दिनांक
25 जून 1976;
श्री
ओशो आश्रम, पूना।
बउलगीत:
आओ!
मेरे पास आओ
यदि
तुम किसी अलग
तरह के नूतन
और स्वाभाविक
मनुष्य से
भेंट
करना
चाहते हो
तो
मेरे पास आओ।
उसने
उस झोली के
लिए
जो
भिखारी अपने
कंधे पर
लटकाये रहते
हैं
अपनी
सारी
सांसारिक
सम्पत्ति को
व्यर्थ जान कर
छोड़ दिया है।
जब भी
वह गंगा में
नहाने उतरता
है
वह काल
की देवी
शाश्वत मां
काली का नाम
लेता है।
साधारण
शब्द भी
अज्ञान और
अविश्वास को
मिटा सकते हैं,
काली
और कृष्ण, प्रकृति
और पुरुष एक
ही हैं।
शब्दों
में फर्क हो
सकता है, लेकिन
अर्थ ठीक ठीक
वही हैं।
वह—जिसने
शब्दों के
सारे अवरोध
तोड दिए,
उसने
सारी सीमाओं
पर विजय
प्राप्त कर ली।
अल्लाह
या जीसस मोजेज
अथवा काली
गरीब
या अमीर
साधू
या मूरख
ये सभी
एक हैं, और उसके लिए
इनमें कोई
फर्क नहीं।
अपने
ही खयालों में
खोया हुआ वह
व्यक्ति,
दूसरे लोगो
को पागल लगता
है।
वह
पूरे संसार का
स्वागत करने
के लिए अपनी
बांहें
फैलाकर
उन सभी को
अपनी नाव पर
जो अभी
जीवन के
किनारे से
बंधी हुई है
उस पार ले
जाने के लिए
आमंत्रित
करता है।
यदि तुम उस
नूतन मनुष्य
से मिलना
चाहते हो, तो मेरे
पास आओ।
बाउलों
की पूरी खोज
ही उस नए
मनुष्य अथवा ' आधार
मानुष ' की
खोज है। कौन
है यह नया
मनुष्य?
तुम
अपने जीवन को
दो तरह से जी
सकते हो या तो
तुम एक ऐसा
मनुष्य बनकर
रहो, जो
स्वयं अपने
होने में मस्त
है। अथवा तुम
एक ऐसा मनुष्य
बनकर जियो, जिसके पास
वस्तुएं हों।
या तो तुम
अपने आप में डबे
हो सकते हो, अथवा
तुम्हारे पास
बहुत सी
सांसारिक
चीजें हो सकती
हैं। या तो
तुम चीजों को इकट्ठा
कर सकते हो और
उनके द्वारा
अधिकार में लिए
जा सकते हो
अथवा तुम
स्वयं को
प्राप्त कर स्वयं
के ही मालिक
हो सकते हो और
किसी की भी गुलामी
में नहीं रहते।
वस्तुओं का
संग्रह करने
वाले व्यक्ति
की पूरी तरह
से दिशा ही
भिन्न होती है।
ऐसे ही मनुष्य
को बाउल
सांसारिक
मनुष्य कहते
हैं। ऐसा
मनुष्य केवल
धन सम्पत्ति
के सम्बन्ध
में, वस्तुओं
और पदार्थों
के सच्चपध में
और बैंक बैलेंस
के सम्बंध में
ही सोचता है।
वह यह भी
सोचता है कि
उसके पास यह
सब कुछ जितना अधिक
होगा, वह
उतना ही अधिक
महत्त्वपूर्ण
होगा। यही
उसको भटकाने
वाले तर्कों
का सबसे
आधारभूत तर्क
है।
तुम्हारे
पास पूरे
संसार का भी
वैभव हो सकता
है और तुम फिर
भी भिखारी हो
सकते हो।
तुम्हारे पास
वह सब कुछ हो
सकता है जो भी
पूरा संसार
तुम्हें दे
सकता है और
फिर भी तुम
खाली के खाली
ही रहोगे।
महान—
सिकंदर की
मृत्यु हुई।
वह सांसारिक
मनुष्य का एक
सशक्त प्रतीक
है। वह पूरे
विश्व पर विजय
प्राप्त करना
चाहता था और
उसने ऐसा लगभग
किया भी।
लेकिन अपने
मरने से पहले
उसने अपने
सेनापतियों
से कहा—’‘ मरने पर
मेरे दोनों
हाथ ताबूत के
बाहर लटके रहने
देना।’’ उन्होंने
कहा—’‘ ऐसा
हमने कभी सुना
ही नहीं. .फिर ऐसी
परम्परा भी
नहीं है। और
आप ऐसी व्यर्थ
की चीज आखिर
क्यों करना
चाहते हैं?'' सिकंदर ने
कहा—’‘ यह
व्यर्थ की बात
नहीं है। इसका
मेरे जीवन के
साथ एक
विशिष्ट
सम्बन्ध है।
मैं चाहता हूं
कि लोग देखें
कि मैं खाली
हाथों ही जा
रहा हूं। मैं
खाली हाथों ही
इस दुनिया में
आया था और मैं
खाली हाथों से
इस दुनिया से
विदा हो रहा
हूं। और मेरा
पूरा जीवन ही
व्यर्थ गया।’’
एक
व्यक्ति को
निश्चित ही
कुछ समझदार
होना ही चाहिए
क्योंकि
अधिकतर लोग
मरते समय भी
चीजों से ही
बंधे रहते हैं, वे फिर भी
सजग नहीं होते
कि उनके हाथ
खाली के खाली
ही हैं, वे
फिर भी नहीं
समझते कि उनके
हृदय रीते हैं,
वे फिर भी
इसके प्रति
सचेत नहीं
होते कि उन्होंने
अपना पूरा
जीवन व्यर्थ
ही नष्ट कर
दिया और वह
केवल एक भयानक
स्वप्न बनकर
रह गया।
वस्तुओं
पर पकड़ रखने
वाला
परिग्रही
मनुष्य अधिक
से अधिक
इकट्ठा ही किए
चला जाता है।
आवश्यक बात यह
नहीं है कि वह
क्या इकट्ठा
करता है, उसका जोर
संग्रह करने
पर होता है।
उसकी आत्मा
उसकी चीजों के
संग्रह में ही
बसती है।
वह क्या
संग्रह कर रहा
है, वह
महत्वपूर्ण
नहीं है। वह
धन सम्पति
इकट्ठी कर
सकता है, वह
जानकारी बटोर
कर ज्ञानी बन
सकता है, वह
अहंकार
इकट्ठा कर
सकता है, वह
विनम्रता और
दीनता जोड़ कर
विनम्रता का
अवतार बन सकता
है। वह इस
ससार की वस्तओं
का संग्रह करे
अथवा वह दूसरे
संसार की अच्छाईयों
और नैतिक
गुणों का संचय
करे, लेकिन
वह संग्रह
अवश्य करता है।
उसका
अस्तित्व
चीजों के कारण
ही होता है।
उसे
तभी अच्छा
लगता है, जब उसके पास
बहुत कुछ होता
है, जब वह
अनुभव करता है
कि उसके हाथ
भरे हुए हैं, कम से कम
बाहर से तो
भरे— भरे लगते
हैं। उसे यह
अनुभव करने
में अच्छा
लगता है कि वह
कुछ प्राप्त
कर रहा है। वह
सफल होता जा
रहा है।
बाउलों के
पारभाषिक
शब्दों में
यही पुराना
मनुष्य है। यह
पुराना
मनुष्य सदा
अस्तित्व में
रहा है। यह
मनुष्य सड़ा
हुआ दुखी और
रुग्ण है। यह
एक तरह की
बीमारी है, यह विचार ही
कि तुम्हारे
पास बहुत सारी
चीजें होनी
चाहिए
तुम्हारा समय
और ऊर्जा
बरबाद करती है।
और तुम्हें यह
जानने नहीं
देती कि तुम
हो कौन?
बाउल उस दिशा
को उत्तम कहते
हैं, जिसमें
तुम
अस्तित्वगत
दशा के सम्बंध
में, एक
विशिष्ट आंतरिक
अकेलेपन के
सम्बंध में, एक विशिष्ट आंतरिक
चेतना और उसके
केंद्रित
होने और गहरी
जड़ों के
सम्बन्ध में
विचार करना
शुरू कर देते
हो और तुम्हें
इसकी एक
विशिष्ट
अनुभूति होनी
शुरू हो जाती
है कि तुम कौन
हो।
क्या
तुमने कभी इस
बात पर गौर
किया है कि
कभी तुम ऐसे
व्यक्ति के
सम्पर्क में
आते हो, जिसमें कोई
भी बात दिखाई
तो नहीं देती,
लेकिन फिर
भी तुम उसके
चारों ओर एक
तीव्र ऊर्जा
का अनुभव करते
हो। उसका
प्रभाव लगभग
चुम्बकीय और
सम्मोहक होता है।
वह तुम्हारी आंखों
की ओर देखता
है और तुम
उसकी आंखों की
ओर नहीं देख
सकते। उसमें
एक महान शक्ति
होती है और वह
शक्ति किन्हीं
वस्तुओं की
नहीं होती
क्योंकि उसके
पास कोई भी
वस्तु नहीं हो
सकती। वह राह
पर चलने वाला
एक भिखारी भी
हो सकता है।
वह राजनीति से
आने वाली शक्ति
भी नहीं है।
वह हो सकता है
एक
प्रधानमंत्री
या एक राष्ट्रपति
भी हो, क्योंकि
उसकी वह शक्ति
भी बोगस होती
है। वह शक्ति
कुर्सी की
होती है, व्यक्ति
की नहीं। वह
कुर्सी में
निहित होती है,
कुर्सी पर
बैठने वाले
में नहीं। एक बार
वह कुर्सी से
उतरा नहीं, फिर वह उतना
ही शक्तिहीन
होता है जितने
तुम।
रिचर्ड
निक्सन को
देखो, जब
वह
राष्ट्रपति
थे तो उसके
पास अत्यधिक
शक्ति थी। अब
वे केवल मात्र
एक सामान्य
नागरिक हैं।
उनकी वह सभी
शक्ति गायब हो
गई। वह शक्ति
उनकी नहीं थी,
वह एक
प्रतिबिंबित
गौरव था।
और तुम इसे
देख सकते हो, वह बहुत कठिन
नहीं है। तुम ऐसे
व्यक्तियों
को जानते हो
जिनके पास
बहुत अधिक
शक्ति है—वस्तुओं
की शक्ति, बड़े
महलों की
शक्ति, राजनीति
की शक्ति, धन
प्रतिष्ठा और
पैतृक विरासत
की शक्ति लेकिन
तुम देख सकते
हो कि वे सभी
दीन व्यक्ति
हैं। उनके पास
अपनी कोई भी
शक्ति नहीं है।
उनकी आत्माओं
में कोई
चुम्बकीय
शक्ति नहीं होती।
यदि तुम उनकी
सभी वस्तुएं
उनसे अलग हटा
दो, तो वे
सामान्य
मनुष्य से भी
कहीं अधिक
साधारण हैं।
उनकी सारी
असाधारणता
विलुप्त हो
जाती है। राजा
और रानियां, जब वे राजा
और रानियां
नहीं रह जातीं,
केवल
साधारण
मनुष्य मात्र
रह जाते हैं.....लगभग
पूरी तरह खाली
होती हैं, जिनमें
कुछ भी नहीं
रह जाता।
लेकिन
जब कभी तुम
किसी ऐसे
व्यक्ति के
सम्पर्क में
आते हो, जिसमें बाहर
की कोई शक्ति
नहीं होती, जिसकी शक्ति
किसी आंतरिक
स्रोत और किसी
अंदर के झरने
से आ रही होती
है तो वह
शक्ति का
सरोवर जैसा
होता है। वह
जहां कहीं भी
बैठता है, वह
स्थान पावन बन
जाता है। वह
जिस स्थल पर
भी बैठता है।
वह स्थान एक
सिंहासन बन
जाता है, वह
जहां कहीं भी
जाता है, वह
मनुष्यों के
मध्य एक
सम्राट की
भांति विचरण
करता है।
लेकिन उसका
साम्राज्य
उसके अपने
अंदर का होता
है।
यह वही
शक्ति है
जिसके बारे
में जीसस कहा
करते हैं
परमात्मा का
साम्राज्य
तुम्हारे ही
अंदर है। जो
उसके अंदर है, वह उसे
जानता है।
उसके अपने
स्वयं के अंदर
जो है, उसी
का वह
साक्षात्कार
करने ही यहां
आया है। उसकी
दृष्टि अंदर
मुड़ कर
अंतर्मुखी हो
जाती है। वह
फिर बाहर के
संसार पर
निर्भर नहीं
रह जाता। उसका
गौरव और
ख्याति
प्रतिबिंबित
न होकर उसकी
अपनी और
प्रामाणिक होती
है। वह
कारागार में
बंदी बनाया जा
सकता है, लेकिन
वह वहां भी
रहेगा एक
सम्राट की ही
भांति।
सिकंदर
महान के
समकालीन
डायोजनीज के
बारे में यह
कहा जाता है
कि सिकंदर भी
डायोजनीज से
ईर्ष्या करने
लगा। वह पूरी
तरह नग्न रहने
वाला एक फकीर
था, जिसके
पास कुछ भी
नहीं था। उसने
हर चीज छोड़ दी
थी। वह अपने आंतरिक
संसार की खोज
कर रहा था।
उसके बारे में
यह कहा जाता
है कि उसने जब
यह संसार छोड़ा,
तो वह अपने
साथ एक छोटा
सा भिक्षा—पात्र
रखा करता था। लेकिन
तब एक दिन
उसने नदी से
एक कुत्ते को
पानी पीते हुए
देखा। उसने
तुरंत अपना
भिक्षा—पात्र
फेंक दिया और
कहा, यदि
कुत्ता बिना
उसके पानी पी
सकता है, तो
क्या मैं
कुत्ते से भी
गया बीता हूं?
तब उसने
अपने पास की
हर चीज फेंक
दीं, वस्त्र
भी फेंक दिए
और नंगा ही
रहने लगा।
सिंकदर
को उसके बारे
में बहुत सी
अफवाहें और कहानियां
सुनने में आ
रही थीं कि उस
शख्स के अंदर
कुछ खास बात
है। उससे
सम्मोहित
होकर अंत में
सिकंदर स्वयं
उससे मिलने
गया और यह देख
सका कि उस
व्यक्ति के अंदर
कुछ ऐसा है जो
उसके पास नहीं
है। जाड़ों की
वह एक सर्द
सुबह थी
सूर्योदय हो
रहा था और वह
रेत पर लेटा
हुआ था। वह
नदी किनारे
लेटा हुआ
कुनकुनी धूप
का आनंद ले
रहा था।
सिकंदर ने
उससे कहा—’‘ क्या मैं
आपके लिए कुछ
भी कर सकता
हूं श्रीमान?
मेरे पास
काफी कुछ है
और आप जो कुछ
भी चाहें, उसे
आपके लिए करने
में मुझे प्रसन्नता
होगी।’’
डायोजनीज
हंसा और उसने
कहा—’‘आप
केवल एक ही
काम कर सकते
हैं कि कृपया
हटकर खड़े हो
जाए और मुझ तक
आती हुई धूप न
रोकें। इसके
आलवा मुझे और
कुछ भी नहीं
चाहिए। और इसे
याद रखिएगा कि
कभी भी धूप और
किसी भी व्यक्ति
के बीच में
खड़े मत होना
क्योंकि आप एक
खतरनाक
व्यक्ति
दिखाई देते
हैं। कभी भी
किसी दूसरे
व्यक्ति के
जीवन में
व्यवधान मत
डालिए। बस
इतना ही काफी
है और इसके
अलावा मैं
आपसे कुछ भी
नहीं चाहता
क्योंकि जो
कुछ मैं चाहता
हूं वह सब कुछ
मेरे अंदर ही
है।’’
और
सिकंदर यह
अनुभव कर सका
कि यह व्यक्ति
सच्चा और प्रामाणिक
है अपने
अकेलेपन में
आनंदित एक ऐसा
व्यक्ति
जिसकी चेतना
एकीकृत और
केंद्रित
होकर थिर हो
गई है, जिसके
चारों ओर की
तरंगें, उसके
बोध को उपलब्ध
होने की जैसे
घोषणा कर रही
है। उसे लगा
जैसे उसके आस
पास की आबोहवा
उसके आंतरिक
प्रकाश, आंतरिक
अनुभव और अंदर
की समृद्धि से
महक रही हो।
वह देख सका और
महसूस कर सका।
उसने झुककर
प्रणाम करते
हुए कहा—’‘ यदि
अगली बार मुझे
इस संसार में
आने का अवसर मिला
तो मैं
परमात्मा से
कहूंगा कि तू
मुझे सिकंदर न
बनाकर
डायोजनीज
बनाना।’’
डायोजनीज
हंसा और उसने
कहा—’‘ इतना
लंबा इंतजार
करने की कोई
जरूरत नहीं है।
और ठीक अभी भी
डायोजनीज हो
सकते हैं आप।
निरंतर इधर—
उधर घूम—घूम
कर व्यर्थ
लड़ाइयां लड़ते
लोगों को
जीतने का
संघर्ष आखिर
क्यों कर रहे
हैं आप?''
सिंकदर
ने कहा—’‘ पहले मैं
मध्य एशिया और
फिर
हिंदुस्तान
जीतना चाहता ''
हूं
फिर सुदूर
पूरब में.......।
डायोजनीज
ने पूछा—’‘ फिर उसके
बाद और फिर
उसके भी बाद।’’
अंत
में जब सिकंदर
ने कहा कि वह
पूरा विश्व जीतने
के बाद
विश्राम
करेगा तो
डायोजनीज ने
कहा—’‘ मुझे
तो आप लगभग एक
मूर्ख दिखाई
देते हैं, क्योंकि
मैं दुनिया को
बिना जीते हुए
ही यहां विश्राम
कर रहा हूं।
आप भी अभी
मेरी बगल में
लेट कर
विश्राम कर
सकते हैं, क्योंकि
नदी तट बहुत
विस्तृत है और
हम दोनों यहां
मजे से रह
सकते हैं। कोई
दूसरा यहां
आता भी नहीं
है। आप अपने
हृदय की कामना
को पूरी करते
हुए अभी विश्राम
कर सकते हैं।’’
आपको
आखिर रोक कौन
रहा है? और मुझे ऐसा
नहीं लगता कि
अंत में
विश्राम करने
के लिए किसी
को पहले पूरी
दुनिया जीतना
ही पड़े। आप
किसी भी क्षण
विश्राम में
जा सकते हैं।
उसी
क्षण सिकंदर
ने अपनी
निर्धनता को
जरूर महसूस
किया होगा।
उसने कहा—’‘ आप कहते
तो ठीक हैं
लेकिन मैं ही
पागल हूं।
क्योंकि अभी
तो यह मेरे
लिए बहुत कठिन
है कि मैं
अपनी मुहिम से
वापस लौट सकूं।
मुझे तो पूरा
संसार जीतना
ही है, केवल
तभी मैं वापस
आ सकता हूं
यहां।’’
और जब
वह वहां से
जाने लगा तब
डायोजनीज ने
कहा—’‘ स्मरण
रखियेगा, कोई
भी कभी भी
वापस नहीं आ
सकता, जब
तक कि वह
होशपूर्ण न हो।
और यदि आप अभी
भी इसी क्षण
सजग है तो
यात्रा स्वयं
रुक जाती है।
यदि आप सजग
नहीं रहे तो
कभी भी वापस न
लौट सकेंगे।’’
और
सिकंदर वहां
कभी वापस न
लौट सका।
वह घर
लौटने से पहले
ही मर गया।
जो
मनुष्य अपने
स्वयं के होने
में आनंदित है, वही नूतन
मानुष या नया
मनुष्य है।
उसे नया क्यों
पुकारते हैं?
क्योंकि एक
अर्थ में वह
उतना ही
पुराना है जितनी
कि मनुष्यता।
लेकिन वह इतना
दुर्लभ है, कि वह जब कभी
भी आता है, वह
हमेशा नया ही
होता है—यहां
बुद्ध होना
दुर्लभ है, जीसस और
कृष्ण का होना
बहुत कम होता
है। इस सड़ी
बुसी
मनुष्यता की
भीड़ में ऐसा बहुत
कम और कभी—कभी
ही होता है कि
कोई भी ऐसा
व्यक्ति अपने
प्रामाणिक
अस्तित्व के
साथ जन्मे और
यह घोषणा करे
कि उसका
साम्राज्य
स्वयं उसके
अंदर ही है।
यह घटना इतनी
अधिक दुर्लभ
है कि बाउल
लोग इसे ठीक
ही आधार—मानुष
अर्थात् नया
मनुष्य कहते
हैं। इसलिए
भेद समझने
जैसा है, वह
मनुष्य जो
अधिक से अधिक
पाने के बाद
भी अपनी आत्मा
को अधिक से
अधिक खोता
जायेगा।
क्योंकि अधिक
से अधिक पाने
के लिए उसकी
कीमत आत्मा को
ही चुकानी
होगी। तब
तुम्हें अपने
अस्तित्व से
कट कर अलग हो
जाना पड़ेगा और
तुम अपनी
आत्मा को
फेंककर कर
दोगे। यहां कुछ
भी मुक्त नहीं
मिलता और हर
चीज की कीमत
अदा करनी पड़ती
है। यहां तक
कि व्यर्थ
चीजों की भी
कीमत चुकानी होती
है।
एक दिन
यह मनुष्य जो
चीजों का
संग्रह करता
है, उसे
लगभग चुक ही
जाना है। उसके
पास वस्तुएं
बहुत हैं)
लेकिन आंतरिक
सम्पदा कुछ भी
नहीं है। उसने
अपनी आत्मा
बेचकर उसके
एवज में डालर,
रुपये और
पाउंड इकट्ठे
किए हैं, लेकिन
उसके अंदर
आत्मा नहीं
रही। बस उसके
अन्दर एक
नकारात्म्क
खालीपन है। वह
है भिखारी, लेकिन वह
तुम्हें एक
राजा जैसा
दिखाई पड़ सकता
है। उसकी
बाह्य आकृति
और रूप से
धोखा मत खाओ।
जो लोग राजा
जैसे दिखाई
देते हैं, वे
राजा हैं नहीं।
उन्हें जरा और
गौर से देखो।
गहराई से उनका
निरीक्षण करो।
उन्होंने भले
ही ऐसा कुछ
प्राप्त कर
लिया हो, जो
गिना जा सकता
हो, जिसे
दिखा कर उसका
प्रदर्शन
किया जा सकता
हो, लेकिन
उन लोगों ने
कुछ अदृश्य
वस्तु कोई चीज
अपने आत्मा की
खो दी है।
क्या
तुमने कभी यह
देखा नहीं? जहां
कहीं भी तुम
किसी चीज को
खरीदते हो, तुम्हें
उसका भुगतान
करना होता है।
यदि तुम्हें
लोगों के साथ
स्पर्धा करनी
होती है, तो
तुम्हें उसकी
कीमत चुकानी
होती है। तुम
कम से कम
प्रेमपूर्ण
होते जाओगे।
एक व्यक्ति जो
प्रतिस्पर्धा
में लगा हो, वह साथ—साथ
प्रेमपूर्ण
नहीं बना रह
सकता। यह
असंभव है। एक
व्यक्ति जो
स्पर्धा करने
का प्रयास कर
रहा हो और जो
महत्वाकांक्षी
हो, वह
प्रेमपूर्ण
नहीं हो सकता।
वह उसका मूल्य
प्रेम के
द्वारा चुका
रहा है।
राजनीतिज्ञ
प्रेमपूर्ण
नहीं हो सकते, वे केवल
युद्ध और
संघर्ष जानते
हैं। यह
स्वाभाविक भी
है। संघर्षों
के द्वारा ही
उनका
अस्तित्व है।
इसलिए वे
शांतिवार्ता
करते दिखाई
देते हैं, लेकिन
उनकी पूरी
बातचीत बस
व्यर्थ की
बकवास, या
ठीक जिबरिश है।
वे शांति के
बारे में
बातचीत करते
हैं और तैयारी
करते हैं
युद्ध की। वे
शांति के लिए
कभी तैयार
होते ही नहीं,
वे तैयार
होते हैं
युद्ध के लिए।
लेकिन युद्ध
के बाबत कभी
बातचीत नहीं
करके, बात
शांति की ही
करते हैं। और
जब समय आता है
तो वे युद्ध
करने भी जाते
हैं, और
शांति
स्थापना करने
के नाम पर ही
युद्ध करते
हैं। वे कहते
हैं कि शांति
स्थापना करने
के लिए ही यह
सब कुछ करना
ही पड़ा। लेकिन
आधारभूत रूप
से, प्रतियोगी
का मन हिंसक
ही होता है।
वह व्यक्ति जो
महत्त्वाकांक्षी
है, हिंसक
है वह
प्रेमपूर्ण
हो ही नहीं
सकता।
हिप्पियों
का नारा—’‘युद्ध नहीं
प्रेम करो
अत्यंत अर्थपूर्ण
है। यदि संसार
अधिक
प्रेमपूर्ण
हुआ होता, तो
युद्ध स्वत:
समाप्त हो
जाते, क्योंकि
लड़ने के लिए
तैयार होता ही
कौन? और
किसके लिए?''
कोई भी
देश नहीं
चाहता कि
उसमें रहने
वाले लोग
प्रेमपूर्ण
हों। कोई भी
देश नहीं
चाहता कि उसके
लोग प्रेम में
गहरे डूबें
क्योंकि यदि
वे प्रेम की
गहराई में उतर
जाते हैं, तो युद्ध
करने में
अक्षम हो जाते
हैं। उनको
सेक्स और
प्रेम का दमन
करना ही होता
है।
जब
प्रेम और
सेक्स दमित
होते हैं, तो लोग
अपने बाहरी
खोल से बाहर
आकर उछाल भरने
को तैयार रहते
हैं। वे लोग
सदा ही इतने अधिक
उबल रहे हैं
कि वे हमेशा
लड़ने को तैयार
रहते हैं। यही
कारण है कि
निर्धन देश एक
धनी देश की
अपेक्षा अधिक
अच्छी तरह से
युद्ध कर सकता
है। वियतनाम
की यही कहानी
है।
अमेरिकन
सैनिक प्रेम
के बारे में
थोड़ा बहुत जानता
है उसके पास
सुविधाएं हैं
और साधन हैं
वह इतना दमित
नहीं है। अब
अमेरिका के
साथ यही
समस्या है कि
वहां लोग इतने
अधिक दमित
नहीं है।
लोगों ने
प्रेम का
स्वाद चखा है।
लेकिन जब तुम
वियतनाम जैसे
छोटे से देश
से लड़ते हो, तो तुम
जीत नहीं सकते,
क्योंकि
उनके सैनिक
बहुत अधिक
दमित हैं।
अतीत में ऐसा
हमेशा होता
रहा है, एक
धनी और
सम्पन्न देश
हमेशा ही गरीब
देशों द्वारा
हमला किये
जाने के खतरे
से ग्रस्त
रहता है।
ऐसा ही
भारत में भी
कई बार हुआ।
दो तीन हजार
वर्षों से
निरंतर भारत
पर बर्बर लोगों
के द्वारा जो
न तो अधिक धनी
थे, न
अधिक
सुसंस्कृत, आक्रमण कर
उसे जीता गया।
भारत निरंतर पराजित
होता रहा।
वहां लोग
प्रेमपूर्ण
थे वे भूल ही
गए थे कि कैसे
युद्ध किया
जाये, युद्ध
करने में उनकी
कोई रुचि ही
नहीं रह गई थी।
उनके लिए
निरंतर युद्ध
करने की उनके
अंदर कोई चाह
या जरूरत ही
नहीं रह गई थी।
जब कभी कोई
सभ्यता उस
बिंदु पर
पहुंच जाती है,
जहां वह बहुत
अधिक सम्पन्न
और धनी हो
जाती है, उस
पर बर्बर
लोगों द्वारा
आक्रमण किये
जाने का खतरा
बढ़ जाता है।
यह है
दुर्भाग्यपूर्ण
लेकिन ऐसा
होता ही है।
इसीलिए
प्रत्येक देश
और प्रत्येक
राजनीतिज्ञ
लोगों को अधिक
प्रेम करने की
इजाजत नहीं देते।
यह अनुमति
केवल अल्प
मात्रा में दी
जाती है। यदि
प्रेम मुका है
तो लोग बहुत
अधिक प्रेम में
डब जाते हैं
और प्रेम के
सागर में मग्न
रहते हैं।
उनके लिए
युद्ध करना
असम्भव हो
जाता है। और
बिना युद्ध के
राजनीति करना
सम्भव नहीं है।
और बिना
राजनीति के
राष्ट्रपति
और प्रधानमंत्री
बनना भी सम्भव
नहीं है। वे
सभी मिट
जाएंगे।
राजनीतिज्ञों
के लिए हिप्पी
लोग खतरे के
सबसे बड़े
निशान हैं।
पूरे इतिहास
में पहली बार
ही एक नये तरह
की पीढ़ी का
उदय हो रहा है।
यदि यह पीढ़ी
निरंतर
विकसित होती
रही, फलती
और फूलती रही,
तो राजनीति
समय के बाहर की
चीज बन जाएगी।
अब
राष्ट्रपतियों
और मंत्रियों
के दिन बीत रहे
हैं। पूरी चीज
ही प्रेम पर
निर्भर है, क्योंकि
प्रेम ही अपने
स्वयं में
होने का गुण है।
प्रतियोगिता
वस्तुओं के
लिए होती है, महत्त्वाकांक्षा
भी वस्तुओं के
लिए होती है, बिना
साम्राज्य
महत्त्वाकांक्षा
किसके लिए? अपने ही
अंदर
परमात्मा का
साम्राज्य, किसी
प्रतियोगिता
को नहीं जानता।
तुम उसमें इसी
क्षण प्रसन्न
और आनंदित हो
सकते हो। उसके
लिए किसी
भविष्य की कोई
आवश्यकता
नहीं, उसके
लिए तुम्हें
किन्हीं
उपलब्धियों
की कोई
आवश्यकता
नहीं है। तुम
पहले ही से
जैसे भी हो
तुम उसमें
प्रसन्न और आनंदपूर्ण
होकर उत्सव
मना सकते हो।
तुम किसी भी
चीज से नहीं
चूक रहे हो।
प्रत्येक
वस्तु जैसी वह
होनी चाहिए वह
है और तुम्हें
हर चीज उपलब्ध
है। तुम्हें
केवल अपने
महत्वाकांक्षी
मन को ही गिरा
देना है और
उत्सव
प्रारंभ हो जाता
है। क्या तुम
उसे देख सकते
हो? यदि
तुम इसे देख
सकते हो, केवल
तभी तुम नूतन
मानुष को
समझने में
समर्थ हो
सकोगे।
बाउल
कहते हैं—’‘ वह
मनुष्य जो
वस्तुओं की
व्यर्थता को
समझ जाता है, वही धार्मिक
बनता है।’’ यदि
तुम वस्तुओं
के संग्रह
करने के पीछे
भाग रहे हो, तो तुम
निरंतर
दूसरों के साथ
संघर्ष करते
हुए निरंतर
दूसरों को इस
तरह अथवा उस
तरह से कुचलने
का प्रयास कर
रहे हो, यदि
तुम सभी के
नियंत्रक
बनकर शिखर पर
पहुंचने का
प्रयास कर रहे
हो, तो तुम
अपनी सभी
स्वाभाविकता,
सहजता और
गौरव खो दोगे।
अपने
होने में मग्न
मनुष्य, नूतन मनुष्य
सहज, स्वाभाविक
और स्वयं
प्रवर्तित
होता है। वह
अभी और यहीं
क्षण— क्षण
जीता है। वह
रहने का कोई
दूसरा अन्य
तरीका जानता
ही नहीं, उसके
बारे में
निश्चित रूप
से कुछ भी
नहीं कहा जा
सकता। तुम
प्रतियोगिता
करने वाले
मनुष्य के
सम्बंध में
पहले से बतला
सकते हो। तुम
उसके बारे में
भविष्यवाणी
इसलिए कर सकते
हो क्योंकि
प्रतियोगी का
मन गणित के
नियम के अनुसार
गतिशील होता
है। उसके
निष्कर्ष
तर्कपूर्ण
होते हैं।
लेकिन उस
व्यक्ति का मन,
जो अंदर की
ओर गतिशील है,
आत्मवान है,
उसका मन
लगभग
विसर्जित हो
रहा है। जिस
अंतर्यात्री
का मन
विसर्जित हो
रहा है, तुम
उसके बारे मे
कुछ भी
भविष्यवाणी
नहीं कर सकते।
उसके बारे में
गणित का कोई
भी सिद्धांत
लागू नहीं
होता। वह बस
क्षण— क्षण
जीता है, हर
क्षण से ही
उसका उत्तर
स्वयं आता है।
वस्तुओं
का संग्रह
करने वाले
मनुष्य के
बारे में अब
मैं एक बात
बतलाना चाहता
हूं जो बहुत
स्पष्ट है ऐसे
व्यक्ति की
पूरी तरह
स्पष्ट एक
लक्ष्य या
मंजिल होती है।
यदि वह
अमेरिका का
राष्ट्रपति
या भारत का
प्रधानमंत्री
बनना चाहता है, तो उसका
लक्ष्य बहुत
स्पष्ट होता
है। और क्या
आत्मवान
व्यक्ति की भी
कोई मंजिल होती
है? नहीं, उसकी कोई
मंजिल या
लक्ष्य होता
ही नहीं। उसकी
दिशा तो बहुत
सूक्ष्म होती
है, लेकिन
कोई मंजिल
नहीं होती।
उसके कुछ
विशिष्ट गुण
होते हैं, उसका
अंतर्तम
प्रकाशवान
होता है, और
वह जहां भी
होता है वह पथ
आलोकित हो
उठता है। उसके
पास दिशा
देखने को आंखें
तो होती है, लेकिन कोई
लक्ष्य नहीं
होता। वह आनंद
मनाते हुए इधर—उधर
आता—जाता तो
है, लेकिन
वह पूर्व—
निर्धारित
नहीं होता।
उसके पास कोई
योजना नहीं
होती। वह एक
रेलगाड़ी की
तरह न होकर एक
नदी की भांति
होता है। उसकी
एक दिशा तो
होती है, लेकिन
एक रेलगाड़ी की
तरह नहीं, जो
एक ढांचे में
दौडती है।
उसका जीवन
टेढ़ा—मेढ़ा
होता है। कभी
वह उत्तर की
तरफ चलेगा और
कभी दक्षिण की
ओर चल पड़ेगा, वह कभी भी
बहुत नियमित
नहीं हो सकता,
क्योंकि
नियमितता
तर्कशील मन का
ही एक भाग है, वह अस्तिवगत
नहीं है। वह
कई बार
अनयिमित होगा
और साथ में
विरोधाभासी
भी, लेकिन
वे विरोधाभास
केवल परिधि पर
होंगे। यदि
तुम गहराई से
देखो तो तुम
एक सूक्ष्म
दिशा मार्ग
पाओगे।
विरोधाभास
में भी वहां
दिशामार्ग
होता ही है।
पर इस
आत्मवान्
मनुष्य को
पहचानने के
लिए तुम्हें
बहुत गहरी और
अंतर्वेधी
दृष्टि की
जरूरत है।
वस्तुओं का
संग्रह करने
वाले
सांसारिक
व्यक्ति को
पहचानने के लिए
कुछ भी नहीं
चाहिए। बस
थोड़े से
सामान्य मन का
उपयोग ही
यथेष्ट होगा।
क्योंकि यह
सांसारिक
परिग्रही
व्यक्ति भी साधारण
मन वालों की
ही श्रेणी का
है। लेकिन तुम
जब आंतरिक
संसार की ओर
गतिशील होते
हो तो सारी
परिधिया मिट
जाती हैं। और
अंनत गहराई ही
रह जाती है।
बाउल
इस स्वयं
प्रवर्तित
मनुष्य को ' सहज
मानुष ' या '
नूतन
मनुष्य ' कहते
हैं। यही नया
मनुष्य है। वह
ऐसा व्यक्ति
है, जैसा
प्रत्येक को
होना चाहिए।
और जब तक तुम
नूतन मानुष
नहीं बने, तुम
चूक जाओगे।
तुम चूक जाओगे
महान सम्पदा से,
परमांनद से
और उन
आशीर्वादों
से जो तुम पर
चारों ओर से
बरस रहे थे, लेकिन तुम
अंधे थे और
उन्हें देख न
सके।
मैंने
सुना है:
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
स्त्री के
प्रेम में पागल
हो रहा था।
उसने अपनी
प्रेयसी से
कहा— '' देखो
प्रियतमे!
तुम्हारे लिए
विवाह समारोह
पर पहनाई जाने
वाली हीरे की
अंगूठी यह रही।’’
उस
स्त्री ने कहा—’‘ ओह! यह तो
बहुत सुंदर है।
लेकिन शहद से
मीठे मेरे
प्रिय तुम! इस
हीरे में तो
खरोंच का
निशान है।’’
मुल्ला
ने कहा—’‘ तुम्हें उस
ओर ध्यान नहीं
देना चाहिए
तुम प्रेम में
आखिर पडी और
तुम जानती हो
कि सभी लोग कहते
हैं कि प्रेम
अंधा होता है।’’
'' हां
अंधा तो होता
है, लेकिन
हीरा तो अंधा
नहीं होता।’’
यहां तक
कि प्रेम में
भी तुम बाहर
के ही मनुष्य
बने रहना जारी
रखते हो। तुम
प्रेम में भी, धन, प्रतिष्ठा,
और शक्ति की
भाषा में
सोचना जारी
रखते हो। तुम
प्रेम में भी
उस अज्ञात को
स्पष्ट और मुखर
होने की
अनुमति नहीं
देते। तुम
अपने आंतरिक
अस्तित्व को
भी अपनी बात
कहने की
अनुमति नहीं
देते। तुम फिर
भी एक
नियत्रंक बने
रहते हो।
हमारे
मन हमेशा लगभग
बहुत सामान्य
चीजों में रुचि
रखते हैं। ऐसा
होना भी चाहिए
क्योंकि वे
बाहर की ओर ही
उन्यूख होते
हैं। किसी
विशिष्ट दिशा
की ओर मुड़ना
ही बाहर की ओर उन्यूख
होना है। ऐसे
ही जीसस को भी
न समझा जा सका, वह भी एक
बाउल जैसे थे—नूतन
मनुष्य। यदि
वह बाउलों की
भूमि बंगाल
में जन्मे
होते, तो
वहां कहीं
अधिक अच्छी तरह
से समझे जाते।
वहां लोगों ने
उन्हें क्रास
पर नहीं चढ़ाया
होता। सदियों
से लोगों ने
उन्हें
परमात्मा
पागल प्रेमियों
के रूप में ही
जाना है। इन
लोगों ने उनकी
भाषा को अच्छी
तरह समझ लिया होता।
यहूदी
उनकी भाषा न
समझ सके। उनकी
भाषा
मस्तिष्क या
मन की भाषा
नहीं थी। उनकी
भाषा धन और
बाहर के संसार
की भाषा नहीं
थी। वे
साम्राज्य धन
और बाहर के
संसार की भाषा
नहीं थी। वे
साम्राज्य के
बारे में बता
रहे थे, और उन
यहूदियों ने
उनसे पूछा—’‘ कहां है
तुम्हारा वह
साम्राज्य? तुम किस
साम्राज्य की
बात कर रहे हो?''
क्योंकि वे
लोग सोच रहे थे
कि वह उस
साम्राज्य की
बात कर रहे
हैं, जो
बाहर है।
उन्होंने कहा—
'' मैं ही
सम्राट हूं।
और वे लोग
चिंतित हो गए
और उन्हें
संदेह हुआ कि
वह समाज को
बरबाद करने की
कोशिश कर रहे
हैं। अथवा वह
समाज को जीतकर
उसका सम्राट
बनने की कोशिश
कर रहे हैं।
उन लोगों ने
समझा कि वे एक
क्रांतिकारी
हैं। वह
क्रांतिकारी
न होकर एक
विद्रोही थे।
वह किसी
क्रांति की
योजना नहीं
बना रहे थे, वह कोई
राजनीतिज्ञ
नहीं थे।’’
लेकिन
यहूदी भयभीत
थे। वे सोचते
थे वह संसार
पर विजय
प्राप्त करने
की कोशिश कर
रहे हैं और
रोमन भी भयभीत
थे। वे इसलिए
भयभीत थे, क्योंकि
लोगों का ऐसा
खयाल था कि वह
मनुष्यों पर
राज्य करने के
लिए राजा के
रूप में जन्मे
हैं। जब रोम
के सम्राट ने
यह सुना कि
ऐसा एक बच्चा
जन्म लेने जा
रहा है, जो
सभी मनुष्यों
का सम्राट
बनेगा, तो
वे इतने अधिक
भयभीत हो गए
और उन्होंने
दो वर्ष से कम
आयु के सभी
बच्चों के
कल्लेआम करने
का आदेश दे
दिया। जब पूरब
से आएं
तीन
बुद्धिमान
व्यक्ति जीसस
नाम के बच्चे
की तलाश में
राजधानी में
आए तो सम्राट
ने उनके बारे
में सुनकर
उन्हें अपने
महल में
आमंत्रित कर
उससे पूछा कि
वह यहां
किसलिए आए हैं? उन्होंने
बताया कि वह
उस सम्राट के
दर्शन के लिए
आए हैं, जिसका
जन्म इस देश
में हुआ है।
उन्होंने कहा—
'' आपको तो
प्रसन्न होना
चाहिए कि इस
सम्राट का जन्म
आपके देश में
हुआ और वह
महान सम्राट
आपके देश की
पृथ्वी पर
चलेगा।’’
लेकिन
सम्राट यह
सुनकर बहुत डर
गया, क्योंकि
उसने सोचा—’‘ एक ही देश
में दो सम्राट
कैसे रह सकते
हैं, और तब
मुझे सिंहासन
से हटना होगा।’’
लेकिन उसने
राजनीति का
खेल खेलते हुए
उन बुद्धिमान
लोगों से कहा—’‘
मैं भी बहुत
खुश हूं। और
यदि आपको उसे
खोजने में
सफलता मिल जाए
तो कृपया यहां
पधार कर मुझे
भी सूचित
कीजियेगा।’’
लेकिन
वह उस बच्चे
की हत्या करने
की योजना बना रहा
था। उन तीन
बुद्धिमान
लोगों ने उसकी
योजना को भली—
भांति समझ
लिया क्योंकि
वह उन्हें
उसकी आंखों
में देख रहे
थे। वह एक
चालाक
व्यक्ति था।
राजनीतिज्ञ
चालाक होते ही
हैं।
इसके
बाद उन लोगों
ने जीसस के
दर्शन किए और
उनकी वंदना की।
उन्होंने इस
बार लौटने का
दूसरा मार्ग
चुना, क्योंकि
उन्हें भय था
कि सम्राट
उनकी प्रतीक्षा
कर रहा होगा
और वे लोग उस
गहरे संकट से
बचना चाहते थे।
वे जीसस की
हत्या किए
जाने में
सहभागी होने के
पाप से अपने
को अलग रखना
चाहते थे।
इसलिए उन्हें
काफी लंबी यात्रा
करनी पड़ी।
उन्हें लंबे
रास्ते से
जाना पड़ा, क्योंकि
छोटा रास्ता
वही था जिससे
वे लोग आए थे।
और वे काफी
वृद्ध
व्यक्ति थे, लेकिन फिर
भी उन्होंने
पहाड़ों और
रेगिस्तानों
से गुजरते हुए
अपने देश वापस
जाने के लिए उस
लम्बे कठिन
रास्ते से
लौटना ठीक
समझा। वे लोग उसी
रास्ते से
वापस इसलिए
नहीं जाना
चाहते थे क्योंकि
वह रास्ता
राजधानी होकर
गुजरता था वहां
सम्राट बैठा
उनकी
प्रतीक्षा कर
रहा था।
जीसस
क्रास पर अपने
विशिष्ट
पारिभाषिक
शब्दों के
प्रयोग के
कारण ही चढ़ाए
गए क्योंकि आंतरिक
साम्राज्य को
पाने की बात
कर रहे थे।
यद्यपि वह
बाहर के
साम्राज्य को
पाने की बात
नहीं कर रहे
थे और न वह उन
खजानों को
पाने का जिक्र
कर रहे थे
जिन्हें तुम
जानते हो, बल्कि वह
तो अज्ञात
सम्पदा को
पाने की बात
कर रहे थे।
जहां तक बाहर
के संसार का
सम्बंध है, सभी खजाने
थोथे और नकली
है।
मैंने
एक सुंदर
आख्यान के
बारे में सुना
है
एक
व्यक्ति एक
शहर की सड़क पर
चलता हुआ एक
खुले सीवर के
गट्टे में जा
गिरा और उसकी
टांग टूट गई।
उसने नगर—निगम
के विरुद्ध
केस दायर करने
के लिए एक
प्रसिद्ध
एडवोकेट की
सेवाएं लीं, और दस
हजार डॉलर का
मुआवजा मांगा।
आखिरकार वह
मुकर्दमा जीत
गया। नगर निगम
उस निर्णय के
विरुद्ध
सर्वोच्च न्यायालय
तक गया लेकिन
उसी एडवोकेट
ने वहां भी मुकद्दमा
जीता। .
मुआवजे की रकम
निश्चित हो
जाने और मिलने
के बाद
एडवोकेट ने
अपने
मुवक्किल
को बिल के साथ
एक डॉलर दिया।
उस
व्यक्ति ने
डॉलर को देखते
हुए पूछा—’‘ आखिर यह
है क्या?'' एडवोकेट
ने उत्तर दिया—’‘
मुआवजे की
मिली रकम में
मेरी फीस और
सभी अपीलों
में हुए
खर्चों को
घटाते हुए शेष
रकम।’’
दस
हजार डॉलर के
हर्जाने में
से सिर्फ एक
डालर?
उस
व्यक्ति ने उस
डॉलर को फिर
से देखा, उसे उलट पलट कर
सावधानी से
उसका अध्ययन
किया और कहा—’‘ आखिर कुछ भी
हो, यह
डॉलर तो है।
जो कुछ भी हुआ,
उसके बदले
धोखा देने के
लिए यह जाली
डॉलर तो है।’’
लेकिन
बाहर की सारी
धन सम्पदा
जाली और नकली
ही है, सभी
डालर नकली हैं।
सभी रुपये
नकली हैं।
असली सम्पदा
इस तरह बाहर
नहीं मिलती, असली धन
सम्पदा बाहर
होती ही नहीं।
नकली से असली
व्यक्ति के
रूपातंरण को
ही बाउल नूतन
मनुष्य का
जन्म कहते हैं।
आओ,मेरे
निकट आओ,
यदि
तुम इस नूतन
मनुष्य से
भेंट
करना
चाहते हो
तो
मेरे पास आओ।
उसने
उस झोली के
लिए
जो
भिखारी अपने
कंधे पर
लटकाये रहते
हैं।
अपनी
सारी
सांसारिक
सम्पत्ति को
व्यर्थ जान कर
छोड़ दिया है।
उसने
भिखारी बनने
के लिए सारी
सांसारिक
उपलब्धियां
और सुख
सम्पत्ति छोड़
दी हैं।
सांसारिक
उपलब्धियां
क्यों छोड़ दीं? सांसारिक
सुख दो कारणों
से छोड़े जाते
हैं। तुम्हें
यह फिर समझना
होगा वह
व्यक्ति जो
अपने पूरे
जीवन में
वस्तुओं का
संग्रह करके
जीता रहा है, उन्हें लालच
के कारण छोड़
सकता है। तब
नूतन मनुष्य
का जन्म ही न
हुआ। वह
उन्हें
स्वर्ग या
बहिश्त में
अपना स्थान सुरक्षित
करने के लिए
त्याग सकता है।
वह सांसारिक
उपलब्धियां
यह देख कर भी
त्याग सकता है
कि मृत्यु सब
कुछ ले जाएगी।
यदि यही
स्थिति है तो
पुराना
मनुष्य
पुराना ही बना
रहता है। भले
ही वह सबकुछ
त्याग दे।
भारत
में ऐसा बहुत
बार होता है।
अधिकतर इतना
ही नहीं कि वे
अपनी सारी
सम्पत्ति का
त्याग कर देते
हैं, लेकिन
यदि तुम उनका
निरीक्षण करो
तो तुम देखोगे
कि उन्होंने
अभी तक अपना
लोभ नहीं छोड़ा
है। वास्तव
में उन्होंने
अपने लालच के
कारण ही त्याग
किया है।
मैं एक
ऐसे व्यक्ति
को जानता हूं
जिसने कई वर्ष
पूर्व दस लाख
रुपयों का
त्याग किया था, लेकिन वह
अब भी उसका
जिक्र किए चले
जाते हैं। तीस
वर्ष व्यतीत
होगए और जब भी
मैं उनसे
मिलता हूं वह
बार—बार यह
विषय ले ही
आते हैं कि
उन्होंने दस
लाख रुपयों का
त्याग किया था।
और तुम देख
सकते हो कि
उनकी आंखों
में दस लाख
रुपये चमकना
शुरू हो जाते
हैं।
पिछली
बार जब मैंने
उन्हें देखा, तो मैंने
उनसे पूछा— '' यदि आपने
वास्तव में
त्याग ही किया
है, तो आप
उस बारे में
बात ही क्यों
करते हैं २:
उसका जिक्र
करने की तुक
क्या है? जहां
तक मैं देख
सकता हूं आपने
उनका बिलकुल
त्याग किया ही
नहीं। नूतन
मनुष्य का अभी
जन्म नहीं हुआ
है। तुम उस दस
लाख रुपयों से
आज भी उतने ही
अधिक जुड़े हो,
और सम्भवत:
उससे अधिक
जुड़े हों, जितने
तुम पहले
उन्हें पास
रखते हुए जुड़े
थे। अब यह
विचार मात्र
ही कि मैंने
दस लाख रुपयों
का त्याग कर
दिया।
तुम्हारा
बैंक—बैलेंस
बन गया है। अब
तुम उसी याद
में जी रहे हो।’’
मैंने उनसे
कहा कि यदि आप
परमात्मा के
पास गए तो
पहली बात
जिसके द्वारा
आप परमात्मा
से सम्बन्ध
जोड़ेंगे वह दस
लाख रुपये ही होंगे।
वह कहेंगे—’‘ क्या आप
जानते हैं कि
मैंने दस लाख
रुपयों का त्याग
कर दिया।’’ और
वह इसके बदले
में अपने लिए
स्वर्ग में भी
कुछ विशिष्ट
चीज पाने की
अपेक्षा कर
रहे हैं। यह
मनुष्य पहले
जैसा ही है, अभी नूतन
मनुष्य का
जन्म नहीं हुआ
है। यह कृत्य
उनके लिए एक
ऐसा पत्र बन
गया है जो अपनी
मंजिल पर नहीं
पहुंचा।
तुम
त्याग कर सकते
हो लेकिन यदि
तुम अपने अहंकार
के द्वारा
प्रसन्न हो
रहे हो, यदि तुम यह
अनुभव करते हो
कि तुम एक
महान त्यागी
हो, एक
महान आत्मा
अथवा संत हो
क्योंकि
तुमने त्याग
किया है और
तुम एक साधारण
व्यक्ति नहीं
हो, और तुम
एक सांसारिक
प्राणी नहीं
हो तब तुम्हारा
त्याग सच्चा
नहीं है।
कब
होता है सच्चा
त्याग? जब तुम उसकी
व्यर्थता
समझते हो।
किसी लालच के
कारण नहीं।
इसलिए भी नहीं
क्योंकि
तुमने दूसरे
संसार के लिए
कुछ चीज
अर्जित की है,
बल्कि केवल
उसकी
व्यर्थता
जानकर ही
तुमने उसे छोड़
दिया है।
त्याग
करने में कोई
प्रयास नहीं
करना पड़ता, बस एक
गहरी
अंतर्दृष्टि
की आवश्यकता
होती है। हर
सुबह तुम अपने
घर की सफाई
करते हो और
कूड़े कर्कट का
ढेर बाहर फेंक
देते हो, लेकिन
तुम उसकी
घोषणा नहीं
करते, पूरे
शहर में इस
बात का
विज्ञापन
नहीं करते कि
तुमने फिर
इतने अधिक
कूड़े को फेंक
दिया, आज
सुबह फिर
तुमने त्याग
का एक महान
कार्य किया।
नहीं, तुम
जानते हो कि
यह व्यर्थ
कूड़ा कचरा है,
बात खत्म हो
गई। आखिर
इसमें बताने
जैसी क्या बात
है?
नूतन
मनुष्य का
जन्म तब होता
है, जब
तुम्हारे
अंदर एक गहरी
अंतर्दृष्टि
होती है कि
सांसारिक
वस्तुओं का
कोई भी मूल्य
नहीं, वे
केवल जाली
मुद्रा की
भांति है।
नकली हीरे
अथवा नकली भी
असली हीरे ही
क्यों न हो, सभी एक जैसे
हैं। असली
डालर उतने ही
नकली हैं
जितने जाली
डालर। जब बाहर
का पूरा संसार
ही तुम्हारे
लिए निर्मूल्य
है तो वही
सच्चा त्याग
है। तब तुम
उससे बंधे हुए
नहीं हो।
मुक्त हो।
और बाउल
गाते हैं।
मेरे
जतन से संवारे
गए केश अभी भी
संवरे हुए और
सूखे हैं।
यद्यपि
मैं धारा में
खड़ा हुआ
और नदी
में लगभग
तैरता हुआ
पानी उछाल रहा
हूं।
लेकिन
फिर भी जल
मेरा स्पर्श
नहीं कर सकता।
तुम
जैसे ही सागर
तट पर आओ
अपने
पैरों के
तलुवे सूखे
रखो
उसी घर
में रहते हुए
बंधनों में
सहभागी बनो
लेकिन
रहो बिना किसी
से बंधे हुए।
ओ मेरे
मूर्च्छित
हृदय!
तू
अंतर्धारा की
खोज में टटोलते
हुए
व्यर्थ
ही एक जगह से
दूसरी जगह भटक
रहा है।
तेरे
ही हृदय—सागर
में एक अनमोल
रतन छिपा है।
उस
जीवन को कैसे
अच्छा मानें।
यदि तू
उस सहज
स्वाभाविक
मनुष्य से
जो
तेरी ही देह
में निवास
करता है।
सम्पर्क
करने में असफल
रहा है?
कांच
के एक टुकड़े
के लिए सोना
मत दे
और नरक
देखने के लिए
स्वर्ग को मत
छोड़
संसार
की भीड़ में
वहां चारों ओर
भटकने में शुभ
क्या है?
वह
शाश्वत नायक
तो तेरे अपने
ही छोटे से
कक्ष में रहता
है
ओ मेरे
हृदय!
तेरा
अपना कहने को
वहा है ही कौन?
तू
किसके लिए
अपने आंसुओ को
व्यर्थ बहा
रहा है?
भाई और
मित्र उन सभी
को वहीं बना
रहने दे
यहां
इस संसार में
तेरा अपना
प्रिय जीवन भी
मुश्किल
से ही तेरा
अपना है।
तू
अकेला आया है
और
अकेला ही
जायेगा।
त्याग
का पूरा विचार
ही दृष्टि और
समझ का है, चीजों को
उनके
वास्तविक रूप
में देखने का
है। तुम्हें
संसार से भाग
जाने की कोई
जरूरत नहीं है।
तुम संसार में
बने रह सकते
हो और फिर भी
पूरी तरह उससे
बंधन मुक्त हो
सकते हो।
लेकिन यदि तुम
अनुभव करते हो—’‘
अनावश्यक
रूप से बोझ को
क्यों ढोया
जाये तो तुम
संसार को छोड़
भी सकते हो।
लेकिन स्मरण
रहे, संसार
का इस तरह से
या उस तरह से
कोई भी मूल्य
नहीं है। यदि
उसका कोई
मूल्य ही नहीं
है, तो
उसके त्याग का
भी कोई मूल्य
नहीं हो सकता।
यदि वह
मूल्यवान है,
केवल तभी
उसका त्याग
करना भी
मूल्यवान हो
सकता है।
लेकिन तब उसको
त्यागना
जरूरी नहीं है,
वह केवल
मूल्यहीन है।
वह एक सपने की
तरह है। जब
तुम जागते हो,
तो
प्रत्येक चीज
विलुप्त हो
जाती है।’’
तुम
अकेले आये हो, तुम
अकेले ही
जाओगे, और
उन दोनों के
मध्य में ही
स्वप्न का
अस्तित्व है।
सपने को समझने
के लिए और
उसके प्रति
सजग बनने के
लिए ही नूतन
मनुष्य का
जन्म होता है।
बाउल
कहते हैं—’‘ यदि तुम
नूतन मनुष्य
से मिलना चाहते
हो तो तेरे
पास आओ।’’
वह
पूरे संसार को
आमंत्रित
करता है, मुझे देखने
के लिए आओ, नूतन
मनुष्य का
जन्म हो गया
है।
'' उसने
उस झोली के
लिए जो भिखारी
अपने कंधे पर
लटकाए रहते
हैं, अपनी
सभी सांसारिक
उपलब्धियों
को व्यर्थ जान
कर छोड़ दिया
है।’’
वह
शाश्वत काल की
देवी, मां
काली का नाम
लेता है, जब
भी वह गंगा
में खान करने
के लिए उनमें
उतरता है।
नूतन
मनुष्य अनंत—समय
या नित्यता
में रहता है, जब कि
साधारण
मनुष्य समय
में रहता है।
यह
शब्द काली समझ
लेने जैसा है।
काली समय या
काल की देवी
अर्थात् मां
है। संस्कृत
में समय को
काल कहते हैं
और काल की मां—काली, अर्थात्
समय की मां।
लेकिन समय की
मां, समय
के पार है।
समय का जन्म
उससे ही हुआ
है, लेकिन
वह गर्भ जिससे
समय का जन्म
हुआ, वह
नित्यता या
अनंत समय है।
यह नित्यता ही
समय की मां है,
शाश्वतता
का मात्र
प्रतिबिंब है
समय। बाउल
काली मां—समय—की
ही पूजा करते
हैं। वे इसी
नित्यता की
खोज करते हैं
उसकी नहीं, जो बदलती
रहती है, लेकिन
उसकी जो हमेशा
हमेशा बनी ही
रहती हैं, जो
सभी शब्दों की
भीड़ से परे है, पूरी तरह थिर
और स्थाई है।
वे अस्तित्व
की उसी धुरी की
खोज करते हैं,
प्रतीक रूप
में उसी को
काली कहा जाता
है।
यह
शब्द काल बहुत
अर्थपूर्ण है।
एक अर्थ है—तो
समय और दूसरा
अर्थ है
मृत्यु।
उसी
शब्द का अर्थ
है ' समय '
और उसी शब्द
का अर्थ है ' मृत्यु '।
यह बहुत सुंदर
है, क्योंकि
समय ही मृत्यु
है। जिस क्षण
तुम समय में
प्रवेश करते
हो, तुम
मरने के लिए
तैयार रहते हो।
जन्म के साथ
ही मृत्यु
तुम्हारे
अंदर प्रविष्ट
हो जाती है।
जब बच्चा जन्म
लेता है, वह
मृत्यु के
क्षेत्र में
प्रविष्ट हो
जाता है जो
जन्मदिवस है।
वही मृत्यु
दिवस भी है।
अब केवल एक ही
चीज निश्चित
है, वही
मृत्यु दिवस
भी है। अब
केवल एक ही
चीज निश्चित
है कि उसे
मरना होगा।
इसके अलावा हर
चीज अनिश्चित
है, वह हो
भी सकती है और
नहीं भी हो
सकती है।
लेकिन जिस
क्षण बच्चा
जन्म लेता है
उसी क्षण अपनी
पहली सांस
लेता है, अब
एक चीज ही
पूरी तरह
सुनिशिइचत है
कि उसकी मृत्यु
होगी।
जीवन
में प्रवेश
करना ही
मृत्यु में
प्रवेश करना
है, समय
में प्रवेश
करना है, मृत्यु
में प्रवेश
करना है। समय
ही मृत्यु है,
इसलिए
संस्कृत का
शब्द काल बहुत
सुंदर है।
इसका अर्थ समय
और मृत्यु
दोनों ही है।
और काली का
अर्थ है समय
और मृत्यु
दोनों के पार।
नित्यता
मृत्युहीनता
है। इस
नित्यता को
कैसे खोजा जाए?
इसकी विधि
क्या है? इसके
लिए तुम्हें
समय की विधि
अथवा प्रगति
को समझना होगा।
समय की
प्रगति
समानान्तर है? एक क्षण गुजरा
है, तब
दूसरा क्षण
आता है। वह भी
गुजर जाता है,
तब दूसरा
क्षण आता है—
क्षणों का एक
जुलूस, क्षणों
की एक पंक्ति.....एक
गुजरता है, तब दूसरा
आता है, दूसरा
गुजरता है तब
एक और दूसरा
आता है। यह
समानांतर है।
नित्यता
लम्बवत है:
तुम क्षण में
गहरे उतरते हो
हो, एक
पंक्ति में
गति न करते
हुए उसकी
गहराई में उतरते
हो। तुम अपने
आपको उस क्षण
में डुबो देते
हो। यदि तुम
किनारे पर खड़े
रहो, तब
नदी बहती हुई
गुजर जाती है।
सामान्यतया
हम समय के
किनारे पर खड़े
रहते हैं। नदी
आगे बढ़ती जाती
है, एक
क्षण दूसरा
क्षण और फिर
अगला क्षण और
क्षणों का
क्रम जारी
रहता है।
सामान्य रूप
से हम लोग इसी
तरह जीते हैं,
इसी तरह समय
में जीते हैं।
तब
वहां एक दूसरी
विधि है, नदी में छलांग
लगा जाओ क्षण
में डब जाओ
यहीं और अभी।
तब समय अचानक
रुक जाता है।
तब तुम एक
पूरी तरह से
भिन्न आयाम
में गतिशील होते
हो, यह
नित्यता का
लम्बवत आयाम
है। जीसस का
क्रॉस का यही
अर्थ है।
क्रॉस
चिह्न का
प्रतीक है।
समय का। यह दो
लकीरों से
बनता है, एक लम्बवत
और एक
समानांतर।
समानांतर
लकीर जीसस के
हाथ फैले हैं,
और लम्बवत
लकीर पर उनका
पूरा शरीर खड़ा
है। हाथ
प्रतीक है—कार्य
के : करने के, वश में रखने
के। ' वश
में रखना ', समय
के अंदर होता
है— '' होना '' नित्यता में
होता है।
इसलिए तुम जो
कुछ भी करते
हो, वह समय
में होता है, तुम जो कुछ
भी हो, वह
नित्यता में
है, तुम जो
कुछ भी
प्राप्त करते
हो, वह समय
के अंदर है, जैसा कुछ भी
तुम्हारा
स्वभाव है वह
नित्यता में
है।
कुछ
प्राप्त करने
और कुछ करने
से ' ही ' होने की ओर
परिवर्तन
होना शुरू हो
जाता है। इसी
क्षण भी यह
मोड़ आ सकता है।
इसी क्षण यदि
तुम अपना अतीत
और भविष्य भूल
जाओ, तब
समय रुक जाता
है। तब कुछ भी
गतिशील नहीं
होता, तब
प्रत्येक चीज
पूरी तरह शांत
होती है। और
तुम अभी और ' यहीं ' में
डूबना शुरू हो
जाते हो। यह ' अभी ' ही
नित्यता है।
काली
प्रतीक है—’‘ अभी का '' नित्यता का
पूर्ण सत्य का।
क्षण—— क्षण
जीना और भूत
तथा भविष्य के
बारे में फिक्र
न करना ही
नूतन मनुष्य
बनने का
रास्ता है।
साधारण
शब्द भी
अज्ञान और
अविश्वास को
मिटा सकते हैं
काली
और कृष्ण एक
ही है।
शब्दों
में अंतर हो
सकता है
लेकिन
अर्थ ठीक—ठीक
वही है।
वह
जिसने शब्दों
के अवरोध तोड़
दिए
उसने
सारी सीमाओं
पर विजय
प्राप्त कर ली।
अल्ला
या जीसस,
मोजेज
या काली
अमीर
या गरीब
साधूया
मूर्ख
उसके
लिए तो यह सभी
एक ही हैं।
बहुत
ही
महत्त्वपूर्ण
वाक्य है—’‘ साधारण
शब्द भी
अज्ञान और
अविश्वास को
मिटा सकते हैं।’’
यदि तुम सुन
सको, तो
बहुत साधारण
शब्द ही काफी
है। यदि तुम
ग्राहक बनने
में समर्थ हो
सको, तो
ऐसे व्यक्ति
के वचन, जो
जानता है
यथेष्ट हैं।
लेकिन यदि तुम
नहीं समझते, तब चीजें
बहुत जटिल बन
जाती है।
तुम्हारा न
समझना और तुम्हें
ग्राहकता न
होने से चीजें
जटिल हो जाती
हैं। वह भ्रम
उत्पन्न करती
हैं। तुम्हें
उलझाती हैं वह
तुम्हारे
अस्तित्व में
कोलाहल
उत्पन्न करती
हैं। यदि तुम
अपने मन के
दखल दिए बिना
मौन रहकर सुन सको,
तब साधारण
शब्द ही
अज्ञान और
अविश्वास
मिटा सकते हैं।
बाउल
कहते हैं:
प्रिय
मित्र!
यदि
तुम मुझे ऐसा
करने से रोकते
हो, तो
मैं असहाय हूं।
मेरे
गीतों में ही
मेरी
प्रार्थनाएं
गुंथी हैं।
कछ
पुष्प अपने
सुंदर रंगों
के जादू के
द्वारा
और
दूसरे पुष्प
जो गहरे रंग
के हैं,
अपनी
सुवास के
द्वारा
प्रार्थना
करते हैं।
जैसे
वीणा अपने
झंकृत तारों
के द्वारा
प्रार्थना
करती है।
उसी तरह
मैं भी
अपने
गीतों के
द्वारा
प्रार्थना ही
करता हूं।
बाउल
अधिक
दर्शनशास्त्र
नहीं जानते, वे
दार्शनिक
नहीं है। वे
इसी पृथ्वी के
साधारण
मनुष्य हैं।
वे बहुत सहज
और सरल
व्यक्ति हैं,
जो नृत्य कर
सकते हैं और
गीत गा सकते
हैं। उनके
शब्द बहुत सरल
हैं। यदि तुम
प्रेम करते हो,
यदि तुम
श्रद्धा करते
हो, तो
उनकी छोटी—छोटी
मुद्राएं ही
बहुत कुछ
स्पष्ट कर
देती हैं।
और यह
प्रश्न सदा से
ही प्रेम और
श्रद्धा का है।
क्योंकि
जितना अधिक
आत्मज्ञान
तुम जानते हो
तुम उतने ही
अधिक उलझ जाते
हो। और तुम
जितने अधिक
दर्शनशास्त्र
से परिचित होते
हो, तुम्हारी
समझ विकसित
होने की
संभावना उतनी
ही कम हो जाती
है, तुम
जितनी अधिक
जानकारी
बटोरोगे, तुम्हारी
समझ उतनी ही
कम होगी। तुम
बहुत अधिक
बादलों से घिर
जाओगे और
विचारों का ध्रुंवा
तुम्हें
स्पष्टता से
देखने की
अनुमति नही देगा।
तुम्हारा
दर्पण धूल से
भर जाएगा।
साधारण
शब्द भी
अज्ञान और
अविश्वास को
मिटा सकते हैं।
काली
और कृष्ण एक
ही हैं।
बाउल
कहते हैं—’‘ हम लोग
हिंदू
मुसलमान और
ईसाई के बीच
कोई भेद नहीं
करते.. काली और
कृष्ण एक ही
हैं। वे कहते
हैं, हम
लोग स्त्री और
पुरुष के बीच भी
कोई भेद नहीं
करते। काली और
कृष्ण एक ही
हैं, पुरुष
और स्त्री एक
ही हैं।’’ यह
उनकी
अंतर्दृष्टियों
में से एक है, यदि तुम
वास्तव में
गहरे प्रेम और
श्रद्धा के साथ
गीत गाते हुए
नृत्य कर सकते
हो, तो
तुम्हें यह
अनुभव होगा कि
पुरुष और
स्त्री दो अलग—
अलग अस्तित्व
नहीं हैं। तुम्हारे
अंदर एक नई
रासायनिक
प्रक्रिया
शुरू हो जाती
है, और
तुम्हारे
अंदर का पुरुष
पिघलकर अंदर
की स्त्री से
एक हो जाता है.....काली
और कृष्ण एक
हो जाते हैं।
वे
गाते हैं:
जैसे
ही मेरे अंदर
स्त्री और
पुरुष प्रेम
में पिघलकर एक
हो जाते हैं
उसके
सौंदर्य की
द्युति—
दो
पंखडियों के
कमल में
संतुलित होकर
मेरे
अंदर ही खिलती
है।
उस
सौंदर्य की
द्युति से
मेरी आंखें
चौंधा जाती
हैं।
चंद्रमा
के प्रकाश से
दीप्तिवान
किरणें
और
सर्पों के
फणियों पर
दमकती मणियों
का सुनहरा
प्रकाश
मेरी
त्वचा और
अस्थियों को
स्वर्ण में
बदल देता है।
ऐसा तभी
तो होता है जब
मेरे अंदर के
ही स्त्री और
पुरुष मिलते
हैं,
जब
अंदर कृष्ण और
काली एक हो
जाते हैं।
मेरी
त्वचा और
अस्थियां
स्वर्णमयी हो
जाती हैं।
मैं
हूं प्रेम का
अनंत जल—
भंडार जो
लहरों से
जीवंत है,
जबकि
इस जल की
अकेली एक बूंद
ही विकसित
होकर
इतना
गहरा सागर बन
जाती है।
जिसमें
नौकायन नहीं
हो सकता।
पुरुष
की पूरी
समस्या ही यही
है कि स्त्री
से मिलन कैसे
हो और स्त्री
की भी पूरी
समस्या है कि
पुरुष से कैसे
मिलन हो।
सुदूर
पूरब के बहुत
देशों में एक
बहुत पुरानी कल्पित
कथा कही जाती
है। वे कहते
हैं कि
परमात्मा ने
पुरुष और
स्त्री को एक
साथ दो अलग—
अलग अस्तित्व
के रूपों में
बनाकर, एक ही शरीर
में जुडा हुआ
बनाया। लेकिन
तब कठिनाई
शुरू हो गई।
वहां
समस्याएं खड़ी
होने लगीं और
संघर्ष शुरू हो
गया। स्त्री
यदि पूरब की
ओर जाना चाहती
थी तो उस ओर पुरुष
नहीं जाना
चाहता था।
अथवा यदि
पुरुष कुछ काम
करना चाहता था
तो स्त्री
विश्राम करना
चाहती थी।
लेकिन वे एक
साथ थे, उन
दोनों के शरीर
जुडे हुए थे।
इसलिए
उन्होंने
परमात्मा से
शिकायत की और
परमात्मा ने
काट कर उन
दोनों के शरीर
अलग— अलग कर
दिए।
तब से
हर पुरुष अपनी
उसी स्त्री की
खोज कर रहा है
और प्रत्येक
स्त्री अपने
पुरुष की खोज
कर रही है। अब
तो इतनी बड़ी
भीड़ हो गई है
कि यह खोज
पाना कठिन है
कि कौन सी
तुम्हारी
स्त्री और कौन
सा तुम्हारा
पुरुष है।
इतनी अधिक
मुसीबत है और
प्रत्येक
व्यक्ति गलत
गदम उठाता
अंधेरे में
टटोल रहा है।
तुम्हें अपनी
स्त्री को खोज
पाना लगभग
असम्भव हो गया
है। तुम उसे
खोजोगे कैसे?
कथा
कहती है कि
यदि तुम उसे
खोज सको तो हर
चीज ठीक हो
जायेगी— तुम
दोनों फिर से
एक शरीर हो
जाओगे। लेकिन
यह खोज पाना
बहुत कठिन है।
लेकिन
तुम्हें अपनी
स्त्री को खोज
लेने का एक
रास्ता है, क्योंकि
वह स्त्री
तुम्हारे
बाहर नहीं है।
बाहर तो अधिक
से अधिक
समानांतर
समानताएं हैं।
जब तुम
किसी स्त्री
से प्रेम करने
लगते हो, तो वास्तव
में होता क्या
है? होता
यह है कि बाहर
की स्त्री
थोड़ा बहुत
तुम्हारे
अंदर की
स्त्री की छवि
की
प्रतिपूर्ति
करती है। उस
छवि के अनुरूप
अपना समायोजन
करती है भले ही
सौ प्रतिशत न
सही लेकिन
इतना तो करती
है जिससे
प्रेम हो सके।
जब तुम किसी
पुरुष से
प्रेम करने
लगती हो तो क्या
घटता है।
तुम्हारे
अंदर कोई चीज
खटपट करने
लगती है और कहती
है—’‘ हां!
यही है वह
पुरुष एक
सच्चा पुरुष
है।’’ यह
कोई तर्क
पूर्ण
निष्कर्ष
नहीं है और न
यह तथ्यों के
पार कोई
तार्किक
विवेचना है, यह ऐसा भी
नहीं है कि
तुम उस पुरुष
की सभी अच्छाइयां
और बुराइयां,
खोज लेती हो,
और तब तुम
तै करती हो, अथवा तुम उस
पुरुष की
संसार के अन्य
पुरुषों से
तुलना करती हो
और तब उसे
चुनती हो।
नहीं, अचानक
धुंध और धुवें
से कुछ नजर
आता है, और
कोई चीज घट
जाती है।
अचानक तुम
देखती हो और
तुम्हें लगता
है यही वह
पुरुष जिसके
लिए तुम
इंतजार कर रही
थी, जिसकी
तुम्हें जन्म
जन्मों से
प्रतीक्षा थी।
होता
क्या है? तुम अपने
साथ एक पुरुष
की छवि अपने
अंदर लिए चलते
हो, तुम
अपने अंदर एक
स्त्री की छवि
बसाये होते हों।
तुम स्त्री और
पुरुष दोनों
ही हो अंदर से,
और तुम बाहर
ही देखें चले
जाते हो। कोई
भी सौ प्रतिशत
उस छवि के
अनुरूप नहीं
मिलने का, क्योंकि
बाहर तुम जिस
स्त्री को
पाते हो, उसकी
भी तुम्हारे
बारे में अपनी
एक अलग छवि है,
और
तुम्हारे
अंदर भी अपनी
स्त्री की अलग
छवि है। दोनों
छवियां एक
दूसरे से मिल
जाएं यह बहुत
अधिक कठिन है।
इसलिए सभी
विवाह हमेशा
टूटने की कगार
पर होते हैं, और लोग धीमे—
धीमे यह सीखते
हैं कि कैसे
शांति से जीवन
गुजारा जाए।
वे सीखते हैं
कि जीवन की
नौका किसी
चट्टान से न
टकरा जाये।
लेकिन बाहर
इससे अधिक और
कुछ नहीं हो
सकता।
बाउल
कहते हैं—’‘ तुम्हारे
अंदर गहरे में
दोनों ही
अस्तित्व में
हैं—कृष्ण और
काली। उनका
वहां मिलन
होने दो।
तंत्र की पूरी
विधि यही है, तुम कैसे
अपने अंदर के
पुरुष को अपने
अंदर की
स्त्री के साथ
मिलने की
अनुमति देते
हो। और जब इस मिलन
के बाद ऊर्जा
का एक वर्तुल
बन जाता है, तब एक
अंतर्संभोग
घटता है, एक
महान शिखर
अनुभव होता है,
परमानंद का
एक महान
विस्फोट होना
शुरू हो जाता
है, जिसका
आरंभ तो ज्ञात
है, पर
उसका अंत कोई
नहीं होता।’’
तब तुम
जीवन, एक शिखर
अनुभव करते
हुए परमानंद
में जीते हो।
अकेली
पानी की एक
बूंद ही
विकसित
होकर एक सागर
बन जाती है
ऐसा
गहरा सागर
जिसमें
नौकाएं नहीं
चलती।
तब तुम
फिर सीमित
नहीं रह जाते, तुम असीम
और अनंत हो
जाते हो।
साधारण
शब्द भी
अज्ञान और
अविश्वास को
मिटा सकते हैं।
काली
और कृष्ण एक
ही है।
शब्दों
में अंतर हो
सकता है।
लेकिन
अर्थ ठीक—ठीक
वही है।
वह
जिसने शब्दों
के अवरोध तोड़
दिए
उसने
सारी सीमाओं
पर विजय
प्राप्त कर ली।
शब्दों
की सीमाएं तोड़
दो। अब जब मैं
तुमसे बातचीत
कर रहा हूं
मैं शब्दों का
प्रयोग कर रहा
हूं। तुम मेरे
शब्दों को सुन
सकते हो, तब तुमने
मुझे सुना ही
नहीं। तुम इस
तरह भी सुन
सकते हो, कि
शब्द अधिक समय
तक अवरोध न बन
सकें, बल्कि
वाहन बन जायें।
वे और अधिक
समय तक
समस्याएं
उत्पन्न न
करें, लेकिन
तुम शब्दों के
ठीक मध्य में
सुनो, दो
शब्दों के
मध्य अंतराल
में। तुम मेरे
मौन को सुनो।
तब शब्द और
उनके अवरोध
टूट जाते हैं,
तब सीमाओं
पर विजय
प्राप्त कर ली
जाती है।
अल्लाह
या जीसस
मोजेज
या काली
धनी
अथवा निर्धन
साधु या
मूर्ख
उसके
लिए तो ये सभी
एक ही हैं।
यही है
वह नूतन
मनुष्य।
अब वह
कोई द्वैतता
नहीं जानता।
वह साधू और
बेवकूफ
व्यक्ति के
मध्य कोई अंतर
या भेद नही करता।
वह स्त्री और
पुरुष के मध्य
भी कोई अंतर
नहीं समझता।
सभी
द्वैतताएं एक
हो जाती हैं, सारी
द्वैतता
विसर्जित हो
जाती है। एक
बार तुम
शब्दों को
गिरा दो, द्वैतता
भी गिर जाती
है।
भाषा
ही द्वैतता
उत्पन्न करती
है। भाषा का
अस्तित्व ही
द्वैतता के
द्वारा है। वह
अद्वैत को
अभिव्यक्त
नहीं कर सकती।
यदि मैं कहता
हूं कि ' दिन ' तुरंत
ही मैं ' रात
' का सृजन
कर देता हूं।
यदि मैं कहता
हूं ' अच्छा
' तुरंत ही '
बुरा ' उत्पन्न
हो जाता है। यदि
मैं कहता हूं '
नहीं ', बस
उसकी बगल में '
हां ' का
भी अस्तित्व
है। भाषा का
अस्तित्व
केवल विरोध के
द्वारा ही है।
इसी
कारण हम देखते
हैं कि जीवन
हमेशा
विभाजित है
परमात्मा और
शैतान। भाषा
छोड़ दो, भाषा का यह
ढांचा गिरा दो।
एक बार
तुम्हारे मन
में भाषा न
रहे और तुम
वास्तविकता
या सत्य में
सीधे देख सको।
दिन में रात
भी है। अचानक
तुम हंसने
लगोगे कि इतनी
लंबी अवधि से उसे
चूकते क्यों
रहे? दिन
प्रत्येक दिन
रात में बदलता
है, रात, दिन में
बदलती है और
फिर सुबह आती
है और तुम उसे
चूकते रहे हो।
जीवन सदा ही
मृत्यु की ओर
गतिशील है।
मृत्यु फिर से
हमेशा जीवन की
ओर बढ़ रही है।
और तुम उससे
चूकते जा रहे
हो। वे दो
नहीं है, वे
पूरी तरह एक
ही हैं। यह दो
नहीं है।
अद्वैत है।
यही सबसे अधिक
सारभूत धर्म
है।
क्योंकि
उसकी चेतना अब
और भाषा के
द्वारा विभाजित
नहीं होती, अब वह
संसार को
शब्दों के माध्यम
से नहीं देख
रहा है। वह
पागल जैसा
दिखाई देता है,
वह अब अपने
अस्तित्व में
ही डूबा हुआ
है, वह
अपने ही
प्रकाश में खो
गया है। और यह
प्रकाश इतना
अधिक व्यापक
और प्रखर है, जैसे मानो
एक हजार एक
सूरज एक साथ
उदित हो गए हों।
यह प्रकाश
बहुत चौंधाने
वाला है।
अपने ही
खयालों में
खोया हुआ
वह
दूसरों को
पागल जैसा
दिखाई देता है।
वह
संसार का
स्वागत करने
के लिए
अपनी
भुजाएं फैला
कर
उन सभी
को अपनी नाव
पर
जो अभी
जीवन के
किनारे से ही
बंधी है।
उस पार
ले जाने के
लिए
आमंत्रित
करता है।
और वह
पुकारे चले
जाता है। आओ
मेरे पास आओ।
यदि तुम उस
नूतन मनुष्य
से भेंट करना
चाहे हो, और वह नाव
तैयार है। और
उसकी नाव जीवन
के विरोध में
नहीं है, वह
जीवन तट से ही
बंधी हुई है।
वह नकारात्मक
नहीं है। और
वह कह रहा है—’‘ आओ! मैं
तुम्हें
दूसरे किनारे
पर ले जा सकता
हूं। आओ! और
मैं तुम्हें
नूतन बना सकता
हूं आओ! और मैं
तुम्हें
शाश्वतता में
ले जा सकता हूं।’’
आज बस
इतना ही!
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