दिनांक
24 जून 1976;
श्री
ओशो आश्रम
पूना।
प्रश्नसार:
प्रथम
प्रश्न :
प्यारे
ओशो!
अंतर्यात्रा
प्रारंभ कैसे
की जाए? सेक्स के
अतिक्रमण
करने का ठीक—
ठीक क्या अर्थ
है?
यात्रा का
प्रारंभ तो
पहले ही से हो
चुका है, तुम्हें वह
शुरू नहीं
करना है।
प्रत्येक
व्यक्ति पहले
से यात्रा में
ही है। हमने
अपने आपको
यात्रा पथ के
मध्य में ही
पाया है। इसकी
न तो कोई
शुरुआत है और
न कोई अंत। यह
जीवन ही एक
यात्रा है। जो
पहली बात समझ
लेने जैसी है
वह यह है कि
इसे प्रारंभ
नहीं करना है,
यह हमेशा से
ही चली जा रही
है। तुम
यात्रा ही कर
रहे हो। इसे
केवल पहचानना
है।
अचेतन रूप
से तुम यात्रा
में ही हो, इसलिए
यह महसूस होता
है कि जैसे
मानो तुम्हें उसका
प्रारंभ करना
है। इसे
पहचानो, इसके
बारे में सचेत
हो जाओ केवल
पहचान ही शुरुआत
बन जाती है।
जिस क्षण यह
पहचान लेते हो,
कि तुम
हमेशा से ही
गतिशील हो, और कहीं जा
रहे हो, जाने—
अनजाने
इच्छापूर्वक
या
अनिच्छापूर्वक
लेकिन तुम चले
जा रहे हो. कोई
महान शक्ति
तुम्हारे
अंदर निरंतर
कार्य कर रही
है परमात्मा
ही तुममें खिल
रहा है। वह
निरंतर
तुम्हारे
अंदर कुछ न
कुछ सृजन कर रहा
है, इसलिए
ऐसी बात नहीं,
कि इसे कैसे
शुरू करें।
ठीक प्रश्न तो
यह होगा। इसे
कैसे पहचानें
7 वह तो
यहां है, लेकिन
वहां उसकी
पहचान न हो
सकी है।
उदाहरण
के लिए वृक्ष
मर जाते हैं
लेकिन वे इसे
नहीं जानते, पक्षी और
पशु मरते हैं,
लेकिन वे यह
नहीं जानते।
केवल मनुष्य
जानता है कि
उसे मरना है।
यह जानकारी भी
बहुत धुंधली
है। साफ नहीं
है। और ऐसा ही
जीवन के भी
साथ है। पक्षी
जीवित हैं
लेकिन वे नहीं
जानते कि वे जीवित
हैं क्योंकि
तुम जीवन को
कैसे जान सकते
हो, जब तक
तुम मृत्यु को
ही नहीं जानते।
तुम कैसे जान
सकते हो कि
तुम जीवित हो,
यदि
तुम्हें यह भी
नहीं मालूम कि
तुम मरने जा रहे
हो? दोनों पहचानें
साथ—साथ आती
हैं। वे जीवित
हैं, लेकिन
उन्हें यह
पहचान नहीं है
अपने जीवित होने
की। मनुष्य को
थोड़ी सी पहचान
है कि वह मरने
जा रहा है, लेकिन
यह पहचान बहुत
धुंधली
गहरे धुंवे
के पीछे छिपी
रहती है। और
इसी तरह जीवन
के बारे में
यह जानने कि
जीवित रहने का
अर्थ क्या
होता है। यह
भी बहुत
धुंधला सा है,
और स्पष्ट
नहीं है।
जब मैं
कहता हूं
पहचान, तो मेरे
कहने का अर्थ
है— ''सजग हो
जाना जीवन
ऊर्जा के
प्रति, कि
वह है क्या, जो इस पथ पर
पहले ही से है।’’
अपने
स्वयं के
अस्तित्व के
प्रति सजग
होना ही, इस यात्रा
का प्रारंभ है
और उस बिंदु पर
आना, जहां
आकर तुम पूरी
तरह होशपूर्ण
और सजग हो जाओ,
जहां
तुम्हारे
चारों ओर
अंधकार का कोई
छोटा सा टुकड़ा
भी न हो, और
यही तुम्हारी
यात्रा का अंत
है। लेकिन
वास्तव में
यात्रा न तो
कभी शुरू होती
है और न कभी
खत्म।
तुम्हें उसके
बाद भी यात्रा
जारी रखनी
होगी लेकिन तब
यात्रा का
पूरी तरह
भिन्न एक अलग
अर्थ होगा, पूरी तरह
आपके भिन्न
गुण होंगे, वह मात्र एक
आनंद होगी, ठीक अभी तो
वह एक पीड़ा के
समान है।
इस
यात्रा का
प्रारंभ कैसे
किया जाए? अपने
कार्यों के
प्रति अधिक
सजग होकर और
अपने सम्बन्धों
तथा
गतिविधियों
के बारे में
होशपूर्ण
होकर। जो कुछ
भी तुम करो
यहां तक कि
सड़क पर चलने
जैसा एक साधारण
कार्य भी उसके
प्रति भी सजग
होने की कोशिश
करो, पूरे
होश के साथ
अपना एक—एक
कदम उठाओ।
बुद्ध
अपने शिष्यों
से कहा करते
थे जब तुम अपने
दाहिने पैर के
साथ कदम उठाओ
तो स्मरण रखो
कि वह दाहिना
पैर है और जब
बाएं पैर के
साथ कदम उठे
तो याद रहे कि
वह बायां पैर
है। जब तुम
सांस लो तो
याद रहे— ''अब मैं साँस
बाहर फेंक रहा
हूं। ऐसा नहीं
कि तुम्हें
इसका मुंह से
उच्चारण करना
है।’’ मैं
सांस अंदर ले
रहा हूं— ''बस
केवल इसके
प्रति सजग हो
जाना है कि
सांस अंदर जा
रही है। मैं
तुम्हें यह
बता रहा हूं
इसलिए मुझे
शब्दों का
प्रयोग करना
पड रहा है।
लेकिन जब तुम
सजग हो जाते
हो, तो
तुम्हें
शब्दों के
प्रयोग करने
की जरूरत नही
रह जाती, क्योंकि
शब्द तो धुंवे
के समान हैं।
शब्दों का
प्रयोग मत करो,
केवल सांस
को अंदर जाते
और अपने
फेफड़ों में
भरते हुए
महसूस करो और
तब फेफड़ों के
सांस से खाली
होने का अनुभव
करो। बस केवल
निरीक्षण
करते रहो और
शीघ्र ही
तुम्हें इसकी
पहचान ही नहीं,
सघन
प्रतीति होने
लगेगी कि यह
केवल सांस ही
नहीं है जो
अंदर और बाहर
जा रही है, यह
स्वयं जीवन ही
है। प्रत्येक
सांस तुम्हारे
अंदर जीवन—ऊर्जा
उड़ेल रही
है और
प्रत्येक
बाहर जाती
श्वास एक छोटी
सी मृत्यु है।
प्रत्येक
सांस छोड़ने के
साथ ही
तुम्हारी मृत्यु
होती है और
फिर तुम्हारा
पुनर्जन्म
होता है।
प्रत्येक
सांस क्रूस पर
लटकने जैसी
मृत्यु है और
प्रत्येक
अंदर ली गई
सांस कब्र से
उठकर प्राप्त
किया गया
पुनर्जन्म है।’’
और जब
तुम इसका
निरीक्षण
करते हो तो
तुम्हें विश्वास
के एक सुंदर
अनुभव को
जानने का अवसर
मिलता है। जब
तुम सांस बाहर
फेंकते हो तब
यह सुनिश्चित
नहीं होता कि
तुम फिर से श्वास
अंदर लेने में
समर्थ हो
सकोगे। निश्चय
से कैसे कहा
जा सकता है? कौन
गारंटी से कह
सकता है? कौन
इस बात की
गारंटी ले
सकता है कि
तुम फिर से सांस
अंदर लेने में
समर्थ हो
सकोगे? लेकिन
किसी तरह एक
गहरे विश्वास
के द्वारा तुम
जानते हो कि
मैं श्वास फिर
से लूंगा।
अन्यथा सांस
लेना ही
मुश्किल हो
जाए। यदि तुम
इतने अधिक
भयभीत हो जाओ,
कि कौन जाने
यदि मैं सांस
बाहर फेंक दूं
और यदि मैं इस
छोटी सी
मृत्यु से
होकर गुजरूं,
तो इस बात
की क्या
गारंटी है कि
मैं सांस फिर
से अंदर लेने
में समर्थ हो
सकूंगा—’‘ यदि
मैं श्वांस
अंदर ले नहीं
सकता तो यह
बेहतर होगा कि
मैं श्वास
बाहर फेंकूं
ही नहीं।’’ फिर
तुम तुरंत मर
जाओगे। यदि
तुम सांस बाहर
फेंकना बंद कर
दो तुम्हारी
तुरंत मृत्यु
हो जाएगी।
लेकिन एक गहरा
विश्वास बना
रहता है। और
वह विश्वास
जीवन का एक
भाग है, यह
किसी ने
तुम्हें
सिखाया नहीं
है।
जब
बच्चा पहली
बार चलना शुरू
करता है तो
उसमें एक गहरा
विश्वास होता
है कि वह चल
सकेगा। किसी
ने उसे सिखाया
नहीं है। उसने
दूसरे लोगों
को बस चलते
हुए देखा है
और बस यही सब
कुछ है। लेकिन
वह इस
निष्कर्ष पर
कैसे पहुंचा—’‘ मैं चलने
मे समर्थ हो
सकूंगा?'' वह
इतना अधिक
छोटा है और
दूसरे लोग
उसके मुकाबले
में बड़े देव
जैसे हैं, और
वह यह भी
जानता है कि
वह जब कभी भी
खड़ा होता है वह
नीचे गिर जाता
है। लेकिन वह
फिर भी प्रयास
करता है। यह
विश्वास
उसमें
जन्मजात है।
यह तुम्हारे
जीवन के
प्रत्येक कोष
में है। वह
कोशिश करता है।
कई बार वह
गिरेगा भी, फिर भी वह
बार—बार और हर
बार कोशिश
करेगा और एक
दिन विश्वास
जीतता ही है
और चलना शुरू
कर देता है।
यदि तुम अपनी
सांस का
निरीक्षण
करते रहो, तो
तुम इस बारे
में सजग हो
जाओगे और निसंदेह
बिना किसी
हिचक के कहा
जा सकता है कि
तुम्हारे
जीवन में एक
सूक्ष्म
विश्वास है और
तुम्हारे
अंदर उसकी एक
गहरी पर्त है।
यदि
तुम सजग होकर
चलते रहे तो
धीमे— धीमे
तुम इसके
प्रति
होशपूर्ण हो
जाओगे कि तुम
नहीं चल रहे
हो और
तुम्हारे
द्वारा कोई और
चल रहा है। यह
बहुत सूक्ष्म
अनुभूति है कि
जीवन ही तुम्हारे
द्वारा चल रहा
है। जब
तुम्हें भूख
लगती है तो
यदि तुम सजग
हो, तो
तुम देखोगे
कि तुम्हारे अंदर
जीवन ही भूख
का अनुभव कर
रहा है—तुम
नहीं। अधिक
होशपूर्ण
बनने से तुम
इस तथ्य के
प्रति सचेत हो
जाओगे कि
तुम्हें वहां
केवल एक चीज
ही मिली है, जिसे तुम
अपना कह सकते
हो और वह है
साक्षी। उसके
अतिरिक्त हर
चीज संसार की
है और केवल साक्षी
ही तुम्हारा
है। लेकिन जब तुम
साक्षी के प्रति
सजग बन जाते
हो फिर 'मैं'
के होने का
विचार भी
विसर्जित हो
जाता है।
वह भी
तुम्हारा कोई
होता नहीं है।
वह अंधेरे का
भाग है जो
तुम्हें
चारों ओर घेरे
हुए हैं।
स्पष्ट
प्रकाश में जब
आकाश मुक्त और
खुला हुआ हो
और बादल छंट
गए हों, सूर्य, ऊष्मा
और प्रकाश
फैला रहा हो, तो फिर 'मैं'
के होने या
किसी विचार की
भी संभावना
नहीं रह जाती,
तब केवल
साक्षी के
अतिरिक्त कुछ
भी तुम्हारा नहीं
होता है। वही
साक्षी तत्व
ही तुम्हारी अन्तर्यात्रा
का लक्ष्य है।
यात्रा
का शुभारंभ
कैसे हो? अधिक से
अधिक साक्षी
बनो, जो
कुछ भी तुम
करो, उसे
गहरी गहरी
सजगता के साथ
करो तब छोटी—सी
चीजें भी पावन
बन जाएंगी। तब
खाना बनाना और
सफाई करना भी
धार्मिक
कृत्य बन
जायेगा वह
तुम्हारा
पूजा हो जाएगी।
तुम क्या कर
रहे हो, फिर
यह प्रश्न न
रह कर, प्रश्न
यह रह जायेगा
कि तुम कैसे
कर रहे हो? तुम
एक रोबो की
भांति
यांत्रिक रूप
से भी फर्श
साफ कर सकते
हो, तुम्हें
उसे साफ करना
ही होता है, इसीलिए
तुमने उसे साफ
किया। तब तुम
किसी सुंदर
चीज से चूक गए।
तब तुमने फर्श
साफ करने में
वे क्षण
व्यर्थ गंवाए।
फर्श को साफ
करना भी एक
महान अनुभव बन
सकता था, लेकिन
तुम उसे चूक गए।
फर्श तो साफ
हो गया, लेकिन
कुछ चीज जो
तुम्हारे
अंदर घट सकती
थी, नहीं
घटी। यदि तुम
होशपूर्ण थे,
तो न केवल
फर्श की बल्कि
तुमने अपने
अंदर गहरे में
भी एक
निर्मलता और
शुचिता का
अनुभव किया होगा।
फर्श को पूरे
होश से भरकर
साफ करो, होश
के साथ लेकिन
एक चीज धागे से
निरंतर जुड़े
रहो, तुम्हारे
जीवन के अधिक
से अधिक क्षण
होश और समझ से
भरे हों।
प्रत्येक
कृत्य में
प्रत्येक
क्षण होश की
शमा जलती ही
रहे।
इन सभी
बातों का
लगातार बढता
संचयी प्रभाव
और उनका जोड़
ही बुद्धत्व
है। सभी का
प्रभाव, जहां सभी
क्षण साथ—साथ
होते हैं, सभी
छोटी—छोटी मोमबत्तियां
एक साथ जलकर
प्रकाश का एक
महान स्रोत बन
जाती है।
और प्रश्न
का दूसरा भाग
है : सेक्स के
अतिक्रमण करने
का ठीक—ठीक
क्या अर्थ है?
सेक्स का विषय
बहुत सूक्ष्म
और नाजुक है, क्योंकि
सदियों से किए
जाने वाला
शोषण, भ्रष्टाचार,
सदियों से
चले आ रहे
विकृत विचार,
धर्म और
समाज द्वारा
दिया अनुशासन
और आदतें इन
सभी को जोड़कर
ही जो शब्द
बनता है वह है
सेक्स। यह
शब्द बहुत
वजनी है। यह
अस्तित्व में
सबसे अधिक
वजनी शब्दों
में से एक है।
तुम कहो
परमात्मा—लेकिन
यह शब्द ही
खाली—खाली सा
ही लगता है।
तुम कहो सेक्स—तो
यह शब्द अधिक
वजनी लगता है।
इस शब्द को
सुनते ही मन
में भय, विकारग्रस्तता,
आकर्षण, तीव्र
कामना और अकाम
आदि एक हजार
एक चीजों का जन्म
होता है।
ये सभी
भाव एक साथ
उठते हैं।
सेक्स यह
अकेला एक शब्द
ही अत्यधिक
अव्यवस्था और
भ्रम उत्पन्न
करता है। यह
ऐसा है जैसे
मानो किसी
व्यक्ति ने
शांत तालाब
में एक चट्टान
फेंक दी हो, ओर उससे
लाखों लहरें
उत्पन्न हो गई
हों। बस केवल
एक शब्द सेक्स—मनुष्यता
अभी तक बहुत
ही गलत
विचारों के
तले जीती रही
है।
इसलिए
पहली चीज है —
तुम यह क्यों
पूछ रहे हो कि
सेक्स का
अतिक्रमण
कैसे करें? पहली बात
तो यह कि तुम
सेक्स का
अतिक्रमण
क्यों करना
चाहते हो? तुम
एक बहुत सुंदर
शब्द 'अतिक्रमण'
का प्रयोग
कर रहे हो, अर्थात्
सभी सीमाओं को
पार चले जाना,
लेकिन सौ
में से
निन्यानवे
संभावनाएं
यही हैं, कि
तुम्हारा
वास्तविक
प्रश्न है कि
कैसे सेक्स का
दमन किया जाए?
.....क्योंकि
एक व्यक्ति
जिसने यह समझ
लिया हो कि
सेक्स का
अतिक्रमण
किया जाना है
वह उसके
अतिक्रमण करने
के बारे में
चिंतित होगा
ही नहीं, क्योंकि
कोई भी
व्यक्ति सभी
सीमाओं के पार
अनुभव के
द्वारा ही
जाता है। तुम
उसकी
व्यवस्था
नहीं कर सकते।
वह कुछ ऐसा
नहीं है कि
तुम्हें उसे
करना ही है।
तुम साधारण
रूप से बहुत
से अनुभवों के
द्वारा होकर
गुजरते हो, और वे अनुभव
तुम्हें अधिक
से अधिक
परिपक्व बनाते
हैं।
क्या
तुमने कभी
निरीक्षण
किया है कि एक
विशिष्ट आयु
में आकर सेक्स
अधिक
महत्त्वपूर्ण
बन जाता है।
ऐसा नहीं कि
तुम उसे
महत्त्वपूर्ण
बनाते हो। यह
कोई ऐसी चीज
नहीं है कि
तुम उसे बनाते
हो, वह
तो स्वयं घटती
है। चौदह वर्ष
की आयु अथवा
उसके निकट की
आयु में अचानक
सेक्स के साथ
ऊर्जा की बाढ़
सी आती है।
ऐसा लगता है
जैसे
तुम्हारे
अंदर मानो
ऊर्जा की आई
बाढ़ को रोकने
वाले दरवाजे
खोल दिए गए
हों। ऊर्जा के
सूक्ष्म
स्रोत जो अभी
तक खुले नहीं
थे, एक साथ
खुल जाते हैं,
और
तुम्हारी
पूरी ऊर्जा
सेक्स के साथ
कामवासना बन
जाती है। तुम
सेक्स के बारे
में ही सोचते
हो, तुम
सेक्स के बारे
में ही
गुनगुनाते हो,
तुम चलते
हुए भी सेक्स
के बारे में
ही सोचते हो, और प्रत्येक
चीज कामुक हो
उठती है।
प्रत्येक
कृत्य जैसे
उसी के रंग
में रंग जाता
है। ऐसा स्वयं
घटता है। तुम
उस बारे में
करते कुछ भी
नहीं। यह सभी
स्वाभाविक है।
उसका
अतिक्रमण भी
स्वाभाविक है।
यदि बिना उसकी
निंदा किए हुए
सेक्स को
समग्रता से
जिया जाए बिना
इस विचार के
साथ कि उससे
पीछा छुड़ाना
है, तो बयालीस
वर्ष की आयु में......जैसे
चौदह वर्ष की
अवस्था में सेक्स
का द्वार खुला
था और पूरी
ऊर्जा
कामवासना बन
गई थी, उसी
तरह बयालीस
वर्ष की अवस्था
में अथवा उनके
आसपास काम
ऊर्जा की बाढ़
के द्वार फिर
से बंद हो
जाते
हैं और
ऐसा होना भी
स्वाभाविक है।
जैसे सेक्स
जीवंत होता है, वैसे ही
वह विलुप्त
होना शुरू हो
जाता है।
सेक्स
का अतिक्रमण
बिना किसी
प्रयास के
होता है।
तुम्हारा
उसमें कोई
पार्ट नहीं
होता। यदि तुम
कोई प्रयास
करोगे तो वह
दमन होगा क्योंकि
उसका तुम्हारे
साथ कोई लेना
देना नहीं। वह
तुम्हारे
शरीर में
जीवविज्ञान
के अनुसार जन्मजात
है। तुम कामुक
अस्तित्व से
ही उत्पन्न
होते हो, उसने कुछ भी
गलत नहीं है।
जन्म लेने का
केवल यही एक
तरीका है।
मनुष्य होना
ही कामुक होना
है।
जब तुम
गर्भ में आये
तुम्हारे
माता और पिता प्रार्थना
नहीं कर रहे
थे, वे
लोग किसी
पादरी का
उपदेश नहीं
सुन रहे थे।
वे किसी चर्च
में नहीं बैठे
थे, वे आपस
में
प्रेमालाप कर
रहे थे। यह
सोचना ही कि
जब तुम गर्भ
में आये, तो
तुम्हारे
माता और पिता
प्रेम कर रहे
थे, बहुत
कठिन लगता है।
वे आपस में
प्रेम कर रहे
थे, उनकी
काम ऊर्जाएं
एक दूसरे से
मिलकर एक
दूसरे में
समाहित हो रही
थीं। एक गहरे
कामुक कृत्य
के बाद ही तुम
गर्भ में आए।
पहला कोष ही
सेक्स कोष था,
लेकिन
आधारभूत रूप
से प्रत्येक
कोष में कामवासना
होती है।
तुम्हारा
पूरा शरीर
सेक्स के
कोषों से ही
बना हुआ है, जिसमें
लाखों कोष हैं,
और जिसमें
विरोधी सेक्स
के प्रति मौन
आकर्षण होता
है।
स्मरण
रहे यौन
सम्बन्धों के
कारण ही तुम
अस्तित्व में
हो। एक बार
तुम इसे
स्वीकार लो, तो
सदियों से
उत्पन्न हुआ
संघर्ष
समाप्त हो जाता
है, एक बार
तुम उसे गहराई
से स्वीकार कर
लो, और बीच
में कोई दूसरे
विचार न हों.
जब सेक्स के
बारे में तुम
उसे
स्वाभाविक
मानकर जीते हो,
तुम मुझसे
यह नहीं पूछते
कि खाने का
कैसे अतिक्रमण
किया जाये, तुम मुझसे
यह नहीं पूछते
कि सांस का
कैसे अतिक्रमण
किया जाए
क्योंकि किसी
भी धर्म ने
तुम्हें सांस
का अतिक्रमण
करना नहीं
सिखाया है, अन्यथा तुम
पूछते सांस का
अतिक्रमण
कैसे किया जाए?''
तुम सांस
लेते हो, तुम
सांस लेने
वाले प्राणी
या एक जानवर
हो, तुम
साथ ही सेक्स
अंगों वाले भी
एक जानवर हो।
लेकिन इसमें
एक अंतर है।
तुम्हारे
जीवन के चौदह
वर्ष जो शुरू
के होते हैं, लगभग बिना
सेक्स के होते
हैं, अधिकतर
केवल
प्राथमिक
पैमाने के यौन
अंगों के खेल
जैसे ही होते
हैं, जिनमें
वास्तव में
कामवासना
नहीं होती।
केवल तैयारी
होती है, पूर्वाभ्यास
होता है, सब
कुछ बस इतना
ही होता है।
अचानक चौदह
वर्ष की
अवस्था में ही
सेक्स ऊर्जा
परिपक्व होती
है।
जरा
निरीक्षण करें।
एक बच्चा जन्म
लेता है..
तुरंत तीन सेकिंड
में ही बच्चे
को सांस लेनी
होती है।
अन्यथा वह मर
जाएगा। तब
सांस लेना
पूरे जीवन भर
होता रहता है, क्योंकि
वह जीवन के
प्रथम कदम पर
आया है। उसका
अतिक्रमण
नहीं किया जा
सकता। यह हो
सकता है कि
मरने के केवल
तीन सेकिंड
पहले वह रुक
जायेगा, लेकिन
इससे पहले
नहीं। हमेशा
याद रहे, जीवन
के दोनों छोर,
प्रारंभ और
अंत ठीक एक
जैसे है संगतिपूर्ण
है। बच्चा
जन्म लेता है
और सांस लेना
तीन सेकिंड
के अंदर शुरू
कर देता है।
जब बच्चा बूढ़ा
होकर मर रहा
है, उसी
क्षण वह सांस
लेना बंद करता
है और तीन सेकिंड
के अंदर मर
जाता है।
बच्चा
चौदह वर्ष की
आयु तक बिना
सेक्स के रहता
है और सेक्स
का प्रवेश
काफी देर से
होता है। और
यदि समाज बहुत
अधिक दमन करने
वाला नहीं है, और
कामवासना ने
मन को पूरी
तरह आवेशित ही
नहीं कर दिया
तो बच्चा इस
तथ्य के प्रति
पूरी तरह भूल
जाता है कि
सेक्स या उस
तरह की कोई
चीज अस्तित्व
में भी है। बच्चा
पूरी तरह
निर्दोष बना
रह सकता है।
यह
निर्दोषिता
भी उनके लिए
सम्भव नहीं है।
जो लोग बहुत
अधिक दमित हैं।
जब दमन होता
है तब उसके
साथ ही साथ
पहले से ही मन
में जड़ जमाये
अनेक भ्रम भी
होते हैं।
इसलिए
पुरोहित दमन कराये चले
जाते हैं। और
वहां
पुरोहितों के
विरोधी हेफनर्स
और अन्य लोग
भी हैं जो
अधिक से अधिक
अश्लील साहित्य
सृजित किये
चले जाते हैं।
इसलिए एक ओर
तो वहां
पुरोहित हैं
जो दमन किए चले
जा रहे हैं और
तभी
पुरोहितों के
विरोधी तथा
दूसरे लोग भी
हैं, जो
कामुकता और
अश्लीलता को
अधिक से अधिक
आकर्षक बना कर
प्रस्तुत कर
रहे हैं। ये
दोनों लोग एक
साथ ही, एक
ही सिक्के के
दो पहलुओं की
तरह मौजूद हैं।
जब चर्च मिट
जाएंगे केवल
तभी प्लेबॉय
अश्लील मैगजीन
भी गायब हो
जाएगी, लेकिन
उससे पहले
नहीं। वे धंधे
में साझीदार
की भांति हैं।
वे यों तो
दुश्मन दिखाई
देते हैं।
लेकिन इससे
धोखे में मत पड़ो। वे
दोनों एक
दूसरे के
विरुद्ध
बातें करते
हैं, लेकिन
इसी तरह से ही
तो चीजें
कार्य करती
हैं।
मैंने
दो मनुष्यों
के बारे में
सुना है, जिनका धंधा
चौपट हो गया
था, इसलिए
उन दोनों ने
एक बहुत सरल
सा धंधा शुरू
करने का
निश्चय किया।
उन दोनों ने
एक शहर से
दूसरे शहर में
टुअर
करने वाली
यात्राएं
करना शुरू
किया। पहले
उनमें से एक
शहर में
प्रवेश करता
है और रात में
लोगों की खिड़कियों
और दरवाजों
पर तारकोल
फेंक देता।
इसके दो या
तीन दिनों बाद
दूसरा उनको
साफ करने के
लिए आता। वह
लोगों को सलाह
देता हुआ
बताता कि वह
किसी भी चीज
पर पड़े हुए
तारकोल को हटा
सकता है। और
फिर खिड़कियों
को साफ करता।
उसी समय पहला
व्यक्ति
दूसरे शहर में
अपना आधा
व्यापार कर
रहा होता। इस
तरह उन दोनों
ने काफी धन
कमाना शुरू कर
दिया।
सब कुछ
ऐसा ही चर्च
और झूजफनसे
और उनके लोगों
के बीच घट रहा
है, जो निरंतर
अश्लील
साहित्य और
चित्र बनाए
चले जा रहे
हैं।
मैंने
सुना है:
सुन्दर
मिस कैनीन
ने चर्च के
प्रायश्चित
करने वाले
केबिन में जाकर
कहा— '' फादर!
मैं यह
स्वीकार करना
चाहती हूं कि
मैंने अपने
पुरुष मित्र
को अपना
चुम्बन लेने
दिया।’’
पादरी
ने अत्यधिक
दिलचस्पी
दिखाते हुए
पूछा—’‘ जो
कुछ तुमने
उसके साथ किया
क्या वह बस
इतना ही था?''
'' नहीं
मैंने उसे
अपनी टांगों
पर भी हाथ
रखने दिया।’’
'' और
तब फिर क्या
हुआ?''
'' और
तब मैंने उसे
अपनी पैंटीज
भी टांगों से
खींच लेने दी।’’
'' और
तब.. और तब..?'' पादरी
ने उत्तेजित
होकर पूछा।
'' और
तभी मेरी मां
टहलती हुई
कमरे में आ गई।’’
'' आह शिट।’’ यह
कहते हुए
पादरी ने गहरी
आह भरी।
वे साथ—साथ
हैं। वे इस
षडयंत्र में
साझीदार हैं।
जब कभी तुम
अत्यधिक
कामवासना का
दमन करते हो, तुम
विकारग्रस्त
दिलचस्पी से
खोजना शुरू कर
देते हो। एक
विकारग्रस्त
दिलचस्पी ही
वास्तविक
समस्या है
सेक्स नहीं।
अब यह पादरी
मानसिक रोगी
है। सेक्स कोई
समस्या नहीं,
लेकिन
विकृत चिंतन
से यह मनुष्य
परेशान है।
सिस्टर मारग्रेट
और सिस्टर
कैथरीन दोनों
एक छोटी सी
सड़क पर टहलने
निकलीं।
अचानक उन
दोनों पर दो
व्यक्ति झपटे
और उन्हें घसीट
कर एक अंधेरी ' तंग गली
में ले जाकर
उनके साथ
बलात्कार
किया।
सिस्टर
मारग्रेट
ने कहा—’‘ फादर!
उन्हें क्षमा
करना, वे
नहीं जानते थे
कि वे क्या कर
रहे थे?''
''शटअप!'' सिस्टर
कैथरीन ने
चीखते हुए कहा—’‘
कोई भी
व्यक्ति यही।
करता है।’’
ऐसा
होना ही था।
इसलिए अपने मन
में सेक्स के
विरुद्ध एक भी
विचार लेकर मत
चलो, अन्यथा
तुम कभी भी
उसके पार न जा
सकोगे। वे लोग
जो सेक्स का
अतिक्रमण कर
गए ये वही लोग थे
जिन्होंने
उसे सहज
स्वाभाविक
रूप में स्वीकार
किया। यह बहुत
कठिन है। मैं
जानता हूं
क्योंकि
तुमने जिस
समाज में जन्म
लिया है। वह
सेक्स के बारे
में इस तरह या
उस तरह से
मानसिक रूप से
विकारग्रस्त
है। लेकिन यह
मानसिक
विक्षिप्तता
सभी जगह एक ही
सी है। इस
मानसिक दशा से
बाहर निकलना
बहुत कठिन है,
लेकिन यदि
तुम थोड़े से
सजग हो, तो
तुम उससे बाहर
आ सकते हो।
इसलिए असली
चीज यह नहीं
है कि कैसे
सेक्स का अतिक्रमण
किया जाए
लेकिन असली
समस्या है कि
कैसे समाज की
इस
विकारग्रस्त
विचारधारा के,
इस सेक्स के
भय से, इसके
दमन और मन पर
निरंतर उसके
अधिकार से
मुक्त हुआ जा
सके।
सेक्स
सुंदर है।
सेक्स अपने आप
में एक
स्वाभाविक
लयबद्ध घटना
है। यह तब
घटती है, जब शिशुगर्भ
में आने के
लिए तैयार
होता है और यह
अच्छा है कि
ऐसा होता है, अन्यथा जीवन
का अस्तित्व
ही न होता।
जीवन का
अस्तित्व
सेक्स के ही
द्वारा है, सेक्स उसका
माध्यम है।
यदि तुम जीवन
को समझते हो, यदि तुम
जीवन को प्रेम
करते हो, तो
तुम उसमें
प्रसन्नता का
अनुभव करोगे,
और जितने
स्वाभाविक
रूप से वह आता
है, वैसे
ही स्वयं अपने
आप ही विदा हो
जाता है।
बयालीस वर्ष
अथवा उसके
आसपास की आयु
में सेक्स उसी
तरह
स्वाभाविक
रूप से
विसर्जित
होना शुरू हो
जाता है, जैसे
वह अस्तित्व में
आया था। लेकिन
वह उस तरह से
नहीं जाता।
जब मैं
कहता हूं लगभग
बयालीस वर्ष
के आसपास, तो यह
सुनकर तुम
आश्चर्य
करोगे। तुम
जानते हो कि
जो लोग सत्तर
या अस्सी वर्ष
के भी हैं, वे
भी सेक्स के
पार अभी नहीं
जा सके हैं।
तुम ऐसे गंदे
के लोगों को
जानते हो। वे
लोग समाज के
ही शिकार हैं।
क्योंकि वे
सहज
स्वाभाविक
होकर न रह सके।
जब उन्हें
आनंद लेते हुए
प्रसन्न रहना
चाहिए था, तब
उन्होंने दमन
किया और उसी
का वे आज भी
परिणाम भुगत
रहे हैं। आनंद
के उन क्षणों
को उन्होंने
समग्रता से नहीं
भोगा। वे कभी
भी संभोग के
सर्वोच्च
शिखर पर पहुंचे
ही नहीं, उन्होंने
आधा अधूरा
संभोग ही किया।
इसलिए
जब कभी भी तुम
किसी भी कार्य
को आधे— अधूरे
हृदय से करते
हो, तो
वह लम्बे समय
तक कहीं अटका
रहता है। यदि
तुम मेज पर
बैठे हुए आधे—
अधूरे हृदय से
भोजन कर रहे
हो, और
तुम्हारी भूख
बनी ही रहती
है तो तुम
पूरे ही दिन
भोजन के ही
बारे में
सोचते रहोगे।
तुम उपवास
करने की कोशिश
कर सकते हो और
सोचते रहोगे।
तुम उपवास
रखने की कोशिश
कर सकते हो और
तुम देखोगे
कि तुम निरंतर
भोजन के बारे
में ही सोचते
रहोगे। लेकिन
तुमने भरपेट
तृप्ति से
भोजन किया है,
और जब मैं
कहता हूं
भरपेट तृप्ति
से तो मेरा
अर्थ नहीं है
कि तुमने डूंस—
ठूंस कर भोजन
किया है, सम्यक
भोजन करना एक
कला है।
यह
केवल फ्लू—ठूंस
कर खाना ही
नहीं है। यह
एक महान कला
है भोजन का
स्वाद लेना, उसकी गंध
का आनंद लेना,
उसे स्पर्श
करना, उसे
चबाना, भोजन
को हजम करना
और उसे पचाना
तो एक दिव्यता
है। यह
दिव्यता का
अनुभव
परमात्मा की
भेंट है।
हिंदू
कहते हैं—’‘ अन्नम् ब्रह्म '' भोजन
ही परमात्मा
है, दिव्य
है। इसीलिए
बहुत गहरे आदर
भाव से तुम
भोजन करते हो
और भोजन करते
हुए हो तुम
प्रत्येक चीज
भूल जाते हो, क्योंकि
भोजन करना एक
प्रार्थना है।
यह एक
अस्तित्वगत
प्रार्थना है।
तुम परमात्मा
का ही भोजन कर
रहे हो और
परमात्मा ही
भोजन बनकर
तुम्हारा
पालन पोषण कर
रहा है। यह एक
उपहार और आभार
है जो तुम्हें
गहन प्रेम के
साथ स्वीकार
करना चाहिए।
और तुम्हें
शरीर में भोजन
ढूंसना
नहीं चाहिए
क्योंकि ठूंस—ठूंस
कर भोजन करना
शरीर—विरोधी
है। वह दूसरा
विपरीत ध्रुव
है।
यहां
ऐसे लोग हैं
जो मन पर
नियंत्रण
करते हुए उपवास
कर रहे हैं और
ऐसे लोग भी
हैं जो फ्लू—ठूंस
कर भोजन कर
स्वयं अपने को
सता रहे हैं।
दोनों ही गलत
हैं क्योंकि
दोनों ही
तरीकों से
शरीर अपना
संतुलन खो
देता है। एक
शरीर का सच्चा
प्रेमी केवल
उस बिंदु तक
भोजन करता है, जब वह
पूरी तरह शांत
व संतुलित
होने का अनुभव
करे, जहां
शरीर न तो
बाईं ओर न
दाईं ओर झुकने
का अनुभव करे,
वह ठीक मध्य
में बना रहे।
अपने शरीर और
अपने पेट की
भाषा समझना और
यह समझना कि
तुम्हारे लिए
क्या जरूरी है,
तुम्हें
केवल उतना ही
देना है जितना
तुम्हारे लिए
जरूरी है। और
वह तुम्हें
उसे बहुत
कलात्मक और
सौंदर्य बोध
के भाव से
देता है।
जानवर
भी खाते हैं
और मनुष्य भी
खाते हैं। तब
दोनों के भोजन
करने में अंतर
क्या है? मनुष्य भोजन
के द्वारा एक
महान सुंदर
अनुभव से होकर
गुजरता है।
आखिर एक
खूबसूरत और
कलात्मक मेज
की जरूरत क्या
है? वहां
आखिर मोमबत्तियां
जलाने की
आवश्यकता
क्या है? सुगंधित
धुंवे की
क्या जरूरत है?
क्या जरूरत
है भोजन में
और अन्य लोगों
के सम्मलित
होने की? यह
सब कुछ उसे
कलात्मक
बनाने के लिए
ही है यह केवल
पेट भरने के
लिए न ही है।
लेकिन यह सभी
तो कला के
बाह्य संकेत
हैं।
तुम्हारे
शरीर की भाषा
के आंतरिक
संकेतों को
समझने, उन्हें
सुनने और उसकी
आवश्यकताओं
के प्रति संवेदनशील
होने की जरूरत
है। और तब तुम
जो भी भोजन
करते हो। तब
फिर पूरे दिन
भोजन के बारे
में सोचते ही
नहीं। केवल जब
शरीर भूखा
होता है। केवल
तभी फिर भोजन
की याद आती है।
तब उसके प्रति
तुम्हारा कोई
विरोधी भाव
नहीं है, यदि
तुम उसे सहज
स्वाभाविक है।
ऐसा ही सेक्स
के साथ भी
होता है। यदि
उसके प्रति
तुम्हारा कोई
विरोधी भाव
नहीं है, यदि
तुम उसे सहज
स्वाभाविक और
परम अहोभाव के
साथ एक दिव्य
उपहार की
भांति लेते हो,
तुम उसे
प्रार्थना
मानकर उसका
आनंद लेते हो
तो वह एक महान
आनंद है।
तंत्र
कहता है—कि
किसी भी
स्त्री या
किसी भी पुरुष
से प्रेम करने
के पूर्व पहले
प्रार्थना
करो क्योंकि
वहां दो
ऊर्जाओं का
दिव्य मिलन
होने जा रहा
है। परमात्मा
तुम्हारे
चारों ओर ही
होगा। जहां भी
दो प्रेमी
होते हैं, वहां
परमात्मा
होता ही है।
जहां कहीं भी
दो प्रेमियों
की ऊर्जाएं
मिल रही हैं।
एक दूसरे में
समाहित हो रही
हैं, वहां
जीवन और
जीवंतता अपने
सर्वश्रेष्ठ
रूप में है और
परमात्मा
चारों ओर से
घेरे हुए है।
चर्च खाली पडे
हैं और जिन
कक्षों में
प्रेम किया जा
रहा है, वे
सभी परमात्मा
से भरे हुए
हैं। यदि
तुमने प्रेम
का स्वाद उस
तरह से लिया
है जिस तरह से
उसका स्वाद
लेने को तंत्र
कहता है यदि
तुम प्रेम
करने की वह
विधि जानते हो
जिसे जानने की
बात ताओ कहता
है तो बयालिस
वर्ष की आयु
तक पहुंचने पर
प्रेम स्वयं
ही अपने आप
तिरोहित होना
शुरू हो जाता
है। और तुम
उसे गुडबाई
कह देते हो, क्योंकि तुम
अहोभाव और
उसके प्रति
कृतज्ञता से
भरे हुए हो।
वह तुम्हारे
लिए परम
प्रसन्नता और
परमानंद बन कर
रहा है, इसीलिए
तुम उसे गुडबाई
कहते हो।
और
बयालीस वर्ष
की आयु ध्यान
के लिए बिलकुल
ठीक आयु है।
सेक्स
विसर्जित हो
जाता है, वह अतिरेक
से बहती हुई
ऊर्जा अब वहां
नहीं है। कोई
भी ऐसा
व्यक्ति कहीं
अधिक शांत हो
जाता है।
वासना चली
जाती है, करुणा
का जन्म होता
है। अब वहां
वह ज्वर और
ज्वार नहीं अब
कोई भी किसी दूसरे
में रुचि नहीं
ले रहा है।
सेक्स के
विलुप्त होने
के साथ ही
दूसरा व्यक्ति
अब केंद्र में
रहा ही नहीं।
अब वह अपने
स्वयं के
स्रोत की ओर
वापस आना शुरू
कर देता है।
वापस लौटने की
यात्रा का
शुभारंभ हो
जाता है।
सेक्स
का अतिक्रमण
तुम्हारे
किन्हीं
प्रयासों के
द्वारा नहीं
होता। वह तभी
घटता है यदि
तुम समग्रता
से जिये हो।
इसलिए मेरा
सुझाव है कि
सभी जीवन—
विरोधी
व्यवहार छोड़
कर वास्तविक
सच्चाई को स्वीकार
करो। सेक्स है, इसलिए
तुम उसे छोड़ने
वाले होते कौन
हो? और है
कौन, जो
उसे छोड़ने का
प्रयास कर रहा
है? वह
केवल अहंकार
है। स्मरण रहे
सेक्स ही
अहंकार के लिए
सबसे बड़ी समस्या
उत्पन्न करता
है।
इसलिए
वहां दो तरह
के व्यक्ति
होते हैं ' जो बहुत
अधिक अहंकारी
व्यक्ति
होते
हैं, वे
सेक्स के
हमेशा ही
विरुद्ध होते
हैं, विनम्र
व्यक्ति कभी
सेक्स के
विरुद्ध नहीं
होते। लेकिन
विनम्र लोगों
की बात सुनता
ही कौन है? वास्तव
में विनम्र
व्यक्ति
उपदेश नहीं
दिए चले जाते,
केवल ऐसा
अहंकारी
व्यक्ति ही
करते है। वहां
सेक्स और
अहंकार के
मध्य संघर्ष
क्यों है? क्योंकि
तुम्हारे
जीवन में
सेक्स कुछ ऐसी
चीज है जहां
तुम अहंकारी
नहीं बने रह सकते,
जहां दूसरा
तुम्हारी
अपेक्षा कहीं
अधिक महत्त्वपूर्ण
हो जाता है।
तुम्हारी
स्त्री, तुम्हारा
पुरुष, तुमसे
कहीं अधिक
महत्त्वपूर्ण
हो जाता है।
प्रत्येक
अन्य मामले
में तुम अधिक
महत्त्वपूर्ण
बने रहते हो।
एक प्रेम सम्बंध
में दूसरा
बहुत
महत्त्वपूर्ण
बन जाता है, अत्यधिक
महत्त्वपूर्ण।
तुम उसके एक
उपग्रह बन
जाते हो, और
दूसरा नाभकीय
केंद्र बन
जाता है और
ऐसा ही दूसरे
के लिए भी होता
है। तुम उसके नाभकीय
केंद्र बन
जाते हो और वह
तुम्हारा
उपग्रह बन जाता
है। यह एक
दूसरे के
प्रति पारस्परिक
समर्पण है।
दोनों ही
प्रेम के
देवता के
प्रति
समर्पित हैं,
और दोनों ही
विनम्र बन गए
हैं।
केवल
सेक्स ही वह
ऊर्जा है, जो
तुम्हें यह
संकेत देती है
कि वहां कुछ
चीज ऐसी है
जिसे तुम
नियंत्रित
नहीं कर सकते।
धन पर तुम
नियंत्रण कर
सकते हो, राजनीति
पर तुम नियंत्रण
कर सकते हो, बाजार पर
तुम नियंत्रण
कर सकते हो, जानकारी और
ज्ञान पर तुम
नियंत्रण कर
सकते हो, विज्ञान
पर तुम
नियंत्रण कर
सकते हो और
नैतिकता पर
तुम नियंत्रण
कर सकते हो।
किसी जगह, सेक्स
तुम्हें एक
पूरी तरह
भिन्न संसार
में ले जाता
है: और तुम उसे
नियंत्रित
नहीं कर सकते
और सबसे बड़ा
नियंत्रण
करने वाला
अहंकार ही है।
यदि
नियंत्रित कर
सकता है, तो
वह खुश होता
है, और यदि
वह नियंत्रित
नहीं कर सकता
तो नाखुश होता
है। इसलिए
वहां सेक्स और
अहंकार के
मध्य संघर्ष शुरू
हो जाता है।
स्मरण रहे, यह हारने
वाली लड़ाई लड़ी
जा रही है।
अहंकार उसे
कभी जीत नहीं
सकता क्योंकि
वह केवल उथला
है। सेक्स की
जड़ें बहुत
गहरी हैं।
सेक्स
तुम्हारा
जीवन है, अहंकार
केवल
तुम्हारा मन
और तुम्हारी
सिर्फ खोपड़ी
है। सेक्स की
जड़ें
तुम्हारे
अंदर सभी जगह
फैली हैं, और
अहंकार की जड़
केवल
तुम्हारे
विचारों में है
बहुत उथली, केवल है
तुम्हारे सिर
में ही।
इसलिए
सेक्स का
अतिक्रमण
करने का
प्रयास कौन कर
रहा है? केवल
तुम्हारा सिर
ही सेक्स का
अतिक्रमण करने
का प्रयास कर
रहा है। यदि
तुम सिर या
बुद्धि के जाल
में ही बहुत
अधिक उलझे हो,
तो तुम
सेक्स के पार
जाना चाहते हो
क्योंकि सेक्स
तुम्हें
तुम्हारे सार
तत्व के नीचे
ले जाता है।
वह तुम्हें
सिर में ही
अटके रहने की
अनुमति नहीं
देता। तुम
वहां से अन्य
किसी भी चीज
की व्यवस्था
कर
सकते
हो, लेकिन
तुम वहां से
सेक्स को
व्यवस्थित
नहीं कर सकते।
तुम अपने सिर
या बुद्धि के
साथ प्रेम
नहीं कर सकते।
तुम्हें नीचे
आना होगा, तुम्हें
अपनी
ऊंचाइयों से
नीचे उतर कर
आना होगा, तुम्हें
पृथ्वी के
निकट से निकट
आना होगा।
सेक्स अहंकार
की अवमानना
करेगा ही
इसलिए अहंकारी
व्यक्ति
हमेशा सेक्स
के विरुद्ध
होते हैं। वे
उसके पार जाने
के साधन और
तरीके खोजते
रहते हैं। वे
कभी भी उसके
पार नहीं जा
सकते। वे अधिक
से अधिक
विकारग्रस्त
बन सकते हैं।
शुरू से ही
उनका पूरा
प्रयास
बर्बादी और
असफलता ही है।
मैंने
सुना है:
एक बॉस
अपनी निजी
सचिव का स्थान
भरने के लिए जो
शीघ्र ही मां
बनने के कारण
त्यागपत्र
देने जा रही
थी, प्रार्थियों
का
साक्षात्कार
ले रहा था।
बॉस का सीधा
हाथ बने रहने
वाला व्यक्ति
उसके साथ बैठा
हुआ सभी
प्राणियों को
सरसरी दृष्टि से
देख रहा था।
पहली लड़की
सुंदर मांसल
और गोरी थी।
वह बुद्धिमान
और सचिव की
अच्छी
योग्यता होने पर
भी निकाल दी
गई। दूसरी
युवती काले
बालों वाली
पहली लड़की से
भी कहीं अधिक
चतुर और बुद्धिमती
थी। तीसरी
बुझी आंखों
बड़े—बड़े
दांतों वाली
वह एक सौ
नब्बे पौंड
वजन की मोटी
लड़की थी।
तीनों का
साक्षात्कार
लेने के बाद
बॉस ने अपने
साथी से कहा
कि वह तीसरी लडकी को
स्थान देने जा
रहा है।
उसके
सहकारी ने
आश्चर्यचकित
होकर पूछा—’‘ आखिर
क्यों?''
बॉस ने
कहा— '' वैल!
पहली बात तो
यह कि वह मुझे
बहुत बुद्धिमती
लगती है।
दूसरी बात यह
कि उसका इस
नारकीय
व्यापार धंधे
से कुछ लेना
देना नहीं और
तीसरी बात यह
कि वह मेरी
पत्नी की बहिन
है।’’
इसलिए
तुम बहाने बना
सकते हो, कि तुमने
सेक्स पर विजय
प्राप्त कर ली
लेकिन उसकी
अंतर्धारा.
.तुम तर्क—वितर्क
द्वारा उसे
सिद्ध कर सकते
हो, तुम
उसके लिए कारण
खोज सकते हो, तुम बहाने
बना सकते हो तुम
अपने चारों ओर
एक कठोर कवच
निर्मित कर
सकते हो, लेकिन
तुम्हारे
गहरे में असली
कारण और
वास्तविकता, अस्पर्श
ज्यों की
त्यों बनी ही
रहेगी।
'' वह
मेरी पत्नी की
बहिन है।’’ यह
केवल तर्क
द्वारा कुछ
स्वयं को
समझाना भर है।
और उसका मेरे
नारकीय
व्यापार— धंधे
से कुछ लेना—देना
नहीं है।’’ इससे
भी तुम नाराज
और उत्तेजित
हो जाते हो
क्योंकि वह
व्यक्ति डरता
है कि दूसरा
उसे सूंघ कर
वास्तविक
कारण जान सकता
है। लेकिन
असली कारण का
तो विस्फोट
होगा ही, तुम
उसे छिपा नहीं
सकते, ऐसा
होना सम्भव ही
नहीं है।
इसलिए
तुम सेक्स को
नियंत्रित
करने का प्रयास
कर सकते हो, लेकिन
कामवासना का अंतर्प्रवाह
जारी रहेगा और
वह कई तरह से
प्रकट होता
रहेगा।
तुम्हारे सभी
तर्क—वितर्क
और उसे ठीक
समझने के
प्रयासों के
बावजूद भी वह
बार— बार अपना
सिर उठाता
रहेगा।
मैं यह
सुझाव नहीं
दूंगा कि तुम
उसका अतिक्रमण
करने का कोई
प्रयास करो।
मैं जो भी
सुझाव दूंगा, वह ठीक
इसके विपरीत
है : अतिक्रमण
करने की बात
भूल ही जाओ।
जितनी गहराई
से हो सके, उसमें
गति करो। जब
तक वह ऊर्जा
वहां है, तुम
जितनी गहराई
से उसमें जा
सकते, जाओ,
जितनी
गहराई से
प्रेम कर सकते
हो, उसे एक
कला बना लो।
इसमें करने
जैसा कुछ भी
नहीं है।
तंत्र
का यही पूरा
तात्पर्य है—’‘ प्रेम करने
को एक कला बना
लो। उसके
विभिन्न
रंगों और
अनुभवों का
बहुत ही सूक्ष्म
और नाजुक अर्थ
है जिसे केवल
वे लोग ही समझने
में समर्थ हो
सकते हैं जो
एक महान
सौंदर्य बोध
के साथ उसमें
प्रवेश करते
हैं। अन्यथा
तुम अपने पूरे
जीवन भर प्रेम
करते रह सकते
हो और फिर भी
असंतुष्ट बने
रहोगे, क्योंकि
तुम नहीं
जानते कि
संतुष्टि और
तृप्ति में भी
कुछ चीज
सौंदर्य बोध
जैसी ही है।
यह तुम्हारी
आत्मा में गूंजने
वाले एक
सूक्ष्म
संगीत की
भांति है। यदि
सेक्स के
द्वारा तुम
लयबद्ध हो
जाते हो, यदि
प्रेम के
द्वारा तुम तनावमुक्त
और
विश्रामपूर्ण
हो जाते हो।
यदि प्रेम
केवल बाहर
ऊर्जा को फेंक
देना ही नहीं
है, क्योंकि,
तुम नहीं
जानते कि उसके
साथ क्या किया
जाए यदि वह
केवल एक
छुटकारा पाना
न होकर एक
गहरा विश्राम
है, यदि
तुम अपनी
स्त्री में और
तुम्हारी
स्त्री तुममें
घुलकर
विश्रामपूर्ण
हो जाते हैं, यदि कुछ
क्षणों अथवा
कुछ घंटों के
लिए तुम यह
भूल जाते हो
कि तुम भी हो
और तुम पूरी
तरह विस्मृति
में खो जाते
हो, तो तुम
उससे कहीं
अधिक निर्दोष
शुद्ध और कुंवारे
बनकर बाहर
आओगे। और फिर
तुम्हारा
अस्तित्व एक
भिन्न प्रकार
का होगा—’‘ परम
विश्रामपूर्ण,
केंद्रित
और अपनी जड़ों
से जुड़ा हुआ।’’
यदि
ऐसा होता है
तो अचानक एक
दिन तुम देखोगे
कि बाढ़ उतर गई
है। और वह
तुम्हें बहुत—बहुत
समृद्ध बना कर
छोड़ गई है।
तुम्हें उसके
उतर जाने का
कोई अफसोस न
होगा। तुम उसे
धन्यवाद दोगे, क्योंकि
अब और अधिक
समृद्ध संसार
के द्वारा तुम्हारे
लिए खुल गए हैं।
जब सेक्स
तुम्हें
छोड़ता है तो
ध्यान के
द्वार खुल
जाते हैं। जब
सेक्स
तुम्हें
मुक्त करता है,
तब तुम अपने
आपको दूसरे
में खोने का
प्रयास नहीं
करते। तुम
स्वयं अपने आप
में ही खो
जाने में
समर्थ बन जाते
हो। अब
आत्मरति के
सर्वोच्च
शिखर अनुभव का
एक दूसरा
संसार तुम्हारे
ही अंदर
उत्पन्न होता
है। लेकिन यह
केवल दूसरे के
साथ बने रहने
से ही उत्पन्न
होता है; वह
स्वयं विकसित
होता है, और
दूसरे के
द्वारा ही
परिपक्व होता
है। तब एक
क्षण ऐसा आता
है, तब तुम
अकेले ही
अत्यधिक
प्रसन्न हो
सकते हो। अब
वहां किसी
दूसरे की
आवश्यकता
नहीं रह जाती
है। वह
आवश्यकता
समाप्त हो
जाती है, लेकिन
तुम उसके
द्वारा बहुत
कुछ सीखते हो—तुम
स्वयं और
तुमने उस
दर्पण को तोड़ा
नहीं है। अब
दर्पण में भी
देखने की भी
कोई जरूरत
नहीं रह जाती।
तुम अपनी आंखें
बंद कर सकते
हो और वहां
अपना चेहरा
देख सकते हो।
लेकिन तुम वह
चेहरा देखने
में समर्थ न
होगे यदि वहां
शुरू से ही
कोई दर्पण
नहीं होगा।
तुम अपनी
स्त्री को ही
अपना दर्पण
बना लो, तुम
अपने पुरुष को
ही अपना दर्पण
बना लो। उसकी आंखों
में झांको और
अपना चेहरा
देख लो। उसके
अंदर गतिशील
हो स्वयं अपने
आप को जान लो।
तब एक दिन
दर्पण की भी
आवश्यकता
नहीं होगी।
लेकिन तुम
दर्पण के
विरुद्ध न
होंगे, तुम
उसके प्रति
इतने अधिक
कृतज्ञ होगे—तुम
उसके विरुद्ध
कैसे हो सकते
हो? तुम
उसके प्रति
इतने अधिक
धन्यवाद से
भरे होंगे, फिर तुम
उसके विरुद्ध
कैसे हो सकते
हो? तभी
तुम उसके पार
जाते हो।
सेक्स
के पार जाना, दमन नहीं
है। यह
अतिक्रमण
स्वाभाविक
रूप से एक
विकास है तुम
उससे ऊपर उठते
हो, उसके
पार जाते हो
ठीक वैसे ही
जैसे कि एक
बीज टूटता है,
और अंकुरित
होकर भूमि से
ऊपर आता है, जब सेक्स
विसर्जित
होता है, बीज
भी मिट जाता
है। सेक्स में
तुम किसी अन्य
को एक बच्चे
को जन्म देने
में समर्थ
होते हो। जब
सेक्स समाप्त
होता है तो
उसकी पूरी
ऊर्जा तुम्हें
एक नया जन्म
देना शुरू कर
देती है। इसी
को हिंदू
द्विज होना
कहते हैं
अर्थात् दूसरा
जन्म। एक जन्म
तो तुम्हें
तुम्हारे
माता—पिता
देते हैं
लेकिन दूसरा
जन्म
प्रतीक्षा
करता रहता है।
वह तुम्हें
स्वयं देना
होता है।
तुम्हें
स्वयं ही उसका
पिता और मां
बनना होता है।
तब तुम्हारी
पूरी ऊर्जा
घूम कर
तुम्हारा अंतर्वर्तुल
(इनर सर्किल)
बन जाती है।
ठीक
अभी तुम्हारे
लिए यह 'इनरसर्किल ' बनाना
कठिन होगा।
इसे किसी
दूसरे ध्रुव
या छोर से
जोड़ना अधिक आसान
होगा। एक
स्त्री या एक
पुरुष और तब
वह वृत्त पूरा
बन जाता है।
तब तुम उस
वृत्त के
वरदान का आनंद
ले सकते हो।
लेकिन धीमे—
धीमे तुम उस इनरसर्किल
को बनाने में
समर्थ हो
सकोगे, क्योंकि
तुम अपने अंदर
भी एक पुरुष
या स्त्री, अथवा स्त्री
और पुरुष हो।
न तो कोई केवल
पुरुष है और न
केवल स्त्री,
क्योंकि
तुम पुरुष और
स्त्री दोनों
के संयोग से
जन्मे हो।
दोनों में
उसमें सहयोग
दिया है, कुछ
चीज तुम्हें
तुम्हारी मां
ने दी है कुछ
चीज तुम्हें
तुम्हारे
पिता ने दी है।
दोनों ने पचास—पचास
प्रतिशत
तुम्हें दिया
है। तुम्हारे
अंदर वहां
दोनों ही है।
तुम्हारे
अंदर ही यह
संभावना है कि
दोनों वहां
फिर मिल सकते
हैं। एक बार
फिर तुम्हारे
माता—पिता
तुम्हारे
अंदर प्रवेश
कर सकते हैं।
तभी तुम्हारा
वास्तविक
सत्य जन्मेगा।
एक बार वे तब
मिले थे जब
तुम्हारे
शरीर का जन्म
हुआ था। अब
यदि वे
तुम्हारे
अंदर मिल सकते
हैं तो तुम्हारी
आत्मा का जन्म
होगा। यही है
वह जिसे सेक्स
के पार जाना
कहते हैं। यह
सेक्स का उच्चतम
तल है।
मैं
तुमसे यही
कहना चाहता
हूं जब तुम
सेक्स के पार
जाते हो, तो तुम
सेक्स के अच्चतम
सोपान पर
पहुंचते हो।
सामान्यत
सेक्स बहुत
अधिक मात्रा
में है, अच्चतम सेक्स बहुत
अधिक है ही
नहीं।
सामान्य
सेक्स तो बाहर
की ओर गतिशील
है और अच्चतम
सेक्स अंदर की
ओर गतिशील है।
सामान्य
सेक्स में दो
शरीर मिलते
हैं और मिलना
बाहर होता है।
अच्चतम
सेक्स में तुम्हारी
स्वयं की अंदर
की दोनों ऊर्जाएं
ही मिलती हैं।
यह मिलन
शारीरिक न
होकर आत्मगत
होता है—यही
तंत्र है।
तंत्र है
सेक्स का
अतिक्रमण।
यदि तुम इसे
नहीं समझ सकते
और तुम सेक्स
के साथ संघर्ष
किए चले जाते
हो।
यह
प्रश्न प्रगीता
द्वारा पूछा
गया है। मैं
जानता हूं कि
वह अपने मन
में कुछ कठिन
क्षणों के बीच
से गुजर रही
है। वह
स्वतंत्र
होना चाहती है, लेकिन
अभी यह बहुत
जल्दी होगी
उसके लिए अभी
वह किसी अन्य
व्यक्ति के
बारे में
परेशान नहीं होना
चाहेगी, बल्कि
अभी इस निर्णय
के लिए यह
बहुत
जल्दबाजी होगी
और यह अहंकार
पूर्ण भी है।
ठीक अभी सेक्स
का अतिक्रमण
करना उसके लिए
सम्भव नहीं है
और इसमें दमन
की ही संभावना
है। और यह तुम
अभी दमन करती
हो तो अपनी
वृद्धावस्था
में तुम्हें
इसके लिए
पछताना होगा
क्योंकि तब
सभी चीजें गड़बड
की स्थिति
उत्पन्न
करेंगी।
प्रत्येक
वस्तु को करने
का उसका अपना
एक समय होता
है। प्रत्येक
वस्तु को उसी
क्षण ही करना
उचित है। जब
तक युवा हो, प्रेम से
डरो मत।
युवावस्था
में यदि तुम
प्रेम से डरोगी
तो
वृद्धावस्था
में तुम्हें
मन को वही
अपने कब्जे
में कर लेगा
और तब गहराई
से प्रेम में
गतिशील होना
कठिन होगा और
मन भ्रमित
रहेगा।
मेरी
समझ यही है कि
जो लोग यदि
ठीक से
प्रेमपूर्वक
और स्वाभाविक
रूप से जीवन
को जीते हैं, तब बयालिस
वर्ष की आयु
में सेक्स के
पार जाना
प्रारंभ हो
जाता है। यदि
वे स्वाभाविक
रूप से इस आयु
तक नहीं जीते,
तो वे सेक्स
से संघर्ष
करते रहते हैं
और तब बयालिस
वर्ष की अवस्था
सबसे अधिक खरतनाक
समय बन जाता
है। क्योंकि
बयालीस वर्ष
की आयु का जब
समय आता है तब
उनकी ऊर्जाएं
ढलान पर होती
हैं। जब तुम
युवा होते हो
तो तुम किसी
चीज का दमन भी कर
सकते हो, क्योंकि
तब तुममें
बहुत शक्ति और
ऊर्जा होती है।
इस तथ्य में
निहित व्यंग्य
को जरा देखो, एक युवा
व्यक्ति
कामवासना का
दमन बहुत
सरलता से कर
सकता है, क्योंकि
उसके पास उसका
दमन करने की
ऊर्जा है। वह
उसे दबाकर
उसके ऊपर बैठ
सकता है। जब ऊर्जाएं
शिथिल होने
लगती हैं, वे
विदा होने
लगती हैं, तब
कामवासना जोर
मारेगी और तुम
उस पर
नियंत्रण
रखने में समर्थ
न हो सकोगे।
मैंने
एक वृत्तान्त
सुना है
पैंसठ
वर्ष का स्टेन
जब अपने
डॉक्टर पुत्र
के कार्यालय
में उससे मिलने
गया तो उससे
कोई चीज ऐसी
देने को कहा, जो उसकी
कामवासना की
शक्ति को बढ़ा
सके। डॉक्टर
ने अपने पिता
को एक शक्तिवर्द्धक
इंजेव्यान
दिया और फीस
लेने से मना
कर दिया।
लेकिन फिर भी स्टेन ने
उसे दस डॉलर
स्वीकार करने
का आग्रह किया।
एक सप्ताह बाद
स्टेन ने
पुन: वापस आकर
डॉक्टर पुत्र
से दूसरा इंजेव्यान
देने को कहा
और इस बार उसे
बीस डॉलर दिए।
'' लेकिन
पापा! यह इंजेक्यान
तो केवल दस
डॉलर का है।’’
'' इसे
स्वीकार करो।’’
स्टेन ने कहा—’‘ दस
अतिरिक्त
डॉलर
तुम्हारी
मम्मी की ओर
से हैं।’’
ऐसा ही
होता रहेगा.....इसलिए
इससे पूर्व की
तुम पापा अथवा
मम्मी बनो, कृपया इस
चक्र को
समाप्त करो।
अपनी
वृद्धावस्था
आने की
प्रतीक्षा मत
करो क्योंकि
तब चीजें
भद्दी बन
जाएंगी। और हर
चीज समय और
मौसम के
विरूद्ध
होंगी।
दूसरा
प्रश्न :
प्यारे
ओशो! यह कहा जाता
है कि जब तक कोई
व्यक्ति किसी
जागे हुए
व्यक्ति के
सम्पर्क में न
आए? यह
असम्भव है कि
वह अपनsई
मूर्च्छा और
गहरी नींद से
बाहर आ सके यह
कैसे ज्ञात हो
कि कौन
व्यक्ति जान?
हुआ है?
यह एक जटिल
प्रश्न है।
ऐसे व्यक्ति
को जान पाना न
केवल कठिन है—यह
प्रश्न ही
इसलिए कठिन है
क्यों यदि अभी
तक तुम्हारे
अंदर ऐसे
व्यक्ति को
खोज पाने की
प्यास ही नहीं
उठी तक उसे
खोज पाने में
तुम्हारी
सहायता करने
का कोई तरीका
है ही नहीं।
यदि तुम्हारे
अंदर प्यास है
तो यह प्यास
ही तुम्हारी
सहायता करती
है। इसके
अलावा किसी
अन्य सहायता
की जरूरत ही
नहीं है।
तुम्हारी वह
प्यास ही
तुम्हारा
मार्ग बन जाती
है।
यदि एक
मरुस्थल में
तुम प्यासे हो, तो तुम
पानी कैसे खोज
सकोगे, तुम
एक नखलिस्तान
को कैसे पा
सकोगे? तुम
इधर—उधर
भागोगे, तुम
वह सभी कुछ
करोगे जो कर
सकते हो, क्योंकि
वह प्यास
तुम्हें मार
डालेगी। और वह
प्यास ही यह
तै करेगी कि
तुम असली जल
तक पहुंचे हो
अथवा नहीं? क्योंकि जब
तुम असली जल
तक पहुंचोगे,
तभी
तुम्हारी
प्यास बुझेगी।
यदि वह एक
मृगतृष्णा है
और दूर से
पानी जैसी
दिखाई देती है,
और जब तुम
उसके आमने—सामने
पहुंचते हो, तो तुम
जानोगे कि वह
पानी नहीं है।
तुम
कैसे जानते हो
कि कोई चीज
भोजन है? यदि तुम
भूखे हो, और
वह तुम्हारी
क्षुधा को
तृप्त करता है,
तुम उसे
जानते हो। उस
मनुष्य के लिए
यह बहुत कठिन
है कि कौन सी
चीज भोजन है, यदि उसे भूख
लगी ही नहीं
है।
मनोवैज्ञानिकों
ने एक बहुत
महत्त्वपूर्ण
तथ्य का पता
लगाया है कि
यदि छोटे
बच्चों को स्वयं
उनके ऊपर छोड़
दिया जाये तो
वे हमेशा खाने
के लिए ठीक
चीज का ही
चुनाव करेंगे।
तुम भोजन की
मेज पर उनके
खाने के लिए
हर चीज रख दो
और उनसे किसी
चीज को लेने के
लिए विवश न
करो और न उनसे
यह कहो कि
उन्हें कौन सी
चीज खानी है
और कौन सी चीज
नहीं खानी है।
यह अत्यन्त
महत्त्वपूर्ण
खोज है कि
बच्चे केवल
ठीक समय पर
ठीक वस्तु ही
खाते हैं। यदि
कोई बच्चा
किसी चीज से
कष्ट पा रहा
है और उसे
विशिष्ट
वस्तु की
आवश्यकता है
जो उसके कष्ट
को दूर करने
में सहायक हो
सकती है तो वह
खाने के लिए
उसी चीज का
चुनाव करेगा।
और जिस समय
उसकी वह तकलीफ
समाप्त हो
जाएगी, वह उसे खाना
बंद कर देगा।
हम लोग ही
उन्हें
भ्रमित कर
देते हैं। हम
उन्हें बताते
हैं कि यह चीज
खाओ और वह चीज
मत खाओ। तब
धीमे— धीमे
उनकी
प्राकृतिक
प्रवृत्ति
कार्य करना बंद
कर देती है।
क्या
तुमने पशुओं
को खाते हुए
देखा है? उन्होंने
अपने भोजन में
क्या लेना
चाहिए या क्या
नहीं, इस
बाबत किसी
विशेषज्ञ से
कोई सलाह नहीं
ली है, लेकिन
एक बैल अथवा
एक गाय अपने
खाने के लिए
मैदान में ठीक
घास का ही
चुनाव करती है,
अपने किसी
अंतर्बोध
अथवा मूल
प्रवृत्ति के
कारण ही। वे
दूसरी तरह की
घास की
पत्तियों को
छोड़ देंगे और
वह केवल वही
घास खायेंगे
जो उनके लिए
ठीक होगी। तुम
उन्हें धोखा
नहीं दे सकते।
किसी भी भांति
उनका आंतरिक
स्वभाव, उनकी
मूल
प्रवृत्ति और
उनकी भूख ही
यह तै करती है।
समस्या
यह है कि यह
कैसे जाना
जाये कि कोई
व्यक्ति
बुद्धत्व को
उपलब्ध या
जागा हुआ है
अथवा नहीं? यदि
तुम्हारे
अंदर भूख है
तो वहा कोई
समस्या खड़ी ही
न होगी। यदि
तुम्हें भूख
है ही नहीं तब
मैं कहता हूं
कि समस्या
बहुत कठिन है
और उसे हल
करना लगभग
असम्भव है।
यदि तुम्हें
भूख है और
उसकी तड़प है
तब एक बुद्ध
के आसपास रहते
हुए कोई चीज
तुम्हारी चाह
को संतुष्ट
करना शुरू कर
देगी। कोई चीज
तुम्हें
संतुष्ट करने
लगेगी और तुम
तृप्ति का
अनुभव करना
शुरू कर दोगे।
कोई चीज
लयबद्ध होकर
उस दिशा की ओर
बरसना शुरू हो
जाएगी।
तुम्हारे
अंदर का
कोलाहल शांत
होना शुरू हो
जायेगा। तुम
अपने अंदर एक
मौन और एक
शांति को जन्मने
का अनुभव करने
लगोगे और एक
नये अस्तित्व
का जन्म होगा।
बस केवल यही
तरीका है। लेकिन
यदि तुम्हारे
अंदर सच्ची
प्यास और तड़प
है ही नहीं, अथवा यदि
तुम समाज
द्वारा
भ्रमित होकर
उलझनों में
उलझे हो और
अन्य बाह्य
लक्षणों से ही
बंधे हो..।
उदाहरण
के लिए एक जैन
का खयाल है कि
एक बोध को उपलब्ध
व्यक्ति को
नग्न होना
चाहिए। अब यदि
तुम किसी ऐसे
व्यक्ति के
सम्पर्क में
आते हो, जो नग्न
नहीं है। तो
बुद्ध या जीसस
से वह जैन
संतुष्ट न हो
सकेगा। वह
कहेगा—’‘ यह
व्यक्ति
बुद्धत्व को
उपलब्ध है ही
नहीं, क्योंकि
एक बुद्ध को
तो नग्न होना
चाहिए। यह
मूर्खता है।
उसके अंदर भूख
और तड़प है
ही नहीं। उसने
केवल जो भी
जाना या सीखा
है, वह
केवल
शास्त्रों और
परम्परा के
द्वारा ही जाना
या सीखा है, वह केवल
शास्त्रों और
परम्परा के
द्वारा जाना
है। अब यदि
तुम एक ईसाई
हो और एक ईसाई
के रूप में ही तुम्हारा
पालन पोषण हुआ
है और तुम
जानते हो कि
क्राइस्ट
केवल वही
व्यक्ति है जो
क्रास पर लटका
है, तो यदि
कृष्ण
तुम्हारे
सामने बांसुरी
बजाते आ जायें
तो तुम करोगे
क्या? तुम
कहोगे—’‘ यह
व्यक्ति तो एक
जोकर दिखाई
देता है। यह
एक बुद्ध कैसे
हो सकता है? एक बुद्ध तो
सदा दूसरों के
लिए क्रॉस पर चढ़कर दुख
झेलता है, वह
दूसरों के
पापों का बोझ
अपने सिर पर
ढोता है। और
यह व्यक्ति तो
नृत्य करते
हुए गीत गा
रहा है। नहीं
अपने मन के
साथ वह क्रास
के विचार से
एक विशिष्ट
अनुशासन और
ढांचे में
आबद्ध हो गया
है, एक
बांसुरी उसे
ठीक नहीं
लगेगी। यह
उसके लिए
विश्वास करना
ही अस्म्भव
हो जायेगा कि
एक बांसुरी भी
बुद्धत्व का
संकेत दे सकती
है। हां, यदि
वहां क्रूस हो
तो वास्तव में
कोई बात है भी।’’
और
कृष्ण के
अनुयाइयों के
साथ भी ऐसा ही
होता है। वह
नृत्य, गीत और
बांसुरी को
जानता है। वह
विश्वास ही कर
पाता कि जीसस
किस वजह से
क्रॉस पर लटके
हैं। यदि तुम
उससे पूछो तो
वह कहेगा—
अपने पिछले
जन्म में
उन्होंने निश्चित
ही बहुत गलत
कृत्य किये
होंगे, अन्यथा
उन्हें सलीब
पर क्यों
लटकाया जाता?
फांसी
पर, क्रॉस
पर तो केवल
पापी ही लटकाये
जाते हैं। यही
कारण है कि
दुख भुगत रहे
हैं क्योंकि
हिंदुओं के
किसी भी अवतार
पुरुष को कभी
ऐसा कष्ट नहीं
सहना पड़ा।
असम्भव है।
हिंदुओं
के पास कर्म
का सिद्धांत
हैं। जो कुछ
भी होता है वह
तुम्हारे
कर्म से ही
होता है, कृष्ण
बांसुरी बजा
रहे हैं
क्योंकि उनके
कर्म बहुत
सुंदर और शुभ
हैं और वे ही
गीत बनकर जन्म
ले रहे हैं और
जीसस जरूर ही
एक पापी रहे
होंगे।
प्रश्न यह
नहीं है कि
दूसरों ने
उन्हें क्रॉस
पर लटकने के
लिए विवश किया।
कर्मों के
अतिरिक्त कोई
भी व्यक्ति
किसी को विवश
कर ही नहीं
सकता। ऐसा भी
नहीं है कि जुदास
ने उन्हें
धोखा दिया या
उनके साथ
गद्दारी की यह
उनका अपना
पिछला कर्म है।
कोई भी किसी
को धोखा दे ही
नहीं सकता।
यदि तुम्हारे
पिछले कर्म
शुभ हो तो कोई
भी तुम्हें
कष्ट दे ही नहीं
सकता।
अब यह
चीज समस्याग्रस्त
है। ये लोग
केवल
शास्त्रों की
और परम्परा की
बात सुनते हैं, उस समाज
की बात सुनते
हैं जिसमें
उन्होंने जन्म
लिया। जिसमें
चीजें दुर्घटनावश
घटती हैं। ऐसे
लोगों की
प्यास असली
नहीं है।
यदि
तुम्हारी
प्यास सच्ची
है तो तुम
जहां कृष्ण
बांसुरी बजा
रहे हैं, अपने को
संतुष्ट
पाओगे। और
तुम्हारी
प्यास सच्ची
है तो तुम
जीसस के निकट
भी ऐसा ही
संतोष पाओगे।
भले ही वे
क्रॉस पर हों
या कृष्णा
बांसुरी बजा
रहे हों, लेकिन
तुम पाओगे कि
दोनों ही
तुम्हारी भूख
के लिए भोजन
हैं। जीसस कई
बार अपने
शिष्यों से
कहते थे—’‘ मुझे
खा लो, मुझे
अपना भोजन बना
लो। मेरा रक्त
पियो और मेरे
शरीर को खा
जाओ।’’ जो
कुछ वे कह रहे
हैं, वह
यही है कि वे
भोजन हैं।
प्रश्नकर्त्ता ने पूछा
है—’‘ यह
कहा जाता है
कि जब तक कोई
व्यक्ति किसी
जागे हुए व्यक्ति
के सम्पर्क
में न आए यह
असम्भव है कि वह
अपनी
मूर्च्छा और
गहरी नींद से
बाहर आ सके।
यह कैसे ज्ञात
हो कि कौन
व्यक्ति जागा
हुआ है?''
मैंने
सुना है:
एक
मनुष्य एक
रिपोर्ट लिखाने
टहलता हुआ
पुलिस स्टेशन
गया कि उसकी
पत्नी खो गई
है। सार्जेन्ट
ने उससे पूछा
गया—’‘ वह
कितनी लंबी थी?''
'' लगभग
इतनी ऊंची, बस थोडी
सी इधर—उधर।’’ उसने इशारे
से लंबाई का
अंदाज बतलाया।
'' वजन
कितना होगा?''
'' मेरा
खयाल है लगभग
औसत, जितना
एक सामान्य
स्त्री का
होता है।’’‘' आंखों
का रंग?''
'' मैं
यह कहूंगा कि
उनका रंग बस
जैसे तटस्थ था।’’
'' बालों
का रंग?''
'' मुझे
मालूम नहीं।
उसका रंग
बदलता रहता था।’’
'' वह
क्या पहने हुए
थी?''
'' मेरा
खयाल है कोट
और एक हैट।’’
'' क्या
वह अपने साथ
कुछ ले जा रही
थी?''
'' हां!
उसके पास एक
कुत्ता था, एक जंजीर
में बंधा हुआ।’’
'' किस
तरह का कुत्ता
?''
'' एक
पुरानी
खानदानी नस्ल
का कत्थई रंग
पर सफेद धब्बों
वाला जर्मन शेफर्ड
कुत्ता। वजन
चालीस पाउंड,
छह हाथ ऊंचा,
लाइसेंस नं 4०1278976 जी.डी.
7 एक कत्थई
रंग का पट्टा
पहने। जो
दाहिने कान से
थोड़ा बहरा था
और रीवर
नाम पुकारने पर
जवाब देता था।’’
जब
प्रश्न
कुत्ते के
बारे में किए
गए तो वह
व्यक्ति
जीवंत हो उठा।
जब प्रश्न
उसकी पत्नी के
बारे में किया
गया था, कि वह कितनी
लंबी थी? लगभग
इतनी ऊंची, थोड़ी कम या
ज्यादा...। और
उसका वजन
कितना था—’‘ लगभग
औसत स्त्री
जितना।’’ और
उसकी आंखों का
रंग—’‘ मैं
यही कह सकता
हूं कि वह
स्कूल था। मैं
निश्चित रूप
से नहीं बता
सकता।’’
जब भी
वह तुम्हारी
अपनी कामना या
चाह हो, तुम उसे
जानते हो। यदि
वह तुम्हारी
चाह नहीं है, तब कहना
कठिन है।
इसलिए वह
व्यक्ति
जिसने मुझसे
यह प्रश्न पूछा
है, लालची
हो सकता है
लेकिन उसकी
अभी तक कोई
चाह नहीं है।
और मैं उस
व्यक्ति को
जानता हूं। वह
कभी शिवानंद
आश्रम, कभी
अरविंदो
आश्रम कभी रमण
महर्षि के
आश्रम कभी
सत्य साईं
बाबा के पास
और कभी इधर
उधर, वह हर
जगह जाता रहता
है। अब मैं
उसका आखिरी
शिकार हूं और
वह कहीं भी कोई
भी चीज खोज ही
नहीं सकता। जो
उसे संतोष दे
सके।
उससे
मूल प्रश्न
अभी तक पूछा
ही नहीं गया—’‘ क्या तुम
भूखे हो?'' इस
रेस्टोरेंट
से उस रेस्तरां
जाने भर से
कोई सहायता
मिलने की नहीं,
क्षुधा
होनी जरूरी है।
यह मनुष्य
लालची है, लेकिन
उसके पास भूख
नहीं है। यह
मनुष्य बहुत
विद्वान है, लेकिन वह
सजग नहीं है।
वह शास्त्रों
का ज्ञाता है,
वह उन्हें
तोते की तरह
दोहरा सकता है,
लेकिन उसके
पास समझ नहीं
है। वह इसी
तरह के प्रश्न
बार—बार पूछे
चले जाता है।
यह पहला ही
अवसर है कि
मैं उसके
प्रश्न का उत्तर
दे रहा हूं
क्योंकि जब
क्षुधा ही
नहीं है वहां
उस बारे में
बात करना ही
व्यर्थ है।
अच्छा यही है
कि उन्हें
धर्म के बारे
में सब कुछ
भूलकर संसार
में जाकर ही
रहना चाहिए।
इस
जीवन में या
अगले जीवन में
पहले वह चाह
वह क्षुधा
जागृत हो।
इसमें किसी
जल्दी करने की
कोई जरूरत ही
नहीं।
परमात्मा
प्रतीक्षा कर
सकता है।
लेकिन
वह उत्पन्न तो
हो। वह
प्रामाणिक
होना चाहिए।
उसकी चाह या
क्षुधा अभी
सिर्फ नकली है।
उसने भोजन के
बारे में बहुत
चर्चा सुनी है
अथवा टीबी. पर
भोजन के बारे
में विज्ञापन
देख सुनकर
उसके मन में
इसके प्रति
लालच उत्पन्न
हो गया है।
लेकिन वह कभी
भी अपने अंदर
यह देखता ही
नहीं है कि
वहां कोई
क्षुधा या
तीव्र चाह है
या नहीं, और इसीलिए
कुछ भी नहीं
घटता है।
एक बार
वह मेरे पास
आये और
उन्होंने कहा, '' मैं अरविंदो
आश्रम भी गया
हूं मैं रमण
महर्षि के
आश्रम में भी
रहा हूं मैं
ऋषिकेश
शिवानंद के
पास भी गया
हूं और मैं अरुणाचल
या इधर—उधर भी
गया हूं और
कहीं कुछ भी
नहीं घटा। अब
मैं आपके पास
आया हूं।’’
मैंने
कहा, '' इससे
पहले कि आप
मेरे बारे में
भी यही कहें
कि कुछ भी
नहीं घटा। मैं
आपसे कहना
चाहता हूं कि
कुछ घटेगा भी
नहीं—क्योंकि
मैं आपके अंदर
कोई चाह देखता
ही नहीं। मैं
आपके अंदर कोई
टिमटिमाहट
अथवा भावावेग
भरी प्यास देखता
ही नहीं।’’
उनके
पास पैसा है
इसलिए वह कहीं
भी जा सकते हैं।
वह अपने जीवन
से निराश हो
चुके हैं, अपने
जीवन से बुरी
तरह ऊब गए हैं,
इसलिए इधर—उधर
भटकते हुए कम
से कम कोई
उत्तेजना, कोई
उमंग या
रोमांच
ढूंढने की
कोशिश कर रहे
हैं और वह
अत्यंत
अहंकारी
व्यक्ति हैं,
इसलिए वह
अध्यात्म—विरोधी
होकर खोजने की
कोशिश नहीं कर
सकते हैं। वह
आध्यात्मिक उमंगों को
खोजने की
कोशिश कर रहे
हैं और कुछ भी
नहीं घटता है।
निरीक्षण
करें. .जो मूल
चीज स्मरण
रखने की है वह
यह है कि क्या
तुम्हारे अंदर
तीव्र चाह या
क्षुधा है? यदि वह है
ही नहीं, फिर
परेशानी
क्यों? वह
तुम्हारे लिए
है ही नहीं।
इन लोगों को
परमात्मा के
बारे में
चर्चा—परिचर्चा
करने दो, वह
तुम्हारे लिए
है ही नहीं।
तुम संगीत—समारोह
में नहीं जाते
हो, यदि
तुम्हारे पास
संगीत सुनने
वाले कान नहीं
है और न ही तुम
उस बारे में
परेशान होते
हो। तुम किसी
संगीतज्ञ का
संगीत सुनने
नहीं जाते हो,
तुम किसी नर्त्तक
का नृत्य
देखने नहीं
जाते हो, तुम
किसी चित्र
दीर्घा में
चित्र देखने
नहीं जाते हो,
यदि
तुम्हारे पास
सौंदर्य बोध
नहीं है, तो
तुम वहां जाते
ही नहीं हो।
लेकिन
धर्म के बारे
में अन्य
समस्याओं में
से एक समस्या
यही है, जिन लोगों
को इसकी समझ
है ही नहीं, वे भी धर्म
को पाने के
बारे में
लालची बन जाते
हैं। और अब वे
वृद्ध होते जा
रहे हैं और
मृत्यु आ पहुंची
है। अब वह कोई
ऐसी चीज
प्राप्त करना
चाहते हैं, जिसे वे
मृत्यु के पार
भी अपने साथ
ले जा सके। वह
सिर्फ भयभीत
हैं।
उन्होंने
अपना जीवन
जिया ही नहीं
है और जब तुम
अपने जीवन को पूरी
तरह जिया ही
नहीं, तब
तुम धर्म की
ओर गतिशील
नहीं हो सकते।
केवल
वही व्यक्ति
जो अपना जीवन
सच्चाई से
जीता है, तो वह एक ऐसे
बिंदु पर
पहुंचता है, जहां जीवन
के पार जाने
की एक नई चाह
उठती है। तुम
मृत्यु से
भयभीत हो सकते
हो, तो
तुम्हारी चाह
भी नकली होगी।
यदि तुमने
जीवन को प्रेम
करते हुए उसे
जिया है, और
उसे इतना अधिक
प्रेम किया है
कि अब तुम
अज्ञात जीवन
के बारे में
भी जानना
चाहते हो, तो
यह मृत्यु के
भय से नहीं, जीवन के
प्रति प्रेम
के कारण ही है,
तब तुम यदि
किसी बुद्ध के
निकट जाते हो,
तो तुम उसे
तुरंत पहचान
लोगे। उसे चूक
जाना फिर
असम्भव होगा।
तुम उसे तुरंत
पहचान ही लोगे।
इस पहचान के
लिए किसी
जानकारी की
जरूरत नहीं है।
यह बस सरलता
से होगा ही।
तुम्हारे
पास से जब कोई
सुंदर स्त्री
गुजरती है, तो तुम
उसे कैसे
पहचान लेते हो?
तुम्हारे
पास उसकी कौन
सी कसौटी है? लेकिन यदि
तुम्हारे
अंदर चाह है, अचानक तुम
पहचान लेते हो
कि वह स्त्री
सुंदर है। यदि
कोई व्यकित
तुमसे पूछता
है और तुम्हें
यह स्वीकार
करने पर विवश
करने की कोशिश
करता है कि
तुम ठीक ठीक
बताओ कि
सुंदरता होती
क्या है, तो
तुम मुसीबत
में पड़ जाओगे।
तुम उसे
परिभाषित
करने में
समर्थ न हो
सकोगे। आज तक
कोई भी इसे
परिभाषित
करने में
समर्थ नहीं हो
सका है
दार्शनिक उस
पर सदियों से
काम करते रहे
हैं और
सुंदरता क्या
है, इसे
परिभाषित
करने की कोशिश
करते रहे हैं
और अंत में वे
इसी निष्कर्ष
पर पहुंचे कि
इसकी व्याख्या
को ही नहीं जा
सकती। लेकिन
इसके बावजूद
भी तुम
सुंदरता का
अनुभव करते हो।
यदि तुम एक
छोटे से बच्चे
से बात करो, जिसकी चाह
अभी परिपक्व
नहीं हुई है
और तुम उससे
कहो—’‘ यह
स्त्री सुंदर
है, तो वह
तुम्हें
आश्चर्य से
देखकर अपने
कंधे उचकायेगा
और यह कहते
हुए अपने
रास्ते चला
जाएगा—’‘ यह
व्यक्ति तो
पागल हो गया
है। सभी
स्त्रियां एक
जैसी होती है।’’
एक छोटे
बच्चे के लिए
इससे कोई भी
फर्क नहीं पड़ता।
वह यह नहीं
देख पाता कि
एक स्त्री के
बारे में ऐसा
क्यों सोचा
जाना चाहिए कि
वह सुंदर है
और दूसरी नहीं
है।
वास्तव
में वह एक ही
स्त्री को
जानता है, जो सुंदर
है और वह उसकी
मां है और वह
भी किन्हीं
अन्य कारणों
से, सुंदरता
के कारण नहीं।
वह उसका पालन पोषणकरती
है, वह उसका
जीवन है और
इसलिए वह
सुंदर है।
लेकिन एक दिन
जब उसमें
कामना जागती
है और उसका
प्रेम
परिपक्व होता
है तो वह
भिन्न दृष्टि
से देखना शुरू
कर देगा। तब
सभी
स्त्रियां एक
जैसी नहीं
लगेंगी। तब
निश्चित रूप
से कुछ
स्त्रियां
ऐसी होंगी, जो सुंदर
हैं, तब
निश्चित रूप
से ऐसे पुरुष
भी होंगे जो
अत्यधिक
सुंदर और
चुम्बकीय आर्कषण
रखते हैं।
लेकिन एक दिन
फिर जब कोई भी
व्यक्ति बहुत
सजग और समझदार
बनता है तो
फिर सभी
स्त्री पुरुष
एक जैसे ही हो
जाते हैं। तब
फिर सुंदरता
और कुरूपता से
कोई अंतर नहीं
पड़ता। तब फिर द्वैतता
के पार चला
जाता है वह।
जब तुम
किसी बोध को
उपलब्ध
व्यक्ति के
निकट जाते हो, यदि
तुम्हारे
अंदर तीव्र
चाह या प्यास
ही न हो, तो
कुछ भी नहीं
घटता। तुम
केवल अपने
कंधे उचकाओगे।
और कहोगे—’‘ लोग
जाने क्यों इस
व्यक्ति की ओर
आकर्षित होते
हैं?'' तुम
उसमें कोई भी
चीज नहीं देख
पाते। वहां
कुछ भी नहीं
है। वह उतना
ही साधारण और
सामान्य है, जितने तुम
अथवा वह
तुम्हारी
अपेक्षा कहीं
अधिक साधारण
हो सकता है।
तुम नहीं देख
सकते कि उसके
पीछे लोग
क्यों पागल
होते हैं? लेकिन
यदि तीव्र
प्यास है वहां,
यदि खोज
शुरू हो चुकी
है। यदि तुमने
अपने दूसरे
अज्ञात जीवन
के लिए वह तड़प
अर्जित की है,
तब तुरंत जब
तुम किसी ऐसे
व्यक्ति के
सम्पर्क में
आते हो तो
तुम्हें
अनुभव हो जाना
शुरू हो जाता
है।
महावीर
के बारे में
एक सुंदर कथा
कही जाती है।
जो लोग महावीर
को चाहते थे
वे चौबीस मील
दूर से ही
उनके बारे में
होशपूर्ण हो
जाते थे।
महावीर के
चारों ओर
चौबीस मील का
घेरा उनकी उपस्थिति
और होने से
इतनी अधिक
ऊर्जा से भर
जाता था कि वे
लोग जिनके
अंदर प्यास और
तीव्र चाह होती
थी, उस
ऊर्जा
क्षेत्र में
आते ही महावीर
द्वारा उनके
स्वयं के
विरुद्ध भी
खींच लिए जाते
थे। वे लोग भले
ही कहीं और जा
रहे हों, पर
फिर वे वहां
जाने में
समर्थ न हो
पाते थे। वे
उनके
चुम्बकीय
आकर्षण
द्वारा खींच
लिए जाते थे।
उन्हें वहां
आना ही पड़ता
था। वे लोग इस
व्यक्ति को
कुछ अज्ञात
तरीके से खोज
लेते थे। और
वे किसी पेड़
के नीच बैठे
होते या किसी
गुफा में सभी
से छिपे हुए
होते थे। और
वहां ऐसे भी
लोग थे जो
उनके सामने
होकर गुजर
जाते और
उन्हें देखकर
सोचते थे कि
वह पागल हैं न
केवल पागल, बल्कि ठीक
एक अपराधी की
तरह जो वहां
नग्न खड़े हैं।
या तो वह
अपराधी हैं
अथवा एक मूर्ख
है, वे लोग
सोचते हैं कि
उन्हें
मारपीट कर शहर
के बाहर कहीं
दूर फेंक दिया
जाए और वे लोग
उन्हें वह स्थान
छोडने के लिए
विवश करते और
दोनों तरह के
लोग थे। एक
तरह के लोग
उन्हें बाहर
फेंकने और
उन्हें पीटने
वाले थे। तो
दूसरे तरह के
लोग उनसे
आकर्षित होकर खिंचे चले
आते थे। यह सब
कुछ तुम्हीं
पर निर्भर है।
मैंने
एक घटना के
बाबत सुना है:
एक
विवाहित
स्त्री ने
विवाह कराने
वाले दलाल से
पूछा—’‘ क्यों
भाई! आखिर
तुम्हारे
दिमाग में
क्या कुछ चल
रहा है?''
'' मैंने
आपके पुत्र के
लिए लड़की चुन
ली है।’’ उसने
गर्व के साथ
घोषणा करते
हुए कहा—’‘ वह
राजकुमारी
सेफ्टी विलेनेनी
है, जो
संसार की सबसे
अधिक धनी युवा
स्त्रियों में
से एक है।’’
उस
स्त्री ने
उसकी बात बीच
में ही काटते
हुए कहा—’‘ यदि वह पूरे संसार
की सबसे अधिक
युवा धनी स्त्री
है। तो मैंने
अब तक कभी भी
उसका नाम
क्यों नहीं सुना?''
लेकिन
श्रीमती जी।
वह एक
आश्चर्यजनक
लड़की है।
विवाह कराने
वाले दलाल ने
आग्रह करते
हुए कहा—’‘ लेकिन वह
अत्यंत सुंदर,
सत्रह वर्ष
से भी कम आयु
की अत्यधिक
कुशल गोताखोर
तथा स्कीइंग
में कुशल और
अच्छी गोल्फर
भी है। फिर
सबसे बड़ी बात
यह कि वह
राजपरिवार की
है।’’
उस
स्त्री ने
उससे सहमति
प्रकट करते
हुए कहा—’‘ इससे मुझे
कोई फर्क नहीं
पड़ता, लेकिन
ठीक है। फिर
मैं तुम्हें
इसके लिए अपनी
सहमति दे दूंगी
और अपने पुत्र
का इस
राजकुमारी से
विवाह करने पर
मुझे कोई
आपत्ति नहीं
होगी।’’ विवाह
के दलाल ने एक
गहरी सांस
लेते हुए मन
ही मन कहा—’‘ चलो,
आधी लडाई तो
जीत ली मैंने।’’
धर्म के
सम्बंध में
आधी लड़ाई
तुमसे शुरू
होती है। यदि
तुम्हारे
अंदर तीव्र
चाह और प्यास
है, तो
तुमने आधी
लडाई जीत ली
और शेष आधी तो
बहुत आसान है।
तब तुम्हारे
पास आंखें
होंगी। लेकिन
यदि तुम्हारे
पास क्षुधा या
तड़प ही
नहीं, तब यह
असम्भव है कि
तुम एक बुद्ध
को पहचान सको।
तुम अंधे हो, तुम देख ही
नहीं सकते।
यदि एक अंधा
व्यक्ति आकर
पूछे—’‘ जब
मैं रोशनी के
सामने जाऊंगा,
तो उसे पहचानूंगा
कैसे? तो
तुम उससे
कहोगे क्या? वह उसे कैसे
पहचान सकता है?
पहचानने के
लिए तो दृष्टि
की, आंखों
की जरूरत होगी।’’
जिसके
लिए तुम्हारी
सच्ची और
तीव्र चाह
होती है, तुम हमेशा
उसे प्राप्त
कर लेते हो, इसके अन्यथा
कभी भी हुआ ही
नहीं। यदि तुम
मुझे कहने की
इजाजत दो, तो
मैं यही
कहूंगा कि
वास्तव में
तुमने अब तक जो
कुछ भी
प्राप्त किया
है, वह वही
है जिसके लिए
तुम्हारी चाह
और आवेगमय
तड़प थी।
मुल्ला नसरुद्दीन
घर प्रत्येक
बार शराब पीकर
ही लौटता था।
और उसकी पत्नी
उसे खुलेआम
जोर—जोर से
बुरा भला कहती
थी। एक दिन एक
दयालु पड़ोसी
ने उसे सलाह
देते हुए कहा—’‘ आपको ऐसा
नहीं करना
चाहिए। आपको
उनके शराब
पीने पर ध्यान
न देते हुए इस
बाबत कुछ कहना
ही नहीं चाहिए।
उनके साथ प्रेमपूर्ण
और दयालु बनिए
और आप देखेंगी
कि वह एक नये
इंसान बन गए
हैं। आज रात
जब वह घर वापस
लौटें तो आप
इन्हें एक गहरा
चुम्बन दें।’’
उस रात
मुल्ला लड़खड़ाता
हुआ घर लौटा, लेकिन
उसकी पत्नी को
दी गई सलाह
याद थी, इसलिए
उसने उसका
चुम्बन लेने
के लिए अपने
होंठों को
फैलाते हुए
आगे बढ़कर कहा—’‘
प्रियतुम! मुझे चूमो।
मेरा चुम्बन
लो।’’
मुल्ला
लड़खड़ाते
हुए अपने
होंठों को
खोलकर आगे बढ़ा
और उसके माथे
पर चुंबन दिया।
उसने फिर होठ
चूमने की
कोशिश की, लेकिन
फिर चूक गया
और उसके कान
ही चूम सका।
वह तीसरी
कोशिश में भी
चूक गया और
उसके गालों पर
ही अपने होंठ
रख सका।
उसकी
पत्नी अपने
मुंह की ओर
संकेत करती
हुई बोली—’‘ लफंगे बदमाश! यदि
वह शराबघर का
दरवाजा होता
तो तू उसे
फौरन ढूंढ
लेता।
तुम्हें मेरे
होंठ नही
मिलते?’‘
तुम वह
हमेशा ढूंढ
लेते हो, जिसे तुम
वास्तव में
खोजना चाहते
हो। तुम्हारी
जो तीव्र चाह
होती है वह
पूरी होती है।
यदि वह पूरी
नहीं होती तो
अपने अंदर
झांकना, कहीं
न कही तुम
अपनी चाह से
ही चूक रहे हो।
हिंदुओं
के इतिहास के
एक महान संत
वाल्मीकि के
बारे में एक
बहुत सुंदर
कहानी है।
पहले वह एक हत्यारे
और डाकू थे।
उन्हीं ने
रामकथा लिखी
है जो संसार
में एक बहुत
सुंदर
महाकाव्य है।
उनका डाकू से
संत में
रूपांतरण हो
गया। उनका
रूपांतरण कुछ
इस तरह से हुआ
कि वह लगभग अविश्वसनीय
लगता है। वह
एक महान पापी
थे लेकिन वह
एक बार महान
शिक्षक के
निकट गए और
उनसे पूछा कि
वह किस तरह
अपने पापों से
मुक्त हो सकते
हैं? उस
महान शिक्षक
ने उन्हें
परामर्श दिया—’‘
राम का नाम
तुम एक दिन
में एक हजार
बार जपा करो।’’
वह अकेले एक
पर्वत पर चले
गए और मंत्र
का भजना शुरू
किया, लेकिन
अपनी शुभ—चाह
के बावजूद
उनसे एक गली
हो गई और ' राम
' का उल्टा '
मरा ' शब्द
का जाप करने
लगे।
ऐसा
होता ही है कि
यदि तुम तेजी
से '' राम,
राम राम
'' का
उच्चारण करो
तो तुम गड़बड़
कर सकते हो और
राम का उल्टा '
मरा, मरा
मरा ' का
उच्चारण हो
सकता है। यह
सब कुछ इसी
तरह से हुआ।
वह बहुत तेजी
से मंत्र जाप
कर रहे थे और
उन्होंने यह
नाम पहले कभी
सुना भी नहीं
था। यह उनके
लिए लगभग
अनजानी भाषा
थी। उन्होंने
उसे याद करने
की बहुत कोशिश
की, लेकिन
किसी तरह वह
सही शब्द भूल
ही गए और—’‘ मरा,
मरा मरा
'' का जाप
वर्षों तक
करते रहे।
कई
वर्षों तक यह
जाए करने के
बाद वह वापस
फिर उन्हीं
महान शिक्षक
के पास गए
जिन्होंने
तुरंत अनुभव
कर लिया कि अब
यह व्यक्ति
सभी पापों से
मुक्त होकर
पूरी तरह
पवित्र हो गया
है। और पवित्र
ही नहीं वह
बोध को उपलब्ध
भी हो गया है।
उस
शिक्षक ने
पूछा—'' क्या
तुमने उस
पवित्र नाम का
उच्चारण गाते
हुए किया था?''
'' जी
हां! मेरे गुरुवर!''
पूर्व—पापी
ने उत्तर दिया—’‘
मैं दस
वर्षों तक
प्रति दिन एक
हजार बार, ' मरा,
मरा मरा
' मंत्र का
जाए करता रहा।’’
वह
शिक्षक इतने
जोर से ठहाका
मार कर हंसे
कि सभी पर्वत
हिल उठे और
उनका हास्य
तरंगित होकर दूर
दूर तक
पूरे
ब्रह्मांड
में चारों ओर
फैल गया जैसे
झील में पानी
की तरंगें एक
छोटे पत्थर को
सीप के अंदर
मोती में बदल
देती है। उस
महान शिक्षक
ने कभी पी रहे
उस शिष्य को
अपनी भुजाओं
में भर लिया
और कहा—’‘ तुम्हारी
चाह शुभ के
लिए थी। वह
अत्यंत शुभ थी
और उसी ने
तुम्हारी रक्षा
की, यद्यपि
तुमने जिस ' मरा, मरा,
मरा ' मंत्र
का जाप किया
वह यमराज का
नाम है।’’
' राम '
है नाम
परमात्मा का
और ' मरा ' नाम है
मृत्यु के
दानव का—लेकिन
यदि वहां चाह
हो, तड़प हो, सच्ची
प्यास हो तब
प्रत्येक चीज
ठीक हो जाती है।
यहां तक कि
मृत्यु के
दानव का। दानव
के नाम से भी
सब कुछ हो
जाता है। बस
केवल उनका
उद्देश्य शुभ
था, उनमें
परमात्मा के
प्रति
भावावेग बहुत
तीव्र था।
अपने को पापों
से शुद्ध करने
के लिए वे दस
वर्षों तक
प्रति दिन दस
हजार बार
निरंतर ' मरा,
मरा मरा
' का जाप
करते रहे। गलत
विधि भी
सहायता करेगी,
यदि चाह
अत्यंत तीव्र
हो, वह तड़प
और प्यास बन
जाए और यहां
तक कि ठीक
विधि भी अधिक
सहायता नहीं
करेगी यदि चाह
ही नपुंसक हो।
इसे
स्मरण रखें :
यदि तुम बोध
को उपलब्ध
व्यक्तियों
के निकट जाकर
भी उन्हें न
पहचान सको, तो
जिम्मेदारी
उन बुद्धों पर
मत डालों।
अपने ही अंदर
झांक कर
निरीक्षण करो
क्या तुम अभी
भी तैयार हो? ऐसा भी हुआ
है कि जो लोग
बोध को उपलब्ध
नहीं हुए थे, उन्होंने भी
जब कभी
बुद्धत्व को
उपलब्ध होने में
लोगों की
सहायता की है।
यदि खोजी की
प्यास बहुत
तीव्र हो तो
भी वह व्यक्ति
जो बोध उपलब्ध
नहीं भी है, सहायता कर
सकता है।
एक
महान
रहस्यदर्शी मिलेरेप्पा
के बारे में
ऐसा ही कहा
जाता है। जब
तिब्बत में वह
अपने गुरु के
पास गया तो वह
इतना अधिक
विनम्र, इतना पवित्र
और इतना अधिक
प्रामाणिक था
कि वहां अन्य
शिष्यों को
उससे ईर्ष्या
होने लगी। यह निश्चित
था कि वह गुरु
का
उत्तराधिकारी
बनता। और
वास्तव में उस
आश्रम में
राजनीति चल
रही थी, इसलिए
उन लोगों ने
उसे मार डालने
का प्रयास किया।
एक दिन उन
लोगों ने उससे
कहा—’‘ यदि
तुम वास्तव
में सद्गुरु
के प्रति
पूर्ण श्रद्धा
रखते हो तो
क्या तुम इस
पहाड़ी से नीचे
कूद सकते हो? यदि तुम वास्तव
में गुरु पर
विश्वास करते
हो, यदि
तुम्हारी
श्रद्धा
सच्ची है तो
तुम्हें कुछ
भी हानि नहीं
हो सकती।’’
और मिलेरेप्पा
बिना किसी
हिचक के, बिना एक
क्षण सोचे
पहाड़ी से नीचे
कूद पड़ा। वे दौडते हुए
नीचे पहुंचे
क्योंकि वह
लगभग तीन हजार
फुट गहरी घाटी
थी। उसकी इधर—उधर
बिखरी
हड्डियां
खोजने के लिए
वे लोग नीचे पहुंचे,
लेकिन वह
वहां पद्यासन
लगाये बहुत
प्रसन्न और
अत्यधिक आनंदपूर्ण
स्थिति में
बैठा मिला।
उसने
अपने नेत्र
खोले और कहा— '' तुम लोग
ठीक कहते थे, विश्वास और
श्रद्धा ही
रक्षा करते
हैं।’’
उन
लोगों ने सोचा
कि यह जरूर ही
कोई संयोग हो
सकता है।
इसलिए जब एक
दिन एक घर में
आग लगी थी तो
उन लोगों ने
उससे कहा—’‘ यदि तुम
अपने सद्गुरु
से प्रेम करते
हो, उन पर
श्रद्धा रखते
हो, तो इस
घर के अंदर
जाकर लोगों को
बचाओ।’’
वह
तुरंत उस घर
में लगी आग के
अंदर चला गया, जहां एक
स्त्री और एक
बच्चा रह गया
था। आग बहुत
भयानक थी और
सभी यह आशा कर
रहे थे कि वह जल
जायेगा, लेकिन
वह बिना जले
बाहर आ गया।
एक दिन
वे सभी कहीं
जा रहे थे और
सभी को एक नदी
पार करनी थी।
उन लोगों ने
उनसे कहा—’‘ तुम्हें
तो नाव से नदी
पार करने की
कोई जरूरत है
ही नहीं।
तुम्हारे पास
तो इतनी महान
श्रद्धा और
विश्वास है, तुम तो नदी
पर चल सकते हो।
और वह नदी के
जल पर चलता
हुआ उस पार जा
पहुंचा।’’
यह
पहला अवसर था
कि सद्गुरु ने
यह चमत्कार
देखा। वह उसके
प्रति अनजान
था। जब उसे
पहाड़ी से घाटी
में कूदने को
और जलते घर में
प्रवेश करने
को कहा गया था।
वह इन घटनाओं
के प्रति
होशपूर्ण था
ही नहीं।
लेकिन इस बार
उसने नदी
किनारे स्वयं
खड़े—खड़े उस
नदी के जलपर
चलते हुए देखा
था।
उसने मिलेरेप्पा
से कहा—’‘ तुम यह क्या
कर रहे हो? यह
तो असम्भव है।’’
और मिलेरेप्पा
ने कहा—’‘ बिलकुल भी
असम्भव नहीं
है। मैं यह सब
कुछ आपकी ही
शक्ति द्वारा
ही कर रहा हूं।’’
अब वह
सद्गुरु
विचार में पड़
गया—’‘ यदि
मेरे नाम और
मेरी शक्ति से
यह अज्ञानी और
मूर्ख
व्यक्ति यह सब
कुछ कर सकता
है... और मैंने स्वयं
कभी ऐसी कोशिश
ही नहीं की।’’
इसलिए
उसने कोशिश की
और वह नदी में डब
गया। इसके बाद
उसके बारे में
कभी कुछ भी
नही सुना गया।
एक ऐसा
सद्गुरु जो
बोध को उपलब्ध
नहीं भी हुआ हो, उसके
प्रति भी यदि
श्रद्धा गहरी
हो, तो वह
भी तुम्हारे
जीवन में
क्रांति ला
सकता है। और
इसका विपरीत
भी सत्य है, एक बुद्ध भी
तुम्हारी कोई भी
सहायता नहीं
कर सकता, यदि
तुम्हारी
प्यास गहरी और
सच्ची नहीं है।
यह सभी कुछ
तुम्हीं पर
निर्भर करता
है पूरी तरह
तुम्हीं पर।
आज बस इतना ही।
आज इतना
ही।
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