दिनांक
11 सितम्बर सन्
1979,
ओशो
आश्रम पूना।
सूत्र:
पूरन
ब्रह्म रहै घट
में, सठ, तीरथ कानन
खोजन जाई।
नैन
दिए हरि—देखन
को, पलटू सब
में प्रभु देत
दिखाई।।
कीट
पतंग रहे
परिपूरन, कहूं तिल एक
न होत जुदा
है।
ढूंढ़त
अंध गरंथन में, लिखि कागद
में कहूं राम
लुका है।।
वृद्ध
भए तन खासा, अब कब भजन करहुगे।।
बालापन
बालक संग बीता, तरुन भए
अभिमाना।
नखसिख
सेती भई सफेदी, हरि का मरम न
जाना।।
तिरिमिरि
बहिर नासिका
चूवै, साक
गरे चढ़ि आई।
सुत
दारा गरियावन
लागे, यह
बुढ़वा मरि
जाई।।
तीरथ
बर्त एकौ न
कीन्हा, नहीं
साधु की सेवा।
तीनिउ
पन धोखे ही
बीते, नहिं
ऐसे मूरख देवा।।
पकरी
आई काल ने
चोटी, सिर
धुनि—धुनि
पछिताता।
पलटूदास
कोऊ नहिं संगी, जम के हाथ
बिकाता।।
इक
अंधियारी
कोठरी, दूजे
दिया न बाती।
बांह
पकरि जम ले
चले, कोई
संग न साथी।।
सावन
की
अंधियारिया, भादौं निज
राती।
चौमुख
पवन झकोरही, धरकै मोरी
छाती।।
चलना
तौ हमैं जरूर
है, रहना यहं
नाहीं।
का
लैके मिलब
हजूर से, गांठी कछु
नाहीं।।
पलटूदास
जग आइके, नैनन भरि
रोया।
जीवन
जनम गंवाय के, आपै से
खोया।।
कै
दिन का तोरा
जियना रे, नर चेतु
गंवार।।
काची
माटि कै घैला
हो, फूटत
नाहिं देर।
पानी
बीच बतासा हो, लागै गलत न
देर।।
धूआं
को धौरेहर हो, बारू के
भीत।
पवन
लगे झरि जैहे
हो, तृन ऊपर
सीत।।
जस
कागद कै कलई
हो, पाका फल
डार।
सपने
कै सुख
संपत्ति हो, ऐसो संसार।।
घने
बांस का
पिंजरा हो, तेहि बिच दस
हो द्वार।
पंछी
पवन बसेरू हो, लावै उड़त न
बार।।
आतसबाजी
यह तन हो, हाथे काल के
आग।
पलटूदास
उड़ि जैवहु हो, जब देइहि
दाग।।
भई, सूरज!
जरा इस
आदमी को जगाओ!
भई, पवन!
जरा इस
आदमी को
हिलाओ!
यह
आदमी जो सोया
पड़ा है,
जो सच
से बेखबर
सपनों
में खोया पड़ा
है।
भई, पंछी!
इसके
कानों पर
चिल्लाओ!
भई, सूरज!
जरा इस
आदमी को जगाओ!
वक्त
पर जगाओ,
नहीं
तो जब बेवक्त
जागेगा यह
तो जो
आगे निकल गए
हैं
उन्हें
पाने
घबरा
के भागेगा यह!
घबरा
के भागना अलग
है
क्षिप्र
गति अलग है
क्षप्र
तो वह है
जो सही
क्षण में सजग
है।
सूरज, इसे जगाओ!
पवन, इसे हिलाओ!
पंछी, इसके कानों
पर चिल्लाओ!
संतों
का सारा जीवन
बस इन तीन
बातों में
समाया हुआ है:
सूरज, इसे
जगाओ! संत
सूरज हैं—जो
सोए हैं उनके
लिए। पवन, इसे
हिलाओ! संत
पवन हैं—जो
सोए हैं
उन्हें
हिलाने के लिए,
जगाने के
लिए। पंछी, इसके कानों
पर चिल्लाओ!
और संत पंछी
हैं—परलोक के।
पृथ्वी पर
बसते, पृथ्वी
के नहीं। कहीं
दूर उनका घर
है और घर का
उन्हें स्मरण
आ गया है। जो
विस्मरण में
पड़े हैं उनके
कानों पर गीत
गाते हैं; याद
दिलाते हैं, सुरति
दिलाते हैं—असली
घर की!
यहां
तो दो क्षण का
विराम है।
जैसे राही रुक
जाए वृक्ष के
तले, धूप से
थका—मांदा।
फिर चल पड़ना
है। यहां घर
नहीं है, यहां
तो बस सराय
है।
संतों
का सारा संदेश
इस एक छोटी सी
बात में समा
जाता है कि
संसार सराय
है। और जिसे
यह बात समझ
में आ गई कि
संसार सराय है, फिर इस सराय
को सजाने में,
संवारने
में, झगड़ने
में, विवाद
में, प्रतिस्पर्धा
में, जलन
में, ईष्या
में, प्रतियोगिता
में—नहीं उसका
समय व्यय
होगा। फिर
सारी शक्ति तो
पंख खोल कर उस
अनंत यात्रा
पर निकलने
लगेगी, जहां
शाश्वत घर है।
पलटूदास
के ये गीत
तुम्हारे
कानों पर पवन
बन जाएं, तुम्हारी
आंखों पर सूरज,
तुम्हारे
कानों पर पंछी
के गीत—इस आशा
में इन पर
चर्चा होगी।
यह चर्चा कोई
पांडित्य की
चर्चा नहीं
है। यह चर्चा
पलटूदास के
काव्य की
चर्चा नहीं है,
न उनकी भाषा
की। यह चर्चा
तो पलटूदास के
उस संदेश की
चर्चा है जो
सभी संतों का
है; नाम ही
उनके अलग हैं।
फिर वे नानक
हों कि कबीर, कि पलटू हों
कि रैदास, कि
रैदास हों कि
तुलसी, भेद
नहीं पड़ता। नाम
ही अलग—अलग
हैं। एक ही
सूरज के गीत
हैं। एक ही
सुबह की पुकार
है। सभी
पंछियों का एक
ही उपक्रम है—याद
दिला दें
तुम्हें, स्मृति
दिला दें
तुम्हें।
क्योंकि तुम
जो हो वही भूल
गए हो और वह हो
गए हो जो तुम
नहीं हो। मान
लिया है वह
अपने को जो
तुम नहीं हो
और पीठ कर ली
है उससे जो
तुम हो। इस
विस्मृति में
दुख है। इस
विस्मृति में
नरक है। लौटो
अपनी ओर!
अपने
को जिसने
पहचान लिया
उसने
परमात्मा को पहचान
लिया। जो अपने
को बिना
पहचाने
परमात्मा को
पहचानने चलता
है, परमात्मा
को तो पहचान
ही नहीं पाएगा,
अपने को भी
नहीं पहचान
पाएगा। क ख ग
से शुरू करना
होगा। और क ख ग
तुम हो।
तुम्हारे
भीतर जलना
चाहिए दीया।
तुम्हें ही
बनना होगा
दीया, तुम्हें
ही तेल, तुम्हें
ही बाती। हां,
जरूर रोशनी
उतरेगी ऊपर से,
मगर इतनी
तैयारी
तुम्हें करनी
होगी—दीया बनो,
तेल बनो, बाती बनो।
आएगा प्रकाश,
सदा आया है।
उतरेगी किरण।
तुम्हारी
बाती जलेगी।
रोशन तुम होओगे।
वह तुम्हारी
जन्मजात
क्षमता है। पर
इतनी तैयारी
तुम्हें करनी
होगी। और उस
तैयारी का पहला
चरण है
तुम्हें यह
याद दिलाना कि
तुम जैसे हो, जहां हो, यह
सचाई नहीं है।
आज के
सूत्र इसी बात
की स्मृति को
दिलाने के लिए
हैं। चुभेंगे
तीर की तरह
छाती में, क्योंकि
पीड़ा होती है
यह बात जान कर
कि मैं व्यर्थ
जी रहा हूं।
इसलिए तो
मूढ़जन संतों
को कभी क्षमा
नहीं कर पाते।
ज्ञानी तो
उनके पीछे चल पड़ते
हैं, मूढ़
उन्हें क्षमा
नहीं कर पाते।
ज्ञानी तो उनकी
बात सुन कर
अपने को बना
लेते हैं, मूढ़
संतों को
मिटाने में लग
जाते हैं, क्योंकि
चोट लगती है।
और चोट को भी
सीढ़ी बना लेना
बड़ी कला है।
और संत
भी क्या करें? कितना ही
सोच—समझ कर
वार करें, कितना
ही बारीक वार
करें, चोट
तो लगेगी ही
लगेगी। सोते
आदमी को
जगाओगे तो
हिलाओगे तो ही;
हिलाओगे तो
उसके सपने भी
चरमरा कर टूट
जाएंगे। और
कौन जाने सपने
बड़े सुंदर
हों! स्वर्ण
के महलों के
हों! कौन जाने
सपने में वह
आदमी सम्राट
हो! तुम पर
नाराज होगा, तुमने उसका
सपना तोड़
दिया। और जब
सपने में कोई
होता है तो
सपना सच मालूम
होता है, एकदम
सच मालूम होता
है। जो जागा
है उसे लगता है
कि झूठ होगा।
झूठ है ही।
जागे को तो
निश्चित ही झूठ
है। सपने में
जो बड़बड़ा रहा
है, जागा
हुआ जानता है—विक्षिप्तता
में है, जगा
दूं इसे। उसके
भीतर अनुकंपा
जगती है। लेकिन
जो सोया है और
सुंदर सपना
देख रहा है, जगाने वाला
उसे दुश्मन
मालूम होता
है।
संतों
के या तो तुम
मित्र हो जाते
हो या शत्रु।
धन्यभागी हैं
वे जो मित्र
हो जाते हैं, क्योंकि वे
अपने अंतिम घर
को खोज लेंगे।
अभागे हैं वे
जो शत्रु हो
जाते हैं।
संतों का तो
कुछ बिगड़ेगा
नहीं उनके
शत्रु हो जाने
से। संत तो उस
जगह पहुंच गए
जहां कुछ बिगड़
नहीं सकता। शाश्वत
उनकी संपदा है,
जो न छीनी
जा सकती, न
जलाई जा सकती,
न मिटाई जा
सकती। मृत्यु
भी उसे नहीं
छीन सकती है, तो तुम क्या
छीनोगे? मृत्यु
भी उनके लिए
शत्रु न रही, तो तुम कैसे
शत्रु बन
पाओगे? लेकिन
हां, उनके
शत्रु बन कर
तुम आत्मघाती
जरूर हो जाओगे,
तुम अपने ही
पैरों पर
कुल्हाड़ी मार
लोगे।
तुमने
कालिदास की
कहानी तो सुनी? नगर का राजा
परेशान हो गया
था। अपनी बेटी
का विवाह करना
चाहता था।
लेकिन बेटी
बड़ी विदुषी थी
और किसी तरह
ढूंढ़—ढांढ़ कर
राजा सुंदर से
सुंदर
व्यक्तियों
को लाता और वह
ऐसे प्रश्न
पूछती कि वे
उत्तर न दे पाते।
और उसने कसम खा
रखी थी, कि
जब तक मेरे
प्रश्नों का
कोई उत्तर न
दे दे, तब
तक मैं विवाह
करने को राजी
नहीं हूं। मैं
अपने से
श्रेष्ठतर से
ही वरी
जाऊंगी। बहुत
कठिनाई हो रही
थी। लड़की की
उम्र बढ़ती
जाती थी, बाप
चिंतित था, बाप बूढ़ा हो
रहा था। क्रोध
में बाप ने
अपने वजीरों
को कहा कि अब
पंडित तो हार
गए, किसी
महामूढ़ को पकड़
लाओ। महामूढ़
की तलाश में चले
तो कालिदास को
पाया।
कालिदास एक
वृक्ष पर बैठ
कर वृक्ष की
शाखा काट रहे
थे; जिस
शाखा पर बैठे
थे उसी को काट
रहे थे! शाखा
कटेगी तो शाखा
ही नहीं
गिरेगी, कालिदास
भी उसके साथ
जमीन पर
गिरेंगे। इससे
ज्यादा मूढ़ और
आदमी कौन
होगा! पकड़ लाए
कालिदास को।
यह
कहानी सच हो
या न हो, लेकिन
मैं हर आदमी
को इसी हालत
में देखता
हूं। जिस शाखा
पर तुम बैठे
हो उसी को काट
रहे हो।
जीसस
को जिन्होंने
सूली दी
उन्होंने उसी
शाखा को नहीं
काट लिया जिस
पर बैठते थे!
जिस पर बैठ कर पंख
फैला सकते थे
और आकाश तक उड़
सकते थे! जो
परमात्मा तक
पहुंचने के
लिए मार्ग बन
सकता था! द्वार
में ही आग लगा
दी—जो मंदिर
का द्वार था!
जिन्होंने
सुकरात को जहर
पिलाया, वे
कालिदास से
कहीं ज्यादा
मूढ़ रहे
होंगे। जिन्होंने
बुद्ध पर, महावीर
पर पत्थर
फेंके, जिन्होंने
कबीर, पलटू
को सताया, वे
कौन लोग थे? वे कैसे लोग
थे? ऐसे ही
लोग थे जैसे
तुम हो। इस
दुनिया में बस
दो ही तरह के
लोग हैं:
संतों की चोट
को जो प्रीति से
सह जाएं, आभारपूर्वक;
और संतों की
चोट से जो
तिलमिला जाएं
और क्रोध से
भर जाएं। जो
क्रोध से भर
गया वह कालिदास
है। वह अपने
ही हाथ से उस
परम इशारे को
मिटाए दे रहा
है; मील के
पत्थर को तोड़े
दे रहा है, जिस
पर चिह्न थे
आगे की यात्रा
के; नक्शे
को जलाए दे
रहा है, जो
कि परमात्मा
तक पहुंचाने
का आधार बन
सकता था!
इन
सूत्रों को
बहुत प्रेम, बहुत प्रीति,
बहुत भाव से
लेना। चोट तो
होगी। मजबूरी
है। संत
तुम्हें चोट
करना नहीं
चाहते, चोट
देना नहीं
चाहते। करुणा
से बोलते हैं।
मगर कुछ बातें
हैं जो कही
जाएं तो चोट
होती ही है, उससे बचा
नहीं जा सकता।
पूरन
ब्रह्म रहै घट
में, सठ, तीरथ
कानन खोजन
जाई।
कहां
खोजने जा रहे
हो परमात्मा
को? तीर्थों
में! काबा, काशी,
कैलाश! कहां
खोजने जा रहे
हो? जंगलों
में, पर्वतों
पर, हिमालय
में! मूढ़ हो
तुम। क्योंकि
जिसे तुम खोजने
चले हो वह
तुम्हारे
भीतर छिपा
बैठा है। खोजने
वाले में ही
छिपा बैठा है
जिसे तुम
खोजने चले हो!
और लोग
खोज रहे हैं।
लोग
परिव्राजक हो
जाते हैं। एक
गांव से दूसरे
गांव। एक
तीर्थ—स्थल से
दूसरे तीर्थ—स्थल।
गंगा की
यात्रा कर रहे
हैं, परिभ्रमण
कर रहे हैं।
जा रहे हैं
दूर—दूर
उत्तुंग
शिखरों पर।
जैसे
परमात्मा
तुम्हारे डर
से कहीं
हिमालय की
गुफाओं में
छिपा हो! जैसे
परमात्मा को
जंगल में ही
पाया जा सकता
हो! और अगर
तुम्हें यहां
नहीं दिखाई
पड़ता तो जंगल में
कैसे दिखाई
पड़ेगा?
मैंने
सुना है, एक
अंधे आदमी की
आंख का ऑपरेशन
हो रहा था।
उसने डाक्टर
से पूछा कि
क्या आंख के
ऑपरेशन के बाद
मैं पढ़ना—लिखना
कर सकूंगा? डाक्टर ने
कहा, निश्चित।
जाली है
तुम्हारी आंख
पर, कट
जाएगी जाली, निकल जाएगी
जाली, जरूर
पढ़—लिख सकोगे।
वह आदमी बड़ी
खुशी से बोला
कि हे प्रभु, तेरा बड़ा
धन्यवाद है!
डाक्टर ने कहा,
इसमें
धन्यवाद
प्रभु को देने
की कोई जरूरत
नहीं, यह
तो स्वाभाविक
है, आंख से
जाली कट गई कि
पढ़ना—लिखना
आसान हो
जाएगा। उस
अंधे ने कहा, लेकिन बात यह
है कि पढ़ना—लिखना
मैं जानता
नहीं। जब मेरी
आंख ठीक थी तब भी
मैं पढ़—लिख
नहीं सकता था।
तो यह चमत्कार
ही है कि अब तुम
जाली काट दोगे
और मुझे पढ़ना—लिखना
आ जाएगा। इससे
बड़ा और
चमत्कार क्या
हो सकता है!
अगर
पढ़ना—लिखना
नहीं आता तो
आंख की जाली
कटने से भी
नहीं आ जाएगा।
यहां
तुम्हें
परमात्मा
नहीं दिखाई
पड़ता; जंगल
में भी आंख तो
यही होगी, तुम
तो यही होओगे—ठीक
यही, जरा
सा भी तो भेद न
होगा।
परिस्थिति
बदल जाएगी, मनःस्थिति
तो न बदल
जाएगी। तुम
यहां नहीं देख
पाते उसे, वहां
कैसे देख
पाओगे? इन
वृक्षों में
नहीं दिखाई
पड़ता, जंगल
के वृक्षों
में कैसे
दिखाई पड़ेगा?
लोगों में
नहीं दिखाई
पड़ता, पत्थर—पहाड़ों
में कैसे
दिखाई पड़ेगा?
लेकिन
आदमी बेईमान
है। तीर्थों
में खोजने इसलिए
नहीं जाता कि
तीर्थों में
परमात्मा
मिलता है।
तीर्थों में
खोजने इसलिए
जाता है कि यह भी
परमात्मा से
बचने की अंतिम
व्यवस्था है, आखिरी
चालाकी—कि खोज
तो रहे हैं
भाई, और
क्या करें!
इतना श्रम उठा
रहे हैं, नहीं
मिलता तो
भाग्य में
नहीं होगा; नहीं मिलता
तो शायद होगा
ही नहीं; नहीं
मिलता तो शायद
मिलना ही नहीं
चाहता है। लेकिन
अपनी तरफ से
तो हमने सब
दांव पर लगा
दिया है, घर
छोड़ दिया, द्वार
छोड़ दिया, खोजने
निकल पड़े हैं।
यह आखिरी
तरकीब है। कभी
तुम धन खोजते
थे, उस
कारण
परमात्मा को न
पा सके। कभी
पद खोजते थे, उस कारण
परमात्मा को न
पा सके। अब
तुम परमात्मा
को ही खोज रहे
हो और उस कारण
परमात्मा को न
पा सकोगे, क्योंकि
खोजने वाला
चित्त
वासनाग्रस्त
है। और जहां
वासना है वहां
प्रार्थना नहीं
है। और जब तक
तुम्हारे मन
में तनाव है
कुछ पाने का, तब तक तुम पा
न सकोगे। जब
तक दौड़ोगे, चूकोगे।
रुको और पा
लो।
लगेगी
तो बात चोट
जैसी। कोई
संन्यासी हो
गया है घर—द्वार
छोड़ कर, कोई
मुनि हो गया
है, कोई
भिक्षु हो गया
है। लगेगी तो
चोट पलटू की
इस बात से—
पूरन
ब्रह्म रहै घट
में, सठ, तीरथ
कानन खोजन
जाई।
और तू
बेईमान, खोजने
जा रहा है
तीरथ, जंगल,
पर्वत! आंख
भीतर मोड़!
जाना
है कहीं तो
अपने भीतर
जाना है। और
अपने भीतर
जाना है, यह
कहना सिर्फ
भाषा के कारण।
भीतर जाने का
एक ही अर्थ
होता है—बाहर
जाना रुक जाए,
बस। भीतर
जाने को न कोई
स्थान है कि
जहां पैर उठा
सको, कदम
उठा सको। भीतर
तो तुम हो ही, वहां जाना
क्यों है? वहां
से तो तुम कभी
इंच भर हटे
नहीं हो।
इसलिए बाहर
जाना बंद हो
जाए कि आदमी
भीतर पहुंच
गया। भीतर
जाने का अर्थ
इतना ही है—बाहर
जाने की दौड़
बंद हो गई, बस
तुम अपने को
भीतर पाओगे।
तुम विराजमान
पाओगे अपने को
परम प्रभु की
गोद में।
नैन
दिए हरि—देखन
को, पलटू सब
में प्रभु देत
दिखाई।
आंखें
तो दी थीं
प्रभु को
देखने को। और
जिन्होंने
आंखों का ठीक
उपयोग किया
उन्हें अपने
भीतर ही नहीं
दिखाई पड़ा, सबके भीतर
दिखाई पड़ा।
लेकिन
तुम्हारी
आंखों में
क्या दिखाई
पड़ता है? पत्थर
दिखाई पड़ते
हैं, पहाड़
दिखाई पड़ते
हैं, रुपया—पैसा
दिखाई पड़ता है,
हीरे—जवाहरात
दिखाई पड़ते
हैं, लोग
दिखाई पड़ते
हैं; परमात्मा
भर नहीं दिखाई
पड़ता! आंखों
का तुमने ठीक
उपयोग ही नहीं
किया। तुमने
आंखों को बाहर
पर अटका दिया
है। तुमने
आंखों को
बहिर्गामी
बना दिया है।
आंखों
को बंद करो और
देखो! आंख खोल—खोल
कर तो बहुत
देखा, अब
आंख बंद करो
और देखो। आंख
बंद करके
देखने का नाम
ध्यान है। और
आंख बंद करके
जिसको दिख जाए,
उसको
समाधि। आंख
खोल कर फिर
दिखाई पड़ेगा,
पहले आंख
बंद करके
दिखाई पड़ जाए।
अपने में जिसने
उसको पहचान
लिया, उसे
फिर सब में
उसकी पहचान हो
जाती है। बस
पहली पहचान
कठिन है, बाकी
तो सब पहचान
बड़ी सरल है, बड़ी सुगम
है।
नैन
दिए हरि—देखन
को, पलटू सब
में प्रभु देत
दिखाई।
लेकिन
बहिर्यात्रा
छोड़नी होगी, अंतर्यात्रा
करनी होगी।
कुछ
लिख के सो, कुछ पढ़ के सो
तू जिस
जगह जागा
सबेरे, उस
जगह से बढ़ के
सो
जैसा
उठा वैसा गिरा
जाकर बिछौने
पर
तिफ्ल
जैसा प्यार यह
जीवन खिलौने
पर
बिना
समझे बिना
बूझे खेलते
जाना
एक जिद
को जकड़ लेकर
ठेलते जाना
गलत है, बेसूद है, कुछ रच के सो,
कुछ गढ़ के
सो
तू जिस
जगह जागा
सबेरे, उस
जगह से बढ़ के
सो
दिन भर
इबारत पेड़—पत्ती
और पानी की
बंद घर
की, खुले—फैले
खेतधानी की
हवा की
बरसात की हर
खुश्क की तर
की
गुजरती
दिन भर रही जो
आप की पर की
उस
इबारत के
सुनहरे वर्क
से मन मढ़ के सो
तू जिस
जगह जागा सबेरे, उस जगह से बढ़
के सो
लिखा
सूरज ने किरन
की कलम लेकर
जो
नाम
लेकर जिसे
पंछी ने
पुकारा जो
हवा जो
कुछ गा गई, बरसात जो
बरसी
जो
इबारत लहर बन
कर नदी पर
दरसी
उस
इबारत की
अगरचे
सीढ़ियां हैं, चढ़ के सो
तू जिस
जगह जागा
सबेरे, उस
जगह से बढ़ के
सो
जिंदगी
को एक व्यर्थ
वर्तुल न
बनाओ। लोग घूम
रहे हैं
कोल्हू के बैल
की तरह—वहीं
जागते, वहीं
सोते; वही
कल किया था, वही परसों
भी किया था, वही आज भी
करेंगे, वही
कल भी, वही
परसों भी—अगर
कोई कल हुआ, अगर कोई
परसों हुआ, तो वही—वही
करते रहेंगे।
वही क्रोध, वही लोभ, वही
काम, वही
मोह। जागोगे
कब? बदलोगे
कब? तुम
आदमी हो, कोल्हू
के बैल नहीं।
यह किसने
तुम्हारी
आंखों पर
पट्टियां चढ़ा
दी हैं? यह
किसने
तुम्हें
कोल्हू में
जोत दिया है? यह कौन है जो
तुम्हें
हांके जा रहा
है?
बड़ा
मजा है! यह
तुम्हारी
अपनी करतूत
है। ये आंख पर
पट्टियां
तुमने खुद चढ़ा
ली हैं। यह
कंधे पर तुमने
कोल्हू अपने
हाथ से ले लिया
है। यह
वर्तुलाकार
चक्कर तुमने
जीवन का खुद
निर्मित किया
है। किसी
दूसरे ने भी
किया होता तो
कम से कम एक
आशा रहती कि
कभी दूसरा
उतार देगा, कभी दया
आएगी उसे। मगर
यह तुम्हारा
ही उपद्रव है।
इसलिए जब तक
तुम जागो और चेतो
न, तब तक
कोई इस
परतंत्रता को
छीन नहीं सकता
है। इस संसार
को कोई
तुम्हारे
मिटा नहीं
सकता। इस स्वप्न
को कोई नष्ट
नहीं कर सकता।
यह तुम्हारा
ही अपना
निष्कर्ष
बने।
लिखा
सूरज ने किरन
की कलम लेकर
जो
देखते
हो सुबह—सुबह
सूरज कलम लेकर
क्या लिख जाता
है आकाश में!
वेद लिख जाता
है, उपनिषद
लिख जाता है, कुरान लिख
जाता है, बाइबिल
लिख जाता है, धम्मपद लिख
जाता है। सारे
शास्त्रों का
सार लिख जाता
है। रोशनी का
अर्थ लिख जाता
है। रोशनी का
रहस्य लिख
जाता है। मगर
कौन देखे? आंख
कौन उठाता है
सूरज की तरफ? तुम अपनी
किताबों में
डूबे हो।
लिखा
सूरज ने किरन
की कलम लेकर
जो
नाम
लेकर जिसे
पंछी ने
पुकारा जो
कौन को
पुकार रहा है
पंछी सुबह—सुबह? कोयल कूकने
लगती है तो
किसके लिए? और पपीहा
कहता है पी—कहां,
तो किसके
लिए? पक्षी
सुबह—सुबह गीत
गाने लगते हैं,
यह किसकी
प्रार्थना हो
रही है? यह
किसका स्मरण
है? यह उसी
प्रभु का
स्मरण चल रहा
है! वृक्ष चुप
खड़े हैं उसी
के ध्यान में!
पक्षी गीत गा
रहे हैं उसी
के स्मरण में!
समुद्रों की
लहरों में उसी
की धुन है।
पहाड़ों के
सन्नाटे में
उसी का शून्य
है। लेकिन
तुम्हारे पास
आंख नहीं, तो
सूरज लिखता
रहता है, तुम
पढ़ते नहीं; पक्षी गाते
रहते हैं, तुम
सुनते नहीं।
आकाश में बादल
गरजते हैं, समुद्र में
लहरें उठती
हैं, मगर
तुम बज्र—बधिर
हो। तुम
व्यर्थ की
बातें बहुत
जल्दी सुन लेते
हो। तुम
व्यर्थ की
बातें सुनने
को खूब आतुर
हो।
एक
फकीर अपने एक
साथी के साथ
एक बाजार से
गुजरता था।
पास ही की
पहाड़ी पर खड़े
चर्च की
संध्या की
प्रार्थना की
घंटियां बजने
लगीं। उस फकीर
ने कहा, सुनते
हो—उस युवक को—कितना
मधुर रव है!
कैसा प्यारा
संगीत है!
पहाड़ पर खड़े
चर्च की
घंटियों की
आवाज सुनी? उस युवक ने
कहा, इस
बाजार के
शोरगुल में
कहां का पहाड़,
कहां का
चर्च, कहां
की घंटियां!
मुझे कुछ
सुनाई नहीं
पड़ता। यहां
इतना शोरगुल
मचा है, सांझ
का वक्त है, लोग अपनी
दुकानें उठा
रहे हैं, ग्राहक
आखिरी खरीद—फरोख्त
कर रहे हैं, बेचने वाले
भी कोशिश में
हैं कि कुछ कम
दाम में ही
सही, जल्दी
बिक जाए, जो
भी बिक जाए
बिक जाए। सूरज
ढलने—ढलने को
है। लोगों को
अपना सामान
बांधना है। लोगों
को अपनी
गाड़ियां
तैयार करनी
हैं। लोगों को
भागना है अपने
घरों की तरफ।
यहां इतना
शोरगुल मचा
है! घोड़े
हिनहिना रहे
हैं, बैल
आवाज कर रहे
हैं, गाड़ियां
जोती जा रही
हैं। घुड़सवार
हैं, आदमी
हैं, भीड़—भाड़
है। कहां की
घंटियां? इतनी
भीड़—भाड़ में, इतने शोरगुल
में मुझे कुछ
सुनाई नहीं
पड़ता।
उस
फकीर ने अपनी
जेब से एक
रुपया
निकाला। पुरानी
कहानी है। नगद, चांदी का
रुपया! जोर से
उसे पास के ही
पत्थर पर पटक
दिया। सड़क के
किनारे लगा
पत्थर, खननखन
की आवाज! और एक
भीड़ इकट्ठी हो
गई। सौ दो सौ आदमी
एकदम दौड़ पड़े।
कहा कि किसी
का रुपया गिरा।
उस फकीर ने उस
युवक को कहा, देखते हो!
घोड़े हिनहिना
रहे हैं, गाड़ियां
सजाई जा रही
हैं, खरीद—फरोख्त
का आखिरी वक्त,
सांझ हो रही
है, बिसाती
अपना फैलाव
संवार रहे हैं;
लेकिन
रुपये की
खननखन दो सौ
आदमियों ने
सुन ली! और चर्च
की घंटियां
गूंज रही हैं,
किसी को
सुनाई नहीं
पड़ता!
रुपये
पर जिसका मन
अटका हो वह
रुपये को सुन
लेगा। हम वही
सुनते हैं
जहां हमारा मन
लगा है। हम
वही गुनते हैं
जहां हमारा मन
लगा है। हम
वही देखते
हैं...रास्ता
तो वही होता
है, लेकिन हर
गुजरने वाला
अलग—अलग चीजें
देखता है।
चमार रास्ते
के किनारे
बैठा हुआ तुम्हारे
चेहरे नहीं
देखता, तुम्हारे
जूते देखता
है। चेहरों से
उसे क्या लेना—देना!
उसका प्रयोजन
जूतों से है।
लोग वही देखते
हैं जहां उनकी
वासना है, जहां
उनकी
आकांक्षा है,
अभीप्सा
है।
इसलिए
सूरज सुबह रोज
उपनिषद लिखता
है, मगर नहीं,
तुम वंचित
रह जाते हो उन
अदभुत ऋचाओं
से जो रोशनी
से लिखी जाती
हैं आकाश के
शून्य में।
रोज सुबह
कुरान
दोहराता है, लेकिन तुम
मस्जिद में
जाकर कुरान
दोहराते हो।
तुम मुर्दा
आयतें
दोहराते हो और
सुबह रोज सूरज
नई आयतें
लिखता है—नित—नूतन,
जीवंत!
परमात्मा हार
नहीं गया है।
मोहम्मद के
साथ इलहाम समाप्त
नहीं हो गया।
परमात्मा रोज
सुबह सूरज के साथ
इलहाम लाता
है। फिर
पक्षियों में
गुनगुनाता
है। फिर पपीहे
में पुकारता
है। फिर वृक्षों
में फूल बन कर
खिलता है।
लिखा
सूरज ने किरन
की कलम लेकर
जो
नाम
लेकर जिसे
पंछी ने पुकारा
जो
हवा जो
कुछ गा गई, बरसात जो
बरसी
वृक्षों
से गुजरती
हवाओं के गीत
सुने? ये
गीत कृष्ण की
बांसुरी को
मात करें, ऐसे
गीत! और बरसात
में रिमझिम
होती बरसात, तुम्हारे
छप्पर पर होती
बूंदाबांदी
का नृत्य—ऐसा
नृत्य कि राधा
के घूंघर फीके
पड़ें! मगर तुम
कैसे हो? तुम्हें
जीवन में
चारों तरफ कुछ
भी दिखाई नहीं
पड़ता! और
मौलिक कारण
है: क्योंकि
तुम्हें अपने
भीतर ही नहीं
दिखाई पड़ा।
तुमने अभी
देखने वाले को
नहीं देखा, तो तुम और
क्या देखोगे!
द्रष्टा से
पहली पहचान, फिर दृश्य
से पहचान हो
सकती है।
जो
इबारत लहर बन
कर नदी पर दरसी
उस
इबारत की
अगरचे
सीढ़ियां हैं, चढ़ के सो
वे जो
सूरज से गिरती
हुई किरणें
हैं, वे जो हवा
की लहरें हैं,
वह जो आकाश
का प्रतिबिंब
बन रहा है नदी
की लहरों में—उन
सब में
सीढ़ियां छिपी
हैं।
उस
इबारत की
अगरचे
सीढ़ियां हैं, चढ़ के सो
तू जिस
जगह जागा
सबेरे, उस
जगह से बढ़ के
सो
जीवन
को एक विकास
बनाओ—एक
ऊर्ध्वगमन, एक आरोहण!
कोल्हू के बैल
की तरह मत
घूमते रहो।
कीट
पतंग रहे
परिपूरन, कहूं
तिल एक न होत
जुदा है।
और
पलटू कहते हैं
कि ऐसा मत सोच
लेना कि तुम
में ही
परमात्मा है; नहीं तो
अहंकार पैदा
होता है।
ब्राह्मण
सोचता है कि ब्रह्म
ब्राह्मण में,
तभी तो मैं
ब्राह्मण; शूद्र
में तो हो ही
नहीं सकता।
आदमी सोचता है
परमात्मा
आदमी में, पशु—पक्षियों
में हो ही
नहीं सकता, क्योंकि पशु—पक्षी
तो उसने हमारे
काम के लिए
बनाए हैं कि हम
उन्हें खाएं,
उनका भोजन
करें। कोई जरा
पशु—पक्षियों
से भी पूछो कि
उनके क्या
इरादे हैं? कि वे आदमी
के संबंध में
क्या सोचते
हैं? तो
तुम चकित
होओगे। तुम
जैसा सोचते हो
वैसा ही वे भी
सोचते हैं। यह
दूसरी बात है
कि तुम जरा चालाक
हो और तुमने
व्यवस्था
जुटा ली है और
तुमने सारे
पशुओं को
मटियामेट कर
दिया है।
लेकिन इस
भ्रांति में न
पड़ जाना कि
परमात्मा
तुम्हारी
बपौती है।
पलटू
कहते हैं: कीट
पतंग रहे
परिपूरन।
आदमियों
की तो बात छोड़
दो, कीट—पतंग
में भी वही
परिपूर्ण रूप
से बस रहा है।
कहूं
तिल एक न होत
जुदा है।
तुम
ऐसी जगह नहीं
पा सकते, जहां
एक तिल भर भी
परमात्मा का
अभाव हो। एक
तिल रख सको, ऐसी कोई जगह
नहीं पा सकते
जहां
परमात्मा न
हो। वही है
पत्थरों में,
वही पृथ्वी
में, वही
आकाश में। मगर
यह पहचान होगी
तब, जब
पहले तुम अपने
में ढूंढ़ लो।
मगर अपने में
ढूंढ़ने लोग
नहीं जाते।
ढूंढ़त
अंध गरंथन
में...
अंधे
तो ग्रंथों
में ढूंढ़ते
हैं।
ढूंढ़त
अंध गरंथन में, लिखि कागद
में कहूं राम
लुका है।
अरे
पागलो, हाथ
से लिखे गए
कागजों में, कागजों पर
फैलाई गई आदमी
के हाथ से जो
स्याहियां
हैं, उनमें
कहीं राम छिपा
है?
ढूंढ़त
अंध गरंथन
में...
अंधे
ग्रंथों में
ढूंढ़ रहे हैं!
इसलिए
पंडितों से
बड़े अंधे
खोजने कठिन
हैं। महापंडित
यानी
महाअंधा।
जिसकी बाहर—भीतर
की बिलकुल फूट
गईं वह
महापंडित।
पंडित वह
जिसकी बाहर—बाहर
की फूटी हैं।
कागज
में खोज रहे
हो! स्मरण करो
कबीर का।
कबीर
कहते हैं:
लिखालिखी की
है नहीं, देखादेखी
बात।
यह कुछ
लिखने में आती
नहीं। लिखी
कभी गई नहीं।
लिखी जा सकती
तो बड़ी आसान
हो जाती बात।
फिर विज्ञान
और धर्म में
कुछ भेद न रह
जाता।
विज्ञान लिखा
जा सकता है, धर्म लिखा
नहीं जा सकता।
देखादेखी बात!
दूसरे की मान
कर चलने से भी
नहीं होगा।
मैं कहूं कि ईश्वर
है, इससे
क्या होगा? तुम्हारे
लिए होना
चाहिए, तुम्हारा
अनुभव होना चाहिए,
तभी कुछ
होगा।
देखादेखी बात!
ग्रंथ
तो बहुत हैं
आदमी के पास, अंबार लगे
हैं।
तरहत्तरह के
ग्रंथ हैं।
तुम्हें जैसे
ग्रंथ चाहिए
वैसे ग्रंथ
उपलब्ध हैं।
इतने ग्रंथ
हैं कि अगर हम
पृथ्वी पर
फैलाएं, तो
किसी ने हिसाब
लगाया है कि
अगर सारी
किताबें एक
कतार बना कर
पृथ्वी पर
लगाई जाएं तो
सात चक्कर
पृथ्वी के हो जाएंगे।
इतनी किताबें
हैं आदमी के
पास! करोड़ों—करोड़ों
किताबें! और
इन किताबों
में कीड़ों की
तरह लोग खोज
रहे हैं। शायद
दीमक को तो
कुछ भोजन मिल
भी जाता होगा,
पंडित को
उतना भी नहीं
मिलता। और
तुम्हें जैसी
जरूरत है, किताबें
रचने वाले लोग
मौजूद हैं, तुम्हारी
आकांक्षा के
अनुकूल रच
देते हैं, तुम्हें
जो प्रीतिकर
लगे। बाजार का
तो नियम ही
यही है: जिस
बात की मांग
हो उसकी
पूर्ति।
जी हां
हुजूर, मैं
गीत बेचता हूं,
मैं
तरहत्तरह के
गीत बेचता हूं,
मैं
किसिम—किसिम
के गीत बेचता
हूं!
जी, माल देखिए, दाम बताऊंगा,
बेकाम
नहीं हैं, काम बताऊंगा,
कुछ
गीत लिखे हैं
मस्ती में
मैंने,
कुछ
गीत लिखे हैं
पस्ती में
मैंने,
यह गीत
सख्त सर—दर्द
भुलाएगा,
यह गीत
पिया को पास
बुलाएगा!
जी, पहले कुछ
दिन शर्म लगी
मुझको,
पर बाद—बाद
में अक्ल जगी
मुझको,
जी, लोगों ने तो
बेच दिए ईमान,
जी, आप न हों सुन
कर ज्यादा
हैरान—
मैं
सोच—समझ कर
आखिर
अपने
गीत बेचता हूं,
जी हां
हुजूर, मैं
गीत बेचता हूं,
मैं
तरहत्तरह के
गीत बेचता हूं,
मैं
किसिम—किसिम
के गीत बेचता
हूं!
यह गीत
सुबह का है, गा कर देखें,
यह गीत
गजब का है, ढा कर देखें,
यह गीत
जरा सूने में
लिक्खा था,
यह गीत
वहां पूने में
लिक्खा था,
यह गीत
पहाड़ी पर चढ़
जाता है,
यह गीत
बढ़ाए से बढ़
जाता है!
यह गीत
भूख और प्यास
भगाता है,
जी, यह मसान में
भूत जगाता है,
यह गीत
भुवाली की है
हवा हुजूर,
यह गीत
तपेदिक की है
दवा हुजूर,
जी, और भी गीत
हैं, दिखलाता
हूं,
जी, सुनना चाहें
आप तो गाता
हूं।
जी, छंद और
बेछंद पसंद
करें,
जी, अमर गीत और
वे जो तुरत
मरें!
ना, बुरा मानने
की इसमें है
बात,
मैं ले
आता हूं कलम
और दावात,
इनमें
से भाए नहीं, नये लिख दूं,
जी, नये नहीं
चाहिए, गए
लिख दूं!
मैं
नये—पुराने सभी
तरह के
गीत
बेचता हूं,
जी हां
हुजूर, मैं
गीत बेचता हूं,
मैं
तरहत्तरह के
गीत बेचता हूं,
मैं
किसिम—किसिम
के गीत बेचता
हूं!
जी, गीत जनम का
लिखूं, मरण
का लिखूं,
जी, गीत जीत का
लिखूं, शरण
का लिखूं,
यह गीत
रेशमी है, यह खादी का,
यह गीत
पित्त का है, यह बादी का!
कुछ और
डिजाइन भी हैं, यह इलमी,
यह
लीजे चलती चीज
नई फिल्मी,
यह सोच—सोच
कर मर जाने का
गीत,
यह
दुकान से घर
जाने का गीत!
जी
नहीं, दिल्लगी
की इसमें क्या
बात,
मैं
लिखता ही तो
रहता हूं दिन—रात,
तो
तरहत्तरह के
बन जाते हैं
गीत,
जी, रूठ—रूठ कर
मन जाते हैं
गीत!
जी, बहुत ढेर लग
गया, हटाता
हूं,
गाहक
की मर्जी, अच्छा जाता
हूं;
या
भीतर जाकर पूछ
आइए आप,
है गीत
बेचना वैसे
बिलकुल पाप,
क्या
करूं मगर
लाचार
हार कर
गीत बेचता
हूं!
जी हां
हुजूर, मैं
गीत बेचता हूं,
मैं
किसिम—किसिम
के गीत बेचता
हूं!
सब तरह
के गीत उपलब्ध
हैं। सब तरह
के शास्त्र
उपलब्ध हैं।
तरहत्तरह की दुकानें
हैं। नाम उन
दुकानों के
चाहे मंदिर हों, मस्जिदें
हों, गुरुद्वारे
हों, गिरजे
हों। धर्म के
नाम पर हैं, ईश्वर के
नाम पर हैं, मोक्ष के
नाम पर हैं—लेकिन
तुम्हें जैसा
गीत चाहिए मिल
जाएगा। पर ये
गीत परमात्मा
के नहीं हैं।
ये गीत बाजारू
हैं। ये सब
चलते गीत हैं।
ये सब फिल्मी
गीत हैं।
परमात्मा
का गीत तो
परमात्मा ही
गाता है। सुबह
ऊगते सूरज में
पढ़ो, पक्षियों
की गुनगुनाहट
में सुनो। हवा
जब वृक्षों को
हिलाने लगे, उस नाच में
देखो। या कभी
अगर तुम्हारा
सौभाग्य हो और
किसी बुद्धपुरुष
से मिलना हो
जाए तो उसके
पास बैठो—उसके
सन्नाटे में,
उसके मौन
में, उसके
बोलने में, उसके उठने—बैठने
में। कबीर ने
कहा है कि मैं
उठता हूं, बैठता
हूं, तो
उसी की सेवा
चल रही है; चलता—फिरता
हूं, उसी
की परिक्रमा
हो रही है; खाता—पीता
हूं, उसी
को भोग लग रहा
है।
ऐसा
कोई व्यक्ति
मिल जाए—जिसका
जीवन अपना
जीवन न हो!
जिसके पास
अपना कुछ भी न
हो! जिसका
जीवन केवल
प्रभु के लिए
समग्रतया
समर्पित हो!
जिसके जीवन से
केवल उसी के
राग बहते हों!
जिसने अपने
जीवन को
बांसुरी की तरह
उसके ओंठों पर
समर्पित कर
दिया हो!
मगर यह
सब तभी होगा, यह सब तभी हो
सकता है, जब
तुम पहला क ख ग
सीखो। और वह
है आंख बंद
करके स्वयं को
देखने की बात।
और देर न करो, क्योंकि जो
समय गया गया, फिर लौट कर
नहीं आता। और
कल का कोई
भरोसा नहीं है।
वृद्ध
भए तन खासा, अब कब भजन
करहुगे।
जवान
हैं, सोचते
हैं कि वृद्ध
हो जाएंगे, फिर कर
लेंगे भजन।
वृद्ध हैं, उनको भी यह
कुछ पक्का
नहीं है कि
जाने का वक्त करीब
आ गया। वे भी
बड़ी आशा में
लगे हैं कि
अभी और जी
लेंगे, कि
अभी कोई मरे
थोड़े ही जाते
हैं। लोगों ने
ऐसी—ऐसी आशाएं
बांध रखी हैं
कि आखिरी वक्त
में राम का
नाम ले लेंगे,
एक बार नाम
ले लेंगे; मरते—मरते
नाम ले लिया, मोक्ष हो
जाएगा। काश, बात इतनी
आसान होती!
काश, बात
इतनी उधार
होती! काश, बात
इतनी सस्ती
होती! जीवन भर
गुनगुनाओ तो
अंतिम क्षण
में तुम्हारी
गुनगुनाहट उस
तक पहुंच सकेगी।
कल पर मत
टालो।
वृद्ध
भए तन खासा...
देर
नहीं लगेगी, बुढ़ापा आते
देर क्या लगती
है! यूं दिन
जाते हैं, पल—छिन
में जाते हैं!
बालापन
बालक संग
बीता...
बच्चों
के साथ खेलने
में बीत गया।
मगर बड़े आश्चर्य
की बात तो यह
है कि बच्चे
ही बच्चे होते
तो क्षम्य थे, यहां बूढ़े
भी बच्चे हैं!
खेल वही है, गुड्डियां
थोड़ी बड़ी हो
गई हैं। छोटे
बच्चे छोटी
गुड्डियों से
खेलते हैं, बड़े बच्चे
बड़ी
गुड्डियों से
खेलते हैं।
छोटे बच्चों
के खिलौने
छोटे और सस्ते
हैं, बड़े
बच्चों के
खिलौने बड़े और
महंगे हैं।
मगर बात वही
है, क्योंकि
चित्त नहीं
बदलता। इस जगत
में प्रौढ़ होना
बड़ी मुश्किल
बात है। बूढ़ा
हो जाना बहुत
आसान है, परिपक्व
होना बहुत
कठिन है।
अधिकतर लोग
यहां धूप में
ही बाल पकाते
हैं।
बालापन
बालक संग बीता, तरुन भए
अभिमाना।
और एक
से एक तरकीबें
खोज ली जाती
हैं। बचपन तो बचपन
है, वह तो
बीतेगा ही
खेलकूद में, उछलकूद में।
फिर जब जवान
होओगे तो बड़े
अभिमान उठते
हैं, बड़ी
आकांक्षाएं, बड़ी
अभीप्साएं—यह
हो लूं, वह
हो लूं; यह
पा लूं, वह
पा लूं! कौन है
जो सिकंदर
नहीं होना
चाहता! हरेक
अपने भीतर
सिकंदर की
अभीप्सा लेकर
आता है। कहो
या न कहो, बताओ
या न बताओ, शर्म
के कारण न
बताओ, संकोच
के कारण न कहो,
मगर भीतर
यही खयाल है
कि कुछ करके
दिखला दूं। और
आस—पास लोग भी
तुमसे यही कह
रहे हैं: छोड़
जाओ नाम। अरे
नाम रह जाएगा,
कुछ कर जाओ!
कुछ करके दिखा
जाओ! तो बड़ा
अभिमान जगता
है। जवानी
अभिमान में खो
जाती है।
नखसिख
सेती भई
सफेदी...
फिर आज
नहीं कल नीचे
से ऊपर तक सब
सूखने लगता है, जीर्ण—जर्जर
होने लगता है।
सब सफेद होने
लगता है।
हरि का
मरम न जाना।
तब
बहुत
पछताओगे। तब
जार—जार
रोओगे। तब खून
के आंसू
टपकेंगे।
क्योंकि हरि
का मरम न जाना
और मौत करीब
आने लगी। और
तुम व्यर्थ की
रामलीला में
लगे रहे। छोटे
बच्चे गुड्डा—गुड्डियों
के विवाह
करवाते हैं, तुम रामलीला
करवाते रहे।
रामचंद्र जी
की बारात
निकलती है।
मंगतू
बीड़ी
के पैसों के
लिए
राम
बना हुआ है
प्रभातू
चाय के
पैसों के लिए
सीता
लक्ष्मण
परशुराम
के क्रोध के
नीचे से
मातादीन
की रेखा को
लांघ रहा है
भरत को
कोई
भरोसा नहीं
कि
चप्पल की
जुगाड़ भिड़ जाए
कहां
है ज्यादा
कष्ट!
कहां
है ज्यादा
निर्वासन!
रामायण
में या जीवन
में?
कहां
लड़ा जा रहा है
युद्ध?
कौन है
शत्रु और कौन
है शत्रुघ्न?
वह जो
राम बना है, पूछते हो
किसलिए? वह
जो सीता बन
गया है, पूछते
हो किसलिए? कोई बीड़ी के
पैसों के लिए
इंतजाम कर रहा
है, कोई
चाय के पैसों
के लिए पैसे
जुटा रहा है, भरत को कोई
भरोसा नहीं कि
चप्पल की
जुगाड़ भिड़ जाए।
और लोग उनके
चरण छू रहे
हैं। लोग उनकी
पूजा कर रहे
हैं। बारात
निकली है राम
की!
यह खेल
हम खेलते ही
चले जाते हैं।
और तरहत्तरह
के खेल हैं—जैनों
के खेल हैं, हिंदुओं के
खेल हैं, मुसलमानों
के खेल हैं, तरहत्तरह के
खेल हैं! कोई
ताजिए बनाए
हुए है, कोई
गणेश जी को
सजाए हुए है, कोई राम का
जुलूस निकाल
रहा है, कोई
महावीर की
पत्थर की
मूर्तियों पर
दूध ढाल रहा
है, स्नान
करवा रहा है।
और बड़ी
गंभीरता से ये
कृत्य किए जा
रहे हैं। जीवन
भर लोग पैसे
जुटा रहे हैं—हज
कर आएं, कि
एक बार गंगा—स्नान
कर आएं, कि
एक बार कुंभ
के मेले हो
आएं। और वहां
जिनको तुम
साधु समझते हो,
लुच्चे—लफंगों
की जमात है।
अभी
नासिक में, तुमने दो—चार
दिन पहले ही
खबर पढ़ी होगी,
छुरेबाजी
हो गई—साधुओं
में! सिर खुल
गए। हवालात
में बंद हैं। भाले
भोंक दिए! ये
तुम्हारे
साधु हैं!
लेकिन तुम अंधों
की तरह चले जा
रहे हो। पचास
लाख हिंदू साधु
हैं भारत में।
इनमें एकाध भी
नहीं मालूम
होता कि साधु
है। सब थोथा
आडंबर है।
इस
सबसे सावधान
होओ। समय को
गंवाओ मत।
जल्दी ही मौत
द्वार पर
दस्तक देगी, उसके पहले
परमात्मा को
स्मरण कर लो।
पिछले
साल उसने कहा
कि
पिछले साल
मैं
नाबालिग था
इस साल
भी वह कह रहा
है
कि
पिछले साल
मैं
नाबालिग था
हर नये
वर्ष में
नाबालिग
हर नये
वर्ष में
नासमझ
हर
मरने वाले के
लिए उसने कहा—
बालिग
हुआ कि मर गया
कितना
बालिग होने के
लिए
कितना
मरने की जरूरत
है?
रोज—रोज
मरने की जरूरत
है। प्रतिपल
मरने की जरूरत
है। अतीत के
प्रति जिसे
मरने की कला आ
गई, जो अतीत
को लौट कर
नहीं देखता और
जो भविष्य की आकांक्षा
नहीं करता और
जो शुद्ध
वर्तमान में जीने
लगता है, वह
बालिग है।
उम्र से कोई
बालिग नहीं
होता कि अठारह
साल के हो गए, कि इक्कीस
साल के हो गए।
ये तो कृत्रिम
सीमाएं हैं।
किस हिसाब से
इक्कीस साल का
आदमी बालिग हो
जाता है और
बीस साल का
नहीं होता? और इक्कीस
साल में एक
दिन कम है तो
बालिग नहीं और
एक दिन ज्यादा
हो गया तो
बालिग है! एक
दिन पहले
नाबालिग था, एक दिन बाद
बालिग हो गया!
रात भर सोया
और सुबह बालिग
हो गया!
बालिग
होने का अर्थ
होता है
प्रौढ़।
प्रौढ़ता का
कोई संबंध
उम्र से नहीं
है। प्रौढ़ता
का संबंध भीतर
जागरण से है, होश से है।
और होश की कला
और कीमिया एक
ही है—अतीत से
अपना छुटकारा
कर लो। जो गया,
गया; और
जो नहीं आया, नहीं आया।
अभी जो है, इस
क्षण...इस क्षण
को पूरा का
पूरा आत्मसात
कर लो। इस
क्षण में पूरे
के पूरे डूब
जाओ। अतीत नहीं
है तो कोई
स्मृति नहीं
होगी, और
भविष्य नहीं
है तो कोई
वासना नहीं
होगी। और जहां
स्मृति नहीं,
वासना नहीं,
वहां प्रभु
से मिलन है, वहां
प्रार्थना है।
मर जाओ अतीत
के प्रति और
मर जाओ भविष्य
के प्रति। और
वर्तमान में
तुम जी उठोगे—ऐसे
जी उठोगे भभक
कर! ऐसे भभक कर
जी उठने का
नाम ही
बुद्धत्व है,
समाधि है।
जैसे कोई मशाल
को दोनों तरफ
से जला दे!
तिरिमिरि
बहिर नासिका
चूवै, साक
गरे चढ़ि आई।
देर
नहीं लगेगी, जल्दी ही
आंखें जरा सी
चकाचौंध से ही
थक जाएंगी, ठीक से देख न
पाओगे। देर
नहीं है कि
नासिका बहने
लगेगी। देर
नहीं है कि
श्वास चढ़ने
लगेगी।
सुत
दारा गरियावन
लागे, यह
बुढ़वा मरि
जाई।
देर
नहीं है कि
जिनको तुमने
अपना समझा था, वे भी कहने
लगेंगे कि अब
छुटकारा हो तो
अच्छा।
मैंने
सुना है, एक
घर में बूढ़ा
बाप, बहुत
बूढ़ा, किसी
मूल्य का तो
रहा नहीं, एक
बोझ! उसके
बेटे ने, उसको
घर के पीछे
जहां घुड़साल
थी, उसके
पास के ही एक
गंदे से कमरे
में डाल रखा।
वहीं उसको
खाने—पीने के
लिए भिजवा
दिया जाता। अब
बरतन कौन उसके
मले, कौन
रोज—रोज बरतन
साफ करे, तो
लकड़ी के बरतन
बनवा दिए थे
कि साफ—वाफ
करने की जरूरत
नहीं। फिर वह
बूढ़ा मरा। उसके
मरने के वक्त
उसके बेटे ने
देखा कि उसका
छोटा लड़का, वे लकड़ी के
बरतन जो बूढ़े
के लिए बनवाए
थे, वह साफ
करके सम्हाल
कर एक पेटी
में रख रहा
है। उसने उससे
पूछा, तू
यह किसलिए रख
रहा है? उसने
कहा, आपके
बुढ़ापे के
लिए। जो उसने
देखा था...सोचा
कि आप भी बूढ़े
होंगे, फिर
से बनवाना
पड़ेंगे, तो
मैं सम्हाल कर
रखे देता हूं।
जरूरत तो पड़ेगी।
यही रहा आपका
कमरा।
तुम्हारा
उपयोग आर्थिक
है, हम कहें
कुछ। प्रेम के
संबंध तो कभी—कभार
होते हैं, बड़ी
मुश्किल से
होते हैं।
नाते तो सब
झूठे हैं; प्रेम
के नहीं हैं, अर्थ के
हैं।
स्वभाव
ने कल मुझे एक
पत्र लिखा।
स्वभाव को मैंने
काम दिया था।
मेरे पिता
बीमार थे, पांच सप्ताह
से अस्पताल
में थे। तो
स्वभाव को मैंने
जिम्मेवारी
दी थी कि उनकी
सेवा करे। यह स्वभाव
के लिए एक
मौका था, एक
अवसर था विकास
का। और स्वभाव
ने उसका पूरा लाभ
लिया, जितना
लिया जा सकता
था। कल स्वभाव
ने मुझे लिखा
कि मैंने पहली
बार, पिता
का अनुभव कैसा
होता है, यह
अनुभव किया।
पिता का प्रेम
कैसा होता है,
यह अनुभव
किया। और
मैंने पहली
बार शैलेंद्र
और अमित की श्रद्धा
और सेवा अनुभव
की। और मैंने
पहली बार पति—पत्नी
के बीच कैसी
प्रगाढ़ता का
नाता हो सकता
है, यह
अनुभव किया।
स्वभाव
को रखा ही
मैंने इसलिए
था कि कुछ
स्वभाव को
बचपन में मां—बाप
का प्रेम नहीं
मिल सका; एक
कमी थी जो
अटकी थी। वह
अटक गई।
स्वभाव की आखिरी
अटक टूट गई।
स्वभाव, दूसरा
ही व्यक्ति
जैसे जन्मा।
एक नया जन्म
हो गया।
पर
प्रेम के नाते
तो इस दुनिया
में बहुत कम
हैं। इस
दुनिया में
नाते तो अर्थ
के हैं, पैसे
के हैं। बाप
से भी उतनी
देर तक नाता
है जितनी देर
तक पैसे का
नाता है, जितनी
देर तक उससे
कुछ मिलता है।
जैसे ही मिलना
बंद होता है, नाते शिथिल
हो जाने लगते
हैं। पर कभी—कभार
इस पृथ्वी पर
भी प्रेम
उतरता है। ऐसे
ही एक प्रेम
का अनुभव
स्वभाव को
हुआ। और प्रेम
का अनुभव
परमात्मा का
प्रमाण है।
कहीं भी प्रेम
की झलक मिल
जाए तो
निश्चित हो
जाता है कि
परमात्मा है।
परमात्मा के
लिए और कोई
तर्क काम नहीं
देते, सिर्फ
प्रेम ही काम
देता है।
स्वभाव—मौलिक
रूप से
नास्तिक। जब
पहली—पहली बार
स्वभाव मेरे
पास आया था, वर्षों पहले,
तो शुद्ध
नास्तिक। जो
पहला प्रश्न
स्वभाव ने मुझसे
पूछा था, वह
यही था—कि
ईश्वर है, इसका
आप कोई प्रमाण
दे सकते हैं? स्वभाव शायद
अब भूल भी गया
होगा कि उसने
यह पहला प्रश्न
मुझसे पूछा
था। इसके लिए
मैं बहुत प्रमाण
स्वभाव को
देता रहा हूं।
यह आखिरी
प्रमाण था। अब
स्वभाव नहीं
पूछ सकता—कि
ईश्वर है? क्योंकि
स्वभाव ने
मेरे पिता के
पास रह कर प्रेम
को पहचाना। और
स्वभाव ने
मेरे पिता को
अंधेरे से
रोशनी की तरफ
उठते हुए
देखा। बुद्धत्व
का कैसे
आविर्भाव
होता है, इसका
साक्षात्कार
किया। यह
साक्षात्कार
उसके लिए सीढ़ी
बन जाएगा। यह
उसके
बुद्धत्व के
लिए अनिवार्य
था, यह
जरूरी था। और
मैं खुश हूं
कि स्वभाव ने
समग्रता से, सौ प्रतिशत,
रत्ती भर भी
कमी नहीं की।
जहां
कहीं भी प्रेम
का प्रमाण मिल
जाएगा वहीं परमात्मा
का प्रमाण मिल
जाता है। मगर
प्रेम के
प्रमाण इस
दुनिया से उजड़
गए हैं। इस
दुनिया के सब
नाते—रिश्ते
बस कामचलाऊ
हैं।
सुत
दारा गरियावन
लागे, यह
बुढ़वा मरि
जाई।
तीरथ
बर्त एकौ न
कीन्हा, नहीं
साधु की सेवा।
अब ये
किस तीर्थ—व्रत
की बात कर रहे
हैं पलटू? क्योंकि
शुरू में तो
उन्होंने कहा:
पूरन
ब्रह्म रहै घट
में, सठ, तीरथ
कानन खोजन
जाई।
पहले
सूत्र में कहा
कि तू कहां जा
रहा है? वह
तो भीतर है और
तू तीर्थ में
खोजने जा रहा
है? और अब
इस सूत्र में
कहते हैं, तो
तुम्हें
विरोधाभास
लगेगा।
इस
सूत्र में
कहते हैं:
तीरथ बर्त एकौ
न कीन्हा, नहीं साधु
की सेवा।
अब यह
दूसरी बात है।
यह उसी तीर्थ
की बात नहीं है।
उस साधारण
तीर्थ का तो
खंडन
उन्होंने पहले
सूत्र में कर
दिया। अब इस
दूसरे तीर्थ
का संबंध काशी, कैलाश और
काबा से नहीं
है। इस दूसरे
तीर्थ का
संबंध है—किसी
ऐसे व्यक्ति
के पास होना
जहां
बुद्धत्व घटा
हो, जहां
दीया जला हो।
मैंने
सुना है, बायजीद
हज की यात्रा
को गया। फकीर
था, गरीब
आदमी, बामुश्किल
पैसे इकट्ठे
कर पाया। और
गांव के बाहर
ही निकला था, गांव के लोग
विदा करके गए
थे। हज का यात्री,
उसको गांव
के लोगों ने
बड़े सम्मान से
विदा दी थी।
और पुराने
दिनों की
यात्रा; तीर्थयात्रा
से कोई लौट भी
पाएगा या नहीं,
यह भी
संदिग्ध था।
जंगल, जंगली
जानवर, चोर,
लुटेरे, हत्यारे—और
इनसे किसी तरह
बच जाओ तो फिर
पंडित—पुरोहित,
बच कर लौटने
की कोई बहुत
उम्मीद नहीं
थी। इसलिए लोग
अंतिम विदा दे
देते थे। आ गए
तो सौभाग्य, नहीं आए तो
मान ही लिया
था कि आखिरी
विदा हो गई।
गांव के बाहर
निकला ही था, लोग विदा
करके गए ही थे
कि एक वृक्ष
के नीचे एक बड़े
अलमस्त फकीर
को बैठे देखा,
तो झुक कर
प्रणाम किया।
उस
फकीर ने कहा, कहां जाते
हो?
कहा, हज यात्रा
को जा रहा
हूं।
कितने
पैसे हैं
तुम्हारे पास?
तीस
दीनार।
उन
दिनों तीस
सोने के
सिक्के बहुत
थे। उस फकीर
ने कहा, निकाल
पैसे! मैं हूं
हज, मैं
हूं काबा!
पैसे निकाल!
उस
व्यक्ति का बल
ऐसा था! उसकी
रोशनी ऐसी थी!
उसके
व्यक्तित्व
की आभा ऐसी थी!
उसका आभामंडल
ऐसा था कि
बायजीद ने
जल्दी से जिंदगी
भर की कमाई
निकाल कर उस
फकीर को दे
दी। और उस
फकीर ने कहा
कि मेरे तीन
चक्कर लगा और
अपने घर वापस
जा। काबा हो
गया। तू हाजी
हो गया।
और
बायजीद ने तीन
चक्कर लगाए, नमस्कार
किया और वापस
लौट गया। गांव
के लोगों ने
कहा, बड़े
जल्दी आ गए? उसने कहा, मैं क्या
करूं, काबा
खुद गांव के
बाहर मेरी
प्रतीक्षा
करता मिला! और
बायजीद के
जीवन में
क्रांति हो गई—इस
आदमी के इतने
से संस्पर्श
से! ये तीन
चक्कर, जैसे
सब चक्करों से
मुक्त हो गया
बायजीद!
बायजीद
सूफियों में
परम फकीर हो
गया। और उसने
कुल इतना धर्म
किया था—एक
फकीर के तीन
चक्कर लगाए
थे। मगर बड़ी
श्रद्धा से
लगाए होंगे।
जब उसने कहा—निकाल
तीस दीनार! तो
एक क्षण भी
झिझका नहीं। झिझक
जाता तो चूक
जाता। जल्दी
से निकाल कर
दे दिए। जब
उसने कहा कि
मैं हूं काबा, लगा तीन
चक्कर! तो
सवाल नहीं
उठाया कि तुम
और काबा? तुम
आदमी हो, काबा
पत्थर है! जब
उस आदमी ने
कहा कि बस
मेरे तीन
चक्कर लगा लिए,
काम पूरा हो
गया। तो
बायजीद घर लौट
गया। ऐसी श्रद्धा,
ऐसी आस्था
नहीं क्रांति
लाएगी तो क्या
होगा? क्रांति
घट गई। बायजीद
और होकर लौटा।
फिर तो जिंदगी
में बहुत बार
और लोगों को
बायजीद ने
सहायता दी। जब
भी कोई हज
जाता होता, कहता, कहां
जाते हो? मैं
तो मौजूद हूं,
मेरे चक्कर
लगा लो!
यह जो
अब पलटू कह
रहे हैं, "तीरथ
बर्त एकौ न
कीन्हा', इसका
अर्थ है कि
नहीं किसी
बुद्ध की
सत्संगति की।
"नहीं साधु की
सेवा।' नहीं
किसी जले हुए
दीये के चरणों
में झुके।
तीनिउ
पन धोखे ही
बीते, नहिं
ऐसे मूरख
देवा।
बचपन, जवानी, बुढ़ापा,
सब व्यर्थ
चले गए धोखे
में। ऐसे कहीं
दिव्यता मिली
है? ऐसे
कहीं भगवत्ता
मिली है?
पकरी
आई काल ने
चोटी, सिर
धुनि—धुनि
पछिताता।
पलटूदास
कोऊ नहिं संगी, जम के हाथ
बिकाता।।
और अब
क्या हो? अब
पछताए होत का,
जब चिड़िया
चुग गई खेत!
पकरी
आई काल ने
चोटी, सिर
धुनि—धुनि
पछिताता।
अब
पछताओ सिर धुन—धुन
कर, लेकिन अब
मौत ने चोटी
पकड़ ली है।
पलटूदास
कोऊ नहिं संगी, जम के हाथ
बिकाता।।
अब कोई
न संगी है, न कोई साथी
है। अब ले चली
मौत। कहां हैं
मित्र अब? कहां
हैं प्रियजन?
सब छूट गए
पीछे।
मृत्यु
के पहले आत्म—साक्षात्कार
न हो जाए तो
जीवन व्यर्थ
गया।
मैं
चिंतित था
अपने पिता के
लिए, वैसे ही
जैसे
तुम्हारे लिए
चिंतित हूं।
इसलिए नहीं कि
वे मेरे पिता
थे। इसलिए कि
कोई भी सोता
हुआ पाता हूं
तो चिंतित
होता हूं।
चिंतित था कि
हो पाएगा यह
कि नहीं हो
पाएगा? वे
जग पाएंगे
मृत्यु के
पहले या नहीं
जग पाएंगे?
चेष्टा
वे कर रहे थे, अथक चेष्टा
कर रहे थे!
पिछले दस
वर्षों से सुबह
तीन बजे उठ
आते थे—नियमित।
बीमार हों, स्वस्थ हों,
इससे कुछ
भेद नहीं पड़ता
था। घर के लोग
डर जाते थे, मेरी मां डर
जाती थी।
क्योंकि वे
तीन बजे से
ध्यान करने
बैठ जाते, और
कभी छह बज
जाते, कभी
सात बज जाते, कभी आठ, और
उठते ही नहीं
ध्यान से! तो
स्वभावतः
मेरी मां को
डर लगता, वह
जाकर देख भी
आती कि सांस
चल रही है कि
नहीं! क्योंकि
पांच घंटे एक
ही आसन में
बैठे हैं, न
हिलते, न
डुलते। कभी—कभी
तो यहां वे
सुबह का
प्रवचन चूक
जाते थे, क्योंकि
वे तीन बजे जो
बैठे तो आठ बज
गए, नौ बज
गए। मेरी मां
उनको हिलाकर—डुलाकर
ध्यान से वापस
लाती कि अब
प्रवचन का समय
हुआ। तो
उन्होंने
मुझसे शिकायत
भी की कि समझाओ
अपनी मां को, कि मुझे बीच
ध्यान में न
उठाया जाए।
बहुत धक्का लग
जाता है, बहुत
गहराई से
उतरना पड़ता
है।
अथक
चेष्टा कर रहे
थे!
डरता
था मैं, क्योंकि
उनकी देह
क्षीण होती जा
रही थी; हो
पाएगी यह
अपूर्व घटना
मृत्यु के
पहले या नहीं?
बीमारी ऐसी
थी कि कठिन
थी। खून के
थक्के शरीर में
जमने शुरू हो
गए थे। तो
जहां भी खून
का थक्का जम
जाए वहीं खून
की गति बंद हो
जाए।
मस्तिष्क में
जम गया एक
थक्का, तो
एक मस्तिष्क
का अंग काम
करना बंद कर
दिया। एक हाथ
उससे जो जुड़ा
था वह हाथ
बेकाम हो गया।
उससे जो पैर
जुड़ा था वह
पैर बेकाम हो
गया। उस पैर
में भी खून का
थक्का जम गया।
सर्जनों ने
सलाह दी कि
पैर काट दिया
जाए, और
कोई उपाय नहीं
है; क्योंकि
यह पैर सड़
जाएगा तो इसकी
सड़ान पूरे शरीर
में पहुंच
जाएगी, फिर
बचाना
मुश्किल है।
मैंने उनसे
पूछा कि पैर
तो तुम काटोगे,
लेकिन बचने
की उम्मीद
कितनी है? नहीं
कि मेरी कोई
बहुत इच्छा है
कि वे लंबे जीएं।
लंबे जीने से
क्या होता है?
उन्होंने
कहा, बचने की
उम्मीद तो
केवल पांच
प्रतिशत है, पंचानबे
प्रतिशत तो
पैर के काटने
में ही समाप्त
हो जाने का डर
है। क्योंकि
क्लोरोफार्म
को वे सह
सकेंगे, इतनी
सबल उनकी देह
नहीं है। और
इतना बड़ा
ऑपरेशन, तो
क्लोरोफार्म
तो देना ही
पड़ेगा।
क्लोरोफार्म
देने में ही
संभावना है कि
उनकी हृदय की
गति बंद हो
जाएगी।
तो
मैंने कहा, फिर रुको।
ऑपरेशन की कोई
फिक्र न करो।
लंबा जिंदाने
की मुझे कोई
इच्छा नहीं
है। मेरी
इच्छा कुछ और
है। दस—बीस
दिन, जितने
दिन भी वे
जिंदा रह जाएं,
आखिरी
चेष्टा
उन्हें कर
लेने दो—अपने
भीतर पहुंचने
की।
और मैं
अत्यंत
आनंदित हूं कि
मरने के कुछ
ही घंटे पहले
उन्होंने
यात्रा पूरी
कर ली। आठ तारीख
की संध्या
शरीर छूटा, लेकिन आठ
तारीख की सुबह
तीन और पांच
के बीच, चार
बजे के करीब
उनका बुझा
दीया जल गया।
उस सांझ मैं
उन्हें देखने
गया था, देख
कर मैं
निश्चिंत
हुआ। नहीं कि
वे जीएंगे; जीने का तो
कोई बहुत अर्थ
भी नहीं है।
लेकिन आनंदित
मैं लौटा, क्योंकि
जो होना था वह
हो गया; अब
उन्हें
दोबारा न आना
पड़ेगा। वे जान
कर गए, पहचान
कर गए, आनंदित
गए। अब उनका
कोई पुनरागमन
नहीं है। और आवागमन
से छूट जाना
ही इस जीवन की
शिक्षा है। इस
जीवन में वही
सफल है जो
आवागमन से छूट
गया है।
वे
अकेले नहीं
गए। अब
परमात्मा
उनके साथ है।
मौत उनके लिए
मौत नहीं बनी, परमात्मा का
द्वार बनी।
मौत उनके लिए
समाधि बनी।
इसलिए मैंने
अपने
संन्यासियों
को कहा: नाचो, गाओ, उत्सव
मनाओ! और इस
संकल्प से भरो
कि तुम भी
जाने के पहले
जाग कर ही
जाओगे, सोए—सोए
नहीं। जाग कर
जो मरता है, मरता ही
नहीं।
क्योंकि जाग
कर वह देखता
रहता है—शरीर
छूट रहा है।
उन्होंने
मुझसे यही
कहा!
पहली दफा उन्होंने
मुझे बुलाया, सिर्फ यह
कहने कि क्या
हुआ है!
क्योंकि जो
हुआ था वह
इतना अपरिचित
था, अनजाना
था। क्या हुआ
है! आज सुबह—उन्होंने
कहा—इतनी दूर
चला गया मैं
शरीर से कि
मुझे लगा कि शरीर
तो है ही
नहीं। मैं
कहीं और, और
शरीर इतने दूर
छूट गया है कि
मुझे उसका पता
भी नहीं चलता।
और दर्द था
शरीर में, बहुत
जगह तकलीफ थी,
इसलिए शरीर
का पता न चले, बहुत
मुश्किल बात
थी। मगर यह
साक्षी—भाव के
जन्म में
स्वाभाविक
है।
ऐसे
विदा होना कि
जागे हुए जाओ।
मृत्यु छीने शरीर, उसके पहले
तुम्हारा
जागरण इतना
सघन हो कि तुम खुद
ही शरीर से
दूर हो जाओ।
उन्होंने
मुझे दो बजे
खबर भेजी कि
मैं आ जाऊं, शायद यह मेरा
आखिरी दिन है।
ध्यान
की गहराई में
यह उन्हें साफ
हो गया होगा, समाधि की
अवस्था में यह
प्रत्यक्ष हो
गया होगा कि
अब इस शरीर
में टिके रहना
असंभव है; इससे
संबंध टूट गए,
इससे नाते
अलग हो गए।
और तीन
बजे फिर मुझे
खबर भेजी कि
नाहक आने का कष्ट
मत उठाना, कोई आने की
जरूरत नहीं
है।
इससे
मैं और भी खुश
हुआ। तुम
हैरान होओगे—क्यों? क्योंकि
मेरे प्रति
उनका जो आखिरी
लगाव था वह भी
छूट गया। उतनी
सी बाधा अटकन
बन सकती थी।
उनका बहुत
लगाव था। लगाव
उनका ऐसा था
जिसको तौला
नहीं जा सकता।
क्योंकि कभी
ऐसा हुआ है कि
कोई पिता अपने
बेटे का शिष्य
हुआ हो। लगाव
उनका ऐसा था, ऐसा
परिपूर्ण था!
मैं
गया देखने, क्योंकि यह
अपूर्व घटना
थी, कि
मुझे भी लग
रहा था कि
जाने की घड़ी
है करीब अब और
अब उनकी खबर
आना कि आने की
कोई जरूरत
नहीं, नाहक
कष्ट मत करना,
मैं बिलकुल
ठीक हूं—सिर्फ
इस बात की
सूचना थी कि
वह जो आखिरी
संबंध, वह
जो आखिरी लगाव
का पतला सा
धागा होगा, वह भी
समाप्त हो
गया। गया मैं
और देख कर
प्रसन्न लौटा
कि वे बिलकुल
और अवस्था में
थे। वे वही
नहीं थे जैसे
चार—पांच
सप्ताह पहले
अस्पताल गए थे,
तब थे।
ऐसा
अक्सर हो जाता
है कि अगर
शरीर बहुत
कमजोर हो तो
समाधि की घटना
को झेल नहीं
पाता।
क्योंकि समाधि
की घटना बड़ी
घटना है! जैसे
बूंद में सागर
उतर आए, कि
जैसे छोटे से
दीये में खुद
सूरज उतर आए!
यह घटना इतनी
बड़ी है और देह
उनकी इतनी
जराजीर्ण हो
गई थी कि इस
घटना को वे सह
नहीं सके। यह
आनंद इतना बड़ा
था कि सम्हाल
न सके।
स्वभाव
बहुत चिंतित
है—कि कहीं
हमसे कोई भूल
तो नहीं हो गई? स्वभाव ने
ठीक उनके विदा
होने के थोड़े
ही क्षण पहले
उन्हें कुछ
पीने को दिया
होगा। अब उसका
प्राण जल रहा
है कि कहीं
मैंने जो पीने
को उन्हें
दिया उसमें तो
कुछ भूल नहीं
हो गई? देना
था, नहीं
देना था?
नहीं
स्वभाव, चिंता
नहीं लेना।
तुम्हारे
पीने—पिलाने,
कुछ लेने—देने
से कुछ फर्क
नहीं पड़ने
वाला था। वह
जो सुबह घटना
घटी थी, इतनी
बड़ी थी, इतनी
जीर्ण—जर्जर
देह में वह
नहीं सम्हाली
जा सकती। उसे
तो पिंजड़ा
छोटा पड़ गया, पक्षी बड़ा
हो गया। पक्षी
को उड़ना ही
होगा, पिंजड़े
को छोड़ना ही
होगा। अंडा एक
दिन टूट जाता
है जब पक्षी
बड़ा हो जाता
है। जब मां के
गर्भ में बच्चा
परिपक्व हो
जाता है तो
गर्भ से बाहर
हो जाता है।
यह मृत्यु
नहीं, यह
महाजीवन का
प्रारंभ था।
इसलिए स्वभाव,
मन में कोई
पीड़ा न लेना।
किसी भूल—चूक
के कारण जरा
भी कुछ नहीं
हुआ है।
पाती
आई मोरे पीतम
की, साईं
तुरत बुलायो
हो।
इक
अंधियारी
कोठरी, दूजे
दिया न बाती।
पलटू
कहते हैं कि
ऐसे मत मरना
कि परमात्मा
की तो पाती आए, तुरत बुलावा
आए और
तुम्हारे घर
में अंधियारी कोठरी
हो, न दीया
हो, न बाती
हो; न
ध्यान, न
समाधि—और उस
प्यारे की
पुकार आ जाए!
बांह
पकरि जम ले
चले, कोई संग न
साथी।
जो
साक्षी है
उसको मृत्यु
को पकड़ कर ले
जाना नहीं
पड़ता। जो
साक्षी है
उसके तो अपने
पंख होते हैं; वह तो अपने
पंखों से उड़
कर जाता है।
जो साक्षी नहीं
है उसे मृत्यु
के दूत पकड़ कर
ले जाते हैं।
ये तो प्रतीक
हैं। उसे
खींचा जाता है
जबरदस्ती, क्योंकि
वह शरीर को
पकड़ता है। जो
साक्षी नहीं है
वह शरीर को
जोर से पकड़ता
है, छोड़ना
नहीं चाहता।
इसलिए मौत उसे
छीनती है, जबरदस्ती
छीनती है। जो
साक्षी है वह
तो तत्पर खड़ा
हो जाता है।
मौत आए, इसके
पहले उड़ने के
लिए पंख फैला
देता है। लेकिन
ध्यान रखना, ऐसा न हो कि
तुम्हें कहना
पड़े—
इक
अंधियारी
कोठरी, दूजे
दिया न बाती।
सावन
की
अंधियारिया, भादौं निज
राती।
भादों
की रात, सावन
की अंधियारी!
चौमुख
पवन झकोरही, धरकै मोरी
छाती।
और मैं
डरता हूं। मैं
इस अनंत
यात्रा पर
जाने से डरता
हूं—सावन की
अंधेरी, भादों
की रात! न दीया
है, न
बाती। बोध
नहीं, होश
नहीं। कहां
चला जा रहा
हूं, किस
यात्रा पर
निकला हूं, सब प्रियजन
पीछे छूट गए, अपना कोई
नहीं, सगा
नहीं, संगी
नहीं।
चौमुख
पवन झकोरही, धरकै मोरी
छाती।
और
मेरे प्राण
कंप रहे हैं, चारों तरफ
भयंकर पवन है!
चलना
तौ हमैं जरूर
है, रहना यहं
नाहीं।
यह तो
हमें मालूम
था। यह तो
हमें मालूम है
कि चलना तो है, रहना यहां
नहीं है।
चलना
तौ हमैं जरूर
है, रहना यहं
नाहीं।
का
लैके मिलब
हजूर से, गांठी
कछु नाहीं।।
लेकिन
आज पीड़ा हो
रही है कि अब
प्रभु के
सामने खड़े
होना होगा, कुछ भेंट करने
को भी पास
नहीं, गांठ
में कुछ भी
नहीं। न दीया,
न बाती।
खाली हाथ उसके
सामने झुकना
होगा! एक फूल
भी न ला सके
चेतना का! एक
कमल भी न खिला
सके चेतना का!
साक्षी—भाव भी
न ला सके कि
चढ़ा देते उसको
चरणों में कि जीवन
में तूने भेजा
था तो यह हम
सिखावन ले आए।
का
लैके मिलब
हजूर से, गांठी
कछु नाहीं।
पलटूदास
जग आइके, नैनन
भरि रोया।
जीवन
जनम गंवाय के, आपै से
खोया।।
अब तो
सिर्फ रोना ही
रोना मालूम
होगा, आंखों
में आंसू ही
आंसू। जीवन
व्यर्थ गया, जन्म व्यर्थ
गया। और अपने
से खोया! पीड़ा
और भी सघन।
किसी ने लूटा
नहीं, किसी
ने चुराया
नहीं—अपने से
खोया!
कै दिन
का तोरा जियना
रे, नर चेतु
गंवार।
पागलो, नासमझो, जागो!
कितने दिन का
जीना है?
काची
माटि कै घैला
हो, फूटत
नाहिं देर।
कच्ची
मिट्टी के घड़े
हो, फूटते
देर न लगेगी।
पके भी नहीं
हो। पकता तो वही
है जिसके भीतर
समाधि की
अग्नि पैदा
होती है।
काची
माटि कै घैला
हो, फूटत
नाहिं देर।
जरा सा
पानी पड़ेगा और
बह जाओगे, टुकड़े—टुकड़े
हो जाओगे।
पानी
बीच बतासा हो, लागै गलत न
देर।
पानी
में बताशा डाल
दो, क्षण भर
लगता है—है, यह रहा, यह
रहा, यह
गया! आने और
जाने में देर
नहीं लगती।
धूआं
को धौरेहर हो, बारू के
भीत।
जैसे
धुएं का शुभ्र
बादल या जैसे
रेत की बनाई गई
दीवार।
पवन
लगे झरि जैहे
हो, तृन ऊपर
सीत।
और
जैसे सुबह घास
की पत्तियों
पर जमी हुई ओस
की बूंद; जरा
सा पवन का
झोंका आएगा और
झर जाओगे।
प्यारे
प्रतीक! सीधे—साफ
प्रतीक!
जस
कागद कै कलई
हो, पाका फल
डार।
जैसे कागज
पर कलई कर दी
हो और लगे कि
सोना है, या
चांदी है। मगर
कागज कागज है।
या जैसे कोई कागज
की नाव में
बैठ कर और
सागर पार करने
चले। या जैसे
पका हुआ फल
वृक्ष की डाल
पर—अभी है, अभी
झर गया। ऐसा
जीवन है।
सपने
कै सुख
संपत्ति हो, ऐसो संसार।
यह
सारा
स्वप्नवत है
संसार। नाते—रिश्ते, सुख—समृद्धि,
यश—प्रतिष्ठा,
सत्कार—सम्मान,
सब सपना है।
मौत आती है, सब टूट जाता
है।
सपने
की परिभाषा
समझ लेना और
सत्य की भी।
ज्ञानियों ने
सपना उसे कहा
है, जो अभी है
और अभी न हो—जो
क्षण भर हो वह
सपना। और सत्य
उसे कहा है जो
शाश्वत है—जो
अभी है, पहले
भी था, पीछे
भी होगा। जो
तुम्हारे
जन्म के पहले
भी था और
तुम्हारी मौत
के बाद भी
होगा, उसे
पहचान लो तो
तुम्हारा
सत्य से संबंध
जुड़ा। और जो
जन्म में हुआ
और मृत्यु में
खो जाएगा, बस
तुमने बताशे
से पहचान की।
तुमने फिर
कागज की नाव
बनाई। फिर
तुमने यह
भरोसा कर लिया
कि सुबह की
रोशनी में
सूरज की
किरणों में
चमकती हुई ओस
की बूंद सदा
रहने वाली है।
और फिर जरा सा
हवा का झोंका
आया, कि एक
तितली उड़ गई, कि हिल गई
पत्ती, और
ओस की बूंद
सरक गई।
घने
बांस का
पिंजरा हो, तेहि बिच दस
हो द्वार।
जैसे
बांस का
पिंजरा बनाया
हो, ऐसी यह
देह है। इसलिए
हम अपने देश
में जब अरथी
ले जाते हैं
तो बांस पर ले
जाते हैं, बांस
की अरथी बनाते
हैं। सिर्फ
सूचक। ऊपर भी
बांस, नीचे
भी बांस। है
भी क्या हड्डी—मांस—मज्जा
में? प्राण
का पखेरू उड़
गया कि बांस
ही बांस है!
घने
बांस का
पिंजरा हो, तेहि बिच दस
हो द्वार।
इंद्रियों
के दस द्वार
हैं और घने
बांस का पिंजरा
है। ऐसी यह
देह है।
पंछी
पवन बसेरू हो, लावै उड़त न
बार।
और जो
पंछी
तुम्हारे
भीतर बसा है
वह तुम्हारी श्वास
का पंछी है, पवन का। कब
उड़ जाए, किस
क्षण उड़ जाए!
लावै उड़त न
बार!
आतसबाजी
यह तन हो, हाथे
काल के आग।
आज
नहीं कल यह
तुम्हारा
शरीर
आतिशबाजी की
तरह चिता पर
चढ़ा दिया
जाएगा।
एक झेन
फकीर मरा।
मरने के पहले
उसने अपने
शिष्यों से
कहा, एक काम
करो, एक
वायदा करो। जब
मैं मर जाऊं
तो मेरे कपड़े
मत उतारना।
मैं जैसा मरूं
वैसा ही मुझे
चिता पर चढ़ा
देना।
नियम
था परंपरागत कि
कपड़े उतारे
जाएं, स्नान
कराया जाए, फिर नये
कपड़े पहनाए
जाएं, फिर
चिता पर ले
जाया जाए।
लेकिन उस फकीर
ने कहा कि मत
फिक्र करना
नये कपड़े
पहनाने की और
मत फिक्र करना
स्नान की।
मेरे ऊपर धूल
है ही नहीं, इसलिए धोने
को कुछ भी
नहीं है। और
कपड़े तो कपड़े
हैं, सब
राख हो जाएंगे
क्षण भर में।
नये—पुराने की
चिंता मत
करना। और मैं
परमात्मा में
नहा लिया हूं,
इसलिए अब और
कोई नहलाने की
फिक्र मत
करना। और फिर
जब पंछी उड़ ही
गया तो किसको
नहला रहे हो!
इसलिए वायदा
करो कि मुझे, जैसा मैं
मरूं वैसा ही
मुझे चिता पर
चढ़ा दोगे।
गुरु
ने कहा तो
शिष्यों ने
वायदा किया।
रोते—रोते
वायदा किया।
फिर जब वायदा
किया था तो
पूरा भी करना
पड़ा। और जब
गुरु की लाश
चिता पर चढ़ाई गई, तब उन्हें
पता चला कि
गुरु का राज
क्या था। उसने
अपने कपड़ों के
भीतर
फुलझड़ियां—फटाके
छिपा रखे थे।
जैसे ही चिता
पर उसकी लाश चढ़ी,
फुलझड़ियां
फूटने लगीं, फटाके फूटने
लगे।
आतिशबाजी
शुरू हो गई।
यही वह जिंदगी
भर लोगों को
समझा रहा था
कि यह शरीर कुछ
है नहीं, बस
एक आतिशबाजी
है। इसे वह
अंततः भी कह
गया, मर कर
भी कह गया, मरने
के बाद भी कह
गया। मरते—मरते
भी अपनी बात
दोहरा गया, आखिरी छाप
छोड़ गया।
आतसबाजी
यह तन हो, हाथे
काल के आग।
पलटूदास
उड़ि जैवहु हो, जब देइहि
दाग।।
उड़ना
तो पड़ेगा ही।
यह देह तो दाग
दी जाएगी। उड़ने
के पहले क्यों
नहीं उड़ते? उड़ने के
पहले क्यों
नहीं पंख
फैलाते? उड़ने
के पहले क्यों
पहचान नहीं
करते पंछी की?
क्यों इस
पिंजड़े से
अपने को एक
मान कर बैठे
हो? तोड़ो
यह
तादात्म्य।
छोड़ो यह नाता।
देह में रहो, मगर जानो कि
देह नहीं हो।
मन में रहो, मगर पहचानो
कि मन नहीं
हो। जिस दिन
तुम जान लोगे,
न मैं देह
हूं न मन, उसी
दिन तुम जान
लोगे कि कौन
हो। अभी तो
तुमसे कोई
पूछे कौन हो, तो क्या
कहोगे? नाम
बता देते हो—राम,
हरि। नाम
तुम हो? नाम
लेकर आए थे? अनाम आए थे, अनाम जाओगे।
और कोई अगर
ज्यादा जिद
करे तो मुश्किल
हो जाती है।
मुझे
काम है
सरल
भाषा बोलना
सरल
भाषा बोलना
बहुत
कठिन काम है
जैसे
कोई पूछे
ठीक—ठीक
बोलो
तुम्हारा
क्या नाम है
और वह
बिना डरे बोल
जाए
तो
इनाम है।
कोई
पूछे तुमसे
एकदम से, पकड़
ले गर्दन कि
ठीक—ठीक बोलो,
तुम्हारा
क्या नाम है? तुम कहे जा
रहे हो कि
मेरा यह नाम, मेरा वह
नाम। और वह
कहे, ठीक—ठीक
बोलो, तुम्हारा
क्या नाम है?
और वह
बिना डरे बोल
जाए
तो
इनाम है।
डर तो
जाएगा, क्षण
भर को झिझक तो
जाएगा, क्योंकि
नाम तो कोई भी
तुम्हारा
नहीं है। और
पहचान तो तुम्हें
है ही नहीं
अपनी; दूसरों
ने जो जता
दिया, जो
लेबल लगा दिया,
वही पहचान
लिया कि हिंदू
हूं, कि
ब्राह्मण हूं,
कि मुसलमान
हूं; कि यह
मेरा नाम, कि
अब्दुल्ला, कि राम, कि
इमरसन; कि
यह मेरी जाति,
यह मेरा
गोत्र, यह
मेरा परिवार,
यह मेरा
देश। सब
सिखावन बाहर
से आई हुई है।
अपना
साक्षात्कार
कब करोगे?
टालो
मत! यही क्षण
हो सकता है, अभी हो सकता
है। नेति—नेति
की कला सीखो।
न मैं मन हूं—नेति;
न मैं तन
हूं—नेति। न
यह, न वह।
फिर मैं कौन
हूं? फिर
एक गहन बवंडर
की तरह प्रश्न
उठेगा—मैं कौन
हूं? सारे
तादात्म्यों
को तोड़ते
जाना। जो—जो
उत्तर मन दे, इनकार करते
जाना कि यह
मैं नहीं हूं।
और तब अंततः
बच रह जाता है
साक्षी—भाव—एक
दर्पण की तरह
निर्मल, साक्षी—जिसमें
सब झलकता है।
लेकिन जो भी
उसमें झलकता है,
दर्पण वही
नहीं है।
दर्पण तो
झलकाने वाला
है। दर्पण झलक
नहीं है; झलकाता
सब है और झलक
के साथ उसका
कोई तादात्म्य
नहीं है। ऐसा
तुम्हारा
साक्षी—भाव
है।
और
साक्षी ही
तुम्हारे
भीतर पंछी है।
उसे पहचान
लिया तो फिर
देह में रहो, संसार में
रहो, तो भी
तुम संसार के
बाहर हो। फिर
देह में रह कर भी
देह के बाहर हो।
तब तुम्हारे
जीवन में एक
प्रकाश होगा
और तुम्हारे
जीवन में एक
उल्लास होगा,
क्योंकि
तुम्हें अमृत
का अनुभव
होगा। फिर भय कहां!
फिर दुख कहां!
फिर पीड़ा कहां,
संताप कहां!
जिसने
स्वयं को जाना
उसने सब जाना।
जो स्वयं से
चूका वह सबसे
चूका। और
जिसने स्वयं
को जाना उसने
परमात्मा को
जाना।
क्योंकि
स्वयं की ही
गहराइयों में
उतरते—उतरते
तुम परमात्मा
का अनुभव कर
लोगे। और एक बार
अपने भीतर
परमात्मा दिख
जाए तो फिर सब
तरफ उसी का
विस्तार है।
फिर तिल भर
जगह नहीं है
जो उससे खाली
है।
आज
इतना ही।
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