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रविवार, 28 जुलाई 2024

होना और न होना -(भाग- 02) - मनसा-मोहनी दसघरा

 मार्ग की अनुभूतियां-भाग-2

(होना और न होना)

न होने का स्वाद जब कोई मनुष्य जानता है तो शायद उससे बढ़ कर कोई अनुभूति नहीं होती है। इसे प्रत्येक मनुष्य ने कई भिन्न-भिन्न आयामों में एक झलक के रूप में जरूर जाना होता है। खास कर प्रेम में, तो प्रत्येक ने इसकी झलका पाई होती है। इसी सब के कारण से अध्यात्म का जन्म होता है। कि इस न होने को कैसे अधिक लम्बा किया जाये। प्रेम के जिस क्षण के हजारवें हिस्से में मनुष्य इस जानता है उसे शब्दों में व्यक्ति नहीं किया जा सकता है। परंतु वहां न विचार होते है न ही विचार करने वाला। योगियों ने इस सब के अनुभव को स्थाई बनाने के लिए ध्यान की विधियों की खोज की। आज तो मनुष्य, खेल से, खतरे से, विस्मय से, रोमांच से, गति से, उंचाई से...भिन्न-भिन्न तरह से जानना चाहता है। और जानता भी है। परंतु जब  मैं कोई खेल या क्रिकेट खेलता था तब पहली बार मैंने इस न होने के आनंद को जाना था।  की इस न होना का सुस्वाद क्या होता है। जब तेज गति की बोल बैट के मिड़ल में लग कर चार-छ: रन के लिए जाती थी कुछ क्षण के लिए विचार बंद हो जाते थे। कितना आनंद आता था। शायद सभी खेलने वाले इस आनंद को अलग-अलग तरह से अनुभव करते है। परंतु क्यों शायद वह नहीं जानते की कैसे ये प्राप्त हुआ। वो इस केवल खेल का माध्यम ही जानते है।

हम दोनों में प्रेम हुआ, जीवन को एक संघर्ष झोंक दिया। एक अंजान डगर पर चल दिए। किसी अंजान शक्ति ने हमें साहास दिया और हम एक हो गए। आज याद करता हूं की न होने का सुस्वाद मैंने प्रेम के किन क्षणों में भी जाना था। प्रेम क्रीड़ा की उत्तेजना के बाद जो विश्रांत का क्षण आता था, तब उसके बाद  मैं एक दम से मोन निढाल हो जाता था। परंतु मोहनी जीवंत और ताजा हो जाती थी। उस में एक नई उर्जा का संचार आ जाता था। स्त्री और पुरूष में शारीरिक भिन्नता ही नहीं होता। संरचना की भिन्नता भी प्रकृति ने दोनों को अलग-अलग रूपों में दी है। उन क्षणों में  वह चाहती थी कि मुझे से बाते करें। तब वह बहाने से  चाय बना कर लाती, परंतु ने मेरा आंखें खोले का मन होता था न बात करने का। वह अवस्था न होने की चमत्कारी स्थिति थी। अखीर कार न चाहते हुए भी मुझे मोहनी का मन रखने के लिए मुझे आंखें खेलनी होती थी। और मरे मन से उसके साथ चार बाते करने के साथ चाए भी पीनी होती थी। परंतु अंदर से मैं जानता था की यह एक नाटक था मन तो करता था इस में डूबा रहूं।

दूसरा न होने का ध्यान में पहला अनुभव संन्यास के समय हुआ। जब हमने 1993-94 में पूना से सन्यास लिया वह समय सन्यास उत्सव का पिक था। हजारों की संख्या में सन्यासी होते थे। वह समय था रात के 9-30 बजे, शनिवार का दिन तय किया था ओशो ने। सन्यास के समय जो उर्जा सन्यास लेने वाले को ही नहीं वहां उपस्थित प्रत्येक सन्यासी को महसूस होती थी। भला उर्जा की वर्षा हो और कोई बिन भिगा रह जाये ये कैसे हो सकता है। सन्यास की उस अवस्था में मैंने जो अनुभूति की वह जीवन में चलते हुए ध्यान में करीब 20 साल बाद झलको में महसूस की। न होना... जब पहली बार साधक को अपने शरीर के भार से मुक्त होता है तो वह निर्भार की अवस्था गजब की होती है। वहां से कोई वापस आना नहीं चाहता है शायद। कम से कम मैं तो ऐसा मानता हूं। वहां पर  न वहां विचारों का बोझ है, ने भाव, न ही शरीर का और फिर भी आप पूर्ण है। अपनी पूर्णता लिए हुए कुछ भी कम नहीं हुआ। सन्यास के समय मेरी यह अवस्था करीब आधा-घंटा रही ( ये सन्यास के बाद पता चला) जब में शरीर में नहीं आ रहा था तो उस समय ओशो की छड़ी मंगवाई गई। जिसे विपासना ध्यान के लिए प्रयोग किया जाता था। अचानक जैसे मेरे सामने किसी ने हाथ का अवरोध किया और मेरा चलना रूक गया। परंतु ये स्थिति यहीं खत्म नहीं हुई सन्यास के करीब कई घंटे तक भी मेरा किसी से बोलने का न ही आंखें खोलने का मन था। शायद ही मेरे पास शब्द भी नहीं थे, अगर मैं बोलना भी चाहता तो शायद बोल नहीं पाता।

मोहनी इस सब को नहीं जानती थी। वह परेशान हो गई। और मुझे से बार-बार कहने लगी की तुम चुप क्यों हो बोलते क्यों  नहीं।....इस बीच ये सब मोहनी को करते देख कर एक सन्यासी मित्र ने शायद उसे रोका की ये ठीक है आप केवल इसे इसी हाल में रहने दे। ये बहुत महत्वपूर्ण स्थिति है। मोहनी बाद में कह रही थी की मुझे आपके साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था। लेकिन मैं क्या करती आपकी यह हालत देख कर डर गई थी।

परंतु न होने का मुझे आनंद मिला, उस क्षण मेरे मन में जारा भी भय उत्पन्न नहीं हुआ। परंतु सब के साथ ऐसा नहीं होता वह अगर भय भीत हो जाते है तो अपने में सुकड़ जाते है। अपने खोल में फिर प्रवेश करने की कोशिश करते है। जो हो नहीं सकता। क्या अंड़े से निकला बच्चा फिर उस में प्रवेश कर सकता है। कभी नहीं। इस लिए सबसे साहास और वीरता अगर कहीं है तो ध्यान के लिए है। युद्ध की वीरता से भी गहरी। क्योंकि यहां भी मिटना है। मरना है। आपको। वहां आपका शरीर मर रहा है। यहां आप शरीर को तो पीछे छोड़ रहे हे, आपका होना भी यानि आपका अहंकार भी मिट रहा है। युद्ध में आपका होना नहीं मिटता। परंतु साहसी व्यक्ति ही ध्यान में प्रवेश कर सकता है। ये कोई विरोधाभास नहीं है...ध्यान को उपलब्धता के लिए संकल्प और साहास अनिवार्य है।

अगला अंक....क्रमशः:

मनसा-मोहनी दसघरा

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