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गुरुवार, 18 अप्रैल 2019
बुधवार, 17 अप्रैल 2019
आठो पहर यूं झूमिये-प्रवचन-02
आठ पहर यूं झूमते-प्रवचन-दूसरा
मेरे प्रिय आत्मन्!मैं अत्यंत आनंदित हूं, लायंस इंटरनेशल के इस सम्मेलन में कि शांति के संबंध में थोड़ी सी बातें आपसे कर सकूंगा। इसके पहले कि मैं अपने विचार आपके सामने रखूं, एक छोटी सी घटना मुझे स्मरण आती है, उसे से मैं शुरू करूंगा।
मनुष्य-जाति के अत्यंत प्राथमिक क्षणों की बात है। अदम और ईव को स्वर्ग के बगीचे से बाहर निकाला जा रहा था। दरवाजे से अपमानित होकर निकलते हुए अदम ने ईव से कहा, तुम बड़े संकट से गुजर रहे हैं। यह पहली बात थी, जो दो मनुष्यों के बीच संसार में हुई, लेकिन पहली बात यह थी कि हम बड़े संकट से गुजरे रहे हैं। और तब से अब तक कोई बीस लाख वर्ष हुए, मनुष्य-जाति और बड़े और बड़े संकटों से गुजरती रही है। यह वचन सदा के लिए सत्य हो गया। ऐसा कोई समय न रहा, जब हम संकट में न रहे हों, और संकट रोज बढ़ते चले गए हैं। एक दिन अदम को स्वर्ग के राज्य से निकाला गया था, धीरे-धीरे हम कब नर्क के राज्य में प्रविष्ट हो गए, उसका भी पता लगाना कठिन है।
आठो पहर यूं झूमिये-प्रवचन-01
आठ पहर यूं झूमते-प्रवचन पहला
मेरे प्रिय आत्मन्!एक राजकुमार था बचपन से ही सुन रहा था कि पृथ्वी पर एक ऐसा नगर भी है जहां कि सभी लोग धार्मिक हैं। बहुत बार उस धर्म नगर की चर्चा, बहुत बार उस धर्म नगर की प्रशंसा उसके कानों में पड़ी थी। जब वह युवा हुआ और राजगद्दी का मालिक बना तो सबसे पहला काम उसने यही किया कि कुछ मित्रों को लेकर, यह उस धर्म नगरी की खोज में निकल पड़ा। उसकी बड़ी आकांक्षा थी, उस नगर को देख लेने की, जहां कि सभी लोग धार्मिक हों। बड़ा असंभव मालूम पड़ता था यह। बहुत दिन की खोज, बहुत दिन की यात्रा के बाद, वह एक नगर में पहुंचा, जो पड़ा अनूठा था। नगर में प्रवेश करते ही उसे दिखाई पड़े ऐसे लोग, जिन्हें देख कर वह चकित हो गया और उसे विश्वास भी न आया कि ऐसे लोग भी कहीं हो सकते हैं।
सोमवार, 15 अप्रैल 2019
लाइट ऑन का पाथ-(062)
बुधवार, 9 जनवरी 2019
सुंदरी परिव्राजिका-(कहानी)-मनसा दसघरा

धीरे-धीरे समय गुजरता चला गया। जैसे-जैसे सुन्दरी बड़ी होने लगी, उसका सौंदर्य विषमय रूप बढ़ने लगा। रूप के साथ वह बुद्ध में अति कुशाग्र दिखाई देने लगी। पिता गरीब बाह्रमण जन्म पत्री, टेवे, य गण, आदि से रोजगार चलता था। बाकी समय वो घर में विद्या अध्ययन करता रहता था।
मंगलवार, 8 जनवरी 2019
चूलसुभद्या-(कहानी)-मनसा दसघरा
चूलसुभद्या—(ऐतिहासिक कहानी)
सूर्य के आगमन से पहले उसके पद-चिह्न, आकाश में बादलों के छिटकते टुकड़े के रूप में श्यामल से नारंगी होते दिखाई दे रहे थे। सुबह ने अल साई सी अंगड़ाई ली, पेड़-पौधों में नई जीवंतता का संचार हुआ। कली, फूल, पत्तों में भी सुबह के आने की सुगबुगाहट, उन्मादी पन का अहसास होने लगा था। कोमल नवजात पत्तों ने पहली साँस के साथ नन्हीं आँखों से धरा को झाँक कर देखना चाहा, परंतु सूर्य की चमक ने उन सुकोमल नन्हे पत्तों को भय क्रांत कर फिर माँ के आँचल में दुबका दिया था। पास बड़े पत्तों न मंद्र समीर में नाच खड़खड़ाहट कर, तालियाँ बजा उनके भय को कुछ कम करना चाहा। दूर पक्षियों ने मानो उनके लिए मधुर लोरियों की झनकार छेड़ दी हो। उनका कलरव नाद सर्वस्व में कैसी मधुरता भर रहा था। तोतों ने जिन आमों को रात कुतरना छोड़ सो गए थे, सुबह फिर उन्हीं पर लदे-लटके कैसे किलकारियाँ मार-मार कर कह रहे हो,’’पा गया रात वाला फल’’ और खुशी के मारे उन्हें कुतर-कुतर कर विजय पत्ताका फहरा रहे थे। कुछ किसी अलसाए साथी को धक्के मार-मार के उठा रहे हे, चलो महाराज सूर्य सर पर चढ़ आया है, मीलों लंबा सफ़र तय करना है।रविवार, 6 जनवरी 2019
पटाचारा-(कहानी)-मनसा दसघरा
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श्रावस्ती नगरी के श्रेष्ठी आयु सेन के दो बच्चे थे। एक लड़की और एक लड़के जिनके नाम चन्द्र बाला और चन्द्र देव थे। घर धन-धान्य से भरा था। पर नहीं था तो माता-पिता के पास समय, जो बच्चों के लिए निकाल पाते। माता पिता दोनों व्यवसाय में इतने डूबे रहते थे, या ये कह ली जीए की काम इतना अधिक था की दोनों की देखे-रेख में भी पूरा नहीं होता था। घर में नौकर चाकर सुख सुविधा सब थी पर नहीं था तो मां बाप का प्यार दुलार संग साथ। दोनों बच्चे धीरे-धीरे बड़े होने लगे। उनकी जरूरतें बढ़ने लगी पर माता-पिता को इस की कोई भी चिंता नहीं था। जो भी मांगा जाता उसे पूरा कर दिया जाता। धीरे-धीरे चन्द्र बाला बचपन से जवानी की और बढ़ने लगी। इस आयु को हम अल्हड़पन-लड़कपन कहते है। इसी तरह से एक नौकर शुम्भी नाथ नाम का नवयुवक था, जो बचपन से ही अनाथ हो गया था और सेठ जी ने उसे अपने घर पर रख लिया। अब वह भी बड़ा हो कर घर के काम काज देखने लगा था। बचपन से ही इसी घर में पला तो उसके साथ नौकर सा व्यवहार नहीं किया जाता था। वह स्वतंत्र था पूरे घर में जहां जाए, देखने में सांवला रंग रूप था परंतु उसके नाक नक्श अति सुंदर थे। शरीर से भी बलिष्ठ था। वहीं चन्द्र बाला का बाल सखा था, दोनों साथ रहते खेलते अब वह चंद्र बाला की देख रेख के लिए नियुक्त कर दिया था। वह उसे बाहर घूमाने ले जाता। सारथी रथ ले चलता, कभी उपवन, तो कभी जलविहार या नौकायान के लिए अचरवती नदी के तीर ले जाता।
गुरुवार, 3 जनवरी 2019
आर्य रेवत-कहानी-(मनसा दसघरा)
आर्य रेवत-(ऐतिहासिक कहानी)
रेवत स्थविर सारि पुत्र को छोटा भाई था। राजगृह के पास एक छोटे से गांव का रहने वाला था। सारि पुत्र और मौद्गल्यायन स्थविर बचपन से ही संग साथ खेल और बड़े हुए। दोनों ने ही राजनीति ओर धर्म में तक्ष शिला विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की । और एक दिन घर परिवार छोड़ कर दोनों ही बुद्ध के अनुयायी हो गये। उस समय घर में बूढ़े माता-पिता, पत्नी दो बच्चे, दो बहने और छोटा रेवत था। इस बात की परिवार को दु:ख के साथ कही गर्व भी था की उनके सपूत ने बुद्ध को गुरु माना। पर परिवार की हालत बहुत बदतर होती चली गई। कई-कई बार तो खानें तक लाले पड़ जाते। जो परिवार गांव में कभी अमीरों में गिना जाता था। खुशहाल था। अब शरीर के साथ-साथ मकान भी जरजर हो गया था।रेवत जब बड़ा होने लगा तो उसे तक्ष शिला नहीं भेजा गया पढ़ने के लिए। एक तो तंग हाथ दूसरा सारि पुत्र का यूं अचानक घर से छोड़ जाना। घर को बहुत बड़ा सदमा दे गया। सारी आस उसी पर टीकी थी। की घर गृहथी को सम्हाले। और जो मां बाप ने सालों धन उस पर खर्च किया था उसकी भरपाई करेंगे। बहनों का शादी विवाहा करेंगे। छोटे भाई रेवत को पढ़ाते, पर सब बर्बाद हो गया। घर की हालत दीन हीन होई।
सोमवार, 31 दिसंबर 2018
अधूरी वासना—(कहानी) लेखक-ओशो
( 28 नवंबर 1953 के नव भारत (जबलपुर) में इस संपादकीय टिप्पणी के साथ यह कहानी पहली बार प्रकाशित हुई थी)
‘’ अधूरी वासना ’’ लेखक की रोमांटिक कहानी है।
भारत के तत्व दर्शन में पुनर्जन्म का आधार इस जीवन की अधूरी छूटी वासनायें ही है। कहानी के लेखक नह ऐ अन्य जगह लिखा है कि ‘’ शरीर में वासनायें है पर वह शरीर के कारण नहीं है, वरन शरीर ही इन वासनाओं के कारण से है।
अधूरी वासनायें जीवन के उस पास भी जाती है। और नया शरीर धारण करती है। जन्मों–पुनर्जन्मों का चक्र इन अधूरी छूटी वासना ओर का ही खेल है, लेखक की इस कहानी का विषय केंन्द्र यही है।
23 अगस्त 1984 को पुन: नव भारत ने इस के साथ इस कहानी को प्रकाशित किया: संपादकीय टिप्पणी:-
‘श्री रजनीश कुमार से आचार्य रजनीश और भगवान रजनीश तक का फासला तय करने वाले आचार्य रजनीश का जबलपुर से गहरा संबंध रहा है। अपनी चिंतन धारा और मान्यताओं के कारण भारत ही नहीं समूचे विश्व में चर्चित श्री रजनीश ने आज से लगभग 31 वर्ष पूर्व ‘नव भारत’को एक रोमांटिक कहानी प्रकाशनार्थ भेजी थी और वह जिस संपादकीय टिप्पणी के साथ प्रकाशित की गई थी, 28 नवंबर 1953 के ‘नव भारत से लेकिर अक्षरशः: प्रकाशित कर रहे है।‘
जनसंख्या विस्फोट-(प्रवचन-05)
जनसंख्या विस्फोट-ओशो
प्रवचन-पांचवां – (कुटुंब नियोजन)
‘स्वर्णपाखी था जो कभी और अब है भिखारी जगत का’ प्रवचन 5 से संकलित
एक दूसरे मित्र ने पूछा है--वह अंतिम सवाल, फिर मैं अपनी बात पूरी करूं--उन्होंने पूछा है, कुटुंब नियोजन के बाबत, बर्थ-कंट्रोल के बाबत आपके क्या खयाल हैं?यह अंतिम बात, क्योंकि यह भारत की अंतिम और सबसे बड़ी समस्या है। और अगर हमने इसे हल कर लिया तो हम सब हल कर लेंगे। यह अंतिम समस्या है। यह अगर हल हो गई तो सब हल हो जाएगी। भारत के सामने बड़े से बड़ा सवाल जनसंख्या का है; और रोज बढ़ता जा रहा है। हिंदुस्तान की आबादी इतने जोर से बढ़ रही है कि हम कितनी ही प्रगति करें, कितना ही विकास करें, कितनी ही संपत्ति पैदा करें कुछ परिणाम न होगा। क्योंकि जितना हम पैदा करेंगे उससे चैगुने मुंह हम पैदा कर देते हैं। और सब सवाल वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं, हल नहीं होते।
मनुष्य ने एक काम किया है कि मौत से एक लड़ाई लड़ी है। मौत को हमने दूर हटाया है।
जनसंख्या विस्फोट-(प्रवचन-04)
जनसंख्या विस्फोट-ओशो
प्रवचन-चौथा ( नियोजित संतानोत्पत्ति)
दिनांक २२ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना‘प्रीतम छबि नैनन बसी’ प्रवचन १२ से संकलित
01-पहला प्रश्न : भगवान,
आपने योजनापूर्ण ढंग से संतानोत्पत्ति की बात कही और उदाहरण देते हुए कहा कि महावीर, आइंस्टीन, बुद्ध जैसी प्रतिभाएं समाज को मिल सकेंगी। मेरा प्रश्न है कि ये नाम जो उदाहरण के नाते आपने दिए, स्वयं योजित संतानोत्पत्ति अथवा कम्यून आधारित समाज की उपज नहीं थे। इसलिए केवल कम्यून से प्रतिभाशाली संतानोत्पत्ति की बात अथवा संतान का विकास समाज की जिम्मेवारी वाली बात पूरी सही नहीं प्रतीत होती।
02-क्या जीवन-मूल्य समयानुसार रूपांतरित होते हैं?
03-आप कहते हैं: न आवश्यकता है काबा जाने की, न काशी जाने की। क्या आपकी दृष्टि में स्थान का कोई भी महत्व नहीं है?
04-कल आपने एक कवि के प्रश्न के संबंध में जो कुछ कहा उससे मेरे मन में भी चिंता पैदा होनी शुरू हुई है। मैं हास्य-कवि हूं। इस संबंध में आपका क्या कहना है?
05-मेरी विनम्र लघु आशा है
बनूं चरण की दासी
स्वीकृत करो कि न करो
पर हूं मैं एक बूंद की प्यासी।
रविवार, 30 दिसंबर 2018
जनसंख्या विस्फोट-(प्रवचन-03)
जनसंख्या विस्फोट
प्रवचन –तीसरा
कम्पलसरी फैमिली प्लानिंग (अनिवार्य संतति-नियमन)
‘देख कबीरा रोया’ प्रवचन 28 से संकलित
प्रश्न: संतति नियमन को आप कंपल्सरी मानते हैं?बिलकुल कंपल्सरी मानता हूं। मेरी बात समझ लें थोड़ा सा--मैं कंपल्सरी मानता हूं, इसका मतलब यह नहीं है कि मैं कंपल्सरी कर दूंगा। कंपल्सरी का मतलब कुल इतना है कि मैं आपके विचार को अपील करता हूं कि कंपल्सरी हो जाने जैसी चीज है। और अगर मुल्क की मेजारिटी तय करती है तो कंपल्सरी होगा। कंपल्सरी का मतलब कोई माइनारिटी थोड़े ही मुल्क के ऊपर तय कर देगी! लेकिन मेरा कहना यह है कि अगर एक आदमी भी इनकार करता है मुल्क में, तो भी कंपल्सरी है वह। अगर हिंदुस्तान के चालीस करोड़ लोगों में से एक आदमी भी कहता है कि मैं संतति नियमन मानने को तैयार नहीं हूं और चालीस करोड़ लोग कहते हैं कि मानना पड़ेगा तो भी कंपल्सरी है।
जनसंख्या विस्फोट-(प्रवचन-02)
जनसंख्या विस्फोट-ओशो
प्रवचन-दूसरा - संतति नियमन
‘एक एक कदम’ प्रवचन 7 से संकलित
मेरे प्रिय आत्मन् ,
संतति-नियमन या परिवार नियोजन पर मैं कुछ कहूं, उसके पहले दोत्तीन बातें मैं आपसे कहना चाहूंगा।पहली बात तो यह कहना चाहूंगा कि आदमी एक ऐसा जानवर है जो इतिहास से कुछ भी सीखता नहीं। इतिहास लिखता है, इतिहास बनाता है, लेकिन इतिहास से कुछ सीखता नहीं है। और यह इसलिए सबसे पहले कहना चाहता हूं कि इतिहास की सारी खोजों ने जो सबसे बड़ी बात प्रमाणित की है, वह यह कि इस पृथ्वी पर बहुत-से प्राणियों की जातियां अपने को बढ़ा कर पूरी तरह नष्ट हो गईं। इस जमीन पर बहुत शक्तिशाली पशुओं का निवास था, लेकिन वे अपने को बढ़ा कर नष्ट हो गए।
आज से पांच लाख वर्ष पहले--और जो मैं कह रहा हूं वह वैज्ञानिक अनुसंधान के आधार पर कहता हूं--जमीन पर हाथी से भी बड़ी छिपकलियां थीं। अब तो आपके घर में जो छिपकली बची है वही उसका एकमात्र वंशज है। वह इतना शक्तिशाली जानवर था। उसकी अस्थियां तो उपलब्ध हो गई हैं, वह सारी पृथ्वी पर फैल गया था। अचानक विदा कैसे हो गया?
जनसंख्या विस्फोट-(प्रवचन-01)
जनसंख्या विस्फोट
प्रवचन: पहला
‘संभोग से समाधि की ओर’ प्रवचन ९ से संकलित
पृथ्वी के नीचे दबे हुए, पहाड़ों की कंदराओं में छिपे हुए, समुद्र की तलहटी में खोजे गए ऐसे बहुत से पशुओं के अस्थिपंजर मिले हैं जिनका अब कोई भी निशान शेष नहीं रह गया। वे कभी थे। आज से दस लाख साल पहले पृथ्वी बहुत से सरीसृपों से भरी थी, सरकने वाले जानवरों से भरी थी। लेकिन आज हमारे घर में छिपकली के अतिरिक्त उनका कोई प्रतिनिधि नहीं रह गया है। छिपकली भी बहुत छोटा प्रतिनिधि है। दस लाख साल पहले उसके पूर्वज हाथियों से भी पांच गुने और दस गुने बड़े थे। वे सब कहां खो गए? इतने शक्तिशाली पशु पृथ्वी से कैसे विनष्ट हो गए? किसी ने उन पर हमला किया? किसी ने एटम बम, हाइड्रोजन बम गिराया?नहीं; उनके खत्म हो जाने की बड़ी अदभुत कथा है। उन्होंने कभी सोचा भी न होगा कि वे समाप्त हो जाएंगे। वे समाप्त हो गए अपनी संतति के बढ़ जाने के कारण! वे इतने ज्यादा हो गए कि पृथ्वी पर जीना उनके लिए असंभव हो गया। भोजन कम हुआ; पानी कम हुआ; लिविंग स्पेस कम हुई; जीने के लिए जितनी जगह चाहिए, वह कम हो गई।
शनिवार, 29 दिसंबर 2018
ध्यान योग-ओशो-(अध्याय-04)
ध्यान योग-(प्रथम और अंतिम मुक्ति)
अध्याय -चौथा -(विभिन्न ध्यान प्रयोग)
01-सक्रिय ध्यान
हमारे शरीर और मन में इकट्ठे हो गए दमित आवेगों, तनावों एवं रुग्णताओं का रेचन करने, अर्थात उन्हें बाहर निकाल फेंकने के लिए ओशो ने इस नई ध्यान विधि का सृजन किया है। शरीर और मन के इस रेचन अर्थात शुद्धिकरण से, साधक पुनः अपनी देह-ऊर्जा, प्राण-ऊर्जा, एवं आत्म-ऊर्जा के संपर्क में--उनकी पूर्ण संभावनाओं के संपर्क में आ जाता है--और इस तरह साधक आध्यात्मिक जागरण की ओर सरलता से विकसित हो पाता है।सक्रिय ध्यान अकेले भी किया जा सकता है और समूह में भी। लेकिन समूह में करना ही अधिक परिणामकारी है।
स्नान कर के, खाली पेट, कम से कम वस्त्रों में, आंखों पर पट्टी बांधकर इसे करना चाहिए।
यह विधि पूरी तरह प्रभावकारी हो सके, इसके लिए साधक को अपनी पूरी शक्ति से, समग्रता में इसका अभ्यास करना होगा। इसमें पांच चरण हैं। पहले तीन चरण दस-दस मिनट के हैं तथा बाकी दो पंद्रह-पंद्रह मिनट के।
सुबह का समय इसके लिए सर्वाधिक उपयोगी है, यूं इसे सांझ के समय भी किया जा सकता है।
ध्यान योग-ओशो-(अध्याय-03)
ओशो ध्यान योग-(प्रथम ओर अंतिम मुक्ति)
अध्याय -तीसरा
ध्यान-एक वैज्ञानिक दृष्टि
मेरे प्रिय आत्मन्!सुना है मैंने, कोई नाव उलट गई थी। एक व्यक्ति उस नाव में बच गया और एक निर्जन द्वीप पर जा लगा। दिन, दो दिन, चार दिन; सप्ताह, दो सप्ताह उसने प्रतीक्षा की कि जिस बड़ी दुनिया का वह निवासी था, वहां से कोई उसे बचाने आ जाएगा। फिर महीने भी बीत गए और वर्ष भी बीतने लगा। फिर किसी को आते न देखकर वह धीरे-धीरे प्रतीक्षा करना भी भूल गया। पांच वर्षों के बाद कोई जहाज वहां से गुजरा, उस एकांत निर्जन द्वीप पर उस आदमी को निकालने के लिए जहाज ने लोगों को उतारा। और जब उन लोगों ने उस खो गए आदमी को वापस चलने को कहा, तो वह विचार में पड़ गया।
ध्यान योग-ओशो-(अध्याय-02)
ध्यान योग-(प्रथम ओर अंतिम मुक्ति)
अध्याय-दूसरा-प्रवचन अंश
ध्यान है भीतर झांकना
बीज को स्वयं की संभावनाओं का कोई भी पता नहीं होता है। ऐसा ही मनुष्य भी है। उसे भी पता नहीं है कि वह क्या है--क्या हो सकता है। लेकिन, बीज शायद स्वयं के भीतर झांक भी नहीं सकता है। पर मनुष्य तो झांक सकता है। यह झांकना ही ध्यान है। स्वयं के पूर्ण सत्य को अभी और यहीं, हियर एंड नाउ जानना ही ध्यान है। ध्यान में उतरें--गहरे और गहरे। गहराई के दर्पण में संभावनाओं का पूर्ण प्रतिफलन उपलब्ध हो जाता है। और जो हो सकता है, वह होना शुरू हो जाता है। जो संभव है, उसकी प्रतीति ही उसे वास्तविक बनाने लगती है। बीज जैसे ही संभावनाओं के स्वप्नों से आंदोलित होता है, वैसे ही अंकुरित होने लगता है। शक्ति, समय और संकल्प सभी ध्यान को समर्पित कर दें। क्योंकि ध्यान ही वह द्वार हीन द्वार है जो कि स्वयं को ही स्वयं से परिचित कराता है।ध्यान योग-ओशो-(अध्याय-01)
ध्यान योग-(प्रथम ओर अंतिम मुक्ति)
अध्याय -पहला - (साधकों लिखे पत्र)
ध्यान में घटने वाली घटनाओं, बाधाओं, अनुभूतियों, उपलब्धियों, सावधानियों, सुझावों तथा निर्देशों संबंधी साधकों को लिखे गए ओशो के इक्कीस पत्र अंततः सब खो जाता हैसुबह सूर्योदय के स्वागत में जैसे पक्षी गीत गाते हैं--ऐसे ही ध्यानोदय के पूर्व भी मन-प्राण में अनेक गीतों का जन्म होता है। वसंत में जैसे फूल खिलते हैं, ऐसे ही ध्यान के आगमन पर अनेक-अनेक सुगंधें आत्मा को घेर लेती हैं। और वर्षा में जैसे सब ओर हरियाली छा जाती है, ऐसे ही ध्यान-वर्षा में भी चेतना नाना रंगों से भर उठती है, यह सब और बहुत-कुछ भी होता है। लेकिन यह अंत नहीं, बस आरंभ ही है। अंततः तो सब खो जाता है। रंग, गंध, आलोक, नाद--सभी विलीन हो जाते हैं। आकाश जैसा अंतर्आकाश (इनर स्पेस) उदित होता है। शून्य, निर्गुण, निराकार। उसकी करो प्रतीक्षा। उसकी करो अभीप्सा। लक्षण शुभ हैं, इसीलिए एक क्षण भी व्यर्थ न खोओ और आगे बढ़ो। मैं तो साथ हूं ही।
गुरुवार, 27 दिसंबर 2018
00--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)
दसघरा की दस कहानियां
रोज की तरह आज भी सूर्य दिन भर की भाग दौड़ और धुल-धमास से बाद अपने घर की राह पर विश्राम के लिए जाने की तैयारी कर रहा था। जाते-जाते उसे बादलों ने चारों और से ऐसे घेरकर एक विनती भाव से उसका रास्ता रोक लिया था। मानो वह अपने उपर जमी घुल-धमास को झाड़-पोंछ सकने में उसकी मदद करना चाह रहे हो। इस सब के बीच जब ये कार्य चल रहा हो तो इस क्रिया में उसे कोई निर्वस्त्र न देख सके। शायद वहीं धूल-धमास झाड़ कर गिरने के कारण जो जमा हो गई होगी वहीं उसके आस पास बादल होने का भ्रम दे रही थी। उस बिखरी धूल के कारण सूर्य की किरणें कैसे सुनहरे और नारंगी रंगों की छटा आसमान में बिखरे हुई थी। सूरज के घर जाने की तैयारी को देख पक्षियों ने चहक गान गाने शुरू कर दिये थे। पृथ्वी जो पूरा दिन आग की तरह जल रही थी अब उसने भी चैनी की सांस के साथ-साथ एक गहरी ठंडी उसांस ली। पेड़ पौधे भी जो गर्मी के मारे अपने कोमल और नाजुक पत्तों को समेटे हुए थे। उन्हें भी अब लहराने और चहकने के लिए प्रेरित करने लगे थे। हवा चलने के कारण पूरा पेड़ कैसे झूमता इठलाता सा लग रहा था। गर्मी जरूर अभी थी पर हवा में थोड़ी ठंडक हो गई थे। भांप भरी पतिली की उमस में अब कुछ-कुछ शीतलता का विश्वास जग रहा था।
मंगलवार, 25 दिसंबर 2018
00--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)
दसघरा की दस कहानियां
राम शरण भोर में सुबह तीन बजे अलार्म की आवाज सुनता, तो ऐसा लगता कहीं कोसों दूर से बहती आती ध्वनि मिट्टी हुए शरीर को नए प्राण भरने मानों एक चाबी का काम कर हो। जो शारीर हाड़ मास का था। जिसे में एक संवेदना थी, वह अब इतना टूट गया है कि अब लगता है, मानो वह एक मशीन बन कर रह गया है। शारीर का अंग-अंग, पोर-पोर कैसे टूटा बिखरा पडा होता, कितनी मुश्किल से सहज, समेट कर सुबह रामसरण खड़ा होता था। और ये सर तो मानों जम गया है, बर्फ की तरह कैसा निष्क्रिय, बेजान अपना ही सर होने पर भी कैसे पराए पन का अहसास दे रहा था। सर ही क्या पूरे शारीर के स्नायु तंत्र को काम करने की कितनी जरूरत है, या उन के बिना भी काम चलता रहेगा। मनुष्य को कितनी जीवन चेतना कि आवश्यकता पड़ती है, राम शरण को कूड़ा कचरा बीनने के लिए। जीवन क्या है एक वर्तुल बन गया है। आंख पर बंधी पट्टी बाँध कर एक कोल्हूं के बेल की तरह। क्या चाहिए केवल दारूका एक पव्वा। बस रोज जीवन इसी के आस पास घूमता है, जीवन एक दूसचक्र का पहीयां बन गया किसी अदृर्य चक्की की तरह। अब भला कौन खोले उनकी आँख जो जागे हुए होने के भ्रम में जी रहे है, सोये को तो किसी तरह से जगाया भी जा सकता हे, अपितु जागे को कौन जगाए। जिंदगी एक बेबस पंछी की तरह हो गई थी, पंछी तड़पती है, सर टकराता है पिंजरे से परन्तु उसकी कैद से बहार नहीं निकल पाता है। शराब के हाथों कमजोर, लाचार, बेबस, एक जीवित लाश हो गया है राम शरण।