अध्याय - 21
पोनी – एक कुत्ते की आत्म कथा
(मेरा पापा जी को काटना)
अपनी एक आदत से मैं बहुत परेशान था। जो इतनी खराब थी कि उसने मुझे ही नहीं जिनके लोगों के साथ मैं रहता था उनको भी बहुत कष्ट दिया और उन्हें सताया भी। ऐसा नहीं था की मैं इस अपनी कमजोरी को नहीं जानता था। परंतु मेरी मजबूरी थी या उसे मेरा जंगलीपन कह लीजिए जो मेरे बार—बार चाहने से भी मुझसे छूट नहीं रही थी। शायद यहीं तो बंधन जो हमें अपने अंदर कैद किए हुए था। न जाने क्यों हम अपनी आदत को अपना स्वभाव ही मान लेते है।
मुझे इस घर में इतना प्यार मिलता था, कोई बंधन नहीं, पूर्ण मुक्त था। कहीं बैठो, कहीं घूमो लेकिन केवल घर की चार दीवारी में। परंतु न जाने क्यों फिर भी उस चार दीवारी में एक प्रकार की घुटन क्यों महसूस होती थी। जरा भी बाहर जाने का मुझे मोका मिला नहीं, बस मेरे कदम एक अंजानी सी ताकत मुझे बाहर खिंच ही लेती थी। उस बेहोशी में फिर सब भूल जाता था, कोई डाँटे, मारे.....कुछ भी करें मुझे बुला नहीं सकता था। मैं आपने कान, आँख सब बंद कर लेता था। बस अगर में अपने आप में झांक कर देखूँ तो वहीं एक मात्र बुराई जो मेरे पूरे जीवन पर छाई रही थी। उस आजादी के सामने मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। सच ही मुझे इस घर में सब सुविधा मिलने पर भी जंगल की हवा पानी में मुझे एक आजादी महसूस होती थी।
इसका पहला कारण तो मेरा जंगली पन हो सकता था। जो मेरे रंध्र—रंध्र में समाया हुआ था, और दूसरा मेरा बलिष्ठ होता शरीर। रोज—रोज में युवा और तंदरूस्त होता जा रहा था। और में देखा रहा था कि ताकत के साथ मेरे अंदर अहंकार और गुरूर भी बढ़ रहा था। जब भी कोई मुझे डाँटता था, या डरता है, मुझे न जाने क्यों क्रोध आ जाता था। कारण या अकारण का विशेष महत्व नहीं था। बस बाहर निकलना है। जब कुछ देर इधर उधर घूम कर थक जाता तो। मुझे अपनी दुकान का पता था, तब मैं सोचता क्यों न दुकान की और चला जाये। परंतु मैं इस बात को कभी नहीं भूलता था कि जो गली के मेरे साथी कुत्ते है वह घर के पालतू कुत्ते को कभी पसंद नहीं करते। पर ये रोज का ही झंझट था, इस के आगे में अपनी स्वतंत्रता को तो नहीं छोड़ सकता था।
फिर मेरे शरीर की बनावट और इन कुत्तों के शरीर की बनावट में दिन रात का अंतर था। मेरी चपलता, पैनी दृष्टि , तना हुआ शरीर,....लेकिन किसी ने सच ही कहां था घमंड नहीं करना चाहिए। यहां तो घमंड के साथ अहंकार और मैं पन भी मिल गया था। उस दिन अचानक उस पीछे वाली गली में तीन चार मोटे—मोटे कुत्ते न जाने कहां से आ गये। मुझे देखते ही न जाने क्यों उनके कान खड़े हो गये। एक मेरी तरफ लपका। मैं भागने कि बजाएं उस पर झपट पड़, वह तो दो मिनट में ही प्याऊ—प्याऊ करता हुआ, भाग गया फिर उन कुत्तों की हिम्मत नहीं हुई मेरी और आने की। मैं अपनी मस्त चाल से दौड़ता हुआ उनके पास से चला गया।
वह मुझसे डर तो गए परंतु मुझे खा जाने वाली नज़रों से दूर खड़े हो कर देखते रहे। कुछ ही आगे चला था कि उस कुत्ते के रोने की आवाज सून कर दो अपने को दादा समझने वाले कुत्ते दौड़ते हुए आये। हम कुत्तों की ये भी एक खासियत है जब कोई कुत्ता पिट कर रो रहा हो तो दूर दूसरे कुत्तों का झुंड उसकी पीड़ा को सून कर उसके प्रति दया भाव दिखा कर भोंकेंगे। क्यों इस बेचारे को मारा जा रहा है। और अगर वह पास खड़ा है तो इसका उलटा उस पिटने वाले कुत्ते को ही मारेगा। अजीब नियम है हमारी जाति का। ये नियम बड़ा विरोधाभाषी है। जो कभी किसी की भी समझ में नहीं आ सकता था।
इस समय मुझे गली के दोनों और के कुत्तों ने घेर लिया। इसमें कुछ ऐसे भी होंगे जिनको मैंने पहले भी जरूर मारा होगा। आज वह इस बात का जी भर कर बदला लेना चाह रहे होंगे। मैं खतरे को भांप गया। एक बार मेरे मन में आया की अपने पूछ अंदर छुपा का आत्म समर्पण कर दिया जाये। लेकिन ये मेरे स्वभाव के विपरीत था। तथा मैं उनसे लड़ने मरने के लिए तैयार हो गया। एक तरफ दो कुत्ते बड़े—बड़े दाँत निकाले लाल—लाल आंखों से गुर्रा रहे थे, दूसरी और के कुत्ते मुझे खा जाना चाहते थे। अब पीछे वाले भी वो चारों लगभग इसी मुद्रा में आ कर खड़े हो गए थे।
मैंने अचानक उन चार के झुंड की और हमला किया। वो इस बात के लिए तैयार नहीं थे। क्योंकि वो अधिक थे इसलिए समझ रहे होंगे की वह हमला दो कुत्तों की और ही करेगा। वो एक दम से घबरा गए। मैं अचानक पलटा और आगे बढ़ते उन दो कुत्तों के ऊपर टूट पड़ा क्योंकि वह मुझे पीछे से पकड़ना चाहते थे। और ये काफी खतरनाक था। वो तो आगे बढ़ कर मुझे दबोचना ही चाहते थे उन्हें क्या पता की मैं मुड़ कर उलटा उनकी और हमला करूंगा। मैंने एक की गर्दन पकड़ कर दो बार जमीन पर मारा, वह दर्द भरी आवाज के साथ तड़प गया। में चाहता तो उसे खत्म कर सकता था। परंतु इतना समय नहीं था। क्योंकि मुझे अपनी भी रक्षा करनी थी। उस घायल को छोड़ कर मैं दूसरे पर झपटा और हमारी लड़ाई बड़ी भंयकर हो गयी। इस आवाज को सुनकर और भी आस पास के कुत्ते ही नहीं आदमी भी तमाशा देखने आ गये। न जाने इन आदमियों को कोई काम है या नहीं। काम के लिए समय नहीं मिलता परंतु खेल तमाशे, कुतो की लड़ाई का आनंद लेते रहते है। भले मानस जरा भी मन में दया हो तो हम लड़ते मूर्खों को छुड़वाना चाहिए परंतु वो काम नहीं करेंगे।
बंदर का खेल होगा तो तमाशा लगा लेंगे। भालू का खोल होगा तो भीड़ लगा लेंगे। जब कही लड़ाई होगी तो भीड़ इकट्ठी कर लेंगे। हम तो किसी मनुष्य की लड़ाई को देखने नहीं जाते। मुझे लगता है इन मनुष्यों को कोई बीमारी है। जीवन में जाने कोई काम है या नहीं था। न ही जीवन की कोई कीमत ये समझते है। बस किसी तरह से उसे घसीट रहे थे। अब मेरे चारों और कुत्तों का ही नहीं मनुष्य का जमघट लगता जा रहा था। मैं समझ गया की अब मेरी खेर नहीं। क्योंकि जैसे—जैसे भीड़ इकट्ठी होगी। मेरा बच के भागना भी मुश्किल होता जा रहा था। मैं खाली जगह देख रहा था। और भागने की तैयारी कर रहा था। दो कमजोर कुत्ते सामने ही खड़े थे मैं पूरी ताकत लगा कर उनकी और झपटा वह डर कर रोते हुए भागे। लोग बाग़ इधर—उधर हो गये। मुझे जगह मिल गयी। मैं दुकान की और बेपरवाह भाग। परंतु आज इन कुत्तों ने मुझे न छोड़ने की मानो कसम खा ली थी। तभी सारे कुत्ते मेरे पीछे मुझे पकड़ने के लिए भागे। और भी न जाने कहां—कहां के कुत्तो की पूरी बरात ही आ गई। इस लड़ाई का उन सब एक कुत्तों ने मेरे विरोध का युद्ध घोषित कर दिया था। मानो आज सारे गांव के कुत्ते इस दिन के इंतजार में थे। परंतु हमारी दुकान के सामने खुला मैदान था। वहां पहुंच कर मैं अपनी दुकान पर जाना चाहता था। परंतु मुझे उससे पहले ही चारों और घेर लिया गया था। चारों और से मुझ पर हमला किया जा रहा था। मैं घूम—घूम कर अपनी रक्षा कर रहा था। भंयकर तांडव मच गया। सुबह दुकान पर बड़ी भीड़ होती थी। मैं सोच रहा था कि अगर पापा जी आ जाये तो मेरी जान बचा सकते थे। हम दो होकर तो दस कुत्तों को भी मार सकते थे। मैं जिस भी कुत्ते को पकड़ता उसे हिला कर नीचे रख देता।
परंतु चारों और से मुझे काटा जा रहा था। ये तो भला हो मेरी चमड़ी इतनी कठोर थी जिसको पकड़ना कठिन था। और न ही इन गांव के कुत्तों की तरह ढीली थी। मेरे बाल इतने चिकने की आपके दाँत उसे पकड़ ही न पायेंगे। अपने बचाव के साथ—साथ में हमला भी कर रहा था। परंतु वे सब तो न जाने कितने थे, पल—पल बढ़ते ही जा रहे थे। लगता था आज सारे गांव के कुत्ते एक होकर मुझे मारना चाहते थे। मुझे लगा की आज बचना बहुत ही कठिन है। मैं थकता भी जा रहा था। परंतु वह तो बढ़ते ही जा रहे है। फिर अचानक न जाने क्या हुआ मैं उसे देख नहीं पाया। और कुछ कुत्ते प्याऊ....कर के अचानक मैदान छोड़ कर भाग रहे थे।
मेरे सोचने समझने की शक्ति जवाब दे रही थी। मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा था। मेरी ताकत कम होती जा रही थी। और मुझे अपने उपर मौत उतरती दिखाई दे रहे थी। परंतु अचानक न जाने क्या हुआ हवा के झोंके की तरह घने बादल पल में ही छट गये। एक टांग मेरे पास से गुजरी मैं एक कुत्ते की और झपट कर दूसरे की और झपट रहा था वह टांग मेरे पास से गई। कुत्ते भी कम हो गये थे। मैंने भय के कारण उसे ही पकड़ लिया। और पूरी ताकत से उस में अपने दाँत गड़ा दिये। परंतु उस की सुगंध कुछ जानी पहचानी लगी।
मैं जागा और उस भय कि हालत में भी मेरा होश जग गया। अचानक मैंने मुड़ कर ऊपर की और देखा तो पापा जी मेरे सामने खड़े है। उन की ही टाँग में मैंने अपने दांत गड़ा दिये थे। पल भर में ही मैं अपनी गर्दन हिलाकर मरोड़ने ही वाला था। एक क्षण की देरी अगर और हो जाती तो गजब ही हो जाता। अचानक मैंने अपने गड़े हुए दाँत सीधे ही निकाल लिये। पापा जी पैर के में मेरे तीन इंच के दाँत गड़ गये थे। उन से खून की धारा बहने लगी।
कुत्तों का झुंड तो भाग गया पर मैंने ये क्या अनर्थ कर दिया। कुत्तों की भंयकर लड़ाई की आवाज सुन पापा जी हाथ का काम छोड़ कर बचाने भागे। परंतु पास जो लोगों का झुंड था वह मूक दर्शक केवल आनंद ले रहे थे। अरे मैंने ये क्या कर दिया जो मुझे बचाने आया था मैंने उसे ही घायल कर दिया। मैं बहुत डर गया। थक भी गया था। और मुझे लगा अब मैं नहीं बचूंगा। मैं घर की और भागा। पापा जी भी मम्मी जी को ये कह कर घर की और भागे की मैं अभी आता हूं। मैं आगे—आगे पापा जी पीछे—पीछे मैं सोच रहा था वे मुझे मारने आ रहे है। मैं घर के दरवाजे के पास कान बोच कर बैठ गया क्योंकि वह तो बंद था। जिसे मैं खोल भी नहीं सकता था। कुछ ही देर में पापा जी वहां गये और उन्होंने आगे बढ़ कर दरवाजा खोला।
उन्होंने तो मुझे कुछ भी नहीं कहां। मैं डर के मारे जल्दी से घर के अंदर भाग गया। और एक अंधेरे कमरे में जाकर छुप गया। जहां मुझे कोई और ही नहीं मैं अपने को खुद भी न देख सकूँ। मुझे अपने पर बड़ी ग्लानि महसूस हो रही थी। तू कैसा वफा दार कुत्ता है। अपने ही मालिक का काट रहा था और उस समय जब वह तुझे बचा रहे थे। सच अगर पापा जी अपने साहस और हिम्मत से उस दिन उन कुत्तों पर नहीं टूट पड़ते तो मैं आज जीवित नहीं होता, अगर होता भी तो बहुत बुरी हालत में घायल मिलता। उन्हें अपनी परवाह भी नहीं थी। मेरी आवाज सून पल भर की देरी किए मुझे बचाने दौड़े और पीछे से उन को आवाज और टाँग से डरा कर मार—मार कर भगा दिया। जब पापा जी ने मेरे रोने की आवाज दुकान पर सूनी तो वह हाथ का काम छोड़ कर बिना किसी डंडे के मेरे बचाव के लिए भाग लिए थे। मैंने उन्हें काटने का कभी सोच भी नहीं सकता था, परंतु अनजाने में मुझे से ये काम भी मुझसे हो ही गया।
मैं चारपाई के नीचे भी इतना सतर्क था कि घर में क्या हो रहा है उस पर भी कान लगाये हुए था। पापा जी का पूरा जूता खून से भर गया था। वह जमीन पर लेट गये। पैर को ऊपर की और कर के दीवार पर रख लिया। शायद जिससे बहते खून का प्रवाह नीचे की और न जाये। खून लगातार बहे जा रहा था। उन्होंने अपनी टाँग को जोर से पकड़ रखा था इतनी देर में दीदी आई और इतना खून देख कर डर गई। पापा जी ने कहा की कोई बात नहीं। पैर में तीन इंच गहरा घाव दोनो और हो गया था। शायद पैर की मोटी खून की नस में दाँत गाड़ गए होंगे। दीदी जल्दी से बर्फ लेकर आई और उस जगह पर बर्फ लगा कर बैठ गई। फिर भी लगातार खून बहे जा रहा था।
शायद दाँत किसी नस का फाड़ कर आर—पार हो गया था। कितनी ही देर इस तरह से बैठे रहने के बाद। पापा जी ने दीदी को कहां की अब ठीक है। बात शायद मम्मी तक भी पहुंच गई, वह दुकान पर इंतजार कर रही थी कि पापा जी आये क्यों नहीं। उस समय मम्मी पापा दही की पैकिंग कर रहे थे। दोनों इसी तरह से काम करते थे। मम्मी तोल कर देती और पापा जी एक पन्नी में डाल कर उस पर रबर लगा देते थे। काम जल्दी और आसान हो जाता था। मम्मी जी भी दुकान छोड़ कर घर आई और पापा जी की हालत देख कर घबरा गई थी। और मुझे डांटने लगी। मैं तो पहले ही डरा हुआ कांप रहा था। मेरे शरीर पर जो जख्म थे में तो उन्हें भी भूल गया था। पापा जी के दर्द के सामने मेरा जख्म क्या थे। पापा जी ने मम्मी को समझाया की इसमें उसकी कोई गलती नहीं है। ये सब अनजाने में हुआ था। मम्मी जी बार—बार कह रही थी फिर उन सब के बीच आप को यू जाने की जरूरत क्या थी।
बात तो सच थी। परंतु पाप जी क्या करते मेरी ये हालत देख कर किसी हथियार के ढूंढने लग जाते तो तब तक तो देरी हो जाती। मेरी जाना के खतरे को देख कर शायद पापा जी ऐसा किया था। जो उन्हें उस समय सूझा वहीं किया अब गलत कहो या सही परंतु मेरी जो जान बचा ही दी। फिर दीदी भाग कर पास के डा. टिंड़े को बुला लाई, पापा जी को एक सूई लगाई गई। पापा जी जमीन पर ही लेटे रहे। उस डा0 ने पैर के जख्म को धोने के बाद एक दवाई लगा कर पट्टी बाँध दी। खून अब भी नहीं रूक रहा था। ये सब मैं चारपाई के नीचे लेटा हुआ देख रहा था।
मम्मी जी पापा जी के लिए दूध गर्म करने के लिए जा रहा थी। तभी पापा जी ने कहा की पोनी को देखो उसे कितनी चोट लगी है। ये सब सून कर मेरी आंखों में पानी आ गया। और उसे बेचारे को भी थोड़ा दूध दे दो। फिर मैं खूद देखता हूं उसके जख्म। मम्मी ने पापा को डटा तुम अब नहीं उठोगे। हाँ तुम्हारे सांप को हम दूध पिला देंगे। परंतु ऐसा नहीं हुआ मम्मी जी जब पापा जी के लिए दूध लेकर आई तो मेरे वर्तन भी दूध से भरा उनके हाथ में था। जो मेरे सामने रख दिया। क्योंकि में तो अंधेरे में एक चार पाई के नीचे छुपा बैठा था। पापा जी ने मेरी और देखा और कहां की चल दूध पी ले। लेकिन मैं डर के मारे बहार नहीं आया। एक तो डर दूसरा ग्लानि भरा भाव भी लिए था मन में।
मेरा मन पापा जी को देखने को कर रहा था। परंतु डर भी लग रहा था। आखिर हिम्मत कर के मैं बाहर आया की गलती तो मैंने की है फिर मार से क्या डरना। और मैं धीरे—धीरे कान बोच कर पापा जी के पास गया। उन्हें मेरे सर पर प्यार से हाथ फेरा। फिर मेरे शरीर पर हाथ फेर कर शायद मेरे जख्म देखे लग गए। कई जगह दर्द हो रहा था। मैं जाकर पापा जी के पैरों के पास बैठ कर उन्हें चाटनें लगा।
वह मुझे सहलाते रहे मेरा ह्रदय शरीर के जन्मों से ज्यादा जख्मी था। वह तार—तार हो कर फट जाना चाह रहा था। मैंने अपना सर पापा जी की गोद में रख दिया। उन्होंने हंस कर मुझे चूमा और कहां मैं ठीक हूं तू भी जाकर अब दूध पी ले। फिर कुछ देर में तेरे ज़ख़्मों पर भी दवाई लगाऊंगा। इतनी देर में दीदी आ गई और वह मेरे जख्मों को ढूंढ—ढूंढ कर उन पर दवाई लगा रही थी। और मैं ग्लानि और शौक के बोझ से दबा जा रहा था। मैं जोर से रोना चाह रहा था। कि ये मनुष्य भी कैसा है। मैंने इन्हें जख्म दिये और ये मेरा ही उपचार कर रहा था। यही महानता तो हम पशुओं को सोचने के लिए मजबूर कर देती है। क्या ये सब मेरी समझ में कभी आता जो मैं ऐसे मनुष्य के साथ मैं नहीं जीता तो। हम तो आपस में केवल लड़ते और मर जाते। पूरा जीवन लड़ने और खाने पर ही खत्म हो जाता सब प्राणियों।
आज की घटना के बाद मेरे मन जो भी विद्रोह या अविवेक था इस मनुष्य के प्रति वह खत्म हो गया। मेरे लिए मनुष्य मील का पत्थर बन गया। उसका वाक्य अटल वाक्य।
अब हम लगभग हर रविवार के दिन सारा का सारा परिवार जंगल में जाने लगा था। उस दिन अब ध्यान की भी छुट्टी कर दी। ध्यान की छुट्टी का मतलब हमारा घूमने का आनंद। वहां दीदी और मम्मी जी बहते निर्मल पानी में कपड़े धोती, और बाकी परिवार के हम सब मोज मस्ती करते। कभी क्रिकेट भी खेलते। पर ये खेल मुझे कभी समझ में नहीं आया। परंतु में अकेला करता भी क्या। इस सब को देखने और समझे की कोशिश जरूर करता था।
जब समझ में कुछ नहीं आता तो इधर उधर अपने सूघंने के ज्ञान को बढ़ाने की कोशिश करता था। इस समय नाले के आस पास बहुत बड़ी—बड़ी घास उग आई थी। जिससे उसकी गहराई का पता नहीं चलता था। भैया और पापा जी जब यहां क्रिकेट खेलते तो मुझे वे क्रिकेट बाल कभी दिखाई ही नहीं देती। मुझे बड़ा अचरज होता की ये लोग केवल उसे देख ही नहीं लेते बल्कि एक लकड़ी के टुकड़े से इतनी जोर से मारते की वह बहुत दूर चली जाती। कई बार वह बाल जब मेरे पास से होकर गुजरती तब मुझे वह दिखाई दे जाती और मैं उसके पीछे भाग कर उसे पकड़ लेता। और उसे मुंह में पकड़ कर भाग जाता। सब लोग मेरे पीछे भागते और दूर मम्मी जी के पास चला जाता। अब उन सब का खेल खत्म हो जाता। वो सब मुझे डाँटते, परंतु मम्मी मुझे बचा लेती।
लेकिन वरूण भैया जब पापा जी के साथ घर में क्रिकेट खेलते तो मैं वहां बड़े आराम से बाल को पकड़ सकता था। और मुंह में पकड़कर पापा जी को दे देता था। तब मुझे ताली बजाकर शाबाशी मिलती थी। कभी—कभी उत्साह या जोश में पापा जी हाथ से फेंकी गई बाल के साथ ही झपट पाड़ता जो की एक खतरे का काम था। और एक दिन वही हुआ वरूण भैया ने बाल के साथ मेरे मुंह पर भी बहुत जोर से बेट को मारा। मुझे दिन में तारे नजर आने लगे। एक बार तो लगा की मेरा जबड़ा ही बाहर निकल कर गिर गया। पापा जी ने भाग कर मेरा मुंह सहलाया। और वरूण को डांटा। परंतु गलती मेरी थी मैं खेल के नियम को नहीं जानता था। पहले बाल को फेंका जाता है और जब उसे मार दिया जाता है तब उसे पकड़ा जाता है। मैं फैंके जाने के साथ ही उसे पकड़ने के लिए भाग लिया।
जंगल में आस पास बहुत सी गायें अपने झुंड के साथ चर रही थी। कभी—कभी मुझे कोई जंगली तीतर भी उस घास में दिखाई दे जाता था। दूर कहीं से टटिहरी की आवाज पूरे वातावरण की शांति को कैसे छिन्न भिन्न कर जाती थी। तीतर या बटेर को जब मैं जमीन पर बैठे देखता तो मैं दबे पाँव उसकी और चलता। परंतु उसके पास जाते ही वह उड़ कर कि...कि...कि कर के भाग जाता। पास ही मम्मी–दीदी अपना काम कर रही होती थी। फिर जब बोर हो जाता तो मैं उनके पास जा कर पानी में घूस कर खूब खेलता। दीदी मुझे दोनों हाथों से पानी फेंक—फेंक कर खूब भिगोती। पानी से में कभी नहीं डरता था। और मजे की बात यह है कि मैंने कभी किसी से तैरना भी नहीं सीखा था। जब कभी पापा जी उस बड़े से तालाब में तैरते लगते तब बच्चे तो तैरना जानते नहीं थे। वह गहरा भी बहुत था परंतु मैं आराम से तैर कर गहरे में पापा जी के पास चला जाता था। जैसे—जैसे पापा जी अंदर चले जाते तो मैं भी उनके पीछे—पीछे चल पड़ता था। परंतु एक बात थी की अकेले जाने का साहस मुझ में भी नहीं था। सब मेरे इस अदंभ साहस को देख कर सब गद्द—गद्द हो कर मुझे प्रोत्साहित करते और ताली बजाते थे। एक दिन तो कमाल हो गया। मैं और पापा जी दोनों तैरते जा रहे थे।
पापा जी मुझे से कुछ तेज तैरते थे सच कहूं तो पापा जी बहुत अच्छे तैराक थे। मैं बार—बार पीछे रह रहा था वह मुझे मुड़ कर बुला रहे थे। इसी बीच जब उनका ध्यान मेरी और था। एक पानी का सांप हमारी और आता मुझे दिखाई दिया। आप पानी में है और आपकी और एक सांप तैर कर आ रहा हो डर तो जरूर लगेगा ही। परंतु उसे देखना कैसा लगा ये मैं आपको बता नहीं सकता। बिना हाथ पैर के कैसे पानी की सतह पर वह चल रहा था। कैसी चपलता थी उसमें, उस पर गजब ये था, जो देखा वो गजब का चमत्कार था। उस दिन जो मैंने और पापा जी ने देखा। कुछ देर तो मैं उसे देखता ही रह गया, वह पानी के सतह पर कैसे चलता हुआ हमारी और आ रहा था। मानो पानी न होकर जमीन पर चल रहा था। परंतु अचानक मुझे होश आया की ये तो खतरनाक था। हम दानों के लिए तब मैं एक दम से देख कर डर गया। परंतु वह हमारे पास से होता हुआ दूसरे किनारे की और चला गया। उसका पीला और मटियाला रंग कितना सुंदर था। जब वह हमारे पास से गुजरा तो मेरी तो कुछ देर के लिए स्वांस बंद हो गई थी। दूर तक जहां भी नजर जाती थी पानी ही पानी था। पानी में हम सांप से तेज तैर भी नहीं सकते थे। परंतु यहां के साँपों की कुछ खासियत या भगवान का वरदान कह लो। ये मनुष्य पर बिना कारण कभी हमला नहीं करते। महाभारत में भी खांडव बन को नागों की भूमि बताया था। और ये सच ही बात थी। आज भी शायद कोई ऐसा दिन कभी गया हो जब हम जंगल में आये और सांप दिखाई न दे। इतने खतरनाक परंतु शांत सांप शायद पूरी पृथ्वी पर कहीं पर भी नहीं थे।
वह सांप हमारे पास से गुजर गया। पापा जी केवल रूक भर गये थे। और वो बड़ मजे से हमारे पास से किस अपने पन से गुजर गया। न उसे हमसे डर लगा की मुझ पर हमला होगा न हमें की हम पर हमला होगा। बस दोनों एक दूसरे को पास एक गुजरता देखते रहे। वह दूसरे किनारे पर जाकर एक झाड़ी में लोप हो गया। उसने हम पर हमला क्यों नहीं किया। जब की हम लाचार थे। ये भूमि नाग लोक क्यों कही जाती थी, कौन वीर इस पर खोज करें......खेर इस बात को यहीं छोड़ देते है। हर मिट्टी पानी और हवा के अपने गुण—दोष होते होंगे।
जंगल मेरा अपना घर था। न जाने क्यों वहां पर मैं एक तरह का अपना पन महसूस करता था। क्यों इस का मुझे पता बाद में चला था। हर चीज वहां मेरे लिए एक खेल बन जाती थी। चारों और मस्ती ही मस्ती फैली मुझे दिखाई देती थी। मैं अपने आप में समा नहीं पाता था। क्या उत्पात करूं किसे खोदू, भागू...न जाने और क्या न करूं। इधर—अधर खड़ा हो मैं पूरे जंगल को देखने की कोशिश करता। परंतु इतने ऊंचे वृक्ष जहां तक मेरी नजर जाती वृक्षों की कतार ही नजर आती थी। एक दिन एक गाय चरती हुई हमारी और आ गई। वैसे तो मैं जब छोटा था गाय से डरता था। परंतु अब मैं उसके पास जा कर उसे गोर से देखना चाहता था।
क्योंकि हम जिस चीज को भी गोर से देख लेंगे उससे हमारा भय कम हो जायेगा। जितना हम उसे कम जानेंगे उतने ही हम अंदर से भयभीत रहते है। में दबे पांव उसकी और बढ़ा, जो डर बचपन से मेरे अंदर था, वो एक हीनता तो दे ही रहा था। लगता था मैं इससे हार गया। और कहीं जीतने की या डराने की वृति तो मन में थी। मैं उसके पास चला गया। वह भी मुझे शायद कुछ अचरज से ही देख रही थी। कि इतना छोटा सा प्राणी....मैं कुछ डरा परंतु अब मैं कुछ बड़ा भी तो हो गया था...अगर वह मुझे मारने के लिए बढ़ती तो मैं उससे तीव्र गति से भाग सकता था। इसलिए मैं हिम्मत कर के उसकी आंखों में देखता रहा। सच गाय की आंखें कितनी शांत और गहरी होती है। उसे इस तरह से देखते रहने मात्र से मैं सम्मोहित सा होने लगा था। एक नशा सा मेरे अचेतन पर फेल रहा था। वह कुछ आगे बढ़ी और मुझे सुधने लगी। मैं खड़ा रहा एक मूर्ति की तरह....वह मुझे सुध रही थी....मैं पास खड़ा केवल उसे देख रहा था और पूंछ हिला रहा था। उसने मुझे चाटा.....मैंने भी उसके नाक को चाटा और हम एक दूसरे में बह गए। वह मेरी दोस्त हो गई। अब मेरे मन में गाय का डर लुप्त हो गया था। बाद में जब भी में जंगल में जाता तो वह मेरी दोस्त बन गई थी। जबकि आस पास की दूसरी गाये उसे बड़े ही अचरज से देख रही थी। वह मुझे जब भी देखती तो एक मधुर आवाज में मुझ बुलाती या मेरे पास आ जाती थी। इस हमारी दोस्ती को सब अचरज भरी नजर से देख रहे थे। चाहे वह पशु हो या पक्षी ही क्यों न हो। हर प्राणी में कितना प्रेम है। आप प्रेम देंगे तो आपको प्रेम ही तो मिलेगा।
वसंत के मौसम में पेड़—पौधों पर नर्म मुलायम पत्ते निकल आये थे। सभी पेड़ पौधों का रंग अलग—अलग था। ऊपर नीला आसमान, दूर उंची खड़ी पहाड़ के सौंदर्य को कई गुणा बढ़ा रहा था। सभी पेड़ पौधों ने अपने-अपने फूल खिला दिये थे। अमलतास के पेड़ के फूल तो पूरे जंगल के सौंदर्य को चार चाँद लगा रहे थे। उनके लटकते फूलों के गुच्छे कितने सुंदर लग रहे थे। जो मन को ही नहीं आंखों को भी शीतल कर रहे थे। उधर मधुमक्खियों के झुंड के झुंड की बन आई थी। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि इतना रस हम कैसे खत्म करें। कैर, के गुलाबी फूल....पृथ्वी पर घास के पीले, सफेद, और नीले फूलों की तो मानो चादर ही बिछ गई थी।
अमलतास का पेड़ भी बड़ा विकट है बसंत से लेकर जेठ मास की ग्रीष्म ऋतु तक वह फूलों से लदा ही नहीं रहता, जंगल की उस उष्णता को शीतलता का एहसास भी कराता रहता है। बीच—बीच में ढाक के फूल अपने आग के चटकीले रंग के कारण जंगल में एक दिग्भ्रमित सा वातावरण निर्मित कर रहे थे। पास ही चार पाँच सहमल के विशाल वृक्ष जो बरसाती नाले के किनारे—किनारे खड़े आसमान को चूम रहे थे। उन के फूलों के तो क्या कहने कितने ही पक्षी उन फूलों का रस पी—पी कर अपने—अपने स्वरों में धन्यवाद दे रहे थे। मानो सारे जंगल में उत्सव गान चल रहा था।
इतने ऊंचे वृक्ष को यूं फूलों से लदे देखना अपने आप में भी एक चमत्कार जैसा था। उसके वे लाल फूलों का सौंदर्य ही चारों और कैसी चटकता बिखरी और फैली पड़ी थी। उपर से झांकता नीला अंबर उस दृश्य को चार चाँद लगा रहा था। कितने ही पक्षियों को सहमल अपने मधु से तृप्त कर रहा था। उसके फूलों की गंध इतनी घनी व मधुर थी। की मीलों दूर से पशु पक्षी उसकी और खींचे चले आते थे। नीचे जो दूब की मुलायम घास इतनी सुकोमल थी कि उन फूलों को जब वह अपनी गोद में लेती तो लगाता मानो इस बसंत में पूरी प्रकृति अपने यौवन के उन्माद में मद—मस्त होकर उन फूलों को अपने जुड़े में सज़ा कर अपने प्रीतम को लुभा रही हो।
कपड़े धोकर घास में सूखा दिये गये थे। और एक वृक्ष की छांव में चादर बिछा कर खिलाड़ियों को खेल खत्म कर आने के लिये कह दिया गया था। सभी इस बात का मानो इंतजार ही कर रहे थे। कि कब उन्हें बुलाया जाये। शायद खेल कूद के कारण सब को भूख लगी ही गई थी। परंतु मुझे जो जंगल की हवा पानी से ही भूख लगनी शुरू हो जाती थी। सब ने आकर नाले में पहले अपने हाथ पैर धोए। इतनी देर में दीदी और मम्मी ने खाना परोस दिया था। तब सब खाने पर टूट पड़े में भी बैठा देख रहा था। मैं चाहता था कि सबसे पहले मेरा खाना परोसा जाये। परंतु ऐसा नहीं था, क्योंकि मुझ भुखमरे को सब जान गए है कि इतने बड़े मुख से ये अपने खाने को चंद ही मिनट में चट कर जाता है। मेरे लिए भी मेरे हिस्से का खाना रख दिया गया। सब खाने का आनंद ले रहे थे। पहले मन भर के मैं उसे देख तो लूं फिर तो पेट में चला जायेगा।
मैं केवल सब लोग को देख रहा था और अपना खाना छोड़ कर बारी—बारी से सब के पास जाकर खड़ा हो रहा था। न जाने क्या आदत थी जब तक सब के हिस्से का एक—एक कौर न मिल जाये मेरा पेट भरता ही नहीं। हिमांशु और वरूण भैया मेरा मजाक भी उड़ाया कि अपना खाना छोड़कर हमारे हिस्से का खाने आया है पेटू कहीं का।
परंतु इस बात का मुझे जरा भी बुरा नहीं लगा। जंगल में अगर आपने कभी खाना खाया होगा तो आप इस बात को जरूर जानते होगे की वहाँ न जाने खाने का स्वाद कई गुणा अधिक क्यों बढ़ जाता है। इसका कारण या अकारण का विश्लेषण करने लग गए तो अपना खाना तो ठंडा ही हो जायेगा। दर्शन शास्त्र की बाते पेट भरने के बाद की बात होती है। पहले पेट पूजा फिर काम दूजा।
उसके बाद सब लोगों ने कुछ देर आराम किया। हम लोगों ने यहां वहां धूम कर मस्ती की क्योंकि अभी कपड़े सूखने का इंतजार तो करना था। मम्मी—पापा एक छांव में चादर बिछा कर विश्राम करने लगे।
और श्याम होते—होते हम सब खुशी—खुशी घर की और चल दिये। क्योंकि हमें तो क्या था घर पर जाकर आराम से चादर तान कर सोना था। परंतु मम्मी—पापा जी को अभी रात तक दुकान पर मेहनत करनी होती थी। फिर वह हमारे आनंद के लिए जंगल में ले कर आते थे। अगर वो नहीं आते तो क्या हम आ सकते थे।
आज का दिन भी बहुत सुंदर गुजरा। परमात्मा को धन्यवाद।
भू..... भू...... भू.......
आज इतना ही।
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