6
अगस्त, 1986, 7.00 संध्या,
सुमिला
जुहू, बंबई
प्रश्नसार:
1— भगवान, एक शिष्य ने
सदगुरु से
पूछा, मैं
आपसे एक
प्रश्न करूं?
सदगुरु ने
उत्तर दिया, व्हाई यू
वांट टू वुण्ड
यारेसेल्फ?
2—आपके
स्वास्थ्य
को देख कर बहुत
चिंता होती है।
आपने दुनिया को
समझाने में अपनी
आत्मा उंडेल रख
दी, लेकिन लोग
बदलने की बजाय
आपको मिटा देना
चाहित है। आप इतना
श्रम क्यों कर
रहे है?
3—क्या
आपने अब संन्यास—दीक्षा
देनी ओर शिष्य
बनाना बंद कर दिया
है? क्या मैं
आपका शिष्य बनने
से बंचित ही रह
जाऊंगा?
4—आप
कहते है कि जहां
हो वहीं रहो,
जो करते हो वही
करो। फिर आप इधर—उधर
क्यों भागते हैं?
प्रश्न:
भगवान, एक
शिष्य ने
सदगुरु से
पूछा, मैं
आपसे एक
प्रश्न करूं?
सदगुरु ने
उत्तर दिया, व्हाई यू
वांट टू वुण्ड
यारेसेल्फ?
क्यों
तुम अपने को
घाव करना
चाहते हो? भगवान, कृपा
इसका अर्थ
समझाए।
सदगुरु
का अर्थ ही
यही है कि
जिसकी
उपस्थिति में, जिसके
सत्संग में
शिष्य
धीरे-धीरे
पिघलते-पिघलते
मिट जाए।
सदगुरु की मृत्यु
है। और इसलिए
शिष्य होने का
हकदार वही है,
जिसमें मिट
जाने का साहस
है।
मिटकर
ही कुछ बचता
है। सच कहो तो मिटकर
ही जो बचता है, वही बचाने
योग्य है। जो
मिट जाता है
वह मिट ही जाना
चाहिए।
व्यक्ति के
भीतर बहुत कुछ
है, जो कूड़ा-कचरा
है। और लोग उस
कूड़ा-कचरे को
ही अपना होना
समझ लेते हैं।
ऐसे हीरे तो
खो जाते हैं और
कीचड़ में ही
जिंदगी बीत
जाती है। जिसे
तुम
व्यक्तित्व
कहते हो, वह
तुम नहीं हो।
और जो तुम हो, उससे
तुम्हारे कोई
पहचान नहीं।
और जब तक तुम्हारी
पुरानी पहचान
न तोड़ी जाए, नई पहचान
बनाने का कोई
उपाय नहीं।
इस
दुनिया में
सदगुरु सब से
ज्यादा
खतरनाक आदमी
है। कहीं
सदगुरु से
मिलना हो जाए
तो जितने जोर
से भाग सको, भागना। पीछे
लौटकर भी मत
देखना। हां, मगर हिम्मत
हो, प्यास
हो, खोज हो,
तलाश हो, जानने की
जिद हो कि मैं
कौन हूं और
क्यों हूं, तो फिर
सदगुरु के चरण
पकड़ लेना, छोड़ना
मत।
यह
छोटा सा
प्रश्न--शिष्य
का पूछना कि
क्या मैं एक
प्रश्न पूछूं, अनुचित तो
नहीं है, लेकिन
गुरु ने जो
कहा, उसमें
उत्तर छिपा है।
जब तक पूछने
वाला है तब तक
सुनने वाला
कहां से लाओगे?
और जब तक
तुम्हारे
भीतर
प्रश्नों की
भीड़ है तब तक
वह सन्नाटा, वह शांति, जो उत्तर बन
जाती, उसे
कहां खोजोगे?
इस
दुनिया में
गुरु हैं; थोड़े ही
नहीं जरूरत से
ज्यादा है और
तुम पूछो या न
पूछो, वे
तुम्हारे
पीछे पड़े हैं
कि उत्तर देकर
ही रहेंगे।
जबरदस्ती
ज्ञान
ठूंस-ठूंस कर
हर बच्चे में
भरा जा रहा
है। इससे बड़ा
कोई और दूसरा
अन्याय नहीं
है। यह वैसे
है, जैसे
तुम्हें
प्यास न लगी
हो और
जबरदस्ती पानी
पिलाया जाए; भूख न लगी हो,
और जबरदस्ती
ठूंस-ठूंस कर
भोजन कराया
जाए।
हर
बच्चा एक कोरे
आकाश की तरह
पैदा होता है।
लेकिन मां-बाप
को जल्दी है, धर्मगुरुओं
को जल्दी है, पड़ोसियों को
जल्दी है, कि
कहीं यह कोरा
आकाश कोरा न
रह जाए। इसे
भर दो शास्त्रों
से, शास्त्रीय
वचनों से, जिनका
तुम्हें कोई
अनुभव नहीं।
जो तुम्हारे
बाप-दादे
तुम्हारे ऊपर
थोप गए थे, वही
तुम अपने
बच्चों पर
थोपते हो। यूं
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
बीमारियां, झूठा ज्ञान
सरकता रहता
है। और जब
मैंने कहा, झूठा ज्ञान,
तो मेरा
मतलब है, जो
तुम्हारा
अपना अनुभव
नहीं वह सब
झूठा है। तुमने
लाख प्रेम की किताबें
पढ़ी हों, और
तुमने लाख
प्रेम के गीत
सुने हों, लेकिन
अगर प्रेम कभी
तुम्हारे
हृदय में लहरें
न लिया हो और
प्रेम ने कभी तुम्हारी
आंखों को
मस्ती न दी हो,
तो तुम जो
भी कहोगे वह
कितना ही सच
मालूम पड़े बेजान
है, मुर्दा
है। अज्ञानी
होना बेहतर है
झूठे ज्ञानी
होने की बजाय।
सदगुरु
को खोजना
मुश्किल है।
गुरु तो सस्ते
में मिल जाते
हैं। एक ढूंढो, हजार मिल
जाते हैं। मत
ढूंढो, वही
तुम्हें
ढूंढते चले आते
हैं। लेकिन
सदगुरु का
अर्थ है कि
तुम्हारे
भीतर प्यास
लगी है। ऐसी
प्यास, कि
अगर प्राण भी
उस प्यास को
बुझाने में
देने पड़े, तो
तुम देने को राजी
हो।
इसलिए
जब शिष्य ने
पूछा कि क्या
एक प्रश्न पूछूं, तो गुरु ने
कहा, क्यों
अपने लिए घाव
की तलाश करते
हो? मेरा
एक-एक शब्द, एक-एक तीर की
तरह तुम्हारे
भीतर चुभ
जाएगा। तुम्हारा
पूछना
तुम्हारे
मरने की
शुरुआत है। हो
हिम्मत, तो
पूछो।
क्योंकि मैं
तुम्हें कोई
बंधे-बंधाए
उत्तर देने
वाला नहीं
हूं। मैं तो
सिर्फ उस
रास्ते को
तुम्हें बता
दूंगा, जहां
आदमी का सब
कूड़ा-कर्कट झड़
जाता है, जहां
उधार ज्ञान
गिर जाता है, जहां अहंकार
और उपाधियां,
पदवियां और
प्रतिष्ठाएं
मिट्टी हो
जाती हैं।
जहां एक दिन
तुम सिवाय एक
शून्य के और
कुछ भी नहीं
रहते हो।
लेकिन
यह कहानी
अधूरी है। यह
कहानी एक तरफ
से है। यह
कानी का एक
पहलू है। इधर
तुम शून्य होते
हो उधर
तुम्हारे भीतर
कुछ पूर्ण
होने लगता है।
इधर तुम मिटते
हो, उधर
तुम्हारे
भीतर कुछ
उघड़ने लगता
है। इधर घाव
बनते हैं, उधर
फूल भी खिलने
लगते हैं।
लेकिन घाव
पहले बनते हैं,
फूल पीछे
खिलते हैं। और
सदगुरु ने
नहीं कहा कुछ
भी फूलों की
बाबत, क्योंकि
हम
ऐसे
लोभी हैं कि
फूलों के लोभ
में घाव भी
खोने को राजी
हो सकते हैं।
लेकिन अगर लोभ
के कारण हमने
घाव भी खा लिए
तो फूल नहीं
खिलेंगे? इसलिए
सिर्फ इतना ही
कहा है, कि
क्यों व्यर्थ
घाव की तलाश
करते हो?
सदगुरु
के पास
पूछते-पूछते
सिवाय मिटने
के और कुछ भी
नहीं होता। और
जब तुम्हारे
भीतर एक भी प्रश्न
नहीं रह जाता, सारे प्रश्न
गिर जाते हैं
तो उस मौन में
जो कमल खिलते
हैं, उनकी
सुगंध शाश्वत
है। वही
तुम्हारे
जीवन की सुगंध
है। वही
तुम्हारे
होने का अर्थ
है। उसे नहीं
पाया, तो
सिर्फ धक्के
खाए और फिजूल
जीए। समझे कि
जीए, जीए
नहीं। मैंने
सुना है कि
बहुत लोगों को
सिर्फ मरने के
वक्त ही पता
चलता है कि
अरे, हम
जिंदा भी थे!
अगर अब बहुत
देर हो गयी।
तुम
जरा अपनी
जिंदगी को तो
गौर से देखो।
उसमें है क्या? न तो कोई
आनंद है, न
तो कोई संगीत
है, न तो
कोई तारे, न
कोई फूल, न
कोई पंख, कि
तुम आकाश में
उड़ सको। नींद
में धक्के
खाते हुए
व्यर्थ का
कूड़ा-कर्कट
इकट्ठे करते
हुए--क्योंकि
दूसरे भी यही
कर रहे हैं।
लोग को इसकी
फिकर नहीं है
कि तुम जो कर रहे
हो वह क्यों
कर रहे हो? अगर
तुम अपने से
पूछोगे, तो
सिर्फ एक ही
उत्तर
पाओगे--क्योंकि
सभी यही कर
रहे हैं।
मैं
विश्वविद्यालय
में शिक्षा के
लिए भर्ती हुआ।
मुझे
स्कालरशिप
चाहिए थी।
बजाय लंबे रास्तों
के, मैं सीधे
वाइस चांसलर
के दफ्तर में
पहुंच गया।
वाइस चांसलर
ने कहा, यह
ठीक नहीं है, जहां
दरख्वास्त
देनी है वहां
दरख्वास्त दो,
और समय पर
तुम्हें
उत्तर मिल
जाएगा। मैंने
कहा, अंततः
आपको निर्णय
करना है।
व्यर्थ समय
क्यों खोना? इसलिए मैं
सीधी आपके पास
ही चला आया हूं।
यह रही
दरख्वास्त।
और मैं नहीं
कहता कि स्वीकार
करो। जो
तुम्हारी
मर्जी हो।
हकदार मैं
हूं। वह इस
दरख्वास्त
में सब लिखा हुआ
है। और अगर कल
कोई मुझसे बड़ा
हकदार आ जाए, तो मुझे खबर
करके बुलवा
लेना।
स्कालरशिप
वापस कर
दूंगा। झंझट क्या
है?
उसे भी
लगा कि लड़का
थोड़ा अजीब है।
और इसके पहले
कि वह कुछ कहे, मैं आराम से
कुर्सी पर बैठ
गया। उसने कहा,
यह
बात
ठीक नहीं।
मैंने कहा, गलती तुम कर
रहे हो और बात
ठीक मेरी नहीं?
इतनी देर से
मैं खड़ा हूं
और तुम कुर्सी
पर बैठे हो।
तुम्हें कहना
चाहिए था कि
कुर्सी पर
बैठो। तुम कुछ
कहते नहीं, कुर्सी कुछ
कहेगी, इधर
और कोई दिखाई
पड़ता नहीं।
मजबूरी में
निर्णय मुझे
खुद करना पड़ा।
मैं कुर्सी पर
बैठ गया हूं।
उसने
कहा, तुम आदमी
अजीब मालूम
पड़ते हो। क्या
मैं पूछ सकता
हूं, यह
तुमने दाढ़ी
क्यों बढ़ा रखी
है? मैंने
कहा, अब
थोड़ी बातचीत
हो सकती है।
अब आप मेरे
चक्कर में आ
गए।
स्कालरशिप का
निर्णय हो
लेगा, हो
लेगा। बूढ़े
आदमी थे।
आक्सफोर्ड
में इतिहास के
प्रोफेसर थे।
उसके बाद जब
रिटायर हुए, तो
हिंदुस्तान
की उस
यूनिवर्सिटी
में वाइस चांसलर
हो गए थे।
मैंने उनसे
पूछा, यह
भी हद हो गयी!
अगर मैं आपसे
पूछूं कि दाढ़ी
क्यों कटाते
हैं, तो
प्रश्न
सार्थक मालूम
होता है। आप
उल्टे मुझसे
पूछ रहे हैं
कि दाढ़ी क्यों
बढ़ाते हो? मैं
नहीं बढ़ाता, दाढ़ी बढ़ रही
है। सवाल मैं
वापस लौटकर
आपसे पूछता
हूं, कि
दाढ़ी क्यों
कटी? आपकी दाढ़ी
और मूंछ को
क्या हुआ?
कहने
लगे, यह बड़े
मुश्किल है, मगर बात
तुम्हारी ठीक
है। दाढ़ी बढ़ती
है अपने आप; काटता मैं हूं
रोज दिन में
दो बार, मगर
क्यों काटता
हूं, यह
कभी सोचा
नहीं। और सभी
लोग काटते हैं
इसीलिए काटता
हूं।
मैंने
कहा, यह तो कोई
बहुत
विचारपूर्ण
उत्तर न हुआ।
इस दुनिया में
नालायकों की
भीड़ है और तुम
उन्हीं नालायकों
की भीड़ का अनुसरण
कर रहे हो। और
चूंकि मैंने
अनुसरण नहीं
किया उनका, तुम मुझसे
उत्तर पूछ रहे
हो। अब दुबारा
दाढ़ी मत छूना।
और मैं रोज
आकर देख जाया
करूंगा।
मैंने कहा, थोड़ा सोचो
तो। अगर
स्त्रियां
दाढ़ी बढ़ाने
लगें और
मूंछें बढ़ाने
लगें, या
रामलीला में बिकने
वाली मूंछें
खरीद लाए और
और दाढ़ी चिपका
लें, तो
क्या खूबसूरत
लगेंगी? और
तुम बामेहनत
रोज सुबह-सांझ
दाढ़ी और मूंछ
को काटकर वही
कर रहे हो, जो
कोई स्त्री
दाढ़ी और मूंछ
बढ़ाकर करे।
उस
बूढ़े आदमी ने
मुझसे कहा, माफ करो
मुझे।
स्कालरशिप
तुम्हारी
स्वीकार हुई,
मगर रोज मत
आना। और अब इस
बुढ़ापे में दाढ़ी
मत बढ़वाओ।
क्योंकि अभी
तुम अकेले
पूछने वाले
हो। अगर मैं
दाढ़ी और मूंछ
बढ़ाऊंगा तो
पूरी
यूनिवर्सिटी
पूछेगी कि
क्या हुआ, आप
दाढ़ी और मूंछ
क्यों बढ़ा रहे
हैं? मत
झंझट में मुझे
डालो।
लेकिन
उस आदमी को
चोप लग गयी।
उस आदमी ने
फिर दाढ़ी-मूंछ
नहीं काटी।
सारी
यूनिवर्सिटी
पूछती थी और
वह कहता था, कि उस लड़के
से पूछ लेना।
सारा राज उसे
मालूम है।
चारों
तरफ हजारों
लोग हैं और
तुम उनका
अनुसरण कर रहे
हो। और इसी
अनुसरण से
तुम्हारे
व्यक्तित्व
का निर्माण हो
रहा है। और
इसी
व्यक्तित्व
को तुम अपनी
आत्मा समझे हुए
हो।
सदगुरु
का काम होगा, कि सबसे
पहले यह चादर
उतार ले।
तुम्हें नग्न
कर दे।
तुम्हें वहां
पहुंचा दे, जहां
तुम्हारे ऊपर
कोई दाग नहीं।
तुम्हें वैसा
ही कर दे, जैसे
तुम पैदा हुए
थे--खाली, निर्दोष,
शून्य।
सिर्फ
सूफियों के
पास किताब है
जिसे धर्मग्रंथ
कहा जा सकता
है; और किसी
के पास नहीं।
लेकिन उस
किताब में कुछ
लिखा नहीं है।
किताब खाली
है। पन्ने
कोरे हैं। और
सूफी उसे बड़ा
संभाल कर रखते
हैं।
सदगुरु
से प्रश्नों
को पूछ-पूछकर
यह मत समझना, कि तम
धीरे-धीरे
उत्तरों के
गौरीशंकर बन
जाओगे।
सदगुरु से
पूछ-पूछकर धीरे-धीरे
तुम एक कोरी
किताब हो
जाओगे। और जिस
दिन तुम कोरी
किताब हो गए
उस दिन जानना,
कि
अस्तित्व से
तुम्हारी पहली
मुलाकात हुई।
उस दिन जानना
कि तुम्हारी आंखों
से पर्दा हटा,
अंधेरा
छंटा, रोशनी
हुए, भोर आ
गया।
लेकिन
कष्टपूर्ण तो
होता है।
क्योंकि जिस
व्यक्ति को हम
अपनी आत्मा
समझे हुए हैं, उसका
टूट-टूटकर
गिरना, उसके
अंग-अंग को
कटना पीड़ा तो
देते है।
अहंकार का बिखरना--उससे
बड़ा और कोई
घाव नहीं है।
इसलिए सदगुरु
ने ठीक ही कहा,
कि क्यों
नाहक अपने को
घाव पहुंचाने
की तरकीब कर
रहे हो? फिर
पीछे मुझे दोष
मत देना। फिर
एक बार मैंने काम
हाथ में लिया तो
मैं काम पूरा
करके ही रहूंगा।
और कोई
प्रश्न एक
होता, तो
ठीक था। हर
आदमी के भीतर
एक कतार है
प्रश्नों की।
एक प्रश्न
हटेगा, दूसरा;
दूसरा
हटेगा, तीसरा।
और जब तक सारे
प्रश्न
समाप्त न हो
जाए, तब तक
तुम्हारे
भीतर ज्ञान का
दीया नहीं
जलता।
इसलिए
लोग गुरुओं से
तो बहुत
प्रसन्न रहे।
क्योंकि गुरु
तुम्हारे
व्यक्तित्व
को और संभालते
हैं, संवारते
हैं, शृंगार
देते हैं।
लेकिन सदगुरुओं
से लोग बहुत
नाराज रहे
हैं। सुकरात हों,
कि जीसस हों,
कि
अल्लाहिल्लाज
मंसूर हो, ऐसे
लोगों से
आदमियों की
भीड़ कभी भी
प्रसन्न नहीं
हुई। हां, जो
थोड़े से लाग
हिम्मत कर सके,
उनके जीवन
में परमात्मा
का आलोक फैल
गया। लेकिन
बहुत थोड़े लोग
उतनी हिम्मत
रखते हैं।
अधिक लोग तो
प्रश्न
इसीलिए पूछते
हैं, कि
तुम उनके
बंध-बंधाए
उत्तरों को और
मजबूत कर दो।
तुम वही कह दो,
जो वे मानते
हैं। तुम उनकी
पीठ थपथपा दो।
इसलिए जो जैन
धर्म को मानता
है, वह जैन
गुरु के पास
जाता है, वह
सूफी फकीर के
पास नहीं जाता
क्योंकि वहां
पीठ नहीं
थपथपायी
जाएगी।
क्योंकि वहां
वही उत्तर
नहीं दिए
जाएंगे, जो
वह सुनने का
आदी है। हिंद
हिंदू गुरु के
पास जाता है, मुसलमान
मुसलमान गुरु
के पास जाता
है। कारण? तुम
कुछ सुनना
चाहते हो ऐसा,
जिससे
सांत्वना
मिले; जिससे
मन को ऐसा लगे
कि हम ठीक हैं,
कि हम जहां
हैं और जैसे
हैं, बस अब
और कहीं जाना
नहीं, और कुछ
होना नहीं; जिससे ऐसा
लगे, कि हम
पहुंच ही गए।
मेरे
एक दोस्त थे
डाक्टर।
उन्होंने एक
बहुत बड़ा
दवाखाना खोल
रखा था। उतने
बड़े दवाखाने
की कोई जरूरत
न थी। और उनकी
आफिस दवाखाने
के पीछे था।
पहले मरीज को
उनके पूरे
दवाखाने, प्रयोगशाला,
इन सबसे
गुजरकर उन तक
पहुंचना पड़ता
था। और उनकी
प्रयोगशाला
देखने योग्य
थी। हर चीज के
लिए उन्होंने
बड़ा अच्छा
आयोजन किया
था। अगर
उन्हें
तुम्हारी नब्ज
भी देखनी हो, तो वे
पुराने ढंग से
तुम्हारी
नब्ज नहीं
देखते थे।
तुम्हें
लेटना पड़ता एक
टेबल पर, जो
बिजली के
बटनों से
सरकाई जाती
थीं। और तुम्हारे
ऊपर न मालूम
कितने रंगों
की बोतलें
लटकती होती थीं,
जिनका कोई
मतलब न था। और
तुम्हारे हाथ
पर एक पट्टी
बांधी जाती, और तुम्हारे
नब्ज पर एक
तार उस पर
पट्टी के भीतर
दबाया जाता।
और वह तार उन
बोतलों में
बंध हुए रंगीन
पानी को
उचकाता। तुम
नीचे पड़े
देखते और तुम
सोचते, डाक्टर
हो तो ऐसा!
स्टेथस्कोप
से तुम्हारी
छाती की जांच
नहीं की जाती
थी, दूसरे
तरह का इंतजाम
किया था। भारी
इंतजाम किए
हुए थे।
मैंने
उनसे पूछा भी
कि यह सब क्या
पागलपन है?
उन्होंने
कहा, पागलपन
नहीं है। मरीज
मेरे दफ्तर तक
पहुंचते-पहुंचते
आधा ठीक हो
जाता है।
भरोसा आ जाता
है, कि कोई
छोटे डाक्टर
से इलाज नहीं
हो रहा है; डाक्टर
बड़ा है, वैज्ञानिक
है।
और
सच्चाई यह थी, कि उनके पास
डाक्टरी का
सर्टिफिकेट
भी नहीं था।
कभी किसी डाक्टरी
स्कूल में गए
भी नहीं। मगर
ये हरकतें...। और
उन्होंने हर
चीज को बिजली
से चलाने का
इंतजाम कर रखा
था। एक जगह से
दूसरी जगह
मरीज बिजली से
सरकाया जाता,
चीजें भी
डाक्टर से कम
से कम दस गुना
ज्यादा थी। जो
काम पच्चीस रुपए
में हो जाता, उनके वहां
दो सौ पचास
रुपए लगते थे।
मैंने
उनसे पूछा कि
यह जरा जरूरत
से ज्यादा है।
एक तो तुम
फिजूल का खेल, यह
मदारीगीरी
फैलाए हुए हो।
नाड़ी हाथ से देखी
जा सकते है
ज्यादा
सुविधा
पूर्वक। स्टेथस्कोप
आसानी से हृदय
की धड़कनें सुन
सकती है। इसके
लिए इतने बड़े
आयोजन की कोई
जरूरत नहीं
है। और यह सब बिजली
का जाल, और
दरवाजों का
खुलना और बंद
होना, और
कुर्सियों का
सरकना--इस
सबकी कोई
जरूरत नहीं
है। और फिर दो
सौ पचास रुपया
फीस।
वह
कहते, तुम्हें
पता नहीं।
जितनी ज्यादा
फीस लो, मरीज
उतने जल्दी
ठीक होते हैं।
क्योंकि
ज्यादा फीस
मरीज को यह
विश्वास दिला
देती है, कि
पहुंच गए ठीक
जगह। बड़े
डाक्टर से
इलाज हो रहा
है।
और
उन्होंने
सैकड़ों
मरीजों को ठीक
किया। इसलिए
यह भी नहीं
कहा जा सकता, कि वे गलत
हैं। जो दूसरे
डाक्टरों को
हरा चुके थे, उन मरीजों
को भी ठीक
किया। ऐसे मरीज,
जिनको मरीज
होने का
शौक...जो बिना
मरीज हुए रह ही
नहीं सकते, वे भी
उनके
गोरखधंधे में
आकर ठीक हों
जाते।
लेकिन
आखिर में वे
पकड़े गए।
क्योंकि उनके
पास न कोई
सर्टिफिकेट
था। जिस दिन
वे पकड़े गए, मैं
यूनिवर्सिटी
से लौट रहा था।
पुलिस ने उनका
दवाखाना घेरा
हुआ था। मैंने
अंदर आना चाहा,
अंदर आज आप
नहीं जा सकते
हैं। यह आदमी
चार सौ बीस
है। ये
डिग्रियां
झूठी हैं।
मैंने कहा, तुम
डिग्रीयां
देखते हो, आदमी
की चार सौ
बीसी देखते हो,
तुम यह नहीं
देखते कि जो
मरीज किन्हीं
डाक्टर से ठीक
नहीं हुआ, वह
इस गरीब ने
ठीक किया।
नहीं है
सर्टिफिकेट, तो कोई बात
नहीं।
तुम्हारे लिए
सर्टिफिकेट मूल्यवान
है? तुम्हें
दल सैकड़ों
लोगों की
जिंदगी, जो
इसने बचायी है,
जरा भी
मूल्यवान
नहीं है?
मगर
कानून कानून
है। वह डाक्टर
जेल में सजा
भुगत रहा है।
उसका सारा
आयोजन व्यर्थ
पड़ा हुआ है।
आदमी
की बड़ी कमजोरी
है। वह चाहता
है कि कोई कह
दे, कि तुम
बिलकुल ठीक
हो। कोई कह
देख कि अब
तुम्हें कुछ
और नहीं करना
है। और ऐसे
कहने वाले लोग
तुम्हें मिल
जाते हैं। या
तुम्हें ऐसी
छोटी-छोटी
बातें पकड़ा
देते हैं, जिनको
करने में कोई कठिनाई
नहीं है। घर
में बैठकर रोज
दस मिनिट के लिए
माला जप लेना,
और स्वर्ग
तुम्हारा है।
कि हर रविवार
को चर्च हो
आना, तो
कयामत के दिन
जब जीसस ईश्वर
के समक्ष
लोगों को
पहचानेंगे कि
कौन-कौन चर्च
जाने वाले थे,
उनको तो
स्वर्ग ले
जाया, जाएगा,
बाकी लोगों
को अंधेरे
गर्त में अनंत
काल के लिए
नर्क में ढकेल
दिया जाएगा।
सस्ते
नुस्खे। घड़ी
भर के लिए
सुबह-सुबह चर्च
हो आना कुछ
बुरा भी नहीं
है। थोड़ी गपशप
भी हो जाती
है। न तो कोई
सुनता है कि
पुरोहित क्या
कह रहा है, न
पुरोहित को कुछ
मतलब है कि
कोई सुने। न
उसने कभी
ध्यान से समझा
है, कि वह
जो कह रहा है, उसकी स्वयं
उसे कोई अनुभूति
नहीं है।
मैंने
सुना है, कि
एक चर्च में
गांव का जो
सबसे बड़ा
धनपति था, स्वभावतः
सब से पहले
बैठता था।
बूढ़ा आदमी था,
अपने साथ
अपने नाती को
लाता था। नाती
थी उसके पास बैठता।
और बूढ़ा आदमी
था, सुबह
का वक्त, शांत
चर्च के आसपास
का वातावरण, ठंडी हवाएं।
झपकी लेने का
इससे अच्छा
मौका और कहां?
और पुरोहित
की वही पुरानी
बकवास। उससे
झपकी और जल्दी
आती। कहते हैं
कि जिन लोगों
को नींद की बीमारी
है, उनको
राम की कथा
सुनने जाना
चाहिए; गीता
सुनें, बाइबिल
सुनें।
क्योंकि
बोरडम, ऊब
अपने आप नींद
ले आती है।
वही राम, वही
सीता, वही
हनुमान, वही
गोरखधंधा।
तुम्हें पहले
ही मालूम है कि
अब क्या होने
वाला है।
बूढ़ा
मजे से झपकी
लेता। झपकी
लेता तो कोई
हर्ज न था।
मगर नींद में
घुर्राटे भी
लेता था। घुर्राटे
झंझट की बात।
दो चार बार पादरी
ने उसे कहा कि
महाराज, आप
आराम से सोए।
कोई हर्ज नहीं
है। मगर आपके
घुर्राटे से
दूसरों की
नींद टूट जाती
है। लोग शिकायत
करते हैं, कि
हद हो गयी। घर
में सो नहीं
सकते, चर्च
में भी नहीं
सो सकते। और
यह बूढ़ा हमेशा
मौजूद। लेकिन
जिसको घुर्राटे
आते हों, वह
कर भी क्या
सकता है? नींद
आयी, कि
घुर्राटे
शुरू।
आखिर
पादरी ने
तरकीब सोची।
उस छोकरे के
द्वारा-जो
उसके साथ आता
था, उससे कहा,
देख चार आने
तेरे पक्के
रहे। तू अपने
दादा को सोने
मत देना। जैसा
ही तुझे लगे कि
झपकी आए, टिहुनी
मारते रहना।
जगाए रखना।
लड़के ने कहा, ठीक चार आने
नगद, एडवांस।
क्योंकि आजकल
आगे-पीछे का
कोई भरोसा नहीं।
कि हम घंटे भर
मेहनत करें और
पीछे कुछ न मिले।
चार आने
एडवांस लेकर
उसने उस दिन
बूढ़े को जगाए
रखा। बूढ़े ने
उसे कई दफा
कहा, तुझे
क्या हो गया
रे? ऐसा तो
तू पहले कभी
नहीं करता था।
सालों से मेरे
साथ आता है।
अचानक धार्मिक
हो गया क्या? शांत बैठ।
मगर जैसे ही बूढ़े
को झपकी आनी
शुरू होती, कि उसको
टिहुनी
मारता।
रास्ते
में पूछा कि
सच-सच बता, बात क्या है?
टिहुनी
क्यों मारता
है? उसने
कहा, अब
तुमसे क्या
छिपाना, धंधे
का मामला है।
पुरोहित
चार आने देने
को राजी है।
एडवांस ले ली
है। बूढ़े ने
कहा, मूर्ख, नालायक, मेरा
नाती होकर और
ऐसा सड़ा धंधा
कर रहा है? मैं
तुझे आठ आने
दूंगा। मगर
नींद मग दखल
नहीं। उसने
कहा, नगद
एडवांस।
पादरी बड़ा
प्रसन्न था उस
दिन, क्योंकि
बूढ़े ने घुर्राटे
न लिए। आम
जनता भी शांत
रही। लोग भी प्रेम
से सोए।
प्रवचन भी ठीक
से चलना। सभी
तरह सुख-शांति
रही।
दूसरे
रविवार को कई
बार पुरोहित
ने उस लड़के को
इशारा किया।
मगर वह लड़का
धक्का ही न
मारे और बूढ़ा
घुर्राटे ले।
यह लड़का तो
बेईमान मालूम
होता है। चार
आने एडवांस भी
ले लिए थे।
इसको हो क्या
गया? सभा
समाप्त होने
पर लड़के को
पादरी अलग ले
गया और कहा, क्यों रे
छोकरे, भूल
ही गया? उसने
कहा, भूला
नहीं। दादा ने
आठ आने देने
का वायदा किया
है--नगद। पहले
ले लिए। धंधा
तो धंधा है।
अब तो बात
रुपए पर
चलेगी। अगर हो
हिम्मत, तो
एक रुपया। और
उस पादरी ने कहा,
तू तो बड़ा
उपद्रवी है।
ऐसे तो हे
मारे जाएंगे।
क्योंकि तेरा
दादा तो धनी
आदमी है। हम
गरीब पुरोहित
तू हमारी सारी
तनख्वाह खा
जाएगा सिर्फ
बूढ़े को जगाने
में।
लड़का
बोला, जैसी
मर्जी। मगर
याद रखो, अभी
तक सिर्फ बूढ़ा
घुर्राटे
लेता था, अगली
बार से मैं भी
घुर्राटे
लूंगा। अब मैं
कोई नासमझ और
नाबालिग न
रहा। अब मैं
भी समझ गया। रुपया
तो देना ही
पड़ेगा।
क्योंकि बूढ़ा
तो नींद में
घुर्राटे
लेता है, मैं
जगते हुए
घुर्राटे
लूंगा। और ऐसे
घुर्राटे
लूंगा कि एक
आदमी न सो
सकेगा पूरे
चर्च में।
लोग
चर्च जा रहे
है, मंदिर जा
रहे हैं, मस्जिदों
में जा रहे
हैं, गंगा-स्नान
कर रहे हैं।
नहीं गंगा जा
सकते, तो
भी घर में ही
लुटिया भर
पानी डालते
हैं--हर-हर
गंगे। गजब के
आदमी हो! किसको
धोखा दे रहे
हैं पता नहीं!
सिर के बाल भी ठीक
से नहीं भीगते
और ये कह रहे
हैं, हर-हर
गंगे।
ये
तथाकथित फैले
हुए धर्म, इनके गुरु, इनके पंडित,
इनके
पुरोहित
तुम्हें
बदलने नहीं
देते, वरन तुम
जैसे हो उसमें
ही कोई
छोटी-मोटी
तरकीब जोड़
देते हैं, जिसको
करने में कोई
कठिनाई नहीं।
और पुरस्कार
बड़े हैं--अनंत काल
तक स्वर्ग में
भोग ही भोग।
सदगुरु
वही है, जो
तुमसे
तुम्हारी
सारी
सांत्वनाएं
छीन ले यह
सदगुरु की
पहचान
तुम्हें देता
हूं: जो तुमसे
तुम्हारी
सारी
सांत्वनाएं छीन
ले। जो तुमसे
कह दे कि गंगा
में नहाने से
तूम पवित्र
नहीं होते, सिर्फ गंगा
अपवित्र होती
है। और तुम
लाख मालाएं
जपो, मंत्र
पढ़ो, पूजाएं
करो, पूजाओं
के लिए नौकर
रखो...क्योंकि
जिनके पास सुविधा
है, वे घर
में ही मंदिर
बना लेते है।
पुजारी आकर, घंटी हिलाकर,
जल्दी-जल्दी
पूजा
करके...क्योंकि
उसे और भी जगह
पूजा करनी है,
कोई एक ही
मंदिर थोड़े ही
है। कोई एक ही भगवान
थोड़े ही है।
दस-पच्चीस जगह
पूजा करके मुश्किल
से जिंदगी की
नाव को चला
पाता है। और
तुम कभी यह भी
नहीं सोचते, कि चार पैसे
देकर तुमने
अगर किसी से
पूजा करवा ली
है, तो उस
पूजा से हुआ
कोई पुण्य
तुम्हारा
नहीं हो सकता।
और उस आदमी का
तो हो ही नहीं
सकता। उसने
चार पैसे ले
ही लिए। उसका
पुरस्कार तो
उसे मिल ही
गया।
सदगुरु
की व्याख्या
यही है कि वह
तुम्हारी सांत्वनाएं
छीन ले।
तुम्हारी
छाती में
हड़बड़ी मचा दे।
तुम कितनी ही
गहरी नींद में
होओ, तुम्हें
झकझोर दे। और
तुमसे कहे कि
तुम जैसे हो, गलत हो।
हालांकि
तुम्हारे
भीतर वह छिपा
है, जो सच
है। हालांकि तुम्हारे
भीतर वह छिपा
है, जो
शाश्वत है।
लेकिन
यह ऊपर की
चदरिया, यह
राम नाम
चदरिया।
क्या-क्या मजे
हैं! राम-राम
लिखकर लोग
चदरिया ओढ़े
हुए हैं।
कबीरदास
जी भूल ही गए।
उनकी चदरिया
पर राम-राम
नहीं लिखा था।
कर गए गलती।
अब भटक रहे
होंगे। गाते
रहे जिंदगी भर, खूब जतन से
ओढ़ी चदरिया
ज्यों की
त्यों धर दीन्हीं
चदरिया। अरे
पागल! पहले
राम नाम तो
लिखते। ज्यों
की त्यों धर
दीन्हीं चदरिया।
झीनी-झीनी
बीनी चदरिया।
मगर राम नाम
कहां है? उनसे
ज्यादा
होशियार ये
लोग हैं, जो
छापेखाने में
राम-नाम छपाई हुई
चदरिया ओढ़े
हुए हैं।
मस्ती में घूम
रहे हैं,बेफिकर
से। किसी का
कोई डर नहीं
है। कवच ओढ़े हुए
हैं। राम
रक्षा
करेंगे।
धर्म
तुम्हें अगर
सस्ते उपाय दे
रहा हो तो ऐसे
धर्म से
सावधान रहना।
वह तुम्हारी
बीमारियों को
बचा रहा है।
वह तुम्हारी व्याधियों
को बचा रहा है, वह तुम्हें
समाधि नहीं दे
सकता है।
सदगुरु वह है,
जो तुम्हें
समाधि दे दे।
और समाधि का
अर्थ होता है,
चेतना की
ऐसी दशा जहां
न कोई प्रश्न
है, जहां न
कोई उत्तर है।
जहां बस मौन
है, सन्नाटा
है। एक सुगंध
है--रसे वै सः।
कि उसका स्वाद,
उसकी मिठास
रोएं-रोएं में
अनुभव होती
है।
जरा सी
हिम्मत की
जरूरत है।
क्योंकि कचरा
छोड़ने को
कितनी हिम्मत
चाहिए? और
कचरा छोड़ोगे,
हीरे बरसते
हैं, तो
कितनी
हिम्मत
चाहिए? बस,
पहले कदम पर
हिम्मत की
जरूरत पड़ती
है। क्योंकि
पहला कदम ही सबसे
कठिन है, सबसे
मुश्किल, सबसे
दूभर कदम है।
क्योंकि
हीरों का कोई
पता नहीं है
और जिस कचरे
को हीरे समझ
कर बैठे हैं, वह भी हाथ से
जा रहा है। उस अंतराल
में जब असार
छूटता हो, और
सार अभी आया न
हो, उसी
अंतराल में सदगुरु
के चरण काम के
हैं। उसी
अंतराल में वे
चरण सहारा हैं,
वे चरण
भरोसा हैं, वे चरण
आश्वासन हैं।
उन्हीं
क्षणों में
सदगुरु की
वाणी या मौन, उसकी आंखें
या उसके हाथ
का इशारा, कि
कहीं तुम पीछे
न लौट जाओ।
उसी क्षण में
थोड़ा सा
तुम्हें
साहस...और अगर
तुमने किसी
सदगुरु को
प्रेम किया है,
तो साहस की
कोई कमी नहीं
है। उसका
प्रेम ही नौका
बन जाएगा। और
वह छोटा-सा
अंतराल--जब
व्यर्थ छूटता
है और सार्थक आता
है--यूं गुजर
जाएगा, कि
जैसे कभी आया
ही न था।
प्रश्न:
भगवान, आपके
स्वास्थ्य को
देखकर बहुत
चिंता होती है।
आपने दुनिया
को समझाने में
अपनी आत्मा
उंडेल रख दी, लेकिन लोग
बदलने की बजाय
आपको मिटा
देना चाहते
हैं। आप इतना
श्रम क्यों कर
रहे हैं भगवान?
शरीर
तो मिटेगा ही।
वह अगर प्रेम
के रास्ते पर मिट
जाए तो उससे
बड़ा कोई
सौभाग्य
नहीं। शरीर तो
जीर्ण-जर्जर
होगा ही लेकिन
अगर वह कुछ
लोगों के जीवन
में आनंद की
किरण पैदा कर
जाए, तो
धन्यभाग हैं।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता कि
लोग मुझे सुनकर
बदलेंगे या न
बदलेंगे।
लेकिन सत्य के
अनुभव के साथ
ही साथ उसकी
छाया की तरह
करुणा भी आती
है, जो
कहती है कोई
बदले या न
बदले, लेकिन
तुम कम से कम
पुकार तो दे
दो। यह कसूर न
रहे तुम्हारे
ऊपर कि तुमने
पुकार न दी
थी। कोई यह न कह
सके, कि
तुम चुप रहे।
मुझे
तो अगर शरीर
की कोई जरूरत
नहीं है। मेरी
यात्रा तो
पूरी हो चूकी; काफी देर
हुए पूरी हो
चुकी। जो जान
लिया, जान लिया।
जो पाना था, पा लिया। अब
उसके पार कुछ
भी नहीं है।
ये जो थोड़े से
दिन बीच में
हैं--जब कि
शरीर अपने आप
छूटेगा, अगर
इन थोड़े से
दिनों में कुछ
लोगों के जीवन
में भी दीए जल
जाए और कुछ
लोगों के जीवन
में भी
मुस्कुराहट आ
जाए...और कुछ
लोगों के जीवन
में दीए जल
रहे हैं और
मुस्कुराहट आ
रही है। और
कुछ लोगों के
पैरों में घूंघर,
और कुछ
लोगों के ओठों
पर बांसुरी।
जो मुझे मिटा
देना चाहते
हैं वे व्यर्थ
परेशान हो रहे
हैं। मैं तो
वैसे ही मिट
जाऊंगा। यहां
कौन सदा रहने
को है?
लेकिन
उन लोगों की
कोशिश, जो
मुझे मिटा
देना चाहते
हैं, शायद
वह भी प्रकृति
का और नियति
का नियम है, कि जितने जोर
से मुझे
मिटाने की
कोशिश की
जाएगी उतने ही
जोर से कुछ
लोगों की
अंतरात्मा भी
जागेगी। अगर
मैं दस दुश्मन
पैदा कर लूंगा
तो एक दोस्त
भी पैदा हो
जाएगा। मैं
दोस्त की गिनती
करता हूं, दुश्मनों
की क्या फिकर
करनी? और
मैंने काफी
मित्र पैदा कर
लिए हैं।
शायद
वैसा दुनिया
में पहले कभी
नहीं हुआ
क्योंकि
बुद्ध की दौड़
बंधी थी बिहार
तक। जीसस की
दौड़ बंधी थी
जूदिया तक।
सुकरात
तो कभी एथेंस
नगर छोड़कर
बाहर भी नहीं
निकला।
मैंने
सारी दुनिया
में पुकार दी
है। हजारों लोगों
ने उस पुकार
को सुना है।
करोड?ो
दुश्मन पैदा
हो गए हैं।
लेकिन मैं
दुश्मनों का हिसाब
नहीं रखता।
मैं तो अपने
दोस्ती का
हिसाब रख रहा
हूं। और जिस
मात्रा में
दुश्मन बढ़े हैं
उसी मात्रा
में दोस्तों
का बल भी बढ़ा
है, उनकी
हिम्मत भी बढ़ी
है, रूपांतरित
होने का उनका
इरादा भी
मजबूत हुआ है।
और यह देखकर, कि इतने लोग
मुझे मिटा देने
को राजी हैं, मुझ पर मिट
जाने को भी
बहुत लोग राजी
हुए हैं। इसलिए
चिंता की कोई
जरूरत नहीं
है।
मुझे
एक क्षण को भी
यह खयाल नहीं
आया है कि मैंने
कोई भी कदम
गलत उठाया हो।
यह देह तो छूट
ही जाती है।
खाट पर छूटती।
निन्यानबे
प्रतिशत लोग
खाट पर मरते हैं।
इसलिए मैं
तुमसे कहता
हूं, खाट पर मत
सोया करो। खाट
जैसी खतरनाक
चीज
दुनिया
में दूसरी
नहीं है।
निन्यानबे
प्रतिशत लोग
वहीं मरते
हैं। रात
चुपचाप उतर कर
नीचे फर्श पर
सो गए। शुरू
चाहे खाट पर किया
ताकि कोई कुछ
न कहे, लेकिन
रात चुपचाप
नीचे उतर
गए--अगर बचना
हो। क्योंकि
खाट कितनों को
खा गयी है, इसका
तो खयाल करो।
फांसी पर तो
कभी कोई मरता
है मुश्किल
से। उसकी कोई
बिनती नहीं
है। मगर तुम
खाट से बड़ी
दोस्ती रखते
हो और सूली से
बड़ी दुश्मनी
रखते हो।
शरीर
तो जाएगा। वह
जाने को ही
बना है। जो
आया है, वह
जाने को ही
आया है। और
चूंकि यह शरीर
दुबारा अब आने
को नहीं है।
और जो यह इन
सांसों से बोल
रहा है, अब
कभी दुबारा
किन्हीं और
सांसों से
नहीं बोलेगा।
इसका पड़ाव आ
गया। इसकी मंजिल
आ गयी। यह
मेरा आखिरी
जीवन और आखिरी
यात्रा है। इन
आखिरी दिनों
में जितने
लोगों तक मैं
जीवन के परम
सत्य की खबर
पहुंचा
सकूं--चाहे
मेरी कोई भी
दुर्दशा
क्यों न हो। मेरा
कुछ छीना नहीं
जा सकता। जो
मौत छीन ही लेगी,
उसको अगर और
किसी ने छीन
लिया तो मुझसे
नहीं छीना, मौत से
छीना। मेरा
कुछ लेना-देना
नहीं है।
मैं
आनंदित हूं
क्योंकि
जितने लोगों
को मैं अपने
हृदय की बात
कह सका हूं, इस दुनिया
में पहले कोई
आदमी नहीं कह
सका।
और
जितने लोगों
ने मुझे प्रेम
किया है, इतना
प्रेम भी किसी
आदमी को उसके
जीवन में कभी
नहीं किया
गया। और जितने
लोगों ने मुझसे
घृणा की है, इतनी घृणा
भी किसी आदमी
को उसके जीवन
में नहीं की
गयी। इसको भी
मैं सौभाग्य
समझता हूं।
क्योंकि जो आज
मुझे घृणा
करते हैं, हो
सकता है, कल
मुझे प्रेम भी
करें।
क्योंकि घृणा
का प्रेम में
बदल जाना बहुत
मुश्किल नहीं
है। शायद घृणा
उनका ढंग है
प्रेम के
मंदिर तक
पहुंचने का।
एक
छोटी सी घटना
मुझे याद आती
है। यहूदियों
में हसीद फकीर
हुए। जिस फकीर
ने हसीद
परंपरा को
जन्म
दिया--बालसेम, उसने अपनी
पहली किताब
लिखी थी। और
यहूदियों के
सब से बड़े
पुरोहित को
अपने शिष्य के
हाथ भेंट की।
शिष्य को कहा,
इस किताब को
ले जाओ।
प्रधान रबाई
को अपने हाथ
से देना, किसी
और को नहीं।
और तुम्हें
भेज रहा हूं
इसलिए, कि
रबाई की क्या प्रतिक्रिया
होती है, रबाई
क्या कहते हैं,
उनके चेहरे
पर क्या भाव
आता है, उस
सब का तुम
खयाल रखना।
रत्ती-रत्ती
तुम्हें लौटकर
मुझे बताना
होगा। कोई चूक
न हो। और तुम
मेरे सब से
ज्यादा सजग
शिष्य हो
इसलिए
तुम्हें भेज रहा
हूं।
हसीद
क्रांतिकारी
परंपरा है। यहूदी
रबाई पुरानी, सड़ी-गली, मुर्दा
संस्कारों की
बात है। हसीद
होने के लिए
क्रांति से
गुजरना होता
है। यहूदी
होने के लिए
सिर्फ यहूदी
के घर पैदा
होना होता है।
शिष्य
जब पहुंचा तो
प्रधान रबाई
और उसकी पत्नी, दोनों बगीचे
में बैठकर चाय
पी रहे थे।
उसने बालसेम
की किताब रबाई
के हाथों में
दी। रबाई ने
किताब ली और
पूछा कि किसकी
किताब है? और
जैसे ही उस
शिष्य ने कहा,
कि बालसेम
की यह पहली किताब
है, उसके
प्रवचनों का
यह पहला
संग्रह है, जैसे रबाई
की आंखों में
अंगारे आ गए, जैसे उसके
चेहरे में
अचानक राक्षस
पैदा हो गया।
उसने किताब को
उठाकर हाथ से
बगीचे के बाहर
सड़क पर फेंक
दिया। और कहा
कि तुमने
हिम्मत कैसे
ही इस घर में प्रवेश
करने की? और
तुमने वह गंदी
किताब मेरे
हाथों में
कैसे दी? अब
मुझे स्नान
करना होगा। यह
युवक सब देखता
रहा। तभी पत्नी
ने कहा कि
इतना नाराज न
हों। आपके पास
इतना बड़ा
पुस्तकालय है,
उसमें वह किताब
भी किसी कोने
मग पड़ी रहती
तो कोई हर्ज न
था। और अगर
उसे फेंकना ही
था, तो इस
युवक के चले
जाने के बाद
फेंक दे सकते
थे।
युवक
लौटा। बालसेम
ने पूछा, क्या
हुआ? युवक
ने कहा, प्रधान
रबाई के हृदय
में कभी कोई
परिवर्तन हो सके
इसकी संभावना नहीं,
लेकिन उसकी
पत्नी शायद
कभी
परिवर्तित हो
जाए। और पूरी
घटना कही।
बालसेम हंसने
लगा। उसने कहा,
कि तू पागल है।
तुझे मनुष्य
के
मनोविज्ञान
का पता नहीं। और
अगर तुझे मेरी
बात का भरोसा
न हो, तो
लौटकर जा।
रबाई ने किताब
उठा ली होगी
और पढ़ रहा
होगा। और उसकी
स्त्री के
बदलने की कोई
संभावना नहीं
है। उसकी
स्त्री के मन
में घृणा ही
नहीं है, प्रेम
तो बहुत दूर
है। लेकिन
रबाई
उत्तेजित हो
उठा, भाविष्ट
हो उठा, मेरा
काम बन गया।
तू लौटकर जा।
मैं तुझसे
कहता हूं, रबाई
किताब पढ़ रहा
होगा। और युवक
लौटकर गया और
देखकर दंग रह गया।
सड़क से किताब
नदारद थी।
उसने झांककर
देखा, दबाई
बगीचे में
किताब को लिए
हुए देख रहा
है। रबाई की
पत्नी मौजूद
नहीं है। घृणा
प्रेम का ही
उल्टा रूप है,
शीर्षासन
करता हुआ रूप।
इसलिए जो मुझे
प्रेम करते
हैं उनकी
संख्या भी बड़ी
है, और जो
मुझे घृणा
करते हैं उनकी
संख्या तो
बहुत बड़ी है।
और मैं दोनों
के प्रति
आभारी हूं।
क्योंकि जो
मुझे प्रेम
करते हैं वे
तो मेरे रस
में डूबेंगे
ही डूबेंगे, जो मुझे
घृणा करते हैं
वे आज नहीं कल,
कल नहीं
परसों राह से
किताब को
उठाकर
पढ़ेंगे। उनके
भी बचने का
उपाय नहीं है।
उन्होंने
घृणा करके ही
अपने आप, मेरे
साथ संबंध जोड़
लिया। यूं
नाराजी में
जोड़ा है, मगर
संबंध तो
संबंध है।
मैं
तुम्हारी
मनःस्थिति
समझ सकता हूं, तुम्हारा
प्रेम समझ
सकता हूं।
लेकिन तुम्हें
भरोसा दिलाना
चाहता हूं, कि तुम्हारे
प्रेम के सहारे
ही जिंदा हूं,
अन्यथा
मेरे लिए कोई
जीने का कारण
नहीं है। अब
तुम्हारी
आंखों में चमकती
हुई ज्योति को
देख लेता हूं,
तो सोचता
हूं और थोड़ी
देर सही, शायद
कुछ और लोग
मधुशाला में
प्रवेश कर
जाए। शायद कुछ
और लोगों को
इस रस को पीने
की याद आ जाए।
तुम मेरे शरीर
की चिंता न
करो। शरीर की
चिंता
अस्तित्व करेगा।
तुम तो सिर्फ
इस बात की
चिंता करो कि
जब तक मैं
कहूं तब तक
तुम
पियक्कड़ों की
इस जमात को कितनी
बड़ी कर सकते
हो, कर लो।
यह जमात जितनी
बड़ी हो जाए, मैं उतनी
देर तुम्हारे
बीच रुकने का
तुम्हें
आश्वासन देता
हूं।
प्रश्न:
भगवान, क्या
आपने सब
संन्यास-दीक्षा
देनी और शिष्य
बनाना बंद कर
दिया है? क्या
मैं आपका
शिष्य बनने से
वंचित ही रह
जाऊंगा?
शिष्य
बनाया नहीं
जाता। शिष्य
बनना पड़ता है।
तुम जब किसी से
प्रेम करते हो, तो तुम क्या
पहले पूछते हो,
आज्ञा लेते
हो?
प्रेम
हो जाता है।
प्रेम न किसी
आज्ञा को मानता
है और न किसी अनुमति
को, न किसी
विधि को, न
किसी विधान
को। शिष्यत्व क्या
है? प्रेम
का ऊंचा से
ऊंचा, गहरा
से गहरा नाम
है। तुम मुझे
प्रेम करना
चाहते हो, तो
मैं कैसे रोक
सकता हूं? तुम
अगर मेरे
प्रेम में
आंसू गिराओ, तो मैं कैसे
रोक सकता हूं?
और तुम अगर,
जिसे मैं
ध्यान कहता हूं,
उस ध्यान
में डुबकियां
लगाओ तो मैं
कैसे रोक सकता
हूं?
जिसे
शिष्य होना है, उसके लिए
कोई भी नहीं
रोक सकता। और
मैंने इसलिए,
जो
औपचारिकता थी
शिष्य बनाने
की, वह छोड़ दी।
क्योंकि अब
मैं केवल उनको
ही चाहता हूं
जो अपने से
मेरी तरफ आ
रहे हैं, किसी
और कारण से नहीं।
अब पूरा
उत्तरदायित्व
तुम्हारे ऊपर
है।
जैसे
स्कूल की पहली
कक्षा में हम
बच्चों को पढ़ाते
हैं, अ आम का ग
गणेश का। पहले
हुआ करता था ग
गणेश का, अब
तो ग गधे का
है।यह सेकुलर
राज्य है, यहां
गणेश का नाम
किताब में आना
ठीक नहीं है। लेकिन
ग से न कोई
गणेश का लेना-देना
है, न कोई
गधे का। लेकिन
बच्चे को
सिखाने के
लिए...क्योंकि
बच्चे को
ज्यादा रस गधे
में आता है, गणेश में
आता है। वह जो
ग नाम का
अक्षर है, उसमें
बच्चे को कोई
रस मालूम नहीं
होता। लेकिन
धीरे-धीरे गधा
भी भूल जाएगा,
गणेश भी भूल
जाएगा, ग
ही रह जाएगा
और ग ही काम
पड़ेगा।
अगर
विश्वविद्यालय
तक
पहुंचते-पहुंचते
भी, हर वक्त,
पढ़ते वक्त
पहले तुम्हें
पढ़ना पड़े आ आक
का, ग गधे
का, तो हो
गयी
पढ़ाई। एक
वाक्य भी पूरा
पढ़ना मुश्किल
हो जाएगा। और
पढ़ने के बाद
यह भी समझना
मुश्किल हो जाएगा, कि इसका मतलब
क्या है? क्योंकि
उसमें न मालूम
कितने गधे
होंगे, कितने
गणेश होंगे, कितने आम
होंगे।
छोटे
बच्चों की
किताब में
तस्वीरें
होती हैं, रंगीन
तस्वीरें
होती हैं, बड़ी
तस्वीरें
होती हैं।
छोटे अक्षर
होते हैं। और
जैसे-जैसे
ऊंची क्लास
होने लगती है,
तस्वीरें
छोटी होने
लगती हैं, अक्षर
ज्यादा होने
लगते हैं।
धीरे-धीरे
तस्वीरें खो
जाती हैं, सिर्फ
अक्षर रह जाते
हैं
विश्वविद्यालय
की कक्षा में
कोई तस्वीर नहीं
होती, सिर्फ
अक्षर होते
हैं।
हमारा
अक्षर शब्द भी
बड़ा प्यारा
है। उसका अर्थ
है, जो कभी न
मिटेगा।
क्योंकि गणेश
भी मिट जाते
हैं, गधे
भी मिट जाते
हैं, मगर
अक्षर रह जाता
है। वह क्षर
नहीं होता।
उसका कोई क्षय
नहीं होता।
तो
मुझे शुरू
करना पड़ा तो
संन्यासी भी
मैंने दिया, शिष्य भी
मैंने बनाए, मगर कब तक
गधों को और
गणेशों को, और कब तक आम
को और इमली
को--कब तक
खींचना? अब
संन्यास
प्रौढ़ हुआ है।
अब
औपचारिकताओं
की कोई खास
बात नहीं है।
अब तुम्हारा
प्रेम है तो
शिष्य हो जाओ।
कहने की भी
बात नहीं, किसी
को बताने की
भी जरूरत
नहीं। अब
तुम्हारा भाव
है तो
संन्यस्त हो
जाओ। अब सारा
दायित्व
तुम्हारा है।
यही तो प्रौढ़ता
का लक्षण होता
है। अब
तुम्हारा हाथ
पकड़कर कब तक
मैं चलूंगा?
इसके
पहले कि मेरे
हाथ छूट जाए, मैंने खुद
तुम्हारा हाथ
छोड़ दिया है।
ताकि तुम खुद
अपने पैर, अपने
हाथ, अपने
दायित्व पर खड़े
हो सको और चल
सको।
नहीं
तुम्हें
सतशिष्य होने
से रुकने की
कोई जरूरत
नहीं है। न
संन्यासी
होने से कोई
तुम्हें रोक
सकता है।
लेकिन अब यह
सिर्फ तुम्हारा
निर्णय है, और तुम्हारे
भीतर की प्यास
और तुम्हारे
भीतर की पुकार
है। मैं
तुम्हारे साथ
हूं। मेरा आशीष
तुम्हारे हाथ
है।
लेकिन
अब तुम्हें
समझाऊंगा
नहीं, कि
तुम संन्यासी
हो जाओ; और
समझाऊंगा
नहीं, कि
ध्यान करो। अब
समझाऊंगा
नहीं।
अब तो
इतना ही
समझाऊंगा कि
ध्यान क्या
है। अगर उसे
ही तुम्हारे
भीतर प्यास
पैदा हो जाए, तो कर लेना
ध्यान। अब
आज्ञा न दूंगा
कि प्रेम करो।
अब तो सिर्फ
प्रेम की व्याख्या
कर लूंगा, और
सब तुम पर छोड़
दूंगा। अगर
प्रेम की
अनूठी, रहस्यमय
बात को सुनकर
भी तुम्हारे
हृदय की
धड़कनों में
कोई गीत नहीं
उठता, तो
आदेश देने से
भी कुछ न
होगा। और अगर
गीत उठता है, तो यह कोई
लेने-देने की
बात नहीं है।
तुम
शिष्य हो सकते
हो, तुम
ध्यान कर सकते
हो, तुम
संन्यस्त हो
सकते हो। तुम
समाधिस्थ हो
सकते हो। तुम
इस जीवन की उस
परम निधि को
पा सकते हो, जिसे हमने
मोक्ष कहा है।
लेकिन यह सब
अब तुम्हें
करना है। अब कोई
और तुम्हें
धक्का दे पीछे
से, वे दिन
बीत गए। अब
तुम बिलकुल
स्वतंत्र हो।
तुम्हारी
मर्जी और
तुम्हारी मौज
और तुम्हारी मस्ती
ही निर्णायक
है।
प्रश्न:
भगवान, आप
कहते हैं कि
जहां हो वहीं
रहो, जो
करते हो वही
करो। फिर आप
इधर-उधर क्यों
भागते हो?
सवाल
महत्वपूर्ण
है।
जरूर
मैं कहता हूं, जहां हो
वहीं रहो, जो
करते हो वही
करो। लेकिन
मैं कहीं नहीं
हूं, और
करने को भी
मेरे पास कुछ
नहीं है।
इसलिए
इधर-उधर भागा
करता हूं।
क्योंकि खाली
बैठा रहूं तो
भी तुम नाराज
होओगे कि क्या
कर रहे हो, महाराज!
न मेरे
पास कोई मकान
है न कोई जमीन
है, न कोई इंच
भर स्थान है
खड़े होने को।
इसलिए इधर-उधर
भागा करता
हूं। थोड़ी देर
को समझा लेता
हूं, कि यह
अपना घर है।
ऐसे सारी जमीन
पर बहुत से घर अपने
हैं। ऐसे सारी
जमीन पर बहुत
से देश अपने हैं।
तुम्हारा
क्या इरादा है, सूरज प्रकाश
को बिलकुल
निकाल बाहर कर
दूं? नहीं,
मैं जल्दी
ही यहां-वहां
भागने
लगूंगा। आखिर उनको
भी अपना
काम-धंधा करना
है। और तुमको
भी अपना काम
धंधा करना है।
थोड़ी देर यहां
रहूंगा तो ठीक,
तुम सब काम धंधा
छोड़कर मेरे
साथ हो रहोगे।
थोड़ी देर कहीं
और, थोड़ी देर
कहीं और। जहां
हूं वहीं भीड़
जहां हूं वहीं
प्रेमी।
एक ही
जगह रहने में, सोचता हूं, कि कहीं
किसी को कोई
आधा न हो जाए।
जिसके पास इंचभर
जमाने न हो, खूंटी में
कलदार पैसा न
हो, जिसके
वस्त्रों में
जेब भी न हो
जिसमें कुछ रखा
जा सके, ऐसे
दूसरों की जेब
में हाथ डालकर
किसी तरह अपना
काम चला ले।
यह भी एक रहने
का ढंग है: हाथ
अपने, जब
किसी की। मगर
ज्यादा देर
नहीं फिर किसी
और की जेब, फिर
किसी और की
जेब।
धन्यवाद।
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