जनसंख्या विस्फोट-ओशो
प्रवचन-पांचवां – (कुटुंब नियोजन)
‘स्वर्णपाखी था जो कभी और अब है भिखारी जगत का’ प्रवचन 5 से संकलित
एक दूसरे मित्र ने पूछा है--वह अंतिम सवाल, फिर मैं अपनी बात पूरी करूं--उन्होंने पूछा है, कुटुंब नियोजन के बाबत, बर्थ-कंट्रोल के बाबत आपके क्या खयाल हैं?यह अंतिम बात, क्योंकि यह भारत की अंतिम और सबसे बड़ी समस्या है। और अगर हमने इसे हल कर लिया तो हम सब हल कर लेंगे। यह अंतिम समस्या है। यह अगर हल हो गई तो सब हल हो जाएगी। भारत के सामने बड़े से बड़ा सवाल जनसंख्या का है; और रोज बढ़ता जा रहा है। हिंदुस्तान की आबादी इतने जोर से बढ़ रही है कि हम कितनी ही प्रगति करें, कितना ही विकास करें, कितनी ही संपत्ति पैदा करें कुछ परिणाम न होगा। क्योंकि जितना हम पैदा करेंगे उससे चैगुने मुंह हम पैदा कर देते हैं। और सब सवाल वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं, हल नहीं होते।
मनुष्य ने एक काम किया है कि मौत से एक लड़ाई लड़ी है। मौत को हमने दूर हटाया है। हमने प्लेग, महामारियों से मुक्ति पा ली है। हम आदमी को ज्यादा स्वस्थ कर सके। बच्चे जितने पैदा होते हैं, करीब-करीब बचाने का हमने उपाय कर लिया है। हमने मौत से तो लड़ाई लड़ ली, लेकिन हम यह भूल गए कि हमें जन्म से भी लड़ाई लड़नी पड़ेगी। एकतरफा लड़ाई महंगी पड़ जाएगी।
हमने मौत का दरवाजा तो क्षीण कर दिया और जन्म का दरवाजा पुरानी रफ्तार से, बल्कि और बड़ी रफ्तार से जारी है। तो एक उपद्रव मुश्किल हो गया। प्रकृति में एक संतुलन था कि प्रकृति उतने ही लोगों को बचने देती थी इस पृथ्वी पर, जितने लोगों के बचने का उपाय था।
आपको शायद पता न हो, आपने घर में छिपकली देखी होगी दीवारों पर। छिपकली एक बहुत पुराने जानवर का वंशज है। आज से कोई दस लाख साल पहले जमीन पर हाथियों से भी कोई पांच-पांच गुने बडी छिपकलियां थी, वह सब खत्म हो गईं। क्योंकि उन्होंने इतने बच्चे पैदा कर लिए कि आत्मघात हो गया। उनके मरने का और कोई कारण नहीं है। न कोई भूकंप आया, न कोई अकाल पड़ा। उनका कुल कारण यह है कि उन्होंने इतने बच्चे पैदा कर लिए कि उन बच्चों के लिए भोजन जुटाना असंभव हो गया और सारी छिपकलियां मर गईं। उनका एक वंशज बहुत छोटे रूप में हमारे घरों में रह गया। हाथियों से बड़े जानवर थे वे। और भी बहुत से जानवरों की जातियां पृथ्वी से तिरोहित हो गई हैं, सदा के लिए विलीन हो गई हैं। कभी थीं, अब नहीं हैं। और उसका कुल कारण एक था कि वे बच्चे पैदा करते चले गए। और सीमा वहां आ गई, जहां भोजन कम पड़ गया और लोग ज्यादा हो गए और मृत्यु के सिवाय कोई रास्ता न रहा।
प्रकृति आदमी के साथ भी अलग तरह का सलूक न करेगी, आदमी इस भूल में न रहे। अगर हम संख्या बढ़ाते चले जाते हैं तो हमारे साथ भी वही होगा जो सब पशुओं के साथ हो सकता है। हमारे साथ कोई भगवान अलग से हिसाब नहीं रखेगा। आज पृथ्वी पर साढ़े तीन अरब लोग हैं। हिंदुस्तान की आबादी पाकिस्तान के बंटने के वक्त जितनी थी, पाकिस्तान बंटने से अगर किसी ने सोचा होगा कि हम कम हो जाएंगे तो गलती में है। हमने एक पाकिस्तान को तब तक फिर पैदा कर लिया। आज पाकिस्तान-हिंदुस्तान की आबादी मिल कर बहत्तर करोड़ है। हिंदुस्तान की आबादी उन्नीस सौ तीस में तैंतीस करोड़ थी। तैंतीस करोड़ से बहत्तर करोड़ हो गई--सिर्फ चालीस वर्षों में! इस सदी के पूरे होते-होते हम कहां खड़े होंगे, कहना बहुत मुश्किल है। सभा करने की कोई जरूरत न रह जाएगी, जहां भी होंगे सभा में ही होंगे। कोहनी हिलाने की जगह नहीं रह जाने वाली है। लेकिन इतने लोग कैसे जी सकते हैं?
सारे जगत के सामने सवाल है, हमारे सामने सबसे ज्यादा। सबसे ज्यादा इसलिए है कि समृद्ध कौमें बच्चे कम पैदा करती हैं, गरीब कौमें ज्यादा बच्चे पैदा करती हैं। इसका कारण है। अमरीका में कोई जनसंख्या बढ़ नहीं रही। फ्रांस में तो घट रही है। फ्रांस की सरकार चिंतित है कि कहीं हमारी संख्या न घट जाए। बड़ी अजीब दुनिया है। इधर हम मरे जा रहे हैं कि संख्या बढ़ी जा रही है, उधर फ्रांस में संख्या कम पड़ी जा रही है। फ्रांस की सरकार चिंतित है कि कहीं संख्या कम न हो जाए। बीस साल से ठहरी हुई है संख्या। क्या कारण था?
असल में जैसे आदमी समृद्ध होता है, संपत्तिवान होता है, बुद्धिमान होता है, वैसे ही उसकी जिंदगी में मनोरंजन की बहुत सी दिशाएं खुल जाती हैं। और गरीब के पास मनोरंजन की एक ही दिशा है, सेक्स। और कोई मनोरंजन की दिशा नहीं है। और मुफ्त! कोई टिकट नहीं, कोई पैसा नहीं। कोइ खर्च नहीं। वह दिन भर का थका-मांदा, सिनेमा जाए तो पैसा खर्च हो जाते हैं, नृत्य देखे तो पैसा खर्च हो जाते हैं, रेडियो कहां से लाए, टेलीविजन कहां से लाए। सेक्स एकमात्र उसके पास मुफ्त मनोरंजन है। उसकी वजह से गरीब बच्चे पैदा करता चला जाता है। पहले कोई खतरा न था। पहले भी गरीब बच्चे पैदा करता था। एक आदमी बीस बच्चे पैदा करता था, एकाध बचा लिया तो बहुत, दोे बच गए तो बड़ी कृपा भगवान की। वह भी गंडे-ताबीज वगैरह बांध कर मुश्किल से बच पाते थे। लेकिन अब खतरा है, गरीब का बच्चा भी बचेगा। अमीर बच्चे कम पैदा करता है। क्योकि उसके पास मनोरंजन के साधन ज्यादा हैं। इसलिए अमीरों को पहले भी बच्चे गोद लेने पड़ते थे, अब भी लेने पड़ते हैं। उसके पास मनोरंजन के साधन बहुत हैं।
और एक और मजे की बात है कि आदमी जितने आराम में रहे, विश्राम में रहे, उसकी सेक्सुअल एनर्जी उतनी एब्जार्ब हो जाती है। जितने विश्राम में आदमी रहेगा उतनी उसकी काम शक्ति शरीर में विसर्जित हो जाती है। और जितना आदमी श्रम करेगा उतनी काम शक्ति बाहर निकलने के लिए आतुर हो जाती है। इसलिए श्रमिक की तकलीफ है क्योंकि इसके सारे शरीर की काम शक्ति निचोड़ कर इकट्ठी हो जाती है और बाहर फिंकना चाहती है। विश्राम करने वाले आदमी को उतनी काम शक्ति बाहर निकलने के लिए आतुर नहीं करती। इसलिए संपन्नता बढ़ने के साथ नये आयाम मिलते हैं--मनोरंजन के, सृजन की नई दिशाएं मिलती हैं। और तनाव और श्रम कम हो जाने से शरीर की यौन शक्ति शरीर में विसर्जित हो जाती है।
गरीब मुल्क के सामने बड़ा सवाल है। गरीब मुल्क क्या करे? हम क्या करें? हमारे सज्जन, अच्छे आदमी, जो हमें बड़े महंगे पड़ते रहे हैं, और अब भी महंगे पड़ रहे हैं--वे हमें समझाते हैं कि ब्रह्मचर्य रखो, संयम रखो तो सब ठीक हो जाएगा। कोई ब्रह्मचर्य रख नहीं सकता, न रखता है। कोई रख सके करोड़ में, दोे करोड़ में एक व्यक्ति तो उसके लिए उसे इतने शीर्षासन और इतनी चेष्टाएं और इतनी विधियां करनी पड़ती हैं कि संभव नहीं है कि आम--मास स्केल पर ब्रह्मचर्य कभी हो जाए। और फिर अगर किसी को ब्रह्मचर्य रखना हो तो फिर वह एक ही काम कर सकता है कि ब्रह्मचर्य रखे। चैबीस घंटे उसी काम में लगा रहे, फिर दूसरा काम नहीं कर सकता। इसलिए साधु-संन्यासी संसार छोड़ कर भागते हैं, उसका और कोई कारण नहीं है। एक ही काम, पूरा का पूरा एब्जार्बिंग है--ब्रह्मचर्य साधना। इतना खाना खाओ, इतना खाना मत खाओ, यह पानी पीओ, यह पानी मत पीओ, इस तरह सोओ, इस तरह मत सोओ, यह पढ़ोे, यह मत पढ़ोे, यह देखो, यह मत देखो--चैबीस घंटे वह ब्रह्मचर्य ही साध लें तो पर्याप्त--उनके जीवन की यात्रा हो गई। लेकिन यह बड़ी बेहूदी यात्रा है कि अगर सिर्फ ब्रह्मचर्य सधा तो क्या सध गया? यह मासेस के स्केल पर नहीं हो सकता।
मासेस के स्केल पर, बड़े जन-समूह के पैमाने पर तो कृत्रिम साधनों का, वैज्ञानिक साधनों का उपयोग करना पड़ेगा। लेकिन भारत का मन उन साधनों का उपयोग करने की तैयारी नहीं दिखा रहा है। अगर हमने तैयार नहीं दिखाई तो हम मरेंगे, अपने हाथ से मरेंगे। और अगर हम तैयारी नहीं दिखाते तो मेरी अपनी समझ यह है कि बर्थ-कंट्रोल कंपल्सरी होना चाहिए। अगर शिक्षा कम्पल्सरी हो सकती है, जो कि उतनी जरूरी बात नहीं है आज।
अगर कुछ लोग अशिक्षित रह जाएं, तो नुकसान होगा, लेकिन भारी नुकसान नहीं हो जाएगा। लेकिन संतति-नियमन--बोर्ड लगे हैं जगह-जगह--‘दोे या तीन बच्चे, बस’; उससे कुछ होने वाला नहीं है। समझाने से भी कुछ होने वाला नहीं है, क्योंकि अगर हम समझाने में लगे तो...मैं अभी एक आंकड़ा पढ़ रहा था कि अगर हिंदुस्तान के एक-एक आदमी को समझाने की कोशिश की जाए बर्थ-कंट्रोल के लिए, तो कम से कम हमको सौ साल लगेंगे समझाने में, और सौ साल में वे इतने बच्चे पैदा कर देंगे कि उनको कौन समझाएगा? वह सौ साल रुके तो नहीं रहेंगे कि हम जब समझ लेंगे तब बच्चे पैदा करेंगे। वह बच्चे तो पैदा करते रहेंगे। पूरी जमीन पर डेढ़ लाख बच्चे रोज पैदा हो रहे हैं। बड़ा हिस्सा एशिया पैदा कर रहा है। एशिया में भी बड़ा हिस्सा चीन के बाद हम पैदा कर रहे हैं।
नहीं, बर्थ-कंट्रोल, संतति-नियमन समझाने की जरूरत नहीं है क्योंकि वह जीवन मरण का सवाल है। वह अनिवार्य होना चाहिए। अनिवार्य का मतलब यह है कि दोे बच्चों के बाद आपरेशन अनिवार्य होगा। अनिवार्य का यह भी मतलब है कि दोे बच्चों के बाद, जिनके पास ज्यादा और बच्चे हैं उन बच्चों पर सरकार सुविधाएं कम कर देगी। जितने जिसके पास कम बच्चे हैं उनको उतनी ज्यादा सुविधाएं मिलनी चाहिए, अभी हालतें उलटी हैं।
अभी हालतें यह हैं कि एक अविवाहित आदमी पर टैक्स ज्यादा है और विवाहित होने पर टैक्स कम है। बच्चे हो जाएं तो और कम है। बड़ी उलटी बात है। बच्चों को कम करना है तो यह उलटा हिसाब लग रहा है। अविवाहित आदमी पर टैक्स बिलकुल नहीं होना चाहिए--या कम से कम होना चाहिए। विवाहित पर ज्यादा टैक्स होना चाहिए और बच्चे होने पर टैक्स बढ़ता जाना चाहिए, तब हम रोक पाएंगे। और अविवाहित व्यक्ति, और जो निःसंतान रहने को तैयार हैं उनको हमें प्रतिष्ठा देनी चाहिए, आदर देना चाहिए, सम्मान देना चाहिए, पुरस्कार देना चाहिए। और सब तरफ से दोे बच्चों के बाद सख्त ,सख्त से सख्त कदम उठा कर रोक देना चाहिए, अन्यथा उन्नीस सौ अठहत्तर तक हमारी संख्या इतनी हो जाएगी कि एक बड़े अकाल की संभावना है जिसमें दस करोड़ लोगों को मरना पड़ेगा--कम से कम--ज्यादा भी मर सकते हैं। अगर सारी दुनिया ने भी हमें खाने की सहायता दी तो भी बीस वर्षों के भीतर एक बड़े अकाल से गुजरने की आशा माननी चाहिए। घबड़ाने वाली बात है। ऐसा न हो, अच्छा है। लेकिन सारी स्थितियां यह कहती हैं कि यह हो जाएगा।
क्या यह अच्छा होगा कि दस करोड़ लोग अकाल में मरें? या हम पहले ही बच्चों को रोकें? लेकिन धर्मगुरु उलटी बातें सिखाते हैं। वे यह कहते हैं कि बच्चे भगवान देता है। भगवान का इसमें कोई हाथ नहीं है, कोई अपराध नहीं। भगवान पर मुकदमा चलाया ही नहीं जा सकता है इस मामले में। मजे की बात यह है कि जो धर्मगुरु यह समझाते हैं कि भगवान देता है बच्चे, वे यह नहीं समझाते कि बीमारी भी भगवान देता है, इसका इलाज नहीं करवाना चाहिए। बीमारी के लिए इलाज करवाने के लिए संन्यासी भी अस्पताल मे भर्ती हो जाते है। बीमारी भगवान ने दी है, इलाज किससे करवा रहे हो? नहीं, बीमारी भगवान की नहीं है, बीमारी डाक्टर से दूर करवाएंगे, और बच्चे भगवान पर थोप देंगे।
बहुत मिरेकल की घटना है कि एक आदमी के शरीर में इतने वीर्याणु बनते हैं एक जिंदगी में कि एक पुरुष से आज पृथ्वी पर जितनी संख्या है उतने बच्चे पैदा हो सकते हैं। एक संभोग में एक पुरुष से इतने वीर्याणु निकलते हैं कि एक करोड़ बच्चे पैदा हो सकते हैं। और एक पुरुष सामान्य रूप से जिंदगी में अगर चार हजार बार संभोग करे तो चार हजार करोड़ बच्चों का बाप बन सकता है। यह तो स्त्री की कृपा है कि वह एक ही बच्चे को साल में दे सकती है, नहीं तो हम बड़ी मुश्किल में कभी के पड़ गए होते! बहुत झंझट में पड़ गए होते।
यह रोकना पड़ेगा। न केवल यह रोकना पड़ेगा बल्कि दोे तीन बातें मेरे खयाल में और हैं जो मैं कहना चाहूंगा। हमें न केवल संतति पर नियमन करना पड़ेगा, हमें संतति वैज्ञानिक रूप से पैदा हो इसका भी विचार करना होगा। अंधे, लूले, लंगड़े, कोढ़ी, पंगु, बुद्धि-भ्रष्ट, पागल, वे सब बच्चे पैदा करते जाएं, यह बहुत खतरनाक है। यह तो बहुत महंगा है। यह तो सारी रेस को खराब करने की व्यवस्था है। हमें इसकी भी फिकर करनी पड़ेगी कि दोे व्यक्ति अगर विवाह करते हैं--तो विवाह तो कोई भी व्यक्ति किसी से भी कर सकता है क्योंकि प्रेम के संबंध में कोई भी कानून नहीं लगाया जा सकता। लेकिन दोे व्यक्ति अगर विवाह करते हैं तो विवाह के बाद उनको सर्टिफिकेट लेना ही चाहिए मेडिकल बोर्ड का कि वे बच्चे पैदा कर सकते हैं या नहीं। हर आदमी को बच्चा पैदा करने का हक बहुत खतरनाक है; आगे ठीक नहीं है। साइंटिफिक ब्रीडिंग के लिए उचित नहीं है। क्योंकि कोई भी बच्चे पैदा करता है। एक आदमी सड़क पर भीख मांग रहा है, मस्तिष्क खराब है, पागल है, वह भी बच्चे पैदा करता है। तो हम आगे की रेस को खराब करते चले जाते हैं। हमारी प्रतिभा, शक्ति, सौंदर्य सब नष्ट होता चला जाता है। वह हमें रोकना पड़ेगा।
और अब, अब चूंकि आर्टिफिशियल इनसेमिनेशन ने, कृत्रिम गर्भाधारण ने, नई दिशाएं खोज दी हैं, जोे बहुत अदभुत हैं। अब यह संभव है कि मैं मर जाऊं तो मेरे मरने के दस बारह साल बाद मेरा बेटा पैदा हो सके। इसमें कोई कठिनाई नहीं रह गई। अब बाप की मौजूदगी बेटे के लिए जरूरी नहीं है। मेरे वीर्य-अणु संरक्षित किए जा सकते हैं। इसका यह मतलब है कि अब हम श्रेष्ठतम व्यक्तियों के, आइंस्टीन के, या बुद्ध के, या महावीर के वीर्य-अणु सुरक्षित कर सकते हैं। श्रेष्ठतम स्त्रियों के वीर्य-अणु सुरक्षित हो सकते हैं। और उन अणुओं से हम नये तरह के ज्यादा श्रेष्ठतम व्यक्तियों को जन्म दे सकते हैं। अब हर व्यक्ति को बच्चे पैदा नहीं करने चाहिए।
लेकिन हम कहेंगे कि मेरा बच्चा और अणु किसी और का? यह नहीं हो सकता। लेकिन मेरा बच्चा--उसके लिए साइकिल कोई और बनाता है तो चढ़ता है। मेरा बच्चा--गुड्डी कोई और बनाता है। मेरा बच्चा--कपड़े कोई दर्जी सीता है। मेरा बच्चा--दवाई कोई डाक्टर बनाता है। मेरा बच्चा--शिक्षा कोई शिक्षक देता है। जब हम सारी बातों में किसी और से इंतजाम करवा लेते हैं तो व्यक्ति का जो मौलिक अणु है वह मेरे बच्चे के लिए श्रेष्ठतम मिले, यह जो बाप अपने बेटे को प्यार करता है, इसकी फिकर करेगा--करना चाहिए। अब यह संभव है। लेकिन आदमी की कठिनाई यह है कि विज्ञान जिसे संभव बना देता है, आदमी की बुद्धिहीनता के कारण वह सैकड़ों वर्ष तक संभव नहीं हो पाता। अब यह संभव है कि मनुष्य की प्रतिभा बढ़ाई जा सके, बुद्धि बढ़ाई जा सके और श्रेष्ठतम, सुंदरतम स्वस्थतम, मनुष्य को पैदा किया जा सके।
लेकिन वे तो दूर के सपने हैं। अभी तो हमारे सामने सवाल यह है कि हम किसी तरह आती हुई भीड़ को रोक सकें। भीड़ एकदम आकाश से उतर रही हैं, पूरे मुल्क को भरती चली जाएंगी। अगर हमने पचास साल में हिम्मत न दिखाई तो हम अपने हाथ से मर सकते हैं। किसी एटम की, किसी हाइड्रोजन बम की हमारे ऊपर फेंकने की जरूरत न पड़ेगी। हमारा पापुलेशन एक्सप्लोजन ही हमारे लिए हाइड्रोजन बम बन जाएगा। वह जो जनसंख्या फूट रही है, वही हमारी मृत्यु बन सकती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें