अपने
ज्ञान को
ध्यान में
बदलो—(प्रवचन—चौथा)
दिनांक
3 अगस्त, 1986,
9. 30
प्रातः
सुमिला, जुहू,
बंबई
प्रश्नसार:
1—परसों
ही आपने कहा
कि अपने को
जाने बिना
अर्थी नहीं
उठने देना। यह
चुनौती तीर की
तरह हृदय में
चुभ गयी। हम
कैसे शुरू
करें?
2—रजनीशपुरम
कम्यून से लौट
कर मैं बहुत अकेली,
खोई—खोई सी, कन्फ्युज्ड
अनुभव कर रही हूं।
3—क्या
यह संभव है कि कोई
व्यक्ति आपकी
चेतना—दशा को उपलब्ध
करके शरीररिक रूप
से पूर्ण स्वस्थ
रह सके? या कि
यह संभव नहीं है, ऐसा ताओ का नियम
है?
प्रश्न:
परसों ही आपने
कहा कि अपने
को जाने बिना
अर्थी नहीं
उठने देना। यह
चुनौती तीर की
तरह हृदय में
चुभ गयी। हम
कैसे शुरू
करें?
मनुष्य
के बहुत से
नाम हैं—अरबी
में, उर्दू
में, पर्शियन
में। आदमी
मनुष्य का
पर्यायवाची
है। होना नहीं
चाहिए।
क्योंकि
मनुष्य का
अर्थ होता है,
जो मनन करे।
और आदमी का
अर्थ होता है,
जो मिट्टी
का बना है।
अंग्रेजी में
भी मनुष्य का
पर्यायवाची
है, ह्युमैन।
होना नहीं चाहिए। अलग है अनुवाद दोनों ही आदमी को मिट्टी का बना हुआ पुतला नहीं माना गया है। इस देश में आदमी के होने की पहचान है, उसके मनन की क्षमता। इसलिए हम उसे कहते हैं मनुष्य। मनन की अनेक दिशाएं हो सकती हैं। चित्रकार भी सोचता है, मूर्तिकार भी सोचता है, दार्शनिक भी सोचता है, धर्मगुरु भी सोचता है, वैज्ञानिक भी सोचता है।
होना नहीं चाहिए। अलग है अनुवाद दोनों ही आदमी को मिट्टी का बना हुआ पुतला नहीं माना गया है। इस देश में आदमी के होने की पहचान है, उसके मनन की क्षमता। इसलिए हम उसे कहते हैं मनुष्य। मनन की अनेक दिशाएं हो सकती हैं। चित्रकार भी सोचता है, मूर्तिकार भी सोचता है, दार्शनिक भी सोचता है, धर्मगुरु भी सोचता है, वैज्ञानिक भी सोचता है।
लेकिन
ये सारी सोचने
की
प्रक्रियाएं
बाहर की तरफ
जाती हैं। ये
किसी और विषय
की तरफ इंगित
करती हैं।
जिसको हमने
ज्ञानी कहा है
वह अपने सारे
सोचने की
दिशाओं को
भीतर की तरफ
मोड़ लेता है।
वह सिर्फ अपने
संबंध में ही
सोचता है।
उसके लिए जगत
में कुछ और सोचने
योग्य नहीं
है।, हो भी
हनीं सकता।
क्योंकि जिसे
अपना ही पता
नहीं है उसे
किसी और चीज
का क्या पता
हो सकता है?
अलबर्ट
आइंस्टीन इस
सदी के
सर्वाधिक बड़े
विचारकों में
एक थे। लेकिन
मरते वक्त
उन्होंने जो
कहा, वह उनके
जीवन भर की
पीड़ा का निचोड़
था। किसी ने पूछा,
आइंस्टीन
जब सांस तोड़
रहे थे, कि
अगर पूरब के
लोग सच हों और
पुनर्जन्म
होता हो तो आप
आगे भी
वैज्ञानिक ही
होना चाहेंगे
या कुछ और? मनुष्य
के आखिरी वचन
बड़े
महत्वपूर्ण
होते हैं। वे
उसके सारे
जीवन का निचोड़
होते हैं
क्योंकि उसके
बाद फिर उनमें
सुधार करने की
भी कोई सुविधा
न रहेगी।
आइंस्टीन ने
आंखें खोलीं
और कहा कि
फिजिसिस्ट
होने की बजाय
मैं एक प्लंबर
होना पसंद
करूंगा ताकि
कुछ समय अपने
संबंध में सोचने
के लिए भी तो
दे सकूं। मेरा
सारा समय चांदत्तारों
के संबंध मग
सोचने में खो
गया और मैं
वैसा ही
अज्ञानी मर
रहा हूं जैसा
अज्ञानी पैदा
हुआ था और
दुनिया मुझे
ज्ञानी कहती है।
अगर कोई आगे
मेरा जन्म हो
तो मैं वैसा
ही नहीं मरना
चाहता हूं
जैसा पैदा
हुआ। मैं
जागकर, अपने
को जीतकर, अपने
को पहचानकर इस
जगत से विदा
होना चाहता हूं।
यह जीवन तो
गया। यह तो बह
गया। अब इसमें
तो कोई
संभावना न
बची।
जिस
चिंतन और मनन
के लिए मैंने
तुमसे कहा है
उसमें पहली
बात है कि सब
तरफ से अपने
विचारों को
खींचकर अपने
पर ही
आमंत्रित कर
लेना। और एक जादू
घटित होता है
जिसकी तुम
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
तुम सोच सकते
हो केवल उसी
चीज के संबंध
में जिसके
संबंध में
तुमने पढ़ा हो, सुना हो, किसी
ने कुछ कहा
हो। तुम अपने
संबंध में
क्या सोचोगे?
तो जैसे ही
व्यक्ति सारे
बाह्य चिंतन
छोड़ देता है
और उसकी आंखें
सिर्फ अपनी ही
रूप पर टिक जाती
हैं...इसलिए
मैंने कहा, एक जादू
घटित होता है:
तुम अपने
संबंध में सोच
नहीं सकते।
वहां सोचना
शून्य हो जाता
है। वहां
सिर्फ देखना
शेष रह जाता
है।
इसलिए
हमने इस देश
में उस घड़ी को
दर्शन की घड़ी कहा
है, चिंतन की
नहीं। तुम
देखते तो कि
तुम कौन हो लेकिन
सोचने को कुछ
बाकी नहीं।
तुम जो भी हो, पूरे के
पूरे खुले हो
और नग्न हो।
और यही आत्म—पहचान
तुम्हें जीवन
के सार तत्व से
परिचित करा
देती है, उस
अमृत से
परिचित करा
देती है जिसका
कोई अंत नहीं
है। शरीर आए
हैं और गए
हैं। शरीर
आएंगे और
जाएंगे। जब तक
कि तुम अपने
को न पहचान लो,
नए—नए रूपों
में नए—ने ढंग
में, तुम
इसी संसार में
भटकते रहोगे।
और जिसने अपने
को जान लिया
उसकी फिर इस
संसार में आने
की कोई जरूरत
न रही। संसार
तो यूं है
जैसे कोई
पाठशाला हो।
जब तक तुम
असफल होते हो
तब तक वापिस
पाठशाला में
लौट आना पड़ता
है और जब सफल
हो जाते हो तो
पाठशाला से
छुट्टी हो जाती
है। संसार
बुरा नहीं है,
विद्यालय
है। इसको घृणा
मत करना। यह
अस्तित्व की
देन है।
क्योंकि इसी
के बीच इस बात
की संभावना है
कि तुम किसी
दिन टकराते—टकराते,
गिरते और
उठते, संभालने
और संभलते
अपने को जाने
लोगे। और जिसने
स्वयं को जान
लिया उसके लिए
जानने को कुछ
भी शेष नहीं
रह जाता।
शह
ज्ञान की
परमदशा हमने
समाधि कही है।
तुम एक शब्द
से परिचित हो:
व्याधि।
व्याधि का
अर्थ है
बीमारी। यह दूसरा
शब्द है
समाधि। समाधि
का अर्थ है, व्याधियों
के ऊपर उठ
जाना, सारी
व्याधियों का
सम हो जाना, शांत हो
जाना। इस देश
ने अपने शब्द
भी बहुत सोच—सोचकर
गढ़े हैं। वे
अंधे, नासमझ
व्यवहारिक
लोगों के
द्वारा नहीं
गढ़े गए हैं।
आंखवालों ने
उन्हें तराशा
है। अगर हम उन
शब्दों को भी
ठीक से समझ ले
तो इशारे
मिलने शुरू हो
जाएंगे।
सारी
दुनिया में
स्वास्थ्य
जैसा कोई शब्द
नहीं है।
हालांकि हर
भाषा में
स्वास्थ्य को
अनुवादित
करने के लिए
शब्द हैं।
हेल्थ है
लेकिन हेल्थ
का अर्थ है, घाव का भर जाना।
वह बड़ी छोटी
बात है।
स्वास्थ्य का
अर्थ होता है,
स्वयं में
स्थित हो जाना,
स्वस्थ हो
जाना। इसका
किसी घाव के
भरने से संबंध
नहीं है। तुम
हो, लेकिन
अपने से भागे—भागे
तुम हो, लेकिन
अपने से दूर—दूर।
तुम हो, लेकिन
तुम्हें पता
नहीं है कि
तुम कहां हो।
जिस दिन तुम
स्वस्थ हो जो
हो, स्थिर
हो जाते हो, अपनी चेतना
में ठहर जाते
हो जैसी कोई
दीए की ज्योति
निष्कंप ठहर
जाए, कोई
हवा का झोंका
उसे हिलाए
नहीं, वैसी
ज्योति की
भांति जब तुम
अपने भीतर ठहर
जाते हो तो जो
प्रकाश का
आविर्भाव
होता है, जो
किरण
विकीर्णित
होती हैं, उसे
ही मैंने मरने
के पहले अपने
को जानना कहा
है।
और
मरने के पहले
पर जोर दिया
क्योंकि अगर
तुम जीवन में
भी जीवन को न
जान सके तो
मृत्यु में कैसे
जान सकोगे? मृत्यु तो
अंधेरी गुफा
है। हां, यह
सच है कि
जिन्होंने
अपने को जीवन
में जान लिया
है उनकी आंखों
में इतनी
रोशनी होती है,
कि वे मौत
की अंधेरी
गुफा में भी
अपने को भूलते
नहीं। वे मौत
की अंधेरी
गुफा में भी
अपने को जानते
हैं।
बुद्ध
के जीवन में
घटना है उनके
अंतिम दिन की।
सुबह हुई है, पक्षियों ने
गीत गाए हैं, फूल खिले
हैं और
उन्होंने
अपने सारे
शिष्यों को
इकट्ठा किया
है, और उनसे
कहा है कि मैं
तुम्हें एक
सुखद समाचार
देता हूं।
ध्यान करना, उन्होंने
कहा, मैं
तुम्हें एक
सुखद समाचार
देता हूं। वे
सब निश्चित
बहुत आतुर हो
उठे। क्योंकि
बुद्ध ने चालीस
वर्षों के
शिक्षण में
कभी भी यह न
कहा था कि मैं
तुम्हें एक
सुखद समाचार
देता हूं। हालांकि
उनके हर शब्द
में सिवाय
सुखद समाचार
के और कुछ भी न
था। आज कौन सी
अनूठी बात
घटनी थी? आज
कौन सा
कोहिनूर उनके
शब्दों में
जगेगा? आज
कौन सा सूरज
उगेगा? एक
सन्नाटा छा
गया। बुद्ध ने
कहा, आज
मैं शरीर छोड़
रहा हूं। जीवन
को बहुत देख
लिया। जीवन को
बहुत जी लिया।
आज मैं मौत के
अंधेरे में
प्रवेश कर रहा
हूं। लेकिन वह
अंधेरा
दूसरों के लिए
होगा। वह
अंधेरा मेरे
लिए नहीं है।
मैं इतना ही
ज्योतिर्मय, इतना ही
प्रकाशोज्ज्वल
उस अंधेरे से
भी गुजर जाऊंगा
जैसे जीवन से
गुजरा हूं।
इसलिए मैंने कहा
कि तुम्हें एक
सुखद समाचार
देता हूं। मृत्यु
का समाचार और
सुखद।
तुम्हें कुछ
पूछना हो, तुम
पूछ लो। दस
हजार
भिक्षुओं में
किसकी हिम्मत
थी और किसकी
जुर्रत थी कि
जिस आदमी ने
चालीस वर्षों
तक हर बात को
समझाया हो, आज मरने की
घड़ी में भी
उसको चैन से न
मरने दिया जाए।
उनकी आंखों
में आंसू थे
लेकिन उनकी
जुबानों पर
कोई सवाल नहीं
था। उन्होंने
कहा, हमें
कुछ पूछना
नहीं है। आपने
हमें इतना
दिया है कि
जितना हमने
कभी सोचा भी न
था। आपने हमारे
वे उत्तर भी
हमारे हाथों
में थमा दिए
हैं जिनके लिए
हमारे पास
प्रश्न भी
नहीं हैं। मैं
आपसे क्या
पूछें? तो
बुद्ध ने कहा,
मैं विदा ले
सकता हूं? और
उन्होंने
आंखें बंद
कीं।
और
घटना बड़ी
प्यारी है कि
उन्होंने
पहले चरण में
शरीर को छोड़
दिया। दूसरे
चरण में मन को
छोड़ दिया।
तीसरे चरण में
हृदय को छोड़
दिया। और तभी
एक गांव से, पास के गांव
से एक आदमी
भागा हुआ आया
और उसने कहा
कि ठहरो, चालीस
साल से बुद्ध
मेरे गांव से
गुजरते रहे
हैं लेकिन मैं
अंधा आदमी
हूं। हमेशा
सोचता रहा कि
अगली बार जब
जाएंगे। तब
मिल लूंगा।
यूं जल्दी भी
क्या है? और
कभी मेहमान घर
में थे, कभी
दुकान पर भीड़
थी और कभी
पत्नी बीमार
थी। और बहाने
ही खोने हों
तो अंतहीन
बहाने उपलब्ध
हैं। बुद्ध आते
रहे, जाते
रहे। अभी—अभी
मैंने सुना कि
वे जीवन छोड़
रहे हैं। और
मुझे एक
प्रश्न पूछना
है। बुद्ध के
प्रमुख शिष्य
आनंद ने कहा, अब देर हो
गयी, अब
बहुत देर हो
गयी। वे तो जा
भी चुके।
लेकिन
बुद्ध ने
आंखें खोल दीं
और बुद्ध ने
कहा, आनंद, तू
मेरे ऊपर
दोषारोपण
करवा देगा।
आने वाली
सदियां
कहेंगी कि मैं
जिंदा था और
एक आदमी मेरे
द्वार से
प्यासा लौट
गया। शरीर छूट
जाए, मन
छूट जाए, हृदय
छूट जाए लेकिन
मैं तो हूं; और मैं तो
कभी छूटने
वाला नहीं
हूं। तुम मेरे
शरीर को जाकर
अर्थी पर
चढ़ाकर जला
देना। लेकिन अगर
किसी के हृदय
से भरकर मुझसे
प्रश्न पूछा
तो उसे उत्तर
मिल जाएगा। क्योंकि
मैं तो हूं, मैं तो
रहूंगा। मुझे
जलाने का कोई
उपाय नहीं है
और मुझे
मिटाने का कोई
उपाय नहीं है।
मैं अमृत हूं।
इस देश
की प्रार्थना
बड़ी अदभुत है।
दुनिया में
बहुत मंदिर
हैं और बहुत
मस्जिदें हैं
और बहुत
गिरजाघर हैं
लेकिन उनकी
प्रार्थनाएं
बचकानी हैं।
सिर्फ इस देश
ने प्रार्थना
की है कि हमें
क्षणभंगुर से
शाश्वत की ओर
ले चलो। इसमें
कोई भी बात शूद्र
नहीं है। और
यह प्रार्थना
किसी और से नहीं
की गयी है।
क्योंकि कोई
और तुम्हें लग
जा नहीं सकता।
केवल तुम ही, और केवल तुम
ही मृत्यु से
अपने को अमृत
की ओर ले जा
सकते हो। अपने
जानने की सारी
क्षमता को
स्वयं पर
केंद्रित कर
लो। दूसरे
शब्दों मग मैं
इसे ध्यान
कहता हूं।
ज्ञान दूसरे
का होता है, ध्यान अपना
होता है।
ज्ञान पराए का
होता है, ध्यान
स्वयं का होता
है। अपने
ज्ञान को
ध्यान में बदल
लो। तो इसके
पहले कि
तुम्हारी
अर्थी उठे, तुम उसे जान
लोगे जिसकी
कोई अर्थी
नहीं उठती है
और न कभी उठ
सकती है।
प्रश्न:
प्रिय भगवान, रजनीशपुरम
कम्यून से
लौटकर मैं
बहुत अकेली, खोई—खोई सी
कन्फ्यूज्ड
अनुभव कर रही
हूं। जो भी मैं
करती हूं वह
गलता लगता है
और दूसरों को
चोट लगता है।
मुझे कुछ
रूपांतरित
होने में बहुत
समय लगा
रजनीशपुरम
में और अब
भारत आकर पुनः
एडजस्ट करना
पड़ रहा है। आप
मुझे अमरीका
में पीछे रह
गए अपने
मित्रों की
कमी महसूस कर
रही हूं।
मैंने सुना है
कि अमरीका में
भी मेरे मित्र
इसी स्थिति
में हैं। मैं
क्या करूं? कुछ सुझाव
देने की कृपा
करें।
संन्यास
का अर्थ है, समझौता न
करना। और सब
तरह के
समायोजन
समझौते हैं।
संन्यास का
अर्थ है, अकेले
होने को काफी
समझना। दूसरे
की जरूरत मालूम
पड़ती हो तो
तुम कम्यून
में हो कि
बाजार की भीड़
में हो, कोई
फर्क नहीं।
दूसरे की
जरूरत न रह जाए,
तुम अपने
में काफी और
पूरे हो जाओ।
इसका यह अर्थ
नहीं है कि
तुम दूसरों को
छोड़ दो। और
इसका यह भी
अर्थ नहीं है
कि तुम दूसरों
के विरोधी हो जाओ।
इसका अर्थ है
कि जो व्यक्ति
दूसरों के ऊपर
निर्भर नहीं
रह जाता, जिसके
जीवन में
दूसरे की
जरूरत नहीं रह
जाती, जो
अपने में भरा—पूरा
है वही
व्यक्ति
दूसरे को कुछ
दे सकता है।
उसी भरे हुए
घड़े से अमृत
दूसरों पर भी
छलक सकता है।
तुम्हारी
तकलीफ वह है
कि कम्यून में
तुम कम्यून के
लोगों के साथ
समायोजित
होना चाहती
थीं। वह भूल
थी। अपने साथ
समायोजित
होना है। एक
भूल वहां की, अब उसी भूल
को यहां
दोहराना
पड़ेगा।
क्योंकि वहां
कम्यून के
लोगों से
समायोजित। हो
गयी थीं। उनका
रहन—सहन, उनका
जीवन, उनका
ढंग, उनका
उठना, उनका
बैठना। उनका
सोचना, वह
सब तुमने अपने
ऊपर आरोपित कर
लिया। लेकिन इसमें
तुम्हारा
अपना कुछ न
था। कम्यून
पीछे छूट गया,
आदतें
तुम्हारे साथ
आ गयी और अब इस
बाजार की
दुनिया में
दूसरी तरह की
आदतें चलती
हैं। तो फिर
अड़चन है। अब
तुम लोगों के
साथ अपने को
मुश्किल में
पाती हो। मगर
भूल वही है जो
तुमने कम्यून
में की थी वही भूल
अब है। तुम दो
भूलें भी नहीं
कर रहे हो—एक
ही भूल कि
दूसरों के साथ
समायोजित
होना है। और
हर समायोजन
गुलामी है। हर
समायोजन
अज्ञान है और
हर समायोजन
में तुम्हें
अपनी आत्मा
बेचनी पड़ती
है। समझौता
करने का मतलब
ही यही होता
है: कुछ लो, कुछ
दो। संन्यासी
समझौता नहीं
करता। संन्यासी
केवल अपने में
समाधिस्थ
होता है। और
उसकी समाधि का
इतना बल है कि
उसके पास जो
भी जाएगी, खाली
हाथों वापिस न
जाएगा। जो भी
उसके पास आएगा
वह प्यासा
वापिस न
जाएगा।
तो
तुम्हें कोई
जरूरत नहीं है
कि तुम किसी
से समायोजित
होओ। तुम्हें
सिर्फ एक ही
जरूरत है कि
तुम समाधिस्थ
बनो ताकि
दूसरे
तुम्हारी समाधि
से खिले हुए
फूलों की सुगंध
से भर जाएं।
और तब
तुम्हारे और
दूसरों के बीच
एक मेल होगा
जो आदतों का
नहीं है और जो
बाजार के लेन—देन
का नहीं है।
जो न तो सौदा
है और न
व्यवसाय है।
क्योंकि
समाधिस्थ
व्यक्ति के
केवल दिया है, लिया कुछ भी
नहीं। लेकिन
मजा यह है कि
जिसे देने की
कला आ गयी
उसके पास की
संपदा रोज
बढ़ती ही चली
जाती है। उसके
भीतर का गौरव
रोज निखरता ही
चला जाता है।
यूं ही समझो
कि जैसे कोई
कुआं हो, रोज
तुम उसमें से
पानी खींच
लेते हो और नए
झरने कुएं को
पानी से भरते
रहते हैं। वे
झरने तुम्हें
दिखाई नहीं
देते। लेकिन
कुआं दूर सागर
से जुड़ा है। दूर—दूर
तक उसकी पहुंच
हैं। लेकिन
तुम कुएं से
पानी भरना बंद
कर दो इस डर से
कि कहीं पानी
कुएं से भरते
गए तो कुआं
खाली हो
जाएगा। तो एक
दिन मुसीबत
में पड़ोगे।
कुएं में पानी
न बचेगा। अगर
तुम कुएं को
बंद करके ताला
लगा दो तो
कुएं में फिर
नया पानी नहीं
आएगा। झरने कुएं
में नए—नए
स्रोत जल के
नहीं लाएंगे।
और जो पुराना
पानी है वह
रोज सड़ेगा, राज मरेगा
और ऐसे कुएं
का पानी मत
पीना क्योंकि
वह जहरीला हो
जाएगा। लेकिन
हम सारे लोग
ऐसे ही कुएं
हो गए हैं
जिन्होंने
अपनी—अपनी
छातियों पर
ताले जड़ रखे
हैं, कि
कहीं भीतर का
प्रेम निकल गया,
कहीं भीतर
की करुणा बह
गयी तो हम
खाली हो जाएंगे।
लेकिन
तुम्हें पता
नहीं कि करुणा
और प्रेम, मैत्री,
सहजता, शांति
और मौन, जितना
तुम देते हो
उतना बढ़ते
हैं। यह कोई
साधारण
अर्थशास्त्र
नहीं है। यह
कोई तुम्हारी
तिजोरी नहीं
है। हां, तिजोरी
में जो रुपया
है वह तुम
दोगे तो रोज
खाली होगा।
मैंने
सुना है कि एक
आदमी भीख मांग
रहा है—बहुत
दयनीय दशा में
है। एक कार
उसके पास आकर
रुकी और पूछा, कितने दिन
से भोजन नहीं
किया? उस
आदमी ने कहा, आज पांच दिन
हो गए, न
भोजन है, न
कुछ खाने को
है। उस आदमी
ने अपने खीसे
से पांच रुपए
का नोट निकाला
और उस आदमी को
दिया और कहा, जाओ ठीक से
भोजन करो और
विश्राम करो।
जाते—जाते उस
भिखमंगे से
उसने पूछा, लेकिन मैं
यह पूछूं कि
तुम्हारा
चेहरा किसी भिखमंगे
का चेहरा
मालूम नहीं
होता।
तुम्हारे चेहरे
पर शालीनता के
निशान हैं।
तुम्हारे चेहरे
पर अब भी गौरव
मालूम होता
है। ये कोई
भिखारी की
आंखें नहीं
हैं। वह
भिखारी हंसने
लगा। उसने कहा,
आप ठीक कहते
हैं। कभी मेरे
पास भी कार
थी। लेकिन
जैसे आपने
मुझे पांच
रुपए दिए मैं
दिल में सोचने
लगा कि इस
बेचारे पर भी
वही मुसीबत
आएगी जो मुझ
पर आयी है।
ऐसे ही मैं भी
बांटता रहा। वह
सब चुक गया।
तो जरा संभलकर
चलो। ऐसे पांच—पांच
रुपए
भिखारियों को
देने लगे तो
यह कार ज्यादा
दिन टिकने
वाली नहीं है।
बाहर
की संपदा है
वह बांटने से
चुक जाती है।
और भीतर की जो
संपदा है वह
बांटने से बढ़
जाती है। तो
कोई जरूरत
नहीं है कि
किसी से
समायोजन करो।
जरूरत केवल
इतनी बात की
है कि प्रेम
देने में
कंजूसी मत करो
और समायोजन हो
जाएगा। प्रेम
से बड़ा कोई और
मजबूत धागा
नहीं है। बड़ा
कोमल है, फूलों
जैसा कोमल है
लेकिन लोहे की
जंजीरों से भी
ज्यादा मजबूत
है। प्रेम
बांटो, आनंद
बांटो, और
तुम जहां हो, जिनके बीच
हो उन सभी के
लिए गौरव बन
जाओगे। और खुद
अपने लिए एक
अपूर्व शांति
का अनुभव
करोगे। न कोई
झंझट है, न
कोई झगड़ा है।
लेकिन तुमने
कम्यून में भी
भूल की। तुम
वहां दूसरों
की आदतों का
अनुसरण करने
लगे। तुमने
सोचा कि उनके
जैसे होंगे तो
ही उनके साथ
मैत्री हो
सकती है। अब
फिर वही भूल, कि अब लोगों
के साथ होना
है तो उनके ही
जैसा होना होगा।
दुनिया
में किसी
व्यक्ति को
किसी दूसरे
जैसा होने की
जरूरत नहीं
है। सिर्फ
अपने जैसा
होने की जरूरत
है—आनंदित, आहलादित, प्रफूल्ति,
और सारी
दुनिया उसकी
है। वह फिर
कम्यून में हो
कि बाजार में
हो कि दुकान
में कि मंदिर
में हो, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। वह जहां
भी है वहीं
काबा है। वह
जहां भी है
वहीं वाराणसी
है। वह जहां पैर
रख दे वहीं
तीर्थंकरों
ने पैर रखे
होंगे। वह
जहां बैठ जाए
वहीं बुद्ध
बैठे होंगे।
अपने
से, अपने
भीतर से सारे
विरोध गिरा दो
और अपने भीतर
एक ऐसे समस्वर
संगीत पैदा कर
लो जो बजता ही
हरे। उस संगीत
ने आज तक
दुनिया में
करोड़ों लोगों
को जीता है।
तुम्हें अपना
संगीत भूल गया
है। सब साधन
तुम्हारे पास
हैं। लेकिन उन
साधनों से
संगीत कैसे
पैदा हो इसकी
कला भूल गयी
है। उस कला को
ही धर्म कहता हूं।
हिंदू होने को
मैं धर्म नहीं
कहता और न
मुसलमान होने
को और न जैन
होने को। अपने
भीतर एक ऐसी
शांत, एक
ऐसी मौन, एक
ऐसे संगीत की
दुनिया पैदा
कर लो कि जो
तुम्हारे पास
आए बिना तुम
में डुबकी लिए
लौट न सके। और
जो एक बार तुम
में डुबकी ले
ले, बार—बार
तुम्हारे पास
आए।
ऐसी
कथा है कि
बुद्ध का एक
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
शिष्य
सारिपुत्र
बुद्ध से दूर—दूर
बैठता था। जब
कि स्वभावतः
लोग पास—पास
बैठने की
कोशिश करते
हैं, सारिपुत्र
छिप—छिपकर
बैठता था, वहीं
झाड़ की आड़ में,
कहीं भीड़ की
आड़ में। और दस
हजार शिष्यों
में बहुत आसान
था छिप—छिपकर
बैठ जाना। एक
दिन बुद्ध ने
उसे आखिर पकड़
ही लिया। और
कहा कि
सारिपुत्र, यह तुम क्या
कर रहे हो? सारिपुत्र
ने कहा, मुझे
छोड़ दो, मुझे
छिपा रहने दो।
पर बुद्ध ने
कहा, मामला
क्या है? सारिपुत्र
ने कहा कि मैं
बुद्धत्व को
उपलब्ध नहीं
होना चाहता।
बुद्ध ने कहा,
तुम पागल हो
गए? तुम
मेरे पास आए
इसलिए थे कि
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
जाओ। उसने कहा,
आया था वह
मेरी गलती थी।
जाने वाला
नहीं हूं। क्योंकि
मैं देखता हूं
रोज—रोज जो—जो
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
जाते हैं, आप
कहते हैं जाओ,
अब मेरे
संदेश को दूर—दूर
पहुंचाओ। मैं
तो रोज—रोज
डुबकी लूंगा।
मैं बुद्धत्व
छोड़ सकता हूं
लेकिन आपमें
डुबकी लेना
नहीं छोड़ सकता
हूं। अगर वचन
देते हों कि
मेरे
बुद्धत्व के
होने के बाद
भी मुझे बैठने
का इन चरणों
में हक होगा
तो मैं छिपना
छोड़ दूं।
अन्यथा मैं
छिपता रहूंगा,
अन्यथा मैं
बचता रहूंगा।
मैं बहुत बार
बुद्धत्व के
किनारे पहुंच
गया हूं, और
ऐसा भागा हूं
कि मैंने पीछे
लौटकर नहीं
देखा। मुझे
पक्का पता है
कि मंदिर कहां
है; उसी
मंदिर को बच—बचकर
चल रहा हूं।
मुझे मत सताओ।
बुद्ध ने तब उसे
वचन दिया कि
तू फिकर छोड़।
तू भी खूब
आदमी है। तू
मजे से बैठ, जहां तुझे
बैठना है।
तेरे बुद्धत्व
के हो जाने के
बाद भी तू
मेरे साथ ही
चलेगा। तुझे
मैं अपनी छाया
की तरह साथ
रखूंगा सारिपुत्र
ने कहा, आश्वासन?
कोई
धोखाधड़ी तो
नहीं है? लेकिन
उसे पक्का
विश्वास नहीं
आया। वह बुद्ध
के पास बैठने
लगा और एक दिन
बुद्धत्व को
उपलब्ध भी हुआ
लेकिन उसने
बुद्ध से निवेदन
नहीं किया कि
मैंने उसे पा
लिया है जिसे
खोजने निकला
था। बुद्ध ने
कहा, सारिपुत्र,
कम से कम कह
तो दे।
सारिपुत्र ने
कहा, मैं
अपने मुंह से
न कहूंगा।
मुझे अज्ञानी
ही रहने दो।
बुद्ध ने कहा,
मगर तू अब
अज्ञानी नहीं
है, तू
बुद्ध हो गया
है। और वे
बातें जो
मैंने तुझसे
कहीं थीं, तेरे
अज्ञान में
कही थीं। उसने
कहा, देख
रहे हैं, मैंने
पहले ही कहा
था, धोखाधड़ी
नहीं चलेगी।
मैं मर जाऊं
मगर इस जगह को
नहीं
छोडूंगा। इन
चरणों को नहीं
छोडूंगा। यह
डुबकी—इसके
बिना
बुद्धत्व भी
मुझे मीठा
नहीं है।
तुम
अपने साथ, अपने भीतर, अपने सितार
पर संगीत को
उठने दो। लोग
तुमसे
समायोजित होना
चाहेंगे। तुम
क्यों लोगों
से समायोजित होना
चाहते हो? और
तुम उनसे
समायोजित
होकर न केवल
अपना अहित करोगे,
उनका भी
अहित करोगे।
क्योंकि
मैंने देखा, पश्चिम में
मैंने
स्त्रियां से
पूछा सिगरेट क्यों
पी रहे हो? उन्होंने
कहा कि अगर
सिगरेट न पीओ
तो पश्चिम में
जो बुद्धिजीवियों
का वर्ग है
उसमें बैठ भी
नहीं सकते।
यहां पूरब में
कोई स्त्री
बैठकर सिगरेट
पीने लगे तो
अशोभन मालूम
होगा अशिष्ट
मालूम होगा।
हम कल्पना भी
नहीं कर सकते।
वे लोग भी जो सिगरेट
पीते हैं, वे
भी नहीं मान
सकते कि कोई
स्त्री
सिगरेट पी रही
है। स्त्री को
हमने उतना
समादर दिया
है। हम उसे
इतने नीचे न
गिरने देंगे।
लेकिन लोगों
के साथ बैठना
है तो सिगरेट
पीओ, शराब
पीओ, जुआ
खेलो। लोगों
की जो आदतें
हैं उनको अपनी
आदतें बना लो।
लोग अगर
नालियों में
गिरे हों तो तुम
भी नालियों में
गिरो। और लोग
अगर नालियों
में सड़ रहे
हों कीड़ों की
तरह तो तुम भी
नालियों में
कीड़ों की तरह
सड़ो। तब तुम
उनके साथ
दोस्ती बना
सकोगे। मगर यह
दोस्ती बड़ी
महंगी है। यह
तो जीवन का सब
कुछ खोकर तुम
क्या पा रहे
हो? नहीं, भूलकर भी
किसी दूसरे से
समायोजित मत
होना। समायोजित
होना है
तुम्हें
स्वयं की
सत्ता से, क्योंकि
वहीं
परमात्मा का
निवास है। और
जो उसके साथ
एक हो गया उसे
इस दुनिया में
किसी के साथ
एक होने की
जरूरत नहीं
है। और जो
उसके साथ एक हो
गया वह हर जगह
समादृत होगा।
मैं
अमरीका के
पहले पहले जेल
में बंद था।
तीसरे दिन उस जेल
से मुझे दूसरी
जेल में ले
जाया गया। उस
जेल का जेलर
तीसरे दिन
मेरे पास
कोठरी में
अकेला आया।
उसकी आंखों
में आंसू थे।
और उसने कहा, मुझे एक बात
की क्षमा
मांगनी है।
मैंने कहा, आपके द्वारा
मेरे ऊपर कोई
अत्याचार
नहीं हुआ है।
मेरी सब तरह
से सुविधा की
आपने व्यवस्था
की है, क्षमा
किस बात की? उसने कहा कि
क्षमा मुझे इस
बात की मांगनी
है कि पहले
दिन जब आप जेल
में आए तो कोई
आधा घंटे बाद
जर्मनी से एक
फोन आया और उस
फोन करने वाले
ने पूछा कि
भगवान, आपकी
जल में हैं यह
आपका सौभाग्य
है। और शायद आपके
पूरे जीवन में
,बीते और
आने वाले जीवन
में ऐसे कोई
व्यक्ति आपकी
जेल में दुबारा
नहीं आएगा।
मेरा आपसे कोई
परिचय नहीं था,
उस बूढ़े
जेलर ने कहा, और अकड़ भी थी
तो उसने जर्मन
फोन करने वाले
को कहा कि
नहीं, मेरे
जेल में बहुत
बड़े—बड़े लोग आ
चुके हैं।
बैबिनेस्ट
स्तर के मिनिस्टर
भी मेरी जेल
में बंद रह
चुके हैं। तो
यह कोई नयी
अनूठी बात
नहीं है।
तो
मैंने कहा, इसमें कोई
हर्जा नहीं
है। इसमें
मुझसे क्षमा क्या
मांगनी है? उसने कहा कि
हर्जा यह है
कि मुझे इस
आदमी के फोन
का कोई पता
नहीं है। तुम
नए आए थे, तुम्हें
जानता न था।
फिर हजारों
फोन आने शुरू हुए,
तार आने
शुरू हुए, टैलेक्स
आने शुरू हुए
और हजारों
फूलों की डालियां
आना शुरू हुई।
ऐसा मेरे जले
में कभी भी न हुआ
था। जेल बड़ा
था, छह सौ
कैदी थे, लेकिन
इतने फूल आए
कि फूलों कोर
रखने की जगह न रही।
उसने मुझसे
पूछा, इन
फूलों का मैं
क्या करूं? मैंने कहा, सारे विभाग
जेल के हैं
उनमें बांट
दो। उसने कहा,
बांटने का
सवाल ही नहीं
हैं। उन्हीं
सब विभागों
में तो फूल
भरे हुए हैं।
तो मैंने कहा,
स्कूलों
में, कालिजों
को, युनिवर्सिटी
को, सब
विभागों को, विद्यालयों
को मेरी तरफ
से फूल भेज
दो। जिस कोठरी
में मुझे रखा
गया था...वह दिन
में कम से कम
छह बार मुझे
मिलने आता था।
नर्सें परेशान
थीं, डाक्टर
परेशान था
क्योंकि वे
कहते हैं यह
आदमी कभी साल—छह
महीने में एक
बार इस तरफ
आता था और यह
दिन में दह
बार यहां आता
है। वह अपनी
पत्नी और
बच्चों को
दिखाने के लिए
मुझे अपने साथ
लाया और कहा कि
बस एक ही
आकांक्षा है
कि मेरे साथ
और मेरे
परिवार के साथ—साथ
एक चित्र
निकलवा लें और
दस्तखत कर
दें। दो महीने
बात मैं
रिटायर हो
जाऊंगा। यह
मेरे जीवन की
सबसे बड़ी
स्मृति है।
क्योंकि
मैंने कभी भी
नहीं सोचा था
कि तुम्हारी
मौजूदगी से यह
जेल भी मंदिर
बन सकता है।
क्योंकि
कैदियों ने
टेलीविजन पर
निरंतर मुझे
दुखा था। कई
कैदियों के
पास किताबें
थीं। कुछ
कैदियों ने
ध्यान करने के
प्रयोग किए
थे। उन सबने
प्रार्थना की
जेलर से, कि
यह हमारा
सौभाग्य है कि
वे तीन दिन के
लिए हमारे जेल
में हैं। हमें
मौका दिया जाए
कि हम उन्हें
सुन सकें।
हमें मौका दिया
जाए कि वे
हमें ध्यान
करवा सकें।
हमें मौका
दिया जाए।
उस
बूढ़े की यह
कल्पना के
बाहर था कि ये
खतरनाक कैदी
ध्यान करना
चाहते हैं। और
इन छह सौ
कैदियों में
एक भी मेरे
विरोध में
नहीं है। कोई
डेढ़ सौ
कर्मचारी जेल
में होंगे, वे भी सब
सम्मिलित
होते थे ध्यान
के लिए। और
उसने एक आखिरी
कदम उठाया जो
कि कभी भी हनीं
उठाया गया था।
उसने मुझसे
पूछा कि अनेक
टेलीविजन
स्टेशन, रेडियो
स्टेशन पूछ
रहे हैं कि
क्या हक कुछ
प्रश्न पूछने
के लिए जेल के
भीतर आ सकते
हैं? इसका
कोई इतिहास
नहीं है। कोई
जेल के भीतर
इस तरह नहीं आ
सकता। लेकिन
उसने कहा कि
मैंने उन सबको
आज्ञा दी है
आज सांझ सात
बजे। अब मेरा
कोई क्या
बिगाड़ लेगा? दो महीने की
कुल नौकरी है।
ज्यादा से
ज्यादा दो
महीने पहले
रिटायर हो
जाऊंगा। उसने
जले के भीतर
वर्ल्ड प्रेस
कांफ्रैंस
बुलायी। कोई
सौ पत्रकार
जेल के भीतर
इकट्ठे किए।
और जब मैं पत्रकारों
से बोलने जा
रहा था तो
उसने कान में
कहा कि इस बात
की जरा भी
चिंता न करना
कि यह जेल है।
और तुम्हें
वही नहीं कहना
है जो हमें
अच्छा लगे...नहीं;
तुम्हें
वही कहना है
जो अच्छा है।
वह चाहे हमारे
विरोध में हो।
और तीन
दिन के बाद
छोड़ते वक्त
डाक्टर की
आंखों में
आंसू थे, नर्सों
की आंखों में
आंसू थे, जेलर
की आंखों में
आंसू थे।
डाक्टर एक
महिला थी और
उसने कहा कि
मैं नहीं
चाहती कि आपको
कभी इस जेल से
छोड़ा जाए।
मैंने कहा कि
तेरी आकांक्षा
तो ठीक है
लेकिन सारी
दुनिया में
फैले मेरे संन्यासी
रहा देख रहे
हैं कि मुझे
छोड़ा जाए।
उसने कहा, इसलिए
तो मैंने
सिर्फ कहा कि
मेरे मन का
भाव है कि तुम
सदा यहीं रहो।
मैं मैं जानती
हूं कि वहां
हजारों लोग
तुम्हारी
प्रतीक्षा
करते होंगे।
जब तीन दिन
में हम
तुम्हारे साथ
इतना मेल—जोल
बढ़ा लिए, जो
लोग वर्षों से
तुम्हारे साथ
हैं उनके दुख
और चिंता को
हम अनुभव कर
सकते हैं
लेकिन हमें
भूल मत जाना।
तुम्हें
केवल अपने साथ
एक होना है।
तुम्हें केवल
अपने भीतर वे
तरंगें उठानी
हैं जो आनंद
की हैं। दूसरे
तुम्हारे साथ
एक होने
लगेंगे। और यह
ऊंचाई की
यात्रा होगी।
तुम अगर
दूसरों के साथ
एक होने लगे
तो तुम गङ्ढों
में गिरोगे।
क्योंकि फिर
चारों तरफ भीड़
है अंधों की
और
अज्ञानियों
की। और उनके
साथ एक होने
का अर्थ है, उनके जैसा
होना। एक भूल
तुमने कम्यून
में की, अब
दूसरी भूल कम
से कम मत
करना। और
आनंदित व्यक्ति
को चाहे बाहर
की दुनिया से
कितना ही कष्ट
मिले, कोई
अंतर नहीं
पड़ता। और
जिसके भीतर का
संगीत जगा है,
बाहर कितना
ही शोरगुल हो,
वह अपने
संगीत में लीन
होता है। उसे
कोई अंतर नहीं
पड़ता। बस तुम
अपनी नजर अपने
पर रखो। दूसरों
को बहुत देख
लिया, बहुत—बहुत
जन्मों में
देख लिया, अब
इस जन्म में
थोड़े—बहुत दिन
बाकी बचे हों,
रिटायर
होने के पहले,
वे अपने को
देखने में
व्यतीत करो।
प्रश्न:
भगवान, क्या
यह संभव है कि
कोई व्यक्ति
आपकी चेतन—दशा
को उपलब्ध
करके शारीरिक
रूप से पूर्ण
स्वस्थ रह सके,
या कि यह
संभव नहीं है?
ऐसा ताओ का
नियत है? क्योंकि
मैंने सुना है
सभी सदगुरु
शारीरिक रूप
से अस्वस्थ
रहे हैं।
यह
सच है, ताओ
का जो
निष्कर्ष है
वह सौ प्रतिशत
सच है। ठीक
आध्यात्मिक
अनुभूति को
उपलब्ध
व्यक्ति शारीरिक
रूप से पूर्ण
स्वस्थ नहीं
रह सकता। इसका
यह मतलब नहीं
है कि जो लोग
बीमार हैं वे
आध्यात्मिक
स्थिति को
उपलब्ध हो गए
हैं। लेकिन जो
लोग परम ज्ञान
को उपलब्ध हुए
हैं उनका
शारीरिक रूप
से पूर्ण
स्वस्थ होना
मुश्किल है—एक
विशेष नियम के
कारण।
क्योंकि जैसे
ही कोई व्यक्ति
अपने को जानता
है, उसके
संबंध उसके
शारीर के
शिथिल हो जाते
हैं। सेतु टूट
जाता है। कल
तक वह अपने को
शरीर मानता था
तो उसके जीवन
की सारी ऊर्जा,
उसकी सारी
शक्ति शरीर
में प्रवाहित
होती थी। आज
अचानक वह अपने
शरीर को एक
कारागृह से
ज्यादा नहीं
पाता, इसलिए
उसकी ऊर्जा
शरीर की तरफ
प्रवाहित
होनी बंद हो
जाती है।
रामकृष्ण
परमहंस कैंसर
मृत्यु को
उपलब्ध हुए।
रमण महर्षि
कैंसर से
मृत्यु को
उपलब्ध हुए।
बुद्ध
विषाक्त भोजन
के कारण
मृत्यु को
उपलब्ध हुए।
महावीर पेट की
बीमारियों के
कारण मृत्यु
को उपलब्ध
हुए। कृष्णमूर्ति
चालीस वर्षों
तक सिर की
भयंकर पीड़ा से
परेशान रहे।
ऐसे परेशान
रहे कि उनका
मन होता था कि
सिर को दीवाल
से ठोंक—ठोंककर
तोड़ डालें।
दर्द इतना
भयंकर था। और
यह किसी एक के
संबंध में सच
नहीं है। यह
करीब—करीब
मनुष्य—जाति
के इतिहास में
जिन लोगों ने
भी ऊंचाई पायी
है, उन सब के
संबंध में
किसी न किसी
अंश में सच
है। कारण
बिलकुल साफ
है। तुम शरीर
से जुड़े हो और
निकट हो। और
आत्मज्ञानी
शरीर से टूट
जाता है और
अलग हो जाता
है। यूं ही
समझो कि जैसे
बैलगाड़ी
बैलों से जुड़ी
है तो चल रही
है। बैल चलते
हैं, बैलगाड़ी
नहीं चलती।
लेकिन अगर बैल
बैलगाड़ी से
छूट जाएं या
ढीले हो जाए
तो बैलगाड़ी का
चलना मुश्किल
हो जाता है या
गङ्ढे में
अटकने लगते हैं
या रास्ते से
उतरने लगती
है। और यह
इसलिए भी
स्वाभाविक है
कि यह अंतिम
शरीर है।
परमज्ञानी
फिर दुबारा
शरीर में नहीं
आएगा। इसलिए
शरीर के साथ
जो थोड़ा—बहुत
संबंध बचा है,
बस उसको ही
पूरा करने
योग्य समय है
उसके पास। वह
थोड़ा—सा समय
पूरा हुआ कि
उसकी विदाई की
घड़ी आ जाएगी।
आध्यात्मिक
अनुभव को
उपलब्ध
व्यक्ति
परिपूर्ण रूप
से स्वस्थ नहीं
हो सकता।
स्वस्थ होने
का अर्थ, मैं
शारीरिक
स्वास्थ्य के
लिए कह रहा
हूं। उसका
शरीर एक खोल
रह जाता है।
वह उसके भीतर
है जरूर, मगर
वे पुराने
लगाव गए, वे
पुराने
खिंचाव गए, वे पुरानी
रस्सियां टूट
गई, वे
पुराने बंधन
सब शिथिल हो
गए।
रामकृष्ण
के जीवन में
महत्वपूर्ण
उल्लेख है जो
समझने योग्य
है। रामकृष्ण
प्रवचन देते
होते थे।
लेकिन बीच—बीच
में उठकर वे
घड़ी भर के लिए
जाते थे बाहर
और फिर लौट
आते थे। शिष्य
बड़े हैरान
होते थे। और जो
खास शिष्य थे, विवेकानंद
और दूसरे लोग,
उनको तो पता
कि मामला
क्या। है।
मामला यह था कि
हर थोड़ी—बहुत
देर में वे
जाकर झांक आते
थे चौके में
और पूछ आते थे
शारदा मणि से,
उनकी पत्नी
से कि आज क्या
बना है? ब्रह्मचर्य
चल रही है मगर
शारदा हलुआ
बना रही है और
हलुए की गंध आ
रही है तो
रामकृष्ण
कहते कि भई, जरा रुकना, मैं आया।
शारदा कहती कि
देखो परमहंस
देव, शह शोभनीय
नहीं है। लोग
क्या कहेंगे!
कि ब्रह्मचर्चा
छोटी पड़ जाती
है और हलुए का
अस्तित्व ज्यादा
महत्वपूर्ण
हो जाता है? और एक—आध बार
नहीं, तुम
दोत्तीन बार
उठ—उठकर आते
हो। और अब
धीरे—धीरे सभी
को पता चल गया
है कि तुम
जाते कहां हो।
तुम किचन में
जाते हो।
रामकृष्ण हंसते
और टाल देते।
लेकिन एक दिन
शारदा जिद पकड़
गयी और उसने
कहा कि यह
बदनामी मुझसे
नहीं सही जाती।
लोग आपसे तो
कुछ नहीं
कहते। हिम्मत
नहीं है कहने
की। लेकिन
मेरी जान खाए
जाते हैं कि कम
से कम तुम तो
उनकी पत्नी हो,
तुम तो
उन्हें समझा
सकती हो कि
कुछ भी बन रहा
है, तुम्हारे
लिए बन रहा
है। जरा धीरज
रखो। इतना समझाते
हो लोगों को
कि धीरज से
रहो, शांति
से रहो, अशांत
न बनो और तू
खुद जरा हलुए
की गंध हवा
में आयी कि
भागे।
रामकृष्ण
ने कहा, तू
नहीं मानती तो
मैं तुझे कह
देता हूं। जिस
दिन मैं नहीं
आऊंगा उस दिन
तू पछताएगी।
और जब शारदा
थाली लेकर आती
उनके भोजन के
लिए तो वे बच्चों
जैसा व्यवहार
करते। जल्दी
उठकर खड़े हो जाते
थाली में
देखने को कि
क्या—क्या बना
हुआ है। जो—जो
उन्हें ठीक
लगता वे उसे
चखकर भी देख
लेते। शारदा
कहती, तुम
थोड़ा तो धीरज
रखो। कम से कम
मुझे थाली तो
जमीन पर रख
लेने दो।
तुम्हारे लिए
पटिया बिछाया
है, उस
पटिए पर बैठो।
तुम्हें खड़े
होने की जरूरत
नहीं है। थाली
मैं खुद रख
रही हूं। आधा
मिनिट की देर
नहीं होगी। और
कोई यह देखेगा
तो क्या कहेगा!
रामकृष्ण ने
कहा, शारदा,
तू मानती
नहीं। जिस दिन
तू थाली लेकर
आएगी और मैं
अपने बिस्तर
पर करवट बदल
लूंगा दूसरी
तरफ और तेरी
थाली को नहीं
देखूंगा, समझ
लेना कि तीन
दिन और बचे
हैं मेरी
जिंदगी के।
शारदा समझी कि
वे मजाक कर
रहे हैं।
लेकिन
यही हुआ। एक
दिन शारदा
रामकृष्ण के
कमरे में
प्रविष्ट हुई
भोजन लेकर।
रामकृष्ण न तो
बिस्तर से उठे, न उन्होंने
भोजन में कोई
उत्सुकता ली,
वरन दीवार
की तरफ मुंह
कर लिया।
शारदा के हाथ से
थाली गिर पड़ी।
उसे याद आयी
वह बात जो
वर्षों पहले
रामकृष्ण ने
कही थी।
रामकृष्ण ने
कहा, अब
थाली के
गिराने न
गिराने से कुछ
भी न होगा। बस
तीन दिन और
हूं। और आज
तुझे कहता हूं,
क्यों तू
बार—बार पूछती
थी और मैं
चुपचाप रह
जाता था। आज
तुझे कहता हूं
कि मेरे बंधन
शरीर से छूट
गए हैं। किसी
तरह एक छोटे
से बंधन को, रस के बंधन
को, भोजन
के बंधन को
पकड़े हुए हूं
ताकि कितनी
देर इस घाट पर
रुक सकूं, मेरे
कुछ शिष्य जाग
जाए ताकि मैं
निश्चित विदा
हो सकूं। मेरी
नाव तो बहुत
दिन पहले की आ
चुकी है और
किनारे से
बंधी है। मुझे
तो पुकार आ
चुकी है कि
छोड़ो यह
किनारा, तुम्हारा
काम पूरा हो
चुका। लेकिन
मैं जानता हूं
कि शिष्य अभी
बच्चे हैं, अप्रौढ़ हैं।
उनमें से कोई
तो प्रौढ़ हो
जाए। और ठीक
तीन दिन बाद
रामकृष्ण की
सत्य हो गयी।
जिसके
जीवन में
समाधि का
अनुभव होता है
उसके सारे संबंध
क्षीण हो जाते
हैं। फिर उन
संबंधों को
करुणावश अगर
वह किसी तरह
खींचतानकर
बनाए रखे, तो ऐसी यह
मूढ़ दुनिया है
जिसका कोई
हिसाब नहीं।
उसके शिष्य ही
उस पर ऐतराज
उठाएंगे कि
बंद करो, यह
बात शोभा नहीं
देती। और
उन्हें पता
नहीं है कि यह
बात ही उस
आदमी को जिंदा
रखे है। वह
सांस ले रहा
है। और यह
उनके लिए है, उनकी करुणा
के लिए। उसका
खुद का काम तो
पूरा हो गया
है। जब खुद का
काम पूरा हो
गया तो शरीर
की कोई जरूरत
नहीं हैं। फिर
शरीर कैसे
स्वस्थ रह सकता
है? फिर
शरीर में
ऊर्जा का
प्रवाह अपने
आप बंद हो
जाता है। फिर
शरीर जगह—जगह
से अपने कमजोर
स्थानों से
बीमारियों को
प्रकट करने
लगता है।
रामकृष्ण को
गले का कैंसर हो
गया था। यह
जरा सोचने
जैसी बात है।
कोई जीवन की
गहरी बातों पर
सोचता ही नहीं
है। क्योंकि
यह आदमी भोजन
के कारण अपने
को रोके हुए
था। नाव
किनारे आ लगी
थी उस पार ले
जाने को। और
इस आदमी ने
तरकीब निकाल
ली थी। के
कारण अपने को
रोकने की।
अस्तित्व
बड़ा
रहस्यपूर्ण
है। रामकृष्ण
के गले को
कैंसर हो गया।
वे पानी भी
नहीं पी सकते
थे, खाना भी
नहीं खा सकते
थे। वह आखिरी
बंधन को तोड़ने
का उपाय था।
क्योंकि नहीं
तो वे नाव पर
सवार ही नहीं
होंगे। सबने उनसे
प्रार्थना की
कि आप तो उस
अवस्था में
हैं कि अगर
अस्तित्व को
कह दें कि हटा
लो इस कैंसर को,
तो यह हट
जाएगा। क्यों
हमें नष्ट कर
रहे हैं? उनके
भक्त, उनके
प्रेमी, उनके
शिष्य, दिन—रात
भजन में, कीर्तन
मग, संकीर्तन
में संलग्न थे
कि किसी तरह
रामकृष्ण का
गले का कैंसर
दूर हो जाए।
और उस समय तक
तो कैंसर का
कोई इलाज भी न
था, कोई
आपरेशन भी न
था। आखिर फिर
उन्होंने
शारदा को कहा
कि तुम्हीं
कहो। वे कुछ
सुनते नहीं।
हम कहते हैं, वे
मुस्कुराते
हैं। शारदा ने
कहा, एक
बात तो इनकी
मान लो।
इन्होंने
जिंदगी भर
तुम्हारी
मानी है। इन
सबकी कम से कम
एक बार तो मान
लो। एक बार
अस्तित्व से
कहो कि हटा लो
इस कैंसर को।
और मैं यहां से
नहीं हटूंगी।
मैं यहां खड़ी
हूं। आंख बंद
करो और कहो
अस्तित्व से,
कि हटा लो
इस कैंसर को।
रामकृष्ण ने
आंख बंद की, थोड़ी देर बाद
आंख खोली, हंसे
आर शारदा से
बोले, शारदा
मैंने कहा।
तेरी बात नहीं
टाल सकता हूं।
क्योंकि
शारदा जैसी
पत्नी पाना
बहुत मुश्किल
है। लेकिन
अस्तित्व से
उत्तर आया कि
कब तक इसी गले
पर निर्भर
रहोगे? यह
शरीर तो छूटना
ही है। आज
नहीं कल, कल
नहीं परसों।
अब जिनको तुम
प्रेम करते हो
उनके गलों से
भोजन करो, उनके
गलों से पानी
पीओ। अब इस
गले का मोह
छोड़ो। यह अपना
और तुम्हारा,
अब यह भेद
छोड़ो। अब बोले,
शारदा से
उन्होंने कहा,
मैं क्या
कहूं? अब
मुझे और
लज्जित मत
करवा। उसी रात
उनके प्राण
निकल गए।
लेकिन वे यह
कह गए कि याद
रखना, मैं तुम्हारे
गलों का उपयोग
करूंगा। आखिर
तुम्हारे गले
भी तो मेरे
गले हैं। आखिर
हम सब जड़े हैं।
और मेरी नाव
को मैंने बहुत
देर तक रोका
है। और जरूरी
था कि कोई
उपाय किया जाए
कि मैं नाव को
न रोक सकूं।
और अस्तित्व
हमेशा ईजादें
कर लेता हैं।
आदमी
को औकात कितनी
है? अस्तित्व
के सामने आदमी
की ताकत कितनी
है?
तो
अब मैं चलूं
और पता लगाऊं
कि क्या भोजन
बन रहा है!
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