दिनांक 21
नवंबर, 1978;
श्री रजनीश
आश्रम,
पूना।
सूत्र :
मन्तः
मंते स्सन्ति
ण होइ।
पड़िल
भित्ति कि
उट्ठिअ होइ।।1।।
तरुफल
दरिसणे णउ
अगघाइ।
वेज्ज
देक्खि किं
रोग पसाइ।।2।।
जाव
ण अप्पा जाणिज्जइ
ताव ण सिस्स
करेइ।
अंधं
अंध कढ़ाव तिम
वेण वि कूव
पड़ेइ।।3।।
बह्मणेहि
म जाणन्त भेउ।
एवइ पढ़िअउ
एच्चउ वेउ।।
मट्टी
पाणी कुस लइ
पढ़न्त। घरहि
वइसी अग्गि
हुणन्त।।
कज्जे
विरहइ हुअवह
होमें। अक्खि डहाविअ
कडुएं
धुम्में।।4।।
जइ
नग्गा विअ होइ
मुत्ति ता
सुणइ सिआलह।
लोम
पारणें अत्थि
सिद्धि ता
जुवइ
णिअम्वह।।5।।
पिच्छी
गहणे दिट्ठि
मोक्ख ता मोरह
चमरह।
जागो, मन जागरण की
बेला!
अलस
उनींदे नैन
उघारो,
सतत
तरंगित
ज्योति
निहारो!
आगत
की आरती उतारो,
गत
पीड़ामय, दुखद
बिसारो!
यत्किंचित
नव ज्योति
समेटो,
दुख-प्रसंग
अध्याय समेटो,
जीवनमय
नव कण-कण तोलो,
आशामय
नव प्रकरण
खोलो।
आगत
उदबोधन की
बेला;
जागो, मन जागरण की
बेला।
बहुरंगी
कुसुमावलि
कुसुमित,
मादक
मारुत-उर्मि
तरंगित,
रश्मि-राशि
हिल्लोल
तरंगित!
वसुधा-अंचल
लास तरंगित!
कल-कूजन
निर्बाध
तरंगित,
नाना
सौरभ मदिर
तरंगित,
राशि-राशि
छवि लास
तरंगित,
राशि-राशि
नव मोद तरंगित,
जागो, नव प्रमोद
की बेला।
जागो, मन जागरण की
बेला।
शीत
विगत, नव
मधु-ऋतु आई,
वन, उपवन, नव
सुषमा छाई,
विटप, वेलि
कुसुमावलि आई,
पल्लव-पल्लव
छवि मुस्काई!
व्योम
वितान नील छवि
छाई,
मदिर
सुरभि चल अनिल
समाई,
कण-कण
व्याप्त अनंग
लुनाई,
प्रकृति
नवोढ़ा बन
मुस्काई!
जागो, मन बसंत की
बेला।
जागो, मन जागरण की
बेला!
और
जब जाग जाओ, तभी सुबह है
और जब तक सोये
रहो, तब तक
रात है। जागे
को सदा सुबह
है, सोये
को सदा रात
है। रात्रि
बाहर नहीं और
न प्रभात बाहर
है। सूरज
तुम्हारे
भीतर उगना है;
तभी होगी
वास्तविक
सुबह। बाहर के
सूरज उगते हैं,
डूबते हैं;
भीतर का
सूरज उगा तो
फिर डूबता
नहीं।
जागो, मन जागरण की
बेला! और
जागरण की बेला
हमेशा है। ऐसा
कोई क्षण नहीं
जब तुम जाग न
सको। ऐसा कोई
पल नहीं जब
तुम पलक न खोल
सको। आंख बंद
किये हो, यह
तुम्हारा
निर्णय है।
आंख खोलना
चाहो, तो
इसी क्षण
क्रांति घट
सकती है। और
समस्त सिद्धों
ने, समस्त
बुद्धों ने
बार-बार यही
पुकारा है, बार-बार यही
कहा है, कि
चाहो तो अभी
जाग जाओ। ये
स्वप्न
तुम्हारे निर्मित
हैं। ये
चिंताएं
तुमने ही फैला
रखी हैं। यह नर्क
तुमने ही बसा
रखा है।
तुम्हारे
अतिरिक्त कोई
और जिम्मेवार
नहीं है। कोई
दूसरा तुम्हें
जगा भी न
सकेगा। कोई
लाख उपाय करे,
तुमने
निर्णय किया
हो न जागने का
तो सब उपाय व्यर्थ
चले जायेंगे।
जैसे
कभी तुम आंख
बंद किये बैठे
हो, सूरज आ भी
जाये, तुम्हारी
आंख पर भी सूरज
की किरणें
बरसने लगें, तुम्हारी
पलकों को पार
करके भी
किरणें तुम्हारी
आंख तक
पहुंचने लगें,
धीमी-धीमी
रोशनी भी होने
लगे तो भी तुम
आंख न खोलो तो
सूरज क्या
करेगा? ऐसे
ही सदगुरु आते
हैं और जाते
हैं। उनकी
मौजूदगी में
तुम्हारी बंद
पलकों में से
भी थोड़ी-सी
किरणें
प्रवेश कर
जाती हैं, मगर
तुम आंख खोलते
नहीं। तुम उन
थोड़ी-सी किरणों
के आसपास भी
स्वप्नों के
नये जाल गूंथ
लेते हो, शब्दों
और
सिद्धांतों
के नये जाल
गूंथ लेते हो।
सिद्ध
तुम्हें
जगाने आते हैं, लेकिन तुम
हिंदू हो जाते,
मुसलमान हो
जाते, ईसाई
हो जाते, जैन
हो जाते, बौद्ध
हो जाते।
जागते नहीं, तुम नींद
में एक नयी
करवट ले लेते,
तुम नींद
में एक नया
स्वप्न देखने
लगते हो! इसलिये
सदियों-सदियों
में जगाने
वाले लोग रहे
हैं, मगर
तुम हो कि
सोये ही रहे।
आगत
उदबोधन की
बेला
जागो, मन जागरण की
बेला
जागो, नव प्रमोद
की बेला
जागो, मन जागरण की
बेला
जागो, मन बसंत की
बेला
जागो, मन जागरण की
बेला!
वसंत
आया हुआ है।
द्वार पर
दस्तक दे रहा
है। लेकिन तुम
द्वार बंद
किये बैठे हो।
जिस
अपूर्व
व्यक्ति के
साथ हम आज
यात्रा शुरू करते
हैं, इस
पृथ्वी पर हुए
अत्यंत
प्रभावशाली
व्यक्तियों
में वह एक है।
चौरासी
सिद्धों में
जो प्रथम
सिद्ध है, सरहपा
उसके साथ हम
अपनी यात्रा
आज शुरू करते
हैं।
सरहपा
के तीन नाम
हैं, कोई सरह
की तरह उन्हें
याद करता है, कोई सरहपाद
की तरह, कोई
सरहपा की तरह।
ऐसा प्रतीत
होता है सरहपा
के गुरु ने
उन्हें सरह
पुकारा होगा,
सरहपा के
संगी-साथियों
ने उन्हें
सरहपा पुकारा
होगा, सरहपा
के शिष्यों ने
उन्हें
सरहपाद
पुकारा होगा।
मैंने चुना है
कि उन्हें
सरहपा
पुकारूं, क्योंकि
मैं जानता हूं
तुम उनके
संगी-साथी बन सकते
हो। तुम उनके
समसामयिक बन
सकते हो। सिद्ध
होना
तुम्हारी
क्षमता के
भीतर है।
सिद्धों
में और तुममें
समय का फासला
हो, स्वभाव
का फासला नहीं
है। स्वभाव से
तो तुम अभी भी
सिद्ध हो।
सोये हो सही, जैसे बीज
में सोया पड़ा
है अंकुर; समय
पाकर फूटेगा,
पल्लव
निकलेंगे।
जैसे मां के
गर्भ में
बच्चा है, समय
पाकर
जन्मेगा। समय
का ही फासला
है। तुममें, सिद्धों और
बुद्धों में,
स्वभाव का
जरा भी फासला
नहीं है। तुम
ठीक वैसे ही
हो जैसे बुद्ध,
जैसे
महावीर, जैसे
मुहम्मद, जैसे
कृष्ण, जैसे
सरहपा। यह तो
पहला सूत्र है
जो स्मरण रखना,
क्योंकि
सरहपा इसीकी
तुम्हें याद
दिलायेंगे।
और इस सूत्र
की जिसे ठीक
से प्रतीति हो
जाये, इस
सूत्र की
अनुभूति हो
जाये, इस
सूत्र को जो
हृदय में समा
ले, सम्हाल
ले, उसका
नब्बे
प्रतिशत काम
पूरा हो गया।
सिद्ध
होना नहीं
है--सिद्ध तुम
हो, ऐसा
जानना है।
सिर्फ जानना
है, सिर्फ
जागना है।
वसंत आया ही
हुआ है, द्वार
पर दस्तकें दे
रहा है। तुम
पलक खोलो और सारा
जगत अपरिसीम
सौंदर्य से
भरा हुआ है।
तुम पलक खोलो,
और उत्सव से
तुम्हारा
मिलन हो जाये!
विषाद कटे, यह रात का
अंधेरा कटे।
यह रात का
अंधेरा, बस
तुम्हारी बंद
आंख के कारण
है।
सरहपा
जन्म से
ब्राह्मण थे, लेकिन जन्म
से ही
ब्राह्मण न
रहे, अनुभव
से भी
ब्राह्मण हो
गये। जन्म से
तो बहुत लोग
ब्राह्मण
होते हैं, मगर
जन्म के
ब्राह्मणत्व
का कोई भी
मूल्य नहीं है,
दो कौड़ी भी
मूल्य नहीं
है। ठीक से
समझो तो जन्म
से सभी शूद्र
होते हैं।
जन्म से कोई
ब्राह्मण
कैसे होगा? नाममात्र की
बात है।
ब्राह्मण तो
अनुभव की बात
है, बोध की
बात है।
ब्रह्म को जो
जाने, सो
ब्राह्मण।
ब्रह्म को जो
पहचाने, सो
ब्राह्मण। तो
जन्म से तो
सभी शूद्र
हैं। जो जाग
जाये वही
ब्राह्मण; जो
सोया है वह
शूद्र--ऐसी
परिभाषा
करना। जो जागा
है वह
ब्राह्मण।
सरहपा
जन्म से
ब्राह्मण थे, लेकिन जन्म
से ही
ब्राह्मण न
रहे, अनुभव
से भी
ब्राह्मण हो
गये। बड़े
पंडित थे और
यह विरल घटना
है, कि
पंडित और
सिद्ध हो
जाये। यह काम
अति कठिन है।
अज्ञानी
सिद्ध हो जाये,
यह उतना
कठिन नहीं है;
लेकिन
पंडित सिद्ध
हो जाये, यह
बहुत कठिन है।
कारण? अज्ञानी
को इतना तो
भाव होता ही
है कि मैं अज्ञानी
हूं, मुझे
पता नहीं; इसलिए
अकड़ नहीं होती,
अहंकार
नहीं होता।
अज्ञान में एक
निर्दोषता होती
है। छोटे
बच्चे का
अज्ञान, दूर
जंगल में बसे
आदिवासी का
अज्ञान--उसमें
तुम्हें एक
निर्दोष भाव
मिलेगा; दंभ
न मिलेगा
जानने का। और
दंभ जानने में
सबसे बड़ी बाधा
है। अहंकार
भटकाता है, बहुत भटकाता
है।
और
सरहपा बड़े
पंडित थे, नालंदा के
आचार्य थे।
नालंदा में तो
प्रवेश भी
होना बहुत
कठिन बात थी।
नालंदा में
विद्यार्थी
जो प्रवेश
होते थे, उनको
महीनों द्वार
पर पड़े रहना
पड़ता था। प्रवेश-परीक्षा
ही जब तक पूरी
न होती तब तक
द्वार के भीतर
प्रवेश नहीं
मिलता था।
नालंदा अदभुत
विश्वविद्यालय
था! दस हजार
विद्यार्थी
थे वहां और हजारों
आचार्य थे और
एक-एक आचार्य
अनूठा था। जो
नालंदा का
आचार्य हो
जाता, उसके
पांडित्य की
तो पताका फहर
जाती थी सारे
देश में।
सरहपा
नालंदा के
आचार्य थे; बड़ी उनकी
कीर्ति थी, बड़ा उनका
पांडित्य था!
एक दिन सारे
पांडित्य को
लात मार दी।
धन को छोड़ना
आसान है, पद
को छोड़ना आसान
है, पांडित्य
को छोड़ना बहुत
कठिन है।
क्योंकि धन तो
बाहर है; चोर
चुरा लेते हैं,
सरकारें
बदल जायें, सिक्के न
पुराने चलें,
बैंक का
दीवाला निकल
जाये...। धन का
क्या भरोसा है!
धन तो बाहर की
मान्यता पर
निर्भर है।
लेकिन ज्ञान
तो भीतर है, न चोर चुरा
सकते, न
डाकू लूट
सकते। तो
ज्ञान पर पकड़
ज्यादा गहरी
होती है।
ज्ञान अपना
मालूम होता
है। इसे कोई छीन
नहीं सकता। यह
दूसरों पर
निर्भर नहीं
है। यह धन
ज्यादा
सुरक्षित
मालूम होता
है। फिर ज्ञान
के साथ हमारा
तादात्म्य हो
जाता है, धन
के साथ हमारा
तादात्म्य
कभी नहीं
होता। तुम्हारे
पास हजारों
सिक्कों का
ढेर लगा हो, तो भी तुम
ऐसा नहीं कहते
कि मैं यह
सिक्कों का ढेर
हूं। तुम
जानते हो ये
सिक्के मेरे
पास हैं, कल
मेरे पास नहीं
थे, कल हो
सकता है मेरे
पास फिर न
हों। तुम
ज्यादा से
ज्यादा सिक्कों
की मालकियत कर
सकते हो। वह
मालकियत भी बड़ी
संदिग्ध है।
हजार-हजार
परिस्थितियों
पर निर्भर है।
लेकिन
ज्ञान के साथ
तादात्म्य हो
जाता है। तुम
जो जानते हो, वही हो जाते
हो। वेद को
जानने वाला
अनुभव करने
लगता है कि
जैसे मैं वेद
हो गया। कुरान
जिसे कंठस्थ
है उसे अनुभव
होने लगता है
कि जैसे मैं
कुरान हो गया।
ज्ञान मन के
इतने गहरे में
है कि आत्मा
उसके साथ
अभिभूत हो
जाती है; इतना
निकट है कि
तादात्म्य हो
जाता है।
इसलिए दुनिया
में लोग और सब
आसानी से छोड़
देते हैं...।
मेरे
एक परिचित, सब छोड़कर
जंगल चले गये।
जंगल से मैं
गुजरता था, किसी यात्रा
पर था, तो
मैंने, जो
मित्र मुझे
अपनी गाड़ी से
ले जा रहे थे, उनसे कहा कि
एक पांच-सात
मील का चक्कर
होगा, लेकिन
मेरे एक
पुराने
परिचित हैं, वे सब
छोड़-छाड़ चुके
हैं--धन, पद-प्रतिष्ठा,
वे इस जंगल
में हैं, उनसे
मिलते चलें।
उन्हें मिलने
मैं गया। उन्होंने
सब छोड़ दिया
था, लेकिन
सब छोड़कर भी
वे जैन थे सो
जैन ही थे!
मैंने
उनसे पूछा:
तुम सब छोड़
आये--समाज छोड़
दिया, घर
छोड़ दिया, पत्नी-बच्चे
छोड़ दिये, धन
छोड़
दिया--लेकिन
जिस समाज ने
तुम्हें यह जैन
होने की
भ्रांति दी थी,
उस समाज को
तो छोड़ आये, मगर भ्रांति
को तुम लिये
बैठे हो! अभी
भी तुम जैन हो!
उनको
एकदम से समझ
में न आया कि
यह कैसे छोड़ा
जा सकता है!
जैन
होना क्या है? ज्ञान की एक
खास राशि।
हिंदू होना
क्या है? ज्ञान
की एक दूसरी
राशि। ईसाई
होना क्या है?
ज्ञान की
तीसरी राशि।
जिसने बाइबिल
से अपना ज्ञान
चुना है वह ईसाई
है और जिसने
गीता से अपना
ज्ञान चुना है
वह हिंदू है।
सब छोड़कर आदमी
चला जाता है।
तुम देखते हो,
संन्यासी
हैं, सब
छोड़ देते हैं
मगर फिर भी
हिंदू हैं सो
हिंदू हैं, ज्ञान नहीं
छूटता। और जब
तक ज्ञान न
छूटे, तब
तक जानना कुछ
भी नहीं छूटा।
समाज मत छोड़ो,
चलेगा। घर-द्वार
मत छोड़ो, चलेगा।
मगर ज्ञान छोड़
दो; क्योंकि
ज्ञान के कारण
तुम्हें
भ्रांति हो रही
है कि मुझे
मालूम है, जबकि
तुम्हें
मालूम नहीं
है। मालूम
तुम्हें तभी
हो सकता है जब
तुम पहले यह
अंगीकार कर लो
कि मुझे मालूम
नहीं है।
ज्ञान की
यात्रा ही अज्ञान
के बोध से
शुरू होती है।
अदभुत
व्यक्ति रहे
होंगे सरहपा!
एक दिन पांडित्य
को लात मार
दी। अज्ञानी
हो गये। सब
छोड़-छाड़ दिया।
शास्त्र, जानकारी,
उपाधियां--सब
छोड़ दिया। एक
फक्कड़ फकीर हो
गये। अज्ञानी
की तरह घूमने
लगे। मुझे कुछ
मालूम नहीं है,
ऐसी घोषणा
करने लगे। और
जो आदमी ऐसी
घोषणा करे कि
मुझे कुछ
मालूम नहीं है,
मालूम होने
के करीब उसके
दिन आ गये, समय
आ गया; क्योंकि
अहंकार गिर
गया, अब
रुकावट कहां
रही! अहंकार
की दीवाल ही
तोड़े थी।
खयाल
करना, जानने
के लिए छोटे
बच्चे जैसा
सरल हो जाना
जरूरी है।
जानने के लिए
फिर आंखों में
वही आश्चर्य
चाहिए जो छोटे
बच्चों की
आंखों में
होता है--और
वही निर्मलता,
वही
निर्दोष भाव!
वही
छोटी-से-छोटी
चीज को देखकर
अवाक हो जाना!
वृक्ष से आता
हुआ धूप का एक
टुकड़ा--और
बच्चा
आश्चर्य-विमुग्ध
हो जाता है।
जैसे सोने की
ढेरी मिल गयी
हो!...कि हवाओं
का गुजरना
वृक्षों से और
वृक्षों का
नाच, वृक्षों
से टकरा कर
होता हुआ
नाद--और छोटा
बच्चा नाच
उठता है, मग्न
हो जाता है!
फूल खिल जायें,
कि
तितलियां
उड़ने लगें, कि कोयल
पुकार ले--और
छोटे बच्चे का
सारा प्राण
रस-विमुग्ध हो
जाता है।
लेकिन
तुम गुजर जाते
हो ऐसे, जैसे
कुछ भी नहीं
हो रहा। वृक्षों
से छनती हुई
धूप, उस
धूप में छाया
हुआ रहस्य
तुम्हें
आंदोलित नहीं
करता। न नाचते
हुए वृक्ष
तुम्हें
प्रभावित
करते हैं, न
आकाश के तारे
तुम्हें छूते
हैं। तुम
अस्पर्शित
गुजर जाते हो।
तुमने चारों
तरफ ज्ञान की
इतनी राशियां
इकट्ठी कर ली
हैं, इतनी
पतर् इकट्ठी
कर ली हैं कि
तुम्हारी
जानकारी के
कारण तुम्हारा
आश्चर्य का
भाव मर गया
है। और
आश्चर्य के भाव
से ही कोई
परमात्मा को
अनुभव कर सकता
है। आश्चर्यविमुग्ध
जो है वही
प्रार्थना
में रत है।
आश्चर्य
प्रार्थना की
शुरुआत है। और
तुम्हारा
ज्ञान
आश्चर्य को
मार डालता है,
आश्चर्य की
गर्दन घोंट
देता है।
सरहपा
को यह अनुभव
हुआ होगा कि
यह जो मैंने
शास्त्रों से
सीख लिया है, मेरा नहीं
है, उधार
है, बासा
है। इसका कोई
मूल्य नहीं
है। मैंने तो
जाना नहीं, किसी और ने
जाना है। किसी
और के जानने
से क्या होगा?
किसी और ने
रोशनी देखी, इससे मैंने
तो रोशनी नहीं
देख ली। और
किसी और ने
भोजन किया तो
मुझे पोषण न
मिला। और कोई
और चला तो
मेरी मंजिल तो
आयी नहीं। मैं
चलूं तो मेरी
मंजिल आये। मैं
देखूं तो मुझे
दर्शन हो। और
मैं जल पिऊं तो
मेरी प्यास
बुझे। एक दिन
यह बात समझ
में आ गयी
होगी।
यह
बहुत बिरली
घटना है। पंडित
को यह बात समझ
में नहीं आती।
आए तो भी पंडित
समझना नहीं
चााहता।
क्योंकि इसका
मतलब हुआ कि
वह इतने दिन
तक, वषर्ो तक
जो पांडित्य
इकट्ठा किया
था, उसे
छोड़ना होगा।
तो वे सारे
वर्ष व्यर्थ
गये! तो वे
सारी
चेष्टाएं, वह
रात देर-देर
तक जाग कर
शास्त्रों के
साथ सिर फोड़ना,
शब्दों का
संग्रह, और
उन शब्दों और
शास्त्रों के
कारण मिली
प्रतिष्ठा, अहंकार पर
चढ़ी हुई
पुष्पमालायें,
वे सब
व्यर्थ गईं!
तो इतने दिन
मूढ़ता में
बीते! इतनी
हिम्मत कम
होती है।
जैसे-जैसे
व्यक्ति
प्रसिद्ध
होने लगता है
वैसे-वैसे
मुश्किल होने
लगती है।
मैंने
सुना है कि एक
कवि का सम्मान
किया जा रहा
था--उसका साठवां
वर्ष मनाया जा
रहा था। बड़ी
फूलमालायें
चढ़ाई गयी थीं, बड़े
प्रशस्ति में
गीत पढ़े गये
थे। लेकिन कवि
था कि कुछ
उदास बैठा था।
किसी
संगी-साथी ने
पूछा कि आज
उदास होने का
दिन नहीं, आज
इतने उदास
क्यों हो? तो
उस कवि ने कहा:
सच बात यह है, यह सारा
स्वागत-समारोह,
ये
फूलमालायें, ये
प्रशस्तियां,
मुझे याद
दिला रही हैं
कि मैं कभी
कवि होना ही नहीं
चाहता था।
मैंने कभी
चाहा नहीं था
कवि होना। यह
तो मजबूरी में,
पैसे कमाने
के लिए मैंने
कवितायें
लिखनी शुरू की
थीं। मुझे
इनमें कभी रस
भी नहीं आया।
तो
उस मित्र ने
पूछा कि फिर
तुम साठ वर्ष
तक राह क्या
देखते रहे? छोड़ क्यों न
दिया
कवितायें
बनाना?
उन्होंने
कहा: कैसे
छोड़ता? धीरे-धीरे
मैं प्रसिद्ध
हो गया। जब तक
छोड़ने की नौबत
आती, जब तक
इतना पैसा
मेरे पास हुआ
कि मैं छोड़
सकता था, तब
तक मैं प्रसिद्ध
हो गया था, तब
तक लोग मुझे
महाकवि समझने
लगे थे। फिर
कैसे छोड़ता?
जब
तुम्हारे
अहंकार की
तृप्ति होने
लगे, तब छोड़ना
बहुत मुश्किल
हो जाता है, अति कठिन हो
जाता है। फिर
तुम्हारा मन
भी न लगता हो
तो भी आदमी
बोझ को ढो
लेता है--थोड़े
दिन की बात और
है, मौत तो आती
ही होगी। अब
साठ वर्ष तो
हो ही गये और
दस-पांच वर्ष
खींच लो। अब
इतनी
प्रसिद्धि
मिल गई है, अब
इस प्रसिद्धि
को क्यों
गंवाना! अकसर
ऐसा हो जाता
है कि
प्रसिद्धि के
लिए लोग अपनी
आत्मायें खो
देते हैं, अपने
जीवन की सारी
संभावनायें
खो देते हैं।
इसलिए
मैं कहता हूं:
पंडित को
ज्ञान कठिन
बात है।
सरहपा
बड़े हिम्मत के
आदमी रहे
होंगे। उनके
शब्दों से भी
मालूम पड़ता है
कि बड़े जानदार
व्यक्ति थे।
सदियां बीत
गयीं, लेकिन
उनके शब्दों
में ऐसी अंगार
है अभी भी, कि
अभी भी
तुम्हें
तिलमिला
देंगे।
पांडित्य छोड़ा,
नालंदा
छोड़ा--और उस
समय का एक
बहुत फक्कड़ों
का संप्रदाय
था, वज्रयान,
उसमें
सम्मिलित हो
गये। यह जमात
ऐसी ही थी जैसी
मेरी जमात है।
इसमें जिनको
तुम समादृत
कहो, प्रतिष्ठित
कहो, ऐसे
लोग सम्मिलित
नहीं होते थे।
इसमें तो तुम उन्हीं
को देख पा
सकते थे, जिनको
बगावती कहो, क्रांतिकारी
कहो--जो लात
मार दें सारी
प्रतिष्ठा पर,
समाज के
सम्मान पर।
वज्रयान
बड़े हिम्मतवर
लोगों का समूह
था। वज्रयान
की मूल धारणा
है कि जो है
उसे ऐसे जाना
जा सकता है, जैसे बिजली
की कौंध होती
है। एक क्षण
में सब दिखाई
पड़ जाता है।
सत्य को जानने
के लिए कोई क्रमिक
आरोहण की
जरूरत नहीं है,
क्योंकि
सत्य दूर नहीं
है कि उस तक
पहुंचने में
समय लगे। सत्य
तो यहीं मौजूद
है; बिजली
कौंध जाए, जैसे
बिजली कौंध
जाए, ऐसा
अभी मिल सकता
है, इसी
क्षण मिल सकता
है। साहस
चाहिए। त्वरा
चाहिए। तो
जैसे कोई
तलवार से एक
ही झटके में
गर्दन काट दे,
ऐसे एक ही
झटके में
सिद्धावस्था
प्राप्त हो
सकती है। यही
मैं भी तुमसे
कह रहा हूं:
क्रमिक
उपलब्धि की
बात कि
धीरे-धीरे
मिलेगा, कि
जनम-जनम श्रम
करेंगे तब
मिलेगा, भ्रांत
है। इसलिए
भ्रांत है कि
मौलिक रूप से
मन यही चाहता
है कि कल पर
टाला जा सके।
और क्रमिक
विकास की
धारणा में कल
पर टालने की
सुविधा है। कल
मिलेगा, परसों
मिलेगा, अगले
जन्म में
मिलेगा; आज
तो नहीं मिलने
वाला है।
इसलिए आज तो
तुम जो कर रहे
हो करो, जैसे
हो रहो, कल
की फिक्र करो।
वज्रयान
कहता है: अभी
मिल सकता है, यहीं, इसी
क्षण! या तो
इसी क्षण या
कभी नहीं। या
तो अभी या कभी
नहीं। और जब
भी मिलेगा तब
अभी ही
मिलेगा।
क्योंकि अभी
के अतिरिक्त
और कोई समय
नहीं है। आज
के अतिरिक्त
कोई दिन नहीं।
कल कभी आया है?
जिस कल पर
तुम टाले चले
जाते हो, वह
तुम्हारे
टालने का उपाय
है, और कुछ
भी नहीं।
तुम्हारी
बेईमानी का एक
ढंग है समय।
समय तुम्हारी
ईजाद है। फूल
अभी खिल रहे
हैं, वृक्ष
अभी बढ़ रहे
हैं, पक्षी
अभी गीत गा
रहे हैं, सूरज
अभी निकला
है--और तुम...तुम
कल खिलोगे! और
तुम कल गीत
गाओगे! तुम कल
उगोगे! कल कभी
आता है? फूलों
ने नहीं टाला
कल पर, वृक्षों
ने नहीं टाला
कल पर, पक्षियों
ने नहीं टाला
कल पर, आदमी
ने कल पर टाला
है।
सिवाय
आदमी के और
कोई भविष्य
में नहीं जी
रहा है। सिर्फ
इसीलिए आदमी
भर परेशान है, और कोई
परेशान नहीं
है। वृक्ष
अशांत नहीं
हैं। तुम
वृक्षों को
मनोवैज्ञानिकों
के पास जाते
नहीं देखते
हो। और न
पशु-पक्षी
अशांत हैं।
तुमने
कभी किसी
पशु-पक्षी के
चेहरे पर तनाव
की, बेचैनी
की रेखायें
देखीं? कभी
कोई पशु-पक्षी
जंगल में
स्वाभाविक
अवस्था में
तुमने पागल
होते सुना? हां कभी-कभी
सर्कस के
जानवर पागल हो
जाते हैं, अजायबघर
के जानवर पागल
हो जाते
हैं--वह
आदमियों के
कारण। उनका
जुम्मा
आदमियों पर
है। अब कोई
जानवर सर्कस में
रहने को थोड़े
ही बना है, कि
अजायबघर में
रहने को बना
है।
ऐसा
समझो कि पशुओं
की दुनिया हो
और उसमें अजायबघर
हों जिनमें
आदमी बंद हों, उनकी क्या
हालत होगी? और पशु
देखने
आयें...हाथी
चले आयें, घोड़े
चले आयें, गधे
चले आयें
देखने आदमी को
अजायबघर में,
और आदमी घूम
रहा है कटघरे
में। जैसे
आदमी पागल हो
जाए, ऐसे
तुम्हारे
अजायबघरों
में तुम्हारे
जानवर कभी-कभी
पागल हो जाते
हैं।
तुम्हारे
कारण। लेकिन
प्रकृति में
पागलपन घटता
ही नहीं। प्रकृति
पागलपन को
जानती नहीं।
क्यों? अशांति
ही नहीं है तो
विक्षिप्तता
कैसे होगी? अशांति नहीं
है, क्योंकि
समय ही नहीं
है, तो
अशांत कोई
कैसे होगा?
इसे
थोड़ा समझ लेना, तो ये सूत्र
समझ में आने
आसान हो
जायेंगे।
अशांत
होने के लिए
समय चाहिए।
अशांत होने के
लिए अतीत का
भाव चाहिए, भविष्य का
भाव चाहिए।
अतीत की
याददाश्त
चाहिए अशांत
होने के लिए।
वह जो दस साल
पहले किसी ने
गाली दी थी, वह अभी भी
चुभनी चाहिए।
गाली भी गई, देने वाले
भी गये, समय
भी गया, मगर
तुम भीतर
चुभाए बैठे
हो। तुम उसे
पकड़े बैठे हो।
तुम उसे ढो
रहे हो। वषर्ो
पहले की याददाश्तें
तुम्हारे
चित्त पर
बोझिल होनी
चाहिए तो तुम
अशांत हो सकते
हो। और भविष्य
की कल्पना
होनी चाहिए कि
कल ऐसा करेंगे,
परसों ऐसा
करेंगे।
योजनायें, कल्पनायें
भविष्य की और
स्मृतियां
अतीत की--इन
दोनों के बीच
में ही पिसकर
तुम पागल
होओगे। इन दो
चक्की के पाट
के बीच जो फंस
जाता है वह बच नहीं
पाता।
और
मजा यह है कि
दोनों ही
चक्की के पाट
झूठे हैं। अतीत
जा चुका, अब
नहीं है और
भविष्य अभी
आया नहीं।
सच्चा तो सिर्फ
वर्तमान है।
सच्चा तो यह
क्षण है। नगद
तो केवल यह
क्षण है। इस
क्षण में कैसी
अशांति? जरा
सोचो, गुनो!
इस क्षण में
कैसी अशांति?
मत आने दो
अतीत को, मत
आने दो भविष्य
को, फिर इस
क्षण में तुम
अशांति खोज
सकोगे? चेष्टा
भी करोगे तो
अशांत न हो
सकोगे।
वर्तमान
अशांति जानता
ही नहीं।
अब
यह बड़ा मजा है
कि आदमी
भविष्य की
कल्पना करके
अशांति खड़ी
करता है और
फिर भविष्य
में ही शांत
होने की योजना
भी बनाता है।
उससे अशांति और
कई गुनी हो
जाती है। और
भविष्य को हम
फैलाये चले जाते
हैं। इस जन्म
में ही हमारे
भविष्य का विस्तार
नहीं है, हम
अगले जन्मों
में भी फैलाते
हैं। हमारी
वासनायें
इतनी हैं कि
इस जन्म में
भी पूरी नहीं
होती उनकी
कल्पना, अगले
जन्म में
होगी। और-और
जन्म, और-और
जन्म...आगे
फैलाये चले
जाते हैं।
सारा बोझ
तुम्हारी
छाती पर पड़ता
है। तुम टूट
जाते हो। इसी
बोझ के नीचे दबा
हुआ आदमी
अशांत होता
है।
वज्रयान
कहता है:
वर्तमान में
जीयो। इस क्षण
के अतिरिक्त
और कुछ भी
सत्य नहीं है।
और जिस दिन
तुम इस क्षण
में जीयोगे, सहज हो
जाओगे।
वज्रयान सहज
योग है।
वज्रयान
क्यों नाम
पड़ा: वज्र की
भांति चोट
करता है, और
एक ही चोट में
फैसला कर देता
है।
सरहपा
पालवंशीय
राजा धर्मपाल
के समकालिक थे।
धर्मपाल का
समय ईस्वी.
७६८-८०९ माना
जाता है।
पूर्वी
प्रदेश के
किसी राज्ञी
नगरी के निवासी
थे। इस नगरी
का अब कोई पता
नहीं चलता।
कभी महानगरी
रही होगी, अब तो खंडहर
भी नहीं
मिलते। ऐसी ही
हमारी
नगरियां भी खो
जाएंगी। ऐसे
ही जहां
बस्तियां हैं,
मरघट बन
जाते हैं; जहां
मरघट हैं वहां
बस्तियां बन
जाती हैं।
हड़प्पा
की खुदाई में
सात पर्तें
मिलीं, कि
हड़प्पा सात
बार बसा और
सात बार उजड़ा।
एक-एक नगर के
नीचे न-मालूम
कितने नगर दबे
पड़े होंगे।
तुम जहां बैठे
हो, वैज्ञानिक
हिसाब लगाकर
कहते हैं कि
एक-एक आदमी के
नीचे कम-से-कम
दस-दस आदमियों
की लाश गड़ी है।
इतने आदमी इस
जमीन पर हो
चुके हैं। और
मर चुके हैं
कि सारी जमीन
मरघट हो गयी
है। अब तुम
मरघट जाने से
मत डरा करो।
तुम जहां हो
मरघट पर ही हो।
मरघट के अलावा
अब कोई जगह
बची नहीं है।
सब तरफ कब्रें
ही कब्रें
हैं। और एक-एक
जगह न मालूम
कितनी बार भवन
बने, मंदिर
उठे! और कितनी
बार भवन गिरे,
मंदिर गिरे!
धूल में मिल
गये। मगर आदमी
बड़ा अदभुत है!
वह इसी तरह के
विचारों में
पड़ा रहता है।
मैं
मांडवगढ़ एक
मित्र के साथ
था। मांडवगढ़
कभी सात लाख
लोगों की
आबादी का नगर
था। प्रमाण भी
हैं कि सात
लाख लोग रहे
होंगे। खंडहर
बताते हैं।
इतने खंडहर
हैं कि किसी
जमाने की बड़ी
महानगरी रही
होगी।
मांडवगढ़ उसका
नाम था तब।
इतनी बड़ी
मस्जिदें हैं
कि जिनमें
दस-दस हजार
लोग एक साथ
नमाज पढ़ सकें।
अब तो खंडहर
ही हैं।
इतनी-इतनी बड़ी
धर्मशालायें
हैं कि जिनमें
दस-दस हजार
लोग एक साथ
ठहर सकें। इतनी
बड़ी-बड़ी
घुड़सालें हैं
जिनमें
हजारों घोड़े एक
साथ रुक सकें, हजारों ऊंट
एक साथ रुक
सकें। किसी
जमाने में जब
ऊंटों से ही
सारी यात्रा
होती थी, मांडवगढ़
बड़ी प्रसिद्ध
नगरी थी।
अब
मांडवगढ़ नहीं
बचा। अब उसका
नाम है:
मांडू। अब
वहां केवल तीन
सौ पांच आदमी
रहते हैं। कुल
आबादी! जिस
होटल में मैं
ठहरा था, बस
वही एक होटल
यात्रियों के
लिए है। जिन
मित्र के साथ
ठहरा था, वह
मित्र विचार
कर रहे थे।
इंदौर में
उन्हें एक भवन
बनाना है, कैसे
बनाना है। वह
सब ले आये थे
नक्शे, मुझे
दिखा रहे थे
कि मैं चुन
दूं, कि
किस तरह का।
स्थिति मुझे
बड़ी विडंबना
की मालूम पड़ी।
मैंने उनसे
कहा: जरा बाहर
चलो। उन्होंने
कहा: बाहर
क्या होगा? मैंने कहा:
जरा देखो, यह
मांडू जो कभी
मांडवगढ़ था, यहां बड़े
महल थे। सब
गिर गये! सब
मिट्टी में
पड़े हैं। और
तुम इतनी
उत्सुकता से
महल बनाने के
लिए आतुर हो!
चौबीस घंटे
तुम्हें एक ही
धुन सवार है
कि ऐसा महल
बने कि इंदौर
में कोई दूसरा
महल न हो। सब
गिर जायेंगे।
लोगों का पता
नहीं चलता, लोगों की
बनाई हुई
चीजों का पता
नहीं चलता। मगर
इन पर ही हम सब
कुछ लगा देते
हैं। और जो
वास्तविक धन
है उसकी तलाश
ही नहीं हो
पाती।
"राज्ञी'
नगरी की बड़ी
खोज की गयी है,
लेकिन कहीं
पता भी नहीं
चलता कि यह
नगरी कभी थी
भी। निशान भी
नहीं मिलते, सबूत भी
नहीं रह गये
हैं। ऐसे ही
सब खो जाता है।
नहीं जागोगे,
नहीं
सम्हलोगे तो
ऐसा ही कुछ
व्यर्थ करते
रहोगे, जिसके
मिट्टी में
निशान भी नहीं
छूटेंगे।
जागो!
जागरण की यही
बेला है।
सरहपा जैसे
जागे वैसे ही
तुम भी जागो।
सरहपा
का स्वर
क्रांति का
स्वर है।
समस्त जानने
वालों का स्वर
क्रांति का ही
स्वर रहा है। जहां
क्रांति न हो, समझना ज्ञान
नहीं है। ज्ञान
अग्नि की
भांति
है--प्रज्वलित
अग्नि की भांति!
और जो ज्ञान
से गुजरेगा वह
अग्नि में
जलकर कुंदन हो
जाता है। और
बिना जले कोई
भी कुंदन नहीं
होता। बिना आग
से गुजरे, बिना
अग्नि-परीक्षा
दिए कोई भी
शुद्ध नहीं होता
है।
लेकिन
लोगों को धर्म
के साथ
क्रांति के
जोड़ने की बात
ठीक नहीं
लगती। धर्म के
साथ तो लोग
शांति को
जोड़ते हैं, क्रांति को
नहीं जोड़ते।
धर्म के साथ
तो लोग सांत्वना
को जोड़ते हैं,
सत्य को
नहीं जोड़ते।
धर्म के साथ
संप्रदाय को जोड़ते
हैं, साधना
को नहीं
जोड़ते। धर्म
संप्रदाय
नहीं है, साधना
है। धर्म
सांत्वना
नहीं है, सत्य
है। धर्म
शांति नहीं है,
क्रांति
है। यद्यपि
क्रांति से
अपूर्व शांति
मिलती है, लेकिन
वह गौण है। वह
लक्ष्य नहीं
है।
और
कोई भी
व्यक्ति जो
दकियानूसी है, धार्मिक
नहीं होता, न हो सकता
है। जो
परंपराग्रस्त
है, धार्मिक
नहीं होता।
धर्म की कोई
परंपरा नहीं होती।
क्रांति की
कहीं कोई
परंपरा होती
है?
धर्म
लीक पर नहीं
चलता--अपनी
पगडंडी खोजता
है, अपना
मार्ग बनाता
है। लीक पर तो
भेड़ें चलती हैं,
भीड़ में तो
भेड़ें चलती
हैं। भेड़चाल
कभी किसी व्यक्ति
को आत्मवान
नहीं बनाती।
निजता की घोषणा
चाहिए, रूढ़ियों
से मुक्ति
चाहिए।
अंधविश्वासों
से बाहर आने
का साहस
चाहिए। और
ध्यान रखना, अंधविश्वासों
में बड़ी
सुरक्षा है!
झंझट नहीं है।
रूढ़ि को मानने
में बड़ी
सुविधा है, क्योंकि और
सभी भी उसी को
मानते हैं।
सांत्वना
मिलती है। जब
सभी लोग किसी
बात को मानते
हैं तो खोजने
की झंझट नहीं
रह जाती।
मुफ्त हमने भी
मान लिया। जिस
भीड़ में संयोग
से पड़ गये, हिंदुओं
की तो हिंदू
और मुसलमानों
की तो मुसलमान...जिस
भीड़ में संयोग
से पड़ गये वही
हो गये। और
संयोग की ही
बात है कि तुम
किस भीड? में
पड़ गये हो।
लेकिन
सत्य इतना
सस्ता नहीं
है। सत्य तो
केवल उनको
मिलता है जो
खोजते हैं। और
खोजने वाला
कभी भी भेड़चाल
से नहीं चल
सकता। खोजने
वाले को तो
अकेले चलना
होगा। एकला चलो
रे! उसे तो
अभियान पर
निकलना होगा।
उसे तो बहुत-सी
मान्यताओं के
विपरीत जाना
होगा। उसे तो बहुत-सी
अंधी धारणाओं
का खंडन करना
होगा।
और
तुम सरहपा के
वचनों में इसी
तरह का अदभुत
खंडन पाओगे।
लेकिन खंडन
लक्ष्य नहीं
है। खंडन का
इरादा इतना ही
है, ताकि गलत
का खंडन हो
जाये और सही
शेष रह जाये। क्रांतिवादी
नकारात्मक
होता है। उसके
स्वर में चोट
होती है तलवार
की। वह तोड़ने
को आतुर होता
है। वह तब तक
तोड़ता ही जाता
है जब तक ऐसी
कोई चीज न आ जाए
जो तोड़ी ही
नहीं जा सकती।
नेति-नेति
उसकी व्यवस्था
होती है। वह
कहता है: यह भी
नहीं, यह
भी नहीं। तुम
ऐसा स्वर
पाओगे सरहपा
में कि वह
कहेंगे: यह भी
नहीं, यह
भी नहीं, यह
भी नहीं! घबड़ा
मत जाना। उनके
निषेध से बेचैन
मत हो जाना।
नकार
तो केवल
विधायक को
खोजने की विधि
है। विधायक तो
तभी मिलता है
जब हम सब
निषेध कर चुके
और अब निषेध
करने को न बचा, तब जो शेष रह
जाता है उस
शेष को जानना
मुक्ति है, निर्वाण है।
आरजी
हदबंदियां
हैं, देस क्या
परदेश क्या?
मैं
हूं इन्सां
वुसअते-कोनैन
है मेरा वतन।
जो
सत्य को खोजने
निकलते हैं न
उनका कोई देश
है, न उनका
कोई परदेस है।
न कोई अपना है,
न कोई पराया
है। आरजी
हदबंदियां
हैं, देस
क्या परदेश
क्या? उनके
लिए तो सारी
हदें, सारी
सीमायें
कृत्रिम हैं,
आरजी हैं।
आरजी
हदबंदियां
हैं, देस क्या
परदेश क्या?
मैं
हूं इन्सां
वुसअते-कोनैन
है मेरा वतन।
इनकी
घोषणा तो यही
है कि सारा
विश्व हमारा
है। यह विश्व की
विशालता
हमारा देश है, हमारी
मातृभूमि है।
इससे छोटे पर
वे राजी नहीं
हैं। सारा
आकाश अपना है।
छोटे-छोटे
आंगनों का
उनका आग्रह
नहीं। जो
आंगनों में
बंधे हैं वे
अंधे रह जाते
हैं।
आकाश
की तरफ आंखें
उठाओ। हिंदू
होने से नहीं
चलेगा, जैन
होने से नहीं
चलेगा, मुसलमान
होने से नहीं
चलेगा। यह
सारे विश्व की
विशालता
तुम्हारी
अपनी होनी
चाहिए। यह सारा
आकाश मेरा है
और मैं इस
आकाश का हूं, ऐसा हृदय
होगा तो पा
सकोगे। नहीं
तो आरजी हदबंदियां
हैं...सब
कृत्रिम हदें
हैं। आदमी के
द्वारा खींची
गयी रेखायें
हैं, उन्हीं
में बंधे रह
जाओगे।
इसी
रफ्तारे
आवारा से
भटकेगा यहां
कब तक?
अमीरे-कारवां
बन जा, गुबारे-कारवां
कब तक?
और
कब तक तुम भीड़
की धूल बने
रहोगे? गुबारे
कारवां कब
तक...कब तक
यात्री-दल के
पैरों की धूल
ही खाते रहोगे?
इसी
रफ्तारे-आवारा
से भटकेगा
यहां कब तक? कितने
जन्मों से तो
भटक रहे हो! इस
भीड़ के हिस्से,
उस भीड़ के
हिस्से! इस
भीड़ की धूल
खाई उस भीड़ की
धूल खाई! तुम
यात्री-दल के
पीछे पैरों से
बंधे ही
घिसटते रहोगे?
इसी
रफ्तारे-आवारा
से भटकेगा
यहां कब तक?
अमीरे-कारवां
बन जा, गुबारे-कारवां
कब तक?
अब
तो यात्री-दल
की धूल रहने
की जरूरत नहीं
है। अब तो
अपने
यात्री-दल के
खुद ही मालिक
बन जाओ।
अमीरे-कारवां
बन जा! अब तो
अपने जीवन को
अपने हाथ में
ले लो। अब तो
उत्तरदायित्व
स्वीकार करो।
किसी और पर यह
उत्तरदायित्व
मत डालो। किसी
मंदिर, किसी
मस्जिद, किसी
गुरुद्वारे
पर ईश्वर की
तलाश को मत
छोड़ दो।
किन्हीं पंडित-पुरोहितों
पर मत छोड़ दो
ईश्वर की पूजा
को। अब तो
तुम्हारा
हृदय ही
संलग्न हो।
सरहपा
के सूत्र--
मन्तः
मन्ते
स्सन्ति ण
होइ।
मंत्र-जाप
करने से शांति
मिलने को
नहीं।...चोट शुरू
हुई! क्रांति
का पहला
सूत्र:
मंत्र-जाप करने
से शांति
मिलने को नहीं
है। मंत्र-जाप
करने से
निद्रा मिलती
है, शांति
नहीं; मूर्च्छा
आती है, शांति
नहीं।
मंत्र-जाप का
उपयोग लोरी की
तरह है जैसे
मां अपने
बच्चे को कहती
है--सो जा बेटा,
राजा बेटा;
सो जा बेटा,
राजा बेटा!
बार-बार
दोहराए जाती
है: राजा बेटा,
राजा बेटा,
राजा बेटा!
एक ही शब्द को
बार-बार सुनने
से ऊब पैदा
होती है।
स्वभावतः ऊब
से ऊबाइयां
शुरू हो जाती
हैं। और बेटा
भाग नहीं सकता,
राजा बेटा,
भाग कर जाए
कहां? मां
बैठी है उसे
पकड़े और कहती
है--सो जा, राजा
बेटा सो जा!
उसे भागने का
और कोई उपाय
नहीं मिलता तो
वह नींद में
ही डुबकी मार
जाता है। वही
भागने का उपाय
बचता है। और
यह एक ही शब्द,
एक ही लय
में दोहराया
गया, नींद
लाने वाला हो
जाता है।
तुम
बैठे राम-राम, राम-राम, राम-राम
जपते हो। एक
ही शब्द
दोहराओगे, तंद्रा
आयेगी। एक ही
शब्द
दोहराओगे, उस
शब्द की
पुनरुक्ति से
सम्मोहित हो
जाओगे।
सम्मोहन से
थोड़ा सुख मिलेगा,
अच्छी नींद
ले लोगे; लेकिन
इससे कुछ सत्य
मिलने वाला
नहीं है और न शांति
मिलने वाली
है। शांति तो
तब मिलेगी जब
तुम अशांति के
कारण छोड़
दोगे।
एक
राजनेता मेरे
पास आते थे, कि मन बड़ा
अशांत है, कोई
मंत्र दे दें।
मैंने कहा कि
मन अशांत है, उसके कारण
छोड़ोगे नहीं।
मन अशांत है, क्योंकि
तुम्हें
मुख्यमंत्री
बनना है।
उन्होंने
कहा: बात तो आप
ठीक ही कह रहे
हैं। आज दस
साल से कोशिश
में लगा हूं
लेकिन बस
मंत्री पर ही
अटक गया हूं।
मेरे से पीछे
आने वाले लोग, जो न जेल गये
कभी, न
जिन्होंने
कोई
त्यागत्तपश्चर्या
की, वे भी
मुख्यमंत्री
हो गये। मैं
अपनी सादगी की
वजह से अटका
हुआ हूं।
इसलिए चित्त
मेरा बड़ा अशांत
रहता है। नींद
तो आती ही
नहीं मुझे।
अब
मैंने उनसे
कहा कि दो
बातें हैं।
अगर तुम किसी
ईमानदार आदमी
के पास जाओगे
तो वह कहेगा
कि जिस चीज से चित्त
अशांत होता है, वे कारण छोड़
दो। अगर तुम
किसी बेईमान
के पास जाओगे
तो वह तुम्हें
कह देगा कि यह
लो मंत्र, इसको
दोहराओ, इससे
सब शांति हो
जायेगी। अगर
तुम बीमार हो
तो मंत्र
दोहराने से
धोखा ही पैदा
होगा, बीमारी
मिटेगी नहीं।
बीमारी के मूल
कारण मिटाने
होंगे।
मैंने
उनसे कहा:
तुम्हारा
राजनैतिक
चित्त, तुम्हारी
महत्त्वाकांक्षा,
तुम्हारी
अशांति का
कारण है।
महत्त्वाकांक्षी
अशांत होगा
ही।
महत्त्वाकांक्षी
शांत हो कैसे
सकता है? और
अगर
महत्त्वाकांक्षी
शांत हो
जायेगा तो फिर
गैर-महत्त्वाकांक्षी
को क्या
मिलेगा इस जगत
में? फिर
तो सभी
महत्त्वाकांक्षी
को मिल गया।
पद भी उसको
मिल गये, प्रतिष्ठा
भी उसको मिल
गयी, धन भी
उसको मिल गया,
और मोक्ष भी
उसको मिल गया।
फिर
गैर-महत्त्वाकांक्षी
को क्या बचेगा?
कुछ उसको भी
बचने दो। बाहर
का तुम सम्हाल
लो, गैर-महत्त्वाकांक्षी
को कम-से-कम
भीतर का तो
बचने दो।
लेकिन
वे बोले कि यह
तो मैं कर
नहीं सकता कि
अभी छोड़ दूं।
छोड़ना है एक
दिन जरूर, क्योंकि देख
लिया सब।
मैंने
कहा: अभी देखा
नहीं। अगर
तुमने देख
लिया तो तुम
यह कभी न
कहोगे कि
छोड़ना है एक
दिन जरूर। तुम
अभी छोड़ दोगे!
अगर देख लिया
सब, तो फिर अब
और क्या देखना
है? छोड़ ही
दो। शांति
अपने से घटित
हो जायेगी।
कांटे की सेज
बिछाकर लेटे
हो, कहते
हो शांति
मिलती नहीं, कांटे चुभ
रहे हैं, मंत्र
दो कोई। मैं
तुमसे कहता
हूं: इस सेज पर
मत लेटो। ये
कांटे
तुम्हें
तकलीफ दे रहे
हैं, छोड़ो।
तुम कहते हो:
छोड़ना है एक
दिन, जरूर
छोड़ेंगे, देख
लिया सब। मगर
यह सब बहाना
है।
पश्चिम
के देशों में
मंत्रों का
प्रभाव बढ़ रहा
है--सिर्फ एक
कारण से, क्योंकि
पश्चिम ने
बहुत अशांति
इकट्ठी कर ली है।
महत्वाकांक्षा
के कारण बहुत
अशांति इकट्ठी
हो गयी है। अब
मंत्र चाहिए।
मंत्र सिर्फ धोखे
हैं।
मन्तः
मन्ते स्सन्ति
ण होइ।
पड़िल
भित्ति कि
उट्ठिअ होइ।।
मंत्रों
से शांति
मिलने को
नहीं। दीवाल
जो गिर चुकी, अब उठेगी
नहीं। मंत्र
दोहराने से यह
गिरी दीवाल
उठेगी नहीं।
मंत्र
दोहराने से हो
सकता है तुम
थोड़ी देर सपना
देख लो कि
दीवाल उठ गयी।
मगर जब आंख
खोलोगे तभी
दीवार को गिरा
हुआ पाओगे।
मंत्र
तुम्हें
थोड़ी-बहुत देर
के लिए धोखा
दे दें...मंत्र
एक तरह का नशा
है।
तुम
चौंकोगे यह
बात जानकर कि
मंत्र नशा है।
लेकिन
मनोवैज्ञानिक
से भी पूछो तो
मनोवैज्ञानिक
भी कहेगा कि
मंत्र नशा है।
एक ही शब्द की, संगीतपूर्ण
शब्द की
पुनरुक्ति से
बार-बार रासायनिक
परिर्वतन
होते हैं
तुम्हारे
भीतर। उन रासायनिक
परिवर्तनों
का वही अर्थ
होता है जो तुम
बाहर से नशा
कर लो...। नशे
में और मंत्र
में कोई
बुनियादी भेद
नहीं है। एक
आदमी ने भांग
पी ली और मस्त
हो रहा है।
उसकी मस्ती भी
झूठी है। तुम
जानते हो, उसकी
मस्ती-झूठी
है। घड़ी-भर
बाद टूट
जायेगी। और एक
आदमी वषर्ो तक
राम-राम, राम-राम,
कोई भी
मंत्र, राम
से कुछ
लेना-देना
नहीं है; कोई
भी मंत्र जपता
बैठा रहा है, बैठा रहा है,
पुनरुक्ति
से बार-बार
उसके पूरे
मस्तिष्क का स्नायु-जाल
एक ही झंकार
खाते-खाते एक
रासायनिक
रूपांतरण से
गुजर जाता है।
वह अपने ही
भीतर नशे पैदा
करने लगता है।
शब्दों में
नशा है।
तुम
जानते हो कि
युद्ध पर जाते
हुए सैनिक एक
खास तरह के
बाजे बजाते
हैं, एक खास
तरह के गीत
गाते हैं और
नशे से भर
जाते हैं।
उनकी बाहुओं
में खून दौड़
जाता है। छाती
जोर से धड़कने
लगती है।
मरने-मारने की
आकांक्षा
पैदा हो जाती
है।
आधुनिक
संगीत है, फिल्मी
संगीत है, उसको
सुनते ही
तुम्हारे
भीतर
कामवासना
प्रज्वलित
होने लगती है।
प्राचीन
शास्त्रीय
संगीत है; उसे
सुनते ही
तुम्हारे
भीतर अगर
कामवासना चल भी
रही हो तो
शांत हो जाती
है, सो
जाती है।
संगीत
का रासायनिक परिणाम
होता है
तुम्हारी देह
पर। शब्दों की
चोट अर्थ रखती
है। एक शब्द
तुम्हें
उतावला कर देता
है, बेचैन कर
देता है।
दूसरा शब्द
मल्हम कर जाता
है, सांत्वना
दे जाता है।
शब्द
ध्वनि है।
ध्वनि का खास
तरह का संघात
रासायनिक
परिवर्तन
पैदा करता है।
अब तो वैज्ञानिक
कहते हैं कि
वृक्षों के
पास खास तरह
का संगीत बजाया
जाए तो वे
जल्दी बढ़ते
हैं; और एक
दूसरे तरह का
संगीत बजाया
जाए तो उनकी बाढ़
रुक जाती है।
फूलों के पास
खास तरह का
संगीत बजाया
जाये तो वे
बड़े खिलते हैं,
बड़े हो जाते
हैं।
गायों
के पास संगीत
बजाया जा रहा
है अमरीका में
अब, क्योंकि
संगीत के
प्रभाव में
गायें ज्यादा
दूध दे देती
हैं। तुम
आदमियों को ही
नहीं, गायों
को भी धोखा
देने लगे। गाय
को पता नहीं कि
यह तरकीब है।
संगीत उसके
भीतर
रासायनिक परिवर्तन
ले आता है, कि
उसके स्तनों
में ज्यादा
दूध आ जाता
है।
मंत्र
से शांति होने
वाली नहीं है।
क्यों? क्योंकि
अशांति का
कारण मंत्र
नहीं है। एक
आदमी धन के
पीछे दीवाना
है, यह
उसकी अशांति
है। जब तक वह
यह न समझ लेगा
कि मेरे धन के
पीछे दौड़ने
में मेरी
अशांति है और
जब तक कारण को
न छोड़ देगा तब
तक शांत नहीं
हो सकेगा।
मंत्र
इत्यादि देने
वाले उसे केवल
प्रलोभन दे
रहे हैं। थोड़े
दिन का धोखा
खा जायेगा, फिर धोखे
टूट जायेंगे।
यह दीवार जो
गिर चुकी है
तुम्हारे
चित्त की, यह
मंत्रों से
उठने वाली
नहीं है, कुछ
और करना होगा।
शोरे-हस्ती
अभी जरा ठहरे।
सुन
रहा हूं जमीर
की आवाज।।
वह
जो तुम्हारे
भीतर
चिल्ल-पों चल
रही है
महत्त्वाकांक्षाओं
की, पद-प्रतिष्ठा
की--यह हो जाऊं,
वह हो जाऊं;
यह कर लूं, वह कर लूं; नाम छोड़
जाऊं दुनिया
में! वह जो
चिल्ल-पों चल
रही है
तुम्हारे
भीतर, जिंदगी
का शोरगुल चल
रहा है...।
शोरे-हस्ती
अभी जरा ठहरे।
सुन
रहा हूं जमीर
की आवाज।।
यह
शोर अगर रुक
जाये, यह
चिल्ल-पों
जिंदगी की अगर
रुक जाये तो
तुम्हारे
भीतर जमीर की
आवाज, अंतरात्मा
की आवाज सुनाई
पड़े। वही आवाज
शांति है। कोई
मंत्र से
मिलने वाली
नहीं है।
मंत्र से तो
शायद मिलती भी
हो, तो
मिलेगी नहीं।
और आदमी बड़ा
बेईमान है।
दूसरों को
धोखा देता है,
अपने को
धोखा देता है,
और अंततः
परमात्मा तक
को धोखा देने
की कोशिश करता
है।
जैसे
वह जमीर की जो
आवाज है, अंतरात्मा
की जो आवाज है,
जब सुनाई
पड़ेगी तो ऐसा
ही मालूम होगा
जैसे ओंकार का
नाद हो रहा
है। ओंकार का
ही नाद होगा, मगर तुम
करने वाले
नहीं होओगे
नाद, तुम
सिर्फ जानने
वाले होओगे--साक्षी।
तुम्हारे
भीतर नाद उठता
हुआ होगा। तुम
कर्ता नहीं
होओगे, केवल
साक्षी।
आदमी
ने धोखा देना
शुरू कर दिया
है। वह बैठकर ओम-ओम-ओम
का नाद करता
है। सोचता है
इस तरह ओम-ओम करते-करते
एक दिन वह
भीतर के ओंकार
को पा जायेगा।
नहीं; इस
शोरगुल के
कारण अगर
मिलता भी होगा
तो नहीं
मिलेगा। अगर
तुम्हें
ओंकार का नाद
सुनना हो कभी
तो भूलकर भी
ओम का पाठ मत
करना, नहीं
तो तुम धोखा
खड़ा कर लोगे।
तुम जो ओम का
पाठ कर रहे हो,
वह
तुम्हारे मन
का ही खेल है।
फिर
करना क्या है? सरहपा क्या
कहते हैं? मैं
क्या कहता हूं?
सारे मंत्र
छोड़ो। सारे
शब्द छोड़ो।
मौन हो रहो।
बस मौन ही
असली मंत्र
है। मौन का
अर्थ है--वहां
कोई मंत्र
नहीं है अब। न
ओम है, न
राम है, न
अल्लाह है, न नमोकार है,
न गायत्री
है; कोई
मंत्र नहीं
है। तुम चुप
होकर बैठे हो।
एक सन्नाटा
है। जैसे तुम
हो ही नहीं।
एक शून्य बैठा
है...। उसी शून्य
में आविर्भाव
होता है ओंकार
का। उसी शून्य
में तुम्हारे
भीतर अनाहत का
नाद सुना जाता
है। उसी शून्य
में वीणा बजती
है तुम्हारी
आत्मा की।
शोरे-हस्ती
अभी जरा ठहरे।
सुन
रहा हूं जमीर
की आवाज।।
बस, यह
चिल्ल-पों
तुम्हारी रुक
जाये। मगर
चिल्ल-पों तो
तुम रोकते नहीं
हो, चिल्ल-पों
को और धार्मिक
ढंग देते हो।
कोई है, फिल्मी
गाना गा रहा
है; यह भी
चिल्ल-पों है।
और कोई हैं कि
भगवान की स्तुति
करने लगे हैं;
यह भी
चिल्ल-पों है।
यह धार्मिक
ढंग की होगी, बस इससे
ज्यादा कुछ
फर्क नहीं है!
कोई राम-राम जपे
कि कोकाकोला
कोकाकोला करे,
कुछ फर्क
नहीं है, जरा
भी फर्क नहीं
है। ऊपर से
फर्क दिखाई पड़
रहा है
क्योंकि
राम-राम को
हमने मान लिया
कि यह धार्मिक
शब्द है। और
कोकाकोला? यह
अधार्मिक
शब्द है!
कोकाकोला में
क्या अधर्म है?
जिन
वर्णमालाओं
से राम बना है,
उन्हीं
वर्णमाला से
कोकाकोला बना
है। जरा भी
भेद नहीं है।
सिर्फ
तुम्हारी
धारणा है, सिर्फ
तुम्हारी
मान्यता है।
सारा
शोरगुल रुक
जाना चाहिये, तब वह दीवाल
उठेगी जो कभी
गिरती नहीं
है।
बंदगी
ने हजार रुख
बदले।
जो
खुदा था वही
खुदा है
हनूज।।
प्रार्थनायें
तो बदलती रहीं, मंत्र भी
बदलते रहे, पूजा-आराधन
भी बदलते रहे,
मंदिर-मस्जिद
बदलते रहे, रंग-ढंग
बदलते
रहे--लेकिन जो
परमात्मा था
वह तो
वही-का-वही
है।
बंदगी
ने हजार रुख
बदले।
जो
खुदा था वही
खुदा है
हनूज।।
परमात्मा
तो वही-का-वही
है आज भी। फिर
तुम अरबी में
प्रार्थना
करो कि
संस्कृत में।
परमात्मा तो
वही-का-वही
है। और
परमात्मा को न
अरबी आती है
और न संस्कृत।
परमात्मा को
तो एक ही भाषा
आती है--उस
भाषा का नाम मौन
है। उस भाषा
का नाम चुप्पी
है। चुप हो
रहो। जैसे ही
तुम चुप हुए, न तुम हिंदू
रहे न
मुसलमान।
तुमने यह खयाल
किया? चुप्पी
की कोई हद
नहीं होती, चुप्पी बेहद
होती है। अगर
तुम बिलकुल
मौन बैठ गये
घड़ी भर को, तो
उस घड़ी में
तुम जैन हो, बौद्ध हो, पारसी हो, सिक्ख हो, क्या हो? उस
शून्य की घड़ी
में तुम कोई
भी नहीं हो।
क्योंकि
उसमें न तो
गुरुग्रंथ
बोलेगा, न
रामायण
बोलेगी, न
धम्मपद
बोलेगा। उस
चुप्पी में तो
बोल ही गया, भाषा ही गयी,
तो भाषा के
बने सारे
सिद्धांत भी
गये, सारे
शास्त्र भी
गये! फिर उस
चुप्पी में
कौन होगा? उस
चुप्पी में
सिर्फ
तुम्हारा
शुद्ध अस्तित्व
है। वही
परमात्मा है।
मौन
से उससे जुड़ना
है। मंत्रों
से कोई कभी
उससे न जुड़ा
है न जुड़ सकता
है।
मगर
ऐसी बातें
खतरनाक मालूम
होती हैं! अभी
भी खतरनाक
मालूम होती
हैं तो सरहपा
ने जब कहीं, तब तो बड़ी
खतरनाक मालूम
पड़ी होंगी।
अक्ल
के भटके हुओं
को राह
दिखलाते हुए।
हमने
काटी जिंदगी
दीवाना
कहलाते हुए।।
जिन्होंने
भी जाना है और
ईमानदारी से
तुम्हें वही
कह देना चाहा
है जो सत्य है, वे दीवाने
ही समझे गये
हैं, उन्हें
लोग पागल ही
समझते रहे
हैं। सदियां
बीत जाती हैं,
तब भी लोग
उन्हें समझ
नहीं पाते।
एक
ही काम करने
जैसा है:
चित्त की
आपाधापी छोड़ देनी
है। चित्त में
इतनी आपाधापी
क्यों है? क्योंकि बड़ी
आकांक्षायें
हैं।
आकांक्षाओं के
कारण शोरगुल
है। शोरगुल के
कारण अशांति
है। अशांति को
कैसे ठीक करें,
तुम चले
पूछने। किसी
ने तुम्हें एक
मंत्र और पकड़ा
दिया, तो
तुम्हारे
शोरगुल में
थोड़ा और संबंध
जोड़ दिया, और
थोड़ा शोरगुल
जोड़ दिया।
है
हुसले-आरजू का
राज
तर्के-आरजू।
मैंने
दुनिया छोड़ दी
तो मिल गई
दुनिया
मुझे।।
इस
जगत में आकांक्षाओं
की पूर्ति का
एक ही उपाय है:
आकांक्षाओं
का त्याग। यह
उल्टा
दिखनेवाला
सूत्र खूब समझ
लेना: है
हुसले-आरजू का
राज
तर्के-आरजू।
अगर कभी
तृप्ति चाहिए
हो तो एक ही
उपाय है कि
सारी आकांक्षाओं
को गिर जाने
दो। मैंने
दुनिया छोड़ दी
तो मिल गई
दुनिया मुझे!
जो नहीं कुछ
पाना चाहता
उसे सब मिल
जाता है। जो
विजय नहीं
पाना चाहता
उसे विजय मिल
जाती है।
शांति पाने की
आकांक्षा भी
मत लेकर चलो, अन्यथा अटकन
हो जायेगी, अड़चन हो
जायेगी।
क्योंकि
आकांक्षा तो
आकांक्षा है,
फिर धन पाने
की हो कि
शांति पाने की
हो।
तरुफल
दरिसणे णउ
अगघाइ।
वेज्ज
देक्खि किं
रोग पसाइ।।
वृक्ष
में लगा हुआ
फल देखना, उसकी गंध
लेना नहीं
है--सरहपा
कहते
हैं--वैद्य को
देखने मात्र
से क्या रोग
दूर हो जाता
है?
सुनते
हो, ये वचन
कितने
समसामयिक
मालूम होते
हैं! जैसे अभी
किसी ने कहे
हों!
सत्य
की यही खूबी
है कि सत्य
कभी पुराना
नहीं पड़ता।
सत्य सदा नया
बना रहता है।
सत्य की गुणवत्ता
ऐसी है कि
उसमें हमेशा
धार होती है।
"वृक्ष
में लगा हुआ
फल देखना, उसकी
गंध लेना नहीं
है।' दूर
से फल देख
लिया वृक्ष
में लगा हुआ, इससे न तो
तुम्हें गंध
मिलेगी; स्वाद
की तो बात ही
छोड़ दो, गंध
भी न मिलेगी, स्वाद तो
कैसे मिलेगा?
न गंध मिली
न स्वाद मिला,
तो पोषण
क्या खाक
मिलेगा? और
लोग धर्म के
साथ ऐसा ही कर
रहे हैं। निकट
नहीं आते।
फलों को दूर
से देख रहे
हैं। सच तो यह
है, फलों
को भी नहीं
देख रहे हैं, फलों की
तस्वीर को देख
रहे हैं।
क्योंकि तुम जब
गीता पढ़ते हो
तब तुम्हें
कृष्ण थोड़े ही
दिखाई पड़ते
हैं--कृष्ण की
तस्वीर...।
कृष्ण
को देखना हो
तो गीता से
रास्ता नहीं
मिलेगा--किसी
सदगुरु का हाथ
पकड़ना होगा, जहां कृष्ण
अभी मौजूद हों,
जहां बुद्ध
अभी बोलते
हों। किन्हीं
ऐसी आंखों में
झांकना पड़ेगा,
जिनमें
तुम्हें
बुद्धत्व की
गहराई मिल
जाये। यह फल
को देखना
होगा। सरहपा
तो कहते हैं:
इससे भी कुछ
होने वाला
नहीं। फल को
देखने से भी, ध्यान रखना,
गंध नहीं
मिलेगी, स्वाद
नहीं मिलेगा।
लेकिन फल को
देखने से एक बात
हो जायेगी--कि
फल हो सकता है,
इसका भरोसा
आ जायेगा, इसकी
श्रद्धा आ
जायेगी।
और
जो किसी एक की
आंखों में
जलता हुआ दीया
तुमने देखा है, वह तुम्हारे
भीतर एक नयी
यात्रा का
प्रारंभ हो
जायेगा, कि
ऐसा दीया मेरे
भीतर भी जले, कैसे जले, कब जले, क्या
करूं? कैसे
यह दीया जला
है, इसकी
मुमुक्षा
पैदा हो
जायेगी।
लेकिन खयाल रखना,
बुद्ध को
मिल गया इसलिए
तुम बुद्ध के
पास बैठे
रहोगे तो
तुम्हें मिल
जायेगा, ऐसा
मत सोच लेना।
"वृक्ष
में लगा हुआ
फल देखना उसकी
गंध लेना नहीं
है। और वैद्य
को देखने
मात्र से क्या
रोग दूर हो
जायेगा?' वैद्य
जो कहता है वह
करना पड़ेगा।
वैद्य को देखने
मात्र से रोग
दूर नहीं
होता। तो गुरु
को देख लिया, इससे ही कुछ
होने वाला
नहीं है।
बुद्ध
ने तो कहा ही
है कि मैं
वैद्य हूं।
ठीक यही शब्द
कहे हैं कि
मैं वैद्य
हूं। मेरे पास
आ जाने से कुछ
हल न होगा, जब तक कि मैं
जो तुम्हें
उपचार देता
हूं तुम उससे
गुजरो न। मैं
तुमसे जो कहता
हूं वह करो।
बुद्ध
के पास एक
युवक आया, दार्शनिक
था। उसने
बुद्ध से
प्रश्न पूछे।
बुद्ध ने
प्रश्न शांति
से सुने और
कहा: एक काम कर।
दो साल रुक
जा। दो साल
चुप बैठ। फिर
पूछ लेना। फिर
तुझे उत्तर दे
दूंगा।
उस
युवक ने कहा:
दो साल चुप
बैठूं, फिर
आप उत्तर
देंगे! उत्तर
मालूम हों तो
अभी क्यों
नहीं दे देते?
बुद्ध
ने कहा: मुझे
उत्तर मालूम
हैं, लेकिन
अभी तू ले न
सकेगा, अभी
तेरी पात्रता
नहीं है, तू
ग्रहण न कर
सकेगा। मैं तो
अमृत डाल दूं,
मगर तेरा
पात्र उलटा है,
अमृत
व्यर्थ
जायेगा। तू दो
साल पात्र को
सीधा कर। तू
दो साल चुप
बैठ।
ऐसी
बात सुनकर
बुद्ध की एक
दूसरा बुद्ध
का भिक्षु
वृक्ष के पास
ही बैठा था, हंसने लगा।
उस युवक ने उस
भिक्षु को
पूछा: आप क्यों
हंसते हैं? उस भिक्षु
ने कहा कि मत
धोखे में पड़ना,
पूछना हो तो
अभी पूछ लो, क्योंकि यही
मेरे साथ
गुजरी थी।
मुझे भी कहा कि
दो साल चुप
बैठ जाओ, मैं
दो साल चुप
बैठ गया। अब
मेरे भीतर
प्रश्न ही
नहीं उठते। दो
साल चुप्पी
में ऐसा मजा आ
गया है कि
किसको लेना
पड़ा है किसको
देना पड़ा है
प्रश्नों से!
वे प्रश्न ही
गिर गये।
पूछना हो तो
अभी पूछ लेना।
मैं अपने अनुभव
से कह रहा
हूं।
लेकिन
बुद्ध ने कहा
कि मैं उत्तर
नहीं देता; मैं औषधि
देता हूं। मैं
उत्तर नहीं
देता; उपचार
देता हूं। मैं
वैद्य हूं, दार्शनिक
नहीं हूं। यह
मेरा उपचार
है: दो साल चुप
बैठो। यह औषधि
है। फिर दो
साल तुम जब
औषधि का उपयोग
कर चुके होओगे,
परिपुष्ट
हो चुके होओगे,
फिर पूछ
लेना।
और
यही हुआ, दो
साल वह
युवक--उसका
नाम था
मौलुंकपुत्त--चुप
बैठा। और दो
साल जब पूरे
हो गये तो
उसने तो नहीं
पूछा, लेकिन
बुद्ध ने उससे
कहा कि दो साल
पूरे हो गये
मौलुंकपुत्त,
कुछ समय का
होश है? दो
साल पूरे हो
गये, अब तू
पूछ ले।
मौलुंकपुत्त
हंसने लगा।
उसने कहा:
औषधि काम कर
गयी। जो मिलना
था मिल गया।
जो जानना था जान
लिया। आपकी
कृपा अपरिसीम
है। अगर मैं
जिद करता
प्रश्न पाने
की, प्रश्नों
के उत्तर पाने
की, तो चूक
जाता। मैंने
जिद न की और
आपकी औषधि ले
ली, उत्तर
मिल गये।
औषधि
के ही प्रयोग
में
स्वास्थ्य
उपलब्ध हो जाता
है। वही उत्तर
है।
"जब
तक अपने-आप को
नहीं जान लिया,
तब तक किसी
को शिष्य नहीं
करना चाहिए।'
जाव
ण अप्पा
जाणिज्जइ ताव
ण सिस्स करेइ।
और
जब तक तुम खुद
न जान लो तब तक
भूलकर किसी को
जतलाना मत, किसी को
बतलाना मत।
क्योंकि तुम
जो भी बतलाओगे
वह गलत होगा।
तुम जो भी
बतलाओगे, हो
सकता है
पांडित्यपूर्ण
हो, मगर
प्रज्ञापूर्ण
नहीं होगा।
जाव
ण अप्पा
जाणिज्जइ ताव
ण सिस्स करेइ।
अन्धं
अन्ध कढ़ाव तिम
वेण वि कूव
पड़ेइ।।
ऐसी
भूलकर भी
कोशिश मत करना, जब तक तुम न
जान लो, किसी
को जतलाना मत,
बतलाना मत,
क्योंकि यह
तो वैसी भूल
हो जायेगी
जैसे एक अंधा
दूसरे अंधे को
साथ ले चला और
दोनों ही कुएं
में गिर पड़े।
इस वचन का
जन्म सरहपा के
साथ हुआ कि एक
अंधा दूसरे
अंधे को ले
चला। अन्धं
अन्ध कढ़ाव तिम
वेण वि कूव
पड़ेइ। फिर तो
संतों में करीब-करीब
सब ने यह
दोहराया है।
कबीर ने कहा
है: अंधा अंधा
ठेलिया, दोनों
कूप पड़ंत। यह
सरहपा की ही
प्रतीक-शैली है,
कि अंधा
अंधे को ले
चला और दोनों
कुएं में गिर
गये। मगर इस दुनिया
में बहुत-से
अंधे अंधों को
ले चल रहे हैं।
तुम इसकी
फिक्र ही नहीं
करते कि जिसके
पीछे तुम चल
रहे हो उसको
दिखाई भी पड़ता
है! तुम इसकी चिंता
ही नहीं कर
रहे हो। चलते
चले जाते हो।
एक लंबी कतार
है अंधों
की--आगे भी
तुम्हारे, पीछे
भी तुम्हारे;
तुम कतार के
मध्य में हो।
तुम अंधों की
शृंखला में एक
कड़ी मात्र हो।
तुमने न कभी
पूछा, न
तुमने कभी
सोचा, न
तलाशा, न
जिज्ञासा
की--कि जिनके
पीछ मैं चल
रहा हूं, उन्हें
पता है? उन्होंने
जाना है?
विवेकानंद
तलाश करते
थे--गुरु की
तलाश करते थे।
और जिसे भी
जानना हो उसे
गुरु की तलाश
ही करनी होगी।
उस तलाश में
वे बहुत लोगों
के पास गये।
रवींद्रनाथ
के दादा के
पास भी गये। उनकी
बड़ी ख्याति
थी। महर्षि
देवेंद्रनाथ!
महर्षि की तरह
ख्याति थी। वे
एक बजरे पर
रहते थे। विवेकानंद
आधी रात नदी
में कूदे, तैरकर बजरे
पर पहुंचे; सारा बजरा
हिल गया।
विवेकानंद
चढ़े, जाकर
दरवाजे को
धक्का दिया।
देवेंद्रनाथ
रात अपने
ध्यान में
बैठे थे। इस
पागल-से युवक
को देखकर बड़े
हैरान हुए।
कहा: किसलिए
आये हो युवक? क्या चाहते
हो? यह कोई
समय है आने का?
विवेकानंद
ने कहा कि समय
और असमय का सवाल
नहीं है। मैं
यह जानना
चाहता हूं:
ईश्वर है?
यह
बेवक्त आधी
रात का समय, यह कोई
पूछने की बात
है! ऐसे कोई
पूछने आता है!
पूछा न ताछा, द्वार ठेलकर
अंदर घुस आया
युवक, पानी
से भीगा हुआ, कपड़े पहने
हुए तर-बतर।
एक
क्षण
देवेंद्रनाथ
झिझक गये।
उनका झिझकना था
कि विवेकानंद
वापिस कूद
गये।
उन्होंने कहा
भी कि वापिस
कैसे चले? तुम्हारे
प्रश्न का
उत्तर तो लेते
जाओ। लेकिन
विवेकानंद ने
कहा: आपकी
झिझक ने सब कह
दिया। अभी
आपको ही पता
नहीं।
और
यह बात सच थी।
देवेंद्रनाथ
ने लिखा है कि
घाव कर गयी
मेरे हृदय
में। यह बात
सच थी। मुझे भी
अभी पता नहीं
था, हालांकि
मैं उत्तर
देने को तत्पर
था।
फिर
यही
विवेकानंद
रामकृष्ण के
पास गया और रामकृष्ण
से भी यही
पूछा: ईश्वर
है? फर्क
देखना, कितना
फर्क है
महर्षि
देवेंद्रनाथ
के उत्तर में
और रामकृष्ण
के उत्तर में।
पूछा: ईश्वर
है? रामकृष्ण
ने एकदम गद्रन
पकड़ ली
विवेकानंद की
और कहा कि
जानना है, अभी
जानना है, इसी
समय जानेगा? यह
विवेकानंद
सोचकर न आये
थे कि कोई ऐसा
करेगा! कोई
ईश्वर को
जनाने के लिए
ऐसी गर्दन पकड़
ले एकदम से और
कहे कि अभी
जानना है? इसी
वक्त? तैयारी
है?... खुद
झिझक गये।
कहां झिझका
दिया था
देवेंद्रनाथ को,
अब झिझक गये
खुद! और
रामकृष्ण
कहने लगे:
ईश्वर को
पूछने चला है,
तो सोचकर
नहीं आया कि
जानना है कि
नहीं? और
इसके पहले कि
विवेकानंद
कुछ कहें, रामकृष्ण
तो दीवाने
आदमी थे, पागल
थे, पैर
लगा दिया
विवेकानंद की
छाती से और
विवेकानंद
बेहोश हो गये।
तीन घंटे बाद
जब होश में
आये तो जो
आदमी बेहोश
हुआ था वह तो
मिट गया था, दूसरा ही
आदमी वापिस
आया था। चरण
पकड़ लिए रामकृष्ण
के और कहा कि
मैं तो झिझक
रहा था, मैं
तो उत्तर न दे
सका, लेकिन
आपने उत्तर दे
दिया।
सदगुरु
की तलाश!
लेकिन पंडित
सदगुरुओं के
जैसे ही वचन
बोलते हैं, उससे सावधान
रहना। खोटे
सिक्के बाजार
में बहुत हैं।
और खयाल रखना,
खोटे
सिक्कों की एक
खूबी होती है,
तुम
अर्थशास्त्रियों
से पूछ सकते
हो। अर्थशास्त्री
कहते हैं, खोटे
सिक्के की एक
खूबी होती है
कि अगर तुम्हारी
जेब में खोटा
सिक्का पड़ा हो
और असली
सिक्का पड़ा हो
तो पहले तुम खोटे
को चलाते हो।
खोटे सिक्के
की खूबी होती
है कि वह चलने
को आतुर होता
है। अकसर ऐसा
होगा। तुम्हारी
जेब में अगर
दस का एक नकली
नोट पड़ा है और
एक असली, तो
तुम पहले नकली
चलाओगे न! जब
तक नकली चल
जाये, अच्छा।
और जिसके पास
भी नकली
पहुंचेगा, वह
भी पहले नकली
ही चलायेगा।
तो नकली
सिक्के चलन
में हो जाते
हैं, असली
सिक्के रुक
जाते हैं।
नकली सिक्के
चलने के लिए
आतुर होते
हैं।
इस
जगत में पंडित, मौलवी, पुरोहित
खूब चलते हैं।
सस्ते भी होते
हैं, सुविधापूर्ण
भी होते हैं, सांप्रदायिक
भी होते हैं, भीड़ के अंग
होते हैं, परंपरा
के समर्थक
होते हैं, रूढ़ि-अंधविश्वासों
के हिमायती
होते हैं, तुम्हारी
जिंदगी में
कोई क्रांति
लाने की झंझट
भी खड़ी नहीं
करते, सिर्फ
सांत्वना
देते हैं; घाव
हो तो एक फूल
रख देते हैं
घाव पर कि फूल
दिखाई पड़े, घाव दिखायी
पड़ना बंद हो
जाये। इलाज तो
नहीं करते।
इलाज तो कैसे
करेंगे? इलाज
तो अपने घावों
का भी अभी
नहीं किया है।
ब्रह्मणेहि
म जाणन्त भेउ।
एवइ
पढिअउ एच्चउ
वेउ।।
मट्टी
पाणी कुस लइ
पढ़न्त।
घरहि
वइसी अग्गि
हुणन्त।।
कज्जे
विरहइ हुअवह
होमें।
अक्खि
डहाविअ कडुएं
धुम्में।।
"ब्राह्मण
भेद नहीं
जानते।' पंडितों
से सावधान
रहना। उन्हें
कुछ पता नहीं
है।
शास्त्रों का
पता है, शब्दों
का पता है, सत्य
की कोई
अनुभूति नहीं
है। ज्ञान
होगा उनके पास,
ध्यान नहीं
है। और जहां
ध्यान नहीं, वहां ज्ञान
कहां? ज्ञान
का धोखा होगा।
"वे
चारों वेद
पढ़ते हैं।' यह सच है।
सरहपा कहते
हैं: ब्राह्मण
भेद नहीं जानते।
वे चारों वेद
पढ़ते हैं, वे
चारों वेद
जानते हैं; मगर अभी
उनके अंतरवेद
का जन्म नहीं
हुआ, पांचवां
वेद अभी नहीं
जन्मा है। और
पांचवां ही
असली है।
एक
ईसाई मिशनरी
मुझे मिलने
आये। बात होती
थी। मैंने
उनसे पूछा कि
आपने फिफ्थ
गॉसपिल पढ़ी? उन्होंने
कहा: फिफ्थ
गॉसपिल!
क्योंकि
ईसाइयों की तो
चार ही
धर्म-किताबें
हैं। मैंने
पूछा: पांचवीं
धर्म-किताब
पढ़ी? उन्होंने
कहा: पांचवीं
धर्म-किताब!
सुनी ही नहीं,
पढ़ेंगे
कहां से? चार
ही तो
धर्म-किताबें
हैं। जैसे
हिंदुओं के चार
वेद हैं, ऐसे
ईसाइयों की
चार गॉसपिल
हैं, चार
सु-समाचार।
तो मैंने
उनसे कहा कि
वे चार बेकार
हैं; जब तक
पांचवीं न
पढ़ोगे उन
चारों को समझ
भी न सकोगे।
उन्होंने कहा:
पांचवीं
लेकिन सुनी ही
नहीं। मैंने
कहा: पांचवीं
सुनने की बात
ही नहीं है और
पढ़ने की बात
भी नहीं है, पांचवीं
तुम्हारे
भीतर है और जब
तक भीतर से जन्म
न हो...।
"वेद'
शब्द आया है
विद से। विद
का अर्थ होता
है जानना, ज्ञान।
जब तक विद
पैदा न हो, तब
तक वेद से
तुम्हारा कोई
परिचय न हो
सकेगा। तुम रट
लो तोतों की
तरह, तोते
भी दोहरा सकते
हैं। अब तो
यंत्र हैं, यंत्र दोहरा
देंगे--तुमसे
ज्यादा अच्छे
ढंग से दोहरा
देंगे।
स्मृति
ज्ञान नहीं है
स्मरण रहे।
ज्ञान अनुभव
का नाम है।
"ब्राह्मण
भेद नहीं
जानते, वे
चारों वेद
पढ़ते हैं। वे
हाथ में
मिट्टी, कुश
और जल लेकर
मंत्र पढ़ते
हैं और घर
बैठे आग में
घी डालते रहते
हैं। होम करने
से मोक्ष मिले
न मिले, कडुआ
धुआं लगने से
आंखों को पीड़ा
अवश्य होती
है।' बस
इतना ही होता
है, कुछ और
मिलता नहीं, आंखों को
व्यर्थ पीड़ा
देते हैं। कोई
वेद को पढ़-पढ़कर
आंखें खराब कर
लेता है, कोई
आग में धुआं
पैदा कर-करके,
घी
डाल-डालकर।
मगर हम इन्हीं
के पीछे चलते
रहते हैं, जिनकी
खुद की आंखें
अभी ठीक नहीं
हैं, जिनकी
खुद की आंखें
कडुवे धुएं से
भरी हैं। हम
अंधों के पीछे
चलते रहते
हैं। और मजा
ऐसा है कि
हमें अंधों के
पीछे चलना
सुगम मालूम
पड़ता है। उसका
भी कारण है, क्योंकि हम
भी अंधे हैं, वे भी अंधे
हैं; हम
दोनों के बीच
तालमेल हो
जाता है।
आंखवाले के
पीछे चलने में
हमें बड़ी अड़चन
होती है, क्योंकि
तालमेल नहीं
होता।
आंखवाला हम से
समझौता कर ही
नहीं सकता; करना हो तो
हम ही को
समझौता करना
पड़े। यह तो पक्की
बात है। अगर
आंखवाले के
साथ अंधा
चलेगा तो
आंखवाला अंधे
से समझौता
नहीं कर सकता।
अंधा कहेगा कि
यहां से चलें,
यहां
दरवाजा मालूम
होता है।
आंखवाला कहेगा,
तू चुप
बकवास बंद कर,
तुझे क्या
पता दरवााजे
का? दरवाजा
मुझे दिखाई पड़
रहा है। तू
जहां बता रहा
है वहां दीवाल
है। सिर
फोड़ेगा।
आंखवाला
अंधे से
समझौता नहीं
कर सकता।
सरहपा ने किसी
से समझौता
नहीं किया--न
बुद्ध ने, न क्राइस्ट
ने, न
मुहम्मद ने।
आंखवाला कैसे
समझौता करे? यह मत समझना
कि आंखवाला
जिद्दी होता
है। आंखवाला
आंखवाला है, यह उसकी
मुश्किल है।
उसे दिखाई पड़
रहा है। लेकिन
अंधों को इससे
नाराजगी होती
है। अंधे कहते
हैं: कम से कम
फिफ्टी-फिफ्टी।
तुम हमारी आधी
मानो, आधी
हम तुम्हारी
मानें, कुछ
तो हमारी मानो,
कि हम बिलकुल
ही बेकार? कुछ
हमारे अहंकार
को थोड़ी
तृप्ति तो दो।
चलो, चार
बातें हम
तुम्हारी मान
लेते हैं, चार
तुम हमारी मान
लो।
पंडित
मानने को राजी
है। पंडित
झुकने को राजी
है। तुम जो
कहो, पंडित
वैसा करने को
राजी है, क्योंकि
पंडित तुम पर
निर्भर है।
पंडित तुम्हारे
सहारे जीता
है। तुम कहो
कि घंटी ऐसी
बजाओ तो वैसी
बजा देगा।
मेरे
सामने एक
ज्योतिषी
रहते थे एक
गांव में। जिसकी
गांव में कोई
भी कुंडली न
मिला सके विवाह
इत्यादि के
समय, वे उसकी
मिला देते थे।
मैंने उनसे
पूछा कि आप गजब
के ज्योतिषी
मालूम होते
हैं, क्योंकि
मैं देखता हूं
आपके पास
सिर्फ ऐसे ही
मरीज आते हैं
जिनका कहीं
इलाज नहीं, जिनकी कोई
कुंडली मिला
नहीं सकता; सब ब्राह्मण
कह देते हैं
कि भाई इनकी
कुंडली नहीं
मिलती, यह
विवाह नहीं हो
सकेगा।
उन्होंने
मुझसे कहा: अब
आप से क्या
छिपाना, जो
फीस चुकाने को
राजी है, हमें
क्या
लेना-देना
कुंडली से, हम मिला ही
देते हैं। फीस
चुकाने को
राजी होना
चाहिए। फीस
हमारी ज्यादा
है। जहां
दूसरे एक रुपये
में मिला देते
हैं वहां हम
पांच में मिलाते
हैं, मगर
हम ऐसी मिला
देते हैं
जिनको कोई
दुनिया में न
मिला सके।
मिलाना अपने
हाथ में है
फीस चुकनी
चाहिए। हमें लेना-देना
क्या है?
और
फिर वे कहने
लगे कि जिनकी
कुंडली
मिल-मिलकर भी
विवाह होता है, वे भी कहां
मिल पाते हैं?
तो झंझट में
पड़ने से सार
भी क्या है? कितनी तो
कुंडली
मिल-मिलकर
विवाह होते
हैं, दुनिया
में सभी विवाह,
कम-से-कम इस
देश में तो
कुंडली मिलकर
ही होते हैं, मगर कौन मिल
पाता है!
पति-पत्नी में
ऐसी कलह चल रही
है, इससे
सारी
कुंडलियां
गलत सिद्ध हो
चुकी हैं, फिर
भी तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता!
पति-पत्नी में
सिवाय कलह के
कुछ भी नहीं
हो रहा है।
चाहे कुंडली
कितनी ही मिली
हो, मिलन
कहां है!
तो
मैंने कहा: यह
बात तो मुझे
भी पसंद पड़ी।
तो फिर हर्ज
ही क्या है, पांच रुपये
अपने को भी
मिल गये, इस
बेचारे की भी
झंझट मिटी।
इसकी भी
कुंडली मिल
गयी, हमारा
भी फायदा है, इसका भी
फायदा
है--फायदा ही
फायदा है, नुकसान
कुछ मालूम
होता नहीं।
वह
जो पंडित है, पुरोहित है,
वह तुमसे
समझौता
करेगा। वह भी अंधा
है। और यही
अड़चन है।
मैं
तुमसे समझौता
नहीं कर सकता।
एकतरफा सौदा करना
होगा। समझौता
करना हो तो
तुम्हीं को
करना होगा।
मैं तो जैसा
जी रहा हूं
वैसा ही जीऊंगा, रत्ती भर
भेद नहीं कर
सकता। लेकिन
शिष्य चाहता
है कि गुरु
कुछ हमारी भी
मान कर चले।
बड़ी तरकीब से
चाहता है कि
हम जैसा कहें
वैसा उठे, वैसा
बैठे।
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं। वे
कहते हैं:
आपको यह बात
नहीं कहनी
चाहिए थी।
मैंने कहा:
तुम मुझे बताने
वाले कौन, कि क्या
मुझे कहना
चाहिए क्या
मुझे नहीं
कहना चाहिए।
नहीं, वे कहते हैं
कि इसका समाज
में बुरा
परिणाम होगा,
लोग आपके
विरोध में हो
जायेंगे, कि
कोई आपके
दुश्मन हो
जायेंगे।
अगर
सत्य बोलना हो
तो न मालूम
कितने लोगों
को दुश्मन
बनाना ही
होगा। अगर
किसी को
दुश्मन न बनाना
हो तो फिर झूठ
पर राजी रहना
चाहिए, तो
कोई दुश्मन
नहीं होगा।
झूठ बड़ा मीठा
मालूम होता
है। है जहर
लेकिन शक्कर
चढ़ा हुआ है; बड़ा मीठा
मालूम होता
है। सत्य बड़ा
कड़वा मालूम होता
है।
इसलिए
अंधे अंधों के
पीछे चलना
आसान पाते हैं; क्योंकि
उनसे
तुम्हारा
तालमेल होता
है। तुम कहते
हो आपको ऐसे
उठना चाहिए, मुंह पर
पट्टी बांधनी
चाहिए--तो वे
मुंह पर पट्टी
बांधते हैं।
आपको एक ही
बार भोजन करना
चाहिए, त्यागी
को, तो वे
एक ही बार
भोजन करते हैं,
चाहे एक ही
बार इतना भोजन
कर लेते हैं
कि दिन-भर
परेशान रहते
हैं।...कि आपको
रात पानी नहीं
पीना चाहिए, तो वे इतना
पानी पी लेते
हैं शाम को कि
रात-भर के लिए
निपटारा हो
जाये। जो तुम
कहते हो, उससे
उन्हें
समझौता करना
पड़ता है। और
तब तुम उन्हें
गुरु मानते
हो। तब उनके
पैर छूते हो
तुम। यह बड़ा
पारस्परिक
लेन-देन चल
रहा है।
सूक्ष्म रूप
से वे
तुम्हारे पैर
छू रहे हैं, और स्थूल
रूप से तुम
उनके पैर छू
रहे हो।
यहां
शिष्य ही गुरु
के पीछे नहीं
चल रहे हैं, यहां गुरु
भी शिष्यों के
पीछे चल रहे
हैं। यहां हर
नेता अपने
अनुयायियों
के पीछे चल
रहा है।
अनुयायियों के
पीछे चलना ही
पड़ता है नेता
को। नेता
देखता रहता है
अनुयायी किस
तरफ जा रहा है,
उचककर उसके
आगे हो जाता
है, जिस
तरफ जा रहा
हो। अनुयायी
अगर कहने लगे
समाजवाद, तो
नेता समाजवाद
की जय बोलने
लगता है। अगर
अनुयायी कहने
लगे साम्यवाद
तो नेता
साम्यवाद की
जय बोलने लगता
है। उसे मतलब
नहीं है; उसे
मतलब सिर्फ एक
बात से है कि
तुम जो बोलो, मैं उसे
ज्यादा जोर से
बोलूंगा। मैं
तुम्हारे आगे
हूं। बस इतना
भर पक्का रहे
कि मैं तुमसे आगे
हूं।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन बजार से
अपने गधे पर
बैठा जा रहा
है, तेजी से!
किसी ने पूछा
कि नसरुद्दीन,
बड़ी तेजी से
जा रहे हो, कहां
जा रहे हो? उसने
कहा: भई गधे से
ही पूछ लो, क्योंकि
यह गधा बड़ा
जिद्दी है और
बीच बजार में
भद्द करवा
देता है। अगर
मैं इसको
बायें ले जाऊं
तो नहीं
जायेगा और
जहां इसने
बजार देखा, लोग देखे, फिर तो यह
बड़ी अकड़ में आ
जाता है, बड़े
तैश में आ
जाता है। तो
पहले जब
नया-नया लिया
था, तब तो
मैं यह भूल कर
लेता था कि
इसको जहां ले
जाना है वहां
ले जाने की
कोशिश करता
था। उसमें गांव
में हंसी होती,
बजार में
लोग कहते कि अरे
मुल्ला, तुम्हारा
गधा और
तुम्हारी
नहीं मानता!
और जितनी मेरी
भद्द होती
उतना यह अकड़ता
जाता। अब मैंने
एक तरकीब सीख
ली है: जैसे ही
बाजार आया कि
मैं इसे छोड़
देता हूं लगाम
को, चलो
बेटा, जिस
तरफ जाओ वहीं
मुझे जाना है।
अब देखें कि कैसे
तुम बगावत
करते हो! इसीसे
पूछ लो कहां
जा रहा है।
गांव के बाहर
जाकर फिर मैं
इसको रास्ते
पर लगाऊंगा, मगर अभी तो
मुझे इसके साथ
ही जाना
पड़ेगा। यह भीड़-भाड़
देखकर बड़ा
उत्सुक हो
जाता है रौब
जमाने में!
नेतागण
अनुयायियों
के पीछे चलते
हैं। आगे झंडा
लिये दिखाई
पड़ते हैं, लेकिन उनकी
नजर पीछे लगी
रहती है कि
जनता किस तरफ
जा रही है, पूरब
कि पश्चिम? होशियार
नेता उसी को
कहा जाता है, जो समय रहते
रास्ता बदल
ले। उन्हीं को
तो आया-राम
गया-राम...। समय
रहते देख ले
कि अब आदमी
कहां जा रहे
हैं। देखा
बाबू
जगजीवनराम को,
आया-राम
गया-राम...देख
लिया कि जनता
कहां जा रही
है, जल्दी
से उचककर आगे
हो जाओ अगर
अपना नेतृत्व
बचाना है।
अंधे
अंधों से
समझौता
करेंगे, आंखवाले
समझौता नहीं
कर सकते। और
इसलिये आंख वाले
के पीछे केवल
वे ही साहसी
लोग चल सकते
हैं, जिन्होंने
तय किया है कि
पूरा समर्पण
करेंगे, कोई
अपेक्षा न
रखेंगे।
जइ
नग्गा विअ होइ
मुत्ति ता
सुणइ सिआलह।
लोम
पारणें अत्थि
सिद्धि ता
जुवइ
णिअम्बह।।
"यदि
नग्न हो जाने
से मुक्ति
मिलती हो तो
सियार, कुत्तों
को पहले ही
मुक्त हो जाना
चाहिए।' यह
जैन मुनियों
के लिए कहा
होगा कि अगर
नग्न रहने से
मुक्ति मिलती
हो तो सियार, कुत्तों को
पहले ही मुक्त
हो जाना
चाहिए। "और
केवल
केश-लुंचन से
मुक्ति मिलती
हो तो नितंबों
को मुक्ति
मिलनी चाहिए,
जिनका
लोमोत्पाटन
होता रहता है।'
नितंबों
पर तो केश
नहीं जम पाते, क्योंकि
नितंब घिसटते
रहते हैं जमीन
में, फिर
उठे, फिर
बैठे, घिसटते
ही रहे तो
नितंब पर कभी
भी केश नहीं
जम पाते, तो
नितंबों की तो
मुक्ति हो
जानी चाहिए।
देखते
हो ये वचन! ये
आग्नेय वचन, अंगार-भरे
वचन!
केश-लुंचन से
मुक्ति नहीं
होगी। जैन
मुनि केश
उखाड़ते हैं, लोचते हैं।
तुम्हारे पास
जो एक गाली है
नंगा-लुच्चा,
वह सबसे
पहले महावीर
के लिए प्रयोग
किया गया शब्द
है। क्योंकि
वे नग्न रहते
थे और केश
लोंचते थे।
"लुच्चा!' धीरे-धीरे
कब गाली बन
गयी, कहना
मुश्किल है।
शब्दों
की भी बड़ी
यात्रायें
होती हैं। कभी
अच्छे शब्दों
के भी बुरे
दिन आ जाते
हैं। कभी बुरे
शब्दों के भी
अच्छे दिन आ
जाते हैं। कभी
घूरों के भी
दिन फिरते
हैं। तो कभी
जो गालियां
होती हैं, सम्मान-सूचक
हो जाती हैं।
और कभी जो
सम्मान-सूचक
शब्द होते हैं,
गालियां हो
जाते हैं।
सबसे पहले
महावीर के लिए
उपयोग किया
गया होगा
नंगा-लुच्चा।
तब इसमें गाली
नहीं थी। तब
तो सिर्फ यह
तथ्य था कि वे
नग्न रहते थे
और बाल लोंचते
थे। फिर जल्दी
ही यह गाली हो
गयी। फिर इसके
अर्थ बदलते
चले गये! अब तो
लोग भूल ही
गये कि यह कभी
जैन दिगंबर मुनियों
के लिए प्रयोग
किया गया शब्द
था। अब तो नंगा-लुच्चा
हम उसको कहते
हैं, जिसके
पास कुछ नहीं
है और दूसरे
का छीनने को, लोंचने को
तैयार है।
अपना तो कुछ
है नहीं, दूसरे
का लोंचने के
लिए उत्सुक
है। उसको हम
नंगा-लुच्चा
कहते हैं। अब
बात बदल गयी।
"बुद्धू'
शब्द पहले
बुद्ध के साथ
जुड़ा था। तब
तो उनको हम
बुद्धू कहते
थे, जो छोड़
दिए सब और
जाकर बैठ गये
विश्राम
में--पर्वतों
में, वृक्षों
के तले, मौन
में शांति
में! बुद्धू
हो गये! बौद्ध
हो गये! फिर यह
धीरे-धीरे
गाली हो गयी।
गाली का मतलब
यह हो गया कि
इन्हें कुछ भी
अक्ल नहीं है।
संसार का कुछ
इनको आता नहीं
है, बुद्धू
है। संसार को
छोड़ने वाले को
पहले हमने बुद्धू
कहा था, फिर
धीरे-धीरे जो
संसार में हैं,
लेकिन
जिनसे संसार
सम्हलता नहीं,
जिन्हें कोई
भी लूट ले, खसोट
ले, जिन्हें
कोई भी धोखा
दे दे, बेइमानी
कर दे, कोई
उनकी जेब काट
ले, कोई
उनका सामान ले
जाये, उनको
कुछ अकल नहीं
है। संसार
नहीं सम्हाल
पाते तो उनका
नाम बुद्धू हो
गया।
अच्छे
शब्दों के दिन
फिर गये, बुरे
हो गये।
कभी-कभी बुरे
शब्दों के भी
दिन फिरते
हैं। जैसे
गणेश जी! सबसे
पहले रूप बड़ा
विकृत था।
उनकी पूजा
सबसे पहले
इसलिए शुरू
हुई कि वे
विघ्नकारी
देवता थे। अगर
उनकी पूजा न
करो तो वे
विघ्न करते थे
खड़ा। जैसे
शादी-विवाह हो
रहा है, अगर
तुमने उनकी
पूजा न की तो
वे उपद्रव
मचायेंगे। अब
जो उपद्रव करे
उसकी तो पहले
पूजा करनी ही
पड़ती
है--उपद्रव से
सुरक्षा के
लिए। तो सबसे
पहले रूप गणेश
का था उपद्रवी
का, झंझटी
का, अराजक
का, विघ्नकारी
का; फिर
धीरे-धीरे वे
मंगल के देवता
हो गये। अब तो कोई
भी मंगल कार्य
उनके बिना
शुरू नहीं
होता। श्रीगणेश
का अर्थ ही
होता है: मंगल
शुरुआत।
विघ्नकारी
देवता मंगल का
देवता हो गया!
दिन बदल गये।
धीरे-धीरे
पूजा लोगों ने
इतनी की--करनी
ही पड़ी, क्योंकि
जो आदमी
उपद्रव करे
उसको
मना-बुझाकर रखना
अच्छा--धीरे-धीरे
लोग भूल ही
गये कि विघ्नकारी
की पूजा कर
रहे हैं। यह
बात जुड़ गयी
कि सबसे पहले
पूजा गणेश की
होती है।
इसलिए वे मंगल
के देवता हो
गये।
यदि
नग्न होने से
मुक्ति मिलती
हो तो फिर
जानवर सभी
मुक्त हो
जायें। और अगर
बाल लोंचने से
मुक्ति मिलती
हो तो नितंब
मुक्त ही होने
चाहिए। यह
मजाक कर रहे
हैं सरहपा। वे
कह रहे हैं:
इतनी छोटी
बातों से
मोक्ष का कोई
संबंध नहीं है।
इतनी ओछी
बातों से
मोक्ष का कोई
संबंध नहीं
है।
पिच्छी
गहणे दिट्ठि
मोक्ख ता मोरह
चमरह।
उंछें
भोअणें होइ
जान ता करिह
तुरंगह।।
"यदि
पिच्छी ग्रहण
करने से
मुक्ति मिलती
हो तो मोर को
पहले ही मुक्त
हो जाना
चाहिए।' मुनि
मोर की बनी
हुई
पिच्छियां
रखते हैं। अगर
पिच्छी रखने
से मोक्ष
मिलता हो तो
मोर तो पिच्छियों
के साथ ही
पैदा होते हैं,
पिच्छियों
के साथ ही
मरते हैं, उनका
तो मोक्ष कभी
का हो जाना
चाहिए।
"यदि
उच्छ भोजन से
मुक्ति मिलती
हो तो
हाथी-घोड़े
मुक्ति के
पहले अधिकारी
हैं।' उच्छ
भोजन का अर्थ
होता है: दाने
जो गिर जाते
हैं खेतों में,
उनको
चुन-चुनकर जो
भोजन करता है।
ऐसे लोग रहे।
बड़े दार्शनिक
कणाद का नाम
लिया जा सकता
है। उनका नाम
ही कणाद पड़
गया, क्योंकि
वे कण-कण
बीनकर खाते
थे। खेतों में
जो पड़ जाते
हैं दाने, गिर
जाते हैं दाने,
वही बीनकर
खाते थे।
सरहपा कह रहे
हैं कि अगर
ऐसा होता तो
पक्षी भी दाने
बीनकर खाते
हैं, पशु
भी दाने बीनकर
खाते हैं, इनका
मोक्ष हो
जाता।
प्रयोजन
इतना है सिर्फ
कि ये
औपचारिकतायें
हैं, इनको
नियम मत समझो।
ये
क्रिया-कांड
हैं, इनको
धर्म का प्राण
मत समझो। धर्म
का प्राण कुछ
और है।
सुलगना
और जीना, यह
कोई जीने में
जीना है।
लगा
दे आग अपने
दिल में
दीवाने धुआं
कब तक?
ये
सब धुआं ही
धुआं की बातें
हैं। धर्म तो
आग है। ये
औपचारिक
बातें तो
सिर्फ धुआं
हैं। हां, आग से धुआं
उठता है, लेकिन
तुम धुएं को
ले जाओ अपने
घर में तो यह
मत समझना कि
आग आ जायेगी।
इस बात को
खयाल में रखना।
आग हो तो धुआं
उठता है, लेकिन
धुआं होने से
आग पैदा नहीं
हो जाती है।
महावीर
ज्ञान को
उपलब्ध हुए, नग्न हो
गये। ज्ञान की
अग्नि से नग्न
होने का धुआं
उठा, लेकिन
नग्न होने से
तुम ज्ञानी न
हो जाओगे। इस
बात को खयाल
में रखना।
महावीर को
ज्ञान उपलब्ध
होने के बाद
ऐसी
निर्दोषता आ
गयी जैसे छोटे
बच्चों में
होती है
वस्त्र गिर
गये। छोड़े
नहीं, गिर
गये। त्यागे
नहीं, छूट
गये। कुछ
छिपाने को न
रहा। देह का
भाव जाता रहा।
फिर कौन
स्त्री, फिर
कौन पुरुष? लाज-शंका सब
जाती रही। सरल
हो गये। जैसे
छोटा बच्चा
नग्न खड़ा होता
है, उसे
पता भी नहीं
होता कि वह
नग्न है, ऐसे
महावीर हो
गये। मगर
ज्ञान पहले
घटा। यह ज्ञान
के साथ सहज ही
आयी छाया है।
अब तुम उल्टा
कर रहे हो।
तुम कह रहे हो
हम नग्न खड़े
हो जायें इससे
ज्ञान घट
जायेगा, तो
तुम धुआं ला
रहे हो घर में
और सोच रहे हो
आग आ जायेगी!
ले आओ धुआं, मोहल्ले-भर
का सारा धुआं
निमंत्रित कर
लो, तो भी
आग पैदा नहीं
हो पायेगी।
धुएं के अंबार
लग जायें तो
भी आग पैदा
नहीं होगी।
मूल
कारण पहले आना
चाहिए, फिर
उपपत्तियां
अपने-आप आ
जाती हैं। ये
सारे जीवन-व्यवहार
परिणाम हैं।
जिनको ज्ञान
उत्पन्न हो
गया, वे
अहिंसक हो
गये। अहिंसक
होने से किसी
भी जीव की
हिंसा न हो, इसकी
उन्होंने
चेष्टा की। तो
जैन मुनि अपने
साथ पिच्छी
रखता है।
पिच्छी का
अर्थ है कि
जहां भी
बैठेगा, वहां
पहले पिच्छी
से साफ कर
लेगा। मोर के
पंख से बनाई
गई कि चींटी
भी मरेगी नहीं,
हटाए जाने
पर भी मरेगी
नहीं। मोर के
पंख से और
कोमल क्या मिल
सकेगा? उन
दिनों तो
कम-से-कम नहीं
ही मिल सकता
था, तो जो
कोमलतम था
उसकी पिच्छी
बना ली है।
उसको साथ लेकर
चलता है कि
कहीं बैठूंगा,
खड़ा होऊंगा,
तो साफ कर
लूंगा। कोई
कीड़ा कोई
चींटी भी न मर
जाए, इतनी
हिंसा भी न
हो।
अगर
भीतर ध्यान
पैदा हुआ तो
बाहर प्रेम
पैदा होता है।
फिर ठीक है
पिच्छी लेकर
चलो। लेकिन
कोई सोचता हो
कि शानदार पिच्छी
बनवा ली, सबसे
बढ़िया-से-बढ़िया
मोर के पंखों
से बनवा ली, चले लेकर, अब बस मोक्ष
तय है--इतना
आसान नहीं है।
बात को समझ
लेना।
सरहपा
यह नहीं कह
रहे हैं कि
ऐसा मत करो।
सरहपा यह नहीं
कह रहे हैं कि
वेद मत पढ़ो।
सरहपा यह नहीं
कह रहे हैं कि
नग्न मत रहो।
सरहपा यही कह
रहे हैं कि
पहले भीतर की
घटना घटने दो, फिर बाहर की
घटनायें
अपने-आप घट
जाती हैं, वे
परिणाम हैं।
नहीं तो तुम
व्यर्थ की
औपचारिकताओं
में, क्रिया-कांडों
में ही अपना
जीवन नष्ट कर
दोगे।
वोह
दैर-ओ-कलीसा
हो, या
काबा-ओ-बुतखाना।
कुछ
पर्दे हैं, कुछ धोके, कुछ
शोब्दा-गाहें
हैं।
फिर
तुम चाहे
मंदिर जाओ, चाहे मस्जिद,
चाहे गिरजा,
वहां फिर
कुछ
औपचारिकतायें
हैं, क्रिया-कांड
हैं। कुछ
पर्दे हैं, कुछ धोके, कुछ
शोब्दा-गाहें
हैं। फिर वहां
तुम व्यर्थ के
जाल में ही
उलझ रहोगे।
जागना है जिसे,
उसे
मंदिर-मस्जिद
और उनसे पैदा
होने वाली औपचारिकतायें
सब छोड़ देनी
होंगी।
खड़े
हैं दुराहे पै
दैरो-हरम के।
तेरी
जुस्तजू में
सफर करने
वाले।
जिन्हें
तेरी तलाश है
वे न तो मंदिर
जाते न मस्जिद; वे दोनों के
दुराहे पर खड़े
हैं। जहां से
मंदिर और
मस्जिद अलग
होते हैं, वहीं
रुक जाते हैं।
क्योंकि जहां
मंदिर-मस्जिद
अलग हुए वहां
गलती हुई, झूठ
हुआ। जहां
मंदिर और
मस्जिद एक हैं,
वहां सत्य
है। जहां
मंदिर-मस्जिद
अलग हैं वहीं
गलती है। जहां
हिंदू-मुसलमान
एक हैं वहां
सत्य है। और
जहां हिंदू-मुसलमान
अलग-अलग हैं, वहां सत्य
के खोजी को
कोई जगह न
रही। खड़े हैं
दुराहे पै
दैरो-हरम के!
मंदिर और
मस्जिद जहां से
अलग होते हैं
उसी दुराहे से
सत्य का खोजी
परमात्मा की
तलाश में निकल
जाता है। तेरी
जुस्तजू में
सफर करने
वाले!
सत्य
तो मिल सकता
है, काश! हम
व्यर्थ की
औपचारिकतायें
छोड़ दें।
अगर
मैं
नाकामे-दीद मर
जाऊं अपने
कूचे में ढूंढ
लेना।
वहीं
कहीं खाको-खूं
में गलतां
मेरी तमन्ना
पड़ी मिलेगी।
बऱ्होश-हवास
ऐ
मुसाफिर-राहे
जिंदगी! यह
वोह रास्ता है
जहां
तुझे रहबरी की
सूरत में
जा-बजा रहजनी
मिलेगी।
धर्म
के रास्ते पर
जो तुम्हें
मार्गदर्शक
मिलें, जरा
सावधान होकर
चुनना, क्योंकि
यह वह रास्ता
है--जहां तुझे
रहबरी की सूरत
में जा-बजा
रहजनी मिलेगी!
यहां
मार्ग-दर्शन
देने के नाम
पर लुटेरे खड़े
हैं। यहां
मंदिर-मस्जिद
के नाम पर
शोषण चल रहा
है। यहां
सच्चे के नाम
पर झूठ ने बड़े
आयोजन कर लिए हैं।
झूठे सिक्के
बाजार में
गतिमान हैं।
बहुत
होशपूर्वक
जीयोगे, सोच-सोचकर
कदम रखोगे, तो ही शायद
सदगुरु से
मिलना हो पाए।
और तो ही शायद
औपचारिकताओं
और
क्रिया-कांड
में जिंदगी समाप्त
न हो। पांचवां
वेद जो पढ़ा दे,
ग्यारहवीं
दिशा में जो
लगा दे...दस
दिशायें बाहर
हैं, ग्यारहवीं
दिशा भीतर
है...जो
तुम्हें
तुम्हारे मूल
उत्स से मिला
दे, उसके
साथ अपने को
जोड़ लेना। और
फिर भी सरहपा
कहते हैं:
उसके साथ जुड़
जाने से ही
कुछ न होगा।
मेरे
पास कुछ लोग आ
जाते हैं। एक
मित्र हमेशा आते
हैं। वे आकर
पैर छूकर कहते
हैं कि बस
आशीर्वाद दे
दें, बस आपका
आशीर्वाद मिल
गया कि सब हो
गया। मैंने
उनसे कहा कि
आशीर्वाद तुम
कम-से-कम आठ-दस
साल से ले रहे
हो, अभी तक
कुछ हुआ नहीं?
उन्होंने
कहा कि
नहीं-नहीं, सब हो ही
जायेगा जब
आपका
आशीर्वाद है।
मैंने कहा: दस
साल हो गये, मेरा
आशीर्वाद दस
साल से दे रहा
हूं, क्या
तुम्हें शक है
कि आशीर्वाद
नहीं दे रहा
हूं? मगर
कुछ होता
दिखाई नहीं पड़
रहा है। औषधि
कब लोगे? आशीर्वाद
ही लेते
रहोगे!
औषधि
लेने की
तैयारी नहीं
है। आशीर्वाद
मुफ्त मिल
जाता है। औषधि
में तो फिर
पथ्य भी होगा, औषधि कड़वी
भी हो सकती
है। कड़वी ही
होगी! और औषधि
के साथ फिर
नियम होगा, अनुशासन
होगा। नहीं, वे कहते हैं
कि आपका
आशीर्वाद
काफी है, और
क्या करना है
मुझे? जब
आप मिल गये तो
सब मिल गया!
सरहपा
कहते हैं:
इतने से कुछ
भी न होगा।
"वृक्ष में
लगा हुआ फल
देखना, उसकी
गंध लेना नहीं
है। वैद्य
देखने मात्र
से क्या रोग
दूर हो जाता
है?'
सदगुरु
भी मिल जाए तो
फिर उसकी औषधि
अंगीकार करना।
वह जो मार्ग
दिखाये उस पर
चलना। वह जो
उपचार दे उसे
अपना जीवन
बनाना, तो
एक दिन
तुम्हारे
भीतर प्रकाश
होगा। तो एक दिन
मेघ घिरेंगे
आनंद के, समाधि
के! तुम पर
वर्षा होगी
अमृत की।
बरसो, बरसो घन
पावस के!
उमड़ो, गरजो, बरसो
रिम-झिम, नर्तन-रत
पायल सम
झिम-झिम
पोषण-रस-पूरित
जल
बरसो
बरसो
अमृत सम
जल
बरसो!
बरसो, बरसो घन
पावस के!
खेतों
में
अन्नांकुर
फूटें
सुषमा
हरीतिमा
बन
फूटे,
हर
ओर
खुले
मैदानों में
हरियाली
की
चादर
फैले!
सिंचित, पुलकित,
उत्साहित
हो,
धरती
अपनी
वैभव
उगले!
बरसो, बरसो घन
पावस के!
पीड़ायें
सोयें,
शांति
जगे,
प्रति
पीड़ित जीव
उल्लसित
हो,
मानव-मन
हुलसे,
रस
बरसे
अंतर
के
कोने-कोने
में!
जल-गीत
छिड़े,
जीवन
विहंसे
वसुधा
के
कोने-कोने
में
बरसो, बरसो घन
पावस के!
उमड़ो, गरजो, बरसो
रिम-झिम
नर्तन-रत
पायल सम
झिम-झिम!
पोषण-रस-पूरित
जल
बरसो,
बरसो
अमृत सम
जल
बरसो!
बरसो, बरसो घन
पावस के!
घिर
सकते हैं मेघ।
घिरे ही हैं!
तुम्हारी ठीक-ठीक
पुकार उठ जाये, तुम्हारे
भीतर
प्रार्थना जग
जाए, तुम्हारे
भीतर सम्यक
साधना की
यात्रा शुरू हो
जाये--तो अमृत
बरसे। नहाओ
तुम शाश्वत
में! जानो तुम
उसे, जिसे
बिना जाने
जीवन व्यर्थ
है। और जिसे
जानते ही जीवन
में परम
तृप्ति, परितोष
उत्पन्न होता
है।
सरहपा
के सूत्र
साफ-सुथरे
हैं। पहले वे
निषेध करेंगे।
जो-जो औपचारिक
है, गौण है, बाह्य है, उसका खंडन
करेंगे; फिर
उस नेति-नेति
के बाद जो
सीधा-सा सूत्र
है वज्रयान का,
सहजऱ्योग, वह तुम्हें
देंगे। सरल-सी
प्रक्रिया है
सहजऱ्योग की,
अत्यंत सरल!
सब कर सकें, ऐसी।
छोटे-से-छोटा
बच्चा कर सके,
ऐसी। उस
प्रक्रिया को
ही मैं ध्यान
कह रहा हूं।
यह
अपूर्व
क्रांति
तुम्हारे
जीवन में घट
सकती है, कोई
रुकावट नहीं
है सिवाय
तुम्हारे।
तुम्हारे
सिवाय न कोई
तुम्हारा
मित्र है, न
कोई तुम्हारा
शत्रु है।
आंखें बंद
किये पड़े रहो
तो तुम शत्रु
हो अपने, आंख
खोल लो तो
तुम्हीं
मित्र हो।
जागो!
वसंत ऋतु
द्वार पर
दस्तक दे रही
है। फूटो!
टूटने दो इस
बीज को। तुम
जो होने को हो
वह होकर ही
जाना है। कल
पर मत टालो।
जिसने कल पर
टाला, सदा
के लिए टाला।
अभी या कभी
नहीं! यही
वज्रयान का
उदघोष है।
आज इतना
ही।
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