दिनांक 14 सितम्बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
प्रश्न-सार
:
1—बुनियादी
रूप से आप
धर्म के
प्रस्तोता
हैं--वह भी
मौलिक धर्म
के। आप स्वयं
धर्म ही मालूम
पड़ते हैं।
लेकिन
आश्चर्य की
बात है कि अभी
आपका सबसे
ज्यादा विरोध
धर्म-समाज ही
कर रहा है! दो शंकराचार्यों
के वक्तव्य
उसके ताजा उदाहरण
हैं। क्या इस
पर कुछ प्रकाश
डालने की कृपा
करेंगे?
2—मैं
बुद्ध होकर
मरना नहीं
चाहती; मैं
बुद्ध होकर
जीना चाहती
हूं।
3—आप
कहते हैं कि
जीवन में कुछ
मिलता नहीं।
फिर भी जीवन
से मोह छूटता
क्यों नहीं? समझ
में बात आती
है और फिर भी
समझ में नहीं
आती; समझ
में आते-जाते
छूट जाती है, चूक जाती
है।
पहला
प्रश्न:
भगवान!
बुनियादी रूप
से आप धर्म के
प्रस्तोता हैं--वह
भी मौलिक धर्म
के। आप स्वयं
धर्म ही मालूम
पड़ते हैं।
लेकिन
आश्चर्य की
बात है कि अभी
आपका सबसे
ज्यादा विरोध
धर्म-समाज ही
कर रहा है! दो
शंकराचार्यों
के वक्तव्य
उसके ताजा
उदाहरण हैं।
क्या इस पर
कुछ प्रकाश
डालने की कृपा
करेंगे?
आनंद
मैत्रेय! धर्म
जब भी होता है
मौलिक ही होता
है। मूल का न
हो,
तो धर्म ही
नहीं।
नितनूतन न हो,
तो धर्म ही
नहीं। स्वयं
का अनुभव न हो,
तो धर्म ही
नहीं। फिर
चाहे वह अनुभव
जीसस का हो, चाहे जरथुस्त्र
का; चाहे
महावीर का, चाहे
मोहम्मद
का--धर्म की
ज्योति तो
स्वयं के अंतस्तल
में जलती है।
वह उधार नहीं
होता। वह उधार
हो ही नहीं
सकता। और जब
भी उधार होता
है तो नाम ही
धर्म का रह
जाता है, भीतर
अधर्म होता है;
और वहीं से
अड़चन शुरू
होती है।
हिंदू
हैं,
मुसलमान
हैं, ईसाई
हैं, जैन
हैं, बौद्ध
हैं--ये सब
उधार हैं।
महावीर उधार
नहीं हैं, लेकिन
जैन उधार हैं।
आद्य
शंकराचार्य
उधार नहीं थे,
लेकिन उनकी
परंपरा में, उनकी
गद्दियों पर
बैठे हुए लोग
सब उधार हैं।
कोई बुद्ध
किसी दूसरे की
गद्दी पर कभी
बैठता नहीं।
जो अपना सिंहासन
खुद निर्मित
कर सकता हो, वह उधार और
बासी
गद्दियों पर
बैठेगा? बुद्धू
ही बैठते हैं
उधार
गद्दियों पर,
बुद्ध
नहीं।
पंडित-पुरोहित
बैठते हैं; ज्ञानी नहीं,
ध्यानी
नहीं।
और तब
दो धाराएं
धर्म की
प्रचलित हो
जाती हैं: एक
तो जीता-जागता
धर्म, नगद; और
एक उधार, मुर्दा
धर्म। मुर्दा
धर्म सदियों
तक चलता है।
जीवित धर्म तो
बिजली की एक
कड़क है; यह
चमका, वह
गया! बहुत सजग
जो हैं, वे
ही उसे देख
पाते हैं। जो
सोए-सोए हैं, वे तो चूक
जाते हैं।
जीवित
धर्म तो गुलाब
का फूल है; अभी
खिला, सांझ
पंखुड़ियां झर
जाएंगी, सुवास
आकाश में उड़
जाएगी।
मुर्दा धर्म
प्लास्टिक का
फूल है; सदियों
तक टिकेगा; न पानी देने
की जरूरत है, न खाद की, न
सूरज की, न
हवाओं की।
प्लास्टिक के
फूल की कोई
जरूरत ही
नहीं। धूल जम
जाए, झाड़
देना, फिर
ताजा मालूम
होने लगेगा।
लेकिन ताजा
कभी था ही
नहीं; मालूम
ही होता है, प्रतीत ही होता
है।
जब
किसी के हृदय
में परमात्मा
की ज्योति
उतरती है, जब
कोई बुद्ध
पृथ्वी पर
चलता है, तो
आकाश पृथ्वी
पर चलता है।
उसके पास तो
केवल हिम्मतवर
लोग इकट्ठे
होते
हैं--हिम्मतवर,
ऐसे
हिम्मतवर
जैसे
परवाने--जो
ज्योति में
डूब कर, जल
कर तिरोहित हो
जाने को तैयार
हैं!
सच्चा
धार्मिक
व्यक्ति तो
दीवाना होता
है,
परवाना
होता है; क्योंकि
इससे बड़ी और
दीवानगी क्या
होगी--अपने को
मिटाना, अपने
अहंकार को
गलाना! परवाना
तो पागल होगा
ही, तभी तो
ज्योति पर
निछावर हो
सकेगा।
जब कोई
बुद्ध होता है
पृथ्वी पर, फिर
वह किस रूप
में है इससे फर्क
नहीं
पड़ता--नानक है,
कि कबीर है,
कि पलटू है,
कि रैदास है,
कि फरीद
है--ये केवल
देह के भेद
हैं। दीये
बहुत ढंग के
बन सकते हैं।
दीये तो
मिट्टी से
बनते हैं, जैसे
चाहो वैसे
बनाओ; बड़े
बनाओ, छोटे
बनाओ; काले
बनाओ, गोरे
बनाओ; नई-नई
आकृतियां दो।
लेकिन जब
ज्योति जलती
है तो ज्योति
एक ही है।
दीये का आकार,
रंग-ढंग
कितना ही
भिन्न हो; ज्योति
का तो एक ही
स्वभाव
है--अंधेरे को
दूर करना।
तमसो
मा
ज्योतिर्गमय!
उपनिषद के ऋषि
प्रार्थना
करते हैं: हे
प्रभु, इस
तमस को ज्योति
से दूर करो! इस
तमस से मुझे
ज्योति की तरफ
उठाओ!
बुद्धों
के पास तो वही
आ सकता है
जिसके
प्राणों में
ऐसी प्रार्थना
उठी हो और जो
तैयार हो कीमत
चुकाने को!
कीमत बड़ी
चुकानी पड़ती
है। तुम्हारे
पास जो भी है, तुम
जो भी हो, वह
सभी निछावर कर
देना होता है।
असली
धर्म सस्ता
नहीं होता; हो
नहीं सकता
सस्ता। असली
धर्म तो आग से
गुजरना है।
लेकिन आग ही
निखारती है।
गंदा सोना कंचन
होकर बाहर आता
है। कचरा जलता
है, सोना
नहीं जलता।
तुम
में जो-जो
कचरा है वह
सदगुरु के पास
जलेगा और तुम
में जो-जो
शाश्वत है, निखरेगा,
उसमें और
धार आएगी।
तुम्हारी
प्रतिभा तो
प्रज्वलित
होगी, लेकिन
तुम्हारी
मूढ़ता जल
जाएगी। पर
तुमने तो
मूढ़ता को अपना
स्वभाव समझ
रखा है। तुमने
तो गलत के साथ
तादात्म्य कर
लिया है।
इसलिए तुम
बुद्धों से
डरोगे, भागोगे।
फिर भी
तुम्हारे
भीतर भी धर्म
की आकांक्षा
तो है।
धर्म
की आकांक्षा
मनुष्य की
स्वाभाविक
आकांक्षा है।
लाख उपाय करो, इस
आकांक्षा को
नष्ट नहीं
किया जा सकता।
छिपा सकते हो,
गलत ढंग दे
सकते हो, गलत
दिशाओं में
लगा सकते हो; मिटा नहीं
सकते। धर्म
कुछ मनुष्य के
अंतःकरण का
अनिवार्य अंग
है। स्मरण
रखना--अनिवार्य!
उससे निवारण
नहीं हो सकता।
इसलिए
नास्तिक भी
अपना धर्म बना
लेता है; नास्तिकता
उसकी धर्म बन
जाती है।
कम्युनिस्ट
हैं, उन्होंने
भी अपना धर्म
बना लिया।
काबा नहीं जाते,
क्रेमलिन
जाते हैं।
मक्का नहीं
जाते, मास्को
जाते हैं।
निश्चित ही
गौतम बुद्ध, महावीर, कृष्ण,
क्राइस्ट, मोहम्मद, इनके चरणों
में नहीं
झुकते; लेकिन
कार्ल
माक्र्स, एंजिल्स,
लेनिन, इनके
चरणों में
झुकते हैं।
मंदिर नहीं
जाते, मस्जिद
नहीं जाते; लेकिन
मास्को के रेड
स्क्वॉयर में
लेनिन की लाश
को अब भी बचा
कर रखा है, उस
पर फूल चढ़ाते
हैं, वहां
सिर झुकाते
हैं। दूसरों
पर हंसते हैं
कि क्या पत्थर
की मूर्तियों
को पूज रहे हो!
और लेनिन की
सड़ी-गली लाश, उसको पूज
रहे हो--और
खयाल भी नहीं
आता कि तुम जो कर
रहे हो वह भी
वही है!
फिर जो
महावीर को
पूजता हो, बुद्ध
को पूजता हो, कृष्ण को
पूजता
हो--माना कि
अतीत को पूज
रहा है, लेकिन
फिर भी किसी
जाग्रत
व्यक्ति का
स्मरण शायद
तुम्हारे
भीतर भी जागरण
की लहर ले आए।
लेकिन लेनिन
को पूजो, कि
माक्र्स को, कि एंजिल्स
को, वे
उतने ही अंधे
थे जितने अंधे
तुम हो। अंधा
अंधा ठेलिया,
दोई कूप
पड़ंत! अंधे
अंधों का
नेतृत्व कर
रहे हैं!
ईसाई
ट्रिनिटी को
पूजते हैं:
ईश्वर--पिता; और
फिर
जीसस--पुत्र; और पवित्र
आत्मा। ये
तीन। और हिंदू
त्रिमूर्ति
को पूजते हैं:
ब्रह्मा, विष्णु,
महेश। और
कम्युनिस्ट, वे भी
त्रिमूर्ति
और ट्रिनिटी
के बाहर नहीं
जाते--माक्र्स,
एंजिल्स, लेनिन।
स्टैलिन ने
घुसने की
कोशिश की कि
त्रिमूर्ति
में घुस जाए, चतुर्मूर्ति
कर दे इसको; नहीं घुसने
दिया। माओ ने
भी बहुत कोशिश
की, मगर
त्रिमूर्ति
को खंडित नहीं
होने देते।
नास्तिक
भी अपना धर्म
बना लेता है।
नास्तिक भी
अपनी
नास्तिकता के
लिए
मरने-मारने को
तत्पर होता
है। नास्तिक
के भी पूजागृह
हैं,
धर्मशास्त्र
हैं। दास
कैपिटल, कम्युनिस्ट
मैनिफेस्टो--ये
उसके गीता हैं,
कुरान हैं,
बाइबिल
हैं। इतना पर्याप्त
है किसी
कम्युनिस्ट
को बता देना
कि यह दास
कैपिटल में
लिखा है, बस
काफी है; जैसे
दास कैपिटल
में लिखे होने
से कोई बात
अनिवार्य रूप
से सत्य हो
जाती है! वैसे
ही जैसे हिंदू
के लिए बता
देना काफी है
कि गीता में
लिखा है; बस
प्रमाण हो गया,
बात खतम हो
गई। अब न कोई
विवाद की
जरूरत है, न
कोई तर्क की
जरूरत है, न
सोच की, न
खोज की।
मुसलमान को
कुरान की आयत
दोहरा दो, बस
पर्याप्त है।
अगर कुरान में
है तो ठीक ही होगा।
कुरान में
कहीं कुछ गलत
होता है? वही
स्थिति
कम्युनिस्ट
की है।
कम्युनिस्ट, जो अपने को
नास्तिक
मानते हैं, वे भी धर्म
से नहीं बच
पाते।
मनुष्य
के भीतर धर्म
अनिवार्य है।
जैसे प्यास
प्रत्येक
आदमी को लगती
है,
फिर तुम
पानी पीओ, कि
कोकाकोला पीओ,
कि फेंटा
पीओ--इससे कुछ
बहुत फर्क
नहीं पड़ता। जर्मन
हो तो बियर
पीओ, जैन
हो तो पानी
छान कर
पीओ--मगर
प्यास! प्यास
सभी को लगती
है; न जैन
बच सकता है, न हिंदू बच
सकता है, न
मुसलमान बच
सकता है। जैसे
प्यास शरीर का
अनिवार्य
धर्म है!
क्योंकि शरीर
को पानी की
जरूरत है।
जानते
हो,
शरीर में
अस्सी
प्रतिशत पानी
है। तुम अस्सी
प्रतिशत जल हो;
इसमें जरा
भी कमी होती
है, फौरन
प्यास लगती
है। अस्सी प्रतिशत
बड़ी बात है।
इसीलिए तो
चांद की जब
रात होती
है--पूरे चांद
की रात होती
है--तो
तुम्हें बहुत
प्रभावित
करती है।
वैज्ञानिक
कहते हैं, वह
प्रभाव वैसा
ही है जैसा
सागर
प्रभावित होता
है। क्योंकि
सागर जल है।
तुम भी अस्सी
प्रतिशत जल
हो। जैसे सागर
में तरंगें
उठती हैं, ऐसे
ही पूर्णिमा
की रात्रि
तुम्हारे
भीतर भी तरंगें
उठने लगती
हैं। और जैसा
जल सागर में
है और जिस
अनुपात में
सागर के जल
में नमक और
क्षार हैं, ठीक उसी
अनुपात में
तुम्हारे
भीतर नमक और
क्षार
हैं--वही
अनुपात।
इसीलिए तो नमक
की जरूरत है।
गरीब से गरीब
आदमी हो, और
कुछ न हो, तो
कम से कम नमक
और रोटी तो
चाहिए ही
चाहिए। नमक के
बिना कोई भी
नहीं जी सकता।
नमक के बिना
जीओगे, निस्तेज
हो जाओगे, सुस्त
पड़ जाओगे।
तुम्हारे
भीतर नमक का
एक अनुपात है,
जो वही है
जो सागर में
है--उतना ही
अनुपात है।
मां के
पेट में जब
बच्चा होता है
तो वह पानी
में तैरता है।
वह जो मां के
पेट में पानी
होता है, उसमें
बच्चा तैरता
है। वह पानी
भी ठीक सागर
का पानी होता
है। इसलिए जब
मां गर्भवती
होती है तो
ज्यादा नमक
खाने लगती है।
उसे नमकीन
चीजें रुचने
लगती हैं, क्योंकि
अधिक नमक तो
बच्चे के लिए
जा रहा है। बच्चा
मछली की तरह
तैरता है। और
उसे नमक की
जरूरत है, बहुत
नमक की जरूरत
है। अभी
हड्डी-मांस-मज्जा
उसका निर्मित
होना है। शरीर
में तो अस्सी
प्रतिशत पानी
की जरूरत है।
इसलिए कोई भी
प्यास से नहीं
बच सकता।
सिकंदर
भारत आया। एक
फकीर से मिला।
फकीर नग्न था।
सिकंदर ने कहा, तुम्हारे
पास कुछ भी
नहीं!
फकीर
ने कहा, यह
सारा जगत मेरा
है! मैंने इसे
बिना जीते जीत
लिया है।
सिकंदर
ने पूछा, बिना
जीते कोई कैसे
जगत को जीत
सकता है?
उस
फकीर ने कहा, मैंने
इस जगत के
मालिक को जीत
लिया है। और
जब मालिक अपने
हाथ में है तो
कौन फिक्र करे
छोटी-मोटी
चीजों को
जीतने की! जब
मालिक अपना है
तो उसकी मालकियत
अपनी है। और
जीतने का ढंग
यहां और है, तलवार उठाना
नहीं--सिर
झुकाना। हम
झुक गए मालिक
के चरणों में,
झुक कर हम
मालिक के अंग
हो गए। यह
सारी मालकियत
अपनी है।
सिकंदर
खुश हुआ था, ये
बातें प्यारी
थीं! सिकंदर
ने कहा, लेकिन
मैंने भी जगत
जीता है, अपने
ढंग से जीता
है।
फकीर
ने कहा कि ऐसा
समझो कि
रेगिस्तान
में तुम खो
जाओ और गहन
प्यास लगे और
मैं एक लोटे
में जल लेकर
उपस्थित हो
जाऊं, तो एक
लोटा जल के
लिए तुम अपना
कितना राज्य
मुझे देने को
राजी नहीं हो
जाओगे, अगर
तुम मर रहे हो,
तड़फ रहे हो?
सिकंदर
ने कहा, अगर
ऐसी स्थिति हो
तो मैं आधा
राज्य दे
दूंगा; मगर
लोटा जल ले
लूंगा।
क्योंकि
प्राण थोड़े ही
गंवाऊंगा!
फकीर
ने कहा, लेकिन
मैं बेचूं तब
न! आधे राज्य
में मैं बेचूंगा?
कीमत और
बढ़ाओ। ज्यादा
से ज्यादा
कितना दे सकते
हो?
सिकंदर
ने कहा, अगर
ऐसी ही जिद
तुम्हारी हो
और मुझे प्यास
लगी हो और मैं
मर रहा होऊं, तड़फ रहा
होऊं, तो
पूरा राज्य दे
दूंगा।
तो
फकीर ने कहा, कितना
तुम्हारे
राज्य का
मूल्य है--एक
लोटा भर पानी!
इसमें तुमने
जीवन गंवाया!
प्यास
इतनी
अनिवार्य है
कि पूरा राज्य
भी कोई दे
सकता है। जैसे
प्यास शरीर के
लिए अनिवार्य
है...शरीर में
तो कम से कम
बीस प्रतिशत
और कुछ भी है, लेकिन
आत्मा में तो
सौ प्रतिशत
धर्म है। धर्म
का अर्थ
स्वभाव है।
धर्म
का अर्थ ही
क्या है? महावीर
ने कहा है:
बत्थु सहाव...।
वस्तु का जो
स्वभाव है वही
धर्म है। जैसे
आग जलाती है, यह उसका
धर्म है। जैसे
पानी नीचे की
तरफ बहता है, यह उसका
धर्म है। जैसे
आग की लपटें
ऊपर की तरफ उठती
हैं, यह
उसका धर्म है।
ऐसे ही मनुष्य
की आत्मा का जो
स्वभाव है, उसका नाम ही
धर्म है। सौ
प्रतिशत
आत्मा धर्म से
निर्मित है।
धर्म
से कोई बच तो
नहीं सकता। लेकिन
बुद्धों के
पास जाने की
हिम्मत नहीं
होती। तो फिर
आदमी होशियार
है,
चालाक है, चालबाज है।
उसने फिर झूठे
धर्म निर्मित
कर लिए, उधार
धर्म निर्मित
कर लिए। उसने
मंदिर बना लिए,
मस्जिद बना
ली, गुरुद्वारे
बना लिए। नानक
के पास जाने
की तो हिम्मत
नहीं है, लेकिन
गुरुद्वारे
में जाने में
क्या डर है?
ऐसा ही
समझो कि कोई
पतंगा
प्राइमरी
स्कूल, कालेज,
यूनिवर्सिटी
में पढ़ कर
शिक्षित हो
जाए; कोई
पतंगा
पीएच.डी. होकर
लौटे
विश्वविद्यालय
से, होशियार
हो जाए बहुत।
दीये को देख
कर तो उसके भीतर
भी आकांक्षा
जगेगी।
पीएच.डी. क्या
करेगी? दीये
को देखेगा तो
आकांक्षा
जगेगी कि लपट
पडूं। दीये
में एक अदम्य
आकर्षण है
उसके लिए, उसके
प्राणों का
कुछ जुड़ा है!
दीये में एक
चुंबक है जो
उसे खींचता
है। मगर
पीएच.डी.
पतंगा है, कोई
साधारण पतंगा
नहीं! और दीये
की ज्योति खींचती
है तो पीएच.डी.
पतंगा क्या
करे? वह दीये
की एक तस्वीर
अपने कमरे में
टांग लेगा। जब
दिल होगा, तस्वीर
पर जाकर तड़फड़ा
लेगा। जलेगा
भी नहीं और एक
तरह की राहत
भी मिल जाएगी।
जैसे छोटे
बच्चों को मां
स्तन नहीं
देना चाहती, तो चुसनी
पकड़ा देती है।
रबर की चुसनी
स्तन जैसी
मालूम पड़ती है
बच्चे को, उसको
चूसता रहता है,
सो जाता है।
सोचता है कि
तृप्ति हो रही
है।
कुत्तों
के संबंध में
तो कहा जाता
है कि वे सूखी
हड्डी चूसते
हैं। अब सूखी
हड्डी में
चूसने को कुछ
भी नहीं है।
लेकिन जब
कुत्ता सूखी
हड्डी को
चूसने लगता है
तो उसके
मसूढ़ों में
सूखी हड्डी की
चोट लगती है
और खुद का खून
बहने लगता है।
वह खुद के खून
को ही पीता है
और सोचता है
कि हड्डी में
से रस आ रहा
है।
ऐसा ही
आदमी होशियार
हो गया है।
आदमी ने अपनी होशियारी
में सूखी
हड्डियां
चूसी हैं, जिनमें
से कोई रस
नहीं निकलता।
गुरुद्वारे, मंदिर-मस्जिद
सूखी
हड्डियां
हैं।
जिन
शंकराचार्यों
की,
आनंद
मैत्रेय, तुमने
चर्चा की, ये
शंकराचार्य
भी सूखी
हड्डियों के
पंडित-पुरोहित
हैं; ये
सूखी
हड्डियों को
सजा कर बैठे
हैं। इनके पास
अपना कोई
अनुभव नहीं है,
कोई
स्वानुभव
नहीं है। ये
तो, शंकराचार्य
ने जो कहा है, उसको तोतों
की तरह
दोहराते रहते
हैं। लेकिन
करोड़-करोड़ लोग
भी इनकी बात
सुनते हैं, क्योंकि
उनको भी इनकी
बात में राहत
है, सुविधा
है, सांत्वना
है। ये
तस्वीरें हैं
दीये की; इनसे
टकराओ, मौत
नहीं होती।
कुछ खोया नहीं
जाता। मन भी
भर जाता है कि
ज्योति पर टूट
भी पड़े--देखी
दीवानगी! देखा
हमारा
परवानापन!
ज्योति पर
कैसे लपके! और
ज्योति थी
केवल तस्वीर।
ऐसे ही
तुम
शास्त्रों
में खोज रहे
हो परमात्मा
को,
तो तस्वीर
में खोज रहे
हो ज्योति को।
पंडित-पुजारियों
से सुन रहे हो
परमात्मा की
खबर, तो
उनसे सुन रहे
हो जिन्हें
खुद भी खबर
नहीं!
लेकिन
भीड़ कायरों की
है। भीड़
साहसहीनों की
है। भीड़
चालाकों की
है। कायर सब
चालाक होते
हैं,
क्योंकि
अपनी कायरता
को छिपाने के
लिए उन्हें
चालाकी ईजाद
करनी पड़ती है।
इनसे ही
तथाकथित परंपराएं
बनती
हैं--हिंदू, मुसलमान, जैन, बौद्ध,
ईसाई, सिक्ख।
निश्चित
ही जब पुनः
कोई
बुद्धपुरुष
होगा, जब पुनः
कोई ज्योति
जलेगी, तो
जिन्होंने
तस्वीरों के
ऊपर धंधा बना
रखा है वे
नाराज होंगे।
उनका धंधा
टूटता है। वे
विरोध भी
करेंगे।
मुझ
जैसे व्यक्ति
का विरोध
अधार्मिक लोग
नहीं करते।
अधार्मिकों
को क्या पड़ी
है! धार्मिक ही
करते हैं, क्योंकि
धार्मिक को ही
अड़चन है। असली
सिक्के का विरोध,
नकली
सिक्के जिनके
पास हैं वे ही
करेंगे। जिनके
पास सिक्के ही
नहीं हैं उनको
क्या लेना-देना!
असली हों
तुम्हारे पास
कि नकली हों, उन्हें
प्रयोजन ही
नहीं है।
लेकिन जिनके
पास नकली
सिक्के हैं, अगर असली
सिक्के बाजार
में आ जाएं, तो नकली
सिक्कों का
क्या होगा?
जीसस
को जिन्होंने
सूली दी थी, क्या
तुम सोचते हो
वे अधार्मिक
लोग थे?
नहीं-नहीं, भूल
कर भी ऐसा मत
सोचना।
पंडित-पुरोहित,
यहूदियों
के
शंकराचार्य, रबाई, यहूदियों
के मंदिर का
सबसे बड़ा
पुरोहित--इन
लोगों ने मिल
कर जीसस को
सूली दी। जीसस
को सूली कोई
चोरों ने, बदमाशों
ने, हत्यारों
ने नहीं दी, कोई गुंडों
ने नहीं दी।
जीसस को सूली
दी--सम्मानित,
सुशिक्षित,
शास्त्रज्ञ,
परंपरा की
धरोहर जिनके
पास है, परंपरा
के जो
वसीयतदार
हैं--उन्होंने
दी। समाज के
श्रेष्ठतम
वर्ग ने दी, क्योंकि
उसको ही खतरा
पैदा हुआ।
जीसस की मौजूदगी
खतरनाक थी
पुरोहित के
लिए, क्योंकि
लोग जीसस की
तरफ जाने लगे।
और जिन लोगों
ने जीसस को
देखा, उनके
लिए पंडित का
झूठापन साफ हो
गया।
जिसने
असली दीये को
देख लिया, क्या
तुम सोचते हो
अब वह तस्वीर
से धोखा खा सकेगा?
जिसने सूरज
को ऊगते देख
लिया, अब
क्या तुम
सोचते हो कि
सूर्योदय की
तस्वीर को रखे
बैठा रहेगा, उसकी पूजा
करता रहेगा? जिसने असली
को देखा वह
नकली से मुक्त
हुआ--असली को
देखने में ही
मुक्त हो जाता
है। इसलिए खतरा
नकली को पैदा
होता है। सारे
नकली इकट्ठे
हो जाएंगे।
एक मजे
की बात देखो!
हिंदू, ईसाई,
मुसलमान, जैन और किसी
बात पर राजी
नहीं हैं, लेकिन
मेरे विरोध
में राजी हैं।
जैन मुनि मेरा
विरोध करते
हैं, हिंदू
शंकराचार्य
मेरा विरोध
करते हैं, ईसाई
पादरी मेरा
विरोध करते
हैं। और तो और
कम्युनिस्ट
पार्टी ने एक
प्रस्ताव
किया है कि मुझे
इस देश से
बाहर निकाल
देना चाहिए।
धार्मिक ही
नहीं, तथाकथित
अधार्मिक
धर्मगुरु भी,
नास्तिकों
के धर्मगुरु
भी विरोध में
हैं। तो कुछ
सोचना होगा:
क्यों ये सारे
लोग एक बात पर
राजी हैं?
इन सब
की दुकानों को
नुकसान पहुंच
सकता है, पहुंच
रहा है, पहुंचेगा।
इनके विरोध से
रुकने वाला भी
नहीं है।
तुमने
पूछा, आनंद
मैत्रेय: "क्या
कारण है कि
आपका सबसे
ज्यादा विरोध
धर्म-समाज ही
कर रहा है?'
उसको
ही खतरा है।
नाममात्र को
धर्म-समाज है।
हिंदू हिंदू
है?
क्या है
उसमें हिंदू
जैसा? कृष्ण
जैसा क्या है
उसमें? न
वह बांसुरी है,
न वे स्वर
हैं। क्या
गरिमा है उसकी?
क्या महिमा
है उसकी? वेदों
और उपनिषदों
जैसा उसमें
क्या है? कहां
है वह सुगंध
जो उपनिषदों
की है?
जैन
जैन है? कहां
है महावीर की
मस्ती? कहां
है महावीर की
नग्न
निर्दोषता? चालबाज है, बेईमान है, दुकानदार है,
हिसाब-किताब
में होशियार
है। अगर
महावीर को भी
अकेले में पा
जाए, तो
यद्यपि उनकी
कोई जेब नहीं,
क्योंकि
नंग-धड़ंग, तो
भी जेब काट
ले।
अभी
चार-छह दिन
पहले ही एक
शंकराचार्य
की ही सोने की
चोरी हो गई।
सब चोर-चोर
मौसेरे
भाई-बहन। चोर
ने भी सोचा
होगा कि तुमने
भी खूब चुराया, थोड़ा
हम भी हाथ
मारें। कौन सी
चीज चोरी चली
गई शंकराचार्य
की? सोने
की मूर्ति, सोने के
पूजा के
उपकरण। यह
मूर्ति अपनी
भी रक्षा नहीं
कर सकती, चोर
से भी रक्षा
नहीं कर सकती,
यह
शंकराचार्य
की क्या खाक
रक्षा करेगी!
यह संसार की
क्या खाक
रक्षा करेगी!
इसी मूर्ति के
सामने बैठ कर
वे प्रार्थना
करते रहे कि
जब जल न गिरे
तो जल गिराओ
और जब बाढ़ आ जाए
तो बाढ़ न आए।
और एक चोर ले
गया चुरा कर
मूर्ति को और
पुलिस की
सहायता लेनी
पड़ी चोर को
खोजने के लिए।
मूर्तियां
झूठी, पूजाएं
झूठी; पूजक
झूठे, पुजारी
झूठे।
स्वभावतः वे
नाराज होंगे।
मेरी बातें
उन्हें बहुत
कठिनाई में
डाल रही हैं।
पहली
तो बात यह कि
मैं जो कहता हूं
उसे वे समझ
नहीं सकते।
उनके
मस्तिष्क जड़ विचारों
से भरे हैं, पक्षपातों
से भरे हैं।
उनके
मस्तिष्क
बहुत सी
पूर्व-धारणाओं
से भरे हैं।
समझने के लिए
पक्षपात-रहित
चित्त चाहिए।
हिंदू नहीं
समझ सकता, मुसलमान
नहीं समझ सकता,
ईसाई नहीं
समझ सकता।
समझने के लिए
सारे पक्षपात
एक तरफ रख
देने जरूरी
हैं। अगर
तुमने पहले से
ही तय कर लिया
है कि क्या
सत्य है तो
फिर तुम
समझोगे कैसे?
मुल्ला
नसरुद्दीन
बूढ़ा हो गया
तो उसे गांव
का काजी बना
दिया गया, न्यायाधीश
हो गया वह।
बुजुर्ग था, अनुभवी था।
पहला ही
मुकदमा आया।
उसने एक पक्ष की
बात सुनी और
फैसला देने को
तत्पर हो गया।
जो कोर्ट का
क्लर्क था, उसने उसका
हाथ खींचा और
कहा कि रुको, आपको पता
नहीं कि पहले
दूसरे पक्ष की
तो सुनो!
मुल्ला
ने कहा कि मैं
दो-दो पक्ष की
सुन कर अपने
मस्तिष्क को
खराब नहीं
करना चाहता।
अगर मैं दूसरे
पक्ष की भी
सुनूंगा तो
मतिभ्रम पैदा
होगा। फिर तय
करना मुश्किल
होगा कि सच
क्या है। अगर
निर्णय चाहते
हो तो अभी मुझे
दे देने दो, अभी
मुझे बिलकुल
सब साफ है।
इसने जो-जो
कहा है, सब
मुझे याद है।
एक तरफ
की सुन कर
निर्णय देना
आसान है।
और
मुल्ला ने कहा, अगर
तुम सच पूछो
तो निर्णय तो
मैं घर से
लेकर ही चला
हूं। सुनना
इत्यादि तो
केवल औपचारिक
है। अब समय
क्यों खराब
करना?
मुझे
जो सुनने आते
हैं,
अगर वे
निर्णय घर से
लेकर ही चले
हैं, नहीं
समझ पाएंगे, या कुछ का
कुछ समझेंगे।
मैं कहूंगा
कुछ, वे
समझेंगे कुछ।
दूसरा
मुकदमा
मुल्ला की
अदालत में
आया। एक आदमी
चिल्लाता हुआ
आया कि
बचाओ-बचाओ, मैं
लुट गया! इसी
गांव की सीमा
पर मुझे लूटा
गया है, इसी
गांव के लोग
थे जिन्होंने
मुझे लूटा है।
वह
आदमी केवल
चड्डी पहने
हुए था।
मुल्ला ने पूछा, क्या
लूटा तेरा?
उसने
कहा,
सब लूट
लिया। बड़े
दुष्ट लोग थे।
मेरी कमीज...मेरा
पायजामा तक
निकाल लिया, सिर्फ चड्डी
छोड़ी। सब पैसे
ले गए, बसनी
ले गए, मेरा
घोड़ा ले गए।
इसी गांव के
लोग थे, इसी
गांव के बाहर
मैं लूटा गया
हूं।
मुल्ला
ने कहा, चुप!
वे लोग इस
गांव के लोग
नहीं हो सकते।
इस गांव के
लोगों को मैं
जानता हूं। वे
चड्डी भी नहीं
छोड़ते। वे
किसी और गांव
के रहे होंगे।
तू किसी और
गांव की अदालत
में जाकर
शोरगुल मचा।
यहां बेकार
सिर मत फोड़।
इस गांव के
लोगों से मैं
बचपन से परिचित
हूं। वे जब भी
करते हैं कोई
काम, पूरा-पूरा
करते हैं।
चड्डी छोड़ी है,
यह प्रमाण
है इस बात का
कि यह घटना इस
गांव के लोगों
के द्वारा
नहीं की गई
है।
लोग
निर्णय लिए
बैठे हैं। तय
ही कर लिया है
कि इस गांव के
कैसे लोग हैं।
और एक के बाबत
नहीं, सबके
बाबत निर्णय
कर लिया है।
तुम जरा अपने
मन में
तलाशना। तुम
भी पाओगे कि
तुम
पूर्व-निर्णयों
पर जीते हो।
एक मुसलमान ने
तुम्हें धोखा
दे दिया, सारे
मुसलमान बुरे
हो गए! एक
हिंदू
बेईमानी कर गया,
सारे हिंदू
बुरे हो गए!
इतनी जल्दी
निर्णय लेते
हो? ऐसे
निर्णय लिए
जाते हैं?
अगर
व्यक्ति
सम्यक बोध से
भरा हो तो
निर्णय लेगा
ही नहीं, जब तक
कि सारे तथ्य
ज्ञात न हो
जाएं। तुम
कैसे हिंदू हो
गए? तुमने
कुरान पढ़ी है?
तुमने
बाइबिल पढ़ी है?
कुरान-बाइबिल
छोड़ो, तुमने
गीता-उपनिषद
भी नहीं देखे,
तुमने वेद
भी नहीं पढ़ा।
या पढ़ा भी
होगा तो तोतों
की तरह पढ़
लिया होगा।
दोहरा गए
होओगे--यंत्रवत,
बिना समझे।
लेकिन जब तक
तुम नहीं
जानते कि मुसलमान
की क्या धारणा
है, जैन की
क्या धारणा है,
बौद्ध की
क्या धारणा है,
तब तक तुमने
कैसे निर्णय
लिया कि तुम
हिंदू हो? इस
दुनिया में
इतने विचार
हैं, इनमें
से तुमने कैसे
चुन लिया कि
तुम हिंदू हो?
इस
दुनिया में
इतने विचार
हैं,
इनमें से
तुमने कैसे
चुन लिया कि
यह विचार तुम्हारा
है? तुमने
चुना ही नहीं,
तुम्हारे
मां-बाप ने
पकड़ा दिया, तुम्हारे
पंडित-पुजारियों
ने पकड़ा दिया।
तुम पैदा हुए
नहीं कि
पंडित-पुजारी
तुम पर कब्जा
करना शुरू कर
देते हैं।
पैदा हुआ
बच्चा यहूदी
घर में कि
खतना उसका उसी
वक्त किया
जाता है, देर
नहीं लगाई
जाती। उसको
यहूदी बना
लिया गया।
उससे कोई पूछता
ही नहीं कि
तेरे क्या
इरादे हैं? हिंदू बच्चे
का सिर घोंट
कर यज्ञोपवीत
कर दिया, जनेऊ
पहना दिया।
उससे कोई
पूछता नहीं कि
तेरे इरादे
क्या हैं?
अच्छी
दुनिया होगी
थोड़ी, थोड़ी और
समझपूर्ण
दुनिया होगी,
तो हम
बच्चों को
मौका देंगे कि
सारे धर्मों
से परिचित
होओ। हम उनके
लिए मुहैया
करेंगे सारे
धर्म। हम
उन्हें मस्जिद
भी भेजेंगे, मंदिर भी, गुरुद्वारा
भी, गिरजा
भी। हम कहेंगे,
सुनो, समझो।
इक्कीस साल के
पहले हम
उन्हें वोट
देने का
अधिकार भी
नहीं देते और
धार्मिक होने
का अधिकार दे
देते हैं कि
तुम हिंदू हो
गए, तुम
मुसलमान हो गए,
तुम ईसाई हो
गए। तो क्या
तुम समझते हो,
धर्म
राजनीति से भी
गई-बीती चीज
है? किसी
बुद्धू
राजनीतिज्ञ
को भी वोट
देने के लिए
इक्कीस वर्ष
की उम्र चाहिए,
परमात्मा
को वोट देने
के लिए किसी
उम्र की कोई
भी जरूरत नहीं?
छोड़ो, व्यक्तियों
पर छोड़ो। मेरा
तो अपना खयाल
यह है कि
बयालीस साल की
उम्र के पहले
कोई निर्णय नहीं
लेना चाहिए कि
मैं किस धर्म
को मान कर चलूं।
जैसे चौदह साल
की उम्र में
व्यक्ति
कामवासना की
दृष्टि से
परिपक्व होता
है, वैसे
ही
मनोवैज्ञानिक
खोज कर रहे
हैं और पा रहे
हैं कि बयालीस
साल के करीब
व्यक्ति
चेतना के रूप
से परिपक्व
होता है। जैसे
चौदह साल के
बाद विवाह की
जरूरत होती है,
वैसे
बयालीस साल के
बाद धर्म की
आत्यंतिक जरूरत
होती है।
तुमने
देखा, लोगों
को हृदय के
दौरे, पागलपन,
आत्महत्या
इत्यादि
चीजें बयालीस
साल की उम्र
के बाद सूझती
हैं। बयालीस
साल के बाद!
क्यों? पश्चिम
के बहुत बड़े
मनोवैज्ञानिक
कार्ल
गुस्ताव जुंग
ने लिखा है कि
मेरे जीवन भर
का अनुभव यह है
कि बयालीस साल
के बाद ही लोग
मानसिक रूप से
रुग्ण होते
हैं। और कारण
मेरी दृष्टि
में यह है कि
बयालीस साल के
बाद इन्हें
धर्म की जरूरत
है और धर्म
नहीं मिलता, इसलिए ये
विक्षिप्त हो
जाते हैं।
बयालीस साल के
बाद इनके जीवन
में
प्रार्थना की
आवश्यकता है
और प्रार्थना
नहीं मिलती, इसलिए इनको
हृदय का दौरा
पड़ता है, तनाव
बढ़ जाता है, चिंता बढ़
जाती है।
प्रार्थना
मिल जाती, तनाव
कट जाता, चिंता
कट जाती।
लेकिन
प्रार्थना का
फूल नहीं खिलता।
और समय आ गया
है कि
प्रार्थना का
फूल खिलना
चाहिए।
बयालीस
साल की उम्र
के करीब
पहुंचते-पहुंचते
किसी व्यक्ति
को इतनी समझ
हो सकती है कि
वह निर्णय
करे: कौन सा
मेरा मार्ग है? जो
बहुत
प्रतिभावान
हैं, थोड़े
जल्दी कर
लेंगे। जो
थोड़े कम
प्रतिभावान हैं,
थोड़ी देर से
करेंगे। मैं
औसत की बात कर
रहा हूं; बयालीस
का मतलब ठीक
बयालीस मत समझ
लेना। प्रतिभाशाली
व्यक्ति हो, आद्य
शंकराचार्य
जैसा, तो
नौ वर्ष की
उम्र में भी
निर्णय कर
लेता है।
अपनी
मां से
शंकराचार्य
ने कहा था कि
अब मुझे संन्यस्त
हो जाने दो।
नौ साल की
उम्र! नौ साल के
बेटे को कौन
मां जाने देगी? और
पिता भी मर गए!
यह बेटा ही
सहारा है। इसी
पर सारी आशाएं
टिकी हैं।
सारे सपने बस
इसी बेटे के
साथ जुड़े हैं।
सारी
महत्वाकांक्षा
इसी बेटे के
कंधों पर है।
संन्यास? नौ
साल का बेटा!
मां ने कहा, तू पागल हुआ
है? और
तेरे पिता मर
गए।
बेटे
ने कहा, इसीलिए
तो कि मेरे
पिता मर गए।
इसके पहले कि
मैं मरूं, मैं
जान लेना
चाहता हूं कि
सत्य क्या है।
पिता की मौत
ही तो मुझे
याद दिला गई
है।
एक तो
ये लोग हैं।
एक दूसरी तरफ
ऐसे लोग हैं:
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
अस्सी साल की
उम्र में फिर शादी
का विचार किया, क्योंकि
पत्नी मर गई।
बेटे, पोते,
नाती, सब
परेशान हुए।
नाती-पोतों ने
भी आकर
समझाया। कैसे
समझाएं लेकिन
इस बूढ़े को? जो सबसे
ज्यादा कुशल
बेटा था, उसने
कहा कि सुनो, कल का भरोसा
नहीं है। उम्र
का क्या
भरोसा! और अब
विवाह करने
चले हो!
नसरुद्दीन
ने कहा, तू
फिक्र मत कर, उसका मैंने
पहले ही विचार
कर लिया है।
अगर यह लड़की मर
गई कल विवाह
करने के बाद, तो इसकी
छोटी बहन भी
है, जो
इससे भी
ज्यादा सुंदर
है। तू कल की
फिक्र ही मत
कर।
ऐसे
लोग भी हैं, जिनको
अपने मरने की
तो याद ही
नहीं आती!
जवान लड़की, चौदह साल की
लड़की, उसके
मरने की सोच
रहे हैं--कि कल
अगर मर जाए तो
कोई फिक्र
नहीं, ग्यारह
साल की उसकी
छोटी बहन है, तब तक वह
चौदह की हो
जाएगी।
शंकराचार्य
को पिता की
मृत्यु ने ऐसा
झकझोरा...।
लेकिन मां तो
वैसे ही दुखी
थी,
शंकराचार्य
संन्यास लें
तो और दुखी हो
जाए, बिलकुल
अकेली छूट
जाए। उसने कहा,
मैं आज्ञा
नहीं दूंगी।
तो कहानी कहती
है: शंकराचार्य
नदी पर नहाने
गए हैं और एक
मगर ने उनका
पैर पकड़ लिया।
भीड़ इकट्ठी हो
गई है घाट पर।
मां भी भागी
आई। और
शंकराचार्य
ने कहा कि यह
मगर मुझसे कहता
है कि अगर
तेरी मां तुझे
संन्यास ले
लेने दे तो
मैं तेरा पैर
छोड़ दूं। ऐसी
हालत में मां
भी क्या करे!
आंख से आंसू
टपकते हुए
उसने कहा कि
ठीक है, तो
तू ले लेना
संन्यास, किसी
तरह बच तो जा, कम से कम
बचेगा तो, संन्यासी
ही रहेगा तो
कभी देख तो
लूंगी।
और
कहानी कहती है
कि मगर ने पैर
छोड़ दिया। यह
तो कहानी ही
है। मगर इतने
समझदार न पहले
होते थे न अब
हैं। आदमी
नहीं है इतना
समझदार, तो
मगर की क्या
कहना!
मुल्ला
नसरुद्दीन की
मैंने बात की
न, उसने आखिर
शादी कर ली।
चौदह साल की
लड़की, अस्सी
साल का बूढ़ा।
दूसरे दिन
मित्रों ने
पूछा कि कहो
सुहागरात
कैसी गुजरी?
मुल्ला
ने कहा कि कुछ
मत पूछो, बड़ा
आनंद रहा, सिर्फ
झंझट एक आई।
बिस्तर पर चढ़
तो मैं गया, लेकिन
उतारते वक्त
मेरे चारों
बेटों को ताकत
लगानी पड़ी तब
नीचे उतरा।
लोगों
ने पूछा, क्यों?
जब तुम चढ़
गए तो उतरे
क्यों नहीं?
तो कहा, उतरने
का मन ही नहीं
होता था। वह
तो चारों बेटों
ने जबरदस्ती
की, मार-पीट
हो गई! लेकिन
बेटे मजबूत
हैं, जवान
हैं।
उन्होंने
चारों तरफ से
पकड़ कर मुझे आखिर
बिस्तर से
उतार लिया।
एक तरफ
ये लोग भी हैं!
नहीं, मगरमच्छ
की कहानी तो
कहानी है, लेकिन
प्रतीक सुंदर
है। कहानी यह
कह रही है कि
शंकराचार्य
ने अपनी मां
को साफ-साफ
दिखा दिया
होगा कि मौत
देख मेरा पैर
पकड़े बैठी है।
कल का भरोसा
नहीं है। अगर तू
मुझे
संन्यासी न
होने देगी तो
मैं तड़फत्तड़फ
कर मर जाऊंगा।
संन्यास के
बिना मेरे लिए
कोई जीवन शेष
नहीं रहा है।
तो या तो
संन्यासी होकर
जी सकता हूं
या मौत
सुनिश्चित
है। ऐसा समझाया
होगा मां को।
मां को भी यह
बात दिखाई पड़
गई होगी कि
शंकराचार्य
जो कह रहे हैं
वैसा ही
करेंगे। मर
जाएंगे, अगर
नहीं
संन्यस्त
होने दिया।
तो नौ
वर्ष की उम्र
में भी कोई
संन्यस्त हो
सकता है; उसके
लिए
महाप्रतिभा
चाहिए। लेकिन
साधारण, औसत
मैं बात कर
रहा हूं, तो
बयालीस साल की
उम्र कम से कम
चाहिए व्यक्ति
को निर्णय
करने में, अपना
मार्ग चुनने
में। और हम
बच्चों को
मार्ग पकड़ा
देते हैं, जबरदस्ती
पकड़ा देते
हैं।
सारे
धर्मगुरु बड़े
उत्सुक रहते
हैं कि बच्चों
को एकदम से
धार्मिक
शिक्षा दी
जानी चाहिए। धार्मिक
शिक्षा से
उनका कोई मतलब
नहीं है। धार्मिक
शिक्षा से
मतलब है उनके
धर्म की
शिक्षा। धर्म
प्रत्येक के
लिए उनका धर्म
है,
बाकी तो सब
अधर्म हैं।
और
उनकी समझ क्या
है
पंडित-पुरोहितों
की?
उनकी आंखों
में तुम्हें
दीये जलते
दिखाई पड़ते
हैं? उनके
प्राणों में
तुम्हें
सुगंध मालूम
पड़ती है? उनके
पास बैठ कर
सत्संग का
प्रसाद बरसता
है? उनमें
और तुममें
तुम्हें कुछ
भेद दिखाई
पड़ता है? रंचमात्र
भी? तुम
जैसे ही लोग; तुम
सांसारिक
धंधों में लगे
हो, वे
गैर-सांसारिक
धंधों में लगे
हैं।
मेरी
पत्नी
गर्भवती है, चंदूलाल
ने खुशी में
बताया।
अच्छा!
तो तुम्हें
किस पर शक है? ढब्बूजी
ने संदेह-भाव
से पूछा।
लोगों
की अपनी समझ
है। उस समझ के
वे पार नहीं हो
पाते। मैं जो
कह रहा हूं, उसे
केवल वे ही
समझ सकते हैं
जो सारी
धारणाओं को एक
तरफ हटा कर
बैठे हैं।
नहीं, तुम्हारे
तथाकथित
शंकराचार्य
मेरे वक्तव्यों
को नहीं समझ
सकेंगे, मेरे
काम को भी
नहीं समझ
सकेंगे। यह जो
महत रासायनिक
प्रक्रिया चल
रही है
जीवन-रूपांतरण
की, इसे
नहीं समझ
सकेंगे। उनकी
रूढ़ धारणाएं
हैं। उनके लिए
धर्म एक उदासी
है; धर्म
का अर्थ है
उदासीनता। और
मेरे लिए धर्म
का अर्थ है
उत्सव। उनके
लिए धर्म का
अर्थ है उदासी।
यद्यपि वे
कृष्ण की पूजा
किए जाते हैं,
और देखते
नहीं
मोर-मुकुट
बांधे हुए
कृष्ण को! और
देखते नहीं
इसके ओंठों पर
रखी बंसी को!
और देखते नहीं
इसके पैरों
में बंधे हुए
घूंघर को! और
देखते नहीं
इसके पास
नाचती हुई
गोपियों को!
कृष्ण उत्सव
हैं, और
कृष्ण की पूजा
करने वाला
उदासीनता की
बातें कर रहा
है।
तुम्हारे
तथाकथित
शंकराचार्य, पोप,
पुरोहित, सब
जीवन-विरोधी
हैं। मैं जीवन
को परमात्मा
कहता हूं।
मेरे लिए जीवन
के अतिरिक्त
और कोई परमात्मा
नहीं है। जीवन
का ही दूसरा
नाम है परमात्मा।
जी भर कर जीना,
समग्रता से
जीना, परिपूर्णता
से जीना--मेरे
लिए धर्म का
इससे भिन्न
कुछ अर्थ नहीं
है। उनके लिए
संन्यास का
अर्थ है--सब छोड़-छाड़
कर भाग जाना।
और मेरे लिए
संन्यास का अर्थ
है--बीच बाजार
में असंपृक्त
खड़े हो जाना, भीड़-भाड़ में
अकेले खड़े हो
जाना। शोरगुल
में शांत
होना। उनके
लिए अर्थ
है--हिमालय की
गुफा। और मेरे
लिए है--बाजार;
लेकिन
बाजार में
शांति होनी
चाहिए।
हिमालय
की गुफा में
कौन शांत नहीं
हो जाएगा! कोई
भी शांत हो
जाएगा।
अशांति का कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन वह
शांति
तुम्हारी
नहीं है, हिमालय
की शांति है।
तुम्हारे
भीतर तो वही
रोग पलते
रहेंगे; दबे
पड़े रहेंगे, अवसर की
तलाश करेंगे।
जैसे बीज
पत्थर पर पड़ा
हो, अंकुरित
नहीं हो सकता;
लेकिन इससे
क्या तुम
सोचते हो बीज
रूपांतरित हो
गया? वर्षों
पड़ा रहे पत्थर
पर, लेकिन
जिस दिन इसको
भूमि मिल
जाएगी उसी दिन
अंकुर निकल
आएगा।
ये
तुम्हारे
तथाकथित
साधु-संन्यासी
बीज हैं पत्थरों
पर रखे हुए।
धोखा मत खाना, इनके
भीतर वासना का
अंकुर मर नहीं
गया है, सिर्फ
प्रतीक्षारत
है--अनुकूल
समय की; मेघ
घिरें, वर्षा
हो, वसंत
आए, भूमि
मिले--आतुर है,
भीतर तड़फा
जा रहा है।
भाग जाओगे
संसार से तो निश्चित
ही एक तरह की
शांति
मिलेगी--लेकिन
झूठी, नकली।
असली शांति तो
वही है जो
अशांति के बीच
में निर्मित
होती है। उसे
फिर कोई
दुनिया की शक्ति
नहीं तोड़
सकती। उसे फिर
दुनिया का कोई
उपद्रव नष्ट
नहीं कर सकता।
फिर तूफान आएं
तो आएं, आंधियां
उठें तो उठें;
तुम्हारे
भीतर जो शून्य
हो गया है, शांत
हो गया है, वह
अविच्छिन्न
रहेगा, अविरत
रहेगा, अछूता
रहेगा, क्वांरा
रहेगा।
शंकराचार्यों
की दृष्टि में
संन्यास
है--भगोड़ापन, पलायनवाद,
वैराग्य।
मेरी दृष्टि
में संन्यास
है--जीने और
मरने की कला।
मेरे लिए
संन्यास का
अर्थ है--समाधिस्थ
होने का
विज्ञान, और
भगोड़ापन
नहीं। मैं
भगोड़ेपन के
विरोध में हूं,
क्योंकि
भगोड़ापन भय से
पैदा होता है।
और जो बात भय
से पैदा होती
है, वह
तुम्हें कभी
भी भगवान के
पास नहीं ले
जा सकती।
लेकिन
तुम्हारा
भगवान भय का
भगवान है।
तुम्हारे सब
भगवान
तुम्हारे भय
से निर्मित
हैं। मैं
तुम्हें उस
भगवान की याद
दिलाना चाहता
हूं जो प्रेम
में प्रकट
होता है, भय
में नहीं। जो
प्रेम और
प्रार्थना
में प्रकट
होता है!
तुम्हारी तो
प्रार्थना भी
भय है। तुम्हारे
पैर कंप रहे
हैं। इसलिए
तुम प्रार्थना
तब करते हो जब
दुख में होते
हो। तुम्हें
दुख में भगवान
की याद आती
है। और मैं
चाहता हूं कि
तुम्हें सुख
में उसकी याद
आए। दुख में
तो किसी को भी
आ जाती है, दो
कौड़ी उसकी
कीमत है; सुख
में जिसे याद
आए।
मैं
तुम्हें
तपश्चर्या
नहीं सिखाना
चाहता। क्योंकि
शरीर को गलाना
और सताना
मानसिक रुग्णता
है;
नैसर्गिक
नहीं है यह
बात। मैं
चाहता हूं:
तुम सुख से
जीओ, सुविधा
से जीओ। मैं
चाहता हूं:
शरीर को तुम
मंदिर समझो, क्योंकि
उसमें
परमात्मा का
वास है। मंदिर
को साफ रखो, स्वच्छ रखो।
मंदिर को
स्वस्थ रखो, पोषण दो।
मंदिर का
धन्यवाद
मानो। देह
मंदिर है, पावन
है; पाप
नहीं है देह।
तुम्हारे
शंकराचार्य
समझाते हैं
पाप है; मैं
समझाता हूं
देह का
गरिमामय, महिमामय
रूप। देह
सुंदर है। देह
का कोई पाप नहीं
है। भूल-चूक
है तो मन की है,
देह की
नहीं। मन को
रूपांतरित
करो।
देह तो
सदा मन के
पीछे जाती है।
वेश्यागृह
जाना है, तो
देह
वेश्यागृह
चली जाती है।
और प्रभु के
मंदिर जाना है,
तो देह
प्रभु के मंदिर
ले जाती है।
चोरी करो तो
साथ है, दान
दो तो साथ है।
देह तो
तुम्हारी
सेवा में रत
है। मन को
बदलो। और मन
को बदलने की
प्रक्रिया
ध्यान है, त्याग
नहीं। शरीर को
सताना नहीं, गलाना नहीं;
वरन सोई हुई
चेतना को
जगाना, साक्षी
को जगाना।
मेरे
लिए संन्यास
का मौलिक अर्थ
है
साक्षीभाव।
और साक्षीभाव
के लिए संसार
सबसे
सुविधापूर्ण
अवसर है।
इसीलिए तो
परमात्मा ने
तुम्हें
संसार दिया।
परमात्मा
तुम्हें संसार
देता है और
तुम्हारे
तथाकथित
महात्मा कहते
हैं संसार
छोड़ो। मैं
तुम्हारे
महात्माओं के
विरोध में हूं, क्योंकि
मैं परमात्मा
के पक्ष में
हूं। मैं कहता
हूं: संसार
छोड़ो मत, संसार
में जागो!
संसार एक
अपूर्व अवसर
है जागने
का--चुनौती है!
स्वभावतः
तुम्हारे
शंकराचार्यों
को कठिनाई
होगी, अड़चन
होगी। उनकी
समझ भी बहुत
ज्यादा नहीं।
उनकी समझ बहुत
ज्यादा हो भी
नहीं सकती।
अन्यथा कोई
किसी और की
गद्दी पर
बैठता है!
अपने बैठने
योग्य जगह खुद
न बना सको तो
दूसरों की
गद्दियों पर
बैठना पड़ता है,
तो बासी
कुर्सियों पर
बैठना पड़ता
है।
अब तुम
देखते हो, कोई
आदमी
प्रधानमंत्री
हो जाता है, वह सोचता ही
नहीं कि कितनी
बासी कुर्सी
पर बैठा है!
कितने लोग उस
पर बैठ चुके, जा चुके। यह
तो होटल
के--भारतीय
होटल के--कप
में चाय पीना
है। दिन भर
कितने लोग पी
रहे हैं! फिर
चाहे तुम चाय
पीओ, चाहे
जीवन-जल
पीओ--इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता, कप
बहुत गंदा है।
जिनमें
थोड़ी भी
सामर्थ्य और
प्रतिभा होती
है,
वे अपने
बैठने की, कम
से कम अपने
बैठने की जगह तो
खुद बना
लेंगे। इतनी
भी जिनमें
प्रतिभा नहीं
है, ये
दूसरों की
गद्दियों पर
बैठते हैं। ये
उधार होते हैं,
ये बासे
हैं। आदमी
दूसरे के जूते
भी पहनना पसंद
नहीं करता, दूसरे के
उधार कपड़े भी
पहनना पसंद
नहीं करता, दूसरे का
जूठा खाना भी
पसंद नहीं
करता--और तुम्हारे
शंकराचार्य
दूसरों की
गद्दियों पर
बैठे हैं, दूसरों
के कपड़े पहने
हैं, दूसरों
के झंडे हाथ
में लिए हैं, दूसरों की
वाणी दोहरा
रहे हैं! इन
उधार लोगों की
बुद्धि कितनी
हो सकती है?
सरदारजी
जब अमेरिका से
वापस लौटे तो
साथ में एक
छोटी सी मानव
खोपड़ी भी लेकर
आए। अमृतसर में
उन्होंने एक
सभा की और सब
को सगर्व
बताया कि मैं
न्यूयार्क की
एक प्रसिद्ध
दुकान से गुरु
गोविंद सिंह
की खोपड़ी खरीद
कर लाया
हूं--नगद दस
लाख रुपयों
में! यह खोपड़ी
पिछले पांच सौ
वर्षों से
अमरीकन्स
सुरक्षित रखे
हुए थे।
यह
सुनते ही पहले
तो सभा में
तालियां बजीं, जय-जयकार
हो गई! लेकिन
फिर धीरे-धीरे
कुछ नवयुवकों
ने संदेह
उठाया कि गुरु
गोविंद सिंह
तो भारत में
जन्मे और भारत
में मरे, उनकी
खोपड़ी
अमेरिका कहां
से पहुंच गई? खैर यह भी
मान लिया जाए
कि कोई अमरीकन
पर्यटक यहां
से ले गया हो, तो अमेरिका
की सभ्यता की
उम्र भी तीन
सौ साल से
ज्यादा नहीं,
पांच सौ साल
पहले कौन
अमरीकन ले गया?
खैर यह भी
मान लिया जाए
कि कुछ तारीख
में भूल-चूक
हो गई होगी, तो सबसे बड़ा
सवाल यह उठता
है कि खोपड़ी
इतनी छोटी
क्यों है? गुरु
गोविंद सिंह
का सिर तो
काफी बड़ा था।
सरदारजी
को महसूस हुआ
कि उन्हें किस
तरह से बेवकूफ
बनाया गया है।
आव देखा न ताव, फौरन
अमेरिका वापस
गए और जाकर उस
दुकानदार की गर्दन
पकड़ ली। कहा, क्यों रे, मुझे समझता
क्या है? तूने
मुझे उल्लू
बनाने की
कोशिश की?
नहीं
सरदारजी, मैं
भला क्यों
आपको उल्लू
बनाने की
कोशिश करूंगा!
अमरीकन ने ऊपर
से कहा। मन में
तो सोचा होगा:
उल्लू तो आप
हैं ही, बनाने
की जरूरत क्या
है? बनाना
तो उन्हें
पड़ता है जो
उल्लू नहीं
होते। लेकिन
प्रकट में कहा
कि नहीं-नहीं,
मैं आपको
उल्लू बनाने
की कोशिश
क्यों करूंगा?
वह काम तो
खुद ईश्वर
पहले ही कर
चुका है। मगर,
खैर बताइए
इतनी नाराजगी
आखिर किस कारण
से है?
सरदारजी
बोले, तूने
मुझे झूठी
खोपड़ी दे दी!
बता, भला
गुरु गोविंद
सिंह की खोपड़ी
इतनी छोटी साइज
की कैसे हो
सकती है?
गजब कर
दिया आपने
भी--उस
दुकानदार ने
कहा--जरा सी
बात आपकी समझ
में न आई! अरे
सरदारजी, यह
गुरु गोविंद
सिंह की बचपन
की खोपड़ी है।
और
सरदारजी
संतुष्ट वापस
लौट आए कि ठीक
बात है, बचपन
की खोपड़ी तो
छोटी ही
होगी।...जैसे
आदमी हर साल
खोपड़ी बदलता
है!
मैं
तुम्हारे
शंकराचार्यों
में कोई
बुद्धिमत्ता
नहीं देखता
हूं;
जड़ता देखता
हूं, मूढ़ता
देखता हूं।
धर्म को तो ये
क्या समझेंगे?
धर्म को
समझने के लिए
महाप्रज्ञा
चाहिए, बड़ा
उदार हृदय
चाहिए और बड़ी
गहन शांति, मौन, शून्य
चाहिए। ये
बातें सिर्फ
विचार से समझ
लेने की नहीं
हैं; अनुभव
में
डूबने-उतरने
की हैं।
इसलिए
मैं कोई चिंता
नहीं लेता कि
कौन मेरे संबंध
में क्या कह
रहा है। उतना
समय भी क्यों
गंवाना? उतना
समय भी मैं उन
पर ही लगाना
चाहूंगा, जो
परवाने हैं, जो दीवाने
हैं, जो
मेरी इस
मधुशाला में
सम्मिलित हो
गए हैं। उनको
ही थोड़ी और
शराब पिलाऊं।
उनके लिए ही
थोड़ी और शराब
ढालूं। उनके
लिए ही और
थोड़े अनुभव के
रास्ते पर
सरकाऊं, धक्का
दूं।
मुझे
चिंता नहीं कि
मेरे संबंध
में कौन क्या
कहता है। जरा
भी,
तुम भी
चिंता न लेना।
इतना समय
गंवाना उचित
नहीं है।
लेकिन, आनंद
मैत्रेय, यह
सच है कि
विरोध
धार्मिक
लोगों द्वारा
ही मेरा होगा।
वही सबूत होगा
कि मैं जो कह
रहा हूं वह
सच्चा धर्म
है। अन्यथा
मेरे विरोध की
जरूरत भी क्या
है!
और
यहीं नहीं, सारी
दुनिया में
विरोध हो रहा
है।
शंकराचार्य
विरोध करें, ठीक है।
लेकिन पोप ने
अभी एक पांच
पृष्ठों का वक्तव्य
निकाला है।
रोम से किसी
संन्यासी ने मुझे
भेजा है। मेरे
नाम का उल्लेख
नहीं है, लेकिन
पूरा वक्तव्य
मेरे खिलाफ
है। किसी दूसरे
आदमी के खिलाफ
हो ही नहीं सकता;
क्योंकि
जो-जो कहा है
वह मैं ही कह
रहा हूं, कोई
दूसरा
व्यक्ति कह
नहीं रहा है।
और वक्तव्य के
अंत में यह
धमकी दी है--यह
धमकी है--कि जो
भी इस तरह के
लोगों की
बातें मान कर
चलेगा वह शाश्वत
काल के लिए
नरक की अग्नि
में सड़ेगा।
स्वभावतः
इस तरह की
बातों से लोग डर
जाते हैं।
अभी
मृदुला यूरोप
का भ्रमण करके
लौटी। जर्मनी
में उसे घुसने
नहीं दिया
गया--गैरिक
वस्त्रों के
कारण। मेरी
माला बाधा बन
गई। उसे बहुत
परेशान किया, दो-ढाई
घंटे एक कमरे
में बंद रखा।
उसके पासपोर्ट
पर सील-मुहर
लगा दी कि वह
जर्मनी में
प्रवेश नहीं
कर सकती। और
वापसी ट्रेन
में बिठा कर
उसको एकदम
वापस रवाना कर
दिया।
पर
मृदुला भी ऐसे
कुछ हार जाने
वाली तो है
नहीं। उसने
दूसरे एक कोने
से देश के, घुसने
की कोशिश की।
मगर
जर्मन तो
जर्मन, मृदुला
को भी हरा
दिया।
उन्होंने फिर
पकड़ लिया, फिर
वापसी गाड़ी
में बिठा
दिया। उसे
नहीं घुसने
दिया सो नहीं
घुसने दिया।
जर्मनी
में बड़ी
घबड़ाहट है, क्योंकि
एक बहुत बड़े
युवकों का
समूह संन्यासी
हुआ है। पूना
के बाद अगर
सबसे ज्यादा
संन्यासी
कहीं होंगे तो
म्यूनिख, जर्मनी
में, बर्लिन
में। हवा जोर
से फैल रही है,
लपट जोर से
फैल रही है।
घबड़ाहट स्वाभाविक
है। दूसरे
देशों में भी
व्याप्त हुई जा
रही है
घबड़ाहट। और
घबड़ाहट दो तरह
के लोगों में
है--पंडित-पुरोहितों
में और
राजनीतिज्ञों
में। धर्म सदा
ही दोनों के
विरोध में रहा
है; क्योंकि
धर्म चाहता है
कि तुम
राजनीति से
मुक्त हो जाओ
और धर्म चाहता
है कि तुम
धर्म के नाम
पर चलने वाले
पाखंडों से
मुक्त हो जाओ।
लेकिन
ये विरोध एक
अर्थ में
चुनौतियां
हैं,
उपयोगी
हैं। इनसे
मेरे काम को
सहायता मिलती
है; बाधा
नहीं पड़ती।
इनसे मेरे काम
में धार आती
है, निखार
आता है; बाधा
नहीं पड़ती।
दूसरा
प्रश्न:
भगवान!
मैं बुद्ध
होकर मरना नहीं
चाहती; मैं
बुद्ध होकर
जीना चाहती
हूं।
आनंद
ऋचा! जब तक चाह
है--कोई भी चाह, कैसी
भी चाह; यह
भी चाह कि मैं
बुद्ध होकर
मरना नहीं
चाहती, बुद्ध
होकर जीना
चाहती हूं--तब
तक तू बुद्ध
हो ही न सकेगी,
फिक्र न कर।
चाह के जो पार
जाता
है--समस्त चाह
के जो पार
जाता है--वही
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता
है। चाह ही तो
बांधे है। चाह
ही तो बंधन
है। तुम्हारे
हाथों पर
जंजीरें कौन
सी हैं? तुम्हारे
पैरों में
बेड़ियां कौन
सी हैं? तुम
किस कारागृह
में बंद हो? तुम्हें किन
पाशों ने जकड़ा
है? चाहें,
वासनाएं, तृष्णाएं--यह
हो जाऊं, वह
हो जाऊं; यह
पा लूं, वह
पा लूं!
सिकंदर
भारत आता था
तो यूनान के
एक बड़े फकीर डायोजनीज
से मिलने गया
था। डायोजनीज
नग्न, नदी के
तट पर सुबह की
धूप ले रहा
था। सिकंदर ने
जाकर कहा, डायोजनीज,
तुम
धन्यभागी
समझो अपने को!
महान सिकंदर
तुमसे मिलने
आया है!
डायोजनीज
हंसने लगा और
उसने कहा, जो
स्वयं को महान
कहता हो, वह
पागल है। और
मैंने तुझ
जैसा
दीन-दरिद्र
आदमी पहले
नहीं देखा। यह
महान होने का
दावा आंतरिक
हीनता को
छिपाने के लिए
ही किया जाता
है। ये आभूषण,
ये वस्त्र,
यह नंगी
तलवार, यह
काफिला, यह
फौज-फाटा, यह
सब दिखावा है।
भीतर तू बिलकुल
खाली है। लाख
उपाय कर, ऐसे
तू भरेगा
नहीं।
बात तो
सिकंदर को समझ
में पड़ी। इतनी
चोट से कही गई
थी,
इतने
बलपूर्वक कही
गई थी--और जिस
आदमी ने कही थी,
उसकी मस्ती
साफ थी, उसकी
मालकियत साफ
थी! सिकंदर
शर्म से झुक
गया और उसने
कहा कि मानता
हूं डायोजनीज,
तुम अकेले आदमी
हो जिसके
सामने मुझे
अपनी दीनता
अनुभव होती
है। तुम्हारे
पास कुछ भी
नहीं, फिर
तुम्हारे पास
क्या है जिसके
कारण मैं अचानक
दीन मालूम हो
रहा हूं? मेरे
पास सब कुछ है!
डायोजनीज
ने कहा, सब
कुछ है तेरे
पास, लेकिन
और की चाह है, इसलिए तू
भिखारी है।
मेरे पास कुछ
भी नहीं है, लेकिन और की
चाह नहीं है, इसलिए मैं
सम्राट हूं।
और देख, जिंदगी
हाथ से बीती
जाती है, और
मत गंवा!
सिकंदर
ने कहा, मिल
कर खुशी हुई।
और अगर दोबारा
ईश्वर ने मुझे
जन्म दिया तो
कहूंगा
उससे--इस बार
सिकंदर न बना,
इस बार
डायोजनीज
बना।
डायोजनीज
खिलखिला कर हंसने
लगा और उसने
कहा,
पागल हो
तुम! अरे अभी
डायोजनीज
क्यों नहीं हो
जाते? अगले
जन्म में क्या
भरोसा, याद
रख सको कि भूल
जाओ! फिर
परमात्मा
राजी हो, न
राजी हो। अगला
जन्म हो या न
हो। कल का
भरोसा नहीं, तुम अगले
जन्म पर टाल
रहे हो! अगर
बात जंचती है तो
आओ लेट जाओ
तुम भी नग्न
इस नदी के तट
पर। यह तट बड़ा
है, हम
दोनों के लिए
बहुत बड़ा है।
कोई झगड़ा नहीं,
तुम भी
विश्राम करो।
खूब दौड़े-धूपे,
खूब
आपा-धापी की!
आओ हम विश्राम
करें! अगर मैं
तुम्हारे मन
भा गया हूं तो
अभी हो जाओ
डायोजनीज, कौन
रोकता है? सिकंदर
होना हो तो
मुश्किल
मामला है; लेकिन
डायोजनीज
होना हो तो
बिलकुल सरल, क्योंकि
स्वाभाविक।
फेंक दो ये
वस्त्र! कह दो फौजों
से: नमस्कार!
वापस लौट जाओ!
मेरी विजयऱ्यात्रा
समाप्त हो गई।
मुझे जहां आना
था वहां आ
गया।
सिकंदर
ने कहा, यह
मुश्किल है, आज मुश्किल
है, अभी
मुश्किल है।
डायोजनीज
ने कहा, अगर
आज मुश्किल है,
अभी
मुश्किल है, तो सदा
मुश्किल
रहेगा। जो आज
हो सकता है, उसे कल पर मत
टालो। और जो
कल पर टालता
है, वह सदा
के लिए टाल
देता है। फिर
तुम्हारी
मर्जी।
सिकंदर
ने कहा, मैं
बहुत खुश हुआ
हूं मिल कर, बहुत
प्रभावित हुआ
हूं। मैं आपकी
कुछ सेवा कर
सकता हूं?
और
तुम्हें पता
है,
ऋचा, डायोजनीज
ने क्या कहा?
डायोजनीज
ने कहा, क्या
मांगूं, मेरी
कोई मांग
नहीं! क्या
चाहूं, मेरी
कोई चाह नहीं!
लेकिन अगर तुम
कुछ करना ही चाहते
हो तो तुम्हें
मैं निराश भी
नहीं भेजूंगा।
तुम जरा हट कर
खड़े हो जाओ, क्योंकि
तुमने धूप रोक
रखी
है।...धन्यवाद
कि तुमने मेरी
सुनी और हट कर
खड़े हो गए। और
स्मरण रखना, जिंदगी में
किसी की धूप
रोक कर खड़े मत
होना।
चोट
खाकर लौटा
सिकंदर, भयंकर
चोट खाकर
लौटा! चलते
वक्त कह कर
आया था डायोजनीज
से कि जब लौट
कर आ जाऊंगा, यात्रा पूरी
करके, तो
इसी जीवन में तुम्हारे
जैसा ही
जीऊंगा।
डायोजनीज ने
कहा, ऐसी
यात्राओं से
कोई कभी लौटता
नहीं। ये यात्राएं
वासना की इतनी
लंबी हैं, इनका
कोई अंत नहीं।
वासना कभी
पूरी होती है?
वासना
दुष्पूर है।
तृष्णा कभी
भरती नहीं। एक
तृष्णा मिटती
नहीं कि दस
पैदा हो जाती
हैं। तुम लौट
न सकोगे। कोई
कभी नहीं
लौटा। यह
यात्रा कभी
पूरी ही नहीं
होती। समझदार
बीच में ही
रुक जाते हैं,
पूरी करने
की चिंता नहीं
करते। नासमझ
कहते हैं:
पूरी करेंगे
यात्रा, फिर
रुकेंगे।
यात्रा ऐसी है
कि पूरी होती
ही नहीं। मौत
पहले आ जाती
है, यात्रा
का अंत नहीं
आता।
और यही
हुआ,
सिकंदर
लौटते वक्त
बीच में ही मर
गया, घर
वापस नहीं
पहुंच पाया।
संयोग
की बात, सिकंदर
और डायोजनीज
एक ही दिन
मरे। सिकंदर
जरा जल्दी, कोई घड़ी भर
पहले; और
डायोजनीज, कोई
घड़ी भर बाद।
कहानी
प्रचलित है, प्यारी
कहानी है, झूठी
ही होगी। मगर
झूठे होने से
उसका प्यारापन
कम नहीं होता।
और झूठे होने
से उसके भीतर
छिपी हुई सचाई
भी कम नहीं
होती। कभी-कभी
सच को झूठ के
आवरण लेने
पड़ते हैं, क्योंकि
सच सीधा प्रकट
नहीं हो सकता।
कभी-कभी सच को
झूठ की भाषा
उपयोग करनी
पड़ती है, क्योंकि
सच की कोई
भाषा नहीं है।
सच शून्य है, निःशब्द है।
तो यह
प्यारी कहानी
है। सिकंदर
वैतरणी पार कर
रहा है, स्वर्ग
जा रहा है।
उसने पीछे
किसी के आने
की खड़बड़-खड़बड़
की आवाज सुनी।
लौट कर
देखा--डायोजनीज!
एक क्षण को तो
खुश हुआ और एक
क्षण को उदास
भी, क्योंकि
वह डायोजनीज
फिर हंसेगा
खिलखिला कर और
वह कहेगा: कहा
था न मैंने कि
इस यात्रा को
तुम पूरा न कर
पाओगे? मर
गए न आखिर
मध्य में!
और
इसलिए भी मन
में उसके बड़ी
शर्म आ गई कि
डायोजनीज तो
नंगा था; जिंदगी
में भी नंगा
था, अब भी
नंगा था; सिकंदर
जिंदगी भर
सुंदर-सुंदर
वस्त्रों में ढंका
रहा, आज
नंगा था। अब
छिपाए अपने
नंगेपन को सो
कैसे छिपाए? बड़ी लाज लगी,
बड़ी संकोच
की दशा पैदा
हो गई। छिपाने
को लाज को, दबाने
को संकोच
को--इसके पहले
कि डायोजनीज
हंसे, सिकंदर
हंसा। हंसी
झूठी थी, खोखली
थी। और हंस कर
उसने
डायोजनीज को
कहा, कैसा
अपूर्व संयोग
है, एक
सम्राट और एक
फकीर का फिर
से मिलना हो
रहा है!
डायोजनीज
ने कहा, बात
तुम ठीक कहते
हो, लेकिन
जरा समझने में
भूल करते हो
कि सम्राट कौन
है और फकीर
कौन है।
सम्राट पीछे
है, फकीर
आगे है। फकीर
तुम हो। तुम
सब गंवा कर
लौट रहे हो, मैं सब कमा
कर लौट रहा
हूं। क्योंकि
तुम्हारी जिंदगी
चाह की जिंदगी
थी और मेरी
जिंदगी आनंद
की जिंदगी थी,
चाह की नहीं;
संतोष की, तृप्ति की।
ऋचा! यह
आकांक्षा भी
बाधा बन
जाएगी।
बुद्धत्व की
उपलब्धि के
बाद न जीवन
कुछ है, न
मृत्यु कुछ है;
दोनों खो
जाते हैं। जो
बच रहता है, वह है एक
शाश्वत
अस्तित्व--जिसका
न कोई प्रारंभ
है, न कोई
अंत है।
तू
कहती है: "मैं
बुद्ध होकर
मरना नहीं
चाहती।'
मृत्यु
का भय बना है
तो बुद्धत्व
उपलब्ध नहीं होगा।
तू
कहती है: "मैं
बुद्ध होकर
जीना चाहती
हूं।'
जीने
का लोभ बना है, जीवेषणा
बनी है, तो
बुद्धत्व
उपलब्ध नहीं
होगा।
बुद्धत्व तो उन्हें
उपलब्ध होता
है जो जानते
हैं: न हमारा कोई
जन्म है, न
हमारी कोई
मृत्यु है। जो
साक्षी होकर
देख लेते हैं
कि जन्म भी
देह का है, मृत्यु
भी देह की है; हम तो दोनों
के पार हैं, हम तो दोनों
से अतीत हैं।
जो इस
अतिक्रमण को उपलब्ध
हो जाते हैं, वे ही केवल
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
पाते हैं।
जीवन की घाटी में,
अंतस
की माटी में, उग
आए टीस भरे
घाव।
तेल
सभी चुक गया
अंतर
के दीप का।
लुट
गया हर मोती
आंखों
की सीप का।
शोकमय अकेले में,
सुधियों
के मेले में, मिला
हमें केवल
भटकाव।
पीड़ा
लुहारिन-सी
पीट
रही प्राण को।
कलियों
ने ठग लिया
भोले
पाषाण को।
हम इतने ऊबे हैं,
तड़पन
में डूबे हैं, टूट
रही सपनों की
नाव।
सांसों
के राम को
विरह-बनवास
हुआ।
आंसू
की गोद में
मन का
विकास हुआ।
हांफते
खिलाड़ी हम,
बहुत
ही अनाड़ी हम, हार
गए जीवन का
दांव।
ऋचा!
जिंदगी ने
दिया क्या? जिंदगी
में मिला क्या?
जीवन की घाटी में,
अंतस
की माटी में, उग
आए टीस भरे
घाव।
सिवाय
घावों के, सिवाय
पीड़ाओं के, सिवाय संताप
के और जीवन
में मिला क्या?
जीवेषणा
क्यों? जीने
की इतनी
आतुरता क्यों?
मरने का भय
क्या? मृत्यु
क्या छीन लेगी?
जब जीवन ने
कुछ दिया ही
नहीं तो
मृत्यु क्या छीन
लेगी?
तेल
सभी चुक गया
अंतर
के दीप का।
लुट
गया हर मोती
आंखों की सीप का।
सब लुट
गया जीवन में, फिर
भी हम पकड़े
बैठे हैं!
रस्सी जल गई, एंठ नहीं
जाती।
तेल
सभी चुक गया
अंतर
के दीप का।
लुट
गया हर मोती
आंखों
की सीप का।
जीवन की घाटी में,
अंतस
की माटी में, उग
आए टीस भरे
घाव।
जरा
खोल कर तो
देखो अपने
अंतस को--घाव
ही घाव! फूल तो
एक भी न
खिला--कांटे
ही कांटे! कमल
तो एक भी न
उगा--कीचड़ ही
कीचड़! फिर भी
अभीप्सा, फिर
भी जीवन को
पकड़े रहने की
आकांक्षा!
शोकमय अकेले में,
सुधियों
के मेले में, मिला
हमें केवल
भटकाव।
पाया
क्या इस भीड़
में?
मिला क्या
इस भीड़ में? केवल भटकाव।
पीड़ा
लुहारिन-सी
पीट
रही प्राण को।
कलियों
ने ठग लिया
भोले
पाषाण को।
हम इतने ऊबे हैं,
तड़पन
में डूबे हैं, टूट
रही सपनों की
नाव।
सब टूट
रहा,
नाव डूब रही;
मगर फिर भी
हम थेगड़े लगा
रहे हैं, नाव
के छिद्र भर
रहे हैं--बच
जाएं, किसी
तरह बच जाएं!
बच-बच
कर भी क्या
होता है? कितने
जन्मों में
जीए हो, कितनी
लंबी
यात्रा--सब
गंवाया ही
गंवाया!
सांसों
के राम को
विरह-बनवास
हुआ।
आंसू
की गोद में
मन का
विकास हुआ।
हांफते
खिलाड़ी हम,
बहुत
ही अनाड़ी हम, हार
गए जीवन का
दांव।
यहां
सब हार जाते
हैं,
यह जुआ ऐसा
है! जीतते
केवल वही हैं
जो चाह से
मुक्त हो जाते
हैं--जो चाह की
व्यर्थता को
देख लेते हैं;
जो तृष्णा
की दौड़ से जाग
जाते हैं; जो
वासना से हट
जाते हैं और
प्रार्थना
में लीन हो
जाते हैं।
जागो!
जागने का नाम
ही बुद्धत्व
है। जागो जीवन
से। जागो
मृत्यु से। बस
जागो! जो जाग
गया उसने जीवन
का परम धन पा
लिया है।
तीसरा
प्रश्न:
भगवान!
आप कहते हैं
कि जीवन में
कुछ मिलता नहीं।
फिर भी जीवन
से मोह छूटता
क्यों नहीं? समझ
में बात आती
है और फिर भी
समझ में नहीं
आती; समझ
में आते-आते
छूट जाती है, चूक जाती
है।
ज्ञानरंजन!
मुझे सुनते हो, मेरे
रस में डूब
जाते हो--जैसे
कोई बगीचे में
आए, और
बगीचे की गंध
में, बगीचे
की सुगंध में
और बगीचे के
रंगों में लवलीन
हो जाए, और
क्षण भर को
भूल जाए संसार
की सारी
चिंताएं, ऊहापोह!
लेकिन फिर
बगीचे के बाहर
लौटेगा, फिर
वही नाली की
दुर्गंध, फिर
वही भीड़-भाड़।
रंग खो जाएंगे,
गंध खो
जाएगी। फिर
वही चिंताओं
का उभार, फिर
वही...।
मुझे
सुनते हो, अभी
समझे नहीं हो।
सुनते-सुनते
लगता है, भ्रांति
होती है कि
समझ में आ
गया। समझ में
जिस दिन आ
जाएगा उस दिन
फिर छूटेगा
नहीं; वही
कसौटी है समझ
की। इसी कसौटी
पर कसना। जैसे
सुनार कसौटी रखता
है सोने को
कसने की, कस-कस
कर देख लेता
है--क्या सोना
है और क्या
पीतल है? तुम्हें
मैं यह कसौटी
देता हूं: जो
बात तुम्हारी
समझ में आ
जाएगी वह
तुम्हारा
जीवन बन जाएगी;
उससे
अन्यथा तुम न
कर पाओगे, न
जी पाओगे। जो
बात केवल
बौद्धिक रूप
से समझ में आ
जाएगी और जीवन
नहीं बनेगी, समझना कि
तुम समझे ही
नहीं। बुद्धि
को लगेगा कि
बात समझ में आ
गई, क्योंकि
शब्द समझ में
आ गए। मगर
शब्दों को समझना
बात को समझना
नहीं है। बात
को समझना कुछ
और है; वह
मस्तिष्क का
काम नहीं है, वह हृदय का
काम है।
मैं जो
बोल रहा हूं, सीधे-सादे
शब्द हैं।
मेरे पास कोई
पंडित की भाषा
नहीं है। मैं
पंडित हूं
नहीं। मैं जो
बोल रहा हूं, बोलचाल की
भाषा है। यह
कोई प्रवचन भी
नहीं। बातचीत
कर रहा हूं
तुमसे--बतकही
है, वार्ता
नहीं। यह कोई
धार्मिक, शास्त्रीय
उद्बोधन नहीं
है। मित्रों
के बीच होती
हुई गुफ्तगू
है। तो सब समझ
में आ जाता है
जो मैं कहता
हूं।
अगर
संस्कृत के
दुरूह शब्दों
में बोलता, लैटिन
और ग्रीक का
उद्धरण देता,
तो
तुम्हारी समझ
में न आता। और
अक्सर ऐसा हो
जाता है: जो
तुम्हारी समझ
में नहीं आता,
तुम सोचते
हो बहुत
गुरु-गंभीर
है। इसीलिए तो
पंडित मुर्दा
भाषाओं से
चिपके रहते
हैं। न उनकी
समझ में आता
है, न
जिनको समझाते
हैं उनकी समझ
में आता है।
मगर दोनों
मानते हैं कि
बात होगी बहुत
गुरु-गंभीर!
सभी
धर्म अपने
धर्मग्रंथों
का अनुवाद
बोलचाल की
भाषाओं में
करने के बड़े
विरोधी थे, बड़ी
मुश्किल से
अनुवाद होने
दिया। मैं
उनकी बात
समझता हूं। वह
विरोध बिलकुल
ठीक है। वह
विरोध वैसा ही
है जैसा
डाक्टर जब
दवाई का
नुस्खा लिखता
है तो इस ढंग
से लिखता है
कि सिर्फ
केमिस्ट ही पढ़
सकेगा, वह
भी मुश्किल
से। क्योंकि
अगर बीमार खुद
पढ़ ले नुस्खा,
तो केमिस्ट
उतने दाम न ले
सकेगा और न
डाक्टर उतनी
फीस ले सकेगा।
फिर
डाक्टर लिखता
है
लैटिन-ग्रीक
नामों में। न
तुम समझो, न
कोई और समझे।
अगर लिख दे
सीधी-सादी
भाषा में, कामचलाऊ
भाषा में, तो
तुम जाकर
केमिस्ट को दस
रुपये नहीं दे
सकोगे और न
डाक्टर को
पचास रुपये
फीस चुका
सकोगे। समझो
कि लिख दे कि
अजवाइन का
सत्त। अब
केमिस्ट तुमसे
दस रुपये
मांगे तो जूता
निकाल लोगे।
अजवाइन का
सत्त और दस
रुपया! दो
पैसे की
अजवाइन, घर
ही निकाल
लेंगे सत्त!
और डाक्टर जब
मांगेगा पचास
रुपया तो तुम
डाक्टर का
सत्त निकाल
दोगे! लेकिन
लैटिन-ग्रीक
में लिखता है,
कुछ समझ में
नहीं आता।
मुल्ला
नसरुद्दीन तो
मुझसे कह रहा
था कि एक
डाक्टर ने
क्या नुस्खा
लिखा, आज दो
महीने हो गए, सिनेमा में
जाता हूं तो
पास के काम
आता है। ट्रेन
में सफर करता
हूं बंबई-पूना,
तो पास के
काम आता है।
क्योंकि जो भी
उसे देखता है,
पढ़ सकता
नहीं; पढ़
नहीं सकता, मान भी नहीं
सकता कि पढ़
नहीं सकता हूं;
जल्दी से
वापस दे देता
है कि ठीक है।
आखिर अपने-अपने
को अपना
अज्ञान तो
छिपाना है।
पंडित-पुरोहित
भी यही कला
उपयोग लाते
रहे हैं। अगर
तुम वेद को
हिंदी में पढ़ो
तो तुम बहुत
हैरान हो
जाओगे कि जिस
वेद की इतनी
चर्चा की थी, क्या
यह वही वेद है!
जिस वेद पर
रोज सिर रखते
थे, क्या
यह वही वेद है!
जिस पर फूल
चढ़ाते थे, क्या
ये वही ऋचाएं
हैं!
हां, वेद
में जरूर
ऋचाएं हैं एक
प्रतिशत, जो
अदभुत हैं।
मगर एक
प्रतिशत!
निन्यानबे
प्रतिशत तो
कचरा है। अगर
तुम्हें
शुद्ध-शुद्ध
हिंदी में वेद
प्रकट कर दिया
जाए तो तुम
फिर सिर नहीं
रख सकोगे वेद
पर, क्योंकि
वह एक प्रतिशत
तो ठीक है, अदभुत
है, महर्षियों
के वचन हैं, प्रबुद्ध
पुरुषों के
वचन हैं; लेकिन
कूड़ा-करकट भी
इकट्ठा है।
क्योंकि उन दिनों
जो भी उपलब्ध
था सब वेद में
इकट्ठा कर लिया
गया है। वह उस
समय की सारी
सार-संपत्ति
है। उन दिनों
अखबार नहीं
होते थे, कहानी-किस्से
नहीं होते थे,
रेडियो
नहीं था, टेलीविजन
नहीं था, फिल्म
नहीं थी, इतिहास
नहीं था, साहित्य
नहीं था; वेद
ही सब कुछ था।
तो जो भी उस
समय की
सार-संपदा थी,
सभी इकट्ठी
कर ली गई है।
उसमें
कूड़ा-करकट भी
है, जैसा
अखबारों में
होता है।
जैसे
कि एक आदमी प्रार्थना
कर रहा है
इंद्र देवता
से कि हे इंद्र
देवता, मैं
तेरी पूजा
करूंगा, यज्ञ
करूंगा, हवन
करूंगा; मगर
कुछ ऐसा कर कि
मेरी गउओं के
थन में दूध बढ़
जाए!
अब
इसको तुम
कहोगे कि सिर
रखने योग्य
वचन है? फूल
चढ़ाने योग्य
वचन है?
मगर
इसमें भी कुछ
ऐसा बुरा नहीं; गउओं
का दूध बढ़ जाए,
ठीक ही है।
गऊ माता का
दूध बढ़ जाएगा,
हर्ज क्या
है! रख लिया
सिर, चलेगा।
मगर एक दूसरा
आदमी
प्रार्थना कर
रहा है कि हे
इंद्र देवता,
हवन करूंगा,
यज्ञ
करूंगा; कुछ
ऐसा कर कि
मेरे खेत में
तो ज्यादा
वर्षा हो और
पड़ोसी के खेत
में कम!
अब
इसमें सिर रखोगे? थोड़ा
संकोच होगा कि
यह बात तो कुछ
धार्मिक नहीं
मालूम पड़ती।
और इंद्र
देवता भी इस
तरह की रिश्वतें
लेकर इस तरह
के काम करते
रहे कि पड़ोसी के
खेत में कम...।
इतना ही नहीं
कि अपनी गऊ के
थन में दूध
बढ़वा लिया, पड़ोसी के गऊ
के थन का दूध
कम भी करवा
दिया! और इंद्र
देवता ने हवन
के लोभ में यह
भी कर दिया।
तो तुम्हारी
इंद्र देवता
पर भी श्रद्धा
कम हो जाएगी।
मगर
प्राचीन
संस्कृत में
लिखा हुआ वेद, तुम्हारी
कुछ समझ में
आता नहीं, तो
मजे से पूजा
करते जाओ, कोई
अड़चन नहीं
आती। हिब्रू
में लिखी हुई
पुरानी
बाइबिल की
पूजा की जा
सकती है, लेकिन
जब ठीक-ठीक
समझ में आने
वाली भाषा में
लिखी जाएगी, किसी जीवित
भाषा में, तुम
जरा मुश्किल
में पड़ोगे।
क्योंकि
पुरानी बाइबिल
का ईश्वर कहता
है कि मैं
बहुतर् ईष्यालु
ईश्वर हूं। जो
मेरी आज्ञा
नहीं मानेंगे
उनको नरकों
में सड़ाऊंगा
और जो मेरी
आज्ञा मानेंगे
वे स्वर्ग के
सुख भोगेंगे।
र्ालु
ईश्वर?र्
ईष्या से तो
मुक्त होना
चाहिए मनुष्य
को भी--और यह
ईश्वर खुद ही
कह रहा है कि
आई एम ए वेरी
जैलस गॉड, कि
मैं बहुतर्
ईष्यालु
ईश्वर हूं!
सावधान! अगर
मेरी आज्ञा
नहीं मानी तो
नरकों में
सड़ाऊंगा। यह
तो कोई
तानाशाह हुआ।
यह अडोल्फ
हिटलर बोल रहा
हो, ऐसा
मालूम पड़ता है;
कि
मुसोलिनी बोल
रहा हो, ऐसा
मालूम पड़ता
है। ईश्वर की
यह भाषा है!
और एक
गांव में कुछ
लोगों ने गलत
काम किया और ईश्वर
इतना नाराज
हुआ कि उसने
पूरे गांव को
भस्मीभूत कर
दिया।
कुछ
लोगों ने बुरा
काम किया, चलो
उन कुछ लोगों
को भस्मीभूत
कर देते, क्षम्य
था। यद्यपि
ईश्वर को यह
भी शोभा नहीं
देता। ईश्वर
तो महाकरुणा
है। लेकिन
पूरे गांव को
भस्मीभूत कर
दिया, जिन्होंने
पाप नहीं किया
था उनको
भी--बूढ़े, स्त्रियां,
बच्चे, अबोध
बच्चे! मां के
पेट में जो
बच्चे थे वे
भी--जिन्हें
पाप करने का
अभी अवसर ही
नहीं मिला था,
पुण्य करने
का भी अवसर
नहीं मिला
था--उन सबको ही
भस्मीभूत कर
दिया! यह तो
ऐसे ही हुआ
जैसे कोई हिरोशिमा
पर एटम बम
गिरा
दे--निरीह, अबोध
लोगों पर। एक
छोटी बच्ची
अपना होमवर्क
करके अपना
बस्ता लिए
सीढ़ियों से
उतर रही थी, सोने जा रही
थी, और एटम
गिरा
हिरोशिमा पर।
अपने होमवर्क,
अपनी
किताबें, कापियां,
स्लेट, अपने
बस्ते के साथ
भस्मीभूत
होकर दीवाल से
चिपट कर रह
गई। उसका
चित्र बाद में
छपा--राख! लेकिन
खबर देती है
कि कभी यह राख
बच्ची रही
होगी। अभी भी
जल गया बस्ता,
उसकी बगल
में राख होकर
दीवाल से लगा
हुआ है। सिर्फ
एक छाया रह गई
है दीवाल पर।
इस बच्ची ने
क्या कसूर
किया था? यह
तो कोई दूसरे
महायुद्ध के
लिए
जिम्मेवार न थी।
हम
हिरोशिमा और
नागासाकी के
हत्यारों को
माफ नहीं कर
पाए तो हम उस
ईश्वर को कैसे
माफ करेंगे, जिसने
नगरों को
बरबाद कर दिया
क्योंकि कुछ
लोगों ने पाप
किया!
नहीं
लेकिन, हिब्रू
में जब यह बात
पढ़ोगे, कुछ
समझ में न
आएगी।
मैं तो
सीधी-सादी
भाषा बोल रहा
हूं
ज्ञानरंजन, इसलिए
समझ में तो सब
बात आ जाती
है। और तब
तुम्हें अड़चन
होती है। समझ
में तो आ जाती
है, फिर
जीवन में
क्यों नहीं
उतरती?
तुम्हें
यह कहा गया है
बार-बार कि
पहले समझो, फिर
जीवन में
उतारो। मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं: यह
बात गलत है।
समझ में कोई
बात आ जाए तो
जीवन में
उतरती ही है; तुम न भी
चाहो, तो
भी उतरती है।
कोई उपाय नहीं
बचने का।
इसलिए मैं यह
नहीं कहता कि
पहले समझो, फिर जीवन
में उतारो।
मैं तो इतना
ही कहता हूं:
समझो! जीवन
अपनी फिक्र ले
लेगा। समझ के विपरीत
कोई आदमी कभी
नहीं गया है।
अगर तुम समझ
के विपरीत
जाते हो तो
उसका मतलब यह
हुआ कि जिसको
तुम समझ कह
रहे हो, वह
तुम्हारी
असली समझ नहीं
है; उसके
नीचे दबी हुई
असली समझ और
है, उसके
अनुसार तुम चल
रहे हो।
मैंने
कहा कि जीवन
और मृत्यु के
साक्षी हो
जाओ। तुमने
सुना, बात समझ
में आई, क्योंकि
शब्द
सीधे-सादे
हैं। मगर जीवन
और मृत्यु का
साक्षी हो
जाना
सीधा-सादा
मामला नहीं है।
अगर जीवन भर
के प्रयास से
भी हो जाओ तो
समझना कि
जल्दी हो गए, तो समझना कि
देर नहीं हुई।
लेकिन
तुम्हारा
जीवन क्या है? वहां
साक्षी का
मौका ही कहां
है? तुम्हारा
जीवन तो
कोल्हू के बैल
जैसा है, चक्कर
खा रहे हो।
वही-वही रोज
करते हो, साक्षी
नहीं होते। कल
भी क्रोध किया
था, परसों
भी क्रोध किया
था, आज भी
क्रोध किया
है। और डर है
कि कल भी
करोगे, परसों
भी करोगे। वही
क्रोध, वही
कारण।
साक्षी
होने के लिए
परमात्मा
कितने मौके
देता है!
रोज-रोज देता
है! मगर तुम हो
कि चूके जाते
हो। तुम्हारी
आदतें जड़ हो
गई हैं। हां, मेरी
बात सुन लेते
हो। मेरी इस
बगिया में गंध
से पूरित हो
जाते हो।
ज्योतिर्मय
लगते हो भीतर!
आश्रम के
द्वार से बाहर
हुए कि फिर
वही कोल्हू के
बैल बन जाते
हो, फिर
आंखों पर
पट्टियां चढ़ा
लेते हो।
मैं जो
कह रहा हूं
इसे हृदय में
डूब जाने दो।
इसे सिर्फ
समझो मत
तार्किक रूप
से। तर्क कोई
समझने की
ठीक-ठीक
व्यवस्था
नहीं है। इसे
प्रेम से
समझो। इसे
श्रद्धा से
लो। इसे हृदय
का आंचल फैला
कर भर लो। और
फिर चौबीस
घंटे के जीवन
में जब भी
मौका मिल जाए
तब जरा इसकी
फिर-फिर सुध
लेना, ताकि
कोल्हू के बैल
में जब तुम
जुत जाओ तो
कभी-कभी
साक्षी हो
सको!
धीरे-धीरे
साक्षी का रस
बढ़ेगा।
जरा
अपनी जिंदगी
को तो देखो!
सुबह
से रात तक
वही वह!
वही वह!
बंदरछाप
दंतमंजन,
वही
चाय,
वही रंजन,
वे ही
गाने, वे ही
तराने,
वे ही
मूर्ख, वे ही
सयाने,
सुबह
से रात तक
वही वह!
वही वह!
भोजनालय
भी बदल देखे
(जीभ
बदलना संभव न
था)
"महाराजिन'
से "ताजमहल'
सभी
जगह एक हाल।
नरम
मसाला, गरम
मसाला,
वही
वही भाजीपाला,
वही
वही बासी चटनी
वही
वही खट्टा
सांबर,
सुख
थोड़े, दुख
अपार!
संसार
के वट पर
सपनों
के चमगादड़!
इन
सपनों के
शिल्पकार
कवि एक, कपि
अनेक
परदे
पर की
भूतचेष्टा
बासी
शाक,
नपुंसक
विनोद;
भ्रष्ट
कथा,
नष्ट बोध,
नौ
धागे, एक रंग,
व्यभिचार
के सारे ढंग!
फिर-फिर
से वही भोग,
आसक्ति
का वही रोग।
वही
मंदिर, वही
मूर्ति
वही
फूल,
वही
स्फूर्ति
वही
होंठ, वही
चितवन,
वही
चाल,
वही मटकन,
वही
पलंग, वही
नारी
सितार
नहीं, एक तारी!
लगा
करूं
आत्महत्या,
रोमियो
की आत्महत्या,
दधीचि
की आत्महत्या!
आत्महत्या
भी वही वह!
आत्मा
भी वही वह
हत्या
भी वही वह
कारण जीवन
भी वही वह
और मरण
भी वही वह!
जरा
देखो, जिंदगी
को गौर से
देखो! जरा दूर
खड़े होकर अपनी
जिंदगी को
देखो, एक
फासला बनाओ।
और तुम पाओगे:
एक चक्कर है, जिसमें तुम
घूम रहे हो! इस
चक्कर में
जागना है।
चलो--जाग
कर चलो, ज्ञानरंजन!
बैठो--जागते
हुए बैठो, ज्ञानरंजन!
सोओ बिस्तर पर
तो भी जागते
हुए लेटो, ज्ञानरंजन!
और एक दिन वह
घड़ी भी आ
जाएगी कि रात शरीर
सोएगा और तुम
जागोगे। और एक
दिन वह घड़ी भी
आ जाएगी कि
जीवन के सब
काम भी तुम
करोगे और फिर
भी भीतर जागते
रहोगे, साक्षी
बने रहोगे। उस
दिन ही जानना
कि मेरी बात
समझे। उसके
पहले शब्द ही
समझे, बात
नहीं। बात में
बात छिपी है।
शब्दों के भीतर
निःशब्द छिपा
है।
मैं
तुम्हें कोई
उपदेश नहीं दे
रहा हूं। मैं
तुम्हें
सिर्फ मैंने
जो जाना है
उसमें साझीदार
बना रहा हूं।
मेरी ज्योति
में भागीदार
बनो। मेरी
सुगंध को अपनी
सुगंध मत
बनाओ। मेरी
सुगंध को देख
कर अपनी सुगंध
को जगाओ। मेरे
शब्दों को मत
दोहराने लगना, अन्यथा
पंडित हो
जाओगे। अपने
अनुभव को
जगाओ।
मुझे
हो सका है, तुम्हें
भी हो सकता
है। बस इतनी
ही मेरी उदघोषणा
है कि मुझ
जैसे साधारण
व्यक्ति को हो
सकता है तो
तुमको भी हो
सकता है। ठीक
वैसी ही
हड्डी-मांस-मज्जा
से मैं बना
हूं जैसे तुम।
वैसे ही अंधेरे
रास्तों से
मैं गुजरा हूं
जिनसे तुम
गुजर रहे हो।
इतना ही अंधा
मैं था जितने
तुम हो। लेकिन
मेरी आंख खुल
सकी, अंधेरा
टूट सका; तुम्हारा
भी टूट सकता
है। मुझे देख
कर यह आस्था
जगे तो तुम
मुझे समझे।
मुझे देख कर
तुम्हें अपने
पर यह श्रद्धा
आ जाए तो तुम
मुझे समझे।
मैं
नहीं कहता
किसी और पर
श्रद्धा करो।
मैं कहता हूं:
आत्म-श्रद्धावान
बनो। क्योंकि
आत्म-श्रद्धा
ही परमात्मा
से जोड़ने वाला
सेतु है।
आज
इतना ही।
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