जनसंख्या विस्फोट-ओशो
प्रवचन-दूसरा - संतति नियमन
‘एक एक कदम’ प्रवचन 7 से संकलित
मेरे प्रिय आत्मन् ,
संतति-नियमन या परिवार नियोजन पर मैं कुछ कहूं, उसके पहले दोत्तीन बातें मैं आपसे कहना चाहूंगा।पहली बात तो यह कहना चाहूंगा कि आदमी एक ऐसा जानवर है जो इतिहास से कुछ भी सीखता नहीं। इतिहास लिखता है, इतिहास बनाता है, लेकिन इतिहास से कुछ सीखता नहीं है। और यह इसलिए सबसे पहले कहना चाहता हूं कि इतिहास की सारी खोजों ने जो सबसे बड़ी बात प्रमाणित की है, वह यह कि इस पृथ्वी पर बहुत-से प्राणियों की जातियां अपने को बढ़ा कर पूरी तरह नष्ट हो गईं। इस जमीन पर बहुत शक्तिशाली पशुओं का निवास था, लेकिन वे अपने को बढ़ा कर नष्ट हो गए।
आज से पांच लाख वर्ष पहले--और जो मैं कह रहा हूं वह वैज्ञानिक अनुसंधान के आधार पर कहता हूं--जमीन पर हाथी से भी बड़ी छिपकलियां थीं। अब तो आपके घर में जो छिपकली बची है वही उसका एकमात्र वंशज है। वह इतना शक्तिशाली जानवर था। उसकी अस्थियां तो उपलब्ध हो गई हैं, वह सारी पृथ्वी पर फैल गया था। अचानक विदा कैसे हो गया?
उसने इतने बच्चे पैदा कर लिए, इतनी संख्या बढ़ा ली कि जमीन उसके रहने को, उसको बसाने को असमर्थ हो गई। किसी युद्ध में वह प्राणी नहीं मरा, कोई एटम बम उस पर नहीं गिरा, भीतर से ही उसकी संख्या का एक्सप्लोजन उसकी मृत्यु बन गई। ऐसे और सैकड़ों प्राणी इस पृथ्वी पर रहे हैं और अपने को बढ़ा कर ही समाप्त हो गए।
मनुष्य-जाति फिर उस बिंदु के करीब आ रही है जहां वह अपने को बढ़ा कर समाप्त हो सकती है। बुद्ध के जमाने में इस देश की आबादी दो करोड़ थी। लोग अगर थोड़े खुशहाल थे तो कोई सतयुग के कारण नहीं। जमीन थी ज्यादा, लोग थे कम। अतीत की जो हम स्मृतियां लाए हैं खुशहाली की, वे खुशहाली की स्मृतियां नहीं हैं। वे स्मृतियां हैं जमीन के ज्यादा होने की, लोगों के कम होने की। भोजन ज्यादा था, लोग कम थे, इसलिए खुशहाली थी।
सारी मनुष्य-जाति की संख्या--और अगर हम दो हजार साल पीछे चले जाएं बुद्ध से--तो आज से पांच हजार साल पहले सारी पृथ्वी की संख्या ही दो करोड़ थी। आज पृथ्वी की संख्या साढ़े तीन अरब से ऊपर है, साढ़े तीन सौ करोड़ से ऊपर है। पृथ्वी उतनी ही है, संख्या साढ़े तीन सौ करोड़ से ऊपर है। और हम प्रतिदिन उस संख्या को बढ़ा रहे हैं। वह संख्या हम इतनी तेजी से बढ़ा रहे हैं कि अंदाजन डेढ़ लाख लोग रोज बढ़ जाते हैं। जितनी देर मैं यहां घंटे भर बात करूंगा उतनी देर मनुष्यता शांत नहीं बैठी रहेगी। उस घंटे भर में हजारों लोग बढ़ चुके होंगे। यह सदी पूरी होते-होते, अगर दुर्भाग्य से आदमी को समझ न आई तो इस सदी के पूरे होते-होते यानी आज से तीस वर्ष बाद, जमीन पर कोहनी हिलाने की जगह न रह जाएगी। तब सभाएं करने की बिलकुल जरूरत नहीं पड़ेगी। हम चौबीस घंटे सभाओं में होंगे।
यह हो नहीं पाएगा। यह हो नहीं पाएगा, कोई न कोई सौभाग्य, युद्ध, महामारी--कोई न कोई सौभाग्य मैं कह रहा हूं--इसे होने नहीं देगा। लेकिन अगर यह महामारी और युद्ध से हुआ तो मनुष्य की बुद्धि पर बड़ा कलंक लग जाएगा। जिन डायनासोर की मैंने बात की, जिन छिपकलियों की बात की जो हाथियों से बड़ी थीं, अब नहीं हैं, उनके पास कोई बुद्धि न थी, शरीर बहुत बड़ा था। वे कोई उपाय न कर सके, वे कुछ सोच न सके, वे मर गए।
हम सदा से ऐसा सोचते रहे हैं कि आदमी सोचने वाला प्राणी है, हालांकि आदमी सबूत नहीं देता है इस बात का। और अगर पचास सालों से आदमी को जितनी समझने की कोशिश की गई है, उतना ही पुराना विश्वास कमजोर हुआ है। वह जो रेशनल बीइंग का खयाल था, वह कमजोर हुआ है। आदमी भी विचारवान प्राणी नहीं मालूम पड़ता है, क्योंकि वह भी जो कर रहा है अत्यंत विचारहीन है। और सबसे बड़ी विचारहीनता जो हम कर सकते हैं आज, वह संख्या को बढ़ाए जाने की है। इस समय वह आदमी उतना बुरा नहीं है जो किसी की हत्या कर देता है; उतना बड़ा क्रिमिनल नहीं है। बल्कि कौन जाने वह आदमी कुछ अच्छा ही काम कर रहा है मनुष्य के भविष्य को निर्मित करने के लिए! मैं नहीं कहता कि कोई हत्या करे। कोई हत्यारे को हत्या करने के लिए नहीं कह रहा हूं। लेकिन हत्या अब उतना बड़ा अपराध नहीं है जितना एक नए बच्चे को जन्म देना बड़ा अपराध है, क्योंकि हत्या से एक आदमी मरेगा और एक बच्चे को जन्म देने की प्रक्रिया अगर जारी रहती है तो पूरी मनुष्यता भी मर सकती है।
यह जो संभावना बनी कि इतनी संख्या हो जाए, यह संभावना मनुष्य की अपनी खोजों का परिणाम है। इथोपिया में लोग बहुत-सी बीमारियों से मरते हैं जो बीमारियां दूसरे मुल्कों में समाप्त हो गई हैं। इथोपिया का सम्राट हेल सिलासी अमरीका से एक छोटा-सा आयोग बुलाया डाक्टरों का जांच-पड़ताल के लिए इथोपिया में कि वहां की बीमारियों को कैसे रोका जा सके। उन्होंने जांच-पड़ताल की और रिपोर्ट दी। और रिपोर्ट में लिखा कि इथोपिया के लोग जो पानी पीते हैं वह बहुत ही संक्रामक कीटाणुओं से भरा हुआ है। और इथोपिया में लोग सड़क के किनारे गङ्ढों में जो पानी भर जाता है वर्षा का, उसको भी पीने के काम में ले आते हैं। उसमें जानवर स्नान भी करते रहते हैं, पीते भी रहते हैं, और लोग भी उसको पी लेते हैं। उस कमीशन ने कहा कि अगर शुद्ध पानी पिलाने की चिंता की जाए तो इथोपिया की बहुत-सी बीमारियां विदा हो सकती हैं।
सम्राट ने उस कमीशन के आयोग की जो रिपोर्ट थी उसे रख कर कहा कि आपकी खोज के लिए धन्यवाद! लेकिन यह काम मैं कभी करूंगा नहीं। आयोग ने कहा, आप क्या कह रहे हैं? लोग मर रहे हैं! उस सम्राट ने कहा कि पहले मैं उन्हें बचाने का इंतजाम करूं और कल फिर उन्हें समझाने जाऊं कि बच्चे पैदा मत करो! यह झंझट दोहरी हो जाएगी। इधर मैं बचाऊं उनको बीमारी से और उधर बच्चे बढ़ेंगे, और कल फिर जगह-जगह लिखना पड़ेगा: कम बच्चे होते हैं अच्छे। उस सबकी पंचायत में मैं नहीं पडूंगा। वे अपने आप ही कम हो जाते हैं।
कठोर लगती है इथोपिया के सम्राट की बात, लेकिन हम सबको देख कर ऐसा लगता है कि शायद वह आदमी ठीक ही कहता है। आदमी ने मृत्यु दर कम कर दी और अनुपात बिगाड़ दिया। आज से डेढ़ सौ साल पहले, दो सौ साल पहले दस बच्चे पैदा होते तो नौ बच्चों के मरने की संभावना थी। आज दस बच्चे पैदा होते हैं तो नौ के बचने की संभावना हो गई है। और वह जो एक मर रहा है वह भी हमारी कुछ नासमझी से मर रहा है, नहीं तो उसको भी मरने की जरूरत नहीं है। और आज से दो सौ साल पहले दस बच्चों में वह जो एक बच जाता था, वह परमात्मा की कृपा से बचता था, हमारी समझदारी से नहीं। हमारी समझदारी से तो नौ मरते थे।
तो एक-एक आदमी बीस-पच्चीस बच्चे भी पैदा करता था, क्योंकि बीस-पच्चीस बच्चे पैदा करके भी दो बच्चे बच जाएं तो बहुत था। आदत पुरानी है। बीस-पच्चीस बच्चे पैदा हम अभी भी करना चाहेंगे, लेकिन अब बीस-पच्चीस बच्चे ही बच जाते हैं।
मनुष्य ने मृत्यु दर पर रोक लगा दी है, बीमारी पर रोक लगा दी है। आज से पांच हजार वर्ष पुरानी जितनी कब्रें मिली हैं, उनमें जो हड्डियां मिली हैं, उनके निरीक्षण की खबर बड़ी अदभुत है। वह खबर यह है कि आज से पांच हजार साल पहले पच्चीस वर्ष सबसे बड़ी उम्र थी। पच्चीस वर्ष से पुरानी हड्डी कोई भी नहीं मिलती। पच्चीस साल की उम्र आखिरी उम्र रही हो...।
आज उम्र कई मुल्कों में सत्तर, अस्सी, पच्चासी के बिंदु को छू गई है। रूस में आज हजारों ऐसे लोग हैं जो डेढ़ सौ वर्ष के करीब हैं या पार कर गए हैं। और जितनी हमारी वैज्ञानिक समझ बढ़ी है उतनी संभावना बढ़ती जाती है कि हम चाहें तो आदमी की उम्र को अंतहीन लंबा कर सकते हैं।
यह हमारी संभावना बढ़ गई है। विज्ञान ने मौत को पीछे हटा दिया। लेकिन जन्म की, जो पैदा करने की हमारी आदत है वह अवैज्ञानिक है। वह उन दिनों की है जब विज्ञान नहीं था। प्रकृति जो है, भूल-चूक न हो जाए, इसलिए बहुत अबन्डेंस में प्रयोग करती है, बहुत अति में प्रयोग करती है। जहां एक गोली मारने से काम चल जाए वहां प्रकृति हजार गोली मारती है। क्योंकि अंधा खेल है, हजार में एक लग जाए तो बहुत। आदमी निशानेबाज हो गया है। अब वह एक ही गोली में मार सकता है लेकिन आदत उसकी पुरानी है।
प्रकृति के अबन्डेंस को समझना बहुत जरूरी है। एक बीज आप लगाते हैं, हजार-लाख बीज हो जाते हैं। यह इस बात की कोशिश है कि लाख बीज में कम से कम एक तो फिर पौधा बन सकेगा। एक पुरुष अपनी साधारण स्वास्थ्य की जिंदगी में चार हजार संभोग कर सकता है, सहज। चार हजार। और अगर प्रत्येक संभोग बच्चा बन सके तो एक-एक आदमी चार-चार हजार बच्चों का बाप हो सकता है। लेकिन ये चार हजार नहीं हो पाते, क्योंकि स्त्री की क्षमता बहुत कम है। वह वर्ष में एक ही बच्चे को जन्म दे सकती है।
इसलिए जिन मुल्कों में बच्चों की ज्यादा जरूरत थी--जैसे मुसलमान मुल्कों में--क्योंकि युद्ध उन्हें करना था और लड़के मर जाते। इसलिए मोहम्मद ने चार-चार शादियों की छूट दी। पुरुष कम हों, औरतें ज्यादा हों, तो संख्या को कोई खतरा नहीं है, क्योंकि एक पुरुष पचास स्त्रियों से बच्चे पैदा कर सकता है। लेकिन अगर स्त्रियां कम हो जाएं और पुरुष कितने ही हों तो कुछ फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि स्त्री की क्षमता बहुत सीमित है। वह एक ही बच्चे को वर्ष में जन्म दे दे तो बहुत है।
चार हजार मैं कह रहा हूं, अगर एक-एक संभोग बच्चा बन जाए तो चार हजार बच्चे एक पुरुष पैदा कर सकता है। लेकिन एक संभोग में जितने वीर्याणु जाते हैं उसमें एक करोड़ बच्चे पैदा हो सकते हैं। एक संभोग में एक करोड़ वीर्याणु जाते हैं। अगर इसको भी हम हिसाब में लें तो एक करोड़ गुणित चार हजार, चार हजार करोड़ बच्चे एक पुरुष के व्यक्तित्व से पैदा हो सकते हैं। एक पुरुष इतने वीर्याणु पैदा करता है अपनी सामान्य उम्र में कि इस पृथ्वी पर जितने लोग हैं उससे कई सौ गुना ज्यादा। अभी साढ़े तीन अरब लोग हैं, साढ़े तीन सौ करोड़। चार हजार करोड़ बच्चों का बाप एक आदमी बन सकता है--बनता तो है तीन-चार का, छः-सात का, आठ का, लेकिन प्रकृति भूल-चूक न हो जाए इसलिए इंतजाम बहुत अतिरेक करती है।
तो हमने मृत्यु दर तो रोक ली और प्रकृति का जो अतिरेक का इंतजाम है उस अतिरेक को हम जारी रखें तो मनुष्य अपनी ही संख्या के दबाव से मर सकता है। और अब तो और नई संभावनाएं खुल गई हैं। वे संभावनाएं हमारी जो सामान्य सीमाएं थीं उनके भी पार ले जाती हैं। जैसे, आज वीर्याणु को सुरक्षित रखा जा सकता है। पुराने जमाने में यह संभावना न थी। आप रहते दुनिया में तो ही बाप बन सकते थे। अब आपका रहना आवश्यक नहीं है। आप हजार साल बाद भी किसी बेटे के बाप बन सकते हैं। आपके वीर्याणु को सुरक्षित रखा जा सकता है।
अब जरूरी नहीं है कि बाप मौजूद ही हो तभी बाप बने। अब पोस्ट-फादरहुड भी संभव है। बाप मर चुका हजार साल पहले, लेकिन उसका वीर्याणु सुरक्षित रखा जा सकता है। एक विशेष तापमान पर उसका वीर्याणु जिंदा रह सकता है और वह वीर्याणु कभी भी उपयोग किया जा सकता है। स्त्री के भी अंडे को बचाया जा सकता है और कभी भी कोई मां बन सकती है। अब मां बनने के लिए बेटे को पेट में ढोना ही अनिवार्य शर्त नहीं है।
ये सारी संभावनाएं जीवन को बचाने की बढ़ गईं, मौत को दूर हटाने की संभावना बढ़ गई, लेकिन हमारी जो आदतें हैं, हमारे जीवन के प्रति जो ढंग हैं, वे पूर्व-वैज्ञानिक स्थिति के हैं। इसलिए हम बच्चे पैदा किए चले जाते हैं। और हमें कुछ खयाल भी नहीं है कि जब बच्चा पैदा होता है तो अब भी हम बैंड-बाजा बजाते हैं। यह बैंड-बाजा उस दिन का है जब दस बच्चे पैदा होते और नौ मरते। स्वाभाविक, उस दिन बैंड-बाजा बजाने की बात थी। दस बच्चे पैदा होते और एक बचता, नौ मरते, तो जो बच्चा बच जाता उसके लिए बैंड-बाजा बजता, गांव में मिठाई बंटती, फूल बंटते, झंडियां लगतीं, स्वागत होता, यह बिलकुल स्वाभाविक था।
आदत हमारी वही है। अब एक-एक बच्चा बहुत खतरनाक है, लेकिन बैंड-बाजा अब भी हम बजा रहे हैं, झंडियां लगा रहे हैं। एक-एक आदमी को खयाल नहीं है कि स्थिति पूरी बदल गई है। पूरी स्थिति बदल गई है। अब एक-एक बच्चा जो जमीन पर कदम रख रहा है वह एक्सीलरेट कर रहा है पूरी मनुष्य-जाति की मौत को, तीव्रता से करीब ला रहा है। यह मौत की जो बहुत अनजान, अचेतन हमारे मन में तीव्र छाया पड़ रही है इस छाया के बहुत परिणाम होने शुरू हुए हैं। जैसे कि बड़े नगरों में, कलकत्ता है, लोग सोचते हैं कि नक्सलवाद कोई कम्युनिज्म की बात है। ऊपरी अर्थों में ऐसा ही दिखाई पड़ता है। लेकिन जो बहुत गहरे खोजते हैं उनकी खोज यह है कि आदमी शांति में अगर रहें तो उनके बीच एक डेफिनिट स्पेस चाहिए, नहीं तो वे शांति में नहीं रह सकते। एक सुनिश्चित अवकाश चाहिए।
चूहों पर बहुत प्रयोग हुए हैं, शेरों पर बहुत प्रयोग हुए हैं, और उन्होंने बहुत अदभुत परिणाम दिए हैं। आदमी पर प्रयोग करने की हिम्मत तो अब भी आदमी नहीं जुटा पाया है, नहीं तो बहुत साफ परिणाम हो जाएं। एक शेर को जिंदा रहने के लिए दस वर्ग मील की जगह चाहिए। अगर दस वर्ग मील की जगह में दस-पांच शेरों को रख दिया जाए तो उनके पागल होने की संभावना बढ़ जाती है।
यह जान कर आप हैरान होंगे कि जंगल में कोई जानवर आमतौर से पागल नहीं होता और अजायबघर में आमतौर से जानवर पागल हो जाता है। और अजायबघर में और जंगल में सिर्फ एक फर्क है, लिविंग स्पेस कम हो जाती है। बल्कि अजायबघर में जंगल की बजाय ज्यादा सुविधाएं हैं, ज्यादा वैज्ञानिक भोजन है, ज्यादा पीछे डाक्टर लगा है; सारा इंतजाम है जो जंगल में नहीं है--न कोई डाक्टर है, न भोजन की उचित सुविधा है, जानवर को भूखा भी रहना पड़ता है। लेकिन जंगल का जानवर पागल नहीं होता और अजायबघर के जानवर पागल हो जाते हैं।
जब मैंने पहली दफा अजायबघरों का अध्ययन किया और मुझे पता चला कि अजायबघर में जंगल के जानवर पागल हो जाते हैं, तो मुझे खयाल हुआ कि हमने आदमी के समाज को कहीं अजायबघर तो नहीं बना दिया है? क्योंकि आदमी जितना पागल हो रहा है उतना कोई जानवर पागल नहीं हो रहा है। और यह पागल होने का अनुपात भी जितनी सघन होती जाती है संख्या वहां बढ़ता चला जा रहा है--उसी अनुपात में बढ़ता चला जा रहा है।
आज भी आदिवासी हमारी बजाय कम पागल होता है। और हम भी आज बंबई की बजाय कम पागल होते हैं। और बंबई भी अभी न्यूयार्क की बजाय कम पागल होता है। तो आज अमरीका में मरीजों के लिए जितने बेड हैं, जितने बिस्तर हैं, उसमें आधे बिस्तर मानसिक मरीजों के लिए हैं। यह अनुपात बहुत अदभुत है। पचास प्रतिशत बेड अमरीका के मानसिक मरीजों के लिए हैं और प्रतिदिन पंद्रह लाख आदमी मानसिक इलाज के लिए पूछताछ कर रहे हैं। असल में शरीर का डाक्टर अमरीका में आउट आफ डेट हो गया है। मन का डाक्टर आधुनिक, अत्याधुनिक चिकित्सक है।
यह पागलपन तीव्रता से बढ़ता चला जाएगा। यह कई रूपों में प्रकट होगा। अब कलकत्ता में या बंबई में अगर पागलपन फूटता है और लोग बस जलाते हैं और ट्राम जलाते हैं, तो राजनैतिक नेता जो बातें हमें बताता है कि यह कम्युनिज्म का प्रभाव है, यह फलां वाद का प्रभाव है, यह ढिकां वाद का प्रभाव है, ये अखबार के तल की बुद्धि से खोजी गई बातें हैं। जिन्होंने अखबार से ज्यादा जिंदगी में और कुछ भी नहीं सोचा और खोजा है।
वैसे भी राजनैतिक नेता होने के लिए बुद्धि की कोई जरूरत नहीं होती; बल्कि बुद्धि हो तो राजनैतिक नेता होना जरा मुश्किल हो जाता है; क्योंकि नेता होने के लिए अनुयायियों के पीछे चलना पड़ता है। और जहां बुद्धू अनुयायी हों वहां नेता बुद्धिमान होना बहुत मुश्किल है। उसे बुद्धू होना ही चाहिए, निष्णात बुद्धू होना चाहिए। राजनैतिक नेता कहता है कि कम्युनिज्म है, फलां है, ढिकां है--यह सब ऊपरी बकवास है; असली सवाल भीतर लिविंग स्पेस कम होती जा रही है।
सार्त्र ने एक छोटी-सी कहानी लिखी है। कहानी लिखी है कि सुना था मैंने नर्क के संबंध में कि वहां भट्टियां जलती हैं और पापी उन भट्टियों में जलाए जाते हैं। लेकिन मुझे कभी बहुत डर नहीं लगा। बल्कि कई दफे ऐसा भी लगा कि स्वर्ग जाना कुछ ठीक नहीं, मोनोटोनस होगा। ऐसे भी साधु-संत मोनोटोनस होते हैं, उनके साथ रहो तो बहुत जल्दी ऊब जाते हैं। इसलिए लोग जल्दी दर्शन करके चले जाते हैं। दर्शन शायद इसीलिए खोजना पड़ा ताकि ज्यादा देर साथ न रहना पड़े। नमस्कार और विदा।
साधु-संत जो हैं उबाने वाले हो जाते हैं। असल में एक-सा ही स्वर बजता रहे तो उबाने वाला हो ही जाता है। पापी आदमी थोड़ा रुचिपूर्ण होता है, इंट्रेस्टिंग होता है। सच तो यह है कि अच्छे आदमी के ऊपर कोई कहानी ही नहीं लिखी जा सकती। अच्छे आदमी की कोई कहानी ही नहीं होती। कहानी सिर्फ बुरे आदमी की होती है। अच्छे आदमी की असल में कोई बायोग्राफी नहीं होती, बुरे आदमी की होती है।
तो सार्त्र को खयाल है मन में कि स्वर्ग में तो कुछ रस न होगा। वहां तो दुनिया भर के सब उबाने वाले लोग इकट्ठे होंगे। और बैठे होंगे अपनी-अपनी सिद्ध-शिलाओं पर। वहां कुछ करने को ही नहीं बचा होगा। नर्क देखने लायक होगा। दुनिया भर के पापी जहां इकट्ठे हों वहां जिंदगी बड़ी रसपूर्ण होगी और वहां घटनाएं घटती होंगी फिनॉमिनल, ऐसी घटनाएं घटती होंगी जो कि सदियों तक लोग चर्चा करें। जहां सारे पापी इकट्ठे हो गए हैं!
लेकिन एक रात सपना उसने देखा कि वह नर्क में चला गया है। लेकिन वहां न बत्तियां हैं, न आग जल रही है, न कोई सड़ाया जा रहा है, न कोई गलाया जा रहा है--बल्कि एक और दूसरी मुसीबत है जो खयाल में ही नहीं थी। वह यह है कि एक छोटा-सा कमरा है जिसमें कोई एग्जिट नहीं है, जिसमें बाहर जाने का उपाय नहीं है, द्वार नहीं है। एक छोटा कमरा है और बाहर जाने का द्वार नहीं है। और तीन आदमी हैं। और तीन आदमियों के बस खड़े रहने के लायक जगह है। जरा हिलो-डुलो कि दूसरे से छू जाते हैं। और तीनों में से कोई किसी की भाषा नहीं समझता है। और तीनों को साथ रहना पड़ता है, प्राइवेसी बिलकुल नहीं है। बस वह इतना कमरा है, बस वे तीन आदमी हैं, कोई किसी की भाषा नहीं समझता है। जागो तो उन तीन को देखते रहो, सोओ तो वे तुमको देखते रहें। कुछ भी करो, वे तीन वहां हैं। पंद्रह मिनट बाद ही बस तीनों पागल होने लगते हैं। किसी ने किसी को कुछ किया नहीं, लेकिन लिविंग स्पेस नहीं है, बीच में जगह नहीं है। और जब जगह नहीं होती तो प्राइवेसी खतम हो जाती है। प्राइवेसी के लिए जगह चाहिए।
गरीब की सबसे बड़ी जो दुविधा है, वह है प्राइवेसी का अभाव--भोजन नहीं, कपड़े नहीं। गरीब का सबसे बड़ा दुख है कि उसकी प्राइवेट जिंदगी नहीं हो सकती। वह अगर अपनी पत्नी से भी बात कर रहा हो तो भी पड़ोसी सुनता है। वह अपनी पत्नी से भी प्रेम नहीं कर सकता बिना इसके कि उसके बेटे-बेटी जान लें। गरीब की सबसे बड़ी तकलीफ है कि वह अकेले में नहीं हो सकता। उसकी प्राइवेसी जैसी कोई चीज नहीं है।
समृद्धि का एकमात्र सुख है कि आप अकेले में हो सकते हैं और दुनिया और अपने बीच स्पेस पैदा कर सकते हैं, जगह पैदा कर सकते हैं, बड़ी जगह पैदा कर सकते हैं। और जितनी आपके और दूसरों के बीच जगह बढ़ जाती है, उतना ही चित्त शांत होता है। दूसरे की मौजूदगी तनाव लाती है। यह आपने कभी खयाल न किया होगा कि दूसरा कुछ भी न करे, सिर्फ मौजूद हो जाए, तो तनाव शुरू हो जाता है।
आप रास्ते पर चले जा रहे हैं अकेले, आप दूसरे आदमी होते हैं। रास्ता सन्नाटा है, कोई भी नहीं है, आप बिलकुल दूसरे आदमी होते हैं। हो सकता है, अपने से बात कर रहे हों। मौज में आ गए हों, गीत गुनगुना रहे हों। वह गीत जो अपने बेटे को आपने कभी नहीं गुनगुनाने दिया। लेकिन दो आदमी निकल आए सड़क पर, बस आप बदल गए। सिर्फ दो आदमियों की मौजूदगी आपको तत्काल टेंस कर देती है।
अगर बहुत ठीक से समझें तो दि अदर इज़ दि टेंशन--वह जो दूसरा है, वही तनाव है। वह जो दूसरा है। और वह दूसरे की मौजूदगी बढ़ती जा रही है। चारों तरफ कोई न कोई मौजूद है। सब तरफ कोई न कोई मौजूद है। कहीं भी चले जाएं, कोई न कोई मौजूद है। अकेले होने का कोई उपाय नहीं। इससे एक गहरा तनाव आदमी के मन पर बैठ रहा है। वह तनाव बढ़ती हुई संख्या का सबसे खतरनाक परिणाम है।
राजनीतिज्ञों को उसका पता नहीं है, क्योंकि वह उनके लिए सवाल नहीं है। उनके लिए सवाल यह है कि भोजन पूरा हो जाए, कपड़ा पूरा हो जाए। न हो पाए तो क्या होगा, उनके लिए सवाल यह है। मेरे लिए सवाल यह है कि अगर संख्या बढ़ती चली गई तो आदमी आत्मा खो देगा; क्योंकि आत्मा अकेलेपन में फ्लावर होती है। वह अकेलेपन में खिलती है, लोनलीनेस में।
लेकिन लोनलीनेस नहीं है। पहाड़ पर जाओ तो पीछे और आगे कारें लगी हुई वहां भी पहुंच जाती हैं। बीच पर जाओ तो आपके पहले भी कारें हैं, पीछे भी कारें हैं। अमरीका का बीच देखने लायक हो गया है। लोग तीसत्तीस, चालीस-चालीस, पचास-पचास, सौ-सौ मील छुट्टी के दिन भागे हुए चले जा रहे हैं। लेकिन गाड़ियां नेक टु नेक फंसी हैं। भाग रहे हैं कि एकांत में जा रहे हैं। लेकिन बहुत लोग जा रहे हैं वहां एकांत में। और बीच पर पहुंचे तो लाख आदमी वहां खड़े हैं!
भीड़ के बाहर होना मुश्किल हुआ जा रहा है। महावीर और बुद्ध बड़े ठीक मौके पर हो गए; अब होते तो पता चलता! अब जिसको होना है उसको पता चल रहा है कि क्या कठिनाई है। लिविंग स्पेस नहीं बची है, अकेले खड़े नहीं हो सकते। अकेला होना असंभव है। और जो आदमी अकेला न हो पाए, वह आदमी ठीक अर्थों में जी ही नहीं पाता। वह बाहर ही बाहर घूमता रहता है! कोई न कोई मौजूद है, कोई न कोई मौजूद है, सब तरफ कोई न कोई मौजूद है। कहीं न कहीं से कोई न कोई देख रहा है।
यह जो तनाव, यह जो इनर टेंशन है, इसका विस्फोट होगा। नई-नई शक्लों में यह डिस्ट्रक्शन बन जाएगा। तो दूसरे को मिटाने की इच्छा पैदा होती है। अब वह इच्छा बहुत रूप लेगी। पहली बात तो वह रेशनल बनेगी, बुद्धि खोजेगी। गरीब कहेगा, अमीर को मिटाना है; क्योंकि इस अमीर की वजह से हम शांत नहीं हो पाते हैं। कम्युनिस्ट कहेगा कि कम्युनिस्ट विरोधी को मिटाना है; इसके बिना हम जी नहीं सकते। हिंदू कहेगा मुसलमान को मिटाना है, मुसलमान कहेगा हिंदू को मिटाना है।
बहुत गहरे में हम दूसरे को मिटाना चाहते हैं, जगह बनाना चाहते हैं। तो गुजराती कह रहा है, महाराष्ट्रियन को मिटाना है। महाराष्ट्रियन कह रहा है, गुजराती को मिटाना है। बंगाली कह रहा है, मारवाड़ी को न टिकने देंगे कलकत्ते में। ये झगड़ा मारवाड़ी, गुजराती, महाराष्ट्रियन, हिंदू और मुसलमान का नहीं है, यह तो ऊपर से हमने शक्लें दी हैं, झगड़े को शेप दिए हैं। झगड़ा गहरे में यह है कि जगह बनानी है, दूसरे को हटाना है। अफ्रीकन कह रहा है, गैर-अफ्रीकन हटो। अमरीकी कह रहा है, गैर-अमरीकी को न घुसने देंगे। आस्ट्रेलियन कह रहा है, बस बंद दरवाजा, अब कोई भीतर न आ सकेगा। चीनी कह रहा है, बंद कैसे करोगे दरवाजा! हम इतने ज्यादा हो रहे हैं कि हम सब दरवाजे तोड़ कर घुस जाएंगे।
कोई चीन का कसूर नहीं है हिंदुस्तान पर हमला, संख्या का भारी दबाव है। जैसे किसी थैले में जरूरत से ज्यादा चीजें भर दी हैं, और वह थैला फटने लगा है, और चारों तरफ चीजें गिरने लगी हैं--ऐसी चीन की हालत है। सत्तर, पचहत्तर, अस्सी करोड़--चीन की सामर्थ्य के बाहर हो गई--थैला छोटा पड़ गया, आदमी ज्यादा हैं। वे चारों तरफ गिर रहे हैं और उनका कोई उपाय नहीं है।
सारी दुनिया जिस तकलीफ में खड़ी है आज, वह है कि आदमी और आदमी के बीच जगह चाहिए। अगर जगह खत्म हो जाएगी तो बड़ा मुश्किल हो जाएगा। चूहों पर बहुत प्रयोग हुए हैं। बड़े अदभुत अनुभव हुए हैं। अनुभव ये हैं कि एक चूहे को भी रहने के लिए जगह चाहिए। रहने के लिए ही नहीं सिर्फ, दूसरे चूहे और उसके बीच में एक खास फासला चाहिए। कभी-कभी मिलें, मुलाकात हो, फिर अलग हो जाएं, नहीं तो कठिनाई हो जाती है। तो चूहों की लिविंग स्पेस को कम करके बहुत प्रयोग किए गए हैं। और पाया गया कि कितने चूहे इकट्ठे रख दिए जाएं एक कमरे में तो चूहे पागल होने शुरू हो जाते हैं; और कितने चूहे कम किए जाएं तो वे स्वस्थ होने शुरू हो जाते हैं।
जंगल में जाकर आपको जो अच्छा लगता है उसका कारण जंगल कम, दूसरे लोगों का न होना ज्यादा है। पहाड़ पर जाकर आपको अच्छा लगता है उसका कारण पहाड़ कम, वह दि अदर, वह दूसरा नहीं है आंख गड़ाए हुए कि आपके कपड़ों के भीतर देख रहा है चारों तरफ से; चारों तरफ आंखें ही आंखें घेरे हुए हैं; वे नहीं हैं वहां, आप हल्के हो पाते हैं, आप लेट पाते हैं, जो आपको करना होता है कर पाते हैं। वह असंभव हुआ जा रहा है।
मनुष्य का मन मरने के पहले बिलकुल पागल हो जाएगा। अगर इस पृथ्वी पर संख्या बढ़ती चली गई, कोई उपाय काम न आया...। और अभी जो हम उपाय कर रहे हैं उनसे कोई आशा नहीं बंधती। वे बहुत ही कमजोर उपाय हैं। वे ऐसे हैं जैसे कोई समुद्र को खाली कर रहा हो छोटे-से बर्तन में भर-भर कर; गिलास में भर-भर कर खाली कर रहा हो। मामला बहुत बड़ा है और सरकारें जो भी कर रही हैं वह बहुत छोटा है। उससे कुछ हल होने वाला नहीं है; बहुत कठिनाई है, उससे कुछ हल होने वाला नहीं है। क्योंकि वह जो हम हल करते हैं वह इतना छोटा है! और जब तक हम हल कर पाते हैं, दस-पांच लाख लोगों को पैदा होने से रोकते हैं, तब तक करोड़ लोग पैदा हो चुके होते हैं। वह इतने विस्तार पर प्रश्न है।
इसके पहले कि दुनिया समाप्त हो भीड़ से, भीड़ पागल होगी। पागल होना शुरू हो गई है। आज ठीक-ठीक मानसिक रूप से स्वस्थ आदमी का सर्टिफिकेट किसी को भी देना मुश्किल है। ज्यादा से ज्यादा इतना ही कह सकते हैं कि यह आदमी अभी पागल नहीं हुआ है, यह नहीं कह सकते कि यह आदमी ठीक है। डिग्री का फर्क रह गया है पागल में और सब में। क्वांटिटी का फर्क है, क्वालिटी का नहीं है। ऐसा ही है कि कोई निन्यानबे डिग्री पर उबल रहा है, कोई अट्ठानबे डिग्री पर उबल रहा है, कोई पंचानबे डिग्री पर उबल रहा है, कोई सौ डिग्री पर जाकर छलांग लगा गया है और पागलखाने के भीतर है! आप निन्यानबे डिग्री पर हैं तो आप कह रहे हैं, बेचारा! और आपको पता नहीं कि निन्यानबे डिग्री किसी भी समय सौ डिग्री हो सकती है।
विलियम जेम्स अपनी जिंदगी में एक दफा पागलखाना देखने गया, फिर दोबारा गया नहीं। क्योंकि पागलखाने में देख कर उस बुद्धिमान आदमी को जो खयाल आया वह यह था कि ये सारे लोग पागल हो गए हैं। उसमें उसका कोई परिचित मित्र भी था जो कल तक बिलकुल ठीक था। लौट कर घर वह बिस्तर पर लग गया और उसने अपनी पत्नी से कहा कि अब मैं बहुत डर गया हूं। उसकी पत्नी ने कहा, क्या हो गया है तुम्हें?
उसने कहा कि कल तक जो ठीक था, वह आज पागल हो गया है; मैं आज तक ठीक हूं, कल का क्या भरोसा है! और अपने को मैं यह नहीं समझा सकता कि वह बेचारा पागल हो गया है; क्योंकि कल तक वह भी अपने को समझाता रहा था कि कोई दूसरा बेचारा पागल हो गया है। नहीं, मैं डर गया हूं क्योंकि मेरे भीतर वह सब मौजूद मुझे मालूम पड़ता है जिसका विस्फोट हो जाए तो मैं पागल हो जाऊंगा।
हम सबके भीतर वह मौजूद है। कभी एकांत कोने में चले जाएं कमरे के, घर के द्वार बंद कर लें। कागज पर जो भी मन में चलता हो लिख डालें दस मिनट ईमानदारी से। किसी को बताना नहीं है, नहीं तो ईमानदारी न बरत पाएंगे। वह दूसरा आया कि आप बेईमान हुए। वह चाहे दूसरा आपकी पत्नी ही क्यों न हो, आपका बेटा ही क्यों न हो। दूसरे के सामने ईमानदार होना बहुत कठिन परीक्षा है। अपने ही सामने ईमानदार होना बहुत कठिन मामला है। दस मिनट दरवाजे पर ताला लगा लेना और लिखना जो भी मन में चल रहा हो दस मिनट; जो भी, उसमें कुछ हेर-फेर मत करना। तो दस मिनट के बाद उस कागज को आप किसी को दिखा न सकेंगे। और अगर दिखाएंगे तो कोई भी कहेगा, किस पागल ने लिखी हैं ये बातें? ये किसके दिमाग से निकली हैं? और आप खुद ही हैरान होंगे कि यह सब मेरे भीतर चल रहा है!
चारों तरफ तनाव घिर गया है। इस तनाव के बहुत परिणाम हैं। पहला परिणाम तो यह हुआ है कि सब तरफ कलह है, विग्रह है, कांफ्लिक्ट है। वर्ग के नाम से, धर्म के नाम से, संप्रदाय के, जाति के, भाषा के--इस सबके बहुत गहरे में मानसिक कलह हमारे भीतर है। वह फैल रही है, और वह बढ़ती जाएगी। संख्या बढ़ेगी, और वह बढ़ेगी, क्योंकि आदमी को भी जीने के लिए जगह चाहिए। वह जीने की जगह उसकी छिन गई है। हमने मौत रोक दी और जन्म को रोकने को हम तैयार नहीं हैं।
यह जो कलह है, यह रोज युद्धों की शक्ल में भभकेगी, फूटेगी। हमने अगर हाइड्रोजन और एटम बना लिया है तो आकस्मिक नहीं है यह। असल में इस जगत में कुछ भी आकस्मिक नहीं होता। और इस जगत में जो होता है उसके भीतर बहुत गहरे नियम काम करते हैं।
जैसे, उदाहरण के लिए...। अब यह बड़े मजे की बात है न कि दुनिया में स्त्री-पुरुषों की संख्या करीब-करीब बराबर रहती है। यह बड़े मजे की बात है! इसका कौन इंतजाम करता है! इतनी बड़ी दुनिया है, इसमें कभी ऐसा नहीं हो जाता कि एकदम पुरुष ही पुरुष बहुत हो जाएं या स्त्रियां ही स्त्रियां बहुत हो जाएं। एक सौ सोलह लड़के पैदा होते हैं और सौ लड़कियां पैदा होती हैं। और एक सौ सोलह लड़के भी बड़ी व्यवस्था से पैदा होते हैं, क्योंकि सेक्सुअली मैच्योर होने के पहले तक सोलह लड़के मर जाते हैं और संख्या बराबर हो जाती है।
असल में लड़का कमजोर है लड़की से। लड़की का रेसिस्टेंस ज्यादा है। औरतों की प्रतिरोधक शक्ति ज्यादा है। वे बीमारी को ज्यादा झेल सकती हैं, कष्ट को ज्यादा झेल सकती हैं, परेशानी को ज्यादा झेल सकती हैं और टूटने से बच सकती हैं। पुरुष की क्षमता रेसिस्टेंस की कम है। इसलिए प्रकृति एक सौ सोलह लड़के पैदा करती है और सौ लड़कियां पैदा करती है। लड़कियां बच जाती हैं, सोलह लड़के इस बीच डूब जाते हैं, संख्या चौदह-पंद्रह वर्ष की उम्र होते-होते तक बराबर हो जाती है।
यह बड़ी हैरानी की बात है कि कोई इनर सूत्र काम करते हैं जिंदगी में। आदमी ने उन भीतरी सूत्रों पर कई तरफ से हमला कर दिया है और इसलिए बहुत इनर बैलेंस को बिगाड़ दिया है। तो हमने मृत्यु पर तो हमला बोल दिया--बीमारी नहीं होने देंगे, प्लेग नहीं होने देंगे, महामारी नहीं आने देंगे, मलेरिया नहीं होने देंगे, मच्छर को नहीं बचने देंगे--हमने सब इंतजाम कर दिया है उधर से; मरने की तरफ हमला बोल दिया है। इधर जन्म की तरफ से जो धारा चल रही है वह धारा उसी हिसाब से चल रही है जिस हिसाब से मलेरिया का मच्छर होता तब चलनी चाहिए थी; प्लेग होती, महामारी होती, तब चलनी चाहिए थी; काला ज्वर होता, तब चलनी चाहिए थी।
वह प्रकृति अपने ही अनुशासन से काम करती है। वह अनुशासन उसका चल रहा है भीतर। वह अनुशासन भीतर चल रहा है और हमने अनुशासन का एक छोर बदल दिया है। इसलिए मैं संतति-नियमन के अत्यंत पक्ष में हूं। दूसरा छोर हमें बदलना पड़ेगा। मौत को अगर हमने छुआ है तो जन्म को छूना पड़ेगा। अब जन्म को प्रकृति के अंधे हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता। लेकिन इस संबंध में भी कुछ बातें मैं कहना चाहूंगा।
मेरे लिए यह सवाल भोजन, कपड़े-लत्ते का कम, मेरे लिए यह सवाल मनुष्य के आधुनिक विकास का ज्यादा है। मेरे लिए सवाल यह है कि अगर पूरी मनुष्यता को पागल होने से बचाना है तो संतति पर नियमन करना पड़ेगा, परिवार नियोजन को गति देनी पड़ेगी। और गति जैसी हम दे रहे हैं वैसी नहीं चलेगी, क्योंकि उसके भी खतरनाक परिणाम हो सकते हैं जो हम कर रहे हैं अभी।
इसके पहले कि मैं उस संबंध में कुछ कहूं, मैं आपसे यह भी कह दूं कि जैसे मैंने कहा कि प्रकृति का एक भीतरी इंतजाम चलता है, वह अंधा है। तो जब भी हम इस तरह की स्थिति पैदा कर लेते हैं तब फिर उस स्थिति को मिटाने के लिए भीतरी बैलेंस की शक्तियों को काम में लग जाना पड़ता है। इसलिए एक तरफ हम मौत को धक्का देकर हटा दिए और दूसरी तरफ सामूहिक मौत को निमंत्रण देकर बुला रहे हैं। वह तीसरा महायुद्ध सामने खड़ा है। मुझे लगता है कि अगर संख्या बढ़ती गई तो तीसरे महायुद्ध को रोका नहीं जा सकता। अगर तीसरा महायुद्ध रोकना हो तो संख्या दुनिया की एकदम नीचे गिरानी जरूरी है। नहीं तो तीसरा महायुद्ध होगा। और तीसरा महायुद्ध साधारण युद्ध नहीं, जैसे पहले हुए। तीसरा महायुद्ध अंतिम युद्ध है।
आइंस्टीन से मरने के पहले किसी ने पूछा था कि तीसरे महायुद्ध के संबंध में कुछ बताएं। आइंस्टीन ने कहा कि तीसरे के बाबत कुछ नहीं बताया जा सकता, लेकिन चौथे के संबंध में कुछ पूछते हो तो मैं बता सकता हूं। उस आदमी ने कहा, तीसरे के बाबत नहीं बता सकते तो चौथे के बाबत? आइंस्टीन ने कहा, चौथे के बाबत एक बात निश्चित है कि चौथा कभी नहीं होगा! क्योंकि तीसरे के बाद आदमी के बचने की उम्मीद ही नहीं तो चौथा युद्ध करेगा कौन? इसलिए चौथे के बाबत निश्चित वक्तव्य उसने दिया है कि चौथे के बाबत एक बात निश्चित है।
लेकिन तीसरे में सबके विनाश की संभावना बढ़ती चली जाती है। इधर आदमी पागल हो रहा है, इधर उसके तनाव बढ़ रहे हैं, इधर वह मरने-मारने को, दूसरे को मिटाने को नए-नए सिद्धांत खोज रहा है। कभी फासिज्म, कभी कम्युनिज्म, कभी कुछ, कभी कुछ--दूसरे को कैसे मारो, काटो--और अच्छे सिद्धांतों की आड़ में काटना आसान हो जाता है। इसलिए दुनिया में जो बहुत अदभुत किस्म के पागल हैं वे हमेशा आइडियोलॉजिस्ट पागल होते हैं। साधारण पागल तो पागलखानों में बंद है। असाधारण पागल कभी स्टैलिन हो जाता है, कभी हिटलर हो जाता है, कभी माओ हो जाता है--वह ऊपर छाती पर बैठ जाता है, सिद्धांत पकड़ लेता है। और सिद्धांत की आड़ में जब वह पागलपन का खेल करता है तो हिसाब लगाना मुश्किल हो जाता है कि वह क्या कर रहा है।
हिटलर ने, अकेले हिटलर ने कोई साठ लाख लोगों की हत्या की जर्मनी में। अकेले स्टैलिन ने कोई अंदाजन करोड़ लोगों की हत्या की रूस में। लेकिन कोई हत्यारा न कहेगा स्टैलिन को। यह मजा है सिद्धांत के साथ। करोड़ आदमियों को मारने वाला हत्यारा नहीं है, और आप एक आदमी को मार दें तो आप हत्यारे हैं! लेकिन वह करोड़ आदमियों को सिद्धांत से मार रहा है। उनके ही हित में उनको ही मार रहा है। वह कहता है, हम तुम्हारी ही सेवा कर रहे हैं। सिद्धांत का बड़ा पक्का, फिर सब ठीक हो जाता है। फिर मारा जा सकता है।
तीसरा महायुद्ध अनिवार्य हो जाएगा अगर संख्या नहीं रुकती है दस सालों में। तो उन्नीस सौ अस्सी के बाद पार होना बहुत मुश्किल है। तीसरा महायुद्ध अनिवार्य हो जाएगा, वही उपाय रहेगा इनर बैलेंस का। लेकिन वह बैलेंस बड़ा महंगा पड़ने वाला है। उसमें सब मिट जाने की संभावना है। और इसीलिए मैं एक और आपको सूचना दूं कि मेरी नजर में चांद पर जाने की जो इतनी तीव्र आकांक्षा मनुष्य को पैदा हुई है उसका आज कोई कारण नहीं है--आज। लेकिन उसके कारण को अगर हम गहरे मनुष्य की चेतना में खोजने जाएं तो मुझे वह इनर बैलेंस फिर वापस खयाल में आता है। अब पृथ्वी शायद आने वाले पचास वर्षों में रहने योग्य जगह न रह जाएगी। आदमी को हमें किसी दूसरे ग्रह पर बचाने का उपाय करना पड़ेगा।
पुरानी कहानी आपने सुनी होगी ईसाइयों की, नोह की। महाप्रलय हुई और सारे लोग मर गए। और परमात्मा ने नोह से कहा कि यह नाव तू संभाल और एक-एक प्राणि-जाति के एक-एक जोड़े को इसमें बचा ले। और यह नाव को ले जा उस जगह जहां कि प्रलय नहीं है; वहां इतने लोगों को बचा ले ताकि फिर से सृष्टि हो सके।
नोह की कहानी सच है या झूठ, कहना मुश्किल है। वैसे झूठ कहना बहुत मुश्किल है, क्योंकि नोह की कहानी दुनिया की समस्त जातियों में अलग-अलग रूपों में प्रचलित है। जब दुनिया इकट्ठी नहीं थी और कोई एक-दूसरे को नहीं जानता था तब भी वह कहानी प्रचलित है, महाप्रलय की, कि कभी महाप्रलय हुई, जब सब डूब गया और सिर्फ स्पेसिमेन बचाए जा सके। एक आदमी, एक औरत; एक गधा, एक गधी; एक बंदर, एक बंदरिया; इस तरह स्पेसिमेन बचा कर फिर सब कार्य शुरू करना पड़ा।
इसकी संभावना बढ़ती जाती है कि अगर तीसरा महायुद्ध पृथ्वी पर होता है तो पृथ्वी पर बचने का तो कोई उपाय नहीं होगा; कुछ लोगों को पृथ्वी के बाहर ले जाना पड़ेगा। मगर यह सब जरूरी नहीं है, यह सब रोका जा सकता है। रोकने का क्रम वहां है जहां संतति हम पैदा कर रहे हैं।
लेकिन हम वैकल्पिक रूप से रोक रहे हैं। हम वॉलंटरिली रोकने के लिए लोगों से कह रहे हैं--समझा रहे हैं, स्वेच्छा से समझ जाओ।
नहीं, स्वेच्छा से समझने का मामला नहीं है यह; यह कम्पलसरी हो तो ही संभव हो सकता है। अनिवार्य हो! वैकल्पिक नहीं, ऐच्छिक नहीं, ऐसा नहीं कि हम आपको समझा रहे हैं कि आप दो या तीन बच्चे...या भी लगाने से खतरा है। या बिलकुल नहीं चाहिए बीच में; क्योंकि या का कोई अंत नहीं है। दो बच्चे यानी दो बच्चे। तीसरा बच्चा यानी नहीं। और यह 'नहीं' आपकी इच्छा पर छोड़ी गई तो हल होने वाला नहीं है; क्योंकि आदमी की चेतना इतनी कम है कि उसे पता ही नहीं है कि कितनी बड़ी समस्या है। यह उस पर नहीं छोड़ा जा सकता है। यह अनिवार्य करना होगा। इसे इतनी बड़ी अनिवार्यता देनी होगी जैसे इमरजेंसी की अनिवार्यता होती है। इससे बड़ी कोई इमरजेंसी नहीं है। और वैकल्पिक, स्वेच्छा से, वॉलंटरिली जो हम करवा रहे हैं उसका नुकसान भी बहुत है, उसका नुकसान बहुत गहरा है।
बड़ा मजा यह है कि जब हम स्वेच्छा से लोगों को समझाते हैं तो जो समझदार वर्ग है वह समझ जाता है और जो नासमझ वर्ग है वह नहीं समझता। तो समझदार वर्ग अपने बच्चे कम कर लेगा और नासमझदार वर्ग अपने बच्चे बढ़ा लेगा। तो उसका बैलेंस मेरिट का और बुद्धि का...भयंकर नुकसान होगा।
आमतौर से वैसे भी समझदार आदमी जिम्मेवार नहीं है बच्चे बढ़ाने में। आमतौर से जो सुशिक्षित है, सोच-विचार वाला है, और जिसको थोड़ी भी बुद्धि है, वह दुनिया की फिक्र भले न करता हो, लेकिन उसके घर में एक रेडियो चाहिए, रेडियोग्राम चाहिए, या टी वी चाहिए या एक कार चाहिए, तो उसे बच्चे रोकने पड़ते हैं। तो जो थोड़ा-सा भी सोच-विचार करता है अपना ही सिर्फ, वह बच्चे नहीं बढ़ाता।
इसलिए फ्रांस अकेला मुल्क है जहां जनसंख्या गिर रही है। मैं मानता हूं कि वह सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता का सबूत दिया है। अकेला मुल्क है जहां जनसंख्या गिर रही है, जहां की सरकार पोस्टर लगाती है कि भई जनसंख्या थोड़ी बढ़ाओ। क्योंकि डर यह है कि दूसरों की संख्या बहुत हो जाए और फ्रांस की संख्या कम हो जाए, तो फ्रांस में स्पेस बन जाए तो चारों तरफ से लोग भीतर प्रवेश कर जाएंगे, फ्रांस रोक नहीं सकेगा।
बुद्धिमान मुल्कों की संख्या ठहर गई है। स्वीडेन हो या स्विट्जरलैंड हो, नार्वे हो या बेल्जियम हो, ठहर गई है। यूरोप की संख्या ठहरने के करीब पहुंच गई है। एशिया विक्षिप्त हुआ जा रहा है। इसलिए पश्चिम को सबसे बड़ा खतरा है। आपके लिए वे अगर बर्थ कंट्रोल के साधन मुफ्त भेज रहे हैं तो ऐसा मत सोचना कि सिर्फ परोपकार है।
पश्चिम के लिए सबसे बड़ा खतरा है कि एशिया उसको डुबा देगा कीड़े-मकोड़ों की तरह। सबसे बड़ा खतरा है इस वक्त पश्चिम को। एक तो उसने संपन्नता पा ली है, समृद्धि पा ली है, सभ्यता पा ली है। हजारों-हजारों साल के मनुष्य के सपने आज जब पूरे होने के करीब आए हैं, तब एशिया इतने बच्चे पैदा कर रहा है कि वे सारी दुनिया को दबा डालेंगे।
ये बैरियर ज्यादा दिन तक काम नहीं कर सकेंगे राष्ट्रों की सीमाओं के। और न वीसा और पासपोर्ट ज्यादा दिन रोकेंगे। संख्या जैसे ही सीमा के बाहर होगी, कोई नियम काम नहीं करेगा। लोग एक-दूसरे के मुल्कों में प्रवेश कर जाएंगे और जहां जगह होगी वहां हावी हो जाएंगे। क्योंकि मरता क्या न करता! अगर मरना ही है तो फिर कोई पुलिस नहीं रोक सकती; कोई बैरियर नहीं रोक सकता।
एशिया सबसे बड़ा खतरा हो गया है सारे जगत के लिए। इसलिए सारा जगत चिंतित है, सहायता पहुंचाता है। बर्थ कंट्रोल की एड्स लो, पिल्स लो, सारा इंतजाम करो, हम तैयार हैं आपकी सेवा में, लेकिन कृपा करके आप बच्चे पैदा मत करो। आप अपने लिए तो खतरा हो ही, आप सारी दुनिया की सुविधा के लिए भी खतरा हो।
लेकिन अगर इसे हमने स्वेच्छा पर छोड़ा तो हम नुकसान में पड़ेंगे। समझदार आदमी बच्चे पैदा करता ही नहीं, कम करता है। आमतौर से समझदार आदमी बच्चे कम पैदा करता है। अगर समझदार ही लोग हों तो संख्या थोड़ी कम होगी हर पीढ़ी के बाद। लेकिन गैर-समझदार बच्चे बहुत जोर से पैदा करता है। वह समझ लेना जरूरी है कि वह क्यों करता है। गैर-समझदार बच्चे इतने ज्यादा क्यों पैदा करता है? एक मजदूर या एक किसान इतने बच्चे क्यों पैदा करता है?
इसके दो कारण हैं। एक तो समझदार आदमी सेक्स के अतिरिक्त कुछ और सुख भी खोज लेता है जो गैर-समझदार नहीं खोज पाता। संगीत है, साहित्य है, धर्म है, ध्यान है--कुछ और रास्ते भी खोज लेता है जहां से उसे आनंद मिल सकता है। वह जो गैर-समझदार है उसके लिए आनंद सिर्फ एक है, वह सेक्स से संबंधित है। वह आनंद और कहीं भी नहीं है। न वह रात एक उपन्यास पढ़ कर बिता सकता है कि इतना डूब जाए कि पत्नी को भूल सके, न वह एक दिन ध्यान में प्रवेश कर पाता है, न बांसुरी में उसे कोई रस है। नहीं, उसका चित्त उस जगह नहीं आया जहां कि आदमी यौन के ऊपर सुख खोज लेता है।
जितने आदमी यौन के ऊपर सुख खोज लेते हैं उनकी यौन की भूख निरंतर कम होती चली जाती है। अगर वैज्ञानिक अविवाहित रह जाते हैं तो कोई ब्रह्मचर्य साधने के कारण नहीं। या संत अविवाहित रह जाते हैं तो कोई ब्रह्मचर्य साधने की वजह से नहीं। कुल कारण इतना है कि उनके जीवन में आनंद के नए द्वार खुल जाते हैं। वे इतने बड़े आनंद में होने लगते हैं कि यौन का आनंद अर्थहीन हो जाता है।
गरीब के पास, अशिक्षित के पास, ग्रामीण के पास, श्रमिक के पास और कोई मनोरंजन नहीं है। इसलिए जिन मुल्कों में मनोरंजन की जितनी कमी है उन मुल्कों में संख्या उतनी तेजी से बढ़ेगी। उसके पास एक ही मनोरंजन है; वह जो प्रकृति ने उसे दिया है। मनुष्य-निर्मित कोई मनोरंजन उसके पास नहीं है। लेकिन यह सुनेगा नहीं, क्योंकि यह सुनने की स्थिति में भी नहीं है। यह बच्चे पैदा करता चला जाएगा। और समझदार वर्ग सुन लेगा और चुप हो जाएगा, बच्चे पैदा नहीं करेगा। तो वैसे ही जिन मुल्कों की प्रतिभा कम है वह और कम हो जाएगी। सौंदर्य कम हो जाएगा, स्वास्थ्य कम हो जाएगा, प्रतिभा कम हो जाएगी।
इसलिए मैं वॉलंटरिली बर्थ कंट्रोल के सख्त खिलाफ हूं। बर्थ कंट्रोल के पक्ष में हूं, संतति-नियमन के सख्त पक्ष में हूं, लेकिन स्वेच्छा से संतति-नियमन के सख्त खिलाफ हूं। संतति-नियमन चाहिए अनिवार्य, कम्पलसरी, तो ही अर्थपूर्ण हो सकता है। और तब मुल्क की प्रतिभा को गति दी जा सकती है। और इसके लिए कितने और पैमाने उपयोग करने चाहिए वह मैं दो-चार बातें करूं।
एक तो मेरी दृष्टि में संतति-नियमन और बहुत-से इंप्लीकेशंस लिए हुए है, और बहुत अंतर्गर्भित संबंध हैं उसके। असल में गरीब आदमी ज्यादा बच्चे पैदा करने में उत्सुक होता है, क्योंकि गरीब आदमी के लिए ज्यादा बच्चे मुसीबत नहीं लाते, सुविधा लाते हैं। अमीर आदमी ज्यादा बच्चे पैदा करने में उत्सुक नहीं रहता, क्योंकि ज्यादा बच्चे उसे सुविधा नहीं लाते, असुविधा लाते हैं। अगर मेरे पास लाख रुपए हैं और मैं दस बच्चों को पैदा करूं तो दस-दस हजार बंट जाएंगे, मैं लखपति न रह जाऊंगा। लेकिन अगर मेरे पास कुछ भी नहीं है और मैं दस बच्चे पैदा करूं तो दस बच्चे आठ-आठ आने लाकर सांझ मुझे दे देंगे।
तो जब तक हम गरीब को, वह जो नीचे बड़ा वृहद जन-समूह है, उसको भी ऐसी व्यवस्था न दे सकें कि बच्चे बढ़ना उसके लिए असुविधा का कारण हो जाए, तब तक वह सुनने वाला नहीं है। लेकिन अभी हमारी बड़ी अजीब स्थिति है। यह हमारा मुल्क तो कंट्राडिक्शंस का...कोई हिसाब ही नहीं है हमारे मुल्क के विरोधाभासों का। इधर हम सारे मुल्क को समझाते हैं कि बच्चे कम पैदा करो, उधर जिसके बच्चे ज्यादा हैं उस पर टैक्स कम लगाते हैं, जिसके बच्चे कम हैं उस पर टैक्स ज्यादा लगाते हैं। इधर समझाते हैं बच्चे नहीं, उधर अविवाहित पर ज्यादा टैक्स लगाते हैं, विवाहित पर कम टैक्स लगाते हैं।
पागलपन की दुनिया हो सकती है कोई तो इस मुल्क में है। अगर बच्चे पैदा करने कम करने हैं तो विवाहित पर ज्यादा टैक्स लगाना पड़ेगा और अविवाहित को सुविधाएं देनी पड़ेंगी कि वह ज्यादा देर तक अविवाहित रह जाए। ज्यादा बच्चों पर ज्यादा टैक्स लगाना पड़ेगा। बहुत उलटा मालूम पड़ेगा, क्योंकि हम सोचते हैं कि ज्यादा बच्चे हैं बेचारे को सहायता पहुंचाओ। ज्यादा बच्चों पर टैक्स ज्यादा लगाना पड़ेगा। हर नया बच्चा ज्यादा टैक्स घर में लाए तो बच्चे को लाने का डर शुरू होगा। लेकिन हर बच्चा घर में टैक्स कम करे तो लाना अच्छा ही है।
इस वक्त जिनके घर में ज्यादा बच्चे हैं वे बड़े फायदे में हैं, वे पार्टनरशिप बना लेते हैं सबकी। टैक्स कम कर लेते हैं। एक ओर हम चाहते हैं बच्चे कम हो जाएं और दूसरी ओर जो भी हम कर रहे हैं वे पचास साल पुराने नियम हैं जब कि ज्यादा होने में कोई खतरा न था।
तो संतति-नियमन अनिवार्य चाहिए। और जीवन के सब पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए कि कहां-कहां बच्चों को रोकने में क्या-क्या करना पड़ेगा। वहां सारी फिक्र कर लेनी चाहिए।
दूसरी बात: यह हमारा अब तक का जो जगत था, और अब जो नहीं हो सकेगा, उस जगत से बहुत-सी नैतिकताएं और बहुत-से सिद्धांत हम लेकर आए हैं, जो कि होने वाले जगत में बाधा बनेंगे, उन्हें हमें तोड़ना पड़ेगा। उनके साथ ताल-मेल नहीं हो सकता।
अब जैसे गांधी जी खिलाफ थे संतति-नियमन के और उन्होंने जिंदगी में जितनी गलत बातें कही हैं उसमें यह सबसे ज्यादा गलत बात है। वे संतति-नियमन के खिलाफ थे। वे कहते थे, बर्थ कंट्रोल से अनीति बढ़ जाएगी। उनको इसकी फिक्र नहीं है कि बर्थ कंट्रोल नहीं हुआ तो मनुष्यता मर जाएगी, उनको फिक्र इसकी है कि बर्थ कंट्रोल से कहीं अनीति न बढ़ जाए। कहीं ऐसा न हो कि कोई क्वांरी लड़की किसी लड़के से संबंध रखे और पता न चल पाए।
पता चलाने की किसी को जरूरत क्या है? यह पीपिंग टाम की प्रवृत्ति बड़ी खतरनाक है। पता चलाने की जरूरत क्या है? यह अनैतिक है यह पता चलाने की इच्छा ही। पड़ोस की लड़की का किस से क्या संबंध है, अगर कोई आदमी उसमें उत्सुक होकर पता लगाता फिर रहा है तो यह आदमी अनैतिक है। यह अनैतिक इसलिए है कि यह दूसरे आदमी की जिंदगी में तनाव पैदा करने की कोशिश में लगा है। इसे प्रयोजन क्या है?
लेकिन पुराना सब नीतिवादी इसमें उत्सुक था कि कौन क्या कर रहा है। वह सबके घरों के आस-पास घूमता रहता है। पुराना महात्मा जो है वह हर आदमी का पता लगाता फिरता है कि कौन क्या कर रहा है। मनुष्यता मर जाए, इसकी फिक्र नहीं, महात्मा को इस बात की फिक्र है कि कहीं कोई अनीति न हो जाए। हालांकि महात्मा की फिक्र से अनीति रुकी नहीं है। गांधी जी के आश्रम में भी वही होता जो कहीं भी हो रहा है। होता था; होगा ही। ठीक गांधीजी की आंख के नीचे वही होगा; उसमें कुछ फर्क पड़ने वाला नहीं है। क्योंकि जिसे हम अनीति कह रहे हैं अगर वह स्वभाव के विपरीत है तो स्वभाव बचेगा और अनीति नहीं बचेगी।
और अनीति क्या है? कभी हमने नहीं सोचा कि एक स्त्री को दस बच्चे पैदा होते हैं तो उसकी पूरी जिंदगी बर्बाद हो जाती है। इसको हमने अनीति नहीं माना। हमने तो कहा कि स्त्री का तो काम ही मां होना है। मां होने का मतलब हमने समझा है कि मां होने की फैक्ट्री होना है। तो उससे फैक्ट्री का काम हमने लिया है। अगर हम पुरानी स्त्री की आज से चालीस साल पहले की, और आज भी गांवों में स्त्री की जिंदगी एक फैक्ट्री की जिंदगी है, जो हर साल एक बच्चा दे जाती है और फिर दूसरे बच्चे की तैयारी में लग जाती है।
जो हम मुर्गी के साथ कर रहे हैं वह हम स्त्री के साथ भी किए हैं। लेकिन यह अनीति नहीं थी। एक आदमी अगर बीस बच्चे अपनी पत्नी से पैदा करे तो दुनिया का कोई भी ग्रंथ और कोई भी महात्मा नहीं कहता कि यह आदमी अनैतिक है।
यह आदमी अनैतिक है। इसने एक स्त्री की हत्या कर दी। उसके व्यक्तित्व में कुछ न बचा, वह सिर्फ एक फैक्ट्री रह गई। लेकिन यह अनैतिक नहीं है। यह अनैतिक नहीं है। अनैतिक हम न मालूम क्या, किस चीज को बनाए हुए हैं। और वे समझाएंगे--गांधी जी, विनोबा जी--वे कहेंगे कि नहीं, ब्रह्मचर्य साधो।
अब ये पांच हजार साल से ब्रह्मचर्य की शिक्षा दे रहे हैं और इनके ब्रह्मचर्य की शिक्षा वे अभी भी दिए जाते हैं। वे कहते हैं, संतति-नियमन नहीं; हां, ब्रह्मचर्य साधो। और वह ब्रह्मचर्य कोई एकाध साधता हो, साध लेता हो, तो भी वह कोई मेजर नहीं है, उससे कुछ होने वाला नहीं है। यह प्रश्न इतना बड़ा है! यह प्रश्न इतना बड़ा है कि इस प्रश्न को ब्रह्मचर्य से हल नहीं किया जा सकता। पांच हजार साल सबूत हैं, गवाह हैं, कि पांच हजार साल से शिक्षक समझा-समझा कर मर गए, कितने ब्रह्मचारी तुम पैदा कर पाए हो? गांधी जी भी चालीस-पचास साल मेहनत किए, कितने ब्रह्मचारी पैदा कर गए हैं? सच तो यह है कि खुद के ब्रह्मचर्य पर भी उन्हें कभी भरोसा नहीं था, आखिरी वक्त तक भरोसा नहीं था। कहते थे, जागते में तो मेरा काबू हो गया है, लेकिन नींद में लौट आता है।
लौट ही आएगा। जागने में जो काबू करेगा उसका लौटेगा ही। उसमें और कोई कसूर नहीं है। कसूर खुद का है। दिन भर संभाले हैं तो नींद में संभालना शिथिल हो जाता है। तो नींद में, जो दिन भर नहीं किया है, वह नींद में करना पड़ता है। और नींद में करने से दिन में करना बेहतर है, कम से कम नींद तो खराब नहीं होती।
ब्रह्मचर्य से चाहते हैं कि संख्या का अवरोध हो जाएगा--नहीं होगा। साधु-संत यह भी समझा रहे हैं कि तुम हकदार नहीं हो, परमात्मा बच्चे भेजता है तुम रोकने के हकदार नहीं हो। और यही साधु-संत अस्पताल चलाते हैं! परमात्मा बीमारी भेजता है, उसको क्यों रोकते हैं? और परमात्मा मौत भेजता है तो अस्पताल क्यों भागते हैं?
अभी मैं आज रास्ते से निकल रहा था तो एक अस्पताल देखा, आयुर्वेदिक, कोई स्वामी का नाम लिखा है, फलां-फलां स्वामी आयुर्वेदिक हॉस्पिटल। तो स्वामी अस्पताल किसलिए खोल रहा है--आयुर्वेदिक ढंग से मरने के लिए लोगों को?
मरने के ढंग भी होते हैं। कोई एलोपैथिक ढंग से मरता है, कोई आयुर्वेदिक ढंग से, कोई होमियोपैथिक ढंग से ही मरने के शौकीन होते हैं! इसलिए खोला है यह अस्पताल?
निश्चित ही, बचाने के लिए खोला होगा लोगों को। तो अगर बच्चे परमात्मा भेज रहा है तो मौत कौन भेज रहा है? तो मौत से लड़ने को वैज्ञानिक हैं और बच्चे पैदा करवाने के लिए महात्मा आशीर्वाद देते रहेंगे।
ये सब क्रिमिनल्स हैं जो इस तरह की बातें कर रहे हैं। अगर जन्म पर रोक लगाने में परमात्मा का विरोध है तो फिर सब अस्पताल बंद, फिर मौत पर भी रोक नहीं लगानी चाहिए। तो फिर बैलेंस अपने आप हो जाएगा। फिर कोई तकलीफ न होगी।
लेकिन बड़ा आश्चर्य है। इसलिए मैं कह रहा हूं, हमारा मुल्क बड़े कंट्राडिक्शंस में जीता है।
नहीं, जो मौत के साथ किया है वह जन्म के साथ करना पड़ेगा; और नहीं करना है तो दोनों के साथ मत करो। फिर मच्छर पलने दो, मलेरिया फैलने दो, प्लेग...फिर सब ठीक हो जाएगा। फिर कोई बर्थ कंट्रोल की जरूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन उसकी जरूरत इसलिए पड़ी कि प्रकृति तो अपना इंतजाम कर लेती थी, आदमी ने एक कोने से रुकावट डाल दी। अब दूसरे कोने पर रुकावट डालते हैं तो वे कहते हैं परमात्मा आड़े आता है।
परमात्मा बिलकुल आड़े नहीं आता, लेकिन महात्मा सदा परमात्मा के नाम से जिंदगी की जरूरी चीजों में बहुत आड़े आते रहे हैं। उनका बल जरूर है। उनका बल है, अंधे आदमी को उनका बल स्वाभाविक है। और जब वह अंधा बल अंधे आदमी की, उसकी ही मनोवृत्ति को सहयोग देता है तब तो बहुत सहारा मिल जाता है। तब वह कहता है, बिलकुल ठीक है, हम बच्चे रोकने वाले कौन हैं!
मुझे एक छोटी-सी कहानी याद आती है वह मैं कहूं और बात पूरी करूं।
बंगाली में एक उपन्यास है। उस उपन्यास में एक परिवार बद्री-केदार की यात्रा को गया है। बंगाली गृहिणी, उसका परिवार है। बंगाली गृहिणी भक्त है, एक संन्यासी भी रास्ते में साथ हो लिया है। बंगाली गृहिणी खाना बनाती है तो पहले संन्यासी को खिलाती है फिर पति को। स्वभावतः, मेहमान भी है संन्यासी भी है। और जो-जो अच्छा है पहले संन्यासी को, रास्ते का मामला है। संन्यासी इतना खा जाता है कि बाकी के लिए फिर समझो बचा-खुचा ही रह जाता है। पति बहुत परेशान है।
असल में पति और पत्नी के बीच अगर संन्यासी खड़ा हो जाए तो पति सदा ही परेशान हो जाता है। उसकी समझ में भी नहीं पड़ता कि क्या हो रहा है और पत्नी की दहशत की वजह से कह भी नहीं सकता कि क्या हो रहा है। सब मंदिर पति चला रहे हैं, वाया पत्नी। सब साधु-संत पति पाल रहे हैं, वाया पत्नी। पत्नी वहां जा रही है तो वह सब पल रहा है।
तो वह संन्यासी सब खा जाता है। फिर पीछे से कोई यात्री आया है और 'संदेश' लाया है, बंगाली मिठाई लाया है। पति बहुत डरा हुआ है, वह बड़ा शौकीन है संदेश का। वह कहता है कि बचेगी थोड़े ही, वह तो संन्यासी सब पहले ही साफ कर जाएगा। दूसरे दिन वह बड़ा भयभीत है। संदेश रखे गए, संन्यासी सब साफ कर गया। उसने कहा, रोटी आज रहने दो। वह सब संदेश खा गया। अब पति को इतनी मुश्किल हुई कि एक संदेश भी नहीं बचा। तो उसने संन्यासी से कहा, आप हम पर खयाल न करें तो कम से कम अपने पर तो खयाल करें। उस संन्यासी ने कहा कि तू नास्तिक है। अरे जिसने पेट दिया वही खयाल करेगा, हम परमात्मा के बीच में बाधा नहीं आते। संन्यासी ने कहा, जिसने पेट दिया है वही खयाल भी करेगा, हम बीच में बाधा डालने वाले कौन?
संदेश संन्यासी डालेगा, बाधा नहीं डालेगा वह परमात्मा पर छोड़ देगा। आदमी की बेईमानी बहुत पुरानी है। इस मामले में बहुत महंगी पड़ेगी, जनसंख्या के मामले में बहुत महंगी पड़ेगी। साफ समझ लेना जरूरी है कि बच्चे रोकना ही पड़ेंगे अगर पूरी मनुष्यता को बचाना है। अन्यथा आपके बढ़ते बच्चों के साथ पूरी मनुष्यता का अंत हो सकता है।
ये मैंने थोड़ी-सी बातें कहीं। यह सवाल तो बहुत बड़ा है और इसके बहुत पहलू हैं। इस पर सोचना। मेरी बात को मान लेने की कोई जरूरत नहीं है। न तो मैं कोई गुरु हूं, न कोई महात्मा हूं और न परमात्मा की तरफ से कोई सर्टिफिकेट लेकर आया हूं कि जो कहता हूं वह सही है। जैसे एक सामान्य आदमी अपनी बात कहता है वैसा आदमी हूं। एक लेमैन, जो निवेदन भर कर सकता है, आग्रह नहीं कर सकता। जो यह नहीं कह सकता कि यही सत्य है, जो इतना ही कह सकता है कि ऐसा मुझे दिखाई पड़ता है।
ये बातें मैंने आपसे कहीं, आप सोचना। शायद कोई बात आपके विचार से ठीक मालूम पड़े तो वह आपकी हो जाएगी। फिर वह मेरी नहीं है, फिर उसमें मेरा कोई जिम्मा नहीं है। वह आपकी और आप जिम्मेवार हैं। और अगर कोई बात ठीक दिखाई न पड़े तो क्षण भर भी मोह मत करना, उसे बिलकुल फेंक देना। बहुत मोह हो चुका, तो गलत बातों की भीड़ इकट्ठी हो गई है सिर पर, उस कचरे को एकदम फेंक देना है। जो मेरी बात गलत दिखाई पड़े उसे एक मिनट भीतर मत रखना। लेकिन सोच लेना फेंकने के पहले। और अगर सोचने से कुछ ठीक दिखाई पड़ जाए तो वह आपका हो जाएगा।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं,
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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