क्रांति
की
आधारशिलाएं—(प्रवचन—छठवां)
प्रश्न-सार:
दिनांक 16 सितम्बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूनाप्रश्न-सार:
1—मेरा
खयाल है कि
आपके विचारों
में, आपके
दर्शन में वह
सामर्थ्य है,
जो इस देश
को उसकी
प्राचीन जड़ता
और रूढ़ि से मुक्त
करा कर उसे
प्रगति के पथ
पर आरूढ़ करा
सकती है।
लेकिन कठिनाई
यह है कि यहां
के बुद्धिवादी
और पत्रकार
आपको अछूत
मानते हैं और
आपके विचारों
को व्यर्थ
प्रलाप बताते
हैं। इससे बड़ी
निराशा होती
है। कृपा कर
मार्गदर्शन
करें।
2—आप
तो कहते हैं, हंसा
तो मोती चुगै।
लेकिन आज तो
बात ही दूसरी है।
आज का वक्त तो
कहता है: हंस
चुनेगा दाना
घुन का, कौआ
मोती खाएगा।
और इसका
साक्षात
प्रमाण है
तथाकथित
पंडित-पुरोहितों
को मिलने वाला
आदर-सम्मान और
आप जैसे मनीषी
को मिलने वाली
गालियां।
पहला
प्रश्न:
भगवान!
मेरा खयाल है
कि आपके
विचारों में, आपके
दर्शन में वह
सामर्थ्य है,
जो इस देश
को उसकी
प्राचीन जड़ता
और रूढ़ि से मुक्त
करा कर उसे
प्रगति के पथ
पर आरूढ़ करा
सकती है।
लेकिन कठिनाई
यह है कि यहां
के
बुद्धिवादी
और पत्रकार
आपको अछूत
मानते हैं और
आपके विचारों
को व्यर्थ
प्रलाप बताते
हैं। इससे बड़ी
निराशा होती
है। कृपा कर
मार्गदर्शन
करें।
कल्याणचंद्र
जायसवाल! यह
स्वाभाविक
है। बुद्धिवादी
जिसे हम कहते
हैं वह
ब्राह्मण का
नया रूप है। ब्राह्मण
अर्थात
पुराने
बुद्धिवादी; बुद्धिवादी
यानी नये
ब्राह्मण। और
ब्राह्मण तो
परंपरा की
रक्षा करेगा।
ब्राह्मण का
तो सारा
न्यस्त
स्वार्थ
परंपरा में
छिपा है। परंपरा
के बल पर ही तो
उसकी
बुद्धिमत्ता
है। उसकी
बुद्धिमत्ता
निजता की नहीं
है; वह कोई
बुद्ध नहीं
है। उसका
अनुभव मौलिक
नहीं है। उसने
स्वयं जाना
नहीं, देखा
नहीं, पहचाना
नहीं; वह
तो कागद की
लिखी कह रहा
है, आंखों
की देखी नहीं।
तो
शास्त्र, परंपरा,
रूढ़ि, इनके
विरोध में वह
हो नहीं सकता।
वह तो इनका ही
प्रचारक होगा,
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष।
यही तो उसके
जीवन-आधार
हैं।
हां, कभी-कभी
वह तमाशा भी
करता है
परंपरा-मुक्त
होने का, क्रांतिकारी
होने का।
लेकिन उसकी
क्रांतिकारिता,
उसकी
परंपरा-मुक्ति,
उसका
रूढ़ि-विरोध, सब थोथा और
ऊपरी-ऊपरी
होता है। वह
पुराने पर नई
व्याख्याएं
आरोपित कर देता
है। शराब तो
पुरानी ही
होती है, नई
बोतलें
मुहैया कर
देता है, लेबल
बदल देता है।
बीमारियां
पुरानी हैं, लेकिन नये
लेबलों से और
कुछ देर चल
जाती हैं। उसकी
क्रांति
क्रांति नहीं
होती; क्रांति
के होने में
बाधा होती है।
इसीलिए
तो भारत में
पांच हजार
वर्षों में कोई
क्रांति नहीं
हो सकी। कारण? भारत
के पास
बुद्धिवादियों
की बड़ी जमात
है, जो
हमेशा झूठी
क्रांति पैदा
कर देते हैं।
और जब झूठी
क्रांति पैदा
हो जाती है तो
सच्ची क्रांति
की बात भूल
जाती है। जब
फिर लोग जागते
हैं और सच्ची
क्रांति की
तलाश करते हैं,
तब हम
उन्हें फिर
घुनघुने, खिलौने
पकड़ा देते
हैं। और
बुद्धिवादी
बड़े बौद्धिक
ढंग से अपनी
बात की
प्रस्तावना
करता है। उसकी
प्रस्तावना
तर्कपूर्ण
होती है। और
सत्य अतक्र्य
है। सत्य का
निवेदन हो
सकता है, लेकिन
सत्य का कोई
प्रमाण नहीं
हो सकता। सत्य
का प्रमाण तो
व्यक्ति की
आत्मा में
होता है, उसके
तर्कों में
नहीं।
लेकिन
आत्माओं को
देखने वाली
आंखें कितनी
हैं?
तर्क को
समझने में सभी
लोग कुशल हैं,
कमोबेश।
इसलिए
बुद्धिवादी
छाया रहा है, ब्राह्मण का
राज्य रहा है।
और ऐसा मत
सोचना कि
बुद्धिवादी
मेरे ही विरोध
में है या
मुझे ही अछूत
समझता है; उसने
बुद्ध को भी
अछूत समझा, उसने महावीर
को भी अछूत
समझा। भारत के
इतिहास में ये
दो अदभुत
क्रांतिकारी
हुए हैं।
ब्राह्मण
उनके भी विरोध
में था। वह उन
दिनों का बुद्धिवादी
था--शास्त्रों
का रक्षक था, शब्दों का
धनी था, उपनिषद
और वेद उसे
कंठस्थ थे, भाषा पर
उसका अधिकार
था, तर्क
में उसकी
निष्ठा थी। आज
हम उसे
ब्राह्मण नहीं
कहते, सिर्फ
नाम बदल गया
है; अब हम
उसे
बुद्धिवादी
कहते हैं।
इसलिए
कल्याणचंद्र, तुम्हें
अड़चन होती है
कि
बुद्धिवादी
क्यों मुझे
अछूत समझता है?
बुद्धिवादी
मुझे अछूत न
समझे तो मैं
चौंकूंगा।
बुद्धिवादी
मेरा विरोध न
करे तो मुझे
चिंता होगी।
उसका अर्थ होगा
कि मेरी बात
अर्थहीन है।
नहीं तो सबसे
पहले
बुद्धिवादी
विरोध में खड़ा
होता है।
क्योंकि सबसे
पहले उसे ही
समझ में आता
है कि फिर कोई व्यक्ति
मौजूद हो गया
जो रूढ़ि की और
परंपरा की
जड़ें काट
देगा। और लोग
तो बाद में समझेंगे, देर
में समझेंगे;
बुद्धिवादी
समझाएगा तब
समझेंगे।
लेकिन बुद्धिवादी
बहुत सचेत है,
वह जाग कर
चारों तरफ
देखता रहता
है--कोई उसकी संपदा
तो लूटने नहीं
आ गया? और
स्वभावतः लोग
उसकी सुनते
हैं, क्योंकि
लोग सोचते हैं
वह जानता है।
वह
नहीं जानता, कुछ
भी नहीं जानता।
उपनिषद
में एक प्यारी
कथा है।
श्वेतकेतु
गुरुकुल से घर
वापस
लौटा--सारे
शास्त्रों का
ज्ञान पाकर।
गुरुकुल में
जो भी उपलब्ध
था,
सब में
प्रथम कोटि
में वह
उत्तीर्ण हुआ
था। स्वभावतः
अकड़ा हुआ आया।
बुद्धिवादी
से ज्यादा
अहंकार सिर्फ
साधु-महात्मा
में होता है।
नंबर दो पर
बुद्धिवादी
का अहंकार है।
साधु-महात्मा
में थोड़ा
ज्यादा होता
है,
क्योंकि वह
बुद्धिवादी
होता है और
धन-त्याग। पंडित
और धन-त्याग।
तो थोड़ा उसका
अहंकार और भी
प्रगाढ़ हो
जाता है।
श्वेतकेतु
अकड़ा हुआ आया।
युवा था, शास्त्रों
का अंबार सिर
पर लेकर आया
था। सब परीक्षाओं
में
स्वर्ण-पदक
लेकर आया था।
बड़ा सम्मान
लेकर लौटा था।
उसके पिता
उद्दालक ने
द्वार से देखा
दूर से
श्वेतकेतु को
आते हुए--उसकी
अकड़ और
अहंकार। पिता
को तो बहुत
पीड़ा हुई, क्योंकि
इसलिए तो उसे
गुरुकुल नहीं
भेजा था। गुरुकुल
भेजा था कि
ज्ञानी होकर
लौटेगा। और वह
तो अज्ञानी का
अज्ञानी वापस
आ रहा है! जानकारी
से भर गया है।
जानकारी के
पहाड़ लेकर आ
रहा है। लेकिन
जानकारी से
कोई ज्ञानी
थोड़े ही होता
है! जानकारी
झूठा सिक्का
है, उधार
है, बासी
है, अपनी
नहीं है, परायी
है। पिता तो
चिंतित हुआ।
उसकी आंख से
दो आंसू टपक
गए। श्वेतकेतु
आया, चरणों
में झुका; लेकिन
बस शरीर ही
झुका। पिता
गौर से देख
सका कि उसका
प्राण नहीं
झुका है, क्योंकि
मन में तो वह
यह जानता है
कि अब मैं अपने
पिता से भी
ज्यादा जानता
हूं।
उद्दालक
ने पूछा, बेटे,
इतनी अकड़
क्यों?
श्वेतकेतु
ने कहा, अकड़!
अकड़ नहीं है
यह। गुरुकुल
में जो भी
उपलब्ध था, वह सारी
संपदा, वह
सारा ज्ञान
लेकर आ रहा
हूं। आपको
प्रसन्न होना
चाहिए, आप
उदास क्यों
दिखते हैं?
उद्दालक
ने कहा, क्या
एक प्रश्न
पूछूं? तूने
वह एक जाना
जिसे जानने से
सब जान लिया
जाता है, या
नहीं?
श्वेतकेतु
ने कहा, वह एक
जिसे जानने से
सब जान लिया
जाता है? इसकी
तो कोई चर्चा
ही नहीं उठी।
यह तो हमारे पाठयक्रम
में भी नहीं
था। भूगोल पढ़ी,
इतिहास पढ़ा,
पुराण पढ़ा,
व्याकरण, भाषा, वेद;
मगर वह एक!
किस एक की बात
कर रहे हैं?
उद्दालक
ने कहा, स्वयं
को जाना? उसी
एक की बात कर
रहा हूं। और
जिसने स्वयं
को नहीं जाना
उसका सब जानना
व्यर्थ है। और
जिसने स्वयं
को जाना उसने
कुछ भी न जाना
हो तो भी सब
जान लिया। तू
वापस जा।
हमारे परिवार
में पैदाइश से
ब्राह्मण
होना स्वीकृत
नहीं रहा है।
हमारे
बाप-दादाओं की
आत्माएं
रोएंगी तुझे देख
कर। हमारे
परिवार में तो
हम अनुभव से
ब्राह्मण
होते रहे हैं,
जानकारी से
नहीं और न
जन्म से।
ब्रह्म को जान
कर ब्राह्मण
होते रहे हैं,
ब्रह्म के
संबंध में जान
कर नहीं। तू
वापस जा। जब
तक ब्रह्म को
न जान ले तब तक
लौट कर मत
आना। ब्राह्मण
होकर ही
लौटना।
ब्राह्मण के
सच्चे अर्थों
में ब्राह्मण
होकर लौटना।
एक
बौद्धिकता है
और एक
बुद्धत्व।
बौद्धिकता जानकारी
है। बुद्धत्व
ज्ञान है। और
बौद्धिक व्यक्ति
सदा ही
बुद्धों के
विपरीत रहेगा, क्योंकि
उसे खतरा ही
बुद्धों से
है। बुद्धों के
सामने ही उसे
अपनी दीनता का
बोध होता है।
उनकी मौजूदगी
उसे खलती है।
आखिर
देखते हैं न, तथाकथित
ब्राह्मणों
ने बुद्ध को
इस भारत से उखाड़
ही फेंका। इस
देश में टिकने
ही नहीं दिया।
और इससे
ज्यादा अछूत
मानना क्या
होगा! कम से कम
अछूतों को तो
टिकने दिया है,
हैं तो!
बौद्धों को तो
टिकने ही नहीं
दिया। क्योंकि
ब्राह्मणों
के पूरे
व्यवसाय पर
चोट पड़ी जाती
थी, ब्राह्मणों
के पैर उखड़ने
लगे थे। या तो
बुद्ध या
ब्राह्मण; दोनों
साथ-साथ नहीं
रह सकते थे।
बुद्ध तो ऐसे हैं
जैसे प्रकाश।
अब प्रकाश के
साथ अंधेरा कैसे
रहेगा?
और
अंधों में
काने राजा हो
जाते हैं।
लेकिन जब दो
आंख वाला आदमी
हो! और दो आंख
वाले ही नहीं
होते बुद्ध, बुद्ध
तीन आंख वाले
होते हैं, क्योंकि
तीसरा नेत्र
भी खुला होता
है। तो तीन आंख
वालों के
सामने कानों
को कौन पूछेगा?
और जिनको
तुम ब्राह्मण
और
बुद्धिवादी
कहते हो, काने
भी नहीं हैं, अंधे हैं।
सिर्फ धोखा दे
रहे हैं खुद
को और दूसरों
को। न जाना है,
न पहचाना है--और
जनाने में लग
गए हैं, लोगों
को समझाने में
लग गए हैं!
समझाने
का भी एक मजा
होता है, एक
अहंकार होता
है। जब भी तुम
दूसरे को कुछ
समझाते हो तब
इसकी चिंता
नहीं लेते कि
मैं भी समझा
हूं या नहीं।
दूसरे को
समझाना अपने
आप में ही
इतना मजे से
भरा हुआ है, इतना रसपूर्ण
है, कि कौन
फिक्र करता है
कि मैं समझा
या नहीं! जब भी
तुम दूसरे को
समझाते हो, दूसरा
अज्ञानी हो
जाता है, तुम
ज्ञानी।
रूस का
बहुत बड़ा
गणितज्ञ
आस्पेंस्की, एक
अदभुत फकीर
गुरजिएफ के
पास गया।
आस्पेंस्की
विश्वविख्यात
था। उसकी
किताबें
दुनिया की
चौदह भाषाओं
में अनुवादित
हो चुकी थीं।
और उसने एक
ऐसी अदभुत
किताब लिखी थी
कि कहा जाता
है कि दुनिया
में वैसी केवल
तीन किताबें
लिखी गई हैं।
पहली किताब
अरिस्टोटल ने
लिखी थी। उस
किताब का नाम
है: आर्गानम, ज्ञान
का सिद्धांत।
दूसरी किताब
बेकन ने लिखी,
उसका नाम
है: नोवम
आर्गानम, ज्ञान
का नया
सिद्धांत। और
तीसरी किताब
पी.डी.आस्पेंस्की
ने लिखी:
टर्शियम
आर्गानम, ज्ञान
का तीसरा
सिद्धांत।
कहते हैं इन
तीन किताबों
के मुकाबले
दुनिया में और
किताबें नहीं।
और बात में
सचाई है।
मैंने तीनों
किताबें देखी
हैं। बात में
बल है। ये तीन
किताबें
अदभुत हैं। और
आस्पेंस्की
ने तो हद्द कर
दी! उसने किताब
के प्रथम
पृष्ठ पर ही
यह लिखा है कि
पहला सिद्धांत
और दूसरा
सिद्धांत जब
पैदा भी नहीं
हुए थे, तब
भी मेरा तीसरा
सिद्धांत
मौजूद था।
मेरा तीसरा
सिद्धांत उन
दोनों से
ज्यादा मौलिक
है। और इसमें
भी बल है। यह
बात भी झूठी
नहीं है, कोरा
दंभ नहीं है।
इस बात में
सचाई है।
आस्पेंस्की
की किताब बेकन,
अरस्तू
दोनों को मात
कर देती है।
दोनों को बहुत
पीछे छोड़ देती
है।
ऐसा
प्रसिद्ध
गणितज्ञ
गुरजिएफ को
मिलने आया। और
गुरजिएफ ने
पता है उससे
क्या कहा! एक
नजर उसकी तरफ
देखा, उठा कर
एक कागज उसे
दे दिया--कोरा
कागज--और कहा, बगल के कमरे
में चले जाओ।
एक तरफ लिख दो
जो तुम जानते
हो--ईश्वर, आत्मा,
स्वर्ग, नरक--जो
भी तुम जानते
हो, एक तरफ
लिख दो। और
दूसरी तरफ, जो तुम नहीं
जानते हो। फिर
मैं तुमसे बात
करूंगा। उसके
बाद ही बात
करूंगा।
बुद्धिवादियों
से मेरे मिलने
का यही ढंग
है।
हतप्रभ
हुआ
आस्पेंस्की।
ऐसे स्वागत की
अपेक्षा न थी, यह
कैसा स्वागत!
नमस्कार नहीं,
बैठो, कैसे
हो, कुशलता-क्षेम
भी नहीं पूछी।
उठा कर कागज
दे दिया और
कहा--बगल के
कमरे में चले
जाओ! सर्द रात
थी, बर्फ
पड़ रही थी। और
आस्पेंस्की
ने लिखा है, मेरे जीवन
में मैं पहली
बार इतना
घबड़ाया। उस आदमी
की आंखों ने
डरा दिया! उस
आदमी के कागज
के देने ने
डरा दिया! और
जब मैं कलम और
कागज लेकर बगल
के कमरे में
बैठा सोचने
पहली दफा जीवन
में--कि मैं
क्या जानता
हूं? तो
मैं एक शब्द
भी न लिख सका।
क्योंकि जो भी
मैं जानता था
वह मेरा नहीं
था। और इस
आदमी को धोखा
देना मुश्किल
है। मैंने जो
किताबें लिखी
हैं, वे और
किताबों के
आधार पर लिखी
थीं; उनको
मांजा था, संवारा
था, मगर वे
किताबें मेरे
भीतर
आविर्भूत
नहीं हुई थीं।
वे फूल मेरे
नहीं थे; वे
किसी बगीचे से
चुन लाया था।
गजरा मैंने
बनाया था, फूल
मेरे नहीं थे।
एक फूल मेरे
भीतर नहीं
खिला।
आस्पेंस्की
ने लिखा है कि
मैं पसीने से
तरबतर हो गया;
बर्फ बाहर
पड़ रही थी और
मुझसे पसीना
चू रहा था! मैं
एक शब्द न लिख
सका। वापस लौट
आया घंटे भर बाद।
कोरा कागज
कोरा का कोरा
ही गुरजिएफ को
लौटा दिया और
कहा कि मैं
कुछ भी नहीं
जानता हूं। आप
यहीं से शुरू
करें--यह मान
कर कि मैं कुछ
भी नहीं जानता
हूं।
गुरजिएफ
ने पूछा, तो
फिर इतनी
किताबें
क्यों लिखीं?
कैसे लिखीं?
आस्पेंस्की
ने कहा, अब उस
दुखद प्रसंग
को न उठाएं।
अब मुझे और
दीन न करें, और हीन न
करें। क्षमा
करें। मैं होश
में नहीं था।
मैं बेहोशी
में लिख गया।
वह मेरे
पांडित्य का
प्रदर्शन था।
लेकिन आपके पास
ज्ञान के लिए
आया हूं, झोली
फैलाता हूं
भिखमंगे की।
एक अज्ञानी की
तरह आया हूं।
गुरजिएफ
ने कहा, तो
फिर कुछ हो
सकेगा। फिर
क्रांति हो
सकती है।
कल्याणचंद्र, मेरे
पास जो अज्ञानी
की तरह आते
हैं उनके ही
जीवन में
क्रांति हो
सकती है, क्योंकि
ज्ञान का पहला
सूत्र है अपने
अज्ञान को
अंगीकार
करना। और
तुम्हारे
तथाकथित बुद्धिवादी,
तथाकथित
बौद्धिक लोग
अपने अज्ञान
को स्वीकार
नहीं कर सकते,
यही अड़चन
है। उन्हें
यहां आने में
भी अड़चन है।
लेकिन यह बात
भी उन्हें
छिपानी पड़ती
है कि वे यहां
आ नहीं सकते
हैं। इसलिए
उन्हें हजार
बहाने खोजने
पड़ते हैं कि
वे यहां क्यों
नहीं आते--यहां
कुछ है ही
नहीं, प्रलाप
है! न मुझे
सुना है, न
मुझे समझा है;
जो मैं कह
रहा हूं, वह
उन्हें पागल
का प्रलाप
मालूम होता
है। ये आत्मरक्षा
के उपाय हैं।
इस तरह वे
अपने को यहां
आने से बचाते
हैं। यहां कभी
भूले-चूके कोई
बुद्धिवादी आ
भी जाता है तो
मुझे सुन भी
नहीं पाता, क्योंकि
उसके सिर में
न मालूम कितना
ऊहापोह चलता
रहता है! जब वह
मुझे सुन रहा
है तब वह
सुनता नहीं, तौलता रहता
है--कौन सी बात
उससे मेल खाती
है, कौन सी
मेल नहीं खाती;
कौन सी ठीक
है, कौन सी
गलत। जैसे उसे
पता ही है कि
गलत क्या और ठीक
क्या! जैसे
उसके पास
कसौटी है!
बुद्धिवादी
मुझे पत्र
लिखते हैं, तो
कुछ पूछने को
नहीं, सलाह
देने को--कि आप
अगर ऐसा न
कहते तो ठीक
होता; आप
अगर ऐसा न करते
तो ठीक होता; आप अगर ऐसा
करें तो बहुत
लाभ होगा।
जो
यहां अज्ञानी
की तरह आएगा, उसके
ही पात्र में
मैं उंडेल
सकता हूं।
लेकिन जो
ज्ञानी की तरह
आया है, उसका
पात्र तो भरा
हुआ है--पहले
से ही भरा हुआ
है, उसमें
रंचमात्र भी
जगह नहीं है।
झेन
फकीर बोकोजू
से मिलने विश्वविद्यालय
का एक बहुत
प्रतिष्ठित
प्रोफेसर
आया। बोकोजू
के झोपड़े तक, पहाड़ी
पर दूर बने
झोपड़े तक उसने
लंबी यात्रा की।
थका-मांदा, पसीने से
तरबतर जब वह
झोपड़ी में
पहुंचा तो उसने
पूछा, मैं
जानना चाहता
हूं, क्या
ईश्वर है?
बोकोजू
ने कहा, बैठें,
थोड़ा
सुस्ता लें।
मैं थोड़ा पंखा
झल दूं, थोड़ा
पसीना सूख
जाए। पहाड़ पर
चढ़ कर आप थक गए
हैं। और जल्दी
से आपके किए
एक कप चाय बना
लाऊं, चाप
पी लें। फिर
विश्राम से
बात हो। ईश्वर
की बात इतनी
जल्दी नहीं।
काहे होत
अधीर!
प्रोफेसर
ने तो सोचा भी
नहीं था कि
बोकोजू जैसा
महर्षि चाय
बनाएगा उसके
लिए! लेकिन वह
गया। बोकोजू
ने चाय बनाई।
फिर चाय लाया।
प्याली
प्रोफेसर के
हाथ में दी।
केतली से चाय
ढालनी शुरू की, प्याली
भर गई और
बोकोजू चाय
ढालता ही गया।
कप भर गया, बसी
भी भर गई, फिर
भी बोकोजू चाय
ढालता ही गया।
तब प्रोफेसर चिल्लाया
कि रुको! तुम
होश में हो या
पागल! अब सारे
फर्श पर चाय
फैल जाएगी। अब
मेरी प्याली
में एक बूंद
भी चाय को
रखने की जगह नहीं
है।
बोकोजू
ने कहा, समझदार
आदमी हो। मैं
तो सोचा कि
सिर्फ प्रोफेसर
हो। लेकिन तुम
में कुछ समझ
शेष है। तो
इतनी बात
तुम्हें समझ
में आती है कि
प्याली में और
चाय नहीं ढाली
जा सकती, क्योंकि
प्याली भरी
हुई है। मैं
तुमसे पूछता हूं,
जरा आंख बंद
करके देखो, तुम्हारी
खोपड़ी भरी हुई
है या नहीं? अगर भरी है
तो मैं उसमें
कुछ ढाल नहीं
सकता। खोपड़ी
को खाली करके
आओ। या रुको
यहां मेरे पास,
खोपड़ी को
खाली करने के
उपाय हैं।
जैसे
खोपड़ी को भरने
के उपाय
हैं...विश्वविद्यालय
यही काम करता
है--खोपड़ी को
भरने के उपाय।
सदगुरु का
सत्संग इससे
उलटा काम करता
है--खोपड़ी को
खाली करने का
उपाय।
ध्यान
और क्या है? प्रार्थना
और क्या है? पूजा-अर्चना
और क्या है? साधना-उपासना
और क्या है? तुम्हारा
सिर खाली हो
जाए, रिक्त
हो जाए, शून्य
हो जाए।
तुम्हारा
पात्र इतना
शून्य हो जाए
कि उसमें कुछ
भरा जा सके।
जब
बौद्धिक
व्यक्ति यहां
आते हैं तो
उनका सिर इतना
भरा होता है, वहां
पहले से ही
इतनी भीड़-भाड़
है, इतना
ऊहापोह है, इतने विचार
हैं--वहां
मेला पहले से
ही भरा है! एक
विचार को भी
उनके भीतर
प्रवेश करा
देना कठिन है,
असंभव है।
एक तो भीड़ के
कारण कोई नया
विचार प्रवेश
नहीं कर सकता
और अगर प्रवेश
कर भी जाए तो भीड़
में खो जाएगा।
अगर न भी खोए, किसी तरह
बचा ले अपने
को, तो भीड़
का रंग, भीड़
का ढंग, वह
जो भीतर के
विचार हैं
उनके द्वारा
व्याख्याएं
इस नये विचार
पर आरोपित कर
दी जाएंगी।
बुद्धिवादी
समझ नहीं
पाता। कभी
नहीं समझा। जीसस
से जो लोग
नाराज थे वे
कौन थे? वे उस
समय के
बुद्धिवादी
लोग थे। और
सॉक्रेटीज को
जिन्होंने
जहर दिया था
वे कौन थे? उस
समय के
बुद्धिवादी
लोग थे।
कल्याणचंद्र, जो
मेरे साथ हो रहा
है वह
स्वाभाविक है,
अपेक्षित
है। उससे मैं
आश्चर्यचकित
नहीं हूं।
होना ही था, होना ही
चाहिए। इसी
तरह
बुद्धिवादियों
ने बुद्धों का
सदा सम्मान
किया है। यह
उनके सम्मान का
ढंग है। यह हम
पहचानते हैं।
इन्हें हम
फूलमालाएं
समझते हैं। यह
उनकी स्वागत
की विधि है।
और
तुमने पूछा कि
बुद्धिवादी
और पत्रकार
भी...
पत्रकार
की तो और भी
अड़चन है।
पत्रकार तो
जीता ही गलत
पर है।
पत्रकार का
सत्य से कोई
लेना-देना
नहीं है।
पत्रकार तो
जीता असत्य पर
है,
क्योंकि
असत्य लोगों
को रुचिकर है।
अखबार में लोग
सत्य को खोजने
नहीं जाते, अफवाहें खोजने
जाते हैं।
तुम्हें शायद
पता हो या न हो
कि स्वर्ग में
कोई अखबार
नहीं निकलता।
कोई ऐसी घटना
ही नहीं घटती
स्वर्ग में जो
अखबार में छापी
जा सके। नरक
में बहुत
अखबार निकलते
हैं, क्योंकि
नरक में तो
घटनाएं ही
घटनाएं हैं।
एक बार
एक पत्रकार
मरा और स्वर्ग
पहुंच गया।
द्वार पर
दस्तक दी।
द्वारपाल ने
द्वार खोला और
पूछा कि क्या
चाहते हैं? उसने
कहा, मैं
पत्रकार हूं
और स्वर्ग में
प्रवेश चाहता हूं।
द्वारपाल
हंसा और उसने
कहा कि असंभव!
तुम्हारे लिए
ठीक-ठीक जगह
तो नरक में
है। तुम्हारा
काम भी वहीं
है। तुम्हें
रस भी वहीं
आएगा। तुम्हारा
व्यवसाय वहीं
फलता है। यहां
तो सिर्फ, नरक
से हम पीछे न
पड़ जाएं, इसलिए
चौबीस जगह
खाली रखी हैं
अखबार वालों
के लिए। मगर
वे कब की भरी
हैं। चौबीस
अखबार वाले हमारे
यहां हैं।
हालांकि वे भी
सब बेकार हैं।
अखबार छपता
नहीं। एक कोरा
कागज रोज
बंटता है, ऋषि-मुनि
उसको पढ़ते
हैं। ऋषि-मुनि
कोरे कागज ही
पढ़ सकते हैं, क्योंकि
कोरा मन और
क्या पढ़ेगा!
अखबार में छपने
योग्य घटना
यहां घटती
नहीं।
जॉर्ज
बर्नार्ड शॉ
ने कहा है, कुत्ता
अगर आदमी को
काटे तो यह
कोई समाचार
नहीं है। आदमी
जब कुत्ते को
काटे तो यह
समाचार है।
नरक
में खूब समाचार
हैं,
वहां आदमी
कुत्तों को
काटते हैं। और
अखबार वालों
को अगर न मिले
ऐसा आदमी जो
कुत्तों को
काटता हो, तो
उसे ईजाद करना
होता है, नहीं
तो अखबार मर
जाए। उसका
आविष्कार
करना होता है,
नहीं तो
अखबार नहीं जी
सकता।
द्वारपाल
ने कहा, यहां
बेकार समय
खराब करोगे। तुम्हारा
मन भी न
लगेगा। नरक
चले जाओ, वहां
रोज-रोज नये
अखबार निकलते
ही चले जाते
हैं। सुबह का
संस्करण भी
निकलता है, दोपहर का
संस्करण भी, सांझ का भी
संस्करण, रात्रि
का भी
संस्करण।
खबरें इतनी
हैं वहां! घटनाओं
पर घटनाएं
घटती हैं।
स्वर्ग में
कोई घटना थोड़े
ही घटती है।
महावीर बैठे
अपने वृक्ष के
नीचे, बुद्ध
बैठे अपने
वृक्ष के नीचे,
मीरा नाचती
रहती है अपने
वृक्ष के
नीचे। छापने
को क्या है? कुछ नया
वहां होता
नहीं।
लेकिन
अखबार वाला
इतनी आसानी से
भाग तो नहीं जाता, इतनी
जल्दी से
हटाया भी नहीं
जा
सकता--पुरानी आदतें!
उसने कहा, चौबीस
घंटे का अवसर
तो दो। अगर
मैं किसी और
अखबार वाले को
जाने के लिए
नरक राजी कर
लूं, तो
मुझे जगह दे
सकोगे?
द्वारपाल
ने कहा, तुम्हारी
मर्जी, अगर
कोई राजी हो
जाए। चौबीस
घंटे का
तुम्हें मौका
है, भीतर
चले जाओ।
उस
अखबार वाले ने, जो
वह जिंदगी भर
करता रहा था, जिसमें कुशल
था, वही
काम किया।
उसने जो मिला
उसी से कहा कि
अरे सुना
तुमने! नरक
में एक बहुत
बड़े अखबार के
निकलने की
आयोजना चल रही
है। प्रधान
संपादक, उपप्रधान
संपादक, संपादक,
सब की जगह
खाली है। बड़ी
तनख्वाहें, कारें, बंगले,
सब का
इंतजाम है।
सांझ
होतेऱ्होते
उसने चौबीसों
अखबार वालों
को मिल कर यह
खबर पहुंचा
दी। चौबीस
घंटे पूरे
होने पर वह
द्वार पर पहुंचा।
द्वारपाल ने
कहा कि गजब कर
दिया भाई तुमने!
एक नहीं चौबीस
ही चले गए! अब
तुम मजे से
रहो।
उसने
कहा,
मैं भी जाना
चाहता हूं।
तुम
किसलिए जाना
चाहते हो?
उसने
कहा,
कौन जाने
बात में सचाई
हो ही!
झूठ
में एक गुण
है। चाहे तुम
ही उसे शुरू
करो,
लेकिन अगर
दूसरे लोग उस
पर विश्वास
करने लगें तो
एक न एक दिन
तुम भी उस पर
विश्वास कर
लोगे। जब
दूसरों को तुम
विश्वास करते
देखोगे, उनकी
आंखों में
आस्था जगती
देखोगे, तुम्हें
भी शक होने
लगेगा: कौन
जाने, हो न
हो सच ही हो
बात! मैंने तो
झूठ की तरह
कही थी, लेकिन
हो सकता है, संयोगवशात
मैं जिसे झूठ
समझ रहा था वह
सत्य ही रहा
हो! मेरे
समझने में भूल
हो गई हो।
क्योंकि चौबीस
आदमी कैसे
धोखा खा सकते
हैं? उसने
कहा कि नहीं
भाई, अब
मैं रुकने
वाला नहीं।
पहले तो मुझे
नरक जाने ही
दो।
स्वर्ग
में अखबार
नहीं निकलता, क्योंकि
घटना नहीं
घटती। शांत, ध्यानस्थ, निर्विकल्प
समाधि में
बैठे हों लोग
तो क्या है
वहां घटना?
अखबार
तो जीता है
उपद्रव पर।
जितना उपद्रव
हो उतना अखबार
जीता है। जहां
उपद्रव नहीं
है वहां भी
अखबार वाला
उपद्रव खोज
लेता है। जहां
बिलकुल खोज
नहीं पाता वहां
ईजाद कर लेता
है।
अभी
कुछ ही दिन
पहले मेरे पास
पंजाब से एक
पत्रिका आई।
पत्रकार ने
लिखा है कि वह
पंद्रह दिन इस
आश्रम में रह
कर गया है।
यह
सरासर झूठ है।
क्योंकि
पंद्रह दिन
आश्रम में रह
कर जाए, किसी
को पता नहीं!
कैसे पंद्रह
दिन कोई आश्रम
में रह कर
जाएगा! और जो
उसने लिखा है
वह साफ जाहिर
करता है कि वह
आदमी आश्रम
में तो क्या
पूना भी कभी
नहीं आया है।
उसने
लिखा है कि
आश्रम पंद्रह
वर्गमील
स्थान पर फैला
हुआ है।
पंद्रह
वर्गमील तो
शायद पूना भी
नहीं है।
"आश्रम
में बड़ी-बड़ी
झीलें
हैं--मीलों
लंबी, जिन
पर हजारों
संन्यासी
नग्न स्नान
करते हैं।
कृत्रिम
जलप्रपात
हैं।'
हां, एक
कृत्रिम
जलप्रपात है
छोटा सा, दो
फीट ऊंचा, उसमें
चार-छह
मछलियां नग्न
घूमती हैं
जरूर। और उनका
रंग गैरिक है,
यह बात सच
है। पानी एक
फीट से ज्यादा
गहरा नहीं है।
और चार
वर्गफीट से
बड़ी हौज नहीं
है। मीलों लंबी
झील! हजारों
संन्यासी
नग्न स्नान
करते हैं!
पंद्रह
वर्गमील में
फैला हुआ
आश्रम!
"जमीन
के नीचे बने
हुए सभागार, जिनमें
दस-दस हजार
संन्यासी
इकट्ठे बैठ कर
सुबह प्रवचन
सुनते हैं। और
सभी संन्यासी
नग्न बैठते
हैं।'
तुम इस
भ्रांति में
मत रहना कि
तुम कपड़े पहने
बैठे हो। तुम
सब नग्न बैठे
हो। अरे अगर
कपड़े भी हैं तो
क्या हुआ, भीतर
तो नग्न ही हो
न! कपड़े तो
ऊपर-ऊपर हैं, अखबार वाले
भीतर तक देख
लेते
हैं--पारदर्शी
आंखें, एक्स-रे
की आंखें!
"दस
हजार
संन्यासी रोज
सुबह भूमि के
नीचे छिपे हुए,
शुद्ध सफेद
मार्बल से बने
हुए भवन में
नग्न बैठ कर
प्रवचन सुनते
हैं। हर
प्रवचन के बाद
संन्यासियों
की
प्रेम-क्रीड़ा
और लीला शुरू
होती है।
द्वार पर
प्रवेश करते
ही एक सुंदर
नग्न युवती की
संगमरमर की
प्रतिमा
स्वागत करती
है।'
लेख पढ़
कर मैंने सोचा
हो न हो, क्योंकि
द्वार तक मैं
कम ही जाता
हूं। इन छह वर्षों
में शायद तीन
बार द्वार तक
गया हूं। और हो
न हो ये
बड़ी-बड़ी
झीलें!...क्योंकि
मैं अपने कमरे
से बाहर सिर्फ
सुबह और सांझ
आता हूं। और
मैं आश्रम से
परिचित नहीं
हूं। क्योंकि
मैं आश्रम के
किसी मकान में,
किसी कमरे
में, दफ्तर
में कभी भी
नहीं गया हूं।
मुझे पता नहीं
दफ्तर में
क्या होता है,
कौन होता है,
क्या काम
होता है, कैसे
होता है। मुझे
पता नहीं कि
आश्रम में लोग
कहां रहते हैं,
क्या करते
हैं। सुबह बोल
कर जो मैं
अपने कमरे में
गया सो सांझ
निकलता हूं।
सांझ जो मुझसे
मिलने आते हैं
उनसे मिल लेता
हूं। सुबह जो
मुझे सुनने आते
हैं उनको सुना
देता हूं।
इससे ज्यादा
मेरा आश्रम से
कोई संबंध
नहीं है।
मैंने
लक्ष्मी को
बुलाया कि यह
मूर्ति कहां है? ये
झीलें कहां
हैं? कम से
कम मुझे खबर
तो की होती! और
ये दस-दस हजार
संन्यासियों
को कौन प्रवचन
दे रहा है? मुझे
बुलाओ या न
बुलाओ, मगर
कम से कम खबर
तो कर दो!
अगर न
हो झूठ तो झूठ
ईजाद करना
होता है। फिर
अखबार वालों
की कला ही
सारी इतनी है
कि चिंदी को सांप
बना लें। कहीं
छोटा सा कोई
तथ्य मिल जाए तो
उसके आस-पास
झूठ का एक जाल
रचने में वे
उतने ही कुशल
होते हैं जैसे
मकड़ियां अपने
ही भीतर से
जाले को निकाल
कर बुनने में
कुशल होती
हैं। वही उनकी
कला है, वही
उनका धंधा है।
तो
ऐसे-ऐसे झूठ
प्रचलित किए
जा रहे हैं कि
जिनमें शायद
यह कहावत भी
ठीक नहीं लागू
होती कि चिंदी
का सांप।
क्योंकि
चिंदी भी नहीं
है और सांप
खड़ा कर लिया गया
है।
अखबार
वाले का धंधा
ही झूठ का है, अफवाह
का है; वह
ईजाद करता है।
उसे सत्य से
क्या
लेना-देना! उसे
शून्य से क्या
लेना-देना! वह
यहां आता भी है
अगर कभी तो
ध्यान के
संबंध में बात
नहीं करता।
मैं क्या कह
रहा हूं, इस
संबंध में बात
नहीं करता।
यहां क्या
अभूतपूर्व
घटित हो रहा
है, इस
संबंध में बात
नहीं करता। वह
ऐसी-ऐसी बातें
खोज ले जाता
है कि हैरानी
होती है।
मगर
अपनी-अपनी
आंख। कुछ लोग
होते हैं, हीरों
की खदान पर भी
पहुंच जाएं तो
भी कंकड़-पत्थर
ही बीन
लाएंगे। क्या
करोगे? उनकी
आंखें
कंकड़-पत्थर ही
देख पाती हैं,
हीरे
उन्हें दिखाई
नहीं पड़ते।
कुछ लोग हैं, गुलाब की
झाड़ी के पास
जाएं, बस
कांटों में ही
उलझ जाएंगे, फूलों तक
नहीं पहुंच
पाएंगे, फूल
उन्हें दिखाई
ही नहीं पड़ते।
फूल देखने के लिए
भी फूल वाली
आंखें चाहिए।
फूलों जैसी
आंखें ही
फूलों को देख
पाती हैं।
फिर
अखबार वाले का
सारा
धंधा--निन्यानबे
प्रतिशत--राजनीति
का है, कांटों
का है। वही
राजनीति का
अभ्यासी जब
यहां आ जाता
है तो इतने
भिन्न आयाम
में होता है
कि उसे कुछ
सूझ नहीं
पड़ता। वह यहां
भी कुछ वही देख
पाता है जो
दिल्ली में
देखे; जो
राजनेताओं के
पास देखे वही
यहां भी देख
लेता है।
इसमें उसकी
मजबूरी है।
मैं उस पर
नाराज नहीं।
वह अपने धंधे
में कुशल है।
उसने एक खास
तरह की आंख
पैदा कर ली है,
वह उसी आंख
से जीता है।
गुरजिएफ
के जीवन में
एक उल्लेख है।
गुरजिएफ अपने
आश्रम में
अखबार वालों
को प्रवेश
नहीं करने
देता था। मैं
उतना कठोर
नहीं हूं।
उन्हें न केवल
प्रवेश करने
देता हूं, उनके
लिए सारी
सुविधा जुटाई
जाती है, उन्हें
सब घुमा कर
दिखाया जाता
है, उन्हें
हर
साधना-पद्धति
से, चिकित्सा-पद्धति
से, जो
यहां प्रचलित
हैं उनसे
परिचित कराया
जाता है--इस
आशा में कि
कभी तो कोई
आंख वाला, कभी
तो कोई समझदार,
हजार में एक
ही सही, पहचान
सकेगा।
अब
जैसे
कल्याणचंद्र
भी "माया' मासिक
के संपादकीय
विभाग से आते
हैं। उनका प्रश्न
तो कहता है कि
कुछ आंख है।
उनका प्रश्न तो
कहता है कि
कुछ पहचान है।
माया में ही
नहीं उलझे हैं,
थोड़ा
ब्रह्म का भी
बोध है।
कोई
कभी आएगा आंख
वाला, इसलिए
मैंने द्वार
खुले छोड़ रखे
हैं। यद्यपि
मुझे
संन्यासी
निरंतर आकर
कहते हैं कि
अखबार वालों
को अंदर आना
बंद कर दिया
जाए, क्योंकि
व्यर्थ
गलत-सलत लिखते
हैं। मैं उनसे
कहता हूं, फिक्र
छोड़ो। कुछ तो
लिखते हैं, गलत-सलत ही
सही। गलत-सलत
को भी पढ़ कर
कुछ लोग आ जाते
हैं। और एक
बार जो आ जाता
है--किस कारण
आया, यह और
बात--अगर उसके
भीतर जरा भी
संभावना का बीज
है तो जुड़
जाता है।
लेकिन
गुरजिएफ अंदर
नहीं घुसने
देता था। क्योंकि
उसने पाया कि
व्यर्थ की
बाधा खड़ी होती
है,
व्यर्थ समय
खराब करते
हैं। मगर एक
अखबार वाला पीछे
पड़ा रहा, बरसों
पीछे पड़ा रहा,
तीन साल
कोशिश करता
रहा, तो
गुरजिएफ ने
कहा, अच्छा
भाई, तू आ।
सुबह जब मैं
चाय लेता हूं,
आ मेरे साथ
चाय भी ले, नाश्ता
कर, फिर
आश्रम को घूम
कर देख लेना।
चाय की
टेबल पर
गुरजिएफ ने जो
कहा वह समझने
जैसा है; जो
किया वह समझने
जैसा है।
अखबार वाला भी
बैठ कर चाय पी
रहा है, गुरजिएफ
भी चाय पी रहा
है। गुरजिएफ
ने अपनी बगल
में बैठी एक
शिष्या से
पूछा, कल
कौन सा दिन था?
उसने कहा, कल शुक्रवार
था। और
गुरजिएफ ने
पूछा, आज
कौन सा दिन है?
उसने कहा, यह भी कोई
पूछने की बात
है! जब कल
शुक्रवार था तो
आज शनिवार।
गुरजिएफ ने
प्याली पटक दी
पत्थर पर और
कहा, यह
कैसे हो सकता
है? शुक्रवार
के बाद शनिवार
कभी सुना है? होश है तुझे?
मुझे मूढ़
समझा है?
वह
अखबार वाला तो
यह सब हाल
देखा, उसने
कहा यह आदमी
तो पागल है।
कह रहा है
शुक्रवार के
बाद कभी
शनिवार हुआ है,
सुना है? और प्याली
पटक दी! वह
अखबार वाला तो
उठ कर खड़ा हो
गया कि यहां
से तो निकल
भागना बेहतर
है। तीन साल
कोशिश करके
आया था और
निकल भागा।
गुरजिएफ ने
कहा, कहां
जाते हो?
उसने
कहा,
नमस्कार!
मुझे न आश्रम
देखना है, न
कुछ आपकी
विधियों से
परिचित होना
है। मैं गलती
में था जो तीन
साल मेहनत
करता रहा।
उसके
चले जाने के
बाद...बैठी
महिला भी बहुत
हैरान थी कि
गुरजिएफ ने
ऐसा व्यवहार
क्यों किया! वह
जब चला गया तो
गुरजिएफ की
हंसी का
फव्वारा...उस
महिला ने कहा, आपने
यह क्या किया?
उसने कहा, देखा तीन
साल की मेहनत
उसकी एक मिनट
में खतम कर दी!
जिसमें इतना
भी धैर्य नहीं
था कि थोड़ी
देर रुकता, देखता, समझता;
जिसमें
इतनी भी
बुद्धि न थी
कि मैं यह जो
कर रहा हूं एक
नाटक है, एक
अभिनय; जिसमें
इतनी भी
बुद्धि न थी
कि यह एक मजाक
है; जो
मजाक भी न समझ
सका वह
अध्यात्म
क्या खाक समझेगा!
उससे छुटकारा
पा लिया। और
उससे ही छुटकारा
नहीं पा लिया,
उसके जाति
वालों से भी
छुटकारा पा
लिया। अब कोई
अखबार वाला
यहां नहीं
आएगा, क्योंकि
यह बात वह
फैलाएगा। और
उसने फैलाई यह
बात, खूब
फैलाई।
जगह-जगह छपी
कि गुरजिएफ
विक्षिप्त
है। और
गुरजिएफ
हंसता था।
लेकिन उसका
लाभ यह हुआ कि
उस दिन से
अखबार वालों
ने वहां आना
ही बंद कर
दिया, कि
जो आदमी यह कर
सकता है वह
कुछ भी कर
सकता है। मान
लो अखबार वाले
पर ही झपट पड़े,
मारने लगे,
पीटने लगे
या कुछ करने
लगे। इसका
क्या भरोसा, जो यह भी
नहीं मानता कि
शुक्रवार के
बाद शनिवार
आता है!
यह एक
आध्यात्मिक
प्रयोग-स्थल
है। यहां कुछ
अनूठे प्रयोग
किए जा रहे
हैं
जीवन-रूपांतरण
के। और
निश्चित ही, कल्याणचंद्र,
तुम ठीक
कहते हो कि
भारत की
प्राचीन जड़ता
और रूढ़ि को
तोड़ा जा सकता
है, इसकी
संभावना यहां
पैदा हो रही
है। मगर इसीलिए
विरोध होगा।
इसीलिए मैं
अछूत समझा
जाऊंगा। इसीलिए
मुझ पर कीचड़
फेंकी जाएगी।
इसीलिए मेरे
आस-पास झूठ
ईजाद किए
जाएंगे, फैलाए
जाएंगे, प्रचारित
किए जाएंगे।
इनमें तीन
लोगों का हाथ
होगा।
अखबार
वालों का हाथ
होगा, क्योंकि
उन्हें झूठ
चाहिए।
उन्हें
अफवाहें चाहिए।
उन्हें
सनसनीखेज
खबरें चाहिए।
वे यहां आएंगे
और अगर चिंदी
मिल गई तो ठीक,
उसका सांप
बनाएंगे; अगर
चिंदी न मिली
तो मकड़ी की
तरह अपने ही
भीतर से, अपने
ही मस्तिष्क
से ताने-बाने
बुनेंगे।
जर्मनी
की एक पत्रिका
ने कुछ दिन
पहले एक लेख छापा।
पत्रकार ने
लिखा है कि
मैं पूना होकर
आया,
आश्रम देख
कर आया। मैंने
ठीक सुबह पांच
बजे जाकर
आश्रम के
दरवाजे पर
दस्तक दी, द्वार
खुला, एक
अति सुंदर
नग्न महिला ने
द्वार खोला।
एकदम लिपट गई
मुझसे! मेरा
स्वागत किया
और कहा, आइए।
और भीतर ले
जाकर एक बड़े
रम्य बगीचे
में सेव जैसा
दिखने वाला एक
फल तोड़ा और
कहा, इसे
खाइए, इससे
आपकी
वीर्य-ऊर्जा
बढ़ेगी। इसे
खाने से आप संभोग
के परम आनंद
को उपलब्ध
होंगे।
यह
आदमी आया था।
लेकिन ब्लू
डायमंड में ही
बैठा रहा, कभी
आश्रम आया
नहीं। आया था,
इसलिए पता
है कि एक
दूसरा
संन्यासी--सत्यानंद,
जो जर्मनी
से है, जो
वहां की सबसे
बड़ी पत्रिका
स्टर्न में
संपादक था--वह
उसे पहचानता
था। सत्यानंद
ब्लू डायमंड गया
था, वहां
उस आदमी को
देखा तो
सत्यानंद ने
पहचान लिया।
कहा कि तुम
यहां कैसे? और वह आदमी
कभी ब्लू
डायमंड छोड़ कर
आश्रम तक आया
नहीं, आश्रम
के भीतर तो
उसने प्रवेश
ही नहीं किया।
क्योंकि
सत्यानंद फिर
खयाल रखा कि
वह आए तो उसे
घुमाए, सब
जगह दिखा दे।
उसे निमंत्रण भी
दिया कि आओ।
मगर वह यहां
आया नहीं। आने
की झंझट। और
आने से फिर
तथ्य दिखाई
पड़ें तो असत्य
लिखना थोड़ा
कठिन हो जाता
है, मन में
थोड़ा
अपराध-भाव
होता है।
अच्छा तो यही होता
है कि ब्लू
डायमंड के
किसी कमरे में
बैठ कर जो भी
तुम्हें
कहानी गढ़नी है
गढ़ लो।
लेकिन
उसकी कहानी कई
भाषाओं में
अनुवादित हुई।
और यहां पत्र
आने शुरू हो
गए।
ऑस्ट्रेलिया से
एक पत्र आया
कि मेरी
काम-शक्ति
क्षीण हो गई है।
वह कौन सा फल
है?
मैं पूना
आने को राजी
हूं। अगर मुझे
मेरी काम-ऊर्जा
वापस मिल जाए,
तो मैं कुछ
भी करने को
राजी हूं और
जो भी कीमत हो
चुकाने को
राजी हूं।
ऐसे न
मालूम कितने
पत्र आने लगे!
किसी
ने जर्मनी से
लिखा कि मैं
अस्सी साल का
हूं और एक
जवान युवती से
विवाह कर बैठा
हूं,
अब आपके
सिवाय मेरा
कोई बचावनहार
नहीं है।
जर्मनी
से
संन्यासियों
ने पत्र लिखे
कि बहुत से
पत्र जर्मनी
से आने वाले
हैं इस तरह के, क्योंकि
इस लेख ने
लोगों में
तहलका मचा
दिया है। और
लोग उस फल में
उत्सुक हैं।
पश्चिम
में बड़ा रोग
है: कैसे
काम-ऊर्जा बढ़े? पश्चिम
में ही क्यों,
पूरब में
भी। दीवालों
पर नहीं तो
हकीम बीरूमल!
और गुप्त
रोगों का इलाज
करने वाले
डाक्टरों की
कोई कमी है
यहां?
एक
पत्र में लिखा
गया है कि
क्या यह फल
वही है जो इदन
के बगीचे में
अदम और हव्वा
ने खाया था और जिसके
खाने के कारण
उन्हें बगीचे
से निकाला गया? मगर
इस फल के बीज
आप कहां पा गए?
तो
पहले तो झूठ
पैदा करने
वाले अखबार
वाले लोग
होंगे। इस तरह
अखबार बिकता
है। उस
पत्रिका की
बिक्री
हाथोंऱ्हाथ
हो गई। उसे
दूसरा
संस्करण
छापना पड़ा और
तीसरा
संस्करण छापना
पड़ा।
स्वभावतः, यह
धंधे की बात
है।
मेरे
संबंध में, मेरे
विरोध में जो
अफवाहें छपती
हैं, वे
पत्रिकाएं
बिकती हैं, खूब बिकती
हैं!
यहां
पत्र आते हैं
संपादकों के
कि आपके संबंध
में छपे लेख
के कारण हमें
दोबारा संस्करण
छापना पड़ा।
हमारी
पत्रिका की
बिक्री बढ़ गई है।
तो एक
तो अखबार वाले
झूठ
फैलाएंगे।
उनका धंधा है।
दूसरे, बुद्धिवादी
झूठ
फैलाएंगे।
क्योंकि मेरी
मौलिक देशना
यही है कि
ज्ञान स्वयं
के भीतर पैदा
होता है, ध्यान
से पैदा होता
है; अध्ययन
से नहीं, मनन
से नहीं, चिंतन
से नहीं।
ज्ञान विचार
से पैदा नहीं
होता, निर्विचार
से पैदा होता
है। और
बुद्धिवादी तो
विचार पर जीता
है। और मैं
कुल्हाड़ी
लेकर विचार
काटने में लगा
हूं। तो दूसरा
विरोध होगा बुद्धिवादी
की तरफ से।
उसी
बुद्धिवादी
में नये-पुराने
सब
बुद्धिवादी
सम्मिलित कर
लो। नये बुद्धिवादी--लेखक,
कवि, विचारक,
प्रोफेसर, कुलपति, उपकुलपति,
इस तरह के
लोग। और
पुराने
बुद्धिवादी--पंडित,
पुरोहित, शास्त्रज्ञ,
महात्मा, मुनि, साधु।
और
तीसरा विरोध
राजनेताओं की
तरफ से होगा।
क्योंकि
राजनेता नहीं
चाहता कि
लोकमानस
प्रशिक्षित
हो,
कि लोकमानस
प्रबुद्ध हो,
कि लोकमानस
जड़ता से छूटे।
क्योंकि अगर
लोकमानस जड़ता
से छूट जाए तो
तुम जिन
बुद्धू
राजनीतिज्ञों
को मत देते हो,
उनको मत
दोगे? तुम
जिन बुद्धुओं
के पीछे
पंक्तिबद्ध
चलते हो, उनके
पीछे चलोगे?
हालतें
रोज से रोज
बिगड़ती जा रही
हैं।
जयप्रकाश
नारायण के
पीछे चल कर
तुमने एक क्रांति
कर ली--थोथी
क्रांति, ढाई
साल में ताश
के पत्तों के
घर की तरह गिर
गई। क्या
क्रांति की
तुमने? वे
ही के वे ही
लोग फिर छाती
पर सवार हो
जाते हैं, नया
झंडा ले लेते
हैं। हर शाख
पर उल्लू बैठे
हैं! और ये ही
उल्लू एक झाड़
से उचक कर
दूसरे पर बैठ
जाते हैं। तुम
पहले इस झाड़
की पूजा करते
हो। वे देखते
हैं--जिस झाड़
की पूजा चल
रही है उसी पर
बैठो। उल्लू
झाड़ पर बैठ कर
सोचता है उसकी
पूजा हो रही है।
फिर देखते हैं
कि लोग इस झाड़
को छोड़ कर अब दूसरे
की पूजा करने
लगे, क्योंकि
इस झाड़ से
उनकी
मनोकामनाएं
पूरी नहीं
हुईं। उल्लू
उचक कर दूसरे
झाड़ पर बैठ
जाते हैं--वही
उल्लू, या
उल्लुओं के
पट्ठे! अगर
उल्लू बहुत
बूढ़े हो गए, जैसे अब
मोरारजी
देसाई कहते
हैं चुनाव
नहीं लड़ेंगे,
तो अब उनका
पट्ठा चुनाव
लड़ने की
तैयारी कर रहा
है। अब कांति
देसाई चुनाव
लड़ेंगे।
उल्लू मर भी
जाएं तो औलाद
छोड़ जाते हैं।
उल्लू
संतति-निग्रह
में मानते ही
नहीं।
जयप्रकाश
नारायण को मान
कर तुमने
क्रांति की, क्या
हुआ? देश
बरबाद हुआ।
देश बरबादी के
कगार पर आ
गया। लेकिन
तुम्हारी
हालत और बिगड़
गई। जयप्रकाश
नारायण में
फिर भी थोड़ा सोच-विचार
माना जा सकता
है। लेकिन
राजनारायण! इससे
बड़ा कोई पतन
हो सकता
है--जयप्रकाश
नारायण से
राजनारायण!
उल्लुओं से
तुम
महाउल्लुओं
पर चले! अब
राजनारायण के
बाद आई.एस.
जौहर! तुम्हारे
पतन की कथा का
अंत कहां होगा?
जब तक तुम
टुनटुन को
भारत-माता न
बना दो तब तक तुम्हारी
आत्मा को
शांति मिलने
वाली नहीं है।
तो
तीसरा विरोध
राजनेताओं से
होगा, क्योंकि
मैं कह रहा
हूं कि थोड़ा
जागो, थोड़ा
ध्यान से अपनी
प्रतिभा को
निखारो, तुम्हारी
थोड़ी आंखें
अंधेरे से
बाहर आएं, तुम्हारा
अंधापन थोड़ा
छंटे, तुम्हारी
आंख की जाली
थोड़ी कटे।
लेकिन जो भी
शोषक हैं--वे
चाहे
धर्मगुरु हों
और चाहे राजनेता
हों और चाहे
तथाकथित
बौद्धिक लोग
हों--जो भी
तुम्हारा
शोषण कर रहे
हैं, वे सब
मेरे विरोध
में होंगे।
उनका विरोध
स्वाभाविक है,
क्योंकि
तुम अगर मेरी
बात समझ सको
तो उन सबका शोषण
असंभव हो
जाएगा।
उन्होंने तुम
पर एक आत्मिक
दासता आरोपित
कर दी है।
तुम्हें उन्होंने
आध्यात्मिक
रूप से गुलाम
बना रखा है।
और यह कुछ एक
दिन की बात
नहीं है, यह
सदियों
पुरानी कथा
है। पांच हजार
वर्ष से तुम्हारी
छाती पर गलत
लोग बैठे हैं।
और इतने लंबे
समय से बैठे
हैं कि वे
सोचते हैं कि
बैठना उनका
जन्मसिद्ध
अधिकार है। और
मैं तुमसे कह
रहा हूं: उतार
दो सब को छाती
पर से!
निर्भार हो
जाओ! ये छाती
पर जो बैठे
हैं ये सब
पहाड़ हैं, इनके
नीचे तुम दबे
जा रहे हो, मरे
जा रहे हो।
निश्चित
ही,
कल्याणचंद्र,
मैं चाहता
हूं जड़ता टूटे,
रूढ़ि टूटे,
अतीत से
मुक्ति हो इस
देश की। इस
देश की ही
क्यों, समस्त
मनुष्यता की
अतीत से
मुक्ति हो।
वर्तमान में
जीने की कला
आनी चाहिए।
प्रतिभाशाली
व्यक्ति
वर्तमान में
जीता है, अतीत
से मुक्त होता
है और भविष्य
से भी मुक्त होता
है। क्योंकि
भविष्य केवल
अतीत का ही
प्रक्षेपण
है।
भविष्य
में तुम चाहते
क्या हो? वही
जो तुमने अतीत
में पाया था
सुखद, वही-वही
फिर भविष्य
में मिलता
रहे--और भी बड़ी
मात्रा में, और भी निखरे
हुए रूप में, मगर वही!
भविष्य
तुम्हारा
अतीत का ही
प्रतिफलन है।
मैं चाहता हूं
मनुष्य अतीत
से भी मुक्त हो,
ताकि
भविष्य से भी
मुक्त हो जाए।
क्योंकि न तो
अतीत का कोई
अस्तित्व है,
न भविष्य का
कोई अस्तित्व
है। अतीत जा
चुका, भविष्य
आया नहीं। जो
है वह तो
वर्तमान
है--अभी और
यहीं! इस
वर्तमान में
होने की कला
ध्यान है। और
जो वर्तमान
में
समग्ररूपेण
डूब जाता है, ओत-प्रोत हो
जाता है, इस
क्षण से इंच
भर नहीं हटता आगे-पीछे,
इस क्षण में
डुबकी मार
जाता है--उसके
जीवन में प्रकाश
व्याप्त हो
जाता है। उसके
जीवन में ज्योति
जलती
है--प्रेम की, ज्ञान की, प्रार्थना
की, परमात्मा
की। वैसा
व्यक्ति किसी
का अनुयायी नहीं
होता। न हिंदू
होगा, न
मुसलमान, न
ईसाई, न
जैन, न
बौद्ध। वैसा
व्यक्ति
बुद्ध हो जाता
है, क्यों
बौद्ध हो!
वैसा व्यक्ति
क्राइस्ट हो
जाता है, क्यों
क्रिश्चियन
हो! वैसा
व्यक्ति
मोहम्मद हो
जाता है, क्यों
मुसलमान हो!
वैसा व्यक्ति
नानक हो जाता है,
क्यों
सिक्ख हो!
मेरे
संन्यासी
मेरे अनुयायी
नहीं हैं, मेरे
मित्र हैं, मेरे संगी-साथी
हैं। मैं यहां
अनुयायी पैदा
नहीं कर रहा हूं;
बल्कि
मित्रों का एक
समूह, एक
सत्संग। मैं
जो कहता हूं
उसे मानना
आवश्यक नहीं
है। मैं जो
कहता हूं उसे
अंधे की तरह
स्वीकार कर
लेना आवश्यक
नहीं है। नहीं
तो फिर तुम्हारे
और मेरे बीच
बड़ा फासला हो
गया। मैं हो गया
तुम्हारा
गुरु, नेता;
तुम हो गए
मेरे
अनुयायी। और
सब अनुयायी
अंधे होते
हैं।
मैं जो
कह रहा हूं उस
पर प्रयोग
करो। और तुम्हारा
प्रयोग अगर
तुम्हें दिखा
दे कि जो
मैंने कहा था
वह सत्य था, तो
मानना। लेकिन
फिर तुम मुझे
नहीं मान रहे,
अपने अनुभव
को मान रहे हो,
अपने प्रयोग
को मान रहे
हो। तुम अपने
मालिक हो।
मेरा प्रत्येक
संन्यासी
अपना मालिक
है।
कुछ
मैंने जाना है, जिसमें
मैं तुम्हें
साझीदार
बनाना चाहता
हूं। कुछ
मैंने पाया है,
मैं
तुम्हें
आमंत्रित
करता हूं कि
देख लो, यह
तुम्हारे
भीतर भी छिपा
पड़ा है। मेरा
ज्ञान तुम्हारा
ज्ञान नहीं
बनना है।
लेकिन मेरे
भीतर जो घटा
है, अगर
तुम पास आकर
झांक कर देख
लो, तो
तुम्हें अपने
खजाने की याद
आ जाएगी, बस।
एक दीया जल
गया, इससे
बुझे दीये को
याद आ सकती
है--तो मैं भी
जल सकता हूं!
एक बीज खिल
गया, अंकुरित
हो गया, तो
पास में पड़े
दूसरे बीज के
भीतर भी अदम्य
अभीप्सा पैदा
होगी कि मैं
भी टूटूं। वह
भी टूटने की
हिम्मत
जुटाएगा, भूमि
में खो जाने
का साहस
करेगा।
क्योंकि देखा
उसने एक बीज
को खोते, लेकिन
बीज खोने से
खोया नहीं, वृक्ष हो
गया। और एक
वृक्ष में
हजारों-लाखों
बीज लगे। एक
बीज क्या खोया,
लाखों बीज
हो गए! और बीज
क्या खोया, फूल और फल हो
गए! आकाश
सुवास से
व्याप्त हो
गया!
बस, मेरे
पास तुम्हें
इतनी ही याद आ
जाए कि मेरा बीज
टूटा; मैं
मिटा नहीं वरन
हुआ, पहली
बार हुआ! तुम
भी मिटने की
अभीप्सा से भर
जाओ, तुम
भी अहंकार को
तोड़ देने का
दुस्साहस कर
लो, तो
तुम्हारे
भीतर भी फूल
खिल जाएं। वे
फूल तुम्हारे
होंगे, वह
सुगंध
तुम्हारी
होगी। उससे
मेरा कुछ
लेना-देना
नहीं।
सत्य
दिया नहीं जा
सकता, सत्य
हस्तांतरित
नहीं होता।
लेकिन सत्य
तुम्हारे
सामने
उपस्थित किया
जा सकता है।
मेरा
कोई अनुयायी
नहीं है। हां, मेरे
संगी-साथी
हैं। जो भी मेरे
निकट आने को
राजी है वह इस
अपूर्व
सत्संग का
भागीदार हो
जाता है।
कल्याणचंद्र, तोड़नी
है जड़ता इस
देश की, तोड़नी
हैं रूढ़ियां,
क्योंकि
उन्हीं में
फंसे हम सड़
रहे हैं, गल
रहे हैं। वे
सब तोड़ी जा
सकती हैं। यह
देश पृथ्वी का
सबसे
धन्यभागी देश
हो सकता है।
क्योंकि प्रकृति
ने इसे इतना
दिया है, इसकी
प्रकृति इतनी
बहुविध है, इतनी
वैविध्यपूर्ण
है कि दुनिया
का कोई देश इसका
मुकाबला नहीं
कर सकता। यह
इतना बड़ा देश
है! यह कोई
छोटा देश है? एक महाद्वीप
है! इसमें सब
तरह के मौसम
हैं, सब
तरह की हवाएं
हैं, सब
तरह के
वातावरण हैं।
पहाड़ हैं, नदियां
हैं, मैदान
हैं, समुंदर
हैं। इसके पास
क्या नहीं है!
इसके पास अगर
कमी है तो बस
एक कि इसके
पास प्रतिभा
खो गई है, इसकी
प्रतिभा जंग
खा गई है। और
तुम्हारे
बुद्धिवादी
इस जंग को
नहीं हटाने
देना चाहते।
क्योंकि जब तक
यह जंग रहे
तभी तक वे
बुद्धिवादी हैं।
यह जंग हट जाए,
उनको कौन
बुद्धिवादी
मानेगा? यह
जंग हट जाए तो
इस देश का
प्रत्येक
व्यक्ति बुद्धिमत्ता
से भरा होगा।
तुम्हारे
साधु-संत यह न
चाहेंगे।
क्योंकि तुम्हारे
साधु-संत फिर
साधु-संत न रह
जाएंगे।
एक बड़े
मजे की बात है
कि तुम्हारे
साधु-संतों के
साधु-संत रहने
के लिए
तुम्हारा
पापी होना
जरूरी है। अगर
तुम पापी न रह
जाओ तो फिर
कौन साधु! सभी
साधु, तो बड़ी
मुश्किल हो
जाएगी।
मैंने
सुना है, एक
प्रसिद्ध
नेताजी गांव
का निरीक्षण
करने के लिए
आए हुए थे।
सरपंच उन्हें
गांव की सैर
करवा रहा था।
सरपंच ने कहा,
महोदय, सबसे
बड़ी खूबी जो
इस गांव की है
वह यह है कि इस
गांव में एक
भी बीमार नहीं
है। इस गांव
के सभी लोग
स्वस्थ हैं।
नेता
को तो बड़ा
आश्चर्य हुआ।
एक भी व्यक्ति
बीमार नहीं? सारे
के सारे
स्वस्थ! यह तो
बड़ा चमत्कार
जैसा है!
वे लोग
कुछ ही आगे
बढ़े होंगे कि
नेताजी ने देखा
कि एक व्यक्ति
अपने दरवाजे
के बाहर बैठा, बिलकुल
हड्डी-मांस का
खोखला, अस्थिपंजर
मात्र, उल्टियां
कर रहा था।
नेताजी ने तैश
में आकर कहा, आप तो कह रहे
थे कि इस गांव
में एक भी
व्यक्ति बीमार
नहीं है, और
यह क्या है?
सरपंच
बोला, श्रीमान,
यह इस गांव
का डाक्टर है।
और मरीज न
मिलने के कारण
इस बेचारे की
यह हालत हो गई
है।
अगर
किसी गांव में
मरीज न हों तो
डाक्टरों का क्या
होगा? अगर
किसी गांव में
चोर न हों, बेईमान
न हों, पापी
न हों, तो
साधु-संतों का
क्या होगा? और किसी
गांव में अगर
बुद्धू न हों,
मूढ़ न हों, जड़ न हों, तो
तुम्हारे बुद्धिवादियों
का क्या होगा?
और किसी
गांव में
अनुयायी बन कर
अपने को अपमानित
करने वाले लोग
न हों तो
तुम्हारे
नेताओं का
क्या होगा?
इसलिए
मेरा विरोध
स्वाभाविक
है। मैं उसे
अंगीकार करता
हूं--सहज, नैसर्गिक
रूप से। उससे
मुझे चिंता
नहीं है। वरन
मैं उससे
प्रसन्न हूं। उसका
अर्थ है कि
पत्रकारों ने
भी अब मेरी
उपेक्षा करनी
बंद कर दी है।
उसका अर्थ है
कि बुद्धिवादी
भी अब बेचैन
हैं, मुझसे
तिलमिला रहे
हैं। उसका
अर्थ है कि
राजनेताओं को
भी मुझसे
घबड़ाहट और भय
पैदा हो रहा है।
यह शुभ लक्षण
है।
कल्याणचंद्र, ये
लक्षण हैं कि
कल्याण हो
सकता है।
दूसरा
प्रश्न:
भगवान!
आप तो कहते
हैं--हंसा तो
मोती चुगै।
लेकिन आज तो
बात ही दूसरी
है। आज का
वक्त तो कहता
है: हंस
चुनेगा दाना
घुन का, कौआ
मोती खाएगा।
और इसका
साक्षात
प्रमाण है तथाकथित
पंडित-पुरोहितों
को मिलने वाला
आदर-सम्मान और
आप जैसे मनीषी
को मिलने वाली
गालियां।
कृष्णतीर्थ
भारती! तुम
कहते हो कि आज
तो बात ही दूसरी
है। इससे ऐसा
प्रतीत होता
है कि पहले
अन्यथा था। तो
बुद्ध को
गालियां नहीं
पड़ीं? तो
महावीर पर
पत्थर नहीं
फेंके गए? तो
जीसस को सूली
किसने दी? तो
मंसूर के
हाथ-पैर किसने
काटे?
यह बात
खयाल में लो।
यह भ्रांति हम
सबके मन में
है। क्योंकि
हमें बार-बार
इस तरह के पाठ
पढ़ाए गए हैं कि
पहले सतयुग था, स्वर्णयुग
था, रामराज्य
था। लेकिन
रामराज्य भी
क्या खाक रामराज्य
था! जब राम तक
की पत्नी
चुराई जा सकती
हो तो औरों की
पत्नियों का
क्या! और जब
राम तक सोने
के मृग के
शिकार को निकल
जाते हों, बुद्धू
से बुद्धू
आदमी भी जानता
है कि सोने के
मृग नहीं होते,
जब राम तक
ऐसा धोखा खाते
हों तो औरों
की बात क्या?
राम
सीता को जीत
कर लौटे तो
सीता से
उन्होंने जो
शब्द कहे हैं
वाल्मीकि
रामायण में, अभद्र
हैं, वे
कतई मर्यादा
पुरुषोत्तम
को मर्यादा
नहीं देते। जो
शब्द कहे हैं
वे ये हैं कि
ध्यान रख
स्त्री! यह
युद्ध मैंने
तेरे लिए नहीं
किया। यह
युद्ध तो
मैंने अपनी
कुल-परंपरा को
बचाने के लिए
किया है, कुल
की प्रतिष्ठा
के लिए किया
है।
रामराज्य
में भी स्त्री
का सम्मान
नहीं है, अपमान
है। कुल-परंपरा!
अहंकार की
प्रतिष्ठा!
तभी तो एक धोबी
के संदेह करने
पर गर्भवती
सीता को राम
भी जंगल भेज
सके। जब राम
भी यह कर सकते
हों तो औरों का
क्या? अगर
और अपनी
पत्नियों को
पैर की
जूतियां समझते
रहे हों तो
कुछ आश्चर्य
है? राम ने
भी कुछ और
बेहतर
व्यवहार तो
नहीं किया। न
समझो जूतियां,
समझ लो
खड़ाऊं। जरा
खड़ाऊं
धार्मिक चीज
है। मगर क्या
फर्क पड़ता है?
गर्भवती
स्त्री को घर
से निकालते
शर्म न आई? बेशर्मी
की भी सीमा
होती है।
और राम
जब सीता को ले
आए हैं लंका
से तो उसकी अग्नि-परीक्षा
ली। यह अन्याय
है। इतना
भरोसा राम को
अपनी पत्नी पर
नहीं? इतनी
आस्था नहीं? और अगर सीता
की परीक्षा ली
थी तो न्याय
होता कि सीता
के साथ खुद भी
आग से गुजरे
होते, अपनी
भी परीक्षा दी
होती। आखिर
जितने दिन सीता
राम से दूर
रही, राम
भी तो सीता से
दूर रहे। और
किन-किन के
साथ रहे, अंदरों-बंदरों
के साथ। इनका
क्या भरोसा?
लेकिन
पुरुष पुरुष
है,
उसकी
परीक्षा का
सवाल ही नहीं
उठता!
इतिहासज्ञों
की खोज कहती
है कि शबरी
कोई बूढ़ी औरत
नहीं थी, जैसा
कि रामलीला
में दिखलाई
जाती है। शबरी
अति सुंदर
युवा स्त्री
थी। और एक
बहुत
प्रसिद्ध विचारक
और इतिहासज्ञ
डा.नावलेकर ने
किताब लिखी है
राम पर। उसमें
यह सिद्ध करने
की कोशिश की
है कि शबरी का
राम से प्रेम
था। असल में, किसी के
जूठे बेर खा
लेना प्रेम
में ही संभव हो
सकता है।
तुम्हें कोई
आदमी आधा केला
खाकर और
तुम्हें दे
दे। जूता
निकाल
लोगे--कि तूने
समझा क्या है!
लेकिन प्रेम
अंधा होता है।
प्रेमी
एक-दूसरे की
जूठी चीजें खा
सकते हैं, प्रेमियों
में ऐसी
संभावना है।
और कोई जूठी चीज
नहीं खा सकता।
राम भी नहीं
खा सकते थे।
साफ देखते कि
शबरी पहले खुद
चख रही है, इनकार
कर दिया होता।
नावलेकर का
दावा है कि शबरी
सुंदर स्त्री
थी, राम के
प्रेम में थी।
राम को
भी परीक्षा दे
देनी थी। साथ
ही गुजर जाते।
शायद डर रहा
हो कि कहीं
ऐसा न हो कि
सीता तो निकल
आए और हम रह गए
सो रह गए।
सच तो
यह है कि
स्त्रियां
सदा ही
पुरुषों से ज्यादा
निष्ठावान
रही हैं। यह
कोई एकाध
पुरुष के
संबंध में सच
नहीं है; यह
समस्त
पुरुषों के
संबंध में सच है।
पुरुष के होने
का ढंग ही
निष्ठा का
नहीं है।
स्त्री के
होने का ढंग
ही निष्ठा का
है। स्त्री एक
पुरुष को
प्रेम कर लेती
है और जीवन भर के
लिए काफी
मानती है।
जीवन भर के
लिए ही नहीं, मंदिरों में
प्रार्थना
करती है कि
बार-बार यही
पति मिले। और
पुरुष? पुरुष
कहता है: हे
प्रभु, कब
इससे छुटकारा
हो!
मुल्ला
नसरुद्दीन बस
को देख कर, ट्रक
को देख कर
एकदम कंपने
लगता था। तो
मैंने एक दिन
उससे पूछा कि
नसरुद्दीन--सुबह
घूम-घाम कर
लौट रहे थे--तू
एकदम ट्रक और
बस को देख कर
इतना क्यों
घबड़ा जाता है?
जैसे ही
हार्न बजता है
कि तुझे पसीना
चूने लगता है।
उसने
कहा,
अब आपसे
क्या कहूं!
बीस साल पहले
मेरी पत्नी एक
ट्रक ड्राइवर
के साथ भाग
गई। डर लगता
है जब भी मैं
ट्रक देखता
हूं कि कहीं आ
न जाए! कहीं
वापस न आ जाए!
रामराज्य
भी कुछ बहुत
रामराज्य
नहीं था। रामराज्य
में आदमी
बिकते थे, क्योंकि
दास होते थे, दासियां
होती थीं। राम
को भी विवाह
में और-और भेंटें
मिली थीं, साथ
में कई दास और
दासियां भी
मिले थे। आदमी
बिकता था और
उसको तुम कहते
हो रामराज्य!
और महात्मा
गांधी इसी
रामराज्य को
फिर लाना
चाहते थे! एक
दफे इससे दिल
नहीं भरा?
हमें
यह सिखाया गया
है कि अतीत सुंदर
था। तो अतीत
में जो भी था
सब शुभ था।
इसलिए
कृष्णतीर्थ, अक्सर
यह सवाल उठ
आता है कि आज
तो बात ही
दूसरी है।
आज बात
दूसरी नहीं है, वही
की वही बात
है। दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं।
निन्यानबे
प्रतिशत तो वे
लोग हैं जो
मोती पहचान ही
नहीं सकते।
एकाध प्रतिशत मुश्किल
से ऐसे लोग
हैं जो मोती
पहचान सकते हैं।
निन्यानबे
प्रतिशत ऐसे
ही सदा रहे
हैं, आज ही
नहीं। यह मेरी
सुनिश्चित
धारणा है कि
यह निन्यानबे
प्रतिशत भीड़
सदा ऐसी ही
रही है जैसी
आज है, इसमें
कोई भेद नहीं
पड़ा। भेद तो
एक ही पड़ता है दुनिया
में और वह यह
है कि व्यक्ति
विचार से
मुक्त होकर
ध्यान में
प्रवेश कर
जाए। बस एक ही
क्रांति है:
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
जाए।
तो
दुनिया में
बुद्धों की एक
धारा है, वह भी
सदा एक सी रही
है। जीसस दूर
इजरायल में हुए,
और बुद्ध
भारत में, और
लाओत्सु चीन
में, और
जरथुस्त्र
ईरान में, और
पाइथागोरस
यूनान
में--लेकिन इन
सबका स्वाद एक
जैसा है। ये
सब हंस हैं।
ये मोती ही
चुगते हैं।
कृष्ण हों, महावीर हों,
मूसा हों, मोहम्मद हों,
ये सब हंस
हैं, ये
मोती ही चुगते
हैं। ये कब
हुए, इससे
फर्क नहीं
पड़ता। नानक
हों, कबीर
हों, पलटू
हों, ये सब
हंस हैं, ये
मोती ही चुगते
हैं। समय से, काल से, संवत
से इनका कोई
संबंध नहीं
है।
रही
भीड़,
तो वह चाहे
पांच हजार साल
पहले की भीड़
हो और चाहे आज
की आधुनिक भीड़
हो...हां, ऊपर-ऊपर
फर्क पड़े हैं।
पांच हजार साल
पहले तुम्हें
टाई लगाए हुए
और पतलून पहने
हुए कोई नहीं
मिलता, यह
बात सच है।
कार नहीं
मिलती, ट्रेन
नहीं मिलती, हवाई जहाज
नहीं मिलता, यह बात सच
है। मगर न तो
कार से आदमी
बदलता है, न
ट्रेन से, न
हवाई जहाज से।
आदमी तो आदमी
है। किसी
बुद्धू को
हवाई जहाज में
बिठाल दो, इससे
क्या तुम
सोचते हो वह
बुद्ध हो
जाएगा? बुद्धू
के हवाई जहाज
में बैठने से
बुद्धू तो
नहीं बदलता, हवाई जहाज
को खतरा पैदा
होता है--कि
बुद्धू कुछ कर
गुजरे!
पांच
हजार साल पहले
आदमी के हाथ
में धनुष-बाण था।
नहीं तो
रामचंद्र जी
को तुमने
धनुर्धारी न
बनाया होता।
अगर बंदूक रही
होती तो बंदूक
लिए
चलते--बंदूकधारी
होते। या अगर
एटम बम रहा होता, तो
जैसे गणेश जी
हाथ में
मोतीचूर का
लड्डू लिए
रहते हैं, ऐसे
रामचंद्र जी
एटम बम लिए
रहते। एटम बम
हो तो कोई
धनुष-बाण लेकर
चले तो बुद्धू
समझा जाए। एटम
बम की दुनिया
में धनुष-बाण
तो बस कभी-कभी
देखे जाते
हैं। दिल्ली
के रामलीला
मैदान में जब
रामलीला होती
है तो धनुष-बाण
निकलता है। वे
भी सब झूठे।
और या फिर गणतंत्र
दिवस की परेड
में जब कि
आदिवासियों
को बुलाया
जाता है। वे
भी रखते हैं
बस गणतंत्र के
लिए ही, वे
भी कुछ उनका
उपयोग करते
नहीं अब। रखे
रहते हैं उनको
तैयार, रंग
पोत कर, कि
जब गणतंत्र का
दिवस आएगा तो
चले दिल्ली।
रामचंद्र
जी के हाथ में
धनुष-बाण है, तुम्हारे
हाथ में एटम
बम है--इतना
फर्क पड़ा है।
मगर यह फर्क
तुम्हारे
भीतर तो कोई
फर्क नहीं।
तुम्हारे हाथ
में पत्थर
होगा तो तुम
पत्थर फेंक कर
मारोगे और
गोली होगी तो
गोली मारोगे
और बम होगा तो
बम मारोगे। यह
तो खतरा ही हो
गया। मनुष्य
कुछ विकसित
नहीं हुआ, न
ही मनुष्य
पतित हुआ है।
मनुष्य वैसा
का वैसा है, चीजें बदल
गई हैं।
मनुष्य वैसा
का वैसा है, क्योंकि मन
वैसा का वैसा
है।
तुम
सोचते हो गांव
के
लोग--सीधे-सादे, भोले-भाले;
पुराने
लोग--बड़े
भोले-भाले, सीधे-सादे।
उनमें ऐसी
वासना नहीं थी,
क्योंकि
किसी को इच्छा
नहीं थी कि
फिएट कार होनी
चाहिए।
फिएट
कार नहीं थी।
जो उस समय
उपलब्ध
था--कोई बग्घी, कोई
टमटम, किसी
को घोड़े का
खयाल था कि
मेरे पास तेज
से तेज घोड़ा
होना चाहिए।
वह वही की वही
बात है। तेज घोड़ा
उपलब्ध था तो
तेज घोड़े की
आकांक्षा थी।
अब घोड़ा तो
चला गया, हार्स-पावर
वाली कार है।
अब भी
हार्स-पावर ही
कहते हैं उसको,
अभी भी
घुड़-शक्ति, अश्व-शक्ति!
अभी भी नापते
घोड़े से ही
हैं, कि जो
कार है हमारे
पास चार
हार्स-पावर की,
यानी चार
घोड़ों के
बराबर। अब कार
है तो कार की आकांक्षा
है। जब घोड़ा
था तो घोड़े की
आकांक्षा थी।
आकांक्षा
नहीं बदली है।
आदमी
दो तरह के
हैं। जो जागे
हुए हैं वे
सदा एक से
हैं--कोई सदी
हो,
कोई देश हो,
कोई जाति हो,
कोई वर्ण
हो। जो सोए
हुए हैं वे भी
सदा एक से हैं--कोई
देश, कोई
जाति, कोई
वर्ण, कोई
समय, कोई
भेद नहीं
पड़ता। इस
बुनियादी बात
को खयाल में
ले लो। नहीं
तो यह भ्रांति
रहती है। कुछ
लोगों को यह
भ्रांति है कि
मनुष्य विकास
कर रहा है, प्रगतिशील
है। और कुछ
लोगों की यह
भ्रांति है कि
मनुष्य का
ह्रास हो रहा
है, पतन हो
रहा है।
तथाकथित
धार्मिक लोग
मानते हैं पतन
हो रहा है और
अधार्मिक लोग
मानते हैं विकास
हो रहा है।
दोनों गलत
हैं। न तो
विकास हुआ है,
न कोई पतन
हुआ है। आदमी
वही का वही
है--वही एषणा, वही लोभ, वही
क्रोध, वही
वैमनस्य, वहीर्
ईष्या, वही
संग्रह, वही
परिग्रह--सब
वही का वही
है--वही लड़ाई, वही झगड़े, कुछ बदला
नहीं है।
बदलाहट
तो एक ही होती
है कि तुम
छलांग लगा
लो--मन से अ-मन
में। छलांग
लगा लो--मन से
ध्यान में।
उतर
आओ--मस्तिष्क
से हृदय में।
हट जाओ--शरीर
से आत्मा में।
बस एक क्रांति
है।
कृष्णतीर्थ, तुम
पूछते हो: "आप
कहते
हैं--हंसा तो
मोती चुगै।
लेकिन आज तो
बात ही दूसरी
है...'
आज
नहीं, सदा ही
ऐसा रहा है।
"आज का
वक्त तो कहता
है...'
आज का
वक्त नहीं, सदा
यही कहा गया
है!
"हंस
चुनेगा दाना
घुन का, कौआ
मोती खाएगा।'
कौए
बहुमत में हैं
सदा से।
ऐसा
हुआ,
एक रात एक
झाड़ पर एक हंस
के जोड़े ने
विश्राम किया।
उस झाड़ पर
कौओं का बसेरा
था। हंस तो जा
रहा था
मानसरोवर, लेकिन
रात हो गई, थका
था, तो
विश्राम कर
लिया। सुबह जब
चलने को हुआ
और अपनी हंसनी
से कहा कि चल
अब उड़ चलें, तो कौओं ने
कहा कि यह
क्या शरारत है?
एक तो हमने
ठहराया और तुम
हमारी पत्नी
को ले चले! यह
अतिथि का ढंग
है? एक तो
हम मेजबान और
यह तुम हमें
फल दे रहे हो!
यह धन्यवाद!
हंस की
आंखें तो फटी
की फटी रह
गईं। उसने कहा, क्या
तुम कहते हो? यह तुम्हारी
पत्नी! यह
मेरी हंसनी
है। तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ती? तुम
काले, यह
गोरी!
कौओं
ने कहा, किसको
धोखा दे रहे
हो? यह
काली है, किसने
कहा गोरी है? वहां तो कौए
ही कौए थे।
सारे कौओं ने
कांव-कांव
करके कहा, काली
है! गोरी कौन
कहता है? मतदान
हो जाए।
हंस तो
समझ गया कि
झंझट है।
मतदान में भी
क्या होगा--कौए
ही कौए हैं!
भीड़ ही इनकी
है। हंस ने कहा
कि भई
तुम्हारी इस
बस्ती में कोई
अदालत, कोई
काजी, कोई
न्यायाधीश है?
उन्होंने
कहा,
है। चलो, वहां निर्णय
करवा लें।
गया
हंस।
न्यायाधीश भी
कौआ था। कौओं
की बस्ती थी।
हंस ने तो सिर
फोड़ लिया।
उसने कहा, मारे
गए! जूरी भी
हैं कि नहीं? कहा कि जूरी
भी हैं। बारह
कौए बैठे थे
जूरी में।
पुलिसवाले
कौए, क्लर्क
कौए, मजिस्ट्रेट
कौआ, जूरी
कौए--अदालत
कौओं की थी।
हंस ने कहा, मुकदमा लड़ना
बेकार है। मैं
हार ही गया।
बुद्ध
तो कभी कोई
एकाध होता है।
हंस तो कभी कोई
एकाध होता है।
हमने तो
बुद्धों को
हंस इसीलिए
कहा है, परमहंस
कहा है।
मुश्किल से
होते हैं।
कौओं की भीड़
है।
लेकिन
हर कौए का
जन्मजात
अधिकार है, चाहे
तो हंस हो
सकता है।
क्योंकि
कालिख हमने
पोत रखी है, हम काले हैं
नहीं। कालिख
दूसरों ने हम
पर पोत रखी है,
हम काले हैं
नहीं। हमारा
स्वभाव तो हंस
का है, लेकिन
हमारा आवरण
कौए का है।
अगर हम स्वयं
की तलाश करें
तो हंस हो
जाएं। उड़ चल
हंसा वा देस! और
तब उस देश की
याद आती है जो
हमारा देश है,
हंसों का
देश है। और
हमें भीतर की
याद आ जाए तो
फिर तुम मोती
ही चुगोगे।
फिर कोई पागल
होगा जो
फिल्मी गाना
गुनगुनाएगा--जब
कि कुरान की
आयत मौजूद हो,
जब कि
उपनिषद के
अदभुत वचन
उपलब्ध हों, जब कि
धम्मपद हाथ
में मिल सकता
हो, तो कोई
फिल्मी धुन
गुनगुनाएगा? और जब
पदार्थ में परमात्मा
के दर्शन हो
सकते हों, तो
कोई कहेगा कि
जगत पदार्थ है
और मैं
पदार्थवादी
हूं? और जब
प्रेम से
प्रार्थना के
फूल खिल सकते
हों, तो
कोई प्रेम की
निंदा करेगा,
प्रेम को
गर्हित कहेगा,
पाप कहेगा?
हंसा
तो मोती चुगै!
जिस दिन
तुम्हें अपने
हंस होने की
याद आ जाएगी
उस दिन तुम
मोती ही
चुगोगे।
लेकिन कौओं की
भीड़ है, बहुमत
उनका है।
इसलिए सदा से
कौए यही कहते
रहे: "हंस
चुनेगा दाना
घुन का, कौआ
मोती खाएगा।'
हालांकि
कौआ मोती खा
नहीं सकता; मोती
को पहचान ही
नहीं सकता, खाएगा क्या!
परख कहां? कहता
भला रहे कि
कौआ मोती
खाएगा, क्योंकि
हमारी भीड़ है,
हमारा बल है,
हमारी
शक्ति है।
कहता भला रहे
कि कौआ मोती
खाएगा, लेकिन
खा नहीं सकता।
वह गीता में
भी कोई फिल्मी
पत्रिका छिपा
कर पढ़ेगा, कौआ
मोती खा नहीं
सकता। वह घर
में लाकर
विष्णु और
लक्ष्मी की
तस्वीर
टांगेगा, मगर
वह तस्वीर
विष्णु और
लक्ष्मी की
नहीं है, जैसे
कोई फिल्मी
अभिनेताओं की
हो।
तुम
देखते हो, तुम
घर में
तस्वीरें
टांगे रहते
हो--भद्दी, बेहूदी,
अश्लील! मगर
धर्म के नाम
पर टांगे हुए
हो। लक्ष्मी
जी की मूर्ति
बना दी, तो
बस टांग ली।
मगर जरा गौर
से तो
देखो--लक्ष्मी
जी लक्ष्मी जी
मालूम होती
हैं कि
हेमामालिनी? शायद
हेमामालिनी
ने ही मॉडल का
काम किया हो
जिनकी तस्वीर
बनी है।
बेहूदी, अश्लील,
कुरुचिपूर्ण!
जैसा
साज-शृंगार
करवा देते हो,
वह किसी
वेश्या को
शोभा दे भला।
मगर नहीं, नाम
पर्याप्त है।
लक्ष्मी की
मूर्ति है तो
बस फोटू टांग
ली, फिर
कैसी ही हो।
असल में तुम
लाए ही इसीलिए
हो कि नाम
लक्ष्मी का है
और फोटू किसी
फिल्म तारिका
की है। नाम के
बहाने कमरे
में टांग
लोगे।
कौआ
कितना ही कहे
कि मोती खाएगा, खा
नहीं सकता।
कौआ कौआ है! जो
खा सकता है
वही खाएगा।
उसको ही मोती
कहेगा, यह
और बात है।
मोती छाप
कचरा! मोती का
लेबल लगाएगा।
मगर खाएगा तो
वही जो खा
सकता है।
नहीं
कृष्णतीर्थ, तुम
कहते: "हंस
चुनेगा दाना
घुन का।'
असंभव!
वह हो ही नहीं
सकता। तुम
बुद्धों को जहर
भी दे दो तो वे
उसमें से अमृत
ही पीते हैं।
यह घटना घटी
ही। बुद्ध की
मृत्यु ही
विषाक्त भोजन
करने से हुई।
एक
गरीब आदमी ने
सुबह पांच बजे
ही आकर
प्रार्थना की
कि आज आप मेरे
घर भोजन लें।
नियम था बुद्ध
का कि जो पहले
आए उसी का
निमंत्रण
स्वीकार कर
लिया जाए। वह
गरीब आदमी जा
भी न पाया था
कि सम्राट
बिंबसार ने
आकर
प्रार्थना की
अपने
स्वर्ण-रथ से
उतर कर कि आप
मेरे घर आज
भोजन लें। बुद्ध
ने कहा, क्षमा
करें, मैं
निमंत्रण
स्वीकार कर
चुका।
बिंबसार
ने उस आदमी को
देखा और उसने
कहा,
इसके घर
क्या भोजन
होगा! यह खुद
भी तो दो जून
रोटी जुटा
नहीं पाता, यह क्या
भोजन करवाएगा
आपको!
लेकिन
बुद्ध ने कहा, अब
जो भी
करवाएगा।
निमंत्रण
दिया है इतने
प्रेम से तो
मैं जाऊंगा।
बुद्ध
गए। बिहार में
उन दिनों लोग
कुकुरमुत्ते
इकट्ठे कर
लेते थे।
कुकुरमुत्ते
वर्षा के दिनों
में ऊग आते
हैं सफेद
छत्तों की तरह, जमीन
में या
लकड़ियों पर।
उनका नाम ही
कुकुरमुत्ता
इसलिए है कि
ऐसे स्थानों
पर ऊगते हैं
वे जो कुत्ते
जीवन-जल बहाने
के लिए चुनते
हैं।
उलटी-सीधी जगह
पर ऊगते हैं।
कुछ कुत्तों
के जीवन-जल से
उनका संबंध
नहीं है। नहीं
तो मोरारजी
देसाई बहुत
प्रसन्न
होंगे कि देखो
जीवन-जल का
प्रभाव! क्या
गजब का फूल
खिला है! उनका
नाम ही
कुकुरमुत्ता
है, कुत्ते
के जीवन-जल से
उनका कोई
संबंध नहीं
है।
कुकुरमुत्ते
गरीब आदमी
इकट्ठे कर
लेते हैं, सुखा
लेते हैं। फिर
उनकी सब्जी
साल भर काम
आती रहती है।
और सब्जी तो
उन्हें मिलती
नहीं। उस आदमी
के घर पर भी
कुकुरमुत्ते
के सिवाय और
कुछ भी न था।
रोटी, नमक
और
कुकुरमुत्ते
की सब्जी।
बुद्ध ने न तो
कभी
कुकुरमुत्ते
की सब्जी खाई
थी इसके पहले,
न देखी थी।
और कभी-कभी
ऐसा हो जाता
है कि कुकुरमुत्ते
विषाक्त होते
हैं। किसी गलत
जगह में ऊगे
होते हैं, किसी
ऐसे वृक्ष पर
ऊगे होते हैं
जिसमें विष होता
है, तो
विषाक्त हो
जाते हैं।
वह जो
कुकुरमुत्ते
की सब्जी थी, विषाक्त
थी। बुद्ध ने
चखी, कड़वी
थी। लेकिन अब
इस गरीब आदमी
से कहें कि यह
कड़वी है, तो
इसके पास और
तो कोई सब्जी
नहीं है। यह
दुखी होगा, पीड़ित होगा,
परेशान
होगा कि अब
मैं क्या
करूं! इसको
बड़ा आघात
लगेगा। इसे
आघात न लगे, इसलिए वे
कुकुरमुत्ते
की जहरीली
सब्जी, कड़वी
सब्जी खा गए।
उसी
वक्त बुद्ध को
साफ हो गया था
कि अब मेरा
बचना मुश्किल
होगा। आते ही
उन्होंने कहा
कि खतरा हो
गया है। शरीर
में विष फैलता
मालूम पड़ता
है।
शिष्यों
ने कहा, कौन
है यह आदमी? इसे दंड
दिया जाना
चाहिए।
बुद्ध
ने कहा कि
नहीं-नहीं, उसका
कोई कसूर
नहीं। उसने तो
जितने प्रेम
से भोजन मुझे
करवाया उतने
प्रेम से कभी
किसी ने नहीं
करवाया था।
उसके प्रेम का
खयाल करो, उसके
भोजन का नहीं।
यह जहर
में अमृत
खोजने की
कला--उसके
प्रेम का स्मरण
करो,
उसके जहर का
नहीं! जहर के
लिए वह
जिम्मेवार नहीं
है। अब
कुकुरमुत्ता
अगर जहरीला था
तो वह क्या
करता? उसे
कैसे पता चले?
और जब तक
बुद्ध भोजन न
ले लें तब तक
वह स्वयं तो भोजन
लेगा नहीं।
दौड़ो और जाकर
खबर करो कि वह
उस भोजन को न
ले, वह
जहरीला है!
शिष्यों
ने कहा, आपने
रोका क्यों
नहीं? आप
रुक क्यों
नहीं गए?
उन्होंने
कहा कि सोचा
मैंने कि मौत
तो एक न एक दिन
आएगी ही आएगी।
फिर आज आई कि
कल,
क्या फर्क
पड़ता है! वैसे
भी अब मैं
बूढ़ा हो गया, बयासी वर्ष
मेरी उम्र हो
गई। कितने दिन
जीना है! इस
आदमी को दुख
देकर जीने में
क्या सार है!
इसके हृदय में
कितनी पीड़ा न
होगी! इसको
अपनी दरिद्रता
कितनी न
खलेगी! मौत तो
होनी ही है, सो होगी। और
मेरा काम तो
कब का पूरा हो
चुका। वह तो
बयालीस साल पहले
पूरा हो चुका।
मुझे जो पाना
था जीवन से वह मैंने
पा लिया है; अब देर-अबेर
नाव छूटनी
है--आज सही, कल
सही। कल सही
तो आज ही सही।
उसका प्रेम
याद करो।
लेकिन
बुद्ध को लगा
कि मैं मर
जाऊंगा तो
कहीं ऐसा न हो
कि शिष्य उसको
जाकर मार
डालें, उसके
झोपड़े को आग
लगा दें। तो
मरते वक्त
उन्होंने
अपने शिष्यों
को बुला कर
कहा कि एक बात
स्मरण रखना:
दुनिया में दो
व्यक्तियों
से ज्यादा
सौभाग्यशाली
और कोई भी
नहीं होता।
उन्होंने
पूछा, वे कौन
से दो व्यक्ति?
तो
बुद्ध ने कहा, पहली
तो वह मां जो
बुद्ध को दूध
देती है, पहला
भोजन देती है।
और अंतिम वह
आदमी, जो
बुद्ध को
अंतिम भोजन
देता है। ये
दो आदमी श्रेष्ठतम
हैं। बुद्धों
के बाद बस
इन्हीं की गणना
है। तो जिसने
मुझे अंतिम
भोजन दिया है,
उसका
स्वागत-समारंभ
करना।
मरते
वक्त यह कह कर
मरे। ताकि कोई
उस गरीब आदमी
को चोट न
पहुंचा सके!
यह जहर से
अमृत खोज लेने
की कला है।
नहीं, हंसों
को तुम जहर भी
दो तो उसमें
से मोती ही चुनेंगे।
हंसों को तुम
पत्थर भी दो
तो उनमें से मोती
खोज लेंगे।
क्योंकि मोती
सब जगह छुपे
हैं, देखने
वाली आंख
चाहिए; बस
द्रष्टा की
आंख चाहिए तो
सारा जगत
मोतियों से
भरा है, क्योंकि
सारा जगत
परमात्मा से
व्याप्त है। और
द्रष्टा की
आंख न हो तो
कहीं कोई मोती
नहीं, क्योंकि
कहीं कोई
परमात्मा
नहीं।
अंधे
के लिए कहीं
कोई सूरज नहीं, कहीं
कोई
चांदत्तारे
नहीं। आंख
वाले के लिए अंधेरे
में भी रोशनी
है। मैं भीतर
की आंख की बात
कर रहा हूं।
उसी को मैं
आंख वाला कहता
हूं। उसे
अंधेरे में भी
रोशनी है।
अंधे के लिए, मूर्च्छित
के लिए, बेहोश
के लिए--जीवन
भी मृत्यु है।
और जाग्रत के
लिए मृत्यु भी
महाजीवन है।
आज
इतना ही।
मैने महा ॠीषी वालमीकि पर गुरु ओशो के प्रवचन के लिए पॖारथना किया लेकिन मेरी पॖारथना स्वीकार नहीं कि गई असा कयो या वाल्मीकिपर कया गुरु जी ने कभी महाॠषि को स्वीकार ही नहीं किया इस प्रशन का उतर देने कि कृपा करे
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