी नहीं करता
हूं। कोई
सहज-जीवन की
प्रस्तावना
करने वाला
व्यक्ति इसका
समर्थन न
करेगा। किसी
भी बच्चे को
नीम दे दो और
पता चल जायेगा।
छोटे-से बच्चे
को नीम दे दो, वह फौरन थूक
देगा। इससे
जाहिर हो गया
कि यह स्वभाव
के प्रतिकूल
है। अब बच्चे
को किसी ने
कहा नहीं था
कि नीम थूक
देना। बच्चे
को मैंने बिगाड़ा
नहीं था, मुझे
कसूर न दो
सकोगे। बच्चा
मुझे सुनने
आया भी नहीं
था, मेरा
संन्यासी भी
नहीं था।
बच्चा अभी बोल
भी नहीं सकता,
पढ़ भी नहीं
सकता।
बिन-बोलते
बच्चे को नीम
दे दो, वह
थूक देगा।
इससे जाहिर है
कि यह स्वभाव
के प्रतिकूल
है। और जो
स्वभाव के
प्रतिकूल है
उससे अपने को
बांधना दमन
है।
तो, एक तो उपाय
यह है--जो कि
तुम्हें
विकृति की तरफ,
पैथालाजी
की तरफ ले
जायेगा, तुम्हें
रुग्ण करेगा;
तुम्हारे
जीवन की सारी
सहजता, स्वाभाविकता
नष्ट कर देगा,
खंडित कर
देगा।
अब
दूसरा उपाय यह
है कि स्वाद
भी लेते रहो
और लोगों से
कहते रहो कि
मुझे स्वाद
आता ही नहीं है।
तब पाखंड पैदा
होगा। पाखंड
का मतलब क्या
होता है? पाखंड
का अर्थ होता
है: आदर्श
मानता हूं मैं
और आदर्श पूरा
होता नहीं; तो अब मैं
झूठा ही दावा
करता हूं कि
आदर्श पूरा हो
रहा है, कि
मुझे स्वाद
आता ही नहीं।
झूठे, असंभव आदर्श
लोगों को दोगे
और वे पाखंडी
हो जायेंगे तो
फिर तुम उनको
गाली देते हो
कि तुम पाखंडी
हो। जीवन को
सहज रहने दो, फिर कोई
पाखंड नहीं
होता। बच्चे
पाखंडी नहीं
होते। उन्हें
जो अच्छा लगता
है, कह
देते हैं साफ:
"अच्छा'; जो
अच्छा नहीं
लगता, कह
देते हैं:
"अच्छा नहीं'। पाखंडी तो,
जैसे-जैसे
हम कुशल हो
जाते हैं, जगत
के हिसाब में,
तब हो जाते
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन के
घर एक मेहमान
आने को थे--बड़े
धनपति। मगर एक
खतरा
था--मुल्ला का
छोटा बेटा। क्योंकि
वह जो धनपति आ
रहे थे उनकी
नाक बहुत बड़ी
थी--इतनी बड़ी
कि नाक ही नाक
दिखाई पड़ती
थी। मुल्ला भी
परेशान था और
पत्नी भी
परेशान थी कि
बेटा कुछ न
कुछ कह न दे कि
अरे! इतनी बड़ी
नाक! और धनपति
को ला रहे थे
खुशामद के लिये, उससे कुछ
काम था कि
कहीं वह नाराज
न हो जाये! और सबको
पता था कि जो
भी उनके नाक
के संबंध में
बात उठा देता,
उससे वह
नाराज हो
जाता।
क्योंकि उसकी
नाक बड़ी कुरूप
थी, बड़ी
बेढंगी थी। तो
दोनों ने कई
दिन तक, तीन-चार
दिन तक बेटे
को तैयार किया
कि देख खयाल
रख, और सब करना,
नाक की बात
मत छेड़ना। नाक
की तरफ देखना
ही मत तू, इधर-उधर
देखना, मगर
नाक मत देखना।
बेटा
भी हैरान था, कि नाक में
ऐसा क्या
होगा! तीन दिन
हो गये शिक्षण
देते-देते।
फिर भी डरे थे,
क्योंकि
बच्चे बच्चे
हैं। कितना ही
समझाओ, उनको
पाखंडी बनाना
बड़ा मुश्किल
होता है।
दोनों शंकित
थे और कंप रहे
थे। आखिर
धनपति आया।
मुल्ला ने
स्वागत किया:
विराजो।
पत्नी ने
स्वागत किया।
लेकिन दोनों
डरे, बच्चे
पर नजर रखे
हुए थे--वह
कहीं नाक तो
नहीं देख रहा
है! और बच्चा
एकदम नाक ही
देख रहा है, और कुछ
देखता ही नहीं
है। अगर उसे न
कहा होता तो शायद
वह और कुछ भी
देखता...शायद
उसने एकाध दफे
नाक देख ली
होती और उसने
कहा होता: ठीक
है, हर तरह
की चीज दुनिया
में होती है।
बच्चों को अड़चन
ऐसी खास आती
नहीं है। मगर
वह एकदम एक
टकटकी लगाये
और कहीं देखे
ही नहीं, आंख
की पलक भी न
झपे...तीन दिन
जिसको समझाया
हो।
घबड़ाहट
बढ़ती गई। मगर
बेटा कुछ बोला
नहीं। इतनी ही
सांत्वना थी
कि कुछ बोल
नहीं रहा है।
मगर घबड़ाहट
बढ़ती चली गई।
पत्नी भोजन
परोस रही है, मगर हाथ कंप
रहा है कि यह
उसकी नाक की
तरफ ही देख
रहा है। अब
उससे यह भी
नहीं कह सकते
कि नाक की तरफ
मत देखो। सोच
रही है कि जरा
जाने दो
मेहमान को, इसकी कुटाई
करनी पड़ेगी।
तीन दिन
समझाया मूढ़ को,
इसको और कुछ
नहीं सूझ रहा
है, पलक
नहीं झप रहा
है। धनी को
असमंजस में
डाल रहा है।
और
मुल्ला भी
कुड़बुड़ा रहा
है दिल ही दिल, मगर अब कर भी
क्या सकते हो?
बेटा सामने
ही बैठा है और
नाक देखे चला
जा रहा है।
आखिर,पत्नी
ने, किसी
तरह सब निपटा
जा रहा है, प्रसन्न
थी, चाय की
प्याली लायी
आखिर। चाय की
प्याली धनपति
को दी। मन में
तो उसके वही
लगा है। फिर
उसने कहा कि
"आप की नाक में
कितनी शक्कर
डालूं?'
नाक
ही नाक, नाक
ही
नाक...छिपाये
छिपती नहीं
बात। कहने गयी
थी कि आपकी
प्याली में
कितनी शक्कर
डालूं, मगर
प्याली तो
छोटी और नाक
बड़ी। और उसके
मन में तो एक
ही शब्द गूंज
रहा है--"नाक' और वह बेटा
देखे जा रहा
है और काम
खराब हुआ जा रहा
है।
पाखंड
पैदा होते हैं
झूठे आदर्श
थोप दो तो। इस
जगत में इतने
पाखंड दिखाई
पड़ रहे हैं, ये तुम्हारे
तथाकथित
साधु-संन्यासियों
के कारण।
आनंद
मैत्रेय, तुम
पूछते हो: "सभी
ज्ञानियों ने
पाखंड का बहुत
विरोध किया
है...।' ज्ञानियों
ने अगर सिर्फ
पाखंड का
विरोध किया है
तो वे ज्ञानी
थे ही नहीं, सिर्फ पंडित
थे। ज्ञानी तो
वे हैं
जिन्होंने आदर्श
और पाखंड
दोनों का विरोध
किया है। वे
ही ज्ञानी
हैं। उन्हीं
को पता है।
क्योंकि
जिसने आदर्श
का भी विरोध
किया है, उसने
ही वस्तुतः
पाखंड का
विरोध किया
है--न होंगे
आदर्श, न
होंगे पाखंड।
न रहेगा बांस,
न बजेगी
बांसुरी।
इसलिये
मैं तुम्हें
कोई आदर्श
नहीं दे रहा
हूं। यही
सहज-योग की आधारभूत
मान्यता है। न
सरहपा न
तिलोपा कोई
आदर्श दे रहे
हैं। वे कह
रहे हैं: जो
व्यर्थ है, क्रियाकांड
है, उसे
जाने दो। हम
तुम्हें कोई
भी विधायक
आदर्श नहीं दे
रहे हैं कि
तुम्हें ऐसे
होना चाहिये। क्योंकि
अगर तुम न हो
पाये तो फिर
क्या करोगे? और तुम न हो
पाओगे, यह
सुनिश्चित
है। क्यों? क्योंकि, आदर्श आते
कहां से हैं? आदर्शों का
जन्म कैसे
होता है? इसकी
प्रक्रिया
समझो।
महावीर
नग्न हो गये।
अब एक आदर्श
पैदा हो जायेगा
कि जिसको भी
ज्ञान पाना है
वह नग्न हो
जाये। यह
महावीर की मौज
थी, इसकी
ज्ञान से कोई
अनिवार्यता
नहीं है यह
कोई ज्ञान का
कारण नहीं है
कि नग्न होने
से कोई ज्ञान
को उपलब्ध
होता है। यह
महावीर की
मस्ती थी।
जीसस
बिना नग्न हुए
हो गये उपलब्ध
ज्ञान को। बुद्ध
भी हो गये, कृष्ण भी हो
गये।
जरथुस्त्र भी
हो गये, लाओत्सु
भी हो गये।
मुहम्मद भी हो
गये। ज्ञान को
लोग उपलब्ध हो
गये--बिना
नग्न हुए! तो
यह महावीर की
अपनी निजी मौज
थी। इसका
ज्ञान से कोई
अनिवार्यरूपेण
संबंध नहीं
है।
तुमने
गोल दीया
बनाया, किसी
ने तिकोन दीया
बनाया। किसी
ने सोने का दीया
बनाया, किसी
ने मिट्टी का,
किसी ने
चांदी का।
किसी ने अपने
दीये पर हीरे जड़
दिये, किसी
ने यह रूप
दिया किसी ने
वह रूप दिया।
इससे क्या तुम
सोचते हो कि
ज्योति का कोई
अनिवार्य
संबंध है? वह
जो दीये में
ज्योति जलेगी,
क्या वह
ज्योति भिन्न
होगी सोने के
दीये में मिट्टी
के दीये से? हीरे लगे
दीये में
भिन्न होगी, साधारण पीतल
के दीये से? ज्योति तो
एक है, दीयों
में भिन्नता
है। और अच्छा
है। महावीर को
मौज आई, उन्होंने
वस्त्र छोड़
दिये। लेकिन
इससे ज्ञान की
कोई
अनिवार्यता
नहीं है।
लेकिन
फिर महावीर के
पीछे चलने
वाली परंपरा सोचती
है कि जब तक
नग्न न होओगे
तब तक ज्ञान न
होगा।
मैं
एक जैन मुनि
को जानता
हूं--गणेश वर्णी।
वे जिंदगी-भर
कोशिश करते
रहे मुनि हो जाने
की। जैनों में
सीढ़ियां होती
हैं। मुनि का मतलब--दिगंबर--जैनों
में मुनि का
अर्थ होता है नग्न।
उसके पहले
सीढ़ियां होती
हैं--ब्रह्मचारी
होता है, फिर
कोई क्षुल्लक
होता है, फिर
एलक होता है।
यह सब सीढ़ियां
होती हैं--कितने
वस्त्र छोड़ते
गए, उस
हिसाब से।
आखिर में
लंगोटी रह
जाती है, फिर
लंगोटी भी छूट
जाती है, तब
कोई मुनि होता
है।
गणेशवर्णी ने
जीवन भर चेष्टा
की कि मुनि हो
जायें, लेकिन
लंगोटी छोड़ने
की हिम्मत
नहीं जुटा पाये।
जरूरत भी नहीं
थी। संकोची
आदमी रहे
होंगे कि नंगा
घूमना सड़क
पर...नहीं जमा
होगा। लेकिन
मन में तो भाव
था ही कि जब तक
नग्न न हुए तब
तक ज्ञान न
हुआ। फिर मरते
समय बेहोश हो
गये, बेहोश
होते-होते
उन्होंने कहा
कि जल्दी से
मेरी लंगोटी
और मेरी चादर
अलग कर दो। कम
से कम मर तो
जायें मुनि
होकर! उनकी
बेहोशी की
हालत में उनकी
चादर और उनकी
लंगोटी अलग की
गई। उनकी
बेहोशी की
हालत में उनको
मुनि की
दीक्षा दी
गई--बेहोशी हालत
में।
क्या
खेल कर रहे हो? ऐसे तो तुम
अस्पताल में
किसी को भी दे
सकते हो मुनि-दीक्षा।
जरा-सा
क्लोरोफार्म
सुंघा दो, दे
दो मुनि की
दीक्षा। तो
क्या तुम
सोचते हो वह
आदमी मरकर
मोक्ष चला
जायेगा? मगर
इस तरह से
झंझट खड़ी हो
जाती है। जब
एक बात पकड़ ली
कि नग्न हुए
बिना मोक्ष हो
ही नहीं सकता तो
अड़चन आ गई। अब
सबको नग्न
होना पड़ेगा।
अब यह नग्नता
में पाखंड
आया।
महावीर
नग्न थे तो
नग्न ही सोते
थे--न कोई बिस्तर, न कोई
कंबल--सवाल ही
नहीं उठता। यह
महावीर के
लिये ठीक रहा
होगा, कोई
अड़चन न आई
उन्हें। अब
दिगंबर जैन
मुनि, उसको
तो ठंड लगती
है। अलग-अलग
तरह के लोग
हैं।
मैं
एक सज्जन को
जानता हूं, जिनको मच्छर
नहीं काटते।
उनके खून में
ऐसी बास है कि
मच्छर भी एकदम
दूर-दूर भागते
हैं। हम दोनों
एक ही कमरे
में सोये। वह
बोले:
मच्छरदानी की
क्या जरूरत? मैंने कहा:
इतने मच्छर
हैं यहां!
उन्होंने कहा:
रहने दो, मच्छर
क्या कर लेंगे?
मैं चकित
हुआ। रात भर
में सुबह तक
मुझे तो इतने
मच्छर काट गये
कि सारा शरीर
मच्छरों के ही
काटे चिह्नों
से भर गया।
मगर उन सज्जन
को एक मच्छर
ने न काटा।
उन्होंने कहा:
मुझे काटते ही
नहीं। इसमें
जरूर आपकी कोई
गलती होगी।
नहीं तो मच्छर
क्यों काटते
आपको?
मैंने
उनके पास जाकर
उनका शरीर
सूंघा और मैंने
कहा कि मैं
समझ गया, तुम्हारे
शरीर से इस
तरह की बास आ
रही है कि शायद
मच्छरों को
जमती नहीं।
आखिर मच्छरों
से बचने की जो
दवाइयां बनाई
गई हैं, वे
भी बास के
आधार पर बनाई
गई हैं। इसी
तरह के लोगों
का अध्ययन
करके कि जिनके
खून में इस
तरह की बास है
तो फिर इस तरह
की दवाइयां
बनाई गई हैं--मलहम,
उनको लगा
लिया और मच्छर
नहीं आता; वह
एक खास तरह की
बास से दूर ही
दूर रहता है।
अब
हो सकता है
महावीर को
मच्छर न काटते
हों तो वे
नग्न रह लिये, मजे में। अब
जिसको मच्छर
काटते हैं वह
नग्न रहेगा तो
मुश्किल में
पड़ेगा। तो फिर
अब उपद्रव करना
पड़ेगा।
छिपाकर कहीं
चोरी से रखे
रहो एक मच्छरदानी,
कि जब सब
चले जायें
दरवाजा बंद
करके अपनी
मच्छरदानी लगा
कर सो जाओ। अब
यह पाखंड हुआ।
महावीर का शरीर,
हो सकता है,
इस तरह का
रहा हो कि
उन्हीं जरूरत
नहीं थी वस्त्रों
की, कि रात
उन्हें कंबल
ओढ़ने की जरूरत
नहीं थी। सबके
शरीर
भिन्न-भिन्न
हैं।
लेकिन
अब जैन
दिगंबर-मुनि
की बड़ी अड़चन
है, वह क्या
करे? तो
उपाय करने
पड़ते हैं।
उपाय क्या हैं?
कपड़े तो
ओढ़ाए नहीं जा
सकते, तो
फिर कमरे को
बिलकुल बंद कर
देते हैं जहां
जैन-मुनि
ठहरते
है--दीवार-दरवाजा
सब बंद कर देते
हैं, सब
तरह से, ताकि
जरा भी हवा
अंदर न जा
सके। और फिर
जमीन पर बिछा
देते हैं
घास-पूस, ताकि
घास-पूस की
गरमी बनी रहे।
और फिर जब
मुनि लेट जाता
है तो उसके
ऊपर से डाल देते
हैं घास-पूस, ताकि वह
घास-पूस के
अंदर पड़ा रहे।
अब अगर तुम जैन
मुनि से पूछो
कि यह तो कोई
बात न
हुई--इतना उपद्रव
करना, दरवाजा
बंद करना, खिड़की
बंद करना, फिर
घास-पूस
बिछाना, फिर
घास-पूस ऊपर
से
डालना--इससे
बहेतर है कि
एक कंबल बिछा
लेते, एक
कंबल ओढ़ लेते,
ज्यादा
आसान था, ज्यादा
सुगम था, कम
झंझट का था।
लेकिन वह तो
वह कर ही नहीं
सकता। वह
कहता: घास-पूस
से मुझे क्या
लेना? मैंने
तो घास-पूस
बिछा हुआ पाया,
तो मैं सो
गया। मैंने तो
नहीं बिछाया।
अब देखते हो
पाखंड कैसे
पैदा होता
है!...मैंने
बिछाया नहीं!
वह नहीं
बिछाता खुद, इसलिये उसको
दोष नहीं है।
और जब मैं लेट
गया, लोगों
ने घास-पूस
ऊपर से डाल
दिया, मैं
क्या करूं!
मैंने डाला
नहीं! इसका
नाम पाखंड।
एक
सज्जन मेरे
पास आये।
हिंदू-संन्यासी।
बंबई की बात।
ध्यान समझने
आये। मैंने
कहा कि ध्यान
का शिविर ही
चल रहा है, कल सुबह तुम
शिविर में आ
जाओ। ठीक से
वहां ध्यान
करो दो-चार
दिन, फिर
पूछ लेना।
तो
उन्होंने कहा:
वह तो जरा
कठिन है, मैं
आ न सकूंगा।
मैंने कहा:
क्या कारण है?
उन्होंने
कहा: कारण यह
है कि मैं
पैसे अपने पास
नहीं रखता।
पैसे का मैंने
त्याग कर दिया
है। मैं छूता
ही नहीं हाथ
से।
तो
मैंने कहा:
मेरी समझ में
नहीं आया, पैसा छूने
से सुबह ध्यान
करने आने का
क्या संबंध?
उन्होंने
कहा: आपके
खयाल में नहीं
आ रही है बात।
घाटकोपर रुका
हूं। उधर से
आते में
टैक्सी करनी
पड़ेगी।
तो
मैंने कहा:
यहां तक तुम
कैसे आये? तो उन्होंने
कहा: ये जो
मित्र मेरे
साथ हैं, ये
कल नहीं आ
सकते, इनको
कल काम है। ये
पैसा रखते
हैं। ये पैसा
चुकाते हैं, लेते हैं, देते हैं।
मैं पैसा छूता
नहीं।
मैंने
पूछा कि यह
पैसा इनके पास
कहां से आता है? तो उन्होंने
कहा: पैसा तो
जो लोग मुझे
चढ़ाते हैं--वह
ये रखते हैं।
पैसा
इनको चढ़ता है, एक सज्जन
रखते हैं! वे
सज्जन खर्चा
करते हैं। अब
कल चूंकि वे
नहीं आ सकते, इनको
अस्पताल जाना
है, इसलिये
कल बड़ी
मुश्किल हो गई,
ध्यान करने
नहीं आ सकते!
क्या पाखंड
चला रहे हो! एक
आदमी से जो
काम हो जाता, उसमें दो को
लगा रहे हो!
पैसे तुमको
चढ़ाये जाते
हैं, उनको
तो कोई चढ़ाता
नहीं। ये
सिर्फ दलाल
हैं। ये सिर्फ
तुम्हारे
पैसे रखते
हैं!
मैंने
उनसे पूछा कि
ये धोखा-धाखा
नहीं करते कि
कितने के
कितने बनाये? उन्होंने
कहा कि नहीं, हिसाब तो
मैं रखता हूं।
हिसाब मैं रख
सकता हूं।
अंधा नहीं
हूं।
हिसाब
तुम रखते हो, पैसा तुम
रखते नहीं हो,
किस खेल में
पड़े हो! और ये
सोच रहे हैं
कि एक बहुत
बड़ा काम
इन्होंने कर
लिया है, किस
खेल में पड़े
हो। आदर्श
बनाओगे? आदर्श
बनाओगे कैसे?
किसी को
देखकर
बनाओगे। बस, किसी को
देखकर बनाया
कि झंझट शुरू
हुई। इस जगत
में दो व्यक्ति
एक जैसे नहीं
हैं इसलिये
आदर्श से पाखंड
पैदा होता है।
इस जगत में
व्यक्ति-व्यक्ति
भिन्न हैं।
कृष्ण का
आदर्श बनाओगे,
बस तुम
मुश्किल में
पड़ जाओगे; तुम
कृष्ण नहीं
हो। महावीर का
आदर्श बनाओगे
तो मुश्किल
में पड़ जाओगे;
तुम महावीर
नहीं हो।
महावीर भी
किसी और का
आदर्श मानकर
नहीं चले थे; चलते तो वे
भी पाखंडी हो
जाते। वे अपनी
सहजता से जीये,
इसलिये कोई
पाखंड न था।
इस बात को खूब
समझ लो गहराई
से।
जो
भी सहजता से
जीता है, जिसका
कोई आदर्श
नहीं है, जो
अपने स्वभाव
से जीता
है--किसी
धारणा के अनुसार
नहीं; जो
किसी तरह का
आचरण नहीं
बनाता, अपने
अंतस से जीता
है--उसके जीवन
में पाखंड नहीं
होता। उसके
जीवन में कोई
पाखंड कभी
नहीं होता। जो
स्वाभाविक है
वही करता है, पाखंड का
सवाल ही नहीं।
मगर जो लोग
दूसरे का अनुकरण
करेंगे वे सब
पाखंडी हो
जाते हैं।
इसलिये
दुनिया में
इतना पाखंड है, क्योंकि
सारे लोग
अनुकरण कर रहे
हैं--कोई
महावीर का, कोई बुद्ध
का, कोई
कृष्ण का। ये
सब पाखंडी हो
जाने वाले
हैं।
इसलिये
मैं अपने
संन्यासी से
कहता हूं कि
मैं तुम्हारा
आदर्श नहीं
हूं। मेरे ढंग
से जीने की
चेष्टा मत
करना। मैं
नहीं चाहता कि
मैं तुम्हारे
ऊपर आरोपित हो
जाऊं, नहीं
तो मुश्किल
होगी; नहीं
तो कठिनाई में
पड़ोगे, पाखंडी
हो जाओगे। मैं
जैसा जी रहा
हूं वह मेरे
लिये
स्वाभाविक
है। मैं किसी
को आदर्श
मानकर नहीं जी
रहा हूं।
यही
तो इस देश को
अड़चन है कि
मैं किसी को
आदर्श मानकर
नहीं जी रहा
हूं, मैं अपने
ढंग से जी रहा
हूं। देश को
अड़चन है कि वे
पूछते हैं कि
रामकृष्ण परमहंस
तो ऐसे जीते
थे, आप ऐसे
क्यों जी रहे
हैं? रामकृष्ण
परमहंस अपने
स्वभाव से
जीते थे, मैं
अपने स्वभाव
से जी रहा
हूं। न तो
रामकृष्ण
परमहंस को
मेरे अनुसार
जीने की जरूरत
है, न मुझे
रामकृष्ण
परमहंस के
अनुसार जीने की
जरूरत है।
वे
पूछते हैं कि
बुद्ध तो ऐसा
जीते थे, आप
ऐसा क्यों जी
रहे हैं? जैसे
बुद्ध ने कोई
ठेका ले रखा
है कि अब
दुनिया में
सबको वैसे ही
जीना पड़ेगा!
तब तो जिंदगी
बड़ी उदास हो
जायेगी, बड़ी
पाखंडी हो
जायेगी।
बुद्ध बड़े
प्यारे हैं, मगर उनकी
खूबी यही है
कि वे पुनरुक्त
नहीं किये जा
सकते हैं। कोई
उनकी कार्बनकापी
नहीं हो सकता
है और जो भी
होगा वह कुरूप
होगा।
कार्बन-कापियां
सदा कुरूप
होती हैं।
मौलिक बनो।
आदर्श
सीखोगे कहां
से? आदर्श
सदा दूसरे से
सीखोगे और जो
भी दूसरे से सीखा
गया वह पाखंड
पैदा
करवायेगा।
उसे तुम पूरा कर
न सकोगे, क्योंकि
तुम्हारे
अनुकूल न
पड़ेगा, तुम
वैसे हो नहीं।
तुम तो बस "तुम'
जैसे हो।
तुम्हारे
जैसा न कभी
कोई हुआ न कभी
होगा कोई।
तुम्हें तो
सिर्फ अपना
स्वभाव जीना है।
फिर पाखंड
नहीं होगा।
तो
तुम पूछते हो
मैत्रेय, कि
सभी
ज्ञानियों ने
पाखंड का
विरोध किया
है...। लेकिन
अगर
ज्ञानियों ने
सिर्फ पाखंड
का विरोध किया
हो तो वे
ज्ञानी नहीं
हैं। असली ज्ञानी
पाखंड का
विरोध तो पीछे
करेगा, पहले
आदर्श का
विरोध करेगा।
क्योंकि
आदर्श कट जाये
तो जड़ कट गई
पाखंड की। यही
सरहपा और तिलोपा
कह रहे हैं।
इसलिये
तुम देखते हो, सरहपा और
तिलोपा का नाम
ही मिट गया है
इस देश से।
क्योंकि
उन्होंने कोई
आदर्श नहीं
सिखाया उन्होंने
स्वतंत्रता
सिखायी है, आदर्श नहीं।
उन्होंने
अंतस जगाया, आचरण नहीं
दिया।
उन्होंने
तुम्हें
चरित्र नहीं
दिया, उन्होंने
तुम्हें बोध
दिया।
उन्होंने
तुम्हें इतना
बोध दिया कि
तुम अपने
अनुसार जी सको
और इतना बल
दिया कि चाहे
लाख अड़चनें
हों, तुम
अपने ही
अनुसार जीना।
टूटना हो तो
टूट जाना--मगर
झुकना मत, अपने
ही ढंग से
जीना। मिटना
पड़े तो मिट
जाना, मगर
स्वयं रहकर
मिटना। अपनी
निजता को किसी
कीमत पर खोना
मत। कोई सौदा
मत करना, कोई
समझौता मत
करना।
इसलिये
तो
सरहपा-तिलोपा
भूल गये; तुलसीदास
याद हैं; तुलसीदास
कंठस्थ हैं, क्योंकि
आदर्श की बात
हो रही है और
पाखंड का विरोध
हो रहा है। और
मजा यह है कि
आदर्श से पाखंड
पैदा होता है।
जब
तक दुनिया में
आदर्श हैं तब
तक दुनिया में
पाखंड रहेगा।
अगर चाहते हो
दुनिया
गैर-पाखंडी हो
जाये तो
आदर्शों को
नमस्कार कर लो, विदा कर दो; फिर तुम
देखो कोई
पाखंड नहीं।
तुमने इतनी
छोटी-सी बात, इतनी
सीधी-साफ गणित
की, विज्ञान
की बात भी
देखी नहीं
कभी। तुम तो
थोपे ही जाते
हो आदर्श।
हर
बाप अपने
बच्चों पर
आदर्श थोप रहा
है, हर समाज अपने
बच्चों पर
आदर्श थोप रहा
है, हर
पुरानी पीढ़ी
नई पीढ़ी पर
आदर्श थोप रही
है। और फिर जब
आदर्श नहीं
माना जाता तो
दो ही उपाय हैं:
या तो वह
व्यक्ति
अपराधी हो
जाता है या पाखंडी
हो जाता है।
आदर्श न माने
तो पाखंडी, दिखाये
सिर्र्फ। और
अगर ईमानदार
हो तो फिर अपराधी।
तुम विकल्प ही
नहीं छोड़ते
लोगों के लिये,
तुमने
फांसी लगा
दी--या तो
अपराधी या
पाखंडी।
यह
कैसा धर्म है!
यह कैसी
चिंतन-प्रक्रिया
है! तुमने दो
ही रास्ते
छोड़े हैं
लोगों के
लिये। तो कुछ
अपराधी हो
जाते हैं, कुछ पाखंडी
हो जाते हैं।
दोनों बातें
बुरी हैं।
आदर्श
से छुटकारा
करो। हर बच्चे
को क्षमता दो, सहारा दो कि
वह स्वयं हो
सके। इतनी
आत्मा दो कि
उसे सारे
संसार के
विपरीत भी अगर
लड़ना पड़े तो
लड़े और खड़ा हो
अपने बल से, चाहे कोई भी
कीमत चुकानी
पड़े। अपनी
निजता में जीकर
मर जाना लाख
गुना बेहतर
है--उस जीवन से,
जो समझौते
पर खड़ा होता
है। फिर न तो
तुम अपराधी
होओगे न तुम
पाखंडी
होओगे।
इस
बात से
तुम्हें बहुत
बेचैनी होगी
क्योंकि तुम
तो यही सोचते
थे कि आदर्श
ज्यादा से
त्यादा फैल
जायें तो लोग
पाखंडी न हों।
मैं यह कह रहा
हूं: आदर्श
जितने
फैलेंगे उतने
लोग पाखंडी होंगे।
दोनों को विदा
देना है। कम
से कम मेरे
संन्यासी को
दोनों को विदा
देना है।
करो
निज की घोषणा।
उसी घोषणा में
तुम परमात्मा
के निकट आने
लगोगे, क्योंकि
तुम्हारी
निजता ही
परमात्मा को
छिपाए है।
इसी
से संबंधित
प्रश्न है
चौथा:
ओशो, यहूदी संत
मुरजुत्रा का
विचार था कि
चेले ऐसे पात्र
हैं कि उनमें
गुरु का रंग
झलकना
चाहिये। यदि गुरु
की गुरुता के
बावजूद शिष्य
में अपेक्षित
गुण नहीं आये
तो उसमें दोष
गुरु का है; उसे ही अपना
दोषी होना
चाहिये।
इससे
शिष्य को दंड
देने के पहले
वह अपने को दंड
दे लिया करता
था।
कृपा
करके संत
मुरजुत्रा के
इस वचन का आशय
हमें कहिये।
मुरजुत्रा
मेरी दृष्टि
में संत जरा
भी नहीं है। मुरजुत्रा
लोगों के ऊपर
जबरदस्ती कर
रहा है, हिंसात्मक
है। तुम कहते
हो कि "चेले
ऐसे पात्र हैं',
वह कहता था
"कि उनमें
गुरु का रंग
झलकना चाहिये।'
क्यों? गुरु
का रंग चेलों
में क्यों
झलकना चाहिये?
गुरु का रंग
गुरु का रंग
है, चेलों
में चेलों का
रंग झलकना
चाहिये।
गुलाब का फूल
जूही के फूल
में क्यों
झलके? चमेली
का फूल चंपा
के फूल में
क्यों झलके? कोई किसी पर
क्यों झलके? यह आग्रह तो
अहंकार का
आग्रह है।
अहंकार
चाहता है सारी
दुनिया मेरी
जैसी हो जाये।
और जो मेरे
जैसा नहीं है
उसे जीने का
कोई हक नहीं
होना चाहिये।
स्वामी
कृष्ण प्रेम
और मा मधुरा
को मोरारजी देसाई
ने कहा: "अगर
मेरे बस में
होता तो मैं
तुम्हारे
गुरु के आश्रम
को
नेस्तनाबूद
कर देता।' क्यों? जो
मेरे अनुकूल
नहीं है, उसे
जीने का भी हक
नहीं है! यह
लोकतंत्र है!
ये लोकतंत्र
के दावेदार
हैं!
"...नेस्तनाबूद
कर देता' यह
आकांक्षा
अहंकार की
आकांक्षा है।
यह कोई सदगुण
नहीं है।
सच्चा
गुरु वही है, जो तुम्हें
सहारा देगा
ताकि
तुम्हारा रंग
तुम में प्रगट
हो, तुम्हारा
फूल खिले।
सच्चा गुरु
वही है जो अपना
रंग तुम्हें
देगा ही नहीं,
तुम चाहो तो
भी नहीं देगा।
तुम तो चाहोगे,
क्योंकि
तुम तो हमेशा
सदा सस्ती चीज
की आकांक्षा
में होते हो।
तुम तो चाहोगे
कि गुरु बता दे
आचरण के सूत्र,
बस दे दे
कोई
पांच-सूत्री
कार्यक्रम--कि
इतने बजे उठ
आना, इतनी
लंबी चोटी रख
लेना, इस
तरह का खाना
खा लेना, यह
प्रार्थना कर
लेना, बस
बाकी सब हो
जायेगा। तुम
तो कुछ सस्ता
चाहते हो। तुम
जीवन को दांव
पर लगाना नहीं
चाहते।
कोई
सच्चा गुरु
तुम्हें इतना
सस्ता नहीं
छोड़ सकता, और कोई
सच्चा गुरु
तुम्हारी
अपेक्षाएं
पूरी नहीं कर
सकता। तुम तो
चाहते हो किसी
की अनुकृति बन
जाओ। मगर
सच्चा गुरु
वही है जो
तुम्हें
जगायेगा और
कहेगा कि तुम
स्वयं हो। तुम
स्वयं बनो!
तुम अपने ही
रंग, अपने
ही ढंग, अपने
ही गीत को
गाते हुए
परमात्मा की
तरफ जाना। तुम
अपनी ही आत्मा
को निखारो, फिर कौन
जाने चमेली
पैदा हो, कि
जुही पैदा हो,
कि
रजनीगंधा
पैदा हो क्या
पता? तुम्हारा
रहस्य अभी
छिपा है। तुम
गुलाब ही हो, यह जरूरी तो
नहीं है कि
तुम कमल ही हो,
यह जरूरी तो
नहीं है।
तुम्हारा
भविष्य क्या लायेगा,
इसकी कोई
घोषणा नहीं की
जा सकती, कोई
भविष्यवाणी
नहीं की जा
सकती।
तुम
रहस्य हो, तुम्हारे
रहस्य को खराब
नहीं करना है।
और अगर कोई
गुरु अगर
तुम्हारे ऊपर
अपना रंग चढ़ा
दे, तो फिर
तुम्हारी
आत्मा का रंग
कैसे प्रगट
होगा, कब
प्रगट होगा? गुरु का रंग
चढ़ गया, यह
तो ऐसे ही हुआ
जैसे
स्त्रियों ने
अपने ओंठों पर
लिपस्टिक लगा
लिया। उनके
अपने ओंठों का
रंग फिर प्रगट
होगा ही नहीं।
ओंठों में लालिमा
होनी चाहिये,
यह तो समझ
आने वाली बात
है। मगर
लिपस्टिक से रंग
लिया! और इस
झूठ को भी लोग
सौंदर्र्य
समझते हैं।
जरा
स्त्रियों की
नादानी देखते
हो, ओंठों को
रंगे चली जा
रही हैं
बाजारों में
और सोचती हैं
सुंदर हैं!
फूहड़पन है। यह
सौंदर्य नहीं
है, जड़ता
है। और यह
जड़ता बढ़ती जा
रही है। अब तो
पलकों पर झूठे
बाल लगाने का
उपाय हो गया
है। तो आंख की
पलकों पर झूठे
बाल लगाकर लोग
निकल रहे हैं।
इस झूठ को तुम
जीवन कहते हो!
और यही झूठ
तुम धर्म की
दुनिया में भी
ले जाओगे!
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
शादी की।
सुहागरात। दोनों
बैठे, दोनों
चिंतित। कौन
शुरुआत करे? मुल्ला ने
कहा कि क्षमा
कर एक बात अब
मैं तुझे बता
ही दूं, जो
मैंने अभी तक
बताई नहीं थी
कि मेरे बाल
नकली हैं। यह
विग लगाये हुए
हूं। अब यह
बता ही देना
ठीक है, क्योंकि
अब यह कितनी
देर चलेगा! जब
तक ऐसे मिलना-जुलना
चलता था, सागर
के तट पर और
फिल्म में और
होटल में, तब
तक ठीक था कि
विग लगाये
रहे।
पत्नी
तो एकदम
प्रसन्न हो
गयी, पास आकर
उसने मुल्ला
का हाथ पकड़
लिया। उसने कहा:
तुमने मेरा
भार ही उतार
दिया। तो अब
फिर मैं भी
क्यों छिपाऊं!
मुल्ला
ने कहा: मतलब?
पत्नी
ने कहा: मेरे
दांत झूठे
हैं। बाल भी
झूठे हैं, एक टांग भी
झूठी है! अब जब
प्रेम ही हो
गया, और
साथ ही हैं तो
सच ही सच बात
हो जाये।
ऐसा
ही चल रहा है
बाहर के जीवन
में तो। बाहर
के जीवन में
चलता हो, ठीक
है, चलने
दो। लेकिन
कम-से-कम
अंतस-जीवन में
तो ऐसा न
चलाओ। जब तुम
बुद्ध जैसे
बनकर बैठ जाते
हो, तो तब
तुमने विग लगा
लिया, कि
तुम खड़े हो
गये बिलकुल
कृष्ण की
भांति पैर पर
पैर रखकर और
बांसुरी
लगाकर। तो
नाटक वगैरह में,
नौटंकी
वगैरह में काम
करते हो तो
ठीक है, मगर
जिंदगी में
नहीं हो सकेगा
यह। जिंदगी
सच्ची होनी
चाहिये।
मुरजुत्रा
को मैं संत
मानने को राजी
नहीं हूं। मगर
मुरजुत्रा को
बहुत से लोगों
ने संत माना
है, जैसे
महात्मा
गांधी को
बहुत-से लोगों
ने महात्मा
माना है।
दोनों एक जैसे
आदमी हैं।
दोनों की पकड़
एक जैसी है।
दोनों की
तर्क-सरणी एक
है। मुरजुत्रा
कहता है: चेले
ऐसे पात्र
हैं...। पात्र!
जैसे चेलों की
कोई आत्मा
नहीं है!
"चेले
ऐसे पात्र हैं,
जिनमें
गुरु का रंग
झलकना चाहिए।'...क्यों? अगर
सदगुरु हो तो
शिष्य में सदा
ही शिष्य का रंग
झलकता है।
सिर्फ झूठे
गुरु शिष्यों
के चेहरे पर
रंग-रोगन कर
देते हैं।
सिर्फ झूठे
गुरु उनको
अनुकृतियों
में बदल देते
हैं। सिर्फ झूठे
गुरु उनसे
कहते हैं:
अनुसरण करो।
सच्चे गुरु
कहते हैं:
अपनी आत्मा की
तलाश करो।
सच्चे गुरु उन्हें
व्यक्तित्व
देते हैं, मुखौटे
नहीं।
मुरजुत्रा
कहता है: चेले
ऐसे पात्र हैं
कि उनमें गुरु
का रंग झलकना
चाहिये। यदि
गुरु की गुरुता
के बावजूद
शिष्य में
अपेक्षित गुण
नहीं आये तो
उसमें दोष
गुरु का है।
कौन
करेगा
अपेक्षा गुण
की? प्रत्येक
व्यक्ति इतना
भिन्न है और
यहां कोई भी
किसी की
अपेक्षा पूरी
करने को आया
नहीं है।
प्रत्येक को
अपनी
अंतरात्मा
पूरी करनी है,
किसी और की
अपेक्षा
नहीं। यही तो
हमारे जीवन का
कष्ट है। पति
पत्नी की अपेक्षा
पूरी कर रहा
है और कष्ट
भोग रहा है।
पत्नी पति की
अपेक्षा पूरी
कर रही है और
कष्ट भोग रही
है, बच्चे
मां-बाप की
अपेक्षाएं
पूरी कर रहे
हैं और कष्ट
भोग रहे हैं।
हरेक दूसरे की
अपेक्षाएं पूरी
कर रहा है।
तुम्हारी
आत्मा कब पूरी
होगी? मैं
एक घर में
मेहमान था। एक
छोटा बच्चा घर
का मेरे पास
सुबह-सुबह
बैठा था।
मैंने उससे
पूछा: तेरा
बनने का इरादा
क्या है?
उसने
कहा: मैं पागल
हुआ जा रहा
हूं।
"पागल
हुआ जा रहा है?
तुझे हुआ
क्या? अभी
से पागलपन!'
उसने
कहा: इसलिये
पागल हुआ जा
रहा कि मेरी
मां चाहती है
कि मैं
संगीतज्ञ बनूं, मेरे पिता
चाहते हैं कि
मैं
वैज्ञानिक
बनूं, मेरे
काका चाहते
हैं कि मैं
इंजिनियर
बनूं, मेरी
काकी चाहती है
कि मैं डाक्टर
बनूं। मैं पागल
हुआ जा रहा
हूं।
ये
सारे लोगों की
इतनी
अपेक्षाएं, किस-किसकी
अपेक्षा पूरी
करोगे! और जब
सभी की अपेक्षाएं
पूरी नहीं
होतीं--और सभी
की हो भी नहीं
सकतीं--तो सभी
दुखी हो जाते
हैं तुम्हारे
चारों तरफ, सभी तुमसे
खिन्न हो जाते
हैं।
तुम
जानते हो, बुद्ध जैसे
बेटे को पाकर
भी बुद्ध के
बाप प्रसन्न
नहीं थे, क्योंकि
अपेक्षा पूरी
नहीं हुई।
अपेक्षा थी कि
बुद्ध
चक्रवर्ती
सम्राट
बनेंगे और बुद्ध
बन गये
संन्यासी।
बुद्ध जैसे
बेटे को पाकर भी
बाप संतुष्ट
नहीं। तब तो
समझ लो कि इस
जगत में
संतुष्ट कोई
हो न सकेगा।
जीसस को पाकर
जीसस के पिता
संतुष्ट नहीं
थे। क्योंकि
जीसस की बगावती
बातें पिता को
कष्ट देती थीं,
ऐसी
अपेक्षा न थी।
हम
सब अपेक्षाएं
थोप रहे हैं।
गुरु तो कम से
कम ऐसा होना
चाहिये जो
अपेक्षा न
थोपे। यह
अपेक्षा
थोपने का धंधा
तो सारी दुनिया
में चल रहा
है। यही तो
संसार है:
अपेक्षा
थोपना। गुरु
तुम्हें
संसार के बाहर
ले जाता है।
फिर वहां भी
अपेक्षा ही
थोपी जायेगी!
"मेरे
अनुसार चलो'...मैं कौन हूं?
यह मेरा
अहंकार है कि
तुम मेरे
अनुसार चलो।
हां, तुम्हें
जो प्रीतिकर
लगे मुझमें, चुन लो; जो
अप्रीतिकर
लगे, छोड़
दो। जो
तुम्हारे
अनुकूल लगे
उसे ग्रहण कर लो;
जो
तुम्हारे
अनुकूल न लगे
उसे चुपचाप
भूल जाओ।
लेकिन अंततः
तुम्हें होना
है तुम्हारे
जैसा ही।
सदगुरु
के पास अनंत
फूल खिलेंगे; उसका
प्रत्येक
शिष्य एक
अनूठी
प्रतिभा होगा।
झूठे गुरुओं
के पास बस
कतारें लगी
होंगी एक से
एक लोगों
की--बेरौनक, आत्म-हीन, गौरव-रहित, गरिमा-शून्य।
मुरजुत्रा
कहता है: "यदि
गुरु की
गुरुता के बावजूद
शिष्य में
अपेक्षित गुण
नहीं आए...।' सदगुरु अपेक्षा
करता ही नहीं
है। देता है, अपेक्षा
नहीं करता।
लुटाता है, प्रत्युत्तर
नहीं मांगता।
उसके पास
प्रेम है, बांटता
है; मगर
प्रेम के कारण
तुम्हें
बांधता नहीं
है--"कि अब तुम
ऐसे ही करना, देखो मैंने
तुम्हें इतना
प्रेम दिया, अब तुम्हें
ऐसा करना ही
होगा!' जो
ऐसा कहता हो, वह न तो
सदगुरु है, न ज्ञानी है,
न उसे कुछ
अनुभव हुआ है।
वह अहंकारी
है। वह छुपा
हुआ राजनेता
है। वह
अनुयायी खोज
रहा है, शिष्य
नहीं।
"और
वह कहता था कि
अगर ऐसा न हो
पाए तो उसमें
दोष गुरु का
है।' यह भी
अहंकार हुआ।
अगर तुम मेरे
जैसे न बन पाओ तो
पहली तो बात, यह अपेक्षा
ही गलत थी।
फिर तुम न बन
पाओ तो इसमें
दोष गुरु का
हुआ! यह हद हो
गई अहंकार की!
तुम शिष्य को
कुछ भी गौरव
दोगे कि नहीं
दोगे? इतना
भी गौरव नहीं
दोगे? ठीक
होने का गौरव
नहीं दिया, कम-से-कम
गैर-ठीक होने
का गौरव तो
दो--इतनी भी स्वतंत्रता
न दोगे? तुमने
सारा ठेका ले
लिया! तुमने
शिष्य के लिये
कुछ भी न
छोड़ा। जैसे
शिष्य की कोई
आत्मा ही नहीं
है! जैसे
शिष्य कैनवास
है, तुमने
चित्र पोत
दिया, अगर
ठीक बन गया तो
गौरव
तुम्हारा, अगर
ठीक नहीं बना
तो अगौरव
तुम्हारा।
शिष्य कोई
कैनवास तो
नहीं है।
शिष्य एक
आत्मा है।
उसके भीतर भी
परमात्मा
छिपा है। यह
कैसा दर्ुव्यवहार
कर रहे हो?
मगर
मुरजुत्रा
ऐसा ही
दर्ुव्यवहार
करता रहा।
मुरजुत्रा का
तो तुम्हें
कुछ पता नहीं, लेकिन
महात्मा
गांधी का भी
यही ढंग था, यही सलीका
था। अगर आश्रम
में किसी
शिष्य से भूल
हो जाती तो
गांधी अपने को
दंड देते थे।
यह भी खूब मजा
है! और भूलें
भी क्या...किसी
ने चाय पी ली, भूल हो गई!
क्योंकि किसी
को चाय पीने
का हक नहीं है,
चाय पाप है!
चाय और पाप...तो
तुम आदमी को
जीने दोगे कि
नहीं जीने
दोगे? फिर
तो जीना ही
पाप है। अब
ऐसी
अपेक्षाएं...और
फिर जब ऐसी
अपेक्षाएं
होती हैं तो
समझ लेना कि
गुरु नजर रखता
है। गुरु क्या,
वह एक तरह
का जासूस हो
जाता है। वह
पता लगाए फिरता
है कि कौन
क्या कर रहा
है, किसने
चाय पी ली, किसने
सिगरेट पी ली,
कौन पुरुष
किस स्त्री से
बात कर रहा है,
इस सबका पता
रखना पड़ता है
उसको। वह तो
एक तरह की
जासूसी हो गई।
यही
धंधा चलता था
गांधी जी के
आश्रम में।
अगर पता चल
गया कि कौन
स्त्री किस
पुरुष से बात
कर रही है, फौरन हाजिर
करो। किसने
चाय पी ली, उसको
सामने लाओ। और
दंड वे अपने
को देंगे कि उन्होंने
उपवास कर दिया,
कि वे तीन
दिन का उपवास
करेंगे। अब यह
तो किसी को
सताने का बड़ा
ही जालसाज
उपाय हो गया।
किसी ने चाय पी
ली, तुमने
तीन दिन का
उपवास किया; उस आदमी का
भी तो कुछ
सोचो, उसका
तुम कितना
भयंकर अपमान
कर रहे हो! और
उसे तुम कितनी
ग्लानि में
डाल रहे हो!
पूरा आश्रम उसकी
तरफ देखेगा कि
ये चले जा रहे
हैं सज्जन, गुरुदेव
इनके पीछे तीन
दिन से भूखे
हैं। और
इन्होंने
क्या किया, जरा-सी चाय
के पीछे देखो
महात्मा को
कष्ट दे रहा
है यह आदमी!
तुम
जरा उसकी हालत
तो सोचो, वह
निंदा का
पात्र हो गया।
वह सब तरफ
नजरें उस पर
उठेंगी, अंगुलियां
उस पर उठेंगी।
यह तो हिंसा
है। और अच्छा
होता कि तुमने
उसे एक चांटा
मार दिया होता,
कम-से-कम
उसका सम्मान
तो होता, बात
खतम हो जाती।
तुमने चांटा
अपने को मारा,
उसको इतना
भी सम्मान न
दिया! और
चांटा अपने को
मारकर तुमने
उसकी ऐसी
अपमानित दशा
कर दी कि वह अब
कीड़े-मकोड़े
जैसे अनुभव
करेगा कि एक
मैं हूं कि
जरा-सी चाय का
स्वाद न रोक
सका और एक
मेरे गुरु हैं
कि तीन दिन का
उपवास कर रहे
हैं। मैं कीड़ा,
मैं पापी, वे महात्मा!
तुमने उसको
कीड़ा बना
दिया।
ये
सदगुरुओं के
लक्षण नहीं
हैं। सदगुरु
तो कीड़ों में
भी परमात्मा
को जगाते हैं।
ये तो असदगुरुओं
के लक्षण हैं
कि तुम्हारे
आत्मवान व्यक्तित्व
को इतना
दीन-हीन और
छोटा कर देते
हैं, इतना
अपमानित, इतना
ग्लानिपूर्ण
कि तुम
कीड़े-मकोड़े हो
जाते हो।
उसे
सदगुरु जानना
जिसके पास
बैठकर तुम
गौरवान्वित
होओ; जिसके
पास बैठकर
तुम्हारे
भीतर जिन
आकाशों को
तुमने कभी
नहीं देखा है
वे आकाश दिखाई
पड़ने लगें।
उसके पास बैठकर
सदगुरु जानना,
जिसके पास
बैठकर
तुम्हारी
महानता का
तुम्हें बोध
हो, तुम्हारी
असीमता का
तुम्हें
स्मरण आए, तुम्हारे
परमात्मा की
सुधि जगे।
मगर
ये इस तरह के
लोग...मुरजुत्रा
या महात्मा गांधी...सदगुरु
नहीं हैं। ये
बहुत चालबाज
राजनीतिज्ञ
हैं। ये जानते
हैं कैसे आदमी
की गर्दन कसी
जाए, कैसे उसे
दबाया जाए; कैसे उसे
परेशान किया
जाए और कैसे
उसे जोर-जबरदस्ती
से पीछे चलाया
जाए।
गांधी
जी के आश्रम
में अगर किसी
युवक और युवती
का प्रेम हो
जाए तो महा
दुर्घटना घट
गई! जैसे प्रेम
कोई
अस्वाभाविक
घटना है! और
फिर जानते हो, वे शादी भी
करवाएंगे, तो
शादी के पहले
कई शर्तें
हैं। पहली तो
यह शर्त है कि
दो साल अब
किसी से बोलना
मत, मिलना-जुलना
मत, यह
पहली शर्त
पूरी करो, तब
शादी होगी, ताकि प्रमाण
दो कि सच में
तुम्हारा
प्रेम है। अब
दो साल उनको
यातना में डाल
दिया कि मिल
नहीं सकते, बोल नहीं
सकते, पत्र
नहीं लिख
सकते। और अब
जासूसी चलेगी,
क्योंकि
अगर दो साल
कोई पत्र लिख
दे या कहीं से
मिल ले
मौके-बे-मौके
एक-दूसरे की
तरफ देख लें या
सभा में
सत्संग में
साथ-साथ बैठ
जाएं, एक-दूसरे
को छू लें, कुछ
हो जाए, तो
अब यह जासूसी
चलेगी। दो साल
का प्रमाण दो।
और दो साल का
अगर प्रमाण दे
दिया तो गांधी
विवाह भी करवा
देंगे और
विवाह के बाद
विवाह का
आशीर्वाद देते
समय यह कसम भी
दिलवा देंगे
कि अब जीवन-भर का
ब्रह्मचर्य-व्रत
ले लो। तुम
सोचते हो यह
पागलपन। और अब
हजारों लोगों
के सामने अब
उन दोनों को
फंसा दिया, अब वे आए थे
आशीर्वाद
लेने, आशीर्वाद
दिया और कहा
कि अब यही
मेरा आशीर्वाद
है कि अब
दोनों कसम खा
लो कि अब
जीवन-भर, आजीवन
ब्रह्मचर्य-व्रत
का पालन
करेंगे।...तो महाराज
इनकी शादी ही
काहे के लिए
करवायी? अब
यह और मुश्किल
हो गई। भोजन
सामने रखा हो
और तुम बैठे
रहो उपवास किए,
तो यह भोजन की
थाली ही
किसलिए रखी है?
मैं
विनाबा के एक
आश्रम में
मेहमान था। तो
वहां एक युवती
ने आकर मुझे
कहा कि मैं
पागल हो जाऊंगी।
विनोबा जी ने
मेरी शादी तो
करवा दी है, मगर आजीवन
ब्रह्मचर्य
का व्रत दिलवा
दिया हम दोनों
को। अब हालत
इतनी बिगड़ती
जा रही है कि हम
विक्षिप्त
हुए जा रहे
हैं। इससे तो
अच्छा था शादी
ही न होती। हम
एक कमरे में
सो भी नहीं
सकते, क्योंकि,
उसकी आज्ञा
नहीं है। तो
मेरे पति
दूसरे कमरे में
सोते हैं, मैं
एक कमरे में
सोती हूं। और
इसमें भी खतरा
है, क्योंकि
वासना का वेग
उठ जाए! कसम खा
ली है जीवन-भर
ब्रह्मचर्य
की। और कहीं
हम उठकर
एक-दूसरे के
कमरे में रात चले
जाएं...।
तो
मैंने कहा:
फिर क्या उपाय
किया है? तो
उपाय
उन्होंने कहा
कि बताया गया
है यह कि मैं
ताला लगा लेती
हूं अपनी तरफ
से और चाबी उस
तरफ फेंक देती
हूं। चाबी पति
के कमरे में
रहती है। सो
वह खोल सकता
नहीं, क्योंकि
ताला वहां
नहीं है। ताला
मेरे कमरे में
रहता है, मैं
खोल सकती नहीं,
क्योंकि
चाबी नहीं है।
अब
यह तुम देख
रहे हो, दो
व्यक्तियों
को सताने का
कोई और इससे
आसान उपाय हो
सकता है! और
जिनको इतने
इंतजाम करने
पड़ रहे हैं कि
ताला लगाकर
चाबी उस तरफ
फेंकनी पड़ रही
है, ये रात
सो सकते होंगे?
मैंने उस
युवती को कहा
कि अगर विनोबा
जी ने...अगर एक
बाबा ने
तुम्हें यह
उपद्रव दे
दिया, तो
मैं दूसरा
बाबा...तुम्हें
इस उपद्रव से
छुटकारा देता
हूं। तुम
ताला-चाबी
दोनों मुझे
भेंट कर जाओ
और मैं
तुम्हें
आजीवन
प्रेमपूर्ण
जीवन रहने की
शिक्षा देता
हूं। फिर उसी
प्रेम में से
अगर ब्रह्मचर्य
निकल आए जो
निकल आए, तो
शुभ है। मगर
यह कोई
ब्रह्मचर्य
होगा? यह
विक्षिप्तता
है।
मगर
बड़ी अड़चनें
हैं। अगर गुरु
अपने को सताने
लगे तो शिष्य
को पीड़ा बहुत
होती है कि
मेरे कारण
गुरु अपने को
सता रहा है; तो अब जो भी कहता
है, मान
लो। ठीक है कि
गलत, यह भी
फिकिर करने की
गुंजाइश नहीं
रह जाती। आखिर
शिष्य गुरु को
प्रेम करता है,
इसलिए तो
गुरु के पास
आया है। तो
उसका प्रेम ही
उसको कहता है
कि ठीक है अब
चलो इतना भी
मान लो।
यह
मुरजुत्रा
कहता है कि
उसे अपने को
ही दोषी मानना
चाहिए। इससे
शिष्य को दंड
देने के पहले
वह अपने को दंड
दे लिया करता
था। यह
हिंसात्मक
वृत्ति है। यह
सदगुरुओं का
लक्षण नहीं है, अज्ञानियों
का लक्षण है।
यह खुद भी
परेशान रहा
होगा, यह
दूसरों को
परेशान कर रहा
है। इसे खुद
भी कुछ अनुभव
नहीं हुआ।
इसके पास किसी
को कोई अनुभव
नहीं हो सकता
है।
मेरे
पास तुम जो आए
हो, मैं
तुम्हें
सम्मान देता
हूं, इसलिए
तुम्हें आचरण
नहीं देता।
तुम्हारा मेरे
मन में इतना
मूल्य है
जितना कि
परमात्मा का,
उससे जरा भी
कम नहीं।
इसलिए मैं
तुम्हें कोई आदर्श
नहीं देता। और
मैं तुमसे
कहता हूं: तुम
अपने मालिक
हो। भूल करनी
हो तो भूल
करना, ठीक
करना हो तो
ठीक करना। न
तो मैं अपने
को दंड दूंगा
तुम्हारे
कारण, न
तुम्हें पीड़ा
दूंगा। भूल
करोगे, उसी
में तुम्हें
दंड मिलेगा।
वही दंड काफी
है। भूल करोगे,
उससे
तुम्हें पीड़ा
होगी, वही
पीड़ा काफी है
जगाने को। अगर
वह काफी नहीं है
तो फिर कोई और
चीज तुम्हें
जगा नहीं
सकती। और ठीक
करोगे तो आनंद
होगा; वही
पुरस्कार
पर्याप्त है।
अगर वह
पुरस्कार तुम्हारे
चित्त को हर्ष
और उल्लास से
नहीं भरता तो
फिर इस जगत का
कोई पुरस्कार
तुम्हारे किसी
काम नहीं आ
सकता है।
मैं
तुम्हें
परिपूर्ण
स्वतंत्रता देता
हूं। मेरा
संन्यासी एक
स्वतंत्र
व्यक्ति है।
उसकी अपनी
निजता है।
उसकी निजता पर
मेरी तरफ से
कोई आरोपण
नहीं है।
मैं
अपना हृदय
खोलकर
तुम्हारे
सामने रख देता
हूं; कुछ
तुम्हें
प्रीतिकर लगे
चुन लेना, तुम्हें
प्रीतिकर न
लगे मत चुनना।
नहीं चुना तो
तुम मुझे
नाराज नहीं कर
रहे हो। चुन
लिया तो तुम
मुझे प्रसन्न
नहीं कर रहे
हो। मेरा आनंद
है तुम्हें दे
देना।
तुम्हारा
आनंद है उसमें
से अपने काम
की बात चुन
लेना।
और
फिर तुम्हें
अपने ढंग से
चलना है, अपने
ढंग से जीना
है। क्योंकि
तुम्हें वही
होना है जो
तुम होने को
पैदा हुए हो।
तुम्हें
परमात्मा के
सामने उत्तर
देना पड़ेगा कि
तुम तुम हुए
या नहीं। बस
एक ही उत्तर
देना पड़ेगा कि
तुम
प्रामाणिक
रूप से अपनी
आत्मा के
विकास को, खिलाव
को उपलब्ध हो
गए थे? तुम्हारा
फूल खिला या
नहीं? परमात्मा
तुमसे यह नहीं
पूछेगा कि
तुमने किसी और
का अनुकरण किया
कि नहीं? परमात्मा
पूछेगा: तुम
जुही थे, जुही
हुए? गुलाब
थे, गुलाब
हुए? कमल
थे, कमल
हुए?
इतनी
ही मेरी तुमसे
प्रार्थना है
कि तुम जो हो--जुही, कमल, गुलाब,
केतकी--वही
हो जाना, क्योंकि
वही होकर तुम
परमात्मा के
चरणों में चढ़
जाते हो।
वही
है अर्चना।
वही है
प्रार्थना।
आज
इतना ही।
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