(सन्यास एक कला है)
शायद वह सितम्बर माह का ही समय रहा होगा, बरसात खत्म हो गई थी। शरद ऋतु आने में अभी कुछ देरी थी। दिन भर में इन दिनों धूप तेज रहती थी। परंतु सूर्य के अस्त होते ही पूरी प्रकृति में एक मधुर सीतलता छा जाती थी। भारतीय तिथि में इसे भादों माह कहा जाता है। यह एक प्रकार का सुहाना बसंत ही तो था। जो गर्मी के बाद शरद ऋतु की और अग्रसर हो रहा होता है। इन्हीं दिनों हिंदुओं की राम लीला शुरू होती है। और बच्चों के स्कूल की लम्बी छुट्टी हो जाती है। इसी सब से यह तिथि मुझे आज भी याद थी। क्योंकि पार्क में बहुत बड़ी सी एक स्टेज बना कर रात—रात भर राम लीला खेली जाती थी। जब में पार्क में सुबह जाता तो वहां पर हजारों लोगों के पद चाप की खुशबु महसूस होती थी। तभी मैं समझ जाता था, रात को यहां पर हजूम—हजूम लोग इकट्ठे हुए होंगे। परंतु मैं वहां रात को कभी आया नहीं था। इस की कोई जरूरत भी नहीं थी। अगर घर से निकलना ही होता तो मैं जंगल के एकांत में जाना पसंद करता था।
क्योंकि लोग नाहक
कुत्तों को देख कर इतना डर जाते है या घिन्न करते है। जबकि हम तो प्रत्येक मनुष्य
का सम्मान करते थे। हमारे आँगन में जो भेल पत्र और अमरूद का वृक्ष था उस पर श्याम
के समय चिड़ियों के झुंड का झुंड अठखेलियाँ करने के लिए इकट्ठी थे। आपस में किस
बुरी तरह लड़ रही होती थी। मानो एक दूसरे की जान लेना चाहती हो। परंतु ये उनके खेल
का हिस्सा होता था। लड़ते या खेलते हुए कैसे जमीन पर गिर कर एक दूसरे को पकड़े
होती थी। उन्हें उस समय आस पास की सुध भी नहीं रहती थी। उस समय चाहे उन्हें कोई
पकड़ कर मार डाले उस समय उन्हें इस बात का भी भय नहीं होता था। उनके यूं झुंड में
बोलने से आवाज में एक गरिमा, माधुर्य एक गौरव छाया होता था आँगन में।
उनकी घ्वनि से घर
के आँगन में मानो कोई मधुर घंटियां बजा रहा हो। मैं आँगन में बैठ उस मधुर नाद को
सून रहा था। मुझे ये सब बैठ कर देखना बहुत अच्छा लगता था। ये सब मेरे मनोरंजन का
साधन मात्र होता था। जिससे मेरा समय बहुत सुंदर गुजर जाता था। अगर मैं उन्हें
पकड़ना चाहता तो पल में न पकड़ लेता परंतु अब मन में ऐसा कोई भाव ही नहीं आता था।
मानो मैं अब कैसा हो गया था, इस बात का मुझे भी कुछ पता नहीं था।
अचानक घर का दरवाजा खुला मेरे कान एकदम से खड़े हुए क्योंकि सामने पापा जी खड़े थे,
इस समय वह अकसर नहीं आते क्योंकि ये समय उनकी दुकानदारी को होता था।
पापा जी के साथ कोई मूँछों वाला आदमी आया। मैं उसे देख कर बहुत जोर से भौंका।
परंतु पापा जी साथ थे। इसलिए कुछ निश्चित भी था कि इस आदमी से अब इतना कोई खतरा
नहीं था। क्योंकि ये अभी अकेला नहीं था पापा जी इसके साथ थे। इसके अलावा यह पहले
भी हमारे घर कई बार आ चूका था। उस दिन बाबा के साथ मिल कर इन्होंने ही तो उन
खरगोशों का मकान बनाया था। जो मेरे जी का जंजाल बन गया था। आज यह क्या आफत करने के
लिए आया है। मेरे मन में एक शंका उठी।
मुझे क्या पता था, आने
वाला आगंतुक इस घर में जो आज एक मेहमान की तरह से आ रहा है। वह आने वाले समय में
एक घर के सदस्य की तरह रह कर कार्य करने लगेगा। यहीं है वह राम रतन मित्र जिस ने
इस घर में 12 साल काम किया। और इस ‘’ओशोबा हाऊस’’ को बनाया। ये थिरता एक व्यक्ति
की व्यक्तित्व, उसका आचरण ही नहीं दर्शाता, उसका गुण गौरव भी हमें दिखाती है। आप एक स्थाई मित्रता, जब किसी के साथ करते हो। तब आपका अंतस गहरे में प्रेमपूर्ण होना चाहिए।
आपके अन्दर एक स्थाई थिरता होनी चाहिए, आपके मन की बेचैनी,
आपको एक जगह टिकने नहीं दे सकती।
यही तो है मन की
चालबाजी। वह आपको चैन से रहने ही नहीं देगा। यहीं तो उसकी विजय है। अगर आप इस सब
से बच गये और आपने अपने अचेतन की गहरी शांति को छू लिया। तब आप शांत और आनंदित
महसूस करते हो। मन की चंचलता ही हमें बेचैनी देती है। परंतु मनुष्य नित नई
वस्तुएँ बदलता रहता है। दोस्त बदलता रहता है। गाड़ी बदलता रहता है, मकान
बदलता रहता है। आप एक आदमी के संग रहे। आपका मन उसके अंदर हजार बुराइयां ढूंढ
लेगा। और बहाना बना कर आप को दूसरी और छिटक देगा।
क्योंकि थिरता मन
की मृत्यु है। परंतु मेरे देखे पापा जी के अंदर हजारों गुण थे परंतु ये गुण उनका
गौरव था। वह जिस भी व्यक्ति से संबंध बनाते उसे चिर स्थाई बनाते थे। राम रतन मित्र
मेरे सामने आया और सालों काम किया और जिस खुशी और आनंद के माहौल में इस घर में
पाँव रखा था उसी आनंद और उत्सव के माहौल में मैंने उसे विदा होते देखा था। किसी
उत्सव से पापा जी उन सब के साथ भोज किया। उन्हें मान सम्मान दिया, वस्त्र
दिये। वरना एक लंबा समय का अंतराल मन में दूरियाँ ही ला देता है। यही होती है
मनुष्य की महानता। अपने अंतिम समय पर किस तरह से इस परिवार ने मेरी सेवा भाव
की......वो बातें याद कर मेरा मन भर आता था। उसी सब के कारण मेरे मन में ये भाव
उठा था कि मैं अपनी जीवन गाथा को शब्दों में लिखूं। खेर वो बातें तो समय के साथ
आगे आती जायेगी। हम आज में चलते है। घर के आँगन में जहां अभी राम रतन और पापा जी
आये है।
पापा जी उसे ऊपर की
छत पर ले कर चढ़ गए,
मैं तो उनकी पूंछ था भला कैसे नीचे रह सकता था। पापा जी ने ध्यान का
कमरा खोल कर दिखलाया। और दोनों काफी देर तक बातें करते रहे। की क्या करना है और
क्या नहीं करना। मैं समझने की कोशिश कर रहा था। और इतना जान गया था कि जरूर कुछ
परिवर्तन होने वाला है। इस का मुझे भी इंतजार था।
दूसरे दिन से ऊपर
का जो कमरा था। जिस में हम सब ध्यान करते थे। टूटना शुरू हो गया। राम रतन के साथ
एक और आदमी आया उसका नाम ‘’पांचु’’ था। वह एक आँख से काना था। पहले दिन से ही उसकी
ऊर्जा मुझे अच्छी नहीं लगती थी। न जाने क्यों मनुष्य हो या पशु जिस किसी का एक
अंग विकृत हो जाये.....उस के विकृत अंग से विकृति ऊर्जा क्या हमारे मस्तिष्क पर
भी प्रभाव डालती है। ये एक शोध का विषय था।
इसे हम आसानी से
यूं हंस कर नहीं टाल सकते। महान ग्रंथों में भी आप चरित्र देखेंगे.....जैसे रामायण
कि ‘मंथरा’,
केकई रानी की दासी कुबड़ा थी....या महाभारत में मामा ‘’ शकुनी’’ उस
विक्रीत अंग ने महाभारत का कुरूर खोल खेला। या आप इसे अपने पास भी आप ध्यान से उस
चरित्र को देख सकते है। जिस व्यक्ति का एक अंग विकृत हो गया हो। उसके मस्तिष्क
के तंत्र उस विक्रीत ऊर्जा से जरूर कहीं न कहीं प्रभावित होता है। और वह जरूर
थोड़ा चालबाज या धूर्त होगा। खेर मैं तो
इस इतिहास को नहीं जानता परंतु में तो उस काने पांचु की जीवंत ऊर्जा को सूंघ कर
महसूस कर रहा था। वह कपटी है, धूर्त है, जबान का मीठा है और दिल का काला। परंतु इस घर में आ गया और पापा जी लेकर
आये है सो कुछ नहीं किया जा सकता। वरना तो उसे मैं पहले दिन ही भगा देता।
परंतु मेरी इतनी
समझदारी की बात को भी कोई मानने को तैयार नहीं था। सब उसकी ऊपर की हंसी उसके
दिखावे को ही देखते थे,
और मैं अकेला अंदर की बात कर रहा था। परंतु फिर भी वह काम करने में
मेहनती था। जब भी वह आता मैं उसे जरूर भौंकता, परंतु वह मुझे
खुब प्यार करता। शायद वह मेरे दिल की बात को समझ गया था। क्योंकि उसके दिल में
चौर था। इसलिए वह मुझे भी अपने प्यार के भ्रम फंसाना चाहता था। पापा जी ने पांचु
और बच्चों के साथ मिल कर उस ध्यान के कमरे को दो ही दिन में ही तोड़ दिया। उस
तुड़ाई में निकला सामान इतना हो गया। कि पूरे घर के आंगन को उसने भर गया। हजारों
ईंटें, टुकड़ी कड़ियां, खिड़की,
दरवाजे....मैं यह देख कर अचरज से भर गया की जब यह सामान तरतीब से
लगा था तो कितनी कम जगह घेरे हुए था। और अब अराजक हो गया तो पूरे घर को भर दिया।
इसलिए हमारे जीवन
में भी कम पीड़ा भी अराजकता से भरी हो तो पूरे जीवन पर फैल जाती है। वरना तो इतने
बड़े जीवन में वह किसी कोने में आराम से सहेजी जा सकती थी। इसलिए जो जीवन हम जीते
है, वह एक अराजकता का नाम है। और जो लोग अराजकता से जीते है उनका जीवन एक
कबाड़ खाना बना रहता है। जहां भी वे देखेंगे उन्हें, दुख,
पीड़ा और संताप ही दिखाई देंगे....और उनके जीवन में कोई भी कोना
आनंद का नहीं होगा।
बच्चों की तो
छुट्टियां थी उन्हें लाख मना किया गया, कि तुम नीचे जाओ। परंतु
उनके लिए तो काम एक खेल था। खेल—खेल में ही वो कितना काम कर रहे थे। बस एक मैं था
जो इधर से उधर केवल घूम सकता था, भौंक—भौंक कर सब पर हेकड़ी
जमा सकता था। कर कुछ नहीं सकता था। इस बात का मुझे मलाल भी होता था। परंतु में सब
के साथ खड़ा होकर उनकी हिम्मत बढ़ा रहा था।
बच्चे कितने
प्रसन्न थे। मुझे इस बात का बाद में अहसास हुआ कि पुरानी वस्तु को तोड़े बिना नई
का निर्माण नहीं किया जा सकता। पहले तो मैं सब को भौंक—भौंक कर कह रहा था कि तुम
सब खराब कर रहे हो। कितना तो अच्छा है। और इसे तुम सब ने मिलकर तोड़ दिया। परंतु
इससे मुझे एक बात की खुशी भी थी। कि छत जो समतल हो गई। मेरी आजादी को चार चाँद लगा
दिये। अब मुझे दरवाजे से भागने की जरूरत नहीं थी। जिस भी समय में जहां जाना चाहता
वहां जा सकता था।
परंतु ये कैसा
विरोधाभास था। जब मैं मुक्त हो गया तो कितना भाग पाया। कुछ ही मिनटों के बाद वापस
घर लोट के आ जाता था। अब तो दरवाजा खुला होता था। क्योंकि पांचु को बहार से सामान
ढो कर लाना होता था। मैं कितना भाग्य शाली था, वो सब मैंने शून्य से शुरू
होते देखा। और अपनी आंखों के सामने पूर्ण होते भी देखा। करीब वह काम ओशोबा हाऊस के
बनने का 12 वर्ष चला। और मैं करीब तीन या चार वर्ष का था जब काम शुरू हुआ।
एक—एक बूंद कैसे
विशाल समुद्र बन जाती है। कैसे उस दिन उस घर के भाग्य ने करवट ली। और साथ—साथ इस
घर ने,
और हम सब के भाग्य ने। कि हम सब भी उस सब का एक अविभाज्य अंग बन
गये। और वह सब जीवन में इस तरह से घुल मिल गया। कि वह जीवन से भिन्न न रह कर जीवन
ही बन गया। कितना लंबा समय.....कैसे एक—एक कोना सज—संवर रहा था। जिस कि किसी को
कल्पना भी नहीं थी। कहां से आता था, उसको बनाने का संदेश,
किस दूरंदेशी, दूरदर्शिता से आता था। पापा जी
के मस्तिष्क में कौन या शायद चुप से उनके ह्रदय में कोई कह जाता था। ये सब एक
चमत्कार से कम मायने नहीं रखा था। और वह उस छवि को साकार कर रहे थे, उस सपने को जीवित धरा पर साकार कर रहे, एक स्वप्न को
सत्य और रूप में जीवित कर रहे थे। जो उनके मन ह्रदय में बसा था समाया था।
आप कही भी खड़े हो
कर महसूस करें उस जगह की प्रेम और शांति को अपने अंदर समाया हुआ पाओगे। कितना सुखद
था वह अहसास जिस दिन एक घर देवालय बने के मार्ग पर चल पड़ा था। यहां दीवारें गिर
उठ ही नहीं रही थी इसके साथ कुछ और भी घट रहा था। वह था चेतना का सफर। पापा जी के
साथ इस पूरे परिवार की चेतना की एक नई गति ले ली थी। जो जाने अंजाने में एक
सामंजस्य से किसी खास दशा की और उड़ चली थी। फिर इस चेतना के सफर का किसी को पता
था या नहीं,
इस की वो परवाह किसी को नहीं थी। केवल एक आनंद की आंधी उड़ाये चली
जा रही थी हम सब को। किसी अंजान लोक की और ।
काम की गति कुछ
मंद्र गति से चल रही थी। क्योंकि राम रतन मित्र कहीं और भी काम करते थे। और पांचु
को भी सामान इकट्ठा करने में समय लगता था। इसलिए तय किया गया की सारे काम खत्म कर
के राम रतन मित्र,
श्याम के समय आयेंगे। और रात को काम करेंगे। राम रतन मित्र का काम
दो घंटा का होता था। जो इँट पांचु सारा दिन मिल कर ढोता था। किस मेहनत और
मशक्कत से उसे पहली मंजिल पर चढ़ाया जाता
था। वे सब मेहनत का काम देखते ही बनता था।
अंगन में ला कर
पहले उन्हें रख देता। पापा जी छत पर बैठ जाते पांचु उसे ऊपर फेंकते। पापा जी उसे
लपकते। कितना खतरनाक काम था। जरा सी चूक और चोट का खतरा। सबसे खतरनाक तो पिरामिड
में अंदर का काम था। जब उसकी बंधी पेड़ो पर उन इंटों को चढ़ाया जाता। सच पापा और
पांचु का काम अदम्य साहस का था। तीन चार आदमियों का काम दोनों मिल कर देते थे। ये
सब सोचने भर से मेरे सारे बाल खड़े हो जाते थे। पिरामिड में जो पेड़ बनी थी। जिस
पर इंटे लपकी जाती थी वह करीब 13 फीट उंची तो जरूर होगी। फिर नीचे से पांचू जो
फेंक रहा था अगर पापा जी उसे लपक न सके तो वह पांचु के ऊपर भी गिर सकती थी। कितने
कष्ट खतरे का कार्य था।
उसके बाद जैसे—जैसे
पिरामिड की दीवारें ऊपर तो उठ रही थी अंदर की तरफ झूक भी रही थी। तब उन इंटों को
नीचे से ऊपर उस पेड़ तक पहुंचाना होता था। जहां पर आज राम रतन मित्र ने काम करना
होता था। फिर उसके बाद मसाला बना कर उसे ऊपर चढ़ान सच ही पांचू बहुत मेहनती था।
मनुष्य ही नहीं
पशु पक्षी भी अपने रहन सहन के आचरण के हिसाब से अपना घरौंदा कैसा होना चाहिए। उसे
अपने रहने के तोर तरीके में बदल लेते है। पापा जी ने जब ध्यान शुरू किया तो उन्हें
भी लगा की हमारा घरौंदा कैसा होना चाहिए। उस काम को होते हुए देख कर सारे परिवार
के चेहरे पर कैसी तृप्ति थी। अब उन्होंने अपना एक मार्ग निश्चित कर लिया था। वही
आदमी कहीं जा सकता है जो अपने जीवन के किसी मार्ग को चुन ले। फिर काम शुरू होता है
उस एक मार्ग पर चलने का,
फिर आगे उसकी उर्जा ही उसे किसी घनत्व की और ले जाती है। ये सब
प्रत्येक व्यक्ति पर अलग—अलग निर्भर करता है। सब एक साथ चलते है परंतु मार्ग पर
बढ़ते—बढ़ते सब एक दूसरे से आगे पीछे रह जाते है। आप का संकल्प या पीछे आपका उसी
मार्ग पर चलना भी हो सकता है।
आप अगर तेज भी दौड़
रहे हो और आपका मार्ग गलत है तो आप कही पहुंच
नहीं रहे हो। आप और गति से भटक रहे होते है। जब आप सही मार्ग पर जा रहे है
और वह भी कितनी ही धीमी गति क्यों ने हो। लेकिन स्नेह—स्नेह आपको मंजिल की और लिए
जा रही है। तो क्या पापा—मम्मी जी ध्यान नहीं करते तो ये देवालय ये‘’ओशोबा
हाऊस’’ बनता। कभी नहीं?
तब तो एक दूसरे ही प्रकार का घर यहां पर होता। एक सूख सुविधा वाला।
जिसमें कुछ ऐशों आराम तो होता। परंतु इतनी शांति और तृप्ति शायद उसमें होती। लोग
जब एक घर को बनाते है तो उनके मन में कैसा उत्साह होता है। जब बन जाता है तो
उसमें उन्हें कोई शांति नहीं मिलती बल्कि और एक बेचैन बढ़ जाती है। पहले तो एक आस
होती की जब घर बन जायेगा तब ऐसे जीऊंगा परंतु जीने की कला तो आनी चाहिए। वह घर
बनाने से थोड़े ही पैदा होती है। आदमी की यहीं तो बेचैनी है। वह पूर्णता में न जी
कर खंडों में जीता है।
समाज उसे टुकड़ों
में विभाजित कर देता है। आदमी का अपना जीवन खुद के लिए न हो कर वह समाज के लिए हो
जाता है। वह सब जो करता है,
वह लगभग 99 प्रतिशत समाज में एक प्रकार का दिखावा मात्र करता है। कि
आपका बच्चा स्कूल में फैल हो गया तो कोई क्या कहेगा....क्योंकि आप महान है,
इसलिए आपके बच्चे भी स्वतंत्र नहीं है, वह
एक महान व्यक्ति कि संतान है। इसलिए उन्हें महान होना ही चाहिए। आपके पास मकान
कैसा है...आपके पास गाड़ी कैसी है...आपका अपना कोई अस्तित्व होना ही चाहिए। अंदर
से आप एक दम से खाली है। जैसी ध्वनि, जैसा रंग भर दिया जाये
वही हो जाते हो।
आप एक ऐसे नगाड़े
हो जिस पर जो कोई जैसी थाप मारता है। आप वैसी ही ध्वनि करने लगते हो। समाज आप पर
ताल मारता है और आप बजने लग जाते है। अब चाहे तो उस पर कहरवा ताल बजाये या दादरा
ये समाज और दूसरे लोगों की मर्जी है। मैंने देखा जब कोई आदमी अपने अंदर अपने स्वभाव
की और जाने लगता है। तो उसके अंदर ही एक तरह की पूर्णता, केंद्रीकरण
शुरू हो जाता है। तो वह समाज के इशारे से नहीं चलता। शायद उसके अंदर एक पूर्णता की
तृप्ति भरनी शुरू हो जाती है। और वह अपनी खुद की पहचान बनाना शुरू कर देता है।
इसी सब को लोग शायद बगावत या पागलपन का नाम देते है। क्योंकि वो सब उनकी समझ के
बाहर की बात थी। वह समाज के टूटे आईने के टुकड़ों में अपनी छवि नहीं देखता। वह खुद
अपना आधा—अधूरा कुरूप चेहरा देख कर भी तृप्त हो जाता है। न की उस दिखावे के उधार
चेहरे को जो उसे समाज ने दिया है। शायद यहीं सही मार्ग है। परंतु है ये अति कठिन,
क्योंकि आप सच्चाई को कहां देख पा सकते हो। हममें उसका सामना करने
का साहस कहां कर पाते है।
मेरे आपने हिसाब से
यही वह चौराहा है,
जहां से आदमी का विभाजन शुरू हो जाता है। की वह मानव से महा—मानव की
और गति करता है। शायद इसी चौराहे का नाम सन्यास है। वह आपने को सौंप देता है किसी
के हाथ में जो मार्ग और मंजिल की राह दिखाता है। इसे आप कुछ भी नाम दे सकते,
गुरु...भगवान या जो चाहे। और ये सब होता है समर्पण से, इसलिए समाज उन लोगों को कभी नहीं समझ पाता। जो इस मार्ग पर चलते है।
क्योंकि यह कोई राज पथ नहीं एक वीरान पगडंडी है। लोग उन्हें एक प्रकार से भटका
हुआ मान लेते है, या विक्षिप्त या सम्मोहित कि इसे पागल बना
दिया है। क्योंकि समाज के नियम उसे बाँध नहीं पा रहे है।
परंतु इस में एक
बात सत्य है। इस सब के होने से वह समाज की पकड़ से छूट जाता है। और अपने स्वयं का
अर्थ जानने के लिए अपने अंतस में डूब जाता है। समाज उसे स्वार्थी कहता है। परंतु
सही मायने में वह परमार्थी हो जाता है। जो अपना ही कल्याण नहीं कर सकता वह भला
समाज का कहां कल्याण कर सकता है। देखे नहीं है आपने राजनैतिक चेहरे जो समाज का
कल्याण करने के लिए नेता बने थे देश को आजाद कराया और क्या दिया उन्होंने देश
को कुछ भी नहीं केवल अपने पीढ़ियों को तैयार करते रहे देश को लूटने के लिए। फिर
आदमी का चेतन—अचेतन एक खास गति की और मुड़ जाता है। फिर उसे ये समाज के बंधन, गहने,
कपड़े...नाम पद, गाड़ी बँगला नहीं बाँध पाता।
पाप मम्मी अपने
लिए एक ऐसा कमरा बनाना चाहते थे, जिस में एक घंटा अपने लिए सुरक्षित किया
जा सके। जिसे हम ध्यान कहते थे। 23 घंटे वह परिवार, समाज के
लिए दे सकते थे, परंतु उन्हें अपने निजी जीवन में अपने लिए
भी एक घंटा चाहिए। इसी का नाम तपस्या है। क्योंकि वह 23 घंटे भी फिर उस मनुष्य
को भटका नहीं सकते। फिर धीरे—धीरे बाहर का कार्य भी उनकी साधना स्थली बन जाते है।
अंदर का रस जीवन में बहार फैलना शुरू हो जाता है। और बढ़ते—बढ़ते वह एक दिन वह
सारे जीवन के अपने में घेर लेता है। जिस मार्ग पर पापा—मम्मी चल रहे है वह कोई
भगोड़ा सन्यास नहीं है। उन्हें भागने के लिए नहीं कहा गया जागने के लिए कहा गया।
सच ही तो है अगर इस तरह से समाज की नैतिकता, सच्चाई, ईमानदारी, जैसी मलाई पूरी जंगल में भाग जायेगी तो
यहां क्या बचेगा। मात्र कचरा, यहीं हिन्दु समाज के साथ हुआ।
नैतिक अपने में डूब गए और रह गए रह गए अधिक बेईमान लोग। आप काम करो अपने अंदर एक
जागरण भरो। ये भी एक तपस्या है, आप हजारों लाखों कमाओ तब पता
चलता है आपका पैसे में कितना मोह है। वहां वह काम जरूर करते है काम—काम मैं भेद हो
जाता है। लेकिन उनकी लो लगी रहती है एक शून्य में, अंदर की शांति
आप में गहरी और गहरी होती चली जाती है। फिर कर्म एक पूजा बन जाता है। और जीवन एक
धन्यता।
इस तरह का ही आदमी
समझता है अपने जीवन के महत्व को कि मेरा पूरा जीवन, परिवार के लिए,
बच्चों के लिए नहीं, ये सब भाग दौड़ व्यर्थ
है, इस में कहीं भी कोई मंजिल नहीं। यह एक उत्पत्ति है। जो
समाज से मिली है। और जो रूक कर इसे देख लेता है, उस का नाम
सन्यास है। संन्यास कोई घर छोड़ने का नाम नहीं है। भागने का नाम नहीं। संन्यास
तो एक तपस्या है। जो आपके जीवन को और कठिन बना देती है। समाज में रहते हुए जीने
की कला का नाम संन्यास है। यहीं संसार और संन्यास का एक नाजुक सा भेद है। आप वहीं
पर रहेंगे। लेकिन आपकी चेतना की दशा बदल जायेगी। वह अंतस की और गति कर जायेगी।
संन्यास कोई माला
कपड़े से नहीं होता। हां ये सहयोग दे सकते है। क्योंकि आपने अभी नया पौधा रोपा
है। उसके आस पास एक बागड़ लगाई जा सकती है। जो बच्चों की शरारत से जंगली जानवरों
के खतरे बचा सकती है। परंतु उस सब के लिए भी साहस की जरूरत है। आप कपड़े रंग कर
हिमालय पर तो जा सकते है। वह तो आसान है। वहां तो आपको एक खास अहंकार मिलता है। आप
महान सन्यासी हो गये। परंतु इसे पहन कर आप दुकान पर नहीं बैठ सकते, आप
बाजार में नहीं घूम सकते वहां आपका एक नाम है, पद है,
लोग आपको देख कर हंसी मजाक भी कर सकते है। वहीं तो विधि है, अपनी जड़ों को जमीन में गहरा करने की। जो इस से बच गया वह अपना विकास नहीं
कर सकता। क्योंकि वह डर गया। फिर गमले में वृक्ष कितना विकास कर सकता है।
जितना भी अधिक
विकास करेगा,
उतना ही अपनी मृत्यु को आमंत्रित करेगा। यही वह जीवन का अनमोल
परिवर्तन यही वह मोड़ है। जिसे मम्मी—पापा जी पा गये है। जिसे आत्म सात कर गये।
इसलिए वह इतना गहरे में डूब गये समाज की पकड़ से छूट गये। उस में रहकर भी उससे
मुक्त हो गये। यह परिवर्तन उनके अंतस का था। यह बहार से उतना भेद नहीं करता। वह
उसी समाज में रहते है। उसकी समाज में व्यवसाय करते है। जो धीर—धीरे अति कठिन भी
होता जायेगा। क्योंकि समाज उन्हें कभी माफ नहीं करेगा। क्योंकि समाज ने उनसे
हार खाई है। वह बदला लेगा। उन की संख्या अधिक है, फिर भी वह
हार गये। इसलिए वह उसका बहिष्कार करेगा। उसके काम को समझ तो वह सकता नहीं उसका
विरोध अवश्य ही करेगा।
और सब पापा—मम्मी
के साथ हुआ। परंतु उन्होंने उसे अपनी तपस्या का हिस्सा बना लिया। अपने कर्म को
एक पूजा बना लिया। मकान पुराने समय का था। उसकी दीवारें भी दो फीट चौड़ी थी। जिस
तरह से मनुष्य पहले घुल मिल कर रहता था। उसी तरह से उसके मकान भी आपस में मिले
झूले थे। एक ही दीवार पर दोनों—तीनों मकानों की छतें डली होती थी। इसी तरह से पापा
जी हर का मकान था।
इसलिए उसे पूरी तरह
से तोड़ा भी नहीं जा सकता था। उस की दीवारें अति मजबूत थी। इसलिए उसी पर लोहे के
सरिया बिछा कर लेंटर डाल दिया गया और फिर बनना शुरू होगा गया वह महान पिरामिड। उस
की लंबाई—चौड़ाई करीब 20—22 फिट की थी। दस फिट तक उठी उसकी दीवारों पर चारों और कोई
खिड़की नहीं थी। एक दरवाजा छोड़ा गया था वह भी बहुत छोटा। केवल आप उस में से झुक
कर अंदर जा सकते है। उस दरवाजे को भी सीधा आँगन में नहीं छोड़ा गया वहां पर भी एक
10—10 का कमरा जिस कान नाम लाइब्रेरी रखा गया।
आप पहले उस
लाइब्रेरी के अंदर जायेंगे,
और उसके बाद पिरामिड में। एक प्रकार से अति संवेदनशील। जो चारों और
से बंध था। जब तक उसकी दीवारें दस फिट तक की थी, में उस से
कूद कर रात को भाग जाता। एक प्रकार से मुझे आप आवारा व बिगडेल भी कह सकते थे। न
जाने क्यों रात को जब मुझे लगता कोई दूर से मेरे परिवार के सदस्य मुझे पुकारता
है। मन अचानक बेचैन हो उठता था, एक हुंकार सी पूरे बदन पर
फैल जाती थी। मन तड़फ उठता था। हालांकि में उन्हें नहीं जानता था। परंतु एक
अंजानी सी कशिश मुझे खिंच रही थी। और शायद वे भी मुझे नहीं जानते होगे। और अगर में
उनके बीच चला भी जाता तो वह मुझे अपना दुश्मन समझ कर मारते भी। फिर भी एक अनजानी
सी कशिश एक खिंचाव था। जो मुझे अपनी और बहने को मजबूर कर रहा था। कई हफ्ते से रोज
में रात होते ही भाग जाता था। कई दिनों तक तो में जंगल में डर के कारण नहीं गया।
एक साहास जुटाता रहा और गांव की गलियों में ही भटकता रहा।
क्योंकि मैं कूद
कर जब छतों पर आता तो वहां से जिस भी घर में जाता वहाँ का दरवाजा बंद पाता। इसलिए
कई दिनों बाद मुझे कोई घर मिला जिस का अंगन हमेशा खुला रहता था। जहां से जब चाहूं
में भाग सकता था। और फिर हिम्मत कर के मैं जंगल की और जाने लगा। वहां पर मुझे भय
भी लगा। आस पास से गीदड़ों के रोने की आवाज भी आ रही थी। और गली के कुत्ते भी
मुझे डरा रहे थे। गीदड़ों का इतना डर नहीं था। बस उनके झुंड का ही डर था। क्योंकि
अधिक तादाद के कारण वह मुझ पर हमला कर सकते थे।
एक रात जब बहार से
कुत्तों की हंकार उठी तब मम्मी—पापा खाना खाने के बाद चाय पी रह थे। और देख रहे
थे कि आज कितना काम हो गया। मेरे भागने की चर्चा भी शायद थी। परंतु आज दीवारें
काफी ऊँची हो गई थी। और साथ—साथ। आज वहां पर कांटे भी लगा दिये थे। इस तरह से मेरे
भागने से सारा घर परेशान था। क्योंकि जब मैं सुबह आता तो। खुब नाटक होता। मैं
पड़ोस की मामी की छत पर पहुंच जाता। और
कोशिश करता की घर में घूस जाऊं। परंतु वहां से कोई रास्ता नहीं मिलता। तब गली का
रास्ता भी भूल जाता। क्योंकि मामी के घर में उतरने की कोई सीढ़ियां नहीं थी। एक
लकड़ी की सीढ़ी थी।
जिस से मैं उतर
नहीं सकता था। इस सब के बीच मेरा रोना और मामी को मुझे बचाने के लिए पुकारना। इस
सब के बीच बहुत भीड़ इक्कट्ठी हो जाती....और बसंती वाला नाटक करते हुए मैं उस
10—12 फीट की उस छत पर से साहास कर के नीचे कूद ही जाता था। जिसे देख कर सब लोगों
का पल भर के लिए मुंह खुला का खुला रहा जाता।
उस रात मेरे न
भागने का पूरा बंदोबस्त कर दिया गया। एक तो दीवार इतनी ऊँची हो गई थी कि कोई सोच
भी नहीं सकता की मैं उसे कूद कर भाग सकता हूं। और ऊपर से कीकर के काटें लगा दिये
गये। मम्मी–पापा बैठे हुए चाय पी रहे थे। इतनी देर में जंगल से एक हुंकार उठी। जो
अनजाने तोर पर मेरे प्राणों को भेद गयी एक अंजान सी शक्ति ने मेरे अंदर एक नई
ऊर्जा का संचार भर दिया।
हालांकि दूसरी तरफ
की गहराई हमारी छत की गहराई से भी 2—3 फीट और गहरी थी। यानि की दस फीट के बाद मुझे
पंद्रह फीट नीचे कूदना था। परंतु जवानी को जोश एक अलग ही होता है। मेरे शरीर की
बनावट एक पालतू कुत्ते की तरह नहीं थी। मेरा शरीर बहुत ही छरहरा। बिना किसी
अतिरिक्त चर्बी के था। और मेरी हड्डियां अतिरिक्त मजबूत थी। और मेरी गर्दन तो
बहुत ही मोटी थी। जिसके कारण ही किसी कुत्ते को पकड़ लेता तो वह छुड़ा नहीं पाता
था। गांव के कुत्ते कितने ही मोटे हो उनकी पूंछ व गर्दन मोटाई कम ही मिलती है।
शायद में एक कुत्ता न होकर भेड़िया...अधिक लगता था। हमारे भारत में उत्तरी
क्षेत्र के जो भेडीयों का रंग रूप मेरी तरह का होता है। अब किसे पता है की मैं
भेड़िया हूं या कुत्ता ये बात सब बेकार है मेरी बला से। यही अरावली पर्वत माला
गुजरात राजस्थान से होती हुई हिमालय में छू जाती है।
मेरी बेचैनी बढ़ती
गई। पापा जी ने भी उस आवाज को सून लिया और उन्होंने मेरी आंखों की और देखा। और
मेरे शरीर पर होने वाली हरकत को गोर से देखने लगे। परंतु मेरा अचेतन आज मुझ पर
बहुत हावी हो गया था। लाइब्रेरी की दीवार की उँचाई उस समय 7—8 फीट ऊंची हो गई थी।
परंतु मेरे अंदर कुछ और ही शक्ति काम कर रही थी। में पूरी ताकत लगा कर भागा। न ही
मुझे कांटे दिखाई दे रहे थे...और न ही दीवार मेरा लक्ष्य तो उसके पार जाना था। बस
यह मेरा धेय,
मेरा लक्ष्य था।
में पापा—मम्मी के
पास से तीव्र गति से भागता चला गया। परंतु फिर भी पापा जी झट से उठे और मेरी पूछ
पकड़ने की कोशिश की। उनके हाथ में चाय का गिलास था वह भी उनके हाथ से छलक गया।
शायद उन्होंने मेरी पूछ के कुछ बालों को छू लिया। बस कुछ ही पलो में मेरा पेर उन
कांटों...को छुआ और दूसरी और कूद गया। दूसरी और की गहराई तो यहां से भी एक या दो
फीट अधिक थी। पुराने गांव के मकानों की एक खासियत होती थी। किसी मकान से किसी छत
पर चले जाओ। सब अपनी ही छतें होती थी। दूर जाकर मैंने एक बार पीछे मुड़ कर देखा, शायद
पापा जी मुझे देख रहे थे और आवाज भी रहे थे।
परंतु न जाने आज
मुझे अंदर से कुछ अजीब सा लग रहा था। ऐसे तो कितनी ही बार में इस तरह से घर से
भागा था। पर आज कुछ दिल पर भरी—भारी सा महसूस हो रहा था। एक अनजाना सा डर....कि
शायद फिर इस घर को देख न पाऊँ। क्या हमारा अचेतन हमारे आने वाले भविष्य की कुछ
आहट चेतन मन को देता है। परंतु भागने का आनंद इतना था की में उस पीड़ा और आहट को
ज्यादा देर तक सून नहीं पाया और अपनी आजादी का पूरा लुत्फ उठाने के लिए पापा जी
के आंखों से पल भर में औझल हो गया।
पता नहीं उस समय
पापा—मम्मी के दिलों पर क्या गुजर रही होगी। मुझे इस बात की बिलकुल चिंता नहीं
थी। पूरी रात मैं आवारा कुत्तों के साथ जंगल में मोज मस्ती करता रहा। हालाँकि
मैं जानता था कि ये सब कुत्ते मुझे पसंद नहीं कर रहे। मोका देख कर मुझे सब मिल कर
मारने कि फिराक में रहते थे। परंतु मेरे सामने सब की बोलती बंद हो जाती थी। भोर
होने से पहले मुझे घर की याद आई। वापस उसी तरह से तो कूद कर घर में प्रवेश नहीं कर
सकता था। पास ही मामा—मामी का मकान था।
वही एक रास्ता मैं
जानता था। उस पर चढ़ कर...फिर वहीं नाटक दोहरना...फिर वहीं मेला मजमा जमा हो ये सब
नाटक नौटंकी देखता। कितना अजीब लगता है इस समाज का जीवन जीने का ढंग। फिर वहीं
बहादुरी भरी जम्प और अपने साहस और शौर्य की कथा...और मैं डर के मारे पूंछ दबा कर
खुले दरवाजे के अंदर घर में घूस गया। घर के अंदर जाकर आँगन में जमीन से चिपक कर
बैठ गया। अति आज्ञाकारी बच्चा बन कर। मम्मी जी अंदर से आग बबूला होती आई और मुझे
देख कर कहने लगी औरान तू आ गया...सारी रात कहा रहा....मैं भी अपनी चिर परिचित
मुद्रा में पूंछ हिलता हुआ मम्मी में पास चला गया। और उनके पैरों में दंडवत
मुद्रा में झुक गया। मम्मी जी ने मेरे सर पर हाथ फेरा और कहां....चल दूध पी ले।
और में खुशी के मारे उछल पड़ा......और अपनी इस कला की महारत पर मुझे अचरज आने लगा।
मैं भी क्या कलाकार बन गया हूं....पल में किसी को बुद्धू बना देता हूं.....मम्मी
की दया और प्रेम की उदारता को में अपनी चालबाजी की जीत गया था।
भू.....
भू..... भू......
आज इतना ही
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें