कुल पेज दृश्य

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

ध्यान योग-ओशो-(अध्याय-01)

ध्यान योग-(प्रथम ओर अंतिम मुक्ति) 

अध्याय -पहला - (साधकों लिखे पत्र)

ध्यान में घटने वाली घटनाओं, बाधाओं, अनुभूतियों, उपलब्धियों, सावधानियों, सुझावों तथा निर्देशों संबंधी साधकों को लिखे गए ओशो के इक्कीस पत्र अंततः सब खो जाता है
सुबह सूर्योदय के स्वागत में जैसे पक्षी गीत गाते हैं--ऐसे ही ध्यानोदय के पूर्व भी मन-प्राण में अनेक गीतों का जन्म होता है। वसंत में जैसे फूल खिलते हैं, ऐसे ही ध्यान के आगमन पर अनेक-अनेक सुगंधें आत्मा को घेर लेती हैं। और वर्षा में जैसे सब ओर हरियाली छा जाती है, ऐसे ही ध्यान-वर्षा में भी चेतना नाना रंगों से भर उठती है, यह सब और बहुत-कुछ भी होता है। लेकिन यह अंत नहीं, बस आरंभ ही है। अंततः तो सब खो जाता है। रंग, गंध, आलोक, नाद--सभी विलीन हो जाते हैं। आकाश जैसा अंतर्आकाश (इनर स्पेस) उदित होता है। शून्य, निर्गुण, निराकार। उसकी करो प्रतीक्षा। उसकी करो अभीप्सा। लक्षण शुभ हैं, इसीलिए एक क्षण भी व्यर्थ न खोओ और आगे बढ़ो। मैं तो साथ हूं ही।


मौन के तारों से भर उठेगा हृदयाकाश


जब पहले-पहले चेतना पर मौन का अवतरण होता है, तो संध्या की भांति सब फीका-फीका और उदास हो जाता है--जैसे सूर्य ढल गया हो, रात्रि का अंधेरा धीरे-धीरे उतरता हो और आकाश थका-थका हो, दिनभर के श्रम से। लेकिन, फिर आहिस्ता-आहिस्ता तारे उगने लगते हैं और रात्रि के सौंदर्य का जन्म होता है। ऐसा ही होता है मौन में भी। विचार जाते हैं, तो उनके साथ ही एक दुनिया अस्त हो जाती है। फिर मौन आता है, तो उसके पीछे ही एक नयी दुनिया का उदय भी होता है। इसलिए, जल्दी न करना। घबड़ाना भी मत। धैर्य न खोना। जल्दी ही मौन के तारों से हृदयाकाश भर उठेगा। प्रतीक्षा करो और प्रार्थना करो।

ऊर्जा-जागरण से देह-शून्यता


ध्यान शरीर की विद्युत-ऊर्जा (बॉडी इलेक्ट्रिसिटी) को जगाता है--सक्रिय करता है--प्रवाहमान करता है। तू भय न करना। न ही ऊर्जा-गतियों को रोकने की चेष्टा करना। वरन, गति के साथ गतिमान होना--गति के साथ सहयोग करना। धीरे-धीरे तेरा शरीर-भान, भौतिक-भाव (मैटेरियल-सेन्स) कम होता जाएगा और अभौतिक, ऊर्जा-भाव (नॉन मैटिरियल इनर्जी-सेन्स) बढ़ेगा। शरीर नहीं--ऊर्जा-शक्ति ही अनुभव में आएगी। शरीर की सीमा है--शक्ति की नहीं। शक्ति के पूर्णानुभव में अस्तित्व (एग्झिस्टेंस) में तादात्म्य होता है। सम्यक है तेरी स्थिति--अब सहजता से लेकिन दृढ़ता से आगे बढ़। जल्दी ही सफलता मिलेगी। सफलता सुनिश्चित है।

ध्यान--अशरीरी-भाव और ब्रह्म-भाव


ध्यान में शरीर-भाव खोएगा। अशरीरी दशा निर्मित होगी। शून्य का अवतरण होगा। इससे भय न लें--वरन प्रसन्न हों, आनंदित हों। क्योंकि यह बड़ी उपलब्धि है। धीरे-धीरे ध्यान के बाहर भी अशरीरी भाव फैलेगा और प्रतिष्ठित होगा। यह आधा काम है। श्ल्लाष आधे में ब्रह्म-भाव का जन्म होता है। पूर्वार्ध है--अशरीरी-भाव। उत्तरार्ध है--ब्रह्म-भाव। और श्रम में लगें। स्रोत बहुत निकट है। और संकल्प करें। विस्फोट शीघ्र ही होगा। और समर्पण करें। और, स्मरण रखें कि मैं सदा साथ हूं; क्योंकि अब बड़ा निर्जन पथ सामने है। मंजिल के निकट ही मार्ग सर्वाधिक कठिन होता है। सुबह के करीब ही रात और गहरी हो जाती है।

कुंडलिनी-ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन


शरीर में विद्युत-ऊर्जा जैसा संचार शुभ है। धीरे-धीरे शरीर-भाव मिट जाएगा--और ऊर्जा का बोध ही बचेगा। भौतिक (मैटेरियल) शरीर एक भ्रांति है। वस्तुतः जो है, वह ऊर्जा (एनर्जी) ही है। ऊर्जा (लाइफ एनर्जी) ही अज्ञान में शरीर और ज्ञान में आत्मा प्रतीत होती है। मस्तिष्क में धक्के लगेंगे। लगेगा कि जैसे अब फटा...  अब फटा। लेकिन भय न लाना। जीवन-ऊर्जा के हाथों में स्वयं को छोड़ दो। वही भगवत-समर्पण है। ऐसे ही ब्रह्मरंध्र को छोड़ दो। ऐसे ही सहस्र पंखुड़ियों वाले कमल की कली टूटेगी और फूल बनेगी। नाभि-केंद्र पर अपूर्व शांति का जो अनुभव हो रहा है, उसमें रमण करो। उसमें डूबो--उससे एक हो जाओ। जीवन-ऊर्जा का मूल-स्रोत ध्यान में आ रहा है--उसे पहचानो। और, अब किसी भी अनुभव के संबंध में सोच-विचार मत करो! अनुभव करो और अनुगृहीत होओ।

अलौकिक अनुभवों की वर्षा--कुंडलिनी-जागरण पर


कुंडलिनी जागती है, तो ऐसा ही होता है। विद्युत दौड़ती है शरीर में। मूलाधार पर आघात लगते हैं। शरीर गुरुत्वाकर्षण (ग्रेविटेशन) खोता मालूम पड़ता है। और अलौकिक अनुभवों की वर्षा शुरू हो जाती है। प्राण अनसुने नाद से आपूरित हो उठते हैं। रोआं-रोआं आनंद की पुलक में कांपने लगता है। जगत प्रकाश-पुंज मात्र प्रतीत होता है। इंद्रियों के लिए बिल्कुल अबूझ अनुभूतियों के द्वार खुल जाते हैं। प्रकाश में सुगंध आती है। सुगंध में संगीत सुनाई पड़ता है। संगीत में स्वाद आता है। स्वाद में स्पर्श मालूम होता है। तर्क की सभी कोटियां (कैटेगोरीस) टूट जाती हैं। और बेचारे अरस्तू के सभी नियम उलट-पुलट हो जाते हैं। कुछ भी समझ में नहीं आता है और फिर भी सब सदा से जाना हुआ मालूम होता है। कुछ भी कहा नहीं जाता है और फिर भी सब जीभ पर रखा प्रतीत होता है। गूंगे के गुड़ का अर्थ पहली बार समझ में आता है। आनंदित होओ कि ऐसा हुआ है। अनुगृहीत होओ कि प्रभु की अनुकंपा है।

तैयारी--विस्फोट को झेलने की


कुछ करो नहीं, बस देखो। नाटक के एक दर्शक की भांति। नाट्यगृह में--पर नाटक में नहीं। शरीर नाट्यगृह है और तुम दर्शक हो। ऊर्जा उठती है--ऊर्ध्वगामी होती है तो ऐसे ही आघातों से तन-तंतु कांप-कांप उठते हैं। ऊर्जा अपना नया यात्रा-पथ निर्माण करती है तो आंधी में सूखे पत्तों की भांति शरीर आंदोलित होता है। फिर जैसे-जैसे नए प्रवाह-पथ निर्मित हो जाएंगे वैसे-वैसे ही शरीर की पीड़ा खो जाएगी। फिर आज जो आघात-जैसा प्रतीत होता है, वही आनंद की पुलक बन जाता है। ऐसे आनंद की जो कि शरीर में घटित होता है, पर शरीर का नहीं है। और निकट है वह क्षण। पर उसके पूर्व बहुत बार तूफान आएगा ऊर्जा का और चला जाएगा। तूफान उठेगा और शांत हो जाएगा। इससे चिंतित मत होना। क्योंकि, ऐसे ही विस्फोट (एक्सप्लोज़न) की तैयारी होती है। गौरीशंकर के शिखर-अनुभव (पीक-एक्सपीरियेंसेज) के पूर्व अनेक छोटे-छोटे शिखरों के अनुभव से गुजरना पड़ता है। उससे ही विराट को बूंद में झेलने की क्षमता निर्मित होती है।

अहिंसा--अनिवार्य छाया ध्यान की


ध्यान से मांसाहार तो कठिनाई में पड़ेगा ही। अपने तथाकथित सुख के लिए अब दुख किसी को भी न दे सकोगे। अहिंसा ध्यान की अनिवार्य छाया है। और, उस ध्यान में कुछ चूक है, जिससे कि अहिंसा सहज ही फलित नहीं होती है। अहिंसा को प्रयास से लाना पड़े, तो भी ध्यान में भूल है। अहिंसा को भी जो साधते हैं, उन्हें वास्तविक अहिंसा का कोई पता ही नहीं है। अहिंसा तो आती है सहज ध्यान के साथ-साथ, बस, ऐसे ही जैसे सूर्य के साथ प्रकाश। आनंद मनाओ और प्रभु को धन्यवाद दो कि ऐसी ही अहिंसा का पदार्पण तुम्हारे जीवन में हो रहा है।

गहरे ध्यान के बाद जाति-स्मरण का प्रयोग


विगत जन्म की स्मृति में उतर सकते हो। लेकिन, उसके पूर्व गहरे ध्यान (डीप मेडिटेशन) का प्रयोग अति आवश्यक है। उसके बिना चेतना को पीछे लौटाना अत्यंत कठिन है। और यदि किसी भांति संभव भी हो तो खतरनाक भी। इसलिए, गहरे ध्यान के पूर्व मैं कोई सुझाव नहीं दे सकता हूं, उसे कठोरता मत समझ लेना। ऐसा मैं करुणावश ही लिख रहा हूं। साधारण चित्त अतीत-जन्म की स्मृतियों की बाढ़ को झेलने में समर्थ नहीं है। इसलिए, प्रकृति उस द्वार को बंद कर देती है। और पूर्ण तैयारी के बिना प्रकृति के नियमों से खेल खेलना महंगा सिद्ध होता है।

सिद्धियों में रस न लेना


योग से बहुत कुछ संभव है--अतीन्द्रिय, अलौकिक। लेकिन, नियमातीत कुछ भी घटित नहीं होता है। अतीन्द्रिय--अनुभवों और सिद्धियों के भी अपने नियम हैं। चमत्कार भी, जो नहीं जानते उन्हीं के लिए चमत्कार हैं। या फिर, अस्तित्व ही चमत्कार है। पर, जहां तक बने, सिद्धियों में रस न लेना। साधक के लिए उससे अकारण ही व्यवधान निर्मित होता है।

विचारों का विसर्जन


ध्यान में प्रकाश के साथ-साथ बीच-बीच में विचार आते हैं, तो उन्हें देखना--तीव्रता से, पूरी चेतना से--समग्र एकाग्रता से। और, कुछ भी न करना--बस, द्रष्टा बनना। पर, दृष्टि प्रगाढ़ हो और पैनी। और, विचार खो जाएंगे! बड़े कमजोर हैं बेचारे। लेकिन, हमारी दृष्टि उनसे भी ज्यादा बेजान है--इसलिए कठिनाई है। अन्यथा, विचार से ज्यादा हवाई चीज और क्या हो सकती है?

चक्रों के खुलते समय पीड़ा स्वाभाविक


पीड़ा थोड़ी बढ़े, तो चिंतित मत होना। चक्र सक्रिय होते हैं, तो पीड़ा होती है। पीड़ा के कारण ध्यान को शिथिल न करना। वस्तुतः तो, चक्रों पर पीड़ा शुभ-लक्षण है। और, जैसे ही अनादि-काल से सुप्त चक्र पूर्णरूपेण सक्रिय हो उठेंगे, वैसे ही पीड़ा समाप्त हो जाएगी। चक्रों की पीड़ा--प्रसव पीड़ा है। तेरा ही नया जन्म होने को है। सौभाग्य मान और अनुगृहीत हो--क्योंकि स्वयं के जन्म को देखने से बड़ा और सदभाग्य नहीं है।

कुछ भी हो, ध्यान को नहीं रोकना


ध्यान में और भी शक्ति लगाओ। ध्यान के अतिरिक्त शेष समय में ध्यान की स्मृति (रिमेंबरिंग) बनाए रखो। जब भी स्मरण आए--क्षणभर को तत्काल भीतर डुबकी ले लो। मस्तिष्क में शीतलता और भी बढ़ेगी। उससे घबराना मत--बिल्कुल बर्फ जमी हुई मालूम होने लगे तो भी नहीं! रीढ़ में संवेदना गहरी होगी और कभी-कभी अनायास कहीं-कहीं दर्द भी उभरेगा। उसे साक्षी-भाव से देखते रहना है। वह आएगा और अपना काम करके विदा हो जाएगा। नए चक्र सक्रिय होते हैं तो दर्द होता ही है। और कुछ भी हो तो ध्यान को नहीं रोकना है। जो भी ध्यान से पैदा होता है, वह ध्यान से ही विदा हो जाता है।

मन का रेचन ध्यान में


भय न करो। ध्यान में जो भी हो होने दो। मन रेचन (केथार्सिस) में है तो उसे रोको मत। चित्त-शुद्धि का यही मार्ग है। अचेतन (अनकांशस) में जो भी दबा है, वह उभरेगा। उसे मार्ग दो ताकि उससे मुक्ति हो सके। उसे दबाया कि ध्यान व्यर्थ हुआ और उससे मुक्ति हुई नहीं कि ध्यान सार्थक हुआ। इसलिए, समस्त उभार का स्वागत करो। और उसे सहयोग भी दो। क्योंकि, अपने आप जो कार्य बहुत समय लेगा, वह सहयोग से अल्पकाल में ही हो जाता है।

छलांग--बाहर--शरीर के, संसार के, समय के


ध्यान में शरीर झूमता है तो भय न करना। वरन उसे आनंद से सहयोग देना। शरीर के साथ झूमो। मन को भी झूमने दो। और आत्मा को भी। झूमना नृत्य बन जाएगा। और नृत्य की अति में ही छलांग है। शरीर के बाहर--संसार के बाहर--समय के बाहर।

समय के पूर्व शक्ति का जागरण हानिप्रद


तृतीय नेत्र (थर्ड आई) की चिंता में तू न पड़। आवश्यक होगा तो मैं तुझसे उस दिशा में कार्य करने को कहूंगा। वह तेरी संभावना के भीतर है और बिना ज्यादा श्रम के ही सक्रिय भी हो सकती है। लेकिन, तू स्वयं उत्सुकता न ले। समय के पूर्व शक्ति का जागरण बाधा भी बन सकता है। और मूल-साधना से भटकाव भी। फिर सत्य के साक्षात्कार के लिए वह आवश्यक भी नहीं है। और अनिवार्य तो बिल्कुल ही नहीं। कभी-कभी कुछ शक्तियां अनचाहे भी सक्रिय हो जाती हैं; लेकिन उनके प्रति भी उपेक्षा (इनडिफरेंस) आवश्यक है। और नए सोपान पर गतिमय होने में सहयोगी भी। अब, जब मैं तेरी चिंता करता हूं तो तू सब चिंताओं से सहज ही विश्राम ले सकती है।

पूर्व-जन्मों के बंद द्वारों का खुलना


हां--तुम विगत किसी जन्म में योग विवेक से संबंधित थीं। अब, बहुत सी बातें शीघ्र ही तुम्हें याद आ जाएंगी। क्योंकि, चाबी तुम्हारे हाथ में है। परंतु उनके बारे में कुछ भी मत सोचो। अन्यथा तुम्हारी कल्पना तुम्हारी स्मृतियों के साथ घुलमिल जाएगी और तब यह जानना बहुत मुश्किल होगा कि क्या वास्तविक है और क्या नहीं? इसलिए अब सतत जागरूक रहो कि तुम्हें पूर्व-जन्मों के बारे में नहीं सोचना है। स्मृतियों को अपने से आने दो। तुम्हारी ओर से किसी सचेतन प्रयास की आवश्यकता नहीं है। इसके विपरीत वह एक बड़ी बाधा ही बनेगा। अचेतन को अपना कार्य करने दो! तुम मात्र साक्षी रहो। और जैसे-जैसे ध्यान गहरा होगा, बहुत से बंद द्वार तुम्हारे समक्ष खुलेंगे। लेकिन प्रतीक्षा करना न भूलो और रहस्यों को स्वयं प्रकट होने दो। बीज टूट चुका है और बहुत कुछ होने को है। तुम मात्र प्रतीक्षा करो और साक्षी रहो।

साधना में धैर्य


साधना के जीवन में धैर्य सबसे बड़ी बात है। बीज को बोकर कितनी प्रतीक्षा करनी होती है। पहले तो श्रम व्यर्थ ही गया दिखता है। कुछ भी परिणाम आता हुआ प्रतीत नहीं होता। पर एक दिन प्रतीक्षा प्राप्ति में बदलती है। बीज फटकर पौधे के रूप में भूमि के बाहर आ जाता है। पर स्मरण रहे, जब कोई परिणाम नहीं दिख रहा था, तब भी भूमि के नीचे विकास हो रहा था। ठीक ऐसा ही साधक का जीवन है। जब कुछ भी नहीं दिख रहा होता, तब भी बहुत कुछ होता है। सच तो यह है कि--जीवन-शक्ति के समस्त विकास अदृश्य और अज्ञात होते हैं। विकास नहीं, केवल परिणाम दिखाई पड़ते हैं। साध्य की चिंता छोड़कर साधना करते चलें, फिर साध्य तो अपने आप आता चला जाता है। एक दिन आश्चर्य से भरकर ही देखना होता है कि यह क्या हो गया है! मैं क्या था और क्या हो गया हूं! तब जो मिलता है उसके समक्ष उसे पाने के लिए किया गया श्रम नाकुछ मालूम होता है।

ध्यान में पूरा डूबना ही फल का जन्म है


जल्दी न करें। धैर्य रखें। धैर्य ध्यान के लिए खाद है। ध्यान को संभालते रहें। फल आएगा ही। आता ही है। लेकिन फल के लिए चिंतित न हों। क्योंकि वैसी चिंता ही फल के आने में बाधा बन जाती है। क्योंकि वैसी चिंता ही ध्यान से ध्यान को बंटा लेती है। ध्यान (मेडीटेशन) पूरा ध्यान (अटैन्शन) मांगता है। बंटाव नहीं चलेगा। आंशिकता नहीं चलेगी। ध्यान तुम्हारी समग्रता (टोटलिटी) के बिना संभव नहीं है। इसलिए, ध्यान के कर्म पर ही लगो और ध्यान के फल को प्रभु पर छोड़ो। और फल आ जाता है। क्योंकि ध्यान में पूरा डूबना ही फल का जन्म है।

अनुभूति में बुद्धि के प्रयास बाधक


ध्यान तेरा रोज गहरा हो रहा है, यह जानकर अति आनंदित हूं। बहुत से अनुभव होंगे--लेकिन उन्हें बुद्धि से समझने के प्रयास में मत पड़ना। बुद्धि के प्रयास बाधा बन जाते हैं। और न ही कोई अनुभव पुनरुक्त हो ऐसी वासना ही करना। क्योंकि, ऐसी वासना भी बाधा बन जाती है। जो हो उसके लिए बस प्रभु को धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाना है।

समष्टि को बांट दिया ध्यान ही समाधि बन जाता है


ध्यान के बाद प्रार्थना किया कर कि ध्यान में मिली शांति और आनंद सब ओर बिखर जाए--सबको मिल जाए। ध्यान करना है तुझे, लेकिन फल समष्टि को बांट देना है। तभी ध्यान समाधि बनता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें