दिनांक
22 नवंबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्न
सार :
1—आपने
कहा धर्म
साधना है, क्रिया-कांड
नहीं। लेकिन जिन्हें
सरहपा
क्रिया-कांड
कहेंगे, उनमें
से अनेक, जैसे
भजन-कीर्तन, अपने आश्रम
में और
अन्यत्र भी
साधना के अंग
बने हैं।
कृपापूर्वक
समझाएं।
2—क्या
उपासना का कोई
भी मूल्य नहीं
है? और यदि
मूल्य है तो
फिर विरोध
क्यों?
3—सत्य
ही कहता हूं, सत्य ही
सुनता हूं। इस
सत्यपन की आदत
से सभी
रिश्तेदार व
मित्र साथ छोड़
गए हैं।
सांसारिक
होने के कारण
अकेलापन बहुत
परेशान करता
है। काम
ईमानदारी से
करने और ईमानदारी
से ही जीवन
व्यतीत करने
में शांति तो मिल
रही है, लेकिन
बच्चों के लिए
ईमानदारी से
पैसा कमाने में
रात-दिन काम
करता रहता हूं
और साधना नहीं
कर पाता।
कृपया मार्ग
दिखाएं।
4—ओंकार
का आपने विरोध
किया, इससे
मन को ठेस
पहुंची।
कृपया
समझावें कि
ऋषि-मुनियों
ने सदा ओंकार
का समर्थन
क्यों किया है?
पहला
प्रश्न:
ओशो, आपने कहा
धर्म साधना है,
क्रिया-कांड
नहीं। लेकिन
जिन्हें
सरहपा क्रिया-कांड
कहेंगे, उनमें
से अनेक, जैसे
भजन-कीर्तन, अपने आश्रम
में और
अन्यत्र भी, साधना के
अंग बने हैं।
कृपापूर्वक
हमें समझायें।
आनंद
मैत्रेय, जले
दीये और बुझे
दीये में
जरा-सा ही भेद
होता है। और
आंख हो तो ही
भेद दिखाई पड़
सकता है, आंख
न हो तो बुझा
दीया जला दीया
दोनों एक जैसे
हैं। दीया तो
दीया है; हाथ
में लेकर वजन
तौलोगे तो जले
दीये में वजन ज्यादा
नहीं
होगा--उतना ही
होगा जितना
बुझे दीये
में। ज्योति
का कोई वजन
थोड़े ही होता
है। लेकिन फिर
भी जले दीये
में, बुझे
दीये में
जमीन-आसमान का
फर्क है। पर
आंखवाले को ही
फर्क है।
तो
ऐसा कीर्तन भी
हो सकता है, जो जला दीया
हो और ऐसा
कीर्तन भी, जो बुझा
दीया हो। ऐसी
प्रार्थना हो
सकती है जो
ज्योतिर्मय
हो और ऐसी
प्रार्थना, जो बिलकुल
बुझी-बुझी
राख। हिंदू-घर
में कोई पैदा
हुआ है और
बचपन से
सिखाया गया है
कि रोज रात सोते
समय राम का
स्मरण करके
सोना, तो
सोता है, रोज
राम का स्मरण
कर लेता है, आदत बन गई, यंत्रवत
पुनरुक्ति
करता है। इस
पुनरुक्ति का
विरोध है। यह
क्रिया-कांड
हुआ, क्योंकि
इसमें हृदय
नहीं है। और
फिर बाल्या भील
ने राम को
पुकारा, बेपढ़ा-लिखा
आदमी था, ठीक
से याद भी न रख
सका कि राम ही
पुकारना है, पुकारते-पुकारते
मरा-मरा
पुकारने
लगा--और मरा-मरा
पुकारते-पुकारते
ही उपलब्ध हो
गया! बाल्या
भील ऋषि
बाल्मीक हो
गया।
तुम
राम ही पुकार
रहे हो, तो
भी काम न
पड़ेगा और
बाल्या ने
मरा-मरा पुकारा
तो भी काम पड़
गया। उस
मरा-मरा
पुकारने में
भी अंतर का
भाव था, प्राणों
का संयोग था, आत्मा की
पुकार थी।
जहां आत्मा की
पुकार जुड़ जाती
है वहां
क्रिया-कांड
तिरोहित हो
जाता है। वहां
जीवित धर्म का
जन्म होता है।
मीरा ने भी गाये
गीत और शायद
लता मंगेशकर
भी मीरा के
भजन गाती है
और यह भी हो
सकता है कि
मीरा से भी
ज्यादा ढंग से
गाये, क्योंकि
मीरा कोई
गायिका तो न
थी। अभी लता
मंगेशकर को
कोल्हापुर
विश्वविद्यालय
ने पी एच. डी. की उपाधि
दी, मीरा
को कोई देता? जहर दिया था
लोगों ने। कोई
पी एच. डी. की
उपाधि मीरा को
देता? दूसरों
की तो बात छोड़
दो, अपनों
ने, परिवार
के लोगों ने, मीरा को मार
डालने के सब उपाय
किये थे।
पिटारी में
बंद रखकर सांप
भेजा, कि
प्याली में
भरकर जहर
भेजा। हो सकता
है लता मीरा
से भी बेहतर
गाये। गीत की
कला अलग बात, लेकिन मीरा
के टूटे-फूटे
शब्दों में भी
जो होगा वह
बड़े-से-बड़े
गायक के
सुंदरतम
सुव्यवस्थित गीत
में नहीं हो
सकता। दीया
मीरा का चाहे
टूटा-फूटा रहा
हो, मगर
उसमें ज्योति
थी। दीया चाहे
कुरूप रहा हो,
मिट्टी का
रहा हो, पर
उसमें ज्योति
थी। और
तुम्हारा
दीया चाहे सोने
का हो और
हीरे-जवाहरात
मढ़ा हो और
लाखों के उसके
दाम हों, लेकिन
अगर ज्योति
नहीं है तो
किस काम का है?
इस भेद को
स्मरण रखोगे
तो सरहपा या
मुझे समझने
में तुम्हें
आसानी होगी।
निश्चित
ही यहां भी
लोग नाच रहे
हैं, गीत गा
रहे हैं। और
और मंदिरों
में भी गीत गा
रहे हैं, नाच
रहे हैं। पर
भेद है, बड़ा
भेद है! यहां
कोई हिंदू
होने की वजह
से नहीं नाच
रहा, न कोई
मुसलमान होने
की वजह से गीत
गा रहा है, न
कोई ईसाई होने
की वजह से।
यहां तो वे
लोग इकट्ठे
हुए हैं
जिन्हें सत्य
की तलाश है; जिन्हें
सत्य की तलाश
नहीं है वे तो
जन्म से ही जो
धर्म मिलता है
उसी से तृप्त
हो जाते हैं। जन्म
से कहीं धर्म
मिला है? जन्म
से तो केवल
धारणाएं
मिलती हैं, धर्म नहीं।
जन्म से तो विश्वास
मिलते हैं, श्रद्धायें
नहीं। जन्म से
तो सिद्धांत
मिलते हैं, सत्य नहीं; शास्त्र
मिलते हैं, स्वानुभूति
नहीं। जन्म से
तो बंधी-बंधाई,
पिटी-पिटायी
लकीरें मिलती
हैं; जीवन
का उदघोष, अमृत
की खोज जन्म
से कैसे
मिलेगी?
जन्म
से कोई
धार्मिक नहीं
होता; ईसाई
होता है, जैन
होता है, मुसलमान
होता है, हिंदू
होता है; धार्मिक
नहीं होता।
धर्म की खोज
तो व्यक्ति की
निजता की खोज
है। प्रत्येक
व्यक्ति को इस
अभियान पर
निकलना होता
है। यहां तो
वे लोग इकट्ठे
हुए हैं
जिन्हें धर्म
की खोज है; जो
सच में ही
परमात्मा को
जानना चाहते
हैं, चाहे
कोई भी कीमत
चुकानी पड़े।
मेरे
साथ होना कीमत
चुकाने की
शुरुआत हो
गयी। तुमने
मुझसे नाता
जोड़ा कि तुम
मुश्किल में
पड़े, कि
तुम्हें हजार
झंझटें
होंगी। मेरे
साथ संबंध
जोड़ने से
तुम्हें
सुविधा तो एक
भी न मिलेगी, असुविधाएं
बहुत
मिलेंगी।
क्योंकि
मुझसे संबंध
जोड़कर तुम
किसी
संप्रदाय के
हिस्से नहीं
बन रहे हो।
मुझसे संबंध
जोड़कर तुम तो
दीवानगी सीख
रहे हो, दीवानों
की जमात के
अंग बन रहे
हो। तुम
अड़चनों में
पड़ोगे।
सरहपा
से जिन्होंने
संबंध जोड़ा वे
भी पड़े और जीसस
से जिन्होंने
संबंध जोड़ा वे
भी पड़े। हां, आज जो जीसस
से संबंध जोड़े
हैं उनको कोई
अड़चन नहीं है;
उनका जीसस
से कोई संबंध
नहीं है। अब
जन्मगत है
ईसाइयत। अब
बौद्ध होना
जन्म से हो
जाता है।
जरा
उन लोगों की
सोचो, हिंदुओं
की जमात में
जो पैदा हुए
थे, वेद और
उपनिषद और
गीता को
दोहराते जो
पैदा हुए थे, जिन्हें दूध
के साथ वेद
पिलाया गया
था--वे लोग जब
बुद्ध के साथ
चल पड़े थे तो
अड़चनें हुई
थीं, क्योंकि
बुद्ध जैसे
व्यक्ति सदा
ही मृत धर्मों
के विरोधी
होते हैं।
धर्म के
पक्षपाती जो हैं
उन्हें मृत
धर्म के
विरोधी होना
ही पड़ेगा। जीवन
के जो
पक्षपाती हैं
वे लाश की
पूजा करने के
पक्षपाती
नहीं हो सकते।
वे तो कहेंगे
कि यह सड़ी हुई
लाश है; इसे
जाओ और जला दो
चिता पर! वही
बुद्ध ने कहा
था, कि
तुम्हारे
शास्त्र, तुम्हारे
वेद किसी काम
के नहीं हैं।
लेकिन जो थोड़े-से
हिम्मतवर लोग
उनके साथ हो
लिए थे, तुम
जानते हो उनकी
अड़चनें? अब
जो आदमी बौद्ध
घर में पैदा
होकर बौद्ध हो
जाता है, क्या
तुम सोचते हो
इसकी उपलब्धि
वही होगी जो उन
पहले लोगों की
थी जो बुद्ध
के साथ चले
थे। इसको तो
कोई कीमत ही
नहीं चुकानी
पड़ रही। यह तो
मुफ्त बौद्ध
हो गया है। और
मुफ्त कहीं
कोई बौद्ध हो
सकता है, या
जैन हो सकता
है, या
हिंदू हो सकता
है?
धर्म
का संबंध जन्म
से नहीं
है--स्वयं की
खोज से है।
खोज महंगा
सौदा है। यहां
जो लोग इकट्ठे
हुए हैं वे खोजी
हैं। अगर वे
यहां नाच रहे
हैं तो यह
नाचना औपचारिकता
नहीं है।
क्योंकि यहां
कोई उनको नाचने
के लिए किसी
तरह की न
सुरक्षा दे
रहा है, न
सुविधा दे रहा
है, न
आश्वासन दे रहा
है। मैंने
तुमसे कहा
नहीं है कि
नाचोगे तो स्वर्ग
मिलेगा।
मैंने तुमसे
कहा नहीं है
कि ध्यान
करोगे तो
मोक्ष जाओगे।
मैं तो तुमसे
यह कह रहा हूं
कि नाचने में
स्वर्ग है, ध्यान में
मोक्ष है। फल
नहीं है
मोक्ष।
जहां
ध्यान का फल
मोक्ष होता है
वहां ध्यान क्रिया-कांड
हो जाता है।
तब तुम कर
लेते हो किसी
तरह, क्योंकि
लक्ष्य तो फल
पर लगा है, मन
तो फल पर लगा
है। अब चूंकि
ध्यान के बिना
मोक्ष नहीं
मिलेगा, इसलिए
ध्यान भी कर
लेते हैं, लेकिन
यह ध्यान बेमन
से हो रहा है।
अगर बिना ध्यान
के मिल सके तो
क्या तुम
ध्यान करोगे?
तुम्हें मेहनत
करनी पड़ती है
धन कमाने के
लिए तो तुम मेहनत
करते हो। मगर
मेहनत करने
में कोई रस
थोड़े ही है।
अगर कम मेहनत
करने से इतना
ही धन मिलता हो
फिर भी तुम
इतनी ही मेहनत
करोगे? और
अगर बिना
मेहनत करने से
धन मिलता हो, फिर क्या
तुम मेहनत
करोगे? मेहनत
में तुम्हें
कोई रस नहीं
है। अगर फल
मिल जाए बिना
श्रम के तो
कौन श्रम
करेगा? लेकिन
जिसे श्रम में
आनंद है, वह
कहेगा: फल
मिले या न
मिले, श्रम
मैं करूंगा।
जो सुबह-सुबह
घूमने गया है,
तुम उससे यह
नहीं पूछ सकते
कि तुम किसलिए
घूमने जा रहे
हो, तुम्हें
क्या मिलेगा?
वह कहेगा:
घूमना आनंद
है। उसका
घूमना
क्रिया-कांड
नहीं है। उसका
साधन और साध्य
एक है।
इसे
तुम परिभाषा
समझो, जब
साधन और साध्य
एक होता है तो
क्रिया-कांड नहीं
होता। जब साधन
और साध्य
अलग-अलग हो
जाते हैं तो
साधन
क्रिया-कांड
हो जाता है।
फलाकांक्षा-रहित
तुम कुछ भी कर
सको, वही
धर्म है। नाच
सको मस्त होकर,
नाचने में
ही आनंद हो, नाचने के
पार नजर ही न
हो, नाचने
के पार कुछ
आकांक्षा ही न
हो, नाचना
समग्र हो जाए,
तुम्हारे
पूरे प्राण को
डुबा ले, तुम्हारी
श्वास-श्वास
में रम जाए, तुम्हारे
रोएं-रोएं में
बैठ जाए--बस, इस नृत्य
में मीरा का
आविर्भाव हो
जाएगा। इस गीत
में सूरदास के
पद समा
जाएंगे। इस
चुपचाप बैठ
जाने में
बुद्धत्व की
अपने-आप गरिमा,
महिमा आ
जाएगी।
बुद्ध
बैठे वृक्ष के
नीचे और
उन्हें ज्ञान
उत्पन्न हुआ।
तुम भी वृक्ष
के नीचे बैठते
हो कि ज्ञान
उत्पन्न हो
जाए।
तुम्हारा
वृक्ष के नीचे
बैठना
क्रिया-कांड
है। तुम बैठो
जन्मों-जन्मों
तक, तुम अपना
भी समय खराब
कर रहे हो।
तुम वृक्ष को भी
परेशान कर रहे
हो। वृक्ष भी
तुमसे ऊबेगा
और तुम
बीच-बीच में
आंख खोल-खोलकर
देख लोगे अभी
तक ज्ञान मिला
नहीं, बुद्धत्व
आया नहीं?
बुद्धत्व
उस क्षण का
नाम है जिस
क्षण में तुम समग्रीभूत
रूप से डूब
जाते हो, फिर
वह नृत्य हो, मौन हो, गीत
हो, गान हो,
संगीत हो, कुछ भेद
नहीं पड़ता।
मौलिक बात एक
ही है: जिस क्षण
में तुम पूरे
लीन हो जाते
हो, तल्लीन
हो जाते हो, तन्मय हो
जाते हो, रसमय
हो जाते हो, तुम्हारे
भीतर कुछ भी
नहीं बचता, सब डूब जाता
है, उस
डुबकी का नाम
धर्म है।
तुमने
पूछा: आपने
कहा धर्म
साधना है, क्रिया-कांड
नहीं। निश्चय
ही साधना और
क्रिया-कांड
ऊपर से एक
जैसे दिखाई
पड़ते हैं; भेद
इतना ही है कि
साधना में
आत्मा होती है,
क्रिया-कांड
में आत्मा
नहीं होती।
जिंदा आदमी और
मरा हुआ आदमी
दोनों पास-पास
लेटे हों, एक
से दिखाई पड़ते
हैं; और
जिंदा आदमी ने
अगर थोड़ा योग
इत्यादि की
साधना की हो
और सांस रोककर
पड़ जाए तो
शायद चिकित्सक
भी भेद न कर
पाएं कि
मुर्दा कौन है
और जिंदा कौन
है? लेकिन
फिर भी जिंदा
जिंदा है और
मुर्दा मुर्दा
है। भेद कहां
है? ऊपर से
तो एक जैसे लगते
हैं अगर
तस्वीर लोगे
तो दोनों की
तस्वीर एक
जैसी आ जायेगी
और तस्वीर में
भेद करना मुश्किल
हो जाएगा, कि
कौन जिंदा है
कौन मुर्दा
है।
शास्त्र
तस्वीर हैं, इसलिए
शास्त्रों से
भेद करना
मुश्किल हो
जाता है कि
कौन जिंदा है
कौन मुर्दा
है। लेकिन अगर
तुम जाकर
टटोलोगे तो
छोटी-सी बात
बता देगी कि
कौन जिंदा है
कौन मुर्दा
है।
यूनान
में एक बड़ा
चित्रकार
हुआ। उसकी मौत
आई। कहानी बड़ी
प्रीतिकर है।
उसने अपनी ही
ग्यारह मूर्तियां
बना लीं और
उनमें छुपकर
खड़ा हो गया।
इतना बड़ा
कलाकार था वह, इतना बड़ा
मूर्तिकार था
कि लोग कहते
थे: अगर मूर्ति
मूल के पास
खड़ी कर दी जाए
तो दूर से बताना
मुश्किल है कि
कौन मूल है और
कौन मूर्ति है।
अपनी ही उसने
ग्यारह
मूर्तियां
बना लीं, खड़ा
हो गया। मौत
भीतर आई, मौत
भी चौंकी। एक
को ले जाना था,
वहां बारह
एक जैसे लोग
थे। किसको ले
जाए, किसको
न ले जाए? सब
एक जैसे थे।
रत्ती-भर भी
भेद नहीं था।
मौत वापिस लौट
गई। उसने
परमात्मा को
पूछा कि क्या
करूं, वहां
बारह लोग हैं?
परमात्मा
खूब हंसा।
उसने कहा:
आखिर तू मौत
है, मौत ही
रही। इतनी
छोटी-सी बात
तू पहचान न
पाई?
लेकिन
मौत है तो
जीवन को कैसे
पहचाने? परमात्मा
ने कहा:
छोटी-सी तरकीब
है, यह ले, यह जाकर ये
शब्द, ये
वचन बोल देना
बीच भवन में
और जो असली है
बाहर निकल
आएगा।
मौत
वापिस लौटी।
जैसा
परमात्मा ने
कहा था उसने
वैसा ही किया।
एक-एक मूर्ति
के पास गई, गौर से देखा
और सारी
मूर्तियों को
देखने के बाद
बोली: और तो सब
ठीक है, एक
भूल रह गई। वह
जो चित्रकार
था, एकदम
से बोला:
कौन-सी भूल? मौत ने कहा:
बाहर आ जाओ।
यही परमात्मा
ने मुझे सूत्र
दिया था कि
इतना बोल
देना। और जो
जिंदा है वह
बोल ही देगा
कि कौन-सी
भूल। यही भूल
कि तुम अपने
को नहीं भूल
सकते हो। बाहर
आ जाओ।
जिंदा
और मुर्दा
आदमी अगर
बिलकुल भी एक जैसे
मालूम होते
हों, तो भी एक
जैसे नहीं
हैं। ऐसा ही
साधना और क्रिया-कांड
का भेद है।
क्रिया-कांड
साधना की लाश है,
जिसमें से
प्राण उड़
चुके। पींजड़ा
पड़ा रह गया, पक्षी जा
चुका। हंसा उड़
गया। कभी हंसा
था। कभी
प्यारा पक्षी
पींजड़े में था,
तब सुबह
सूरज ऊगता था,
गीत भी
फूटता था
पींजड़े से।
पींजड़ा नहीं
गाता था गीत, याद रखना; पींजड़ा क्या
खाक गीत
गायेगा! मगर
पक्षी था भीतर
जो गीत गाता
था। हवायें
आती थीं तो
पंख भी फड़फड़ाता
था। अब पींजड़ा
ही रह गया। अब
सूरज अभी भी
ऊगता है और
हवायें अब भी
आती हैं, लेकिन
न कोई पंख
फड़फड़ाता है, न कोई गीत
गाता है।
पींजड़ा अब भी
है, पर
पींजड़े से
क्या होगा।
साधना
है जीवंत घटना
और
क्रिया-कांड
है उसी साधना
की पड़ी रह गई
लाश। दोनों एक
जैसे मालूम होते
हैं, इसलिए दो
तरह की
भ्रांतियां
हो सकती हैं।
पहली भ्रांति,
कि दोनों एक
जैसे मालूम
होते हैं
इसलिए लोग क्रिया-कांड
करते रहते हैं,
कि यह भी तो
साधना ही है।
आखिर मीरा भी
तो नाची थी! पद
घुंघरू बांध
मीरा नाची रे!
तो तुमने भी पद
घुंघरू बांध
लिए और तुम भी
नाचे। मगर
मीरा का प्राण
कहां है? हंसा
कहां है? वह
भाव कहां है? वह भक्ति
कहां है? घूंघर
तो बांध लिए, घूंघर तो
बाजार में मिल
जाते हैं। नाच
भी सीख लिया; वह भी कोई
कठिन नहीं।
मगर मीरा की
आत्मा कहां से
लाओगे? और
जब तक मीरा की
आत्मा नहीं है
तब तक कितना
ही ता ता थेई
थेई करो, ता
ता थेई थेई ही
रहेगा।
पींजड़ा पड़ा
है। सूरज ऊग
गया, गीत
नहीं फूटेगा।
गीत नहीं
फूटेगा, नहीं
फूट सकता है।
गीत गाओगे, बस कंठ से
निकलेगा, हृदय
से न आएगा।
तो
एक तो भूल यह
होती है कि
लोग समझते हैं
क्रिया-कांड
साधना है; फिर दूसरी
भूल यह हो
सकती है, सरहपा
या मेरे जैसे
लोग जब
क्रिया-कांड
का विरोध करते
हैं तो तुम
समझ लो कि
साधना का
विरोध हो रहा
है। यह उसी
भूल का दूसरा
पहलू है, उसी
सिक्के का
दूसरा पहलू
है। या तो लोग
समझते हैं कि
क्रिया-कांड
साधना है। अगर
विरोध करो क्रिया-कांड
का तो समझते
हैं कि साधना
का विरोध हो
रहा है। सरहपा
क्यों साधना
का विरोध करेंगे?
क्रिया-कांड
का विरोध कर
रहे हैं।
सोच-सोच
पग रखना।
सरहपा जैसे
लोगों के साथ
चलना हो तो
बहुत सोच-सोच
पग रखना। यह खडग
की धार है।
ले
ही लिया
असीरों ने
दीवानगी से
काम
जिंदां
में सर को फोड़
के, रोजन बना
दिया।
दीवाने
थे, फिकिर न
की, सिर
मार-मारकर
कारागृह की
दीवालों में
सेंध बना ली।
सिर मार-मारकर
सेंध बना ली।
ले
ही लिया
असीरों ने
दीवानगी से
काम
जिंदां
में सर को फोड़
के, रोजन बना
दिया।
साधना
तो दीवानों की
बात है। यहां
तो सिर मार-मारकर
दीवालें तोड़
ली जाती हैं।
एक
लफ्जे हू, सदा करने के
सौ अंदाज़ हैं।
नालए-नाकूस
है गोया
अजाने-बरहमन।।
सूफियों
का वचन है: एक
लफ्जे हू...! हू
सूफियों का मंत्र
है। जैसे ओम, ऐसा हू। हू
का अर्थ होता
है: वह, तत।
हू का अर्थ
होता है
परमात्मा का
नाम, परमात्मा
के नाम की एक
पुकार। हू, अल्लाऱ्हू
का आखिरी
हिस्सा है। एक
लफ्जे हू, सदा
करने के सौ
अंदाज़ हैं!
शब्द तो एक ही
है, ध्वनि
तो एक ही है हू,
लेकिन उसे
पुकारने के सौ
अंदाज़ हो सकते
हैं। हर
पुकारने वाले
पर अंदाज़ निर्भर
करेगा।
पुकारने-पुकारने
वाले का अंदाज
होगा, क्योंकि
पुकारने-पुकारने
वाले की आत्मा
उस हू के पीछे
खड़ी होगी।
एक
लफ्जे हू, सदा करने के
सौ अंदाज़ हैं।
नालए-नाकूस
है गोया
अजाने-बरहमन।।
और
वह जो पुजारी
शंख बजा रहा
है, उसमें और
मस्जिद में
उठती अजान में
जरा भी भेद
नहीं है। वह
जो मंदिर में
शंख बज रहा है,
अगर उसमें
आत्मा हो और
जो मस्जिद में
अजान उठ रही
है अगर उसमें
आत्मा हो, तो
ये एक ही
पुकार के दो
अलग अंदाज हैं,
एक ही पुकार
की दो अलग
तर्जें हैं, दो शैलियां
हैं। पुजारी
का ढंग है
अजान पढ़ने का
मंदिर में
घंटियां
बजाना।
मस्जिद में
घंटियों की
जगह अजान हो
रही है। वह भी
उसी की पुकार
है असली बात
एक है खयाल
में रखने जैसी,
कि जिससे
पुकार उठी है,
उसने सच
पुकारा है या
तोतों की तरह
केवल पुनरुक्ति
कर रहा है? आवाज
उससे ही आई है,
उसकी ही है,
अपनी है? अपने
प्राणों का
संग-साथ है, सहयोग है? और अगर वह न
हो तो फिर सब
फिजूल है। फिर
तुम बाजार से
प्लास्टिक के
फूल खरीद ला
सकते हो। खिड़की
में सजा ले
सकते हो, पड़ोसियों
को शायद धोखा
भी हो जाएगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
रोज अपनी
खिड़की में
लगाये हुए
फूलों में पानी
डालता। पड़ोसी
देखते कि लाता
है फव्वारा, उंड़ेलता है
फव्वारा, लेकिन
कभी पानी किसी
ने फव्वारे से
गिरते देखा
नहीं। आखिर एक
पड़ोसी से न
रहा गया, न
रहा गया। उसने
कहा: क्षमा
करें, आपने
उत्सुकता जगा
दी है। सोचता
हूं मैं क्यों
दखलन्दाजी
दूं, मगर
पूछना जरूरी
हो गया, क्योंकि
अब मैं इसके
बिना जाने सो
भी नहीं सकता।
यह बार-बार
मुझे खयाल आता
है कि मामला
क्या है, आप
डालते तो जरूर
हैं रोज पानी,
लेकिन पानी
मैं गिरते
नहीं देखता!
मुल्ला
ने कहा: पानी
गिराने की
जरूरत ही नहीं
है, ये फूल ही
कौन सच्चे हैं?
ये
फूल
प्लास्टिक के
हैं।
तो
उस पड़ोसी ने
कहा: अब तुमने
मुझे और
मुश्किल में
डाल दिया। अगर
फूल
प्लास्टिक के
हैं और पानी
डालते नहीं तो
नाहक फव्वारे
से डालने का
ढौंग क्यों
करते हो?
उसने
कहा: ताकि
पड़ोस के लोग
जानें कि फूल
सच्चे हैं; नहीं तो
पानी न डालो
और फूल लगे ही
रहें, लगे
ही रहें, लगे
ही रहें, तो
आज नहीं कल शक
हो जायेगा कि
फूल
प्लास्टिक के
हैं। इसलिए
पानी डालने की
कोई जरूरत
नहीं, सिर्फ
डालने का
बहाना करना
पड़ता है।
ऐसी
ही तुम्हारी
प्रार्थना है:
न फूल सच्चे
हैं, न पानी
सच्चा है, न
तुम पानी डाल
रहे हो।
पड़ोसियों को
धोखा दे रहे
हो--पड़ोस में
खबर बनी रहे
कि तुम
धार्मिक हो।
उस
जाने-बहारां
ने जब से मुंह
फेर लिया है
गुलशन से।
शाखों
ने लचकना छोड़
दिया, गुंचे
भी चटखना भूल
गये।
जब
तक तुम्हारे
भीतर उस
प्रीतम के
प्रेम का बसंत
है तब तक सब
ठीक है; तब
तक तुम जो करो
वही ठीक है; जैसे करो
वही ठीक है।
तुम जैसे उठो
वही उपासना है
और तुम जैसे
बैठो वही साधना
है। जब तक उस
प्यारे का
बसंत
तुम्हारे भीतर
छाया है...उस
जाने-बहारां
ने जब से मुंह
फेर लिया है
गुलशन
से...लेकिन जिस
क्षण से
तुम्हारा
परमात्मा की
स्मृति में
कोई रंग नहीं
रहा, रस
नहीं रहा, तुम्हारी
जड़ें नहीं रहीं,
शाखों ने
लचकना छोड़
दिया, गुंचे
भी चटखना भूल
गये! फिर उस
दिन से न तो
शाखें
लचकेंगी, न
तो शाखें
नाचेंगी और न
गुंचे
चटखेंगे और न
फूल खिलेंगे।
फिर तुम कागज
की तस्वीरें
लेकर बैठे रह
सकते हो। फिर
उन तस्वीरों
की तुम करते रहो
पूजा। तुम समय
ही गंवा रहे
हो।
क्रिया-कांड
का विरोध है।
साधना का कोई
विरोध नहीं
है। अब लोग
हैं जो
संस्कृत में
पूजा कर रहे
हैं, और
संस्कृत
उन्हें आती
नहीं। उसका
अर्थ भी उन्हें
पता नहीं है।
लोग हैं, अरबी
में नमाज पढ़
रहे हैं, उन्हें
अरबी आती नहीं;
उसका अर्थ
भी उन्हें पता
नहीं। जिसका
अर्थ भी पता
नहीं उसमें
तुम्हारी
आत्मा का क्या
जोड़ होगा?
समझ
में कुछ नहीं
आता,
पढ़े
जाऊं तो क्या
हासिल?
नमाजों
का है कुछ
मतलब तो
परदेशी
ज़बां क्यों हो?
तुम
दूसरों की
जबान बोल रहे
हो। तुम उधार
वचन बोल रहे
हो। इसलिए सब
क्रिया-कांड
हो गया है।
मैं
तुम्हें फिर
याद दिला दूं:
यहां हम जरूर
नाच रहे हैं, मगर यह नाच न
हिंदू का है न
मुसलमान का न
ईसाई का। यह
नाचने वालों
का नाच है। इस
नाचने का कोई लक्ष्य
नहीं है। यह
नाचना अपने
में ही अपना
लक्ष्य है। हम
आनंद से नाच
रहे हैं; यह
हमारा उत्सव
है। यह हमारी
पूजा नहीं है,
यह हमारी
प्रार्थना
नहीं है; यह
हमारा
धन्यवाद है।
इतना दिया है
अस्तित्व ने,
क्या हम उसे
धन्यवाद देने
के लिए नाचें
भी न? और जब
तुम्हारे
अनुग्रह से
कोई बात उठती
है तब उसका
रूप ही और
होता है, रंग
और होता है, उसका गौरव
और, गरिमा
और। तब दीया
जलता है। मगर
अंधे हाथों में
जले दीए बुझे
दीए में कोई
भेद नहीं
होता।
झेन
कथा है। एक
फकीर अपने
मित्र के घर
से वापिस
लौटता था। रात
देर हो गई थी।
मित्र ने कहा:
रुको, मैं
लालटेन जला
दूं, तुम
साथ लालटेन ले
जाओ। वह फकीर
हंसने लगा। उसने
कहा कि तुम
मुझे जानते हो,
मैं अंधा
हूं, मुझे
दिन और रात
में ही कोई
फर्क नहीं।
लालटेन भी ले
जाकर क्या
होगा? मुझे
तो अंधेरा ही
अंधेरा है।
लालटेन भी ले
जाऊंगा तो
मुझे क्या लाभ?
लेकिन
वह फकीर भी
बड़ा तार्किक
था। उसने कहा
कि सुनो, वह
तो मुझे मालूम
है कि तुम
अंधे हो, जीवन-भर
से तुम्हें
जानता हूं; लेकिन हाथ
में लालटेन
रहेगी, रात
बड़ी अंधेरी है,
वर्षा की
रात है, आकाश
में बादल घिरे
हैं, अमावस
है। हाथ में
लालटेन रहेगी
तो कोई दूसरा तुमसे
न टकरायेगा।
कम-से-कम इतना
बचाव हो जाएगा।
तुम्हें तो
कोई फर्क न
पड़ेगा, लेकिन
दूसरा तुमसे न
टकराएगा, इतना
भी क्या कम है?
आधी
सुरक्षा हो
जाएगी।
यह
तर्क ऐसा था
कि अंधे को
मान ही लेना
पड़ा। लेकर लालटेन
चला।
कोई
पचास कदम ही
गया होगा कि
कोई आकर टकरा
गया। अंधा तो
बड़ा हैरान
हुआ। अंधे ने
कहा कि भाई क्या
तुम भी अंधे
हो? इस गांव
में तो मैं
अकेला अंधा
हूं, तुम
कहां से आ गए? कोई परदेसी
मालूम होते
हो। तुम्हें
मेरे हाथ की
लालटेन नहीं
दिखाई पड़ती?
वह
दूसरा आदमी
हंसने लगा।
उसने कहा कि
क्षमा करें, मैं अंधा
नहीं हूं, लेकिन
आपके हाथ की
लालटेन बुझ गई
है, इसका
आपको पता नहीं
है।
अब
अंधा लालटेन
भी ले जाए तो
भी क्या होगा? रास्ते में
बुझ जायेगी तो
उसे पता भी न
चलेगा। अंधों
के हाथ में
साधनायें
पड़कर
क्रिया-कांड
हो जाती हैं--बुझी
लालटेनें हो
जाती हैं।
आंखवालों के हाथ
में बुझी
लालटेन पड़ जाए
तो वे जल्दी
ही उसमें
ज्योति जगा
देते हैं।
ऐसी
जन्मों-जन्मों, सदियों-सदियों
की बुझी
लालटेनों में
ज्योति जलाने
की यहां कोशिश
की जा रही है।
यहां हम सारी
विधियों को
पुनरुज्जीवित
कर रहे हैं। ऐसा
कोई स्थल
पृथ्वी पर
नहीं है, जहां
झेन साधना चल
रही है, सूफी
साधना चल रही
है; जहां
बौद्ध साधना
चल रही है; जहां
भक्तों का, ज्ञानियों
का, योगियों
का जो कुछ दान
है जगत को, उस
सबको
पुनरुज्जीवित
किया जा रहा
है। बुझी हुई
लालटेनें हैं
तुम्हारे हाथ
में, कोशिश
कर रहे हैं कि
उनमें ज्योति
जल जाए। हम क्रिया-कांडों
को साधना
बनाने में लगे
हैं। और तुमने
सारी साधनाओं
को
क्रिया-कांड
बना लिया है।
दूसरा
प्रश्न:
क्या
उपासना का कोई
भी मूल्य नहीं
है और यदि मूल्य
है तो फिर
विरोध क्यों?
किसने
कहा उपासना का
मूल्य नहीं
है। हां, तुम
जिसे उपासना
समझते हो उसका
कोई मूल्य नहीं
है। मगर वह
उपासना ही
नहीं है।
उपासना शब्द को
ही समझो जरा।
इसका अर्थ
होता है: पास
में आसन मारकर
बैठ जाना, उप+आसन।
तुमने
जरा इसके अर्थ
पर भी गौर
किया, कितना
प्यारा अर्थ
है! किसके पास
आसन मारकर बैठ
जाना? सदगुरु
मिल जाए, जिसके
भीतर ज्योति
जगी हो, उसके
पास आसन मारकर
बैठ जाने का
नाम उपासना है।
ये
तीनों शब्द एक
अर्थ रखते
हैं--उपासना, उपवास, उपनिषद।
तुम चौंकोगे,
क्योंकि
तुमने तो इनके
बड़े अलग अर्थ
कर रखे हैं।
उपासना का
अर्थ होता है:
पास बैठना।
उपवास
का अर्थ भी
होता है: पास
वास करना। वह
उपासना से भी
थोड़ा और आगे
बढ़ना है।
क्योंकि पास बैठे, कभी-कभी
नहीं बैठे।
कभी मिल गए
सत्संग में
फिर चले गए
दुनिया में।
उपवास का अर्थ
होता है: बैठे
सो बैठे, वास
ही करने लगे।
बैठे सो फिर
उठे नहीं।
और
उपनिषद का
अर्थ होता है:
पास बैठकर जो
मिल जाए। वह
जो संक्रमण
होता है। वह
और आगे की बात
है। क्योंकि
तुम बैठ ही गए, इतने से कुछ
नहीं होता। जब
धीरे-धीरे
तुम्हारा
चित्त बिलकुल
शून्य हो
जाएगा, बैठे-बैठे
जब तुम मिट
जाओगे, तब
उपनिषद घटित
होता है।
उपनषिद का
अर्थ होता है
गुरु से शिष्य
की शून्यता
में जब ज्योति
का प्रवेश
होता है। उसका
नाम उपनिषद।
उपासना...किसने
कहा कि इसका
कोई मूल्य
नहीं है? न
तो सरहपा ने
कहा न मैं
कहता हूं। कोई
भी जानने वाला
कैसे कहेगा? लेकिन फिर
भी सरहपा ने
कहा है और मैं
भी कहता हूं
कि तुम जिसे
उपासना मानते
हो, वह दौ
कौड़ी की है।
तुम्हारी
उपासना
बिलकुल झूठी
है, औपचारिक
है; थोथी
है। मूल्य है
उपासना का, और क्या
मूल्य है?
इसलिए
उपासना कि तू
न कहीं भूल
जाये!
ज्ञान
कर्म से
विरक्त;
व्यर्थ
ज्ञान
कर्म-त्यक्त!
ज्ञान-कर्म-बंध
में
उपासना
सबल सशक्त!
जीवन-संग्राम
में पैर कहीं
डगमगाये!
इसलिए
उपासना कि तू
न कहीं भूल
जाये!
लक्ष्य
ज्ञान का
सुदूर;
प्रगति-शील
पुरुष शूर
बढ़ता
है, किन्तु, हृदय
होता
जब चूर-चूर!
मात्र
एक स्मरण शेष
मुक्ति का चरम
उपाय!
इसलिए
उपासना कि तू
न कहीं भूल
जाये!
ज्ञान
हो न
कर्मऱ्हीन,
कर्म
हो न खिन्न, दीन;
हो
न जाये ज्ञान
का
प्रकाश
कहीं
मलिन-क्षीण!
नित्य, चिन्नवीन
रहे, अमर
ज्योति
जगमगाये!
इसलिए
उपासना कि तू
न कहीं भूल
जाये!
जिसे
स्मरण हो आया
हो परमात्मा
का उसके पास
बैठने का एक
ही अर्थ है:
इसलिए उपासना
कि तू न कहीं
भूल जाये! और
अगर भूल गए हो
तो याद आए।
इसलिए
उपासना कि तू
न कहीं भूल
जाए!
जीवन
संग्राम में
पैर कहीं
डगमगाये!
जिनके
पैर डगमगाने
बंद हो गए हैं, थोड़ा उनके
साथ चलो, तो
तुम्हारे भी
पैर थिर होने
लगें।
मात्र
एक स्मरण शेष
मुक्ति का चरम
उपाय!
इसलिए
उपासना कि तू
न कहीं भूल
जाये!
याद
दिलाती रहे
कोई परिस्थिति, कोई वातावरण,
कोई
ऊर्जा-क्षेत्र
तुम्हें
बार-बार तीर
की तरह चुभता
रहे, स्मरण
दिलाता रहे--
मात्र
एक स्मरण शेष
मुक्ति का चरम
उपाय!
इसलिए
उपासना कि तू
न कहीं भूल
जाये!
नित्य, चिन्नवीन
रहे, अमर
ज्योति
जगमगाये!
इसलिए
उपासना कि तू
न कहीं भूल
जाये!
और
हम भूले खड़े
हैं। हम बुरी
तरह भूल गए
हैं। हमें याद
ही नहीं रहा
कि हम कौन हैं, किसलिए हैं,
कहां से हैं,
किस ओर जा
रहे हैं? हमसे
ज्यादा
मूर्च्छित और
क्या है इस
अस्तित्व में?
हम बिलकुल
ही मूर्च्छित
हैं। तुम्हें
चौराहे पर कोई
आदमी मिल जाए
और तुम उससे
पूछो: कौन हो आप?
और वह कंधे
हिलाकर रह जाए
और कहे कि
मुझे कुछ पता
नहीं है। तो
क्या समझोगे?
समझोगे कि
पागल है, या
मजाक कर रहा
है, या नशे
में है? और
पूछो कि कहां
से आते हो, वह
फिर कंधे
बिचकाकर रह
जाए, कहे
कि मुझे कुछ
पता नहीं है।
और पूछो कहां
जाते हो, वह
फिर कंधे
बिचकाए और कहे
कि मुझे कुछ
पता नहीं है।
तो तुम डरोगे
उस आदमी से।
तुम जल्दी से
हट जाना
चाहोगे; यह
आदमी खतरनाक
मालूम होता है,
पता नहीं
पागल ही हो!
जिसे यह भी
पता नहीं है, कहां से आता
है, कहां
जाता है, कौन
है!
लेकिन
यही तो
तुम्हारी
जीवन के
चौराहे पर दशा
है। कहां से
आते हो? कौन
हो? कहां
जा रहे हो? क्या
है प्रयोजन
तुम्हारे
होने का? नहीं,
फुरसत ही
कहां है इस सब
बात को सोचने
की?
उपासना
का अर्थ है:
जहां किसी के
पास बैठकर किसी
की सन्निधि
में इन बातों
पर विचार हो, इन बातों पर
चिंतन हो, इन
बातों पर
ध्यान हो। ये
जीवन के मौलिक
प्रश्न जहां
तीर की तरह
तुम्हारे
प्राणों में
छिद जायें!
इसलिए
उपासना कि तू
न कहीं भूल
जाये!
पूछा
तुमने: क्या
उपासना का कोई
भी मूल्य नहीं
है। मूल्य है; लेकिन तुम
जिसे उपासना
समझते हो उसका
कोई भी मूल्य
नहीं है।
तुम्हारी
क्या है
उपासना? गए
मंदिर में, जल्दी से घंटी
बजा दी, सिर
पटक दिया
पत्थर की
मूर्ति के
सामने, भागे!
यह तो तुम
कितनी बार कर
चुके, क्या
हुआ? पत्थरों
की पूजा
करते-करते
अकसर तुम
पत्थर हो गए।
स्वाभाविक
है। जिसकी
पूजा करोगे
वैसे ही हो
जाओगे। जरा
पूज्य को
सोचकर चुनना,
क्योंकि
पूज्य का अर्थ
होता है, वह
निर्धारक
होगा। कोई
पीपल के झाड़
की पूजा कर
रहा है, इसको
उपासना कहता
है! किसी ने
पत्थर की
मूर्ति बना ली,
उसकी
उपासना कर रहा
है। कोई
शास्त्रों की
उपासना कर रहा
है! कोई कुछ
कोई कुछ...!
जीवंत
ज्योति खोजो!
कहीं कोई
बुद्ध मिल जाए, उसे खोजो।
कहीं कोई
सरहपा मिल जाए,
उसे खोजो।
कहीं जहां
जागरण हुआ हो,
जहां सुबह
हो गई हो, उससे
संबंध जोड़ो, सेतु बनाओ।
उस तरह के
संबंध का नाम
शिष्यत्व है।
और संबंध जुड़
जाए प्रकाश के
किसी पुंज से
तो उपासना।
और
तुम पूछते हो:
यदि मूल्य है
तो फिर विरोध
क्यों?
विरोध
तो है ही
नहीं। विरोध
तो गलत सिक्कों
का है। और गलत
सिक्के
बिलकुल सही
सिक्कों जैसे
मालूम होते
हैं; इसलिए
विरोध करना ही
होगा, बार-बार
करना होगा।
क्योंकि गलत
और सही सिक्के
की पहचान कैसे
होगी?
ऊपर
उठो, ऊपर उठो!
क्योंकि
तुम इन्सान हो;
परमात्मा
की जान हो!
तुम
गगन से और भी!
ऊपर
उठो, ऊपर उठो!
वृत्ति
पाशव छोड़ दो;
वेग
को तुम मोड़ दो!
हे
मनुज के
वंश-धर,
ऊपर
उठो, ऊपर उठो!
तुम
चढ़ो दिग्मरु
पर
तुम
बढ़ो, हो
अग्रसर!
धूम्र-वर्षा-मेघ
से
ऊपर
उठो, ऊपर उठो!
इसलिए
विरोध है, क्योंकि तुम
जहां पड़े हो
वह तुम्हारी
नियति नहीं
है। मंदिरों
में पूजा से
कुछ भी न
होगा। यह सारा
अस्तित्व
मंदिर हो जाए,
तब तक रुकना
नहीं है। जब
तक कण-कण
चिन्मय न हो जाए,
तब तक रुकना
नहीं है। इतना
बड़ा मंदिर है,
यह आकाश का
चंदोवा है, यह तारों से
भरा आकाश है।
इतना सुंदर
विश्व; इतना
अपूर्व, तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता; तुम
चले अपने
मंदिर अपनी
मस्जिद की तरफ।
यह परमात्मा
का मंदिर और
मस्जिद और
गिरजा और
गुरुद्वारा, इसे कब
देखोगे? आदमी
की ईंटों से
बने
मंदिर-मस्जिदों
को पूजते
रहोगे, आदमी
के द्वारा
निर्मित
पत्थरों के
सामने सिर
पटकते रहोगे?
ऊपर उठो, ऊपर उठो!
इसलिए
उपासना, कि
तुम्हें कोई
याद दिलाता
रहे। ऊपर उठने
में कठिनाई तो
है, क्योंकि
पंख खोलने
पड़ेंगे, जो
तुमने न मालूम
कितने जन्मों
से नहीं खोले।
और अनंत आकाश
का विस्तार
भयभीत करता है,
कंपाता है,
डराता है।
तुम घोंसलों
में छिपने के
आदी हो गए हो।
इसलिए तुम
सस्ती बातों
से राजी हो
जाते हो। बना
लिए मिट्टी के
गणेश जी, कर
ली पूजा, निपटारा
हो गया। और
अगर कोई कहे
कि यह तुम क्या
कर रहे हो, तो
तुम्हें चोट
लगती है, तुम्हारे
अहंकार को चोट
लग जाती है।
अभी
कुछ दिन पहले
मैंने कहा कि
मुहम्मद ने
सारी
मूर्तियों का
विरोध किया है
और ठीक किया
है, क्योंकि
उस परम की कोई
मूर्ति नहीं
बन सकती। उस
परम को किसी
रूप में नहीं
समाया जा सकता।
लेकिन फिर
मुसलमान हैं
कि काबा के
पत्थर की पूजा
कर रहे हैं।
यह तो मुहम्मद
की खिलाफत हो गई।
यह तो मुहम्मद
से दुश्मनी हो
गई। मैं मुहम्मद
के पक्ष में
हूं, इसलिए
मैंने यह कहा।
लेकिन
मुसलमान
इकट्ठे हो गए
जामा मस्जिद
में कि मैंने
मुहम्मद का
विरोध किया है,
मैं काबा के
पत्थर के
खिलाफ बोला
हूं। मैंने मुहम्मद
का विरोध नहीं
किया है। मैं
मुहम्मद का
पक्षधर हूं, इसलिए काबा
के पत्थर की
मैंने बात
उठाई। अब इससे
क्या फर्क
पड़ता है कि
तुम एक गढ़े
हुए पत्थर को
पूजते हो कि
अनगढ़े पत्थर
को पूजते हो, बात तो
पत्थर को
पूजने की है।
लेकिन
मुसलमान नाराज
हो जाते हैं, तब बड़ी
हैरानी होती
है। तब इतनी
हैरानी होती है
कि मुहम्मद को
मानने वाले
इसलिए नाराज
हो गए कि
मैंने काबा के
पत्थर का
विरोध किया
है। तो तुम
खाक समझे हो
मुहम्मद को!
तुम कभी समझ
सकोगे?
मगर
यही दशा औरों
की भी है--यही
जैनों की, यही बौद्धों
की, यही
हिंदुओं की, यही ईसाइयों
की। यह बड़े
आश्चर्य की
दुनिया है।
यहां जाग्रत
पुरुष जो कह
जाते हैं उनके
पीछे
चलनेवाले ठीक
उससे उल्टा
करते हैं, ठीक
उल्टा! और फिर
भी मानते हैं
कि वे अनुयायी
हैं। और अगर
कोई उन्हें
चेताए तो
दुश्मन मालूम
होता है।
अब
मुसलमानों ने
सारी
प्रादेशिक
सरकार को और केंद्रीय
सरकार को मेरे
खिलाफ पत्र
लिखे हैं कि
मैंने उनकी
धार्मिक
भावना को चोट
पहुंचा दी, कि मैंने
उनके जज्बात
को चोट पहुंचा
दी, कि
मेरे बोलने पर
रोक लगाई जाए।
अगर इस तरह के लोगों
को मुहम्मद से
मिलना हो जाए
तो ये मुहम्मद
के खिलाफ भी
इसी तरह का
शोरगुल
मचायेंगे, क्योंकि
मैंने जो कहा
वह वही है जो
मुहम्मद ने
कहा।
लेकिन
ऐसा ही अंधापन
है आदमियों
का।
उपासना
का विरोध नहीं
किया जा रहा
है यहां। लेकिन
कई बार
तुम्हें
लगेगा कि
विरोध किया जा
रहा है। जब भी
तुम्हें ऐसा
लगे कि विरोध
किया जा रहा
है तब तुम
समझना कि तुम
जिसे उपासना
समझते हो उसका
विरोध किया जा
रहा है। एक और
भी उपासना है
बुद्धों की, उसका तो
कैसे विरोध
किया जा सकता
है? और
विरोध इसीलिए
किया जा रहा
है कि तुम्हें
सच्ची उपासना
उपलब्ध हो सके।
तीसरा
प्रश्न:
ओशो, सत्य ही
कहता हूं, सत्य
ही सुनता हूं।
इस सत्यपन की
आदत से सभी रिश्तेदार
व मित्र साथ
छोड़ गये हैं।
सांसारिक होने
के कारण
अकेलापन बहुत
परेशान करता
है। काम
ईमानदारी से
करने और
ईमानदारी से
ही जीवन व्यतीत
करने में
शांति तो मिल
रही है, लेकिन
बच्चों के लिए
ईमानदारी का
पैसा कमाने में
रात-दिन काम
करता रहता हूं
और साधना नहीं
कर पाता।
कृपया मार्ग
दिखायें।
रोशन, कहीं
बुनियाद में
चूक हो रही
है। कहीं बड़ी
गहरी भूल हो
रही है। तुम
कहते हो: सत्य
ही कहता हूं, सत्य ही
सुनता हूं।
तुमने
किसी-न-किसी
अनजान क्षण
में इस सत्य
के पीछे अपने
अहंकार को जोड़
लिया है। बस
वहीं भूल हो
गई है। इसलिए
परेशानी हो
रही है, नहीं
तो परेशानी न
होती। यह सत्य
कहना तुम्हारा
आनंद नहीं है,
तुम्हारी
अस्मिता है।
और भेद बड़ा
है। दोनों में
भेद काफी बड़ा
है। ठीक से
समझ लोगे, इसी
क्षण उपद्रव
बंद हो जाएगा।
सत्य
कहना अगर
तुम्हारा
आनंद है, तो
यह प्रश्न
नहीं उठेगा।
तुम इतना आनंद
उठा रहे हो तो
उस आनंद के
लिए कुछ
चुकाओगे नहीं?
तो ठीक है, नाते-रिश्तेदार
छोड़ दिए, ठीक
है। असली
नातेदार, असली
रिश्तेदार तो
मिल
गया--सत्य--परमात्मा
से साथ बन रहा
है। अगर ये
साधारण
नाते-रिश्तेदार
साथ छोड़ रहे
हैं, छोड़ने
दो। इनसे तो
साथ छूट ही
जानेवाला है।
ये तो सब मतलब
के साथी हैं।
इससे हर्ज
क्या है? झंझट
ही मिटी। थोड़ा
उपद्रव कम
हुआ।
तुम्हारे जीवन
में और शांति
होगी और चैन
होगा। इनके
होने से क्या
होना था?
नहीं; लेकिन
तुम्हारे भीतर
आकांक्षा यह
रही होगा कि
मैं सत्य ही
कहता हूं और
सत्य ही सुनता
हूं, तो
सारे
नाते-रिश्तेदार
मेरा सम्मान
करें। कहीं
छिपी हुई
आकांक्षा रही
होगी कि इससे
मेरी प्रतिष्ठा
बढ़नी चाहिए, यह उल्टी घट
रही है? तुम्हारे
अहंकार की
पूजा नहीं
हुई।
और
ध्यान रखना, नाते-रिश्तेदारों
ने तय नहीं
किया है कि
उन्हें सत्य
ही कहना है और
सत्य ही सुनना
है। उनको उनके
ढंग से जीने
दो। उन पर
कृपा करो। यह
तुम्हारा
निर्णय है। और
निश्चित ही
उन्हें अड़चन होती
होगी, क्योंकि
वे झूठ में जी
रहे हैं। और
उन्हें झूठ
में जीना है
तो उसका हक है उन्हें।
पूरा हक है।
उन्हें पूरी
स्वतंत्रता
है। जैसे
तुम्हें
स्वतंत्रता
है सत्य में जीने
की, उन्हें
स्वतंत्रता
है झूठ में
जीने की।
और
निश्चित ही जो
लोग झूठ में
जी रहे हैं, वे सत्य में
जीने वाले
आदमी के साथ
तालमेल नहीं
पायेंगे।
हमेशा झंझट
खड़ी होगी।
हमेशा अड़चन आ
जाएगी। वे
तुमसे बचेंगे,
क्योंकि
तुम वही कह
दोगे, जैसा
है। तुम नंगा
सत्य कह दोगे।
तुम उसे कपड़े
भी न ओढ़ाओगे।
तुम थोड़ा उसे
मीठा भी न
करोगे। कड़वा
सत्य
वैसा-का-वैसा
कह दोगे। और
अगर कहीं सत्य
के पीछे
अहंकार छिपा
है, तो तुम
कड़वे को और
कड़वा कर दोगे।
तुम नंगे को
और नंगा कर
दोगे।
तुम्हारा मजा
उसमें होगा।
तो
नाते-रिश्तेदार
तो छोड़ ही
देंगे। इसमें
अड़चन क्या है? इसमें
तुम्हें
परेशानी क्या
है? सत्य
का जिसे साथ
मिल गया है
उसे कोई और
साथ चाहिए
नहीं।
पर्याप्त है
उतना
संगी-साथी।
उतना सत्संग
बहुत है।
लेकिन नहीं; तुम्हारे मन
में कहीं
आकांक्षा है
कि नातेदार
रिश्तेदार
छोड़ें न।
इसलिए तुम
अकेलापन
अनुभव कर रहे
हो। नहीं तो
जिसने सत्य से
संबंध जोड़ा है,
वह कभी
अकेलापन
अनुभव नहीं
करता है। सत्य
से साथ जिसका
जुड़ गया है, वह तो कभी भी
अकेला नहीं
होता, हो
ही नहीं सकता
अकेला। और सब
तरह के लोग
अकेले हो
जायें। किसी
ने रेडियो से
साथ जोड़ा है, किसी दिन
रेडियो बिगड़
जाता है तो
अकेला हो जाता
है। किसी ने
पत्नी से साथ
जोड़ा है, पत्नी
किसी दिन
नाराज हो गई
और नहीं बोलती,
अकेला हो
गया। किसी ने
बेटे से साथ
जोड़ा है, बेटा
बड़ा हो गया, अपने
काम-धाम पर
लगा, अपनी
दुनिया उसने
अलग बसा ली, जा बसा दूर, अकेला हो
गया। किसी से
तुमने प्रेम
किया, वह
मर गया। किसी
से तुमने
प्रेम किया, लेकिन उसका
किसी और से
प्रेम हो गया।
यह सब तो उजड़
जानेवाली
बस्तियां
हैं। यह तो
बरबाद हो जानेवाली
आबादियां
हैं।
लेकिन
सत्य से जिसने
संबंध जोड़ा
उसने तो
परमात्मा से
संबंध जोड़
लिया। अब इससे
तो छूटने का
कोई उपाय नहीं
है। अब तो तुम
जहां रहोगे
वहीं सत्य साथ
होगा, सत्संग
जारी रहेगा।
अब तो तुम
अकेले कैसे हो
सकते हो?
लेकिन
रोशन, तुम्हें
अकेलापन
मालूम हो रहा
है, उसका
मतलब साफ है।
तुमने सत्य को
आचरण की तरह
ओढ़ लिया है।
तुमने एक
जिद्द बना ली
है। तुमने अपने
अहंकार का
आभूषण बना
लिया है सत्य
को। तुम कहते
हो: मैं कोई
साधारण आदमी
नहीं हूं, सत्यवादी
हूं! सत्य ही
बोलूंगा, चाहे
सब छोड़कर चले
जायें। लेकिन
तब अकेलापन अनुभव
होगा।
सत्य
कोई जिद्द
नहीं होनी
चाहिए। सत्य
सरल होना
चाहिए। सत्य
कोई आग्रह
नहीं होना
चाहिए। सत्य
स्वानुभूत
होना चाहिए, स्वस्फूर्त
होना चाहिए।
सत्य ध्यान की
छाया होनी
चाहिए। वहीं
भूल हो गई।
तुमने ध्यान
तो किया नहीं
और तुम सत्य
का आचरण थोपने
की कोशिश किए।
जब भी कोई
आचरण को ऊपर
से थोपता है, इसी तरह की
झंझटें शुरू
हो जाती हैं।
और रोशन, तुम
आदमी भले हो, तुम्हारी
आंख में मैंने
झांक कर देखा
है। दो दिन
पहले ही रोशन
ने संन्यास
लिया है, तो
आदमी भले हो।
मगर गलत
धारणाओं में
जीये हो। आदमी
प्यारे हो, लेकिन
तुम्हारी अब
तक सोचने की
प्रक्रिया भ्रांत
रही है। तुमने
सत्यवादी
होने की
चेष्टा की है।
लेकिन चेष्टा
से जो सत्य
लाया जाता है,
वह कभी
जीवंत नहीं
होता। तुम सरल
नहीं हो। तुम
सत्य को हंसकर
अंगीकार नहीं
कर रहे हो।
तुम बड़े गंभीर
हो। तुमने
सत्य पर दांव
लगा दिया है।
तुम कुछ सिद्ध
करने में लगे
हो दुनिया के
सामने, कि
मैं सत्यवादी
हूं। क्या रखा
है सिद्ध करने
में? या तो
दुनिया के
सामने या
परमात्मा के
सामने, सिद्ध
करने में क्या
रखा है।
तुम
जीवन को थोड़ा
लीला समझो।
तुमने थोड़ी
गंभीरता से
जीवन ले लिया
है। अति
गंभीरता से ले
लिया है। वहीं
चूक हो गई।
थोड़ा हंसो।
थोड़ा मुस्कुराओ, थोड़ा जिंदगी
को सरलता से
लो। तब
तुम्हारे मन
में वे लोग जो झूठ
हैं उनके
प्रति भी
सदभाव होगा।
तब तुम अकारण
ही उनका झूठ
उघाड़ने को
राजी न हो
जाओगे। जहां
तक बनेगा, तुम
किसी का झूठ
उघाड़ोगे नहीं,
क्योंकि
तुम्हें क्या
प्रयोजन है? प्रत्येक
व्यक्ति को
अपने ढंग से
जीने का अधिकार
है, स्वतंत्रता
है। यह
परमात्मा
प्रदत्त
स्वतंत्रता
है। जब
परमात्मा ने
हक दिया है
लोगों को कि
चाहें सच्चे
हों चाहे झूठे
हों, तो
तुम उनका हक
मत छीनो। तुम
कौन हो।
अगर
कोई व्यक्ति
सत्यवादिता
को एक जिद्द न
बना ले, तो
सौ में से
निन्यानबे
मौके पर जब
झूठ देखेगा
दूसरे में, तो चुप रह
जाएगा, उपेक्षा
कर जाएगा; मुझे
क्या
लेना-देना है?
तुम हर एक
आंखवाले आदमी
को पकड़-पकड़कर
तो नहीं कहते
फिरते हो कि
तुम कनवे हो।
क्या जरूरत है,
क्या
प्रयोजन है? तुम हर
कुरूप आदमी को
तो पकड़कर नहीं
कहते कि तुम
कुरूप हो, देखो
दर्पण में
अपना चेहरा तुम
बिलकुल कुरूप
हो! क्या
प्रयोजन है? तुम कौन
निर्णायक हो?
और अगर तुम
हर आदमी का
चेहरा उसको
दर्पण में दिखलाओगे,
फिर अगर
नाते-रिश्तेदार
नाराज हो
जायें तो फिर
दुखी क्यों हो
रहे हो? तुम्हीं
ने उनको नाराज
किया है। तुम
उल्टी आकांक्षा
करते थे। तुम
चाहते थे, उनको
मैं नग्न भी
कर दूं, उनके
सत्य भी उघाड़
दूं, उनके
झूठ भी उघाड़
दूं और फिर वे
आयें और मेरा
सम्मान करें
और कहें कि
आपकी बड़ी कृपा
है कि आपने हम
पर बड़ा
अनुग्रह
किया। वे बदला
लेंगे। वे
तुम्हें सब
तरह से नुकसान
पहुंचायेंगे।
फिर उनकी भीड़
है।
मगर
तुम्हें इतनी
गंभीरता से
लेने की कोई
जरूरत नहीं
है। वे जानें, उनका
परमात्मा
जाने। वे
उत्तरदायी
होंगे परमात्मा
के सामने।
तुम्हारे
सामने वे
उत्तरदायी
नहीं हैं। और
कहीं भीतर
गहरे में लोग
तुम्हारे पास
आयें, तुम्हारा
सम्मान करें,
तुम्हें
स्वीकार करें,
समादर
करें--यह
आकांक्षा बनी
है। शायद सत्य
ही बोलूं सत्य
ही सुनूं!
इसके पीछे भी
कहीं यही भाव
तो नहीं था कि
सत्यवादी हरिशचंद्र
हो जाऊंगा तो
लोग सम्मान
देंगे?
ऐसा
समझाया गया है
लोगों को।
बच्चों को कहा
जाता है घरों
में, पाठशालाओं
में, स्कूलों
में, कालेजों
में कि तुम
सत्य बोलोगे
तो तुम्हें
सम्मान
मिलेगा। यह तो
बच्चे समझदार
होते हैं तो
वे समझ जाते
हैं बहुत
जल्दी कि ये
बातें कहने की
हैं, मगर
सीधे-सादे
भोले बच्चे
फंस जाते हैं।
तुम भोले-भाले
आदमी हो। तुम
फंस गये। यह
तो बच्चे समझ
जाते हैं। सब
समझदार बच्चे
समझ जाते हैं
कि ये बातें
कहने की हैं
कि सत्य
बोलोगे तो
सम्मान
मिलेगा, क्योंकि
जो यह बता रहा
है वह खुद ही
झूठ बोलता है!
एक
बाप बेटे से
कह रहा है कि
सत्य बोलना
चाहिए और
दरवाजे पर
भिखारी दस्तक
देता है और
बाप बेटे से
कहता है: कह दो
कि पिता जी घर
पर नहीं हैं।
तो बेटा देख
लेता है कि
मामला क्या है? अभी ये पिता
कह रहे थे कि
सत्य बोलो, सत्य धर्म
है; और ये
कह रहे हैं
भिखारी को कि
कह दो कि
पिताजी घर पर
नहीं हैं। और
बेटा जाता है
बाहर और कह देता
है कि पिताजी
कहते हैं कि
पिताजी घर पर
नहीं हैं। बाप
बड़े नाराज हो
गए कि तू कैसा
नासमझ है, यह
कोई कहने की
बात है?
हालांकि
वह सिर्फ सत्य
ही बोल रहा है, वैसा-का-वैसा
जैसा कहा गया
है। जल्दी ही
बच्चे समझ
लेते हैं कि
सत्य बोलो, ऐसे
सिद्धांत
दूसरों को
समझाने के लिए
हैं। इन
सिद्धांतों
का आचरण मत
करना। जीवन
धोखा है। बोलो
कुछ, करो
कुछ।
सच
तो यह है कि
सत्य बोलना
चाहिए, ऐसा
सबको समझाओ, तभी तो
तुम्हारा झूठ
काम आएगा; नहीं
तो तुम्हारा
झूठ कैसे काम
आएगा? मेरी
बात समझे? अगर
सभी लोग झूठ
बोलते हों और
सभी लोग मानते
हों कि झूठ
बोलना परम
धर्म है, तो
झूठ बेकार हो
जाएगा। समझो
कि यहां पांच
सौ आदमी बैठे
हुए हैं और
सभी ने यह तय
कर लिया है कि
झूठ ही
बोलेंगे और
तुम सबको पता
है कि झूठ
यहां धर्म है।
अब बड़ी
मुश्किल हो
जाएगी। तुम
किसी से पूछते
हो कितना बजा
है, वह
कहता है नौ
बजे हैं। तुम
जानते हो कि
वह झूठ बोल
रहा है। तुम
किसी से बोले
कि यह रास्ता
कहां जाता है?
वह कहता है,
नदी की तरफ
जाता है। तुम
समझ लो कि
पक्का है कि
नदी की तरफ
नहीं जाएगा यह
रास्ता और
कहीं ही
जाएगा। यहां
झूठ बोलना
धर्म है। अगर
यहां पाच सौ
आदमियों ने तय
कर लिया कि
जेब काटेंगे,
सबने तय कर
लिया है, जेब
कटनी मुश्किल
हो जाएगी।
असंभव ही हो
जाएगी!
मुल्ला
नसरुद्दीन पर
अदालत में
मुकदमा था कि उसने
गांव के सबसे
सीधे-साधु
आदमी को लूट
लिया। मजिस्ट्रेट
ने कहा कि
नसरुद्दीन
थोड़ी तो शर्म खाते।
तुम्हें गांव
में कोई और
लूटने को न
मिला, यह
सीधा-सादा
आदमी, यह
जो गांव का
सबसे
सीधा-सादा
आदमी है, यह
एक नमूना है
सतयुग का, इसको
तुमने लूटा?
नसरुद्दीन
ने कहा: मालिक, आप भी क्या
बात कर रहे
हैं! इसको मैं
न लूटूं तो किसको
लूटूं? यह
ही भर लुट
सकता है इस
गांव में, बाकी
तो सब पहुंचे
हुए लोग हैं।
मेरी भी मजबूरी
समझो। मैं और
किसको लूटूं?
और तो मुझे
ही लूट लेंगे।
यह एक ही बचा
मेरे लिए तो।
यह तो मेरे
धन्यभाग कि एक
सतयुगी भी है,
नहीं तो
मेरा तो किसी
पर उपाय ही न
चलेगा।
लोग
समझाते हैं
दूसरों को कि
सच बोलो, ईमानदारी
से रहो। ये
उपाय हैं, ताकि
अगर तुम्हें
बेईमानी करनी
हो तो तुम कर सको।
जितने लोग इन
बातों को मान
लेंगे उतने ही
लोगों के साथ
बेईमानी
होगी। लेकिन
कुछ भोले-भाले
लोग इन बातों
को मान लेते
हैं। वे जीने
लगते हैं इस
आशा में कि अब
मैं सच बोल
रहा हूं, सम्मान
मिलेगा। सच
बोलोगे, जगह-जगह
अपमान मिलेगा;
नहीं तो
सुकरात को लोग
जहर पिलाते
रोशन? वह
सच बोलने की
झंझट में पड़
गया, तो
जहर पिलाया।
लेकिन सुकरात
का सत्य ऊपर
से थोपा हुआ
सत्य नहीं था।
इसलिए वह दुखी
नहीं था। जहर
पीया उसने
आनंद से, मस्त
भाव से। उसने
शिकायत नहीं
की। उसने यह
नहीं कहा कि
यह क्या बात
है? किताबों
में लिखा है
कि जो सत्य
बोलेगा, उसको
सम्मान
मिलेगा, मुझको
जहर मिल रहा
है! उसने आनंद
से जहर पीया।
अदालत
ने सुकरात को
कहा था कि अगर तुम
यह वचन दे दो
अदालत को कि
तुम यह जो
सत्य बोलने का
उपद्रव मचाए
हुए हो, यह
बंद कर दोगे, तो हम
तुम्हें छोड़
सकते हैं, अगर
तुम आश्वासन
दे दो। सुकरात
ने कहा कि
नहीं, फिर
मैं जी कर ही
क्या करूंगा?
सत्य बोलना
ही तो मेरा
आनंद है। इससे
तो मौत बेहतर
है। लेकिन
सत्य बोलना
छोड़कर मैं जी
कर क्या
करूंगा?
यह
बड़ी और बात हो
गई। यह बड़ी
भिन्न बात हो
गई। सत्य से
कुछ पाना नहीं
है। सत्य
बोलना ही आनंद
है। लेकिन
रोशन, कहीं
तुम्हारे मन
में सत्य
बोलकर कुछ
पाने की आकांक्षा
है--पुण्य, सम्मान,
सत्कार।
यहां या परलोक
में। और
तुम्हारे भीतर
वह सब पाने की
भी आकांक्षा
है जो कि झूठ
बोलने वाले को
सरलता से मिल
रहा है। तो
तुम कहते हो: काम
में लगा रहता
हूं, क्योंकि
सचाई और
ईमानदारी से
काम करना है
तो बहुत काम
करना पड़ता है।
इसलिए सारा
समय तो काम में
चला जाता है।
रात-दिन
बच्चों की
सेवा में लगा
हूं। साधना
नहीं कर पाता।
अगर
तुम्हारे
हृदय से यह
बात उठी होती
तो यही साधना
थी, और क्या
साधना चाहिए?
साधना में
और क्या करोगे?
सत्य की
साधना कर रहे;
ईमानदारी
की साधना कर
रहे; और
क्या साधना
होगी?
नहीं, लेकिन तुम
चाहते हो कि
और कोई साधना।
मगर क्या करें,
मजबूरी है,
सचाई और
ईमानदारी के
कारण समय ही
नहीं मिलता, बामुश्किल
बच्चों के लिए
रोटी जुटा
पाते हैं। तुम
उसमें आनंद
नहीं ले रहे
हो। तुम चाहते
हो जैसे झूठ
बोलने वाले
मजा कर रहे
हैं, समय
है उनके पास, दिन-भर
पत्थर नहीं
तोड़ रहे हैं, जरा-सी
चालबाजियां
कर लेते हैं, तस्करी कर
लेते हैं, राजनीति
कर लेते हैं
थोड़ी-सी और
मजा करते हैं और
हिमालय की सैर
को जाते हैं।
और
तीर्थयात्रा
भी करते हैं, पुण्य भी
करते हैं, मंदिर
भी बनवाते
हैं।
देखते
हो न, बिड़ला ने
कितने मंदिर
बनवाये! ये
मंदिर तो बन गए,
लेकिन
बिड़ला जो भी
सामान बनाकर
छोड़ गए हैं, सब कचरा है।
उनकी
एम्बेसडर कार
देखते हो? मैंने
सुना है, जब
बिड़ला मरे और
स्वर्ग के
दरवाजे पर
पहुंचे, तो
और भी कई लोग
मरे थे। इतनी
बड़ी दुनिया
है! इसमें कोई
पादरी भी मरा
है, कोई
साधु भी मरा
है, कोई
संत भी मरा, कई लोग मरे
थे। लेकिन
सबसे पहले
बिड़ला के लिए दरवाजा
खोला।
देवदूतों ने
खूब बैंड-बाजे
बजाए। लाल मखमली
चादर बिछाई।
संत इत्यादि
तो बड़े नाराज
हो गए।
पंडित-पुजारी
तो बड़े नाराज
हो गए कि जिंदगी-भर
हम
प्रार्थना-पूजा
में लगे रहे!
पूछा उन्होंने
देवदूतों से
कि मामला क्या
है? हम
जीवन-भर
तपश्चर्या, व्रत, नियम,
उपवास सब किए
और ये जुगल
किशोर बिड़ला
को सबसे पहले
क्यों जाने
दिया जा रहा
है?
तो
उन्होंने कहा:
तुम्हें
मालूम नहीं
है। इस आदमी
ने एक ऐसी
गाड़ी बनाई है
कि जो भी
उसमें बैठते
हैं वे
राम-राम करते
रहते हैं।
इसने इतने लोगों
को राम-राम
करवाया है।
इसकी गाड़ी ऐसी
है कि उसमें
सब चीजें बजती
हैं, सिर्फ
हार्न को
छोड़कर। इसलिए
इतना सम्मान
किया जा रहा
है।
मगर
मंदिर
उन्होंने खूब
बनवाये! हार्न
बजे कि न बजे, मंदिर बज
रहे हैं।
मंदिर जगह-जगह
बनवा दिए।
अब
रोशन, तुम
सोचते हो कि
तुम मंदिर
बनवाओ कि
पुण्य करो कि
हरिद्वार जाओ
कि सत्संग करो,
मुश्किल
में पड़ोगे।
तुम भी चाहते
हो कि ऐसा कर
सकते। तुम्हारे
मन में कहीं
यह बात उठती
होगी कि सच बोलता,
सचाई से
जीता, ईमानदारी
से जीता। न
हरिद्वार जा
पाता, न
कुंभ का मेला
कर पाता, न
काशी-करवट
लेने का मौका
दिखता है कि
जाकर काशी में
देह को छोड़
देंगे और
स्वर्ग चले जायेंगे।
होना तो नहीं
था ऐसा। यह तो
बड़ा अन्याय हो
रहा है। अगर
तुम्हारे मन
में ऐसी
आकांक्षायें
हैं तो वे ही
आकांक्षायें
बता रही हैं कि
तुम भी चाहते
थे कि जैसे
झूठे लोग जी
रहे हैं, जीते।
रस तुम्हारा
उसी में था।
मगर सरलतावश तुमने
यह सत्य का
आवरण ओढ़ लिया
है। तुमने एक
अपने भीतर
द्वंद्व पैदा
कर लिया है।
खबर
नहीं है क्या
वजहे-पारसाईए
शेख?
गुनाह
हो न सका या
गुनाह कर न
सके?
इन
दोनों बातों
का भेद समझ
लेना: गुनाह
हो न सका या
गुनाह कर न
सके?
तुम
झूठ बोल न सके
या झूठ बोलने
की संभावना ही
न थी? तुम्हारे
भीतर जो सत्य
उठ रहा है, सम्हाल-सम्हालकर
उठाया या कि
यही तुम्हारी
नियति थी?
यही
नीति और धर्म
का भेद है।
नीति ऊपर से
थोपी जाती है, पाखंड होती
है। धर्म भीतर
से आता है, सहजस्फूर्त
होता है, तुम्हारी
अंतरधारा
होती है।
तुम
मेरे पास आ गए
हो, अब कृपा
करके इन नैतिक
धारणाओं को
छोड़ो। अब तुम
धार्मिक होना
सीखो और
धार्मिक होने
का अर्थ है: न
तो सत्य से
कोई धार्मिक
होता है, न
ईमानदारी से
कोई धार्मिक
होता है।
धार्मिक तो
केवल व्यक्ति
ध्यान से होता
है। और मजा
ऐसा है कि जब
ध्यान
तुम्हारे
भीतर सघन होगा
तो सत्य और
ईमानदारी और
पुण्य सब
अपने-आप पीछे
से चले आते
हैं। तुम एक
साध लो ध्यान,
और शेष सब
सध जाएगा।
अब
रही ध्यान
साधने की बात।
सवाल फिर
उठेगा रोशन कि
ध्यान साधें
कब? ध्यान
साधें कहां? फुर्सत कहां
है? वह
ईमानदारी और
सत्य और
बच्चों के लिए
धन कमाना, और
उसीमें तो समय
बीता जा रहा
है।
नहीं, ध्यान वहीं
सध जाएगा। तुम
जो कर रहे हो
उसे ही
ध्यानपूर्वक
करो, शांत
करो, मौन
करो, तनावरहित
होकर करो। तुम
जो भी कर रहे
हो, उसे ही
ध्यान में
रूपांतरित
किया जा सकता
है। प्रत्येक
कृत्य ध्यान
हो सकता है।
बस ध्यान का
एक ही अर्थ
होता है: शांत
भाव से, मौन
भाव से जो भी
कर रहे हो
करो। बुहारी
लगाओ कि रोटी
बनाओ कि कपड़े
साफ करो। रोशन
प्रेस चलाते
हैं, तो
प्रेस चलाओ।
कोई हर्जा
नहीं, मगर
जो भी करो
उसको अब ऐसे
करो जैसे यही
प्रार्थना है,
यही पूजा है,
यही ध्यान
है। परमात्मा
ने तुम्हें
यही करने को
दिया है, तुम
इसी को पूरे
मन से, समग्रता
से करो।
कबीर
कपड़ा ही बुनते
रहे, कपड़ा
बुनते-बुनते
पा गए। गोरा
कुम्हार
मिट्टी के घड़े
ही पकाता रहा,
घड़े
पकाते-पकाते
पा गया। रैदास
चमार जूते बनाता
रहा, जूते
बनाते-बनाते
पा गया। तो
कुछ अड़चन नहीं
है। तुम जहां
हो उस कृत्य
को परमात्मा
को समर्पित कर
दो। और अब
किसी नैतिक
कारण से नहीं,
बल्कि
ध्यान के आधार
से जीयो। और
फिर थोड़ा याद
रखो, कभी
थोड़ी भूल-चूक
हो जाए तो
इतना शोरगुल न
मचाओ। जीवन को
एक नाटक समझो।
अब
एक डाक्टर है, मरीज को
कैंसर हुआ है,
उदाहरण के
लिए तुमसे कह
रहा हूं: अगर
वह मरीज को
बता दे कि
तुझे कैंसर
हुआ है तो वह
जो तीन महीने
में मर रहा था,
तीन दिन में
मर जाएगा।
डाक्टर सच
बोले कि झूठ? अच्छा हुआ
कि रोशन
डाक्टर नहीं
हैं। न मालूम
कितने मरीजों
को मार डालते!
सच बोले कि
झूठ? अगर
सच बोलता है
तो यह मरीज
जितने दिन
जिंदा रह सकता
है उतने दिन
भी जिंदा नहीं
रहेगा। और वह
भी बड़ी बात
नहीं कि तीन
महीने जीया कि
छह महीने जीया,
वह कोई बड़ी
बात नहीं, मरना
तो है ही; मगर
जितने दिन
जीयेगा, अगर
इसे पता चल
गया कि कैंसर
है तो नरक में
जीयेगा उतने
दिन। उस सब का
जुम्मा किस पर
होगा? सत्यवादी
डाक्टर पर। ये
राजा
हरिशचंद्र! इन
पर जुम्मा
होगा उसका। नहीं,
डाक्टर
कहता है: कोई
फिक्र न करो, सब ठीक हो
जाएगा, कोई
खास मामला
नहीं है, सर्दी-जुकाम
है। और
कभी-कभी ऐसा
हो जाता है कि यह
सर्दी-जुकाम
कहना ही ठीक
होने का आधार
बन जाता है।
कभी-कभी ऐसा
हो जाता है कि
यह आदमी निश्चिंत
हो गया, कि
अरे
सर्दी-जुकाम
है। और हो सकता
है इसके कैंसर
के पीछे तनाव
और अशांति ही कारण
रही हो। इसको
कहीं भीतर शक
रहा हो कि कैंसर
तो नहीं है? आज-कल सभी को
शक होता है।
जरा ही कुछ
हुआ कि कैंसर
का शक होता
है। हो सकता
है उसी शक और
तनाव और परेशानी
के कारण इसको
कैंसर पैदा
हुआ हो। अगर चिकित्सक
ने मुस्कराकर
कह दिया कि
कुछ मामला ही
नहीं है, सर्दी-जुकाम
है, कुछ
दिन में ठीक
हो जायेगा।
दवा तो
चिकित्सक करेगा
कैंसर की, वह
दवा तो जारी
रहेगी; मगर
इस आदमी के
चित्त से तनाव
का बोझ उठ
गया। क्या तुम
सोचते हो
परमात्मा के
सामने इस
डाक्टर पर झूठ
बोलने का
इल्जाम लगेगा?
तो फिर तुम
समझे नहीं। तो
फिर तुम जीवन
का राज नहीं
समझे।
जिंदगी
कुछ गणित जैसी
साफ-सुथरी
नहीं है। जिंदगी
काव्य जैसी
है। उसे एकदम
जोर से पकड़ोगे
तो मुश्किल
में पड़ जाओगे, हाथ में जो
भी आएगा, कंकड़-पत्थर
आयेंगे, जीवन
के असली राज
छूट जायेंगे।
जिंदगी को इतनी
ज्यादा जिद्द
से न पकड़ो।
झूठ एकदम सदा
ही बुरा नहीं
होता। कुछ तो
बड़े प्यारे
झूठ होते हैं।
अब
सुबह किसी ने
तुमसे पूछा कि
कहिये कैसे
हैं, उसका कोई
मतलब यह नहीं
है कि अब आप
अपनी पूरी कथा
बतलाइये, कि
बिठालकर उसको
झाड़ के नीचे, कि सुनो, क्योंकि
तुमने पूछा, तब तो हम
सत्य ही
बोलेंगे।
उसने तो
बेचारे ने
सिर्फ सुबह शिष्टाचारवश
कहा था, कहिये
कैसे हैं? वह
इतना ही सुनना
चाहता था कि
आप जल्दी से
कहिये कि सब
ठीक है तो जाए;
उसे भी हजार
काम हैं। अब
मगर आप
सत्यवादी हैं;
आप कहते हैं
कि हम कैसे कह
दें कि सब ठीक
है। सब ठीक है
ही कहां? ठीक
कुछ भी नहीं
है। रुको! अब
तुमने पूछा है
तो बताना ही
पड़ेगा। और
तुमने खुद ही
पूछा है तो
उत्तर तो सत्य
देना पड़ेगा।
जिंदगी
को ऐसी जिद्द
से न पकड़ो।
जरा जिंदगी को
हलके-फुलके
लो। लीला है।
यही तो अर्थ
है लीला शब्द
का। इस देश ने
बड़ा प्यारा
शब्द खोजा है:
लीला। इसे थोड़ा
खेल की तरह
लो। इतने
ज्यादा अभिनय
को सचाई मत
मान लो।
और
फिर कुछ
थोड़ी-बहुत
भूलें जरूर
करो। तुम कहोगे, मैं भी क्या
समझा रहा हूं!
मगर मैं ऐसी
बातें समझाता
हूं। कुछ
थोड़ी-बहुत
भूलें करो।
उससे आदमी में
थोड़ी आदमियत
रहती है। उससे
आदमी में थोड़ी
भलमनसाहत...! जो बिलकुल
ठीक ही ठीक
करने की जिद्द
कर लेते हैं, उनके साथ
घड़ी-दो-घड़ी
रहना भी बड़ी
घबराहट की बात
हो जाती है।
इसीलिए
तुम्हारे
रिश्तेदार
संगी-साथी सब
छोड़ गए। वह तो
अच्छा हुआ कि
तुम भारत में
हो, इसलिए
पत्नी ने
तुम्हें अभी
नहीं छोड़ा, बच्चों ने
तुम्हें अभी
नहीं छोड़ा, नहीं तो वे
कभी का छोड़
दिए होते।
क्योंकि संतों
के साथ रहना
बड़ा कठिन काम
है। इसीलिए तो
लोग संतों के
जल्दी से पैर
छूते हैं, कहते
हैं: महाराज, अब जाते
हैं। चौबीस
घंटे अगर तुम
किसी असली संत
के साथ रह जाओ,
आत्महत्या
कर लोगे।
क्योंकि हर
चीज गलत है। तुम्हें
वह उठने नहीं
देगा, बैठने
नहीं देगा, हिलने नहीं
देगा, सांस
नहीं लेने
देगा। तुम जो
करोगे वही गलत
है। उसकी
निंदा से भरी
आंखें
तुम्हें
कीड़ा-मकोड़ा
बना देंगी।
फिर कुछ
परमात्मा पर
भी तो छोड़ो।
खुदा
की रहमत को
पारसा अब, अजाबे-दोजख
समझ रहे हैं।
उन्हें
गुमां तक न था
कि जन्नत
गुनाहगारों
को भी
मिलेगी।।
रोशन, तुम्हारे
साधु-संत जब
पहुंचेंगे
वहां और देखेंगे
कि पापी भी
स्वर्ग पहुंच
गए हैं, तो
उन्हें बड़ी
हैरानी होगी।
उन्हें तो
गुमां तक न
था...उन्हें
गुमां तक न था
कि जन्नत
गुनाहगारों
को भी मिलेगी!
मगर उस
परमात्मा की
अनुकंपा अपार
है! उसकी
अनुकंपा के
लिए थोड़ा-बहुत
अवसर दो। इसलिए
मैं कहता हूं
कि थोड़ी-बहुत
भूल-चूक करो, चलेगा।
उसकी
रहमत को नाज
हो जिस पर।
तुझसे
ऐसी असर ख़ता
ही न हुई।।
कवि
ने कहा है कि
मैं कैसा
अभागा हूं कि
ऐसी कोई बड़ी
खता न कर सका
कि परमात्मा
को भी अपनी
करुणा करने
में मजा आता, कोई ऐसी खता
न कर सका।
उसकी
रहमत को नाज
हो जिस पर।
तुझसे
ऐसी असर ख़ता न
हुई।।
पछताओगे
बहुत रोशन, जब परमात्मा
सामने देखेगा
तुम्हारे और
रोयेगा कि
तुमने कुछ खता
ही न की रोशन, कुछ मुझे
मौका देते
क्षमा करने
का! अब मैं क्या
करूं?
इसलिए
कहता हूं:
थोड़ी-बहुत
भूलें
चलेंगी।
छोटी-मोटी
भूलों का बहुत
शोरगुल न
मचाओ। अपने को
इतनी गंभीरता
से न लो।
अब
मेरे पास लोग
आ जाते हैं, वे कहते हैं
कि धूम्रपान
नहीं छूटता, और वह तो
छूटना ही
चाहिए!
इतनी
भी क्या तुमने
गंभीरता बना
रखी है? अब
कभी कर ही
लिया धुआं
बाहर-भीतर, तो ऐसी क्या
अड़चन हुई जा
रही है? वैसे
ही अब हवा में
इतना धुआं है,
कारों से
निकल रहा है, इंजिनों से
निकल रहा है, फैक्ट्रियों
से निकल रहा
है। अब तो हवा
में इतना धुआं
है कि सभी
धूम्रपान कर
रहे हैं, अब
कहां तुम...किस
जमाने की
बातें तुम कर
रहे हो?
अभी
न्यूयार्क का
निरीक्षण हुआ
है।
न्यूयार्क का
वैज्ञानिकों
ने परीक्षण
किया तो हैरान
हुए।
न्यूयार्क की
हवा में इतना
जहर है, जितने
जहर में आदमी
जिंदा रहना ही
नहीं चाहिए।
मगर आदमी
जिंदा है!
आदमी भी खूब
है! अब पता ही नहीं
था, अभी तक
तो जिंदा रहे
आए, अब
शायद मरें। अब
शायद सोचें कि
यह बात ठीक
नहीं है, यह
नियम के
अनुकूल नहीं
हो रहा। अभी
तक पता ही नहीं
था। आदमी के
मरने के लिए
जितना जहर हवा
में चाहिए, उससे कई
गुना ज्यादा
जहर हवा में
है। खासकर न्यूयार्क,
लास
एंजेल्स, बंबई,
कलकत्ता
जैसे नगरों
में। मगर आदमी
जीए जा रहा है।
इसलिए
मैं कहता हूं: जीवन
को इतनी
गंभीरता से न
लो। थोड़ा-बहुत
तुमने धुआं पी
लिया, क्या
बना-बिगाड़
लोगे किसी का?
मगर कुछ लोग
छोटी-छोटी
बातों को
गंभीरता से लेते
हैं। उसका
कारण क्या है?
उसका कारण
यह नहीं है कि
वे धार्मिक
हैं। उसका कुल
कारण इतना है
कि उनके
अहंकार को
बाधा पड़ रही
है। लोग कह
देते हैं कि
अरे आप, और
धूम्रपान
करते हैं। आप
और धूम्रपान!
बस अहंकार को
चोट लगी। ये
अहंकार की वजह
से ही सारे प्रश्न
उठ जाते हैं, अन्यथा
जिंदगी सरल
होनी चाहिए।
अब
कोई आ जाता है, वह कहता है
कि चाय नहीं
छूटती। पागल
हो गए हो? अगर
मेरी मानो तो
मैं तुमसे कहता
हूं कि
परमात्मा भी
चाय पीता है।
न मानो, तुम्हारी
मर्जी। और जब
तुम पहली दफा
परमात्मा को
मिलोगे तो वह
कहेगा कि चाय
पीयेंगे कि काफी?
फिर तुम
मुश्किल में
पड़ोगे, कि
अब क्या करें!
तुम्हारे
अहंकारों को
चोटें लग रही
हैं, बस।
सारे
बौद्ध भिक्षु
सारी दुनिया
में चाय पीते
हैं, कोई अड़चन
नहीं है। असल
में चाय की
ईजाद ही बोधिधर्म
ने की--एक
बौद्ध भिक्षु
ने की।
छोटे-मोटे
भिक्षु ने
नहीं, बुद्ध
की हैसियत के
भिक्षु ने की!
इसलिए तो कहता
हूं कि
परमात्मा चाय
पीता होगा, नहीं तो
बोधिधर्म
पहुंच गए, उनने
सिखा दी होगी।
बोधिधर्म बड़ी हिम्मत
का आदमी था।
और बोधिधर्म
ने अपने शिष्यों
को कहा कि चाय
जरूर पीयो, क्योंकि यह
ध्यान में
सहयोगी है, क्योंकि जब
तुम चाय पी
लेते हो तो
नींद नहीं आती।
और ध्यान में
नींद सबसे बड़ी
बाधा है। नहीं
तो अकसर ध्यान
करने बैठे
हैं। आंख बंद
की कि झपकी
खानी शुरू
हुई। चाय पीकर
बैठे तो जरा
झपकी नहीं
आती। तो बौद्ध
आश्रमों में
चाय तो ध्यान
का अंग रही
है।
अब
ये मानने की
बातें हैं! अब
कोई और
बोधिधर्म किसी
दिन आ जाए और
कहे कि
धूम्रपान
करने से ध्यान
में सुविधा
होती है, क्योंकि
धूम्रपान से
भी वही होता
है, निकोटिन
जो चाय में है,
वही
धूम्रपान में
है, दोनों
से आदमी का
जागरण बढ़ता
है। अभी
प्रतीक्षा है
किसी
बोधिधर्म के
आने की। जरूर
आयेगा कोई न
कोई
बोधिधर्म।
जीवन
को सरलता से
लो। यह
बोधिधर्म
मुझे प्यारा
लगता है। इतना
जिंदगी को
उलझाओ मत। ऐसी
हर छोटी-छोटे
बात के उपद्रव
खड़े न करो, अन्यथा इसी
में सड़ जाओगे,
इसी में
परेशान हो
जाओगे।
जिंदगी
एक उत्सव है।
इस उत्सव में
बहुत शिकायतें
न उठाओ। और
ऐसे जबरदस्ती
दबा-दबाकर
बैठने जाओगे
तो यह फिर-फिर
उभरेगा।
तशद्दुद
को तशद्दुद से
दबा लें, यह
तो मुमकिन है।
मगर
शोले को शोले
से बुझाया जा
नहीं सकता।।
हिंसा
को हिंसा से
दबा लें, क्रोध
को क्रोध से
दबा लें, यह
तो मुमकिन है।
तशद्दुद
को तशद्दुद से
दबा लें, यह
तो मुमकिन है।
मगर
शोले को शोले
से बुझाया जा
नहीं सकता।।
तुम
दबा-दबाकर बैठ
गए हो। हल्के
हो जाओ। सरल हो
जाओ। और फिर
ध्यान से भी
एक सत्य उठेगा, लेकिन उस
सत्य का स्वाद
और, गंध
और। उस सत्य
में कहीं
आग्रह नहीं
होता। उस सत्य
में किसी पर
आरोपित होने
की चेष्टा
नहीं होती। उस
सत्य में
डुंडी पीटने
का भाव नहीं होता।
मैं
सत्यपूर्वक
ही जीऊंगा, ऐसी कोई
जिद्द नहीं
होती, हठाग्रह
नहीं होता।
परिस्थिति, समय, जो
अनुकूल होगा
वैसा करूंगा।
बोधपूर्वक
जीऊंगा, बस
इतना
पर्याप्त है।
अगर कभी झूठ
भी बोलना पड़ेगा
तो बोधपूर्वक
बोलूंगा, क्योंकि
कभी झूठ बोलना
भी धर्म हो
सकता है। और
कभी सच बोलना
अधर्म हो सकता
है।
एक
आदमी को फांसी
लगने जा रही
है, अगर तुम
सच बोल दो। और
अगर झूठ बोल
दो, उसकी
फांसी बच जाए।
और फांसी का
कारण कुछ
क्षुद्र भी हो
सकता है, बिलकुल
क्षुद्र हो
सकता है।
अब
तुम झूठ
बोलोगे कि सच? और फिर यह
आदमी अगर मार
भी डाला जाए
तो भी इसने जो
कृत्य किया है
वह कृत्य तो
हो ही चुका।
इंग्लैंड
का एक सम्राट
अपने वजीर को
फ्रांस भेज
रहा था, लेकिन
फ्रांस में जो
सम्राट था बड़ा
झक्की था। उस
वजीर ने कहा:
मालिक, आप
मुझे भेज तो
रहे हैं, लेकिन
वह आदमी बड़ा
झक्की है और
मैंने खबर
सुनी है कि
उसने कहा है
कि वह आए वजीर,
उसकी गर्दन
उतरवा दूंगा।
मेरी गर्दन
उतर जायेगी
मालिक!
सम्राट
ने कहा: तू
फिकिर मत कर, अगर तेरी
गर्दन उसने उतारी
तो उसके सौ
आदमियों की
गर्दन मैं
उतरवा दूंगा।
तू बिलकुल
फिकिर मत कर।
पर
उसने कहा: वह
तो मैं समझ
गया कि आप सौ
की उतरवा
देंगे, मगर
मेरी उससे
जुड़ेगी नहीं।
मेरी उतरी सो
उतर ही गई। अब
उसमें सौ की
उतरे कि हजार
की, उससे
मेरी नहीं
जुड़ेगी। और सौ
की उतर
जायेगी। मेरे
पत्नी-बच्चे
रोयेंगे, और
सौ के
रोयेंगे।
इससे क्या हल
होगा?
फांसी
जब एक आदमी को
लगती है तो
समाज सिर्फ मूढ़तापूर्ण
बदला ले रहा
है, और कुछ भी
नहीं।
मूढ़तापूर्ण
बदला! इसने
कोई कसूर किया
है, जरूर
किया है; मगर
अब वही कसूर
इसके साथ समाज
करे, इससे
क्या हल है? फिर इसने
कसूर किया है
तो इसका इलाज
होना चाहिए।
फांसी से क्या
होगा?
अब
तो
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
दुनिया में जितने
भी अपराधी हैं, सभी
मनोवैज्ञानिक
रूप से रुग्ण
हैं। उनकी चिकित्सा
होनी चाहिए।
उनको कोड़े
मारो, उनके
हाथ काट दो, कि उनकी
गर्दन काट
दो--यह तो
मूढ़तापूर्ण
है। और
व्यक्ति
मूढ़तायें
करते हैं, तो
हम क्षमा करते
और जब पूरा
समाज मूढ़ता
करता है, न्याय
का बड़ा धोखा
और टट्टी खड़ी
करके न्याय की,
और बड़ी
अदालतें और
बड़े
मजिस्ट्रेट
और बड़े ढंग से
जब वही काम
करता है, जो
उसने बेढंगे
ढंग से किया
है, तो हम
कहते हैं:
बिलकुल ठीक हो
रहा है, सब
सुंदर हो रहा
है, होना
ही चाहिए। जब
एक आदमी किसी
को मार डालता है
तो पाप है और
जब पूरा समाज
मिलकर किसी को
मारता है तो
पुण्य है! यह
कैसी दुनिया
है।
यहां
अगर अदालत में
रोशन किसी
आदमी की फांसी
लगती हो और
तुम्हारे झूठ
बोलने से बचता
हो तो मैं
तुमसे कहता
हूं: झूठ बोल
देना। इतनी
गंभीरता से न
लो।
होशपूर्वक
करो, जो भी कर
रहे हो, बस।
और होश बड़ी
बात है। लेकिन
तुम सत्य की
जिद्द में पड़
गए हो, इससे
तुम अड़चन में
हो। और
तुम्हारी
अड़चन न मिटेगी।
जब तक तुम यह
जिद्द न छोड़
दो।
और
अपने काम को
साधना समझो।
जो भी करो उसे
प्रभु को
समर्पित करो।
उसे प्रभु के
चरणों में
सेवा के लिए
ही कर रहे हो, ऐसा मानकर
करो। बच्चे भी
तुम्हारे तो
नहीं, परमात्मा
के हैं।
आखिरी
प्रश्न:
ओंकार
का आपने विरोध
किया, इससे
मन को ठेस
पहुंची।
कृपया
समझावें कि
ऋषि-मुनियों
ने सदा ओंकार
का समर्थन क्यों
किया है?
किसने
ओंकार का
विरोध किया? मैंने? तुम
होते यहां हो,
मगर होते
नहीं। सुनते
मुझे हो, मगर
गुनते अपनी
हो।
मैंने
कहा ओम-ओम
जपने से कुछ
भी न होगा और
तुम समझ गए
ओंकार का
विरोध! मैंने
इसीलिए कहा कि
ओम-ओम जपना मत, क्योंकि
ओम-ओम जो
जपेगा उसके
भीतर ओंकार
कभी पैदा न
होगा। मैं तो
ओंकार का
पक्षपाती हूं,
इसलिए कहा।
अब
यह बड़ी
मुश्किल है। न
मुसलमान मुझे
समझेंगे न
हिंदू मुझे
समझेंगे। मैं
मुहम्मद का
पक्षपाती हूं, इसलिए काबा
का विरोध
किया। और मैं
ओंकार का पक्षपाती
हूं, इसलिए
ओम के जाप का
विरोध किया।
मगर कब तुम समझोगे?
समझोगे या
नहीं समझोगे?
जब तुम
ओम-ओम जपते हो
तो तुम अपने
ऊपर से चित्त से
थोप रहे हो
ओम-ओम, तुम्हें
पता नहीं है
कि तुम्हारे
भीतर ओंकार की
सतत धारा बह
रही है। उसे
सुनना है, जपना
नहीं है।
ओंकार सुना
जायेगा, जपा
नहीं जाता।
तुम शांत हो
जाओ, मौन
हो जाओ, बिलकुल
चुप हो जाओ, सन्नाटा
पैदा करो।
उतना काम
तुम्हारा है।
चित्त का
शोरगुल बंद
करो और अचानक
तुम पाओगे एक घड़ी,
जब सारा
शोरगुल जा
चुका है और
चित्त के
मार्ग पर कोई
यात्री नहीं,
कोई विचार
नहीं, कोई
कल्पना नहीं,
कोई वासना
नहीं। जब
चित्त
निर्विचार है,
अचानक तुम्हारे
भीतर के
अंतर्तम से
ओंकार उठेगा।
वह अनाहत नाद
है। तुम्हारे
करने का सवाल
नहीं है।
ऐसा
ही समझो कि ये
चिड़ियां हैं, ये टी वी टुक
टुक, टी वी
टुक टुक
चिड़ियाएं कर
रही हैं। चुप
होकर सुनो, सुनाई पड़ा।
मगर तुम क्या
कर रहे हो, तुम
झाड़ के नीचे
बैठे हो और कह
रहे हो टी वी
टुट, टी वी
टुट, टी वी
टुट, टी वी
टुट...कैसे
सुनोगे? सुनोगे
कब? खाक
सुनोगे! और
मैंने तुमसे
कहा यह टी वी
टुट मत करो, तो आप आ गए कि
ओंकार का
विरोध हो गया!
तुम्हारे भीतर
नाद हो रहा है,
तुम सुनो।
बस चुप हो
जाओ। चुप्पी
एकमात्र साधना
है। मौन
एकमात्र उपाय
है। उस मौन
में संगीत
बहेगा।
बज
रहा है शंख, प्रति-ध्वनि
से भरा संसार!
दिश-विदिश
में गूंजता है
एक वह ओंकार!
एक
वह झंकार
अविरल हो रही
सब ओर!
छू
रही जिसकी
तरंगें
सूर्य-शशि का
छोर!
बज
रहा है एक ही
वह, कौन जाने,
तार?
और
सातों स्वर
सुरीले कर रहे
गुंजार!
राग-रागिनियां
विविध ये, रंग-रूप
अपार!
सब
उसी का गीत
गाते, कर
रहे शृंगार!
मेघ
का गर्जन, प्रपातों का
अजस्र निनाद
कोकिला
की कूक, वीणा
का मधुर
सम्वाद!
एक
ही वह शब्द
अव्यय, एक
ही उल्लास!
व्याप्त
है जिससे जगत, पाताल से
आकाश!
ध्वनि-प्रतिध्वनि, विश्व औ, प्रतिबिंब
का जो ध्यान,
आत्म-साक्षात्कार
ही देगा तुझे
वह ज्ञान!
शब्द
के पीछे कहां
तू जायेगा, किस ओर?
शब्द
का उदगम पकड़
तू, शब्द का
धर छोर!
बज
रहा है शंख, युग से हो
रहा घननाद!
व्याप्त
है चारों
दिशाओं में
अमर आह्लाद!
बज
रहा है शंख, प्रति-ध्वनि
से भरा संसार!
दिश-विदिश
में गूंजता है
एक वह ओंकार!
ओंकार
गूंज ही रहा
है। ओंकार इस
जगत की विषय-वस्तु
है। यह जगत
बना ही ओंकार
से है। यह
सारा जगत
ओंकार का नाद
ही है। तुम
चुप हो जाओ।
तो जिन्होंने
तुम्हें
सिखाया है कि
बैठकर और माला
हाथ में लेकर
और फेरते रहो
गुरिये और
करते रहो और
ओम ओम ओम वे
तुम्हें झूठा
सिक्का दे रहे
हैं। और अगर
यह सिक्का
तुम्हें पकड़
गया और अगर
इसकी तुम्हारे
भीतर आदत बन
गई, तो इसी के
पीछे छिपा
ओंकार है, वह
तुम्हें कभी
अनुभव में न आ
पायेगा।
शब्द
को नहीं पकड़ना
है; जहां से
शब्द पैदा
होता है, उस
स्रोत में
उतरना है।
शब्द
के पीछे कहां
तू जायेगा, किस ओर?
शब्द
का उदगम पकड़
तू, शब्द का
धर छोर!
कहां
से तुम्हारे
भीतर से शब्द
पैदा हो रहे
हैं, उस स्रोत
की तरफ चलो, उस मूल उदगम
की तरफ चलो।
तुम्हारे
चैतन्य की धारा
कहां से आ रही
है, उस
स्रोत को
पकड़ो।
गंगोत्री में
उतरो। और वहीं
तुम्हें सब
मिल जायेगा
जिसकी तलाश
है--आनंद और
सौंदर्य और सत्य,
या सबका
इकट्ठा नाम
परमात्मा।
जो
जहां से चला, उसका वहीं
चार विराम।
पुण्यफल
उद्यान, निश्रेयस,
अमर आराम;
जो
जहां से चला, उसका वहीं
चार विराम।
ज्योति
की
ऊर्जात्तरंगों
में प्रवाहित
प्राण;
ज्योति
में ही एक दिन
होंगे समाहित
प्राण;
प्रामाणिक
दिक्क ल, रवि-नक्षत्र
ज्योतिर्धाम।
जो
जहां से चला, उसका वहीं
चार विराम।
परिधि
का हर बिन्दु
होगा
केन्द्रगत, विश्वास;
केन्द्र
सविता हो कि
कविता या कि
शिव कैलाश;
रूप
अंत स्वरूपगत, हर नाम अंत
अनाम।
जो
जहां से चला, उसका वहीं
चार विराम।
चाक
मिट्टी
प्रजापति या
सुदृढ़
इंगितऱ्यष्टि;
व्यक्तियों
में जो
विभाजित
भासमान
समष्टि;
सृष्टि
लय हो कर
कहेगी--शून्य
ब्रह्म
प्रणाम।
जो
जहां से चला, उसका वहीं
चार विराम।
सृष्टि
के संगीत का
सम, शून्य है
स्वर-स्रोत;
शून्य
में कैवल्य
रस-साकल्य
ओत-प्रोत;
शून्य
केवल कृष्ण; सब में रम
रहे, वह
राम।
जो
जहां से चला, उसका वहीं
चार विराम।
राम
सब में हैं, सभी के
प्रति समर्पण
भाव;
कृष्ण
सब में हैं, परस्पर
क्यों न हो
अपनाव?
क्यों
न सब गतिचक्र
में यति बन, करें
विश्राम?
जो
जहां से चला, उसका वहीं
चार विराम।
मिलें
यति-गति, खिले
अंतर्लय, वलय
आनंद;
चतुष्पद
हों, चतुर्भुज
हों, चतुर्मुख
हों छंद;
गीत
हो जीवन, नियत
श्रुति
मूर्छना स्वर
ग्राम।
जो
जहां से चला, उसका वहीं
चार विराम।
जहां
से हम चले हैं
वहीं हमें
पहुंच जाना
है। जो हमारा
मूल है वही
हमारा
गन्तव्य है।
ओंकार मूल है, ओंकार गन्तव्य
है। मगर मैं
तुम्हें उन
मंत्रों में
उलझने को न
कहूंगा, जो
तुमने ही बना
लिये हैं। मैं
तुम्हें
शब्दों में
उलझने को न
कहूंगा।
निशब्द में
जाना है, शून्य
में जाना है।
सृष्टि
के संगीत का
सम, शून्य है
स्वर-स्रोत;
शून्य
में कैवल्य, रस-साकल्य
ओत-प्रोत;
शून्य
केवल कृष्ण, सब में रम
रहे, वह
राम।
जो
जहां से चला, उसका वहीं
चार विराम।
तुम
पूछते हो:
ओंकार का आपने
विरोध किया, इससे मन को
ठेस पहुंची।
ठेस
पहुंची तो
अच्छा हुआ।
उतना तो अच्छा
हुआ, क्योंकि
मन को तो
मिटाना है; ठेस
पहुंच-पहुंच
कर ही मिटेगा।
मन को तो चोट करनी
है।
मगर
मैंने ओंकार
का विरोध नहीं
किया। हां, तुम्हारे मन
में ओम के
प्रति आसक्ति
रही होगी। तुम
शायद जप करते
रहे होओगे ओम
का, इसलिए
तुम्हें ठेस
पहुंची, तुम्हें
चोट पहुंची।
पूछते
हो: कृपया
समझावें
ऋषि-मुनियों
ने सदा ओंकार
का समर्थन
क्यों किया है?
वही
तो मैं कर रहा
हूं।
ऋषि-मुनियों
को क्यों बीच
में लाना? मैं खुद ही
वही कर रहा
हूं। लेकिन
तुम्हारी धारणाओं
को जब भी
जरा-सी चोट
पहुंचती है, तुम तिलमिला
जाते हो। तुम
मिटने को राजी
ही नहीं हो और
बिना मिटे कुछ
भी न होगा। और
मैं अगर तुम्हें
न मिटाऊं तो
फिर मेरा कोई
प्रयोजन
नहीं। मेरा
अर्थ ही यही
है, मेरे
साथ तुम्हारे
होने का अर्थ
ही यही है कि मैं
तुम्हें
मिटाऊं, कि
मैं तुम्हें
बिलकुल शून्य
कर दूं, कि
मैं तुम्हारे
कागज को फिर
कोरा कर दूं।
उस कोरे कागज
में ही उतरता
है
परमात्मा--उस
शून्यता में
ही संगीत सुना
जाता है--अनंत
का, अनादि
का।
मन
को लगे चोट, मन को लगे
ठेस, तो
समझना कि कुछ
सार्थक बात
हुई। मन को
ठेस लगे तो
भाग मत खड़े
होना। मन की
सुरक्षा मत
करने लगना। मन
ही तो
तुम्हारा
शत्रु है।
उससे ही तो तुम्हें
छुड़ाना है।
उन्मन करना है
तुम्हें। और
जिस दिन तुम
उन्मन हो
जाओगे, उस
दिन तुमने सब
पा लिया।
आज
इतना ही।
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