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सोमवार, 31 दिसंबर 2018

जनसंख्या विस्फोट-(प्रवचन-04)

जनसंख्या विस्फोट-ओशो

प्रवचन-चौथा ( नियोजित संतानोत्पत्ति)

दिनांक २२ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
‘प्रीतम छबि नैनन बसी’ प्रवचन १२ से संकलित
01-पहला प्रश्न : भगवान,
आपने योजनापूर्ण ढंग से संतानोत्पत्ति की बात कही और उदाहरण देते हुए कहा कि महावीर, आइंस्टीन, बुद्ध जैसी प्रतिभाएं समाज को मिल सकेंगी। मेरा प्रश्न है कि ये नाम जो उदाहरण के नाते आपने दिए, स्वयं योजित संतानोत्पत्ति अथवा कम्यून आधारित समाज की उपज नहीं थे। इसलिए केवल कम्यून से प्रतिभाशाली संतानोत्पत्ति की बात अथवा संतान का विकास समाज की जिम्मेवारी वाली बात पूरी सही नहीं प्रतीत होती।
02-क्या जीवन-मूल्य समयानुसार रूपांतरित होते हैं?
03-आप कहते हैं: न आवश्यकता है काबा जाने की, न काशी जाने की। क्या आपकी दृष्टि में स्थान का कोई भी महत्व नहीं है?
04-कल आपने एक कवि के प्रश्न के संबंध में जो कुछ कहा उससे मेरे मन में भी चिंता पैदा होनी शुरू हुई है। मैं हास्य-कवि हूं। इस संबंध में आपका क्या कहना है?
05-मेरी विनम्र लघु आशा है
बनूं चरण की दासी
स्वीकृत करो कि न करो
पर हूं मैं एक बूंद की प्यासी।

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पहला प्रश्न: भगवान,
आपने योजनापूर्ण ढंग से संतानोत्पत्ति की बात कही और उदाहरण देते हुए कहा कि महावीर, आइंस्टीन, बुद्ध जैसी प्रतिभाएं समाज को मिल सकेंगी। मेरा प्रश्न है कि ये नाम जो उदाहरण के नाते आपने दिए, स्वयं योजित संतानोत्पत्ति अथवा कम्यून आधारित समाज की उपज नहीं थे। इसलिए केवल कम्यून से प्रतिभाशाली संतानोत्पत्ति की बात अथवा संतान का विकास समाज की जिम्मेवारी वाली बात पूरी सही नहीं प्रतीत होती।

रामशंकर अग्निहोत्री,
यह सच है कि महावीर, बुद्ध, आइंस्टीन, कबीर, नानक योजनाबद्ध संतानोत्पत्ति से नहीं जन्मे थे। लेकिन कितने महावीर हुए, कितने बुद्ध हुए? यह तो ऐसे ही जैसे कोई अंधेरे में तीर चलाए, और लाखों-करोड़ों तीरों में कोई एक तीर निशान पर लग जाए। इसका यह अर्थ नहीं होता कि अंधेरे में तीर चलाने में कोई सार्थकता है; क्योंकि एक तीर लग गया निशान पर तो रोशनी की कोई जरूरत नहीं है। लाखों तीर कोई चलाएगा अंधेरे में तो एकाध तो लग ही जाएगा। लग जाए तो तीर, नहीं तो तुक्का। ये सब अंधेरे के तीर हैं।
माली अगर लाख बीज बोए और एक बीज अंकुरित हो जाए तो इस आदमी को माली कहोगे? ये तो यूं ही फेंक दिए होते बीज भूमि पर तो भी एकाध बीज अंकुरित हो जाता। माली तो वह है, लाख बीज बोए तो लाख बीज अंकुरित हों। चलो दो-चार न हों तो चलेगा। लेकिन अभी तो उलटा ही होता रहा है। करोड़ों बच्चे पैदा होते हैं, उनमें एकाध बुद्ध होता है। यह संयोगवशात है। इससे तुम यह न कह सकोगे कि मैंने जो कहा, वह बात सही प्रतीत नहीं होती।
ये आयोजित समाज-व्यवस्था से पैदा नहीं हुए थे, लेकिन हमारे बावजूद पैदा हुए। हमारी व्यवस्था से नहीं, हमारी योजना से नहीं, हमारी भूल-चूक से पैदा हुए। इसलिए हमने इनसे बदला भी बहुत लिया। हमने इन्हें क्षमा भी आसानी से नहीं किया। जीसस को सूली पर लटकाने की क्या जरूरत है? सुकरात को जहर पिलाने का क्यों आग्रह है? महावीर को कितना सताया है तुमने? कानों में खीलें ठोंक दिए महावीर के! गांव-गांव से खदेड़ा, पागल कुत्ते महावीर के पीछे लगा दिए। बुद्ध को तुमने मार डालने की कितनी कोशिशें कीं, चट्टानें गिराईं, पागल हाथी छोड़ा! इन्हें तुमने क्षमा भी नहीं किया। तुम क्षमा इन्हें कर भी न सकते थे। क्योंकि अंधों के समाज में अगर आंख वाला पैदा हो जाए तो अंधों को अखरती है यह बात। आंख वाला अखरता है, क्योंकि आंख वाले के कारण उन्हें बार-बार याद आती है कि हम अंधे हैं; आंख वाला याद दिलाता है। आंख वाले की भी आंखें फोड़ देने की उनकी आकांक्षा पैदा होती है, कि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
इसलिए तुमने इन सबके साथ सदव्यवहार नहीं किया। शायद तुम कहोगे: लेकिन हम इनकी पूजा कर रहे हैं सदियों से। वह पूजा भी इस बात का सबूत है कि तुमने इनके साथ बहु दर्ुव्यवहार किया था। उस पश्चात्ताप और अपराध-भाव से तुम पूजा कर रहे हो। जब ये जीवित थे तब तुमने दर्ुव्यवहार किया। दर्ुव्यवहार इतना किया कि सदियां बीत गईं, लेकिन तुम्हारे भीतर ग्लानि पैदा होती है। उस ग्लानि से तुम पूजा कर रहे हो। पूजा तुम किसी आनंद से नहीं कर रहे हो, किसी अहोभाव से नहीं कर रहे हो। क्योंकि अगर तुमने बुद्ध की पूजा अहोभाव से की होती, तो तुम फिर जीसस को सूली न देते। तब तक समझ आ गई होती। पांच सौ साल बीत चुके थे। और अगर तुमने जीसस की पूजा अहोभाव से की होती, तो मंसूर को मार न डालते, क्योंकि तब तक तुम्हें समझ आ गई होती। लेकिन अब भी रवैया वही है। जरा भी भेद नहीं पड़ा। आदमी अब भी वही कर रहा है। आदमी आगे भी वही करेगा, ऐसा मालूम पड़ता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब किसी व्यक्ति का पिता मर जाता है या मां मर जाती है, तो तुम जो रोते हो, चीखते हो, पुकारते हो, जार-जार टूटे जाते हो--उसका यह कारण नहीं है कि तुम्हारा पिता से बहुत प्रेम था। जिंदा था, तो तुमने दो कौड़ी को न पूछा था। जिंदा था, तो तुमने क्या इसके साथ सदव्यवहार किया था? शायद घर के किसी कोने में पड़ा-पड़ा, सड़ा-सड़ा मरा होगा। और अब मर गया है, तो छाती पीट रहे हो। यह पश्चात्ताप है, इसका मृत्यु से कोई संबंध नहीं है। अब तुम्हारे भीतर धक्का लगा। अब तुम्हें जरा सा होश आया। मौत ने तुम्हें झकझोरा कि मैंने पिता के साथ क्या किया! और अब क्षमा मांगने को भी कभी यह व्यक्ति मुझे मिल न सकेगा। अब इसके पैर पकड़ कर क्षमा मांग सकूं, इसकी भी कोई सुविधा न रही, बात खतम हो गई। अब ये छाया की तरह तुम्हारे पाप तुम्हारा पीछा करेंगे।
मैंने सुना है, एक धनपति कभी किसी को दान नहीं दिया। गांव में एक मंदिर बन रहा था। धन की जरूरत थी। सब कोशिश कर डाली, और कहीं से धन मिलने का उपाय न था, मजबूरी में उस कंजूस के पास गए। गांव के पांच-सात प्रमुख व्यक्ति इकट्ठे हुए, आशा तो नहीं थी; मगर डूबा क्या न करता, तिनके को भी सहारा मान लेता है। सोचा कौन जाने शायद दया खा जाए! अधूरा मंदिर खड़ा है, रोज वहीं से गुजरता है, देखता भी है। पहुंचे। उसने बड़े प्रेम से बिठाया। बड़े प्रेम से बात सुनी। हैरान हुए! कहा कि हम तो सोचते थे यह आदमी बड़ा दुष्ट है! चाय-नाश्ता भी कराया और कहा कि अच्छा हुआ आए!
जब उसकी पूरी बात हो गई, उन मित्रों ने सब दुख कह दिया और उसने सहानुभूति से सुनी, तब वह बोला कि अब मेरी भी सुनो। मेरा बूढ़ा पिता है, वह हृदय-रोग से बीमार है। मेरी मां अंधी है। मेरा बेटा लंगड़ा है। मेरी पत्नी का पिता मर गया, तो उसकी मां, उसकी लड़कियां, उसका परिवार...मेरे सारे रिश्तेदारों में बस एक मैं ही हूं, जिसके पास थोड़ा-बहुत है। जैसा मैं तुम्हें बाहर से दिखाई पड़ता हूं ऐसा नहीं है; मेरे ऊपर भी बड़े कष्ट हैं, बड़ी मुसीबतें हैं।
उन सबने कहा, हमें तो इस बात का कोई पता ही न था कि आप भी इतने कष्ट में हैं, नहीं तो हम कभी न आते।
उस कंजूस ने कहा, तुम कभी अब आना भी मत। मैं तुम्हें यह भी बता दूं कि मेरा बूढ़ा बाप है, जिसको हृदय की बीमारी है, आज मैं तीन साल से उसे देखने भी नहीं गया। मेरी मां अंधी है, आज सात साल से मैंने उसके दर्शन भी नहीं किए। मेरी लड़कियां क्वांरी बैठी हैं, मगर दहेज के कारण मैं विवाह नहीं कर रहा। अब जो आदमी अपनों की फिक्र नहीं कर रहा, वह तुम्हारे आधे मंदिर को पूरा बनवाने के लिए पैसा देगा? भूल कर भी अब इधर मत आना।
इसकी पत्नी मरे, इसका पिता मरे, तो यह बहुत दुखी होगा। यह बहुत छाती पीटेगा, बहुत शोरगुल मचाएगा। इसके भीतर बड़ा कोलाहल मचेगा।
स्वभावतः एक मनोवैज्ञानिक सत्य है सीधा सा, कि मृत्यु हमें एक ऐसी जगह लाकर खड़ा कर देती है कि जहां रूपांतरित होना अब असंभव; अब कुछ भी नहीं किया जा सकता, माफी भी नहीं मांगी जा सकती। मौत तो एक अध्याय बंद कर दी--अचानक। और अब तुम्हें कचोटेगी यह बात कि तुमने क्या किया!
इसलिए सदियों तक तुम पूजा करते हो। पितृपक्ष मनाते हो। बाप की तस्वीर लगाते हो। बाप की तस्वीर पर कई घरों में मैं फूल चढ़ते देखता हूं। और जिंदा बापों पर कोई फूल नहीं चढ़ाता। बड़ा मजा है! अभी तक तो मैंने नहीं देखा कि जिंदा बाप के चरणों में कोई रोज सुबह दो फूल रख देता हो। जिंदा बाप को तो दो रोटी भी दे दे तो बहुत अहसान है। जिंदा बाप को तो देखना भी नहीं सुहाता लोगों को। जब तक बाप जिंदा होता है तो मन में यही होता है कि कब इससे छुटकारा हो। हे परमात्मा, इसको उठा! अब यह कब तक पीछा करता रहेगा! और जैसे ही यह मर जाता है, वैसे ही फोटो बनवाते हैं लोग, मूर्ति बनवाते हैं लोग। स्मृति-मंदिर बनवाते हैं लोग, स्मारक बनवाते हैं लोग। क्या-क्या नहीं करते। यह पश्चात्ताप है, यह भीतर की पीड़ा है--जिसको ढांकने का उपाय कर रहे हैं। यह बाप के लिए कोई आदर नहीं दिया जा रहा; यह सिर्फ अपने घावों को फूलों में छिपाया जा रहा है।
बुद्ध और महावीर के साथ तुमने दर्ुव्यवहार किया है, इसलिए तुम सदियों तक उनका समादर कर रहे हो। मुर्दों का समादर, जिंदों के साथ दर्ुव्यवहार!
और दर्ुव्यवहार का कारण था, क्योंकि वे तुम जैसे नहीं थे। वे तुम्हारी भीड़ में कुछ अजनबी थे। वे कुछ और ही तरह के लोग थे। उनकी धुन और, उनकी मस्ती और, उनका गीत और, उनकी चाल और, उनके ढंग और, उनकी जीवन को देखने की दृष्टि और। उनसे तुम्हारा कहीं तालमेल नहीं होता।
रामशंकर अग्निहोत्री, तुम पूछते हो कि इस तरह के प्रतिभाशाली व्यक्ति बिना योजनापूर्ण ढंग से संतानोत्पत्ति की व्यवस्था किए भी पैदा हो गए! तो सिर्फ योजनापूर्ण ढंग से ही जब संतान होगी तभी प्रतिभा पैदा होगी, यह बात पूरी सही नहीं मालूम होती।
यह बात पूरी सही है। ये तो सिर्फ भूल-चूक से पैदा हुए लोग हैं। ये तो अंधेरे में लग गए तीर हैं। करोड़ों लोगों में एकाध आदमी, अंगुलियों पर गिने जा सकें इतने थोड़े से लोग अब तक सुगंध को उपलब्ध हुए। बाकी लोग यूं ही जीते हैं। और मर जाते हैं। जीते ही नहीं और मर जाते हैं। जब कि प्रत्येक व्यक्ति इसी गरिमा और गौरव को उपलब्ध हो सकता है--होना चाहिए!
प्रत्येक बीज की यह क्षमता है कि कि वह फूलों तक पहुंचे; सुगंध उड़ाए। और जब कोई बीज वृक्ष बनता है, और पक्षी उस पर गीत गाते हैं, और फूल खिलते हैं, और हवाएं नाचती हैं, और चांदत्तारों से वह गुफ्तगू करता है--तो आनंद को उपलब्ध होता है; तो संतुष्टि को उपलब्ध होता है। उस परिपूर्णता में ही, उस वसंत के क्षण में ही आनंद-उल्लास है। कहो परमात्म-उपलब्धि है। कहो निर्वाण है, मोक्ष है।
हम दुखी रहेंगे ही, क्योंकि हम अपनी पूर्ण नियति को ही नहीं पा सकते। अंधे, लूले, लंगड़े, कोढ़ी, मस्तिष्क से विकारग्रस्त लोग--ये सब बच्चे पैदा कर रहे हैं। फिर उल्लू मर जाते हैं, औलाद छोड़ जाते हैं। फिर औलाद भी अपने बाप-दादों से पीछे नहीं रहती, वह और औलाद पैदा करती है। धीरे-धीरे खोटे सिक्कों का चलन बढ़ता चला जाता है। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि जो श्रेष्ठतम व्यक्ति हैं, शायद विवाह ही न करें; और जो निकृष्ट हैं, वे एक नहीं चार-चार करें। जितना निकृष्ट आदमी हो, उतने ही उपद्रव खड़े करता है।
बुद्ध ने तो तब भी एक ही बच्चे को जन्म दिया। और महावीर ने भी एक ही लड़की को जन्म दिया। लेकिन सामान्यजन कतार लगा देते हैं। होड़ में लगे हुए हैं कि कौन कितने पैदा करता है! जीसस ने तो कोई बच्चा पैदा नहीं किया, विवाह नहीं किया। शंकराचार्य ने तो कोई बच्चा पैदा नहीं किया। रामकृष्ण ने तो कोई बच्चा पैदा नहीं किया। रमण ने तो कोई बच्चा पैदा नहीं किया।
वे जो श्रेष्ठतम ऊंचाइयां लेते हैं, अक्सर अविवाहित होते हैं। उनमें इतनी क्षमता, समझ होती ही है कि क्यों व्यर्थ के जाल में पड़ना, क्यों व्यर्थ का जाल खड़ा करना! जीवन छोटा है, और यह सारी ऊर्जा अगर एक ही दिशा में लगे तो ही शायद कोई उपलब्धि हो सके; इसे खंड-खंड करेंगे तो उपलब्धि नहीं हो सकती। अगर यह सारी ऊर्जा संगठित हो तो शायद उड़ान बन सके, और परमात्मा तक पहुंचना भी हो जाए। यात्रा लंबी है, कठिन है, दुस्तर है, समग्र-रूपेण व्यक्ति को समर्पित होना होगा, तो ही!
इसलिए विवाह, परिवार, परिवार की झंझटें, इस तरह के लोग कम ही लेते हैं। और ऐसा ही नहीं है कि यह सिर्फ धार्मिक व्यक्तियों के संबंध में सत्य है। दुनिया के बहुत से कवि अविवाहित रहे, और बहुत से चित्रकार अविवाहित रहे, बहुत से वैज्ञानिक अविवाहित रहे।
असल में, एक ही पत्नी काफी होती है, दो पत्नियां मुश्किल हो जाती हैं। फिर वह पत्नी चाहे काव्य हो, साहित्य हो, धर्म हो, विज्ञान हो, कला हो--पर्याप्त है; नहीं तो कलह खड़ी होती है।
सुकरात की पत्नी थी झेनथिप्पे। सुकरात जिंदगी भर परेशानी में रहा। भारत में पैदा हुआ होता, तो शायद उसने विवाह ही नहीं किया होता। यूनान में अविवाहित होने की कोई हवा न थी; अविवाहित होने की कोई धारणा न थी। यूनान बहुत पार्थिव देश है। सुकरात का विवाह हो गया या बचपन में विवाह हो गया होगा, जैसा उन दिनों में होता था। मां-बाप ने कर दिया होगा--बुद्ध का कर दिया था, महावीर का कर दिया था। तब होश ही न रहा होगा कि उनको और विवाह हो गया होगा। लेकिन पत्नी ने जीवन भर कष्ट दिया। और कष्ट किस बात का दिया? पत्नी कुछ बुरी न थी। कष्ट यही था कि सुकरात दर्शनशास्त्र में ऐसा उलझा रहता कि पत्नी पर ध्यान न देता।
और यही पत्नी के बरदाश्त के बाहर हो जाता कि तुम किसी चीज में इतना रस लो जितना कि तुम पत्नी में नहीं लेते। तो जिस चीज में तुम इतना रस लोगे, पत्नी का उसी चीज सेर् ईष्या का भाव जन्मता है। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि तुम किसी और स्त्री में रस ले रहे हो। तुम बागवानी में रस लो, वह तुम्हारे पौधे उखाड़ देगी। तुम चित्रकारी में रस लो, वह तुम्हारे चित्रों पर पानी फेर देगी। तुम मूर्तिकला में रस लो, वह तुम्हारी मूर्तियां तोड़ देगी। यह सवाल नहीं है कि तुम किस में रस ले रहे हो। सवाल यह है कि प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई, प्रतियोगिता शुरू हो गई। तुम पत्नी के प्रति उपेक्षा करते हुए मालूम पड़ रहे हो।
और निश्चित ही सुकरात उपेक्षा कर रहा था। जान कर नहीं; उसकी भी मजबूरी थी। उसके सारे भाव-प्राण एक और ही लोक में उड़े जा रहे थे। वह किसी अंतराकाश में यात्रा कर रहा था। पत्नी चाहती थी, वह भी साधारणजन जैसा जन हो। रोटी-रोजी कमाए, अच्छा मकान बनाए; पड़ोसियों से ज्यादा गहने हों, साड़ी हो। पत्नी की आकांक्षा में कुछ अस्वाभाविक नहीं है; अस्वाभाविक था तो सुकरात में था। और सत्संग में लगा हुआ है। जब देखो तब सत्संग--सुबह सत्संग, दोपहर सत्संग, सांझ, रात...। आखिर पत्नी के लिए भी कोई समय चाहिए कि नहीं? एक दिन इतने क्रोध में आ गई कि सत्संग चल रहा था, आई और उबलती हुई केतली पूरी की पूरी सुकरात के ऊपर डाल दी। उसका मुंह सदा के लिए जल गया। आधा मुंह जला ही रहा जीवन भर, काला पड़ गया।
लेकिन सुकरात कुछ बोला नहीं। जिनके साथ बात कर रहा था, वे चीख उठे। लेकिन सुकरात ने कहा कि नहीं, उसका कोई कसूर नहीं; कसूर है तो मेरा। वह ध्यान मांगती है, और मैं ध्यान उसे नहीं दे पाता हूं। यह केवल ध्यान मांगने की एक प्रक्रिया है। ध्यान आकर्षित कर रही है। और मेरी भी मजबूरी है; मेरा ध्यान कहीं और लगा है। उसकी भी मजबूरी है; उसे पति नहीं मिला, वह बिना पति के है। उसका भी कष्ट मैं समझता हूं। सधवा होकर भी विधवा है; मेरा होना न होना बराबर है। उलटे मेरी देख-रेख करो, फिक्र करो, मेरे लिए खाना बनाओ--और मैं किसी काम का नहीं!
तो जो श्रेष्ठतम लोग हुए हैं, उन्होंने तो शायद बच्चे ही पैदा नहीं किए; विवाह ही नहीं किए। और जो निकृष्ट हैं, उनके पास और कोई धंधा ही नहीं है। उनके पास एक ही मनोरंजन है--बच्चे पैदा करना। इसलिए जितना गरीब देश हो, उतने लोग ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं, क्योंकि गरीब देश के पास मनोरंजन का और कोई साधन नहीं होता। न टी.वी. है, न विश्वऱ्यात्रा पर जाने के लिए खर्चा है, न और तरह के महंगे साधन हैं; बस एक सस्ता साधन है कि बच्चे पैदा करो। अपने को उलझाए रहो, बाल-गोपालों से घिरे रहो। वे किलकारियां मारें और तुम उलझे रहो। ऐसे जिंदगी उलझे-उलझे बीत जाए, कम से कम खालीपन तो न अखरे। कुछ तो कर रहे हो। दुनिया को कुछ तो दे जा रहे हो। कुछ ऐसे ही नहीं आए और चले, निशान छोड़े जा रहे हो! याद करेंगे लोगे, याद रखेंगे लोग कि आए थे तुम!
तुम पूछते हो रामशंकर अग्निहोत्री, कि ये महावीर, आइंस्टीन, बुद्ध जैसी प्रतिभाएं योजित संतानोत्पत्ति से तो पैदा नहीं हुई थीं। मैं भी स्वीकार करता हूं। लेकिन काश, योजित संतानोत्पत्ति की व्यवस्था लागू हो जाए तो बहुत आइंस्टीन पैदा हो सकते हैं, बहुत बुद्ध, बहुत महावीर। प्रतिभाओं के अंबार लग सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति कुछ न कुछ अद्वितीय दान इस जगत को दे सकता है। लेकिन सब कूड़ा-करकट पैदा होता है। उसका कारण है: हम सोच-विचार करते नहीं। पति-पत्नी का भी तुम तालमेल बिठवाते हो तो किससे बिठवाते हो? ज्योतिषी से! जरा उसकी घर की हालत तो देखो। खुद की पत्नी से तालमेल बिठा नहीं पाया और न मालूम कितनों की पत्नियों के पतियों के तालमेल बिठा रहा है! और चवन्नी-अठन्नी में बिठा देता है!
अभी विज्ञान पैदा नहीं हुआ पूरा-पूरा, अभी विज्ञान पैदा हो रहा है। अब घड़ी आई है कि तालमेल बिठाया जा सकता है। अब हमारे हाथ में बहुत से सूत्र हैं, जिनका उपयोग किया जाना चाहिए। न करें, तो हम मूढ़ हैं। महावीर और बुद्ध के समय में तो सूत्र थे भी नहीं, हमारे हाथ में सूत्र हैं। अब हम जानते हैं कि किस तरह के पुरुष और किस तरह की स्त्री के मिलन से किस तरह का बच्चा पैदा होगा। उसकी कितनी ऊंचाई होगी, उसकी कितनी उम्र होगी, उसकी कितनी प्रतिभा होगी, उसका कितना बुद्धि-अंक होगा। अब इस बात को बिलकुल निर्धारित किया जा सकता है। अब हम जानते हैं कि उसका नाक-नक्श कैसा होगा; उसके बालों का रंग कैसा होगा; उसकी आंखों का रंग कैसा होगा। यह सब तय किया जा सकता है। अब हम यह भी जानते हैं कि साधारण संभोग से जो बच्चे पैदा होते हैं, उनके संबंध में बहुत निश्चित नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि वह अंधेरे में तीर मारना है।
एक संभोग में एक पुरुष से करीब एक करोड़ जीवाणु स्त्री के गर्भ की ओर दौड़ते हैं। वहीं से राजनीति शुरू होती है। दिल्ली दूर नहीं! सारी राजनीति का वहीं जन्म है। अब एक करोड़ जीव-कोष्ठ...संघर्ष शुरू हुआ, जीवन की प्रतियोगिता शुरू हो गई। वे भाग रहे हैं। उनका दो घंटे का ही जीवन होता है। दो घंटे में अगर नहीं पहुंच पाए स्त्री के अंडे तक, तो मर जाएंगे।
और तुम्हें लगेगा कि कोई मार्ग बहुत लंबा नहीं है, मगर उनके लिए बहुत लंबा है। आंख से दिखाई भी नहीं पड़ते, इतने छोटे हैं। मीलों लंबा मार्ग है! और कठिन संघर्ष है; एक करोड़ से प्रतियोगिता है। इस भाग-दौड़ में जो सबसे पहले पहुंच जाएगा स्त्री के अंडे तक, वह प्रवेश कर जाएगा।
स्त्री के अंडे की खूबी है कि जो भी जीव-कोष्ठ, पुरुष का स्पर्म सबसे पहले अंडे को छुएगा, अंडा उसे अपने भीतर ले लेता है और इसके बाद अंडा बंद हो जाता है। इसलिए कभी-कभी दो बच्चे पैदा हो जाते हैं, कभी तीन बच्चे, कभी चार, क्योंकि कभी-कभी संयोगवशात दो स्पर्म एक साथ पहुंच जाते हैं। जब दरवाजा खुला होता है, तब एक साथ पहुंच जाते हैं, तो दोनों ही भीतर हो जाते हैं। अगर बिलकुल एक साथ जितने भी पहुंच जाएंगे, उतने भीतर हो जाएंगे। एक दफा कोई भी भीतर हो गया, फिर अंडा बंद हो जाता है, सख्त हो जाता है, फिर उसमें प्रवेश नहीं हो सकता, फिर बाकी मारे गए।
तो करोड़ में से एक पहुंच पाएगा। भयंकर प्रतियोगिता शुरू हुई। जीवन-मरण का प्रश्न है। जो बचेगा वह जीएगा। जो बचेगा वह सत्तर साल जीएगा। जो बचेगा वह जिंदगी देखेगा; सूरज, चांद तारे देखेगा; न मालूम क्या-क्या करेगा--बुद्ध बनेगा, महावीर बनेगा, अल्बर्ट आइंस्टीन बनेगा, कि पिकासो बनेगा, कि माइकल एंजलो बनेगा, कि कालिदास, कि पता नहीं कौन! बाकी उस एक को छोड़ कर शेष सब दो घंटे के भीतर मर जाएंगे। हार गए वहीं। उनकी जिंदगी वहीं समाप्त, उनके प्राण वहीं समाप्त हो गए।
अब यह कौन पहुंचेगा? यह जरूरी नहीं है कि जो जीवाणु बुद्ध बन सकता है, वही पहुंचे। इस एक करोड़ में सब तरह के लोग हैं। इसमें चालबाज हैं, बदमाश हैं, राजनेता हैं, मोरारजी देसाई, चरणसिंह--सब तरह के लोग हैं इस में, तरहत्तरह के लोग हैं। हर तरह के दांव-पेंच लगाएंगे। अक्सर इस बात की संभावना है कि सज्जन पुरुष शायद पीछे ही रह जाएं, कि भई इतनी भाग-दौड़ में कौन पड़े, इतनी आपाधापी में कौन उलझे! सज्जन पुरुष यह सोच कर कि विनम्रता ही शोभा देती है, एक कोने में ही खड़े रह जाएं, कि भैया पहले तुम निकल जाओ फिर देखेंगे। इसमें दादा लोग होंगे जो धक्कम-धुक्की करेंगे और किसी तरह घुस जाएंगे। सौ-सौ जूते खाएं तमाशा घुस कर देखें! कुछ भी हो जाए, मगर जिन ने कस्त ही अगर कर लिया है कि पहुंच कर रहेंगे, धमाचौकड़ी मचा देंगे। एक-दूसरे के ऊपर से चढ़ जाएंगे।...
तुम्हें खयाल नहीं है वैज्ञानिक कहते हैं कि इतना उपद्रव मच जाता है...पर इतना सूक्ष्म उपद्रव कि किसी को पता नहीं चलता कि क्या हो रहा है! इसमें से चुनाव किया जा सकता है। अब हमारे पास विधियां हैं। इसमें से जांच-पड़ताल की जा सकती है। इसलिए तो एक ही मां-बाप के बच्चे भी सब एक जैसे नहीं होते। आखिर महावीर अकेले बेटे थोड़े ही थे अपने बाप के, और भी बेटे थे; उनका क्या हुआ? आइंस्टीन कोई अकेला ही बेटा तो नहीं था, और भी बेटे थे; उनका क्या हुआ? वे सब कहां खो गए? और उन्हीं मां-बाप से पैदा हुए थे।
एक ही मां-बाप से पैदा होने वाले भी दस भाई-बहनों में बहुत अंतर होता है, जमीन-आसमान का अंतर होता है। और अंतर कहां से आता है? अंतर यहां से आता है कि जो जीव-कोष्ठ दौड़ रहे हैं स्त्री के अंडे की तरफ, वे सब अलग-अलग हैं; उनकी सबकी प्रतिभाएं अलग-अलग हैं; उनकी क्षमताएं अलग हैं; उनकी संभावनाएं अलग हैं। अब हमारे पास विधियां हैं कि हम उनकी क्षमताओं को आंक सकते हैं; हम उनके भविष्य में झांक सकते हैं।
इसलिए जैसे अभी हम अस्पतालों में ब्लड-बैंक बनाते हैं, वैसे पश्चिम के देशों में स्पर्म-बैंक बनने शुरू हो गए हैं। यह अच्छी शुरुआत है, यह महत्वपूर्ण शुरुआत है। इस पर भविष्य का बहुत कुछ निर्भर करेगा। इसमें श्रेष्ठतम व्यक्तियों के स्पर्म इकट्ठे किए जा सकते हैं, और उनमें से भी जो श्रेष्ठतम हैं वे स्पर्म चुने जा सकते हैं।
फिर सभी स्त्रियों के अंडे भी श्रेष्ठ नहीं होते। स्त्रियों के अंडे भी भिन्न-भिन्न होते हैं। उन अंडों को भी चुना जा सकता है। और श्रेष्ठतम अंडा अगर श्रेष्ठतम स्पर्म से मेल खाए, तो मैं तुमसे कहता हूं कि वक्त आ सकता है जब हम अतीत को बिलकुल ही पीका कर दें; बुद्ध और महावीरों को अंगुलियां पर गिनती करने की जरूरत न रह जाए।
हम महान प्रतिभाओं को जन्म दे सकते हैं, मगर इसके लिए बड़ी नियोजित व्यवस्था चाहिए। यह नियोजन के बिना नहीं हो सकता। हां, अभी जो कभी-कभी इस तरह के लोग पैदा हो गए हैं, ये हमारे बावजूद।
रामशंकर अग्निहोत्री, इसे स्मरण रखना, मैंने जो बात कही है उसमें कहीं भी कोई भूल-चूक नहीं है, बात पूरी सही है। ये तो लग गए तीर। तुम भी अंधेरे में तीन चला कर देखो, लग जाएगा एकाध, मगर इससे तुम तीरंदाज न हो जाओगे। तीरंदाज इतनी आसानी से नहीं हो जाते। कभी-कभी संयोगवशात चीजें हो जाती हैं। यह संयोग की बात थी कि एक श्रेष्ठ अंडे से एक श्रेष्ठ स्पर्म का मिलन हो गया। यह करोड़ों घटनाओं में एक घटना हो ही जाएगी।
जीसस ने कहा है कि तुम बीज फेंको, ऐसे ही फेंक दो; कुछ रास्ते पर पड़ेंगे, वे कभी पैदा नहीं होंगे, वे रास्ते पर ही मर जाएंगे। रास्ते पर कहीं कोई बीज पैदा हो सकता है, अंकुरित हो सकता है! और जीसस के जमाने का रास्ता। आजकल का रास्ता तो जीसस को कुछ पता भी नहीं था। अब सीमेंट के रास्ते पर कोई बीज अंकुरित हो सकता है, कि कोलतार के रास्ते पर कोई बीज अंकुरित हो सकता है? कुछ रास्ते के किनारे पड़ेंगे; वे शायद अंकुरित हो जाएं, लेकिन मर जाएंगे। क्योंकि लोग चलते हैं रास्ते के बगल में भी, पटरियों पर भी; दब जाएंगे। कुछ हो सकता है खेत की मेड़ पर पड़ जाएं, वे शायद थोड़े और बड़े हो जाएंगे, मगर वे भी बचेंगे नहीं क्योंकि मेड़ों पर भी लोग, किसान, चरवाहे चलते हैं। जो बिलकुल खेत के मध्य में पड़ेंगे, ठीक-ठीक भूमि में पड़ेंगे, वे ही बीज अंकुरित हो पाएंगे। और उनकी भी सुरक्षा चाहिए।
हम बीजों की जितनी चिंता करते हैं, उतनी मनुष्य के बीजों की नहीं करते। हमारे जैसे मूढ़ खोजने कठिन हैं! खेत में बागुड़ लगाते हैं, पानी सींचते हैं; कोई जानवर न घुस जाए, इसका इंतजाम करते हैं, रखवाला रखते हैं। आदमी के लिए हमने क्या इंतजाम किया है? खैर अब तक तो हम कर न सकते थे, हमें पता भी न था; अब हम कर सकते हैं। अगर अब हम न करें तो हम निपट गंवार हैं।
लेकिन पुरानी धारणाएं हमें कठिनाई दे रही हैं। पुरानी धारणाएं हमें बड़ी मुश्किल दे रही हैं।
आनंद मैत्रेय ने पूछा है कि अगर आपकी बात मानी जाए और संतानोत्पत्ति को नियोजित किया जाए तो व्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या होगा?
और संबंधों में व्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या होता है? कोई आदमी किसी की हत्या करना चाहे, तब तुम यह नहीं कहते कि इस व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा पड़ रही है, करने दो हत्या! जब यह करना चाहता है तो करने दो! इसकी स्वतंत्रता में बाधा क्यों डाल रहे हो?
किसी व्यक्ति को किसी के घर में आग लगा कर होली जलानी है। इसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में बाधा नहीं पड़ती, जब तुम इस को रोकते हो, पुलिस पकड़ कर ले जाती है? किसी को आत्महत्या करनी है, उसको भी तुम नहीं करने देते! यह तो हद हो गई! दूसरे को न मारने दो, चलो ठीक है भई कि दूसरा भी इसमें सम्मिलित है। एक आदमी अपने को ही मारना चाहता है, वह भी पकड़ जाए तो सजा काटेगा।
अपने को भी मारने की स्वतंत्रता नहीं है; और तुम्हें बच्चे पैदा करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए! जो कि मारने से भी खतरनाक काम है। क्योंकि तुम हो सकता है ऐसा बच्चा पैदा कर जाओ, जो जिंदगी भर दुख भोगे। और फिर वह बच्चे पैदा करेगा। तुम एक सिलसिला शुरू कर जाओ जिसका शायद कभी अंत न हो सके। और तुम्हें इसकी स्वतंत्रता चाहिए! एकाध आदमी को मार दो, इस में कुछ बड़ा खतरा नहीं है। ऐसे आदमियों की भीड़ बहुत है। मगर एक बच्चे को पैदा करना ज्यादा खतरनाक काम है। उसकी तुम्हें व्यक्तिगत स्वतंत्रता चाहिए कि हम तो जिसे पैदा करना है करेंगे।
नहीं, यह बात ठीक नहीं है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं होता। व्यक्तिगत स्वतंत्रता का यह गलत अर्थ हो गया।
अमेरिका का एक विचारक हेनरी थारो हुआ। महात्मा गांधी उससे बहुत प्रभावित थे। अमरीकी विधान में लिखा हुआ है कि व्यक्ति को आवागमन की स्वतंत्रता है। इसका उसने क्या अर्थ किया, मालूम है? रेलगाड़ी में बिना टिकट चलना! आवागमन की स्वतंत्रता! कोई रोक नहीं सकता। प्रत्येक व्यक्ति को आवागमन की स्वतंत्रता है। जब आवागमन की स्वतंत्रता है तो रेलगाड़ी में बैठेंगे, हवाई जहाज में चढ़ेंगे! वह कई दफा पकड़ा गया, सजाएं भी काटीं, मगर वह यह कहता था कि यह व्यक्ति कि मूलभूत स्वतंत्रता है; फिर-फिर चलता था बिना टिकट।
गांधी को असहयोग आंदोलन का खयाल ही उसी पगले से मिला। उसकी ही किताब पढ़ कर--अंटू दिस लास्ट--गांधी को धारणा मिली कि यह तो बड़े गजब का काम है! असहयोग किया जा सकता है इस तरह से। गांधी ने उसकी किताब का अनुवाद किया। अंटू दिस लास्ट का उन्होंने जो नाम दिया, वह सर्वोदय--किताब का। उसी से सर्वोदय शब्द पैदा हुआ।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता का क्या अर्थ होता है? तुम्हें हक है कि तुम किसी भी तरह का बच्चा पैदा करो? उस बच्चे के संबंध में क्या? तुम कौन हो उस बच्चे का भविष्य बिगाड़ने वाले? अगर वह बुद्धू होगा, तो तुम जिम्मेवार हो। अगर वह अपाहिज होगा, तो तुम जिम्मेवार हो। अगर अंधा होगा, तो तुम जिम्मेवार हो। अगर वह बुद्धिहीन होगा, तो कौन जिम्मेवार है? अगर वह जीवन भर परेशान होगा, तो कौन जिम्मेवार है?
हमें ये सब धारणाएं बदलनी पड़ेंगी। यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात मूढ़तापूर्ण है। यही तो इस मुल्क में हमारे प्राण लिए ले रही है। बुद्ध के जमाने में दो करोड़ आबादी थी इस देश की; अब इस देश की आबादी सत्तर करोड़ है। और अगर हम पाकिस्तान और बंगला देश को भी जोड़ लें, तो नब्बे करोड़ के करीब पहुंच रही है।
दो करोड़ आबादी से नब्बे करोड़! तुम अगर दीन हो, दरिद्र हो तो कौन जिम्मेवार है? और फिर तुम कहते हो व्यक्तिगत स्वतंत्रता! तो तुम्हें दरिद्र होने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता है। तो तुम्हें भूखे मरने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता है। फिर शोरगुल क्यों मचाते हो? फिर क्यों चिल्लाते हो कि हम भूखे हैं, कि हम दीन हैं, कि हम दरिद्र हैं, कि दुनिया हमारी फिक्र करें? बच्चे तुम पैदा करो और फिक्र दुनिया तुम्हारी करे! सारी दुनिया पर नाराज हो। और नाराजगी का कारण? जिम्मेवारी तुम्हारी है। कोई और कारण नहीं है।
यह सब अब आगे नहीं चल सकता। हमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता की धारणा बदलनी होगी। व्यक्ति ही कहां हैं? जिनमें बोध हो उनको व्यक्ति कहो। इन मशीनों को व्यक्ति कहते हो! जिनको कुछ बोध नहीं है। क्यों बच्चे पैदा कर रहे हैं? किस लिए कर रहे हैं? क्या जरूरत है? जरूरत है भी या नहीं? क्यों पृथ्वी का बोझ बढ़ा रहे हैं? ऐसे ही भीड़-भाड़ बहुत है, अब कृपा करो! मगर वे कहते हैं कि नहीं, व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बाधा हो जाती है।
मैत्रेय जी ने पूछा है कि इससे तो अधिनायकवाद आ जाएगा।
हम तो शब्द पकड़ लेते हैं। जिंदा रहना है तो कुछ सूझ-बूझ से काम लेना होगा। और अगर जीवन को सुंदर बनाना है तो काफी सूझ-बूझ से काम लेना होगा। यह शब्दों के जाल में पड़ने की बहुत ज्यादा जरूरत नहीं है। निर्णय तो अब विशेषज्ञों के हाथ में ही होना चाहिए कि कौन बच्चे पैदा कर सकता है, किससे बच्चे पैदा कर सकता है?
और अब हमारे पास सुविधा है। कोई जरूरत नहीं है कि तुम अपनी ही पत्नी से बच्चा पैदा करो; कि तुम्हारी पत्नी तुमसे ही बच्चा पैदा करे। ये पुरानी मूढ़तापूर्ण धारणाएं छोड़ो। तुम्हारा बच्चा सुंदर होना चाहिए। तुम्हारा बच्चा मेधावी होना चाहिए। तुम्हारा बच्चा ऐसा होना चाहिए कि खिल जाए एक कमल। इसकी फिक्र करो। उसकी तो फिक्र नहीं है, बस केवल फिक्र इसकी है कि वह मेरी औरत से हो, कि मेरे पति से हो। और अब बहुत सुविधा है। अब तो इंजेक्शन से भी बच्चा पैदा हो सकता है। अब कोई जरूरत नहीं है।...
और एक अदभुत बात है, एक आदमी के शरीर में इतने स्पर्म होते हैं जीवन में कि एक आदमी से हम पूरी पृथ्वी भर सकते हैं बच्चों से। एक करोड़ एक संभोग में बच्चे पैदा हो सकते हैं। एक आदमी अपने तीस-चालीस साल के संभोग के जीवन में इतने बच्चे पैदा कर सकता है कि सारी पृथ्वी को भर दे। अगर हम श्रेष्ठतम स्पर्म का उपयोग करें, तो कोई जरूरत नहीं है कि तुम अपने रद्दी-खद्दी स्पर्म से ही बच्चे पैदा करने का आग्रह लिए बैठे रहो, कि हम इससे ही बच्चा पैदा करेंगे--चाहे कैसा ही हो, ऊबड़-खाबड़ हो, कच्चा-पक्का हो, चलेगा, मगर हमारा तो है! हमारे का इतना ही मतलब होगा कि तुम स्पर्म का इंजेक्शन खरीद कर लाए हो; तुमने पैसा खर्च किया है, किसी और ने नहीं! किसी और के बाप का नहीं! तुमने चुनाव किया है। तुम गए थे केमिस्ट की दुकान पर खुद, नौकर को नहीं भेज दिया था। और वहां तुमने जांच-पड़ताल की, तुमने खोजबीन की; पत्नी को भी ले गए थे। दोनों ने सोचा-विचारा, विशेषज्ञ से पूछा, फिर तुमने निर्णय किया कि कैसा बच्चा तुम चाहोगे--कितनी प्रतिभा का, कितनी ऊंचाई का, क्या रंग, क्या रूप, कैसा नाक-नक्श, कैसी देह, कितना स्वास्थ्य।
नहीं तो हम बीमारियां देते चले जाते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी बीमारियां उतरती चली जाती हैं। उन्हीं-उन्हीं बीमारियों को हम बढ़ाते चले जाते हैं।
स्वस्थ बच्चे हो सकते हैं, जो कभी बीमार न हों, या हों तो होना बड़ा न्यून हो जाए। और धीरे-धीरे मनुष्य की नस्ल भी अतिमानव को छू सकती है, सुपरमैन को छू सकती है। नीत्शे की कल्पना कभी पूरी हो सकती है, अब पूरे होने का दिन करीब आया।
तो मैं तो पुनः दोहराऊंगा कि संतानोत्पत्ति नियोजित होनी चाहिए। और बच्चों का सारा भार कम्यून पर होना चाहिए, ताकि कम्यून ही तय करे कि कितने बच्चे हों, किसके बच्चे हों। और अब अड़चन नहीं है, क्योंकि अब बच्चे और संभोग का संबंध टूट चुका है। पुराने दिन में यह अड़चन थी कि अगर बच्चे रोकना हों तो ब्रह्मचर्य जैसी कठिन बात साधनी पड़ती, जो कि शायद कोई एकाध साध पाए। अब तो बच्चे का और संभोग का संबंध टूट गया।
मनुष्य-जाति के इतिहास में संतति-निरोध के लिए जो पिल ईजाद हुई है, वह सबसे बड़ी क्रांतिकारी ईजाद है। इससे बड़ी कोई क्रांतिकारी ईजाद नहीं है; क्योंकि इससे आने वाले भविष्य का सारा का सारा रूप रंग और होगा। इसने एक बड़ी क्रांति कर दी, इसने संभोग और बच्चों का संबंध तोड़ दिया। तुम संभोग का सुख ले सकते हो जब तक तुम्हें लेना है। जब तक तुम्हें बुद्धि नहीं आती संभोग से ऊपर उठने की, तुम संभोग का सुख ले सकते हो और बच्चों से बच सकते हो। बच्चे अनिवार्य नहीं हैं। बच्चों को अब तुम व्यवस्थित होने दो।
और थोड़ी समझ आए तो इसमें अड़चन नहीं होती। यह कोई जबरदस्ती नहीं थोपा जाता। यहां मेरे कम्यून में तुम देखो, यहां तीन हजार संन्यासी हैं और केवल ढाई सौ बच्चे हैं। डेढ़ हजार जोड़ों में ढाई सौ बच्चे। अगर इन डेढ़ हजार जोड़ों को भारतीय शैली सिखा दी जाए तो यहां जो किलकिल दांती मचे, ऐसा सत्संग हो यहां...। दस-पंद्रह हजार बच्चे हों, जिनको सम्हालने में ही सारा काम लगे। लेकिन खुद अपनी समझ से युवकों ने आपरेशन करवा लिए हैं, युवतियों ने आपरेशन करवा लिए हैं। डाक्टरों ने जिसको सुझाव दिया, आपरेशन करा लिया।
और जैसे ही यह कम्यून पूरी तरह निर्मित होती है, वैसे ही जो मैं कह रहा हूं यह सब प्रयोग होने वाला है। क्योंकि जो मैं कह रहा हूं, मैं हवाई बात करना पसंद नहीं करता। अगर दुनिया में कहीं पहली दफा कम्यून का ठीक-ठीक प्रयोग हो सकेगा और बच्चे पूरे-पूरे कम्यून के होंगे...। एक हमने अलग बच्चों के लिए भवन बना रखा है। वहां बच्चे ही रह रहे हैं। क्योंकि बच्चे मां-बाप की झंझट में नहीं रहना चाहते और मां-बाप भी क्यों झंझट में रहें! बच्चों का अपना निवास-स्थल है। उनसे थोड़े बड़े उम्र के बच्चे उस निवास-स्थल को सम्हाल रहे हैं। और बड़े अदभुत ढंग से सम्हाल रहे हैं! सब व्यवस्थित चल रहा है।
नए कम्यून में, जैसे ही हमारी पूरी व्यवस्था अपनी हो जाती है, हमारा अपना पूरा नगर हो जाता है, दस हजार संन्यासी बस जाते हैं, मैं चाहूंगा कि हम पूरे विशेषज्ञों का उपयोग करें। और बच्चे इस तरह पैदा हों जिस तरह कि अब विज्ञान चाहता है कि बच्चे पैदा होने चाहिए। हम एक उदाहरण पेश करना चाहते हैं। हम दिखाना चाहते हैं कि कैसे बच्चे पैदा हो सकते हैं। और जितने दूर के मां-बाप या जितने दूर के स्त्री और पुरुष के जीव-कोष्ठ मिलें, उतने ही अदभुत बच्चे पैदा होते हैं; उतने ही श्रेष्ठ बच्चे पैदा होते हैं, जितना फासला हो।
मेरे संन्यासियों में कोई पचास देशों के संन्यासी हैं--दूर-दूर देशों के। इन से हम एक नई मनुष्य-जाति का सूत्रपात कर सकते हैं।

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