ध्यान योग-(प्रथम और अंतिम मुक्ति)
अध्याय -चौथा -(विभिन्न ध्यान प्रयोग)
01-सक्रिय ध्यान
हमारे शरीर और मन में इकट्ठे हो गए दमित आवेगों, तनावों एवं रुग्णताओं का रेचन करने, अर्थात उन्हें बाहर निकाल फेंकने के लिए ओशो ने इस नई ध्यान विधि का सृजन किया है। शरीर और मन के इस रेचन अर्थात शुद्धिकरण से, साधक पुनः अपनी देह-ऊर्जा, प्राण-ऊर्जा, एवं आत्म-ऊर्जा के संपर्क में--उनकी पूर्ण संभावनाओं के संपर्क में आ जाता है--और इस तरह साधक आध्यात्मिक जागरण की ओर सरलता से विकसित हो पाता है।सक्रिय ध्यान अकेले भी किया जा सकता है और समूह में भी। लेकिन समूह में करना ही अधिक परिणामकारी है।
स्नान कर के, खाली पेट, कम से कम वस्त्रों में, आंखों पर पट्टी बांधकर इसे करना चाहिए।
यह विधि पूरी तरह प्रभावकारी हो सके, इसके लिए साधक को अपनी पूरी शक्ति से, समग्रता में इसका अभ्यास करना होगा। इसमें पांच चरण हैं। पहले तीन चरण दस-दस मिनट के हैं तथा बाकी दो पंद्रह-पंद्रह मिनट के।
सुबह का समय इसके लिए सर्वाधिक उपयोगी है, यूं इसे सांझ के समय भी किया जा सकता है।
पहला चरण
अपनी पूरी शक्ति से तेज और गहरी श्वास लेना शुरू करें। श्वास बिना किसी नियम के, अराजकतापूर्वक--भीतर लें, बाहर छोड़ें। श्वास नाक से लें। श्वास बाहर फेंकने पर अधिक जोर लगाएं, इससे श्वास का भीतर आना सहज हो जाएगा। श्वास का लेना और छोड़ना खूब तीव्रता से और जल्दी-जल्दी करें--और अपनी पूरी ताकत इसमें लगा दें। इसे बढ़ाते ही चले जाएं--आपका पूरा व्यक्तित्व एक तेज श्वास-प्रश्वास ही बन जाए। भीतर ध्यानपूर्वक देखते रहें--श्वास आयी, श्वास गयी।दूसरा चरण
अब पूरी तरह शरीर को गति करने दें तथा आंतरिक भावावेगों को प्रकट होने दें। भीतर से जो कुछ बाहर निकलता हो, उसे बाहर निकलने में सहयोग करें। पूरी तरह से पागल हो जाएं--रोएं, चीखें, चिल्लाएं, नाचें, उछलें, कूदें, हंसें--जो भी होता हो उसे सहयोग करें, उसे तीव्रता दें। चाहें तो तेज और गहरी सांस लेना जारी रख सकते हैं। यदि शरीर की गति और भावों का रेचन और प्रकटीकरण न होता हो, तो चीखना, चिल्लाना, रोना, हंसना इत्यादि में से किसी एक को चुन लें और उसे करना शुरू करें। शीघ्र ही आपके स्वयं के भीतर के संगृहीत और दमित आवेगों का झरना फूट पड़ेगा।ख्याल रखें कि आपका मन और आपकी बुद्धि इस प्रक्रिया में बाधक न बने। यदि फिर भी कुछ न होता हो, तो श्वास की चोट जारी रखें और किसी आंतरिक अभिव्यक्ति को प्रकट होने में सहयोग करें।
तीसरा चरण
अब दोनों बाजू ऊपर उठा लें, पंजों पर खड़े हो जाएं, और एक ही जगह पर उछलते हुए, समग्रता से, पूरी ताकत से महामंत्र हू-हू-हू का उच्चार करें, और उसकी चोट को काम केंद्र पर पड़ने दें। ऊर्जा के बढ़ते हुए प्रवाह को अनुभव करें। "हू" की चोट को और अधिक तीव्र करते चले जाएं--तथा आनंदपूर्वक इस चरण को तीव्रता के शिखर की ओर ले चलें।चौथा चरण
अचानक सारी गतियां, क्रियाएं और हू-हू-हू की आवाज आदि सब बंद कर दें और शरीर जिस स्थिति में हो, उसे वहीं थिर कर लें। शरीर को किसी भी प्रकार से व्यवस्थित न करें। पूरी तरह से निष्क्रिय और सजग बने रहें। एक गहरी शांति, मौन और शून्यता भीतर घटित होगी।पांचवां चरण
अब भीतर छा गए आनंद, मौन और शांति को अभिव्यक्त करें। आनंद और अहोभाव से भरकर नाचें, गाएं और उत्सव मनाएं। शरीर के रोएं-रोएं से भीतर की जीवन-ऊर्जा और चैतन्य को प्रकट होने दें।ध्यान रहे, यदि आप ऐसी जगह ध्यान कर रहे हों, जहां पहले तथा दूसरे चरण में भावावेगों के प्रकटीकरण तथा तीसरे चरण में हू-हू-हू की आवाज करने की सुविधा न हो, तो दूसरे चरण में रेचन-क्रिया शरीरिक मुद्राओं द्वारा ही होने दें--तथा तीसरे चरण में "हू" की आवाज बाहर न करके भीतर ही भीतर करें। लेकिन आवाज करना अधिक श्रेयस्कर है, क्योंकि तब ध्यान अधिक गहरा हो जाता है।
02-कुंडलिनी ध्यान
यह एक अदभुत ध्यान-पद्धति है और इसके जरिए मस्तिष्क से हृदय में उतर आना आसांंन हो जाता है।
एक घंटे के इस ध्यान में पंद्रह-पंद्रह मिनट के चार चरण हैं। पहले और दूसरे चरण में आंखें खुली रखी जा सकती हैं। लेकिन तीसरे और चौथे चरण में आंखें बंद रखनी हैं। सांझ इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त समय है।
पहले चरण की संगति सपेरे के बीन-स्वर के साथ बिठायी गयी है। जैसे बीन-स्वर पर जैसे सर्प अपनी कुंडलिनी तोड़कर उठता है, और फन निकालकर नाचने लगता है, वैसे ही इस ध्यान के सम्यक प्रयोग पर साधक की सोई हुई कुंडलिनी शक्ति जाग उठती है।
पहला चरण
शरीर को बिल्कुल ढीला छोड़ दें और पूरे शरीर को कंपाएं, शेक करें। अनुभव करें कि ऊर्जा पांव से उठकर ऊपर की ओर बढ़ रही है।दूसरा चरण
संगीत की लय पर नाचें--जैसा आपको भाए--और शरीर को, जैसा वह चाहे, गति करने दें।तीसरा चरण
बैठ जाएं या खड़े रहें, लेकिन सीधे और निश्चल। संगीत को सुनें।चौथा चरण
निष्क्रिय होकर लेट जाएं और शांत व साक्षी बने रहें।03-नटराज ध्यान
नटराज ध्यान के संबंध में बोलते हुए ओशो ने कहा है--परमात्मा को हमने नटराज की भांति सोचा है। हमने शिव की एक प्रतिमा भी बनाई है नटराज के रूप में। परमात्मा नर्तक की भांति है, एक कवि या चित्रकार की भांति नहीं। एक कविता या पेंटिंग बनकर कवि से, पेंटर से अलग हो जाती है; लेकिन नृत्य को नर्तक से अलग नहीं किया जा सकता। उनका अस्तित्व एक साथ है; कहना चाहिए एक है।
नृत्य और नर्तक एक हैं। नृत्य के रुकते ही नर्तक भी विदा हो जाता है। संपूर्ण अस्तित्व ही परमात्मा का नृत्य है; अणु-परमाणु नृत्य में लीन है। परमात्म-ऊर्जा अनंत-अनंत रूपों में, अनंत-अनंत भाव-भंगिमाओं में नृत्य कर रही है।
नटराज-नृत्य एक संपूर्ण ध्यान है। नृत्य में डूबकर व्यक्ति विसर्जित हो जाता है और अस्तित्व का नृत्य ही शेष रह जाता है। हृदयपूर्वक पागल होकर नाचने में जीवन रूपांतरण की कुंजी है।
नटराज ध्यान पैंसठ मिनट का है और इसके तीन चरण हैं। पहला चरण चालीस, दूसरा चरण बीस और तीसरा चरण पांच मिनट का है।
जिस समय आप चाहें, इसे कर सकते हैं।
पहला चरण
संगीत की लय के साथ-साथ नाचें और नाचें, बस नाचें, पूरे अचेतन को उभरकर नृत्य में प्रवेश करने दें। ऐसे नाचें कि नृत्य के वशीभूत हो जाएं। कोई योजना न करें, और न ही नृत्य को नियंत्रित करें। नृत्य में साक्षी को, द्रष्टा को, बोध को--सबको भूल जाएं। नृत्य में पूरी तरह डूब जाएं, खो जाएं, समा जाएं--बस, नृत्य ही हो जाएं।काम केंद्र से शुरू होकर ऊर्जा ऊपर की ओर गति करेगी।
दूसरा चरण
वाद्य-संगीत के बंद होते ही नाचना रोक दें और लेट जाएं। अब नृत्य एवं संगीत से पैदा हुई सिहरन को अपने सूक्ष्म तलों तक प्रवेश करने दें।तीसरा चरण
खड़े हो जाएं। पुनः पांच मिनट नाचकर उत्सव मनाएं--प्रमुदित हों।04-नादब्रह्म ध्यान
तिब्बत देश की यह बहुत पुरानी विधि है। बड़े भोर में, दो और चार बजे के बीच उठकर, साधक इस विधि का अभ्यास करते थे और फिर सो जाते थे। ओशो का कहना है कि हम लोग नादब्रह्म ध्यान सोने के पूर्व मध्य-रात्रि में करें या फिर प्रातःकाल के समय करें।
ध्यान रहे कि रात के अतिरिक्त जब भी इसे किया जाए, तब अंत में पंद्रह मिनट का विश्राम अनिवार्य है।
नादब्रह्म ध्यान, सामूहिक और व्यक्तिगत दोनों ढंग से किया जा सकता है। पेट भरे रहने पर यह ध्यान नहीं करना चाहिए, क्योंकि तब आंतरिक नाद गहरा नहीं जाएगा। यदि इसे अकेले करें तो कान में रुई या डाट लगाना उपयोगी होगा।
यह ध्यान तीन चरणों का है। पहला चरण तीस मिनट का है, और दूसरा तथा तीसरा पंद्रह-पंद्रह मिनट का। आंखें पूरे समय बंद रहेंगी।
पहला चरण
आंखें बंद कर सुखपूर्वक बैठ जाएं। अब मुंह को बंद रखते हुए, भीतर ही भीतर, भंवरे की गुंजार की भांति हूं ऊं ऊं ऊं ऊं का नाद शुरू करें। यह नाद इतने जोर से शुरू करें कि इसका कंपन आपको पूरे शरीर में अनुभव हो। नाद इतना ऊंचा हो कि आसपास के लोग इसे सुन सकें। नाद के स्वर-मान में आप बदलाहट भी कर सकते हैं। अपने ढंग से गुंजार करें। फिर श्वास भीतर ले जाएं।अगर शरीर हिलना चाहे तो उसे हिलने दें, लेकिन गति अत्यंत धीमी और प्रसादपूर्ण हो। नाद करते हुए भाव करें कि आपका शरीर बांस की खाली पोंगरी है--जो सिर्फ गुंजार के कंपनों से भरी है। कुछ समय के बाद वह बिंदु आएगा, जब आप श्रोता भर रहेंगे और नाद आप ही आप गूंजता रहेगा।
यह नाद मस्तिष्क के एक-एक तंतु को शुद्ध कर उन्हें सक्रिय करता है तथा प्रभु-चिकित्सा में विशेष लाभकारी है।
इसे तीस मिनट से अधिक तो कर सकते हैं, लेकिन कम नहीं।
दूसरा चरण
अब दोनों हाथों को अपने सामने नाभि के पास रखें और हथेलियों को आकाशोन्मुख ऊपर की ओर। अब दोनों हाथों को आगे की तरफ ले जाते हुए चक्राकार घुमाएं। दायां हाथ दायीं तरफ को जाएगा और बायां हाथ बायीं तरफ को। और तब वर्तुल पूरे करते हुए दोनों हाथों को अपने सामने उसी स्थान पर वापस ले आएं।ध्यान रहे कि जितना हो सके हाथों के घूमने की गति धीमी से धीमी रखनी है। वह इतनी धीमी रहे कि लगे कि जैसे गति ही नहीं हो रही है।
शरीर हिलना चाहे तो उसे हिलने दें, लेकिन उसकी गति भी बहुत धीमी, मृदु और प्रसादपूर्ण हो। और भाव करें कि ऊर्जा आप से बाहर जा रही है। यह क्रम साढ़े सात मिनट तक चलेगा।
इसके बाद हथेलियों को नीचे की ओर, जमीन की ओर उलट दें और हाथों को विपरीत दिशा में घुमाना शुरू करें।
पहले तो सामने रखे हुए हाथों को अपने शरीर की तरफ आने दें और फिर उसी प्रकार दाएं हाथ को दायीं तरफ तथा बाएं हाथ को बायीं तरफ वर्तुलाकार गति करने दें--जब तक कि वे वापस उसी स्थान पर सामने न आ जाएं।
घूमने के लिए हाथों को अपने आप न छोड़ें, बल्कि इसी वर्तुलाकार ढांचे में धीरे-धीरे उन्हें घुमाते रहें। और भाव करें कि आप ऊर्जा ग्रहण कर रहे हैं, ऊर्जा आपकी ओर आ रही है। यह क्रम भी साढ़े सात मिनट तक चलेगा।
तीसरा चरण
बिल्कुल शांत और स्थिर बैठे रहें--साक्षी होकर।ओशो ने दंपतियों के लिए नादब्रह्म ध्यान की एक अन्य विधि भी बतायी है, जो इस प्रकार है--
पहले कमरे को ठीक से अंधेरा कर मोमबत्ती जला लें। विशेष सुगंध वाली अगरबत्ती ही जलाएं, जिसे सिर्फ इस ध्यान के समय ही हमेशा उपयोग में लाएं। फिर दोनों अपना शरीर एक चादर से ढंक लें। बेहतर यही होगा कि दोनों के शरीर पर कोई और वस्त्र न हो। अब एक-दूसरे का तिरछे ढंग से हाथ पकड़ आमने-सामने बैठ जाएं। अब आंखें बंद कर लें और कम से कम तीस मिनट तक लगातार भंवरे की भांति हूं ऊं ऊं ऊं ऊं का गुंजार करते रहें। गुंजार दोनों एक साथ करें। एक या दो मिनट के बाद दोनों की श्वसन क्रिया और गुंजार एक-दूसरे में घुलमिल जाएंगी और दो ऊर्जाओं के मिलन की दोनों को प्रतीति होगी।
रात्रि, सोने के पूर्व इसे करें।
05-विपश्यना ध्यान
यह ध्यान विधि भगवान बुद्ध की अमूल्य देन है। ढाई हजार वर्षों के बाद भी उसकी महिमा में, उसकी गरिमा में जरा भी कमी नहीं हुई। और ओशो का मानना है कि आधुनिक मनुष्य की अंतर्यात्रा की साधना में विपश्यना सर्वाधिक कारगर सिद्ध हो सकती है।
विपश्यना का अर्थ है--अंतर्दर्शन यानी भीतर देखना।
यह ध्यान पचास मिनट का है और बैठकर करना है। बैठें, शरीर और मन को तनाव न दें और आंखें बंद रखें। फिर अपने ध्यान को आती-जाती श्वास पर केंद्रित करें। श्वास को किसी तरह की व्यवस्था नहीं देनी है; उसे उसके सहज ढंग में चलने दें। सिर्फ ध्यान को उसकी यात्रा के साथ कर दें।
श्वास की यात्रा में नाभि-केंद्र के पास कोई जगह है, जहां श्वास अधिक महसूस होती है। वहां विशेष ध्यान दें। अगर बीच में ध्यान कहीं चला जाए तो उससे घबराएं न। अगर मन में कोई विचार या भाव उठे तो उसे भी सुन लें, लेकिन फिर-फिर प्रेमपूर्वक ध्यान को श्वास पर लाएं। और नींद से बचें।
06-गौरीशंकर ध्यान
घंटेभर के इस ध्यान में चार चरण हैं और प्रत्येक चरण पंद्रह मिनट का है।
पहले चरण को ठीक से करने पर आपके रक्त प्रवाह में कार्बन-डाय-आक्साइड का तल इतना ऊंचा हो जाएगा कि आप अपने को गौरीशंकर--एवरेस्ट शिखर पर महसूस करेंगे। वह आपको इतना ऊपर उठा देगा।
इस ध्यान प्रयोग के दूसरे चरण में साधकों के सामने प्रकाश का एक बल्ब तेजी से सतत जलता-बुझता रहता है।
पहला चरण
आंखें बंद कर बैठ जाएं। अब नाक से उतनी गहरी श्वास भीतर लें, जितनी ले सकते हैं। और इस श्वास को भीतर तब तक रोके रहें, जब तक ऐसा न लगने लगे कि अब अधिक नहीं रोका जा सकता। फिर धीरे-धीरे श्वास को मुंह से बाहर निकाल दें। और फिर तब तक भीतर जाने वाली श्वास न लें, जब तक लेना मजबूरी न हो जाए। यह क्रम पंद्रह मिनट तक जारी रखें।दूसरा चरण
श्वसन-क्रिया को सामान्य हो जाने दें। आंखें खोल लें और सतत जलते-बुझते हुए तेज प्रकाश को धीमे-धीमे देखते रहें। दृष्टि को तनाव नहीं देना है। और शरीर को पूरी तरह स्थिर रखें।तीसरा चरण
खड़े हो जाएं, आंखें बंद कर लें और शरीर को लातिहान के ढंग से धीरे-धीरे हिलने दें। लातिहान के द्वारा आप अपने अंतस को शरीर के माध्यम से प्रकट होने दें, और उस अभिव्यक्ति में पूरा सहयोग दें।चौथा चरण
लेट जाएं और सर्वथा निष्क्रिय हो रहें, साक्षी हो रहें।07-मंडल ध्यान
घंटेभर के इस शक्तिशाली ध्यान में पंद्रह-पंद्रह मिनट के चार चरण हैं। पहला चरण खड़े होकर करना है; दूसरा बैठकर; तीसरा और चौथा सर्वथा निष्क्रिय होकर। सूर्योदय के बाद या सूर्यास्त के पहले, इसे कभी भी किया जा सकता है।
पहला चरण
आंखें खुली रखकर एक ही स्थान पर खड़े-खड़े दौड़ें। जहां तक बन पड़े घुटनों को ऊपर उठाएं। श्वास को गहरा और सम रखें। इससे ऊर्जा सारे शरीर में घूमने लगेगी।दूसरा चरण
आंखें बंद कर बैठ जाएं। मुंह को शिथिल और खुला रखें--और धीमे-धीमे चक्राकार झूमें--जैसे हवा में पेड़-पौधे झूमते हैं। इससे भीतर जागी ऊर्जा नाभि-केंद्र पर आ जाएगी।तीसरा चरण
अब आंखें खोलकर पीठ के बल सीधे लेट जाएं और दोनों आंखों की पुतलियों को क्लॉकवाइज़--बाएं से दाएं वृत्ताकार घुमाएं। पहले धीरे-धीरे घुमाना शुरू करें, क्रमशः गति को तेज और वृत्त को बड़ा करते जाएं।मुंह को शिथिल व खुला रखें तथा सिर को बिल्कुल स्थिर। श्वास मंद एवं कोमल बनी रहे। इससे नाभि-केंद्रित ऊर्जा तीसरी-आंख पर आ जाएगी।
चौथा चरण
आंखें बंद कर निष्क्रिय हो रहें। विश्राम में चले जाएं--ताकि तीसरी-आंख पर एकत्रित हो गयी ऊर्जा अपना काम कर सके।08-प्रार्थना ध्यान
प्रार्थना एक भाव-दशा है--निसर्ग के साथ बहने की, एक होने की प्रक्रिया है। यदि प्रार्थना में तुम बोलना चाहो तो बोल सकते हो, लेकिन याद रहे कि तुम्हारी बातचीत अस्तित्व को प्रभावित नहीं करने जा रही है, वह तुम्हें प्रभावित करेगी। तुम्हारी प्रार्थना परमात्मा के मन को बदलने वाली नहीं है, वह तुम्हें बेशक बदल सकती है। और अगर वह तुम्हें नहीं बदलती है तो समझो कि वह मन की एक चालाकी भर है। यह विराट आकाश तुम्हारे साथ होगा, यदि तुम उसके साथ हो सको। इसके अतिरिक्त प्रार्थना का कोई दूसरा ढंग नहीं है। मैं प्रार्थना करने को कहता हूं--लेकिन यह ऊर्जा आधारित घटना हो, न कि कोई भक्ति की बात।
पहला चरण
तुम चुप हो जाओ, तुम अपने को खोल भर लो। दोनों हाथ सामने की ओर उठा लो। हथेलियां आकाशोन्मुख हों और सिर सीधा उठा हुआ रहे। और तब अनुभव करो कि अस्तित्व तुममें प्रवाहित हो रहा है।जैसे ही ऊर्जा या प्राण तुम्हारी बांहों से होकर नीचे की ओर बहेगा, वैसे ही तुम्हें हल्के-हल्के कंपन का अनुभव होगा।
तब तुम हवा में कंपते हुए पत्ते की भांति हो जाओ। शरीर को ऊर्जा से झनझना जाने दो--और जो भी होता हो, उसे होने दो। उसे पूरा सहयोग करो।
दूसरा चरण
दो या तीन मिनट के बाद--या जब भी तुम पूरी तरह भरे हुए अनुभव करो, तब तुम आगे झुक जाओ और माथे को पृथ्वी से लगा लो।दोनों हाथ सिर के आगे पूरे फैले रहेंगे और हथेलियां भी पृथ्वी को स्पर्श करेंगी।
पृथ्वी की ऊर्जा के साथ दिव्य-ऊर्जा के मिलन के लिए तुम वाहन बन जाओ। अब पृथ्वी के साथ प्रवाहित होने का, बहने का अनुभव करो। अनुभव करो कि पृथ्वी और स्वर्ग, ऊपर और नीचे, यिन और यांग, पुरुष और नारी--सब एक महा आलिंगन में आबद्ध हैं। तुम बहो, तुम घुलो। अपने को पूरी तरह छोड़ दो और सर्व में निमज्जित हो जाओ।
दोनों चरणों को छह बार और दुहराओ, ताकि सभी सात चक्रों तक ऊर्जा गति कर सके।
इन्हें अधिक बार भी दुहराया जा सकता है, लेकिन सात से कम पर छोड़ा तो बेचैनी अनुभव होगी--रात में न सो सकोगे।
अच्छा हो कि यह प्रार्थना रात में करो। प्रार्थना के समय कमरे को अंधेरा कर लो और उसके बाद तुरंत सो जाओ।
सुबह भी इसे किया जा सकता है, लेकिन तब अंत में पंद्रह मिनट का विश्राम आवश्यक हो जाएगा। अन्यथा तुम्हें लगेगा कि तुम तंद्रा में हो, नशे में हो। यह ऊर्जा में निमज्जन प्रार्थना है। यह प्रार्थना तुम्हें बदलेगी। और तुम्हारे बदलने के साथ ही अस्तित्व भी बदल जाएगा।
09-सामूहिक प्रार्थना ध्यान
सामूहिक प्रार्थना ध्यान के लिए कम से कम तीन व्यक्ति होने चाहिए। बड़ी संख्या के साथ करना अधिक श्रेयस्कर है। और संध्या का समय सर्वाधिक योग्य है इसके लिए।
पहला चरण
एक घेरे में खड़े हो जाएं, आंखें बंद कर लें और अगल-बगल के मित्रों के हाथ अपने हाथ में ले लें। फिर धीरे-धीरे, लेकिन आनंदपूर्वक और तेज स्वर में ओम्--ऐसा उच्चार शुरू करें। बीच-बीच में, उच्चार के अंतराल के बीच एक मौन की घड़ी को प्रविष्ट होने दें। अपनी और अपने परिवेश की दिव्यता और पूर्णता का अनुभव करें और अपने अहंकार को घुलकर उच्चार में निमज्जित हो जाने दें।जिनके पास आंखें हैं, वे देखेंगे कि समूह के बीच से ऊर्जा का एक स्तंभ ऊपर उठ रहा है। कोई अकेला आदमी बहुत-कुछ नहीं कर सकता है--लेकिन यदि पांच सौ व्यक्ति सम्मिलित होकर इस प्रार्थना में योग दें, तो इसकी बात ही कुछ और है।
दूसरा चरण
दस मिनट के बाद, समूह के नेता के इशारे पर जब हाथ से हाथ छूटकर नीचे आ जाएं, तब सब कोई जमीन पर झुक जाएं और पृथ्वी को प्रणाम करें, और ऊर्जा को पृथ्वी में प्रविष्ट हो जाने दें।10-रात्रि-ध्यान
रात्रि, सोने के पूर्व, बिस्तर पर लेट जाएं, कमरे में अंधेरा कर लें, और आंख बंद करके जोर से श्वास मुंह से बाहर निकालें।
निकालने से शुरू करें--एग्ज़ेहलेशन, लेने से नहीं, निकालने से। जोर से श्वास मुंह से बाहर निकालें, और निकालते समय ओऽऽऽऽऽ की ध्वनि करें। जैसे-जैसे ध्वनि साफ होने लगेगी, ओम अपने आप निर्मित हो जाएगा; आप सिर्फ ओऽऽऽऽऽ का उच्चार करें। ओम का आखिरी हिस्सा, अपने आप, जैसे ध्वनि व्यवस्थित होगी--आने लगेगा।
आपको ओम नहीं कहना है, आपको सिर्फ ओऽऽऽऽऽ कहना है--म को आने देना है। पूरी श्वास को बाहर फेंक दें, फिर ओंठ बंद कर लें और शरीर को श्वास लेने दें। आप मत लें।
निकालना आपको है, लेना शरीर को है। लेने का काम शरीर कर लेगा। श्वास रोकनी नहीं है। लेते समय आप को कुछ भी नहीं करना है--न लेना है, न रोकना है--बस, छोड़ना है।
तो दस मिनट तक ओऽऽऽऽऽ की आवाज के साथ श्वास को छोड़ें--मुंह से; फिर नाक से श्वास लें, फिर मुंह से छोड़ें, फिर नाक से लें और ऐसे ओऽऽऽऽऽ की आवाज करते-करते सो जाएं।
इससे निद्रा गहरी और स्वप्नहीन हो जाएगी तथा सुबह उठने पर एक अपूर्व ताजगी का अनुभव होगा।
11-शिवनेत्र ध्यान
यह एक घंटे का ध्यान है और इसमें दस-दस मिनट के छह चरण हैं। साधकों के सामने जरा हटकर, थोड़ी ऊंचाई पर, एक नीले रंग का प्रकाश--यानी बिजली का बल्ब जलता है, जो प्रकाश को घटाने-बढ़ाने वाले एक यंत्र के द्वारा, दस मिनट में तीन बार, बारी-बारी धीमा और तेज किया जाता है। उसके सहारे ही यह ध्यान संचालित होता है।
(प्रकाश को घटाने-बढ़ाने वाले यंत्र, डिमिंग स्विच, के साथ 300 वॉट का नीले रंग का प्रकाश इसके लिए आदर्श है, लेकिन साधारणतः नीले प्रकाश या मोमबत्ती से भी काम चलाया जा सकता है।)
पहला चरण
थिर बैठें। हल्के-हल्के, बिना आंखों में कोई तनाव लाए सामने जल रहे प्रकाश को देखें।दूसरा चरण
आंखें बंद कर लें, और कमर से ऊपर के भाग को हौले-हौले दाएं से बाएं और बाएं से दाएं हिलाएं। और साथ ही साथ यह भी अनुभव करते रहें कि आपकी आंखों ने पहले चरण के समय जो प्रकाश पीया है, वह अब शिवनेत्र--यानी तीसरी आंख में प्रवेश कर रहा है।यह सचमुच घटित होता है।
दोनों चरणों को बारी-बारी तीन बार दोहराएं।
12-अग्निशिखा ध्यान
अच्छा हो कि शाम के समय अग्निशिखा ध्यान किया जाए। और यदि मौसम गर्म हो तो कपड़े उतारकर। इस ध्यान-विधि में पांच-पांच मिनट के तीन चरण हैं।
पहला चरण
कल्पना करें कि आपके हाथ में एक ऊर्जा का गोला है--गेंद है। थोड़ी देर में यह गोला कल्पना से यथार्थ-सा हो जाएगा। वह आपके हाथ पर भारी हो जाएगा।दूसरा चरण
ऊर्जा की इस गेंद के साथ खेलना शुरू करें। इसके वजन को, इसके द्रव्यमान को अनुभव करें। जैसे-जैसे यह ठोस होता जाए, इसे एक हाथ से दूसरे हाथ में फेंकना शुरू करें। यदि आप दक्षिणहस्तिक हैं तो दाएं हाथ से शुरू करें और बाएं हाथ से अंत; और यदि वामहस्तिक हैं तो यह प्रक्रिया उलटी होगी।गेंद को हवा में उछालें, अपने चारों ओर उछालें, अपने पैरों के बीच से उछालें--लेकिन ध्यान रखें कि गेंद जमीन पर न गिरे। अन्यथा खेल फिर से शुरू करना पड़ेगा। इस चरण के अंत में गेंद को बाएं हाथ में लिए हुए दोनों हाथ सिर के ऊपर उठा लें और फिर गेंद को दोनों हथेलियों के बीच में रख लें। अब गेंद को नीचे लाएं और अपने सिर पर आकर उसे टूट-फूट जानें दें; ताकि उसकी ऊर्जा से आपका शरीर आपूरित हो जाए। कल्पना करें कि आप पर ऊर्जा की वर्षा हो रही है--और आपके शरीर के चारों ओर ऊर्जा का आवरण बन गया है।
अब आपके चारों तरफ से ऊर्जा आपकी तरफ आकर्षित होने लगेगी; उसकी पर्त दर पर्त आप पर बरसेगी। यहां तक कि दूसरे चरण के अंत में आप ऊर्जा की सात पर्तों में समा जाएंगे।
भाव के साथ नाचें, इसका मजा लें, इसमें स्नान करें--और अपने शरीर को भी इस उत्सव में भाग लेने दें।
तीसरा चरण
जमीन पर झुक जाएं और दोनों हाथों को प्रार्थना की मुद्रा में सामने फैला दें--और फिर कल्पना करें कि आप ऊर्जा की अग्निशिखा हैं--आपसे होकर ऊर्जा भूमि से ऊपर उठ रही है। धीरे-धीरे आपके हाथ, आपकी भुजाएं आपके सिर के भी ऊपर उठ जाएंगी और आपका शरीर अग्निशिखा का आकार ले लेगा।13-त्राटक ध्यान 1
यह ध्यान चालीस मिनट का है और इसमें बीस-बीस मिनट के दो चरण हैं।
पहला चरण
पांच या छह फुट की ऊंचाई पर ओशो का एक बड़ा सा फोटो दीवार पर इस प्रकार टांगें कि फोटो पर पर्याप्त प्रकाश पड़े। शरीर पर कम से कम और ढीले वस्त्र रखें। फोटो से चार-पांच फुट की दूरी पर खड़े हो जाएं। दोनों हाथ ऊपर उठाएं, एकटक ओशो के फोटो को देखें--और हू-हू-हू की तीव्र आवाज लगातार करते हुए उछलना शुरू करें। ओशो की उपस्थिति अनुभव करें और हू-हू-हू की आवाज तेज करें। न आंखें बंद करें, न पलकें झपकाएं। आंसू आते हों तो आने दें। आंखें फोटो पर एकाग्र रखें और शरीर में जो भी कंपन और क्रियाएं होती हों, उसे सहयोग करके तीव्र करें।महामंत्र--हू की चोट से भीतर की काम-ऊर्जा ऊपर की ओर उठेगी।
दूसरा चरण
अब सारी क्रियाएं--हू-हू-हू की आवाज, उछलना और ओशो के चित्र को एकटक देखना--सब बंद कर दें। शरीर को बिल्कुल स्थिर कर लें, आंखें मूंद लें और भीतर की ऊर्जा को अनुभव करें। गहरे ध्यान में डूब जाएं। बीस मिनट के बाद गहरे ध्यान से वापस लौट आएं।इस प्रकार यह त्राटक ध्यान पूरा होगा।
14-त्राटक ध्यान 2
यह प्रयोग एक घंटे का है। पहला चरण चालीस मिनट का और दूसरा बीस मिनट का।
पहला चरण
कमरे को चारों ओर से बंद कर लें, और एक बड़े आकार का दर्पण अपने सामने रखें। कमरे में बिल्कुल अंधेरा होना चाहिए। अब एक दीपक या मोमबत्ती जलाकर दर्पण के बगल में इस प्रकार रखें कि उसकी रोशनी सीधी दर्पण पर न पड़े। सिर्फ आपका चेहरा ही दर्पण में प्रतिबिंबित हो, न कि दीपक की लौ। अब दर्पण में अपनी दोनों आंखों में बिना पलक झपकाए देखते रहें--लगातार चालीस मिनट तक। अगर आंसू निकलते हों तो उन्हें निकलने दें, लेकिन पूरी कोशिश करें कि पलक गिरने न पाए। आंखों की पुतलियों को भी इधर-उधर न घूमने दें--ठीक दोनों आंखों में झांकते रहें।दो-तीन दिन के भीतर ही विचित्र घटना घटेगी--आपके चेहरे दर्पण में बदलने प्रारंभ हो जाएंगे। आप घबरा भी सकते हैं। कभी-कभी बिल्कुल दूसरा चेहरा आपको दिखाई देगा, जिसे आपने कभी नहीं जाना है कि वह आपका है। पर ये सारे चेहरे आपके ही हैं। अब आपके अचेतन मन का विस्फोट प्रारंभ हो गया है। कभी-कभी आपके विगत जन्म के चेहरे भी उसमें आएंगे। करीब एक सप्ताह के बाद यह शक्ल बदलने का क्रम बहुत तीव्र हो जाएगा; बहुत सारे चेहरे आने-जाने लगेंगे, जैसा कि फिल्मों में होता है। तीन सप्ताह के बाद आप पहचान न पाएंगे कि कौन सा चेहरा आपका है। आप पहचानने में समर्थ न हो पाएंगे, क्योंकि इतने चेहरों को आपने आते-जाते देखा है। अगर आपने इसे जारी रखा, तो तीन सप्ताह के बाद, किसी भी दिन, सबसे विचित्र घटना घटेगी--अचानक आप पाएंगे कि दर्पण में कोई चेहरा नहीं है--दर्पण बिल्कुल खाली है और आप शून्य में झांक रहे हैं! यही महत्वपूर्ण क्षण है।
तभी आंखें बंद कर लें और अपने अचेतन का साक्षात करें। जब दर्पण में कोई प्रतिबिंब न हो, तो सिर्फ आंखें बंद कर लें, भीतर देखें--और आप अचेतन का साक्षात करेंगे।
वहां आप बिल्कुल नग्न हैं--निपट जैसे आप हैं। सारे धोखे वहां तिरोहित हो जाएंगे। यह एक सत्य है, पर समाज ने बहुत सी पर्तें निर्मित कर दी हैं, ताकि मनुष्य उससे अवगत न हो पाए। एक बार आप अपने को पूरी नग्नता में देख लेते हैं, तो आप बिल्कुल दूसरे आदमी होने शुरू हो जाते हैं। तब आप अपने को धोखा नहीं दे सकते हैं। अब आप जानते हैं कि आप क्या हैं। और जब तक आप यह नहीं जानते कि आप क्या हैं, आप कभी रूपांतरित नहीं हो सकते। कारण, कोई भी रूपांतरण इस नग्न-सत्य के दर्शन में ही संभव है; यह नग्न-सत्य किसी भी रूपांतरण के लिए बीजरूप है। अब आपका असली चेहरा सामने है, जिसे आप रूपांतरित कर सकते हैं। और वास्तव में, ऐसे क्षण में रूपांतरण की इच्छा मात्र से रूपांतरण घटित हो जाएगा, और कुछ भी करने की जरूरत नहीं है।
दूसरा चरण
अब आंखें बंद कर विश्राम में चले जाएं।15-कीर्तन ध्यान
कीर्तन अवसर है--अस्तित्व के प्रति अपने आनंद और अहोभाव को निवेदित करने का। उसकी कृपा से जो जीवन मिला, जो आनंद और चैतन्य मिला, उसके लिए अस्तित्व के प्रति हमारे हृदय में जो प्रेम और धन्यवाद का भाव है, उसे हमें कीर्तन में नाचकर, गाकर, उसके नाम-स्मरण की धुन में मस्ती में थिरककर अभिव्यक्त करते हैं।
कीर्तन उत्सव है--भक्ति-भाव से भरे हुए हृदय का। व्यक्ति की भाव-ऊर्जा का समूह की भाव ऊर्जा में विसर्जित होने का अवसर है कीर्तन।
इस प्रयोग में शरीर पर कम और ढीले वस्त्रों का होना तथा पेट का खाली होना बहुत सहयोगी है।
कीर्तन ध्यान एक घंटे का उत्सव है, जिसके पंद्रह-पंद्रह मिनट के चार चरण हैं।
संध्या का समय इसके लिए सर्वोत्तम है।
पहला चरण
पहले चरण में कीर्तन-मंडली संगीत के साथ एक धुन गाती है--जैसे "गोविंद बोलो हरि गोपाल बोलो, राधा रमण हरि गोपाल बोलो।"इस धुन को पुनः गाते हुए आप नृत्यमग्न हो जाएं। धुन और संगीत में पूरे भाव से डूबें, और अपने शरीर और भावों को बिना किसी सचेतन व्यवस्था के थिरकने तथा नाचने दें। नृत्य और धुन की लयबद्धता में अपनी भाव-ऊर्जा को सघनता और गहराई की ओर विकसित करें।
दूसरा चरण
दूसरे चरण में धुन का गायन बंद हो जाता है, लेकिन संगीत और नृत्य जारी रहता है।अब संगीत की तरंगों से एकरस होकर नृत्य जारी रखें। भावावेगों एवं आंतरिक प्रेरणाओं को बच्चों की तरह निस्संकोच होकर पूरी तरह से अभिव्यक्त होने दें।
तीसरा चरण
तीसरा चरण पूर्ण मौन और निष्क्रियता का है।संगीत के बंद होते ही आप अचानक रुक जाएं। समस्त क्रियाएं बंद कर दें और विश्राम में डूब जाएं। जाग्रत हुई भाव-ऊर्जा को भीतर ही भीतर काम करने दें।
चौथा चरण
चौथा चरण पूरे उत्सव की पूर्णाहुति का है।पुनः शुरू हो गए मधुर संगीत के साथ आप अपने आनंद, अहोभाव और धन्यवाद के भाव को नाचकर पूरी तरह से अभिव्यक्त करें।
16-सूफी दरवेश नृत्य
यह एक प्राचीन सूफी विधि है, जो हमें चैतन्य साक्षी में केंद्रित करती है। इस विधि की शांत, मद्धिम, संगीतपूर्ण, लयबद्ध स्वप्निलता हमें अपने आत्म-स्रोत को अनुभव करने में विशेष सहयोगी है।
लंबे समय तक शरीर के गोल घूमने से चेतना का तादात्म्य शरीर से टूट जाता है--शरीर तो घूमता रहता है, परंतु भीतर एक अकंप, अचल चैतन्य का बोध स्पष्ट होता चला जाता है।
इस प्रयोग को शुरू करने से तीन घंटे पूर्व तक किसी भी प्रकार का आहार या पेय नहीं लेना चाहिए, ताकि पेट हल्का और खाली हो।
शरीर पर ढीले वस्त्र रहें, तथा पैर में जूते या चप्पल न हों तो ज्यादा अच्छा है।
इसके लिए समय का कोई बंधन नहीं है, आप घंटों इसे कर सकते हैं।
सूर्यास्त के पहले का समय इस प्रयोग के लिए सर्वोत्तम है। यह केवल दो चरणों का ध्यान है।
पहला चरण
अपनी जगह बना लें जहां आपको घूमना है। आंखें खुली रहेंगी। अब दाहिने हाथ को ऊपर उठा लें--कंधों के बराबर ऊंचाई तक, और उसकी खुली हथेली को आकाशोन्मुख रखें।फिर बाएं हाथ को उठाकर नीचे इस तरह से झुका लें कि हथेली जमीन की ओर उन्मुख रहे। दायीं हथेली से ऊर्जा आकाश से ली जाएगी और बायीं हथेली से पृथ्वी को लौटा दी जाएगी।
अब इसी मुद्रा में एंटि-क्लॉकवाइज़--याने दाएं से बाएं--लट्टू की तरह गोल घूमना शुरू करें। यदि एंटि-क्लॉकवाइज़ घूमने में कठिनाई महसूस हो, तो क्लॉकवाइज़--याने बाएं से दाएं--घूमें। घूमते समय शरीर और हाथ ढीले हों--तने हुए न हों। धीमे-धीमे शुरू कर गति को लगातार बढ़ाते जाएं--जब तक कि गति आपको पूरा ही न पकड़ ले।
गति के बढ़ाने से चारों ओर की वस्तुएं और पूरा दृश्य अस्पष्ट होने लगेगा, तब आंखों से उन्हें पहचानना छोड़ दें, और उन्हें और अधिक अस्पष्ट होने में सहयोग दें। वस्तुओं, वृक्षों और व्यक्तियों की जगह एक प्रारंभहीन और अंतहीन वर्तुलाकार प्रवाह-मात्र रह जाए।
घूमते समय ऐसा अनुभव करें कि पूरी घटना का केंद्र नाभि है और सब कुछ नाभि के चारों ओर हो रहा है। इसमें किसी प्रकार की आवाज या भावावेगों का रेचन, कैथार्सिस न करें। जब आपको लगे कि अब आप और नहीं घूम सकते, तो इतनी तेजी से घूमें कि आपका शरीर और आगे घूमने में असमर्थ होकर आप ही आप जमीन पर गिर पड़े। याद रहे, भूलकर भी व्यवस्था से न गिरें। यदि आपका शरीर ढीला होगा, तो जमीन पर गिरना भी हल्के से हो जाएगा और किसी प्रकार की चोट नहीं लगेगी। मन का कहना मानकर शरीर को समय से पहले न गिरने दें।
❤️🌹🙏ओशो स्नेह वंदन सत सत नमन,,
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