ओशो ध्यान योग-(प्रथम ओर अंतिम मुक्ति)
अध्याय -तीसरा
ध्यान-एक वैज्ञानिक दृष्टि
मेरे प्रिय आत्मन्!सुना है मैंने, कोई नाव उलट गई थी। एक व्यक्ति उस नाव में बच गया और एक निर्जन द्वीप पर जा लगा। दिन, दो दिन, चार दिन; सप्ताह, दो सप्ताह उसने प्रतीक्षा की कि जिस बड़ी दुनिया का वह निवासी था, वहां से कोई उसे बचाने आ जाएगा। फिर महीने भी बीत गए और वर्ष भी बीतने लगा। फिर किसी को आते न देखकर वह धीरे-धीरे प्रतीक्षा करना भी भूल गया। पांच वर्षों के बाद कोई जहाज वहां से गुजरा, उस एकांत निर्जन द्वीप पर उस आदमी को निकालने के लिए जहाज ने लोगों को उतारा। और जब उन लोगों ने उस खो गए आदमी को वापस चलने को कहा, तो वह विचार में पड़ गया।
उन लोगों ने कहा, "क्या विचार कर रहे हैं, चलना है या नहीं?" तो उस आदमी ने कहा, "अगर तुम्हारे साथ जहाज पर कुछ अखबार हों जो तुम्हारी दुनिया की खबर लाए हों, तो मैं पिछले दिनों के कुछ अखबार देख लेना चाहता हूं।" अखबार देखकर उसने कहा, "तुम अपनी दुनिया सम्हालो और अखबार भी, और मैं जाने से इनकार करता हूं।"
बहुत हैरान हुए वे लोग। उनकी हैरानी स्वाभाविक थी। पर वह आदमी कहने लगा, इन पांच वर्षों में मैंने जिस शांति, जिस मौन और जिस आनंद को अनुभव किया है, वह मैंने पूरे जीवन के पचास वर्षों में तुम्हारी उस बड़ी दुनिया में कभी अनुभव नहीं किया था। और सौभाग्य, और परमात्मा की अनुकंपा कि उस दिन तूफान में नाव उलट गयी और मैं इस द्वीप पर आ लगा। यदि मैं अभी इस द्वीप पर न लगा होता, तो शायद मुझे पता भी न चलता कि मैं किस बड़े पागलखाने में पचास वर्षों से जी रहा था!
हम उस बड़े पागलखाने के हिस्से हैं; उसमें ही पैदा होते हैं, उसमें ही बड़े होते हैं, उसमें ही जीते हैं--और इसलिए कभी पता भी नहीं चल पाता कि जीवन में जो भी पाने योग्य है, वह सभी हमारे हाथ से चूक गया है। और जिसे हम सुख कहते हैं और जिसे हम शांति कहते हैं, उसका न तो सुख से कोई संबंध है और न शांति से कोई संबंध है। और जिसे हम जीवन कहते हैं, शायद वह मौत से किसी भी हालत में बेहतर नहीं है।
लेकिन परिचय कठिन है। चारों ओर एक शोरगुल की दुनिया है। चारों ओर शब्दों का, शोरगुल का उपद्रवग्रस्त वातावरण है। उस सारे वातावरण में हम वे रास्ते ही भूल जाते हैं, जो भीतर मौन और शांति में ले जा सकते हैं।
इस देश में--और इस देश के बाहर भी--कुछ लोगों ने अपने भीतर भी एकांत द्वीप की खोज कर ली है। न तो यह संभव है कि सभी की नावें डूब जाएं; न यह संभव है कि इतने तूफान उठें; और न यह संभव है कि इतने निर्जन द्वीप मिल जाएं, जहां सारे लोग शांति और मौन को अनुभव कर सकें। लेकिन, फिर भी यह संभव है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर ही उस निर्जन द्वीप को खोज ले।
ध्यान अपने ही भीतर उस निर्जन द्वीप की खोज का मार्ग है।
इस ध्यान के विज्ञान के संबंध में दो-तीन बातें आपसे कहना चाहूंगा।
पहली बात तो यह कि साधारणतः जब हम बोलते हैं, तभी हमें पता चलता है कि हमारे भीतर कौन से विचार चलते थे। ध्यान का विज्ञान इस स्थिति को अत्यंत ऊपरी अवस्था मानता है। अगर एक आदमी न बोले, तो हम पहचान भी न पाएं कि वह कौन है, क्या है।
शब्द हमारे बाहर प्रकट होता है, तभी हमें पता चलता है--हमारे भीतर क्या था। ध्यान का विज्ञान कहता है, यह अवस्था सबसे ऊपरी अवस्था है चित्त की; सरफेस है, ऊपर की पर्त है। हम नहीं बोले होते हैं, तब भी पहले उसके विचार भीतर चलता है; अन्यथा हम बोलेंगे कैसे? अगर मैं कहता हूं ओम--तो इसके पहले कि मैंने कहा--मेरे भीतर, ओठों के पार, मेरे हृदय के किसी कोने में ओम का निर्माण हो जाता है। ध्यान कहता है, यह दूसरी पर्त है व्यक्तित्व की गहराई की।
साधारणतः आदमी ऊपर की पर्त पर ही जीता है, उसे दूसरी पर्त का भी पता नहीं होता। उसके बोलने की दुनिया के नीचे भी एक सोचने का जगत है, उसका भी उसे कुछ पता नहीं होता। काश, हमें हमारे सोचने के जगत का पता चल जाए, तो हम बहुत हैरान हो जाएं। जितना हम सोचते हैं, उसका बहुत थोड़ा सा हिस्सा वाणी में प्रकट होता है। ठीक ऐसे ही, जैसे एक बर्फ के टुकड़े को हम पानी में डाल दें, तो एक हिस्सा ऊपर हो और नौ हिस्सा नीचे डूब जाए। हमारा भी नौ हिस्सा जीवन का, विचार का तल नीचे डूबा रहता है; एक हिस्सा ऊपर दिखाई पड़ता है।
इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि आप क्रोध कर चुकते हैं, तब आप कहते हैं कि यह कैसे संभव हुआ कि मैंने क्रोध किया? एक आदमी हत्या कर देता है, फिर पछताता है कि यह कैसे संभव हुआ कि मैंने हत्या की! इनस्पाइट ऑफ मी--वह कहता है, मेरे बावजूद यह हो गया, मैंने तो कभी ऐसा करना ही नहीं चाहा था। उसे पता नहीं कि हत्या आकस्मिक नहीं है, पहले भीतर निर्मित होती है। लेकिन वह तल गहरा है, और उस तल से हमारा कोई संबंध नहीं रह गया।
ध्यान का विज्ञान कहता है कि पहला तल बोलने का है, दूसरा तल सोचने का है, तीसरा तल दर्शन का है। पश्यंति का अर्थ है--देखना; जहां शब्द देखे जाते हैं। मोहम्मद कहते हैं, मैंने कुरान देखी, सुनी नहीं। वेद के ऋषि कहते हैं, हमने ज्ञान देखा, सुना नहीं। मूसा कहते हैं, मेरे सामने टेन कमांडमेंट्स प्रकट हुए, दिखाई पड़े, मैंने सुने नहीं। यह तीसरे तल की बात है, जहां विचार दिखाई पड़ते हैं, सुनाई नहीं पड़ते हैं।
तीसरा तल भी ध्यान के हिसाब से मन का आखिरी तल नहीं है। चौथा एक तल है, जिसे ध्यान का विज्ञान परा कहता है। वहां विचार दिखाई भी नहीं पड़ते, सुनाई भी नहीं पड़ते। और जब कोई व्यक्ति देखने और सुनने से नीचे उतर जाता है, तब उसे चौथे तल का पता चलता है। और उस चौथे तल के पार जो जगत है, वह ध्यान का जगत है।
ये चार हमारी पर्तें हैं। इन चार दीवारों के भीतर हमारी आत्मा है। हम बाहर के परकोटे की दीवार के बाहर ही जीते हैं। पूरे जीवन शब्दों की पर्त के साथ जीते हैं--और स्मरण नहीं आता कि खजाने बाहर नहीं हैं, बाहर सिर्फ रास्तों की धूल है। आनंद बाहर नहीं है, बाहर आनंद की धुन भी सुनाई पड़ जाए तो बहुत। जीवन का सब-कुछ भीतर है--जड़ों में, गहरे अंधेरे में दबा हुआ। ध्यान वहां तक पहुंचने का मार्ग है।
पृथ्वी पर बहुत से रास्तों से उस पांचवीं स्थिति में पहुंचने की कोशिश की जाती रही है। और जो व्यक्ति इन चार स्थितियों को पार करके पांचवीं गहराई में नहीं डूब पाता, उस व्यक्ति को जीवन तो मिला, लेकिन जीवन को जानने की उसने कोई कोशिश नहीं की। उस व्यक्ति को खजाने तो मिले, लेकिन खजानों से वह अपरिचित रहा और रास्तों पर भीख मांगने में उसने समय बिताया। उस व्यक्ति के पास वीणा तो थी, जिससे संगीत पैदा हो सकता था; लेकिन उसने उसे कभी छुआ नहीं, उसकी अंगुलियों का कभी कोई स्पर्श उसकी वीणा तक नहीं पहुंचा।
हम जिसे सुख कहते हैं, धर्म उसे सुख नहीं कहता। है भी नहीं, हम भलीभांति जानते हैं। जिसे हम सुख कहते हैं, वह थोड़ी सी देर के लिए किसी तनाव से मुक्ति है। नकारात्मक है, निगेटिव है।
एक आदमी थोड़ी देर के लिए श्राब पी लेता है, और सोचता है सुख में है! एक आदमी थोड़ी देर के लिए सेक्स में उतर जाता है, और सोचता है सुख में है! एक आदमी थोड़ी देर के लिए संगीत सुन लेता है, और सोचता है कि सुख में है! एक आदमी बैठकर गपशप कर लेता है, हंसी-मजाक कर लेता है, हंस लेता है, और सोचता है कि सुख में है!
ये सारे सुख तंग जूते को सांझ उतारने से भिन्न नहीं हैं, उनका सुख से कोई संबंध नहीं है। सुख एक पॉजिटिव, एक विधायक स्थिति है--नकारात्मक नहीं। सुख छींक जैसी चीज नहीं है कि आपको छींक आ जाती है, और पीछे थोड़ी राहत मिलती है! क्योंकि छींक परेशान कर रही थी। वह एक नकारात्मक चीज नहीं है कि एक बोझ मन से उतर जाता है, और पीछे अच्छा लगता है।
सुख एक विधायक अनुभव है। लेकिन बिना ध्यान के वैसा विधायक सुख किसी को अनुभव नहीं होता। और जैसे-जैसे आदमी सभ्य और शिक्षित हुआ है, वैसे-वैसे ध्यान से दूर हुआ है। सारी शिक्षा, सारी सभ्यता--आदमी को दूसरों से कैसे संबंधित हों, यह तो सिखा देती है; लेकिन अपने से कैसे संबंधित हों, यह नहीं सिखाती।
समाज आपको एक फंक्श्न से ज्यादा नहीं मानता। अच्छे दुकानदार हों, अच्छे नौकर हों, अच्छे पति हों, अच्छी मां हों, अच्छी पत्नी हों--बात समाप्त हो गयी; आपसे समाज को कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए समाज की सारी शिक्षा उपयोगितावादी है, यूटिलिटेरियन है। समाज सारी शिक्षा ऐसी देता है, जिससे कुछ पैदा होता हो। आनंद से कुछ भी पैदा होता नहीं दिखाई पड़ता। आनंद कोई कमोडिटी नहीं है, जो बाजार में बिक सके। आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे रुपए में भंजाया जा सके। आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे बैंक-बैलेंस में जमा किया जा सके। आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसकी बाजार में कोई कीमत हो सके। इसलिए समाज को आनंद से कोई प्रयोजन नहीं है। और कठिनाई यही है कि आनंद भर एक ऐसी चीज है, जो व्यक्ति के लिए मूल्यवान है; बाकी कुछ भी मूल्यवान नहीं है। लेकिन जैसे-जैसे आदमी सभ्य होता जाता है, यूटिलिटेरियन होता जाता है--सब चीजों की उपयोगिता होनी चाहिए।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, "ध्यान से क्या मिलेगा?" शायद वे सोचते होंगे--रुपए मिलें, मकान मिले, कोई पद मिले। ध्यान से न पद मिलेगा, न रुपए मिलेंगे, न मकान मिलेगा; ध्यान की कोई उपयोगिता नहीं है।
लेकिन जो आदमी सिर्फ उपयोगी चीजों की तलाश में घूम रहा है, वह आदमी सिर्फ मौत की तलाश में घूम रहा है। जीवन की भी कोई उपयोगिता नहीं है। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह परपज़लेस है। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, उसकी बाजार में कोई कीमत नहीं है। प्रेम की कोई कीमत है बाजार में? कोई कीमत नहीं है। आनंद की कोई कीमत है? कोई कीमत नहीं है। प्रार्थना की कोई कीमत है? कोई कीमत नहीं है। ध्यान की, परमात्मा की? इनकी कोई भी कीमत नहीं है। लेकिन जिस जिंदगी में अनुपयोगी, नॉन-यूटिलिटेरियन मार्ग नहीं होता, उस जिंदगी में सितारों की चमक भी खो जाती है, उस जिंदगी में फूलों की सुगंध भी खो जाती है, उस जिंदगी में पक्षियों के गीत भी खो जाते हैं, उस जिंदगी में नदियों की दौड़ती हुई गति भी खो जाती है; उस जिंदगी में कुछ भी नहीं बचता, सिर्फ बाजार बचता है। उस जिंदगी में काम के सिवाय कुछ भी नहीं बचता। उस जिंदगी में तनाव और परेशानी और चिंताओं के सिवाय कुछ भी नहीं बचता। और जिंदगी चिंताओं का एक जोड़ नहीं है। लेकिन हमारी जिंदगी चिंताओं का एक जोड़ है!
ध्यान हमारी जिंदगी में उस डायमेंशन, उस आयाम की खोज है, जहां हम बिना प्रयोजन के--सिर्फ होने-मात्र में, जस्ट टु बी--होने-मात्र से आनंदित होते हैं। और जब भी हमारे जीवन में कहीं से भी सुख की कोई किरण उतरती है, तो वे वे ही क्षण होते हैं, जब हम खाली, बिना काम के--समुद्र के तट पर, या किसी पर्वत की ओट में, या रात आकाश के तारों के नीचे, या सुबह उगते सूरज के साथ, या आकाश में उड़ते हुए पक्षियों के पीछे, या खिले हुए फूलों के पास--कभी जब हम बिना काम, बिल्कुल बेकाम, बिल्कुल व्यर्थ, बाजार में जिसकी कोई कीमत न होगी--ऐसे किसी क्षण में होते हैं, तभी हमारे जीवन में सुख की थोड़ी सी ध्वनि उतरती है। लेकिन यह आकस्मिक, एक्सिडेंटल होती है। ध्यान, व्यवस्थित रूप से इस किरण की खोज है।
मेरे देखे, ध्यान से ज्यादा बिना कीमत की कोई चीज नहीं है। और ध्यान से ज्यादा बहुमूल्य भी कोई चीज नहीं है। और आश्चर्य की बात यह है कि यह जो ध्यान, प्रार्थना, या हम और कोई नाम दें--यह इतनी कठिन बात नहीं है, जितना लोग सोचते हैं। कठिनाई अपरिचय की है। कठिनाई न जानने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जैसे हमारे घर के किनारे पर ही कोई फूल खिला हो, और हमने खिड़की न खोली हो; जैसे बाहर सूरज खड़ा हो, और हमारे द्वार बंद हों; जैसे खजाना सामने पड़ा हो, और हम आंख बंद किए बैठे हों--ऐसी कठिनाई है। अपने ही हाथ से अपरिचय के कारण कुछ हम खोए हुए बैठे हैं, जो हमारा किसी भी क्षण हो सकता है।
ध्यान प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता है। क्षमता ही नहीं, प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार भी। परमात्मा जिस दिन व्यक्ति को पैदा करता है, ध्यान के साथ ही पैदा करता है। ध्यान हमारा स्वभाव है। उसे हम जन्म के साथ लेकर पैदा होते हैं। इसलिए ध्यान से परिचित होना कठिन नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति ध्यान में प्रविष्ट हो सकता है।
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