दिनांक
19 जूलाई 1976;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
प्रश्नसार:
पहला
प्रश्न :
प्यारे
भगवान! अब
वहां न कोई
खोज रही और न
कोई तलाश रही
वह सब कुछ बंद
कर दिया मैने
उसमें कुछ भी
तो विशिष्ट
नहीं पाया, लेकिन अब
मैं अपने को
स्वतंत्र
पाता है जैसे सभी
से मुक्त हो
गया हूं मैं
अपने काम धंधे
पर बाहर जाता जरूर
हूं पर बिना
किसी
व्यग्रता के यह
मेरे लिए
वरदान और आशीर्वाद
जैसा है? और
मैं यहां आपकी
उपस्थिति में
उमड़ती कृतज्ञता
की एक बाढ़ का
अनुभव करता
हूं।
यहां खोजने
के लिए कुछ भी
विशिष्ट या
खास नहीं है।
किसी विशिष्ट
की खोज ही
भ्रमपूर्ण है, पूरी तरह
से एक धोखा है।
मन कुछ
विशिष्ट चीज
की खोज करना
चाहता है, मन
के साथ यही समस्या
है। परमात्मा
कोई विशिष्ट
चीज अथवा कोई
विशिष्ट अस्तित्व
नहीं है।
परमात्मा है—पूर्ण अस्तित्व। जो सभी कुछ है, वही परमात्मा है। परमात्मा एक महान विश्वजनीन व्यापकता, और एक परम नियम है। तुम उसे कहीं भी खोज नहीं सकते, क्योंकि वह हर कहीं है। तुम उसे किसी खास स्थान में नहीं खोज सकते, क्योंकि वह पूर्ण और अखण्ड है। तुम उसकी ओर इशारा नहीं कर सकते, जो भी इशारा होगा, वह गलत ही होगा। वह सभी दिशाओं में है। वह सभी में है और सभी के बिना भी है।
परमात्मा है—पूर्ण अस्तित्व। जो सभी कुछ है, वही परमात्मा है। परमात्मा एक महान विश्वजनीन व्यापकता, और एक परम नियम है। तुम उसे कहीं भी खोज नहीं सकते, क्योंकि वह हर कहीं है। तुम उसे किसी खास स्थान में नहीं खोज सकते, क्योंकि वह पूर्ण और अखण्ड है। तुम उसकी ओर इशारा नहीं कर सकते, जो भी इशारा होगा, वह गलत ही होगा। वह सभी दिशाओं में है। वह सभी में है और सभी के बिना भी है।
मन
बहुत संकीर्ण
है, वह
उसे बहुत
एकाग्रता से
खोजे चला जाता
है। एकाग्रता
के द्वारा तुम
परमात्मा के
निकट नहीं
पहुंच सकते।
एकाग्रता, मन
का मार्ग है।
परमात्मा
सर्वत्र, सभी
जगह है, इसलिए
तुम्हें
विश्राममय
होना होगा, तुम्हें
ध्यानी बनना
होगा।
एकाग्रता और
ध्यान में यही
अंतर है।
एकाग्रता है
मन को किसी
चीज पर पूरी
तरह केंद्रित
करना। और कामना
क्या है: एक
एकाग्र मन, एक ऐसा मन
जिसका कहीं
पहुचने का
इरादा है, किसी
चीज तक
पहुंचना है, एक महान खोज
करनी है—लेकिन
इसे संकीर्ण
बनाना होता है
और परमात्मा
है अनंत।
तुम्हें
विश्राममय
होना होगा, और
तुम्हें सारी
खोज छोड़नी
होगी—केवल तभी
तुम उसे पा
सकोगे। खोजो,
और तुम उसे
कभी भी नहीं
पाओगे। जो कुछ
तुम्हारे चारों
ओर है, केवल
उसके साथ बने
रहो और वह
वहां
तुम्हारे चारों
ओर सदा से ही
है। उसने एक
क्षण के लिए
भी कभी
तुम्हें छोड़ा
ही नहीं, क्योंकि
तुम उसके बिना
जीवित ही नहीं
रह सकते। एक
क्षणांश भी
उसके बिना
जीवित रहना
असम्भव है। ‘ वह ‘ तुम्हारा
जीवन है। वह
तुम्हारा
अस्तित्व है।
तुम भोजन के
बिना महीनों
तक जीवित रह
सकते हो, तुम
बिना पानी के
भी कुछ दिनों
तक जीवित रह
सकते हो, तुम
कुछ क्षणों तक
बिना वायु के
भी जीवित रह सकते
हो, लेकिन
तुम बिना
परमात्मा के
क्षण के एक
छोटे से भाग अर्थात्
क्षणांक भी
जीवित नहीं रह
सकते। यह
असम्भव है।
यहां
मेरा प्रयास
यही है:
विश्राममय
होने में तुम्हारी
सहायता करना।
मैं यहां
तुम्हें
तनावपूर्ण और
महत्त्वाकांक्षी
बनाने के लिए
नहीं हूं। मैं
इसलिए भी नहीं
हूं यहां, कि तुम
परमात्मा को
खोजने की
कामना में लगे
रहो। एक
व्यक्ति जो
खोज रहा है, वह अभी
संसार में ही
है। खोजी
संसार का ही
एक भाग है। एक
दिन वह धन, शक्ति
और प्रतिष्ठा
खोज रहा था, अब वह
परमात्मा, आशीर्वाद
और स्वर्ग खोज
रहा है, लेकिन
खोज जारी है, उसने केवल
खोज की
वस्तुएं बदल
दी हैं, लेकिन
वह वैसा ही
बना हुआ है।
मैं यहां
तुम्हारी
सहायता करने
के लिए हूं जिससे
तुम यह आवश्यक
बात समझ लो कि
परमात्मा की स्थिति
तो पहले ही से
वही है। तुम
ठीक उस मछली
की तरह हो, जो
पहले ही से
सागर में है।
यह हो सकता है
कि सागर इतना
अधिक विराट और
स्पष्ट है कि
तुम उसे देख
नहीं सकते:
तुम उसी में
जन्मे हो, तुम
उसी से पोषित
हुए हो और उसी
में लुप्त हो
जाओगे। यह
प्रश्न पहचान
का है, खोज
का नहीं है।
एक
खोजने वाला
चित्त एकाग्र
बन जाता है।
विश्राममय
होकर उसे
पहचानो।
इसलिए मैं
तुमसे
परमात्मा
खोजने के लिए
नहीं कहता, मैं
तुमसे ठीक अभी
उसे जीने के
लिए कहता हूं।
वहां उसे
खोजने की कोई
आवश्यकता ही
नहीं—ठीक अभी
उसका आनंद लो,
उत्सव मनाओ।
इसे एक समारोह
और त्यौहार
बनाओ। वह पहले
ही से घटित हो
चुका है। वह
केवल
तुम्हारी ही
प्रतीक्षा कर
रहा है कि तुम
उसके साथ नाचो
और आनंद मनाओ।
अच्छा
है। गिरीश
पूरी तरह ठीक
कह रहा है: ‘‘ मैंने
उसमें कुछ भी
विशिष्ट नहीं
पाया।‘‘ सबसे
आवश्यक बात
यही है: कुछ भी
उसमें
विशिष्ट या
खास नहीं मिला
उसे...... ‘‘लेकिन
मैं स्वतंत्र
होने का अनुभव
करता हूं मैं
जैसे सभी से
मुक्त हो गया
हूं...... ‘‘ ठीक
यही बिंदु
समझने जैसा है।
एक बहुत बड़ी
मुक्ति की
आवश्यकता है—इच्छाओं
से मुक्ति, खोज से
मुक्ति, तलाश
करने की
मुक्ति और
संकीर्ण
मस्तिष्क से मुक्ति।
एक व्यक्ति
सभी आयामों
में बस
विश्राम ही
करता है। जब
तुम विश्राम
करते हो, तुम
बहुआयामी बन
जाते हो, जब
तुम खोजते हो,
तो एक ही
आयाम में रहते
हो। जब तुम
विश्राम करते
हो, तुम
अखण्ड के एक
भाग बन जाते
हो, जब तुम
खोज करते हो, तो तुम
अहंकार में
बने रहते हो।
यह कुछ
नहीं ही वह
परमात्मा है, और यह
स्वतंत्रता, यह अपरिमित
मुक्ति—
जिसमें
तुम्हें
बांधने को फिर
कोई कामना रहती
ही नहीं, किसी
भी बंधन का
कोई भी अस्तित्व
रहता ही नहीं, वहीं मोक्ष
है, और
वहीं मुक्ति
है। मोक्ष या
मुक्ति कोई
भौगोलिक चीज
नहीं है।
ऐसा
नहीं कि यह
कहीं किसी
स्थान में हो, या
तुम्हारे
मरने के बाद
मिलने वाली
कोई चीज हो, यह ‘ यहीं
‘ और अभी ‘ में
रहने की एक
पहचान है।
सारी खोज और
तलाश से मुक्त
हो जाओ।
इस
संसार में
यहां केवल दो
ही तरह के लोग
हैं पहली तरह
के लोग निरंतर
खोजते ही रहते
हैं। वे खोजते
हैं और वे कभी
भी पाते नहीं, क्योंकि
पाने का मार्ग
खोजना नहीं है।
वे एक चीज
खोजते हैं, तब दूसरी
चीज, तब
फिर कोई अन्य
चीज, वे
निरंतर अपनी
वस्तुएं बदलोग
रहते हैं, लेकिन
वे खोज जारी
रखते हैं। ये
सभी एक आयामी
लोग हैं। वे
परमात्मा से
चूक जाते हैं
क्योंकि
परमात्मा
बहुआयामी है।
यह सभी एक
सीधी रेखा में
चलने वाले लोग
हैं और परमात्मा
सभी दिशाओं
में व्यास है।
तुम उसे रेखीय
तर्क के
द्वारा नहीं
पा सकते।
तब
यहां दूसरी
तरह के लोग भी
हैं—बहुत थोड़े
से लोग, जो खोजते ही
नहीं, जो
आनंद मनाते
हैं, जो
कुछ भी उन्हें
उपलब्ध हो उसी
में प्रसन्न रहते
हैं, जो
नाचते और गाते
हैं। ये बाउल
हैं, ये ही
लोग वास्तव
में
प्रामाणिक
धार्मिक मनुष्य
हैं।
परमात्मा
कहीं भविष्य
में नहीं है।
यदि तुम
आनंदित हो, तो वह यहीं
है। यदि तुम
उत्सव मना रहे
हो तो तुम उसे
ठीक अपनी बगल
में पाओगे, लेकिन यदि
तुम उसे खोज
रहे हो, तो
तुम उसे कहीं
भी न पाओगे।
खोजने वाला मन
कभी सत्य तक
पहुंचता ही
नहीं। और कोई
भी जो बहुत
अधिक खोजी बन
जाता है, धीमे—
धीमे बहुत
अधिक अभ्यास
से वह अपने को
नियमित और
नियंत्रित कर
लेता है।
इसीलिए तुम
खोज करते ही
जाते हो। तुम
कल भी खोज रहे
थे, तुम आज
भी खोज रहे हो,
तुम कल भी
खोजोगे, अपने
पूर्व जन्मों
में भी तुम
खोज रहे थे, इस जीवन में
भी तुम खोज
रहे हो, और
भविष्य के
जन्मों में भी
तुम उसे
खोजोगे।
खोजना एक आदत
बन जाती है।
वह एक ढांचा
बन जाता है।
इस ढांचे को
गिरा दो।
यही
मेरा संदेश है। ‘वह‘ यहीं,
अभी, इसी
क्षण है। ‘ उससे
‘ चूको मत।
यहां खोजने की
कोई आवश्यकता
ही नहीं है, तुम्हें भी
केवल यहीं बने
रहना है, इस
समय ‘ वह ‘ यहीं है, और
उससे मुलाकात,
अंतर्संवाद,
और परमानंद
की अनुभूति, सभी कुछ हो
सकती है तुम
उसके साथ
मिलकर एक बन सकते
हो।
‘‘मैं
अपने काम—
धंधे के
सम्बंध में
बाहर जाता
जरूर हूं पर
बिना किसी
उत्कंठा के—‘‘बहुत सुंदर
है। क्योंकि
तब हर चीज उसी
की है, काम
धंधा भी उसी
का है। जब तुम
स्नान कर रहे
हो, तो तुम
उसी को नहला
रहे हो। जब
तुम शावर के
नीचे खड़े हो, तो ‘वह‘ ही तुम पर
बरस रहा है।
जब तुम भोजन
कर रहे हो, तो
वह ही खा रहा
है, और जब
तुम तृप्त
होने का अनुभव
कर रहे हो तो
वह ही तृप्त
हो रहा है।
जब तुम
गीत गा रहे हो, वह ही
तुम्हारे
अंदर गा रहा
है, और वही
उसका श्रोता
भी है। वह ही
तुम्हें सुन
भी रहा है।
प्रत्येक
क्षण और
प्रत्येक
कर्म उसकी
उपस्थिति से
आलोकित हो
उठता है—जागने
पर वही तुममें
जागता है, सोते
हुए वह ही
सोता और
विश्राम करता
है—तब वहां
कुछ भी उलझन
होती ही नहीं।
तब एक
लयबद्धता
घटित होती है।
यही है वह
धार्मिक जीवन,
और इस बारे
में यही सब
कुछ है।
धार्मिक जीवन,
साधारण
जीवन से कोई
पृथक चीज नहीं
है। यह किसी
मंदिर या मठ
का जीवन नहीं
है, यह वह
जीवन है, जो
पूर्ण रूप से,
बेशर्त, समग्रता
से परमात्मा
को समर्पित है।
अब कोई इस तरह
जीता है, क्योंकि
वह चाहता है
कि तुम जीवित
रहो। और कोई
इस कारण
प्रसन्न रहता
है, क्योंकि
उसने तुम्हें
अपना उपकरण
बनाने के लिए
चुन लिया है।
तब तुम उसके
अधरों की एक
बांसुरी बन
जाते हो तब
प्रत्येक चीज
अत्यधिक
सुंदर बन जाती
हैं। यह वही
है जिसे बाउल
कहना चाहते
हैं
‘‘और
मैं यहां आपकी
उपस्थिति में,
उमड़ती
कृतज्ञता की
एक बाढ़ का
अनुभव करता
हूं।‘‘ कृतज्ञता
तब उमड़ती है, तुम जब भी
परमात्मा की
उपस्थिति
अपने चारों ओर
अनुभव करते हो,
और तब
कृतज्ञता ही
रह जाती है।
तब तुम्हारी
पूरी ऊर्जा एक
अहोभाव बन
जाती है, तब
तुम्हारा
पूरा
अस्तित्व
धन्यवादी बन जाता
है, वह एक
प्रार्थना बन
जाता है—क्योंकि
तुम किसी भी
चीज से नहीं
चूक रहे हो, और यह संसार
इतना अधिक
पूर्ण और
समृद्ध है, और यहां
प्रत्येक चीज
है, जिस
प्रकार उसे
होना चाहिए।
कृतज्ञ होना
स्वाभाविक है।
कृतज्ञता कोई
ऐसी चीज नहीं
है, जिसका
अभ्यास किया
जा सके। तुम्हें
कृतज्ञ होना
सिखाया गया है,
लेकिन तुम
हो नहीं सकते।
कृतज्ञता एक
परिणाम है, जब तुम
परमात्मा को
अपने निकट
महसूस करते हो,
कृतज्ञता
स्वयं उमडती
है। यह एक बाई—प्रोडक्ट
है। सम्मान
भाव सहज रूप
से उठता है।
यह सम्मान भाव
कुछ ऐसी चीज
है, जो
तुमसे परे है।
तुम्हें
सिखाया गया है
कि तुम अपने
माता—पिता के
प्रति कृतज्ञ
बनो, तुम्हें
सिखाया गया है
कि तुम अपने
शिक्षकों के
प्रति और अपने
से बड़ों के
प्रति कृतज्ञ
बनो, लेकिन
यह सभी केवल
अनुशासन और
आदतों में
ढालने का प्रयास
है। जब असली
कृतज्ञता का जन्म
होता है तब
तुम देख सकते
हो कि उसमें
वहां कितना
बड़ा अंतर होता
है। जो
कृतज्ञता
सिखाई गई थी, वह केवल एक
धारणा थी, एक
मृत
कर्मकाण्ड था।
तुम ठीक एक
मशीन की तरह
उसका पालन कर
रहे थे। जब
असली
कृतज्ञता
तुम्हारे
अस्तित्व में
ऊर्ध्वगामी
होती है, तब
तुम्हें पहली बार
यह अनुभव होता
है कि क्या
होती है
प्रार्थना और
क्या होता है
प्रेम?
अच्छा
है, यह
स्मरण बना ही
रहे, यह
विश्राम बना
ही रहे, यह
अनुभव जो
तुम्हें हो
रहा है, इसे
खोना नहीं है
यह जारी रहे, यह अनुभव
केवल वह अनुभव
है, जो
जीवन को
अर्थपूर्ण
बनाता है, जो
जीवन को एक
दीप्ति और एक
वरदान देता है।
तुम धन्यभागी
हो, लेकिन
इस गैल को कभी
छोड़ना नहीं है।
इसे पाना बहुत
कठिन है और
इसे खो देना
भी बहुत सरल
है—क्योंकि मन
का एक लम्बा
इतिहास रहा है
और यह बहुत
शक्तिशाली है,
और यह नया
अनुभव अभी ठीक
एक अंकुर जैसा
है, बहुत
कोमल, नाजुक।
मन की वजनी
चट्टान उसे
किसी भी क्षण
कुचल सकती है,
इसलिए बहुत
सजग रहना है।
जो लोग
परमानंद के
आध्यात्मिक
अनुभव जैसी कोई
भी चीज नहीं
जानते हैं, जिन्होंने
कभी भी
परमात्मा की
कोई उपस्थिति महसूस
नहीं की है, उन्हें बहुत
सजग होने की
कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन वह
व्यक्ति जिसे
उसका अनुभव है,
जिसने एक
झलक देखी है, जिसे एक
छोटी सतोरी
लगी है, उसके
पास खोने के
लिए बहुत कुछ
है। उसे बहुत
सावधान रहना
होगा। अधिक
सावधान बनो।
उसे घटने की
स्वीकृति दी
जो तुम्हें
घटा है और
अधिक से अधिक
जिसे घटना है।
अपनी जड़ें और
गहराई तक ले
जाओ जिससे
नाजुक अंकुर
मजबूत हो जाये
और जो कुछ नया
है उसकी जड़ें
तुम्हारे
अस्तित्व में
गहराई तक उतर
जायें।
वास्तव
में जो लोग
खोज रहे हैं, उसे तलाश
कर रहे हैं, वे ही इस
बारे में अधिक
शोर करते हैं,
क्योंकि ये
ही लोग पूरी
तरह बेखबर हैं,
और जब वे
अंत में वहां
पहुंचते हैं,
वे पाते हैं
कि वहां कुछ
भी नहीं है।
मैंने
सुना है :
एक
वकील मुल्ला
नसरुद्दीन से, जो गवाही
दे रहा था, प्रश्न
पूछ रह था।
उसने पूछा— ‘‘ और आप यह
कहते हैं कि
आप दूसरी मई
को श्रीमती सुलाना
से भेंट करने
उनके घर गये? अब क्या आप
जूरी को यह
बतायेंगे कि उन
श्री मतीजी ने
आपसे कहा क्या
?‘‘
मुल्ला
के पक्ष के
वकील ने टोकते
हुए कहा— ‘‘यह प्रश्न
पूछे जाने से
मुझे ऐतराज है।‘‘
और दोनों
वकीलों के बीच
लगभग एक घंटे
तक इसी बाबत
बहस चलती रही।
अंत में
न्यायाधीश ने
प्रश्न पूछने
की अनुमति दे
दी।
पहले
वकील ने फिर
शुरुआत करते
हुए पूछा— ‘‘ और जैसा
कि मैं कह रहा
था कि आप दो मई
को श्रीमती
सुलाना से
मुलाकात करने
के लिए उनके
घर गये थे, अब
आप बतायें
उन्होंने
आपसे क्या कहा?‘‘
नसरुद्दीन
ने उत्तर दिया— ‘‘ कुछ भी
नहीं। वह घर
पर मिली ही
नहीं।‘‘
एक दिन
जब तुम पहुंच
जाते हो, तुम आश्चर्य
में पड़ जाते
हो कि जिस चीज
के लिए तुम जन्मों—जन्मों
से खोज कर रहे
थे, जो
वहां कभी थी
ही नहीं, और
जो वहां थी ही
नहीं, वह
तुम्हारे ही
पास थी और उसे
खोजने की कोई
जरूरत थी ही
नहीं।
प्रसन्न
रहो, आनंदित
रहो।
परमात्मा कोई
वस्तु नहीं है,
वह एक तरीका
या एक दिशा है,
वह उत्सव
आनंद के
समारोह को
मनाने का एक
ढंग है। उदासी
छोड़ो। वह
तुम्हारे
इतने अधिक
निकट है नाचो!
लम्बो लटके
चेहरों से उसे
चोट लगती है
क्योंकि वह
तुम्हारे
अत्यंत निकट
है। अपने छोटे—मोटे
दुखों और
चिंताओं को
भूल जाओ।
महत्त्वहीन
चीजों के बारे
में सोचे ही
मत जाओ, वह
तुम्हारे
इतने अधिक
निकट है। उसे
स्वीकृति दो
कि वह
तुम्हारा हाथ
थाम ले। वह
काफी लम्बी
अवधि से
तुम्हारी ही
प्रतीक्षा कर
रहा है।
दूसरा प्रश्न
:
यदि
आपको कभी एक
बाउल, एक तात्रिक
और एक योगी से
मिलने का अवसर
मिले तो आप
किसके साथ चाय
पीना पसंद करेंगे?
यह बहुत जटिल
प्रश्न है।
उत्तर देना
आसान नहीं है, लेकिन
फिर भी मैं
प्रयास
करूंगा।
मैं
योगी से
कहूंगा कि वह
एक प्याला चाय
तैयार करे, क्योंकि
ये लोग बहुत
शुचिता और
शुद्धता से रहते
हैं। और मैं
तांत्रिक से
कहूंगा कि वह
उसे ‘ सर्व
‘ करे
क्योंकि वे
जानते हैं कि
किसी चीज को
कैसे भेंट या
प्रस्तुत
किया जाये, वे इसके
सारे नियम
कानून और
कर्मकाण्ड
जानते हैं।
लेकिन
मैं चाय तो
बाउल के ही
साथ पीने जा
रहा हूं।
तीसरा
प्रश्न :
जब कोई
सभी विचारों
से खाली हो
जाता है? सारी
योजनाएं और
सभी इच्छाओ से
शून्य हरे
जाता है? तो
उस व्यक्ति के
बाह्य और आंतरिक
जीवन में किस
तरह का
रूपांतरण
घटित होता है?
वह किस तरह
का आचरण करेगा?
वह कैसे
चीजों को देखकर
और वह संसार
में कैसे
रहेगा? कृपया
बताने का कष्ट
करें?
यह निर्भर
करता है, यह
व्यक्तिगत
रूप से निर्भर
करता है। इस
बारे में कोई
भी अधिकृत
वक्तव्य नहीं
दिया जा सकता,
क्योंकि
वैयक्तिक रूप
से प्रत्येक
व्यक्ति अनूठा
होता है। जब
बाशो
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुआ तो
उसने कविता
गाना शुरू कर
दिया, कविताएं
और बुद्ध ने
ऐसा कभी नहीं
किया। जब
कृष्ण
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुए उन्होंने
नाचना और गाना
शुरू कर दिया,
पर महावीर
ने ऐसा कभी
नहीं किया। जब
महावीर
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुए तो
वह वर्षों तक
मौन ही रहे, परिपूर्ण
मौन, एक
विचार की तरंग
को भी उठने की
अनुमति नहीं थी।
मीरा ने ऐसा
नहीं किया। जब
वह बुद्धत्व
को उपलब्ध हुई
वह वह गांव—गांव
जाकर नाचने
लगी, उसने
कृष्ण की
महिमा के गीत
गाये। इस बारे
में कोई
अधिकृत
वक्तव्य देना,
इसलिए बहुत
कठिन है।
यहां
ऐसे भी लोग
हैं, कि
वे जब
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुए तो
उन्होंने संसार
और जीवन को ही
छोड़ दिया, और
समाज से जितनी
दूर जाना
सम्भव था, हिमालय
में चले गए।
यहां ऐसे भी
लोग है कि वे
जब बुद्धत्व
को उपलब्ध हुए
तो यदि वे
हिमालय में
रहे रहे थे उन
दिनों, वे
वापस संसार
में आ गए और
लोगों के साथ
फिर से रहना
प्रारम्भ कर
दिया। यहां
ऐसे भी लोग
हुए हैं, जो
बुद्धत्व
घटने पर भी, सम्राट ही
बने रहे। झेन
सद्गुरु, बहुत
साधारण जीवन
व्यतीत करते
चले जाते थे
और उनको
पहचानना भी
कठिन हो जाता
था। यदि
तुम्हारे पास
अंतर्तम तक
उतर जाने वाली
वह दृष्टि
नहीं है, तो
तुम उन्हें
पहचान न सकोगे।
महान
झेन—सद्गुरु
रिनझाई के
बारे में यह
कहा जाता है—सम्राट
उनसे भेंट
करने के लिए
आए। वह अपने
आश्रम के ठीक
सामने
लकड़ियां काट
रहे थे।
सम्राट ने
पूछा— ‘‘ तुम्हारे
सद्गुरु कहां
है? रिनझाई
ने कहा— ‘‘वह
अंदर आश्रम
में हैं।‘‘ अब
निश्चय ही
सम्राट ने
सोचा कि
उन्हें आश्रम के
अंदर जाना
चाहिए इसलिए
वे आश्रम के
अंदर गए।
रिनझाई किसी
दूसरे द्वार
से भागता हुआ
कमरे में सद्गुरु
की कुर्सी पर आंखें
बंद किए बैठ
गया। जब
सम्राट वहां
पहुंचा तो
उसने पहचान
लिया— ‘‘ यह
व्यक्ति तो
ठीक उस जैसा
ही, ठीक
लकड़हारे जैसा
दिखाई देता है।‘‘
उन्होंने
पूछा—यह मामला
क्या है? आप हैं कौन? क्या आप
मुझे मूर्ख
बना रहे हैं
अथवा आप वास्तव
में सद्गुरु
ही हैं?‘‘
रिनझाई
ने उत्तर दिया— ‘‘ लेकिन
मैंने आपको
बतलाया कि वह
अंदर हैं और
उस समय आप
मुझे समझ नहीं
सके इसीलिए
मुझे भाग कर यहां
आकर इस कुर्सी
पर बैठना पड़ा।
हो सकता है आप
गहराई में न
समझकर उथलापन
ही समझते हों।
मैं तब वहां
भी अपने को
प्रकट करने को
तैयार था, लेकिन
आपने
प्रतीक्षा ही
नहीं की। हां!
मैं ही
सद्गुरु हूं
अब आप मुझसे
चाहते क्या
हैं ?और
मेरा अधिक समय
व्यर्थ नष्ट
मत कीजिए
क्योंकि मुझे
अभी भी बची
लकड़ियां
काटने के लिए
बाहर जाना है।‘‘
झेन
सद्गुरु बहुत
साधारण जीवन
बिताते थे, वे
लकड़ियां काटते
थे, कुंए
से पानी
निकालकर उसे
इधर से उधर
ढोकर ले जाते
थे, वे
रसोईघर में
स्वयं भोजन
पकाते थे। जब
तक तुम्हारे
पास वह दृष्टि
न हो, तो
उन्हें समझ
पाना बहुत
कठिन है। वे
किसी भी तरह
का कोई भी
असाधारण जीवन
व्यतीत नहीं
करते थे, क्योंकि
वे कहते थे— ‘‘ असाधारण
बनने की खोज
ही
अहकारपूर्ण
है। ‘ र्केवल
साधारण बन कर
रहना ही एक
धार्मिक व्यक्ति
का असली
व्यवहार होता
है। और स्मरण
रहे असाधारण
बनने की
प्रवृत्ति ही
बहुत साधारण
है। इस बारे
में वहां
असाधारण कुछ
भी नहीं है, क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति
असाधारण बनना
चाहता है।
साधारण बनना
ही बहुत
असाधारण है, क्योंकि कौन
साधारण बनकर
रहना चाहता है?
इसलिए
यह बहुत कठिन
है, और
मैं तुम्हें
इसका निर्णय
करने को कोई
भी मापदण्ड या
कसौटी न दे
सकूंगा, क्योंकि
ये मापदण्ड
बहुत
हानिकारक और
विध्वसंक
सिद्ध हुए हैं।
एक बार
तुम्हारे साथ
जब यह मृत
मापदण्ड होंगे,
तो तुम बहुत
से प्रामाणिक
लोगों से चूक
जाओगे और तुम
बहुत से नकली
लोगों से धोखा
खा जाओगे। जो
कोई भी
व्यक्ति उस
मापदण्ड पर
पूरा उतर सकेगा,
तुम्हे
लगेगा कि वही
बुद्ध हैं।
उदाहरण
के लिए:
महावीर
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुए वह
नग्न हो गए।
अब कोई भी
व्यक्ति नग्न खड़ा
हो सकता हैं
इस सम्बंध में
यहां कुछ भी
विशेष बात
नहीं है। कोई
भी पागल
व्यक्ति ऐसा
कर सकता है।
और तुम इसे
देखने किसी भी
नग्न लोगों की
क्लब में जा
सकते हो, लेकिन वे
लोग महावीर
नहीं है।
बुद्ध, बुद्धत्व
को उपलब्ध हुए
वह एक विशिष्ट
आसन, पद्यासन
में बैठ गए। तुम
भी पद्मासन
में बैठ सकते
हो। यदि तुम
पूरब के हो, तब तुम्हारे
लिए यह बहुत
सरल है, और
यदि तुम
पश्चिम के हो,
तो इसके
अभ्यास के लिए
छ: माह लगेंगे,
और इतना सब
कुछ यथेष्ट है।
तुम पद्मासन
की मुद्रा में
बैठ सकते हो, लेकिन यह
तुम्हें
बुद्ध न बना
सकेगा।
तुम
बहुत सरलता से
अनुकरण कर
सकते हो, और ऐसे ही
जाने कितने
अनुकरण करने
वाले यहां पूरे
संसार में हैं।
जाओ, और
जाकर किसी जैन
मुनि को देखो :
वह पूरी तरह
अनुकरण करता
है, लेकिन
कुछ भी नहीं
है वहां।
बुद्धत्व
हमेशा नूतन और
ताजा होता है—वह
अनुकरण नहीं
होता, वह
अनुकरण नहीं
होता, वह
कोई कार्बन
कापी नहीं
होता, वह
हमेशा मालिक
होता है।
इसलिए मैं
तुमको यह ठीक—ठीक
नहीं बता सकता
कि वह कैसे
व्यवहार या
आचरण करेगा, लेकिन मैं
तुमको यह बता
सकता हूं कि
उसे कैसे ग्रहण
किया जाए। यदि
वहां ऐसा कोई
व्यक्ति है, जिसके पास
उस अज्ञात की
सुवास जैसी
कुछ चीज उसके
चारों ओर
बिखरी हुई एक
वातावरण
उत्पन्न कर रही
है— ‘‘तब उसे
ग्रहण कैसे
करोगे? सारे
विचार, सभी
बुद्धिगत
विचारों को
गिरा दो। यह
मत पूछो कि
उसे उसके समान
होना चाहिये,
बस, केवल
उसके
सान्निध्य
में बने रहो।
केवल उसके साथ
मौन में बैठो
अपने हृदय के
द्वार खोलकर
बैठो। यदि वह
व्यक्ति
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो गया
है, तो
अचानक
तुम्हें अंदर
ऐसे स्पंदन का
अनुभव होगा, जिन्हें
इससे पहले
तुमने कभी भी
नहीं जाना, तुम्हारी
ऊर्जा ऊपर
उठना शुरू हो
जायेगी। तुम
देखोगे कि
तुम्हारे
अंदर एक गहन
मौन व्यास हो
गया है, और
बूंद—बूंद कर
परम आनंद की
रसधार
तुम्हारे
अस्तित्व के आंतरिक
केंद्र पर बरस
रही है।
एक
बुद्धत्व को
उपलब्ध
व्यक्ति, यदि तुम उसे
अंदर प्रवेश
करने की
अनुमति दो, तुम्हें
स्वयं स्पष्ट
प्रमाण दे
देगा। लेकिन
वे प्रमाण
बुद्धिगत
नहीं होंगे, वे मन के
तर्क नहीं
होगे। वह अपने
पूरे
अस्तित्व से
प्रमाण देता
है। उसका
प्रमाण उसकी
उपस्थिति ही
है—इसलिए उसकी
उपस्थिति को
महसूसो और कोई
अन्य मापदण्ड
लेकर मत चलो।
यदि तुम जैन
हो, तो
बुद्ध से चूक
जाओगे, यदि
तुम जैन हो तो
जीसस से चूक
जाओगे! यदि
तुम ईसाई हो, तो तुम
महावीर से चूक
जाओगे। तुम
विचारों का एक
स्थाई
निश्चित
ढांचा अपने साथ
लिये यदि तुम
यह अनुभव करते
हो कि वहां कोई
ऐसा व्यक्ति
है जो तुमसे
अधिक जीवंत, तुमसे अधिक
दीप्तिवान, तुमसे कहीं
अधिक समझ वाला
है और उसके
अस्तित्व से
करुणा
प्रवाहित हो
रही है, तब
केवल उसकी उपस्थिति
में, उसके
साथ बनो रहना।
यह वही है
जिसे हम
सत्संग कहते
है: केवल उसकी
उपस्थिति में
बने रहना। यदि
वह कहीं पहुंच
गया है, तो
तुम्हें
अकस्मात्
अपने
अस्तित्व में
एक एक खिंचाव
का अनुभव होगा—तुम
किसी अज्ञात
केंद्र की ओर
खींच लिए जाते
हो। और
तुम्हें
अत्यधिक, बोध
प्रज्ञा तथा
सभी गुणों के
संग्रह से
उत्पन्न एक
अद्भुत
सौंदर्य और
आनंद का अनुभव
होगा।
तुम्हें
लगेगा जैसे
आनंद तुम पर
चारों ओर से बरस
रहा है। केवल
यही इसकी
कसौटी होगी, लेकिन इसके
लिए तुम्हें
पहले से तैयार
होना होगा।
सामान्य
रूप से लोग पूछते
हैं—हमें कोई
वस्तुगत
मापदण्ड
दीजिए। ऐसा
कोई है ही
नहीं।
मापदण्ड केवल
यही हो सकता
है कि तुम
खुले हुए रहो।
यह जानने का
ही कौन सा
मापदण्ड है कि
यह फूल, गुलाब है
अथवा नहीं? मापदण्ड
केवल एक ही है
कि तुम अपनी आंखें
खुली रखो, अपने
नासापुटों को
खोल उन्हें शो,
उस सुवास को
अपनी आत्मा तक
पहुंचने दो, केवल उसी से
पता चलेगा।
लेकिन यदि
तुम्हारे पास
दृष्टि ही
नहीं है और
तुम गंध लेने
की संवेदना ही
खो चुके हो, तब यह जानना
तुम्हारे लिए
बहुत कठिन हो
जाएगा कि यह
फूल गुलाब ही
है या कुछ और
है। वह एक
प्लास्टिक या
कागज का भी गुलाब
हो सकता है, वह तुम्हें
धोखा दे सकता
है।
इसलिए
मैं तुम्हें
पदार्थगत
सत्य का कोई
भी विवरण नहीं
दूंगा कि जब
सत्य घटता है
तो क्या होता
है—यह
वैयक्तिक है, एक
व्यक्ति में
यह हमेशा समान
न होकर अलग—
अलग और अनूठा
होता है—लेकिन
मैं इसे अनुभव
करने का एक
वैयक्तिक ढंग
तुम्हें दे
सकता हूं।
मैंने
सुना है.......
एक
उत्तेजित और
पागल रोमन, नंगी
तलवार लिए हुए
गांव में आया
और पुरुषों, स्त्रियों
और बच्चों को
काट मार कर
उसने प्रत्येक
को आतंकित कर
दिया। झेन मठ
के द्वार पर
पहुचते हुए
उसने तलवार की
मूठ से दरवाजा
तोड़ दिया, और
लम्बे—लम्बे
डग भरता हुआ
सद्गुरु के
निकट आया, जो
जाजेन ध्यान
में शांत बैठा
था, उसने
अपनी तलवार
ऊपर उठाई
थिरता और मौन
जैसी कोई चीज
उस तक पहुंची।
वह क्रोध से
चीखते हुए
बोला— ‘‘ क्या
तुम्हें यह
महसूस नहीं
होता कि
तुम्हारे
सामने एक ऐसा
व्यक्ति खडा
हुआ है, जो
बिना पलकें
झपकाये ही
तुम्हें दो
टकड़ों में काट
सकता है?‘‘
सद्गुरु
ने शांति से
उत्तर दिया— ‘‘ क्या
तुझे यह अनुभव
नहीं होता कि
तेरे सामने एक
ऐसा व्यक्ति
बैठा हुआ है
जो बिना पलक
झपकाये दो
टुकड़ों में
कटने के लिए
तैयार बैठा है।
इसलिए आगे बढ़।
मेरे मौन के
कारण तू अपने
को रोक मत। तू
वही कर, जिसको
तूने तय कर
लिया है।‘‘ लेकिन
उस पागल के
अन्तर्तम में
वह मौन प्रविष्ट
हो गया, सद्गुरु
की शांति और
मौन ने उसके
हृदय को स्पर्श
कर लिया था, अब उसके लिए
मारना असम्भव
था।
इसलिए
बस अपने हृदय
के द्वार खुले
रखो।
यदि
तुम एक पागल
भी हो और खुले
हुए हो, तो भी तुम
बुद्धत्व को
पहचान लोगे, वह कहीं भी
किसी भी रूप
में प्रकट हुआ
हो। और यदि
तुम एक महान
दार्शनिक
बुद्धिजीवी
और तर्कनिष्ठ
भी हो, यदि
तुम स्वयं को
मौन और आनंद
के मूल तत्व
को ग्रहण करने
की अनुमति
नहीं देते हो,
तो तुम चूक
जाओगे।
तुम्हें अपने
को बहुत—बहुत
खुला हुआ रखना
होगा।
तुम्हें
स्वीकार भाव
में रहना होगा।
तुम्हें
स्वीकार भाव
में रहना होगा
और तब बुद्धत्व
का प्रमाण
इतनी दृढ़ता से
तुम तक आता है।
यह इतना अधिक
निश्चित है कि
तुम प्रत्येक
चीज से तो
इंकार कर सकते
हो, लेकिन
तुम बुद्धत्व
को उपलब्ध
व्यक्ति से
इंकार नहीं कर
सकते—ऐसा करना
असम्भव है।
तुम इसे
दूसरों को
सिद्ध करने
में, हो
सकता है सफल न
हो सको, क्योंकि
यहां इसे
सिद्ध करने का
कोई उपाय नहीं
है—लेकिन
तुम्हारे लिए
तो यह अनुभूति
स्थायी रूप से
तुम्हारे
अंतर्तम में
उतर गई। और एक
बार यह
तुम्हारे
अंतर्तम में
उतर गई, एक
बार तुम एक
बुद्धपुरुष
के सम्पर्क
में आ गए तो एक
सेतु निर्मित
हो गया। अब
तुम कभी भी
पहले जैसे
नहीं रह सकते।
यह वास्तविक
घटना ही कि
तुम एक बुद्ध
को पहचान सके,
पर्याप्त
है, और यह
तुम्हारे
बुद्धत्व की
आधारशिला बन
जायेगी। इतना
पर्याप्त है
कि यह तुमकी
एक नई दिशा, एक नया
अस्तित्व और
एक नया जन्म
दे गई।
चौथा
प्रश्न :
मैं
देख रहा हूं
कि मेरे स्वयं
के अंदर कोई
भी चीज जो घट रही
है? वह नकली?
भ्रमपूर्ण और
मन की ही एक
आमोद यात्रा है?
मैं ठीक कर रहा
हूं या नहीं? और मेरे मन की
इस आमोद
यात्रा की
पहचान, मन
की ही एक लधु
यात्रा है।
बिलकुल ठीक!
जब तक
विचार चल रहे
हैं, प्रत्येक
चीज मन की ही
यात्रा है। जब
विचार रुक
जाते हैं और
तुम देखते हो
कि तुम्हारा
मन अब विचारों
की भीड़ से
मुक्त है, जब
तुम स्पष्टता
से देखते हो
कि तुम्हारे
चारों ओर अब
विचारों का
कोई भी धुंवा
नहीं रह गया, जब तुम्हारी
दृष्टि, सरल,
निर्दोष और
विचारों के
प्रदूषण से
मुक्त हो जाती
है, तब यह
मन की यात्रा
नहीं है। केवल
ध्यान ही मन
की यात्रा
नहीं है इसके
अतिरिक्त
प्रत्येक
वस्तु मन की
यात्रा है।
अथवा प्रेम भी
मन की यात्रा
नहीं है, इसके
अतिरिक्त
प्रत्येक
वस्तु मन की
ही यात्रा है।
यदि ध्यान
अथवा प्रेम
तुम्हें घटे
हैं तो तुम
उसे जानोगे, जिसकी ओर
मैं संकेत कर
रहा हूं। गहरे
प्रेम के
क्षणों मे ‘विचार रुक
जाते हैं। यह
क्षण इतना
अधिक
उत्सुकता से
भरा और इतना अधिक
शक्तिशाली और
प्रबल रूप से
जीवंत होता है
कि सोचने की
प्रक्रिया
रुक जाती है।
तुम एक महान
आश्चर्य से
जैसे ठगे हुए
स्तब्ध हो
जाते हो। अथवा
गहरे ध्यान
में भी जब मौन
के क्षण आते
हैं, तो
तुम पूरी तरह
थिर, अकंम्प
और शांत हो
जाते हो, फिर
तुम्हारी चेतना
की ज्योति
हिलती और
कांपती नहीं
और वह सीधी और
अकंम्प बनी
रहती है—तब
विचार
प्रक्रिया
रुक जाती है।
तब तुम मन की
पकड़ के बाहर
होते हो, अन्यथा
प्रत्येक चीज,
मन की ही
यात्रा है।
इसे
स्मरण रखें, एक
व्यक्ति को मन
के पार जाना
ही है, क्योंकि
मन ही ‘ समसार
‘ है और मन ही
संसार है। यह
तुम्हारे
सोचने के कारण
है कि तुम
सत्य से चूक
रहे हो। एक
बार विचार जब
रुक जाते हैं,
तो तुम सत्य
के आमने—सामने
होते हो। मन
के पर्दे पर
विचारों की
फिल्म निरंतर
चलती रहती है,
जिससे सत्य
धुंधला हो
जाता है। यह
ऐसे है, जैसे
तुम लहरों से
भरी झील में
झांक रहे हो।
यह पूर्णिमा
की रात है और झील
सुंदर और
पूर्ण
चन्द्रमा को
प्रतिबिम्बित
कर रही है—लेकिन
झील में लहरें
उठ रही हैं।
चंद्रमा की
छवि हजारों
खण्डों में
बिखर जाती है,
और तुम सभी
खण्डों को एक
साथ मिलाकर
पूर्ण चंद्रमा
को नहीं देख
सकते हो। पूरी
झील में चारों
ओर चंद्रमा के
बहुत से चांदी
जैसे शुभ्र
श्वेत खण्ड
चारों ओर फैले
हुए प्रतीत
होते हैं। तभी
हवा थम जाती
हैं, लहरें
उठना बंद हो
जाती हैं और
चंद्रमा के
सभी खण्ड एक शुभ्र
पूर्ण चंद्र
के रूप में
बदलना शुरू हो
जाते हैं। वह
चांदी सी चमक
जो झील में
चारों ओर फैली
हुई थी, अब
एक ही स्थान
पर सघन हो
जाती है। जब
झील पूरी तरह
से बिना लहरों
के होती है, तो चंद्रमा
पूर्ण रूप से
प्रतिबिम्बित
होने लगता है।
जैसे
मन विचारों के
साथ होता है, वैसे ही
झील भी लहरों
के साथ होती
है: और जब मन बिना
विचारों के
होता है, वैसे
ही झील बिना
लहरों के होती
है। परमात्मा
तुम्हारे अंदर
पूरी तरह तभी
प्रतिबिम्बित
होता है जब
तुम्हारे
अंदर विचारों
की एक भी तरंग
नहीं होती।
परमात्मा
के बारे में
सभी कुछ भूल
जाओ, केवल
करना इतना ही
है कि कैसे
तुम तरंग
विहीन बन सको,
तुम कैसे
विचार शून्य
या निर्विचार
बन सको, कैसे
तुम निरंतर
विचारों से
नियंत्रित मन
को गिरा सको।
यह गिराया जा
सकता है, क्योंकि
यह तुम्हारे
सहयोग देने के
कारण ही है, जो निरंतर
मिलता रहता है।
यह तुम्हारी
ही ऊर्जा है, जो उसे
जीवित बनाए
रखने के लिए
तुम उसे दिए
चले जाते हो।
यह ठीक साइकिल
पर सवार उस
व्यक्ति की
भांति है जो
पैडिल चलाये
चला जाता है—
और यह उसकी ही
ऊर्जा है, जो
साइकिल को
चलाए जा रही
है। एक बार वह
पैडिल चलाना
बंद कर दे, तो
साइकिल थोड़ी
दूर तो अतीत
के संवेग के
कारण चलती
जाएगी, लेकिन
फिर उसे रुक
जाना होता है।
अपने
विचारों को
ऊर्जा मत दो।
निरपेक्ष, तटस्थ और
सभी से अलग एक
साक्षी बनो। केवल
विचारों को
देखो, और
किसी भी तरह
उनसे सम्बंध
मत जोड़ो।
इस
तथ्य पर ध्यान
दो: विचार
वहां है, लेकिन इस या
उस तरह से
उनका चुनाव मत
करो, न
उनके पक्ष में
रहो और न
विपक्ष में, न आगा सोचो
और न पीछा।
केवल एक
निरीक्षण
कर्त्ता बने
रहो। मन के
यातायात को
चलने दो, बस
एक किनारे खड़े
होकर उसे
देखते रहो, बिना उससे
प्रभावित हुए
जैसे मानो
तुम्हारा उससे
कुछ लेना या
देना है ही
नहीं।
जब कभी
इसे आजमाओ:
सबसे अधिक
व्यस्त सड़क पर
चले जाओ, जहां भीड़ और
यातायात
सर्वाधिक हो।
सड़क के एक
किनारे खड़े
होकर यातायात
को देखते रहो—बहुत
अधिक लोग इधर
से उधर आ जा
रहे है, कारें
साइकिलें, ट्रक
और बसें गुजर
रही हैं। तुम
केवल एक
किनारे पर खड़े
होकर उहें
देखते रहो, और यही सब
अंदर भी देखते
रहो: अपनी आंखें
बंद कर अपने
ही अंदर झांको—मन
भी विचारों का
एक यातायात है,
विचार तेजी
से इधर—उधर
दौड़ रहे हैं।
तुम निरीक्षण
करते हुए उनके
केवल एक
निरीक्षणकर्त्ता
बने रहो। धीमे—
धीमे तुम
देखोगे कि
यातायात कम से
कम होता जा रहा
है, तुम
देखोगे, सड़क
अब खाली है, उससे होकर
कोई भी नहीं
गुजर रहा है।
इन्हीं
दुर्लभ
क्षणों में
समाधि की पहली
झलक तुम्हारे
अंदर प्रविष्ट
हो जायेगी।
समाधि
के तीन तल
होते है। पहला
है, जब
तुम अंतरालों
के द्वारा
झलकों तक
पहुंचते हो, एक विचार
आता है, तब
वह चला जाता
है, और
दूसरा अभी तक
आया नहीं है।
वहां इन दोनों
के मध्य कुछ
क्षणों का
अंतराल हो
सकता है, इसी
अवकाश में
सत्य
तुम्हारे
अंदर गहराई से
तीर की तरह
प्रविष्ट
होता है— और मन
की झील में
खण्डित
चन्द्रमा का
प्रतिबिम्ब
पूर्ण चंद्र
बन जाता है।
यह
प्रतिबिम्ब
वहां केवल एक
क्षण के लिए
होता है, लेकिन
तुम पहली झलक
पा सकोगे।
यह वही
है जो जिसे
जेन सतोरी
कहते हैं।
धीमे— धीमे यह
अंतराल और
लम्बे व बड़े
होते जायेंगे
और तुम सत्य
को अधिक
स्पष्टता से
समझ सकोगे, सत्य की
यह झलक
तुम्हें
बदलती है। तब
तुम वैसे ही
नहीं बने रह
सकते, क्योंकि
तब तुम्हारी
दृष्टि
तुम्हारा ही
सत्य अथवा
वास्तविकता
बन जाती है।
यह जो
कुछ तुम देख
रहे हो, यह तुम्हारे
अस्तित्व को
प्रभावित करता
है। तुम्हारी
दृष्टि धीमे—
धीमे पच कर
अवशोषित कर ली
जाती है। यह
समाधि का
दूसरा तल है।
और तब
आता है तीसरा
तल: जब अचानक
पूरा यातायात ही
विलुप्त हो
जाता है, जैसे मानो
तुम गहरी नींद
सोते हुए सपने
देख रहे थे, और किसी ने
तुम्हें
झकझोर दिया और
तुम जाग गए और
सपनों का सारा
यातायात
अचानक रुक गया।
इस तीसरे तल
में तुम सत्य
के साथ एक हो
जाते हो, क्योंकि
अब वहां
तुम्हें
विभाजित करने
वाला कुछ रहा
ही नहीं। वह
मेड़ जो
तुम्हें दो
भागों में अलग—
अलग बांट रही
थी, अब मिट
गई। यह दीवार
वहां रही ही
नहीं। यह दीवार,
विचारों, कामनाओं, अनुभवों और
भावों की
ईंटों से बनी
हुई है, और
एक बार यह
दीवार ध्वस्त
हो जाती है—जो
बहुत पुरानी
और मजबूत चीन
की दीवार जैसी
है—लेकिन एक
बार जब यह मिट
जाती है, तो
तुम्हारे और
परमात्मा के
बीच कोई भी
अवरोध नहीं रह
जाता। जब
समाधि की यह
तीसरी स्थिति
पहली बार घटित
होती है, तो
यह वही स्थिति
है, जिसके
लिए उपनिषद
घोषणा करते है—
‘‘ अहं
ब्रह्मास्मि—
‘‘ मैं ही
परमात्मा हूं
मैं ही ब्रह्म
हूं। यह वही
स्थिति है, जहां के लिए
सूफी
रहस्यदर्शी
मैसूर घोषणा
करता है— अन अल
हक—मैं ही
सत्य हूं। यह
वही स्थिति है
जहां जीसस
कहते हैं—मै
और मेरा
परमात्मा एक
ही है—मैं और
मेरा पिता एक
है।
पांचवां
प्रश्न :
एक ओर
तो आप हमें
अंतिम मुक्ति
या परिपूर्ण
स्वतंत्रता, हम जो कुछ
चाहें उसे
करने के लिए
दे रहे है?
और दूसरी ओर
आप हमें
दायित्व भी दे
रहे हैं। इस
दायित्व के
साथ मैं
स्वतंत्रता
शब्द का उपयोग, जैसे मैं
चाह वैसे नहीं
कर सकता, इसलिए
मुझे
स्वतंत्रता
शब्द के ठीक
अर्थ के लिए
प्रतीक्षा
करनी होगी!
जिस क्षण मैं
उसे पाता हू
मैं उसे
दायित्व के ही
साथ पाता हूं।
भगवान!
जब मैने इसका
अर्थ समझा मैं
आपके लिए
कृतज्ञता का
ही अनुभव करता
है अन्यथा मैं
तो
स्वतंत्रता
शब्द का जो
प्रयोग एक लाइसेसं
की भाति पहले
ही से कर रहा
था और आगे भी
करना चाहता था।
स्वतंत्रता
और
उत्तरादायित्व
का प्रश्न, मनुष्यता
के स्थायी
प्रश्नों में
से एक है। यदि
तुम स्वतंत्र
हो, तो तुम
इसका अर्थ यह
लेते हो, जैसे
मानो अब वहां
कोई दायित्व
रहा ही नहीं।
केवल सौ वर्ष
पूर्व ही नीत्शे
ने घोषणा की
थी— ‘‘ परमात्मा
मर चुका है और
मनुष्य अब
स्वतंत्र है।‘‘
और उसने जो
अगला वाक्य
लिखा वह है— ‘‘ अब तुम वह सब
कुछ कर सकते
हो, जो तुम
करना चाहते हो।
अब वहां
तुम्हारी कोई
जिम्मेदारी
ही नहीं।
परमात्मा मर
चुका है और अब
मनुष्य
स्वतंत्र है
और वहा उसकी
अब कोई
जिम्मेदारी
ही नहीं है।‘‘ लेकिन वहां
वह पूरी तरह
गलत था, जब
वहां कोई
परमात्मा ही
नहीं है, फिर
तो तुम्हारे
कंधों पर बहुत
बड़ी जिम्मेदारी
आ जाती है।
यदि वहां
परमात्मा है
तो वह
तुम्हारी
जिम्मेदारी
में सहयोग दे
सकता है। तुम
उस पर अपना
दायित्व थोप
सकते हो, और
कह सकते हो— ‘‘ यह तुम ही हो,
जिसने यह
संसार बनाया,
यह तुम ही
हो जिसने मुझे
इस तरह कर
बनाया, इसलिए
अंतिम रूप से
तुम ही
जिम्मेदार हो—मैं
नहीं। अंतिम
रूप से मैं
कैसे
जिम्मेदार हो
सकता हूं? मैं
तो केवल
तुम्हारा एक
सृजित प्राणी
हूं और तुम हो
सर्जक या
सृष्टिकर्त्ता।
तुमने क्यों
शुरू से ही
मेरे अंदर पाप
और भ्रष्टाचार
के बीज रखे? जिम्मेदार
तुम हो, मैं
तो स्वतंत्र
हूं।‘‘
वास्तव
में यदि
परमात्मा
नहीं है, तब मनुष्य
ही अपने
कार्यों के
लिए पूरी तरह
से जिम्मेदार
है, क्योंकि
अब किसी अन्य
दूसरे पर
जिम्मेदारी थोपने
का वहां कोई
उपाय है ही
नहीं।
जब मैं
तुमसे कहता
हूं कि तुम
स्वतंत्र हो, तो मेरा
कहने का अर्थ
होता है कि
तुम ही उत्तरदायी
हो। तुम किसी
अन्य दूसरे पर
जिम्मेदारी
नहीं डाल सकते,
तुम ही
अकेले
जिम्मेदार हो।
और तुम जो कुछ
भी करते हो, वह तुम्हारा
ही कृत्य है।
तुम यह नहीं
कह सकते कि
किसी अन्य
व्यक्ति ने तुम्हें
वह सब कुछ
करने को विवश
किया था—क्योंकि
तुम स्वतंत्र
हो, इसलिए
तुम्हें कोई
भी विवश नहीं
कर सकता।
क्योंकि तुम
स्वतंत्र हो,
तो कुछ भी
चीज करने या न
करने का यह
तुम्हारा ही
निर्णय है।
स्वतंत्रता
के साथ ही
उत्तरदायित्व
भी आता है।
स्वतंत्रता
एक दायित्व है।
लेकिन यह मन
बहुत बेईमान
है, मन
इसका अर्थ
अपने ही ढंग
से लेता है वह
हमेशा वही
सुने चले जाता
है जो कुछ वह
सुनना चाहता है।
वह चीजों की
व्याख्या और अर्थ
अपने ढंग से
निकाले चले
जाता है। मन
कभी यह समझने
का प्रयास
करता ही नहीं
कि वास्तव में
सत्य क्या है।
वह पहले ही से
निर्णय ले
चुका होता है।
मैंने
सुना है:
एक
पीड़ित
व्यक्ति
मनोविश्लेषक
से कह रहा था— ‘‘ डॉक्टर!
मैं एक
प्रतिष्ठित
व्यक्ति हूं
लेकिन बाद में,
अपने पर
लगाए गये
आरोपों को
अनदेखा करने
और अपराध बोध
के कारण मेरा
जीवन असहनीय
बन गया है।‘‘
अपनी
बात जारी रखने
से पूर्व, मरीज ने
अपनी पीड़ा को
जैसे निगलोग
और दबाते हुए
कहा— ‘‘ आप
मेरी बात
कृपया समझने
की कोशिश करें,
हाल ही में
मैं एक
अनियंत्रित
प्रवृत्ति का
शिकार बन गया
हूं जो मुझे
जैसे पिन चुभो
कर उकसा कर
विवश करती है
कि मैं
लड़कियों को
प्रेम करने
नीचे तहखाने
में ले जाऊं।‘‘
मनोविश्लेषक
डॉक्टर उसे
सांत्वना
देते तथा धैर्य
बंधाते हुए
बोला— ‘‘ मेरे
प्रियवर! हम
निश्चित रूप
से आपकी
सहायता करेंगे,
जिससे आप इस
दुर्भाग्यपूर्ण
प्रवृत्ति से
छुटकारा पा
सकें। मैं
आपकी पीडा को
अच्छी तरह समझ
रहा हूं।‘‘
मरीज
अत्यंत
व्यग्रता से
तेजी से बोला— ‘‘ डॉक्टर!
यह प्रवृत्ति
कोई खास बात
नहीं है, जिससे
मैं छुटकारा
पाना चाहता
हूं। असली
समस्या तो
अपराध बोध की
है।‘‘
लोग
स्वतंत्रता
के बारे में
बातें किए चले
जाते हैं, लेकिन वे
स्वतंत्रता
को यथार्थ रूप
में नहीं चाहते,
वे
जिम्मेदारी
से मुक्त होना
चाहते हैं। वे
स्वतंत्रता
के लिए कहते
जरूर हैं
लेकिन अपने
गहरे अचेतन
में वे
जिम्मेदार न
होने का लाइसेंस
लेना चाहते
हैं।
स्वतंत्रता
एक विकास और परिपव्कता
है और लाइसेंस
लेना बहुत
बचकानी बात है।
स्वतंत्रता
केवल तभी संभव
है जब तुम
इतने ईमानदार
हो जाओ, कि तुम
स्वतंत्र
होने की
जिम्मेदारी
उठा सको। यह
संसार
स्वतंत्र
नहीं है, क्योंकि
लोग अभी पूरी
तरह विकसित
नहीं है।
क्रांतिकारी
सदियों से
इसके लिए बहुत
से प्रयास
करते रहे हैं,
लेकिन उनके
सभी प्रयास
असफल हो गए।
एक आदर्श सुखी
संसार की
कल्पना करने
वाले चिंतक भी
निरंतर विचार
करते रहे हैं
कि मनुष्य को
स्वतंत्र
कैसे बनाया
जाए लेकिन कोई
भी इस बात की
फिक्र नहीं
करता, क्योंकि
मनुष्य तब तक
स्वतंत्र
नहीं बन सकता,
जब तक वह
अखण्ड और
ईमानदार न हो।
केवल एक बुद्ध
स्वतंत्र हो
सकते हैं, महावीर
स्वतंत्र हो
सकते हैं, क्राइस्ट
और मुहम्मद
स्वतंत्र हो
सकते हैं, एक
जरथुस्त्र
स्वतंत्र हो
सकते हैं, क्योंकि
स्वतंत्रता
का अर्थ है कि
मनुष्य अब सचेत
है। यदि तुम
होशपूर्ण या
सचेत नहीं हो,
तो राज्य की
जरूरत है, सरकार
की जरूरत है, पुलिस और
कोर्ट कचहरी
की जरूरत है।
तब प्रत्येक
जगह से
स्वतंत्रता
को हटाना होगा।
तब
स्वतंत्रता
का अस्तित्व
केवल नाम भर
को रह जाएगा, वास्तव में
वह अस्तित्व
में होगा ही
नहीं। जब
सरकार का
अस्तित्व है
तो
स्वतंत्रता का
अस्तित्व
कैसे हो सकता
है?—यह
असम्भव है।
लेकिन फिर
क्या किया जाए?
यदि
सरकार नहीं
रहती, तो
वहां केवल
अराजकता होगी।
यदि सरकार की
संस्था मिट
जाती है तो
स्वतंत्रता
भी नहीं आयेगी,
और वहां
केवल अराजकता
होगी। वह जैसी
स्थिति अब है,
उससे भी
कहीं अधिक
खराब स्थिति
होगी। वह
पूर्ण रूप से
पागलपन होगा।
पुलिस की
जरूरत इसीलिए
है क्योंकि
तुम सजग नहीं
हो। अन्यथा हर
चौराहे पर एक
पुलिस के
सिपाही को खड़ा
करने की जरूरत
क्या है? यदि
लोग सजग हैं, तो पुलिस का
सिपाही हटाया
जा सकता है, उसे हटाना
ही होगा
क्योंकि वह अनावश्यक
है, उसकी
कोई जरूरत ही
नहीं है।
लेकिन लोग
सचेत या
होशपूर्ण
नहीं है।
इसलिए
जब मैं
स्वतंत्रता
की बात कहता
हूं तो मेरे
कहने का अर्थ
जिम्मेदार
बनने
से होता है।
तुम जितने
अधिक
जिम्मेदार
बनते हो, उतने ही
अधिक तुम
स्वतंत्र
होते हो, अथवा
तुम जितने
स्वतंत्र
बनते हो, तुममें
उतनी ही अधिक
जिम्मेदारी
आती है। तब जो
कुछ तुम कर
रहे हो, जो
कुछ तुम कह
रहे हो, तुम्हें
उसके लिए बहुत
सजग होना होगा।
अपनी छोटी—छोटी
मूर्च्छापूर्ण
मुद्राओं और
भावाभिव्यक्तियो
के सम्बंध में
भी तुम्हें
बहुत सजग होना
होगा—क्योंकि
तुम्हें
नियंत्रित
करने वाला
वहां कोई अन्य
व्यक्ति नहीं
होगा, केवल
तुम ही होगे
वहां। जब मैं
तुमसे कहता
हूं कि तुम
स्वतंत्र हो,
तो मेरा
अर्थ होता है
कि तुम
परमात्मा हो।
स्वतंत्रता, कोई भी कुछ
भी करने का
अनुमति पत्र
या लाइसेंस
नहीं है, यह
बहुत बड़ा
अनुशासन है।
छठवां
प्रश्न:
आपको पिछले
नौ दिनों से
सुनते हुए और
आपके आश्रम
में सुबह शाम
ध्यान—प्रयोग
करते हुए, में
इस निष्कर्ष
पर पहुंची हूं
कि विवेक बहुत
सौभाग्य वाली
है लेकिन मैं
उसके प्रति इष्यिालु
नहीं हूं,
मैं अनुभव
करती हूं कि
वह आश्रम में
आपकी प्यारी
शिष्या के परमपद
पर
प्रतिष्ठित
है इस स्थिति
तक कैसे पहुंच
जाए?
मन ऐसे ही
अजीब ढंग से
कार्य करता है।
तुम यहां
ध्यान करने के
लिए आई हो, इसका
किसी अन्य
व्यक्ति से
कुछ लेना—देना
ही नहीं है।
वास्तव में एक
सच्चा ध्यानी
यह देखेगा ही
नहीं कि
दूसरों को
क्या घट रहा
है। एक सच्चा
ध्यानी तो
अपने ही अंदर
उतरेगा।
बायजीद
के बारे में
यह कहा जाता
है कि वह अपने सद्गुरु
के साथ बारह
वर्षों तक रहा, और
प्रत्येक दिन
सद्गुरु के
निकट आने के
लिए उसे एक
बड़े कक्ष से
होकर गुजरना
होता था। एक
दिन सद्गुरु
ने बायजीद से
कहा— ‘‘ तुम
उस बड़े कक्ष
में वापस जाकर
वहां आलमारी
में रखी एक
किताब उठा लाओ।‘‘
बायजीद
ने उत्तर दिया— ‘‘ मैं चला
तो जाऊंगा, लेकिन मैंने
वहां कभी देखा
नही कि वहां
कोई अलमारी भी
है।‘‘
सद्गुरु
ने कहा— ‘‘ तुम मुझसे
मिलने बारह
वर्षों से
प्रतिदिन निरंतर
उस बड़े कक्ष
से होकर ही
गुजरते हो, क्या तुमने
उसके चारों ओर
कभी देखा नहीं?‘‘
उसने
उत्तर दिया— ‘‘ प्यारे
सद्गुरु।
मुझे आपके
निकट आना होता
था। मैं यहां
यह देखने के
लिए नहीं आया
हूं कि उस बड़े
कक्ष में है
क्या, वहां
कोई आलमारी या
शेल्फ है अथवा
नहीं, और
उसमें कोई
किताब भी है
अथवा नहीं।
मैं इसके लिए
यहां नहीं आया
हूं। मेरा
पूरा मकसद आप
हैं, मेरा
पूरा
अस्तित्व
केवल आपके ही
लिए है। मैं
केवल आपके लिए
ही खुला हुआ
हूं। मैं
जाऊंगा और उसे
खोजूंगा।‘‘
सद्गुरु
ने कहा— ‘‘ उसकी कोई
जरूरत ही नहीं
है, और उस
किताब की भी
कोई जरूरत
नहीं है।
वास्तव
में वहां कोई
पुस्तक है ही
नहीं, और
न वहां कोई
आलमारी है। यह
केवल एक
परीक्षा थी, सिर्फ यह
देखने के लिए
कि तुम ध्यान
से डिगे तो
नहीं हो? मैं
खुश हूं कि
तुम्हारा मन
कई दिशाओं में
नहीं भाग रहा।‘‘
अब यह
प्रश्न, मन के भिन्न
दिशाओं में
जाने का
प्रश्न है।
तुम्हें किसी
दूसरे
व्यक्ति से
मतलब क्या? तुम्हें
ध्यानपूर्ण
होना चाहिए
अथवा अधिक से
अधिक
तुम्हारा
हृदय मेरी ओर
खुला होना
चाहिए। लेकिन
मन नई—नई
जटिलताएं और
मुसीबतें
सृजित किए चले
जाता है।
यह
प्रश्न चूंकि
एक स्त्री की
ओर से आया है, इसलिए यह
कुछ चीज
स्त्रैण—
चित्त को
प्रदर्शित कर
रहा है। उसकी
रुचि मेरी
अपेक्षा
विवेक में
अधिक है। यदि
तुम्हें किसी
के उत्कर्ष पर
ईर्ष्या का अनुभव
होता है, तो
यह ईर्ष्या
मुझसे करो।
लेकिन एक
स्त्री आखिर
एक स्त्री ही
होती है, भले
ही वह यहां
ध्यान करने के
लिए आई हो, इससे
जरा भी फर्क
नहीं पड़ता। और
फिर भी वह
कहती है— ‘‘ मैं
उसके प्रति
ईर्ष्यालु
नहीं हूं
लेकिन मैं उसे
भाग्यशाली
समझती हूं।‘‘ ऐसा मन में
हमेशा ही चलता
रहता है यदि
कोई व्यक्ति
किसी के
भाग्यवान
होने के बारे
में सोचता है,
तो हम इसे
ईर्ष्यालु
कहते हैं और
यदि हमें ईर्ष्या
होती है तो हम कहते
हैं कि यह तो
केवल किसी के
भाग्यशाली
होने के बारे
में एक विचार
मात्र है। यह
तो दोहरा
व्यवहार है।
किसी
को भाग्यशाली
मानने का
विचार है क्या? यह और कुछ
भी नहीं केवल निष्क्रिय—ईर्ष्या
है। हो सकता
है ईर्ष्या
अधिक मजबूत
चीज हो और तुम्हारा
यह विचार थोड़ा
निष्क्रिय हो।
अंतर केवल कुछ
डिग्री का हो
सकता है, लेकिन
यह गुणों का न
होकर केवल
मात्रा का है।
किसी के
उत्कर्ष अथवा
सौभाग्यशाली
होने का विचार
किसी भी क्षण
ईर्ष्या बन
सकता है, यह
विचार है—विकसित
होती हुई
ईर्ष्या। मन
से ऐसे सभी
विचारों और
ईर्ष्या को
निकाल दो।
उसने
पूछा है— ‘‘ इस स्थिति
तक कैसे
पहुंचा जाये?
पहली चीज है—किसी
के
सौभाग्यशाली
होने का विचार
और ईर्ष्या को
गिरा देना, अन्यथा फिर
कोई सम्भावना
ही नहीं है, क्योंकि
जहां ऐसा
विचार और
ईर्ष्या है, वहां प्रेम
भी नहीं रह
सकता। तब
तुम्हारी खोज
एक निश्चित
तरह की सत्ता
पाने की हो —
तुम प्रेम के
नाम पर केवल
अहंकार को
तृप्त करने का
प्रयास कर रही
है। और इसे
गिराना बहुत श्रमसाध्य
है, क्योंकि
प्रेम केवल
अस्तित्व में
तभी आता है, जब मन के सभी
नकारात्मक
तत्व गिरा दिए
जायें। यह
बहुत
श्रमपूर्ण है।
तुम विवेक से
पूछ सकती हो
कि वह कितना
अधिक श्रमपूर्ण
है।
केवल
कुछ ही दिनों
पूर्व वह
मुझसे कह रही
थी— ‘‘ आप
तो गुरुजिएफ
से भी बुरे
हैं।‘‘ अब
यह बहुत बड़ी
प्रशंसा है।
गुरुजियेफ
वास्तव में
अपने शिष्यों
के प्रति बहुत
कठोर था, और
वह कहती है— ‘‘ आप तो
गुरुजिएफ से
भी खराब हैं।‘‘
लेकिन मैं
समझ सकता हूं
मैं कठोर हूं।
मुझे कठोर
होना पड़ता है।
तुम मेरे
जितने निकट
आते हो, तुम
मुझे उतना ही
कठोर पाओगे।
जब केवल तुम
एक दर्शक की
भांति आते हो,
तब तो ठीक
है, मैं
उतना कठोर
नहीं हूं।
मुझे बहुत
विनम्र होना
ही होता है।
क्योंकि तुम
एक दर्शक के
रूप में आए हो—वह
एक जाल है। जब
एक बार तुम
जाल में फंस
गए फिर मैं
कठोर बन जाता
हूं।
उस
स्त्री ने अभी
तक संन्यास भी
नहीं लिया है, पहले उसे
संन्यास लेकर
तो देखना
चाहिए।
मेरे
निकट आना.. .तुम
अपनी मृत्यु
के ही निकट आओगे।
प्रेम, मृत्यु ही
है। तुम्हें
मरना ही होगा,
केवल तभी
तुम मेरे निकट
आ सकते हो।
तुम्हें अपने
आपको पूरी तरह
मिटाना होगा,
केवल तभी
तुम मेरे निकट
आ सकते हो।
लेकिन
लोग समझते हैं
कि प्रेम
गुलाब के
बगीचे में आने
का एक आश्वासन
है। हां! अंतिम रूप
से वह गुलाब
बाग ही है, लेकिन
उसका रास्ता
एक बड़े नरक से
होकर गुजरता
है।
मैं
तुम्हें एक
घटना के बाबत
बताना चाहता
हूं:
एक
महान
दार्शनिक ने
पूरी तरह जीवन
के अर्थहीन
होने का अनुभव
कर, अपने
को फांसी
लगाकर
आत्महत्या
करने का निश्चय
किया। तभी
कमरे में उसका
एक मित्र आया
और उसने उसे अपनी
कमर के चारों
ओर रस्सी
बांधे हुए
वहां खड़े पाया,
और उसने
उससे पूछा कि
तुम आखिर क्या
करने की कोशिश
कर रहे हो? दार्शनिक
ने उसे बताया
कि वह स्वयं
को फांसी लगाकर
अपना ही जीवन
समाप्त करने
जा रहा था।
उसके मित्र ने
पूछा— ‘‘ लेकिन,
तुमने यह
रस्सी फिर
अपनी कमर में
क्या क्यों बांधी
है?
दार्शनिक
ने उत्तर दिया
— ‘’जब
मैंने इसे
गर्दन के
चारों ओर लपेट
कर फंदा कसा
तो मेरी सांस
घुटने लगी।‘‘
प्रेम, गर्दन के
चारों ओर बंधी
रस्सी ही है, इससे
तुम्हारी दम
घुटने लगेगी,
यह तुम्हें
मार देगी।
केवल वे ही
लोग जो स्वयं
को मार देने
का साहस जुटा
पाते हैं, एक
आध्यात्मिक
आत्महत्या—जो
वास्तव में
मरने के पहले
ही की गई
तैयारी है, केवल वही
फिर से नया
जन्म लेते हैं,
और केवल वे
ही मेरे निकट
आ सकते हैं
इसमें मेरे
करने को कुछ
भी नहीं है।
मैं तो यहां
प्रत्येक के
लिए उपलब्ध
हूं। यहां
मेरा
निमंत्रण
तुम्हारे आने
के लिए है। यह
तुम पर निर्भर
करता है।
लेकिन यदि तुम
केवल मेरे
निकट, अन्य
दूसरों से जो
पहले से मेरे
निकट है, ईर्ष्यालु
बनकर आना
चाहती हो, तो
तुम मेरे निकट
गलत कारणों से
आ रही हो। तब
तुम्हारी
रस्सी केवल
कमर के चारों
ओर ही बंधी
रहेगी, और
तुम कहोगी— ‘‘ मैं इसे
अपनी गर्दन पर
नहीं रख सकती,
क्योंकि
इससे मेरी दम
घुटती है।‘‘
लोग
मेरे निकट गलत
राजनीतिक
कारणों से भी
आ सकते हैं।
अब इस स्त्री
के पास एक
राजनीतिक मन
है — यह सोचती
है कि विवेक
परम पद पर, सबसे
अधिक ऊंची
स्थिति पर
आसीन है, यह
खोज शक्ति
पाने के लिए
है।
जो लोग मेरे
निकट हैं, वे निकट
इसलिए हैं, क्योंकि उन
लोगों ने अपने
को मिटा दिया।
कम से कम वे
ईमानदारी से
कोशिश कर रहे
हैं। यह बहुत
सख्त और कठोर
काम है, लेकिन
वह लोग प्रयास
कर रहे हैं।
मैं एक
छोटा सा
प्रसंग पढ़ रहा
था: वहां स्काउट
बच्चों का एक
छोटा सा शिविर
था। शिविर का
परामर्शदाता
नये खेल के
नियमों को स्पष्ट
करते हुए कहा
रहा था— ‘‘ यदि
तुम्हारा
शत्रु
युद्धक्षेत्र
में अपनी ओर
से तुम्हारा
नंबर पुकारे
तो अपने को
तुरंत एक मृत
व्यक्ति मान
लेना चाहिए।
वहीं गिर जाना
जहां तुम हो।
ऐसे लेट जाना
जैसे तुम मर
गए हो, पूरी
तरह से मृत हो
गए हो।‘‘
दस
मिनट बाद सबसे
छोटे स्काउट
की पीड़ा से
भरी हुई
फुसफुसाहट
सुनाई दी— ‘‘ कृपया
अब क्या मैं
आगे बढ़ सकता
हूं। मैं एक
मरा हुआ इंसान
हूं लेकिन मैं
इस वक्त एक
चीटियों के
टीले पर हूं।‘‘
तुम
बहाना बना
सकते हो कि
तुमने अपने आप
को मिटा दिया, तुम विनम्र
होने का बहाना
बना सकते हो, तुम बहाना
बना सकते हो
कि तुम अपना
अहंकार गिराने
को तैयार हो, लेकिन
बहानों से कुछ
भी सहायता
मिलने वाली नहीं।
देर— सबेर
सत्य सामने आ
जाता है। और
किसी भी
व्यक्ति को
गलत कारणों से
दिलचस्पी
लेना ही नहीं
चाहिए।
एक
युवती
अत्यधिक धनी
थी और युवक था
मुल्ला नसरुद्दीन, जो बहुत
गरीब था। वह
उसे पसंद करती
थी और मुल्ला
नसरुद्दीन
इसे जानता था।
एक रात
अपने सामान्य
स्वर से थोड़ा
और अधिक कोमलता
से साहस
जुटाकर
मुल्ला ने कहा— ‘‘ तुम तो
बहुत अधिक धनी
हो।‘‘
उसने
स्पष्टता से
उत्तर देते
हुए कहा— ‘‘ हां! मेरे
पास दास लाख
रुपये हैं।‘‘ ‘‘ और मैं बहुत
गरीब हूं।‘‘
‘‘ हां!
‘‘
‘‘ क्या
तुम मुझसे
विवाह करोगी?‘‘
‘‘ नहीं।‘‘
‘‘ मेरा
भी यही खयाल
था कि तुम
नहीं करोगी।‘‘
‘‘ तब
नसरुद्दीन!
फिर तुमने यह
प्रश्न मुझसे
पूछा ही क्यों?‘‘
नसरुद्दीन
ने उत्तर दिया— ‘‘ आह!
सिर्फ यह
देखने के लिए
कि एक मनुष्य
को कैसा अनुभव
होता है जब वह
दस लाख रुपये
खोता है।‘‘
ऐसे
प्रश्न पूछो
ही मत, क्योंकि
वे गलत
कामनाओं से
जन्मते हैं।
पहले
निरीक्षण करो,
कि वे कहां
से उठ रहे हैं
और बहुत—बहुत
सजग बनो जितनी
अधिक
स्पष्टता से
सम्भव हो, उन्हें
देखो और समझो।
अपने को
शब्दों की आडू
में मत छिपाओ।
अपनी ईर्ष्या
को, प्रशंसित
विचार कहकर मत
पुकारो। तुम
स्वयं अपने
लिए ही बहुत
कठोर बनो।
केवल तभी
तुम्हारा
औपचारिक
वक्तव्य
सहायक बनेगा,
और ठीक
प्रश्नों का
जन्म होगा यदि
तुम गलत प्रश्न
पूछोगी, तो
तुम समय
व्यर्थ नष्ट
करोगी।
अंतिम
प्रश्न:
बाउल
कौन हैं? कृपया आप
उसकी परिभाषा
देने का कष्ट
करें!
इस प्रश्न को
तो प्रारम्भ
में ही पूछा
जाना चाहिए था, अब तो यह
प्रवचनमाला
का अंतिम दिन
है। लेकिन एक
तरीके से यह
ठीक है। यदि
प्रारम्भ ही
में तुमने
बाउल की
प्रकृति, चरित्र
और उसकी छवि
के बारे में
पूछा होता, तो उस समय
उसके बारे में
कुछ भी कहना
लगभग असम्भव
होता। ऐसा
नहीं है कि
मैं अब इसकी
परिभाषा दे
सकता हूं
लेकिन कम से
कम इतना तो कह
ही सकता हूं
कि यह अव्याख्य
है, इसको
परिभषित किया
ही नहीं जा
सकता।
बाउल
कोई
सैद्धांतिक
आत्मज्ञानी
नहीं हैं, वह रहस्य
का एक वातावरण
और एक जलवायु
है। मैं
तुम्हें इस
रहस्य में भाग
लेने के लिए
आमंत्रित कर
सकता हूं
लेकिन कोई
परिभाषा देना
सम्भव नहीं है।
इसलिए मैं कोई
परिभाषा देने
नहीं जा रहा, इसके स्थान
पर मैं तुम्हें
एक कहानी
सुनाऊंगा। हो
सकता है कि
उससे तुम्हें
उसकी प्रकृति,
व्यवहार
छवि और उसका
अर्थ स्पष्ट
हो जायें, लेकिन
उसे तो
तुम्हें
स्वयं खोजना
होगा।
मैंने
सुना है
एक समय
की बात है कि
एक देवदूत
पृथ्वी पर
मनुष्य को और
उसके संसार को
देखने के लिए
आया, क्योंकि
उसने मनुष्य
के गौरव—गरिमा
के बारे में
बहुत सी
कहानियां सुन
रखीं थी और वह
अपनी
उत्सुकता को
रोक नहीं पा
रहा था।
सूरज
की किरणों से
आलोकित
स्वर्ण मुकुट
पहने पर्वत
शिखरों, घने जंगलों,
मदमाती
डोलती मस्त
हवाओं, इंद्रधनुषी
रंगों की
सुरम्य
घाटियों, ओस
चुम्बित पृथ्वी
से उठती सोंधी
गंध तथा भयानक
और शांत विविध
पशुओं और
संसार के
अनुपम
सौंदर्य को
देखकर वह
अभिभूत हो गया।
हर जगह कितना
अधिक सौंदर्य
बिखरा था।
लेकिन जब
देवदूत ने
मनुष्य को
देखा, तो
वह आश्चर्य से
स्तब्ध रह गया
क्योंकि उसने मनुष्य
के हृदय और
आत्मा से
अद्भुत गीतों
और संगीत को
सुन रखा था।
वह मनुष्य के
इस रहस्य के
साथ गहरे
प्रेम में पड़
गया था। शाम
का धुंधलका
छाने लगा, लेकिन
उसने पृथ्वी
पर ही ठहरने
का निश्चय किया।
मनुष्य और
मनुष्य की
धरती ने उसे
इतना अधिक प्रभावित
किया कि उसने
छोड़ने में वह
हिचकने लगा।
लेकिन अंत में
उसका समय
समाप्त हो गया
तो आपूरित
नेत्रों से उसे
जाना ही पड़ा।
और पृथ्वी के
इस साहसिक
अभियान से
अत्यधिक समृद्ध
होकर, वह
पृथ्वी में
चारों ओर
घूमता रहा। पर
जाने से पूर्व
और अपने संसार
में वापस लौटने
से पूर्व केवल
आनंद में, उसने
हममें से कुछ
लोगों की
सहायता करनी
चाही। उसने
इधर— उधर देखा
और चार
व्यक्ति साथ—साथ
टहलोग दिखाई
दिए। वह उनके
पास पहुंचा और
कहा— ‘‘ मैं
यहां
प्रत्येक
व्यक्ति की एक
इच्छा पूरी करने
के लिए आया
हूं। जैसे
भाग्य ही उन
सभी के साथ था
और वे सभी
आध्यात्मिक
आनंद के ही
आकांक्षी थे।
उनमें
से पहला बोल
पड़ा— ‘‘ मैंने
दिव्य सत्य
पाने की
आकांक्षा से
निरंतर कठोर
तप किया—लेकिन
संघर्ष, संघर्ष
और संघर्ष के
सिवा और कुछ
भी नहीं मिला।
आप मुझे
आध्यात्मिक
शांति दे
दीजिए।‘‘
पहले
खोजी की चाह
को न समझते
हुए देवदूत ने
कहा— ‘‘ लेकिन
संघर्ष करना
तो जीवन का
आनंद है।‘‘
उस
मनुष्य ने
आग्रह करते
हुए कहा— ‘‘ मैं तो
शांति ही
चाहता हूं।‘‘
इस
प्राणी और
उसकी इच्छा
पूरी करते हुए
देवदूत ने उस
युवा को एक
गाय मे बदल
दिया जो दूर
हरी घास के
मैदान में
शांति और
संतोष से घास
चरने लगी।
थोड़ा सा
परेशान होकर
देवदूत दूसरे
आकांक्षी की
ओर मुड़ा।
दूसरे
व्यक्ति ने
कहा— ‘‘ परमात्मा
ही शुद्ध और
पवित्र है, लेकिन मैं
ऐसा नहीं हूं।
कृपया मुझे
लालसा, भावों
और सभी
कामनाओं की
अशुद्धियों
से छुटकारा
दिला दीजिए।‘‘
देवदूत ने
पूछा— ‘‘ क्या
ये सभी जीवन
का स्रोत नहीं
हैं?‘‘
दूसरे
व्यक्ति ने
आग्रह करते
हुए कहा— ‘‘ लेकिन मैं
जीवन नहीं
चाहता, मैं
तो शुद्धता
चाहता हूं।‘‘
उसने
तब अपने नेत्र
मूंदे और उसके
रूपांतरण होने
की प्रतीक्षा
की। पलक झपकते
वह गायब हो
गया और दूर
मंदिर में वह अपनी
पसंद के
अनुसार एक
शुद्ध
संगमरमर की
मूर्ति के रूप
में प्रकट हुआ।
तब
तीसरे
व्यक्ति ने
कहा—मुझे
पूर्ण बना
दीजिए कोई भी
चीज कम होने
से काम नहीं
चलेगा।‘‘
वह
नष्ट होकर
शून्य में मिल
गया और कहीं
भी किसी अन्य
रूप में प्रकट
नहीं हुआ, क्योंकि
इस पृथ्वी पर
कुछ भी पूर्ण
नहीं है और न
पूर्ण हो सकता
है।
अब
देवदूत चौथे
व्यक्ति की ओर
मुड़ा और पूछा— ‘‘ आपकी
क्या इच्छा है?‘‘
उस
प्रसन्न
प्रमुदित
व्यक्ति ने
उत्तर दिया— ‘‘ मेरी
कोई इच्छा या
कामना ही नहीं
है।‘‘
— ‘ सभी
कामनाओं में
क्या कोई भी
कामना नहीं?‘‘
— ‘‘ कोई
भी नहीं, सिवाय
इसके कि मैं
एक मनुष्य ही
बना रहूं पूरी
तरह जीवंत
मनुष्य।‘‘
तीन
व्यक्तियों
की इच्छा
जानकर देवदूत
का दम सा घुटने
लगा था, अब वह पुन:
आनंद में
डोलने लगा। वह
इस आनन्दित
व्यक्ति को
कुछ देर तक
प्रेम से
देखता रहा और
तब वह नीचे
झुका और गहरे
प्रेम के साथ
उसे हृदय से
लगा लिया। वह
चौथा व्यक्ति
जीवन की गौरव
गरिमा के गीत
गाता, और
नृत्य करते
हुए जीवन के
आनंद का रस
लेता अपने रास्ते
पर उसी तरह
आगे बढ़ गया।
यह
चौथा व्यक्ति
ही बाउल है।
बाउल
को परिभाषित
करने का अन्य
कोई दूसरा ढंग
है ही नहीं।
बाउल जीवन को
अत्यधिक
प्रेम करता है, उसे
अपरिमित
प्रेम है इस
पृथ्वी से और
अनन्य प्रेम
समग्र से, जो
कुछ भी यहां
है। बाउल
आदर्शवादी न
होकर
यथार्थवादी
है, और इस
घरती से जुड़ा
हुआ है। बाउल,
अन्य कहीं
और किसी
स्वर्ग की
मांग नहीं
करता, वह
यहीं और अभी
पहले ही से
स्वर्ग में है।
बाउल कोई खोजी
नहीं है। बाउल
वह है, जिसने
उसे पाया है।
बाउल एक सिद्ध
है, एक ऐसा
सिद्ध, जिसने
जीवन को और जो
कुछ यहां
उपलब्ध है, उसे देखा है
और अनुभव किया
है और उस बारे
में उसे खोजने
की कोई
आवश्यकता ही
नहीं है। कोई
भी इस रहस्य
में, जिसे
जीवन कहते हैं
बस शामिल हो
जाना है।
वह
नाचता है, गीत गाता
है, खुशी
मनाता है और
अकारण ही परम
आनंदित है।
देवदूत
की यह तो आधी
कहानी है, दूसरी
आधी कहानी तो
अभी भी शेष है।
वह देवदूत
स्वर्ग
पहुंचा।
परमात्मा ने
उसे बुलाकर
उससे पूछा— ‘‘ तुम पृथ्वी
पर क्या कर
रहे थे? मेरी
सृष्टि को
क्या ठीक कर
रहे थे?‘‘
देवदूत
ने कहा— ‘‘ मुझे खेद है,
लेकिन उन
चारों लोगों
ने कुछ चाहा
था, उनकी
कुछ कामनाएं
थीं। मैंने
उन्हें पूरा
करने में उनकी
कुछ सहायता की
है।‘‘ परमात्मा
ने कहा— ‘‘ बिलकुल
ठीक किया। मैं
तुमसे नाराज
नहीं हूं। मैं
तो केवल पूछ
रहा हूं। क्या
तुम्हारी ऐसी
कोई कामना है
जिसे मैं पूरी
कर दूं।‘‘
देवदूत
ने कहा— ‘‘ मुझे पृथ्वी
पर वापस भेजकर
उस चौथे
व्यक्ति जैसा
बना दीजिए।‘‘
तुम
इसे अपनी भी
चाह बना लो।
और इस बारे
में मांगने की
कोई जरूरत ही
नहीं है, वह पहले ही
से पूरी कर दी
गई है। तुम इस
पृथ्वी पर एक
पुरुष हो, अथवा
एक स्त्री हो,
परमात्मा
की इस भेंट का
आनंद लो। गहन
अहोभाव और
कृतज्ञता से
गीत गाओ, उस
नाच को नाचो, जो तुम्हारे
अस्तित्व की
गहराई में
अभिव्यक्त
होने की
प्रतीक्षा कर
रहा है।
सृजनात्मक
बनो। फूल की
भांति खिलो।
एक
बाउल में
खिलावट हो रही
है। एक बाउल
एक बहती हुई
ऊर्जा है। एक
बाउल, तथाकथित
साधारण
धार्मिक न
होकर, वास्तव
में एक सच्चा
धार्मिक
मनुष्य है। वह
संसार के
विरोध में
नहीं है, क्योंकि
वह परमात्मा
के भी विरुद्ध
नहीं है। यह
सब कुछ उसी की
सृष्टि है, वह किसी भी
चीज के विरोध
में नहीं है, क्योंकि सभी
कुछ परमात्मा
का ही है। वह
हर जगह
परमात्मा का
ही मंदिर पाता
है। प्रत्येक
उपस्थिति में
‘ उसीकी ‘ उपस्थिति
ही समाई हुई
है। एक बाउल, एक पगला
मनुष्य है, यही ‘ बाउल
‘ शब्द का
अर्थ भी है।
यह संस्कृत के
मूल शब्द ‘ बटुल
‘ से निकला
है, जिसका
अर्थ पागल
होता है।
परमात्मा
के नाम पर
पागल ही बन
जाओ।
पूर्णानंद
में पागल बनकर
देखो और तभी
तुम जानोगे कि
क्या होता है
एक बाउल होना।
उसे परिभाषित
करने का कोई
उपाय नहीं है, मैं केवल
कुछ संकेत दे
सकता हूं उसके
बारे में, उसका
वर्णन करने या
व्याख्या
करने का भी
कोई उपाय नहीं
है, लेकिन
मैं यहां
तुम्हारे
सामने मौजूद
हूं—मैं एक
बाउल ही हूं।
तुम मुझमें
झांक कर देखो,
थोड़ा सा
मेरा स्वाद लो,
मुझे भोजन
बनाकर खा जाओ,
मुझे पियो
यह सब मिलकर
तुम्हें कोई
परिभाषा दे
सकते हैं। और
यदि तुम
वास्तव में
चाहते हो, यदि
वास्तव में
तुम्हारी
परिभाषा पाने
की ही चाह है, तब एक बाउल
बन जाओ। उसे
जानने का अन्य
कोई उपाय है
ही नहीं।
परमात्मा को
जानने के लिए
एक व्यक्ति को
परमात्मा ही
बनना होता है,
क्योंकि
तुम केवल वही
जान सकते हो, जो कुछ तुम
स्वयं बन गए
हो। केवल
अस्तित्व और
इस अस्तित्व
का अनुभव ही
तुम्हें
बुद्धत्व दे
सकता है, अन्य
कुछ भी नहीं।
आज इतना
ही।
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