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रविवार, 30 दिसंबर 2018

जनसंख्या विस्फोट-(प्रवचन-01)

जनसंख्या विस्फोट

प्रवचन: पहला 

 ‘संभोग से समाधि की ओर’ प्रवचन ९ से संकलित

पृथ्वी के नीचे दबे हुए, पहाड़ों की कंदराओं में छिपे हुए, समुद्र की तलहटी में खोजे गए ऐसे बहुत से पशुओं के अस्थिपंजर मिले हैं जिनका अब कोई भी निशान शेष नहीं रह गया। वे कभी थे। आज से दस लाख साल पहले पृथ्वी बहुत से सरीसृपों से भरी थी, सरकने वाले जानवरों से भरी थी। लेकिन आज हमारे घर में छिपकली के अतिरिक्त उनका कोई प्रतिनिधि नहीं रह गया है। छिपकली भी बहुत छोटा प्रतिनिधि है। दस लाख साल पहले उसके पूर्वज हाथियों से भी पांच गुने और दस गुने बड़े थे। वे सब कहां खो गए? इतने शक्तिशाली पशु पृथ्वी से कैसे विनष्ट हो गए? किसी ने उन पर हमला किया? किसी ने एटम बम, हाइड्रोजन बम गिराया?

नहीं; उनके खत्म हो जाने की बड़ी अदभुत कथा है। उन्होंने कभी सोचा भी न होगा कि वे समाप्त हो जाएंगे। वे समाप्त हो गए अपनी संतति के बढ़ जाने के कारण! वे इतने ज्यादा हो गए कि पृथ्वी पर जीना उनके लिए असंभव हो गया। भोजन कम हुआ; पानी कम हुआ; लिविंग स्पेस कम हुई; जीने के लिए जितनी जगह चाहिए, वह कम हो गई।

उन पशुओं को बिलकुल आमूल मिट जाना पड़ा!
ऐसी दुर्घटना आज तक मनुष्य-जाति के जीवन में नहीं आई है, लेकिन भविष्य में आ सकती है।
आज तक न आई उसका कारण यह था कि प्रकृति ने निरंतर मृत्यु को और जन्म को संतुलित रखा है। दस आदमी पैदा होते थे बुद्ध के जमाने में, तो सात या आठ व्यक्ति उसमें जन्म के बाद मर जाते थे। दुनिया की आबादी कभी इतनी नहीं बढ़ी थी कि भोजन की कमी पड़ जाए, स्थान की कमी पड़ जाए।
फिर विज्ञान और आदमी की निरंतर खोज ने, और मृत्यु से लड़ाई लेने ने, वह स्थिति पैदा कर दी कि आज दस बच्चे पैदा होते हैं सुसंस्कृत, सभ्य मुल्क में, तो मुश्किल से एक बच्चा मर पाता है। स्थिति बिलकुल उलटी हो गई है। उम्र भी लंबी हुई। आज रूस में डेढ़ सौ वर्ष की उम्र के भी हजारों लोग हैं। औसत उम्र अस्सी और बयासी वर्ष तक कुछ मुल्कों में पहुंच गई है। स्वाभाविक परिणाम जो होना था वह यह हुआ कि जन्म की दर तो पुरानी रही, मृत्यु की दर हमने कम कर दी। अकाल होते थे, अकाल बंद कर दिए। महामारियां आती थीं, प्लेग होता था, मलेरिया होता था, हैजा होता था, वे हमने कम कर दिए। हमने मृत्यु के बहुत से द्वार रोक दिए और जन्म के सब द्वार खुले छोड़ दिए। मृत्यु और जन्म के बीच जो संतुलन था वह विनष्ट हो गया।
उन्नीस सौ पैंतालीस में हिरोशिमा में एटम बम गिरा, एक लाख आदमी एटम बम से मरे। उस समय लोगों को लगा कि बहुत बड़ा खतरा है, अगर एटम बनता चला गया तो सारी दुनिया नष्ट हो सकती है। लेकिन आज जो लोग समझते हैं, वे यह कहते हैं कि दुनिया के नष्ट होने की संभावना एटम से बहुत कम है, दुनिया के नष्ट होने की संभावना, लोगों के मरने की, नष्ट होने की जो नई संभावना है वह है लोगों के पैदा होने से!
एक एटम बम गिरा कर हिरोशिमा में एक लाख आदमी हमने मारे। लेकिन हम प्रतिदिन डेढ़ लाख आदमी सारी दुनिया में बढ़ा लेते हैं। एक हिरोशिमा, डेढ़ हिरोशिमा हम रोज पैदा कर लेते हैं। डेढ़ लाख आदमी प्रतिदिन बढ़ जाता है। इसका डर है कि अगर इसी तरह संख्या बढ़ती चली गई तो इस सदी के पूरे होते-होते कोहनी हिलाने के लिए भी जगह पृथ्वी पर शेष नहीं रह जाएगी। और तब सभाएं करने की जरूरत न होगी, क्योंकि हम चौबीस घंटे सभाओं में ही होंगे।
आज भी न्यूयार्क या बंबई में चौबीस घंटे कोहनी हिलाने की फुर्सत नहीं है, सुविधा नहीं है, अवकाश नहीं है। ऐसी स्थिति सारी पृथ्वी की हो जानी सुनिश्चित है। इसलिए इस समय सबसे बड़ी चिंता, जो मनुष्य-जाति के हित के संबंध में सोचते हैं, उन लोगों के समक्ष एक्सप्लोजन ऑफ पापुलेशन है। यह जो जनसंख्या का विस्फोट है, यह है। हमने मृत्यु को रोक दिया और जन्म को अगर हमने पुराने रास्ते पर चलने दिया, तो बहुत डर है कि पृथ्वी हमारी संख्या से ही डूब जाए और नष्ट हो जाए। हम इतने ज्यादा हो जाएं कि जीना असंभव हो जाए।
इसलिए जो भी विचारशील हैं वे कहेंगे, जिस भांति हमने मृत्यु को रोका उस भांति हम जन्म को भी रोकें। और जन्म को रोकना बहुत हितकर हो सकता है, बहुत महत्वपूर्ण हो सकता है--बहुत दिशाओं से।
पहली बात तो यह ध्यान में रख लेनी है कि जीवन एक अवकाश चाहता है।
जंगल में एक जानवर है, मुक्त, मीलों के घेरे में घूमता है, दौड़ता है। उसे कठघरे में बंद कर दें। और उसका विक्षिप्त होना शुरू हो जाता है। बंदर हैं, मीलों की यात्रा करते रहते हैं। पचास बंदरों को एक मकान में बंद कर दें। और उनका पागल होना शुरू हो जाता है। प्रत्येक बंदर को एक लिविंग स्पेस चाहिए, एक जगह चाहिए खुली, जहां वह जी सके।
अब बंबई में या न्यूयार्क में या वाशिंगटन में या मास्को में वह लिविंग स्पेस खो गई है। छोटे-छोटे कठघरों में आदमी बंद है। एक-एक घर में, एक-एक कमरे में दस-दस, बारह-बारह लोग बंद हैं। वहीं वे पैदा होते हैं, वहीं वे मरते हैं, वहीं वे जीते हैं, वहीं वे भोजन करते हैं, वहीं वे बीमार होते हैं। एक-एक छोटे कमरे में दस-दस, बारह-बारह, पंद्रह-पंद्रह लोग बंद हैं। अगर वे विक्षिप्त न हो जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं है। अगर वे पागल न हो जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं है। वे पागल होंगे ही; वे नहीं हो पा रहे हैं, यही आश्चर्य है! इतने कम हो पा रहे हैं, यही आश्चर्य है!
मनुष्य को एक खुला स्थान चाहिए जीने के लिए। लेकिन संख्या अगर ज्यादा हो जाए तो खुला स्थान समाप्त हो जाएगा। हमें खयाल नहीं है, जब आप अकेले एक कमरे में होते हैं, तब आप एक मुक्ति अनुभव करते हैं। दस लोग आकर कमरे में सिर्फ बैठ जाएं--कुछ करें न, आपसे बोलें भी न, आपको छुएं भी न, सिर्फ दस लोग कमरे में बैठ जाएं--और आपके मस्तिष्क पर एक अनजाना भार पड़ना शुरू हो जाता है।
अभी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि चारों तरफ बढ़ती हुई भीड़, प्रत्येक व्यक्ति के मन पर एक अनजाना भार है। आप एक रास्ते पर चल रहे हैं अकेले में, कोई भी रास्ते पर नहीं है, तब आप दूसरे ढंग के आदमी होते हैं। और अगर उस रास्ते पर दो आदमी एक बगल की गली से निकल कर आ गए हैं, आप फौरन दूसरे आदमी हो जाते हैं, उनकी मौजूदगी आपके भीतर कोई तनाव पैदा कर देती है। आप अपने बाथरूम में स्नान करते हैं, तब आपने खयाल किया, आप वही आदमी नहीं होते जो आप अपने बैठकघर में होते हैं। बाथरूम में आप बिलकुल दूसरे आदमी होते हैं। बूढ़ा भी बाथरूम में बच्चे जैसा उन्मुक्त हो जाता है। बूढ़े भी बाथरूम के आईने में बच्चों जैसी जीभें दिखाते हैं, मुंह चिढ़ाते हैं, नाच भी लेते हैं। लेकिन अगर पता चल जाए कि की-होल से, कुंजी के छेद से कोई झांक रहा है, तो वे फिर एकदम बूढ़े हो जाएंगे। उनका बचपन खो जाएगा। फिर वे सख्त और मजबूत और बदल जाएंगे।
कुछ क्षण चाहिए जब हम बिलकुल अकेले हो सकें। मनुष्य की आत्मा के जो भी श्रेष्ठतम फूल हैं, वे एकांत में और अकेले में ही खिलते हैं। काव्य हो, संगीत हो, परमात्मा की प्रतिध्वनि मिले, वह सब एकांत और अकेले में ही मिलती है। आज तक जगत में भीड़-भाड़ में कोई श्रेष्ठ काम नहीं हो सका। भीड़ ने अब तक कोई श्रेष्ठ काम किया ही नहीं। जो भी जगत में श्रेष्ठ जन्मा है--कविता, चित्र, संगीत, परमात्मा, प्रार्थना, प्रेम--वे सब एकांत में और अकेले के फूल हैं। लेकिन वे सब फूल मुरझा जाएंगे, मुरझा गए हैं, मुरझा रहे हैं, मिट जाएंगे; आदमी श्रेष्ठ से रिक्त हो जाएगा; क्योंकि भीड़ चारों तरफ से अनजाना दबाव डाले चली जाती है। सब तरफ आदमी हैं, सब तरफ आदमी हैं।
और एक बहुत बड़ी मजे की बात है, आदमी जितने बढ़ते हैं उतना व्यक्तित्व कम हो जाता है। भीड़ में कोई आदमी इंडिविजुअल नहीं होता, व्यक्ति नहीं होता। भीड़ में नाम मिट जाता है, आइडेंटिटी मिट जाती है, तादात्म्य मिट जाता है। आप कोई नहीं होते, भीड़ के एक अंग होते हैं। इसीलिए भीड़ बुरे काम कर सकती है। अकेला आदमी उतने बुरे काम नहीं कर पाता।
अगर किसी मस्जिद को जलाना हो, तो अकेला आदमी नहीं जला सकता, कितना ही पक्का हिंदू क्यों न हो। और अगर किसी मंदिर में राम की मूर्ति तोड़नी है, तो अकेला मुसलमान नहीं तोड़ सकता, कितना ही पक्का मुसलमान क्यों न हो। भीड़ चाहिए। अगर बच्चों की हत्या करनी हो और स्त्रियों के साथ बलात्कार करना हो और आग लगानी हो जिंदा आदमियों में, तो अकेला आदमी आग लगाने में बहुत कठिनाई अनुभव करता है। लेकिन भीड़ एकदम सरलता से कर पाती है।
क्यों? क्योंकि भीड़ में कोई व्यक्ति नहीं रह जाता। और जब व्यक्ति नहीं रह जाता तो दायित्व, रिस्पांसबिलिटी भी विदा हो जाती है। तब हम कह सकते हैं--हमने नहीं किया, हम तो सिर्फ भीड़ में सम्मिलित थे। कभी आपने देखा है, अगर भीड़ तेजी से चल रही हो, नारे लगा रही हो, तो आप भी नारे लगाने लगते हैं और आप भी तेजी से चलने लगते हैं। तेजी से चलती भीड़ में आपके पैर भी तेज हो जाते हैं। नारे लगाती भीड़ में आपका नारा भी लगने लगता है।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि शुरू-शुरू में मेरे पास बहुत थोड़े लोग थे, दस-पंद्रह लोग ही थे। और दस-पंद्रह लोगों से कैसे एडोल्फ हिटलर हुकूमत तक पहुंचा, वह बड़ी अजीब कथा है। उसने लिखा है कि मैं अपने पंद्रह लोगों को लेकर सभा में पहुंचता था। पंद्रह लोगों को अलग-अलग कोनों पर खड़ा कर देता था। और जब मैं बोलता था, तो उन पंद्रह लोगों को पता था कि कब ताली बजानी है। वे पंद्रह लोग ताली बजाते थे, बाकी भीड़ उनके साथ हो जाती थी, बाकी भीड़ भी ताली बजाती थी।
कभी आपने खयाल किया है कि जब आप ताली बजाते हैं भीड़ में, तो आप नहीं बजाते, भीड़ बजवा लेती है। जब आप हंसते हैं भीड़ में, तो आप नहीं हंसते, भीड़ हंसवा लेती है। भीड़ संक्रामक है, वह कुछ भी करवा लेती है, क्योंकि वह व्यक्ति को मिटा देती है। वह जो व्यक्ति की आत्मा है, वह जो उसका अपना होना है, उसे पोंछ डालती है।
अगर पृथ्वी पर भीड़ बढ़ती चली गई तो व्यक्ति विदा हो जाएंगे, भीड़ रह जाएगी। व्यक्तित्व क्षीण हो जाएगा। क्षीण हुआ है। खत्म हो जाएगा, मिट जाएगा। बुझा जा रहा है। यही सवाल नहीं है कि पृथ्वी आगे इतनी भीड़ को लेकर जीने में असमर्थ होगी। अगर हमने कोई उपाय भी कर लिया--समुद्र से खाना निकाल लिया। निकाल सकेंगे, क्योंकि मजबूरी होगी तो कोई उपाय खोजना पड़ेगा, समुद्र से खाना निकल सकेगा। हो सकता है हवाओं से भी खाना निकाला जा सके। और यह भी हो सकता है कि सूरज की किरणों से हम सीधा भोजन ग्रहण कर सकें। यह सब हो सकता है। सिंथेटिक फूड भी हो सकते हैं, सिर्फ गोलियां खाकर भी आदमी जिंदा रह सके। आखिर भीड़ बढ़ती जाएगी तो भोजन का तो हम कोई हल कर लेंगे। लेकिन आत्मा का हल नहीं हो सकेगा।
इसलिए मेरे सामने परिवार-नियोजन जैसी चीज केवल आर्थिक मामला नहीं है, बहुत गहरे अर्थों में धार्मिक मामला है। भोजन तो जुटाया जा सकेगा, इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। अगर भोजन की ही कठिनाई अगर लोग समझते हों तो बिलकुल गलत समझते हैं। अभी समुद्र खाली पड़े हैं, अभी समुद्रों में बहुत भोजन है। और वैज्ञानिक प्रयोग यह कह रहे हैं कि समुद्रों के पानी से बहुत भोजन निकाला जा सकता है। आखिर मछली समुद्र से भोजन ले रही है। लाखों तरह के जानवर समुद्र से भोजन ले रहे हैं, पानी से। तो पानी से हम भी भोजन निकाल सकते हैं। आखिर मछली को हम खा लेते हैं तो हमारा भोजन बन जाता है। और मछली ने जो भोजन लिया वह पानी से लिया। अगर हम एक मशीन बना सकें जो मछली का काम कर सके तो पानी से हम सीधा भोजन पैदा कर लेंगे। आखिर मछली भी एक मशीन का काम करती है।
घास खाती है गाय, फिर गाय का दूध पी लेते हैं हम। हम सीधा घास खाएं तो मुश्किल होती है, बीच में मध्यस्थ गाय चाहिए। गाय घास को इस हालत में बदल देती है कि हमारे भोजन के योग्य हो जाता है। आज नहीं कल हम मशीन की गाय भी बना लेंगे, जो घास को इस हालत में बदल दे कि हम उसको ले लें। सिंथेटिक दूध जल्दी ही बन सकेगा। आखिर वेजिटेबल घी बन सकता है तो वेजिटेबल दूध क्यों नहीं बन सकता है? कोई कठिनाई नहीं है। भोजन का मामला तो हल हो जाएगा।
लेकिन असली सवाल भोजन का नहीं है, असली सवाल ज्यादा गहरे हैं। अगर आदमी की भीड़ बढ़ती जाती है और पृथ्वी कीड़े-मकोड़ों की तरह आदमी से भर जाती है, तो आदमी की आत्मा खो जाएगी। और उस आत्मा को देने का विज्ञान के पास कोई उपाय नहीं है, वह आत्मा खो ही जाएगी। और अगर भीड़ बढ़ती चली जाती है तो एक-एक व्यक्ति पर चारों तरफ से इतना अनजाना दबाव पड़ेगा...।
हमें अनजाने दबाव दिखाई नहीं पड़ते। आप जमीन पर चलते हैं, आपने कभी सोचा है कि जमीन का ग्रेविटेशन आपको खींच रहा है? नहीं, हम बचपन से उसके आदी हो जाते हैं इसलिए पता नहीं चलता। लेकिन जमीन से बहुत बड़ा वजन हमें पूरे वक्त खींचे हुए है। वह तो अभी चांद पर जो यात्री गए उनको पता चला कि जमीन...अब लौट कर उनको जमीन वैसी कभी न लगेगी, जैसी पहले लगी थी। क्योंकि चांद पर वे सात फिट ऊंची छलांग भी लगा सकते हैं, चांद की पकड़ बहुत कम है, चांद बहुत नहीं खींचता है। जमीन बहुत जोर से खींच रही है। हवाएं चारों तरफ से दबा रही हैं। लेकिन उनका हमें पता नहीं चलता, क्योंकि हम उनके आदी हो गए हैं। और अनजाने दबाव भी हैं मानसिक। ये तो भौतिक दबाव हैं। चारों तरफ लोगों की मौजूदगी भी हमको दबा रही है। वे भी हमें भीतर की तरफ प्रेस कर रहे हैं। सिर्फ उनकी मौजूदगी भी हमें परेशान किए हुए है।
अगर यह भीड़ बढ़ती चली जाती है तो एक सीमा पर पूरी मनुष्यता के न्यूरोटिक, विक्षिप्त हो जाने का डर है। सच तो यह है कि आधुनिक मनोविज्ञान, मनोविश्लेषण यह कहता है कि जो लोग पागल हुए जा रहे हैं, उन पागल होने वालों में नब्बे प्रतिशत पागल ऐसे हैं, जो भीड़ के दबाव को नहीं सह पा रहे हैं। दबाव चारों तरफ से बढ़ता चला जा रहा है। और भीतर दबाव को सहना मुश्किल हुआ जा रहा है। उनके मस्तिष्क की नसें फटी जा रही हैं।
इसलिए बहुत गहरे में सवाल सिर्फ मनुष्य के फिजिकल सरवाइवल, शारीरिक बचाव का नहीं, उसके आत्मिक बचाव का भी है। इसलिए जो लोग यह कहते हों कि संतति-नियमन जैसी चीजें अधार्मिक हैं, उन्हें धर्म का कोई पता ही नहीं है। क्योंकि धर्म का पहला सूत्र है: व्यक्ति को व्यक्तित्व मिलना चाहिए और व्यक्ति के पास एक आत्मा होनी चाहिए; व्यक्ति भीड़ का हिस्सा न रह जाए।
लेकिन जितनी भीड़ बढ़ेगी, उतना हम व्यक्तियों की फिकर करने में असमर्थ हो जाएंगे। जितनी भीड़ ज्यादा हो जाएगी, उतनी हमें भीड़ की फिकर करनी पड़ेगी, व्यक्ति की फिकर नहीं करनी पड़ेगी। जितनी भीड़ बढ़ जाएगी, उतना हमें पूरे के पूरे जगत की इकट्ठी फिकर करनी पड़ेगी। फिर यह सवाल नहीं है कि आपको कौन सा भोजन प्रीतिकर है और कौन से कपड़े प्रीतिकर हैं और कैसा मकान प्रीतिकर है। यह सवाल नहीं है। कैसा मकान दिया जा सकता है भीड़ को, कैसे कपड़े दिए जा सकते हैं, कैसा भोजन दिया जा सकता है। व्यक्ति का सवाल विदा हो जाता है। तब भीड़ के एक अंश की तरह आपको कितना भोजन, कितना कपड़ा, कैसा उठना, कैसा बैठना, कैसा सोना दिया जा सकता है।
अब एक मित्र अभी जापान से लौटे। वे कह रहे थे कि जापान में घरों की इतनी तकलीफ है, भीड़ बढ़ती चली जा रही है, तो एक नये तरह के पलंग उन्होंने ईजाद किए हैं। आज नहीं कल हमें भी ईजाद करने पड़ेंगे। मल्टी स्टोरी पलंग! रात सो भी नहीं सकते अकेले, दस खाटें एक साथ जुड़ी हुई हैं एक के ऊपर एक। रात जब आप सोते हैं तो अपने नंबर की खाट पर चढ़ कर सो जाते हैं। बाकी नौ लोग भी अपनी-अपनी खाटों पर चढ़ कर सो जाते हैं। रात सोने में भी हम भीड़ के बाहर नहीं रह सकेंगे बहुत देर तक। क्योंकि भीड़ घुसती चली आ रही है, बढ़ती चली जा रही है। वह आपके सोने के कमरे में भी मौजूद हो जाएगी। अब दस आदमी एक ही खाट पर सो रहे हों, तो वह घर कम रह गया, रेलवे कंपार्टमेंट ज्यादा हो गया। रेलवे कंपार्टमेंट में भी दस, टेन टायर सीटें अभी वहां भी नहीं हैं।
लेकिन दस से ही मामला हल न हो जाएगा। अगर यह भीड़ बढ़ती जाती है तो सब तरह व्यक्ति का एनक्रोचमेंट करेगी। वह जो व्यक्ति है उसको सब तरफ से घेरेगी, सब तरफ से बंद करेगी। और हमें ऐसा कुछ करना पड़ेगा कि जिसमें धीरे-धीरे व्यक्ति खोता ही चला जाए, उसकी चिंता ही बंद कर देनी पड़े।
मेरी दृष्टि में, मनुष्य की संख्या का विस्फोट, जनसंख्या का विस्फोट बहुत गहरे अर्थों में धार्मिक सवाल है, सिर्फ भोजन का आर्थिक सवाल नहीं है।
दूसरी बात ध्यान देने जैसी है, और वह यह सोचने जैसा है कि आदमी ने अब तक जो भी जीवन की व्यवस्था की थी, समाज की जो व्यवस्था की थी, वे सारी परिस्थितियां बदल गई हैं। लेकिन हम पुरानी व्यवस्था से चिपटे चले जाते हैं; जब कि परिस्थितियां सारी बदल गई हैं। अब कोई परिस्थिति वही नहीं रह गई है जो आज से पांच हजार साल पहले मनु के जमाने की थी। जब परिस्थितियां बदल जाती हैं तब भी नियम पुराने ही चलते चले जाते हैं।
आज भी घर में एक बच्चा पैदा होता है, तो हम बैंड-बाजा बजाते हैं, झंडी लगाते हैं, संगीत का इंतजाम करते हैं, शोरगुल करते हैं, प्रसाद बांटते हैं। यह पांच हजार साल पहले बिलकुल ही ठीक बात थी, क्योंकि पांच हजार साल पहले दस बच्चे पैदा होते थे तो सात और आठ बच्चे तो मर जाते थे। और पांच हजार साल पहले एक बच्चे का पैदा होना बड़ी घटना थी, समाज के लिए उसकी बड़ी जरूरत थी। क्योंकि समाज में बहुत थोड़े लोग थे। लोग ज्यादा होने चाहिए, नहीं तो पड़ोसी के हमले में जीतना मुश्किल हो जाएगा। एक व्यक्ति का बढ़ जाना बड़ी ताकत थी, क्योंकि व्यक्ति की अकेली ताकत थी, व्यक्ति से लड़ना था, पास के कबीले से हारना संभव हो जाता अगर संख्या कम हो जाती। इसलिए प्रत्येक कबीला संख्या को बढ़ाने की कोशिश करता था। संख्या जितनी बढ़ जाए उतना कबीला मजबूत हो जाता था। इसलिए संख्या का बड़ा गौरव था। हम कहते थे--हम इतने करोड़ हैं! उसमें बड़ी अकड़ थी, उसमें बड़ा अहंकार था।
लेकिन वक्त बदल गया, हालतें बिलकुल उलटी हो गईं। लेकिन नियम पुराना चल रहा है। हालतें बिलकुल उलटी हो गई हैं। अब जो जितनी ज्यादा संख्या में है, उतने जल्दी पृथ्वी पर मरने के उसके उपाय हैं। तब जो जितनी ज्यादा संख्या में था, उतना ज्यादा उसके जीतने की संभावना थी, बचने की संभावना थी। आज संख्या जितनी ज्यादा होगी, उतने मरने का हम अपने हाथ से उपाय कर रहे हैं।
आज संख्या का बढ़ना सुसाइडल है, आत्मघाती है। आज कोई समझदार मुल्क अपनी संख्या नहीं बढ़ा रहा है। बल्कि समझदार मुल्कों में संख्या गिरने तक की संभावना पैदा हो गई है, जैसे फ्रांस में। फ्रांस की सरकार थोड़ी चिंतित हो गई है। क्योंकि संख्या कहीं ज्यादा न गिर जाए, यह भी डर पैदा हो गया है। लेकिन कोई समझदार मुल्क अपनी संख्या नहीं बढ़ा रहा है। संख्या न बढ़ाने की समझदारी के पीछे बहुत कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि अगर जीवन में सुख चाहिए, अधिकतम सुख चाहिए, तो न्यूनतम लोग चाहिए। अगर दीनता चाहिए, दुख चाहिए, गरीबी चाहिए, बीमारी चाहिए, पागलपन चाहिए, तो अधिकतम लोग पैदा करना उचित है।
जब एक बाप अपने पांचवें या छठवें बच्चे के बाद भी बच्चा पैदा कर रहा है, तो वह अपने बेटे का बाप नहीं है, दुश्मन है! क्योंकि वह उसे एक ऐसी दुनिया में धक्का दे रहा है जहां सिर्फ गरीबी बांट सकेगा वह; दुख बांट सकेगा; दुख बढ़ा सकेगा; गरीबी बढ़ा सकेगा। वह बेटे के प्रति प्रेम जाहिर नहीं कर रहा है। क्योंकि अगर बेटे के प्रति प्रेम जाहिर हो तो वह यह सोचेगा--इस बेटे को मिल क्या सकता है? इसको पैदा करना अब प्रेम नहीं है, अब सिर्फ नासमझी है और दुश्मनी है।
आज दुनिया के समझदार मां-बाप तो बच्चे इतने पैदा करेंगे, इस बात को सोच कर कि आने वाली दुनिया में संख्या सुख की दुश्मन हो सकती है। कभी संख्या सुख की मित्र थी। कभी संख्या बढ़ने से सुख बढ़ता था। आज संख्या बढ़ने से दुख बढ़ता है। स्थितियां बिलकुल बदल गई हैं। आज जिन लोगों को भी इस जगत में सुख की, मंगल की कामना है, उन्हें यह चिंता करनी ही पड़ेगी कि संख्या निरंतर कम होती चली जाए।
लेकिन हमारा एक देश है, हम अपने को अभागा मान सकते हैं। हमें उसका कोई भी बोध नहीं है। हमें उसका कोई भी खयाल नहीं है। उन्नीस सौ सैंतालीस में हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ था, तब तो किसी ने सोचा भी न होगा कि बीस साल में हम, पाकिस्तान में जितने लोग गए थे, उनसे ज्यादा लोग पैदा कर लेंगे। हमने एक पाकिस्तान फिर पैदा कर लिया। उन्नीस सौ सैंतालीस में जितनी हमारी संख्या थी पूरे हिंदुस्तान-पाकिस्तान की मिल कर, आज अकेले हिंदुस्तान की उससे ज्यादा है। यह संख्या अगर इसी अनुपात में बढ़ी चली जाती है और फिर दुख बढ़ता है, दारिद्रय बढ़ता है, दीनता बढ़ती है, बेकारी बढ़ती है, बीमारी बढ़ती है, तो हम परेशान होते हैं, उससे हम लड़ते हैं। और हम कहते हैं कि बेकारी नहीं चाहिए, और हम कहते हैं कि गरीबी नहीं चाहिए, और हम कहते हैं कि हर आदमी को जीवन की सब सुविधाएं मिलनी चाहिए। और हम यह सोचते ही नहीं कि जो हम कर रहे हैं उससे हर आदमी को जीवन की सारी सुविधाएं कभी भी नहीं मिल सकती हैं। और जो हम कर रहे हैं उससे हमारे बेटे बेकार रहेंगे। और जो हम कर रहे हैं उससे भिखमंगी बढ़ेगी, गरीबी बढ़ेगी।
लेकिन धर्मगुरु हैं इस मुल्क में, जो समझाते हैं कि यह ईश्वर के विरोध में है यह बात, संतति-नियमन की बात ईश्वर के विरोध में है।
इसका यह मतलब हुआ कि ईश्वर चाहता है कि लोग दीन रहें, दरिद्र रहें, भीख मांगें, गरीब हों, भूखे मरें सड़कों पर। अगर ईश्वर यही चाहता है तो ऐसे ईश्वर की चाह को भी इनकार करना पड़ेगा।
लेकिन ईश्वर ऐसा कैसे चाह सकता है? लेकिन धर्मगुरु चाह सकते हैं। क्योंकि एक बड़े मजे की बात है, दुनिया में जितना दुख हो, धर्मगुरु की दुकान उतनी ही ठीक से चलती है। दुनिया में सुख हो तो उसकी दुकान चलनी बंद हो जाती है। धर्मगुरु की दुकान दुनिया के दुख पर निर्भर है। सुखी और आनंदित आदमी धर्मगुरु की तरफ नहीं जाता। स्वस्थ और प्रसन्न आदमी धर्मगुरु की तरफ नहीं जाता। दुखी, बीमार, परेशान धर्मगुरु की तलाश करता है।
हां, सुखी और आनंदित आदमी धर्म की खोज कर सकता है, लेकिन धर्मगुरु की नहीं। सुखी और आनंदित व्यक्ति अपनी तरफ से सीधा परमात्मा की खोज पर जा सकता है, लेकिन किसी का सहारा मांगने नहीं जाता। दुखी और परेशान आदमी आत्मविश्वास खो देता है। वह किसी का सहारा चाहता है, किसी गुरु के चरण चाहता है, किसी का हाथ चाहता है, किसी का मार्गदर्शन चाहता है।
दुनिया में जब तक दुख है तभी तक धर्मगुरु टिक सकता है। धर्म तो टिकेगा सुखी हो जाने के बाद भी, लेकिन धर्मगुरु के टिकने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए धर्मगुरु चाहेगा कि दुख खत्म न हो जाए, दुख समाप्त न हो जाए। अजीब-अजीब धंधे हैं!
मैंने सुना है, एक रात एक होटल में बहुत देर तक कुछ मित्र आकर शराब पीते रहे, भोजन करते रहे। आधी रात वे विदा होने लगे तो मैनेजर ने होटल के अपनी पत्नी से कहा कि ऐसे भले लोग, ऐसे प्यारे लोग, ऐसे दिलफेंक लोग, ऐसे खर्च करने वाले लोग अगर रोज आएं तो हमारी जिंदगी में आनंद ही आनंद हो जाए। चलते वक्त मेहमानों से उसने कहा कि आप कभी-कभी आया करें! बड़ी कृपा रही कि आप आए, हम बड़े आनंदित हुए। जिस आदमी ने पैसे चुकाए थे उसने कहा, भगवान से प्रार्थना करना, हमारा धंधा ठीक चले, हम रोज आते रहेंगे।
मैनेजर ने पूछा, लेकिन आपका धंधा क्या है? उसने कहा, यह मत पूछो! तुम तो सिर्फ प्रार्थना करना कि हमारा धंधा ठीक चलता रहे। फिर भी उसने कहा, कृपा कर बता तो दें कि धंधा आपका क्या है? उसने कहा, मैं मरघट पर लकड़ी बेचने का काम करता हूं। हमारा धंधा रोज चलता रहे, हम बराबर आते रहें। कभी-कभी ऐसा होता है, धंधा बिलकुल ही नहीं चलता, कोई गांव में मरता ही नहीं, लकड़ी नहीं बिकती। जिस दिन गांव में ज्यादा लोग मरते हैं, उस दिन लकड़ी ज्यादा बिक जाती है, धंधा ठीक चल जाता है, हम चले आते हैं।
आपने सुना होगा न, डाक्टर भी कहते हैं, जब मरीज ज्यादा होते हैं तो वे कहते हैं--सीजन चल रहा है।
आश्चर्य की बात है! अगर किन्हीं लोगों का धंधा लोगों के बीमार होने से चलता हो, तो फिर बीमारी मिटानी बहुत मुश्किल हो जाएगी। अब यह डाक्टर को हमने उलटा काम सौंपा हुआ है। उसको हमने काम सौंपा हुआ है कि वह लोगों की बीमारी मिटाए; और उसकी पूरी आकांक्षा भीतर यह है कि लोग बीमार हों, क्योंकि उसका व्यवसाय बीमारी पर खड़ा है।
इसलिए रूस में क्रांति के बाद उन्होंने जो बड़े काम किए उनमें एक काम यह था कि डाक्टर के काम को उन्होंने नेशनेलाइज कर दिया। उन्होंने कहा, डाक्टर का काम व्यक्तिगत कभी भी करना खतरनाक है। क्योंकि डाक्टर का काम कंट्राडिक्ट्री हो जाएगा, विरोधी हो जाएगा। ऊपर से बीमार को चाहेगा कि ठीक करे और भीतर से आकांक्षा रखेगा कि बीमार बीमार रहे, क्योंकि उसका धंधा तो बीमार के बीमार रहने पर चलेगा। इसलिए उन्होंने डाक्टर का धंधा, प्राइवेट प्रैक्टिस, बिलकुल रूस में बंद कर दी। अब डाक्टर को तनख्वाह मिलती है। बल्कि उन्होंने एक नया प्रयोग किया, और वह यह प्रयोग किया कि अगर एक डाक्टर को जो एरिया दिया गया है, जो क्षेत्र दिया गया है, उसमें लोग ज्यादा बीमार होते हैं, तो डाक्टर से एक्सप्लेनेशन पूछा जा सकता है कि इस इलाके में इतने लोग ज्यादा क्यों बीमार हुए? अब डाक्टर को इसकी फिकर रखनी पड़ती है कि कोई बीमार न पड़े। तो रूस के स्वास्थ्य में बुनियादी फर्क पड़े।
चीन में माओ ने आते से ही वकील के धंधे को नेशनेलाइज कर दिया। उसने कहा, वकील का धंधा खतरनाक है। क्योंकि वकील का धंधा भी कंट्राडिक्ट्री है। है तो वह इसलिए कि न्याय उपलब्ध हो, और उसकी सारी चेष्टा यह रहती है कि उपद्रव हों, चोरियां हों, हत्याएं हों। क्योंकि उस पर उसका धंधा निर्भर करता है, अगर वे न हों तो उसके तो जीवन का आधार टूट जाए।
धर्मगुरु का धंधा भी बड़ा विरोधी है। वह चेष्टा तो यह करता है कि लोग शांत हों, आनंदित हों, सुखी हों। लेकिन उसका धंधा इस पर निर्भर है कि लोग अशांत रहें, दुखी हों, बेचैन हों, परेशान हों। क्योंकि अशांत लोग ही उसके पास पूछने आते हैं कि हम शांत कैसे हों? दुखी आदमी उसके पास आता है कि हमारा दुख कैसे मिटे? दीन-दरिद्र उसके पास आता है कि हमारी दीनता-दरिद्रता का अंत कैसे हो?
धर्मगुरु का धंधा निर्भर है लोगों के बढ़ते हुए दुख पर। इसलिए जब भी दुनिया में दुख बढ़ जाता है तब धर्मगुरु एकदम प्रभावी हो जाता है। अनैतिकता बढ़ जाए तो धर्मगुरु प्रभावी हो जाता है, क्योंकि वह नीति का उपदेश देने लगता है। धर्मगुरु निर्भर ही इस बात पर है।
इसलिए धर्मगुरु तो विरोध करेगा। वह कहेगा कि नहीं; अगर लोग कम होंगे, सुखी हो सकेंगे, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
और भी एक ध्यान रखने की बात है कि धर्मगुरु सारी बातों को ईश्वर पर थोप देता है। और सारी दुनिया के सब धर्मगुरुओं ने सब बातें ईश्वर पर थोप दी हैं। और ईश्वर कभी गवाही देने आता नहीं कि उसकी मर्जी क्या है! तो वह क्या चाहता है! उसकी क्या इच्छा है!
इंग्लैंड और जर्मनी अगर युद्ध में हों, तो इंग्लैंड का धर्मगुरु समझाता है कि ईश्वर की इच्छा है इंग्लैंड को जिताना और जर्मनी का धर्मगुरु समझाता है कि ईश्वर की इच्छा है जर्मनी को जिताना। जर्मनी में उसी भगवान से प्रार्थनाएं की जाती हैं कि अपने देश को जिताओ! और इंग्लैंड में पादरी और पुरोहित प्रार्थना करता है कि हे भगवान, अपने देश को जिताओ!
ईश्वर की इच्छा पर हम अपनी इच्छा थोपते रहे हैं। ईश्वर बेचारा बिलकुल चुप है, उसका कुछ पता नहीं चलता कि उसकी इच्छा क्या है। अच्छा हो कि हम ईश्वर पर अपनी इच्छाएं न थोपें, बल्कि हम जीवन को सोचें, समझें और वैज्ञानिक रास्ता निकालें।
यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि जितना समाज समृद्ध होता है उतने कम बच्चे पैदा करता है। गरीब समाज ज्यादा बच्चे पैदा करता है। दीन और दरिद्र और भिखारी समाज और ज्यादा बच्चे पैदा करता है। कुछ कारण हैं। जितना कोई समृद्ध होता जाता है...आपने कभी न सुना होगा, अक्सर तो यह होता है, हिंदुस्तान में अक्सर होता है कि बड़े आदमी को अक्सर बेटे गोद लेने पड़ते हैं। जितना समृद्ध कोई होता चला जाता है उतने बच्चे कम पैदा होते हैं। जितना दुखी, दीन, दरिद्र होता है उतने ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं। कुछ कारण है। कारण यह है कि दुखी, दीन, दरिद्र जीवन में और किसी मनोरंजन, और किसी सुख की सुविधा न होने से आदमी सिर्फ सेक्स और यौन में ही सुख लेने लगता है, और कोई उपाय नहीं है।
एक अमीर संगीत भी सुनता है, साहित्य भी पढ़ता है, चित्र भी देखता है, टेलीविजन भी देखता है, घूमने भी जाता है, पहाड़ की यात्रा भी करता है, उसकी शक्ति बहुत दिशाओं में बह जाती है। एक गरीब आदमी के पास शक्ति बहने का कोई उपाय नहीं रहता, उसके मनोरंजन का कोई उपाय नहीं। क्योंकि सब मनोरंजन खर्चीले हैं, सिर्फ एक सेक्स ऐसा मनोरंजन है जो मुफ्त उपलब्ध है। इसलिए गरीब आदमी बच्चे इकट्ठे करता चला जाता है, वह बच्चे पैदा करता चला जाता है।
गरीब आदमी इतने बच्चे इकट्ठा कर लेता है कि और गरीबी बढ़ती चली जाती है, एक विसियस सर्किल पैदा हो जाता है। गरीब ज्यादा बच्चे पैदा करता है। गरीब के बच्चे और गरीब होते हैं, वे और बच्चे पैदा करते जाते हैं। और देश गरीब से गरीब होता चला जाता है।
किसी न किसी तरह गरीब आदमी की इस भ्रामक स्थिति को तोड़ना जरूरी है। इसे तोड़ना ही पड़ेगा, अन्यथा गरीबी का कोई पारावार न रहेगा, गरीबी इतनी बढ़ जाएगी कि जीना असंभव हो जाएगा। इस देश में तो बढ? ही गई है और जीना करीब-करीब असंभव है। कोई मान ही नहीं सकता कि हम जी रहे हैं। अच्छा हो कि कहा जाए कि हम धीरे-धीरे मर रहे हैं।
जीने का क्या अर्थ है? जीने का इतना ही अर्थ है कि हम एक्झिस्ट करते हैं, हमारा अस्तित्व है। हम दो रोटी खा लेते हैं, पानी पी लेते हैं और कल तक के लिए और जी जाते हैं। लेकिन जीना ठीक अर्थों में तभी उपलब्ध होता है, जब एफ्लुएंस, समृद्धि उपलब्ध हो। जीने का अर्थ है, ओवर फ्लोइंग; जीने का अर्थ यह है, जब कोई चीज हमारे ऊपर से बहने लगे।
एक फूल है। आपने कभी खयाल किया कि फूल कैसे खिलता है पौधे पर? अगर पौधे को ठीक खाद न मिले, ठीक पानी न मिले, तो पौधा जिंदा रहेगा, लेकिन फूल नहीं खिलेगा। फूल ओवर फ्लोइंग है। जब पौधे में इतनी शक्ति इकट्ठी हो जाती है कि अब पत्तों को, जड़ों को, शाखाओं को कोई जरूरत नहीं रह जाती, कुछ अतिरिक्त जब पौधे के पास इकट्ठा हो जाता है, तब फूल खिलता है। फूल जो है वह अतिरिक्त है। इसीलिए फूल सुंदर है। वह अतिरेक है, वह बहाव है, वह किसी चीज का बहुत हो जाने से बहाव है।
जीवन में सभी सौंदर्य अतिरेक है, सभी सौंदर्य ओवर फ्लोइंग है, ऊपर से बह जाना है। जीवन का सब आनंद भी अतिरेक है। जीवन में जो भी श्रेष्ठ है वह सब ऊपर से बहा हुआ है। महावीर और बुद्ध राजाओं के बेटे हैं, कृष्ण और राम भी राजाओं के बेटे हैं। यह ओवर फ्लोइंग है। ये फूल जो खिले ये गरीब के घर में नहीं खिल सकते थे। कोई महावीर गरीब के घर में पैदा नहीं होता, और कोई बुद्ध भी गरीब के घर में पैदा नहीं होता, और कोई राम भी नहीं, और कोई कृष्ण भी नहीं।
गरीब के घर में ये फूल नहीं खिल सकते; गरीब सिर्फ जी सकता है। उसका जीना इतना न्यूनतम है कि उसमें फूल खिलने का उपाय नहीं। वह गरीब पौधा है। वह किसी तरह जी लेता है, किसी तरह उसके पत्ते भी हो जाते हैं, किसी तरह शाखाएं भी निकल आती हैं। न तो वह पूरी ऊंचाई ग्रहण कर पाता है, न सूरज को छू पाता है, न आकाश की तरफ उठ पाता है, न उसमें फूल खिल पाते हैं। क्योंकि फूल तो तभी खिल सकते हैं जब पौधे के पास जीने से अतिरिक्त शक्ति इकट्ठी हो जाए। जीने से जो अतिरिक्त इकट्ठा होता है तभी फूल खिलते हैं।
ताजमहल भी वैसा ही फूल है, वह अतिरेक से निकला हुआ फूल है। जगत में जो भी सुंदर है, साहित्य है, काव्य है, संगीत है, वह सब अतिरेक से निकले हुए फूल हैं।
गरीब की जिंदगी में फूल कैसे खिल सकते हैं? लेकिन हम रोज अपने को गरीब करने का उपाय करते चले जाएं। और ध्यान रहे, जीवन में जो सबसे बड़ा फूल है परमात्मा का, वह संगीत, साहित्य, और काव्य, और चित्र, और जीवन के छोटे आनंद से भी ज्यादा जब शक्ति ऊपर इकट्ठी होती है तब वह परम फूल खिलता है परमात्मा का। लेकिन गरीब समाज उस फूल के लिए कैसे उपाय बना सकता है?
गरीब समाज रोज दीन होता है, रोज हीन होता चला जाता है। गरीब बाप दो बेटे पैदा करता है तो अपने से दुगने गरीब पैदा कर जाता है, उसकी गरीबी भी बंट जाती है। हिंदुस्तान कई सैकड़ों सालों से अमीरी नहीं बांट रहा है, सिर्फ गरीबी बांट रहा है। जब एक बाप अपने चार बेटों में विभाजन करता है तो बाप की संपत्ति नहीं बंटती--संपत्ति तो है ही नहीं; बाप ही गरीब था, बाप के पास ही कुछ न था, वह खुद ही कभी नहीं जी पाया कि अतिरेक का फूल खिल पाए--बाप सिर्फ अपनी गरीबी बांट देता है और चार और चौगुने गरीब समाज में खड़ा कर जाता है। और विसियस सर्किल, दुष्टचक्र यह है कि वे चार बेटे गरीब होने की वजह से सेक्स में ही रस खोजेंगे और बच्चे पैदा करते चले जाएंगे।
हां, धर्मगुरु सिखाते हैं ब्रह्मचर्य। वे कहते हैं कि गरीब को भी अगर बच्चे नहीं पैदा करना है तो वह ब्रह्मचर्य का पालन करे। मैंने कहा कि मनोरंजन के सब साधन उसे बंद हैं। और धर्मगुरु कहते हैं कि यह एक साधन और मनोरंजन का उसके जीवन में थोड़े रस का है, वह इसको भी ब्रह्मचर्य से बंद कर दे। तब तो गरीब आदमी मर गया! वह चित्र देखने जाता है तो रुपया खर्च होता है, वह संगीत सुनने जाता है तो रुपया खर्च होता है, वह किताब पढ़ने जाता है तो रुपया खर्च होता है। एक सस्ता और मुफ्त मिला साधन था, धर्मगुरु कहता है, ब्रह्मचर्य से वह उसे भी बंद कर दे।
इसलिए धर्मगुरु समझाते रहते हैं ब्रह्मचर्य की बात, कोई उनकी सुनता नहीं। खुद धर्मगुरु ही नहीं सुनते हैं अपनी बात। कोई नहीं सुनता; वह बकवास बहुत लंबी चल चुकी, उससे कोई परिणाम नहीं हुआ, उससे कोई हित भी नहीं हुआ।
विज्ञान ने ब्रह्मचर्य की जगह एक नया उपाय दिया जो सर्वसुलभ हो सकता है। वह है: संतति-नियमन के कृत्रिम साधन। जिनसे व्यक्ति को ब्रह्मचर्य में बंधने की कोई जरूरत नहीं। जीवन के द्वार खुले रह सकते हैं, अपने को सप्रेस करने की और दमन करने की भी कोई जरूरत नहीं।
और यह भी ध्यान रहे, जो व्यक्ति एक बार अपनी यौन की प्रवृत्ति को जोर से दबा कर दबा दे अपने भीतर, वह व्यक्ति सदा के लिए किन्हीं गहरे अर्थों में रुग्ण हो जाता है। यौन की वृत्ति से मुक्त हुआ जा सकता है, लेकिन यौन की वृत्ति को दबा कर कोई कभी मुक्त नहीं होता। यौन की वृत्ति से मुक्त हुआ जा सकता है। अगर यौन में निकलने वाली शक्ति किसी और आयाम में, किसी और दिशा में प्रवाहित हो जाए, तो मुक्त हुआ जा सकता है।
एक वैज्ञानिक मुक्त हो जाता है बिना किसी ब्रह्मचर्य के। बिना राम-राम का पाठ किए, हनुमान चालीसा पढ़े, एक वैज्ञानिक मुक्त हो जाता है। क्योंकि सारी शक्ति की ऊर्जा, सारी ऊर्जा विज्ञान की खोज में लग जाती है।
एक चित्रकार भी मुक्त हो सकता है, एक संगीतज्ञ भी मुक्त हो सकता है, एक परमात्मा का खोजी भी मुक्त हो सकता है।
ध्यान रहे, लोग कहते हैं--ब्रह्मचर्य शर्त है परमात्मा की खोज की।
मैं कहता हूं, यह बात गलत है। हां, परमात्मा की खोज में जाने वाला ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाता है। यह परिणाम है। अगर कोई परमात्मा की खोज में पूरी तरह चला गया, तो उसकी सारी शक्तियां इतनी लीन हो जाती हैं कि उसके पास यौन की दिशा में जाने के लिए शक्ति का न बहाव बचता है, न आकांक्षा बचती है। ब्रह्मचर्य से कोई परमात्मा की तरफ नहीं जाता, लेकिन परमात्मा की तरफ जाने वाला ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाता है।
लेकिन अगर हम किसी को कहें कि वह बच्चे रोकने के लिए ब्रह्मचर्य का उपयोग करे...। गांधी जी निरंतर वही कहते रहे। और भी इस मुल्क के महात्मा यही कहते हैं कि ब्रह्मचर्य का उपयोग करो।
लेकिन गांधी जी जैसे बढ़िया आदमी भी ठीक-ठीक अर्थों में ब्रह्मचर्य को कभी उपलब्ध नहीं हो सके। वे भी कहते हैं कि मेरे स्वप्नों में भी कामवासना उतर आती है। वे भी कहते हैं कि दिन तो मैं किसी तरह संयम रख पाता हूं, लेकिन सपनों में सब संयम टूट जाता है। और जीवन के अंतिम दिनों में एक स्त्री को बिस्तर पर लेकर सोकर वे प्रयोग करते थे कि कहीं अभी भी तो कामवासना शेष नहीं रह गई? सत्तर वर्ष की उम्र में एक युवती को रात बिस्तर पर सोते थे लेकर, यह जानने के लिए कि कहीं कामवासना शेष रह गई कि नहीं? मुझे पता नहीं कि क्या परिणाम हुआ, क्या वे जान पाए। लेकिन एक बात तो पक्की है कि उन्हें शक रहा होगा सत्तर वर्ष की उम्र तक कि ब्रह्मचर्य उपलब्ध नहीं हुआ। अन्यथा इस परीक्षा की कोई जरूरत न थी।
ब्रह्मचर्य की बात एकदम अवैज्ञानिक, अव्यावहारिक है। कृत्रिम साधन का उपयोग किया जा सकता है। और मनुष्य के चित्त पर बिना कोई दबाव दिए उसका उपयोग किया जा सकता है।
कुछ प्रश्न हैं जो उठाए जाते हैं, उनके भी मैं उत्तर देना पसंद करूंगा।

एक प्रश्न अभी-अभी मैं आया तो एक मित्र ने कहा कि अगर यह बात समझाई जाए, तो जो समझदार हैं, बुद्धिजीवी हैं, इंटेलिजेंसिया है, मुल्क का जो अभिजात वर्ग है, बुद्धिमान, समझदार, वह तो रोक लेगा, वह तो संतति-नियमन कर देगा, परिवार-नियोजन कर लेगा। लेकिन जो दीन-हीन है, गरीब है, बेपढ़ा-लिखा है, गांव का है, ग्राम्य है, जो सुनता ही नहीं किसी की, समझता भी नहीं, वह बच्चे पैदा करता चला जाएगा। तो लंबे अरसे में परिणाम यह होगा कि बुद्धिमानों के बच्चे कम हो जाएंगे और गैर-बुद्धिमानों के बच्चों की संख्या बढ़ जाएगी, जो कि अहितकर हो सकता है।


यह प्रश्न उचित ही है उठाना। इसे एक तरह से और भी धर्मगुरु उठाते हैं। वे यह कहते हैं कि मुसलमान तो सुनते नहीं; ईसाई सुनते नहीं; कैथलिक मानते नहीं कि संतति-नियमन करना चाहिए, वे कहते हैं हमारे धर्म के विरोध में है; मुसलमान फिक्र नहीं करता। हिंदू अगर फिक्र करेगा, तो हिंदू धर्मगुरु कहते हैं कि हिंदू सिकुड़ते चले जाएंगे, मुसलमान और ईसाई बढ़ते चले जाएंगे; पचास साल में मुश्किल हो जाएगी, हिंदू ना-कुछ हो जाएंगे और मुसलमान और ईसाई बढ़ जाएंगे।
इस बात में भी थोड़ा अर्थ है। इन दोनों के संबंध में मैं यह कहना चाहूंगा कि पहली तो बात यह है कि संतति-नियमन अनिवार्य होना चाहिए, कंपल्सरी; वालेंटरी नहीं। जब तक हम एक-एक आदमी को समझाने की कोशिश करेंगे कि तुम्हें संतति-नियमन करवाना चाहिए, तब तक इतनी देर हो चुकी होगी कि संतति-नियमन का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।
मैं अभी एक घटना पढ़ रहा था। एक अमेरिकी विचारक ने लिखा है कि इस वक्त सारी दुनिया में जितने डाक्टर परिवार-नियोजन में सहयोगी हो सकते हैं, अगर वे सब के सब लाकर भी एशिया में लगा दिए जाएं और वे बिलकुल न सोएं, सुबह से लेकर दूसरी सुबह तक आपरेशंस करते रहें, तो भी एशिया को उस स्थिति में लाने के लिए, जहां जनसंख्या सीमा में आ जाए, पांच सौ वर्ष लगेंगे। और पांच सौ वर्षों में तो हमने इतने पैदा कर दिए होंगे बच्चे कि जिसका कोई हिसाब नहीं रह जाएगा।
ये दोनों ही संभावनाएं नहीं हैं। सारी दुनिया के डाक्टर एशिया में लाकर लगाए नहीं जा सकते। और लगा भी दिए जाएं तो पांच सौ वर्षों में यह संभावना अगर हो पाए, तो पांच सौ वर्षों में हम खाली थोड़े ही बैठे रहेंगे, हम प्रतीक्षा थोड़े ही करते रहेंगे पांच सौ वर्षों तक कि जब आपके पांच सौ वर्ष पूरे हो जाएं तब तक हम चुप बैठे रहें। पांच सौ वर्षों में हम क्या कर डालेंगे!
नहीं, यह संभव नहीं मालूम होता। समझाने-बुझाने के प्रयोग से तो रास्ता दिखाई नहीं पड़ता। संतति-नियमन अनिवार्य करना होगा।
और यह अलोकतांत्रिक नहीं है। हम हत्या को अनिवार्य किए हुए हैं कि कोई हत्या नहीं कर सकता। यह अलोकतांत्रिक नहीं है। हम कहते हैं कि कोई किसी आदमी को हत्या का हक नहीं है। लेकिन यह डेमोक्रेसी के खिलाफ नहीं है।
अभी मैं अहमदाबाद में बोल रहा था तो मुझे कई पत्र आए कि आप कहते हैं अनिवार्य कर दें संतति-नियमन! तो यह तो लोकतंत्र का विरोध है।
मैंने उनको कहा कि एक आदमी की हत्या करने से जितना नुकसान होता है, आज उससे हजार गुना ज्यादा नुकसान एक बच्चे को पैदा करने से होता है। एक आदमी आत्महत्या कर लेता है उससे जितना नुकसान होता है, उतना एक आदमी एक बच्चे को पैदा करता है उससे हजार गुना नुकसान होता है।
संतति-नियमन अनिवार्य होना चाहिए। तब गरीब और अमीर और बुद्धिमान और गैर-बुद्धिमान का सवाल नहीं रह जाता। अनिवार्य होना चाहिए। तब हिंदू, मुसलमान और ईसाई का सवाल नहीं रह जाता।
यह देश बड़ा अजीब है। हम कहते हैं कि हम धर्म-निरपेक्ष हैं, और फिर भी सब चीजों में धर्म का विचार करते हैं। सरकार भी विचार रखती है! हिंदू कोड बिल बना हुआ है, वह सिर्फ हिंदू स्त्रियों पर ही लागू होता है! यह बड़ी अजीब बात है। सरकार जब धर्म-निरपेक्ष है तो मुसलमान स्त्रियों को अलग करके सोचे, यह बात ही गलत है। सरकार को सोचना चाहिए स्त्रियों के संबंध में। मुसलमान को हक है कि वह चार शादियां करे, किंतु हिंदू को हक नहीं! तो मानना क्या होगा? यह धर्म-निरपेक्ष राज्य कैसे हुआ? हिंदुओं के लिए अलग नियम और मुसलमान के लिए अलग नियम नहीं होना चाहिए।
नहीं; सरकार को सोचना चाहिए--स्त्री के लिए क्या उचित है? क्या यह उचित है कि चार स्त्रियां एक आदमी की पत्नी बनें? वह हिंदू हो या मुसलमान, यह इररेलेवेंट है, यह असंगत है, इससे कोई संबंध नहीं है। चार स्त्रियां एक आदमी की पत्नियां बनें, यह बात ही अमानवीय है। इसमें सवाल नहीं है कि कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है। यह अपनी-अपनी इच्छा की बात है।
फिर तो कल हम यह भी कह सकते हैं कि मुसलमान को हत्या करने में थोड़ी सुविधा देनी चाहिए। ईसाई को थोड़ी या हिंदू को थोड़ी सुविधा देनी चाहिए हत्या करने में।
नहीं; हमें व्यक्ति और आदमी को सोच कर विचार करने की जरूरत है। अनिवार्य होना चाहिए। यह सवाल मुल्क का है, पूरे मुल्क का है। उसमें हिंदू, मुसलमान और ईसाई अलग नहीं किए जा सकते। उसमें अमीर और गरीब अलग नहीं किए जा सकते।
दूसरी बात विचारणीय है कि हमारे मुल्क में, इस देश में हमारी प्रतिभा निरंतर क्षीण होती चली गई है। अगर हम आगे भी ऐसे ही बच्चे पैदा करना जारी रखते हैं तो संभावना है कि हम सारे जगत में प्रतिभा में धीरे-धीरे और पिछड़ते चले जाएं। अगर इस जाति को ऊंचा उठना हो--स्वास्थ्य में, सौंदर्य में, चिंतना में, प्रतिभा में, मेधा में--तो हमें प्रत्येक आदमी को बच्चे पैदा करने का हक नहीं देना चाहिए।
पहली तो बात मैं यह मानता हूं कि संतति-नियमन अनिवार्य होना चाहिए।
दूसरी बात मैं यह मानता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति को बच्चे पैदा करने का हक जब तक विशेषज्ञ न दे दें, तब तक बच्चे पैदा करने का हक किसी को भी नहीं रह जाना चाहिए। बच्चे पैदा करने के हक के बाद दो बच्चे कोई पैदा कर सकता है, लेकिन हक उसे मिलना चाहिए। उसके लिए हमें वैसे ही लाइसेंस देने चाहिए जो मेडिकल बोर्ड जब तक लाइसेंस न दे, कोई आदमी बच्चे पैदा नहीं कर सकेगा।
कितने कोढ़ी बच्चे पैदा किए जाते हैं, कितने ईडियट बच्चे पैदा किए जाते हैं, कितने संक्रामक रोगों से भरे हुए लोग बच्चे पैदा किए जाते हैं। और उनके बच्चे पैदा होते चले जाते हैं और बढ़ते चले जाते हैं। और इस देश में दया और दान करने वाले लोग हैं कि अगर वे खुद अपने बच्चे न पाल सकते हों तो हम उनके लिए अनाथालय खोल कर उनके बच्चों को पालने का भी इंतजाम करते हैं। यह ऊपर-ऊपर तो दान और दया दिखाई पड़ रही है, लेकिन ये बड़े खतरनाक लोग हैं जो ऐसे इंतजाम कर रहे हैं। इंतजाम तो यह होना चाहिए कि स्वस्थ, सुंदर, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली, संक्रामक रोगों से ग्रसित नहीं, ऐसे स्त्री और पुरुष को ही बच्चा पैदा करने का हक होना चाहिए।
असल में शादी के पहले ही हर गांव में, हर नगर में सलाहकार समिति होनी चाहिए डाक्टर्स की, विचारशील मनोवैज्ञानिकों की, साइकोएनालिस्ट्स की, जो प्रत्येक व्यक्ति को यह हक दे कि तुम अगर दोनों शादी करते हो तो तुम बच्चे पैदा कर सकोगे या नहीं कर सकोगे, यह बता दे। शादी करने का हक प्रत्येक को है। ऐसे दो लोग शादी कर सकते हैं जिनको कि सलाह न दी जाए। वे शादी कर सकते हैं, लेकिन बच्चे पैदा नहीं कर सकते।
हम जानते हैं भलीभांति कि पौधों पर क्रास ब्रीडिंग से कितना लाभ उठाया जा सकता है। एक माली अच्छी तरह जानता है कि नये बीज कैसे विकसित किए जा सकते हैं; गलत बीजों को कैसे हटाया जा सकता है। छोटे बीज कैसे अलग किए जा सकते हैं; बड़े बीज कैसे बचाए जा सकते हैं। एक माली सभी बीज नहीं बो देता है; बीजों को छांटता है। लेकिन हम अब तक मनुष्य-जाति के साथ उतनी समझदारी नहीं कर सके जो एक साधारण सा माली अपने बगीचे में करता है।
यह भी आपको खयाल हो कि जब माली को एक बड़ा फूल पैदा करना होता है तो वह छोटे फूलों को पहले ही काट देता है। अगर आपने देखा हो, कभी प्रदर्शनी फूलों की देखी हो, तो जो फूल जीत जाते हैं उनके जीतने का कारण क्या है? उनका कारण यह है कि माली ने होशियारी की; एक पौधे पर एक ही फूल पैदा किया, बाकी फूल पैदा ही नहीं होने दिए; बाकी फूलों को उसने जड़ से ही अलग कर दिया। तो फूल की, पौधे की सारी शक्ति एक ही फूल में प्रवेश कर गई।
एक आदमी बारह बच्चे पैदा करता है तो कभी भी बहुत प्रतिभाशाली बच्चे पैदा नहीं कर सकता। अगर एक ही बच्चा पैदा करे तो उसके बारह बच्चों की सारी प्रतिभा एक में भी प्रवेश कर सकती है।
और प्रकृति के बड़े अदभुत नियम हैं। प्रकृति के नियम बहुत हैरानी के हैं। प्रकृति बड़े अजीब ढंग से काम करती है। जब युद्ध होता है दुनिया में, तो युद्ध के बाद लोगों की संतति पैदा करने की क्षमता बढ़ जाती है। यह बड़ी हैरानी की बात है! युद्ध से क्या लेना-देना? जब भी युद्ध होता है तब जन्म-दर बढ़ जाती है। पहले महायुद्ध के बाद जन्म-दर एकदम ऊपर उठ गई, क्योंकि पहले महायुद्ध में कोई साढ़े तीन करोड़ लोग मर गए। प्रकृति कैसे इंतजाम रखती है, यह भी हैरानी की बात है! प्रकृति को कैसे पता चला कि युद्ध हो गया और अब बच्चों की जन्म-दर बढ़ जानी चाहिए! दूसरे महायुद्ध में भी कोई साढ़े सात करोड़ लोग मरे और जन्म-दर एकदम से बढ़ गई। महामारी के बाद, हैजे के बाद, प्लेग के बाद लोगों की जन्म-दर बढ़ जाती है। प्रकृति का अपना आंतरिक इंतजाम है।
अगर एक आदमी पचास बच्चे पैदा करे तो उसकी शक्ति पचास पर बिखर जाती है। अगर वह एक ही बच्चे पर केंद्रित करे तो उसकी शक्ति, उसकी प्रतिभा प्रकृति एक ही बच्चे में भी डाल देती है।
मैं देख रहा था तो बहुत हैरान हुआ! जब बच्चे पैदा होते हैं तो सौ लड़कियां पैदा होती हैं, एक सौ सोलह लड़के पैदा होते हैं। यह अनुपात है सारी दुनिया में। अब यह बड़े मजे की बात है कि एक सौ सोलह लड़के किसलिए पैदा करना? सोलह लड़के बेकार रह जाएंगे, इनको कौन लड़की मिलेगी! सौ लड़कियां पैदा होती हैं, एक सौ सोलह लड़के पैदा होते हैं।
लेकिन प्रकृति का इंतजाम बहुत ही अदभुत है और बहुत गहरा है। वह लड़कियों को कम पैदा करती है और लड़कों को ज्यादा, क्योंकि उम्र पाते-पाते, मैच्योर होते-होते, प्रौढ़ होते-होते सोलह लड़के मर जाएंगे और संख्या बराबर हो जाएगी। असल में लड़कियों की जिंदगी में जीने का रेसिस्टेंस लड़कों से ज्यादा है। इसलिए सोलह लड़के ज्यादा पैदा करती है प्रकृति, ताकि भूल-चूक न हो। सोलह लड़के मर जाएंगे। सौ लड़कियां रह जाएंगी, सौ लड़के रह जाएंगे। चौदह साल के बाद संख्या बराबर हो जाएगी। सारी दुनिया में चौदह साल के बाद संख्या बराबर हो जाएगी। वे सोलह लड़के भूल-चूक से बचने के लिए कि कोई लड़कियां खाली न रह जाएं, बिना लड़कों के न रह जाएं, इतना इंतजाम किया हुआ है वह एक सौ सोलह। लड़कियों की जिंदा रहने की शक्ति लड़कों से ज्यादा है।
आमतौर पर पुरुष सोचता है कि वह सब तरह से शक्तिमान है। इस भूल में कभी मत पड़ना। कुछ बातों को छोड़ कर स्त्रियां पुरुषों से कई अर्थों में ज्यादा शक्तिमान हैं। जैसे उनका रेसिस्टेंस, उनकी प्रतिरोध की शक्ति ज्यादा है। इसलिए तो हम शादी करते हैं तो हम चार-पांच साल उम्र बड़ा लड़का खोजते हैं। आपने कभी खयाल किया, क्यों खोजते हैं? वह इसीलिए खोजते हैं कि अगर लड़कियां और लड़के बराबर उम्र के खोजे जाएं तो दुनिया में विधवाएं छूट जाएंगी, लड़के पहले मर जाएंगे। सत्तर साल में लड़के मर जाएंगे और स्त्रियां पचहत्तर और छिहत्तर साल तक जिंदा रह जाएंगी। तो सारी स्त्रियां विधवा रह जाएंगी पृथ्वी पर। वे विधवा न रह जाएं इसलिए हम पांच साल का फर्क रखते हैं।
पुरुष की जीने की क्षमता स्त्री से कम है; बीमारी सहने की क्षमता भी स्त्री से कम है। जिंदगी में मुसीबतों में से गुजर जाने की क्षमता भी पुरुष की कम है। शायद प्रकृति ने स्त्री को यह सारी क्षमता इसीलिए दी है कि वह बच्चे को पैदा करने की, बच्चे को झेलने की, बच्चे को बड़ा करने की इतनी तकलीफदेय प्रक्रिया है, उस सबको वह झेल सके।
प्रकृति इंतजाम कर लेती है। अगर हम बच्चे कम पैदा करेंगे, तो प्रकृति जो अनेक बच्चों पर प्रतिभा देती थी, वह एक बच्चे पर ही डाल देगी।
लेकिन वैज्ञानिक चिंतन हमारा नहीं है। आदमी इसलिए पिछड़ा हुआ है कि हम दूसरी चीजों के संबंध में वैज्ञानिक चिंतन कर लेते हैं, लेकिन आदमी के संबंध में नहीं कर पाते। आदमी के संबंध में हम बड़े अवैज्ञानिक हैं। हम कहते हैं, हम कुंडली मिलाएंगे। हम कहते हैं कि हम ब्राह्मण हैं तो हम ब्राह्मण से ही शादी करेंगे।
विज्ञान तो कहता है कि शादी जितनी दूर हो उतने अच्छे बच्चे पैदा होंगे। अगर अंतर्जातीय हो तो बहुत अच्छा; अगर अंतर्देशीय हो तो और अच्छा; अगर अंतर्राष्ट्रीय हो तो और अच्छा; और अगर आज नहीं कल, मंगल या कहीं आदमी मिल जाए तो अंतर्ग्रहीय, इंटरप्लेनेटरी हो तो और अच्छा है। क्योंकि हम जानते हैं भलीभांति कि अगर अंग्रेज सांड लाया जाए और हिंदुस्तानी गाय हो तो जो बच्चे पैदा होते हैं उनका मुकाबला नहीं। वह क्रास ब्रीडिंग जो बच्चे पैदा करती है उनका मुकाबला नहीं। कब हम आदमी के संबंध में समझ का उपयोग करेंगे! अगर हम समझ का उपयोग करेंगे, तो जो हम जानवर के साथ कर रहे हैं, वही समझ जो फूल के साथ कर रहे हैं, आदमी के साथ भी करनी जरूरी है।
ज्यादा अच्छे बच्चे पैदा किए जा सकते हैं, ज्यादा स्वस्थ, ज्यादा उम्र तक जीने वाले, ज्यादा शक्तिशाली, ज्यादा प्रतिभाशाली। लेकिन उसके लिए कोई व्यवस्थापन देने की जरूरत है।
परिवार-नियोजन मनुष्य के वैज्ञानिक संतति-नियोजन का पहला कदम है। अभी और कदम उठाने पड़ेंगे, यह तो सिर्फ पहला कदम है। लेकिन इस पहले कदम से एक क्रांति हो जाती है। वह क्रांति आपके खयाल में नहीं है। वह मैं आपको कहना चाहता हूं। बड़ी जो क्रांति हो जाती है परिवार-नियोजन की व्यवस्था से वह यह है, वह क्रांति यह है कि हम पहली दफे सेक्स को, यौन को संतति से तोड़ देते हैं। अब तक यौन, संभोग का अर्थ था संतति का पैदा होना। अब हम दोनों को तोड़ देते हैं। अब हम कहते हैं कि संभोग हो सकता है, संतति के पैदा होने की कोई अनिवार्यता नहीं है। यौन और संतति को हम दो हिस्सों में तोड़ रहे हैं। यह बहुत बड़ी क्रांति है। इसका मतलब अंततः यह होगा कि अगर यौन से संतति के पैदा होने की संभावना नहीं है, यौन से हम संतति को अलग कर देते हैं, तो कल हम ऐसी संतति को भी पैदा करने की व्यवस्था करेंगे जिसका हमारे यौन से कोई संबंध न हो। वह दूसरा कदम होगा।
आप अपने बेटे के लिए अच्छे शिक्षक की व्यवस्था करते हैं; आप ही पढ़ाने नहीं बैठ जाते, क्योंकि मैं इसका बाप हूं तो मैं ही इसको पढ़ाऊंगा। आप अपने बेटे के लिए अच्छा टेलर खोजते हैं; आप ही कमीज बनाने नहीं बैठ जाते कि मैं इसका बाप हूं। आप अपने बेटे के लिए अच्छा डाक्टर खोजते हैं; आप ही आपरेशन नहीं करने लगते, क्योंकि मैं इसका बाप हूं। तो आप अपने बेटे के लिए पहले दिन से ही अच्छा वीर्यकण क्यों न खोजें? संतति-नियमन का अंतिम परिणाम यह होने वाला है कि हम वीर्यकणों के बाबत व्यवस्था कर सकेंगे। आइंस्टीन का वीर्यकण उपलब्ध हो सकता हो...।
और एक आदमी के पास कितने वीर्यकण हैं, कभी आपने सोचा? एक संभोग में एक आदमी इतने वीर्यकण खोता है कि उससे एक करोड़ बच्चे पैदा हो सकते हैं। और एक आदमी जिंदगी में अंदाजन चार हजार बार संभोग करता है। यानी चार हजार करोड़ बच्चों का बाप एक आदमी बन सकता है। एक आदमी के वीर्यकण अगर संरक्षित हो सकें तो एक आदमी चार हजार करोड़ बच्चों का बाप बन सकता है। एक आइंस्टीन चार हजार करोड़ बच्चों को जन्म दे सकता है। एक बुद्ध चार हजार करोड़ बच्चों को जन्म दे सकता है। क्या उचित न होगा कि हम आदमी के बाबत विचार करें और हम इस बात की खोज करें?
लेकिन संतति-नियमन ने पहली घटना पूरी कर दी है, हमने सेक्स को तोड़ दिया। अब हम कहते हैं कि बच्चे की फिक्र छोड़ दो। संभोग किया जा सकता है, संभोग का सुख लिया जा सकता है, बच्चे की चिंता की कोई जरूरत नहीं। जैसे ही यह बात स्थापित हो जाएगी, दूसरा कदम भी उठाया जा सकेगा। और वह यह कि अब तुम संभोग करते हो जिससे, उससे ही बच्चा पैदा हो, तुम्हारे ही संभोग से बच्चा पैदा हो, यह भी अवैज्ञानिक है। अब और अच्छी व्यवस्था की जा सकती है, और अच्छा वीर्यकण उपलब्ध किया जा सकता है, वैज्ञानिक व्यवस्था की जा सकती है और तुम्हें वीर्यकण मिल सकता है। चूंकि अब तक हम उसको सुरक्षित नहीं रख सकते थे, अब तो सुरक्षित रखा जा सकता है।
अब जरूरी नहीं है कि आप जिंदा हों तभी आपका बेटा पैदा हो। आपके मरने के दस हजार साल बाद भी आपका बेटा पैदा हो सकता है। इसलिए अब जल्दी करने की जरूरत नहीं है कि मेरा बेटा मेरे जिंदा रहने में पैदा हो जाए। वह बाद में दस हजार साल बाद भी पैदा हो सकता है। अगर मनुष्यता ने समझा कि आपका बेटा पैदा करना है तो वह आपके लिए सुरक्षा कर सकती है। आपका बच्चा कभी भी पैदा हो सकता है। अब बाप और बेटे का अनिवार्य संबंध, उस हालत में नहीं रह जाएगा जिस हालत में अब तक था, वह टूट जाएगा, एक क्रांति हो रही है।
लेकिन इस देश में हमारे पास समझ बहुत कम है। अभी तो हम संतति-नियमन को ही नहीं समझ पा रहे हैं। वह पहला कदम है, वह सेक्स मारेलिटी के संबंध में पहला कदम है। और एक दफा सेक्स की पुरानी मारेलिटी, पुरानी नीति टूट जाए, तो इतनी क्रांति होगी जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। क्योंकि हमें पता ही नहीं है कि जो भी हमारी नीति है, वह किसी पुरानी यौन-व्यवस्था से संबंधित है। वह यौन-व्यवस्था पूरी टूट जाए तो पूरी नीति बदल जाएगी। धर्मगुरु इसलिए भी डरा हुआ है। गांधी जी और विनोबा जी इसलिए भी डरे हुए हैं। वे डरे हुए हैं इसलिए कि अगर यह कदम उठाया गया तो यह पुरानी पूरी नैतिक व्यवस्था को तोड़ देगा। नई नीति विकसित हो जाएगी अपने आप। अपने आप नई नीति विकसित हो जाएगी, क्योंकि पुरानी नीति का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।
अब तक पुरुष के दबाव में थी स्त्री और स्त्री को निरंतर दबाया जा सकता था। पुरुष अपने सेक्स के संबंध में स्वतंत्रता बरत सकता था, क्योंकि उसको पकड़ना मुश्किल था। इसलिए पुरुष ने एक ऐसी व्यवस्था बनाई थी जिसमें स्त्री की पवित्रता का पूरा इंतजाम रखा था और अपनी स्वतंत्रता का पूरा इंतजाम रखा था। इसलिए स्त्री को सती होना पड़ता था, पुरुष को नहीं। इसलिए स्त्री के कुंवारे होने पर भारी बल था, पुरुष के कुंवारे होने की कोई चिंता न थी। इसलिए अभी भी माताएं और स्त्रियां कहती हैं कि लड़के तो लड़के हैं। लेकिन लड़कियों के संबंध में हिसाब अलग है।
अगर संतति-नियमन की बात पूरी होगी--और होनी ही पड़ेगी--तो लड़कियां भी लड़कों जैसी ही हो जाएंगी, मुक्त! उनको फिर बांधने और दबाने का उपाय नहीं है। लड़कियां उपद्रव में पड़ जा सकती थीं, क्योंकि उनको गर्भ रह जा सकता था। पुरुष उपद्रव में नहीं पड़ता था, क्योंकि उसको गर्भ का कोई डर न था। नई व्यवस्था ने लड़कियों को भी लड़कों की स्थिति में खड़ा कर दिया है।
पहली दफे स्त्री और पुरुष की समानता सिद्ध हो सकेगी। जो अब तक नहीं हो सकती थी। चाहे हम कितना ही चिल्लाते कि स्त्री और पुरुष समान हैं, वे समान नहीं हो सकते थे। क्योंकि पुरुष स्वतंत्रता बरत सकता था बिना पकड़े जाने के डर के, स्त्री स्वतंत्रता नहीं बरत सकती थी।
विज्ञान की व्यवस्था ने स्त्री को पुरुष के निकट खड़ा कर दिया। अब वे दोनों बराबर स्वतंत्र हैं। अगर पवित्रता निश्चित करनी है तो दोनों को समान निश्चित करनी पड़ेगी और अगर स्वतंत्रता तय करनी है तो दोनों समान रूप से स्वतंत्र होंगे। बर्थ-कंट्रोल, संतति-नियमन के कृत्रिम साधन स्त्री को पहली बार पुरुष के समकक्ष बिठाते हैं।
बुद्ध नहीं बिठा सके, महावीर नहीं बिठा सके, अब तक दुनिया का कोई महापुरुष नहीं बिठा सका स्त्री को बराबर। कहा उन्होंने कि दोनों बराबर हैं। लेकिन वे बराबर हो नहीं सके, क्योंकि उनकी एनाटामी, उनकी शरीर की व्यवस्था, खास कर गर्भ की व्यवस्था कठिनाई में डाल देती थी। स्त्री कभी भी पुरुष की तरह स्वतंत्र नहीं हो सकी। आज पहली दफे स्त्री भी स्वतंत्र हो सकती है।
अब इसके दो ही अर्थ होंगे: या तो स्त्री स्वतंत्र की जाए या पुरुष की अब तक की जो स्वतंत्रता थी उस पर पुनर्विचार किया जाए। सारी नीति को बदलना पड़ेगा। इसलिए धर्मगुरु परेशान हैं। अब मनु की नीति नहीं चल सकेगी, क्योंकि सारी व्यवस्था बदल जाएगी। और इसलिए उनकी घबराहट स्वाभाविक है।
लेकिन बुद्धिमान लोगों को समझ लेना चाहिए कि उनकी घबराहट, उनकी नीति को बचाने के लिए मनुष्यता की हत्या नहीं की जा सकती। उनकी नीति जाती हो कल तो आज चली जाए, लेकिन मनुष्यता का बचना ज्यादा महत्वपूर्ण और ज्यादा जरूरी है। मनुष्य रहेगा तो हम नई नीति खोज लेंगे। और मनुष्य न रहा तो मनु की और याज्ञवल्क्य की किताबें सड़ जाएंगी और गल जाएंगी और नष्ट हो जाएंगी, उनको कोई बचा भी नहीं सकता है।
परिवार-नियोजन में मैं मनुष्य के भविष्य के लिए बड़ी क्रांति की संभावनाएं देखता हूं। इतना ही नहीं कि आप दो बच्चों पर रोक लेंगे अपने को, बल्कि अगर परिवार-नियोजन की फिलासफी, उसका पूरा दर्शन हमारे खयाल में आ जाए तो हमें मनुष्य की पूरी नीति, पूरा धर्म, अंततः परिवार की पूरी व्यवस्था और अंतिम रूप से समाज का पूरा ढांचा बदल जाएगा। कभी छोटी चीजें सब बदल देती हैं जिनका हमें खयाल नहीं होता। मैं परिवार-नियोजन और कृत्रिम साधनों के पक्ष में हूं, क्योंकि मैं अंततः जीवन को चारों तरफ से क्रांति से गुजरा हुआ देखना चाहता हूं।
एक छोटी सी कहानी, अपनी बात मैं पूरी कर दूं।
चीन से एक आदमी ने, जर्मनी में एक विचारक था, उसको एक छोटी सी पेटी भेजी, लकड़ी की पेटी। बहुत खूबसूरत खुदाव था उस पेटी पर। अपने मित्र को उसने वह पेटी भेजी, एक लेखक को, और कहा कि एक ही शर्त है मेरी उसको ध्यान में रखना, इस पेटी का मुंह हमेशा पूर्व की तरफ रखना। क्योंकि यह पेटी हजार वर्ष पुरानी है और जिन-जिन लोगों के हाथ में गई है, यह शर्त उनके साथ रही है कि इसका मुंह पूर्व की तरफ रहे, यह इसे बनाने वाले की इच्छा है। अब तक पूरी की गई है, इसका ध्यान रखना।
उसके मित्र ने लिख भेजा कि चाहे कुछ भी हो, वह पेटी का मुंह पूर्व की तरफ रखेगा। इसमें कठिनाई क्या है!
लेकिन पेटी इतनी खूबसूरत थी कि जब उसने अपने बैठकखाने में पेटी का मुंह पूर्व की ओर करके रखा तो देखा कि पूरा बैठकखाना बेमेल हो गया। उसे पूरे बैठकखाने को बदलना पड़ा, फिर से आयोजित करना पड़ा, सोफे बदलने पड़े, टेबलें बदलनी पड़ीं, फोटो बदलने पड़े। जब उसने सब बदल दिया तो उसे हैरानी हुई कि कमरे के जो दरवाजे-खिड़कियां थीं, वे बेमेल हो गईं। पर उसने पक्का आश्वासन दिया था, तो उसने खिड़की-दरवाजे भी बदल डाले। लेकिन वह कमरा अब पूरे मकान में बेमेल हो गया। तो उसने पूरा मकान बदल दिया। आश्वासन दिया था तो उसे पूरा करना था। तब उसने पाया कि उसका बगीचा, बाहर का दृश्य, फूल, सब बेमेल हो गए। तब उसको उन सबको बदलना पड़ा।
फिर भी उसने अपने मित्र को लिखा कि मेरा घर मेरी बस्ती में बेमेल हुआ जा रहा है, इसलिए मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं, अपने घर तक को बदल सकता हूं, लेकिन पूरे गांव को कैसे बदलूंगा? और गांव को बदलूंगा तो शायद वह सारी दुनिया में बेमेल हो जाए, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
यह घटना बताती है कि एक छोटी सी बदलाहट अंततः सब चीजों को बदल देती है।
धर्मगुरु का डरना ठीक है, वह डरा हुआ है। वह डरा हुआ है, उसके कारण हैं। उसे अचेतन में यह बोध हो रहा है कि अगर संतति-नियमन और परिवार-नियोजन की व्यवस्था आ गई तो अब तक की परिवार की धारणा, नीति, सब बदल जाएगी।
और मैं क्यों पक्ष में हूं?
क्योंकि मैं चाहता हूं कि वह जितनी जल्दी बदले, उतना अच्छा है। आदमी ने बहुत दुख झेल लिया पुरानी व्यवस्था से, उसे नई व्यवस्था खोजनी चाहिए। जरूरी नहीं कि नई व्यवस्था सुख ही लाएगी, लेकिन कम से कम पुराना दुख तो न होगा। दुख भी होंगे तो नये होंगे। और जो नये दुख खोज सकता है, वह नये सुख भी खोज सकेगा।
असल में, नये की खोज की हिम्मत जुटानी जरूरी है। पूरे मनुष्य को नया करना है। और परिवार-नियोजन और संतति-नियमन केंद्रीय बन सकता है, क्योंकि सेक्स मनुष्य के जीवन में केंद्रीय है। हम उसकी बात करें या न करें, हम उसकी चर्चा करें या न करें, सेक्स मनुष्य के जीवन में केंद्रीय तत्व है। अगर उसमें कोई भी बदलाहट होती है, तो हमारा पूरा धर्म, पूरी नीति, सब बदल जाएगी। वे बदल जानी ही चाहिए।
मनुष्य के भोजन, निवास, भविष्य की समस्याएं ही इससे बंधी नहीं हैं, मनुष्य की आत्मा, मनुष्य की नैतिकता, मनुष्य के भविष्य का धर्म, मनुष्य के भविष्य का परमात्मा भी इस बात पर निर्भर है कि हम अपने यौन के संबंध में क्या दृष्टिकोण अख्तियार करते हैं।

प्रश्न: भगवान श्री, परिवार-नियोजन के बारे में अनेक लोग प्रश्न करते हैं कि परिवार-नियोजन द्वारा अपने बच्चों की संख्या कम करना धर्म के खिलाफ है। क्योंकि उनका कहना है कि बच्चे तो ईश्वर की देन हैं, और खिलाने वाला परमात्मा है। हम कौन हैं? हम तो सिर्फ जरिया हैं, इंस्ट्रूमेंट हैं। हम तो सिर्फ बीच में इंस्ट्रूमेंट हैं, जिसके जरिए ईश्वर खिलाता है। देने वाला वह, करने वाला वह, कराने वाला वह, फिर हम क्यों रोक डालें? अगर हमको ईश्वर ने दस बच्चे दिए तो दसों को खिलाने का प्रबंध भी वही करेगा। इस संबंध में आपके क्या विचार हैं?


सबसे पहले तो धर्म क्या है, इस संबंध में थोड़ी सी बात समझ लेनी चाहिए।
धर्म है मनुष्य को अधिकतम आनंद, मंगल और सुख देने की कला।
मनुष्य कैसे अधिकतम रूप से मंगल को उपलब्ध हो, इसका विज्ञान ही धर्म है।
तो धर्म ऐसी किसी बात की सलाह नहीं दे सकता, जिससे मनुष्य के जीवन में सुख की कमी हो। परमात्मा भी वह नहीं चाह सकता जिससे कि मनुष्य का दुख बढ़े। परमात्मा भी चाहेगा कि मनुष्य का आनंद बढ़े। लेकिन परमात्मा मनुष्य को परतंत्र भी नहीं करता। क्यों? क्योंकि परतंत्रता भी दुख है। इसलिए परमात्मा ने मनुष्य को पूरी तरह स्वतंत्र छोड़ा है। और स्वतंत्रता में अनिवार्य रूप से यह भी सम्मिलित है कि मनुष्य चाहे तो अपने लिए दुख निर्माण कर ले, तो भी परमात्मा रोकेगा नहीं।
हम अपना दुख भी बना सकते हैं और सुख भी। हम आनंदमय हो सकते हैं और परेशान भी। यह सारी स्वतंत्रता मनुष्य को है। इसलिए यदि हम दुखी होते हैं तो परमात्मा जिम्मेवार नहीं है। उस दुख के कारण हमें खोजने पड़ेंगे और बदलने पड़ेंगे।
मनुष्य ने दुख के कारण बदलने में बहुत विकास किया है। एक बड़ा दुख था जगत में कि मृत्यु की दर बहुत ज्यादा थी। दस बच्चे पैदा होते थे तो नौ बच्चे मर जाते थे। यह इतने दुख की घटना थी जिसका कोई हिसाब नहीं था। शायद मां-बाप के लिए इससे दुखद कोई घटना न थी। खुद का मरना भी शायद इतना दुखद न होगा जितना दस बच्चे पैदा हों और नौ बच्चे मर जाएं। तो मां-बाप बच्चों के जन्म की करीब-करीब खुशी ही नहीं मना पाते थे, मरने का दुख मनाते ही जिंदगी बीत जाती थी।
तो मनुष्य ने निरंतर खोज की और अब यह हालत आ गई है कि दस बच्चों में से नौ बच्चे बच सकते हैं; और कल दस बच्चे भी बचाए जा सकेंगे। दस बच्चों में से नौ बच्चे मरते थे, तो एक आदमी को अगर तीन बच्चे बचाना हो तो कम से कम औसतन तीस बच्चे पैदा करने होते थे। जब तीस बच्चे पैदा होते थे तो तीन बच्चे बचते थे। अब मनुष्य ने खोज कर ली है नियमों की और वह इस जगह पहुंच गया कि दस बच्चों में से नौ जिंदा रहेंगे, दस भी जिंदा रह सकते हैं। लेकिन आदत उसकी पुरानी पड़ी हुई है--तीस बच्चे पैदा करने की।
आज परिवार-नियोजन जो कह रहा है: दो या तीन बच्चे बस! यह कोई नई बात नहीं है। इतने बच्चे तब भी थे। इससे ज्यादा तो कभी होते ही नहीं थे। औसत तो यही था, तीन बच्चों का। और सत्ताइस बच्चे मरते थे। फिर सत्ताइस बच्चों के मरने पर तीन बच्चों के होने का सुख भी समाप्त हो जाता था। तो हमने व्यवस्था कर ली कि हमने मृत्यु-दर को कम कर लिया। वह भी हमने परमात्मा के नियमों को खोज कर किया। वे नियम भी कोई आदमी के बनाए नियम नहीं हैं। अगर बच्चे मर जाते थे तो वे भी हमारे नियम की नासमझी के कारण मरते थे। हमने नियम खोज लिए हैं, बच्चे ज्यादा बचा लेते हैं। बच्चे जब हम ज्यादा बचा लेते हैं तो सवाल खड़ा हुआ कि इतने बच्चों के लिए इस पृथ्वी पर सुख की व्यवस्था हम कर पाएंगे? इतने बच्चों के लिए सुख की व्यवस्था इस पृथ्वी पर नहीं की जा सकती।
बुद्ध के समय में हिंदुस्तान की आबादी दो करोड़ थी, आज हिंदुस्तान की आबादी पचास करोड़ के ऊपर है। जहां दो करोड़ लोग खुशहाल हो सकते थे, वहां पचास करोड़ लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह मरने लगेंगे और परेशान होने लगेंगे; क्योंकि जमीन नहीं बढ़ती, जमीन के उत्पादन की क्षमता नहीं बढ़ती। आज पृथ्वी पर साढ़े तीन अरब लोग हैं। यह संख्या इतनी ज्यादा है कि पृथ्वी संपन्न नहीं हो सकती।
इतनी संख्या के होते हुए भी हमने मृत्यु-दर रोक ली है। उस वक्त हमने न कहा कि भगवान चाहता है कि दस बच्चे पैदा हों और नौ मर जाएं। अगर हम उस वक्त कहते तो भी बात ठीक थी। उस वक्त हम राजी हो गए। लेकिन अब हम कहते हैं कि हम बच्चे पैदा करेंगे, क्योंकि भगवान दस बच्चे देता है। यह तर्क बेईमान तर्क है। इसका भगवान से, धर्म से कोई संबंध नहीं है। जब हम दस बच्चे पैदा करते थे और नौ बच्चे मरते थे, तब भी हमें यही कहना चाहिए था कि भगवान नौ बच्चे मारता है, हम न बचाएंगे। हम दवा न करेंगे, हम इलाज न करेंगे, हम चिकित्सा की व्यवस्था न करेंगे।
चिकित्सा की व्यवस्था, इलाज, दवाएं, सबकी खोज हमने की, जो कि बिलकुल उचित ही है और इसको निश्चित ही भगवान आशीर्वाद देगा। क्योंकि भगवान बीमारी का आशीर्वाद देता हो, और इतने बच्चे पैदा हों और उनमें अधिकतम मर जाएं, इसके लिए उसका आशीर्वाद हो, ऐसी बात जो लोग करते हैं, वे धार्मिक नहीं हो सकते। वे तो भगवान को भी क्रूर, हत्यारा और बुरा सिद्ध कर देते हैं।
अगर बच्चे मरते थे तो हमारी नासमझी थी। अब हमने समझ बढ़ा ली, अब बच्चे बचेंगे। अब हमें दूसरी समझ बढ़ानी पड़ेगी कि कितने बच्चे पैदा करें। मृत्यु-दर जब हमने कम कर ली तो हमें जन्म-दर भी कम करनी पड़ेगी। अन्यथा नौ बच्चों के मरने से जितना दुख होता था, दस बच्चों के बचने से उससे कई गुना ज्यादा दुख जमीन पर पैदा हो जाएगा। आदमी स्वतंत्र है अपने दुख और सुख की खोज में। यह आदमी की बुद्धिमत्ता पर निर्भर है कि वह कितना सुख अर्जित करे या कितना दुख अर्जित करे। तो अब जरूरी हो गया है कि हम बच्चे कम पैदा करें, ताकि अनुपात वही रहे जो कि पृथ्वी सम्हाल सकती है।
और बड़े मजे की बात यह है कि हम भगवान का नाम लेते हैं तो यह भूल जाते हैं कि अगर भगवान बच्चे पैदा कर रहा है तो बच्चों को रोकने की जो कल्पना, जो खयाल पैदा हो रहा है, वह कौन पैदा कर रहा है? अगर डाक्टर के भीतर से भगवान बच्चे को बचा रहा है, तो डाक्टर के भीतर से उन बच्चों को आने से रोक भी रहा है, जो कि पृथ्वी को कष्ट में, दुख में डाल देंगे।
अगर सभी कुछ भगवान का है, तो यह परिवार-नियोजन का खयाल भी भगवान का ही है। और मनुष्य की यह आकांक्षा कि हम अधिकतम सुखी हों, यह भी इच्छा भगवान की ही है।
अधिकतम सुख चाहिए तो परिवार का नियमन चाहिए। परिवार-नियोजन का और कोई अर्थ नहीं है, इसका अर्थ इतना ही है कि पृथ्वी कितने लोगों को सुख दे सकती है, भोजन दे सकती है। उससे ज्यादा लोगों को पृथ्वी पर खड़े करना, अपने हाथ से पृथ्वी को नरक बनाना है। पृथ्वी स्वर्ग बन सकती है, नरक भी बन सकती है--और यह आदमी के हाथ में है।
जब तक आदमी नासमझ था तो प्रकृति की अंधी शक्तियां काम करती थीं। बच्चे कितने ही पैदा कर लो, मर जाते थे। बीमारी आती थी, महामारी आती थी, प्लेग आता था, मलेरिया आता था, और बच्चे विदा होते जाते थे। युद्ध होता, अकाल पड़ता, भूकंप होते, और बच्चे विदा हो जाते थे।
मनुष्य ने प्रकृति की ये सारी विध्वंसक शक्तियों पर बहुत दूर तक कब्जा पा लिया। प्लेग नहीं होगा, महामारी नहीं होगी, मलेरिया नहीं होगा, माता नहीं होगी, अकाल में हम बच्चे मरने न देंगे। पिछला अकाल जो बिहार में पड़ा, उसमें अनुमान था कि कोई दो करोड़ लोगों की मृत्यु हो जाएगी; लेकिन मरे केवल चालीस आदमी। तो अकाल भी जिन लोगों को मार सकता था, उनको भी हमने सब भांति बचा लिया। तो हमने प्रकृति की विध्वंसक शक्ति पर तो रोक लगा दी और उसकी सृजनात्मक शक्ति पर अगर हम उसी अनुपात में रोक न लगाएं तो हम प्रकृति का संतुलन नष्ट करने वाले सिद्ध होंगे।
परमात्मा के खिलाफ कोई काम हो सकता है तो यह है कि प्रकृति का संतुलन नष्ट हो जाए। तो जो लोग आज संख्या बढ़ा रहे हैं, जमीन की क्षमता से ज्यादा, वे लोग परमात्मा के खिलाफ काम कर रहे हैं। क्योंकि परमात्मा का संतुलन बिगाड़े दे रहे हैं।
प्रकृति का संतुलन बचेगा, अगर प्रकृति की सृजनात्मक शक्तियों पर भी उसी अनुपात में रोक लगा दें, जिस अनुपात में विध्वंसक शक्तियों पर रोक लगा दी है। तो अनुपात वही होगा। और यह सुखद है बजाय इसके कि बच्चे पैदा हों और मरें बीमारी में, अकाल में, भूकंप में, युद्ध में। इससे ज्यादा उचित है कि वे पैदा ही न हों। क्योंकि पैदा होने के बाद मरना, मारना, मरने देना अत्यंत दुखद है। न पैदा करना कतई दुखद नहीं है।
इसलिए मैं यह कतई नहीं मानता हूं कि परिवार-नियोजन कोई परमात्मा के खिलाफ बात है।
बल्कि मैं यह मानता हूं कि इस वक्त जिनके भीतर से परमात्मा थोड़ी-बहुत आवाज दे रहा है, वे यह कहेंगे कि परिवार-नियोजन परमात्मा का काम है। निश्चित ही परमात्मा का काम हर युग में बदल जाता है। क्योंकि कल जो परमात्मा का काम था, जरूरी नहीं कि वह आज भी वही हो। युग बदलता है, परिस्थिति बदल जाती है, तो काम भी बदल जाता है।
अब सारी परिस्थितियां बदल गई हैं और आदमी के हाथ इतनी शक्ति आ गई है कि वह पृथ्वी को अत्यंत आनंदपूर्ण बना सकता है। सिर्फ एक चीज की रुकावट हो गई है कि संख्या अत्यधिक हो गई है, तो पृथ्वी नष्ट हो जाएगी। और बहुत से प्राणी भी अपनी बहुत संख्या करके मर चुके हैं, आज उनका अवशेष भी नहीं मिलता। मनुष्य भी मर सकता है।
इस समय वही मनुष्य धार्मिक है, जो मनुष्य की संख्या कम करने में सहयोगी हो रहा है।
इस समय परमात्मा की दिशा में और मनुष्य की सेवा की दिशा में इससे बड़ा कोई कदम नहीं हो सकता। इसलिए धार्मिक चित्त तो यही कहेगा कि परिवार-नियोजन हो।
हां, यह हो सकता है कि...हम ऐसे बेईमान लोग हैं कि जो हमें करना होता है, उसके लिए हम भगवान का सहारा खोज लेते हैं। और जो हमें नहीं करना होता, उसके लिए हम भगवान के सहारे की बात नहीं करते! जब हमें बीमारी होती है तब हम अस्पताल जाते हैं; तब हम यह नहीं कहते कि बीमारी भगवान ने भेजी है; कैंसर, टी बी भगवान ने भेजे हैं। तब हम डाक्टर को खोजते हैं। और जब डाक्टर हमें खोजता हुआ आता है और कहता है इतने बच्चे नहीं, तब हम कहते हैं कि ये तो भगवान के भेजे हुए हैं।
तो हमें इन दो में से कुछ एक तय करना होगा कि बीमारी भी भगवान की भेजी हुई है--मलेरिया भी, महामारी भी, प्लेग भी, अकाल भी--तब हमें इनमें मरने के लिए तैयार होना चाहिए। और अगर हम कहते हैं कि ये भगवान के भेजे नहीं हैं, हम इनसे लड़ेंगे। तो फिर हमें निर्णय लेना होगा कि फिर बच्चे भी जो हम कहते हैं, भगवान के भेजे हैं, उन पर हमें नियंत्रण करना जरूरी है।
मुझे एक घटना याद आती है।
इथोपिया में बड़ी संख्या में बच्चे मर जाते हैं। तो इथोपिया के सम्राट ने एक अमेरिकन डाक्टरों के मिशन को बुलाया और जांच-पड़ताल करवाई कि क्या कारण है। तो पता चला कि इथोपिया में जो पानी पीने की व्यवस्था है वह गंदी है। और पानी जो है वह रोगाणुओं से भरा है। और लोग सड़क के किनारे के गंदे डबरों का ही पानी पीते रहते हैं। उसी में सब मल-मूत्र भी बहता रहता है और उसका पानी पीते हैं! वही उनकी बीमारियों और मृत्यु का बड़ा कारण है। साल भर की मेहनत के बाद उनके मिशन ने रिपोर्ट दी और सम्राट को कहा कि पानी पीने की यह व्यवस्था बंद करवाइए, सड़क के किनारों के गङ्ढों का पानी पीना बंद करवाइए और पानी की कोई नई वैज्ञानिक व्यवस्था करवाइए।
तो इथोपिया के सम्राट ने कहा कि मैंने समझ ली आपकी बातें और कारण भी समझ लिया; लेकिन मैं यह नहीं करूंगा। क्योंकि आज अगर हम यह इंतजाम कर लें आदमियों को बीमारी से बचाने का, तो फिर कल इन्हीं लोगों को समझाना मुश्किल होगा कि परिवार-नियोजन करो। इथोपिया के सम्राट ने कहा, यह दोहरी झंझट हम न लेंगे। पहले हम इनको यह समझाएं कि तुम गंदा पानी मत पीयो, इसमें झंझट-झगड़ा होगा। बामुश्किल बहुत खर्च करके हम इनको राजी कर पाएंगे। तब जनसंख्या बढ़ेगी। तब हम इन्हें समझाएंगे दुबारा कि तुम बच्चे कम पैदा करो। तो उसने कहा, इससे यह जो हो रहा है, वही ठीक हो रहा है।
मैं भी समझता हूं कि यदि भगवान पर छोड़ना है तो फिर इथोपिया का सम्राट ठीक कहता था, तो फिर हमें भी इसी के लिए राजी होना चाहिए। अस्पताल बंद, लोग गंदा पानी पीएं, बीमारी में रहें--फिर हम सब भगवान पर छोड़ दें--जितने जीएं, जीएं।
इतना जरूर कहे देता हूं कि भगवान के हाथ में छोड़ कर इतने आदमी दुनिया में कभी न बचे थे, जितने आदमी ने अपने हाथ में लेकर बचाए। इतने आदमी भगवान के हाथ में छोड़ कर कभी न बचते।
इसलिए जब हमने विध्वंस की शक्तियों पर रोक लगा दी तो हमें सृजन की शक्तियों पर भी रोक लगाने की तैयारी दिखानी चाहिए। और इस तैयारी में परमात्मा का कोई विरोध नहीं हो रहा है और न इसमें कोई धर्म का विरोध हो रहा है। क्योंकि धर्म है ही इसलिए कि मनुष्य अधिकतम सुखी कैसे हो, इसका इंतजाम, इसकी व्यवस्था करनी है।

प्रश्न: भगवान श्री, एक और प्रश्न है कि परिवार-नियोजन जैसा अभी चल रहा है उसमें हम देखते हैं कि हिंदू ही उसका प्रयोग कर रहे हैं, और बाकी और धर्मों के लोग ईसाई, मुस्लिम, ये इसका कम उपयोग कर रहे हैं। तो ऐसा हो सकता है कि उनकी संख्या थोड़े वर्षों के बाद इतनी बढ़ जाए कि एक और पाकिस्तान मांग लें, और तुर्किस्तान मांग लें, और कुछ ऐसी मुश्किलें खड़ी हो जाएं। फिर पाकिस्तान या चीन है, वहां जनसंख्या पर रुकावट नहीं है, तो उसमें अधिक लोग हो जाएंगे और वे हम पर हमला करने की चेष्टा रखते हैं, तो हमारी जनसंख्या कम होने से हमारी ताकत कम हो जाए। तो इसके बारे में आपके क्या खयाल हैं?


इस संबंध में दोत्तीन बातें खयाल में रखने की हैं।
पहली बात तो यह कि आज के वैज्ञानिक युग में जनसंख्या का कम होना, शक्ति का कम होना नहीं है। हालतें उलटी हैं। हालत तो यह है कि जिस मुल्क की जनसंख्या जितनी ज्यादा है, वह टेक्नॉलाजिकल दृष्टि से कमजोर है; क्योंकि इतनी बड़ी जनसंख्या के पालन-पोषण में, व्यवस्था में उसके पास अतिरिक्त संपत्ति बचने वाली नहीं है, जिससे वह एटम बम बनाए, हाइड्रोजन बम बनाए, सुपर बम बनाए, और चांद पर जाए। जितना गरीब देश होगा, आज वह उतना ही वैज्ञानिक दृष्टि से शक्तिहीन देश होगा। आज तो वही देश शक्ति-संपन्न होगा, जिसके पास ज्यादा संपत्ति है, ज्यादा व्यक्ति नहीं।
वह जमाना गया जब आदमी ताकतवर था, अब मशीन ताकतवर है। और मशीन उसी देश के पास अच्छी से अच्छी हो सकेगी, जिस देश के पास जितनी संपन्नता होगी। और संपन्नता उसी देश के पास ज्यादा होगी, जिसके पास प्राकृतिक साधन ज्यादा और जनसंख्या कम होगी।
तो पहली बात यह है कि आज जनसंख्या शक्ति नहीं है। और इसलिए भ्रांति में पड़ने का कोई कारण नहीं है। चीन के पास चाहे जितनी जनसंख्या हो, तो भी शक्तिशाली अमेरिका होगा। चीन के पास जितनी भी जनसंख्या हो, तो भी छोटा सा मुल्क इंग्लैंड शक्तिशाली है, और जापान जैसा मुल्क भी शक्तिशाली है। शक्ति का पूरा का पूरा आधार बदल गया है। जब आदमी ही एकमात्र आधार था, तब तो ये बातें ठीक थीं कि जनसंख्या बड़ा मूल्य रखती थी। लेकिन अब आदमी से भी बड़ी शक्ति हमने पैदा कर ली है, जो मशीन की है। मशीन ताकत है। और देश उतना ही संपन्न हो सकता है, जितनी ज्यादा जनसंख्या उसकी कम हो, ताकि उसके पास संपत्ति बच सके, लोगों को खिलाने, कपड़ा पहनाने, इलाज कराने के बाद; ताकि उस शक्ति को वैज्ञानिक विकास करने में लगा सके।
दूसरी बात यह समझने जैसी है कि संख्या कम होने से उतना बड़ा दुर्भाग्य नहीं टूटेगा, जितना बड़ा दुर्भाग्य संख्या के बढ़ जाने से बिना किसी हमले के टूट जाएगा। यानी हमले का तो कोई उपाय भी किया जा सकता है कि कोई बड़ा मुल्क हम पर हमला करे तो हम दूसरों से सहायता ले लें, लेकिन हमारे ही बच्चे हमलावर सिद्ध हो जाएं संख्या के अत्यधिक बढ़ जाने के कारण तो हम किसी की सहायता न ले सकेंगे। उस वक्त हम बिलकुल असहाय हो जाएंगे। इस वक्त युद्ध इतना बड़ा खतरा नहीं है, जितना बड़ा खतरा जनसंख्या विस्फोट का है। खतरा बाहर नहीं है कि हमें कोई मार डाले, वरन जो हमारी उत्पादन क्षमता है बच्चों की, वही हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा है--कि संख्या इतनी हो जाए कि हम सिर्फ मर जाएं इस कारण से कि न पानी हो, न भोजन हो, न रहने को जगह।
तीसरी बात यह कि जो हम सोचते हैं कि हिंदू अपनी संख्या कम कर लें तो मुसलमान से कम न हो जाएं, तो इस डर से हिंदू भी अपनी संख्या कम न करें। मुसलमान भी इस डर से अपनी संख्या कम न करें कि कहीं हिंदू ज्यादा न हो जाएं। ईसाई भी यही डर रखें। जैन भी यही डर रखें। सिक्ख भी यही डर रखें। तो इन सबके डर एक से हैं। तब परिणाम यह होगा कि मुल्क ही मर जाएगा। तो यह डर किसी को तो तोड़ना शुरू करना पड़ेगा। और जो समाज इस डर को तोड़ेगा, वह संपन्न हो जाएगा। मुसलमानों से उनके बच्चे ज्यादा स्वस्थ, ज्यादा शिक्षित होंगे, ज्यादा अच्छे मकानों में रहेंगे। वे दूसरे समाजों को, जिनकी संख्या कीड़े-मकोड़ों की तरह बढ़ेगी, उनको पीछे छोड़ कर आगे निकल जाएंगे। और इसका परिणाम यह भी होगा कि दूसरे समाजों में भी स्पर्धा पैदा होगी इस खयाल से कि वे गलती कर रहे हैं।
आज दुनिया में यह बड़ा सवाल नहीं है कि हिंदू कम हो गए तो कोई हर्ज हो रहा है, कि मुसलमान ज्यादा हो गए तो उनको कोई फायदा हो रहा है। बड़ा सवाल यह है कि अगर इन सारे लोगों के दिमाग में यही खयाल भरा रहे तो यह पूरा मुल्क मर जाएगा। अगर यही विकल्प है कि हिंदू कम हो जाएंगे और इससे हिंदुओं की संख्या को नुकसान पहुंचेगा, मुसलमान ज्यादा हो जाएंगे, ईसाई ज्यादा हो जाएंगे, तो भी मैं कहूंगा कि हिंदू अपने को कम कर लें और भारत को बचाने का श्रेय ले लें, चाहे खुद मिट जाएं। हालांकि इसकी कोई संभावना नहीं है। तो भी मैं कहूंगा कि मेरे लिए यह इतना बड़ा सवाल नहीं है, हिंदू-मुसलमान का, जितना बड़ा मेरे लिए एक दूसरा सवाल है।
जब तक हम परिवार-नियोजन को स्वेच्छा पर छोड़े हुए हैं, तब तक खतरा एक दूसरा है कि जो जितना शिक्षित और उन्नत है, जो जितना संपन्न है, जिसकी बुद्धि विकसित है, वह तो राजी हो जाएगा स्वभावतः। वह तो आज परिवार-नियोजन के लिए राजी हो जाएगा, सिर्फ बुद्धुओं को छोड़ कर। बुद्धिमान तो राजी होंगे ही; क्योंकि परिवार-नियोजन से उसके बच्चे ज्यादा सुखी होंगे, ज्यादा संपन्न होंगे, ज्यादा शिक्षित होंगे। लेकिन खतरा यह है कि जो बुद्धिहीन वर्ग है--उसको न कोई शिक्षा है, न कोई ज्ञान है, न कोई सवाल है--वे समझ ही न पाएं और बच्चे पैदा करते चले जाएं। तो जो नुकसान हो सकता है लंबे अर्थों में वह यह हो सकता है कि अशिक्षित, अविकसित, पिछड़े हुए लोग ज्यादा बच्चे पैदा करें और शिक्षित व संपन्न लोग कम बच्चे पैदा करें तो मुल्क की प्रतिभा को ज्यादा नुकसान पहुंचे। यह हो सकता है।
इसलिए मेरी यह मान्यता है कि परिवार-नियोजन की बात धीरे-धीरे अनिवार्य हो जानी चाहिए।
कहीं ऐसा न हो कि बुद्धिमान तो स्वीकार कर लें और गैर-बुद्धिमान न करें, तो वह अनिवार्य होना चाहिए। इसलिए मैं अनिवार्य परिवार-नियोजन के पक्ष में हूं।
परिवार-नियोजन किसी की स्वेच्छा पर नहीं छोड़ा जा सकता है।
यह तो ऐसा ही है कि जैसे हम हत्या को स्वेच्छा पर छोड़ दें--कि जिसको करना हो करे, जिसको न करना हो न करे। डाके को स्वेच्छा पर छोड़ दें--कि जिसको डाका डालना हो डाले, न डालना हो न डाले। सरकार समझाने की कोशिश करेगी और देखती रहेगी।
डाका भी आज उतना खतरनाक नहीं है, हत्या भी आज उतनी खतरनाक नहीं है, जितना जनसंख्या का बढ़ना। इस जीवंत सवाल को इस तरह स्वेच्छा पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए।
और जब हम इसे स्वेच्छा पर नहीं छोड़ते, तो यह हिंदू, मुसलमान, ईसाई का सवाल नहीं रह जाता। क्योंकि सिक्ख को उसका गुरु समझा रहा है कि तुम कम हो जाओगे, मुसलमान ज्यादा हो जाएंगे। मुसलमान को मौलवी समझा रहा है कि तुम कम हो जाओगे, हिंदू ज्यादा हो जाएंगे। वही ईसाई पादरी भी सोच रहा है, वही हिंदू पंडित भी सोच रहा है। ये सब जो सोच रहे हैं, इनकी सोचने की वजह भी अनिवार्य परिवार-नियोजन से मिट जाएगी। यदि हम परिवार-नियोजन अनिवार्य कर देते हैं, तो कोई हिंदू, मुसलमान, ईसाई का सवाल नहीं रह जाता है।
मेरे लिए तो सवाल यह है कि सैकड़ों वर्षों में कुछ लोग विकसित हो गए हैं और कुछ लोग अविकसित रह गए हैं। जो अविकसित वर्ग है, वह बच्चे ज्यादा छोड़ जाए तो देश की प्रतिभा और बुद्धिमत्ता को भारी नुकसान पहुंच सकता है। बुद्धिमत्ता को भारी नुकसान पहुंच सकता है। और वह नुकसान खतरनाक सिद्ध हो सकता है। इसलिए उस दृष्टि से मैं सारे सवाल को सोचता हूं कि केवल परिवार-नियोजन ही न हो, बल्कि ऐसा लगता है कि वह अनिवार्य हो। एक भी व्यक्ति सिर्फ इसलिए न छोड़ा जा सके कि वह राजी नहीं है। और यह हमें करना ही पड़ेगा। इसे बिना किए हम इन आने वाले पचास वर्षों में जिंदा नहीं रह सकते।
शक्ति के सारे मापदंड बदल गए हैं, यह हमें ठीक से समझ लेना चाहिए। आज शक्तिशाली वह है जो संपन्न है। और संपन्न वह है जिसके पास जनसंख्या कम है और उत्पादन के साधन ज्यादा हैं। आज मनुष्य न तो उत्पादन का साधन है, न शक्ति का साधन है। आज मनुष्य सिर्फ भोक्ता है, कंज्यूमर है। मशीन पैदा करती है, जमीन पैदा करती है, मनुष्य खा रहा है।
और धीरे-धीरे जैसे-जैसे टेक्नॉलाजी विकसित होती है, आदमी की शक्ति का सारा मूल्य समाप्त हुआ जा रहा है। आदमी न हो तो भी चल सकता है। एक लाख आदमी जिस फैक्टरी में काम करते हों, उसे एक आदमी चला सकेगा। और हिरोशिमा में एक लाख आदमी मारना हो तो उन्हें एक आदमी मार सकेगा। पुराने जमाने में तो कम से कम एक लाख आदमी ले जाने पड़ते। अब तो कोई एक आदमी जाता है और एटम बम गिरा कर उनको समाप्त कर देता है। कल यह भी हो सकता है कि एक आदमी को भी न जाना पड़े। कंप्यूटराइज्ड आदेश एक आदमी भर देगा मशीन में और काम हो जाएगा। आदमी की संख्या बिलकुल महत्वहीन हो गई है।
यह जरूरी नहीं है कि मेरी सारी बातें मान ली जाएं। इतना ही काफी है कि आप मेरी बात पर सोचें, विचार करें। अगर इस देश में सोच-विचार आ जाए तो शेष चीजें अपने आप छाया की तरह पीछे चली आएंगी। मेरी बातें खयाल में लें और उस पर सूक्ष्मता से विचार करें, तो हो सकता है कि आपको यह बोध आ जाए कि परिवार-नियोजन की अनिवार्यता कोई साधारण बात नहीं है जिसकी उपेक्षा की जा सके। वह जीवन की अनेक-अनेक समस्याओं की गहनतम जड़ों से संबंधित है। और उसे क्रियान्वित करने की देरी पूरी मनुष्य-जाति के लिए आत्मघात सिद्ध हो सकती है।

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