कुल पेज दृश्य

सोमवार, 30 मई 2016

कहे होत अधीर--(प्रवचन--10)

प्रेम तुम्हारा धर्म हो—(प्रवचन—दसवां)
दिनांक 20 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
प्रश्न-सार:

1—प्रार्थना क्या है?

2—आदरणीय दद्दाजी की मृत्यु पर आपने अपने संन्यासियों को कहा कि वे उत्सव मनाएं, नाचें। लेकिन इस उत्सव और नृत्य के होते हुए भी रह-रह कर आंसू पलकों को भिगोए दे रहे थे। दद्दाजी के चले जाने के बाद हृदय को अभी भी विश्वास नहीं कि वे चले गए हैं। लगता है कि वे यहीं हैं। उन्होंने हमें जो प्रेम दिया वह अकथ्य है।

3—देश की स्थिति रोज-रोज बिगड़ती जाती है। आप इस संबंध में कुछ क्यों नहीं कहते हैं?

4—मैं विवाह करूं या नहीं? और स्वयं की पसंदगी से करूं या कि घरवालों की इच्छा से?



पहला प्रश्न:

भगवान! प्रार्थना क्या है?

विनाश! प्रार्थना प्रेम का निचोड़ है। जैसे फूलों को निचोड़ो, इत्र बने--ऐसे प्रेम के सारे रूपों को निचोड़ो तो प्रार्थना बने। जैसे फूलों में सुगंध है, ऐसे प्रेम की सुगंध प्रार्थना है। प्रार्थना न तो हिंदू होती, न मुसलमान, न ईसाई। और अगर हो तो समझना कि प्रार्थना नहीं है, कुछ और है; धोखाधड़ी है, आत्मवंचना है। और धोखाधड़ी परमात्मा तक नहीं पहुंचती। असली सीढ़ियां चाहिए, तो ही उस मंदिर के द्वार तक पहुंच पाओगे।
प्रार्थना न तो हिंदू होती, न मुसलमान, न ईसाई--प्रार्थना होती है हार्दिक। और हृदय का कोई संबंध संप्रदायों से नहीं है, न शास्त्रों से है। हृदय का संबंध तो उत्सव से है, आनंद से है, संगीत से है, नृत्य से है। हृदय के नृत्य, हृदय के संगीत, हृदय के उत्सव का नाम प्रार्थना है।
यदि तुम उत्सव भरी आंखों से जगत को देखने लगो तो तुम्हारे चौबीस घंटे का जीवन ही प्रार्थना में रूपांतरित हो जाएगा। जिन आंखों में उत्सव की तरंग है, उन्हें पक्षियों की आवाज में प्रार्थना सुनाई पड़ेगी। कुरान की आयतें फीकी पड़ जाएंगी; गीता के श्लोक--दूर की प्रतिध्वनियां; वेद की ऋचाएं--अर्थहीन। उन्हें सुबह के ऊगते सूरज में प्रार्थना का आविर्भाव दिखाई देगा।
जिसे सुबह के ऊगते सूरज में प्रार्थना न दिखी, उसे परमात्मा कभी भी दिखाई नहीं पड़ सकता। प्राची पर फैल गई लाली, सुबह की ताजी हवाएं, पक्षियों के गीत, उड़ान, फूलों का अचानक खिल जाना--और तुम्हें प्रार्थना नहीं दिखाई पड़ती? पक्षियों को भी पता चल जाता है कि आ गई घड़ी उत्सव की। फूलों को भी पता चल जाता है कि खुलो अब, कि लुटा दो अपनी सुवास को! लेकिन तुम्हें पता नहीं चलता।
आदमी का मन जैसे पत्थर हो गया है! और पत्थर हो जाने के पीछे कारण यही बातें हैं। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई ईसाई है--आदमी कोई भी नहीं।
यूनान का एक बहुत बड़ा महर्षि हुआ--डायोजनीज। वह दिन की रोशनी में भी जलती हुई लालटेन लेकर चलता था। राह पर जो लोग भी मिल जाते, लालटेन उठा कर उनका चेहरा गौर से देखता। लोग उसे पागल समझते थे। लोग उससे पूछते थे: डायोजनीज, भरी रोशनी में, भरी दुपहरी में, यह लालटेन क्यों जला रखी है?
डायोजनीज कहता कि मैं आदमी की तलाश कर रहा हूं। आदमी दिखाई नहीं पड़ता। न मालूम कितने चेहरों पर मैंने अपनी लालटेन उठाई है, लेकिन आदमी अनुपस्थित है।
और कहते हैं, जब डायोजनीज मर रहा था तब किसी ने डायोजनीज से पूछा कि डायोजनीज, जिंदगी भर हो गई खोजते हुए आदमी को, आदमी मिला?
डायोजनीज ने कहा, आदमी तो नहीं मिला, लेकिन यही क्या कम सौभाग्य है कि मेरी लालटेन कोई नहीं चुरा ले गया! मेरी लालटेन बच गई, यही बहुत है।
एथेंस में था तो लालटेन बच गई। नई दिल्ली में होता तो लालटेन भी न बचती।
आदमी कहां खो गया है? किस जंगल में खो गया है? शास्त्रों के, शब्दों के! और प्रार्थना का न शास्त्रों से कोई संबंध है, न शब्दों से कोई संबंध है। यह तो निःशब्द हृदय की पुकार है।
और प्रार्थना सदा निजी होती है, सामूहिक नहीं होती। क्योंकि हृदय निजी बात है। दो व्यक्तियों की प्रार्थना एक जैसी नहीं हो सकती। और तुम जब प्रार्थना सीख लेते हो तो औपचारिक हो जाती है।
मुल्ला नसरुद्दीन का एक स्त्री से प्रेम था। फिर टूट गया प्रेम तो मुल्ला गया, जो-जो चीजें उसने भेंट की थीं, वापस मांगने--कि मैंने छल्ला दिया था, चूड़ियां दी थीं, वे सब मुझे वापस कर दो।
स्त्री भी गुस्से में थी, उसने सब उठा कर फेंक दिया। मुल्ला फिर भी खड़ा था।
उसने कहा, अब क्या खड़े हो? लो सामान अपना और रास्ता लगो!
मुल्ला ने कहा, और मैंने जो पत्र लिखे थे, वे पत्र भी मुझे लौटा दो।
वह स्त्री भी थोड़ी चौंकी कि सोने की अंगूठी मांग लो, ठीक है; मोतियों का हार दिया था, मांग लो, ठीक है। लेकिन पत्र! उसने कहा, पत्रों का क्या करोगे?
मुल्ला ने कहा, अब तुमसे क्या छिपाना! मुहल्ले के एक पंडित जी से लिखवाता था। हर पत्र के लिए एक रुपया दिया है। और अभी मेरी जिंदगी बाकी है, अभी फिर प्रेम करूंगा। ये पत्र काम आ जाएंगे। नहीं तो फिर से लिखवाने पड़ेंगे।
प्रेम-पत्र भी उधार हैं, वे भी किसी और से लिखवाए गए हैं! तो तुम्हें हंसी आती है। लेकिन तुम्हारी प्रार्थना? वह भी तो प्रेम-पत्र है परमात्मा के नाम, प्रेम की पाती है। वह भी तो उधार है। वह भी तुमने पंडितों से सीख ली है। वह भी तुम्हारी अपनी नहीं है।
अगर तुम्हारे हृदय से उठे, फिर चाहे तुम्हारे शब्द तुतलाते हुए ही क्यों न हों, पहुंच जाएंगे। लेकिन पुकार अपनी हो, बासी न हो, उधार न हो। सीधी-सादी हो, औपचारिक होने की जरूरत नहीं। बहुत अलंकृत नहीं चाहिए। कोई परमात्मा सिर्फ संस्कृत ही समझता है, इस भ्रांति में मत रहना--कि तुम जब संस्कृत में प्रार्थना करोगे, तब समझेगा। तुम ही न समझोगे तो परमात्मा क्या खाक समझेगा! पहली समझ तो तुम्हारी तरफ घटनी चाहिए। और तुमने अगर समझी तो तुम्हारे समझने में ही परमात्मा ने समझ ली। और तुम्हारा हृदय अगर ओत-प्रोत हो गया, रसमग्न हो गया, तुम अगर डोल उठे, तुम अगर नाच उठे, अनायास तुम्हारे पैरों में घूंघर बंध गए और तुम्हारे कंठ से स्वर फूटे--फिर चाहे वे बहुत काव्यपूर्ण न हों, जरूरत भी नहीं है--जरूर पहुंच जाएंगे!
हार्दिक जो भी है वह सत्य है। बौद्धिक जो भी है वह असत्य है।
पूछते हो, अविनाश: "प्रार्थना क्या है?'
हृदय की पुकार! करुण-पुकार! क्योंकि मनुष्य अकेला है। और मनुष्य के पास बड़े छोटे हाथ हैं और सागर का विस्तार बहुत, कैसे तैर पाएंगे! इसलिए मनुष्य अभीप्सा करता है अस्तित्व से कि मुझे साथ दो! हे पक्षियो, मुझे पंख दो! हे सूरज, मुझे रोशनी दे! हे चांदत्तारो, मेरे रास्ते को दीयों से भर देना! प्रार्थना और क्या है? अस्तित्व से मांग है इस बात की कि मैं अकेला हूं, बहुत छोटा हूं--और जीवन बड़ा है, विराट है। मेरे पैर बहुत छोटे, सामर्थ्य बहुत सीमित--और चढ़ने हैं उत्तुंग पर्वत। हे हवाओ, मुझे ले चलो! हे बादलो, मुझे उठा लो! एक करुण पुकार है। जैसे छोटा बच्चा रोए अपनी मां के लिए, बस ऐसे ही। प्रार्थना आंसुओं से बनती है, शब्दों से नहीं; असहाय अवस्था में निर्मित होती है, पांडित्य में नहीं।
प्रार्थना विस्मय-विमुग्ध भाव है। यह जगत कितने आश्चर्य से भरा हुआ है! इस जगत में प्रतिपल चमत्कार घट रहे हैं--विस्मय पर विस्मय! बीज फूटता है, अंकुरित होता है, और तुम चमत्कृत नहीं होते? बीज, जो अभी कंकड़ की तरह था, उसमें से हरे पत्ते निकल आए हैं! बीज, जो अभी ना-कुछ था, काटते तो न हरे पत्ते मिलते, न लाल सुर्ख फूल मिलते। वर्षा का झोंका आया है, बीज अंकुरित हो उठा है, हरे पत्ते निकल आए हैं, लाल सुर्ख फूल जगने लगे हैं--और तुम चमत्कृत नहीं होते? इतना विराट अस्तित्व और इतनी नियमबद्धता से चल रहा है! इतने अनंत तारे और टकरा नहीं जाते!
तुम अगर जरा आंख खोल कर देखो तो आश्चर्य में डूब जाओगे। वही आश्चर्य प्रार्थना की जननी है। तुम अगर आंख खोल कर देखो तो कृतज्ञता में झुक जाओगे। कितना दिया है! तुम्हारी पात्रता क्या है? आंखें दी हैं कि देख सको चांदत्तारों को, कान दिए हैं कि सुन सको अमृत संगीत को, हाथ दिए हैं कि स्पर्श कर सको अस्तित्व को, हृदय दिया है कि अनुभव कर सको उस सबका जो पकड़ में भी नहीं आता, बुद्धि की समझ में भी नहीं आता। इतना सब दिया है किसी अज्ञात स्रोत ने, तुम धन्यवाद नहीं दोगे? वही धन्यवाद प्रार्थना है।
और यह रहस्य देख कर, रहस्य को और-और जानें, ऐसी जिज्ञासा नहीं जगती? कि इस रहस्य को देख कर अस्तित्व के द्वार पर सांकल खटखटाएं कि खोलो द्वार, आने दो मुझे भीतर, और-और जानूं, और-और पहचानूं--इतना जानूं कि कुछ और जानने को शेष न रह जाए! इतना जगाओ कि मेरी सारी नींद टूट जाए! ऐसी अस्तित्व के द्वार पर दी गई दस्तक का नाम प्रार्थना है।

पट मंदिर के खोल
प्रेम-नगर से आई मैं दासी, पट मंदिर के खोल
हीरे-मोती लाई मैं दासी, पट मंदिर के खोल
वो मोती हैं तेज से जिनके चंद्रमा छुप जाए
वो हीरे हैं जोत जिन्हों की सूरज को शरमाए
नयनन का कांटा है इनको इस कांटे में तोल
                                  पट मंदिर के खोल

सुबह सवेरे छेड़ा किसने बंसी का यह राग
आंख खुली ऐसे में मेरी ये भी मेरे भाग
कोयल, मोर, पपीहा, श्यामा, सब सोवें नर-नारी
गहरे सपने में डूबी है सपने की मतवारी
सारा जग मुर्दा है पुजारी हीरे-मोती रोल
                                  पट मंदिर के खोल

दो नयनन में सौ आंसू हैं दीवानी की भेंट
नयन मेरे माटी हैं केवल भेंट हैं ये अनमेट
उस मंदिर के खोल जरा पट जिसमें हैं गिरधारी
वो गिरधारी जिन पर सारी दुनिया है बलिहारी
कब से मैं चीखूं बेचारी, सुन लो मेरे बोल
                                     पट मंदिर के खोल

प्रेम-नगर से आई मैं दासी, पट मंदिर के खोल

एक पुकार है अस्तित्व के समक्ष, एक दस्तक! बस उससे ज्यादा प्रार्थना कुछ भी नहीं है। किन शब्दों में कहोगे, किस भाषा में कहोगे--तुम्हारा चुनाव है। मैं तुम्हें कोई बंधी-बंधाई प्रार्थना नहीं दे सकता।
मुझसे अक्सर लोग आकर पूछते हैं कि एक प्रार्थना निर्मित करें जो हम सारे संन्यासियों की प्रार्थना हो। मैं उनसे कहता हूं: मैं निर्मित करूंगा, तुम्हारे लिए झूठी हो जाएगी। तुम ही अपनी प्रार्थना गढ़ लो।
टाल्सटाय की प्रसिद्ध कहानी है कि रूस में तीन फकीरों की बड़ी प्रसिद्धि हो गई--इतनी प्रसिद्धि कि रूस का जो सबसे बड़ा पादरी था, उसेर् ईष्या जगी कि ये कौन फकीर हैं जिनकी तरफ हजारों लोग जा रहे हैं! मेरे रहते, चर्च का मैं प्रधान हूं, ये कौन हैं जो संत हो गए!
ईसाइयत में एक बड़ा पागलपन है: संत कोई तभी होता है जब चर्च उसे सर्टिफिकेट दे। तुमने अक्सर सोचा होगा कि हिंदी का शब्द "संत' और अंग्रेजी का "सेंट' एक ही शब्द के रूप हैं। नहीं, दोनों में बड़ा भेद है। हिंदी का शब्द संत तो बना है सत से--जिसने सत को जान लिया; जान ही नहीं लिया, जो सत के साथ एकरूप हो गया; जिसने सत में अपना अंत कर दिया, सत्य में अपने को डुबा दिया; जो बचा नहीं, सत ही बचा; सत में जिसका अंत हो गया है उसे हम संत कहते हैं। अंग्रेजी का शब्द सेंट बड़े और ढंग से आता है। अंग्रेजी का शब्द सेंट आता है सेंक्शन से। सेंक्शन का अर्थ होता है--सरकारी स्वीकृति, चर्च के द्वारा स्वीकृति। जिसको चर्च स्वीकार कर लेता है वह संत।
इन अर्थों में तो भारत में विनोबा भावे के सिवाय और कोई संत नहीं, क्योंकि वे ही सरकारी संत हैं, बाकी तो सब गैर-सरकारी हैं।
पादरी बहुत चिंतित था, चिंता उसकी बढ़ती चली गई, क्योंकि भीड़ धीरे-धीरे चर्च आना बंद ही हो गई। एक दिन क्रोध में वह गया उन संतों की तलाश में। एक झील के उस पार उन संतों का वास था। तो उसने नाव की, माझी नाव खेकर ले चले उसे उस पार। उसने अपने पूरे चर्च के प्रधान की जो वेशभूषा थी, पहन रखी थी; तगमे लटका रखे थे; सोने का मुकुट सिर पर रख छोड़ा था; हाथ में, जो महा पुरोहित के हाथ का डंडा था सोने का बना हुआ, वह ले रखा था। वह अपनी पूरी साज-सज्जा में गया था कि आज इन संतों को रास्ते पर लगा दूंगा। उतरा, देख कर हैरान हुआ--एक झाड़ के नीचे तीन सीधे-सादे से लोग बैठे थे! उसने पूछा, क्या तुम्हीं वे तीन संत हो?
उन्होंने कहा, संत? नहीं-नहीं, हमारी क्या पात्रता संत होने की! हम तो गांव के सीधे-सादे गंवार हैं। मगर लोग मानते ही नहीं। लोग हैं कि आए चले जाते हैं, हम तो मना करते हैं। हम जितना मना करते हैं उतने ही लोग हैं कि आए चले जाते हैं। हमारा तो जीना मुश्किल कर दिया है। आप अच्छे आ गए, हमें बचाओ। यह भीड़-भाड़ हमें रुचती नहीं। हम तो अपने मजे में थे। यह कैसे लोगों में खबर पहुंच गई? यह किसने खबर पहुंचा दी?
प्रधान तो बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने कहा, घबड़ाओ मत। लेकिन तुम करते क्या हो यहां बैठे-बैठे?
उन्होंने कहा, और क्या करेंगे, प्रार्थना करते हैं!
बाइबिल कहां है?
वे तीनों एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। उन्होंने कहा, क्षमा करें, हमें पढ़ना नहीं आता, सो बाइबिल हम रख कर भी क्या करेंगे?
तब तो पुरोहित और भी प्रसन्न हुआ कि जिन्हें बाइबिल भी पढ़ना नहीं आता, ये कैसे संत हो सकते हैं? मटियामेट कर दूंगा इनका! भीड़ को वापस चर्च आना पड़ेगा। तो उसने कहा, फिर तुम्हारी प्रार्थना क्या है? तुम कहते हो प्रार्थना करते हो, प्रार्थना क्या करते हो?
वे तीनों नीचे देखने लगे जमीन की तरफ।
उस पुरोहित ने कहा, बोलते क्यों नहीं? शर्माते क्यों हो?
उन्होंने कहा, अब आपसे कैसे कहें? बड़ा संकोच लगता है। असल में, हमें प्रार्थना भी नहीं आती। क्योंकि जो चर्च के द्वारा स्वीकृत प्रार्थना है, बहुत लंबी है और कठिन है।
तो तुम प्रार्थना करते क्या हो फिर? डरो मत, बोलो। मैं तुम्हें क्षमा कर दूंगा और क्षमा करवा दूंगा।
उन्होंने कहा, अब आप नहीं मानते तो मजबूरी है। शर्म तो बहुत आती है। हमने अपनी प्रार्थना खुद ही बना ली है। माफ करें, गैर पढ़े-लिखे हैं।
पादरी की तो प्रसन्नता बढ़ती चली गई। अपनी बनाई प्रार्थना भी कहीं काम आ सकती है? प्रार्थना तो स्वीकृत होनी चाहिए शास्त्रों के द्वारा, संतों के द्वारा, परंपरा के द्वारा, सदियों के द्वारा, अतीत जिसके समर्थन में हो!
गायत्री पढ़ता है हिंदू तो जानता है कि दस हजार सालों से ऋषि-मुनियों ने इसको समर्थन दिया है। दस हजार साल से जिन ऋषि-मुनियों ने इसे समर्थन दिया है, जरूर उसमें कुछ राज होगा, रहस्य होगा। और दस हजार से भी दिल नहीं मानता तो हिंदू पंडित सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि यह और भी पुरानी है। यह दस हजार का खयाल तो अंग्रेजों ने दे दिया। इसी पूना में हुए लोकमान्य तिलक, उन्होंने सिद्ध करने की कोशिश की कि गायत्री नब्बे हजार साल पुरानी है। जितनी पुरानी उतनी श्रेष्ठ। जैसे कि प्रार्थना भी कोई शराब हो, कि जितनी पुरानी उतनी श्रेष्ठ! जितनी सड़ जाए उतनी श्रेष्ठ! खुद कैसे तुम प्रार्थना बना सकते हो? इसलिए हिंदुओं की एक अकड़ है कि हमारी प्रार्थनाएं सबसे ज्यादा पुरानी हैं। यहूदियों की भी उतनी पुरानी नहीं, ईसाइयों की तो अभी केवल उन्नीस सौ साल पुरानी हैं, और मुसलमानों की केवल चौदह सौ साल, और सिक्खों की तो केवल पांच सौ साल।
जैनों का भी दावा ऐसा ही है कि हमारी प्रार्थनाएं भी हिंदुओं से कम पुरानी नहीं हैं, ज्यादा ही पुरानी हैं। क्योंकि वेद में जैनों के प्रथम ऋषि का उल्लेख है, प्रथम तीर्थंकर का उल्लेख है; इससे सिद्ध होता है कि जैन धर्म ऋग्वेद से भी पुराना है। क्योंकि ऋग्वेद में आदिनाथ का इतने सम्मान से उल्लेख किया गया है, उससे सिद्ध होता है कि आदिनाथ जिंदा नहीं थे। क्योंकि जिंदा आदमियों को लोग इतना सम्मान देते ही नहीं। मर चुके होंगे। मर ही न चुके होंगे, हजार, दो हजार, पांच हजार साल बीत चुके होंगे, तब कहीं लोग सम्मान देते हैं। लोगों की आदतें तो पुरानी हैं, वही की वही हैं--मुर्दे को सम्मान, जीवित को अपमान। तो ऋग्वेद में आदिनाथ का इतना सम्मानपूर्वक उल्लेख, जैनों का दावा है, सिद्ध करता है कि आदिनाथ को गए वर्षों बीत चुके होंगे, सैकड़ों वर्ष, तब इतना सम्मान मिला है। तो हमारी प्रार्थनाएं तो और भी पुरानी हैं, उनका दावा है।
यहां सभी की कोशिश, सारे धर्मों की कोशिश यही है कि उनका जो शास्त्र है, पुराना है। जितना पुराना उतनी प्रतिष्ठा। जैसे शास्त्र भी कोई बाजार की दुकान है। साख होती है न पुरानी दुकान की! दुकान की साख भी बिकती है, नाम भी बिकते हैं। जो दुकान हजारों साल से चल रही है, उसका नाम भी करोड़ों का होता है। सिर्फ उसका नाम ही ले लो, लेबल, तो तुम्हें हजारों साल की प्रतिष्ठा मिल जाती है।
उस पादरी ने कहा कि तुमने बनाई प्रार्थना? जघन्य अपराध किया है! प्रार्थनाएं बनाई नहीं जातीं, उनका इलहाम होता है। जीसस को परमात्मा ने स्वयं प्रार्थना दी थी, तुमने कैसे बनाई? फिर भी बोलो तुम्हारी प्रार्थना क्या है?
उन्होंने कहा, आपने हमें बहुत डरा दिया है। अब आप हमसे पूछें ही मत, क्योंकि आप सुनेंगे तो बहुत नाराज होंगे। और आपके हाथ में डंडा देख कर हमें बहुत भय भी लगता है। और आपका सोने का मुकुट और यह वेशभूषा...हम आपके चरण छूते हैं, हमें माफ करें! आप हमें असली प्रार्थना बता दें, हम वही करेंगे।
लेकिन पादरी को भी जिज्ञासा जगी कि है आखिर तुम्हारी प्रार्थना क्या?
तो उन्होंने कहा, अब आप नहीं मानते तो हम बताए देते हैं। हमने बहुत सोचा। हम गैर पढ़े-लिखे हैं, गंवार हैं। खूब हमने गणित बिठाया, कौन सी प्रार्थना करें! फिर हम तीनों ने एक बात तय की। ईसाइयत मानती है कि ईश्वर के तीन रूप हैं। जैसे हिंदू मानते हैं त्रिमूर्ति--ब्रह्मा, विष्णु, महेश--ऐसे ही ईसाई मानते हैं--ट्रिनिटी, ईश्वर के तीन रूप हैं। तो हमने एक प्रार्थना बना ली कि तुम भी तीन, हम भी तीन, हम पर कृपा करो!
गंभीर पादरी को भी हंसी आ गई। उसने कहा, हद्द हो गई प्रार्थना की! बहुत प्रार्थनाएं सुनीं, यह कोई प्रार्थना हुई कि तुम भी तीन, हम भी तीन, हम पर कृपा करो! यू आर थ्री, वी आर थ्री, हैव मर्सी आन अस। यह कोई प्रार्थना है!
खुश हुआ कि इनको रास्ते पर लाऊंगा। उनको असली प्रार्थना बताई--चर्च की स्वीकृत प्रार्थना--लंबी, प्राचीन भाषा में लिखी गई। एक दफा सुनाई। उन्होंने कहा, एक दफा और। दो दफा सुनाई। उन्होंने कहा, एक दफा और, क्योंकि हम भूल जाएंगे। और भूल-चूक नहीं होनी चाहिए। हमारी तो प्रार्थना ऐसी थी कि भूल-चूक हो ही नहीं सकती थी। हमें याद ही रहता था--हम भी तीन, तुम भी तीन, बचा इतना कि हम पर कृपा करो! इसमें भूलने का कोई उपाय नहीं था; इसको हम नींद में, सपने में भी दोहराते थे। इतनी सी बात ही तो याद रखनी थी कि तुम भी तीन, हम भी तीन, हम पर कृपा करो! अब और बचा भी क्या, सब आ गया था इसमें। लेकिन आपकी प्रार्थना लंबी है।
तीसरी बार भी सुनी। और उस पादरी ने कहा, घबड़ाओ नहीं, कभी-कभी चर्च भी आया करो। धीरे-धीरे तुम्हारा जीवन सुधर जाएगा।
वह बड़ा खुश कि एक उपद्रव मिटाया, अपनी नाव में सवार होकर झील से चला। बीच झील में नाव पहुंची होगी कि माझी भी हैरान हुए, पादरी भी हैरान हुआ--वे तीनों फकीर झील के पानी पर दौड़ते हुए चले आ रहे थे। उनको पानी पर चलते देख कर तो पादरी की सांस बंद हो गई। यह चमत्कार तो सिर्फ जीसस ने किया था--पानी पर चलना! वे तीनों भागते चले आ रहे थे--बदहवास, पसीना-पसीना! आकर एकदम किनारे पर खड़े हो गए नाव के और कहा कि रुकें, एक दफा और प्रार्थना दोहरा दें, हम तो भूल ही गए! हममें तो झगड़ा हो गया। यह कहता है इस तरह शुरू होती है; मैं कहता हूं इस तरह शुरू होती है; वह कहता है उस तरह शुरू होती है। आपने और बिगूचन खड़ी कर दी। अब हम विवाद करें कि प्रार्थना करें!
पादरी की आंखें खुलीं। झुक कर उसने उन तीनों के चरण छुए और कहा, मुझे माफ कर दो। तुम्हारी प्रार्थना ठीक थी, क्योंकि सुन ली गई। मेरी प्रार्थना गलत है, क्योंकि अभी तक सुनी नहीं गई। मैं पानी पर नहीं चल सकता, यह मेरा साहस नहीं। मैं पानी पर पैर नहीं रख सकता, ऐसी अभी मेरी श्रद्धा नहीं। तुम वापस जाओ! मैंने जो कहा था, बिलकुल भूल जाओ। असल में, आज से मैं भी यही प्रार्थना करूंगा जो तुम करते थे। तुम्हारी प्रार्थना जीत गई है, मेरी प्रार्थना हार गई है।
यह तो कहानी है टाल्सटाय की। लेकिन कहानी महत्वपूर्ण है। कौन सी प्रार्थना जीतती है? जो हार्दिक हो! जो तुम्हारे भीतर अंकुरित हो! अपनी प्रार्थना खोजो।
इसलिए जब मुझसे कोई कहता है कि मैं संन्यासियों के लिए एक प्रार्थना निर्मित करूं, तो मैं सदा इनकार कर देता हूं। कोई प्रार्थना निर्मित नहीं की जाएगी। हां, प्रार्थना क्या है, इस संबंध में इशारे करूंगा। फिर खोजना तुम। तुम्हें खयाल दे दूंगा कि गुलाब के फूल कैसे हो जाते हैं, गुलाब के फूल कैसे होते हैं, उनकी गंध की थोड़ी तुम्हें पहचान करा दूंगा। फिर कहूंगा: जाओ जंगल में, खोजो गुलाब के फूल, निकालो उनसे इत्र अपना। उनसे इत्र निकालोगे तो तुम सुगंधित हो उठोगे।
प्रार्थना वैसे ही सीखने की जरूरत नहीं है जैसे प्रेम सीखने की जरूरत नहीं है। प्रेम की क्षमता लेकर तुम पैदा हुए हो, वैसे ही प्रार्थना की क्षमता लेकर भी पैदा हुए हो। बस अपने प्रेम को विकसित करो। फैलने दो प्रेम को, कोई सीमा प्रेम के लिए न हो! पत्नी पर न रुके, बेटे पर न रुके, मां पर न रुके, भाई पर न रुके--फैलता जाए! और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि पत्नी को प्रेम मत करना।
इस संबंध में भेद समझ लेना। ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने तुमसे कहा है कि अगर परमात्मा को प्रेम करना, तो पत्नी को प्रेम मत करना, पति को प्रेम मत करना, बच्चों को प्रेम मत करना। इसका तो अर्थ हुआ कि परमात्मा भी प्रतियोगी है पत्नी और बच्चों का!र् ईष्यालु है!
मुल्ला नसरुद्दीन एक ट्रेन में सफर कर रहा था। उसकी पत्नी उसके बगल में ही बैठी थी। और सामने की ही सीट पर एक बहुत सुंदर युवती बैठी थी। मुल्ला आंख बचा-बचा कर उस सुंदर युवती को देख लेता था। पत्नी तो जली जा रही थी। लेकिन मुल्ला ने कुछ हरकत भी नहीं की थी कि कुछ कहे। और देखता भी इस ढंग से था जैसे अनायास, इधर से उधर देखते हुए दिखाई पड़ गई। घूर कर भी नहीं देख रहा था, नहीं तो ठिकाने लगा देती। उस युवती का पति भी मौजूद था, इसलिए थोड़ा ढाढ़स भी था उसे कि घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है। मुल्ला नसरुद्दीन बिलकुल खिड़की के पास बैठा हुआ था। उसके खीसे से एक रूमाल हवा के झोंके खा-खा कर धीरे-धीरे सरक आया था बाहर। सामने बैठी स्त्री ने कहा, महानुभाव, रूमाल को सम्हालिए, नहीं तो उड़ जाएगा बाहर। बस मुल्ला की पत्नी टूट पड़ी। उसने कहा, कलमुंही, तेरे पति की सिगरेट से उसका कोट जल रहा है, मैं तो कुछ नहीं बोली, घंटे भर से देख रही हूं। मेरे पति का रूमाल उड़े या न उड़े, तुझे क्या लेना-देना?
इस जगत में जिसको हम प्रेम कहते हैं वह तो बहुतर् ईष्या से भरा हुआ है। वह तोर् ईष्या का ही एक नाम है। और तुम्हारे पंडितों ने तुम्हें समझाया है कि परमात्मा भी बड़ार् ईष्यालु है। अपने बेटे से भी प्रेम करोगे तो उसे जलन हो जाएगी। अपने भाई को प्रेम करोगे तो वह नाराज हो जाएगा। अपनी पत्नी को चाहोगे तो वह फिर दोजख में डालेगा, नरक में सड़ाएगा--कि मेरे रहते और तुमने अपनी पत्नी को चाहा! अपने पति को चाहा!
मैं तुमसे यह नहीं कह सकता हूं। इन मूढ़ों के कारण ही जगत से प्रेम खो गया। और जब प्रेम खो जाता है तो प्रार्थना कहां बचेगी? जब फूल ही न बचे तो इत्र कहां से आएगा? मैं तुमसे कहता हूं: खूब प्रेम करो, जी भर कर प्रेम करो--पत्नी को, पति को, बच्चों को, भाई को, मित्रों को। सिर्फ एक खयाल रखना, कोई सीमा न बने। जैसे कंकड़ फेंकते हो झील में, एक जगह गिरता है, मगर उसकी लहर उठती है तो उठती ही चली जाती है, दूर-दूर...दूर-दूर के किनारों को छुएगी वह लहर। और इस अस्तित्व का तो कोई किनारा नहीं है। तुम्हारे प्रेम से जो लहरें उठें वे जाएं दूर-दूर अनंत तक।
प्रेम कहीं रुके न तो प्रार्थना बन जाता है। प्रार्थना प्रेम के विपरीत नहीं है; प्रेम की कंकड़ी से उठी हुई लहरों का ही विस्तार है। इसलिए अपने प्रेम को निखारो। प्रेम से भागना मत, प्रेम को संवारो। प्रेम की बगिया को पानी दो, खाद दो।
मैं जो प्रार्थना तुम्हें सिखा रहा हूं वह प्रेम का ही शुद्धतम रूप है। इसलिए कठिन भी नहीं, सीखने की जरूरत भी नहीं, क्योंकि प्रेम तो तुम निसर्ग से ही लेकर आए हो। हर बच्चा प्रेम की क्षमता के साथ पैदा होता है। जैसे हर बीज में फूल छिपा है, ऐसे हर आत्मा में प्रेम छिपा है।
मगर तुम्हें इस ढंग की बातें सिखाई गई हैं कि तुम्हारा प्रेम विकसित नहीं हो पाता। सब जगह कारागृहों में कैद हो जाता है। और जब प्रेम कारागृह में कैद हो जाता है तो सड?ने लगता है। और प्रेम अगर सड़ता है तो उससे बहुत दुर्गंध उठती है। यह सारी पृथ्वी प्रेम की दुर्गंध से भर गई है।
क्यों सड़े हुए प्रेम से दुर्गंध उठती है? क्योंकि प्रेम अगर विकसित होता तो सुगंध उठती। जिससे सुगंध उठती है वह अगर सड़ जाए तो दुर्गंध उठती है। अपने प्रेम को सड़ने मत देना, उसे कहीं रुकने मत देना। उसकी कोई सीमा मत मानना, उसकी कोई परिभाषा मत बनाना। मत कहना कि मैं हिंदू को ही प्रेम करूंगा, क्योंकि मैं हिंदू हूं। मत कहना कि मैं भारतीय को ही प्रेम करूंगा, क्योंकि मैं भारतीय हूं। कोई सीमा मत बनाना--न देश की, न जाति की, न वर्ण की। तुम्हारा प्रेम अबाध बहता रहे। प्रेम तुम्हारा धर्म हो। फिर देर नहीं होगी कि तुम जल्दी ही प्रार्थना से परिचित हो जाओगे। यह प्रेम के ही वृक्ष की अंतिम शाखाओं पर प्रार्थना का फूल खिलता है।

दूसरा प्रश्न:

भगवान! आदरणीय दद्दाजी की मृत्यु पर आपने अपने संन्यासियों को कहा कि वे उत्सव मनाएं, नाचें। लेकिन इस उत्सव और नृत्य के होते हुए भी रह-रह कर आंसू पलकों को भिगोए दे रहे थे।
भगवान, दद्दाजी के चले जाने के बाद हृदय को अभी भी विश्वास नहीं कि वे चले गए हैं। लगता है कि वे यहीं हैं। उन्होंने हमें जो प्रेम दिया वह अकथ्य है।

कृष्णतीर्थ! इसीलिए तो कहता हूं उत्सव मनाओ! कोई जाता नहीं, कोई कहीं जाता नहीं। जाने का उपाय नहीं है, जाने को कोई स्थान नहीं है। हम शाश्वत हैं। अमृतस्य पुत्रः। हम अमृत के पुत्र हैं। हम अमृत में ही लीन हो जाते हैं। जैसे बूंद सागर में खो जाती है। खोजे से नहीं मिलेगी अब; लेकिन खो नहीं गई है, सागर हो गई है।
इसलिए तुम्हारा लगना ठीक है कि अभी भी विश्वास नहीं आता कि वे चले गए हैं।
जाएंगे कहां? हां, जिस देह की सीमा में बंधे थे उस सीमा में अब नहीं हैं। और तुम देह को ही देख सकते थे। यह तुम्हारी आंख की कमजोरी है। यह जाने वाले का कसूर नहीं। तुम केवल पदार्थ को ही पहचान सकते थे। यह तुम्हारी समस्या है। काश, तुम अपने भीतर आत्मा को पहचान लो, तो फिर कोई तुम्हें कभी मृत्यु का धोखा नहीं दे सकेगा। मृत्यु में भी तुम जानोगे कि केवल देह गिर गई; जीवन तो मिल गया महाजीवन में।
सभी व्यक्ति मृत्यु के बाद महाजीवन में सम्मिलित नहीं हो जाते, क्योंकि उनका देह से मोह बना रहता है। देह से मोह बना रहता है तो वही मोह का पाश उन्हें फिर नई देह में खींच लाता है। जो व्यक्ति देह से सारा मोह छोड़ कर जाता है उसके लौटने का उपाय नहीं होता, उसका आवागमन नहीं होता।
जिस दिन उनका महाप्रस्थान हुआ...।
पांच सप्ताह से वे अस्पताल में थे। एक भी दिन उन्होंने खबर नहीं भेजी कि मैं देखने आऊं। मैं देखने गया दो बार, जब भी मुझे लगा कि खतरा है। लेकिन अंतिम दिन उन्होंने खबर भेजी, सुबह से ही खबर भेजी, तो मैंने कहा कि मैं आता हूं। मैंने खबर भेजी कि मैं आता हूं कि उनकी तत्क्षण खबर आई कि कोई जरूरत नहीं, नाहक परेशान न होओ।
मैं फिर भी तीन बजे गया। मैं आनंदित था, क्योंकि उनका मुझसे जो मोह था, मुझे देखने का जो मोह था, वह उनका आखिरी बंधन था, वह भी टूट गया था। और जब मैंने उनसे कहा कि आपका कमरा भी तैयार हो गया है, नया बाथरूम भी बन गया है, बस अब दिन दो दिन में आपको अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली है; आपके लिए नई कार भी बुला ली है, क्योंकि अब पैर में तकलीफ है तो चलने में मुश्किल होगी, नई कार भी आ गई है--तो न तो उन्होंने नई कार में कोई उत्सुकता ली, न नये कमरे में, न नये बाथरूम में; सिर्फ कंधे बिचकाए, कुछ बोले नहीं। जरा सा भी रस दिखाते तो लौटना पड़ता। कंधे बिचकाए तो मैं खुश हुआ। कंधे बिचकाने का मतलब था कि सब बेकार है। अब सब मकान बेकार हैं, अब सब कारें बेकार हैं। अब कहां आना-जाना? फिर भी मैंने दोहराया और जोर दिया कि चिंतित न हों, बस दिन दो दिन की बात है, घर ले चलेंगे। तो भी उन्होंने यह नहीं कहा कि घर आऊंगा; इतना ही कहा कि हां, कीर्तन करेंगे।
घर आए, जीवित तो नहीं आए। और चूंकि उन्होंने कहा था कि कीर्तन करेंगे, इसलिए मैंने कहा कि पहला काम जो करने का है वह कीर्तन करो। आभास उन्हें स्पष्ट था कि जाने की घड़ी आ गई। अब कैसा घर! असली घर जाने की घड़ी आ गई।
सभी इस अवस्था को उपलब्ध हो सकते हैं। नहीं हो पाते, क्योंकि हम प्रयास नहीं करते हैं, हम ध्यान में नहीं डूबते हैं। एक ही उपाय है--ध्यान कहो, प्रार्थना कहो, जो भी नाम देना हो दो--एक ही उपाय है कि अपने में डूबो और अपने को पहचानो।
उस सुबह उनकी अपने से पहचान पूरी हो गई। मुझे एक ही चिंता थी कि कहीं वे अपने को बिना जाने समाप्त न हो जाएं। एक ही फिक्र थी कि किसी तरह थोड़े दिन और खिंच जाएं। क्योंकि ध्यान उनका बस करीब-करीब आया जा रहा था। जैसे किनारे पर आ गए थे, बस एकाध कदम और! मगर कहीं ऐसा न हो कि वह एकाध कदम उठाने के पहले चले जाएं, तो फिर जन्म हो जाएगा। और फिर पता नहीं जो सुअवसर उन्हें इस बार मिला था वह इतनी आसानी से दोबारा मिलेगा कि नहीं मिलेगा। और एक बार भटका हुआ, कब फिर मंदिर के निकट आ पाएगा, यह भी कहना मुश्किल है। और एक चीज से दूसरी चीज पैदा होती चली जाती है। फिर सिलसिला अनंत हो सकता है।
इसलिए मेरी एक ही चिंता थी। वे बचें, यह सवाल न था। इतनी देर बच जाएं केवल कि इस देह से सदा के लिए विदा हो सकें, बस इतनी मेरी चिंता थी। अगर वे बच गए होते और बिना समाधि को उपलब्ध हुए बच गए होते, तो मैं दुखी होता। वे नहीं बचे, मगर समाधि को उपलब्ध होकर नहीं बचे, तो मेरे आनंद का कोई पारावार नहीं है।
कहते हैं, पिता के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: मैं उऋण हो गया। और क्या दे सकता था उनको? उन्होंने मुझे जीवन दिया था, मैंने उन्हें महाजीवन दिया। और तो कोई देने को चीज थी भी नहीं, है भी नहीं। जीवन के बाद तो बस महाजीवन ही एक भेंट है। मैं खुश हूं, आनंदित हूं। वे ऐसे गए हैं जैसे जाना चाहिए। उन्होंने ऐसे विदा ली है जैसी विदा लेनी चाहिए।
इसलिए जो लोग वहां मौजूद थे उनकी आखिरी घड़ी में, उनको भी ऐसा नहीं लगा कि मृत्यु घट रही है। उनको भी ऐसा लगा जैसे महाजीवन घट रहा है। उनको भी ऐसा नहीं लगा कि कोई कालिमा उतर आई अमावस की। उनको भी ऐसा लगा जैसे पूर्णिमा हो गई।
उनके मर जाने के बाद उनके शरीर को जाकर मैंने दो जगह छुआ था। एक तो आज्ञाचक्र पर। क्योंकि दो ही संभावनाएं थीं: या तो वे आज्ञाचक्र से विदा होते तो फिर एक बार उन्हें जन्म लेना पड़ता, सिर्फ एक बार; और अगर वे सातवें चक्र से, सहस्रार से विदा होते तो फिर जन्म नहीं लेना पड़ता। पहले मैंने उनका आज्ञाचक्र देखा, डरते-डरते हाथ रखा उनके आज्ञाचक्र पर। क्योंकि जहां से जीवन विदा होता है वह चक्र खुल जाता है, जैसे कली खिल कर फूल बन जाए। और जिनको चक्रों का अनुभव है वे केवल स्पर्श करके तत्क्षण अनुभव कर ले सकते हैं--जीवन कहां से विदा हुआ। मैं अत्यंत खुश हुआ जब मैंने पाया कि आज्ञाचक्र से जीवन विदा नहीं हुआ है। तब मैंने उनका सहस्रार छुआ, जिसको सहस्रदल कमल कहते हैं, जिसको हजार पंखुड़ियों वाला कमल कहते हैं, वह खुला हुआ है। वे उड़ गए हैं सातवें द्वार से।
पलटू कहते हैं: सातवें से जो उड़ जाए वह आठवें में प्रवेश कर जाता है। सात महल के ऊपर आठवां महल है। वह आठवां महल ही निर्वाण है, मोक्ष है, कैवल्य है। वह आठवां महल ही परमात्मा है, सत्य है, शिव है, सुंदर है, सच्चिदानंद है। वही ब्रह्मलोक है।
कृष्णतीर्थ! वे कहीं गए नहीं, यहीं हैं। बड़े होकर, विराट होकर यहीं हैं। फैल कर यहीं हैं। फूल की तरह नहीं हैं, सुवास की तरह यहीं हैं।
रामकृष्ण मरणशय्या पर थे। उनकी पत्नी शारदा रोने लगी और उसने पूछा कि परमहंस देव! आप तो जा रहे हैं, मेरा क्या होगा?
उन्होंने आंख खोलीं और कहा कि जा रहा हूं! पागल, कहां जाऊंगा? जाने को कोई जगह कहां है? यहीं था, यहीं रहूंगा। अभी देह में था, अब बिना देह के रहूंगा।
तुम जब दीये की ज्योति को फूंक देते हो तो दीये की ज्योति कहां जाती है?
सूफी फकीर हसन के जीवन में उल्लेख है कि वह एक गांव में प्रवेश हुआ। सांझ का वक्त था, उसने एक छोटे से बच्चे को हाथ में दीया लिए हुए पास की एक मजार की तरफ जाते देखा। ऐसे ही मौज में, मजे में, मस्ती में उसने उस बच्चे से पूछा, बेटे, यह दीया लेकर कहां जा रहे हो?
उस बच्चे ने कहा, मजार पर चढ़ाने जा रहा हूं।
फकीर ने कहा, यह दीया तुमने ही जलाया?
उस बच्चे ने कहा, हां, मैंने ही जलाया।
तो फकीर ने कहा, एक बात का जवाब दो। तुमने जब दीया जलाया तो क्या तुम कह सकते हो ज्योति कहां से आई? क्योंकि तुमने ही जलाई, तुम्हारे सामने ही आई; कहां से आई?
सिर्फ बच्चे के साथ मजाक कर रहा था। मगर कभी-कभी मजाक महंगी पड़ जाती है। आशा नहीं थी कि बच्चा ऐसा करेगा। उस बच्चे ने मुस्कुरा कर फकीर की तरफ देखा और दीये में फूंक मार दी। फूंक मारते ही दीया बुझ गया। उस बच्चे ने पूछा, आपके सामने ही दीया बुझा, बता सकते हैं ज्योति कहां गई?
कहते हैं हसन ने झुक कर उसके पैर छुए और उसने कहा कि मैं तो मजाक ही कर रहा था, लेकिन तूने भारी चोट पहुंचा दी। न ज्योति कहीं से आती, न कहीं जाती; सिर्फ प्रकट होती है और अप्रकट होती है। है तो यहीं। कभी प्रकट अवस्था में होती है, तो तुम्हें दिखाई पड़ती है; कभी अप्रकट अवस्था में होती है, तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती। देह में होती है ज्योति तो तुम सोचते हो कि है, हालांकि देह में भी तुम्हें आत्मा दिखाई नहीं पड़ती, देह ही दिखाई पड़ती है; मगर अनुमान करते हो कि आत्मा होनी चाहिए। आदमी बोलता है, उठता है, चलता है, खाता है, पीता है, तो आत्मा होनी चाहिए--यह अनुमान है तुम्हारा। तुमने आत्मा देखी नहीं है। अपने में नहीं देखी तो दूसरे में कैसे देखोगे? जिस दिन अपने में देख लोगे उस दिन चकित हो जाओगे: देह तो कुछ भी नहीं है, केवल आवरण है! और तुम आवरण को सब कुछ समझ रखे हो।
निश्चित ही आवरण एक दिन गिर जाएगा। लेकिन जो आवरण के भीतर था, वह नष्ट नहीं होता है। अगर वासना शेष रह गई तो फिर नया आवरण ग्रहण करेगा। अगर वासना निःशेष हो गई तो फिर आवरण ग्रहण करने की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
धर्म की कला और धर्म का विज्ञान एक ही खोज में संलग्न है कि कैसे हम इतने निर्वासना से भर जाएं कि फिर देह में न लौटना पड़े, क्योंकि देह में लौटना सिवाय कष्ट और पीड़ा के और कुछ भी नहीं है। मां के पेट में नौ महीने कारागृह में बंद, मलमूत्र में पड़े हुए, अंधकार में डूबे हुए--कोई बड़ी सुखद स्थिति नहीं हो सकती। फिर जन्म की पीड़ा--मां के गर्भ से बाहर आना, एक संकरे द्वार से बाहर आना--जन्म की पीड़ा। फिर जीवन की अनंत-अनंत पीड़ाएं हैं। क्योंकि यहां कोई वासना सफल नहीं होती, हर वासना असफल होती है। इसलिए हर वासना विषाद लाती है। फिर बीमारियां हैं, रोग हैं, बुढ़ापा है, फिर मृत्यु है--पीड़ा ही पीड़ा का जाल है।
सत्य के खोजी एक ऐसे जीवन की तलाश करते रहे हैं जो आनंद ही आनंद हो। वह जीवन देह-मुक्त ही हो सकता है, विदेह ही हो सकता है।
कृष्णतीर्थ! वे कहीं चले नहीं गए हैं, सिर्फ विदेह हो गए हैं--यहीं हैं। तुम्हारी आंखों से आंसू आ रहे हैं, क्योंकि तुम्हें इस बात पर भरोसा नहीं आता कि वे यहीं हैं। तुम्हारी आंख में आंसू आ रहे हैं, क्योंकि मृत्यु सदा से दुख का कारण रही है। और साधारणतः मृत्यु दुख का कारण है भी। लेकिन कभी कुछ मृत्युएं होती हैं जो दुख का कारण नहीं होतीं, आनंद का कारण होती हैं। होनी तो सभी मृत्युएं ऐसी ही चाहिए, प्रयास तो यही रहे, अभ्यास तो यही रहे, साधना तो यही चले कि तुम भी ऐसे ही मर सको।
इस बुद्ध-क्षेत्र में मैं तुम्हें जीवन भी सिखाना चाहता हूं, मृत्यु भी सिखाना चाहता हूं। इसलिए किसी अवसर को छोड़ नहीं देना चाहता। मृत्यु की यह महाघटना घटी, मैं चाहता था यह तुम्हारे लिए पाठ बन जाए, तुम इसमें भी नाच सको। आंखों में आंसू आएंगे--पुरानी आदत, सदियों पुरानी आदत, संस्कार।
एक मित्र का बेटा चल बसा। जलगांव से कुछ ही दिनों पहले मुझे पत्र आया। बड़ा क्रोध से भरा हुआ पत्र। एक मेरे संन्यासी का बेटा चल बसा और उन्होंने बेटे की मृत्यु पर उत्सव मनाया, कीर्तन किया, नाचे। उनके किसी मित्र ने क्रोध में मुझे लिखा है कि आपने इनको बिलकुल भ्रष्ट कर दिया। घर में लड़का मर जाए, तो यह कोई नाचने और उत्सव मनाने की बात है? आपको ऐसी शिक्षा नहीं देनी चाहिए।
जिनका बेटा मरा है, वे तो नाचे, उत्सव मनाए। जिनका बेटा नहीं मरा है, वे नाराज हो रहे हैं। उनका कहना है दुख मनाया जाना चाहिए था। हम ऐसे दुखवादी हैं कि दुख का कोई अवसर हो तो छोड़ना नहीं चाहते! उनके मित्र ने लिखा कि क्या मेरे ये बंधु पागल हो गए हैं?
दुनिया ऐसी है। जो दुनिया करती है वह ठीक। उससे भिन्न कुछ करो तो दुनिया नाराज होती है।
मैं तुम्हें जीवन का ही पाठ नहीं देना चाहता, मृत्यु का भी पाठ देना चाहता हूं। अब एक लाख संन्यासी हैं मेरे, उनमें बहुत वृद्ध हैं। धीरे-धीरे वे जाएंगे, विदा होंगे। मैं चाहूंगा कि तुम विदाई देने का ढंग भी सीखो, कला भी सीखो।
इतना तो पक्का है कि बहुत से संन्यासी समाधिस्थ होकर जाएंगे। बहुत से इतना आयोजन करके तो जाएंगे ही जाएंगे कि ज्यादा से ज्यादा एक जन्म हो। बहुत से इतना आयोजन करके जाएंगे कम से कम कि ज्यादा से ज्यादा दो जन्म हों। और बहुत से इतना आयोजन करके जाएंगे कि ज्यादा से ज्यादा तीन जन्म हों। अनंत जन्मों की शृंखला है, इसमें अगर तुम तीन जन्म हों, इतना भी आयोजन करके जा सके, तो तुम्हारी सफलता कम नहीं है। तो तुम रास्ते पर चल पड़े, मंदिर दिखाई पड़ने लगा--बस तीन कदम और, या दो कदम और, या एक कदम और, या आखिरी कदम।
मेरी चेष्टा यह है कि मेरे संन्यासी कम से कम इन तीन अवस्थाओं में ही विदा हों। तीनों हालत में उनके जीवन का उत्सव मनाया जाना चाहिए। और फिर अगर कोई न भी ध्यान की अवस्था में गया हो, साधारणजन ही रहा हो और अनंत बार आगे भी जन्मेगा, तो भी मैं चाहता हूं कि जो उसके पीछे रह गए हैं वे तो उत्सव मनाएं ही मनाएं, वे तो नाचें और गाएं ही। क्योंकि तुम्हारा नाचना और गाना, जो चला गया है उसके जीवन को तो नहीं बदलेगा, लेकिन तुम्हारा नाचना और गाना तुम्हारी अपनी मृत्यु के प्रति तुम्हारी दृष्टि को बदलेगा। जो गया वह तो गया। तुम रोओ तो लौटता नहीं; तुम हंसो तो लौटता नहीं। तुम छाती पीटो तो नहीं लौटता; तुम नाचो तो नहीं लौटता। लेकिन तुम रोओ और छाती पीटो तो तुम अपने लौटने का इंतजाम कर रहे हो। और तुम अगर नाच सको, गा सको, तो तुम निकट आ रहे हो मंदिर के।
बहुत संन्यासी विदा होंगे, स्वाभाविक है। इन संन्यासियों को विदा देने के लिए तुम्हें नया ढंग सीखना होगा--आनंद-उत्सव से। यह बात गौण है कि तुम्हारा आनंद-उत्सव, जो चला गया है उसके लिए क्या करेगा, यद्यपि उसके लिए भी कुछ करेगा; मगर वह जरा सूक्ष्म बात है, तुम्हारी समझ में आए या न आए। क्योंकि तुम जब रोते हो, पीड़ित होते हो...समझो कि पति चल बसा, पत्नी रोती है, पीड़ित होती है, छाती पीटती है, जार-जार होती है, तो वह जो पति चला गया है वह भी हट नहीं पाता, वह भी जा नहीं पाता, वह भी अटका रह जाता है। अपने प्रियजन इतने पीड़ित हो रहे हों, इतने दुखी हो रहे हों, तो स्वभावतः जन्म भर की उसकी आदत उनको अपना मानने की, एक दिन में नहीं टूट जाती, समय लगता है। अगर उसके प्रियजन बहुत रो रहे हों तो वह भूत-प्रेत होकर यहीं भटकेगा। ऐसे ही तो भूत-प्रेत तुम पैदा करते हो।
यह जान कर तुम चकित होओगे कि पश्चिम में--ईसाई, यहूदी, मुसलमानों में--ज्यादा भूत-प्रेत होते हैं। इंग्लैंड में जितने भूत-प्रेत होते हैं, उतने दुनिया के किसी देश में नहीं होते। इस पर काफी शोध हुई है, खोजबीन हुई है। परा-मनोविज्ञान ने इस पर काफी अनुसंधान किया है कि क्या कारण है। जहां भी लोगों की देह को कब्र में दबा दिया जाता है वहां भूत-प्रेत ज्यादा होते हैं बजाय उन देशों के जहां उनके शरीर को जला दिया जाता है।
इसलिए तो हमने जलाने की विधि खोजी थी। यह कुछ आकस्मिक नहीं है। यह बड़ी महत्वपूर्ण है। जो व्यक्ति अपनी देह को छोड़ कर चला गया है वह कम से कम अड़तालीस घंटे तो अपनी देह के आस-पास घूमता रहता है, अगर देह में उसका जरा भी रस है। कम से कम अड़तालीस घंटे और ज्यादा से ज्यादा तेरह दिन वह अपनी लाश के आस-पास घूमता रहता है। मन नहीं होता उसका छोड़ देने को इस देह को। वह इसमें वापस प्रवेश पाने की चेष्टा करता रहता है। पुराने लगाव! जैसे तुम्हें कोई तुम्हारे घर से बाहर निकाल दे तो तुम एकदम थोड़े ही चले जाओगे कि पीछे लौट कर देखोगे ही नहीं। तुम पीछे के दरवाजे से घुसने की कोशिश करोगे, खिड़की से कूदना चाहोगे, दरवाजा तोड़ना चाहोगे...इतनी आसानी से थोड़े ही...तुम्हारा घर, और तुम्हें बाहर निकाल दिया गया!
परा-मनोविज्ञान कहता है कि शरीर के छूटने के बाद कुछ घंटे लग जाते हैं आत्मा को यह समझने में कि मेरी मृत्यु हो गई। तुम्हें तो तत्क्षण समझ में आ जाता है, आत्मा को समझने में घंटों लग जाते हैं कि मेरी मृत्यु हो गई। क्योंकि आत्मा को तो कुछ फर्क नहीं पड़ता। अभी भी उसे दिखाई पड़ता है, कुछ हैरानी जरूर होती है कि शरीर भी दिखाई पड़ रहा है अपना पड़ा हुआ; लोग रो रहे हैं, ये भी दिखाई पड़ रहे हैं--मामला क्या है? क्या मैं कोई सपना देख रहा हूं?
तुमने कभी सपने में अपने को मरा हुआ देखा? जरूर अनेक लोगों ने देखा होगा। सपने में अगर तुम देखो कि तुम मर गए तो तुम्हें एक हैरानी भी भीतर होती रहती है कि मामला क्या है? मैं मर भी गया और मैं देख भी रहा हूं कि यह मेरी देह पड़ी है, तो मैं हूं भी! क्योंकि देखने वाला मौजूद है। और लोग क्यों रो रहे हैं? लोग क्यों परेशान हो रहे हैं? मैं तो अभी हूं!
पहली दफा जब कोई मरता है तो घंटों लग जाते हैं उसे यह अनुभव करने में कि मैं मर गया। उसको अनुभव करवा देने के लिए सबसे सुगम उपाय है उसके शरीर को जला देना। क्योंकि जैसे ही शरीर जल जाता है, उसका घर गिर जाता है, अब पीछे लौटने को कुछ बचा ही नहीं, देखने को भी कुछ नहीं बचा; लपटें हैं और राख। अब चले वह, मुड़े, मुख मोड़े इस देह की तरफ से, नई यात्रा पर चले।
लेकिन जिन देशों में शरीर को गड़ा देते हैं, उन देशों में मुश्किल होती है। एक तो तीन दिन तक शरीर को रखे रहते हैं कि दर्शनार्थी दर्शन कर सकें। उन दर्शनार्थियों में वह जो निकल गया है, वह भी मौजूद रहता है। वह भी लौट-लौट कर आ जाता है कि देखें क्या हो रहा है? कहां तक बात पहुंची? फिर से घुस सकता हूं या नहीं?
और कई बार तो लोग फिर से घुस भी गए हैं। कई बार मुर्दा जिंदा हो गए हैं।
कल ही ऐसा हुआ। एक संन्यासिनी का अजित सरस्वती ने आपरेशन किया। पैंतालीस मिनट के लिए उसकी सांस बंद हो गई। पैंतालीस मिनट लंबा वक्त है। और पैंतालीस मिनट के लिए श्वास का बंद हो जाना मतलब मर गई वह। मगर पैंतालीस मिनट के बाद श्वास लौट आई। काफी धक्कमधुक्की की होगी उसने, घुस गई फिर घर में।
आजकल किसी को घर में से निकालना है भी कानूनन कठिन। लोग अदालत में जाते हैं, मुकदमा लड़ते हैं। एक दफा किराएदार घर में घुस गया कि घुस गया, घर उसका है। हालांकि किराएदार! किराएदार तो छोड़ दो, तुम किसी को मेहमान की तरह कुछ दिन रख लो कि वही तुम पर आंखें तरेरने लगेगा कि इतने दिन से हम यहां रह रहे हैं, जाना हो तो तुम ही जाओ, हम तो अब यहीं रहेंगे।
और तुम तो इस देह में वर्षों रहे। वर्षों में तुमने इस देह को अपना मानने का इतना मोह बना लिया।
परा-मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जला देना श्रेष्ठतम है। अलग-अलग हिसाब से बातें हैं। गड़ा देना प्राकृतिक दृष्टि से श्रेष्ठतम है। क्योंकि शरीर के सारे तत्व जो तुमने पृथ्वी से लिए थे वे वापस पृथ्वी को मिल जाने चाहिए, नहीं तो पृथ्वी धीरे-धीरे बंजर हो जाएगी। इसलिए भारत की पृथ्वी बंजर होती जा रही है, क्योंकि हम पचा तो लेते हैं पृथ्वी के तत्वों को और फिर जला देते हैं। वे राख हो गए। अगर गड़ा देते तो धीरे-धीरे शरीर के तत्व फिर पृथ्वी में मिल जाते। फिर किसी वृक्ष में तुम्हारे शरीर के तत्वों का आविर्भाव होता, फूल बनते, फल बनते। मगर हम जला देते हैं। प्राकृतिक दृष्टि से तो गड़ा देना ठीक है। लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से जला देना ठीक है।
और इन दोनों से श्रेष्ठ है पारसियों का ढंग, मगर वह जरा अमानवीय मालूम पड़ता है। पारसी तो लाश को छोड़ देते हैं पशु-पक्षियों के खाने के लिए। वह श्रेष्ठतम है, क्योंकि उसमें प्राकृतिक ढंग से जो फायदा होता है कब्र में गड़ाने का, वह भी पूरा हो गया। तुमने भोजन किया था जीवन भर, तुम वापस भोजन बन गए, तुमने लौटा दिया भोजन। जिससे लिया था उसे लौटा दिया। पशु-पक्षी खा लेंगे, फिर पशु-पक्षी मरेंगे, मिट्टी में मिल जाएंगे। कोई नुकसान नहीं हुआ; तत्व जले नहीं, तत्व बचे रहे। इकोलॉजी के हिसाब से पारसियों का ढंग श्रेष्ठतम है। और इस हिसाब से भी, लपटों से भी जितनी घबड़ाहट पैदा नहीं होगी उतनी घबड़ाहट पैदा होगी कि गिद्ध तुम्हें खा रहे हैं। अग्नि से भी ज्यादा पीड़ादायी होगा यह देखना कि गिद्ध तुम्हें लोंच रहे हैं जगह-जगह से। कोई तुम्हारी आंख निकाल रहा है, कोई तुम्हारा हृदय खा रहा है, टुकड़े-टुकड़े हुए जा रहे हो। यह देख कर तुम एकदम मुड़ पड़ोगे। इससे बड़ी वितृष्णा पैदा होगी। इससे वैराग्य पैदा होगा।
पारसियों का ढंग वैराग्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। ऐसा व्यक्ति जब नया जन्म लेगा, जब नये गर्भ में जाएगा, तो शायद गर्भ में जाते वक्त भी यह स्मृति उसका पीछा करेगी कि शरीर की क्या गति हो जाती है। आग में भी इतनी दुर्गति नहीं होती, पारसी की जैसी दुर्गति होती है।
लेकिन पारसी का ढंग जरा अमानवीय मालूम पड़ता है। जिस पति को इतना प्रेम किया, जिस बेटे को इतना चाहा, जिस पत्नी पर सब निछावर किया, उसको रख आए गिद्धों से खाने के लिए! और थोड़ा असंस्कृत भी मालूम पड़ता है, असभ्य भी। और गांव में बास-बदबू भी फैलती है। इसलिए खुद पारसी जमातें भी जगह-जगह विचार कर रही हैं कि हम कोई दूसरा रास्ता खोजें, क्योंकि दूसरे लोग एतराज लेते हैं कि दुर्गंध फैला रहे हो।
जलाने का ढंग ज्यादा सुसंस्कृत मालूम होता है। वह जो आत्मा जा रही है उसकी भी विदाई हो गई और जो पीछे रह गए हैं उन्होंने भी देख लिया कि शरीर का अंतिम हश्र क्या है; उनको भी बोध आएगा। काश, तुम उत्सव मना सको जाते हुए व्यक्ति को विदा देते समय तो तुम उसे एक ऊर्जा दोगे। तुम्हारे आंसू उसे खींचेंगे, तुम्हारा रोना उसे राग पैदा करेगा। तुम अगर उत्सव मना सको, प्रभु के गीत गा सको, आनंद मंगल, उसे उसकी परम यात्रा के लिए बधाई दे सको, तो उसे भी होश आएगा कि अब वापस क्या लौटना! अब परम यात्रा पर, महाप्रस्थान पर निकल जाऊं! तुम्हारे कीर्तन की धुन उसके कानों में गूंजती हुई चली जाएगी। तुम्हारा उत्सव, तुम्हारी विदाई उसके लिए अंतिम सौगात होगी तुम्हारी, अंतिम भेंट होगी तुम्हारी।
तो नहीं जो ज्ञान को उपलब्ध हुआ हो, उसको भी नाच कर ही विदा देना, उसके लिए भी लाभपूर्ण है और तुम्हारे लिए भी लाभपूर्ण है। तुम्हारे लिए इसलिए लाभपूर्ण है ताकि तुम समझ सको कि जीवन क्षणभंगुर है, क्या रोना! मिट्टी है, क्या रोना! मिट्टी मिट्टी में गिर गई और मिल गई, क्या परेशान होना!
कृष्णतीर्थ! वे कहीं गए नहीं; यहीं हैं। इसलिए तुम्हारी प्रतीति भी ठीक है कि विश्वास नहीं होता कि वे चले गए; लगता है कि वे यहीं हैं।
लेकिन यह सिर्फ कहीं तुम्हारे मन का भुलावा न हो। क्योंकि हम कई बातें मान लेना चाहते हैं। हम मान लेना चाहते हैं--वे कहीं नहीं गए, यहीं हैं। हम मान लेना चाहते हैं--आत्मा अमर है। हम मान लेना चाहते हैं। जो-जो हमें डराता है उससे विपरीत हम मान लेना चाहते हैं। यह तुम्हारी मान्यता न हो, यह तुम्हारा बोध बने। मैं मान्यता का दुश्मन हूं और बोध का पक्षपाती हूं। क्योंकि बोध ही तुम्हें बुद्धत्व की तरफ ले जाएगा। बोध की ही तो परिपक्वता का नाम बुद्धत्व है। मान्यताओं से कोई बुद्ध नहीं होता। मान्यताओं में दबे हुए लोग तो बुद्धू ही रह जाते हैं। मान्यताओं का अर्थ केवल इतना ही होता है कि स्वयं तो नहीं जाना; औरों ने कहा, मान लिया। और औरों ने भी औरों की सुन कर मान लिया है। तुम्हारे मानने में बल कैसे हो सकता है?
मुल्ला नसरुद्दीन हवाई जहाज में पहली दफा सफर कर रहा था। पत्नी साथ--गांव की रहने वाली, पूर्णतः शुद्ध भारतीय परिधान पहने। लेकिन मुल्ला शौकीन मिजाज। शान के लिए पैंट-कोट, जो कि एक मित्र से उधार लिए थे, पहन कर आया था। जब हवाई जहाज उड़ने लगा तो अनाउंसर की आवाज आई--कृपया सभी अपने-अपने बेल्ट कस लें। मुल्ला नसरुद्दीन ने झट अपनी कमर का बेल्ट और भी जोर से कस लिया--ऐसे कि प्राण निकलने लगे। अब आदेश का उल्लंघन कर भी कैसे सकता है! अपना बेल्ट कसने के बाद उसने झट अपनी पत्नी की ओर देखा और बोला, मेरा मुंह क्या देख रही है, जल्दी कर और अपने पेटीकोट का नाड़ा कस ले! सुनी नहीं आज्ञा?
आज्ञाएं सुन कर तुम जो करोगे, करोगे तो तुम अपनी ही बुद्धि से! आज्ञाएं बुद्ध देते हों भला, मगर उन आज्ञाओं की व्याख्या कौन करेगा? तुम ही करोगे व्याख्याएं! और तुम्हारी व्याख्याएं तुम्हारी ही होंगी।
सुबह-सुबह मुल्ला नसरुद्दीन घूमने निकला। एक दरवाजे पर लगी छोटी सी तख्ती उसने देखी: श्री भोंदूमलजी, भूतपूर्व मुख्यमंत्री। बड़ा आश्चर्य हुआ। उसे तो पता तक न था कि वे सज्जन पिछले पांच वर्षों से कहां रह रहे हैं। ये तो पड़ोस में ही रहते हैं! मुल्ला तो सोचता था कि मर-मरा गए होंगे। कब से नाम तक नहीं सुना और ये भोंदूमल यहां रह रहे हैं। सड़े-गले इलाके में, टूटे-फूटे मकान में! मुल्ला को बड़ा तरस आया। इतना बड़ा मंत्री और उसके घर के सामने ऐसी गंदगी! सुबह-सुबह ही कोई गाय माता वहां पवित्र गोबर कर गई थी, मकान की सीढ़ियों पर ही। नसरुद्दीन ने अपनी जेब से कलम निकाली और गोबर के पास ही लिख दिया: श्री गोबरमलजी, भूतपूर्व हरी घास!
व्याख्या तो तुम्हारी होगी। मान्यताएं कहीं से लो, समझ कहां से लाओगे? प्रज्ञा कहां से लाओगे? चेहरा कोई भी हो, दर्पण तो तुम्हारा होगा; अगर दर्पण ही इरछा-तिरछा है तो सुंदर से सुंदर चेहरा भी इरछा-तिरछा हो जाएगा। दर्पण को बदलना होगा। मान्यताएं बदलने से कुछ भी नहीं होता, बोध बदलना होगा। और बोध ज्ञान से नहीं बदलता, ध्यान से बदलता है। भीतर की एक निर्मलता लानी होगी, एक स्वच्छता लानी होगी। चित्त को निर्विचार करना होगा, निर्विकार करना होगा। चित्त से मुक्त होना होगा। और तब जैसा मैं कह रहा हूं वैसा ही तुम्हें दिखाई पड़ सकेगा। तब तुम अनुभव कर सकोगे: जीवन भी आनंद है, मृत्यु भी आनंद है, क्योंकि यह सारा अस्तित्व आनंद से ही निर्मित है।
मेरी बातों को मान मत लेना। मेरी बातों को सुनना और प्रयोग करना। तुम्हारा प्रयोग सिद्ध कर दे कि सही है, तो ही मानना, नहीं तो मत मानना। और जब तुम्हारा प्रयोग सिद्ध कर दे किसी बात को और तुम मानो, तो मानना कहां हुआ, यह तो जानना है!
एक मारवाड़ी सेठ को हवाई यात्रा से बहुत ज्यादा डर लगता था। हवाई जहाज का नाम सुन कर उनकी जान सूखती थी। मगर व्यापार तो आखिर व्यापार है। कई बार उन्हें धंधे के सिलसिले में लंदन जाना पड़ता था। वे हमेशा बीमा करा कर ही हवाई जहाज में कदम रखते थे। एक बार जब वे बिना बीमा कराए ही जाने लगे तो उनके एक परिचित ने पूछा, सेठ जी, इस बार इंश्योरेंस नहीं करवाना क्या?
सेठ जी की आंखों से आंसू झलक आए। उन्होंने निराशा भरे उदास स्वर में कहा, कितनी बार तो करवा चुका! कभी कुछ होता-वोता तो है ही नहीं। हर बार असफलता हाथ लगती है। मेरा तो कुछ भाग्य ही खराब है।
लोग इंश्योरेंस तक भी करवाएं तो भी मारवाड़ी की बुद्धि तो मारवाड़ी की। वह तो हिसाब लगा कर चलता है कि लाभ कितना होगा। उसको तो इंश्योरेंस, अगर मर कर भी पैसा मिलता हो, तो वह लेने को राजी है।
एक मारवाड़ी को एक पिस्तौलधारी गुंडे ने एक अंधेरी गली में पकड़ लिया। उसके सिर पर पिस्तौल लगा दी और कहा कि दो चीजों में से एक चुन लो--जिंदगी चाहिए कि धन चाहिए? या तो धन मेरे हवाले कर दो और नहीं तो खोपड़ी फोड़ दूंगा गोली से।
मारवाड़ी ने आव देखा न ताव, एक क्षण नहीं सोचा, उसने कहा, मार दो गोली। धन तो मैंने बुढ़ापे के लिए बचा कर रखा है।
प्रत्येक व्यक्ति अपने हिसाब से सोचता-समझता है। और इसीलिए बुद्धों के वचन, जिनों के वचन, ऋषियों के वचन तुम्हारे हाथ में पड़ते ही घास-पात हो जाते हैं। गुलाब उड़ जाते हैं, कमल खो जाते हैं, घास-पात हो जाते हैं। उनको ही तुम मान्यताएं कहते हो, विश्वास कहते हो।
मैं विश्वास का पक्षपाती नहीं हूं। मैं तो चाहता हूं कि तुम में श्रद्धा जन्मे। और श्रद्धा विश्वास का पर्यायवाची नहीं है। श्रद्धा का अर्थ होता है--अपने अनुभव से उपलब्ध ज्ञान। मेरे पास तो तुम ध्यान को पकड़ो। ये सारे अवसर इसीलिए हैं। यहां कुछ भी घटेगा, हम सारे अवसरों को तुम्हारे ध्यान के लिए ही उपयोग करने वाले हैं। किसी बच्चे का जन्म होगा तो उसका उपयोग करेंगे। किसी वृद्ध की मृत्यु होगी तो उसका उपयोग करेंगे। किसी युवकऱ्युवती का विवाह होगा, उसका उपयोग करेंगे। यहां तो हर तीर को परमात्मा की तरफ ही लगा देना है। और तभी तुम पर चोट पर चोट पड़ती रहे, पड़ती रहे, पड़ती रहे, तो शायद एक दिन तुम जाग सको। जागना बहुत कठिन है, क्योंकि नींद बहुत पुरानी और बहुत लंबी है।


तीसरा प्रश्न:

भगवान! देश की स्थिति रोज-रोज बिगड़ती जाती है। आप इस संबंध में कुछ क्यों नहीं कहते हैं?

रामतीर्थ! मैं चिंता करता हूं तुम्हारी स्थिति की। देश तो पहले भी था, तुम न थे। देश पीछे भी रहेगा, तुम न रहोगे। तुम्हारी सुधर जाए, उसके लिए बोल रहा हूं। और तुम्हारी सुधर जाए तो देश की सुधरने का भी रास्ता बनता है। और कोई रास्ता नहीं है।
देश है क्या? व्यक्तियों का समूह। समाज है क्या? व्यक्तियों का जोड़। तुम्हें कभी समाज मिला? कि चले जा रहे थे रास्ते पर, समाज मिल गया और कहा कि जयरामजी! कि कहीं जा रहे थे और देश मिल गया और तुमने कहा कि आइए, विराजिए, देख कर बड़ी खुशी हुई! न देश कहीं मिलता है, न समाज कहीं मिलता है; जब भी कहीं कोई मिलता है तो व्यक्ति मिलता है। व्यक्ति ही सच है। देश और समाज तो केवल शब्द हैं। लेकिन शब्दों से हम बड़े सम्मोहित हो जाते हैं। देश की स्थिति खराब होती जा रही है! अब देश की स्थिति सुधारो। और अगर देश केवल शब्द है तो तुम कैसे स्थिति सुधारोगे? समस्या को तुमने गलत ढंग से शुरू कर दिया। अब समाधान कभी नहीं होगा। व्यक्ति को सुधारो। व्यक्ति की स्थिति न बिगड़े, यह ध्यान रखना जरूरी है। व्यक्ति जागे, व्यक्ति सजग हो, व्यक्ति ज्यादा होशपूर्वक जीए। ये सारी समस्याएं जो तुम्हें दिखाई पड़ती हैं, व्यक्तियों की पैदा की हुई हैं। और व्यक्ति बिलकुल गहरी नींद में सोया है, खर्राटे ले रहा है। और कभी-कभी नींद उसकी थोड़ी-बहुत खुलती भी है तो वह यही सोच कर कि देश की हालत बड़ी खराब है, फिर करवट लेकर सो जाता है।
वे बोले--
"जहां तक नजर जाती है
बत्तीस बरस का
एक अपंग बच्चा नजर आता है
जो अपने लुंज हाथों को उठाने की
कोशिश करता हुआ
चीख रहा है--
मुझे दलदल से निकालो
मैं प्रजातंत्र हूं, मुझे बचा लो।
जनता को नारे
और कामवाले हाथों को
झंडे थमा देने वाले
वक्त के ये सौदागर
बड़े ऊंचे खिलाड़ी हैं
जो अपना भूगोल ढांकने के लिए
राजनीति लपेट लेते हैं
और रहा कॉमर्स
सो उसे, उनके भाई-भतीजे
और दामाद समेट लेते हैं।'

हमने कहा--
"नेताओं के अलावा आपके पास
कोई विषय नहीं है?'

वे बोले--
"क्यों नहीं
बूढ़ा बाप है
बीमार मां है
उदास बीबी है
भूखे बच्चे हैं
जवान बहन है
बेकार भाई है
भ्रष्टाचार है
मंहगाई है
बीस का खर्चा है
दस की कमाई है
इधर कुआं है
उधर खाई है।'

हमने कहा--
"बड़ी मुसीबत है
जो भी मिलता है
अपनी बीमारी का रोना रोता है।'

वे बोले--
"प्रजातंत्र में ऐसा ही होता है
हर बीमारी स्वतंत्र है
दवा चलती रहे
बीमार चलता रहे
यही प्रजातंत्र का मूलमंत्र है।'

हमने पूछा--
"क्या उमर होगी आपकी?'

वे बोले--
"चालीस की उमर में
साठ के नजर आ रहे हैं
बस यूं समझिए कि
अपनी उमर खा रहे हैं।
हिंदुस्तान में पैदा हुए थे
कब्रिस्तान में जी रहे हैं
जब से मां का दूध छोड़ा है
आंसू पी रहे हैं
बात जन्म से मरण तक आ पहुंची है
राजनीति टोपी से चरण तक आ पहुंची है
देश के सर से
ढाई बरस में शनि हटा
तो राहु चढ़ गया,
राहु हटा
तो केतु सताएगा
केतु गया
तो मंगल जान खाएगा।'

हमने कहा--
"हटाइए
लीजिए पान खाइए।'

वे बोले--
"पान! साठ पैसे का
कहां जाएगा हिंदुस्तान
बत्तीस बरस में और क्या किया है
सारे हिंदुस्तान को
पीकदान बना दिया है
जहां मन आया थूक दिया
जब भी मौका मिला
देश को
चुनाव के चूल्हे में झोंक दिया।'

हमने पूछा--
"तो क्या चुनाव होगा?'

वे बोले--
"राजनीति के चरण भारी थे
कुछ न कुछ तो होता
यह प्रकृति का खेल है
राम जाने
आने वाला मेल है या फीमेल है।'

देश की चिंता करने वाले बहुत लोग हैं--मेल भी, फीमेल भी! यहां तुम देश की चिंता न लाओ। मुझे तो व्यक्ति को सुलझाने दो। मूल क्रांति व्यक्ति में होती है। और चूंकि हम व्यक्ति की चिंता नहीं करते, देश की चिंता करते हैं, कुछ हल नहीं होता; बात और बिगड़ती जाती है। बात और नीचे से नीचे गिरती जाती है।

चौराहे पर पान की पीक थूकते हुए
एक ने कहा--
"इंदिरा को संजय खा गया
कांति के कारनामों से
मोरारजी को पसीना आ गया।'

दूसरा बोला--
"सुरेश, जगजीवन को नचा रहा है।'

तीसरा बोला--
"जहां पुत्र नहीं है
वहां दामाद यह रोल निभा रहा है।'

उनकी चर्चा सुन कर
एक बीच की कौम के आदमी ने
मुंह खोला
और ताली बजा कर बोला--
"इस बार मध्यावधि चुनाव में
हमें सफल बनाइए
हमारे दल का प्रधानमंत्री बनाइए
हमारे यहां इस किस्म की कोई प्रॉब्लम नहीं है।
हमारी अपील पर गौर कीजिए
बत्तीस साल से ये लोग आपको बेवकूफ बना रहे हैं
इस बार हमें मौका दीजिए।'

बस ये बेवकूफ बनाने वालों का सिलसिला है एक। एक से छूटे, दूसरा बनाएगा; दूसरे से छूटे, तीसरा बनाएगा। वही के वही लोग हैं--टोपियां बदल लेते हैं, झंडे बदल लेते हैं--वही के वही लोग हैं! राजनीति धंधा है--सबसे घातक धंधा! जैसे डाकुओं ने समर्पण कर दिया, ऐसे पता नहीं राजनीतिज्ञ कब समर्पण करेंगे! यह सुसंस्कृत डाकागिरी है। यह सुसंस्कृत चोरी है, बेईमानी है। यह होने वाला है।
लेकिन तुम भी अगर राजनीति की भाषा में सोचो, रामतीर्थ, तो गलती हो जाएगी। संन्यासी होकर अब राजनीति की भाषा में नहीं सोचना है; अब धर्म की भाषा में सोचो। राजनीति करने वाले बहुत हैं, उन्हें करने दो; देश को सुधारने वाले बहुत हैं, उन्हें सुधारने दो। आखिर उनको भी तो कोई काम चाहिए। ऐसे भी बेकाम बहुत हैं, बेरोजगार बहुत हैं; इनकी रोजी भी तुम छीन लेना चाहते हो! इनको इनकी रोजी चलाने दो, इनको इनका काम करने दो। हम कुछ और करें, हम कुछ करने योग्य करें। हम थोड़े से व्यक्तियों को प्रज्वलित दीये बनाएं! हम थोड़े से व्यक्तियों के जीवन में रोशनी लाएं! और एक दीया जल जाए तो एक दीये से लाखों दीये जल सकते हैं। और जले दीये की ज्योति कम नहीं होती, लाखों दीये जल जाएं, इससे। ज्योति को कितना ही बांटो, चुकती नहीं। ज्योति का खजाना अपार है, अकूत है।
मेरे पास बैठ कर तो तुम अपनी चिंता लो--तुम्हारी दशा क्या है? और मैं तुम्हारी दशा को बदलने में जरूर उत्सुक हूं। तुम्हारी दुर्दशा देखो।
मगर हम बड़े होशियार हैं, हम चारों तरफ की दुर्दशा देखते हैं, अपनी दुर्दशा न देख पाएं इससे बचने के लिए। लोग सुबह-सुबह अखबार पढ़ते हैं: यहां चोरी हो गई, वहां डाका पड़ गया। वहां का राजनेता धोखा दे गया, बेईमानी कर गया; यहां का राजनेता रिश्वत खा गया। और अखबार पढ़-पढ़ कर उनको बड़ा मजा आता है। मजा क्या है? मजा एक बात का है कि इनसे तो हम ही भले। अरे, चोरी हम भी करते हैं, मगर छोटी-मोटी; बेईमानी हम भी करते हैं, मगर इन बेईमानों के मुकाबले हमारी बेईमानी क्या है! तुम्हें अच्छा लगता है अखबार पढ़ कर, क्योंकि अखबार की तुलना में तुम भलेमानुष मालूम होते हो। अखबार पढ़ने का मजा यही है। अखबार की काली लकीर देख कर तुम शुभ्र मालूम होने लगते हो--तुलना में। अच्छा लगता है मन को कि इससे तो हम ही बेहतर। और भी एक सुविधा मिल जाती है कि जब देश की हालत खराब ही है और सभी लोग बेईमानी कर रहे हैं, तो थोड़ी-बहुत तो हमें भी करनी ही पड़ेगी, नहीं तो जीएंगे कैसे? थोड़ी-बहुत तो स्वीकार करनी ही पड़ेगी, नहीं तो जीना असंभव हो जाएगा। ऐसे मन को सांत्वना देते हो।
और अंधों की भीड़ देख कर तुम्हें लगता है कि अंधा होना आकस्मिक नहीं है, स्वाभाविक है। इसलिए लोग एक-दूसरे की निंदा की बातों में रस लेते हैं। लोग मिलते हैं तो निंदा ही करते हैं। निंदा में रस है। पता नहीं जिन्होंने पुराने दिनों में रसों का वर्णन किया, उसमें निंदा को क्यों नहीं जोड़ा? क्योंकि जितना रस निंदा में है उतना तो किसी और चीज में लोगों को नहीं है। लोग बढ़ा-चढ़ा कर निंदा करते हैं। कारण? जितनी निंदा का पहाड़ खड़ा कर लेते हैं उतना ही भीतर अच्छा लगता है कि हम कितने ही बुरे हों, इतने बुरे नहीं। अभी हम में आदमी जिंदा है। अभी हमारी आत्मा श्वास ले रही है। अभी हमें परमात्मा का कभी-कभी स्मरण आता है।
ऐसे अपने को धोखा मत दो, रामतीर्थ। छोड़ो फिक्र औरों की, वे जानें, उनका काम जाने। तुम अपनी फिक्र कर लो। तुम बदलना चाहो तो भी न बदल सकोगे सभी को। यह भी अहंकार ही है कि हम सभी को बदल लेंगे। यह अहंकार अब तक सफल नहीं हुआ, किसी का सफल नहीं हुआ, किसी का सफल होने वाला नहीं है। इतना ही काफी है कि तुम अपने को बदल लो। और जिसने अपने को बदला उसने दूसरों को बदलने के लिए राह सुझाई। वह मील का एक पत्थर बना। वह एक मशाल बना। उसकी जलती ज्योति देख कर दूर-दूर से लोग चले आएंगे--खोजते लोग चले आएंगे। जिन्हें प्यास है वे सरोवर खोज लेते हैं। जिन्हें रोशनी की प्यास है वे जलते हुए किसी बुद्धत्व को खोज लेते हैं।
मैं यहां देश की स्थिति पर विचार करने को नहीं बैठा हूं। हां, तुम्हारे ऊपर जितना विचार हो सके थोड़ा है।
तुम कहते हो: "देश की स्थिति रोज-रोज बिगड़ती जाती है। आप इस संबंध में कुछ क्यों नहीं कहते हैं?'
कहने से क्या होगा? मैं कुछ कर रहा हूं, कहने से क्या होगा? हालांकि मेरा करना सूक्ष्म है, क्योंकि मेरा करना आत्मिक है।
कहीं अकाल पड़ जाए तो लोग मेरे पास आते हैं; वे कहते हैं, आप कुछ करते क्यों नहीं?
मैं कहता हूं: अकाल पड़ते रहे, तुम सदा करते रहे। अकाल फिर भी पड़ते रहेंगे, तुम करते ही रहना।
कहीं बाढ़ आ जाए तो लोग कहते हैं, आप कुछ करते क्यों नहीं?
मैं किसी और बड़े अकाल को देख रहा हूं जिसमें आत्मा मरी जा रही है। मैं किसी और बड़ी बाढ़ को देख रहा हूं जिसमें प्राण डूबे जा रहे हैं। मैं किसी एक बहुत बड़ी भयंकर दुर्घटना को देख रहा हूं जो रोज करीब आती जा रही है। और अगर आदमी को नहीं जगाया जा सका तो यह पृथ्वी ज्यादा दिन आबाद नहीं रहेगी। आदमी के दिन इने-गिने हैं, अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं।
ये आने वाले बीस साल, इस सदी के अंतिम साल, मनुष्यता का अंत बन सकते हैं, अगर आदमी जागा नहीं। अगर हम दुनिया में कुछ बुद्ध, कुछ महावीर, कुछ जीसस, कुछ मोहम्मद पैदा न कर सके तो यह आदमी गया। इसलिए देश, राजनीति, समाजशास्त्र, अर्थ--इस सब में मेरी चिंता नहीं है। ये सब गौण हैं। जैसे किसी के घर में आग लगी हो, उस समय तुम नहीं कहोगे उससे कि भई चलो, बैठ कर कुछ राजनीति की बात करें। वह एक झापड़ रसीद करेगा। वह कहेगा, मेरे घर में आग लगी है, तुम्हें राजनीति की पड़ी है! अभी आग बुझाने दो। ये फुर्सत के समय की बातें हैं जब कुछ काम-धाम न हो। जैसे लोग ताश खेलते हैं, चौपड़ बिछाते हैं बरसात के दिनों में, वैसे राजनीति की बात भी कर लेंगे। अभी घर में आग लगी है।
मैं देखता हूं कि आदमी के घर में आग लगी है। आदमी के प्राण धू-धू कर जल रहे हैं। आदमी की परम संपदा नष्ट हो रही है। छोटी-मोटी बातों में मेरी उत्सुकता नहीं है। जो बाढ़ में डूब गए हैं वे जल्दी ही पुनर्जन्म ले लेंगे, उनकी कोई बहुत फिक्र न करो। न मालूम कितने मूढ़जन दुनिया में उनको जन्म देने के लिए तत्पर बैठे हैं।
मेरी चिंता तो सिर्फ एक है--तुम कैसे आत्मवान बनो! तुम्हारी आत्मा को कैसे धार दी जा सके, कैसे निखार दिया जा सके, कैसे स्वच्छता दी जा सके! और उसी माध्यम से एक क्रांति समाज में भी हो सकती है। मगर समाज की क्रांति परोक्ष होगी। प्रत्यक्ष क्रांति तो व्यक्ति की क्रांति है।


अंतिम प्रश्न:

भगवान! मैं विवाह करूं या नहीं? और स्वयं की पसंदगी से करूं या कि घरवालों की इच्छा से?

राकेश! मेरी सलाह है: घरवालों की इच्छा से करो। तुम पूछोगे, क्यों? मेरा उत्तर है: उससे तुम्हें जिंदगी भर एक राहत रहेगी कि भूल मैंने खुद नहीं की, दूसरे करवा गए, उत्तरदायित्व मेरा नहीं है। अपने बाप को, अपनी मां को गाली देने की सुविधा रहेगी कि खुद तो चले गए, मुझे फंसा गए।
खुद चुनोगे तो बड़ी मुश्किल होगी। दोष किसको दोगे? फिर अपना ही सिर पीटना पड़ेगा। इसलिए मेरी तो सलाह है कि घरवालों की मान कर कर लेना। इससे सब पाप उनको लगेगा। और तुम्हें एक आनंद रहेगा सदा कि खुद तो भूल नहीं की, कम से कम खुद तो भूल नहीं की!
मुल्ला नसरुद्दीन से कोई पूछ रहा था कि तलाक बढ़ता जा रहा है, इसका क्या कारण है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, तलाक चाहे पश्चिमी देशों में दिया जाए अथवा भारत में, उसकी वजह सिर्फ एक होती है।
उस आदमी ने पूछा, वह क्या?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, शादी।
कुछ लोग तलाक दे ही देते हैं; कुछ लोग तलाक देते नहीं, मगर तलाक की अवस्था में जिंदगी भर रहते हैं। दो सोए हुए व्यक्तियों का साथ उपद्रव का ही होने वाला है। ऐसा मत सोचना कि मैं यह कह रहा हूं कि तुम्हारी पत्नी का ही कसूर है। पत्नी भी क्या करे? तुम जैसा पति पाकर जो कर सकती है वही करेगी!
तुम्हारे ऋषि-मुनि तुम्हें झूठ बात कह गए हैं कि स्त्री नरक का द्वार है। वह पुरुष की अहमन्यता है, पुरुष का अहंकार है, थोथापन है। इसमें स्त्री और पुरुष का सवाल नहीं है।
दो सोए हुए आदमी साथ रहेंगे तो उपद्रव होने वाला है। और दुगुना नहीं होगा, गुणनफल हो जाता है। तुम दुखी, तुम्हारी पत्नी दुखी थी, दोनों ने सोचा कि साथ जुड़ जाएंगे तो सुख होगा। दो दुखी आदमी मिलेंगे तो सुख कैसे हो जाएगा? दो बीमारियां मिलेंगी तो स्वास्थ्य हो जाएगा? तुम्हारी पत्नी अकेली थी, तुम अकेले थे, सोचा कि दोनों मिल जाएंगे तो अकेलापन मिट जाएगा। मैं तुमसे कहता हूं: दोनों मिल जाएंगे, अकेलापन दुगुना--और दुगुना ही नहीं, कई गुना हो जाएगा।
पहले तुम अपने अकेलेपन को ज्योतिर्मय करो। ध्यान के बाद अगर विवाह हो तो विवाह में भी एक अर्थ है, एक गरिमा है। इस देश में हमने जो व्यवस्था की थी, वह यह थी कि पच्चीस वर्ष की उम्र तक ब्रह्मचर्य। वह समझदारों की व्यवस्था रही होगी। ब्रह्मचर्य का अर्थ होता है: ब्रह्म जैसी चर्या। और ब्रह्म जैसी चर्या सिवाय ध्यान के और किसी तरह नहीं होती। पच्चीस वर्ष तक युवक गुरुकुल में रह कर ध्यान कर रहे थे, समाधि का अनुभव ले रहे थे। और जब ध्यान का अनुभव उनका परिपक्व हो जाता था, तब गुरु कहता था: अब संसार में जाओ। अब तुम योग्य हो! संसार में रहोगे, लेकिन संसार तुममें प्रवेश नहीं कर सकेगा।
तो राकेश, मैं तो कहूंगा: पहले ध्यान! फिर देखेंगे, ये बातें तो बाद में सोची जा सकती हैं। अगर ध्यान करने के बाद लगे कि विवाह करना है, जरूर करना। मैं विवाह-विरोधी नहीं हूं। और ध्यान करने के बाद लगे कि बात खत्म हो गई, अब करने जैसा कुछ बचा नहीं विवाह में, तो मत करना। मैं कोई ब्रह्मचर्य-विरोधी नहीं हूं। मैं तो तुम्हारे ध्यान से निर्णय आना चाहिए, बस इतना चाहता हूं। उसके पहले तुम कैसे भी करो, अड़चन में पड़ोगे। अड़चनें ही अड़चनें हैं। तुमसे कुछ कहानियां कहता हूं, ताकि अड़चनों का तुम्हें खयाल आ जाए।
एक बार नसरुद्दीन को किसी व्यक्ति ने धमकी दी कि नसरुद्दीन, पंद्रह दिन के अंदर पचास हजार रुपये लाल पहाड़ी पर ले जाकर रख देना, अन्यथा तुम्हारी पत्नी का अपहरण कर लिया जाएगा।
पंद्रह दिन बाद मुल्ला लाल पहाड़ी पर पहुंचा और उसने एक छोटी सी पर्ची वहां पर रख दी: महोदय, मैं क्षमा चाहता हूं कि मैं आपकी मांग पूरी नहीं कर सकता। लेकिन मुझे परिपूर्ण आशा है कि आप अपना वायदा अवश्य पूरा करेंगे।
पहले लोग बंधने को आतुर, फिर छूटने को आतुर। अकेले भी परेशान थे, विवाहित होकर भी परेशान हैं--और ज्यादा परेशान हैं! क्योंकि अब दूसरे की परेशानियां भी सिर पर आ पड़ी हैं।
एक आदमी ने स्वर्ग के द्वार पर दस्तक दी। द्वारपाल ने खिड़की खोल कर झांका और पूछा, क्या नाम?
उसने कहा, चंदूलाल।
द्वारपाल ने पूछा, विवाहित, अविवाहित?
उसने कहा, विवाहित।
द्वारपाल ने झट से दरवाजा खोल दिया। उसने कहा, तुम नरक काफी भोग चुके, अब स्वर्ग में आ जाओ।
उसी के पीछे एक दूसरे आदमी ने दस्तक दी। फिर खिड़की खुली। पूछा, कौन?
कहा, ढब्बूजी।
विवाहित, अविवाहित?
ढब्बूजी ने कहा, चार बार विवाहित।
द्वारपाल ने खिड़की बंद करते हुए कहा कि नरक जाओ, यहां पागलों के लिए स्थान नहीं।
एक बार क्षमा किया जा सकता है, क्योंकि बिना भूल किए आदमी जानेगा भी कैसे कि यह भूल है।
इसलिए राकेश, एक बार तो भूल करना, उससे स्वर्ग का दरवाजा बंद नहीं होगा। मगर भूल पर भूल मत किए चले जाना, क्योंकि स्वर्ग पागलों के लिए नहीं खुला है। एक बार तो भूल स्वाभाविक है। नई-नई भूल करो, क्योंकि सीखने का और कोई उपाय नहीं है। मगर उन्हीं-उन्हीं भूलों को बार-बार मत करना।
मुल्ला नसरुद्दीन की शादी को तीस वर्ष हो गए हैं। और उसकी पत्नी ने सुबह उठ कर कहा कि मुल्ला, याद है आज तीस वर्ष पूरे होते हैं! आज हमारे विवाह की वर्षगांठ है। कैसे मनाएं? क्या इरादा है तुम्हारा? क्या यह अच्छा न होगा कि जो मुर्गा हम छह माह से पाल रहे हैं, आज उसे काट लिया जाए?
नसरुद्दीन ने कहा, तीस साल पहले हुई दुर्घटना के लिए मुर्गे को दंड देना कहां तक उचित है? फिर मुर्गे का उसमें कोई हाथ भी नहीं था।
तुम मुझसे पूछ कर मुझे भी फंसा रहे हो। फिर जिंदगी भर मुझे गाली दोगे कि मैंने कहा था। इसलिए भैया, न मैं हां कहता, न ना।
एक आदमी अपने विवाह की पच्चीसवीं वर्षगांठ मना रहा था। मित्र इकट्ठे थे, भोज दिया था, सारे गांव के प्रतिष्ठित लोग थे, संगीत चल रहा था, नृत्य चल रहा था, शराब ढाली जा रही थी। तभी लोगों ने देखा कि वह खुद नदारद है। उसका एक निकटतम मित्र, नगर का सबसे प्रतिष्ठित वकील, उसे खोजने बगीचे में गया बाहर कि शायद बाहर चला गया हो। चांदनी रात है, पूरे चांद की रात है और वह उदास एक झाड़ के नीचे बैठा है।
उस वकील ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, मेरे भाई, सब लोग इतने प्रसन्न हैं, पच्चीसवीं वर्षगांठ विवाह की मनाई जा रही है। तुम इतने दुखी क्यों बैठे हो?
उसने कहा, तुम्हारे ही कारण! विवाह के तीन महीने बाद मैं तुम्हारे पास गया था, याद है? और मैंने कहा था, अगर मैं इस अपनी पत्नी को गोली मार दूं तो मुझे कितनी सजा होगी? तुमने कहा था, पच्चीस साल कम से कम। उसी डर के कारण मैंने गोली नहीं मारी। और आज चित्त दुखी हो रहा है कि अगर मार दी होती तो आज पच्चीस साल पूरे हो गए, आज मैं स्वतंत्र आदमी होता। तुमने ही मुझे डराया।
तो मैं नहीं कह सकता हां, मैं नहीं कह सकता ना। इतना ही कह सकता हूं कि पहले ध्यान। तुम चाहे विवाह की पूछो, चाहे जन्म की, चाहे मृत्यु की। मेरे पास तो इलाज एक है: ध्यान। रामबाण औषधि! पहले ध्यान करो, राकेश। फिर ध्यान से जो हो, शुभ है। और ध्यान से जो न हो, अशुभ है।

आज इतना ही।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें