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गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

00--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)

मोतीकहानी

दसघरा की दस कहानियां

           

रोज की तरह आज भी सूर्य दिन भर की भाग दौड़ और धुल-धमास से बाद अपने घर की राह पर विश्राम के लिए जाने की तैयारी कर रहा था। जाते-जाते उसे बादलों ने चारों और से ऐसे घेरकर एक विनती भाव से उसका रास्ता रोक लिया था। मानो वह अपने उपर जमी घुल-धमास को झाड़-पोंछ सकने में उसकी मदद करना चाह रहे हो। इस सब के बीच जब ये कार्य चल रहा हो तो इस क्रिया में उसे कोई निर्वस्त्र न देख सके। शायद वहीं धूल-धमास झाड़ कर गिरने के कारण जो जमा हो गई होगी वहीं उसके आस पास बादल होने का भ्रम दे रही थी। उस बिखरी धूल के कारण सूर्य की किरणें कैसे सुनहरे और नारंगी रंगों की छटा आसमान में बिखरे हुई थी। सूरज के घर जाने की तैयारी को देख पक्षियों ने चहक गान गाने शुरू कर दिये थे। पृथ्‍वी जो पूरा दिन आग की तरह जल रही थी अब उसने भी चैनी की सांस के साथ-साथ एक गहरी ठंडी उसांस ली। पेड़ पौधे भी जो गर्मी के मारे अपने कोमल और नाजुक पत्तों को समेटे हुए थे। उन्‍हें भी अब लहराने और चहकने के लिए प्रेरित करने लगे थे। हवा चलने के कारण पूरा पेड़ कैसे झूमता इठलाता सा लग रहा था। गर्मी जरूर अभी थी पर हवा में थोड़ी ठंडक हो गई थे। भांप भरी पतिली की उमस में अब कुछ-कुछ शीतलता का विश्वास जग रहा था।

          गांव के तालाब किनारे जो प्राचीन होली चौक  है, उसके आस पास एक बहुत बड़ा खुला मैदान था। जो गांव के खेल उत्‍सव या होली दहन, राम लीला, दीवाली मनाने के लिए उपयोग में आता था। पर तालाब के किनारों पर उगे नीम सहमल, पीपल और बरगद के चबूतरे, और पत्‍थर की चट्टानें तो साल भर बच्‍चों को क्रीड़ा स्‍थल बना रहता था। बच्‍चे श्याम होते न होते घर की घुटन से छूट कर मैदान में आ-आ कर वही धमा चौकड़ी मचान शुरू कर देते थे। चारों और एक उत्सव मेला से लग जाता था। उपर अंबर में सूर्य भी अपनी तपीस कम कर रहा था बादलों के कारण। पक्षियों ने भी अब पंख फैला कर उड़ने का फैसला कर लिया था। ताकि रात के आने से पहले शरीर को कुछ थका ले। सारा दिन तो बेचारे पत्तों की ओट लिए दबें छुपे पड़े थे। और तालाब भी अब हवा के साथ-साथ ठंडक दे रहा था। इस सब ने बच्चों के उत्सव में उमंग भर दी थी। हालांकि अभी दिन भर की तपीस के कारण जो पत्थर थे वह अभी भी गर्म थे। परंतु बच्चे इस बात की जरा भी परवाह नहीं कर रहे थे। नंगे पैर कैसे दौड़ते फिर रहे थे।

तालाब के किनारे कोई अपने बैलों को पानी पिला रहा था। कोई अपनी भेस को नहला रहा था। और सूर्य अस्‍त होने की और चला जा रहा था। इस से पहले सब अपने उत्सव आनंद में लीन थे। क्योंकि बच्चे जानते थे कि सूर्यअस्त होने पर घर से बुलावा आ जायेगा। उसके बाद तो वहां खेल खत्म हो जायेगा। गांव में स्‍ट्रीट लाईट तो आ गई भी पर अभी किसी विरले ही घरों में बिजली के प्रकाश  को पहुंचने का सौभाग्य प्राप्‍त हुआ था। गलियों की रोशनी से ही लोग बाग़ अपना काम चला लेते थे। कोई रात खंबे के नीचे बैठ कर पढ़ रहा होता। कोई ताश की महफिल लगा रहा होता था। लड़की बहुए अपनी चारपाई बिछा कर कढाई बुनाई कर रही होती। खंबों में नीचे की तरफ लटके एक पाईप के मुहँ पर सफेद रंग गोल पलेट लगी होती थी। जिस के बीचों बीच जो छेद होता था उस में बल्‍ब इस तरह से आ जाता था होल्डर तो अंदर रह जाये और शीशे का बल्‍ब बहार दिखाई दे। जब श्‍याम को एक बार वह जलता और फिर बंध हो जाता। हम समझ जाते की अब ये जलने वाला है। बल्‍ब के जलते ही सब बच्‍चे खुशी से शोर मचाते मानो उन्‍हें कुछ विशेष मिल गया है। कोई पास बैठे बुजुर्ग दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम करता। उस समय हमें नहीं पता होता की ये क्‍यों बल्‍ब को प्रणाम करते है। बस श्रद्धा भाव से। अपने अंधकार से प्रकाश की और जाने के लिए।

           पर आज जब याद करता हूं तो कितना सुकोमल और सुरमय लगता है। कितनी सरलता और सहजता थी उन लोगों में जो प्रकाश आज बहार फैला है। उसे नमन करके उसके प्रति प्रेम, श्रद्धा का भाव अपने अंतस में भर कर, उस निर्जीव सी फैली रोशनी जो बहार है वह कभी न कभी जैसे जीवन के अंतस को भी प्रकाशवान कर ही देगी। किसी दिन उसके अंदर के अंधकार उसकी तमस को खत्‍म करेगी यही कामना, अंधार से प्रकाश की और ले चल इसके लिए मैं तुझे प्रणाम करता हूं।

          हम सब बच्‍चे भागने के करण पसीने से तर बतर थे। पर इस सब की किसे फुरसत थी इस बारे में सोचने की उस समय किसे परवाह होती थी। उस समय तो खेल का जनून छाया था। जीवन के वो पल कितने अनमोल थे। जिसे बच्चा पल-पल पी जाना चाहता है। धीरे-धीर मनुष्य की तमस बढ़ती चली जाती है और वह इस सब आनंद को भूल जाता है क्यों? कैसी उस थकान के साथ-साथ एक मादकता बनी रहती थी। सब खेल में खोये हुए थे। धीरे-धीरे प्रकाश कम होने लगा था, आसमान पर फैले रंगों के चितके, अब रंग हीन काले होते जा रहा थे। सूर्य तो कभी का अपने घर चला गया था। पीछे तो मानो ये काले बादल उसके पदचाप ही आसमान काले और सुनहरे प्रकाश के रूप में दिखलाई दे रहे थे। हवा के कारण तालाब में उनके प्रतिबिम्‍ब कैसे छोटे-छोटे टुकडों में टूट लहरे की सवारी कर रहे थे। जब लहर पास के किनारे से टकरा कर छिटक कर छपाक की आवाज करती। तब कैसी मधुर शांति फैल जाती थी कुछ पल के लिए। उस सब को देखना भी कितना सुमधुर लगता था। उन लहरें पर बैठे प्रतिबिम्‍ब टूट-टूट कर बिखरे करोड़ गुणा होते कितनी अच्छे दिख रहे थे। अभी जो आसमान अपने में कुछ लाली लिए हुए था, वह कुछ ही पल में सिमट-सुकड़ कर काले रंग के धब्बों के रूप में परिवर्तित हो गये थे। आसमान का रंग जो अभी तक चटकीला नीला था। सूर्य के प्रकाश की कमी से अब श्यामल नीला होता जा रहा था। कैसा बड़ा कलाकार है ये रचयिता। धड़ी-घड़ी रंग भरता रहता है और पल-पल मिटाता रहता है। जब में उन रंगों की छटा को देखता तब उस कलाकार की कला पर मैं मुग्‍ध हो जाता था। देखा आपने वह कभी-कभी वह आसमान में इतने खराब बूरूशा अगर मारता दिखता तो भी अपने ही उन भरे रंगों को फिर से खराब कर देता था। और देखते ही देखते वह भी अब  कितनी सुंदर प्रतीत हो जाती थी। उन्हीं चित्रों को घर जाकर जब मैं कागज पर बनने की कोशिश करता आपने सधे हाथों से तब कुछ बदरंग ओर बेईमान सा प्रतीत होता था। और उस कागज के टुकड़े पर घण्टों मेहनत करने के बाद लगाता ये सब वैसा नहीं है, इसे फाड़ दूं, ये कहां उस जैसा बन पाया। और वह तो पल-पल अलग-अलग ही बनाता रहता था।। शायद में उस परमात्‍मा की उस सहजता से उन्‍हें नहीं बना पाता था। एक कलाकार अपनी कला के प्रति जितना सहज होगा उसकी कला उतनी बेजोड़ जीवंत होती चली जाती हे। वह गलती नहीं करता उससे डरता है। परंतु परमात्मा निडर किस निश्छलता से रंग बिखेरता रहता है।

          बचपन में भी लड़के और लड़कियों के खेल जरा भिन्‍न होते थे। लड़कियाँ तालाब के किनारे जो मुलायम रेत फैला था। वह वहां गीली सुखी मिट्टी से एक घर बनाती। लड़के दौड़ते, ऊंच नीच, चील झप पाटा, अड्डा बड्डा, पकड़म पकड़ाई आदि के खेल खेते थे। यानि लड़के शरीक उर्जा वाला खेल और लड़कियाँ मानसिक उर्जा वाला खेल। अचानक जब पास के किसी घर से बुलाने की आवाज आ जाती, मोहन घर आ जाओ रात हो गई है। मां बहुत गुस्‍सा कर रही है। सभी बच्चे मानो इसी बात का इंतजार कर रहे होते थे। की कब आवाज लगाये ओर ये खेल खत्‍म हो। सब शोर मचा कर लड़कियों के बने घरों को पैरों से तोड़ देते। उन्‍हें बुरा भी लगता पर कोई मार पीट नहीं होती यहीं हरकत अगर दो मिनट पहले हो गई होती तो उसकी खेर नहीं। न उसे कोई लड़की ही छोड़ती और न लड़का उस को खेल में शामिल तक नहीं किया जाता, दूसरे दिन भी उसको यही सज़ा होती भगा दिया जाता। पर अब तो सब खुश है। घर लौटने का वक्त आ गया है। मां बुला रही है। हम सब आपने बने हुए खेल को खत्म कर घर लोट रहे है। क्‍या मनुष्‍य जीवन संध्‍या पर ऐसे नहीं कर सकता सब खेल को खुशी से छोड़कर हंसते हुए विदा हो जाये। क्‍या बचपन में जो सहज सरल है वह वक्‍त के साथ और परिपक्व नहीं होना चाहिए। पर ऐसा अकसर होता नहीं जीवन में इसके लिए कुछ करना होता है। जो सरलता बचपन में उपहार स्वरूप मिलती है। समाज उस पर जटिलता का लेप चढ़ा देता है। शिक्षा, संस्कार, आचरण और न जाने क्‍या-क्‍या.... जिसे कोई विरल ही पाता है, कृष्‍ण, राम, नानक , सहजो, मीरा......खेल में भी हम कितने तनाव से भरे होते है। खेल खत्‍म होने पर कैसे निरभ्र प्रफुल्लित हो जाता है मन।

          खेल खत्म होने पर अकसर मैं और मेरी बड़ी बहन रोशनी हम साथ ही खेलते थे। फिर दोनों हाथ पकड़ कर घर की और चले आ रहे थे। होली चौक से आगे चल के दायें एक विशाल नीम को वृक्ष था और बाई और पीपल व ढुंढा नीम। इससे पहले थोड़ी चढाई पड़ती थी। हम रेत पर ताकत लगा कर बड़ी जोर से भागे की चढ़ाई पर गाड़ी को ज्‍यादा ताकत लगानी पड़ रही है। साथ-साथ मूंह से भी आवाज करते जाते थे। नीम के पास मुझे किसी के बैठे होने का अहसास हुआ। उस समय हमें कपड़ा हिलता भी भूत नजर आता था। मैंने रोशनी को कहां की देख मुझे तो मोती बैठा नजर आ रहा है। मोती हमारा पालतू कुत्‍ता था। वह कहने लगी चल घर मोती नहीं है, तुझे तो हर कुत्‍ता मोती नजर आता है। वह इस समय यहाँ क्‍या कर रहा होगा। वह तो घर पर मां के पास ही होगा।

          मैंने फिर उस तरफ गोर से देखा, मैंने कहा: नहीं देख वह तो मोती ही है। और मैं हाथ छुड़ा कर उस की तरफ भागा। हां अरे यह तो सच में मोती ही तो है। मेरा प्‍यारा दोस्‍त। हमारे मोती का सफेद झक्क रंग था, जिस पर बादामी रंग के बड़े-बड़े चितके थे। बाल उसके घने और बड़े थे। उसकी मोटी पूंछ बहुत सुंदर दिखती थी। कान उसके नीचे की और लटके होते थे। मां कहती थी जिस पशु के कान खड़ हो वह बहुत खूंखार होता है। और जिस पशु के कान आम के पत्तों की तरह लटके हो वह एक दम सरल सिधा होता है। तब में सात साल का रहा होऊंगा। वह इतना बड़ा और तगड़ा था की मुझे अपनी पीठ पर बैठा कर चल पड़ता था। हालांकि कुत्‍ते शेर, भेड़िया, लकड़बग्घा, गीदड़ की रीढ़ कमजोर होती है। गधे-बेल, घोड़ आदि की तुलना में। वह आसानी से अपनी पीठ पर भार ढो लेते है। परंतु सच ही हमारा मोती बहुत ताकतवर था। मैंने उसके पास जाकर आवाज दी उस ने मेरी और आँख उठा कर देखा और अपनी पूछ को बहुत धीरे से हिलाया। मुझे उस की यह हरकत कुछ अजीब सी लगी। वह तो जब मैं स्कूल से आता तब अगर वह घर पर हो तो मेरी घर के बहार खड़ा हो कर रहा तकता रहता था। और मुझे आता देख कर भाग कर मेरी छाती पर चढ़ कर मेरा मूंह को  चाट जाता था। मैं भी उस के गले से लिपट कर झूम जाता था। और अपना स्‍कूल का भारी भरकम बस्‍ता उस की पीठ पर रखने की नाकामयाब कोशिश करता था। जिसे वह भाग कर एक क्षण में नीचे गिरा देता था। कि ये सब बेकार का काम मुझे नहीं चाहिए ये तो आप को ही मुबारक हो। हम तो अनपढ़ ही भले इतना बोझ उठाने से।  आज वह मुझे देख कर भी अंजान सा बन कर देखता ही रहा। उसकी आंखों में कुछ उदासी थी। पास ही तालाब की लहरे नीम से टकरा कर लोट रही थी। मोती तालाब के उस और देख रहा था। न जाने क्‍या सोच रहा होगा इन लहरों को देख कर। मेरे देखे वह हर बात को समझने की कोशिश करता था। जब में पढ़ता तो कैसे मेरे पैरों पा अपनी ठोड़ी टेक कर मुझे निहारता रहता था। एक दिन मैंने उसे अपनी किताबों में से एक किताब उस के सामने रख दी, और कहां मोती तुझे भी पढ़ना होगा। देख मैं तेरे लिए यह किताब लाया हूं। बस फिर क्‍या था आप विश्‍वास करें वह तो मेरे पीछे ही पड़ गया की यही पुस्तक मेरी है। उसे मैंने बैग में भी छुपा दिया जब भी वह पुस्तक उसे दिखाई दे जाती तो लेने की ज़िद्द करता। सब हंसते और कहते मोती देख तेरी किताब तो भैया के पास है। वह उसे की दांतों से पकड़ कर खोलने की कोशिश भी करता। और जब भी उस  किताब को खोल कर पढ़ता उसे दिखाई दे जाता तो वह उसे मुहँ खोलने की कोशिश करता ।सब लोग उसकी बुद्धिमानी की दाद देते और हंसते। की यह इसे अब अपनी ही किताब समझता है। मैं बैठ कर उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगा, उसके मुंह के पास मुंह ले गया की यह चाटेगा। पर उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में केवल उदासी थी। आज वह आंखें मोती की आंखें नहीं लग रही थी। कैसे पत्‍थर की तरह लग रही थी। मुझे उस की ऐसी आंखें देख कुछ अजीब भी लगा और कर डर भी लगा। उसकी आँख आज निर्जीव सी  कैसी अजीब सी हो गई थी। इससे पहले में ऐसी आंखें किसी की भी नहीं देखी थी।    

          रोशनी बार-बार आवाज मार रही थी की मां गुस्‍सा करेगी। जल्‍दी आ जा। घर जाकर जब मैंने मां से पूछा की मोती तो तालाब के पास बैठा है। उसे न जाने क्‍या हो गया है। तब मां ने बताया की तेरे चाचा ने उसे एक लट्ठ मार दिया। और कहने लगे की वह दूध में मुंह डाल रहा था। पर मोती तो ऐसा नहीं था। ये मां भी जानती है कभी-कभी तो मां बताती की जब देर से दूध गर्मी करती और गर्मी की रात होने के कारण वह देर तक ठंडा नहीं होता था। मां जमाने के लिए  इंतजार करते-करते दिन भर की थकी में  हुई सो जाती थी। और रात चार बजे तक वह दूध के पास ही बैठा रहा और मजाल क्या मूंह डाल दे। तेरे चाचा को जरूर कोई बहम हो गया। कोई मक्खी वगैरह को पकड़ने की लिए मुंह आगे किया होगा। और दूर से तेरे चाचा  जो मन में धारणा धारण कर ली होगी की वह दूध पी रहा है। हमारा मन भी एक कल्पना में कुछ से कुछ देख लेता है। इस बात कोई भी परिवार का आदमी मानने के लिए तैयार नहीं था  की मोती और खाने में मुंह डाल दे। परंतु क्या किया जा सकता था। हमारे चाचा (हम पिताजी को चाचा कहते थे) और उन्‍होंने नहीं माना की मैंने तो अपनी आंखों से देखा है की वह दूध पी रहा था।  

          मां ने चाचा को लाख समझाया की मोती ऐसा नहीं है। पर अब तो बात आगे बढ़ चुकी थी। मां ने कहां उसने सुबह से कुछ नहीं खाया। ले तू जा उसे दो रोटी दे कर घर ले आ। हम रोटी लेकर जाते हुए कितना गर्व महसूस कर रहे थे। देने में कितना आनंद है। पर एक बात और अगर आप देना चाहे और कोई न ले तो आपको कितना भारी लगेगा । तभी तो हिंदुओं ने दो शब्‍द बनाये दान-दक्षिणा यानि मैंने दिया तो जरूर पर अगर आप ने लेते तो मैं किसे देता। आपने ले कर मुझे  कृतार्थ कर दिया। लेकिन जब मैं और मेरी बहन रोशनी वहां पहुंचे जहां मोती बैठा था तो वह वहां पर अब नहीं दिखाई दे रहा था। मैंने लाख उसे आवाज दे कर उसे पुकारा मोती---मोती....मोती.....परंतु उस पास सब जगह हमने उसे खोजा परंतु वह वहां पर नहीं था। देखते ही देखते मेरी सारी खुशी दो क्षण में गायब हो गई।

          रात भी धीरे-धीरे घिरने लगी थी। मैंने दूर तालाब के पास जाकर भी एक दो बार उसको उसके नाम से पुकार भी। परंतु मेरी आवाज केवल पेड़ पौधों या तालब के जल या दूर पत्थरों से टकरा कर खाली लोट आई। उस समय गांव की आबादी भी बहुत कम थी। जिसके कारण लोग रात 8बजे ही सारा गांव सुनसान हो जाता था। मोती के सहारे से तो हम इतनी दूर चल कर आए थे। उसके वहां न होने से हम और अकेले होने के कारण थोड़ा भय भी घेरने लगा था। और मायूस और उदासी के कारण हम घर की और लोट आये। खाना तो मैंने क्‍या खाया, खाते हुए बार-बार मोती की याद आई। रात को बिस्तरे में जाने के बाद भी घण्टों वहीं चित पर छाया रहा। उसी के बारे में सोचता रहा की वह कहां होगा। उसकी तो कोई मां भी नहीं  है उसका कोई परिवार नहीं है। हम ही लोग तो है सब कुछ उसके। वह अकेला रात भर कहां सोएगा होगा। बार-बार कान बहार कोई आवाज सुनने को बेताब थे। कोई भी आहट आती तो मैं उठ कर देख लेता की कहीं मोती तो नहीं आ गया। उसकी गुदड़ी भी सुनी पड़ी थी जिस पर वह सोता था।      

          रात जब बड़े भैया कालेज से आये, तब मोती उन्‍हें होली चौक पर मिला। वह उसे अपने साथ बुला कर ले आये पर घर तक तो वह साथ आया पर घर के अंदर न आ कर वह वापस गायब हो गया। ये बात बड़े भैया को कुछ अजीब जरूर लगी। की मोती एक तो इतनी रात घर से बाहर और दूसरा इतनी दूर तक वह मेरे साथ आया और घर के पास आकर अचानक गायब हो गया।

          हमारे कुछ खेत गांव के दूसरे छोर पर जंगल के उस किनारे पर पड़ते थे। जिनमें जंगली गायें, नील गायें और जंगली जानवर अकसर फसल को खराब कर देते थे। जब कभी मैं खेत में मां के साथ चने (छोलीया) वगैरह खाने के लिए जाता था। मैं मां से कहता था की मां तुम्हें डर नहीं लगता इतनी दूर कैसे अकेली आ जाती हो। परंतु मां केवल हंस देती की नहीं रे देख ये मोती तो मेरे साथ ही रहता है। ये तो पल भी मुझे अकेला नहीं छोड़ता। लगता है ये चिता में भी मेरे साथ जायेगा। बड़ा पागल है। तब मैं के साथ -साथ खेलता दौड़ता तब मुझे बहुत मजा आता था। खेतों के पास से ही एक बरसाती नाला बहता था। जो उपर पहाड़ की और से आता था। वह बरसात के दिनों तो विकराल रूप ले लेता था। पर इस समय कैसा बाल वत सुकोमल सा पतली लकीर बन कर बहता था। उसमें लगभग सभी जंगली जानवर पानी पीते थे। हर मौसम में हमारे जंगल में कोई न कोई खाने को फल लगा होता था। बरसात के दिनों में घोल फूल्ली, राम चने, काली मेवा, गर्मियों पील, और सर्दी के दिनों ता बेर, आदि। छूटटी वाले दिन जंगल में मोती के साथ ले या तो मां के साथ या ताऊ जी के साथ हम बेर खाने जरूर जाते थे। ये तो हमारे गांव की मेवा होती थी। ताऊ जी तो अपना बहुत समय खेतों में ही गुजरते थे। चाचा तो दिल्ली पुलिस की नौकरी करते थे वह तो कभी-कभी ही खेत में जाते थे। बेर के दिनों में तो हम स्‍कूल के बाद अकसर वही भाग जाते थे। हम जानते थे मोती ओर मां तो वहां जरूर मिलेंगे।

          ताऊ जी और हमारा एक नौकर बाबा सूखे झाड़ रोझ आदि काटते ओर फिर उससे खेत की मुंडेर के चारों ओर लगा देते थे जिससे की जंगली जानवर फसल को खराब नहीं करें। बतलाते थे की इन दिनों कुछ ग्वालों ने खेतों के आस पास एक लक्‍कड भग्‍गे को देखा है। उन की एक आध बकरी भी गायब हो गई थी। इस लिए बच्‍चों को वहां जाने से रोक दिया गया था। पर मां तो जाती ही थी। क्‍योंकि मां के साथ तो मोती होता था। लेकिन आज मां भूल गई की उसके साथ मोती नहीं है। लेकिन मां जब जंगल में पहुंच गई तब उसे अकेला पन का भय लगा। उसने सोचा ऐसे आना नहीं चाहिए पर मां के पास एक दुसिंगी जेली होती थी। जिस को कटी बाड़ को उठा कर सर रख कर खेत के चारों ओर बाड़ लगती थी। अचानक मां देखती क्‍या है कि मोती तो उसके पास ही खड़ा है। मां ने झाड़ी गिरा दी और उसके पास बैठ गई। और उसे गले लगा कर पूछा की तूं मुझ से क्यों नाराज है। अरे चाचा ने अगर तुझे मारा तो क्या है। हम तो तुझ पर पूरा विश्वास करते है। तुने दो दिन से कुछ भी नहीं खाया।

          मां काम करती रही मोती उसके साथ-साथ टहलता रहा। जब मां खाना खाने लगी तो वह भी पा बैठ गया। मां ने अपने हिस्‍से में से आधा खाना मोती को जब देने लगी। तब उसने अपनी नाराजगी  दिखाने के लिए मुंह फेर लिया।  मां समझ गई की मोती नाराज है। मां ने उसे बहुत समझाया प्‍यार किया, की यह तो मेरे हिस्‍से का खाना है। नाराज तो तू अपने चाचा से है। मेरे से तेरी क्‍या और कैसी नाराजगी है। पर मोती की आंखों में आंसू भर आये। मां भी उसे से लिपट कर रोने लगी। उसके बाद दोनों हंसने लगे और दोनों न अपना-अपना खाना खा लिया। और मां का प्यार से मुख चाट गया। और चारों और दौड़ कर अपनी खुशी को दर्शाने लगा।

          इतनी देर में पास की झाड़ी में कुछ सरसराहट हुई । देखा तो दो आंखें घूर रही है। वह लकड़बग्घा की आंखें थी। उसे मानव की गंध आ गई थी। वह आगे बढा और मां पर हमला बोलने ही वाला था कि बीच में मोती आ गया। मां हालांकि बहुत दिलेर थी। उसने पास रखी दुसंगी जेली उठा ली और लकड़बग्घा की और बढ़ी दो ओर से हमला देख कर वह कुछ डर गया  शायद दिन के प्रकाश में ये जंगली जानवर इतने हिंसक नहीं होते। और वह नाले की और जहां पानी बहता रहता हाँ। जहां पार झाड़ीयां गर्मियों में भी घनी रहती है। मोती उनके के पीछे भाग परंतु मां जानती थी ज्यादा आगे जाने से उसकी जान को खतरा है। इस लिए वह दूर तक उसको रोकती रही की मोती आजा-मोती आ जा। आखिर मोती मां की आवाज सून कर मां के पास आ गया क्योंकि वह जानता था की मां से दूर जाना मां के लिए खतरा हो सकता है।  आज मां समझ गई की इस तरह से आना सही नहीं है। ये तो भला हो मोती न जाने कहां से आ गया की जान मोती की वजह से बची है। इसके बाद वह वहां ज्यादा देर नहीं रुकी और घर आ गई। हालांकि अभी सूर्य काफी आसमान पर था। और कोई दिन होता तो वह देर तक रूकती। किसी-किसी दिन तो रात भी हो जाती थी। और मां को जरा भी डर नहीं लगता था। क्योंकि इससे पहले किसी ने भी हमारे गांव के जंगल में किसी ने लकड़बग्घे आदि जानवर को कभी नहीं देखा था। क्योंकि हमारा गांव अरावली पर्वत माला के जंगल के पास में बसा था। इस लिए यह मेहरोली से हाथी हुई राजस्थान के जयपुर ही क्या उससे आगे तक जूडी है। इस लिए जानवर कब भटकता हुआ कहां से कहां आ जाये। कहां नहीं जा सकता।

हां गांव के कुछ बुर्जग कहते है की करीब पचास साल पहले एक दिन किसी ने तालाब के पास पीपल के नीचे रात के समय एक बाग़ को भी देखा था। परंतु उस ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाय। और वह फिर कहीं चला गया। इस सब खतरे को आज कल के युवा नहीं जानते की पहले का जीवन क्या होता है। आज किसी गति से समाज में परिर्वन हो रहा है वह जहाज की गति ही समझो। इससे पहले किसी पीढ़ी ने इतना परिर्वतन इतनी तेज गति से कभी नहीं देखा था। 

          रात के समय घास फूस के ढाँचों पर बैठ कर गांव के लोग खेतों की रखवाली करते थे। देर रात तक आस पास के सब खेतों वाले सब इक्कठा हो कर आग जला लेते और तापते रहते और उसके साथ हुक्‍का पीते और बात चीत करते रहते थे।। मां ने ताऊ जी को भी यह बात बताई की आज उसने जंगल में लकड़बग्घा को देखा है। उसने मुझ पर लगभग हमला भी बोल दिया था वह तो मोती मेरे साथ था इस लिए बच गई। यहीं बात ताऊ जी ने गांव के दूसरे लोगों को बता जो रात को खेत में उनके साथ रखवाली करते थे। सब को सतर्क कर दिया था। की रात बीरात या दिन में भी कोई गहरे जंगल में अकेला भूल कर भी न जाए।

          हफ्ता दस दिन गांव में लकड़बग्घे  की चर्चा चलती रही कोई उसे नीरी कलपना मानता कोई बहम मानता। परंतु इस सब के बाद भी मोती घर नहीं आया। उसे हमने माता वाली पहाड़ी तक ढुंढा पर वह कहीं भी दिखाई नहीं दिया। कोई कहता था तुम्‍हारी मोती को हमने नकटे होद के पास देखा है। पर हमें कभी नजर नहीं आय।  उस रात दीवाली थी। सब लोग दीवाली मनाने की तैयारी कर रहे थे। ताऊ जी श्‍याम को खेतों की और निकल गये। हाथ में उनके लट्ठ होता था। छह फिट के हट्टे कटे जवान थे। हमारे ताऊ जी पिता जी हर के सबसे बड़े भाई थे। चार भाई और दो बहने उन सब की देख रेख का जिम्‍मा हमारे ताऊ जी पर आ गया उस समय वह 16-17 साल के रहे होगें। जब हमारे दादा जी गुजर गये। इसी सब में उलझन  के कारण सब काल चिंता फ़िकर करते उन्‍होंने शादी ही नहीं की थी। दादा जब तक जिन्‍दा रही वह हमारे ही पास रहती थी। ताऊ के बारे में कहती थी मैंने आदमी नहीं पैदा किया देवता को पैदा किया है। सारा गांव उनका बहुत इज्‍जत मान करता था। कम पढ़े लिखे होने पर भी वह स्‍वामी दयानंद जी से प्रभावित हो गये। और रोज नित नियम से सुबह और श्‍याम ध्‍यान करते थे। मैं भी उन्‍हीं के संग रह कर दयानंद जी की पुस्‍तके पढ़ते जवान हुआ था और उस सब के कारण ही मेरे जीवन में अध्‍यात्‍म ने गहरी छाप छोड़ की इस जीवन के अलावा भी कोई दूसरा जीवन है। जिसे जाना जा सकता है। और अगर आज में अध्यात्म से  जुड़ा और ओशो जैसे जीवित गुरु मिले तो इस सब के पीछे ताऊ जी का ही हाथ है। क्योंकि पहले पहल तो पौधे को उन्हीं ने सींचा था।  आज जब हमने ओशो को जाना तब तक हमारे ताऊ जी ये संसार छोड़ चुके है। वरना तो शायद हमारे से पहले उनका जीवन धन्‍य हो जाता। परंतु सच ही वह बहुत सरल स्‍वभाव के प्रेम पूर्ण व्यक्ति थे। हमारे साथ रहते हुए भी वह पूरे परिवार ही नहीं पूरे गांव के ताऊ थे। वह अपने पूरे गांव को ही अपना परिवार मानते थे।  अभी सूर्य डूबा नहीं था। हल्की-हल्की रोशनी थी। अचानक उन्हें झाड़ियों के पास से किसी के चलने की आवाज आई उन्‍होंने खड़े होकर देखना चहा पर वहां उन्‍हें कुछ भी नहीं दिखाई दिया।  पर कोई साया या सरसराहट सी उनका पीछा कर रही थी जो उनके रूकने शायद रूक जाती हो। ऐसा उनके साथ चील वाले खाल तक होता रहा। उसके बाद उन्‍हें अचेतन से भी कुछ अशुभ महसूस होने लगा था जैसे कोई चीज उन्‍हें घेरना चहा रही हो। घर अभी भी काफी दूर था।  अचानक उन्हें झाड़ियों के पीछे कुछ हरकत और उन्‍हें हिलना दिखाई दिया।  अब उन्‍हें पक्‍का हो गया की कोई न कोई तो है जो उनका पीछा कर रहा है। नाला चढ़ते ही सामने वह पास ही खुला मैदान दिखाई दे रहा था। वहां झाड़ियाँ थोड़ी छोटी ओर कम थी। गहरा नाला और पार करने के बाद उस खुले मैदान में ताऊ जी खड़े हो गये। वही पर खड़े हो इधर-उधर चारों और उन्‍होंने निगाह  घुमा फिरा कर कुछ देखने कोशिश करने लगे। तब तक अँधेरा थोड़ा और उतर आने कि वजह से रात गहराने लगी थी। सर्दी के दिनों में सूर्य भगवान भी थोड़ा जल्‍दी आराम करने के लिए चला जाता है। दूर गांव में पटाखे  और आकाश तूलिकों की वजह से अचानक दुधिया प्रकाश चारों और फेल जाता था। जंगल के बीच से गांव को दीपों से सज़ा देखना कितना मनमोहक और रमणीक लग रहा था। इस समय आस पास के खेतों में किसी के होने की उम्मीद भी बहुत कम ही थी। वारना तो भोला दादा का था जो अकसर वहीं सारा दिन झोपड़ी डाल कर रहते थे। शायद दीपावली मनाने की वजह से वह भी घर चले गये होंगे।

          ताऊ जी चारों ओर नजरे घुमाकर कर उस सरसराहट को देखने की कौशीश कर रहे थे। देखते ही देखते अचानक झाड़ी में से कोई काला सा साया निकला ओर उनकी ओर झपटा। उनके हाथ में डंडा था उन्‍होंने उसे चलाया। तो वह सामने आ कर खड़ा हो गया। वह वही लकड़बग्घा था। कितना घिनौना और कुरूप जानवर है लकड़बग्घा उसे देख कर आदमी आधा तो वैसे ही भयभीत हो जाता है। लकड़बग्घे  मुंह खूला था उसके खूंखरा दाँत चमक रहे थे। उसकी चमक दार आंखें किसी को डरा सकती थी। उसके मुंख से लार गिर रही है। आगे से उठा हुआ और पीछे से कैसे नीचे की और झुका होता है। उसकी गर्दन में बहुत ताकत होती है कितनी बड़ी भेड़ को बड़े आराम से पकड़ कर उठे ले जाता है। रंग उसका चाकलेट और काला था। मिट्टी के रंग के धब्बे थे  उसके शरीर पर।  बड़ा ही खतरनाक  तरीके से ताऊ जी को देख रहा था। वैसे तो वह आम तोर पर आदमी पर हमला नहीं करता पर बहुत भूखा हो तो वह बहुत निडर हो तब ऐसी संभावना देखी जाती है।  ताऊ जी समझ गये की ये हमला करने वाला है। इसके मन में भय नहीं है। दूसरी बार फिर उसने ताऊ जी पर हमला बोला इस बार उन्‍होंने ताऊ जी की धोती को पकड़ लिया और उसके दो दाँत ताऊ जी को झांग को चिरते हुए निकल गये। अब वह इतना पास आ गया था की उस पर लकड़ी चलाने का मौका ही नहीं मिल रहा था। उसने धोती पकड़ झटका मारा जिससे ताऊ जी जमीन पर गिर जाये। ताऊ जी उसकी इस हरकत से गिरने ही वाले थे की पीछे से मोती आ गया। और उसने लकड़बग्घा को पीठ से पकड़ लिया। पीछे से अचानक हमला के लिए वह तैयार नहीं था। उसने ताऊ जी को तो छोड़ दिया। और मोती पर हमला बोल दिया। क्‍योंकि मोती के दाँत उसकी पीठ पर गड़ गये थे जिससे उसको पीड़ा हो रहा होगी। 

          मोती और लकड़बग्घा में भयंकर युद्ध होने लगा। ताऊ जी भी संभल कर उठे और अपने लठ ले कर दोने के बीच में आ खड़े हुए। पर बहुत ताकत से लट्ठ नहीं  चला पाये। क्‍योंकि मोती बीच में था।   या जान बुझ कर उन्‍होंने ऐसी जगह हमला किया कि जान लेवा न हो। ऐसी परिस्थिति में आपको इतना होश रखने  के लिए बहुत ध्यान की जरूरत हे। जब आपके जीवन मृत्‍यु का सवाल है तब कहां आदमी अपने संयम को कहां सम्‍हाल पाता है। पर ताऊ जी ने सम्हाला ये में बाद में ताऊ जी से पूछा था। तब वह केवल मुस्कुरा दिये थे। मोती उस से बराबर की टक्‍कर ले रहा था। पर भारी लकड़बग्घा ही पड़ रहा था। दोनों के मुहँ से खून निकल रहा था। किसके शरीर पर कितने घाव हुए पता नहीं चल रहा था। क्‍योंकि मोती ताऊ जी के साथ होने की वजह से की उसे बचाने वाला है। ज्‍यादा हिम्‍मत और साहस से लड़ रहा था। अकेले की शायद इतनी हिम्‍मत नहीं होती। अचानक लकड़बग्घे की गर्दन मोती के मुंह में आ गई अब वह लाचार हो गया। इस मौका को देख कर ताऊ जी जो तैयार ही थे उन्‍होने लकड़बग्घा को एक लट्ठ मार वह वही पर बेहोश हो कर गिर गया। क्योंकि मोती ने उसकी स्वास की नली को पकड़ लिया था जिससे वह सांस नहीं ले पाने की वजह भी एक रही होगी। मोती ने उसकी गर्दन को अंत समय तक नही छोड़ ताऊ जी जल्‍दी से मोती के जबड़े को पकड कर खुलवाया और प्‍यार से उस लकड़बग्घा की गर्दन छुड़वाई। वह सारा खून से लथ-पथ था। उसकी पीठ और आँख और गर्दन के नीचे एक घाव था जिस से खून बह रह था। ताऊ जी की जांघ में भी गहरा दांत का निशान था। उन्होंने देखा की लकड़बग्घा अभी मरा नहीं है। उसकी साँसे चल रही है। उन्होंने  अपनी चादर से उसके चारों पैरो को खूब कस कर बाँध दिया। ताकि वह उठ कर भाग न सके। ओर उन्‍होंने मोती को प्‍यार किया पर शायद मोती में अब इतनी ताकत नहीं थी की वह खड़ा हो सके।ताऊज ने वहां से बरीक रेत हाथ से छांन कर लकड़बग्घा के घाव पर डाला, उसके बाद कुछ रेत आपने पेर पर डाला और मोती के घाव पर भी डाला ताकि खून बंध हो जाये। पर मोती इतनी थक गया था। या शायद ज्यादा खून निकल जाने की वजह से वह सुस्‍त हो गया था। वह थोड़ा निढाल  सा भी हो कर गिर गया। ताऊ जी समझ गये मोती भी बहुत घायल तो नहीं है पर वह थक बहुत गया है। ये सब केवल चार-पांच मिनट में ही हो गया।

इतने उपचार के बाद लकड़बग्घे  को वहीं छोड़ कर  ताऊ जी  मोती को उठा कर अपने कंघों पर डाला ओर घर की और चल दिये। ताऊ जी घर जब पहुँचे तो मोती  ओर के खून से पूरे कपड़े और शरीर सराबोर हो गया था।

          मोती की एक आँख बहुत घायल हो गई थी और पीठ और गर्दन पर भी गहरा जख्‍म था। इतनी देर में आस पड़ोस के लोग भी इक्कट्ठे हो गये ताऊ जी ने मोती को घर पर लिटा कर मां को और बड़े भैया को उसके जख्‍म धोने के लिए कह कर,  चार पाँच आदमियों को ले कर जंगल की तरफ चले गये। जहां पर लकड़बग्घा पडा हुआ था। वह मरा नहीं था उसकी साँसे चल रही थी। मोती के गर्दन पकडनें और ताऊ जी के प्रहार करने की वजह से वह बेहोश हो गया था। वह उसे बांधकर एक चार पाई पर डाल के बैठक में एक कमरे में बंध कर दिया। उस के नीचे थोड़ी सी सुखी घास डाल दी। और भाई साहब को कहा की इसे चिड़ियाँ घर भेजने के लिए आप फोन कर दो। गांव के कुछ लोग ने इस पर ऐतराज किया और  कहने लगे यह खुंखार है। इसने हमारे मवेशी मारे है हम इसे जान से मार देंगे। पर ताऊ जी ने सब को समझाया की ये तो पशु है लाचार है। इसे पेट भरने के लिए भोजन की जरूरत है। और आदमी को देखिये स्‍वाद जैसी चीज के लिए हजारों पशु पक्षियों को रोज मार कर खाता है। बात पुलिस तक पहुंच गई। उसने  पुलिस की गाड़ी आई और इसके बाद उन्‍होंने चिडियां घर को फोन कर दिया उनके चार आदमी एक पींजरा और एक डा. भी साथ आया। लकड़बग्घा को पहले मुंह से बाधा दिया ओर फिर उसके ज़ख़्मों को साफ कर उस पर दवाई लगाई और एक इंजेक्‍शन भी लगा दिया। जिससे वह सुस्त हो कर सो गया। और गांव के सब लोगों को धन्यवाद दिया और उस लकड़बग्घे चिड़ियां घर में ले गये।

          उस डा. ने मोती को भी इंजेक्‍शन लगाये दवाई दी। और उसके अलावा उसकी बहादुरी की तारीफ भी की और कहां शायद इसकी एक आँख खत्‍म हो गई है। पर मोती की जान बच गई वह इसके बाद तीन साल जीवित रहा। पूरा गांव उसकी बहादुरी के किस्‍से दोहराते रहते थे।  वह किसी के भी घर चला जाता उसकी बहुत खातिर होती। अगर कोई बच्‍चा उसे काना बोल भी देता तो उसे डॉट पड़ती मोती पूरे गांव को चहेता, और हीरो हो गया था। चाचा ने भी उसके पास बैठ कर उसे बहुत प्‍यार किया और उससे मांफी मांगी की महाराज मुझ से भूल हो गई में न जाने कहां खोया था जो ऐसा देख लिया। परंतु काफी मिन्नत चिचोरी के बाद ही उसकी दोस्‍ती  चाचा जी के साथ हो गई थी।

          लकड़बग्घा को चिडियां घर में भेज दिया गया था। ताऊ जी को बहादुरी का एक प्रशस्ति पत्र मिला था। पर मोती को किसी ने कोई इनाम नहीं दिया। वह लकड़बग्घन्न थी यानि एक मादा थी जिसे के पेट में बच्‍चे थे। बाद मैं उसने तीन बच्‍चों को जन्‍म दिया। और हम कभी भी चिड़ियाघर  जाते उस लक्कडभग्गी और उसके बच्‍चों को जरूर देखते। आखिर वह हमारे गांव के हमारे जंगल के प्राणी थे। ताऊ जी की वजह से वह लक्क्ड़भग्गन बच गई, वरना शायद गांव वाले उसे मार ही देते। ताऊ जी ने हमें बताया की मुझे तो तभी पता चल गया था ये मादा है। और इसके पेट में बच्‍चें है। इसी लिए मैंने उसे इस तरह से मारा की वह बेहोश हो जाए। मोती की जब तीन साल बाद मृत्‍यु हुई तब गांव के कम से कम सो आदमी उसे विदा करने गये। खेतों में उसी जगह उसे दबा दिया। जहां तीन साल पहले उसने लक्‍क्‍ड़भग्‍गन के साथ लड़ते हुए अपनी आँख गँवाई थी। और वहाँ पर उसकी एक छोटी सी मढ़ी बनवा दी जिस पर  लिख दिया। ‘’बहादुर मोती यहां सो रहा है।‘’

आज भी जब हम लोग जंगल में जाते है तो अपने प्यारी मोती को बहुत याद करते है। वह बेचारा वहां पर कैसे चिर नंद्रा में सोया क्या हमें देख पाता होगा। नहीं वह जरूर उतंग की और चला गया होगा। उसने इस गति के कारण मनुष्य जन्म पा लिया होगा।

 

मनसा-मोहनी दसघरा 

 

 

 

              

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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