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गुरुवार, 19 मई 2016

कोपले फिर फूट आईं--(प्रवचन--09)

ध्यान तंत्र के बिना लोकतंत्र असंभव—(प्रवचन—नौवां)
दिनांक : 7 अगस्त, 1986, 7.00 संध्या,
सुमिला, जुहू, बंबई
प्रश्‍नसार—
1—भगवान, विचार अभिव्यक्ति और वाणी-स्वतंत्रता लोकतंत्र का मूल आधार है। आपकी बातों से कोई सहमत हो या अपना विरोध प्रकट करे, इसके लिए वह स्वतंत्र है। लोग विरोध तो करते हैं, लेकिन व्यक्ति को अपना काम करने की स्वतंत्रता नहीं देना चाहते। ऐसा क्यों?
2—आपको ऐसा करना चाहिए और वैसा नहीं करना चहिए, यह ठीक है और वह गलत है, ऐसी चर्चा अक्‍सर हमआपके प्रेमी किया करते है। ऐसी चर्चाओं से ऐसा लगता है, जैसे हम आपसे ज्‍यादा जानते है ओर आपसे ज्‍यादा समझदार है।
3—तेरह वर्ष पहले आपने मुझे संन्‍यासी बना कर नया जीवन दिया। इस पूरे समय में आपने बहुत दिया।पूरा जीवन बदल गया। फिरभी प्‍यास बढ़ती जा रही है। आपके निकट रहने का भाव तीव्र होता जा रहा है। अब क्‍या करू? इस विरह में धैर्य रख सकूं, इसके लिए आप ही शक्‍ति देना।


प्रश्न: भगवान, विचार अभिव्यक्ति और वाणी-स्वतंत्रता लोकतंत्र का मूल आधार है। आपकी बातों से कोई सहमत हो या अपना विरोध प्रकट करे, इसके लिए वह स्वतंत्र है। लोग विरोध तो करते हैं, लेकिन व्यक्ति को अपना काम करने की स्वतंत्रता नहीं देना चाहते। ऐसा क्यों?
क ही जाम ने दोनों का भरम तोड़ दिया।
रिंद मस्जिद को गए शेख जी मयखाने को।
जिसे हम जिंदगी कहते हैं और जिन मूल्यों के ऊपर हम नाज करते हैं, उनमें कितने भरम हैं और कितनी सच्चाइयां हैं, तुम जरा आंख खोलो तो चौंके बिना न रहोगे।
सारी दुनिया में लोकतंत्र के नाम पर ऐसे-ऐसे झूठों का प्रचार किया गया है, और इतने लंबे अरसे, कि यह बात भूल ही गए कि इस प्रचार पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। कहा तो जाता है कि लोकतंत्र जनता का है, जनता के लिए है, जनता के द्वारा है, लेकिन इतने बड़े झूठ भी बहुत बार दोहराए जाने पर सच जैसे मालूम पड़ने लगते हैं।
एडोल्फ हिटलर कहा करता था कि मैंने तो झूठ और सच में सिर्फ एक ही फर्क पाया और वह फर्क है, दोहराने का। झूठ नया सच है, जो अभी दोहराया नहीं गया; और सच पुराना झूठ है, परंपरागत, सदियों, पीढ़ी दर पीढ़ी दोहराया गया है।
उसकी बात में थोड़ी सी सच्चाई है। क्योंकि न तो किसी देश में जनता का राज्य है, न किसी देश में जनता के लिए राज्य है, और न किसी देश में जनता के द्वारा राज्य है। लेकिन ये झूठ बड़े प्यारे हैं। ये बड़े मीठे हैं। ये जहरीले हैं जरूर, लेकिन करोड़ों-करोड़ों लोग आनंद से इन्हें पी जाते हैं। और जो लोग इन झूठों का प्रचार कर सकते हैं, वे राज्य करते हैं। उनका ही राज्य है, उनके ही द्वारा है, और उनके अपने हित के लिए है। यों कहने को वे कहते हैं कि वे जनता के सेव के हैं। लेकिन बड़ी अजीब दुनिया है। यहां जनता के सेवक कहने वाले लोग जनता के मालिक बनकर बैठे हैं। हां, पांच साल में एक बार जरूर उन्हें फिर झूठ को दोहराना पड़ता है। उन्हें फिर जनता के द्वार पर आकर कहना पड़ता है, हम तुम्हारे सेवक हैं। एक बार तुम्हारा मत उनकी झोली में पड़ गया, कि वे जो भिखारी की तरह आए थे, उनके द्वार पर खड़े चपरासी तुम्हें धक्के देकर निकाल देंगे। तुम्हें मिलने का मौका नहीं मिलेगा।
यह अजीब जनता की सेवा हुई। जनता भूखी मरती है। जनता रोज-रोज दुख और पीड़ा से भरती जाती है, लेकिन उसी जनता के सेवक मौज कर रहे हैं, गुलछर्रे कर रहे हैं। वे मौज करें, गुलछर्रे करें, इसमें मुझे एतराज नहीं। मुझे एतराज है इनके झूठों पर।
तुमने पूछा है कि कहा जाता है कि लोकतंत्र का मूल आधार है विचार-स्वातंत्र्य। और मेरे जीवन भर का अनुभव यह कहता है कि विचार की स्वतंत्रता कहीं भी नहीं है। अभी-अभी मैं सारी दुनिया का चक्कर लगाकर आया हूं। नहीं कोई देश है जमीन पर, जहां तुम स्वतंत्र हो वही कहने को, जो तुम्हारे हृदय में उपजा है। तुम्हें वह कहना चाहिए जो लोग सुनना चाहते हैं। बहुत से देश चाहते थे कि मैं उनका निवासी बन जाऊं; कि उन्हें लगता था, मेरे कारण हजारों-हजारों संन्यासियों का आना होगा, आर्थिक लाभ होगा उनके देश को। मुझसे उन्हें मतलब न था, मतलब इस बात से था कि हजारों व्यक्तियों के आने से उनके देश की संपदा बढ़ेगी। लेकिन उन सबकी शर्तें थीं। और आश्चर्य तो यह है, कि सब की शर्तें समान थीं। हर देश की शर्तें थी कि हम खुश हैं कि आप यहां रह जाए, लेकिन आप सरकार के खिलाफ कुछ भी न बोलें और आप इस देश के धर्म के खिलाफ कुछ भी न बोलें। बस ये दो चीजों का वजन, इन दो शर्तों को अगर आप पूरा करें, तो आपका स्वागत है। वही हालत इस देश में भी है।
जिंदगी भर मुझे दफ्तरों से, सरकारी अदालतों से समन्स मिलते रहे हैं, कोर्ट में उपस्थित होने की आज्ञा मिलती रही है। क्योंकि किसी व्यक्ति ने कोर्ट में निवेदन कर दिया कि मैंने जो कुछ कहा है, उससे उसके धार्मिक भाव को चोप पहुंच गयी। यह बड़े मजे की बात है। तुम्हारा धार्मिक भाव इतना लचर, इतना कमजोर, कि कोई कुछ उसके विरोध में कह दे तो उसे चोट पहुंच जाती है। तो ऐसे लचर और कचरे भाव को फेंको। तुम्हारे भीतर का धर्म तो मजबूत स्टील का होना चाहिए। ये कहां के सड़े-गले बांस तुम उठा लाए हो।
और जो भी व्यक्ति किसी अदालत के सामने जाकर कहे कि उसके धार्मिक भाव को चोट पहुंची है, अदालत को चाहिए कि उस आदमी पर मुकदमा चलाए कि ऐसा धार्मिक भाव तुम अपने भीतर रखते क्यों हो? तुम्हें कुछ मजबूत और शक्तिशाली जीवन चिंतना नहीं मिलती? तुम्हें कोई विचारधारा नहीं मिलती, जिसको कोई चोप न पहुंचा सके? मैंने तो आज तक किसी अदालत से नहीं कहा कि मेरे धार्मिक भाव को कोई चोट पहुंची है। मैं तो प्रतीक्षा कर रहा हूं उस आदमी की, जो धार्मिक भाव को चोट पहुंचा दे। मैं तो सारी दुनिया में उसको आमंत्रित करता हुआ घूमा हूं, कि कोई आए और मेरे धार्मिक भाव को चोट पहुंचा दे। क्योंकि मेरा धार्मिक भाव मेरा अपना अनुभव है। तुम उसे चोट कैसे पहुंचा सकोगे?
लेकिन लोगों के धार्मिक भाव उधार हैं, बासे हैं; दूसरों के हैं, अपने नहीं हैं। किसी ने कान फूंके हैं, गुरुमंत्र दिए हैं, और इन उधार बासी बातों पर, इस रेत पर उन्होंने अपने महल खड़े कर लिए हैं। जरा सा धक्का दो, तो उनके महल गिरने लगते हैं। महल हिल जाते हैं, कंपायमान हो जाते हैं। लेकिन इसमें कसूर धक्के देने वाले का नहीं है। तुम रेत पर महल बनाओगे तो गलती किसकी है? तुम पानी पर लकीरें खींचोगे और मिट जाएं, तो जिम्मेवारी किसकी है?
और अगर यह सच है कि किसी धर्म के, किसी चिंतन के विरोध में बोलना अपराध है, तो कृष्ण ने भी अपराध किया है, बुद्ध ने भी अपराध किया है, जीसस ने भी अपराध किया है, मोहम्मद ने भी अपराध किया है, कबीर ने भी नानक ने भी। इस दुनिया में जितने विचारक हुए हैं, उन सबने अपराध किया है; भयंकर अपराध किया है। क्योंकि उन्होंने निर्दयी भाव से, जो गलत था उसे तो,डी है। और जो गलत से बंधे थे उनको स्वभावतः चोट पहुंची होगी।
अगर अब दुनिया में कबीर पैदा नहीं होते, अगर अब दुनिया में बुद्ध पैदा नहीं होते, तो तुम्हारा लोकतंत्र जिम्मेवार है। अजीब बात है। लोकतंत्र में तो गांव-गांव कबीर होने चाहिए, घर-घर नानक होने चाहिए। जगह-जगह सुकरात होने चाहिए, मंसूर होने चाहिए। क्योंकि लोकतंत्र का मूल आधार है: विचार की स्वतंत्रता। जब लोकतंत्र नहीं था दुनिया में, और विचार की कोई स्वतंत्रता नहीं थी दुनिया में, तब भी दुनिया ने बड़ी ऊंचाइयां लीं। और अब, अब दुनिया में ऊंचाइयों पर उड़ना अपराध है, तुम्हारे पंख काट दिए जाएंगे। क्योंकि तुम्हारा ऊंचाइयों पर उड़ना--जो लोग नीचाइयों पर बैठे हैं, उनके हृदय को बड़ी चोट पहुंचती है।
लोकतंत्र हो तो सकता था एक अदभुत अनुभव मनुष्य की आत्मा के विकास का। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। हो गया उल्टा। नाम बड़े, दर्शन छोटे। बड़े ऊंचे-ऊंचे शब्द और पीछे बड़ी गंदी असलियत। कहीं कोई विचार की स्वतंत्रता नहीं है। लेकिन हर आदमी को हिम्मत करनी चाहिए विचार की स्वतंत्रता की। यह मुसीबत को बुलाना है। यह अपने हाथ से बैठे-बिठाए झंझट मोल लेनी है। लेकिन यह झंझट मोल लेने जैसी है। क्योंकि इसी चुनौती से गुजरकर तुम्हारी जिंदगी में धार आएगी, तुम्हारी प्रतिभा में तेज आएगा, तुम्हारी आत्मा में आभा आएगी। दूसरों के सुंदरतम विचार ढोते हुए भी तुम सिर्फ गधे हो, जिसके ऊपर गीता और कुरान और बाइबिल और वेद लदे हैं। मगर तुम गधे हो। तुम यह मत समझने लगना कि सारे धर्मशास्त्र मेरी पीठ पर लादे हैं, अब और क्या चाहिए? स्वर्ग के द्वार पर फरिश्ते बैंड-बाजे लिए खड़े होंगे, अब देर नहीं है।
अपना छोटा सा अनुभव, स्वयं की अनुभूति से निकला हुआ छोटा सा विचार, जरा सा बीज तुम्हारी जिंदगी को इतने फूलों से भर देगा कि तुम हिसाब न लगा पाओगे। क्या तुमने कभी यह खयाल किया है कि एक छोटे से बीज की क्षमता कितनी है? एक छोटा सी बीज पूरी पृथ्वी को फूलों से भर सकता है। लेकिन बीज जिंदा होना चाहिए। विचार जिंदा होता है, जब तुम्हारे प्राण में पैदा होता है, जब उसमें तुम्हारे हृदय की धड़कन होती है, जब उसमें तुम्हारा रक्त बहता है, जब उसमें तुम्हारी सांसें चलती हैं।
जीवन भर मेरा एक ही उपाय रहा है कि तुम्हें झकझोरूं, तुम्हें हिलाऊं, डुलाऊं; तुमसे कहूं कि तुम कब तक उधार, बासे विचारों से भरे रहोगे। शर्म खाओ। बहुत बेशर्मी हो चुकी। कुछ तो अपना हो। कोई संपदा तो तुम्हारी हो। और इस जीवन में अनुभूति की, स्वानुभूति की संपदा से बड़ी कोई संपदा नहीं है।
ऐसी एक मीठी कहानी है। बुद्ध का एक गांव में आगमन हुआ है। वे सुहाने दिन थे। वे दिन थे, जब इस देश ने गौरीशंकर की ऊंचाइयां देखीं। यह देश पहाड़ों पर नहीं चढ़ा, लेकिन इसने चेतना के बड़े से बड़े शिखर छुए हैं।
बुद्ध गांव में आ रहे हैं। उस देश का जो सम्राट है, उसका बूढ़ा मंत्री, वजीर उस युवा सम्राट से कहता है, आपको स्वागत के लिए जाना चाहिए। सारा गांव बुद्ध के स्वागत के लिए जा रहा है। और यह अपमानजनक होगा हमारे लिए, कि बुद्ध हमारे गांव में आए और सम्राट उनके स्वागत को न जाए। सम्राट ने कहा, कि क्या उल्टी बातें करते हो? क्या बुढ़ापे में सठिया गए हो? मैं सम्राट हूं, बुद्ध भिखारी हैं। आना होगा उन्हें, तो मिलने मुझसे चले आएंगे मेरे द्वार पर। किस कारण मैं उनके स्वागत को जाऊं? उस बूढ़े मंत्री की आंखों से दो आंसू टपके और उसने कहा, मेरा इस्तीफा स्वीकार कर लें। अब मैं आपके नीचे काम न कर सकूंगा। इतने नीचे आदमी के नीचे काम करना ठीक नहीं है।
उस मंत्री की बड़ी जरूरत थी। वह उस राज्य का सर्वाधिक बुद्धिमान व्यक्ति था। सम्राट उसे खो न सकता था। उसने कहा, तुम भी पागल हो, इतनी सी बात पर इस्तीफा देते हो? उसने कहा, या तो आपको पैदल चलकर बुद्ध के चरणों में सिर रखना होगा, और या मेरा इस्तीफा पत्थर की लकीर है। कोई सुनेगा तो क्या कहेगा? कैसी बदनामी होगी, कि इस देश के सम्राट को इतनी भी समझ नहीं है कि जब कोई आत्मवान, जब कोई अपनी ज्योति से ज्योतिर्मय, जब कोई अपनी सुवासित इस गांव में आया हो तो सम्राट चार कदम चलकर उसके पैर छूने भी न जा सका। तुम्हारे पास है भी क्या? जिस धन-दौलत, जिस राज्य के कारण तुम अपने को सम्राट और बुद्ध को भिखारी समझ रहे हो, इस बात को न भूल जाओ कि वह आदमी भी कभी सम्राट था, तुमसे बड़ा। उसका भी राज्य था, तुमसे बड़ा। वह उसे ठोकर मार आया है। उसका भिखारीपन उसके सम्राट होने से बहुत ऊपर है। बाद की सीढ़ी है। वह कोई साधारण भिखमंगा नहीं है। वह एक सम्राट है, जिसने साम्राज्य को लात मार दी। अभी तुम बहुत दूर हो।
सम्राट को जाना पड़ा। बात में सच्चाई थी। बुद्ध के चरणों में सिर रखना पड़ा। बुद्ध ने कहा कि व्यर्थ तुम परेशान हुए। मैं तो आ ही रहा था। तुम्हारे महल के पास से गुजरता ही। और फिर मैं तो भिखारी हूं, तुम सम्राट हो। लेकिन जब उसने बुद्ध को देखा तब उसे पता चला, कि कभी यों भी होता है कि भिखारी सम्राट होता है और सम्राट भिखारी होता है। सब कुछ हो तुम्हारे पास बाहर का, लेकिन भीतर की कोई अपनी अनुभूति न हो; भीतर का कोई दीया न जला हो; भीतर चिराग मुझे और बाहर दीवाली हो, तो तम उस आदमी से बहुत गरीब हो जिसके भीतर सिर्फ एक चिराग जला हो, और बाहर अमावस की रात हो। क्योंकि बाहर के चिराग तो जलते हैं और बुझते हैं। और भीतर का चिराग सिर्फ जलता है, फिर कभी बुझता नहीं है।
विचार की स्वतंत्रता चाहिए, लेकिन कोई उसे तुम्हें देगा नहीं, तुम्हें उसे लेना होगा। इस भ्रांति को छोड़ दो कि सिर्फ तुमने अपने विधान को लोकतंत्र का विधान कह दिया तो समझ लिया, कि विचार की स्वतंत्रता उपलब्ध हो गयी। क्या खाक विचार करोगे? स्वतंत्रता भी उपलब्ध हो जाएगी तो विचार क्या करोगे? जो अखबार में पढ़ोगे वही तुम्हारी खोपड़ी में घूमेगा। विचार करने के लिए विधान में तुम्हारे स्वतंत्रता की गारंटी काफी नहीं है।
विचार की स्वतंत्रता बड़ा अनूठा प्रयोग है। सबसे पहले तो विचार से मुक्त होना होगा। क्योंकि अभी तुम्हारे पास सब दूसरों के विचार हैं। पहले यह कचरा दूसरों के विचारों का हटाना होगा। इसको हमने इस देश में ध्यान कहा है। ध्यान का अर्थ है, दूसरे के विचारों से मुक्ति। और तुम हो जाओ एक कोरे कागज; एक सादे, भोले-भोले बच्चे का मन, जिस पर कोई लिखावट नहीं है। और तुम्हारी अंतरात्मा से उठने लगते हैं, जगने लगते हैं, खिलने लगते हैं वे, जिन्हें स्वतंत्र विचार कहा जाए। वे बाहर से नहीं आते, वे तुम्हारे भीतर से ऊगते हैं। और जब तुम्हारे पास अपना विचार हो, तो चाहे सरकारें लोकतंत्र की बातें करें या न करें, तुम्हारा विचार तुम्हें इतना साहस और बदल देगा, कि तुम बड़ी से बड़ी सरकारें से टक्करें ले सकते हो।
अपने विचार की ताकत किसी भी न्यूक्लियर बम से कम नहीं है, ज्यादा है। आखिर न्यूक्लियर बम थी आदमी के विचार की ही पैदाइश है। उन आदमी के विचारों की पैदाइश है, जो खुद सोच सकते थे। उसकी क्षमता विचार की क्षमता से बड़ी नहीं हो सकती। वह विचार की ही पैदाइश है।
लोकतंत्र उस दिन आएगा दुनिया में, जिस दिन ध्यान का तंत्र सारी दुनिया में व्याप्त हो जाएगा। ध्यान के तंत्र के बिना लोकतंत्र असंभव है। बातें तुम लाखों करो स्वतंत्रता की स्वतंत्र विचार की, मगर तुम्हारे पास स्वतंत्र विचार करने की क्षमता भी नहीं है। इसलिए मैं जड़मूल से ही तुम्हें वह विज्ञान सिखना चाहता हूं, कि चाहे दुनिया में लोकतंत्र आए या न आए, कम से कम तुम्हारे भीतर तो स्वातंत्र्य आए। और एक के भीतर दीया जल जाए तो दूसरों के भीतर उस दीए से दूसरे जल जाना बहुत आसान हो जाता है।
दूसरे को विचार नहीं देना है। अगर तुम दूसरे को ध्यान दे सको, तो तुमने कुछ प्रेम दिया, तो तुमने कुछ करुणा बांटी। तो तुमने कुछ देने योग्य दिया। विचार तो फिर स्वयं उसके भीतर पैदा होंगे।
सारी दुनिया में लोकतंत्र असफल है, क्योंकि उसका पहला चरण पूरा नहीं किया गया है। पहला चरण ध्यान तंत्र है। केवल ध्यान--और केवल ध्यान। वह तुम्हारी आंखों में वह चमक, तुम्हारी आंखों मग वह गहराई और वह तेजी, तुम्हारे देखने में वह तलवार पैदा कर देता है, जो असत्यों को काट देती है। और लाख गहराइयों में छिपा हुआ सत्य हो तो भी उसे उघाड़ लेती है, खोज लेती है। और दुनिया में अगर हजारों लोग ध्यान में निष्णात हो जाए तो विचार की स्वतंत्रता होगी। उस विचार की स्वतंत्रता से लोकतंत्र पैदा होगा।
लोकतंत्र से विचार की स्वतंत्रता पैदा नहीं हो सकती। कौन करेगा पैदा? दो कौड़ी के राजनीतिज्ञ तुम्हारे संविधान बनाते हैं। फिर ये दो कौड़ी के राजनीतिज्ञ लोकतंत्र के नाम पर तुम्हारी छाती चूसते हैं। एक मजेदार खेल है जो दुनिया में चल रहा है। तुम्हारी सेवा हो रही है। मेवा...पुरानी कहावत ठीक है: जो सेवा करता है उसको मेवा मिलता है। सेवा तो कहीं दिखाई नहीं पड़ती, मगर मेवा मिल रहा है। उसी मेवे की तलाश में लोग सेवा तक करने को राजी हैं।
मैंने सुना है कि एक राजनीतिज्ञ चुनाव लड़ रहा था। द्वार-द्वार जाकर लोगों से कह रहा था कि यह मेरा चिहन है, तुम्हारा मत मुझे ही मिलना चाहिए। एक औरत पांच-छह बच्चों के साथ बगिया में घूम रही थी, उसने सब बच्चों को चूमा; उस और से प्रार्थना की कि ध्यान रहे, भूल न जाए, यह मेरा चिहन है। और बड़े प्यारे बच्चे हैं तुम्हारे। उस औरत ने कहा, क्षमा करिए, मैं इनकी नर्स हूं, इनकी मां नहीं। उस राजनीतिज्ञ ने कहा, धत तेरे की। मैं नाहक इनको चूम रहा हूं, इनकी नाम बह रही है और...मगर वोट के पीछे क्या-क्या करना पड़ता है। और तू भी एक औरत है। पहले क्यों न बोली कि ये मेरे बच्चे नहीं हैं, मैं सिर्फ नर्स हूं। नर्स भी तू गजब की है, कि छह ही बच्चों की नाक बह रही है। मगर अब जाना मत यहां से। क्योंकि मेरे पीछे और उम्मीदवार आ रहे हैं। चूमने दो एक-एक को। सब चूमेंगे, कम से कम नाक तो साफ हो जाएगी।
अमरीकी प्रेसिडेंट हूबर के संबंध में एक मजाक प्रचलित है। अमरीका में बहुत से आदिवासी हैं, जिनका कि मुल्क है अमरीका। बड़े मजे की बात है। अमरीका कहा जाता है दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र। और जिनका यह देश है वे बेचारे रेड इंडियन्स जंगलों में कैद कर दिए गए हैं। और जो राज्य कर रहे हैं उनमें से कोई भी अमरीकी नहीं हैं। मुझसे उनकी नाराजगी यही थी। क्योंकि मैंने अमरीकी प्रेसिडेंट को यह चुनौती दी थी कि तुम मुझे अगर विदेशी समझते हो तो मैं केवल पांच साल से विदेशी हूं, तुम और तुम्हारे बाप-दादे तीन सौ साल से विदेशी हैं। बोलो कौन ज्यादा विदेशी है? और मैं हमलावर नहीं हूं। तुम और तुम्हारे बाप-दादे हमलावर हैं। अगर अपराध किसी ने किया है, तो तुमने किया है। और जिनका यह देश है, उनके साथ अमरीका ने इस तरह की चालबाजी की है कि कल्पना के बाहर है। उनको छोटे-छोटे गिरोहों मग बांटकर जंगलों में रख दिया है। और हर एक को इतनी पेंशन दी जाती है, ताकि वे काम की मांग न करें, ताकि उन्हें शहरों में आने की जरूरत ही न पड़े। तुम पूरे अमरीका में घूस आओ, तुम्हें अमरीका के खास निवासियों का पता ही न चलेगा। जिनका देश है, वे जंगलों में शराब पीए हुए पड़े हैं। क्योंकि मुफ्त उनको पेंशन मिलती है। तो जुआ खेलें, शराब पीए, गुंडागिरी करें, मारपीट करें, जेल जाए, इसके सिवाय और धंधा भी क्या है? जब मुफ्त पैसा मिलता हो तो तुम करोगे क्या? पैसे के बल पर उनको नशे में धुत, जेलों में बंद, अपराधों में जकड़े हुए हैं--उनको जो देश के मालिक हैं। और यह देश स्वतंत्रता का सब से बड़ा देश है। लोकतंत्र का सब से बड़ा देश है।
प्रेसिडेंट हूबर के संबंध में यह मजाक जारी रहा है, कि उनका चुनाव था...और वे एक रेड इंडियन आदिवासियों के समूह में वोट मांगने के लिए गए, तो जो राजनीतिज्ञों का धंधा है सारी दुनिया में, कि अगर तुम मुझे चुनते हो तो स्कूल खुलवा देंगे। और सारे रेड इंडियन कहते हू-हू--खिलखिला कर हंसते। उससे हूबर का और जोश बढ़ता। वे कहते, अस्पताल खुलवा देंगे। रेड इंडियन कहते, हू-हू। और खिलखिलाहट की हंसी। यूं हूबर का भी जोश बढ़ता जाता है, कि तुम घबराओ मत। अगर मैं प्रेसिडेंट हो गया तो यूनिवर्सिटी भी खुलवा दूंगा। और वे कहते हू-हू। और ताली ठोंक-ठोंक कर, हंस-हंस कर हू-हू की आवाज।
हूबर बड़ा प्रसन्न हुआ। जब वह सभा से बाहर निकला, तो वह इतना प्रसन्न था कि उसने रेड इंडियन का जो चीफ था, जो उनका मुखिया था, उससे कहा कि जरा मैं तुम्हारे इलाके को आसपास से घूमकर देख लूं। क्योंकि मुझे बहुत कुछ करना है तुम्हारे लोगों के लिए। बड़े प्यारे लोग हैं। उसने कहा कि और सब तो ठीक है, मुझे तुम्हें घुमाने में कोई अड़चन नहीं है। लेकिन उनकी एक खराब आदत है। तो जरा संभल कर चलना रास्ते पर, क्योंकि ये हर कहीं बैठ कर हू-हू कर देते हैं। हूबर ने कहा, हू-हू कर देते हैं? उसने कहा, वह देख लो, रास्ते पर जहां देखो वहीं हू-हू का ढेर लगा है। हूबर बोला, हद हो गयी। तो ये कम्बख्त, जब मैं इनको जोर-जोर से चिल्ला-चिल्लाकर आश्वासन दे रहा था, और हंस-हंस कर हू-हू कर रहे थे, तो इनका मतलब क्या था? मैं तो समझा कि मेरे नाम का पहला अक्षर--हूबर। ये हरामजादे इस हू हू की बात कर रहे थे?
उस मुखिया ने कहा, मैं क्या कहूं आपसे? हर राजनीतिज्ञ यही वचन देता है। हर साल यही होता है। न कभी स्कूल खुलाता है, न कभी उस राजनीतिज्ञ के दर्शन दुबारा होते हैं। से सीधे-सादे लोग हैं। ये समझ गए, कि ये सब बातें हू-हू! इनमें कोई मतलब नहीं है। बस उतना ही मतलब है जितना हू-हू में होता है। तो आप नाराज न होना। ये कोई आपसे ही नहीं करते हैं हू-हू। यहां जो भी राजनीतिज्ञ भाषण करने आता है, ये कम्बख्त ताली बजाते हैं और हू-हू करते हैं। और जो भी इनकी हू-हू सुनता है, प्रसन्न होता है। वह समझता है, ये अपनी भाषा में प्रशंसा कर रहे हैं। हू-हू उनकी सब से गंदी गाली है।
लोकतंत्र कोई ऊपर से नहीं उतरेगा। विधानों में लिखो, संविधानों में चर्चा करो, फिर भी लोकतंत्र ऊपर से नहीं उतरेगा। अन्यथा अब तक उतर आया होता। मैं तुमसे कहना चाहता हूं। जब करोड़-करोड़ जन पृथ्वी पर स्वतंत्र विचार करने की क्षमता पैदा कर लेंगे तो उसी क्षमता का जो सामूहिक प्रदर्शन होगा, उसी क्षमता का जो आत्यंतिक परिणाम होगा, वह लोकतंत्र होगा।
तो बजाय यह कहने के कि लोकतंत्र में विचार-स्वातंत्र्य की आधारशिला रखी गयी है, यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि स्वतंत्र विचार करो, तो लोकतंत्र की आधारशिला रखी जा सकती है। स्वतंत्र विचार लोकतंत्र से लाख गुना कीमती है। लोकतंत्र स्वतंत्र विचार का एक छोटा सा परिणाम है। और भी हजार परिणाम होंगे। सब से बड़ा परिणाम तो यह होगा कि तुम ईश्वर तक पहुंच जाओगे। सबसे छोटा परिणाम यह होगा कि तुम्हारे आसपास लोकतंत्र का निर्माण हो जाएगा। स्वतंत्र विचार की क्षमता अपरिसीमित है, लेकिन उससे पहले तुम्हें ध्यान के स्वास्थ्य से गुजर जाना जरूरी है।

प्रश्न: आपको ऐसा करना चाहिए और वैसा नहीं करना चाहिए, यह ठीक है और वह गलत है, ऐसी चर्चा अक्सर हम आपके प्रेम किया करते हैं। ऐसी चर्चाओं से ऐसा लगता है,जैसे हम आपसे ज्यादा जानते हैं, और आपसे ज्यादा समझदार हैं। आप हमें अभय में प्रतिष्ठित करने में संलग्न हैं। और हम अपने भय आप पर आरोपित करने का कोई मौका नहीं चूकते। भगवान इस बारे में कुछ प्रकाश डालें।
ह मामला थोड़ा जटिल है। और यह मामला मेरे और तुम्हारे बीच ही नहीं, यह उतना ही पुराना है जितना आदमी पुराना है। और चूंकि तुम्हारे तथाकथित संतों, साधुओं महात्माओं, इन सबने तुम्हारी बातों का अनुसरण किया है, तुमने जो कहा वैसा माना। यह सौदे की बात थी। यह मामला व्यवसाय का था। साधु तुम्हारी मानकर चलता था, तो तुम साधु को सम्मान देते थे। ज्यादा सम्मान चाहिए हो, तो ज्यादा मानकर चलो। जो मानकर नहीं चलेगा वह सम्मानित नहीं होगा। यह तुम्हारे सम्मान की कीमत थी।
और आदमी अहंकार का बड़ा भूखा है। इस दुनिया में सबसे बड़ी भूख अहंकार की भूख है, जो बुझती ही नहीं। लाख बुझाओ, तुम जो भी इस अहंकार की भूख में डालते हो, वह सब आग में डाला हुआ घी हो जाता है। लपटें और बढ़ने लगती हैं। कैसी भी बेवकूफी की बात हो, अगर सम्मान मिलता है, तो तत्काल तुम ऐसे लोग पा जाओगे, जो उसे पूरा करने को राजी हैं। तुम अपने किसी भी महात्मा के जीवन को उठाकर देख लो...।
जैनों के एक बहुत प्रतिष्ठित साधु थे। जो व्यक्ति उनके साथ पंद्रह-बीस वर्षों तक रहा, उसने उनकी जीवन-कथा लिखी। और वह उनकी जीवन कथा मुझे भेंट करते आया था। मैं ऐसे ही पन्ने उलटकर देखने लगा। सत्तर वर्ष से ऊपर उनकी उम्र हो गयी थी। और आज से कोई पचास साल पहले, जब कि वे बीस वर्ष के रहे होंगे, तब उन्होंने अपनी पत्नी को छोड़कर संन्यास ले लिया था। वे जन्म से हिंदू थे, सुनार थे। और सुनार शूद्रों का हिस्सा है। हिंदू व्यवस्था में उसका कोई सम्मान नहीं है। लेकिन वे जैन हो गए। जब भी कोई व्यक्ति एक धर्म को छोड़कर दूसरे धर्म में प्रवेश करता हूं, तो व्यावसायिक रूप से बड़ा लाभ होता है। नए धर्म में उसको प्रतिष्ठा मिलती है जो पुराने धर्म में कभी नहीं मिल सकती थी। क्योंकि नए धर्म को उसके कारण प्रतिष्ठा मिलती है। नया धर्म कहता है, देखो, अगर न होती कोई बात हममें, अगर न होता कोई राज हममें, तो दूसरे धर्मों को छोड़कर लोग हमारे धर्मों में न आते।
इस सुनार का जैन हो जाना पर्याप्त था सम्मान के लिए। और फिर जैनों के नियमों का पालन--और जैसा कि तुम जानते हो, नया-नया मुल्ला थोड़ी ज्यादा ही नमाज पढ़ता है; थोड़ी देर तक ही नमाज पढ़ता है। तो उन्होंने जैन साधुओं को भी पीछे छोड़ दिया था। अगर जैन साधु दिन में एक बार भोजन करते हैं, तो वह केवल दो दिन में एक बार भोजन करते थे। उनकी भारी प्रतिष्ठा थी। और जब वे सत्तर साल के थे, तब उनकी पत्नी की मृत्यु हुई। इन पचास साल में उस गरीब औरत ने चक्की पीसकर, किसी के घर बर्तन मलकर, किसी के कपड़े धोकर अपनी रोटी जुटाई। एक छोटा बच्चा ये छोड़ गए थे, उसको पाला। उस जीवन कथा में एक घटना आती है--इन साधु का नाम था गणेश वर्णी--कि जब पत्नी की मृत्यु की खबर उन्हें मिली तो उन्होंने कहा, बड़ा अच्छा हुआ,एक बोझ टला--पचास साल पहले जिस पत्नी को छोड़कर ये चले आए थे। अपराध था वह। क्योंकि किसके सहारे इस बेसहारा लड़की को छोड़ दिया था? और कोई भी नहीं था। न इसकी शिक्षा थी, न दीक्षा। और इसको एक बच्चा भी दे आए थे। और इस स्त्री ने इन पचास वर्षों में उनकी तरफ सिर्फ सम्मान से ही देखा। उसने सदा यही सोचा कि मैं कितनी ही तकलीफ उठा लूं, कम से कम वे तो अपने मार्ग पर ऊंचाइयां छू रहे है। कम से कम वे तो ईश्वर के निकट पहुंचे जा रहे हैं। मैं दूर ही खड़ी रहूंगी। लेकिन यह भी क्या कम सौभाग्य है कि मेरा पति, कभी जो मेरा पति था, आज इस ऊंचाई पर पहुंच गया है। वह उनके दर्शन कर भी आती थी, तो लाखों की भीड़ में दूर खड़े होकर सिर्फ देख लेती थी। इतना ही सौभाग्य बहुत था। उस स्त्री के मर जाने से...
मैंने उस लेखक को पूछा कि मेरी समझ में यह बाहर है कि जिसे पचास साल पहले यह आदमी छोड़कर भाग गया था, उससे इसने आज्ञा भी न ली थी, जिसको इसने बताया भी नहीं था, रात के अंधेरे में सोता हुआ छोड़कर यह भाग निकला था, इसके ऊपर क्या बोझ था? और अगर पचास साल के बाद भी बोझ था, तो इसने छोड़ा क्या था? वह अब भी उसकी पत्नी थी। वह बेटा उसका, अब भी अपना बेटा था। यह छोड़ना बस ऊपर-ऊपर था। भीतर बंधन गहरे थे। और शायद किसी कोने में शर्म भी छिपी होगी, क्योंकि पलायन किया था। यह भगोड़ापन था, यह कोई संन्यास न था।
जैनों में संन्यास की पांच सीढ़ियां हैं। चार सीढ़ियां तो यह पार कर गया, पांचवीं सीढ़ी जरा मुश्किल है। मुश्किल है इसलिए कि पांचवीं सीढ़ी पर नग्न होना पड़ता है। बीमार हैं, मरने के करीब हैं। जिंदा तो हिम्मत न कर सके। एक ही चादर रह गयी थी छोड़ने को। मरते वक्त बोलती भी बंद होने लगी थी। कुछ कहना चाहते हैं, शिष्य समझ नहीं पाते। लेकिन यह लेखक बीस वर्षों से साथ था, उनका जीवन लिख रहा था। उसे पास बुलाकर वे समझाते हैं, यह समझ लेता है। उनकी चादर अलग करके उन्हें नग्न कर दिया जाता है। इधर वे नग्न होते हैं, उधर सांस टूट जाती है। मगर बड़े प्रसन्न-चित्त। और जैनियों में उनके सम्मान की आखिरी सीमा आ जाती है। क्योंकि वह आखिरी सीढ़ी पर त्याग की पहुंचकर, जिसके बाद पार फिर कोई और सीढ़ी नहीं है। फिर मोक्ष का द्वार ही आ गया।
अब बड़ा मजा है। शरीर खुद ही छूट गया, चादर उस पर थी या ही, इससे क्या फर्क पड़ता है? चादर होती तो भी छूटता, चादर न होती तो भी छूटता। लेकिन मरते वक्त भी एक वासना मन में बनी है, कि लोगों के मन की आखिरी तृप्ति और कर दूं, और अहंकार की आखिरी पूजा और हो ले। वह जो चादर हटा दी, उसको हटाने की अब हाथों में खुद ताकत भी न थी। वह भी दूसरों ने हटायी। लेकिन उसके हटते ही हजारों लोगों की आंखों से आंसू झर रहे हैं आनंद के। लोग अहोभाव से भर गए। तुम लोगों की तृप्ति करो, चाहे तृप्ति में कोई अर्थ हो या न हो, लोग तुम्हें सम्मान देंगे।
यह सदियों से आता चला आ रहा है। अगर लोग कांटों की शैया पर सोए हुए आदमी को सम्मान देते हैं, तो कांटों की शैया पर सो जाओ। और मामला कोई कठिन नहीं है। तुम्हारी पीठ पर, अपने घर में बैठक पत्नी से कहना कि जरा सुई लेकर जगह-जगह चुभा। और तुम हैरान होओगे कि बहुत सी जगह पर वह चुभाएगी और तुम्हें पता भी नहीं चलेगा। क्योंकि पूरी पीठ संवेदनशील नहीं है। पीठ पर कुछ हिस्सों पर सुई की चुभन मालूम होगी, कुछ हिस्सों पर सुई भी चुभन मालूम नहीं होगी। वहां कोई संवेदना का स्नायु नहीं है। वह जो कांटों की सेज बनायी जाती है, वह इस तरकीब से बनायी जाती है, कि कांटे उन स्थानों पर पड़ते हैं, जहां चुभन नहीं हो सकती, जहां तुम्हें कांटों का पता नहीं चल सकता। देखने वालों को लगेगा कि तुम कांटों पर सोए हो। लेकिन बड़ा मजा यह है कि कांटों पर भी सो गए, तो कौन सी उपलब्धि है? मगर हजारों की भीड़ है और पूछा कि किस बात की पूजा है? क्योंकि महाराज कांटों पर सोए हैं। महाराज नालायक हैं और हजारों नालायक...लेकिन ये एक-दूसरे के परिपूरक हैं।
तुमने जो पूछा है, कि हम सोचते हैं आपको संबंध में, कि ऐसा न कहते, ऐसा न करते...। लेकिन तुम गलत आदमी के पास आ गए हो। मुझे तो जो करना है, मैं वही करता हूं। और कभी मुझे संदेह भी हो गया, कि तुम चाहते हो कि मैं यह न करूं, तो मैं जरूर करता हूं। शुरू-शुरू में, पहले मेरे पास भी लोग आ जाते थे कि आप यह न कहना, और मैं वह जरूर कहता था; कि आप यह न करना, और वह मैं जरूर करता था। फिर उन्होंने मेरे पास आना बंद कर दिया कि यह तो झंझट की बात है। इससे तो बेहतर चुप ही रहना और देखना, जो करना हो करने दो। अब बेचारे क्या करें! खुद ही आपस में बैठकर विचार कर लेते हैं। मुझे पता ही नहीं चलता कि उनका क्या इरादा है। क्योंकि वे भलीभांति जानते हैं, मैं ठीक अपनी मस्ती से जीता हूं, अपनी मौज से चलता हूं। क्योंकि न मुझे फिकर है तुम्हारे आदर की, और न मुझे चिंता है तुम्हारे अनादर की। सारी दुनिया मेरी प्रशंसा करे, तो मुझे फर्क नहीं पड़ता। और सारी दुनिया मेरी निंदा करे, तो मुझे फर्क नहीं पड़ता।
मैं अपनी निजता में भरोसा करता हूं। और उसके अतिरिक्त मेरे लिए कोई और आदेश का स्रोत नहीं है। न तो किसी शास्त्र में है, न किसी व्यक्ति में है। मेरे जीवन का सूत्र मेरे अपने मौन, मेरी अपनी शांति में है। इसलिए तकलीफ मैं समझ सकता हूं। मेरे पास जो लोग आए हैं; क्योंकि ये वे ही लोग हैं, जो औरों के पास भी जाते हैं। और वहां यह देखते हैं कि साधु महाराज इनकी बात मानकर चलते हैं। ये कहते हैं उठो, तो वे उठ गए। ये कहते हैं बैठो, तो वे बैठ गए। मुझसे ये कोई कवायद नहीं करवा सकते। इनकी मुसीबत यह है कि इनका आदर और इनकी निंदा, मेरे लिए दोनों बेमानी हैं।
इसलिए धीरे-धीरे मेरे पास एक खास तरह के लोगों का जमाव अपने आप इकट्ठा होता गया है। वे लोग जो बिना अपनी टांग अड़ाए नहीं रह सकते थे, थोड़े दिन कोशिश किए, खुद की टांग में फ्रेक्कचर करवाकर रास्ता पकड़ गए। मैं किसी की टांग-वांग बीच में नहीं आने देता। अब तो मेरे पास वे लोग हैं, जिनसे मेरा संबंध न तो आदर का है, न श्रद्धा का है; जिनसे मेरा संबंध प्रेम का है। पुरानी आदत है तुम्हारी। कोई हर्जा नहीं है, बैठ गए, कर ली चर्चा, जानते हुए कि बेकार मेहनत कर रहे हो। मगर अगर मजा आता है, तो कोई हर्जा भी नहीं। मुझे अब पता भी नहीं चलता। मुझसे कहता भी नहीं। धीरे-धीरे मेरे पास केवल प्रेमियों का, पियक्कड़ों का एक समूह इकट्ठा हो गया है। यह मधुशाला है, कोई मंदिर नहीं है।
और ये साधु महात्मा और सिद्ध, इन सबकी कोटि में तुम मुझे मत रखना। मैं तो एक दीवाना हूं। तुम मुझे पागल कह लेना, वह ज्यादा ठीक, लेकिन कभी महात्मा मत कहना क्योंकि तुमने इतने गलत लोगों को महात्मा कहा है, उस कतार में मैं खड़े होने को राजी नहीं हूं।
और यह अच्छा ही हुआ कि धीरे-धीरे वैसे लोग हट गए, छंट गए अपने आप। अब एक और तरह का रस मेरे और तुम्हारे बीच बहता है।
न हरम में न कसीदा में न बुतखाने में,
चैन अगर कहीं मिलता है तो साकी, बस तेरे मयखाने में।
यह तो मयखाना है। और मैं मानता हूं कि धर्म जब भी जीवित होता है, तो मयखाने निर्मित होते हैं। और जब मर जाता है, तो मधुशाला, तो मधुशालाएं धीरे-धीरे मंदिर बन जाती हैं, मस्जिद बन जाती हैं, गिरजे बन जाती हैं। फिर वहां गीत नहीं उठते, फिर वहां मौज नहीं, फिर वहां नाच नहीं होता, फिर वहां घूंघर नहीं बजते। फिर वहां कोई सितार नहीं छेड़ता, फिर वहां कोई बांसुरी नहीं गूंजती। फिर वहां उदास उपदेश हैं, मुर्दा वचन हैं, सड़े हुए शास्त्र हैं। उस सब में जाकर तुम एक कब्रिस्तान के हिस्से बन जाते हो। यह कोई कब्रिस्तान नहीं है। यहां जिंदगी परमात्मा है। यहां नृत्य प्रार्थना है। यहां दिल खोलकर हंस लेना पूजा है। इसलिए यह तुम्हारी मर्जी है। कभी-कभी बैठ गए, कोई हर्ज नहीं है। मगर बेकार समय खराब कर रहे हो।
मैंने अपनी जिंदगी में कभी भी कोई ऐसा काम नहीं किया, जो किसी की सलाह से किया हो। और इससे कभी कोई पश्चात्ताप नहीं होता। इससे तृप्ति होती है, एक अपूर्व तृप्ति, कि मैं अपने ढंग से जीया। और एक ऐसी भीड़ में, जहां हर आदमी चाहता था कि मैं उसके ढंग से जीऊं; जो प्रेम करते थे, श्रद्धा करते थे, आदर करते थे, मित्र थे, बुजुर्ग थे, शिक्षक थे, सब की एक ही इच्छा थी, उनकी तरह--वे जो चाहें। इस बड़ी भीड़ में मैं अपनी तरह जी लिया, इससे मैं परम आनंदित हूं।
मेरे हिसाब में जब भी तुम किसी पराए के सहारे पर चल पड़ते हो, तभी अपने को चुकने लगते हो। जब भी कभी तुम किसी और इशारा पकड़ लेते हो, तभी तम अपने को खोने लगते हो। और धीरे-धीरे एक भीड़ तुम्हें हर दिशा में खेंचने लगती है। तुम्हारे चीथड़े हो जाते हैं, तुम्हारी जिंदगी कभी फूल नहीं बन पाती। अपन गीत गाओ। न तुम दूसरे के हृदय की धड़कन से धड़क सकते हो, न दूसरे की सांसों से सांसें ले सकते हो। तो फिर क्यों दूसरों के जीवन से जीवन लो?
मैं प्रत्येक व्यक्ति को उसका व्यक्तित्व देना चाहता हूं।
और अगर यह दुनिया व्यक्तियों की दुनिया हो, भीड़ न हो, भेड़ों की भीड़ नहीं, सिंहों की दुनिया हो, तो इसके सौंदर्य का हिसाब लगाना चाहिए मुश्किल हो जाए। क्योंकि एक-एक आदमी के पास ऐसा खजाना है, मगर उस खजाने तक वह पहुंच ही नहीं पाता। इतने सलाहकार हैं, उनकी इतनी भीड़ है, मुफ्त सलाह दे रहे हैं। अच्छी सलाह दे रहे हैं। मंशा उनकी कुछ बुरी नहीं, मगर परिणाम बहुत बुरा है। क्योंकि सारी दुनिया थोथी होकर रह गयी है। यहां कोई अपनी जगह नहीं है। तुम जहां हो, वहां नहीं हो। तुम जो हो, वही नहीं हो। तुम पता नहीं कहां, हो कितनी दूर निकल गए हो अपने से! और बीच मग न मालूम कितने सलाहकार हैं, कितने गुरु हैं, कितने महात्मा हैं, जो तुम्हें अपने तक लौटने न देंगे। मैं मानता हूं, धर्म क्रांति है। और क्रांति से मेरा अर्थ है, व्यक्ति का भीड़ से मुक्त होकर जीना। कोई फिकर नहीं, कभी गङ्ढे में भी गिरोगे। और भूल-चूक भी होगी। मगर हर गङ्ढे से निकलने का उपाय है। उसे भी खुद ही खोजना, किसी दूसरे से मत पूछना। तो गङ्ढे में गिरना भी एक सीख बन जाएगी। गिरोगे, उठोगे। ये ही धीरे-धीरे जीवन में परिपक्वता आती है। मगर तुम्हारे सलाहकार हैं, वे कहते हैं, हम गिरने ही न देंगे। आर चूंकि वे तुम्हें गिरने ही न देंगे, वे तुम्हें कभी सीखने ही न देंगे।
मैंने सुना है, एक अमरीकी होटल के सामने एक बड़ी कार आकर रुकी। एक स्त्री कार से नीचे उतरी। होटल से चार बैरा दौड़े हुए आए, और एक दस-ग्यारह साल के लड़के को--जो आदमी का कम और हाथी का पिल्ला ज्यादा मालूम पड़ता था--उसको खींचकर बाहर निकाला। और चार बैरे उसको उठाकर चले। यह दृश्य देखने को जरा भीड़ इकट्ठी हो गयी, कि यह हो क्या रहा है। लड़का सुंदर है, सब तरह से स्वस्थ है। किसी ने पूछ ही लिया कि इस बेचारे को हो क्या गया है। उस औरत ने कहा, उसे कुछ भी नहीं हुआ। लेकिन हमारे पास इतना धन है, कि हमारे बेटों को कोई जमीन पर चलने की जरूरत नहीं है। बड़ी भली मंशा है, मगर मार डाला इस बेटे को! यह बेटा पैदा हुआ या न हुआ, बराबर हो गया। यह इसको पैदल भी नहीं चलने देगी। और यह खा-खाकर आदमी न होकर, हाथी हुआ जा रहा है।
अमरीकी में तीस मिलियन आदमी अस्पतालों में बंद हैं। क्योंकि वे खा-खाकर इतने मोटे हो गए हैं, कि अब घरों में उनको संभालना मुश्किल है। अजीब दुनिया है। ठीक तीस मिलियन आदमी अमरीका में भूखे मर रहे हैं सड़कों पर, और तीस मिलियन आदमी अस्पतालों में बंद हैं। डाक्टर चाहिए, नर्सें चाहिए। घर में इनको रखा नहीं जा सकता, क्योंकि किसी की यह हैसियत नहीं है, कि वे उनको खाने से रोके। ये खाने के सिवाय और कुछ जानते नहीं। सारे चार्वाक वहीं पैदा हो गए हैं।
अपनी सुनो, अपनी गुनो। कोई दूसरा सलाह दे, धन्यवाद दो, विचार करो, मगर अंधे की तरह चल मत पड़ो। जीवन को जितनी ज्यादा निजता दे सको, उतना अच्छा है। दूसरे की सलाहें बड़ी मुश्किलों में ले जाती है।
एक आदमी की औरत माटी होती जा रही है, मोटी होती जा रही है, मोटी होती...क्योंकि आदमी के पास जैसे-जैसे तिजोड़ी बड़ी होती जाती है, वैसे-वैसे औरतें मोटी होती जाती है। यह बड़ा अजब संबंध है तिजोड़ियां में और औरतों में। आखिर वह आदमी घबरा गया। वह सूखा जा रहा है, कमा कमाकर मरा जा रहा है। इधर औरत है, कि सब सोफे छोटे होते जा रहे हैं। और डाक्टर से उसने पूछा, मनोचिकित्सक से पूछा, क्या करें? उन्होंने कहा, तुम एक काम करो। मनोचिकित्सक ने एक बहुत खूबसूरत नग्न स्त्री की तस्वीर दी--सानुपात, सुघड़, अंग-अंग सुंदर, कोई कमी न खोज सके। कहा, इसको जाकर तुम अपने घर में रेफ्रिजरेटर के भीतर चिपका दो। और रहा ग्लू। यह ग्लू ऐसा है कि एक बार फोटो चिपक गयी, तो फिर निकलती नहीं। सो जब भी तुम्हारी पत्नी फ्रिज को खोलकर देखेगी कुछ खाने के लिए, और इस नग्न स्त्री को देखेगी, शरमाएंगी। मन ही मन अपने को दोष देगी कि यह मैंने अपने शरीर का क्या किया! अब यह कुछ शरीर जैसा मालूम नहीं पड़ता अब तो ऐसा मालूम पड़ता है जैसे एक थैला है, जिसमें सामान भरा हुआ है।
पति ने कहा, बात तो पते की है। फीस चुकायी, फ्रिज में ले जाकर तस्वीर चिपकायी। कोई दो महीने बाद मनोचिकित्सक को मिल गया सुबह-सुबह बीच पर। मनोचिकित्सक ने कहा कि क्या हुआ? तुम आए नहीं। उसने कहा, क्या खाक आते। लाखा उस तस्वीर को उखाड़ने की कोशिश में लगा हूं, उखड़ती नहीं। मनोवैज्ञानिक ने कहा, लेकिन तुम्हें वह तस्वीर उखाड़ने की जरूरत क्या है? उसने कहा, उल्टा ही सब हो गया। क्योंकि मैं उस तस्वीर को देखने जाता हूं बार-बार। और जब भी तस्वीर को देखता हूं, तो मन...आखिर आदमी का मन है। कभी यह मिठाई, कभी आइसक्रीम...। कभी भूल कर ऐसी तस्वीर किसी और को मत देना। देखते नहीं मेरे हालत? मनोवैज्ञानिक ने कहा, वह तो मैं देख रहा हूं कि दो महीने में तो तुमने गजब कर दिया।। दो महीने पहले आए थे तो चूहा मालूम होते थे, और अब तो पहाड़ मालूम होते हो। मगर यह तो बताओ पत्नी का क्या हुआ? उसने कहा, पत्नी का मत पूछो। वह दुष्ट तस्वीर की तरफ देखती नहीं। उसकी आंखें तो सिर्फ भोजन को देखती हैं।
सलाहें, मशविरे चारों तरफ हर कोई हर किसी को दे रहा है। मुफ्त लोग बांट रहे हैं सलाहें जगह-जगह तुम्हें मिल जाएंगे अरस्तू, अफलातून, ऐसा ज्ञान दें, कि जिसकी चोट से सदा के लिए जग जाओ। मगर वे खुद ही नहीं जगे अपनी चोट से, और तुम्हें जगा रहे हैं। खुद की सलाह अपने ही काम नहीं आयी। अब वे दूसरे को बांट रहे हैं।
सुनो सब की, समझने की भी कोशिश करो, लेकिन हमेशा निर्णय अपनी निजता का हो। और अपनी शांति में, अपने मौन में, उत्तरदायित्व पूर्वक जो भी तय करो--सोचकर, कि मैंने तय किया है सही होगा, गलत होगा, कोई भी परिणाम होगा, उत्तरदायी मैं हूं; किसी दूसरे पर उत्तरदायित्व को नहीं थोपूंगा। फिर तुम्हारे जीवन में भी निखार आना शुरू हो जाएगा।
तो फिजूल बैठकर तुम मेरे संबंध में चर्चा मत करो। मैं इतना बिगड़ चुका कि अब तुम्हारी चर्चा के हाथ मुझ तक पहुंच न पाएंगे। एक सीमा होती है, फिर उस सीमा के पार मुश्किल हो जाती है। सो हम तो गए। अब तुम भी कहीं चर्चा करते-करते हमारे साथ मत चले आना। अपनी सोचो। जिंदगी छोटी है। समय बहुत कम है। कल का कोई भरोसा नहीं है। और काम बड़ा है। जिंदगी को जगमगाया है। अमृत का अनुभव करना है। व्यर्थ की बकवास, और बहुत दूर नहीं है।

प्रश्न: प्यारे भगवान, तेरह वर्ष पहले आपने मुझे संन्यासी बनाकर नया जीवन दिया। प्रभु, इस पूरे समय में आपने बहुत दिया। पूरा जीवन बदल गया। फिर भी प्यास बढ़ती जा रही है। आपके निकट रहने का भाव तीव्र होता जाता है। अब क्या करूं? इस तरह में धैर्य रख सकूं, इसके लिए आप की शक्ति देना।
जीवन का रस जितना पीयो, उतनी प्यास बढ़ती चली जाती है। वही उसका प्रमाण है, कि जितना पीओ उतना और पाने का मन होता है जितने पंख खोलो, आकाश और आगे और आगे, और आगे,...होता है कि इन दो पंखों में सारे आकाश को छिपा दें। लेकिन धैर्य तो रखना होगा। अधैर्य से तो जो पाया है, वह भी छूट सकता है। क्योंकि अधैर्य तो बेचैनी है। और अधैर्य में तो शिकायत है, शिकवा है। जो मिला है उसके लिए धन्यभागी बनो। उसके लिए अहोभाव करो। जो मिला है उसके लिए अगर मन में धन्यवाद हो, तो और मिलेगा।
और एक बार यह सूत्र खयाल में आ जाए कि धन्यवाद...जिसे तुम चाहकर भी, खोजकर भी नहीं पाते, वह अचानक न मालूम किस द्वार, झरने की तरह, न मालूम कितना अमृत बरसा जाता है
सूफी फकीर हुआ अलहिल्लाज मंसूर। उसे लोगों ने सदा हंसते हुए देखा। फांसी पर भी हंसते हुए देखा किसी ने भीड़ में से पूछा कि अलहिल्लाज, क्या तुम पागल हो? पहले तो ठीक था कि तुम हंसते थे, प्रसन्न थे, समाधि का अनुभव कर रहे थे, मगर अब सूली पर चढ़े हो, अब किस बात की हंसी? हलहिल्लाज कहने लगा कि अब इस बात की हंसी, कि यह भी खूब रही। जब तक जीवन में कोई खुशी न थी, तो कोई फूल न थे, कोई पत्थर भी मारने न आया। और अब जब जीवन में सब कुछ है, जब कि भीतर सिवाय अहोभाव के और कुछ भी दूसरा स्वर नहीं है, तब फांसी है। खेल उसके निराले हैं, मगर वह क्या समझता है! खेल अपने भी निराले हैं। अगर वह सूली का इंतजाम कर सकता है, तो हम मुस्कुराते हुए मर भी सकते हैं। और आखिर इंतजाम उसी का है। ये जो मारने आए हैं, सब उसी के इशारे पर आए हैं।
लाखों लोग इकट्ठे थे, पत्थर मारने आए थे। क्योंकि हिल्लाज ऐसी बातें कह रहा था, जो उन्हें लगती थी धर्म के खिलाफ हैं, इस्लाम के खिलाफ हैं। सच तो यह है कि वह जो कह रहा था, वही इस्लाम है। और जिसे वे इस्लाम समझे हुए बैठे थे, वह केवल सड़ी-गली परंपरा है। वह जिंदा झरना था। और वे जिस कुएं के पास बैठे थे, उसका पानी कभी का सूख चूका था। लेकिन जब हिल्लाज की हंसी उन्होंने देखी, तो जो हाथ पत्थर मारने को उठे थे, वे रुक गए। हिल्लाज ने कहा, बेफिकर मारो, फिर मौका दुबारा न मिलेगा। और मिला भी तो हिल्लाज जैसा आदमी न मिलेगा। तुम पत्थर मारो। कड़ी हिम्मत कर लो, डरो मत। और हम भी देख लें अपनी हिम्मत, कि तुम्हारे पत्थरों की वर्षा में भी हंसी कायम रहती है, खो नहीं जाती। और आखिरी वचन जो हिल्लाज ने कहे हैं मरने के पहले, वे याद रख लेने जैसे हैं। उसने कहा, जीवन में बहुत आनंद जाना, लेकिन जो आनंद सूली पर जाना...अभागे हैं लोग, जो बिना सूली पर चढ़े मर जाते हैं।
सूली का भी धन्यवाद बना लिया। इसे भी ईश्वर का वरदान बना लिया।
तो मैं तुमसे कहूंगा, अगर संन्यास ने तुम्हारे जीवन में शांति दी है, आनंद दिया है, मस्ती दी है...प्यास भी आएगी। उस प्यास को दबाना मत और उस प्यास को गलत न समझना। जब अमृत मिलता हो तो प्यास तो मिलेगी ही। और बढ़ती ही चली जाएगी। यह तो तब तक बढ़ती रहेगी, जब तक तुम मिटकर अमृत के साथ एक न हो जाओ। लेकिन अधैर्य रुकावट बन सकता है। इसलिए धैर्य रखना और धन्यवाद का भाव रखना। जो मिला है, उसके लिए धन्यवाद। जो मिलेगा, उसके लिए धन्यवाद। तुम्हारे रोएं-रोएं में केवल धन्यवाद का एक भाव रह जाए, तो बहुत मिलेगा--बिन तौला, बिन नापा; जिसका कोई छोर नहीं।
सब कुछ मिलेगा। सब कुछ हमारा है। सिर्फ हमारे जागने की जरूरत है। और पहचानने की जरूरत है। जो भी मिलता है, वह कोई पराए का नहीं है। वह तुम्हारे ही भीतर सोया था, तुम्हारे भीतर छिपा था। इसलिए जल्दी क्या है? और थोड़ा बहुत देर भी हो जाए, तो विरह का आनंद भी लेना सीखना चाहिए। विरह की भी मिठास है। और कभी-कभी तो यूं होता है कि मिलन में भी मिठास नहीं होती, वह विरह में होती है। जो पाकर भी नहीं मिलता वह पाने की आकांक्षा में मिलता है।

धन्यवाद।


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