दिनांक:
15 अगस्त, 1986,
सुमिला, जुहू,
बंबई
प्रश्नसार—
1—इस
देश में ध्यान को गौरी शंकर की ऊँचाई मिली। शिव, पतंजलि,महावीर, बुद्ध, गोरख जैसी
अप्रतिम प्रतिभाएं साकार हुई। फिर भी किस कारण से ध्यान को प्रति आकर्षण कम होता
गया?
2—उस
दिन आपने कहा कि मैं अराजकवादी हूं, अनार्किस्ट हूं। इसे स्पष्ट
करने की कृपा करे।
अपराध,दंड ओर
अपाराध—भाव की समस्याएं समय ओर स्थान के भेद से बदलती रहती है। लेकिन वे किसी ने
किसी रूप में सदा ओर सर्वत्र मनुष्य का पीछा करती है। क्या इन पर प्रकाश डालने की
अनुकंपा करेंगे?
प्रश्न: इस देश में ध्यान
को गौरीशंकर की ऊंचाई मिली। शिव, पतंजलि, महावीर,
बुद्ध, गोरख जैसी अप्रतिम प्रतिभाएं साकार
हुई। फिर भी किस कारण से ध्यान के प्रति आकर्षण कम होता गया?
मैं अभी—अभी मेंहदी
हसन की एक गजल सुन रहा था
कोंपलें फिर फूट आईं शाख
पर,
कहना उसे न वो समझा है, न समझेगा,
मगर कहना उसे...
कोंपलें फिर शाख पर फूट
आईं।
संन्यास का यह प्रवाह:
कोंपलें फिर शाख पर फूट आईं
इस देश में ध्यान कभी मरा
नहीं। कभी भूमि के ऊपर और,
कभी भूमि के भीतर, मगर उसकी गंगा बहती रही सतत,
सनातन, आज अभी बहती है, कल
भी बहेगी और यही एक आशा है मनुष्य की। क्योंकि जिस दिन ध्यान मर जाएगा, उस दिन आदमी भी मर जाएगा। ध्यान में ही आदमी के प्राण हैं। चाहे तुम्हीं श्वासों
के भीतर जो छिपा है और तुम्हारी धड़कनों के भीतर जो छिपा है, तुम
जो हो, वह ध्यान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।
लेकिन प्रश्न महत्वपूर्ण
है।
इस देश ने जगत को अगर कुछ
दिया है, इसका अगर कोई अनुदान है तो वह सिर्फ ध्यान है। फिर चाहे पतंजलि में चाहे
महावीर में, चाहे बुद्ध में, चाहे कबीर
में, चाहे नानक में—नाम बदलते रहे होंगे, लेकिन दान नहीं बदला। अलग—अलग लोगों से, अलग—अलग आवाज़ों
में एक ही पुकार, एक ही आवाज हम जगत को देते रहे हैं,
और हैं और वह ध्यान की। इसलिए स्वभावतः यह प्रश्न उठता है कि
गौरीशंकर की ऊंचाइयों को लेने के बाद, गौतम बुद्ध की
ऊंचाइयों को पहचान लेने के बाद, फिर ध्यान के प्रति इतनी
अरुचि भारत के जनमानस में क्यों फैल गई?
देखने में विरोधाभास मालूम
होता है। लेकिन मनुष्य का मनोविज्ञान ऐसा है। जो चीज पा ली जाती है, साधारण
मनुष्य के मन में उसकी चुनौती समाप्त हो जाती है। अहंकार को चुनौती उसमें, जो पाया नहीं जाता, जिसे पाना बड़ा मुश्किल है। समझना,
थोड़ा बारीक है। हमने देखे महावीर, हमने देखे
बुद्ध, हमने देखे पार्श्वनाथ, कबीर और
नानक और फरीद और हजारों फकीर। जनमानस में एक बात अचेतन में प्रविष्ट हो गई कि यह
ध्यान तो कुछ ऐसी चीज है, कोई भी पा लेता है। इसे पा लेना
कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। यह फरीद ने पा ली, यह कबीर ने,
जुलाहे ने पा ली, यह रैदास चमार ने पा ली।
अहंकार को चुनौती मिट गई। धन मुश्किल मालूम पड़ता है, ध्यान
आसान मालूम पड़ने लगा। लोग धन के पीछे दौड़ने लगे, लोग पद के
पीछे दौड़ने लगे, लोग प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ने लगे, जो मुश्किल है उसमें चुनौती है, उसमें अहंकार को
भरने की क्षमता है। जो सहज है, जो सुगम है अहंकार के लिए,
उसमें कोई आकर्षण नहीं रह जाता। अनेक लोगों के ध्यान के जगमगाते
जयोतिर्मय व्यक्तित्वों ने आम जनता के मन से ध्यान की चुनौती छीन ली। और यूं लगा
कि आज नहीं कल पा लेंगे, और कल नहीं तो अगले जन्म में पा
लेंगे, ऐसी कोई जल्दी नहीं है। जीवन के क्षणभंगुर सुख पता
नहीं कल मिलें न मिलें; जवानी आज है, कल
भी होगी, इसका कोई भरोसा नहीं। भरोसा तो इसी का है कि कल
नहीं होगा। ध्यान कल भी कर लोगे तो चलेगा। यह तो जवानी, ये
जो जवानी की उठती हुई तरंगें—इन्हें तो आज पूरा कर लो। और ध्यान तो उनको भी मिल
जाता है जिनके पास कुछ भी नहीं।
नग्न महावीर के पास तुमने
ध्यान की ज्योति देखी,
जूते सीते हुए रैदास के पास हमने ध्यान की आभा देखी। लोगों के मन से
ध्यान का आकर्षण जाता रहा। ऐसा लगा कि यह तो कुछ बात ऐसी है कि कभी भी पा लेंगे।
लेकिन धन, पद प्रतिष्ठा—इस जगत की जो अनेक—अनेक
महत्वाकांक्षा की दौड़ें हैं, ये इतनी आसानी नहीं। बड़ी
प्रतियोगिता, बड़ी गलाघोंट प्रतियोगिता है। इंच—इंच लड़ना,
तब कहीं कोई एक व्यक्ति जाकर करोड़ों व्यक्तियों में देश का
राष्ट्रपति बन सकेगा। अहंकार का मजा यही है—कि मैं सबके ऊपर उठ जाऊं। और ध्यान की
मुश्किल यह है कि ध्यान कहता है, जो मजा सब के पीछे बैठे
रहने में है, वह सब के ऊपर उठ जाने में नहीं। वहां कोई
प्रतियोगिता नहीं, वहां कोई तुम्हें धक्का देकर ध्यान में
तुमसे आगे नहीं निकल सकता, क्योंकि बात बहार की नहीं है,
बात भीतर की है। वहां तुम बिलकुल अकेले हो। न कोई प्रतियोगिता है,
न कोई संघर्ष है, न कोई छीना—झपटी है। अहंकार
को कोई मजा नहीं। अहंकार को मृत्यु का डर है। अगर ध्यान में फूल लगे तो अहंकार
मरा। अगर ध्यान की ज्योति जली तो अहंकार का दीया बुझा। ये दोनों चीज एक साथ घटित नहीं
हो सकतीं। इनका कोई सह—अस्तित्व नहीं है। या अहंकार या ध्यान। और ध्यान तुम्हारे
भीतर है और अहंकार का विस्तार यह सारे जगत में है। अहंकार के बड़े प्रलोभन हैं।
ध्यान का प्रलोभन भी क्या?
अहंकार बड़े आश्वासन देता
है, पूरे कभी नहीं करता, कर सकता नहीं। अहंकार बिलकुल
नपुंसक है।
मैंने एक कहानी सुनी है।
एक आदमी को शिव की पूजा करते—करते और रोज शिव का सिर खाते—खाते...क्योंकि पूजा और
क्या है, सिवाय सिर खाने के। एक ही धुन, एक ही रट हे प्रभु,
कुछ ऐसी चीजें दे दो कि जिंदगी में मजा आ जाए। एक ही बार मांगता
हूं। मगर देना कुछ ऐसा कि फिर मांगने को ही न रह जाए। परेशानी में, हैरान होकर, क्योंकि सुबह देखे न सांझ यह आदमी,
न देखे रात, जब उठे तभी, आधी रात शिव के पीछे पड़ जाए। आखिर इसे वरदान में एक शंख शिव ने उठाकर दे
दिया जो उन्हीं के पूजा स्थल में इसने रख छोड़ा था। और इसको कहा इस शंख की आज से यह
खूबी है कि तुम इससे जो मांगोगे, तुम्हें देगा। अब तुम्हें
कुछ और परेशान होने की जरूरत नहीं और पूजा—प्रार्थना की जरूरत नहीं। अब मुझे
छुट्टी दो। जो तुम्हें चाहिए,वह इससे ही मांग लेना। यह
तत्क्षण देगा। तुमने मांगा और मौजूद हुआ। उसने मांगकर देखा, सोने
के रुपए और सोने के रुपए बरस गए। धन्यभाग हो गया। शिव न भी कहते तो भूल जाता। भूल—भाल
गया शिव कहां गए, क्या हुआ, उन बेचारों
पर क्या गुजरी, इस सब की कोई फिकर भी न रही। फिर न कोई पूजा
थी, न कोई पाठ। फिर तो यह शंख था और जो चाहिए।
लेकिन एक मुसीबत हो गई। एक
महात्मा इसके महल में मेहमान हुए। महात्मा के पास भी एक शंख था। इसके पास जो शंख
था बिलकुल वैसा,
लेकिन दो गुना बड़ा। और महात्मा उसे बड़े संभाल कर रखते था। उनके पास
कुछ और न था। उनकी झोली में बस एक बड़ा शंख था। इसने पूछा कि आप इस शंख को इतना
सम्हाल कर क्यों रखते हैं? उन्होंने कहा, यह कोई साधारण शंख नहीं, महाशंख, है। मांगों एक, देता है दो। कहो, बना दो एक महल—दो महल बताता है। एक की तो बात ही नहीं। हमेशा।
उस आदमी को लालच उठा। उसने
कहा यह तो बड़े गजब की बात है। उसने कहा एक शंख तो मेरे पास भी है मगर छोटा मोटा।
आपने नाहक मुझे दीन—दुखी बना दिया। मैं गरीब आदमी हो गया। जरा देखूं चमत्कार।
उन्होंने कहा, इसका
चमत्कार देखना बड़ा मुश्किल है। रात के सन्नाटे में जब सब सो जाते हैं, तब निश्चित महूर्त में, अर्धरात्रि के सन्नाटों में
इससे कुछ मांगने का नियम है। तुम जागते रहना और सुन लेना।
महात्मा शंख से ठीक
अर्धरात्रि में कहा,
दे दे कोहिनूर। उसने कहा, एक नहीं दूंगा,
दो दूंगा। महात्मा ने कहा, भला सही दो दे दे।
उसने कहा, दो नहीं चार। किससे बात कर रहा है, कुछ होश से बात करो! महात्मा ने कहा, भई चार ही दे
दे। वह महाशंख बोला, अब आठ दूंगा। उस आदमी ने सुना, उसने कहा, हद हो गई, हम भी
कहां का गरीब शंख लिए बैठे हैं! महात्मा के पैर पकड़ लिए। कहा आप तो महात्मा हैं,
त्यागी व्रती हैं। इस गरीब का शंख आप ले लो, यह
महाशंख मुझे दे दो।
महात्मा ने कहा, जैसी
तुम्हारी मर्जी। हम तो इससे छुटकारा पाना ही चाहते थे। क्योंकि इस बेईमान ने हमें
परेशान कर रखा है। मांगो कुछ, बकवास इतनी होती है, रात—रात गुजर जाती है। फिर भी वह न समझा कि मामला क्या है कि वह सिर्फ
महाशंख था, कि वह सिर्फ बातचीत करता था, देता—वेता कुछ भी नहीं था। हमेशा संख्या दोहरी कर देता था। तुम कहो चार तो
वह कहे आठ, तुम कहो आठ तो वह कहे सोलह। तुम कहो सोलह सही,
वह कहे बत्तीस। तुम बोले संख्या कि उसने दो का गुणा किया। बस उसको
दो का गुणा करना ही आता था। और उसको कुछ नहीं आता था।
महात्मा तो सुबह चले गए।
जब इसने उस शंख से दूसरी रात्रि ठीक मुहूर्त में कुछ मांगा तो उसने कहा,अरे
नालायक! क्या मांगता है एक? दूंगा दो। उसने कहा, भई दो दे दो। उसने कहा, दूंगा चार। चार ही दे दो।
उसने कहा, दूंगा आठ। सुबह होने लगी। संख्या लंबी होने लगी।
मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए कि यह हो क्या रहा है? सारा
मोहल्ला जग गया कि मामला क्या है संख्या बढ़ती जाती है, लेना—देना
कुछ भी नहीं। आखिर उस आदमी ने पूछा, भई दोगे भी कुछ कि
बातचीत ही बातचीत।
उसने कहा, हम तो
महाशंख हैं। हम तो गणित जानते हैं। तुम मांगकर देखो। तुम जो भी मांगो, हम दो गुना कर देंगे। इसने कहा, मारे गए। वह महात्मा
कहां है?
उसने कहा, वह महात्मा
हमसे छुटकारा पाना चाहता था बहुत दिन से। मगर वह इस तलाश में था कि कोई असली चीज
मिल जाए। वह ले गया असली चीज। अब ढूंढ़ने से न मिलेगा। हम मिला दे सकते हैं। पैर तो
नहीं शंख के। मगर फिर भी पैरों को पकड़कर सिर रखकर कहा कि किसी भी तरह महात्मा से
मिला दो। कहा, दो से मिलाएंगे। कहा कि हद हो गई। नालायक से
पाला पड़ गया। चार से मिलाएंगे। फिर वही बकवास। दो—चार दिन में उस आदमी को पागल कर
दिया। शंख ने उससे पूछा कि अरे कुछ मांग। वह आदमी इधर—उधर देखे कि कुछ बोले कि यह
दुष्ट फंसाया अपने चक्कर में। बोले कि फंसे। फिर उससे छूटना मुश्किल। फिर पीछा
करता आएगा—बत्तीस लेगा? चौंसठ लेगा? लेना—देना
बिलकुल कुछ होता ही नहीं।
ध्यान और अहंकार के बीच
वही संबंध है। अहंकार महाशंख है। कितना ही मिल जाए और चाहिए। संख्या बढ़ती जाती है।
दौड़ बढ़ती जाती है। और आदमी कभी उस जगह नहीं पहुंचा, जहां वह कह सके—आ गई मंजिल।
मंजिल हमेशा मृग—मरीचिका बनी रहती है। दूर ही दूर। यात्रा बहुत, पहुंचता कहीं भी नहीं। मगर दौड़—धाप बहुत होती है। और चूंकि सारी दुनिया
दौड़—धाप कर रही है, इसलिए संघर्ष भी बहुत है। और यह भी मानने
का मन नहीं होता कि इतने सारे लोग गलत होंगे। ध्यान के लिए तो कोई भी बैठता है।
तुमने खयाल किया एक शब्द
पर—बुद्धू? वह बुद्ध से बना है। जो लोग आंख बंद करके बैठ जाते हैं लोग उनको कहते हैं,
देखा इस बुद्धू को। बुद्ध बनने चले! बुद्ध बनने चले, बुद्धू बनकर रह जाते। और अपने को पा भी लोगे अगर...अहंकार बहुत तर्कनिष्ठ
है। पूछता है अपने को पा भी लोगे तो क्या खाक पा लिया। अरे तुम अपने को तो पाए ही
हुए हो। पाना उसे है, जो दूर है। उसे क्या पाना, जो तुम हो ही? और बात तर्क की है। बुद्धि को समझ में
आती है। जो मिला ही है, जो जन्म से ही है, जो स्वभाव ही है, उसे क्या खाक पाना! नाहक समय
गंवाना। उसे पाने चलो जो दूर है। चांद पर चलो। एवरेस्ट पर चढ़ो।
एवरेस्ट पर चढ़ने का मजा
क्या होगा? एडमंड हिलेरी को एवरेस्ट की चोटी पर खड़े होकर क्या मजा मिला होगा?
मैंने तो कहानी सुनी है, भरोसे
योग्य तो नहीं हैं, लेकिन मन करता है कि भरोसा कर लूं कि जब
एवरेस्ट पर एडमंड हिलेरी, नेतसिंग और अपनी फौज को लेकर
पहुंचे तो वहां देखा कि एक साधु महाराज पहले से ही चिलम फूंक रहे हैं। अपनी खोपड़ी
ठोंक ली एडमंड हिलेरी ने कि मर गए। हिलेरी के पहले कम से कम सौ यात्रीदल मर चुके
थे। जिनका कोई पता भी न चला कि वे कहां गए, किन बर्फीले
तूफानों में खो गए। यात्रा कठिन थी। बामुश्किल किसी तरह पहुंच पाया यह आदमी और इधर
ये महाराज चिलम पी रहे हैं! हद हो गई। पास बैठकर गौर से देखा कि आदमी है कि कोई
भूतप्रेत है कि—क्योंकि न कोई साज—समान है, जो एवरेस्ट पर
पहुंचने के लिए जरूरी है, सिर्फ एक चमीटा गड़ा रखा है। चिलम
हाथ में है, और धुन में ऐसे हैं कि आंख बंद है। सोचा कि कोई
बहुत बड़े महात्मा हैं, सिद्ध पुरुष हैं। शायद सिद्धि के बल
पर यहां पहुंच गया हो। एकमंड हिलेरी उसके पैरों पर गिर पड़। पैरों पर गिर पड़े तो
महात्मा की जरा झपकी खुली। उन्होंने आंख खोली जरा गौर से देखा। मामला क्या है?
हिलेरी की चमकती हुई घड़ी पर नजर पड़ी। कहा, बच्चा,
घड़ी के क्या लेगा? बहुत दिन से तलाश थी एक
अच्छी घड़ी की। वक्त पर आ गया। एडमंड हिलेरी ने कहा, महाराज
घड़ी यूं ही ले लें मगर यह बताएं कि आ यहां पहुंचे कैसे?
उस साधु ने कहा... उसने कहा
मैं कैसे पहुंचा?
यही बात मैं तुमसे पूछने वाला था कि तुम यहां कैसे पहुंचे? मुझे तो लोग बुद्धू कहते थे, गांव का गंवार कहते थे।
मैं तो यह सिद्ध करने पहुंचा था यहां कि लो एवरेस्ट पर चढ़ने वाला मैं पहला आदमी
हूं। इतिहास बनाता हूं। न सही, इतिहास पढ़ा नहीं पढ़ा, मगर इतिहास बनाया। तुम कैसे पहुंचे?
एडमंड हिलेरी ने कहा कि
तुमने तो मेरे राज की बात कह दी। यही तो भाव अपना भी है। इतिहास बनाया—सब से पहला
आदमी। भैया तुम किसी और को मत बताना कि तुम पहले से चमीटा गाड़ें दम मार रहे थे।
तो उसने कहा, तुम फिकर
मत करो। ऐसे कई आए और गए। हम तो यहीं चमीटा गाड़ें और दम मारते रहते हैं। और किसको
याद रहता है दस दम के मारे कि कौन आया कौन गया। अब घड़ी दे दो और रास्ता लगो।
एवरेस्ट पर चढ़ने का क्या
रस हो सकता है?
एवरेस्ट पर चढ़ने की सारी कठिनाई आदमी उठा सकता है, लेकिन अपने भीतर जाने की जरा सी कठिनाई उठाने को तैयार नहीं। चांद पर जा
सकता है, जिंदगी को हाथ में लेकर। अभी—अभी जो अंतरिक्ष में
जा रहे थे, सात लोग बीच में ही समाप्त हो गए। लेकिन अपने
भीतर जाने की बात अहंकार को रुचती नहीं।
तुमने पूछा है—भारत में
ऊंचाइयां छुई हैं ध्यान की,
फिर क्या हुआ, फिर कौन सी दुर्घटना घटी,
फिर भारत के मानस में ध्यान के प्रति क्यों अरुचि हो गई?
तुमने पूछा है—भारत ने
ऊंचाइयां छुई हैं ध्यान की,
फिर क्या हुआ, फिर कौन सी दुर्घटना घटी,
फिर भारत के मानस से ध्यान के प्रति क्यों अरुचि हो गई?
उन शिखरों को छू लेने के
कारण ही। जब इतने लोगों ने शिखर छू लिए, तो भारत के अहंकार को अब उस दिशा
में जाने के लिए कोई आकांक्षा न रही। इसलिए भारत जिस बुरी तरह भौतिकवादी हो गया आज,
जमीन पर कोई भी देश इतना भौतिकवादी नहीं है। यूं हम लाख बातें
अध्यात्म की करते हों, लेकिन हमारा सारा अध्यात्म सिर्फ बकवास
है। महाशंख की बकवास। यथार्थ में हम निपट भौतिकवादी हैं। पांच वर्ष पश्चिम के सारे
देशों में घूमने के बाद अब मैं यह बात अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि इतना
भौतिकवादी समाज दुनिया में और कहीं भी नहीं है। जिस जोर से तुम पैसे को पकड़ते हो,
उतने जोर से पैसे को कोई भी नहीं पकड़ता। लोग पैसे को खर्च करते हैं,
पकड़ते नहीं। लोग पैसे को जीते हैं, जकड़ते
नहीं। लोग पैसे का उपयोग करते हैं, तुम तिजोड़ियों में बंद
करते हो। पैसा तिजोड़ियों में बंद है या तिजोड़ी खाली है, इससे
क्या फर्क पड़ता है। तुम कभी उसका उपयोग तो करोगे नहीं।
मैंने सुना है—एक आदमी के
पास दो सोने की ईंटें थी। उसने बगीचे में उनको गड़ा रखा था। गड़ा तो रखा था, लेकिन जान
वहीं लगी रहती थी। दिन में दो—चार बार वहां चक्कर लगा आता था। रात भी नींद नहीं
आती थी। पत्नी बहुत बार कहे कि मामला क्या है जी? जब देखो तब
चले—और उसी कोने में मरते हो। वहीं तुम्हारी कब्र खुदवा दूंगी। और क्या देखने जाते
हो? मुझको तो वहां कुछ दिखाई पड़ता नहीं। अब वह बोले भी तो
क्या बोले? वह तो गड़ी हुई ईंटें देखने जाता था। किसी ने
उखाड़े तो नहीं। कोई गड़बड़ तो नहीं, कोई आशंका तो नहीं। आखिर
पत्नियां भी तो कोई पत्थर तो नहीं हैं, कब तक यह खेल रोज
देखती?
एक दिन भैया छुट्टी पर गए
थे। क्या खाक छुट्टी पर गए होंगे। खयाल तो ईंटों का ही बना था। पत्नी ने मौका
खुदाई करवायी—दो सोने की ईंटें! उसने कहा, अरे! राज हाथ में आ गया। ईंटें तो
उसने निकाल लीं। दो साधारण ईंटें उनकी जगह रखकर गङ्ढा पुरवा दिया। ठीक—ठीक,
जैसा था वैसा ही स्थान बनवा दिया।
पतिदेव लौट भी आए। अब भी
दिन में चार चक्कर लगाना! रात में कितने चक्कर लगाना—वह चलता रहा। और जब भी वह
जाएं तो पत्नी हंसे। उन्हें बड़ी हैरानी हुई, क्योंकि पहले तो वह बहुत नाराज
होती थी, गालियां बकती थी। उल्टी—सीधी बातें कहती थी—तुम्हारी
खोपड़ी तो दुरुस्त है? तुम काहे के लिए वहां जाते हो? उस कोने तुम्हारे बाप—दादा गड़े हैं? अब देखो चुप
रहती है और सिर्फ मुस्कुराती है! हंसी को दबाती है! कुछ राज समझ में आता नहीं।
यह कुछ महीने चला। एक दिन
शक हुआ कि मामला कुछ ज्यादा ही है। क्योंकि पत्नी अब बात ही नहीं करती उस कोने की।
छह दफे जाओ, बारह दफे जाओ, रात भर वहीं बैठे रहो, वह मजे से सोती है। से उसने खोद कर देखा। ईंटें तो मिलीं, मगर सोने की न थीं। तब राज समझ मग आया। लौटकर अंदर आया और पत्नी से कहा,
क्यों...ईंटें कहां है?
पत्नी ने कहा, तुम्हें
क्या फर्क पड़ता है? खर्च तो करनी नहीं। गड़ाकर रखनी हैं। सो
सोने की हैं कि मिट्टी की हैं—क्या भेद? तुम्हें तो चक्कर
लगाने हैं, सो लगा आओ। रही सोने की ईंटों की बात, सो खर्चा हो चुका।
स्त्रियां खर्चा करना
जानती हैं। पतिदेव को देखो तो लगता है कि भीख मांगते हैं या क्या करते हैं। पत्नी
को देखो तो राजरानी बनी है। दोनों को साथ देखो तो साफ समझ में आ जाता है कि इनके
कारण ये भिखमंगे हो रहे हैं, इनके कारण यहां राजरानी बनी है। यह समझौता है।
ऐसे दोनों चक्के साथ—साथ चलते हैं। बैलगाड़ी चल रही है।
लेकिन उस आदमी को बड़ा बोध
हुआ। यह सोचकर कि वह महीनों से मिट्टी की ईंटों के चक्कर काट रहा है! बात सिर्फ
मान्यता की थी। समझता था सोने की हैं। उस रात चक्कर काटना चाहा, लेकिन
काटने का कोई मतलब न रहा।
इस देश में लोग पैसे को
दबाकर रखते हैं और सोचते हैं, अध्यात्मवादी हैं, क्योंकि
खर्चा नहीं करते। पश्चिम में लोग जो कमाते हैं, नरक में
सड़ेंगे। और तुम, तुम अपनी भारी तिजोड़ी लिए एक दम स्वर्ग में
चले जाओगे। तुम यहां भी सड़ रहे हो, वहां भी सड़ोगे। वे कम से
कम यहां तो मजा ले रहे हैं। आगे की आगे देखी जाएगी। अभी इतनी जल्दी भी क्या है।
भारत ने ध्यान के शिखर
छुए। यही भारत का दुर्भाग्य हो गया। कभी—कभी सौभाग्य दुर्भाग्य बन जाता है। मुझसे पश्चिम में
वैज्ञानिकों ने,
डाक्टरों ने, सर्जनों ने, संगतीज्ञों ने साहित्यकारों ने, न मालूम कितने लोगों
ने यह पूछा कि जब भी हम आपसे मिलने आए तो भारतीय लोगों ने, जो
हमसे परिचित थे, जिनके यहां हम मेहमान हुए थे, हमारी हंसी उड़ाई, खिल्ली उड़ाई—क्या तुम ध्यान के
पीछे पड़े हो। क्या रखा है ध्यान में? सारा पूरब तो पश्चिम जा
रहा है सीखने विज्ञान। और तुम भी एक छटे पागल हो—तुम्हें धुन चढ़ी है ध्यान की! और
हमने इस देश में ध्यान के बड़े—बड़े शिखर भी देखे तो क्या फायदा हुआ? लोग तो भूखों मर रहे हैं। तुम्हें भी भूखों मरना है? अभी लौट जाओ। कुछ बिगड़ा नहीं।
भारत के मन में—वह जो
विशाल भारत की जनता है उसके मन में—ध्यान की जगह और चीजों ने ले रखी है। धन में
उसे रस है, पद मग उसे रस है, प्रतिष्ठा में उसे रस है। और आज
पश्चिम में ध्यान के प्रति विराट रस पैदा हुआ है।
संन्यासियों ने जो कम्यून
अमरीका में खड़ा किया था,
उसके अमरीका की सरकार के मिटाने के पीछे और कोई राज नहीं, सिर्फ एक राज था। और वह यह था कि कम्यून अमरीका की प्रतिभा को अपनी ओर
आकर्षित कर रहा था। जितने प्रतिभाशाली लोग थे, वे किसी न
किसी रूप में कम्यून के प्रति आकर्षित हो रहे थे। और कम्यून—एक भय अमरीका की सरकार
के मन में पैदा करने लगा कि अगर लोग इस तरह बैठकर शांत ध्यान करने लगे तो तीसरे
महायुद्ध का क्या होगा? अगर लोग ध्यान से भर कर प्रेम से भर
गये तो वह जो अमरीका का साम्राज्य सारी दुनिया में फैला हुआ है, उसका क्या होगा? अगर लोगों के मन में पद, प्रतिष्ठा और धन की दौड़ न रही, तो अमरीका की जो आज
ताकत है, डालर, वह हवा में विलीन हो
जाएगा। एक छोटी सी कम्यून पांच हजार लोगों की, उनके लिए इतनी
ज्यादा कष्टप्रद हो गई कि उसे हर हालत में मिटाना है, उसे
बिलकुल नेस्तनाबूद कर देना है। बुलडोजर चलवा कर, जहां कम्यून
था वहां पुराना रेगिस्तान वापस ले आना है। रेगिस्तान को हमने पांच साल मेहनत करके
एक मरूद्यान बना दिया था। उस मरूद्यान को मिटा देना है।
जिस दिन मैं कम्यून में
पहले दिन पहुंचा था,
वहां एक पक्षी नहीं था। ऐसा प्रतीत होता है कि पक्षी और जानवर आदमी
से ज्यादा समझदार हैं। धीरे—धीरे पक्षी आने शुरू हो गए। धीरे—धीरे हिरणों के झुंड
के झुंड आने शुरू हो गए। और हिरण तुमने भी देखे होंगे। मैंने भी देखे हैं। लेकिन
कम्यून में हिरणों ने जो समझ दिखलाई, वह हैरानी की थी। बीच
रास्ते पर खड़े होंगे, तुम कार का हार्न बजाए जाओ, वे हटने वाले नहीं। उन्हें मालूम है कि ये उन लोगों की जमात है, जो किसी को चोट नहीं पहुंचाते। उतरो नीचे गाड़ी से, धक्के
दो उनको, तब वे रास्ता छोड़ेंगे। और चूंकि अमरीका में हिरणों
को मारने के लिए हर साल दस दिन के लिए छुट्टी मिलती है। उन दस दिनों में जितने
हिरण तुम्हें मारने हो, मार सकते हो। तो आसपास जितने दूर—दूर
से हिरण आ सकते थे, वे सब कम्यून में आ गए। कम्यून के पास
जगह थी। कोई १२६ वर्गमील जगह थी। हजारों हिरण अपने आप चले आए। जैसे कोई आंतरिक
संदेश है। कि यहां कोई फिकर नहीं। यहां उन्हें कोई पत्थर भी मारने वाला नहीं है।
यहां उन पर गोली नहीं चलेगी।
कम्यून ने अमरीका का कोई
भी नुकसान नहीं किया था। सिर्फ एक मरुस्थान को जीवित मरूद्यान बनाया। लेकिन यही
तकलीफ की बात हो गई,
क्योंकि जो लोग वहां थे, वे ध्यान के लिए
इकट्ठे हुए थे। और अगर ध्यान अमरीका की प्रतिभा को पकड़ ले—और निश्चित पकड़ लेना,
कम्यून के मिटने से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि
अमरीका ठीक उस अवस्था में है, जो हमसे उल्टी है। उन्होंने धन
के शिखर छू लिए हैं। अब धन में वहां आकर्षण नहीं है। इसलिए ऊपर से तुम्हें दिखाई
पड़ता है कि उनके पास इतना धन है। लेकिन धन में वहां किसी को आकर्षण नहीं है।
कम्यून में ऐसे संन्यासी थे, जिन्होंने एक करोड़ रुपया दान दे
दिया, जो कि उनकी पूरी संपत्ति थी। एक पैसा भी पीछे नहीं
बचाया कि कल क्या होगा। दो सौ करोड़ रुपए कम्यून के बनाने में सिर्फ संन्यासियों ने
दिए। हमने किसी और के सामने हाथ नहीं फैलाया और न किसी से भीख मांगी। दो सौ करोड़
रुपए देते वक्त किसी ने किसी से कोई आग्रह नहीं किया...लोगों के पास पैसा है। और
यह भी समझ में आ गया कि पैसे से जो भी खरीदा जा सकता है, वह
दो कौड़ी का है। कुछ और भी है, जो पैसे से नहीं खरीदा जा सकता
है। और अब उसी की तलाश है, उसी की प्यास है, उसी की खोज है, उसी की अभीप्सा है। ध्यान उस सबका
इकट्ठा नाम है। उसमें प्रेम जुड़ा है। उसमें करुणा जुड़ी है। ध्यान तो एक मंदिर है,
जिसके बहुत द्वार हैं। उसमें वह सब जुड़ा है, जो
पैसे से नहीं खरीदा जा सकता।
पश्चिम में अपूर्व रूप से
ध्यान के प्रति आकर्षण है,
क्योंकि पश्चिम ने कभी भी ध्यान के शिखर नहीं छुए—न कोई गौतम बुद्ध,
न कोई कबीर, न कोई रैदास। पश्चिम की आत्मा
खाली है। हाथ भरे हैं, प्राण शून्य हैं। इस स्थिति ने पश्चिम
के मन में धन के प्रति एक विकर्षण पैदा कर दिया और भारत में ध्यान के प्रति एक
विकर्षण पैदा कर दिया।
जिंदगी का चक्र बहुत अदभुत
है। इस बात का बहुत डर है कि पूरब पश्चिम हो जाए और पश्चिम पूरब हो जाए।
भारतीय पार्लियामेंट में
विरोधी पार्टी के नेता के द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में संबंधित मंत्री ने
जवाब दिया था कि भगवान को या उनके किसी संन्यासी को भारत आने से नहीं रोका जाएगा।
यह अफवाह कि उनके संन्यासियों को भारत से रोका जाएगा, झूठी है।
मैंने कुछ संन्यासियों को अलग—अलग देशों में भारतीय राजदूतों में भेजा। एथेंस में
राजदूतावास में पूछा गया कि भारत किसलिए जाना चाहते हो? तो
जो संन्यासिन वहां गई थी, उसने कहा ध्यान करने के लिए। और
तुम हैरान होओगे कि उत्तर राजदूत ने यह दिया कि ध्यान, योग
इत्यादि के लिए अब भारत में कोई स्थान नहीं। हमें इस तरह के यात्री नहीं चाहिए।
जो युवती गई थी, उसे मैंने
खबर की कि तम राजदूत से कहो कि हमें लिखित उत्तर चाहिए। यह जो तुम कह रहे हो,
वह लिखित दो। मगर भारत की नपुंसकता ऐसी है कि लिखने की हिम्मत भी
नहीं, कि यह लिखकर हम नहीं देंगे। क्योंकि मैं चाहता था कि
लिखित उत्तर हो तो हम साबित कर सकेंगे कि पार्लियामेंट में जो मिनिस्टर बोला,
वह झूठा बोला। यहां रोज पुलिस सुबह से लेकर शाम तक चक्कर मार रही
है। दिन में चार—चार, पांच—पांच बार व्यर्थ सूरज प्रकाश को
परेशान कर रहे हैं—कि यहां कितने विदेशी ठहरे हुए हैं? अगर
तुम्हें विदेशियों को मेरे पास आने देने से कोई एतराज नहीं है, यह तुम पार्लियामेंट में कहते हो तो कुछ तो ईमान रखो। फिर यहां पुलिस
भेजने की क्या जरूरत? और विदेशियों से तुम्हें इतनी घबड़ाहट
क्या है? अगर वे ध्यान सीखने भारत आ भी रहे हैं तो तुम्हारी
तो उनके धन पर नजर होनी चाहिए। तुम्हें तो ध्यान से कुछ लेना—देना नहीं है। आर रहे
हैं तो कुछ धन खर्च करके ही जाएंगे। तो भारत के भिखमंगों की झोली में कुछ पैसे
डालकर ही जाएंगे।
लेकिन नहीं। कारण यह है कि
अमरीका जोर दे रहा है कि भारत किसी भी ध्यान सीखने के लिए न आने दिया जाए। क्योंकि
पश्चिम में एक घबड़ाहट है और वह घबड़ाहट यह है कि अगर लोग ध्यान में उत्सुक हो जाएं
तो वह जो फिजूल के कामों में उनको लगा रखा है, उनमें उनको अरुचि हो जाएगी। एक
अजीब हालत है दुनिया की। पश्चिम की आकांक्षा है कि ध्यान की यात्रा करे। वहां की
सरकारें उस आकांक्षा को रोकने की पुरी चेष्टा कर रही हैं। पूरब ने ध्यान के आकाश
को छुआ है, वह हमारी वसीयत है। सरलता से हम उसे वापस उपलब्ध
कर सकते हैं। लेकिन हम अपनी वसीयत को इंकार कर रहे हैं। हम जैसे अंधों की दुनिया
और दूसरी शायद ही हो और खास कर मेरे पास किसी को आने से रोकना निहायत अपराध है।
क्योंकि मैं संन्यास को संसार—विरोधी नहीं मानता और न ही ध्यानी को चाहता हूं कि
घर—द्वार छोड़कर हिमालय भाग जाए।
मेरी चेष्टा इतनी भिन्न है
पुरानी चेष्टाओं से कि शायद भारत के राजनीतिक नेता, या पश्चिम के राजनीतिक नेता
उसे समझने में समर्थ भी नहीं हैं। मेरी चेष्टा है कि तुम दोनों यात्राओं पर एक साथ
जा सकते हो। क्योंकि दोनों यात्राएं एक—दूसरे की दुश्मन नहीं हैं। ध्यान तुम्हें
भीतर ले जाता है और जितने तुम भीतर जाते हो, उतनी ही
तुम्हारी प्रतिभा निखरती है। और जितनी तुम्हारी प्रतिभा निखरती है, उतनी तुम बाहर की दुनिया में सफलता की यात्रा कर सकते हो। मैं बाहर और
भीतर को दुश्मन नहीं मानता। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए न तो भारत की
सरकार को मुझसे डरने की जरूरत है और न अमरीका या यूरोप की सरकारों को मुझसे डरने
की जरूरत है। मुझसे तो उन्हें बिलकुल निर्भय होना चाहिए। सच तो यह है कि अगर वे
मुझे रोकते हैं तो वे अपनी—अपनी कौम और अपने—अपने राष्ट्र के साथ गदारी कर रहे
हैं। और उन लोगों के हाथों में उन्हें धकेल रहे हैं, जो जीवन—विरोधी
हैं। वे चाहते हैं, उससे उलटा ही परिणाम होगा। उन्हें मेरी
अनूठी और अद्वितीय जीवन—शैली का कोई अंदाज नहीं। मैं यह कह रहा हूं कि ठीक संसार
में रहते हुए तुम ईश्वर के मंदिर बन सकते हो और फिर मंदिर जितना सुंदर बन सके,
सोने का बन सके, हीरे—जवाहरातों से जड़ा हुआ बन
सके, उतना अच्छा।
मेरे भीतर कोई विरोध नहीं
है बाहर और भीतर में हां,
अतीत में यह बात सच थी कि जो लोग बाहर रहने के लिए उत्सुक थे,
वे भीतर का विरोध करते थे। उनके दिन लद गए। अब उनके मरे हुए
संस्कारों को क्यों ढो रहे हो? और क्या दुनिया में कोई नई
बात नहीं होने दोगे?
मेरा प्रयोग नया है। इसे
किसी पुराने प्रयोग से जोड़ने की कोई जरूरत नहीं। मैं चाहता हूं प्रत्येक व्यक्ति
र्स्वांगीण रूप से समृद्ध हो। भीतर भी स्वर्ग का साम्राज्य हो और बाहर भी।
प्रश्न: भगवान श्री, उस दिन
आपने कहा, मैं अराजवादी हूं, अनार्किस्ट
हूं। इसे स्पष्ट करने की कृपा करें।
मैं व्यक्ति का
सम्मान करता हूं और व्यक्ति मेरे लिए अंतिम ईसाई है। उसकी स्वतंत्रता जीवन का परम
मूल्य है। इसलिए जितना कम उसके ऊपर संगीनों का दबाव हो, जितना कम
उसके ऊपर नियमों का दबाव हो, जितना कम उसके ऊपर दूसरों
द्वारा लादा हुआ अनुशासन हो, उतना शुभ। मैं व्यक्ति को मुक्त
देखना चाहता हूं। और मैं चाहता हूं कि व्यक्ति शिक्षण ऐसा मिले कि उसकी स्वतंत्रता
के साथ ही साथ उसके जीवन में उत्तरदायित्व के फूल भी खिलें।
राज्य की जरूरत क्या है? राज्य की
जरूर इसीलिए है कि व्यक्ति बेईमान हैं, व्यक्ति चोर है,
व्यक्ति हत्यारे हैं। जरा सोचो, राज्य की
जरूरत तुम्हारा अपमान है। जितना ज्यादा राज्य जरूरी है, उतनी
ही ज्यादा तुम्हारा अपमान है। सड़कों पर खड़े हुए सिपाही, अदालतों
की बड़ी—बड़ी इमारतें, ये सब तुम्हारे गौरव नहीं हैं। यह इस
बात की सूचक है कि तुम भरोसे के योग्य नहीं हो। तुम्हें नियंत्रण में रखने के लिए
बंदूकों पर भरोसा रखा जाएगा, तलवारों पर भरोसा रखा जाएगा,
हिंसा पर भरोसा रखा जाएगा।
मैं अराजकवादी हूं इस अर्थ
में कि मैं व्यक्ति को उसकी उस परम आभा में देखना चाहता हूं, जहां उसका
खुद का चैतन्य, उसके खुद का बोध, उसके
जीवन को अनुशासन देता हो ताकि बाहर से किसी अनुशासन की कोई जरूरत न रह जाए। नहीं,
यह काम कोई एक दिन में हो जाएगा...और शायद यह काम कभी पूरा हो भी न
पाएगा। लेकिन यह सौभाग्य है कि दुनिया में सपने देखने वाले लोग पैदा होते रहे हैं
और होते रहेंगे। और हम जहां आज हैं, उन्हीं सपने देखने वाले
लोगों की वजह से हैं। जो कुछ थोड़ी बहुत गंध, थोड़ी बहुत सुवास,
कभी कहीं किसी फूल का खिल जाना, और कभी कहीं
किसी दीप का जल जाना घटता है। यह उन लोगों की अनुकंपा है, जिन्होंने
सपने देखे। शायद उनके जीवन में पूरे न हो पाए, लेकिन बीज वे
जो बो गए, कभी न कभी कोई बरखा का झोंका, कभी न कभी कोई जमीन उन बीजों को फूल बना देती है। मैं यह समझता हूं कि
शायद ही वह दिन आए, जब कि राज्य की बिलकुल जरूरत न रह जाए।
लेकिन मेरी अंतरात्मा यह मानने को तैयार नहीं होती, मेरी
अंतरात्मा फिर भी आशा करती है कि कभी न कभी वह दिप आएगा, जरूर
वह सुबह होगी, रात अभी अंधेरी है तो क्या हुआ, रात बहुत लंबी है तो क्या हुआ, सबेरा देर से नहीं
हुआ तो क्या हुआ, हर रात की सुबह है, इस
रात की भी सुबह होगी। दूर सही, बहुत दूर सही, मगर इस बात की आशा भी कि हम मनुष्य को इतनी जागरूकता दे सकते हैं कि सड़कों
पर से पुलिसवालों की कोई जरूरत न रह जाए। हम इतनी शांति मनुष्य को दे सकते हैं कि
अदालतों की कोई जरूरत न रह जाए, कि हम मनुष्य को इतना बोध दे
सकते हैं कि वे किसी दूसरे मनुष्य के ऊपर, उसकी सीमाओं पर
अतिक्रमण न करें। राज्य की जरूरत क्षीण होती जाएगी, क्षीण
होती जानी चाहिए। जैसे—जैसे व्यक्ति जागे, वैसे—वैसे राज्य
विदा हो। और यह तो एक काल्पनिक दिन की बात है कि जिस दिन दुनिया का हर व्यक्ति
बुद्धत्व की जगमगाहट से भरा होगा और यह जमीन, पूरी जमीन
आदमियों की ज्योतियों से जगमग होगी, दीपावली होगी, उस दिन राज्य की कोई जरूरत न रह जाएगी, कहीं कोई
जरूरत न रह जाएगी, न राजनीतिज्ञों की कोई जरूरत रह जाएगी। यह
सीधा—सा सवाल है। अगर लोग बीमार पड़ना बंद हो जाएं तो डाक्टरों की कोई जरूरत नहीं
रह जाती।
एक सुबह बाजार जाते हुए
मुल्ला नसरुद्दीन को उसके डाक्टर ने पकड़ लिया और कहा कि हद हो गई आज, चार महीने
हो गए तकाजा करते हुए। मैंने तुम्हारे लड़के को ठीक किया। न तो तुमने मेरी फीस
चुकाई, न दवाओं के पैसे चुकाए, मैं
दवाखाना चलाता हूं या कोई धर्मादा चलाता हूं।
नसरुद्दीन ने कहा, देखो,
बात को ज्यादा मत बढ़ाओ। असलियत बहुत कड़वी होती है। डाक्टर ने कहा,
वाह, चोर उल्टे कोतवाल को डांट रहा है!
भीड़ इकट्ठी हो गई। बाजार
का मामला। और इस देश में कोई आदमियों को बातचीत थोड़ी ही करने देता है। और ऐसी
रसभरी बातचीत। नसरुद्दीन ने चिल्लाकर कहा कि भाइयों आ जाओ, सब आ जाओ,
सब सुनो। असलियत सुनाए देता हूं।
डाक्टर ने कहा, तुम हो
कैसे आदमी! मैं अपनी फीस मांग रहा हूं, किसी असलियत की सुनने
का कोई सवाल नहीं है। तुम मानते हो या नहीं कि मैंने तुम्हारे लड़के को ठीक किया,
दवा दी, चार दफा देखने आया?
नसरुद्दीन ने कहा, वह तो ठीक
लेकिन सारे स्कूल में चेचक की बीमारी किसने फैलाई? मेरे लड़के
ने। और तुमने जो कमाई की है उसमें कमीशन किसका? एक भले आदमी
की तरह मैं तुम्हारे घर नहीं आया? कि सोचा तुम खुद कमीशन भेज
दोगे। अकल तुममें थोड़ी होगी। मेरा लड़का और आगे भी काम पड़ेगा। आखिर मेरा लड़का है।
अरे जब कहोगे, तब बीमारी फैला देगा। मगर धंधे जैसी बात करो।
डाक्टर ने कहा, धंधा?
तुम्हारा मतलब है, मैं तुम्हें कुछ पैसे दूं?
नसरुद्दीन ने कहा, मतलब,
पैसा जनाब, रुपयों की बातें करो। स्कूल में कम
से कम पांच सौ लड़के हैं। और मेरे अकेले लड़के ने वह मेहनत की चेचक फैलाने की। कुछ
तो खयाल करो, कुछ तो आदमी जैसा व्यवहार करो। हिसाब—किताब की
बात करो। पांच सौ लड़कों से कितने पैसे वसूल किए हैं। सब का हिसाब लेकर आ जाना। और
अगर कल तक तुम न पहुंचे तो याद रखना मैं कांग्रेस का पुराना आदमी हूं। परसों से
तुम्हारे द्वार पर हड़ताल कर दूंगा। और सार गांव को पता चल जाएगा कि बेईमान डाक्टर
एक गरीब आदमी को लूट रहा है!
वह डाक्टर बोला, भैया! तू
मेरे साथ आ। अंदर चल। दवाखाने के भीतर बैठकर बात कर लेंगे। जो कुछ तय करना हो कर
लेंगे। ठीक है रुपयों की बात है तो रुपयों की बात कर लेंगे, मगर
भीतर चल। यहां भीड़भाड़ में चर्चा मत कर। गांव में और भी डाक्टर हैं, भारी कम्पीटीशन है।
दुनिया में बीमारी है तो
डाक्टरों की जरूरत है। सिर्फ चीन एक देय है, जहां पांच हजार वर्षों से एक अनूठा
नियम है। और जब भी पहली दफा उस नियम के संबंध में समझने की कोशिश करो तो हैरानी
होगी। नियम यह है कि हर व्यक्ति को निजी रूप से किसी डाक्टर से संबंधित होना होगा।
और हर महीने उस डाक्टर को कुछ बंधी हुई फीस देनी होगी, क्योंकि
उस महीने वह बीमार नहीं पड़ा। जिस महीने वह बीमार पड़ेगा, उस
महीने डाक्टर को उसकी फीस नहीं मिलेगी। उल्टे डाक्टर को उसके घर के खर्च के लिए,
पत्नी और बच्चों के लिए इंतजाम करना पड़ेगा। हैरानी की बात मालूम
पड़ती है। लेकिन बात बहुत मनोवैज्ञानिक है। डाक्टर का फर्क है कि आदमी स्वस्थ रहे।
और अगर वह उसको स्वस्थ नहीं रख सकता तो जुर्माना उसे चुकाना चाहिए। स्वास्थ्य का
वह दाम ले सकता है।
सारी दुनिया में उल्टा है।
हम यहां बीमारी के दाम देते हैं। और यह खतरनाक बात है कि आदमी की बीमारी के ऊपर
डाक्टर को जिंदा रहना पड़ता है। इसका मतलब हुआ कि हम उसके एक ऐसा काम करवा रहे हैं, जो
विरोधाभासी है। मरीज जितनी देर तक मरीज रहे, उतनी देर तक
डाक्टर को फायदा है। और डाक्टर का फर्ज यह है कि वह मरीज को जल्दी से जल्दी ठीक
करे। यह। कैसे चक्कर में डाक्टर को डाल रहे हो?
एक युवक शिक्षा पाकर घर
वापस लौटा। डाक्टर हो गया। उसने अपने बाप से कहा, अब आप चिंता न करें। (बाप
भी डाक्टर था) अब आप निश्चित हों। जिंदगी भर आपने मेहनत की। अब मैं आ गया। अब मैं
दवाखाना संभाल लूंगा। पिता ने कहा, ठीक है। तीन दिन का
तुम्हें मौका देता हूं। देखता हूं, कैसे तुम संभालते हो। तीन
दिन मैं छुट्टी पर आराम करता हूं।
तीन दिन बार लड़के ने बाप
को खबर दी कि आप जानकर खुश होंगे कि जिस करोड़पति बुढ़िया को आप बाइस साल में ठीक
नहीं कर पाए,
मैंने तीन दिन मग ठीक कर दिया। बाप ने अपनी खोपड़ी ठोंक ली। और कहा
कि अगर इस तरह धंधा चला तो तेरे छोटे भाइयों का क्या होगा, तेरे
बच्चे पैदा होंगे, उनका क्या होगा? इसी
बुढ़िया पर तो तेरी सारी शिक्षा पूरी हुई। उसी बुढ़िया के सहारे तो सारी शान—शौकत है
दरवाजे पर कार खड़ी है, बंगला है, बगीचा
है, बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं। नालायक! तीन दिन
में तूने उसी बुढ़िया को ठीक कर दिया! हो गई प्रैक्टिस। कल से मुझे आना पड़ेगा।
तुम्हारी हैसियत कंपाउंडर से ज्यादा नहीं। अभी डाक्टर होने में तुम्हें वर्षों
लगेंगे। अनुभव की बात है। धीरे—धीरे सीखोगे। अभी सिर्फ किताबें पढ़ी हैं। अभी
जिंदगी नहीं देखी।
और यह बात सच है। गरीब
आदमी बीमार पड़ता है तो जल्दी ठीक हो जाता है। वही दवाएं। अमीर आदमी बीमार होता है
तो बड़ी देर लगती है। ठीक ही नहीं होता। बात और बिगड़ती ही चली जाती है, और भी
स्पेशालिस्ट चाहिए, और एक्स—रे चाहिए और नए एक्सपर्ट चाहिए।
मामला फैलता ही चला जाता है। लेकिन मामला बिलकुल साफ है। अगर धन तुम्हारे पास है
तो संभलकर बीमार होना। धन पास हो, बेफिकर से बीमार होना।
गरीब आदमी जब चाहो, तब बीमार होओ, कोई
हर्जा नहीं। मगर पासे वाले आदमी को बहुत सोच—समझकर कदम रखना चाहिए, फूंक—फूंक कर कदम रखना चाहिए। यह मामला खतरे का है।
ठीक वही बात है। तुम अचेतन
हो, बेहोश हो, इसलिए राज्य की जरूरत है और इसलिए राजनीति
विरोधी हैं उन सब बातों के, जो तुम्हें होश से भर दें। उसकी
मुझसे क्या दुश्मनी है? यही दुश्मनी है कि मैं उन सूत्रों की
चर्चा कर रहा हूं, जो लोगों को होश से भर दे, जो लोगों को चेतना दे, जो लोगों की आत्मा को जगाए,
जो लोगों को ठीक—ठीक अर्थों में बोध दे, और
अपने बोध से जीने की हिम्मत दे। राज्य व्यर्थ हो जाता है, राजनीतिज्ञ
व्यर्थ हो जाते हैं। उनकी कोई जरूरत नहीं रह जाती है। और वे अपनी जरूरत बनाए रखना
चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि आदमी ध्यान से भरे, या आदमी के
के जीवन में समाधि विस्तीर्ण हो।
तुम सोच सकते हो मैं एक
रात भर के लिए इंग्लैंड में एअरपोर्ट पर रुकना चाहता था। क्योंकि मेरा हवाई जहाज
बारह घंटे की उड़ान ले चुका था और पायलट को नियम के अनुसार इससे ज्यादा हवाई जहाज
उड़ाने की आज्ञा नहीं है। तो सिर्फ छह घंटे के लिए, बाहर बजे रात, सिर्फ इंग्लैंड के हवाई अड्डे विश्रामगृह में, जहां
कोई भी यात्री रुक सकता है। लेकिन इंग्लैंड की पार्लियामेंट और इंग्लैंड की
गवर्नमेंट पहले ही निश्चय कर चुकी थी कि मुझे इंग्लैंड में प्रवेश न दिया जाए। और
आश्चर्य की बात तो यह है कि एअरपोर्ट के लाउंज में प्रवेश देश में प्रवेश नहीं है।
मगर अधिकारी—और अधिकारी अंधे होते हैं। मैंने ला, समझाया
एअरपोर्ट के लाउंज में प्रवेश इंग्लैंड में प्रवेश नहीं है। यह अंतर्राष्ट्रीय
एअरपोर्ट है। अन्यथा इसको अंतर्राष्ट्रीय होने का क्या मतलब, अगर यह इंग्लैंड है? और एअरपोर्ट के इस लाउंज से
बाहर जाने का कोई दरवाजा नहीं है। छह घंटे मुझे सोना है। सुबह उठते ही मैं अपनी
यात्रा पर निकल जाऊंगा। तुम्हें परेशानी क्या है?
वह बोला, मुझे कोई
परेशानी नहीं है। मैं खुद परेशान हूं कि क्यों तुम्हें रोक रहा हूं। लेकिन यह
फाइल। ऊपर से आज्ञाएं हैं कि मुझे हर तरह से परेशान किया जाए। और अगर मैं रुकने की
जिद करूं तो मुझे जेल में रखा जाए, मुझे विश्रामालय में न
ठहरने दिया जाए। क्योंकि यह आदमी खतरनाक है।
मैंने कहा, तुम खुद
ही सोचो, आदमी मैं निश्चित खतरनाक हूं। न मेरे पास बम है,
न कोई बंदूक है पर आदमी मैं फिर भी खतरनाक हूं। मगर इस विश्रामालय
में सोते हुए छह घंटे में मैं क्या खतरा कर सकता हूं? फाइल
में दर्ज था कि यह आदमी खतरनाक है, इसकी मौजूदगी देश की
नैतिकता नष्ट कर सकती है, इसकी मौजूदगी देश का धर्म नष्ट कर
सकती है, इसकी मौजूदगी युवकों के मन में प्रभावित कर सकती
है। यह आदमी बौद्धिक रूप से अति तेजस्वी है। इसलिए इसे इंग्लैंड में प्रवेश न दिया
जाए। बौद्धिक रूप से तेजस्वी होना अपराध है? और छह घंटे
एअरपोर्ट पर सो कर मैं ये सार काम करूंगा या नींद लूंगा? देश
की नैतिकता भ्रष्ट करूंगा, जिसको वे दो हजार साल में स्थापित
कर पाए हैं, उसको मैं छह घंटे की नींद में नष्ट कर दूंगा।
नहीं, भय दूसरे
हैं जो बताए नहीं जा रहे हैं। और जो बताया जा रहा है वह कुछ बात और है। भय है कि
लोगों के पास क्षमता है। सिर्फ उन्हें याद दिलानी है। और क्षमता की यह खूबी है कि
चाहे तुम दो हजार साल तक उसे भुलवाए रखो, वह एक क्षण में याद
दिलाई जा सकती है। जैसे कोई भूली—बिसरी याद वर्षों याद न आई हो और कभी मौका पड़ जाए
तो तुम कहते हो कि यूं जबान पर रखी है। याद है, जबान पर है
मगर पकड़ में नहीं आ रही। और जितनी तुम कोशिश करते हो याद करने की उतना ही मुश्किल
मालूम पड़ता है, बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है। उस घड़ी की बेचैनी
बड़ी ज्यादा होती है क्योंकि पक्की तरह से मालूम है, नाम जबान
पर रखा है यह भी समझ में आ रहा है, नाम क्या है किसी तल पर
यह भी याद है और फिर भी उस तल तक पहुंचने में कुछ बाधा पड़ रही है। कुछ दीवालें खड़ी
कर दी गई हैं। कुछ स्मृतियां बीच में आकर अड़ गई हैं। कुछ दरवाजे बंद हो गए हैं।
कुछ खिड़कियां बंद हो गई हैं। रास्ता नहीं मिल रहा है कि उस स्मृति तक कैसे पहुंचा
जा सके। और फिर परेशान हो कर तुम छोड़ देते हो। बगीचे में चले जाते हो, वृक्षों को पानी देने लगते हो। और अचानक गुलाब की झाड़ी पर पानी को डालते
हुए अचानक तुम्हें याद आ जाता है। और इतनी कोशिश से अटक गया था और बिना कोशिश के
याद आ गया। जब तुम कोशिश कर रहे थे तो तनाव से भरे थे। जब तुमने कोशिश छोड़ दी,
तुम शिथिल हो गए। और याद को उभर आने का मौका आ गया।
इसलिए एक लिहाज से वे ठीक
हैं। उन्होंने दो हजार साल में भी जो धर्म खड़ा किया है वह झूठा है; जो
नैतिकता लोगों को दी है वह असत्य है, क्योंकि उस नैतिकता से
कोई नैतिक नहीं हुआ। जेलें बढ़ती चली गई हैं। कानून बढ़ते चले गए हैं। कानूनविद बढ़ते
चले गए हैं। अदालतें बढ़ती चली गई हैं। अगर उन्होंने जो नैतिकता लोगों को दी थी,
वह सच थी, सफल थी तो घटौती होनी चाहिए थी।
घटौती नहीं हुई है। और इसलिए उनका डर ठीक है। क्योंकि मैं तुम्हें उस बात की याद
दिलाना चाहता हूं जो तुम्हारा स्वभाव है, जिसको उन्होंने ढक
रखा है न मालूम कितने पर्दों से। मगर उस स्वभाव को ऊपर उठाने में क्षण भर में भी,
एक छोटे पल में भी सफलता पायी जा सकती है। मुझे अपनी याद है। मेरी
मौजूदगी में मैं तुम्हारी याद दिला सकता हूं। मेरी दीया जल रहा है। अचानक तुम्हें
भी याद आ सकती है कि तुम्हारे दीए का क्या हुआ? जरा सी खोज
और जो ऊपर से थोपा गया है वह यूं गिर जाता है जैसे कभी थोपा ही न गया हो।
मैं अराजकवादी हूं क्योंकि
मैं व्यक्तिवादी हूं। व्यक्ति के पास आत्मा है और आत्मा में ही जीवन का सारा सत्य
है, जीवन का सारा अमृत है। और मैं यह एक ही आकांक्षा, एक
ही अभीप्सा रखता हूं कि व्यक्ति के भीतर इतना जागरण हो कि उसे किसी राज्य की,
किसी कानून की, किसी बाहरी अनुशासन की कोई
जरूरत न रह जाए। दूर...कहीं क्षितिज के पार...किसी दिन यह घटना शायद घटे। अगर हम
सपना तो देख सकते हैं। कम से कम सपनों पर तो बेड़ियां नहीं हैं और एक अच्छा सपना एक
बुरी असलियत से लाख दर्जा बेहतर होता है।
प्रश्न: भगवान श्री, अपराध,
दंड और अपराधभाव की समस्याएं समय और स्थान के भेद से बदलता रहती
हैं। लेकिन वे किसी न किसी रूप में सदा और सर्वत्र मनुष्य का पीछा करती हैं। क्या
इन पर प्रकाश डालने की अनुकंपा करेंगे?
मैं कह रहा था कि
जैसे—जैसे चैतन्य बढ़ जाए वैसे—वैसे राज्य की कोई जरूरत न रह जाएगी। यह प्रश्न उसी
का आनुषांगिक प्रश्न है। राज्य की इसीलिए आवश्यकता न रह जाएगी, क्योंकि
अपराध सिर्फ अचेतन आदमी करता है। होश से भरे हुए आदमी से अपराध नहीं होता। होश से
भरे हुए आदमी से न अपराध होता है, न दोष की कोई धारणा पैदा
होती है।
यह सच है कि सदियों—सदियों
से अपराध की,
दोष की अपराधी होने की धारणाएं बदलती रही हैं। लेकिन किसी न किसी
रूप में, नए—नए रूपों में छाया की तरह मौलिक रूप से अपराधभाव
मनुष्य का पीछा करता रहा है। वह तुम्हारी ही छाया है। और जब तक तुम अपने भीतर
रोशनी से न भर जाओ, तब तक उस छाया के मिटने का कोई उपाय नहीं
है। यूं देखो युधिष्ठिर को हमने धर्मराज कहा है। जमाना और था, हवा और थी। युधिष्ठिर जुआ खेल सकते हैं और फिर भी धर्मराज हो सकते हैं। और
जुआ भी कोई ऐसा—वैसा जुआ नहीं, जिसमें सब हार जाते हैं,
अपना सब कुछ हार जाते हैं, तो अपनी औरत को भी
दांव पर लगा देते हैं, जिससे सिद्ध होता है कि उनके मन में
स्त्रियों के प्रति भी सिवाय वस्तुओं के ज्यादा और कोई भाव न था। वे भी चीजें थीं।
मकान दांव पर लगा दिया, महल दांव पर लगा दिया, और भी दांव पर लगा दी। वह भी एक परिग्रह थी, एक
वस्तु थी और फिर भी भारत के पूरे इतिहास में कोई भी प्रश्न नहीं उठाता कि हम इस
आदमी को धर्मराज कैसे कहे चले जाते हैं? और ये अगर धर्मराज
के ढंग हैं तो हद हो गई, तो फिर अधर्मराज के ढंग क्या होंगे?
लेकिन उस समय, उस काल में जुआ खेलना वैसा ही
था जैसे क्रिकेट खेलना या टेनिस खेलना। कहीं कोई अड़चन न थी जुआ खेलने में। जुआ
खेलने में कहीं कोई बुराई न थी।
उसी पुरानी याददाश्त को
हिंदू अभी भी दोहराए चले जाते हैं। हर दिवाली की रात थोड़ा सा जुआ खेल लेते हैं।
साल भर न सही,
एक रात सही, बहुत ज्यादा न सही थोड़ा सा सही,
दस पांच रुपयों का दांव लगाया। मगर अपने बाप—दादों से तो जुड़े रहते
हैं। अपनी परंपरा का तो गौरव रखते हैं। याद दिलाते रहते हैं अपने आपको कि हम भी
युधिष्ठिर के वंशज हैं। मौका पड़ जाए तो अपने औरत को भी अभी भी दांव पर लगा सकते
हैं। नहीं लगाते यह और बात। क्योंकि औरतें खतरनाक हो गई हैं और उल्टे हमीं को दांव
पर लगा दें। जमाना बदल गया है, बाकी इरादे नहीं बदले। लेकिन
सारी मान्यताओं के पीछे मौलिक एक ही बात है कि आदमी अचेतन है। युधिष्ठिर को खयाल
में भी नहीं आया है कि वह जो कर रहे हैं वह अज्ञान है और स्त्री को दांव पर लगाना,
स्त्री का अपमान है। उसे मनुष्य के तल से नीचे गिराकर वस्तुओं के तल
पर ले जाना है। इसे कभी भी क्षमा नहीं किया जा सकता।
वही बात हजारों उदाहरणों
से तुम्हें मिल सकती है। आज भी तुम बहुत से काम कर रहे हो जो तुम्हें लगते हैं ठीक
हैं। कल आने वाले लोग उन्हीं कामों पर तुम्हें अपराधी ठहराएंगे। यह कहानी जारी
रहेगी तब तक,
जब तक कि हम अधिकतम मात्रा में लोगों को जागरूकता की स्थिति में
नहीं ले आते हैं।
जागरूकता का केवल इतना ही
अर्थ होता है कि मैं कोई भी ऐसा कृत्य न करूं जिससे किसी का अधिकार छिनता हो, और किसी
के भी व्यक्तित्व की सीमा का उल्लंघन होता हो। मैं कोई भी ऐसा कृत्य न करूं जिसे
मुझे छुपाना पड़े। मैं कोई भी ऐसा कृत्य न करूं जिसके लिए मुझे कभी भी पछताना पड़े।
जागरूक व्यक्ति के समक्ष ये सारी बातें अपने आप उपस्थित रहती हैं। इन सबसे छनकर उसके
जीवन की क्रिया अपराध से, अपराध की छाया से मुक्त हो जाती
है।
ओ के मैत्रेय।
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