सन्यास के बाद फिर वही काम
मम्मी—पापा के आ जाने के कारण सूने घर में फिर से जैसे बहार लोट आई। मानो किसी सुखे वृक्ष को जी भर कर पानी मिल गया। उसके मुरझाए पत्तों में फिर से ताजगी फेल गई थी। जो मन कुछ क्षण पहले तक एक भय के आगोश में समाए हुए था। फिर लहलहाने के सपने देखने लगा था। हम सब का मन कितना प्रसन्न था, ये बात शब्दों मैं आप को बता नहीं सकता।
मम्मी जी ने जैसे ही मेरे सर पर हाथ फेरना चाहा मैं उछला और अपनी जीभ सीधी मम्मी जी के मुंह में डाल दी। और कोई दिन होता तो मेरी शामत आ जाती मम्मी जी को ये सब पसंद नहीं आता था। पर आज मम्मी जी ने मेरी इस बेहूदगी को हंसी में टाल दिया। मम्मी जी के मुंह की सुगंध और एक अंजान सी मीठा पन मेरे रोएं—रोएं में समा गया। जिस स्वाद को मैं आपको शब्दों में नहीं बता सकता। केवल उसे महसूस कर सकता हूं। पर वो स्वाद इतना अनूठा था जिसे सालों बाद भी में नहीं भूल पाया।
परंतु उससे मिलता झुलता सुस्वाद मुझे अलग—अलग कई बार मैंने महसूस किया था। कभी जब मैं मस्त हो कर बच्चों के साथ खेलता या ध्यान के कमरे में आँख बंद किए ओशो जी के प्रवचन सुन रहा होता था। वह स्वाद ऐसा था जो केवल मुंह तक ही सीमित नहीं रहता था, पूरे बदन के रोएं—रोएं में फेल जाता था। मस्तिष्क उससे आच्छादित हो जाता था। आंखों में एक अंजान ख़ुमारी सी छा जाती थी।
चाल ऐसी हो जाती थी मानो आप जमीन पर चल नहीं रहे, केवल छू भर रहे आपके पैर। शरीर निर्भार हो जाता था। कि तब उड़ा की अब उड़ा। परंतु आज का वो स्वाद बहार से छुअन मात्र से मुझे मिला था। परंतु अंदर गहरे तलों से कोई अंजान स्त्रोत फूट पड़े थे। खाने की वस्तु का स्वाद हम बाहर से अंदर की और ले जाते है। लिए इस की क्रिया तो शुरूआत बहार से हुई थी, और प्रतिक्रिया अंदर से आई थी।जैसे किसी गहरी घाटी में आप खड़े होकर जोर से आवाज दे और आवाज प्रतिध्वनि कर बार—बार लोट आये। और कई—कई गुणा होकर। वह स्वाद अंदर से बाहर की और फूटता था। बिना किसी कारण के...केवल आपके होने मात्र से एक परिपूर्ण लिए। इसलिए उसे कहा नहीं सकता, उसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। केवल उसे महसूस किया जा सके ये भी बहुत बड़ी उपलब्धि थी।
मम्मी—पापा दोनों ने गले में एक अजीब सी माला पहन रखी थी। वरूण भैया भाग कर पापा जी के पास आया और उन से चिपट कर रोने लगा। कुछ देर में दीदी भी आ कर रोने लगी। मुझे बड़ा अजीब लग रहा था कि ये तो खुशी की बात थी, पर ये लोग फिर रो क्यों रहे थे। शायद गहरी खुशी में भी आंख से आंसू बह पड़ते है। इस बात को हम पशु महसूस नहीं कर सकते।
क्योंकि हम भाव रिक्त है। हमारे भाव कुछ ठोस है उनमें तरलता नहीं है। इसी बीच पापा जी ने अपने गले की माला उतरी और वरूण के गले में डाल दी। वरूण भैया का रोना पल में ही खुशी और गर्व में बदल हो गया। अब वह घूम—घूम कर हम सब को चिड़ा रहा था। कि देखो मुझे वो सब मिला जो तुम्हारे पास नहीं है। कुछ क्षण के लिए तो मैं दीदी और हिमांशु उदास हो गये। की वरूण भैया ने सच में ही बाजी मार ली। ये सब मुझसे देखा नहीं गया और मैंने अपना प्रतिरोध जताने के लिए भोंकना, शुरू कर दिया....कि हम तो रह गये......क्या हमें कुछ भी नहीं मिलेगा।
इस बीच मैं चोर नजरों से देख रहा था कि मम्मी पापा का रंगरूप ही इन कुछ दिनों में कितना बदल गया था। उनका चेहरा, उनकी आंखों, उनका ललाट, एक अपूर्व सौंदर्य से भर गया था। आंखों की गहराई तो इतनी बढ़ गई थी की मुझे देखने से भी डर लग रहा था। मानो अभी उनमें डूब जाऊँगा। मैंने इससे पहले किसी की आंखें इतनी गहरी नहीं देखी थी। इतने दिन में ये कैसा कायाकल्प हो गया, ये मेरी समझ के बाहर की बात थी। शायद यहीं है मनुष्य की प्रगति का राज और रहस्य।
इसी बीच मम्मी जी ने बैग से एक डिब्बा निकाला मेरे कान एक दम से खड़ हो गये। पन्नी की चर—चर से ही मैं समझ जाता था की ये जरूर कोई खाने की चीज खुल रही थी। मेरे मुंह में खाने से पहले ही पानी आ जाता था। मम्मी जी ने पेड़ो से भरा वह डिब्बा खोला, उसकी मधुर सुगंध से मैं नहा गया। सबसे पहले उस में से एक पेडा मुझे मिला। और सब को शायद दो—दो। परंतु मैं तो उसे पल में ही चटकर इधर उधर देखने लगा।
कुछ क्षण के लिए वह पेड़ा मेरे मुंह में रहा और झट से पेट के अंदर। और ये मनुष्य कितने प्यार और आराम से चबा—चबा कर, स्वाद ले कर खाता है। फिर हम इस तरह से क्यों नहीं खा सकते। अंदर से मुझे अजीब भी लग रहा था पर ये पुरानी जन्मो की आदत मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी। मैं लाख सोचता की अब की बार में बहुत स्वाद ले कर आदमी की तरह से खाऊंगा। पर ऐसा होता नहीं। क्योंकि अगर हम स्वाद लेने लगे तो हमारे हिस्सा तो गया। प्रकृति कारण से हमने जीभ की बजाएं आंत से स्वाद लेना शुरू कर दिया था। ये हमारी एक मजबूरी थी। जैसे गाये—भैंसे पहले जी भर का पेट भर लेगी फिर इतमीनान, शांति, तसल्ली से बैठ कर जुगाली कर के स्वाद ले—ले कर उसे चबायेगी और हजम करेगी।
इसी तरह से हमने भी पहले खाना पेट के अंदर भरना था। फिर बाद में उसका स्वाद—ववाद बाद में देखा जायेगा। स्वाद तो एक प्रकार की विलासिता है, जो मनुष्य ने विकसित की है। हम जीभ से नहीं अपनी आंतों से स्वाद लेते है। जब आप का पेट भर है और आप केवल स्वाद के लिए, मन के लिए भोजन कर रहे है। पेट भरने या जीने के लिए स्वाद की जरूरत नहीं चाहिए। जीवन जीने के लिए पेट भरना पहली जरूरत है। स्वाद एक विलासिता है।
लेकिन मुझे बार—बार सभी ने एक—एक टुकड़ा दिया। और कोई दिन होता तो मुझे शायद नहीं दिया जाता की ये मीठा मेरे लिए जहर है। पर आज तो घर में एक खुशी थी। सब इस बात को भूल गये थे। या इस बात की परवाह नहीं कर रहे थे। सब प्यार को पेड़े के रूप में मुझे खिला रहे थे। और आज उस पेड़े के खाने का आनंद भी बहुत अजीब था। खुशी में भूख तो नहीं लगती परंतु दूसरी बात भी साथ—साथ होती है कि स्वाद बहुत बढ़ जाता है।
इतने दिनों का खाली पन के बाद आज घर कुछ भरा—भरा सा लग रहा था। आज लग रहा था, उसमें भी प्राण है। वरना तो वहीं घर कैसा हमें खाने को दौड़ता था। यही आँगन जो आज उत्सव और उमंग से भरा है। कल यहां पर जब हम अकेले थे कैसी मायूसी फैली हुई थी।
वहां से आने के बाद भी मम्मी—पापा की दिन चर्या में कोई परिवर्तन नहीं आया। फिर अपने काम में मम्मी पापा उसी तरह से लग गये। और कहूं उससे भी तरो ताजा हो लगन और मेहनत से अपना काम करने लगे। ये देख कर मुझे बड़ा अचरज भी होता की मैं तो सारा दिन सौ—सो कर भी थका ही रहता हूं और मम्मी–पापा दिन भर इतनी मेहनत मशक्कत कर के तरो ताज रहते है। शायद अब उन्हें एक ठहराव मिल गया था। या उन को जीवन में एक पगडंडी मिल गई थी। जो शायद एक मंजिल की और जा रही थी।
शायद इसका ही का नाम सन्यास था। आप की भटकन खत्म हो जाये और आप अपने को किसी के हाथों सौंप दे। जो दूर किसी और लोक का प्राणी हो। और आप को मिल जाये किसी और लोक की झलक और सुगंध तब आपका जीवन ही दूसरा हो जायेगा। और आपके जीवन में एक छंद वृद्धता आ जायेगी। आपके अस्त व्यस्त सुरों में एक सुहाना राग बज उठेगा। आपकी वीणा में एक मधुरता आ जायेगी। आपके लय सूर मिल एक राग बन जाये आपका जीवन में उमंग एक नाद बज उठेगा। पापा जी दूध का जो काम करते थे। इन दस दिनों के लिए बंद कर चले गये थे। और आने के बाद फिर उसे जीरो से शुरू करना पड़ा। क्योंकि कौन सम्हालता इस कठिन कार्य को। बच्चे तो अभी बहुत छोटे थे। और मैं और दादा क्या करते। पर शायद जिस ईमानदारी और नेकनीयत से पापा जी और मम्मी जी सामान बेचते थे। इन कुछ दिनों में उस की साख और अधिक हो गई।
इन दस दिनों में लोगों ने इधर उधर का दूध और दूसरा समान खरीद कर देख लिया। और उस खाली जगह में कोई भी पापा जी तुलना में नहीं भर सका। परंतु आप चाहे इस बात को मानो न मानो पापा जी और मम्मी जी जो साहस का कार्य किया वह अति कठिन था। एक जमी हुई दुकान को यूँ एक दम से बंद कर देना कोई आसान कार्य नहीं है। दूध का काम एक कच्चा काम है। और इसके बाद दुकान अब कुछ ही दिनों में दुगुनी बिक्री करने लगी थी। जो लोग सोचते थे कि अब तो मम्मी पापा सन्यासी हो कर घर छोड़ कर चले जायेंगे। और इनके छोटे—छोटे बच्चों के साथ मेरा भी क्या होगा। अब ये अपने जीवन को कैसे जीयेंगे। बेचारे जो नया—नया ख्वाब देखने लगे थे वह उदास और मायूस हो गये थे। उनके ख्वाब सब अधूरे ही रह गये थे। और आप देखे कोई भी चीज एक छोर से नहीं हो सकती। उसका दूसरा छोर भी जरूर होना चाहिए। चाहे वो किनारा हम देख सकने असमर्थ ही क्यों ने हो। उसे हम न देख पाये ये ना होना तो नहीं होगा। पर इससे कोई भेद नहीं पड़ता। जैसे नदी का एक तीर है, तो कहीं दूसरा किनारा भी होना ही चाहिए।
अब ये तो कोई बात नहीं की आपको दिखाई नहीं दे रहा तो आप मानने से मना कर दे। आप देख तो बहुत सी चीजों नहीं सकते। जैसे खुशबु को आप देख नहीं सकते, आप आक्सीजन गृहण कर के जीवत रहते है। पर आज तक आपने उसे देखा नहीं है। अब साहस का काम तो यह है की आप उसे जब तक न माने जब तक उस पार का किनारे पर आप तैर करें पहुंच ने पाये या उसे छू न आये। आज विज्ञान डार्कमेटर की बात करता है। रोज नये—नये रहस्यों पर से पर्दा हटाता जा है।
लेकिन इतना करने पर ही वह अपने होने को जो उसके पास से पास है नहीं जा पाता। क्यों? क्योंकि वह विज्ञान है, काश वह देख पता अपने अंदर की गहराई को और समझ पाता उन अनबूझ रहस्यों को तो आज वह विनाश के मार्ग पर अग्रसर नहीं होता। विज्ञान की खोज मनुष्य के काम तो केवल 10 प्रतिशत भी शायद नहीं आती है। बाकी सारी उसके और प्रकृति के विद्धवंश का सामान ही खोजता है।
अब फिर वहीं काम वहीं ध्यान वही दिनचर्या। समय सब को साथ ले कर फिर दौड़ने लगा। मम्मी पापा जिस कमरे में ध्यान करते थे। वह कमरा अकसर बंद रहता था। वह केवल ध्यान के समय ही खुलता था या पापा जी रात उसी कमरे में सोते थे। हम सब नीचे वाले कमरे में सोते थे। कभी—कभी जब मैं उस कमरे के अंदर चला जाता या जाने दिया जाता तो मुझे अपने ऊपर बहुत गर्व होता था। उस कमरे की तरंगें, वहां की सुगंध, वहां की शांति ही अलग थी। मेरा उस कमरे में घुसते ही बस एक काम होता था। पूरे कमरे की कानूनी कार्यवाही हर चीज को सुध कर देखता।
हम कुत्तों ने नाक को इतना विकसित कर लिया है, कि देखने का काम भी हम नाक से ही करते है। आँख का भरोसा हमारा कम हो गया है। जैसे मनुष्य का सारा जोर बुद्धि पर हो गया है। वह कहता है मैं सोच रहा था तुम नहीं खड़े होगे। अरे भले मानस देख लो आँख के सामने खड़े है या नहीं। इस बात के लिए बुद्धि को नाहक परेशान कर रहे हो।
बस एक बार उस कमरे में चला भर जाता फिर न मुझे भूख ही लगती और न प्यास मैं आँख बंद कर सोता ही रहता। वहां की नींद ही अजीब थी। कितनी गहरी और कितनी चमक। जहां न कोई ध्वनि ही और वहां पर कितनी पूर्णता फैली होती है। सन्यास लेकर आने के बाद कुछ अधिक लोग ही ध्यान करने आने लगे थे। उनमें से कुछ लोगों का आना तो मुझे फूटी आँख नहीं सुहाता था। पहले कम लोग ध्यान करने के लिए आते थे या नहीं आते थे तो मुझे अंदर जाने का मोका भी मिल जाता था। लेकिन अब तो वहां जगह कम पड़ जाती है। इसलिए में बाहर ही रह जाता था। इसलिए मुझे लगता था इन बाहर के लोगों को नाहक अंदर आने दिया जाता है।
सब लोग अच्छे नहीं होते, क्या इस बात को मैं मंद बुद्धि जानता हूं तो क्या मम्मी—पापा नहीं जानते होंगे। जरूर जानते होगे। परंतु फिर भी उन्हें क्यों अंदर आने दिया जाता है, ये बात मेरी समझ के बाहर थी। कुछ लोग तो इतने खराब थे की मैं बस किसी तरह से अपने आप को रोक पाता था।
उनकी तरंगें......उनकी उर्जा बहुत विकृत थी। उनका चलना, उनकी आंखों से धूर्तता टपकती थी। मैं उन्हें भोंकता जरूर था चाहे वह एक बार आयें हो या रोज आते हो। मैं एक बार पूरे परिवार को आगाह कर देता था कि इन लोगों को नाहक घर के अंदर आने दिया जाता है। अब तो रात को भी मेला सा लगने लगा। रात दुकान के बाद भी ध्यान और सत्संग चलता था। मेरी समझ में नहीं आता था क्यों मम्मी पापा इतनी मेहनत करते है। इस तरह से तो उनका शरीर अस्वास्थ्य हो जायेगा।
पर एक बात थी ध्यान के लिए जो संगीत बजता था, वो मुझे अति प्रिय था। वह मेरे को इतना अच्छा लगता था कि मैं उस संगीत को सुनने के लिए ध्यान के कमरे के बाहर ही लेट जाता था। उस संगीत में एक शांति थी। फिर एक दिन ने जाने कहां से एक गंजे से आदमी को पापा जी साथ लिए हुए आये। रात का समय था। एक तो दिन और रात कि सतर्कता में मेरे काम और मेरी सोच में फर्क आ जाता था।
रात के समय मैं अधिक चौकन्ना हो जाता था। उस आदमी के हाथ में कुछ डंडे जैसे दिखने वाली चीज थी। मैं पहले तो डरा की ये इस तरह क्यों और क्या ले कर आया है। बाद में मुझे पता चला की उस का नाम‘’ बांसुरी’’ है। जो ध्यान के संगीत में भी बजती है। लेकिन ध्यान के संगीत में बजी वह बांसुरी और इस आदमी ने जो बांसुरी बजाईं उस में बहुत भेद था। इसकी बजाई बांसुरी की आवाज चुभती थी। कानों के साथ कही गहरे लगती थी। और ध्यान की बजाई हुई वह बांसुरी कहीं अंदर एक सीतलता सी भरती चली जाती थी।
वह आदमी अंदर कमरे में कुछ बजा रहा था और मैं बहार भय की हुंकार भर रहा था। मेरे अंदर का जानवर बहार निकल रहा था। अपने पूरे जंगली पन के साथ। मेरे दांतों से एक खास किस्म का रसायन निकलने लगा। और मेरे मूंह से जोर दर हुंकार निकली.... हूं... हूं...... हूं....मन कर रहा था इस आवाज से कही दूर भाग जाऊं। मैं आपने कान बंद करने की कोशिश कर रहा था। पर वह आवाज है की बढ़ती ही जा रही थी। एक अजीब सी हालत हो गई थी मेरी। एक अंजाने बंधन में बंधा में तड़प रहा था। छटपटा रहा था। आज मुझे ये बंधन गुलामी लग रहे थे।
अपने पूर्वजों की आजादी उनकी स्वछंदता पर गर्व हो रहा था। यहां आज मुझे कितना अकेला पन खल रहा था मैं आपको बता नहीं सकता। एक पीड़ और संताप से मेरा ह्रदय रो रहा था। आपको उस क्षण कोई ऐसा चाहिए जो आपके जैसा हो, जो आपके दुःख को बांट ले, आपके ज़ख़्मों को सहला दे। और ये सब जो हो रहा था, उस गंजे आदमी के कारण। वह मेरी आंखों में खटक रहा था। लगता था इस आफत को किसी तरह से यहां से भगा दूँ। वरना ये तो मेरा यहाँ रहना दूभर कर देगा। ऐसा न हो कि इस स्वर्ग के समान घर को छोड़ कर मुझे भागना पड़े। वो मैं अंदर से कभी भी नहीं चाहूंगा।
कुछ ही देर में वह आदमी चला गया मुझे चैन मिला। पापा जी भी बाहर आये और मेरे सर पर अपना हाथ रख कर खुब प्यार किया और मेरी ऐसी हालत देख कर मेरे कान के पास अपना मुख ला कर किसी रहस्य की तरह कहने लगे‘’ पोनी तुझे इतना क्यों तनाव हो रहा था। हां मैं जानता हूं , ये ध्वनि बहुत खराब थी। मेरी आंखों में पानी बह रहा था। और मेरा मस्तिष्क सुन्न हो गया था।‘’ एक अजीब सा सन्नाटा मुझे चारों और सुनाई दे रहा था। जो मेरे मस्तिष्क को बंद कर रहा था। न मैं उस समय सोच सकता था और न कुछ करने की ही मेरी हालत थी।
फिर कुछ दिन तक वह आदमी नहीं आया। मुझे लगा वह आफत टल गई। परंतु ये मेरा भ्रम था। एक रात वह पापा जी के साथ फिर आ गया। मैं एक दम से गुस्से में आ गया था और पापा जी ने उस समय अगर मुझे न पकड़ लिया होता तो मैं उसे काट लेता। और पापा जी मेरे सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहने लगे इतना गुस्सा क्यों। और उसे कमरे में भेज दिया।
परंतु मेरा इतना गुस्सा पापा जी ने इससे पहले कभी नहीं देखा था। वह भी समझ गये की मुझे इस आदमी का आना फूटी आँख नहीं सुहा रहा था। जब वह ऊपर चला गया तब पापा जी ने मुझे छोड़ा, मेरे गुस्से का कोई अंत नहीं था। मैं जितनी तेज गति से भाग सकता था भागा। अगर मुझे उस दिन वह आदमी कमरे के बहार मिल जाता तो समझो उसकी शामत आ गई थी। परंतु वह मेरे तेवर देख कर डर गया था। उसने अंदर से ध्यान का कमरा बंद कर लिया था।
में तेजी से भाग कर दरवाजे तक गया। और लगा उसे सूँघने। एक दो बार खड़ा होकर मैंने जोर से धक्के भी मारे। पर वह अंदर से बंद था। पापा जी ऊपर आये और मुझे लगे समझाने की जब कोई घर पर आये तो यह सब ठीक नहीं, पर मैं केवल नीची गर्दन किए सुनता भर रहा। न वह शब्द और न वह समझ मेरे अंदर जा रही थी। और न ही मैं कुछ सुनना चाहता था। पापा जी भी अंदर चले गये। अंदर से बाँसुरी बजने की आवाज आ रही थी। पर ये सिलसिला ज्यादा देर नहीं चला। शायद वह आदमी भी मेरे गुस्से से डर गया।
मैं अंदर से बेचैन हो रहा था मेरे सब्र के सब बाँध टूट चूके थे। अब मुझे उस आदमी की एक ही चीज नजर आ रही थी चप्पल। सो मैंने उन्हें गुस्से में पकड़ कर इतने छोटे—छोटे टुकड़े करने शुरू कर दिये। पूरी छत पर उन टुकडों को मैंने इधर उधर बिखेर दिया। आसमान पर पूरा चाँद चमक रहा था। उसकी सुनहरी चाँदनी आँगन को नहला रही थी। कितनी मधुर थी उसकी शीतलता और उसकी चटक रोशनी कैसी खिली पड़ी थी यहां वहां आँगन में। और दिन का प्रकाश की कितना आक्रमण हो जाता है। चंद्रमा की रोशनी आपको छू कर भी कैसी अनछुई सी बनी रहती है। परंतु आँखों में समाये क्रोध के कारण मैं उस फैली रोशनी को देख नहीं पा रहा था। और न ही उस का आनंद ही ले पा रहा था। परंतु शायद उस दिन पूर्णिमा की रात के कारण मुझे अधिक क्रोध आ रहा था। क्योंकि इस समय मेरे मन में तो हिंसा भरी थी। एक ज्वाला जो मुझे जला रही थी।
उसकी चप्पल के अंग—अंग तो मैंने पाँच मिनट में ही खत्म कर इधर उधर बिखेर दिये थे। इसलिए अब मेरा वहां रूकना ठीक नहीं था। क्योंकि मैं गुनाहगार हो गया था। जब आप कुछ गलत कर देते हो तब आपका साहस भी आपके साथ नहीं होता और भय आपको चारों और से घेर लेता है। चप्पलों के टुकड़े—टुकड़े करने के बीच ही मेरा गुस्सा भी कम हो गया था। और मेरे दांतों की खुजली भी मिट गई थी। और अपना कार्य पूर्ण हुआ समझ कर में विजय और भय के साथ नीचे गया और लंबी तान कर सो गया। कब वह आदमी गया। मुझ अब क्या लेना था।
मैंने फिर इसकी भी परवाह नहीं की। बस कुछ देर में ऊपर से आती वह ध्वनि बंद हो गई थी। सुबह मेरी आँख खुली जब मैंने छत पर जाकर अपनी कारस्तानी देखी.....और इस बात का अंत ये हुआ की वह आदमी शायद इस घटना से इतना डर गया कि वह फिर कभी हमारे घर नहीं आया। और मेरा गुस्सा और मेरी तरकीब काम कर गई। धन्य भाग मेरे। कि इस कारस्तानी के बाद भी मेरी पिटाई नहीं हुई.....मैं बहुत खुश था। चलो बला टली। अब कुछ अच्छा हो जाये।
भू.....भू......भू......
आज इतना ही
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